इस साल 25 सितंबर को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधिक करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केंद्र सरकार की स्वामित्व योजना के बारे में कहा, “हम लोगों को उनके घर और जमीन का डिजिटल रिकॉर्ड देने में जुटे हैं. ये डिजिटल रिकॉर्ड प्रॉपर्टी पर विवाद कम करने के साथ ही एक्सेस टू क्रेडिट (बैंक लोन) तक लोगों की पहुंच बढ़ा रहा है.”
लेकिन झारखंड में केंद्र सरकार की इस योजना के खिलाफ आदिवासी समाज तेजी से गोलबंद हो रहा है. इस योजना को पंचायती राज मंत्रालय ने पिछले साल पायलट चरण में छह राज्यों में लागू किया था जिनमें से महाराष्ट्र को छोड़ कर सभी बीजेपी शासित राज्य हैं. हालांकि पायलट चरण में लागू होने के बाद इसके खिलाफ किसी तरह का विरोध प्रदर्शन नहीं देखा गया.
दूसरे चरण में जिन 20 राज्यों में इस योजना की शुरुआत होनी है उनमें आदिवासी बहुल राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ शामिल हैं. इसी कड़ी में इस योजना की प्रक्रिया की सुगबुगाहट जैसे ही झारखंड पहुंची आदिवासी व मूलवासियों के बीच इसके विरोध में स्वर फूटने लगे हैं.
26 अक्टूबर को झारखंड के खूंटी जिला उपायुक्त कार्यलय के समीप जदूर अखड़ा मैदान में इस योजना के विरोध में सभा आयोजित हुई, जहां आदिवासियों ने स्वामित्व योजना को लेकर केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल खड़े किए और इस योजना को आदिवासी-मूलवासी विरोधी बताया. इस सभा में आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच, आदिवासी एकता मंच, मुंडारी खूटकट्टी परिषद समेत एक दर्जन संगठनों के बैनर तले खूंटी के करीब तीन दर्जन से भी अधिक ग्राम प्रधानों और दो हजार से भी ज्यादा आदिवासी व मूलवासी समाज के ग्रामीण जुटे थे.
सभा के बाद खूंटी के उपायुक्त को इस योजना के विरोध में प्रधानमंत्री और खूंटी उपायुक्त के नाम से एक पत्र सौंपा गया, जिसमें इस योजना को रद्द किए जाने की मांग की गई. संगठनों का कहना है कि इस मामले में जल्द ही झारखंड के मुख्यमंत्री से मिलकर भी मांग पत्र सौंपा जाएगा.
दरअसल, यह योजना केंद्रीय योजना के रूप में प्रास्तवित है जिसका शीर्षक ‘स्वामित्व’ (गांवों का सर्वेक्षण और ग्रामीण क्षेत्रों में उन्नत प्रौद्योगिकी के साथ मानचित्रण) है. इसके तहत ड्रोन तकनीक का इस्तेमाल कर देश के 36 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के 662162 लाख गांव की ग्रामीण आबादी क्षेत्र में भूमि खंडों का सर्वेक्षण किया जाना है. सर्वेक्षण चार साल (2020-2024) की अवधि में चरणबद्ध तरीके से पूरा होगा. 2020-21 वित्तीय वर्ष में इस योजना के लिए 79.65 करोड़ रुपए अनुमानित खर्च है.
योजना की शुरूआत 24 अप्रैल 2020 को प्रधामंत्री ने लॉकडाउन के बीच में ही राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के अवसर पर की गई थी. फिलहाल पहले पायलट चरण (2020-21) में 6 राज्यों के 763 गांवों से एक लाख लोगों के बीच प्रॉपर्टी कार्ड बांटे जा जुके हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश-346, हरियाणा-221, महाराष्ट्र-100, मध्यप्रदेश-44, उत्तराखंड-50, कर्नाटक-2 गांव शामिल हैं.
