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'संघ किसी पर नियंत्रण नहीं करता, न प्रत्यक्ष और न ही परोक्ष रूप से’, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने इस साल अगस्त के अंत में हुए एक सम्मेलन में यह बात ज़ोर देकर कही. हिंदू दक्षिणपंथ की वैचारिक धुरी और उसके विस्तृत संगठनात्मक संजाल की धुरी में स्थित संघ, इस वर्ष अपनी शताब्दी मना रहा है. इस मील के पत्थर के सम्मान में हुए अनेक सार्वजनिक आयोजनों में, आरएसएस प्रमुख का व्यवहार ऐसा लगा जैसे कोई अभिभावक अपने ही बच्चों से दूरी बनाना चाहता हो. भागवत का कहना था कि संघ से जुड़े संगठन अपने फ़ैसले ख़ुद लेते हैं, स्वतंत्र होते हैं और धीरे-धीरे पूरी तरह आत्मनिर्भर हो जाते हैं. अपनी अनेक सार्वजनिक घोषणाओं में भी संघ बार-बार कहता है कि जिन संगठनों का नाम उसकी तीन दर्जन के क़रीब आधिकारिक इकाइयों में नहीं आता, उनसे उसका कोई सीधा संबंध नहीं है.
हालांकि, यह जगजाहिर है कि संघ का प्रभाव उसके बताए हुए सीमित संगठनों से कहीं ज़्यादा दूर तक फैला हुआ है. भागवत के बयान से कुछ ही दिन पहले, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दिल्ली के लाल किला से कहा था कि, 'आरएसएस दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ है.' मोदी के बयान ने वही बात साफ़ कर दी जिसे भागवत उलझा कर पेश कर रहे थे. सच यह है कि आरएसएस से जुड़े कई संगठन समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में फैले हुए हैं और यही विस्तृत नेटवर्क संघ की शक्ति का असली आधार है.
अब यह सवाल उठता है कि यह नेटवर्क कितना बड़ा है, कैसा है और कैसे काम करता है? इसकी कोई ठोस जांच आज तक क्यों नहीं हुई? इसकी वजह साफ़ है कि संघ ख़ुद इसे यूं ही धुंधला रखना चाहता है.
यह बात अक्सर सामने आती रही है कि संघ आधिकारिक तौर पर किसी भी रूप में दर्ज नहीं है, न ही किसी एनजीओ के रूप में, न किसी धार्मिक ट्रस्ट के तौर पर और न ही किसी अन्य क़ानूनी संस्था के रूप में. कारवां की जुलाई कवर स्टोरी ‘आरएसएस डज़ नॉट एग्ज़िस्ट’, (जिसका हिंदी संस्करण अक्टूबर-दिसंबर 2025 अंक में पढ़ा जा सकता है) ने दिखाया था कि कागज़ों पर ‘ग़ायब’ रहने की यह रणनीति उसे सुविधा देती है कि वह देश की राजधानी में अपना मुख्यालय बना ले बिना यह बताए कि उसका फंड कहां से आता है और उसके सदस्य कौन हैं. सबसे अहम बात यह है कि संघ अलग-अलग संगठनों और लोगों के ज़रिए काम करता है, लेकिन जब भी उससे ‘माध्यम’ या ‘प्रॉक्सी’ के बारे में पूछा गया कि वह कौन हैं और उनसे उसका संबंध कैसे चलता है, वह इस सवाल को नज़र अंदाज़ कर देता है.
दरअसल, संघ की अपनी किताबों और दस्तावेज़ों में ही इन संगठनों के बारे में इतनी तरह की परिभाषाएं मिलती हैं कि पाठक उलझ जाए. एक ही किताब में यह बताया जाता है कि ये संगठन ‘सहयोगी’ भी हैं, ‘अंग’ भी हैं, ‘मोर्चे’ भी हैं और ‘संघ की संताने’ भी. राकेश सिन्हा की अंडरस्टैंडिंग आरएसएस (2019) में इन सभी अलग-अलग शब्दों का इस्तेमाल मिलता है. रतन शारदा की किताब आरएसएस 360 (2018) में भी यही हाल है. कभी इन्हें 'सहयोगी संगठन' कहा जाता है, कभी ‘संघ-प्रेरित’, कभी ‘परियोजनाएं’, तो कभी ‘बहन संगठन’ या ‘मित्र संगठन’. कहीं लिखा है कि ये ‘संघ से जुड़े’ हैं और कहीं साफ़ कहा गया है कि इन्हें 'आरएसएस चलाता है'. इतनी अलग-अलग उपाधियां यह दिखाती हैं कि संघ अपने नेटवर्क को एक तय पहचान देने से बचता है और यही बात इसे समझना मुश्किल बनाती है.
इस भाषा की तरलता को देखते हुए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि संघ पर शोध और पत्रकारिता का अधिकांश हिस्सा अस्पष्टता और भ्रम के ही माहौल से जकड़ा रहा है. पत्रकारों और विश्लेषकों को ज़्यादातर मामलों में, संघ के आंतरिक ढांचे तक सार्थक पहुंच नहीं मिल सकी है. इसीलिए उनका अध्ययन आमतौर पर संघ की विचारधारा या उसके मोर्चे पर रहने वाले सहयोगियों- जैसे ‘भारतीय जनता पार्टी’ या ‘विश्व हिंदू परिषद’ तक ही सीमित रह गया है.
इसका परिणाम यह हुआ है कि संघ पर उपलब्ध साहित्य, मुख्य रूप से इस बात पर केंद्रित है कि संघ क्या कहता है, न कि इस पर कि वह क्या करता है. मसलन, जाति पर उसका अस्पष्ट रुख़, मुसलमानों की स्थिति पर उसके द्विअर्थी बयान और राष्ट्रवाद पर उसके भव्य दावे. इसके बजाए उसकी वास्तविक कार्यप्रणाली यानी वह साधारण लेकिन निर्णायक तंत्र जिसके ज़रिए वह एक विशाल, फिर भी छिपे हुए नेटवर्क के माध्यम से शक्ति का निर्माण और विस्तार करता है लगभग पूरी तरह अनछुआ रह गया. यह स्थिति संघ के लिए बेहद फायदेमंद साबित होती है. इससे संगठन को बुनियादी जांच और जवाबदेही से बच निकलने में मदद मिली है, यहां तक कि अपनी शताब्दी के अवसर पर भी, जब वह सत्ता के शिखर पर विराजमान है, तब भी यह स्पष्ट नहीं है कि वह संसाधनों को कैसे संचालित करता है, कहां उसकी वास्तविक पकड़ है और कहां उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है.
इसके अलावा, हिंदुत्व से जुड़ी बहसों पर ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान देने का एक और नुक़सान हुआ है. वह यह कि हम हिंदू फ़ार-राइट (धुर दक्षिणपंथ) के वास्तविक संगठनात्मक ढांचे को समग्रता से समझ ही नहीं पाए हैं. इसने यह ग़लत धारणा पैदा कर दी कि सिर्फ़ विचारधारा ही पूरे आंदोलन को जोड़ कर रखती है, और जो भी हिंदुत्व की बात करता है, वह स्वाभाविक रूप से संघ परिवार का हिस्सा है. आम बातचीत में लोग यति नरसिंहानंद, तपन घोष और दत्तात्रेय होसबोले का नाम एक साथ ले लेते हैं, मानो तीनों ही संघ परिवार में बराबर रूप से शामिल हों. लेकिन यह मान लेना कि हर समर्थक एक ही तरह से वैचारिक रूप से समर्पित है, और सिर्फ़ विचारधारा ही इतने बड़े नेटवर्क को बांध सकती है, बार-बार ग़लत साबित होता है. उदाहरण के लिए नरसिंहानंद का संघ से कोई सीधा संबंध नहीं है, और वह अक्सर संघ की आलोचना करते हैं कि वह पर्याप्त रूप से कट्टर नहीं है. जबकि घोष दावा करते हैं कि उनका अब संघ से कोई निकट संबंध नहीं रहा. वहीं दत्तात्रेय होसबोले आरएसएस के शीर्ष पदाधिकारियों में से एक हैं और इसके महासचिव के रूप में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
सभी हिंदुत्व संगठन आरएसएस के अधीन नहीं हैं, ठीक वैसे ही जैसे सभी संघ से जुड़ी संस्थाएं खुल कर वैचारिक नहीं हैं. जब हम हिंदू दक्षिणपंथ की इस व्यवस्था का खुलासा करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि, अन्य किसी आंदोलन की तरह, यह भी मनुष्यों, ईंट-पत्थरों और उलझे हुए रिश्तों से बना है. संघ के भीतर और उसके बाहर सक्रिय हिंदुत्व संगठनों में संघर्ष पर्याप्त मात्रा में है और संघ इस संघर्ष को संभालने, दिशा देने और नियंत्रित करने में बहुत ऊर्जा ख़र्च करता है.
संघ कई बार अपनी इस अपारदर्शिता से मिलने वाले फ़ायदों को लेकर एक तरह की खुशी जताता दिखा है. जहां मोहन भागवत जैसे सार्वजनिक चेहरे यह दावा करते रहते हैं कि संघ के भीतर 'प्रेरणा' के अलावा ढूंढने जैसा कुछ नहीं है, वहीं संघ के आंतरिक पाठक-समूह के लिए तैयार की गई सामग्रियों का स्वर बिल्कुल अलग होता है. उदाहरण के लिए, आरएसएस विचारक रतन शारदा लिखते हैं, 'आरएसएस के लिए सौभाग्य की बात है और दूसरी संस्थाओं के लिए दुर्भाग्य की, कि किसी ने भी आरएसएस का इस नज़रिए से अध्ययन नहीं किया है' अर्थात् एक विशाल नेटवर्क की समन्वयक संस्था के रूप में. 'आरएसएस पर उनकी दृष्टि हमेशा ग़लतियां खोजने की रही है. आरएसएस के लिए, उसके भीतर और उससे जुड़े संगठनों के साथ एक अच्छा तालमेल अत्यंत गंभीर विषय है और यही इस विशाल ‘हिंदू संयुक्त परिवार’ के शांतिपूर्ण अस्तित्व का रहस्य है.'
