कश्मीर से संबंधित प्रदर्शन और चर्चा पर हैदराबाद विश्वविद्यालय ने लगाई रोक

जिस दिन केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन की घोषणा की उस दिन हैदराबाद विश्वविद्यालय के 8 छात्र संगठन राज्य के बंटवारे के खिलाफ और अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के विरोध में एक साथ आ गए. मिधुन मोहन

We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing

5 अगस्त को राज्यसभा ने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक पारित कर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया था. इसके साथ ही सरकार ने राज्य को विशेषाधिकार देने वाले अनुच्छेद 370 को भी प्रभावकारी रूप से निष्क्रिय कर दिया. सरकार के इस कदम के खिलाफ हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने विरोध प्रदर्शन और सार्वजनिक चर्चा आयोजन करने के प्रयास किए लेकिन विश्वविद्यालय ने इन प्रदर्शनों पर रोक लगा दी और कश्मीर से संबंधित पैनल चर्चा की अनुमति नहीं दी. प्रदर्शन को रोकने के लिए विश्वविद्यालय परिसर में पुलिस और त्वरित कार्य बल (आरएएफ) की तैनाती की गई थी. मैंने इस बारे में विश्वविद्यालय छात्रों और अध्यापकों से बात की. उनके अनुसार, सरकार का यह कदम छात्र समुदाय की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विरोध करने के अधिकार को दबाने का प्रयास है.

जिस दिन केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन की घोषणा की उस दिन हैदराबाद विश्वविद्यालय के 8 छात्र संगठन राज्य के बंटवारे के खिलाफ और अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के विरोध में एक साथ आ गए. छात्र गृहमंत्री अमित शाह का पुतला जलाना चाहते थे. विरोध कर रहे संगठनों में भारतीय छात्र संघ, अंबेडकर छात्र संगठन, मुस्लिम छात्र संघ, दलित छात्र संगठन, अखिल भारतीय छात्र संगठन, स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गेनाइजेशन और जम्मू-कश्मीर छात्र संगठन शामिल थे. प्रदर्शन शाम 6.30 बजे शुरू होने वाला था और बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी छात्र विश्वविद्यालय परिसर के अंदर बने साउथ शॉपिंग कंपलेक्स में एकत्र हुए थे.

इसके तुरंत बाद बड़ी संख्या में पुलिस और आरएएफ के जवान विश्वविद्यालय में घुस आए और छात्रों को तितर-बितर कर दिया. इन लोगों ने विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार पी. सरदार सिंह द्वारा जारी एक नोटिस भी पढ़ कर सुनाया. इस नोटिस में 5 अगस्त की तारीख है और इसे विश्वविद्यालय ने वेबसाइट पर प्रकाशित किया है. नोटिस में छात्रों को सूचित किया गया है कि पुलिस ने साइबराबाद में भारतीय दंड संहिता की धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू की है. जिसके तहत पांच या अधिक लोगों को एक स्थान पर एकत्र होने की पाबंदी है. नोटिस में लिखा है, “यह सूचित किया जाता है कि विश्वविद्यालय परिसर में तत्काल प्रभाव से सभी तरह के विरोध और आंदोलनों पर रोक लगाई जाती है.”

उसी दिन पुलिस ने यूनिवर्सिटी परिसर के नार्थ शॉपिंग कॉम्प्लेक्स से जम्मू-कश्मीर के छात्र समूह को भी हटा दिया. यहां छात्र कश्मीर की स्थिति पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए थे. विश्वविद्यालय से संचार में मास्टर कर रहे हैं और जम्मू-कश्मीर छात्र संगठन के अध्यक्ष हादिफ निसार उस वक्त वहां मौजूद थे जब पुलिस वहां पहुंची. निसार ने बताया, “हम बहुत घबराए हुए थे क्योंकि घरवालों से बातचीत नहीं हो पा रही थी. बहुत से छात्र अपने मां-बाप से संपर्क नहीं कर पा रहे थे इसलिए संगठन के अध्यक्ष होने के नाते मैंने समस्या को आर्थिक अथवा मनोवैज्ञानिक तरीके से संबोधित करने का प्रयास कर रहा था. जब हम बातचीत कर रहे थे, पुलिस वहां आ गई और हमसे कहा कि हम वहां से चले जाएं क्योंकि धारा 144 लागू है अन्यथा वह हमें गिरफ्तार कर लेगी. बाद में जब प्रदर्शन होने वाला था तब पुलिस एक बार फिर वहां आई और प्रदर्शन को रोक दिया. पुलिस ने छात्रों को धमकी भी दी.” निसार मानते हैं कि यह कैंपस के भीतर जमा होने और अपनी असहमति व्यक्त करने के लोकतांत्रिक अधिकार के खिलाफ है.