भारत सरकार का कहना है कि देश के सभी राज्यों में गांवों की आबादी क्षेत्र का सर्वेक्षण या मानचित्रण नहीं किया गया है इसलिए ग्रामीणों के पास उनके घरों का कोई ठोस अभिलेख अधिकार यानी संपत्ति का कोई कानूनी दस्तावेज नहीं है. इसके कारण ग्रामीणों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है और वे बैंकों से कर्ज लेने से लेकर सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते हैं. इसी के मद्देनजर भारत सरकार देश के 662162 लाख गांव के ग्रामीण आबादी क्षेत्र के घरों की पैमाइश ड्रोन तकनीक से करेगी. गांव की सीमा में आने वाली हरेक संपत्ति का ड्रोन से सीमांकन होगा और उसका डिजिटल नक्शा तैयार किया जाएगा. ग्रामीण आबादी क्षेत्र में भूमि खंडों के सभी रिकॉड्स डिजिटल होंगे और इस तरह की कई तकनीकी प्रक्रिया के बाद गांव वालों के बीच उनके घरों के स्वामित्व कार्ड बांटे जाएंगे, जो उनका घरों पर मालिकाना हक का ठोस कानूनी दस्वावेज होगा.
लेकिन सरकार स्वामित्व योजना के जरिए आदिवासी ग्रामीणों को जिस लाभ से लाभांवित करने की बात कर रही है झारखंड का आदिवासी समाज उसी पर सवाल खड़ा कर रहा है.
खूंटी में आयोजित सभा में शामिल रहीं और आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच की संयोजक दयामनी बारला कहती हैं कि स्वामित्व योजना का अचानक से आना ही सवालों के घेरे में आता है. उनके मुताबिक जब देश में लॉकडाउन लगा हुआ था, सब कुछ बंद पड़ा था, तभी यह योजना क्यों लॉन्च की गई. इसे लाने से पहले राज्य सरकारों से चर्चा क्यों नहीं की गई.
दयामनी बारला ने मुझसे बातचीत में कहा, “हमारे पूर्वजों (आदिवासी-मलूवासी) ने जंगल-झाड़ की सफाई की. भालू, बंदर को भगा कर गांव को आबाद किया और उसे रहने लायक बनाया. सरकार उसी को स्वामित्व योजना के बहाने हथियाना चाहती है. उस जमीन को जिसे सैकड़ों वर्ष से आदिवास-मूलावासी सामूहिक रूप से इस्तेमाल करते आ रहे हैं. पेसा कानून के तहत ग्रामसभा को गांव की जमीन को आबाद करने का अधिकार है, यह हमारा पारंपरिक अधिकार है. सरकार इस योजना से आदिवासियों को तोड़ना चाह रही है. आदिवासियों की सामूहिकता में भिन्नता लाना चाहती है.”
उन्होंने कहा, “वे (सरकार) प्रॉपर्टी कार्ड देने की बात कह रहे हैं. वे हमें क्या चीज का प्रॉपर्टी कार्ड देंगे. हमारी जमीन का, या हमारे घर का. हमें कोई प्रॉपर्टी कार्ड नहीं चाहिए. हमारे जमीन के कागज हैं. हमारे पास पट्टा भी है, रैयती कागज भी है. पांचवी अनुसूची कहता है कि पहाड़, नाला, जंगल, जमीन पर गांव का अधिकार है, गांव के लोगों का अधिकार है. तो आप क्यों हमें अलग से प्रॉपर्टी कार्ड दे रहे हैं?”
दयामनी बारला का मानना है कि सरकार इस तरह से आदिवासियों को उलझाना चाहती है और उसकी नजर आदिवासी बहुल राज्यों पर है जहां खनिज संपदा और आदिवासियों की सामुदायिक जमीन है. उसी जमीन को सरकार पूंजीपितयों को सौंपना चाहती है.
भारत सरकार की स्वामित्व योजना की अधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड पुस्तिका के “कार्यकारी सारांश” के तीसरे पैरा में लिखा है, “यह संपत्ति कर के स्पष्ट निर्धारण का मार्ग प्रशस्त करेगा, जो ग्राम पंचायत को बेहतर नागरिक सुविधाओं के लिए प्रेरित केरगा.” जाहिर है कि सरकार इस योजना के जारिए से गांव से अधिक से अधिक टैक्स जुटाने की रूपरेखा भी तैयार करेगी.
दयामनी बारला इस बात का भी उल्लेख करते हुए कहती हैं, “1932 का खतियान ही झारखंडियों को परिभाषित करता है. इसके मुताबिक गांव के लोग घर का टैक्स नहीं देते हैं. और यह संपत्ति कार्ड बनाकर घर का टैक्स लेने की बात कह रहे हैं. आदिवासी-मूलवासी गांव में जो जमीन का टैक्स दिया जाता है, वह भी हम लोग सरकार को डायरेक्ट नहीं देते हैं. बल्कि गांव के मुंडा/मानकी ( मुंडा जनजाति की पारंपरिक शासन व्यवस्था में गांव के प्रमुख को कहा जाता है) के पास नॉमिनल (सांकेतिक) पैसा जमा करते हैं जिसे मुंडा/मानकी सरकार को टैक्स के नाम पर देते हैं. हम कहते हैं कि अगर हमारा परिवार दस एकड़ जमीन जोत रहा है. उसमें पांच एकड़ जमीन की रसीद कटवाता है और पांच की नहीं, तो हमें बताएं कि वे हमको किस पर संपत्ति कार्ड देंगे.”
स्वामित्व योजना के क्रिन्यवायन में केंद्रीय पंचायती राज मंत्रलाय, नोडल मंत्रालय की भूमिका में है. इसके अलावा भारत का सर्वेक्षण (सर्वे ऑफ इंडिया) और राज्य के राजस्व और राज पंचायती विभाग शामिल है. किसी भी राज्य में इस योजना को लागू करने से पूर्व नोडल मंत्रालय के अधीन राज्य और सर्वे ऑफ इंडिया के बीच समझौता ज्ञापन (एमओयू) हस्ताक्षार होंगे. इसके बाद नोडल मंत्रालय की ओर से राज्य के दोनों विभागों को पत्राचार कर योजनाओं से संबंधित जानकारी दी जाएगी, जिसके बाद योजना को लेकर गांव में ड्रोन के माध्यम से पैमाइश की तकनीकी प्रक्रिया शुरू होगी. हालांकि इस दौरान राज्य और राष्ट्रीय स्तर की कई एजेंसियां तकनीकी तौर पर जुड़ी रहेंगी.
झारखंड में यह योजना को खूंटी से शुरू होनी है. इसे लेकर खूंटी के उपायुक्त ने 25 अक्टूबर को बैठक कर अंचल अधिकारियों व निरीक्षकों को दिशा-निर्देश भी दिए हैं. कहा गया है कि ग्रामसभा के माध्यम से आम ग्रामीणों को इस योजना से जुड़ी विशेषताओं के बारे में बताएं और ग्रामीणों के बीच इसे लेकर उत्पन्न शंकाओं का समाधान करें. 26 अक्टूबर को खूंटी में आयोजित सभा में शामिल कई ग्राम सभाओं के ग्राम प्रधानों को भी को उपायुक्त ने इस बारे में सूचित किया है.
झारखंड की बात करें तो सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यहां 32112 गांव हैं. लेकिन स्वामित्व योजना की अधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक झारखंड के 32725 गांव में ड्रोन सर्वे से पैमाइश होगी. झारखंड में इस प्रक्रिया को दूसरे 2021-22, तीसरे 2022-23, चौथे 2023-24 चरण में होना है, जिसमें गांव की संख्या क्रमशः 725, 12000 व 20000 हैं. खूंटी जिले की अधिकारिक वेबसाइट में गांव की संख्या 756 है. यानी देश के दूसरे और झारखंड में होने वाले पायलट पहले चरण में खूंटी के ही अधितकर गांव का ड्रोन सर्वे होना है.
आदिवासी-मूलवासियों के बीच इस योजनाओं के बारे जो संशय है वह तब और बढ़ता मालूम पड़ता है जब झारखंड सरकार के मंत्री और अधिकारी इस पर अलग अलग बयान देते हैं. जैसे, खूंटी के उपायुक्त शशि रंजन ने बताया कि ड्रोन सर्वे की प्रक्रिया शुरू हो गई है. इस सिलसिले में उन्हें राज्य सरकार से एक महीना पूर्व एसओपी मिला था. उन्होंने राज्य सरकार के आदेश पर ड्रोन सर्वे की प्रक्रिया खूंटी में शुरू कर दी है और उनका विभागीय समन्वय चल रहा है. वहीं, झारखंड सरकार के पंचायती राज मंत्री आलमगीर आलम कहते हैं कि योजना की कोई प्रक्रिया अभी शुरू नहीं हुई है और जनता को बिना विश्वास में लिए कुछ भी नहीं होगा.
मैंने इस बारे में दोनों से बात की. खूंटी में इसके विरोध में उठ रहे सवालों के जवाब में उपायुक्त शशि रंजन ने मुझसे कहा, “इन लोगों (गांव वाले) को शुरू में लगा है हमारी जमीन की नापी हो रही है. जब उन्हें बताया कि जमीन की नहीं, आपके घरों की नापी हो रही है जिसके बाद आपके के घर का प्रॉपर्टी कार्ड बनेगा. तब वे समहत हो गए. देखिए, शुरुआत में किसी चीज की जानकारी नहीं होती है तो दिक्कत होती है. इसलिए हम लोग ग्राम सभा किए हैं, और भी करेंगे. लोगों ने उन्हें मिसइन्फोर्मेड (गलत जानकारी दी थी) किया था. बहुत सारे लोगों को यह भी भ्रम था कि उनके पास घरों के कागजात नहीं हैं. तो उन्हें बताया गया कि आपके पास अगर कागजात नहीं तो भी संपत्ति कार्ड बन जाएगा. और जो जीएम लैंड (मजरुआ/सरकारी भूखंड) पर रह रहे हैं उन्हें बंदोबस्ती कर दिया जाएगा. उनके अंदर इस बात का भ्रम था कि उनकी जमीन की नापी हो रही है. लेकिन जब उन्हें बताया कि आपकी जमीन का नहीं बल्कि आपके घर का आइडेंटिफिकेशन हो रहा और इससे आपलोगों को सरकारी योजना का सरल तरीके लाभ मिलेगा. तब वे मान गए.”
वहीं झारखंड सरकार के पंचायती राज मंत्री आलमगीर आलम ने कारवां से बात करते हुए कहा, “ड्रोन सर्वे वाला मसला है राज्य में. इस पर हमलोग बढेंगे, लेकिन जनता की इस पर क्या अपेक्षा है, क्या विरोध कर रही है, इन सारी चीजों को देखने के बाद ही. अगर यह जनता के हित में है तो सरकार सोचेगी क्योंकि हमें जनता के पक्ष में ही निर्णय लेना है. कोई भी योजना या कानून लाद देंगे तो नहीं होगा न. पहले इस पर जनता के विचार लेंगे. जनता से बात करेंगे तभी आगे बढ़ेंगे. राज्य की जनता जो चाहेगी, जो यहां के आदिवासी-मूलवासियों को संविधान में अधिकार है उसको देखते हुए ही योजना को लागू किया जाएगा. अभी इसकी कोई प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है.”
आलमगीर आलाम यह भी कहते हैं कि न कोई एमओयू हुआ है और न ही केंद्रीय पंचायती मंत्रालय के द्वारा इस बाबत उन्हें कोई पत्र प्राप्त हुआ है.
स्वामित्व योजना की अधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक 2020-21 में छह राज्यों के 101097 लाख गांवों को अधिसूचित कर ड्रोन पैमाइश के जरिए संपत्ति कार्ड दिए जाने थे लेकिन इस दौरान मात्र 701 गांव में ही यह कार्य पूरा हो पाया. दूसरे चरण यानी- 2021-22 में 20 राज्यों के लिए 247707 गांवों को अधिसूचित किया है. जबकि 2022-23 और 2023-24 के लिए 18-18 राज्यों के 195691 और 11766 गांव को अधिसूचित किया गया है. 15 नवंबर 2021 तक के आंकड़ों की माने तो सिर्फ 76224 गांव ही ड्रोन सर्वे का काम पूरा हो पाया है और अबतक 9594 गांव में ही पापर्टी कार्ड बांटे गए हैं. निर्धारित लक्ष्य की रफ्तार से यह बात तय है कि इस योजना को लागू करना सरकार के लिए एक चुनौती साबित हो रहा है.
स्वामित्व योजना को लेकर अधिकतर खबरों में यही बताया गया है कि ड्रोन से घरों के जमीन की पैमाइश होगी और उसके बाद गांव वालों के बीच उनके घरों के संपत्ति कार्ड का वितरण होगा. खूंटी के उपायुक्त ने भी हमसे यही बताया गांव में सिर्फ घरों का ड्रोन सर्वे किया जाएगा, ना कि ग्रामीणों की जमीनों का. खूंटी के उपायुक्त को यह बात ग्रामीणों और ग्राम सभाओं में समझानी पड़ रही है. इससे स्पष्ट है कि गांव में लोग ड्रोन से अपनी जमीनों (रैयती हो या फिर सामुदायिक) का नापी नहीं करवाना चाहते हैं.
लेकिन स्वामित्व योजना के तहत क्या सिर्फ घरों की जमीन के ही ड्रोन पैमाइश होंगे? तो जवाब है, नहीं. क्योंकि भारत सरकार की स्वामित्व योजना की अधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड पुस्तिका में लिखा है, “व्यक्गित ग्रामीण संपत्ति के सीमांकन के अलावा, अन्य ग्राम पंचायत और सामुदायिक संपत्ति जैसे गांव की सड़कें, तालाब, नहरें, खुले स्थान, स्कूल, आंगनवाड़ी, स्वास्थ्य उप-केंद्र आदि का भी सर्वेक्षण किया जाएगा और जीआईएस (भौगोलिक सूचना प्रणली) मानचित्र बनाए जाएंगे.”
सामाजिक कार्यकर्ता व लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग को इसी बात का भय सता रहा है और इनके मुताबिक स्वामित्व योजना सरकार का एक छुपा एजेंडा है जिससे वह आदिवासी-मूलवासियों की सामुदायिक जमीनों को कारपोरेट घरानों के लिए चिन्हित करेगी. ग्लैडसन, झारखंड में जल, जंगल जमीन और आदिवासियों के मुद्दों पर दो दर्जन किताब लिख चुके हैं. वह उस दिन खूंटी में आयोजित सभा में बतौर वक्ता शामिल भी हुए थे. कहते हैं कि दरअसल खूंटी में खूंटकट्टी जमीन है इसलिए सरकार यहां से इस योजना की शुरुआत करने जा रही है.
योजना को लेकर केंद्र की मोदी सरकार पर इनके कई गंभीर आरोप हैं. डुंगडुंग ने कारवां से बातचीत में कहा है, “खूंटी में एक सौ से भी अधिक गांव हैं जो खूटकट्टी के दायरे में आते हैं. इस पर मुंडा लोग सैकड़ों वर्ष से सामुदायिक ढंग से रहता और उसका मसरफ लेता आ रहा है. इस पर न भूमि सुधार कानून लागू होता है और न वे लोग कोई टैक्स देते हैं. सरकार इस जमीन को कारपोरेट घराने के लिए स्वामित्व योजना के तहत चिन्हित करेगी और फिर उन्हें कारखाने लगाने के लिए देगी. स्वामित्व योजना केंद्र सरकार का छुपा एजेंडा है आदिवासी की मूल परंपरा और उनकी सामूहिकता को खत्म करने का. उस योजना के तहत हर घर का प्रॉपर्टी कार्ड होगा लेकिन और हमारे आदिवासी समाज की आवधारणा सामूहिकता पर आधारित है. गांव में अधिकांश जमीन ऐसी है जिन पर आदिवासियों का सामूहिक अधिकार है. जैसे नदी, नाला, झाड़ी, मैदान, स्कूल, सरना-मसना( धार्मिक स्थान) चारागाह.”
डुंगडुंग यह भी कहते हैं कि सरकार इस योजना के तहत शहर के फॉर्मेट पर टैक्स वसूली की योजना बना रही है. घरों का टैक्स तो मूल रूप से शहरी इलाके में होता. गांव के लोग तो रैयती जमीन का टैक्स देते हैं, तो क्या सरकार इस योजना से गांव में जमीन के अलावा हर घर का अब टैक्स इकट्ठा करेगी?
वह आगे कहते हैं, “देखिए सरकार का छुपा एजेंडा क्या है कि दरअसल पहले जब आदिवासी मूलवासी इस प्रॉपर्टी कार्ड का विरोध करेंगे तो वे यह कहेंगे हम तो सिर्फ घर को पॉर्पटी के रूप में दर्ज कर रहे हैं. जब हम पापर्टी कार्ड ले लेंगे तो वे बाद में कहेंगे कि आप के पास कितनी जमीन है उस जमीन को पापर्टी कार्ड से अटैच्ड कीजिए. ठीक उसी तरह जैसे आधार कार्ड को हर चीज से अटैच्ड कर दिया गया है. यह बहुत खतरनाक है. इस तरह से आदिवासी-मूलवासियों के बीच जो सैड़कों वर्ष से समानता, बंधुत्व, स्वतंत्रता- जो सामूहिकता में निहित चली आ रही है उसे समाप्त करना चाहती है सरकार. हमारी तो पहचान ही सामूहिकता है, तो फिर अलग-अलग प्रॉपर्टी कार्ड देने का क्या मतलब है. इससे तो पूरा सामाजिक तानाबाना ही बिखर जाएगा.”
झारखंड में स्वामित्व योजना को लैंड बैंक से भी जोड़कर देखा जा रहा है. ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि यह पूरा खेल जमीन के लिए हो रहा है. प्रधानमंत्री ने भी कहा कि वह राष्ट्रीय लैंड बैंक बनाएंगे. दूसरा यह कि झारखंड में पिछली सरकार ने जो लैंड बैंक बनाया था वह आज भी अस्तिव में है.
रघुवर दास के नेतृत्व में बीजेपी की पिछली सरकार ने 2016 में लैंड बैंक की स्थापना की थी. और ठीक एक साल बाद राज्य में यानी 2017 में ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट (निवशकों का शिखर सम्मेलन) का आयोजन हुआ था, जिसमें देश-विदेश के कई औद्योगिक घरानों ने भाग लिया था. तबके विपक्ष के नेता हेमंत सोरेन और यहां के आदिवासी एक्टिविस्ट ने इस लैंड बैंक का विरोध किया था और इसे आदिवासियों की जमीनों को हथिया कर औद्योगिक घरानों को देने की बात कही थी. स्टेन स्वामी, प्रभाकर तिर्की, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, जेरोम जेराल्ड, प्रेम वर्मा, संजय बसु मल्लिक जैसे समाजिक कार्यकर्ताओं ने भी लैंड बैंक का विरोध किया था और इसे गैर संवैधानिक बताया था. इन लोगों का आरोप था कि ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट के तहत कारपोरेट को भूमि मुहैय्या कराने के लिए सरकार गैर संवैधानिक ढंग से आदिवासी-मूलवासियों की सामुदायिक जमीन को लैंड बैंक में शामिल कर रही है.
खबरों के मुताबिक झारखंड में लैंड बैंक में करीबन 21 लाख एकड़ जमीन शामिल है. जल, जंगल, जमीन के मुद्दे पर काम करने वालों के अनुसार लैंड बैंक में अधिकतर वैसी जमीन शामिल की गई है, जिसका आदिवासी-मूलवासी सामुदायिक इस्तेमाल करते आ रहे थे.
झारखंड की धरती खनिज संपदाओं से पटी पड़ी है. यहां कोयला, लोहा, यूरेनियम, अभ्रक समेत कई अन्य खनिज संपदा पाए जाते हैं और इसके लिए दर्जनों फैक्ट्रियां हैं जिनमें टाटा, रूंगटा, बिरला, जिंदल के अलावा हाल के दिनों में अडानी तक का कारोबार पसर चुका है.
