उत्तर प्रदेश की पुलिस मित्र : सामुदायिक पुलिसिंग या "सलवा जुडुम"?

बेगम पुरवा निवासियों ने बताया कि 20 दिसंबर 2019 से पहले कभी भी स्थानीय लोगों के खिलाफ कार्रवाई में एसपीओ की तैनाती नहीं देखी. एएफपी / गैटी इमेजिस
25 January, 2020

20 दिसंबर 2019 को उत्तर प्रदेश पुलिस ने कानपुर में नागरिकता (संशोधन) कानून के विरोध के दौरान 12 लोगों को गोली मार दी. गोली लगने से घायल तीन लोगों की बाद में एक अस्पताल में मौत हो गई. पुलिस ने प्रदर्शनकारियों की पिटाई भी की, घरों और दुकानों में तोड़फोड़ की और किशोरों को हिरासत में लिया. पुलिस की कार्रवाई के वक्त सादे कपड़ों में कई लोग उसके साथ मौजूद थे. स्थानीय निवासियों ने मुझे बताया कि लोग उनके घरों में घुस गए, उनके वाहनों को जला दिया और उनके साथ मारपीट की. राज्य के मेरठ, मुजफ्फरनगर, सम्भल और बिजनौर जिलों में इसी तरह की घटनाएं हुईं.

बाद में, बिजनौर के पुलिस अधीक्षक संजीव त्यागी ने मेरे साथ एक बातचीत में माना कि गैर-वर्दीधारी लोगों ने 20 दिसंबर 2019 को बिजनौर जिले में पुलिस का साथ दिया था. हालांकि, उन्होंने इस बात से इनकार किया कि ये लोग प्रदर्शनकारियों के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा में शामिल थे. उन्होंने कहा कि ये गैर-वर्दीधारी लोग पुलिस के "मित्र" थे. "ये विशेष पुलिस अधिकारी हैं. सभी समुदायों के लोगों को पुलिस मित्र बनाया जाता है. उनका काम पुलिस की सहायता करना है. पुलिस कानून इसकी अनुमति देता है. यह अवैध नहीं है." उन्होंने बताया कि "कई मौकों पर इन्होंने हमारी मदद की है. कानून और व्यवस्था यहां इसीलिए बनी हुई है क्योंकि पुलिस मित्र ने यहां वास्तविक मदद की. वे पुलिस के साथ काम करते हैं.” बिजनौर को छोड़कर राज्य पुलिस ने सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान गैर-वर्दीधारी लोगों की तैनाती की बात स्वीकार नहीं की है.

उत्तर प्रदेश में पुलिस मित्र को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) और पुलिस मुखबीर. नागरिकों को “सामुदायिक पुलिसिंग” पहल के तहत पुलिस बल की सहायता के लिए भर्ती किया जाता है. हालांकि, ये लोग अपने समुदाय के सदस्यों की ही मुखबिरी करते हैं और एक समुदाय के लोगों को दूसरे के खिलाफ करने और दोनों के बीच आपस में संदेह और डर पैदा करने के एक उपकरण के रूप में काम करते हैं. विद्रोहियों का समर्थन करने वाले संदिग्ध समुदायों की जानकारी जुटाने में पुलिस की सहायता के लिए एसपीओ का परंपरागत रूप से अशांत क्षेत्रों में उपयोग किया जाता रहा है. एसपीओ की भर्ती उन समुदायों के भीतर से की जाती है और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने समुदाय के सदस्यों के कार्यों के बारे में पुलिस को सतर्क करते रहेंगे.

उत्तर प्रदेश में पुलिस की बर्बरता के बाद, मैंने राज्य में पुलिस मित्र की खुफिया दुनिया को समझने की कोशिश की. मेरी मुलाकात कानपुर के मुस्लिम बहुल इलाके बेगम पुरवा में रहने वाले साहब अख्तर से हुई. चालीस साल के अख्तर अपने भूरे रंग के चमड़े के जैकेट और चुन्नटदार ट्राउजर्स में, ईमानदार पुलिसवाले की तरह दिखते हैं. वह पुलिसवाले नहीं हैं. अख्तर की एक परचून की दुकान है. वह अपना अधिकांश समय स्थानीय लोगों से बात करते हुए बिताते हैं और उनका सहायक दुकान संभालता है.

अख्तर ने मुझे बताया कि गैर-वर्दीधारी स्थानीय लोग ही थे, जिन्हें विशेष पुलिस अधिकारी के बतौर नियुक्त किया गया था. पुलिस की भाषा में इन्हें पुलिस मित्र कहा जाता है. वह 2017 तक खुद एक एसपीओ थे. उन्होंने मुझे बताया कि एसपीओ स्थानीय पुलिस को नियमित रूप से जानकारी देते हैं. हालांकि, बेगम पुरवा निवासियों ने बताया कि 20 दिसंबर 2019 तक स्थानीय लोगों पर कार्रवाई के लिए एसपीओ की तैनाती नहीं देखी थी. निवासियों ने उन्हें दुत्कारा और उन्हें मुखबीर कहा, लेकिन उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वे अपने ही समुदाय के खुलेआम उत्पीड़न में पुलिस का साथ देंगे.

उत्तर प्रदेश में 2017 में बीजेपी के सत्ता में आने तक, अख्तर ने 2012 और 2017 के बीच समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के तहत एसपीओ के रूप में काम किया था. उन्होंने मुझे बताया कि 20 दिसंबर 2019 को पुलिस ने एसपीओ की मदद से प्रदर्शनकारियों और पुलिस बल के बीच हाथापाई की ''कहानी गढ़ी''. अख्तर ने कहा कि उन्होंने यह काम इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उन्हें एहसास हो गया था कि बीजेपी शासन में उनके काम की प्रकृति बदल जाएगी और उन्हें अपने समुदाय के खिलाफ अधिक शातिर होने की जरूरत होगी, जो वह नहीं चाहते थे. उन्होंने सीएए-विरोधी प्रदर्शनों में एसपीओ की भागीदारी की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते थे जिससे उनके लोगों की मौत हो. "अब ऐसी मुखबिरी कौन करता?"

बेगम पुरवा में मैं एक अन्य स्थानीय निवासी शकील अब्बा से मिला, जो इलाके में सामाजिक कार्य करने वाले मुस्लिम युवाओं की एक टीम का हिस्सा हैं. उन्होंने मुझे बताया कि उनके लोगों ने पहले एसपीओ के साथ क्षेत्र में ईद और मुहर्रम जैसे त्योहारों को आयोजित करने में मदद की थी, लेकिन अब तक उन्होंने कभी भी लोगों को पीटने के लिए एसपीओ की तैनाती नहीं देखी थी.

अख्तर सहित बेगम पुरवा के कई अन्य निवासियों ने मुझे बताया कि पुलिस की कार्रवाई में भाग लेनेवालों में महज एसपीओ ही नहीं थे. उनके अनुसार, कई “बाहरी” लोग थे, जिन्हें वे नहीं पहचानते. निवासियों ने कहा कि वे एसपीओ को जानते हैं क्योंकि वे सभी स्थानीय लोग हैं. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि पुलिस के साथ अन्य लोग भी थे जो न तो वर्दी में थे और न ही स्थानीय थे. निवासियों ने बताया कि वे बजरंग दल और हिंदू युवा वाहिनी जैसे हिंदू आतंकवादी संगठनों के सदस्य रहे होंगे. निवासियों का मानना था कि पुलिस मित्र योजना के नाम पर, पुलिस ने कानपुर के निवासियों पर नकेल कसने के इरादे से निगरानी रखने वाले हिंदुओं की भर्ती की और उन्हें हमारे इर्दगिर्द ले आई.

अख्तर ने मुझे बताया कि वह कानपुर के बर्रा पुलिस थाने के तहत काम करने वाले लगभग नब्बे प्रतिशत एसपीओ को जानते हैं. उन्होंने उनका वर्णन अपराधियों के रूप में किया, जिन पर थाने में एक से अधिक मामले दर्ज हैं. उन्होंने मुझे बताया कि अधिकांश लोग एसपीओ बनने पर राजी हो गए क्योंकि पुलिस ने उनके सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं छोड़ा. “वे खुद को बचाने के लिए ऐसा करते हैं. इसके अलावा और क्या हो सकता है? पुलिस उनसे कहती है कि ‘अगर तुम हमारे साथ दोगे तो हम तुम्हें गिरफ्तार नहीं करेंगे. तुम जो भी अपराध कर रहे हो, करते रहो.'' मैंने अख्तर से पूछा कि वह एसपीओ क्यों बने और उन्होंने इसे क्यों छोड़ा? उन्होंने मुझे बताया कि एसपीओ की भर्ती की अनुमति देने वाला पुलिस कानून इलाके के ''संभ्रांत लोगों'' की भर्ती को निर्धारित करता है, न कि अपराधियों की. वह खुद को ईमानदार नागरिक मानते हैं.

लेकिन अगर पुलिस वास्तव में अपराधियों को समुदाय के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए नियुक्त कर रही थी, तो अख्तर को क्यों लिया गया? अख्तर के साथ खड़े बेगम पुरवा के एक अन्य निवासी अशफाक सिद्दीकी ने बताया, “वह जिन दस लोगों को लेते हैं, उनमें से एक ईमानदार नागरिक होता है. ताकि अगर यह आरोप लगे कि केवल अपराधी ही एसपीओ हैं, तो पुलिस अख्तर जैसे लोगों को दिखा सके.” अख्तर ने सहमति में सिर हिलाया. उन्होंने मुझे यह भी बताया कि एक बार एसपीओ हो जाने के बाद पीछे हटना लगभग असंभव होता है. उन्होंने कहा कि वह यह काम छोड़ सके क्योंकि पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों से उनके संबंध थे.

सिद्दीकी ने एक घटना का जिक्र किया जिसमें एक व्यक्ति को एसपीओ बना देने के बाद उसके लिए इसे छोड़ना कितना मुश्किल हो गया था. उन्होंने कहा कि लगभग एक दशक पहले पुलिस ने उनके एक बचपन के दोस्त, कानपुर के किदवई नगर में रहने वाले मोहम्मद शरीफ पर क्षेत्र में बम फेंकने का आरोप लगाया था. "वह एक गैर-मुस्लिम लड़की से प्यार करता था. वह तब बीस साल का था. जब लड़की के परिवार उस रिश्ते को अस्वीकार कर दिया, तो एक देसी बम फेंककर वह अपनी शक्ति दिखाना चाहता था. उसे गिरफ्तार कर लिया गया.”

"लेकिन जब शरीफ जमानत पर बाहर आया, तो एक मुखबिर बन चुका था." सिद्दीकी ने कहा कि उनकी सलाह पर, शरीफ ने बाद में एक सब्जी की दुकान खोली और मुखबिरी बंद करने की कोशिश की. वह सामान्य जीवन जीना चाहता था लेकिन पुलिस ने उसे फिर पकड़ लिया और तब से शरीफ जेल में है.

पूर्व में एसपीओ की भर्ती अनौपचारिक होती थी, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह प्रणाली उत्तर प्रदेश राज्य पुलिस के भीतर कब शुरू हुई. समाचार रिपोर्टों से पता चलता है कि एसपीओ को 2012 में पुलिस मित्र के रूप में जाना जाने लगा. उस साल हिंदी दैनिक अमर उजाला में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि, बिजनौर जिले में, "पुलिस व्यवस्था में लंबे समय से किसी नए एसपीओ की भर्ती नहीं की गई है. ... एसपीओ के साथ पुलिस मित्र की भर्ती के लिए एक नई पहल की जा रही है."