हालांकि इसके अगले दिन लाइव मिंट नाम की वेबसाइट ने साइबराबाद कमिश्नरी का एक वक्तव्य प्रकाशित किया जो विश्वविद्यालय के नोटिस से अलग था. वक्तव्य में कहा गया है, “धारा 144 साइबराबाद क्षेत्र में लागू नहीं की गई है क्योंकि यहां स्थिति सामान्य है.” 9 अगस्त को विश्वविद्यालय ने एक अन्य आदेश जारी किया जिसमें कहा गया था कि कैंपस के अंदर प्रदर्शन को निषेध करने वाला 5 अगस्त का नोटिस “ तत्काल प्रभाव से वापस लिया जा रहा है”.

लेकिन इसके कुछ दिन बाद विश्वविद्यालय ने कश्मीर पर होने वाली चर्चा की अनुमति वापस ले ली. सामाजिक विज्ञान विभाग के छात्रों के समूह ‘दि सोशल साइंस फोरम’ और ‘सांस्कृतिक संगठन अभियान’ ने 13 अगस्त को विश्वविद्यालय के 5 अध्यापकों के साथ इस मामले पर पैनल चर्चा का आयोजन किया था. चर्चा का शीर्षक था “कश्मीरः 370 एंड बियोंड” (कश्मीरः 370 के बाद). सोशल साइंस फोरम के छात्रों ने मुझे बताया कि 8 अगस्त को डीन ऑफ ह्यूमैनिटीज सरत ज्योत्सना ने पैनल चर्चा के लिए सभागार के इस्तेमाल की अनुमति दी थी. छात्रों ने बताया कि कार्यक्रम शुरू होने से 45 मिनट पहले बिना कोई कारण बताए अनुमति रद्द कर दी गई. पुलिस और आरएएफ कार्यक्रम स्थल पर मौजूद थे. छात्रों ने सभागार के बाहर पैनल चर्चा का आयोजन किया. छात्र बताते हैं कि पुलिस ने सभागार की मंजूरी को रद्द किए जाने वाले पत्र को दिखा कर कार्यक्रम रद्द करने की कोशिश की थी.

हैदराबाद यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर जी. विजय पैनल चर्चा के सदस्य थे. वह बताते हैं, “हम वहां वक्ता के रूप में गए थे. हमने देखा कि वहां पुलिस मौजूद है. यदि विश्वविद्यालय प्रशासन कार्यक्रम को रद्द करना चाहता था तो उसे वहां आकर बात करनी चाहिए थी. पुलिस ने हमें सभागार की अनुमति को रद्द करने वाला पत्र दिखाया था न कि कार्यक्रम को रद्द करने वाला.” पुलिस की मौजूदगी के बावजूद छात्रों ने कुछ शिक्षकों की मदद से सभागार के बाहर चर्चा का आयोजन किया. चर्चा के खत्म होने तक पुलिस वहां मौजूद थी.

इसके तुरंत बाद कैंपस में एक वीडियो वायरल हो गया. इस वीडियो में देखा जा सकता है कि छात्र ज्योत्सना से सभागार की मंजूरी वापस लिए जाने के बारे में बहस कर रहे हैं. जब छात्र उनसे पूछते हैं, “मैडम, हमें चर्चा रोकने की वजह बताइए” तो वह कहती हैं, “कोई वजह नहीं है. विश्वविद्यालय के बाहर जाकर चर्चा कीजिए.”

विश्वविद्यालय के प्रवक्ता विनोद पावराला ने मुझे बताया की अनुमति को इसलिए रद्द किया गया था क्योंकि कार्यक्रम के आयोजकों ने विषय की जानकारी गलत दी थी. परिसर में कार्यक्रम के संबंध में लगाए गए पोस्टर में अलग विषय लिखा है. छात्रों द्वारा अनुमति आवेदन में “लोकतंत्र और असहमति” पर चर्चा की बात है जबकि पोस्टर पर “कश्मीरः 370 एंड बियोंड” लिखा है.

विनोद ने आगे बताया कि विश्वविद्यालय ने जुलाई 2016 में एक सर्कुलर जारी कर कैंपस के भीतर सार्वजनिक जगहों पर पब्लिक चर्चा और विरोध प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया था. सर्कुलर में कहा गया है कि केवल यूनिवर्सिटी के लेक्चर हॉल और सभागार में “इन-हाउस मीटिंग” करने की अनुमति है. साथ ही, सर्कुलर में ऐसे आयोजनों से पहले अनुमति लिए जाने को बाध्यकारी बना दिया गया है. विनोद ने इस संबंध में आगे कुछ भी कहने से इनकार कर दिया. हालांकि टाइम्स ऑफ इंडिया से हुई बातचीत में विनोद ने दावा किया है, “संस्थानिक नियमों के अंतर्गत बहस और चर्चा यूनिवर्सिटी में जारी रहेगी. हम विश्वविद्यालय परिसर में चर्चा और बहस का वातावरण विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.”

विश्वविद्यालय के थिएटर कला के एसोसिएट प्रोफेसर राजीव वेल्लीचेट्टी ने मुझे बताया, “इस बात पर विवाद है कि धारा 144 लागू थी या नहीं. पुलिस ने धारा 144 की घोषणा की और पता चला कि कमिश्नर ने साइबराबाद इलाके में 144 लागू न होने का वक्तव्य जारी किया था. पुलिस जो भी कर रही है उससे सवाल खड़ा होता है कि जब वह कार्यक्रम विश्वविद्यालय कार्यक्रम की तरह आयोजित हो रहा था तो पुलिस को वहां आने की क्या जरूरत थी. विश्वविद्यालय को पुलिस को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए.”

