केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पिछले छह सप्ताहों में तीन बार अस्पताल में भर्ती हुए हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बाद देश के दूसरे सबसे शक्तिशाली नेता अमित शाह ने 2 अगस्त को ट्विटर पर जानकारी दी थी कि उन्हें नोवेल कोरोनावायरस संक्रमण हुआ है. उसके बाद शाह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्थित एक निजी अस्पताल में भर्ती हो गए थे. उनकी स्वास्थ्य स्थिति के विषय में उनके डिस्चार्ज होने के बाद तक यानी 14 अगस्त तक कोई अपडेट नहीं दिया गया था. लेकिन अस्पताल से छुट्टी मिलने के तीन दिन बाद 17 और 18 अगस्त की दरमियानी रात 2 बजे उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में कोविड के उभरने के बाद दिए जाने वाले उपचार के लिए फिर भर्ती किया गया. शाह को 30 अगस्त को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया लेकिन दो सप्ताह के भीतर ही 12 सितंबर को देर रात उन्हें एक बार फिर एम्स में भर्ती किया गया है.
इस प्रकार अमित शाह लगभग पूरे अगस्त अस्पताल में भर्ती रहे और उस पूरे महीने भारत के पास सक्रिय गृहमंत्री नहीं था. अबकी शाह दो सप्ताह तक चलने वाले संसदीय सत्र के दो दिन पहले भर्ती हुए हैं. यह संसदीय सत्र आज यानी 14 सितंबर से शुरू हो गया है. यह भी निश्चित नहीं है कि गृहमंत्री सत्र की अवधि के भीतर ठीक हो पाएंगे. 13 सितंबर को जारी एम्स की एक प्रेस रिलीज के अनुसार शाह को संसदीय सत्र से पहले पूर्ण मेडिकल जांच के लिए एक-दो दिनों के लिए भर्ती किया गया है. इन छुटपुट जानकारियों के अलावा अस्पताल ने और गृह मंत्रालय ने मंत्री के स्वास्थ्य के बारे में कोई खास जानकारी साझा नहीं की है और ना ही इस बारे में बताया है कि क्या शाह राष्ट्रीय महत्व के मामलों को देखने में सक्षम हैं.
शाह के अस्पताल में भर्ती होने का मतलब है कि गृहमंत्री महत्वपूर्ण नीतिगत मामलों में संसद को जानकारी नहीं दे सकेंगे. शाह के मंत्रालय के तहत आंतरिक सुरक्षा के गंभीर विषय आते हैं जिनमें कोविड-19 महामारी भी शामिल है जिसमें अब भारत ब्राजील को पीछे छोड़कर दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा प्रभावित देश बन गया है और यहां मामलों में रोज दुनिया भर में सबसे ज्यादा वृद्धि हो रही है. इसके साथ ही शाह दो महत्वपूर्ण केंद्र शासित राज्यों को भी देखते हैं - लद्दाख और जम्मू और कश्मीर. लद्दाख में चीन घुसपैठ कर रहा है और जम्मू-कश्मीर में आंतरिक सुरक्षा अस्थिर है. मंत्री के सामने जो तत्कालीन मुद्दे हैं उनमें इंडो तिब्बत बॉर्डर पुलिस को लद्दाख में चीन सीमा में तैनात करना, नियुक्ति समिति में सभी वरिष्ठ नौकरशाही नियुक्तियों पर हस्ताक्षर करना और नागा शांति प्रक्रिया को संभालना शामिल है जो 23 सालों से जारी वार्ता के बाद अंधी गली में फंस गया है. इसके साथ ही अमित शाह सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति के भी सदस्य हैं जो सैन्य कार्यवाही के मामलों पर फैसला लेती है.
अस्पताल में भर्ती रहने या बीमारी की थकान की वजह से ऐसे गंभीर मामलों पर फैसला ले पाना शायद मुमकिन न हो. सार्वजनिक पद पर नियुक्त एक निर्वाचित प्रतिनिधि के काम करने की क्षमता सार्वजनिक चिंता का विषय होनी चाहिए लेकिन भारत में सार्वजनिक पदों पर बैठे निर्वाचित लोगों के स्वास्थ्य का मामला निजी मामला माना जाता है. उसे एक ऐसा मामला समझा जाता है जो निजता से संबंधित है और जिस पर सार्वजनिक चर्चा नहीं की जानी चाहिए.
अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के मामले में भी यही देखा गया था. दोनों गंभीर रूप से अस्वस्थ और संभवतः शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर रहने के बावजूद अपने-अपने पदों पर बने रहे. मनोहर पार्रिकर का मामला तो और भी हैरान करने वाला था. पेनक्रिएटिक या अग्नाशय कैंसर के बावजूद पर्रिकर गोवा के मुख्यमंत्री के पद पर बने रहे. और तो और वह ऑक्सीजन ट्यूब और इंट्रावेनस बोतलों को लगाए हुए सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेते रहे.
दूसरे कई देशों में शीर्ष नेताओं के स्वास्थ्य की सार्वजनिक जानकारी इतनी गोपनीय नहीं होती. 28 अगस्त को जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफे की घोषणा की. उन्होंने राष्ट्र को बताया कि लगातार पेट की गड़बड़ी के चलते वह प्रधानमंत्री के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं. आबे ने 2007 में भी इन्हीं कारणों से प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया था. जापान में जिस तरह की पारदर्शिता है वह भारत सहित उन तमाम देशों से बिल्कुल विपरीत है जहां नेताओं के स्वास्थ्य को लगभग स्टेट सीक्रेट माना जाता है.
कानूनन तो नहीं लेकिन अमेरिका में परंपरा है कि वहां के राष्ट्रपति हर साल अपनी चिकित्सा जांच कराते हैं और स्वास्थ्य रिपोर्ट को सार्वजनिक करते हैं. राष्ट्रपति यह तय कर सकते हैं कि वह किस डॉक्टर से जांच कराएंगे और कौन सी जानकारी सार्वजनिक करेंगे. अमेरिका के कई राष्ट्रपति जैसे जॉन एफ. कैनेडी, रोनाल्ड रीगन और फ्रैंकलिन रूजवेल्ट के बारे में कहा जाता है कि जब वे इस पद पर थे तो उन्होंने अपनी बीमारियों के बारे में लोगों को नहीं बताया. यह ठीक है कि उनमें से किसी का भी निधन पद पर रहते हुए बीमारी की वजह से नहीं हुआ लेकिन यह स्पष्ट है कि यदि वहां जांच की परंपरा है तो इसका मतलब है यह माना जाता है कि राष्ट्रीय नेता का स्वास्थ सार्वजनिक महत्व का विषय है.
अमित शाह और उपरोक्त अमेरिकी राष्ट्रपतियों जैसे ही दुनिया के अन्य नेताओं ने ऐतिहासिक रूप से अपनी स्वास्थ्य स्थितियों को छुपाया है. 1996 में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा मिटररेंड के चिकित्सक क्लॉड गुबलर ने खुलासा किया था कि राष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल में अपने प्रॉस्टेट कैंसर की जानकारी छिपाई थी. गुबलर की किताब दी ग्रेट सीक्रेट का अंश मिटररेंड के निधन के कुछ सप्ताह के भीतर ही प्रकाशित हुआ था जिससे पता चला था कि पूर्व राष्ट्रपति को प्रॉस्टेट कैंसर का पता 1981 में, पद ग्रहण करने के कुछ महीनों के अंदर ही चल गया था लेकिन उन्होंने इस जानकारी को फ्रांस की जनता से छुपाए रखा. उनका इस बात को छिपाना इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि अपने चुनाव अभियान में मिटररेंड ने जनता से वादा किया था कि वह अपनी स्वास्थ्य स्थिति के बारे में लगातार बुलेटिन प्रकाशित करते रहेंगे. उन्होंने यह आश्वासन पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज पॉम्पीडू की पद में रहते हुए कैंसर से 1974 में हुई मौत की पृष्ठभूमि में दिया था.
गुबलर के अनुसार नवंबर 1981 में जब मिटररेंड को कैंसर का पता चला तो उन्होंने अपने डॉक्टर से खामोश रहने का वचन लिया और उन्हें निर्देश दिया कि “हमें किसी चीज का खुलासा नहीं करना चाहिए. यह एक राजकीय रहस्य है और हम सब इससे बंधे हैं.” 1996 में कैंसर से मिटररेंड की मौत हो गई लेकिन गुबलर के अनुसार 1994 से ही राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करने में सक्षम नहीं थे. वह उन कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर रहे थे जिसके लिए फ्रांसीसी जनता ने उन्हें चुना था क्योंकि उनका ध्यान बस अपनी बीमारी पर रहता था.
नेता की स्वास्थ्य स्थिति को गोपनीय रखने का काम विकासशील देशों में ज्यादा होता है. कई अफ्रीकी देशों में नेता के स्वास्थ्य पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करना दंडनीय अपराध है. हम लोग चीन के नेतृत्व की स्वास्थ्य स्थिति के बारे में तो कुछ नहीं जानते लेकिन उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग उन के स्वास्थ्य पर ढेरों अनुमान लगाए जाते रहते हैं. ऐसे देशों में जहां नेताओं के कार्यकाल की कोई तय अवधि नहीं होती या जो देश लोकतांत्रिक नहीं हैं वहां ऐसी गोपनीयता नेतृत्व हस्तांतरण की प्रक्रिया को जटिल बना देती है. लेकिन लोकतांत्रिक देशों में भी निर्वाचित नेताओं के स्वास्थ्य जानकारी को सार्वजनिक करने का कोई कानून नहीं होता है.
भारत में चलन है कि जब तक एक व्यक्ति खुद के स्वास्थ होने का दावा करता है तो उसे सार्वजनिक पद में बने रहने दिया जाता है. लेकिन ऐसी कोई पारदर्शी प्रक्रिया नहीं है जो यह तय करे कि प्रशासन की गुणवत्ता या नीति निर्माण पर नेता के स्वास्थ्य का असर नहीं पड़ रहा है या यह स्पष्ट हो कि फैसला कौन ले रहा है. देश में किसी तरह के स्वतंत्र प्रमाणीकरण की आवश्यकता नहीं समझी जाती.
एक नेता की स्वास्थ्य स्थिति के खुलासा के लिए पारदर्शिता और व्यक्ति की निजता के बीच संतुलन बनाना जरूरी है. पारदर्शिता से सार्वजनिक जवाबदेही को बल मिलता है और इसके न होने से देश, सरकार और सार्वजनिक हितों पर असर पड़ता है.
पारदर्शिता अपनाने से जनता के लिए स्वस्थ नेता का चुनाव करना आसान हो जाता है. लेकिन सार्वजनिक नेताओं की निजता भी अन्य नागरिकों की तरह ही जरूरी है. स्वास्थ्य जानकारी का खुलासा करने से नेताओं के प्रतिस्पर्धियों को गैर वाजिब लाभ मिल सकता है और ऐसी जानकारियों से वित्तीय बाजार और अन्य देशों के साथ संबंधों पर भी असर पड़ सकता है.
पारदर्शिता और निजता में क्या ज्यादा जरूरी है यह तय करना आसान काम नहीं है. लेकिन इसे तय करने का काम प्रभावित नेता के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता. मंत्रियों के स्वास्थ्य की जानकारी का खुलासा संवैधानिक और कानूनी प्रक्रिया से होना चाहिए और इसे नेताओं या उनके सहायकों पर नहीं छोड़ा जा सकता. अनिवार्य प्रकटीकरण से भारतीय लोकतंत्र अधिक सुरक्षित और स्थिर बनेगा.