जून 2018 में, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक प्रवीण कुमार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की, जिसमें उन्होंने एसपीओ की भर्ती को "सामुदायिक पुलिसिंग" के रूप में वर्णित किया. उन्होंने घोषणा की कि इसके बाद एसपीओ को "योजना" के तहत काम पर रखा जाएगा. इस योजना को "एस 10" भी कहा जाता है. कानपुर में स्थानीय लोगों ने मुझे बताया कि इस योजना के तहत, प्रत्येक पुलिस अधिकारी को 10 लोगों को पुलिस मित्र के रूप में नामांकित करने के लिए कहा गया था. कुमार ने कहा कि "सामुदायिक पुलिसिंग" को अधिक प्रभावी बनाने के लिए और समुदाय के साथ बेहतर संवाद बनाए रखने के लिए योजना शुरू की गई है. उन्होंने कहा कि पुलिस स्टेशन के अधिकारियों के लिए यह आवश्यक है कि वे संभ्रांत लोगों का डेटाबेस बनाएं और जिले के पुलिस अधिकारियों के लिए यह जरूरी है कि वे "लगातार उनके साथ संपर्क में रहें". कुमार ने कहा कि एस 10 को एसपीओ को काम पर रखने की प्रक्रिया को "संस्थागत बनाने" के लिए किया जा रहा था. उन्होंने बताया कि अलग-अलग जगहों पर, विभिन्न पुलिस अधीक्षकों ने अलग-अलग नामों से इस योजना को अपनाया है, जैसे पुलिस मित्र. कुमार ने इस बारे में कुछ नहीं कहा कि एस 10 के सदस्यों को पुलिस मित्र या एसपीओ के रूप में क्या करना होता है, सिवाय इसके कि पुलिस अधिकारियों के लिए "मुहल्ले स्तर पर उनसे प्रतिक्रिया लेना आवश्यक है."

2017 में बीजेपी सरकार के सत्ता में आने के कुछ महीने बाद अमर उजाला में छपी एक खबर के मुताबिक, आगरा पुलिस को 30000 पुलिस मित्रों की भर्ती का लक्ष्य दिया गया था. प्रत्येक पुलिस कर्मी को कम से कम 10 मित्र नामांकित करने का लक्ष्य दिया गया था. अधिकांश आदेशों में कथित तौर पर कहा गया कि पुलिस मित्र को प्रतिष्ठित व्यक्ति होना चाहिए, फिर भी उन्होंने ऐसे उम्मीदवारों की न्यूनतम शैक्षिक आवश्यकता के बारे में कोई जानकारी नहीं दी. नोएडा जिले में 2015 में चलाए गए इस तरह के एक अभियान में कथित तौर पर पुलिस मित्र बनने की कोई शैक्षिक आवश्यकता नहीं थी. अख्तर और अशफाक ने मुझे यह भी बताया कि पुलिस मित्र बनने के लिए "संभ्रांत लोगों" के लिए भी किसी तरह की शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता नहीं है.

अख्तर के अनुसार, अनिवार्य रूप से एसपीओ होने का मतलब सूचना देने वाला है. उन्होंने कहा, "एसपीओ को अक्सर पुलिस के निर्देश पर झूठी गवाही देनी पड़ती है." अख्तर ने मुझे बताया कि एसपीओ पुलिस की ओर से ''दलाली'' करते हुए पैसा कमाते हैं. संदर्भ के रूप में सिद्दीकी की ओर इशारा करते हुए, अख्तर ने बताया, "मान लीजिए कि पुलिस उसे गिरफ्तार करती है और वह एक निर्दोष व्यक्ति है और मैं उसे रिहा करवाने के लिए गया, पुलिस कहेगी हमें उससे कुछ पैसे बनेंगे.” अख्तर ने मुझे बताया कि यह एक ऐसा साधन था जिसके द्वारा एसपीओ और कुटिल पुलिस ने स्थानीय निवासियों से पैसे कमाए. अख्तर ने बताया कि कभी-कभी एसपीओ को मजबूर किया जाता है कि वह किसी व्यक्ति को निशाना बनाए ताकि उससे पैसे वसूल किए जा सकें और उन पर लगातार दबाव होता कि वे समुदाय से किसी व्यक्ति को नियमित रूप से निशाना बनाएं. अख्तर ने कहा, “स्टेशन-हाउस अधिकारी आपके कान में कहेंगे, ‘आप बहुत समय से हमारे लिए कोई केस नहीं लाए.’”