कश्मीर में चर्चा के अलावा छात्रों के अन्य आयोजनों को भी रोका गया. 20 अगस्त को ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आईसा) ने फिल्म निर्माता आनंद पटवर्धन की 1992 की फिल्म राम के नाम की स्क्रीनिंग का आयोजन किया था. इस चलचित्र में बाबरी मस्जिद गिराए जाने में विश्व हिंदू परिषद की भूमिका को दर्शाया गया है. विश्वविद्यालय द्वारा जारी वक्तव्य में कहा गया है कि डीन ऑफ सोशल साइंसेज पी. वेंकट राव ने न्यू सेमिनार हॉल में फिल्म की स्क्रीनिंग की अनुमति इसलिए नहीं दी क्योंकि “छात्र संगठनों के कार्यक्रम के लिए स्कूल की जगह का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.” इसके बाद छात्रों ने कक्षा के भीतर फिल्म की स्क्रीनिंग करने का प्रयास किया लेकिन पुलिस ने आकर उन्हें रोक दिया. पुलिस ने एक लैपटॉप जब्त कर लिया और एसएफआई के पूर्व सचिव आरिफ अहमद सहित छह लोगों को हिरासत में ले लिया. इसके विरोध में छात्रों ने यूनिवर्सिटी के मेन गेट को ब्लॉक कर दिया. हालांकि तेलंगाना पुलिस ने 6 छात्रों को हिरासत में लेने की बात अस्वीकार की है. पुलिस ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि यूनिवर्सिटी रजिस्ट्रार की मौखिक शिकायत पर पुलिस ने दखल दिया था.

गच्चीबौली पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर आर. श्रीनिवास ने समाचार पत्र को बताया, “हमें सूचना मिली थी कि विश्वविद्यालय प्रशासन की मंजूरी न होने के बावजूद छात्र फिल्म की स्क्रीनिंग कर रहे हैं. जब हम कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे और हमने लैपटॉप जब्त कर लिया तो छात्र हमसे बहस करने लगे. हमने उन्हें हिरासत में नहीं लिया क्योंकि जब हमने उनसे कहा कि उनको हमारे साथ पुलिस स्टेशन चलना होगा ताकि हम लैपटॉप की सामग्री की जांच कर सकें तो वे मान गए.” छात्र शाम को यूनिवर्सिटी परिसर लौट आए और एसएफआई और आइसा के छात्रों ने नार्थ शॉपिंग परिसर तक मार्च निकाला और उपकुलपति अप्पा राव पोडिले का पुतला जलाया.

विश्वविद्यालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में लिखा है, “हमें यह देख कर दुख होता है कि पुलिस हमारे छात्रों को हिरासत में ले रही है, चाहे वह ऐसा अल्पावधि के लिए ही क्यों न कर रही हो. हम विश्वविद्यालय समुदाय, खासकर हमारे छात्रों से संबंधित मामलों के समाधान के लिए पुलिस बुलाना नहीं चाहते. मात्र ऐसी स्थिति में जब उग्र उकसावे और परिसर में अशांति का भय हो, प्रशासन को पुलिस को बुलाने के लिए मजबूर होना पड़ता है. हम इस बात पर जोर देना चाहते हैं कि मामले के निपटारे के लिए पुलिस को बुलाना विश्वविद्यालय की नीति का हिस्सा नहीं है.”

हैदराबाद विश्वविद्यालय के सोशल साइंस के पूर्व डीन और मानव अधिकार कार्यकर्ता जी. हरगोपाल ने मुझे बताया, “भारत में शिक्षा परिसर तेजी से निरंकुश बनते जा रहे हैं जो सभी लोकतांत्रिक मान्यताओं का निषेध है.” फिलहाल हरगोपाल बेंगलुरु के नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर हैं. वह कहते हैं, “विश्वविद्यालय में निरंकुशता की संस्कृति का कारण तीव्र आर्थिक और सांस्कृतिक संकट है. लेकिन जनता की बढ़ती लोकतांत्रिक चेतना के कारण भी ऐसा होता है. छात्र समुदाय अपने आत्मसम्मान और अपनी आजादी के प्रति जागरूक हो रहा है.” हरगोपाल मानते हैं कि आज जिनके हाथों में भारत की सत्ता की बागडोर है उनमें प्रशासन चलाने का विश्वास कम है और इसलिए वे संस्थाओं को मिटा रहे हैं. लेकिन इसके साथ-साथ छात्र अपने अधिकारों की दावेदारी कर रहे हैं और उनकी दावेदारी लोकतांत्रिक ताकतों को मजबूत बनाएगी.” हरगोपाल मानते हैं, “आज हम गंभीर स्थिति का सामना कर रहे हैं.”

Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute