उत्तर प्रदेश की पुलिस मित्र : सामुदायिक पुलिसिंग या "सलवा जुडुम"?

25 जनवरी 2020
बेगम पुरवा निवासियों ने बताया कि 20 दिसंबर 2019 से पहले कभी भी स्थानीय लोगों के खिलाफ कार्रवाई में एसपीओ की तैनाती नहीं देखी.
एएफपी / गैटी इमेजिस
बेगम पुरवा निवासियों ने बताया कि 20 दिसंबर 2019 से पहले कभी भी स्थानीय लोगों के खिलाफ कार्रवाई में एसपीओ की तैनाती नहीं देखी.
एएफपी / गैटी इमेजिस

20 दिसंबर 2019 को उत्तर प्रदेश पुलिस ने कानपुर में नागरिकता (संशोधन) कानून के विरोध के दौरान 12 लोगों को गोली मार दी. गोली लगने से घायल तीन लोगों की बाद में एक अस्पताल में मौत हो गई. पुलिस ने प्रदर्शनकारियों की पिटाई भी की, घरों और दुकानों में तोड़फोड़ की और किशोरों को हिरासत में लिया. पुलिस की कार्रवाई के वक्त सादे कपड़ों में कई लोग उसके साथ मौजूद थे. स्थानीय निवासियों ने मुझे बताया कि लोग उनके घरों में घुस गए, उनके वाहनों को जला दिया और उनके साथ मारपीट की. राज्य के मेरठ, मुजफ्फरनगर, सम्भल और बिजनौर जिलों में इसी तरह की घटनाएं हुईं.

बाद में, बिजनौर के पुलिस अधीक्षक संजीव त्यागी ने मेरे साथ एक बातचीत में माना कि गैर-वर्दीधारी लोगों ने 20 दिसंबर 2019 को बिजनौर जिले में पुलिस का साथ दिया था. हालांकि, उन्होंने इस बात से इनकार किया कि ये लोग प्रदर्शनकारियों के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा में शामिल थे. उन्होंने कहा कि ये गैर-वर्दीधारी लोग पुलिस के "मित्र" थे. "ये विशेष पुलिस अधिकारी हैं. सभी समुदायों के लोगों को पुलिस मित्र बनाया जाता है. उनका काम पुलिस की सहायता करना है. पुलिस कानून इसकी अनुमति देता है. यह अवैध नहीं है." उन्होंने बताया कि "कई मौकों पर इन्होंने हमारी मदद की है. कानून और व्यवस्था यहां इसीलिए बनी हुई है क्योंकि पुलिस मित्र ने यहां वास्तविक मदद की. वे पुलिस के साथ काम करते हैं.” बिजनौर को छोड़कर राज्य पुलिस ने सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान गैर-वर्दीधारी लोगों की तैनाती की बात स्वीकार नहीं की है.

उत्तर प्रदेश में पुलिस मित्र को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) और पुलिस मुखबीर. नागरिकों को “सामुदायिक पुलिसिंग” पहल के तहत पुलिस बल की सहायता के लिए भर्ती किया जाता है. हालांकि, ये लोग अपने समुदाय के सदस्यों की ही मुखबिरी करते हैं और एक समुदाय के लोगों को दूसरे के खिलाफ करने और दोनों के बीच आपस में संदेह और डर पैदा करने के एक उपकरण के रूप में काम करते हैं. विद्रोहियों का समर्थन करने वाले संदिग्ध समुदायों की जानकारी जुटाने में पुलिस की सहायता के लिए एसपीओ का परंपरागत रूप से अशांत क्षेत्रों में उपयोग किया जाता रहा है. एसपीओ की भर्ती उन समुदायों के भीतर से की जाती है और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने समुदाय के सदस्यों के कार्यों के बारे में पुलिस को सतर्क करते रहेंगे.

उत्तर प्रदेश में पुलिस की बर्बरता के बाद, मैंने राज्य में पुलिस मित्र की खुफिया दुनिया को समझने की कोशिश की. मेरी मुलाकात कानपुर के मुस्लिम बहुल इलाके बेगम पुरवा में रहने वाले साहब अख्तर से हुई. चालीस साल के अख्तर अपने भूरे रंग के चमड़े के जैकेट और चुन्नटदार ट्राउजर्स में, ईमानदार पुलिसवाले की तरह दिखते हैं. वह पुलिसवाले नहीं हैं. अख्तर की एक परचून की दुकान है. वह अपना अधिकांश समय स्थानीय लोगों से बात करते हुए बिताते हैं और उनका सहायक दुकान संभालता है.

अख्तर ने मुझे बताया कि गैर-वर्दीधारी स्थानीय लोग ही थे, जिन्हें विशेष पुलिस अधिकारी के बतौर नियुक्त किया गया था. पुलिस की भाषा में इन्हें पुलिस मित्र कहा जाता है. वह 2017 तक खुद एक एसपीओ थे. उन्होंने मुझे बताया कि एसपीओ स्थानीय पुलिस को नियमित रूप से जानकारी देते हैं. हालांकि, बेगम पुरवा निवासियों ने बताया कि 20 दिसंबर 2019 तक स्थानीय लोगों पर कार्रवाई के लिए एसपीओ की तैनाती नहीं देखी थी. निवासियों ने उन्हें दुत्कारा और उन्हें मुखबीर कहा, लेकिन उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वे अपने ही समुदाय के खुलेआम उत्पीड़न में पुलिस का साथ देंगे.

सागर कारवां के स्‍टाफ राइटर हैं.

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