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वर्ष 2014 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत में अन्य पिछड़ा वर्ग की अहम भूमिका थी. चुनाव प्रचार में नरेन्द्र मोदी ने बार-बार खुद को ओबीसी बताया था. यहां तक कि अपने दूसरे कार्यकाल के पहले भी नरेन्द्र मोदी ने ओबीसी की छवि को भुनाया. लेकिन ओबीसी के प्रति नरेन्द्र मोदी कितने गंभीर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2014 से लेकर अबतक ऐसे 70 युवा बेरोजगार हैं जिन्होंने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा पास कर ली है लेकिन क्रीमी लेयर प्रावधान का हवाला देकर उन्हें नियुक्ति से वंचित रखा जा रहा है. ये सभी नियुक्तियां केंद्रीय कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय (डीओपीटी) के तहत आती हैं जिसके मंत्री स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं.
डीओपीटी के मनमानेपन की एक शिकार मध्य प्रदेश की ज्येष्ठा मैत्रेयी हैं. उन्होंने वर्ष 2017 में यूपीएससी की परीक्षा पास की. उनकी रैंक 156 थी. उनकी नियुक्ति पर डीओपीटी ने रोक लगा दी. बाद में ज्येष्ठा को भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) अधिकारी बन जाने को कहा गया. जबकि उनके अंक ओबीसी कोटे के तहत आईएएस अधिकारी (भारतीय प्रशासनिक सेवा) बनने के लिए पर्याप्त हैं. उनकी मंशा भी इसी सेवा में काम करने की है. फिर भी उन्हें ओबीसी कोटे का लाभ नहीं दिया गया बल्कि सामान्य श्रेणी के तहत आईपीएस अधिकारी बनाया गया है.
मैत्रेयी के पिता मध्य प्रदेश में इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में असिस्टेंट थे. उपभोक्ताओं की शिकायत पर फ्यूज बनाने का काम करते थे. उन्होंने अपनी बेटी को बड़ी मुश्किलों से पढ़ाया. ज्येष्ठा ने भी अपने पिता को निराश नहीं किया और वर्ष 2017 में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा उत्तीर्ण कर 156वीं रैंक हासिल की. इससे पहले कि ज्येष्ठा आईएएस अधिकारी बनकर अपने पिता का सपने पूरा कर पातीं, इसी साल 4 जनवरी को उनके पिता का निधन हो गया.
दरअसल, अन्य पिछड़ा वर्ग की मैत्रेयी के पिता एक लोक उपक्रम (पीएसयू) के कर्मचारी थे, इसलिए डीओपीटी ने उनके गैर क्रीमी लेयर होने पर सवाल खड़ा किया है. दिलचस्प बात यह है कि डीओपीटी उसी प्रमाण-पत्र को खारिज कर रहा है जो जिलाधिकारी द्वारा जारी किया गया है और कायदे से डीओपीटी को स्वीकार्य होना चाहिए.
सीलम साई तेजा भी ऐसे ही एक शख्स हैं जिन्हें क्रीमी लेयर प्रावधान पर डीओपीटी की मनमानी का शिकार होना पड़ा. इनके पिता की आर्थिक हैसियत ज्येष्ठा के पिता से अच्छी है और वह पीएसयू में असिस्टेंट इंजीनियर हैं. तेजा ने वर्ष 2017 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण की. उन्हें 43वां रैंक हासिल हुआ लेकिन नियुक्त अब तक नहीं हुई.
महाराष्ट्र के पवार स्वप्निल वसंतराव के मन में शुरू से आईपीएस बनने की इच्छा थी. इन्होंने भी यूपीएससी की परीक्षा 2017 में पास की और उन्हें 525वां रैंक मिला. लेकिन वे भी आजतक आईपीएस नहीं बन सके हैं. उनके पिता किसी लोक उपक्रम के कर्मचारी हैं (कुछ पेंशनर भी हैं) और इन लोगों ने यूपीएससी प्रतियोगिता की सभी बाधाओं को सफलतापूर्वक पार कर लिया है. इसके बावजूद इनकी नियुक्ति नहीं हो सकी है.
सूचना का अधिकार अधिनियम- 2005 के तहत मांगी गई सूचनाओं के आधार पर वर्षवार बात करें तो पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों के साथ यह नाइंसाफी वर्ष 2014 से जारी है. नियुक्ति से वंचित अभ्यर्थियों की संख्या वर्ष 2014 में 8, वर्ष 2015 में 12, वर्ष 2016 में 12, वर्ष 2017 में 30 और वर्ष 2018 में 8 है. इस प्रकार यह कुल आंकड़ा 70 होता है.
कड़ी मेहनत के बाद मिली सफलता के बाद भी अधर में लटके इन अभ्यर्थियों में निराशा बढ़ती जा रही है. पूछने पर उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के रहने वाले 34 साल के एक अभ्यर्थी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि उनके पिता एक बैंक में क्लर्क हैं और 2020 में रिटायर हो जाएंगे. वर्ष 2015 में राकेश ने पहली बार यूपीएससी की लिखित परीक्षा पास की लेकिन साक्षात्कार में पिछड़ गए. उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 2016 में दुबारा परीक्षा पास कर, साक्षात्कार की बाधा भी पार कर ली. उस साल पूरे भारत में उनका रैंक 433वां था. मिर्जापुर के स्थानीय अखबारों में उनकी सफलता के समाचार छपे लेकिन राकेश के लिए यह संघर्षों का अंत नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत साबित हुआ.
