ब्राह्मणों को लुभाने के चक्कर में बसपा के हाथों से फिसलता मुस्लिम वोट बैंक

ब्राह्मण मतदाताओं को आकर्षित करने और 2007 की अपनी चुनावी जीत को दोहराने की रणनीति के तहत बहुजन समाज पार्टी ने 23 जुलाई को अयोध्या में इस समुदाय विशेष के लिए एक सम्मेलन का आयोजन करके उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपने चुनावी अभियान का बिगुल फूंका दिया है. “प्रबुद्ध समाज गोष्ठी” नाम के इस कार्यक्रम की शुरुआत बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा द्वारा हिंदुत्व समर्थकों द्वारा लगाए जाने वाले नारे "जय श्रीराम" और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में तेजी लाने का वादा करते हुए हुई. बसपा के सबसे वरिष्ठ ब्राह्मण नेता मिश्रा ने ठाकुर समुदाय से ताल्लुक रखने वाले मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की सत्ता के लिए समुदायों के बीच सदियों पुराने शोषण का फायदा उठाने का प्रयास करने पर आलोचना की. बसपा को भरोसा है कि यह रणनीति उनके सीमित मुस्लिम समर्थन को संगठन से दूर नहीं करेगी. जबकि समुदाय के नेताओं और राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना ​​​​है कि इस कदम से पार्टी को नुकसान पहुंचेगा.

बसपा प्रमुख मायावती ने 18 जुलाई को मीडिया के सामने ब्राह्मण सम्मेलन की घोषणा करते हुए कहा था कि अभियान 23 से 29 जुलाई तक चलेगा और इसकी शुरुआत अयोध्या कार्यक्रम से होगी. मायावती ने दावा किया कि मिश्रा के नेतृत्व में चलाए जाने वाला अभियान ब्राह्मण समुदाय को एक बार फिर से जागरूक करेगा. उन्होंने राज्य की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर 2017 के चुनाव में इस समुदाय विशेष का समर्थन चुनाव जीतने किया लेकिन फिर उनके कल्याण की अनदेखी की और समुदाय को परेशान करने और उनका शोषण किया. 23 जुलाई को यह कार्यक्रम लखनऊ-अयोध्या राजमार्ग पर स्थित एक रिसॉर्ट में आयोजित किया गया, जिसमें कई ब्राह्मण समुदाय के नेता और सैकड़ों बसपा कार्यकर्ता शामिल हुए. मिश्रा अयोध्या में आने वाले पहले बीएसपी नेता बने और साथ ही ऐसा पहली बार हुआ कि जब पार्टी ने ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद स्थल पर राम मंदिर के निर्माण के लिए औपचारिक रूप से अपना समर्थन व्यक्त किया. 2007 में बसपा 403 निर्वाचन क्षेत्रों में से 206 और कुल मतों का 30 प्रतिशत जीत कर राज्य में सत्ता में आई थी. उस वर्ष पार्टी ने 86 ब्राह्मण और 61 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जिनमें से 40 ब्राह्मण और 29 मुस्लिम निर्वाचित हुए थे. पार्टी साफ तौर से 2022 के चुनावों के लिए भी इसी रणनीति को दोहराना चाहती है. फिर भी दिखाई पड़ता है कि केंद्र और राज्य की बीजेपी सरकारों की मुस्लिम विरोधी हिंसा की नीतियों को देखते हुए मायावती और बसपा एक राजनीतिक जोखिम उठा रही हैं.

