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27 दिसंबर 2021 को हरियाणा के एक कस्बे रोहतक में संकल्प सभा में शामिल होने वाले 500 से ज्यादा किसानों के बीच खुशी का माहौल था. एक महीने पहले यहां से 70 किलोमीटर दूर दक्षिण में यानी दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की थी जिन्होंने साल भर चले भीषण प्रतिरोध आंदोलन को जन्म दिया था. रैली आंदोलन की जीत की खुशी में एकजुटता जाहिर करने के लिए आयोजित गईं कई रैलियों में से एक थी. इसका आयोजन रोहतक के नागरिक. समाज समूह किसान मजदूर संघर्ष सहयोग मंच द्वारा किया गया था.इसके साथ ही स्थानीय प्रोफेसरों, विश्वविद्यालय के छात्रों और कारख़ाना मजदूर भी इसमें शामिल थे जिन्होंने दिल्ली के टिकरी बॉडर पर बड़े पैमाने पर धरने में सहायता की थी. रैली में आंदोलन में मारे गए राज्य के किसानों की याद में हरियाणवी रागणी भी गाई गई .
कार्यक्रम में अखिल भारतीय किसान सभा के इंद्रजीत सिंह ने उस दिन हुई एक घटना के बारे में बताया जब सिंघू और टिकरी के आंदोलन स्थलों को हटाया जा रहा था और विजयी किसान अपने गांवों को लौटने लगे थे. जब कुछ किसान बीसवीं सदी की शुरुआत के एक जाट नेता छोटू राम, जिन्होंने हरियाणा और पंजाब में किसानों और मजदूरों को एकजुट किया था, की मूर्ति पैक कर रहे थे, तो उन्होंने ‘‘किसान एकता जिंदाबाद’’ का नारा लगाया. तभी पास खड़े एक खेतिहर मजदूर ने उनसे पूछा, ‘‘इस नारे में मजदूर कहां है’’ लगभग तभी सभी किसानों ने अपना नारा बदलकर ‘‘किसान मजदूर एकता जिंदाबाद’’ कर लिया.
ये मजदूर दलित समुदायों के प्रति एकजुटता और सम्मान को दिखाता था. जिन्हें मैं सिंघू और टिकरी बॉडर के आंदोलनों स्थलों में अक्सर देखता था. ये ज्यादातर पंजाब के वामपंथी झुकाव वाले, किसान संघों द्वारा आयोजित किए गये थे. लेकिन गाजीपुर सीमा पर भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शन में इस एकजुटता का अभाव था जिसके कार्यकर्ता मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के आस-पास के क्षेत्र से थे, जिसे मैं अपना घर कहता हूं.
मैं दिसंबर 2020 में समान विचारधारा वाले लेखकों, कलाकारों और कार्यकर्ताओं द्वारा प्रकाशित द्वि-पाक्षिक समाचार पत्र ट्रॉली टाइम्स के सह.संपादक के रूप में किसान आंदोलन में शामिल हुआ था. उस अनिश्चित समय के दौरान, जब सरकार ने आंदोलन स्थलों पर इंटरनेट बंद कर दिया और मुख्यधारा के मीडिया ने खुद को सरकारी तोते की भूमिका तक गिरा दिया था, तब ट्रॉली टाइम्स आंदोलन के बारे में जानकारी के मुख्य आधार स्रोतों में से एक के रूप में उभरा. इसने किसानों को कृषि कानूनों से पैदा होने वाले खतरों के बारे में शिक्षित करने का काम किया और खेती और ग्रामीण समाज से संबंधित बड़े सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ नेताओं और आंदोलन के प्रतिभागियों के साक्षात्कार और प्रोफाइल के बारे में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की. विरोध प्रदर्शनों के सांस्कृतिक स्थान में काफी केंद्रीय भूमिका निभाने के बावजूद मैंने देखा कि मैंने जानबूझ कर गाजीपुर जाने से परहेज किया था, इसके बजाय मैं ज्यादातर सिंघू और टिकरी के बारे में रिपोर्ट करता रहा. यह उस क्षेत्र से मेरे सांस्कृतिक और भाषाई संबंधों के बावजूद था, जहां से गाजीपुर के कई प्रदर्शनकारी आए थे.