पिछड़ा वर्ग के राकेश के पिता का बैंक में क्लर्क होना उनके लिए मुसीबत बन गया. फिलहाल डीओपीटी ने उनके आईएएस बनने पर रोक लगा रखी है. केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय का कहना है कि अभी तक उसके पास वह नीति नहीं है जिसके आधार पर वह केंद्रीय लोक उपक्रमों, राज्याधीन लोक उपक्रमों, बीमा संस्थानों, बैंकों, सरकार द्वारा संपोषित स्कूलों में कार्य करने वालों के बच्चों को निर्गत किए गए गैर क्रीमी लेयर प्रमाण-पत्र को स्वीकार कर सके.
महाराष्ट्र के पुणे शहर के रहने वाले बंजारी समुदाय के एक अभ्यर्थी ने बताया कि उनके पिता सरकार द्वारा वित्तपोषित स्कूल में शिक्षक हैं. इस अभ्यर्थी ने भी 2016 में यूपीएससी की परीक्षा पास कर ली थी. उन्हें 701वां रैंक मिला और नियमत: उन्हें आईआरएस अधिकारी के रूप में पदासीन होना चाहिए था. लेकिन उनके मामले में भी गैर क्रीमी लेयर संबंधी नियमों को लेकर डीओपीटी की ओर से स्पष्टता नहीं है. बंजारी समुदाय महाराष्ट्र में ओबीसी में शामिल है. राज्य में पिछड़े वर्गों के बड़े नेता रहे गोपीनाथ मुंडे भी इसी समुदाय के थे.
महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के रहने वाले एक अन्य अभ्यर्थी ने बताया कि उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा पिछले वर्ष 2018 में उत्तीर्ण कर ली थी लेकिन परिणाम 5 अप्रैल 2019 को जारी किया गया. उन्हें 480वां रैंक हासिल हुआ और चूंकि आईएएस के पद पर चयन हेतु ओबीसी के लिए कट ऑफ रैंक 420 है तो उनकी नियुक्ति आईपीएस के रूप में होनी थी. उनके पिता एक बैंक में ग्रुप डी श्रेणी के कर्मचारी हैं. उनकी भी समस्या वही है जो अन्य अभ्यर्थियों की है.
दरअसल इस पूरे मामले को पेचीदा बना दिया गया है. 1990 में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया गया था. इसके साथ ही इसके प्रयास भी हुए कि इस आरक्षण से उन्हें कैसे अलग रखा जाए, जो आर्थिक रूप से सुखी-संपन्न हैं. इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमीलेयर की व्यवस्था दी. सुपीम कोर्ट के आदेश के बाद एक विशेषज्ञ समिति बनी जिसने इसके लिए एक नियत आय (वर्तमान में आठ लाख रुपए वार्षिक आय) की व्यवस्था की. सरकारी कर्मचारियों के लिए कुछ प्रावधान भी किए गए. इन प्रावधानों के तहत ग्रुप ए के कर्मियों को स्वतः क्रीमीलेयर मान लिया गया. जबकि ग्रुप बी के कर्मियों के लिए 40 साल की उम्र सीमा निर्धारित की गई जिसके अनुसार ग्रुप बी का कोई अधिकारी यदि 40 वर्ष की उम्र के बाद ग्रुप ए में पदोन्नति पाता है तो उसके बच्चों के लिए गैर क्रीमीलेयर का प्रमाण-पत्र मान्य होगा. ग्रुप सी और गुप डी के सरकारी कर्मियों के बच्चों के गैर क्रीमीलेयर प्रमाण-पत्र पर डीओपीटी को कोई आपत्ति नहीं रही है. इनकी आय में वेतन से प्राप्त आय को आय नहीं माना जाता. इस संबंध में एक ऑफिस मेमोरेंडम 8 सितंबर 1993 को जारी किया गया था.
लेकिन यह केवल केंद्र व राज्य सरकार के अधीन विभागों के कर्मियों के लिए है. लोक उपक्रमों, बैंकों, बीमा संस्थानों और सरकार द्वारा वित्तपोषित स्कूलों के शिक्षकों के बच्चों को आरक्षण का लाभ मिलने में सबसे बड़ी बाधा समतुल्यता के निर्धारण का है यानी अगर कोई एक आईएएस अधिकारी किसी लोक उपक्रम में पदासीन होगा तो उसके पद की समतुल्यता आईएएस की ही होगी. यही होता भी है. इस लिहाज से अगर कोई सरकारी विभाग में चपरासी है तो लोक उपक्रम में उसकी समतुल्यता चपरासी ही होनी चाहिए. क्लर्क के मामले में भी कायदे से यही व्यवस्था होनी चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं है. डीओपीटी का कहना है कि उसके पास इसके लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है.