इस आयोजन की घोषणा करते हुए मायावती ने कहा कि उन्हें विश्वास है कि उत्तर प्रदेश की आबादी में 20 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले दलित मतदाता 2012 और 2017 के विधानसभा चुनावों में लगातार हार के बावजूद उनकी पार्टी के साथ बने रहेंगे. 2012 में 25 प्रतिशत वोट हासिल करने के बावजूद विधानसभा में बसपा की सीट घटकर 80 हो गई थी. जबकि उस चुनाव में अधिकतर मुस्लिम बहुल सीटों पर जीत दर्ज करने वाली समाजवादी पार्टी 224 सीटों और 29 प्रतिशत वोटों के साथ सत्ता में आई थी. 2017 के चुनाव में कथित तौर पर उच्च जाति, गैर-जाटव दलित और गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों के समर्थन से 312 सीटों और 39 प्रतिशत वोटों के साथ बीजेपी सत्ता में आई. उस वर्ष बसपा का वोट प्रतिशत 22 और सीटें 19 तक आ गईं. राज्य की कुल दलित आबादी में लगभग 54 प्रतिशत और कुल आबादी में 9 प्रतिशत जाटव दलित हैं. इनके द्वारा बसपा को वोट दिए जाने के बावजूद मायावती अन्य समुदायों के समर्थन को बरकरार नहीं रख पाईं. ब्राह्मण लंबे समय से भगवा खेमे में रहे हैं, विशेष रूप से 1980 के दशक के अंत में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद से. 2017 में ब्राह्मण जबरदस्त ढ़ग से बीजेपी में लौट आए. उन चुनावों में बीजेपी ने जिन 312 सीटों पर जीत हासिल की, उनमें से 58 कथित तौर पर ब्राह्मण वर्चस्व वाली थीं.

भारी भरकम ब्राह्मण समर्थन होने के बावजूद बीजेपी ने ठाकुर नेता अजय सिंह बिष्ट को सत्ता की बागडोर सौंपी. उनके पहले कार्यकाल के दौरान ब्राह्मणों और ठाकुरों के बीच की लड़ाई केवल 2020 में सामने आई जब उत्तर प्रदेश पुलिस ने ब्राह्मण गैंगस्टर विकास दुबे और अमर दुबे को मुठभेड़ में मार गिराया. उसके बाद कई दिनों तक सोशल मीडिया पर मुठभेड़ में मारे जाने पर आपत्ति जताते हुए "गर्वित ब्राह्मणों" जैसे संदेशों की बाढ़ आ गई. मायावती ने भी कोरस में शामिल होते हुए ट्वीट किया कि आदित्यनाथ सरकार को “ब्राह्मण समुदाय को भयभीत, आतंकित और असुरक्षित महसूस नहीं कराना चाहिए." अयोध्या में अभियान कार्यक्रम के दौरान मिश्रा ने बसपा द्वारा अमर की विधवा खुशी को कानूनी सहायता प्रदान करने की घोषणा की.

बसपा ने अपने सम्मेलन का नाम ब्राह्मण सम्मेलन से बदलकर प्रबुद्ध समाज गोष्ठी कर दिया था क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2013 के एक आदेश ने राजनीतिक दलों पर जाति के आधार पर प्रचार कार्यक्रम करने पर रोक लगा दी थी. फिर भी इसे लेकर संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी कि कार्यक्रम किसके फायदे के लिए आयोजित किया गया था और बसपा किसका समर्थन मांग रही थी. अपने संबोधन में मिश्रा ने कार्यक्रम में आए लोगों को बताया कि बीजेपी सरकार के तहत ब्राह्मणों की उपेक्षा की गई और उन्हें प्रताड़ित किया गया. उन्होंने संघ परिवार की शाखा विश्व हिंदू परिषद पर राम मंदिर के निर्माण के लिए एकत्र किए गए चंदे को अवैध रूप से हथियाने और इसके निर्माण में देरी करने का आरोप लगाया. मिश्रा ने ब्राह्मण नेताओं को अपना जाति से जुड़ा गणित समझाते हुए कहा कि अगर राज्य की 13 फीसदी ब्राह्मण आबादी और 23 फीसदी दलित आबादी हाथ मिलाती है तो बसपा की जीत निश्चित है. ब्राह्मण समाज का प्रतिनिधि निकाय माने जाने वाले लखनऊ स्थित अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा (आरए) के अध्यक्ष राजेंद्र नाथ त्रिपाठी के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा हाल ही में कैबिनेट में किए गए फेरबदल ने उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के बीच नाराजगी को तेज कर दिया है.