आरएसएस की हज़ारों अन्य संस्थाओं से रणनीतिक दूरी उसे अनेक प्रकार के लाभ प्रदान करती है. यह उसे कानूनी और वित्तीय जांच से बचने की सुविधा देती है. वह विवादास्पद कार्यों को अन्य संगठनों को सौंप कर, अपने लिए समीचीन अस्वीकार्यता का कवच तैयार कर लेता है. संगठनात्मक तनावों को संतुलित करने के लिए प्रतिस्पर्धी नेतृत्व दावों को व्यवस्थित कर सकता है और अपने संदेश को भागों में बांट कर हर समूह से हर समय उसकी अनुकूल भाषा में संवाद कर सकता है. उसके संगठनों को एक स्विच बोर्ड की तरह चलाया जा सकता है जहां नेटवर्क से उनके संबंध ज़रूरत के अनुसार सक्रिय और अदृश्य किए जा सकते हैं. श्रम का यह मुश्किल लेकिन गुप्त विभाजन ही वह तंत्र है जिसके माध्यम से संघ समाज के भीतर अपनी जड़ें फ़ैलाता है. यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि धुर दक्षिणपंथ की उपस्थिति समाज के अनेक क्षेत्रों में एक साथ बनी रहे, अलग-अलग वर्गों तक पहुंचे, नए मतदाता समूहों के द्वार खोले और संघ के लिए नए भू-राजनीतिक क्षेत्र का निर्माण करे.
लेकिन संघ की रहस्यमयता एक दूसरी, विपरीत दिशा में भी काम करती है : अपने ऊर्जा क्षेत्र और आकार को बढ़ाने के लिए. यह एक ऐसा आभास पैदा करती है कि दक्षिणपंथी राजनीति की वर्तमान शक्ति किसी स्वाभाविक, नीचे से उठे हुए जनमानस का परिणाम है. परंतु वास्तव में जो छिपाया जा रहा है वह संघ की परियोजना के लिए समर्थन नहीं, बल्कि उनका समन्वय है. साक्ष्य बताते हैं कि हम हिंदू राष्ट्रवादी भावनाओं की किसी स्वतःस्फूर्त लहर को नहीं देख रहे हैं जिसने स्वयं को जादुई रूप से संगठित कर लिया हो, बल्कि एक सुविचारित, सुनियोजित नौकरशाही नेटवर्क की सुनियोजित फसल देख रहे हैं. जब संघ का हाथ दिखाई नहीं देता, तब असमय और ग़लत ढंग से यह निष्कर्ष निकालना आसान हो जाता है कि वह हर जगह मौजूद है.
परंतु संघ न तो असीमित है और न ही अगम्य. छह वर्षों तक चले एक विशेष अन्वेषण, जिसका नेतृत्व मैंने किया और जिसके आंकड़े अब ‘साइंस पो’ के सेंटर दे फॉर रिसर्चिज़ इंटरनैशनल्स में संरक्षित हैं, तथा ‘कारवां’ द्वारा तथ्य जांचकर प्रकाशित किया जिसने पहली बार संघ का एक नेटवर्क मानचित्र तैयार किया है. इस अध्ययन में 2,500 से अधिक संगठनों की पहचान की गई है, जिनके ठोस, प्रमाणित और भौतिक संबंध सीधे आरएसएस से जुड़े हुए हैं.
यह आंकड़ा मात्र उन संगठनों की सतही सूची नहीं है जिनकी विचारधारा समान है. इसके विपरीत, यह एक भौतिक रूप से जुड़ा हुआ नेटवर्क दर्शाता है ऐसे संगठन जो अक्सर एक ही व्यक्तियों को साझा करते हैं, समान पते से संचालित होते हैं, नियमित रूप से संयुक्त कार्यक्रम आयोजित करते हैं, अपने कार्यक्षेत्रों को परस्पर ओवरलैप करते हैं और जिनके बीच घरेलू और विदेशी दोनों स्तरों पर धन का साझा प्रवाह होता है. यह साक्ष्य संकेत देता है कि ये संगठन किसी ढीले पारिवारिक समूह का हिस्सा नहीं, बल्कि एक एकीकृत इकाई के सघन रूप से जुड़े हुए हिस्से हैं, एक ऐसी समझ जिसे संघ स्वयं अपने आंतरिक प्रकाशनों में स्वीकार करता है.
जब इसे समग्र दृष्टि से देखा जाए, तो ये संगठन जिनकी परस्पर जुड़ाव की वास्तविकता को भागवत निरंतर नकारते हैं और मोदी नियमित रूप से महिमामंडित करते हैं इससे वे यह स्पष्ट करते हैं कि संघ वास्तव में है क्या.
उदाहरण के लिए, हमारे डाटा संग्रह के दौरान हमें जम्मू के ‘अम्फल्ला’ इलाके में एक ऐसा पता मिला, जहां संघ से संबंध कई संगठन एक ही परिसर से संचालित होते हैं. यह स्थल लगभग 10 एकड़ में फैला हुआ है. दिसंबर 1916 में डोगरा शासक महाराजा प्रताप सिंह ने इसे वेद शिक्षण के प्रसार हेतु धार्मिक नेता चंपा नाथ महाराज को दान में दिया था, साथ ही निर्माण के लिए 10, 000 रुपए की एक अनुदान राशि भी दी गई थी, जिससे वेद मंदिर की स्थापना की जा सके. मंदिर के प्रबंधन हेतु एक वेद मंदिर समिति बनाई गई, जिसे मई 1964 में एक सोसायटी के रूप में पंजीकृत किया गया.
अपने इतिहास के किसी मोड़ पर यह मंदिर, समिति और पूरा परिसर संघ के नियंत्रण में चला गया. आज इस पते से संघ से जुड़े 20 से अधिक संगठन संचालित होते हैं, जो जम्मू-कश्मीर में संघ की लगभग आधी संगठनात्मक उपस्थिति का प्रतिनिधित्व करते हैं. ये हैं :
इस बात से तो साफ़ दिखता है कि यह पूरा समूह संघ से जुड़ा है, क्योंकि यहां से ही आरएसएस के सेवा और शिक्षा से जुड़े संगठन काम करते हैं. लेकिन ज़रा और गहराई से देखने पर पता चलता है कि इन सभी संगठनों को कुछ ही लोग चलाते हैं और वही लोग अलग-अलग संगठनों में कई पदों पर काम कर रहे हैं.
उदाहरण के लिए, वेद मंदिर बाल निकेतन के चारों पदाधिकारी संघ के कार्यकर्ता हैं. इसके अध्यक्ष गौतम मेंगी जम्मू के संघसंचालक हैं और उनका परिवार लंबे समय से वेद मंदिर परिसर से जुड़ा रहा है. मेंगी संघ की उच्च-स्तरीय बैठक ‘अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा’ में भी शामिल रहे हैं. इसके उपाध्यक्ष बालकृष्ण गुप्ता, जो वेद मंदिर समिति के सदस्य भी हैं, संघ के कार्यक्रमों में नियमित रूप से उपस्थित रहते हैं. सचिव सुदेश पाल और उपसचिव सतीश मित्तल भी संघ से सक्रिय रूप से जुड़े हैं. मित्तल भारतीय शिक्षा समिति के कोषाध्यक्ष के रूप में भी कार्यरत हैं, जो विद्या भारती की जम्मू-कश्मीर इकाई है.
वेद मंदिर समिति के अध्यक्ष सुरेश चंदर गुप्ता ‘माता वैष्णों लोक कल्याण संस्था’ के अध्यक्ष भी हैं, जबकि समिति की उपाध्यक्ष अमिता शर्मा भारत विकास परिषद, जम्मू की अध्यक्ष हैं. यह परस्पर संबंध स्पष्ट करते हैं कि ये संस्थाएं स्वतंत्र नहीं हैं, बल्कि एक ही नेटवर्क की परस्पर गुंथी हुई इकाइयां हैं.
संघ के ये संबंध जम्मू से आगे, यहां तक कि भारत की सीमाओं से भी परे फैले हुए हैं. उदाहरण के लिए ‘महाराजा प्रताप सिंह वेद विद्यालय’ की स्थापना पुणे स्थित ‘महर्षि वेद व्यास प्रतिष्ठान’ ने की थी, जिसके संस्थापक स्वामी गोविंद देव गिरि आरएसएस के स्वयंसेवक हैं, जो कि रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के ट्रस्टी भी हैं और नागपुर स्थित ‘माधव नेत्रालय’ के सलाहकार मंडल में शामिल हैं जो आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर के नाम पर है. आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ के अनुसार, गोविंद देव गिरी के 'प्रारंभिक संस्कार स्वयंसेवक के रूप में' प्रतिष्ठान के कार्यों में वर्णित होते हैं.
उसी परिसर में एक और संस्था, ‘केसर बेन वेलजी पोपट भवन’, भी संचालित होती है. इसकी स्थापना उन निधियों से हुई थी जो अमेरिका के मैरीलैंड में स्थित ‘इंडिया डेवलपमेंट एंड रिलीफ़ फ़ंड' ने जुटाई थीं—यह संगठन लंबे समय से संघ से जुड़ा माना जाता है. बाद में इसे ‘वीएचपी ऑफ़ अमेरिका’ ने भी अपने 'सपोर्ट ए चाइल्ड' प्रोजेक्ट के तहत वित्तीय सहायता दी. इसी प्रकार, ‘जनक मदन गर्ल्स हॉस्टल’ को ‘सेवा इंटरनेशनल कनाडा’ ने प्रायोजित किया है.
यह परस्पर जुड़े संगठनों का नेटवर्क संघ के हाशिए पर नहीं, बल्कि उसके केंद्रीय ढांचे का हिस्सा है. किसी छोटे छात्रावास के संचालन में एक संघचालक जो आरएसएस की सर्वोच्च निर्णय-प्रक्रियाओं तक पहुंच रखने वाला व्यक्ति होता है उसकी भागीदारी यह दर्शाती है कि ये फ्रंट ऑर्गेनाइज़ेशंस संघ की सत्ता-प्राप्ति की व्यापक रणनीति का कोई परिशिष्ट नहीं हैं. बल्कि, यही वे मार्ग हैं जिनके माध्यम से संघ विस्तार करता है, समाज से जुड़ता है, नए सदस्यों की भर्ती करता है और स्वयं को सामाजिक जीवन की धमनियों में प्रवाहित करता है.