यह मामला पहले भी उठता रहा है. लेकिन डीओपीटी अपने नियम खुद ही बनाता है. यहां तक कि वह इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को भी स्वीकार नहीं करता है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट कहा था कि किसी भी व्यक्ति का गैर क्रीमीलेयर प्रमाण-पत्र स्थानीय जिलाधिकारी द्वारा सत्यापित होगा और वही केंद्रीय स्तर पर भी मान्य होगा. इस संबंध में माधुरी पाटिल बनाम महाराष्ट्र सरकार (1994) बम्बई हाईकोर्ट का फैसला भी एक नजीर है.
पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों की राहों में सबसे बड़ा अवरोधक डीओपीटी का मनमानापन है. उसने वर्ष 2015 में ही 2 अभ्यर्थियों के गैर क्रीमीलेयर प्रमाण-पत्र को मान लिया था. इस संबंध में एक उदाहरण केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने स्वयं एक पत्र में दिया है. 14 दिसंबर 2018 को डीओपीटी के सचिव डॉ. सी. चंद्रमौली को लिखे पत्र में उन्होंने कहा है कि वर्ष 2015 में 621 और 723 रैंकधारी अभ्यर्थियों के प्रमाण-पत्र को डीओपीटी ने राज्य सरकार की अनुशंसा के बाद स्वीकार कर लिया था. इससे पहले वर्ष 2004 में भी राज्य सरकारों की अनुशंसा के बाद लोक उपक्रम के कर्मियों के परिवार से आने वाले सफल अभ्यर्थियों के गैर क्रीमीलेयर प्रमाण-पत्र को स्वीकार किया गया था.
डीओपीटी की नजर में केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत के आधिकारिक अनुरोध का भी कोई महत्व नहीं है. अपने पत्र में उन्होंने कहा था कि ऐसे सभी अभ्यर्थी, जो पिछड़े वर्ग से आते हैं और उनके माता-पिता किसी लोक उपक्रम के कर्मचारी हैं, उनके गैर क्रीमीलेयर प्रमाण-पत्र को स्वीकार किया जाए और उनकी नियुक्ति की जाए.
वैसे यह मामला केवल डीओपीटी तक सीमित नहीं है. भारत सरकार ने मामले को सुलझाने के लिए वर्ष 2017 में एक संसदीय कमिटी का गठन किया था. इसके अध्यक्ष गणेश सिंह बनाए गए. इस संसदीय कमिटी ने अपनी रिपोर्ट इसी वर्ष सौंप दी. अपनी रिपोर्ट में कमिटी ने कई अनुसंशाएं कीं. इनमें मुख्य रूप से दो अनुशंसाएं रहीं. पहली अनुशंसा यह कि लोक उपक्रम के कर्मियों की आय में वेतन से प्राप्त आय को शामिल नहीं किया जाए और दूसरी यह कि राज्य सरकारों द्वारा निर्गत गैर क्रीमीलेयर प्रमाण-पत्र को डीओपीटी स्वीकार करे.
डीओपीटी की मनमानी का एक प्रमाण यह भी है कि जब संसदीय कमिटी इस मामले में काम कर रही थी उसी दौरान उसने 8 अगस्त 2017 को एक नया प्रस्ताव भारत सरकार के समक्ष रखा. इसके मुताबिक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों यानी पीएसयू में क्लर्क और चपरासी के पद पर काम करने वाले ओबीसी वर्ग के कर्मियों के बच्चों को अब आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा. जबकि इसी आदेश के मुताबिक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के कर्मियों के बच्चों के अधिकारों को बरकरार रखा गया. केंद्रीय मंत्रिपरिषद ने 6 अक्टूबर 2017 को अपनी बैठक में कार्मिक विभाग के इस प्रस्ताव को अपनी मंजूरी दी थी.
गणेश सिंह की अध्यक्षता वाली संसदीय कमिटी की अनुशंसाएं स्वीकार करने में भी डीओपीटी को ऐतराज हुआ. उसने 8 मार्च 2019 को एक और विशेषज्ञ कमिटी का गठन किया. इसके अध्यक्ष सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी (1981 बैच) भानू प्रताप शर्मा बनाए गए. ये वही भानू प्रताप शर्मा हैं जिनके ऊपर सोनभद्र में जमीन विवाद को लेकर हुए नरसंहार के मामले में प्राथमिकी दर्ज है. दरअसल, उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के उम्मा-सिपही गांव में 17 जुलाई 2019 को जमीन पर कब्जे को लेकर नरसंहार को अंजाम दिया गया. इसमें दस गोंड आदिवासी मारे गए थे. जिस जमीन को लेकर इस नरसंहार को अंजाम दिया गया, उस जमीन को भानू प्रताप शर्मा की पत्नी विनीता शर्मा के नाम हस्तांतरित किया गया था.
बहरहाल, डीओपीटी भानूप्रताप शर्मा कमिटी की रिपोर्ट का इंतजार कर रही है. यही इंतजार ओबीसी वर्ग के सफल अभ्यर्थियों को भी है जो सफलता पाने के बाद भी अधर में लटके हैं.