अख्तर ने बताया कि उनके कार्यकाल के दौरान, एसपीओ कभी प्रदर्शनकारियों की पिटाई नहीं करते थे. अख्तर ने जोर देकर कहा कि 20 दिसंबर 2019 को पहली बार उन्होंने एसपीओ को लोगों से सीधे टकराते हुए देखा. उन्होंने मुझे बताया कि उस दिन कानपुर के ईदगाह मैदान के पास तैनात कुछ एसपीओ उनके परिचित थे. अख्तर ने कहा कि एसपीओ ने प्रदर्शनकारियों के गुस्से को भड़काकर उन पर पथराव किया. एक बार पथराव शुरू हो गया तो पुलिस को प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का कारण मिल गया.

उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ फिलहाल कितने एसपीओ काम कर रहे हैं, इसका कोई अनुमान नहीं है. इकोनॉमिक टाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक, 2019 में यूपी पुलिस की तादाद दो लाख 80 हजार थी. अगर एस-10 योजना को एक बेंचमार्क के रूप में उपयोग किया जाता है, तो प्रत्येक पुलिस अधिकारी को 10 एसपीओ को नामांकित करने की आवश्यकता होती है, और यह मानते हुए कि प्रत्येक अधिकारी द्वारा इसका पालन किया जाता है, राज्य में पुलिस मित्र या एसपीओ की संख्या लगभग 2.8 करोड़ होगी. राज्य की कुल आबादी लगभग बीस करोड़ है, जिसका अर्थ यह होगा कि प्रत्येक आठ लोगों के लिए एक एसपीओ होगा.

मैंने पुलिस मित्र की भर्ती की वैधानिकता, उनके काम और जिम्मेदारियों, उनकी योग्यता और सीएए प्रदर्शनकारियों के खिलाफ उनकी तैनाती के औचित्य को समझने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस के दो पूर्व महानिदेशों- विभूति नारायण राय और विक्रम सिंह- से बात की. राय ने भारतीय पुलिस सेवा अधिकारी के रूप में 36 साल काम किया और 2007 और 2009 के बीच राज्य पुलिस महानिदेशक का पद संभाला. जब हाशिमपुरा नरसंहार हुआ था तब राय गाजियाबाद जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे. 22 मई 1987 की रात पुलिस ने मेरठ के एक इलाके हाशिमपुरा से 42 मुसलमानों को उठाया. पड़ोस के गाजियाबाद जिले में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी.

राय ने कहा कि जो पुलिस कानून एसपीओ की भर्ती की अनुमति देते हैं. वे अलग-अलग राज्य में अलग-अलग हैं. दोनों पूर्व अधिकारियों ने इस बात पर सहमति जताई कि यूपी पुलिस के नियमों के तहत एसपीओ की भर्ती का प्रावधान है, लेकिन बताया कि एसपीओ या पुलिस मित्र को भीड़ को नियंत्रित करने या दंगा जैसी स्थिति में भी तैनात नहीं किया जा सकता. अपनी सेवा के दौरान दोनों ने एसपीओ का इस्तेमाल किया था और कहा था कि एसपीओ केवल किसी समुदाय के बारे में जानकारी जुटाने या किसी समुदाय के भीतर चलने वाली सोच को समझने के लिए होते थे. दोनों पुलिस अधिकारियों ने मुझे यह भी बताया कि एसपीओ की भर्ती उनकी सेवा के दौरान राज्य पुलिस में संस्थागत नहीं थी. उन्होंने कहा कि एसपीओ का कामकाज जगह विशेष की आवश्यकता या एरिया कमांडर के व्यक्तित्व पर निर्भर करता था. दोनों इस बात पर भी सहमत थे कि एसपीओ के संचालन का दुरुपयोग हो सकता है. राय ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि एक संस्था के रूप में उग्र हिंदू संगठन एसपीओ का हिस्सा हो सकते हैं. उन्होंने कहा कि इस तरह के संगठनों के सदस्य पुलिस मित्र का हिस्सा हो सकते हैं क्योंकि "सत्तारूढ़ राजनीतिक व्यवस्था की विचारधारा" को खारिज नहीं किया जा सकता है.