हमारे शोध से यह भी सामने आया कि वेद मंदिर परिसर पूरे जम्मू-कश्मीर में संघ की गतिविधियों का केंद्र बन चुका है. संघ प्रकाशनों में इस परिसर को 'केशव भवन' कहा गया है. यह उस परंपरा का हिस्सा है, जिसमें स्थानीय संघ कार्यालयों का नाम संघ संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के नाम पर रखा जाता है. यही परिसर मोहन भागवत जैसे शीर्ष पदाधिकारियों की यात्राओं के दौरान नियमित रूप से उनके प्रवास और बैठकों का स्थल भी बनता है.
स्थानीय प्रकाशनों में इस स्थान को संघ के 'मुख्य तंत्रिका केंद्र' के रूप में स्पष्ट रूप से वर्णित किया गया है :
'केशव भवन, वेद मंदिर में सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम किए गए हैं, जहां आरएसएस प्रमुख ठहरेंगे और जम्मू-कश्मीर संघ तथा उसकी शाखा-संस्थाओं जैसे विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, सनातन धर्म सभा, संस्कार भारती, विद्या भारती, सेवा भारती, हिंदू जागरण मंच, भारतीय मज़दूर संघ, अधिवक्ता परिषद, स्वदेशी जागरण मंच आदि के शीर्ष पदाधिकारियों के साथ बंद-दरवाज़े की बैठकों में शामिल होंगे. संघ प्रमुख इन संस्थाओं के कार्यों की समीक्षा करेंगे और उनकी कार्यप्रणाली पर फीडबैक लेंगे.'
इसके अतिरिक्त, यही परिसर संघ परिवार के विविध आयोजनों का स्थल भी रहा है : संस्कृत भारती द्वारा आयोजित वैदिक विद्वानों के सम्मेलनों से लेकर स्थानीय उत्सवों और स्वास्थ्य-संवर्धन कार्यक्रमों तक. वर्ष 2012 में, सेवा भारती जम्मू-कश्मीर द्वारा आयोजित एक बड़े कार्यक्रम में इस परिसर ने पूरे राज्य के संघ पारिस्थितिक तंत्र को एकत्रित किया. संघ के प्रकाशन ‘संवाद’ के अनुसार, इस आयोजन में लगभग 50 संगठन शामिल हुए थे.
संघ अपनी सार्वजनिक व्याख्याओं में ऐसे आयोजनों को समान विचारधारा वाले संगठनों का ढीला-ढाला गठबंधन बताता है जो हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और सामाजिक सेवा की समान भावना से जुड़े हैं. किंतु वास्तविकता में, ये संयुक्त आयोजन, साझा कार्यालय और समान पदाधिकारी इस ओर संकेत करते हैं कि यह एक केंद्रीकृत नौकरशाही ढांचा है. इस ढांचे में भूमिकाएं और पद बहुत औपचारिक हैं और समन्वय बैठकों जैसी और भी केंद्रीकृत मीटिंग्स होती हैं. इसके साथ ही ‘अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल’ ऐबीपीएस एबीपी जैसी नेतृत्व बैठकों में मेंगी जैसे पदाधिकारी शामिल होते हैं, जो इस केंद्रीकरण को और स्पष्ट बनाता है.
वेद मंदिर परिसर इस प्रकार संघ की व्यापक रणनीति का एक सूक्ष्म प्रतिरूप है, ऐसी रणनीति जिसमें वह अनेक संगठनों को जन्म देता है जो एक जटिल नौकरशाही तंत्र के माध्यम से संचालित होते हैं. ऊपर से देखने पर ये 20 से अधिक संस्थाएं अलग-अलग लगती हैं गोया वे भिन्न क्षेत्रों और उद्देश्यों में कार्यरत स्वतंत्र इकाइयां हों, पर वास्तव में ये एक घनी, सुव्यवस्थित और एक-दूसरे की पुनरावृति करती संस्थाओं का समूह हैं. जब निर्णय लेने वाले वही लोग हों, उद्देश्य वही हों, संगठनात्मक ढांचा एक जैसा हो, नेतृत्व एक ही दिशा से आता हो और अनुशासन एक ही केंद्र से संचालित हो, तो संघ को किसी ढीले-ढाले समूह के रूप में नहीं, बल्कि एक एकीकृत नेटवर्क के रूप में ही समझा जा सकता है.
यह संरचना संघ की पारदर्शिता और जवाबदेही पर कई गंभीर प्रश्न खड़े करती है. उदाहरण के लिए, इस समूह की सात संस्थाएं अपने-आप को एक ही कार्य में लगी बताती हैं : किसी विद्यालय या छात्रावास के संचालन में. जबकि उतनी ही सेवा-संस्थाएं भी समान गतिविधियों का दावा करती हैं. कुछ संस्थाएं देश के भीतर सहानुभूति-आधारित ट्रस्टों या कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के माध्यम से धन जुटाती हैं, जबकि अन्य संस्थाएं विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम 2010 के तहत विदेशी निधि प्राप्त करती हैं. इन सभी का लेखा-जोखा रखना किसी भी पर्यवेक्षक के लिए उलझनभरा है और संघ का यही उद्देश्य है.
लेकिन मुद्दा सिर्फ़ इतना नहीं है कि संघ ढेरों नाममात्र की संस्थाओं के एक उलझे हुए संजाल के ज़रिए काम करता है. वेद मंदिर का उदाहरण और व्यापक रूप से हमारा पूरा शोध एक और गहरी, बुनियादी बात सामने लाता है. अगर मोटे अनुमान से देखें, तो जम्मू-कश्मीर जैसे पूरे राज्य में संघ की आधे से अधिक मौजूदगी सिर्फ़ 10 एकड़ की एक संपत्ति से जुड़ी हुई निकलती है, तो फिर संघ को समझने के हमारे मूल आधार और वह स्वाभाविक जन-उभार जिसकी प्रेरणा देने का वह दावा करता है, उन पर नए सिरे से विचार करने की ज़रूरत है. हमें संघ की बुनियादी संरचना, उसके पूरे ढांचे की जड़ों तक लौट कर उसे फिर से परखना होगा.
जैसे-जैसे हमने संघ के संबंधों की परतें खोलीं, यह स्पष्ट होता गया कि वेद मंदिर कोई अपवाद नहीं था. जम्मू में जो संरचना हमने देखी, वैसी ही लगभग संघ के प्रत्येक 46 प्रांतों (प्रांत = प्रांतीय इकाई) में मौजूद है. ये प्रांत 11 क्षेत्रों में विभाजित हैं और इन पर विभिन्न नौकरशाही पदों वाले अधिकारी नज़र रखते हैं जैसे प्रांत प्रचारक (संघ के मिशनरी), प्रांत कार्यवाह (सामान्य सचिव) और प्रांत संघचालक (क्षेत्रीय प्रमुख). हर प्रांत में संघ की प्रमुख शाखाओं के स्थानीय रूपांतर भी मौजूद हैं. मसलन, ‘विद्या भारती’ पंजाब में ‘सर्वहितकारी शिक्षा समिति’ के रूप में कार्य करती है, ‘सेवा भारती’ दक्षिण कर्नाटक में ‘हिंदू सेवा प्रतिष्ठान’ बन जाती है और ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ झारखंड में ‘वनवासी कल्याण केंद्र’ के रूप में काम करती है.
इन सहयोगी संगठनों को आगे नई सहायक संस्थाएं बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जो स्वयं भी अपनी उप-संस्थाएं बनाती हैं. उदाहरण के लिए, हमने ‘12 राणा स्मारक छात्रावास’, सितारगंज (उत्तराखंड) को संघ से चार स्तरों के संबंधों के माध्यम से जुड़ा पाया. यह ‘12 राणा स्मारक समिति’ द्वारा स्थापित था, जिसे 'सेवा प्रकल्प संस्थान’ ने शुरू किया था, जो ‘वनवासी कल्याण आश्रम' की उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश इकाई का नाम है और 'वनवासी कल्याण आश्रम’ स्वयं आरएसएस की औपचारिक रूप से मान्य लगभग तीन दर्जन शाखाओं में से एक है.
सिविल सोसाइटी का एक इतना व्यापक नेटवर्क बनाने का यह तरीका सामान्य राजनीतिक नेटवर्क से बिल्कुल अलग है. आमतौर पर राजनीतिक संगठन पहले से मौजूद संस्थाओं के साथ गठबंधन बनाते हैं, लेकिन यहां रणनीति उलटी है. यहां नेटवर्क फैलाने के लिए नई-नई संस्थाएं जानबूझ कर बनाई जाती हैं और साथ ही यह सुनिश्चित किया जाता है कि उनका नाता एक केंद्रीय नेतृत्व से मज़बूती से जुड़ा रहे. मैंने इसे अपने अन्य लेखन में ‘संगठनात्मक प्रसार’ कहा है यानी बड़ी संख्या में ऐसे प्रॉक्सी सिविल सोसाइटी संगठनों का रणनीतिक निर्माण, जिनके ज़रिए केंद्रीय नेतृत्व गोपनीय रूप से एक जटिल तरह के कामों के बंटवारे को संचालित कर सके.
यह संगठनात्मक प्रसार संघ के लिए स्नोबॉल प्रभाव पैदा करता है : नेटवर्क लगातार फैलता जाता है पर नियंत्रण संघ के हाथों में ही रहता है. परिणामस्वरूप, एक ऐसा तंत्र बनता है जिसमें सैकड़ों संस्थाएं मौजूद हैं, पर उनकी सीमाएं धुंधली या अदृश्य हैं. जैसे जम्मू के मामले में ये सीमाएं ग़ायब थीं, वैसे ही हमने भारत के लगभग हर हिस्से में यह प्रवृत्ति देखी. जैसे बेंगलुरु में ‘अभ्युदय’ (जिसे ‘केशव कृपा संवर्धन समिति’ भी कहा जाता है) का कार्यालय सेवा भारती, यूथ फॉर सेवा और विद्या चेतना के साथ साझा है, वहीं अकोला में ‘आदर्श संस्कार मंडल’ का कार्यालय ‘डॉ. हेडगेवार रक्तपेढ़ी’ (ब्लड बैंक सेवा) के साथ एक ही परिसर में है. कुछ मामलों में तो यह पूरी तरह स्पष्ट है जैसे ‘छिन्न्ना भंडारा जनकम्मा संजीव राव एजुकेशनल चैरिटेब ट्रस्ट’, ‘सेवा भारती ट्रस्ट’, और 'देश सेवा समिति कदथनाड’ सभी के कार्यालय उनके अपने स्थानीय संघ कार्यालयों के भीतर ही स्थित हैं.