यह कोई दुर्घटना नहीं थी. मैं खेतिहर मजदूर परिवार से आता हूं. और किसानों ने ऐतिहासिक रूप से इस वर्ग के हितों पर कोई ध्यान नहीं दिया है. सम्मान और ज्यादा मजदूरी की मांग करने वाले मजदूरों को या तो भूमिधारी कृषक समुदायों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया या इन मांगों के लिए उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ा था. पंजाब के किसान संघों ने इस दुश्मनी को पहचाना और यह भी महसूस किया कि कृषि कानूनों को निरस्त करने का संघर्ष श्रमिक समुदायों के समर्थन के बिना सफल नहीं हो सकता, जो ग्रामीण बहुसंख्यक हैं. जब ‘‘किसान मजदूर एकता जिंदाबाद’’ का नारा कलाकारों और कार्यकर्ताओं ने लोकप्रिय बना दिया, तब भी आंदोलन करने वाले किसानों ने इसे स्वीकार करने में महीनों लगा दिए. हालांकि कई लोगों ने नारे को ग्रामीण स्तर पर अन्यायपूर्ण सामाजिक विभाजन को मिटाने के आह्वान के रूप में स्वीकार नहीं किया, लेकिन कम से कम कुछ लोगों ने इसे नवउदारवादी कृषि नीतियों के खिलाफ लड़ाई जीतने की आवश्यकता के रूप में तो देखा ही.
पंजाब ने विरोध प्रदर्शन में खेतिहर मजदूरों की अभूतपूर्व भीड़ देखी थी. वामपंथ समर्थित संगठन- जैसे कि जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति, पंजाब खेत मजदूर संघ, मजदूर मुक्ति मोर्चा, क्रांतिकारी पेंडु मजदूर संघ और देहाती मजदूर सभा- न्यूनतम मजदूरी, सामाजिक बहिष्कार और भूमि पर मजदूरों के अधिकारों के मुद्दों पर काम कर हैं, वे आंदोलन में अपने लोगों के साथ शामिल हो गए. उनके सदस्य अक्सर टिकरी और सिंघू बॉडर के प्रदर्शनों में भाग लेते थे. सबसे वामपंथी झुकाव वाले पंजाब आधारित किसान संघ बीकेयू (एकता उग्रहन) ने भी पंजाब खेत मजदूर संघ के साथ एक ही बैनर तले बरनाला में एक बड़ी रैली का आयोजन किया था, जिसमें दो लाख से ज्यादा किसान और मजदूर एकजुट हुए थे.
आंदोलन स्थलों को और अधिक समावेशी बनाने के प्रयास भी किए गए थे. आंदोलन में संयुक्त किसान मोर्चा की समन्वय समिति ने बहुजन नायकों से संबंधित कार्यक्रमों को मनाने का फैसला किया था. पंद्रहवीं शताब्दी के दलित रहस्यवादी कवि रविदास की जयंती के अवसर में टिकरी बॉडर में मोर्चे ने उत्सव का आयोजन किया जिसमें कई किसानों और दलितों ने भाग लिया. यहां तक कि सिख संगठनों ने नगर कीर्तन का आयोजन किया, जिसमें कई जन गीत गाये गये थे जो किसानों और मजदूरों की वांछित एकता का जिक्र करते थे. पंजाब विश्वविद्यालय के आंबेडकर छात्र संघ के सदस्यों ने सिंघू बौडर में एक बहुजन पुस्तकालय बनाया था. पुस्तकालय टीम का नेतृत्व करने वाले सदस्य गुरदीप सिंह लगभग एक साल तक विरोध स्थल पर रहे. बावजूद इसके की ये उनकी खुद की शिक्षा के लिए खतरनाक हो सकता था. उन्होंने बताया कि उन्हें पुस्तकालय में अंबेडकरवादी नीला झंडा ऊंचा फहराने और यह सुनिश्चित करने पर गर्व है कि आंदोलन में बी. आर. आंबेडकर, जनता के अधिकारों को बताने वाली और पंजाब के इतिहास से जुड़ी दो हजार से ज्यादा किताबें उपलब्ध करा सके हैं.
इसके उलट मैंने गाजीपुर धरने को शंका और घबराहट की नजर से देखा. बाहर से, यह उस सामाजिक व्यवस्था का एक साधारण विस्तार प्रतीत होता था, जिसमें मैं पला-बढ़ा था. मंच से विरोध का नेतृत्व करने वाले सभी लोग उसी प्रभुत्वशाली.जाति से थे, जिनके लिए मेरी मां मजदूरी करती थी. विरोध का नेतृत्व करने वाले राकेश टिकैत, हमारे लिए संदिग्ध उद्देश्यों वाले व्यक्ति थे, यह देखते हुए कि उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत का दलित समुदायों और सामाजिक आंदोलनों के प्रति विरोध और हिंसा का एक लंबा इतिहास रहा है. गाजीपुर में प्रदर्शनकारियों की हरकतें अक्सर दलित भावनाओं को आहत भी कर देती थीं. जब हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर, 14 अप्रैल 2021 को, सोनीपत के पास एक गांव में आंबेडकर की प्रतिमा का अनावरण करने वाले थे तो राकेश टिकैत ने इस कदम का विरोध करते हुए दावा किया कि खट्टर ‘‘लोगों के बीच सौहार्द को भंग करने’’ की कोशिश कर रहे हैं. कुछ दलित संगठन, जो टिकैत के खाप सभाओं के उपयोग से नाराज थे, ने खट्टर को उस गांव में प्रवेश करने से रोक दिया जहां उद्घाटन होना था.
ग्रामीण मुजफ्फरनगर में दशकों तक रहने से पैदा हुए तर्कसंगत डर के कारण,मेरी मां के पास मुझे देने के लिए लिए कुछ चेतावनियां थीं. एक खेतिहर मजदूर के रूप में, उन्होंने बड़े किसानों के लिए काम किया था और हमेशा उनके बारे में एक निश्चित अरुचि और तिरस्कार के साथ बात की थी . बचपन में, 1990 के दशक में, मुजफ्फरनगर मुझे अब जितना बड़ा लगता है, उससे कहीं ज्यादा बड़ा लगता था. उस समय, यह क्षेत्र हमारे लिए न केवल ग्रामीण और शहरी परिदृश्य के संदर्भ में बल्कि अवसरों और दुखों के अनुभव में भी बंटा हुआ था. मेरे लिए ग्रामीण जीवन कोई रोमांचक विचार नहीं रहा था, बल्कि पूरी तरह से बर्बादी का चित्र था. जब मैं बारह साल का था, तब मेरे पिता की मृत्यु के बाद मुझे अपने परिवार को चलाने के लिए काम करना पड़ा था, इसके चलते मैं अक्सर स्कूल नहीं जा पता था, जबकि अमीर किसानों के बच्चे आराम से स्कूल जा सकते थे.
मेरी पहली नौकरी ने मुझे प्रेस और उस राज्य से परिचित कराया जिसमें मैं रहता था. हर सुबह, मैं एक अखबार विक्रेता के पास जाता और विज्ञापन वाले कागज को अखबार के अंदर डालता जिसके बाद वे बांटे जाने के लिए तैयार किए जाते थे. अखबारों की सुर्खियों में मुजफ्फरनगर की एक तस्वीर दिखती थी जिससे मेरी मां ने मुझे बचाने की कोशिश की थी, उसमें बलात्कार, हत्या, चोरी, जाति और सांप्रदायिक हिंसा के बारे में होता, जो अक्सर मेरे जैसे ही लोगों के साथ होता था. यह मेरी मां थी जो यह जानती थी कि हमारे लिए सामाजिक गतिशीलता का एकमात्र रास्ता शिक्षा ही है, इसीलिए वो मुझे धकेल कर वापस स्कूल भेजती रहती थी.
उसी समय, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कृषि राजनीति एक परिवर्तन के दौर से गुजर रही थी. इस क्षेत्र में कृषि जीवन न केवल पहचान का एक अंग है बल्कि सामाजिक चेतना का प्रमुख निर्धारक भी है. ऐतिहासिक रूप से, चरण सिंह, महेंद्र टिकैत और राम चंद्र विकल जैसे किसान नेताओं ने इन जिलों में न केवल ग्राम स्तर पर अपार शक्ति का प्रयोग किया बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी उपस्थिति बढ़ाने के लिए इसके प्रभाव का लाभ भी उठाया. यह बहुत समय पहले की बात नहीं है, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान संघ कुछ सबसे शक्तिशाली राजनीतिक दबाव समूहों में से था, जिन्होंने बिजली नीति से लेकर कानून व्यवस्था बनाए रखने तक सब कुछ निर्धारित किया था. साथ ही उन्होंने नाममात्र के लिए ही विभिन्न जातियों और धार्मिक समूहों के बीच भाईचारे की भावना भी पैदा करने की कोशिश की थी.
हालांकि, इस भाईचारे ने गांव के सामाजिक और आर्थिक भविष्य को निर्धारित करने में जाटों की प्रधानता को कभी नहीं छिपाया. रामनारायण एस रावत ने अपनी किताब रीकॉन्सिडरिंग अनटचैबिलिटी: चमार एंड दलित हिस्ट्री इन नॉर्थ इंडिया में लिखा है कि जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिकांश दलित समुदाय कृषि में लगा हुआ था और भूमिहीन होने के कारण ज्यादातर जाट जमींदारों के अधीन खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करते थे. दोनों समुदायों के बीच इस सीधे संबंध ने प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया जिसने ग्रामीण जीवन में गहरी खाई पैदा की. इसने अक्सर दलितों को राजनीतिक निर्णय लेने में एक सार्थक भूमिका निभाने के बजाए केवल वोटों को मजबूत करने के लिए उन्हें महत्वपूर्ण बना दिया. दलित वोट हासिल करने के लिए किसान पृष्ठभूमि के नेताओं द्वारा कई प्रयास किए गए. चरण सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत और विकल ने दलित वोटों के उद्देश्य से राजनीतिक दलों का निर्माण कियाख् एक ऐसा शब्द जो उन्होंने खेतिहर मजदूरों के साथ परस्पर उपयोग किया. टिकैत ने ऐसे दो प्रयास किए, सबसे पहले 1996 में महेंद्र टिकैत और चरण सिंह के पुत्र अजीत सिंह ने भारतीय किसान कामगार पार्टी, का गठन किया जो अंततः राष्ट्रीय लोक दल में विकसित हुई. आठ साल बाद राकेश टिकैत ने बहुजन किसान दल बनाया, जो अब काफी हद तक बिखर चुका है.
बहुजन राजनीति में इन प्रयासों ने जाति या सामाजिक न्याय के बारे में उनकी समझ में मूलभूत परिवर्तन को नहीं दर्शाते. उदाहरण के लिए, महेंद्र टिकैत ने बलियान खाप के माध्यम से भी सत्ता बनाए रखी, जिससे वह क्षेत्र के अन्य सभी खापों की तुलना में अधिक शक्तिशाली बनने में सक्षम थे. इस शक्ति के लिए किसी भी चुनौती को मजबूत खाप ने क्रूरता के साथ कुचल दिया था जिसे केवल वह ही हासिल कर सकते थे. जब उनका बीकेयू 1980 के दशक के अंत में इस क्षेत्र में किसानों के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहा था, तो मुजफ्फरनगर के अधिवक्ता जयपाल सिंह मिथारिया द्वारा सह स्थापित भारतीय मजदूर संघ के बैनर तले खेतिहर मजदूरों ने भी न्यूनतम मजदूरी के लिए खुद को एक जुट किया. मुजफ्फरनगर, मेरठ और बागपत से मिथारिया के संगठन में बड़े पैमाने पर दलित शामिल हुए तो इन जिलों में बिकेयू की बीएमयू के खिलाफ हिंसक झड़पें शुरू हो गईं. खुद मिथारिया पर भी कई बार हमले हुए.
मैं मिथारिया से अगस्त 2021 में मुजफ्फरनगर जिले के एक गांव करहेरा में उनके घर पर मिला था. अपने जवानी के दिनों में, उन्होंने बहुजन नेता कांशीराम द्वारा स्थापित अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ और दलित शोषित समाज संघर्ष समिति, दोनों संगठनों के साथ काम किया था. मिथारिया ने जाति के आधार से आगे बढ़ने पर खेतिहर मजदूरों को एकजुट करने के लिए बीएमयू की स्थापना की. उन्होंने बताया कि, 1980 के दशक के अंत में बीकेयू के जाट सदस्यों ने जाट भूमिधारकों के लिए काम करने से इनकार करने वाले मजदूरों के खिलाफ गोलियां चलाईं थी. 2013 के मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक नरसंहार के बाद मैंने पुनर्वास के दौरान किए गए कार्य में ऐसा महसूस किया हिंसा में कार्रवाई की कमी के चलते बीकेयू ‘‘टिकैत’’ ने अपनी धर्मनिरपेक्षता की अपील भी खो दी है. मिथारिया ने बताया लेकिन वे इस हिंसक इतिहास के बावजूद भी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के आंदोलन का समर्थन करते हैं क्योंकि जब कृषि के निजीकरण की बात आती है तो मजदूर और किसान एक ही नांव में होते हैं.
मुझे 6 दिसंबर 2020 को गाजीपुर आंदोलन स्थल पर जाने में सहज महसूस हुआ जब कुछ प्रदर्शनकारियों ने आंबेडकर की पुण्यतिथि के अवसर पर एक छोटा सा कार्यक्रम आयोजित किया. वहां मैंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई दलित युवाओं को देखा जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, विशेष रूप से इसके औद्योगिक क्षेत्रों में काम कर रहे थे और नियमित रूप से विरोध स्थल पर आते थे. एनसीआर दलित युवाओं के लिए एक सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता प्रदान करता है, जो राजनीतिक रूप से भी गतिशील है और ऐतिहासिक रूप से असमान संरचनाओं के खिलाफ गांवों में आंदोलनों को व्यवस्थित करने में सक्षम हैं. चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी का गठन इस बात की पुष्टि करता है.
इस आगे बढ़ी हुई स्थिति के बावजूद गाजीपुर के कई दलित युवाओं ने मुझे बताया कि उन्हें अभी भी अपने ग्रामीण जीवन पर गर्व है. उनमें से कई मेरे स्कूल के दोस्त भी थे जो अभी भी एक कृषि पहचान से दृढ़ता से जुड़े हुए थे. वे आकर्षक बाइक से यात्रा करते थे जिनमें से कुछ पर आगे की तरफ आंबेडकर के और पीछे ‘‘गामा आले’’ के स्टिकर लगे हुए थे. जब मैंने उनसे पूछा कि उन्हें विरोध में शामिल होने के लिए किस बात ने प्रेरित किया, तो उन्होंने कहा कि वे ताऊ, राकेश टिकैत के समर्थन में आए हैं. 28 जनवरी 2021 को टिकैत द्वारा जनता से भावनात्मक अपील करने के बाद यह समर्थन विशेष रूप से बढ़ गया जब पुलिस ने आंदोलन को बंद करने का प्रयास किया और राकेश टिकैत ने कैमरे के सामने देखते हुए कहा कि वह आंदोलन को समाप्त करने के बजाय खुद को मार डालेंगे. इस बात ने आजाद और भीम आर्मी को भी विरोध प्रदर्शनों को अपना समर्थन देने और अपनी कतारों को मजबूत करने का आग्रह किया.
आजाद और गाजीपुर के कई अन्य दलित युवाओं द्वारा दी गई एकजुटता इन किसान संगठनों या उनके सदस्यों के जातिवादी इतिहास की अनदेखी नहीं करती बल्कि पहचान या विचारधारा से समझौता किए बिना एकता की आवश्यकता को समझती है. इस क्षेत्र में लगी हुई श्रम शक्ति के कम होने का अर्थ है कि अब दलित समुदाय जमींदार समुदायों के प्रति उतने उदार नहीं हैं जितने पहले थे. फिर भी, वे नैतिक स्थिति के आधार पर एकजुटता दिखा रहे हैं.
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के एक संपादकीय में राजनीतिक वैज्ञानी गोपाल गुरु ने विरोध में हाशिए के समुदायों की भागीदारी के बारे में लिखा :
अल्पसंख्यकों और दलितों ने आंदोलन के साथ अपना जुड़ाव दिखाया, न केवल इसलिए कि वे आंदोलन की सफलता के बाद वह भी अपने वेतन में बढ़ोतरी की उम्मीद करते हैं, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि नैतिक वर्चस्व की भावना से संचालित वे विरोधों को. लोकतांत्रिक और संवैधानिक सिद्धांतों को तेजी से कमजोर करने वाली सत्तावादी प्रवृत्तियों के खिलाफ समान सामाजिक स्थिति में सामाजिक एकजुटता को प्रदर्शित करने वाला मानते हैं.
गोपाल गुरु ‘‘एकजुटता’’ के लिए एक रूपरेखा बनाने की बात करते हैं, जिसे ‘‘खुद के लिए एकजुटता’’ तक विस्तारित करने की आवश्यकता बताते हैं और कहते हैं कि किसानों के साथ कोई भी गठबंधन सामाजिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों की दीर्घकालिक आकांक्षाओं से मेल खाना चाहिए.