भारतीय पुलिस बलों में एसपीओ की भर्ती की पृष्ठभूमि के बारे में समझाते हुए, राय ने मुझे बताया कि ऐसी भर्ती "क्षेत्र विशेष" होती थी और मुख्य रूप से कश्मीर और छत्तीसगढ़ जैसे "उग्रवाद" प्रभावित राज्यों में प्रचलित थी. उन्होंने कश्मीर में अपने 1993-1994 दिनों को याद किया जब उग्रवाद चरम पर था. उन्होंने मुझे बताया कि वह उस समय सीमा सुरक्षा बल में थे और इखवान-उल-मुस्लमीन के सदस्यों को जानते थे. इखवान-उल-मुस्लमीन एक सरकार-समर्थक सेना थी जिसमें कश्मीर में आत्मसमर्पण करने वाले उग्रवादी शामिल थे जो 1990 के दशक के दौरान सक्रिय थे. राय ने कहा, "हम जानते थे कि इखवान सदस्य सेना द्वारा प्रशिक्षित हैं और उनकी कार्यप्रणाली पर हमने आंखें बंद रखीं." राय ने कहा कि इखवानों को एसपीओ के रूप में समान नीति के तहत भर्ती किया गया था. उन्होंने मुझसे कहा कि कश्मीर में ऐसे एसपीओ अक्सर अपनी बंदूक और निर्विवाद अधिकार से स्थानीय निवासियों को धमकाते रहते, लेकिन "सेना इसे नहीं देखने का नाटक करती." राय ने कहा कि सुरक्षा प्रतिष्ठान में सोच यह थी कि "कोई तो प्रेरणा होनी चाहिए तभी ये लोग आपके लिए लड़ेंगे.”

राय ने छत्तीसगढ़ के बारे में भी बात की, जहां 2005 में उसी एसपीओ नीति के तहत सलवा जुडुम का गठन किया गया था. सलवा जुडुम सरकार समर्थक निगरानी समूह था जिसमें वे स्थानीय आदिवासी लोग शामिल थे, जिन्होंने माओवादी हिंसा का सामना किया था और माओवाद से आत्मसमर्पण कर दिया था. उन्हें अन्य स्थानीय लोगों की पहचान करने के लिए कहा गया था जिनके बारे उनका मानना था कि वे उग्रवाद का समर्थन कर रहे हैं. एसपीओ पर भी आतंकवाद रोधी अभियानों में सुरक्षा बलों के साथ स्थानीय गाइड के रूप में गांवों को जलाने और लूटने के आरोप लगे हैं.

राय ने मुझे बताया कि एसपीओ योजना के तहत भर्ती होने वालों में से अधिकांश अक्सर "बेरोजगार" होते हैं. उनके लिए, एसपीओ बनना सम्मान हासिल करने का एक तरीका था. "बेरोजगार बच्चे जो इधर-उधर घूम रहे थे, उन्हें अब सामाजिक मान्यता मिल जाती कि वे पुलिस के साथ घूम सकते हैं." हालांकि, राय ने बताया कि, "इस तरह के प्रयोग पूरी दुनिया में युद्ध जैसी स्थितियों में ही किए जाते हैं."

राय ने आगे कहा कि कानपुर जैसे गैर-संघर्ष क्षेत्र में, एसपीओ केवल "सामुदायिक पुलिसिंग" के लिए हैं. गैर-संघर्ष क्षेत्र में दंगा जैसी स्थिति को नियंत्रित करने के लिए एसपीओ को कभी भी तैनात नहीं किया जाना चाहिए. "इन लोगों को लाठियों से स्थानीय लोगों से लड़ने या उनकी पिटाई करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए." उनके अनुसार, एसपीओ का एकमात्र उद्देश्य शांतिपूर्ण स्थिति में सूचना इकट्ठा करना होना चाहिए.