वास्तव में, ये पैटर्न हज़ारों किलोमीटर दूर तक समान रूप से दिखाई देते हैं संयुक्त राज्य अमेरिका के टेक्सस राज्य के ह्यूस्टन के पश्चिमी उपनगरों तक, जहां ‘स्टार पाइप प्रोडक्ट्स’ नामक एक कंपनी के स्वामित्व वाला एक वेयरहाउस, जो अमेरिका में संघ से घनिष्ठ रूप से जुड़ी भूतड़ा परिवार की संपत्ति है 'केशव स्मृति' के नाम से जाना जाता है. संघ की शाखा हिंदू स्वयंसेवक संघ के पैम्फलेटों के अनुसार, ‘केशव स्मृति’ 'एचएसएस का दक्षिण-पश्चिम ह्यूस्टन कार्यालय है अर्थात आरएसएस की प्रवासी इकाई का मुख्य केंद्र. इस संस्था के उपाध्यक्ष लंबे समय से रमेश भूतड़ा हैं. लेकिन यही पता वीएचपी ऑफ अमेरिका के आधिकारिक पते के रूप में भी ऑनलाइन निर्देशिकाओं में सूचीबद्ध है, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या अमेरिका में संघ की ये दो सबसे बड़ी इकाइयां वास्तव में अलग-अलग संगठन भी मानी जा सकती हैं?
मामला इससे भी अधिक जटिल है. ‘4018 वेस्टहॉलो पार्कवे’ वाला यह पता कम-से-कम आधा दर्जन अन्य संघ-संबद्ध संगठनों से जुड़ा हुआ है यह एसवीवाइएएसए (एक योग संस्था, जिसकी सह-स्थापना भूतड़ा ने की थी और जो मोदी से निकट संबंध रखती है) का पता है. यही पता ‘हिंदुज़ ऑफ़ ग्रेटर ह्यूस्टन’ नामक स्थानीय संघ-नियंत्रित संस्था का मुख्यालय भी है, यही स्थान वीएचपी अमेरिका और हिंदू स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित अनेक युवा शिविरों का स्थल रहा है जहां भारत से आए संघ नेताओं, जैसे निवेदिता भिड़े के भाषण भी हुए हैं. और यही पता ‘सेवा इंटरनेशनल' का भी है जो एक ऐसी फंडरेज़िंग संस्था है, जिसे हिंदू स्वयंसेवक संघ गुप्त रूप से संचालित करता है, जो अनजान दानदाताओं से करोड़ों डॉलर जुटाती है. इन्हीं में से एक दान 2021 में पूर्व ट्विटर प्रमुख जैक डोरसी का 25 लाख डॉलर का अनुदान था जो बाद में भारत में संघ-संबंधित परियोजनाओं तक पहुंचा.
भूतड़ा परिवार के प्रभाव के निशान संघ नेटवर्क में भौगोलिक सीमाओं से परे तक फैले हुए हैं. उदाहरण के लिए, गुजरात के राजकोट में स्थित ‘स्टार पाइप फाउंड्री’ जो भूतड़ा परिवार की ही कंपनी है, संघ-संबद्ध ‘विज़न इंडिया फाउंडेशन’ (जिसका नाम अब ऋषिहुड यूनिवर्सिटी है) का प्रमुख प्रायोजक है. यह संस्था अपने 'इंटीग्रल ह्यूमनिज़्म इनिशिएटिव' के माध्यम से संघ विचारक दीनदयाल उपाध्याय के 'दर्शन के प्रसार' का काम करती है.
‘केशव स्मृति’ का पता ही भूतड़ा फ़ैमिली फाउंडेशन का पता भी है जो कई अन्य संघ-संबद्ध संगठनों को भारी वित्तीय सहायता देता है. यही धनराशि अमेरिका की राजनीति में भी ‘हिंदू अमेरिका पोलिटिकल एक्शन कमिटी’ के माध्यम से लगाई जाती है, जो संघ-संबद्ध नेताओं को चुनावी चंदा देती है. हिंदू अमेरिका पॉलिटिकल एक्शन कमिटी की सिस्टर संस्था हिंदू अमेरिका फाउंडेशन है, एक लॉबिंग समूह जिसने लंबे समय से संघ के हितों के लिए पैरवी की है. रमेश भूतड़ा के बेटे ऋषि भूतड़ा और उनकी चचेरी बहन कविता पलोड़ दोनों इस फाउंडेशन के लंबे समय से बोर्ड सदस्य हैं.
रमेश स्वयं कई अन्य संस्थाओं के निदेशक हैं : 'परम शक्ति पीठ ऑफ़ अमेरिका’ (जो संघ विचारक साध्वी ऋतंभरा के लिए धन एकत्र करती है), ‘हिंदू सोसाइटी ऑफ़ अमेरिका’ (जिसे वह अन्य एचएसएस अधिकारियों के साथ चलाते हैं) और ‘पतंजलि योगपीठ फाउंडेशन’ (जो स्वामी रामदेव की प्रवासी शाखा के रूप में कार्य करती है).
रमेश भूतड़ा का भारत आकर ‘विश्व संघ शिविर’ में भाग लेना, जो प्रवासी स्वयंसेवकों के प्रशिक्षण के लिए आयोजित होता है, यह दर्शाता है कि आरएसएस का समन्वय तंत्र वैश्विक स्तर तक फैला हुआ है. भूतड़ा परिवार का यह जाल कोई अमेरिकी अपवाद नहीं है. हमारे डेटा सेट ने यह बार-बार दिखाया कि बहुत सीमित संख्या में व्यक्ति ख़ासतौर पर प्रचारक संघ नेटवर्क में अत्यधिक प्रभाव रखते हैं. उदाहरण के लिए, भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस), जो संघ की मज़दूर शाखा है, मुख्यतः दत्तोपंत ठेंगड़ी की देन है जो आज भी हर बीएमएस इकाई में सम्मानपूर्वक याद किए जाते हैं. बीएमएस जैसे अनेक संघ-संगठन मूलतः वामपंथी श्रमिक आंदोलनों के जवाब में बनाए गए प्रतिक्रियात्मक संगठन थे. परंतु इन पर अभी भी बहुत कम शोध हुआ है और इनकी वास्तविक शक्ति अस्पष्ट है. उदाहरण के तौर पर बीएमएस अपने 5,000 संबद्ध यूनियनों में एक करोड़ सदस्यों का दावा करता है, परंतु इस दावे के समर्थन में कोई ठोस प्रमाण सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है.
केरल में भी यह संरचना स्पष्ट दिखती है. प्रचारक पी. परमेश्वरन, जिन्होंने 25 वर्षों तक ‘विवेकानंद केंद्र’ का नेतृत्व किया, और न केवल केसरी (संघ का मुखपत्र) की स्थापना की, बल्कि भारतीय विचार केंद्रम (थिरुवनंतपुरम स्थित संघ थिंक टैंक), उसकी त्रैमासिक पत्रिका प्रगति, इंटरनेशनल फोरम फॉर इंडिया’ हेरिटेज (एक और थिंक टैंक) और गीता स्वाध्याय समिति (भगवद्गीता प्रचार हेतु मंच) सभी की स्थापना और नेतृत्व में भूमिका निभाई
इन सभी उदाहरणों और इनके बीच के घने संबंध हमें एक ही निष्कर्ष की ओर लेकर गए कि संघ हमेशा से एक एकीकृत राजनीतिक जीव की तरह कार्य करता रहा है, जिसे उसी नेतृत्व ने सावधानीपूर्वक निर्मित किया, जो बाहर की दुनिया में इसे ‘विकेंद्रीकृत’ बताता है. बेशक, इस इकाई के भीतर विविधताएं, प्रतिस्पर्धाएं और अलग-अलग स्वार्थ मौजूद हैं पर जब आप सतही धुंध को हटाकर देखें, तो संघ की उंगलियों के निशान हर जगह मिलते हैं, ‘केशव’ जैसे नामों में, प्रमुख पदों पर आरएसएस अधिकारियों में और प्रवासी निधियों के उन प्रवाहों में, जो संघ तक लौटते हैं.
संघ स्वयं भी यह भली-भांति जानता है कि वह क्या है और स्वयं को कैसे देखता है. यदि हम उसके बाहरी दिखावे से ध्यान हटा कर, उसके आंतरिक प्रकाशनों की भाषा पर ग़ौर करें, तो स्पष्ट होता है कि वह स्वयं को संघ समर्थक की एकल राजनीतिक इकाई के रूप में देखता है. जयप्रसाद लिखते हैं :
'ये सभी संबद्ध संगठन आरएसएस के नियंत्रण में हैं. इनका दोहरा उद्देश्य है, पहला, आरएसएस के विचारों का प्रसार और दूसरा, अपने-अपने वर्गों के हितों की रक्षा. ये संगठन अपने दैनिक कार्यों में स्वतंत्र प्रतीत होते हैं, परंतु ये सभी आरएसएस के निर्देशन और नियंत्रण में कार्य करते हैं.'
इसी तरह, आरएसएस के आदिवासी राजनीति के साथ संबंध पर चर्चा करते हुए संघ विश्लेषक एम. जी. चितकारा हमें बताते हैं :
'वनवासी कल्याण आश्रम कोई ग़ैर-राजनीतिक एनजीओ नहीं, बल्कि इसे ईसाई धर्मांतरण रोकने के लिए स्थापित किया गया था. यह अन्य सभी की तरह एक आरएसएस संगठन है, जो प्रशिक्षित आरएसएस कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित होता है.'