मेरी मां लगातार मुझसे इस एकजुटता से सतर्क रहने को कहती रही. विरोध प्रदर्शनों के लिए मेरा समर्थन उस सुरक्षा के साथ नहीं था, जो इसमें शामिल कई अन्य लोगों को मिली थी. जैसे-जैसे विरोध बढ़ता गया मेरी मां की न केवल मेरी सुरक्षा के लिए चिंता बढ़ रही थी बल्कि घर में खापों की जीत का क्या मतलब है इस बात की भी चिंता सता रही थी. हम पहले से ही अनिश्चित जीवन जी रहे थे और अगर कुछ गलत हो जाता तो हम उतना चिकित्सा या कानूनी खर्चा नहीं उठा सकते थे जो आंदोलन में शामिल दूसरे लोग उठा सकते थे.
इसके साथ ही, किसान आंदोलन में भाग लेने वाले दलित युवाओं को इस तथ्य से जूझना पड़ा कि सरकार किसान आंदोलन और दलित समुदायों के बीच विभाजन पैदा करने के सक्रिय प्रयास कर रही थी. मुख्य रूप से हिंद मजदूर किसान समिति और भारतीय किसान संघ (भानु) का नेतृत्व विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ आंदोलन को प्रोत्साहित करने में सरकार के प्रयास के साथ था. भारतीय जनता पार्टी के एससी मोर्चा ने भी दलित समुदायों और किसान आंदोलन के बीच अविश्वास का माहौल बनाने की कोशिश में अहम भूमिका निभाई. 30 जून 2021 को गाजीपुर में प्रदर्शनकारी किसानों और बीजेपी कैडर के बीच झड़प के बाद, बीजेपी ने दावा किया कि उसके कैडर पर हमला किया गया क्योंकि वे अमित वाल्मीकि की पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के महासचिव के रूप में नियुक्ति का स्वागत कर रहे थे. इसने उत्तर प्रदेश में एक वाल्मीकि समूह को किसान आंदोलन का विरोध करने और टिकैत के पुतले जलाने को उत्साह दिया था. जबकि बाद में उन्होंने भी किसान आंदोलन को अपना समर्थन दिया.
किसान आंदोलन में दलित एकता को तोड़ने के कई असफल प्रयासों के बावजूद लखबीर सिंह की जघन्य हत्या के क्षण ने वास्तव में किसानों और मजदूरों के बीच एक दरार डाल दी थी. 15 अक्टूबर 2021 की सुबह एक मजहबी सिख प्रदर्शनकारी लखबीर की कई निहंग सिखों ने सिंघू बॉडर में हत्या कर दी और उसके शरीर को विकृत कर दिया. भले ही किसान संघ के नेताओं ने हत्या की निंदा की हो लेकिन जिस अनिच्छा और धीमी गति से उन्होंने इसकी निंदा की, उससे कई आंबेडकरवादी कार्यकर्ताओं का गुस्सा फूट पड़ा.
मेरी मां ने अपनी वही चिंताएं जारी रखीं. उसने मुझे याद दिलाया कि अंत में विरोध प्रदर्शनों में मेरी स्थिति केवल मेरी जाति तक ही सिमट कर रह जाएगी. उन्होंने कहा कि इस आंदोलन से जमींदारों को ही फायदा होगा जबकि मजदूर आर्थिक शोषण और सामाजिक हाशिए की उसी स्थिति में आ जाएंगे. मैं उसे कुछ भी सही से नहीं समझा सकता था कि पूरी ईमानदारी से किसी और की लड़ाई मैं क्यों लड़ रहा था. आखिरकार उसे खेती की अर्थव्यवस्था और जमींदारों के दैनिक शोषण का इतना गहरा अनुभव था जितना मैं कभी नहीं कर सकता था.
मुझे लगता है कि उसके तर्क केवल अतीत से प्रेरित हैं जिसमें आशावादी भविष्य की कल्पना करने की कोशिश के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन अब किसान आंदोलन की जीत के आठ महीने बाद उसके जीवन में बहुत कम बदलाव आया है. अपनी मां को मनाना मेरा नहीं. यह किसान संघों के लिए एक काम है जो अपनी जीत हासिल करने के लिए हमारे समर्थन पर निर्भर हैं. बेशुमार दलित युवाओं ने किसानों के संघर्ष में शामिल होने के लिए अपनी आर्थिक और शैक्षिक संभावनाओं को दांव पर लगा दिया. उन्होंने एक पूरा साल एक आंदोलन को दिया जो अंततः उनका नहीं था. यह पूछने का समय आ गया है कि प्रभुत्वशाली किसान अब उन मजदूर समुदायों को क्या लौटाएंगे जिनके बिना उनका कोई भविष्य नहीं है.
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