राय ने कहा कि राज्य के छह जिलों में पुलिस अधीक्षक के रूप में अपनी सेवा के दौरान, एसपीओ की भर्ती "जिले-जिले में भिन्न होती थी." जब एसपीओ की जॉब प्रोफाइल के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि यह "अस्पष्ट" है और एसपीओ की कोई स्पष्ट रूप से परिभाषित भूमिका नहीं होती. उन्होंने जोर दिया कि भर्ती एक विशेष जिले के पुलिस अधीक्षक के "व्यक्तित्व" पर निर्भर करती है. राय ने बताया कि बड़े पैमाने पर एसपीओ जाने-माने नागरिक होते जैसे "क्षेत्र का कोई प्रमुख डॉक्टर, वकील, विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले प्रोफेसर." हालांकि, उन्होंने एसपीओ के पुलिस के दलाल के तौर पर काम करने की धारणा को खारिज नहीं किया. "ये तब हुआ जब उन्हें भुगतान नहीं किया गया," उन्होंने कहा.

पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह ने कानपुर में प्रदर्शनकारियों के खिलाफ एसपीओ की तैनाती को "अवैध" और "पुलिस संस्थान का अपमान" करार दिया. सिंह के अनुसार, कोई एसपीओ कभी भी "पुलिस के काम" में शामिल नहीं हो सकता. एसपीओ का एकमात्र काम सामुदायिक पुलिसिंग के कामकाज के बारे में उच्च अधिकारियों को अपडेट रखना होता है, जैसे "पुलिस की गश्त हो रही है या नहीं, प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज की जा रही है या नहीं." सिंह ने कहा, "एसपीओ का काम केवल अधिकारियों को यह बताते रहना है कि क्या चल रहा है.

सिंह ने कहा कि शांतिकाल के दौरान, एसपीओ की भर्ती को नगर सुरक्षा समिति, मोहल्ला रक्षा समाज और गांव सुरक्षा समिति, या ग्राम रक्षा परिषद के लिए पुलिस विनियमन प्रावधानों के तहत अनुमति दी जाती है. लेकिन एसपीओ केवल उन लोगों को बनाया जाना चाहिए जो सभी समुदायों से सम्मान प्राप्त करते हैं. उन्होंने कहा कि उनके समय में एसपीओ आमतौर पर "सेना के पेंशनर, पुलिस पेंशनर, वकील, डॉक्टर" होते थे.

सिंह इस बात से सहमत नहीं थे कि एसपीओ की भर्ती के प्रावधान ने पुलिस में मिलिशिया समूहों के प्रवेश की अनुमति दी. इसके बजाये, उन्होंने कहा कि होशियारी "एसपीओ के उचित उपयोग" और जरूरत पड़ने पर उनके निष्कासन में है. उन्होंने उपमा देकर अपनी बात रखी. "मान लीजिए कि आपके पास हथियार है. अगर आप इसे एक ईमानदार व्यक्ति को देते हैं, तो वह इसे सही तरीके से उपयोग करेगा, गोली निशाने पर लगेगी. लेकिन अगर आप इसे किसी अपराधी को देते हैं, तो वह इसका इस्तेमाल आपराधिक गतिविधियों के लिए करेगा.”

कानपुर में अख्तर, सिद्दीकी और बेगम पुरवा के कई अन्य निवासियों को लगता है कि एसपीओ को किसी भी रूप में पुलिस का हिस्सा नहीं होना चाहिए और यह पुलिस को एक मिलिशिया समूह में बदल रहा है. सिद्दीकी ने कहा, “थोड़ा सा पैसे कमाने के लिए पुलिस कई निर्दोष लोगों को फंसा रही है. यह बहुत गलत है.”