संघ स्वयं को समाज के एक ‘सजीव जैविक अंग’ के रूप में देखता है. यह ऑर्गेनिसिज़्म एक कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा है जिसमें समाज को एक प्राकृतिक, एकीकृत जीव माना जाता है और जिसमें अल्पसंख्यक’ या ‘विदेशी तत्व’ अवांछनीय और निष्कासन योग्य माने जाते हैं. इस जीव को अक्सर बीमार बताया जाता है जिसे 'राष्ट्रीय पुनर्जागरण' हेतु उपचार की आवश्यकता है. चाहे वह रानाडे के 'दूषित रक्त' की बात हो, चितकारा के 'घाव' की, या गोलवलकर के 'फोड़े' की, संघ स्वयं को इस 'शरीर' की प्रतिरक्षा प्रणाली के रूप में प्रस्तुत करता है, जो इसे शुद्ध कर सकता है. संघ का उद्देश्य है इस शरीर को शुद्ध करना और अंततः स्वयं उसी शरीर में परिवर्तित हो जाना. संघ के नेताओं के लिए ‘संगठन’ मात्र साधन नहीं, बल्कि लक्ष्य है और हिंदू राष्ट्र की प्राप्ति का मार्ग भी.
इसलिए यह 'जैविक दृष्टिकोण' केवल रूपक नहीं है. यह संघ की संगठनात्मक व्यवस्था और उसकी सोच का एक केंद्रीय सिद्धांत है, जो इसके घोषित लक्ष्य 'संघ समाज बनेगा' का हिस्सा है यानी संघ स्वयं समाज का रूप लेगा. संघ यह समझता है कि विभिन्न संगठनों को जन्म देना संगठनात्मक एकता के साथ असंगत नहीं है.
यह बात आरएसएस के नेताओं द्वारा बार-बार दोहराई गई है, जैसे कि संस्थापक डॉक्टर के.बी. हेडगेवार ने कहा :
'समय के साथ, आरएसएस का उद्देश्य यह होना चाहिए कि आरएसएस समाज के भीतर एक संगठन न हो, बल्कि समाज स्वयं का संगठन बने.'
गोलवलकर के अनुसार, 'संघ ने कभी भी समाज से अलग या स्वतंत्र कोई संगठन खड़ा करने का विचार नहीं किया. अपने आरंभ से ही संघ ने स्पष्ट रूप से यह लक्ष्य तय किया था कि वह केवल समाज के किसी एक हिस्से को नहीं, बल्कि पूरे समाज को एक संगठित रूप में ढालना चाहता है.'
वर्तमान आरएसएस प्रवक्ता सुनील अंबेकर के अनुसार, 'संघ नेटवर्कों का एक जाल है. समाज में जिन कई मुद्दों के लिए हस्तक्षेप आवश्यक है, उनका समर्थन करने के लिए कितने भी संगठनों की स्थापना की जा सकती है, इसकी कोई सीमा नहीं है.'
वास्तव में, जब संघ अपने स्वयंसेवकों या संबंधित वर्गों से संवाद करता है, तो वह बार-बार अपने आंतरिक संगठनों के बीच कोई स्पष्ट भेद नहीं करता. उदाहरण के लिए, ऑर्गनाइज़र पत्रिका में ऐसे लेख मिलते हैं जहां ‘विद्या भारती पंजाब’ और उसकी पंजाबी इकाई ‘सर्वहितकारी शिक्षा समिति’ को एक-दूसरे के स्थान पर इस्तेमाल किया जाता है; या ब्रिटेन के हिंदू स्वयंसेवक संघ की 50वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित स्मारिका में सदस्य अपने संघ अनुभव को ‘नेशनल हिंदू स्टूडेंट्स फोरम’ में किए गए कार्य से जोड़कर बताते हैं या जब वरिष्ठ आरएसएस विचारक राकेश सिन्हा यह दावा करते हैं कि ‘'विद्या भारती’ द्वारा संचालित भारत का सबसे बड़ा स्कूल नेटवर्क आरएसएस का ही हिस्सा है’. अथवा जब ‘सेवा साधना’ में संघ की सेवा परियोजनाओं की सूची में सक्षम, वीएचपी, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, भारत विकास परिषद, राष्ट्र सेविका समिति, एबीवीपी और दीनदयाल रिसर्च इंस्टीट्यूट जैसे संगठनों के नाम 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: सेवा विभाग' शीर्षक के अंतर्गत एक साथ रखे जाते हैं.
जब पूरे संघ नेटवर्क को एक ही संगठन के रूप में देखा जाता है, तो उसे समझने के नए तरीके सामने आते हैं.
इस शोध में हमारी टीम ने वह परिभाषा अपनाई जो मैंने 2022 में कंटैम्पररी साउथ एशिया नाम की पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख में दी थी. इस परिभाषा के अनुसार :
'संघ उन संगठनों का समूह है जिनके ज़रिए उसका केंद्रीय नेतृत्व अपने अधिकार का इस्तेमाल करता है, पहला, अपने नियमित संवाद और संपर्क के माध्यमों से और दूसरा, बिना किसी दबाव या ज़बरदस्ती के.'
इस दृष्टिकोण में हमने उन संगठनों की सूची बनाने की कोशिश नहीं की जो केवल हिंदुत्व विचारधारा से सहमत हैं, बल्कि हमने उस असली संगठनात्मक ढांचे का नक्शा तैयार किया जिससे पूरा संघ नेटवर्क जुड़ा हुआ है.
जैसा कि पहले बताया गया, किसी संगठन की दक्षिणपंथी सोच या विचारधारा को देखना यह समझने के लिए पर्याप्त नहीं है कि वह संघ के ढांचे का हिस्सा है या नहीं. उदाहरण के लिए, वेद मंदिर परिसर के कई संगठन शायद खुलकर कट्टर विचार नहीं दिखाते, लेकिन फिर भी वे सब आरएसएस के नेतृत्व के अधीन हैं, अपनी इच्छा से और एक तय प्रशासनिक व्यवस्था के ज़रिए.
इसलिए, केवल विचारधारा पर ध्यान देने के बजाए हमने संघ के ठोस रिश्तों को समझने पर ज़ोर दिया यानी उसके लोग, संपत्तियां, धन का प्रवाह और उसका प्रबंधन ढांचा. इसके लिए हमने संघ के अपने दस्तावेज़ों और रिपोर्टों से बहुत सारा डेटा लिया.
आरएसएस जिन लगभग तीन दर्जन संगठनों को आधिकारिक रूप से मान्यता देता है, वहां से शुरुआत करते हुए हमारी टीम ने इन संगठनों द्वारा प्रकाशित और उपलब्ध कराए गए विशाल रिकॉर्ड का अध्ययन किया जैसे उनके संगठनात्मक दस्तावेज़, आत्मकथाएं, ब्लॉग और सोशल मीडिया पोस्ट ताकि अन्य जुड़े हुए संगठनों की पहचान की जा सके.
यह काम आसान नहीं था. हमें पक्षपाती लेखों, उबाऊ संगठनात्मक आत्मकथाओं और कई बार पूरी तरह झूठी जानकारियों के बीच से होकर गुज़रना पड़ा, ताकि कहीं-कहीं से काम की जानकारी के टुकड़े मिल सकें. इस तरह हमने कुछ द्वितीयक संगठनों की सूची तैयार की ऐसे संगठन जो संघ से जुड़े हो सकते थे, लेकिन जिनकी पुष्टि कई स्रोतों से जांच कर की जानी थी. इसका मतलब यह था कि संघ के स्रोतों में मिली जानकारी को अकादमिक लेखन, वित्तीय रिकॉर्ड, सरकारी दस्तावेज़ों और अन्य संघ-संबंधित स्रोतों से मिलान करके सत्यापित किया गया. (हमारे शोधकर्ताओं द्वारा एकत्र की गई हर जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध स्रोतों से ली गई थी, लेकिन विश्लेषण का केंद्र संघ के अपने दस्तावेज़ों को ही रखा गया.)
संभावित रूप से संघ से जुड़े संगठनों से पुष्ट संगठनों तक पहुंचने के लिए हमने एक मानक पद्धति तैयार की. इसका उद्देश्य किसी संगठन को अकेले में जांचना नहीं था, बल्कि यह समझना था कि वह किस तरह और कितनी गहराई से संघ के नेटवर्क से जुड़ा है. हमने संगठनात्मक घोषणाओं और गतिविधियों पर कम ध्यान दिया और इसके बजाए साझा कर्मियों, साझा कार्यालयों, सह-आयोजित कार्यक्रमों और वित्तीय प्रवाह यानी वे अनकहे संबंध जो संघ नेटवर्क के अंतर-संगठनीय संबंधों का मूल बनाते हैं, इस पर अधिक ध्यान केंद्रित किया.
उदाहरण के तौर पर, जब एक शोधकर्ता ने फरीदाबाद के ‘दोनी पोलो छात्रावास’ की जांच की, तो उसने पाया कि वहां बालासाहब देशपांडे, गोलवलकर और हेडगेवार की तस्वीरें लगी हैं, हॉस्टल के कमरों के नाम संघ के प्रमुख व्यक्तित्वों पर रखे गए हैं और परिसर में शाखाएं लगाई जाती हैं. संस्था ख़ुद को वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा संचालित बताती है, उसी के हरियाणा कार्यालय से काम करती है और वहां आरएसएस के प्रांत प्रचारक और कई वीकेए नेताओं का आना-जाना रहा है. यह सब इसके संघ नेटवर्क में गहराई से जुड़े होने के ठोस संकेत थे.
इसी तरह, हमारे एक शोधकर्ता मलेशिया के एक सामान्य से लगने वाले संगठन ‘हिंदू सेवई संगम’ को संघ से तभी जोड़ पाए जब उन्होंने उनकी पत्रिकाओं में कार्यवाह और स्वयंसेवक जैसे शब्द देखे, जो एक तमिल बहुल समुदाय में असामान्य थे. आगे खोजने पर उन्हें गोलवलकर के उद्धरण और सोशल मीडिया पर शाखाओं की आरएसएस जैसी तस्वीरें मिली. अंततः हमने निष्कर्ष निकाला कि ‘हिंदू सेवई संगम’ वास्तव में हिंदू स्वयंसेवक संघ का ही मलेशियाई रूप था यानी आरएसएस का अंतरराष्ट्रीय विस्तार.
‘डॉ. आवाजी ठत्ते सेवा और अनुसंधान संस्था’ नाम का एक संगठन हमारा ध्यान तब खींचता है जब हमने देखा कि इसका नाम गोलवलकर के निजी सहायक के नाम पर रखा गया है. आगे जांच करने पर पता चला कि इसके पूर्व सचिव शैलेश जोगलेशकर आरएसएस के स्वयंसेवक हैं, जो विश्व हिंदू परिषद से जुड़े हैं और भोंसला मिलिट्री स्कूल (जो आरएसएस के नियंत्रण में है) के सचिव भी हैं. इसके अलावा, जब यह देखा गया कि केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस दोनों संघ पृष्ठभूमि से हैं, तो इस बात की पुष्टि और मज़बूत हुई कि यह संस्था पूरी तरह से संघ नेटवर्क का हिस्सा है.
संघ के प्रकाशित दस्तावेज़ों और रिपोर्टों के इस गहन अध्ययन के आधार पर हमारी टीम ने उन सामान्य पैटर्नों (रूपों) की एक सूची तैयार की, जिनसे यह पहचाना जा सकता था कि कोई संगठन संघ नेटवर्क का सदस्य है या नहीं. इस सूची को और सटीक बनाने के लिए हमने दो वर्षों तक भारत के शिक्षाविदों, पत्रकारों और ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं से सलाह-मशवरा किया. उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर वे संकेत बताए, जिनसे किसी संगठन का संघ से जुड़ाव समझा जा सकता है.
इस प्रक्रिया से हमें एक विस्तृत और संतुलित मूल्यांकन तालिका मिली, यानी ऐसी चेक-लिस्ट जिसमें 34 अलग-अलग बिंदु थे जो यह दर्शाते थे कि किसी संगठन का संघ से संबंध कितना मज़बूत या कमज़ोर है. संघ के संगठन निर्माण का तरीका अपनी विशिष्ट शैली, नौकरशाही भाषा और पहचानने योग्य संकेतों से भरा हुआ है. इन्हीं विशेषताओं को एक-एक करके जोड़ कर हमने एक ऐसी पुनरावृत्त करने योग्य प्रक्रिया बनाई जिससे किसी संगठन का संघ से संबंध वस्तुनिष्ठ रूप से आंका जा सके. उदाहरण के तौर पर, अगर कोई संगठन ख़ुद बताता है कि उसे किसी आरएसएस प्रचारक ने स्थापित किया है, तो उसे 1.0 अंक दिया जाता है. अगर किसी संगठन के दफ़्तर में आरएसएस संस्थापकों की माला चढ़ाई हुई तस्वीरें लगी हों, तो उसे 0.5 अंक मिलता है. अगर कोई संगठन किसी संघ के नज़दीकी संगठन के साथ जुड़ा हुआ बताया गया है, तो उसे 0.25 अंक दिया जाता है. किसी संगठन का कुल स्कोर (1.0 तक सीमित) यह दर्शाता है कि उसका संघ से संबंध कितना गहरा है. 1.0 का स्कोर मतलब वह संगठन स्पष्ट रूप से संघ का हिस्सा है, 0.25 का स्कोर मतलब वह संघ से केवल कमज़ोर या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है.
इस पूरी शोध-पद्धति का विस्तृत विवरण मेरे द्वारा लिखे गए 2024 में ‘पॉलिटिक्स एंड सोसाइटी’ पत्रिका में प्रकाशित लेख और वेबसाइट पर दिए गए लिंक में मौजूद है.
अब तक हमारी जांच में 2,500 से अधिक संगठन ऐसे मिले हैं जो संघ नेटवर्क से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं. संघ की संरचना केंद्र से किनारे तक फैले एक मॉडल के रूप में काम करती है जिसमें एक सघन मुख्य केंद्र और उसके चारों ओर अपेक्षाकृत ढीले संबंधों वाला बाहरी घेरा होता है.
स्वाभाविक रूप से, संघ के इस केंद्रीय हिस्से में प्रमुख संगठन शामिल हैं जैसे विश्व हिंदू परिषद, भारतीय जनता पार्टी, वनवासी कल्याण आश्रम, और सेवा भारती. नेटवर्क विश्लेषण के दृष्टिकोण से, इसके केंद्र में कुछ बड़े विदेशी फ़ंड जुटाने वाले संगठन भी हैं जैसे इंडिया डिवैलपमंट एंड रिलीफ फंड और सपोर्ट अ चाइल्ड, यूएसए जो एक साथ सैकड़ों संगठनों को वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं.
संघ की कार्यकारी व्यवस्था में आरएसएस के नेता और कुछ ग़ैर-आरएसएस संगठन दोनों शामिल होते हैं. इस 'मैनेजेरियल आरएसएस' के केंद्र में प्रचारक होता है, जिसकी भूमिका संघ नेटवर्क को चलाने में बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है. प्रचारकों को आरएसएस के मुख्य मिशन की ट्रेनिंग दी जाती है और उसके बाद उन्हें संघ परिवार के अलग-अलग संगठनों में भेजा जाता है, जहां वे नेटवर्क पर नियंत्रण बनाए रखते हैं. वे अक्सर संगठन मंत्री के रूप में काम करते हैं. इन अधिकारियों के पास इतनी ट्रेनिंग, वैचारिक प्रतिबद्धता और अधिकार होता है कि वे जिन संगठनों में भेजे जाते हैं, वहां आरएसएस की ओर से बड़े निर्णय ले सकते हैं. सबसे ज़रूरी बात, वे नए संगठन और नयी शाखाएं भी बना सकते हैं. हमारी खोज में ऐसे सैकड़ों संगठन मिले जो इसी तरह प्रचारकों द्वारा स्थापित किए गए थे.
हालांकि, संघ के केंद्रीय ढांचे से बाहर की परतें और भी दिलचस्प हैं. आरएसएस की मुख्य शाखाओं और बीजेपी जैसी राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता संघ के सबसे प्रभावशाली और पहचाने जाने वाले चेहरे हैं, लेकिन शासन ही संघ का एकमात्र या मुख्य उद्देश्य नहीं है. हज़ारों छोटे, अपेक्षाकृत अनजान संगठनों की मौजूदगी यह दिखाती है कि संघ का असली लक्ष्य सिर्फ़ प्रशासनिक नियंत्रण नहीं बल्कि भारतीय समाज में व्यापक स्तर पर बदलाव लाना है. ये छोटे संगठन, अपनी सादगी और अप्रत्यक्षता की वजह से, संघ को समाज के अनेक हिस्सों तक पहुंचाने में मदद करते हैं. वे एक ही समय में कई तरह के समूहों से संवाद करते हैं, कभी-कभी एक-दूसरे के विपरीत विचारों के साथ भी. हमारे शोध ने संघ के इन संगठनों को उनके काम और संरचना के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में बांटा.
संघ के सदस्य-आधारित संगठनों को हमने 'कैडर संगठन' कहा. इन संगठनों में बड़ी संख्या में लोगों को संगठित करने और रज़ामंद करने की क्षमता होती है. इन कैडर संगठनों में पारंपरिक संगठनों की सारी प्रमुख विशेषताएं होती हैं : शाखा-आधारित ढांचा, औपचारिक प्रशासनिक अनुक्रम, कार्यकर्ताओं की वैचारिक प्रतिबद्धता, प्रशिक्षण प्रक्रिया और सीमित सदस्यता. संघ के अन्य संगठनों के पास कर्मचारी या लाभार्थी हो सकते हैं, लेकिन कैडर संगठन वे हैं जिनके सदस्य सक्रिय रूप से किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए जुटते हैं. उदाहरण के लिए :
स्वयं आरएसएस, जिसकी शाखाएं और परेड उसकी पहचान बन चुकी हैं
एबीवीपी, जो छात्रों को रैलियों और अभियानों में जुटाती है
बीजेपी, जो चुनावों के दौरान जनसमर्थन जुटाती है
वनवासी कल्याण आश्रम, जो आदिवासी क्षेत्रों में 'संघी' पहचान फैलाने के लिए कार्यकर्ताओं को भेजता है
या बजरंग दल, जो युवाओं को आक्रामक अभियानों में संगठित करता है
कैडर संगठन आमतौर पर सीधे आरएसएस से निकले होते हैं, इनके बीच कोई मध्यस्थ संगठन नहीं होता. इन पर प्रचारकों का सशक्त नियंत्रण होता है और अधिकांश का गठन संघ के शुरुआती विस्तार काल में हुआ था. कैडर संगठन स्वयं को संघ का मुख्य भाग मानते हैं और आम जनता भी इन्हें संघ की पहचान से जोड़ कर देखती है. ये संगठन संघ की राजनीति को जनता के बीच व्यापक समर्थन के रूप में दृश्यमान बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं.
'समन्वयक संगठन', मुख्य संघ नेटवर्क संगठनों और उसके बाहरी छोरों के बीच सूचना और धन के प्रवाह को एक नौकरशाही ढांचे के माध्यम से संचालित करते हैं. इन संगठनों में आम तौर पर बहुत बड़ी सदस्य संख्या नहीं होती, बल्कि ‘वेद मंदिर कमिटी’ जैसे संस्थानों की तुलना में कम पेशेवर कर्मचारी कार्यरत रहते हैं. इन समन्वयक संस्थाओं का अधिकांश 'वास्तविक कार्य' उनके अधीनस्थ संगठनों के माध्यम से संपन्न होता है. उदाहरण के लिए, ‘विद्या भारती’ देशभर में लगभग 12,000 विद्यालयों के व्यापक शैक्षिक नेटवर्क का दावा करती है. (हमने इन विद्यालयों का नक्शा भी तैयार किया है, परंतु उन्हें इस आंकड़े-संग्रह से इसलिए अलग रखा गया ताकि अन्य संगठनों की दृश्यता कम न हो.) हालांकि, इन शैक्षिक सेवाओं का वास्तविक संचालन प्रायः राज्य-स्तरीय संस्थाओं जैसे सरस्वती शिक्षा समिति (मध्य प्रदेश), भारतीय शिक्षा समिति (जम्मू) या भारतीय श्री विद्या परिषद (उत्तर प्रदेश) के माध्यम से किया जाता है.
क्योंकि बड़ी संख्या में अधीनस्थ संस्थानों की स्थापना या संचालन के लिए उच्च स्तर की संस्थागत संरचना की आवश्यकता होती है, इसलिए समन्वयक संगठन प्रायः संघ के भीतर अपेक्षाकृत पुराने और प्रतिष्ठित संगठन होते हैं. उनकी यह प्रतिष्ठा, तथा संघ के केंद्र और परिधि के बीच सेतु का कार्य करने की उनकी प्रमुख भूमिका, इस बात की ओर संकेत करती है कि इनमें केंद्रीय संघ कार्यकारी की उपस्थिति अन्य संगठनों की तुलना में अधिक सशक्त होती है. वास्तव में, ये संगठन वे केंद्र हैं जिनके माध्यम से संघ के कोर और परिधि के बीच सभी संचार और संसाधन प्रवाहित होते हैं. हमारे अध्ययन में पाया गया कि औसतन, किसी भी संगठन और आरएसएस के बीच कम से कम एक मध्यवर्ती संगठन अवश्य होता है और जब यह तथ्य जोड़ा जाए कि लगभग आधे संघ संगठन केवल एक ही संपर्क-बंधन से जुड़े हैं, तो इन समन्वयक संगठनों का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है. यदि ‘सेवा भारती', ‘आईडीआरएफ़', ‘विश्व हिंदू परिषद’ या ‘हिंदू सेवा प्रतिष्ठान’ जैसे मध्यवर्ती संगठन अस्तित्व में न हों, तो संघ के आधे से अधिक संगठन नेटवर्क से पूरी तरह कट जाएंगे.
इसी के साथ, ये संगठन संघ के केंद्र और परिधि के बीच सार्वजनिक रूप से स्वीकार या अस्वीकार किए जाने वाले संबंधों की प्रकृति की भी मध्यस्थता करते हैं. इन संगठनों द्वारा किया गया समन्वय संघ के लिए वह 'रणनीतिक अस्पष्टता' उत्पन्न करता है, जिससे वह आवश्यकतानुसार किसी संबंध को स्वीकार या नकार सके.
इस प्रकार के अन्य संगठनों में ‘भारतमाता गुरुकुल आश्रम ट्रस्ट' (बेंगलुरु), ‘पद्म केशव ट्रस्ट’ (मध्य प्रदेश) और ‘डॉ. मुखर्जी स्मृति न्यास’ (नई दिल्ली) शामिल हैं.
‘कैंपेन ऑर्गेनाइज़ेशंस’ अधिकतर किसी विशेष उद्देश्य, जन-आंदोलन, नीति-परिवर्तन या मुद्दे के लिए अस्थायी रूप से गठित किए जाते हैं और अपने लक्ष्य की पूर्ति के बाद निष्क्रिय हो जाते हैं. उदाहरण के तौर पर, ‘पंजाब राहत समिति' और ‘बस्तुहारा सहायता समिति’ का गठन विभाजन के समय शरणार्थियों की सहायता के लिए हुआ था; ‘मोरवी राहत समिति’ जैसे संगठन प्राकृतिक आपदाओं के समय सक्रिय रहे; ‘रामजन्मभूमि न्यास’ जैसे मंदिर आंदोलनों तथा ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ जैसे ईसाई-विरोधी आदिवासी अभियानों में भी यही ढांचा दिखाई देता है. हाल ही में अमेरिकी संघ ने ‘आंबेडकर-फुले नेटवर्क ऑफ़ अमेरिकन दलित्स एंड बहुजन्स’ नामक संगठन का गठन केवल इस उद्देश्य से किया कि कैलिफ़ोर्निया राज्य में जाति-आधारित संरक्षण कानूनों का विरोध किया जा सके और वह भी दलित एवं बहुजन समूहों के नाम पर.
उसी समय, ये संगठन संघ के भीतर 'संघर्ष की मिथक-गाथा' के निर्माण में भी अत्यंत आवश्यक भूमिका निभाते हैं. हालांकि संघ आज ऐसी सरकार पर नियंत्रण रखता है जो विश्व की जनसंख्या के पांचवें हिस्से पर शासन करती है, फिर भी वह अपनी वैचारिक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा हिंदू उत्पीड़न और सरकारी दमन की कथाओं से ग्रहण करता है. इस संदर्भ में, 'न्यायपूर्ण आंदोलन' की छवियां या 'सेवा कार्य' के वे प्रसंग, जब कोई और आगे नहीं आया, संघ के लिए नैतिक पूंजी का कार्य करते हैं.
'फ्रंट संगठन' शब्द का प्रयोग हमने इसके सामान्य अर्थ से कहीं अधिक सटीक अर्थ में किया है. हमारे अनुसार, ऐसे संगठन वे होते हैं जो अपने मूल संगठन से भौतिक रूप से लगभग अस्पष्ट होते हैं अर्थात् उनकी वित्तीय व्यवस्था, गतिविधियां, संगठनात्मक संरचना और अधिकार प्रवाह सब समान होते हैं, लेकिन वे एक अलग नाम के तहत संचालित किए जाते हैं, ताकि संगठनात्मक दोहराव और अस्पष्टता की रणनीति को बनाए रखा जा सके. यह परिभाषा संघ के सिर्फ़ कुछ ही संगठनों पर लागू होती है.
उदाहरण के लिए, ‘सेवा भारती’ पूरे भारत में कार्यरत है, किंतु उसके राज्य-स्तरीय विभाग अक्सर अलग नाम और कानूनी पहचान के तहत कार्य करते हैं. जैसे, ओडिशा में उत्कल विपन्न सहायता समिति, महाराष्ट्र में जनकल्याण समिति, त्रिपुरा में विवेकानंद सेवा न्यास और उत्तराखंड में उत्तरांचल उत्थान परिषद के नाम से सक्रिय है. इसी प्रकार, विद्या भारती राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करती है, लेकिन, झारखंड में इसे वनांचल शिक्षा समिति, तमिलनाडु में तमिल कल्वी कझगम, दिल्ली में समर्थ शिक्षा समिति और पंजाब में सर्वहितकारी शिक्षा समिति के नाम से जाना जाता है.
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संघ के आंतरिक प्रकाशनों और संवादों में इन मूल और फ्रंट संगठनों के बीच का यह भेद लगभग समाप्त हो जाता है.
इसके अतिरिक्त, हमने कई ऐसे संगठनों की भी पहचान की जिन्हें हमने 'गुप्त संगठन' की संज्ञा दी है. यही वे संगठन हैं जिनका नाम आते ही सामान्य जनमानस में संघ के साथ जुड़ी हिंसा की छवि उभरती है. ये गुप्त संगठन केवल संघ के साथ अपने संबंधों को ही नहीं छिपाते, बल्कि स्वयं संगठन या उसकी गतिविधियों को भी पर्दे में रखते हैं. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि ये प्रायः ऐसे कार्यों में लिप्त होते हैं जो या तो अवैध होते हैं या संघ की प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक हो सकते हैं.
संघ का एक उद्देश्य यह भी है कि वह एक मज़बूत, पुरुषत्व से भरपूर और आक्रामक समुदाय की छवि बनाए, ताकि वह हिंदू राष्ट्र के अपने वादे को पूरा कर सके. चुनावों के समय हिंसा मतदाताओं को एकजुट करने के लिए एक उपयोगी रणनीति बन सकती है, लेकिन इसके साथ एक छवि को नुकसान पहुंचाने का बड़ा ख़तरा भी जुड़ा होता है.
इसी बीच, संघ ने अपनी छवि सुधारने और समाज के लिए अपनी सोच को और अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए एक तरह की रणनीतिक छवि-निर्माण की कोशिशें की हैं. 1970 के दशक के अंत के बाद जब संघ की ताकत बढ़ने लगी, तो उसे समाज के कुछ वर्गों को बाहर रखने को लेकर होने वाली बढ़ती सार्वजनिक आलोचना का सामना करना पड़ा. इसका असर यह हुआ कि संघ ने एक नए प्रकार के संगठन बनाने शुरू किए जिन्हें प्रदर्शन के लिए बनाए गए संगठन या 'शोपीस संगठन' कहा जा सकता है.
इन संगठनों का प्रमुख उद्देश्य अपनी उपस्थिति के माध्यम से संघ के बारे में एक संदेश देना होता है. ये आम तौर पर बहुत प्रचारित होते हैं, परंतु संगठनात्मक रूप से सतही और सीमित होते हैं. इनका कार्य है संघ पर लगने वाले जातिवाद, सांप्रदायिकता और हिंदू सर्वोच्चता के आरोपों को निष्प्रभावी करना और अधिक लोगों को संघ के प्रभाव क्षेत्र में लाना.
उदाहरण के लिए, ‘सामाजिक समरसता मंच’ की स्थापना 1983 में उस समय हुई, जब 1981 में मीनाक्षीपुरम के दलितों ने सामूहिक रूप से इस्लाम धर्म अपनाया था.
‘राष्ट्रीय सिख संगत' की स्थापना 1986 में सिख विरोधी हिंसा के बाद इस उद्देश्य से की गई कि यह प्रदर्शित किया जा सके कि सिख धर्म और हिंदू राष्ट्रवाद के बीच कथित रूप से कोई विरोधाभास नहीं है.
इसी तरह, ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ की स्थापना 2002 के गुजरात दंगों के कुछ ही महीनों बाद की गई, ताकि यह दिखाया जा सके कि संघ मुसलमानों से 'नफ़रत नहीं करता’. यह संगठन संघ की छवि सुधारने की रणनीति का एक हिस्सा था.
इन संगठनों की नेटवर्क में स्थिति आमतौर पर अंतिम छोर जैसी होती है. इसका मतलब यह है कि ये शोपीस संगठन उन बाकी संघ संगठनों की तरह आगे नई शाखाएं या नए संगठन नहीं बनाते. ये आमतौर पर आरएसएस के सीधे अधीन होते हैं और इनमें प्रचारकों की मज़बूत मौजूदगी होती है. शोपीस संगठन संघ की बड़ी जन-संगठन रणनीतियों के मुख्य केंद्र नहीं लगते. उदाहरण के तौर पर, ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच' दो दशक पहले बना था, लेकिन आज भी यह संघ और मुस्लिम समाज के संपर्क का अंतिम छोर बना हुआ है. इससे पता चलता है कि यह क्षेत्र संघ के लिए बहुत बड़ा प्राथमिकता वाला क्षेत्र नहीं है.