मंत्रिपरिषद में शामिल किए गए उत्तर प्रदेश के कुल सात बीजेपी सांसदों में से लखीमपुर खीरी के सांसद अजय कुमार मिश्रा एकमात्र ब्राह्मण हैं जबकि तीन गैर-यादव ओबीसी और तीन गैर-जाटव दलित हैं. त्रिपाठी ने मुझे बताया, “यह ब्राह्मणों के लिए अपमान की तरह है जो लंबे समय योगी सरकार पर मुठभेड़ के नाम पर ब्राह्मण को निशाना बनाने को आरोप लगा रहे हैं.” सत्ता के बंटवारे और प्रमुख पदों के लिए बीजेपी ने ठाकुरों, ओबीसी और दलितों को अधिक तरजीह दी है. ब्राह्मण सम्मेलन की घोषणा करते हुए मायावती ने जोर देकर कहा कि केवल बसपा ही ब्राह्मण समुदाय के हितों की रक्षा करेगी. उन्होंने आगे कहा कि बीजेपी ने 2017 में ब्राह्मणों को बहकाया और सत्ता में आने के बाद समुदाय की उपेक्षा करनी शुरू कर दी.

हालांकि, बसपा ने 2007 में उनकी जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मुस्लिम समुदाय से जुड़ने के लिए ऐसी किसी पहल की घोषणा नहीं की है. राज्य में पत्रकारिता का चार दशकों से अधिक का अनुभव रखने वाले लखनऊ के उर्दू पत्रकार हिसाम सिद्दीकी के अनुसार, बसपा प्रमुख इस गलतफहमी में हैं कि अगर उन्हें ब्राह्मणों का समर्थन हासिल हो गया तो मुस्लिम समुदाय उनकी पार्टी को वोट देगा. हिसाम ने कहा, “मुस्लिम अब बसपा खेमे में वापस नहीं जाएंगे क्योंकि उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में देख लिया है कि मायावती भी बीजेपी की तरह ही बयानबाजी करती हैं.” उनका मानना है कि वर्तमान समय में बसपा के पास कोई प्रमुख मुस्लिम नेता नहीं है. 2007 के चुनावों में मुस्लिमों को संगठन से जोड़ने की जिम्मेदारी उठाने वाले बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी 2018 में बसपा द्वारा निष्कासित किए जाने के बाद कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. बसपा से निष्कासित किए गए एक अन्य मुस्लिम नेता असलम रैनी ने मुझे बताया कि पार्टी एक "डूबता हुआ जहाज है जिसमें न तो ब्राह्मण जाने वाला है और न ही मुस्लिम."

इस्लामिक मौलवी और ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य यासून अब्बास ने मुझे बताया कि राज्य की 20 प्रतिशत मुस्लिम आबादी की अनदेखी करना मायावती के लिए महंगा साबित होगा. अब्बास ने कहा, "मुस्लिमों से मुंह फेरकर मवायती के लिए सत्ता के शीर्ष तक पहुंचना असंभव है. बसपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि 2007 में मुस्लिमों ने उन्हें बड़े पैमाने पर वोट दिया था और जिसके बाद ही पार्टी अपने दम पर सरकार बना सकी थी.”

लखनऊ के एक एंथ्रोपोलॉजिस्ट नदीम हसनैन ने भी मुझे बताया कि राज्य के मुस्लिम आगामी चुनावों में अपना वोट विभाजित नहीं करना चाहते हैं. हसनैन ने कहा, "ब्राह्मण वोटों के इस प्रलोभन में बसपा अपने मुस्लिम वोट खो सकती है क्योंकि पार्टी ब्राह्मणों को लुभाने के चक्कर में दूसरों की अनदेखी कर रही है." इस बीच, अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा (आरए) के अध्यक्ष राजेंद्र नाथ त्रिपाठी का मानना ​​​​था कि बसपा का यह कार्यक्रम विधानसभा चुनावों से पहले बस एक राजनीतिक स्टंट है. ब्राह्मणों को लुभाने और राम मंदिर के आंदोलन में शामिल होने के बसपा के प्रयासों की दलित नेताओं ने भी आलोचना की है. लखनऊ के शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता पवन राव आंबेडकर ने बसपा के संस्थापक का जिक्र करते हुए मुझसे कहा कि “अब कांशीराम की जगह जय श्रीराम ने ले ली है." लखनऊ में रहने वाले दलित-अधिकार कार्यकर्ता राम कुमार ने मुझे बताया कि अधिकांश ब्राह्मण बीजेपी और हिंदू राष्ट्र की अवधारणमा को लेकर वफादार रहे हैं और वे कभी भी किसी अन्य पार्टी का समर्थन नहीं करेंगे. कुमार ने आगे कहा, "अगर मायावती दलितों पर होने वाले अत्याचारों की जगह ब्राह्मण मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित करेंगी तो वह दलित नेता चंद्रशेखर आजाद की नवगठित आजाद समाज पार्टी के हाथों अपना मूल दलित वोट बैंक खो बैठेंगीं."

गौरतलब है कि सिर्फ बसपा ही नहीं, समाजवादी पार्टी भी ब्राह्मण वोट पर नजर गढ़ाए हुए है. मायावती द्वारा ब्राह्मण सम्मेलन की घोषणा करने पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए समाजवादी पार्टी के ब्राह्मण नेता अभिषेक मिश्रा ने दावा किया कि यह सिर्फ एक राजनीतिक नौटंकी है. उन्होंने मीडिया को बताया कि जब 2007 में पार्टी सत्ता में थी तब उसने हिंदू देवता परशुराम की मूर्ति बनवाने का वादा किया था लेकिन वह ऐसा करने में विफल रही. उन्होंने कहा, "ब्राह्मण जानते हैं कि उन्हें किसका साथ देना है और वे सभी जातियों की भलाई के लिए सपा का समर्थन करेंगे." बसपा के अयोध्या कार्यक्रम के दो दिन बाद 25 जुलाई को अभिषेक मिश्रा ने घोषणा की कि समाजवादी पार्टी अगस्त के अंत में ब्राह्मण सम्मेलनों की एक श्रृंखला आयोजित करेगी. पार्टी ने इस कार्यक्रम को बलिया से शुरू करने का फैसला किया है जहां मिश्रा ने राज्य के सभी 75 जिलों में परशुराम मंदिर स्थापित करने की योजना के तहत परशुराम मंदिर का उद्घाटन किया था. जब मैंने उनसे बात की तो मिश्रा ने अपनी इस प्रतिबद्धता को यह कहते हुए दोहराया कि 2022 में समाजवादी पार्टी के सत्ता में आने पर राज्य भर में मंदिरों का निर्माण किया जाएगा. कांग्रेस भी ब्राह्मण वोटरों को कबजाने की इस लड़ाई में शामिल हो गई है. पार्टी नेता अंशु अवस्थी ने दावा किया है कि कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो अपनी सरकारों में ब्राह्मणों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देती है. अवस्थी ने मुझे बताया कि कांग्रेस ने ही राज्य को सबसे अधिक पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्री- गोविंद बल्लभ पंत, मलापति त्रिपाठी, श्रीपति मिश्रा, हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी- दिए हैं.

बसपा के नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद सलीम अंसारी ने कहा कि वह राज्य की मुस्लिम आबादी से जुड़ने को लेकर पार्टी की रणनीति तैयार करने के लिए जल्द ही लखनऊ में मायावती से मिलेंगे. बसपा द्वारा समुदाय की अनदेखी को लेकर सवाल पूछे जाने पर उन्होंने कहा, “मुसलमान बीजेपी से नाराज हैं. समुदाय उसी को वोट देगा जो भगवा पार्टी को कड़ी टक्कर दे सके.” उन्होंने आगे कहा, "बसपा अगले विधानसभा चुनावों में अपने 2007 के दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण भाईचारे के प्रयोग को सफलतापूर्वक दोहराएगी." लखनऊ के ही रहने वाले अनुभवी पत्रकार गोविंद पंत राजू के अनुसार मायावती और बसपा ने सत्ता हाथ से जाने के बाद से जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं किया है और ब्राह्मण मतदाताओं के बलबूते जीत हासिल करने का प्रयास उल्टा पड़ सकता है. राजू ने कहा, "ऐसा लगता है कि मायावती अगले विधानसभा चुनाव में गंभीर दावेदार नहीं हैं. उनकी पार्टी ब्राह्मणों को सिर्फ इसलिए लुभाने के कोशिश में है क्योंकि यह समुदाय दूसरे समुदायों को भी बसपा को वोट देने के लिए प्रभावित करने की क्षमता रखता है. मुस्लिमों के समर्थन के बिना बसपा के लिए 2007 के अपने प्रयोग को दोहराना संभव नहीं है."