हमने कई तरह के 'प्रशिक्षण संगठन' भी पहचाने. संघ की स्थापना को 100 साल हो चुके हैं, और संघ हमेशा यह कहता रहा है कि उसका मूल लक्ष्य व्यक्ति-निर्माण है. व्यक्ति-निर्माण का अर्थ है लोगों की शारीरिक क्षमता, स्वभाव, विश्वास और पहचान को इस तरह गढ़ना कि वे हिंदू राष्ट्र के आदर्श नागरिक बन जाएं.
शाखा प्रणाली के माध्यम से होने वाले इस व्यक्ति-निर्माण पर बहुत लिखा गया है, लेकिन कैडर-आधारित आरएसएस ऐसे कई संगठनों में से सिर्फ़ एक है जो यह काम करते हैं.
संघ ने कई प्रकार के दूसरे प्रशिक्षण संस्थानों में निवेश किया है, जिन्हें ऐसे 'कारख़ाने' की तरह तैयार किया जाता है जो ग़ैर-संघ लोगों को संघ के विस्तार के साधनों में बदल देते हैं. ‘रांभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी’ राजनीतिक नेताओं को प्रशिक्षित करती है. ‘सेंट्रल हिंदू मिलिटरी एजुकेशन सोसाइटी’ ऐसे 'संघी सैनिक' तैयार करती है जिनसे उम्मीद होती है कि वे एक दिन 'संघी जनरल' बनेंगे. ‘स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान' एक बड़े उत्पादन केंद्र की तरह है, जो ऐसे योग शिक्षक तैयार करता है जो दुनिया भर में हिंदू राष्ट्रवादी योग की सॉफ्ट पावर फैला सकें. प्रशिक्षण संगठनों के पास ही एक और श्रेणी होती है, जिसे 'ज्ञान-उत्पादन संगठन' कहा जा सकता है.
ये वे संस्थान होते हैं जो ऐसा बौद्धिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक और कलात्मक वातावरण तैयार करते हैं, जिसमें संघ के अन्य संगठनों की गतिविधियां वैध और सही लगने लगती हैं. उदाहरण के लिए : ‘फोरम फ़ॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्योरिटी’; 'फोरम फ़ॉर स्ट्रैटेजिक एंड सिक्योरिटी स्टडीज़’; ‘जम्मू-कश्मीर स्टडी सेंटर’; ‘विवेकानंद इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन’. ये संस्थान मुख्य रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े नीतिगत सवालों पर काम करते हैं.
कारवां की रिपोर्ट के अनुसार, विवेकानंद इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन कश्मीर में सैन्य हस्तक्षेप से संबंधित विस्तृत प्रस्ताव तैयार करता है, जिनका उपयोग बाद में बीजेपी सरकार के अधिकारी कश्मीर के अधिग्रहण को सही ठहराने के लिए करते हैं.
इस श्रेणी के अंतर्गत, हमने संघ के अनुसंधान कार्य को उसके थिंक-टैंक, नीतिगत संस्थानों और भारतीय ज्ञान केंद्रों की व्यवस्था से जोड़ कर समझा : दीनदयाल शोध संस्थान’ और ‘सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़’, आर्थिक (विशेषतः ग्रामीण) विकास पर काम करते हैं; 'भारतीय विचार केंद्रम’ और ‘विश्व अध्ययन केंद्र’, भारतीय सभ्यता की उपलब्धियों पर केंद्रित हैं; कुछ लिंग-संबंधी मुद्दों पर कार्य करते हैं जैसे 'दृष्टि स्त्री अध्ययन प्रबोधन केंद्र'. कुछ शिक्षा से संबंधित हैं जैसे ‘संवित रिसर्च फाउंडेशन’ और कुछ आदिवासी व मूलनिवासी अध्ययन से जैसे ‘इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर कल्चरल स्टडीज़’.
इन संस्थाओं की गतिविधियां अक्सर एक प्रतिक्रियात्मक रूप में देखी जा सकती हैं. यह संघ की वह प्रतिक्रिया है जो हिंदू राष्ट्रवादियों पर लगे आरोपों के विरुद्ध विकसित हुई कि उनके पास न तो कोई 'महान बौद्धिक परंपरा' है, न ही कोई 'गंभीर शासन दृष्टि'. इनमें से अधिकांश शोध संस्थान 1990 के दशक के बाद और 2000 के दशक की शुरुआत में उभरे, ठीक उसी समय जब अल्पसंख्यक समुदायों पर हिंसा भड़काने में संघ की भूमिका की आलोचना बढ़ रही थी.
अंततः संघ के भीतर सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण वर्ग है 'लास्ट-माइल ऑर्गनाइजेशन्स' यानी वे छोटे-छोटे सेवा प्रदान करने वाले संगठन, जो संघ के संसाधनों और सामान्य जनता के बीच अंतिम संपर्क बिंदु बनते हैं. ये वे नेत्र-चिकित्सालय, रक्त बैंक, गांवों के स्कूल, अनाथालय, कुष्ठ रोग क्लिनिक जैसी संस्थाएं हैं, जो उन समुदायों में सेवाएं प्रदान करती हैं जिन्हें संघ अपने प्रभाव क्षेत्र में लाना चाहता है. इन संगठनों का आकार छोटा है, परंतु इनकी संख्या, भौगोलिक फैलाव और समुदायों में गहरी पहुंच इन्हें अत्यंत प्रभावशाली बनाते हैं, ये लगातार और सीधे तौर पर बड़ी आबादी से संपर्क में रहते हैं.
इन संगठनों का स्थान संघ नेटवर्क की संरचना में काफ़ी हद तक हाशिए पर होता है. इनमें से अधिकतर संगठन नेटवर्क के अंतिम छोर पर होते हैं, जिनकी सिर्फ़ एक ही कड़ी किसी समन्वय करने वाले संगठन से जुड़ी होती है और अन्य समान संगठनों से लगभग कोई संबंध नहीं होता. ये संगठन किसी मज़बूत संघ-सम्बंधित सामाजिक माहौल में काम नहीं करते और अक्सर हिंदुत्व विचारधारा पर ज़ोर नहीं देते, जिससे नए समर्थकों के लिए यह नेटवर्क से जुड़ने का एक सुरक्षित और बिना विवाद वाला रास्ता बन जाता है. इनका ध्यान ज़्यादातर ज़मीनी स्तर पर सेवा कार्य करने पर होता है, जो संघ की आत्म-छवि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, वैसा ही जैसा वह अपने बारे में लोगों को दिखाना चाहता है. लेकिन ये संस्थान धीरे-धीरे राष्ट्रवादी सोच को बढ़ावा देने और समर्थकों को तैयार करने के भी महत्वपूर्ण स्थान होते हैं. यह भी ध्यान देने योग्य है कि ऐसे संगठनों के माध्यम से प्रवासी संघ समर्थकों से बहुत बड़ी मात्रा में धनराशि चैरिटी के नाम पर आती है.
हमारी टीम को पूरा विश्वास है कि यह शोध और भी नए शोधों और पत्रकारिता के लिए नए रास्ते खोलेगा. इसमें शामिल हैं : संघ धन और संसाधनों का प्रवाह कैसे करता है, इसका पता लगाना; संघ की कम सार्वजनिक प्राथमिकताओं को समझना, जैसे कि इसके सैकड़ों रेज़िडेंशियल स्कूल और छात्रावास का नेटवर्क और संघ के भीतर छुपे हुए विभिन्न आंतरिक संघर्षों को समझना और उजागर करना. इन सवालों और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को समझने के लिए, यह आवश्यक है कि सबसे पहले यह समझा जाए कि संघ वास्तव में क्या है. हमें उम्मीद है कि इस दिशा में हमने एक प्रारंभिक रोडमैप प्रदान किया है.
लेकिन इस परियोजना का सबसे महत्वपूर्ण योगदान केवल तथ्यात्मक नहीं, बल्कि विचारात्मक भी है. पिछले कई दशकों से संघ को लेकर दो समानांतर धारणाएं प्रचलित रही हैं. पहली धारणा यह मानती है कि संघ के विभिन्न घटक केवल एक साझे वैचारिक लक्ष्य के आधार पर ढीले-ढाले रूप से जुड़े हुए हैं
यानी, आरएसएस स्वयं को केवल 'प्रेरणास्रोत' के रूप में देखता है, जो समर्पित स्वयंसेवकों और संगठनों की एक श्रंखला को प्रेरित करता है. दूसरी धारणा, इसके विपरीत, यह मानती है कि संघ को केवल वैचारिक समानता से नहीं, बल्कि संगठनात्मक ढांचे से उत्पन्न भौतिक और प्रशासनिक संबंधों से अधिक परिभाषित किया गया है. इस दृष्टिकोण में, संघ अपने प्रबंधन और समन्वय को मुख्य कार्यों में गिनता है और वह अक्सर जानबूझ कर विभिन्न समुदायों के सामने अलग-अलग चेहरों को प्रस्तुत करता है, परंतु वह इन्हें एक ही मातृ-संगठन से उत्पन्न रूपों में देखता है, ऐसे रूप जो मूलतः एक ही इकाई के अभिन्न हिस्से हैं और जिनके बीच यह संगठन निरंतर संसाधन और संरचना के ज़रिए एकता बनाए रखता है.
हमें यह याद रखना चाहिए कि दोनों ही दृष्टिकोणों को, स्वयं आरएसएस ने ही प्रोत्साहित किया है. लेकिन मुख्य बात यह है कि इनमें से एक रूप जनता के सामने प्रस्तुत किया जाता है, जबकि दूसरा संघ के आंतरिक दर्शकों के लिए सुरक्षित रखा जाता है. अब संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है, तो जनता का यह अधिकार है कि वह यह जाने कि संघ अपने बारे में अपने आंतरिक दस्तावेजों में क्या कहता है और उसी आधार पर अपनी समझ विकसित करे.
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