झारखंड में किस किस तरह की जमीन है जिस पर यहां के आदिवासी-मूलवासियों का अधिकार है, इस बारे में 71 वर्षीय वरिष्ठ अधिवक्ता और झारखंड की जमीनों के कानून के जानकार रश्मि कात्यायन बताते हैं, “झारखंड में करीब 160 गांव खूटकट्टी हैं. इनमें लगभग 150 गांव अकेले खूंटी जिले में है. 2 हजार 482 भुईंहरी गांव है, जो गुमला, सिमडेगा, लोहरदग्गा, लातेहार रांची और खूंटी के कुछ हिस्सों में आते हैं. इस पर आदिवासी-मूलवासियों का सामुदायिक अधिकार है. खूटकट्टी और भुईंहरी जमीन पर भूमि सुधार कानून लागू नहीं होता है. वे इस जमीन पर कोई टैक्स भी नहीं देते हैं. संथाल परगना में इसी तरह की प्रधानिक खाता की जमीन होती है जिस पर पूरे गांव का अधिकार होता है. राज्य में पिछली रघुवर सरकार ने भुईंहरी जमीन में से वन-थर्ड जमीन को लैंड बैंक में शामिल कर लिया था, जिसकी लड़ाई चल रही है. यह सब खेतिहर जमीन थी. लैंड बैंक में इस जमीन को चिन्हित किया जाना एकदम गलत है.”
स्वामित्व योजना और गांवों में होने वाले ड्रोन सर्वे के सवाल पर वह कहते हैं, “हमसे भी बात हुई थी झारखंड सरकार के राजस्व विभाग से. योजना को लॉन्च करने से पहले राज्य सरकार से भारत सरकार ने इस पर 30 दिनों के अंदर जवाब मांगा था. जवाब में राज्य सरकार ने शायद, पांचवी अनुसूची के तहत प्राप्त स्पेशल प्रोविजन (विशेष प्रावधान) का मामला उठाया है. खूटकट्टी और भुईंहरी जमीन समेत सीएनटी-एसपीटी एक्ट पर केंद्र सरकार से स्पष्टता मांगी है कि सर्वे के दौरान इनका क्या होगा. क्योंकि यह सारी चीजें राज्य का प्रोटेक्टिव स्ट्रक्चर (संरक्षित ढांचा) है. यहां गांवों में सरना, मसना, चारागाह आदि ये सब तो आएगा नहीं पापर्टी कार्ड में, तो आप इसे सर्वे कार्ड में उड़ा दे रहे हैं न. कोई बात सपष्ट नहीं है अब तक. कम से कम जिन छह राज्यों में प्रॉपर्टी कार्ड दिए गए हैं, उसका एक सैंपल भी मिले, तभी न हमारे जैसा आदमी कुछ कह पाएंगे.”
इस योजना को लेकर आदिवासी समाज में जो भय है रश्मि कात्यायन उसे स्वाभाविक मानते हैं. वह कहते हैं, “पिछली राज्य सरकार ने पुराना सारा अधिकार अभिलेख ऑनलाइन कर दिया है और उसमें बहुत हेराफेरी है. हमें लगता है कि स्वामित्व में भी यही होने वाला है. उस हिसाब से आदिवासी-मूलवासी का डर जायज है. एक सर्वे जमीन पर आपके आखों के सामने होता है लेकिन यह तो हवा में होगा तो आपको पता ही होगा कि क्या हो रहा है, और क्या होगा. जैसे आपने 1932 के खतियान के अधिकार अभिलेख को ऑनलाइन कर दिया और उसमें हुआ यह कि जो अधिकार अभिलेख का 17 ऑफलाइन कॉलम होता था, वह ऑनलाइन में घटकर 13 कॉलम हो गया. आपने बाकी चार कॉलमों को क्यों उड़ा दिया. इससे विश्वास खत्म होगा ही.”
दयामनी बारला का कहना है कि राज्य में पहले से ही खतियान को ऑनलाइन किए जाने का खमियाजा यहां का आदिवासी समाज उठा रहा है. उन्होंने कहा, “हमें जमीन के मामले में पहले ही उलझा कर रख दिया गया है. स्वामित्व और उलझाने और लड़ाई करवाने वाली योजना है. पहले इन्होंने 1932 के खतियान के आधार पर जमीन की रसीद कटवाने की प्रक्रिया को जब से (2016 में पिछली रघुवर दास की सरकार में यह शुरू हुआ था) से आनलाइन किया है तब से आदिवासियों की एक बड़ी आबादी को परेशानी झेलनी पड़ रही है. काफी गड़बडियां कर दी है इन्होंने (सरकार ने). कहीं किसी का नाम है तो प्लॉट नंबर नहीं है, रकबा नहीं है. कहीं नाम है तो पता गलत है. अब इसे ठीक करवाने के लिए बीते पांच साल से लोग दौड़ रहे हैं लेकिन अबतक ठीक नहीं हो पाया है. इस वजह से लोग टैक्स की रसीद नहीं कट पा रहे हैं. और उस पर से यह स्वामित्व योजना उन्हें और बेघर कर देगी.”
ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं, “स्वामित्व योजना पांचवी अनुसूची को नष्ट कर देगी. ग्राम सभाओं की ताकत को समाप्त कर देगी. इसके खिलाफ आदिवासी-मूलवासियों को जागना पड़ेगा. हेमंत सरकार से अनुरोध है कि वह संविधान के अनुच्छेद 19 के उप अनुच्छेद 5 व 6 में दिए गए अधिकार का इस्तेमाल कर इस योजना को लागू होने से रोकें. अन्यथा इसका जबरदस्त विरोध होगा, जैसे सीएनटी-एसपीटी एक्ट के संशोधन का हुआ था.”
कुछ इसी तरह की बात दयामनी बारला भी कहती हैं. उनके मुताबिक, “पहले इस योजना को नहीं लागू करने की सरकार से अपील करेंगे. अगर सरकार नहीं मानी तो आंदोलन होगा. और इसमें समस्त आदिवासी व मूलवासी समाज मिलकर लड़ेगा, जैसे सीएनटी-एसपीटी एक्ट के संशोधन के खिलाफ लड़ा था.”
झारखंड में बीते दो साल से हेमंत सोरेने के नेतृत्व में यूपीए (झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस, राजद) सरकार है. आदिवासियों के मुद्दों पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि आदिवासियों के मुद्दों पर हेमंत सोरेन की सरकार को भी सराहा नहीं जा सकता है. इन लोगों के मुताबिक झारखंड की हेमंत सरकार पिछली बीजेपी सरकार की नीतियों को आगे बढ़ा रही है. लैंड बैंक का अब तक अस्तित्व में रहने को एक बड़े उदाहरण के तौर पर देखते हैं क्योंकि विपक्ष में रहते हुए हेमंत सोरेन ने झारखंड लैंड बैंक को मुद्दा बनाया था और सत्ता में आने पर इसे खत्म करने की बात कही थी.
लैंड बैंक के अस्तित्व के सवाल पर झारखंड सरकार के पंचायती राज मंत्री आलमगीर आलम का कहते हैं, “लैंड बैंक अस्तित्व में नहीं है ऐसा समझ लीजिए.” लेकिन आधिकारिक रूप से तो वह अस्तित्व में है और जो जमीन चिन्हित की गई है, उसका क्या? इस पर वह कहते हैं कि अब नए सिरे से चिन्हित नहीं की जा रही है और जो चिन्हित हुई हैं वे वैसी ही हैं. वह आगे कहते हैं कि सारी चिन्हित जमीनों को ऑपेन (सार्वजनिक) कर दिया जाएगा. क्या जो जमीन ली गई है लैंड बैंक में, उसे लौटाया जाएगा? इसके जवाब में वह कहते हैं कि निश्चित तौर पर उसे लौटाया जाएगा.
लेकिन यह भी सच्चाई है कि बीते एक साल में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेने ने कई उद्योगपतियों को झारखंड में निवेश का न्योता दिया है. इसी साल झारखंड औद्योगिक एवं निवेश संवर्धन नीति (जेआईआईपीपी) का बनाया जाना और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की नई दिल्ली में आयोजित दो दिवसीय इन्वेस्टर्स समिट में शामिल होकर कारोबारी घरानों से सीधी बातचीत, भविष्य में जल, जंगल, जमीन से जुड़े मुद्दों पर एक बार फिर से बहस और आंदोलन की लकीर खींच सकती है.
झारखंड के 24 जिलों में से 13 जिले पांचवी अनुसूची में आते हैं. यहां के आदिवासी-मूलवासी पेसा कानून, वनाधिकार कानून को सख्ती से और सही लागू किए जाने की मांग लंबे समय से करते आ रहे हैं. दूसरी तरफ सीएनटी-एसपीटी एक्ट है जो कई संशोधन के बाद भी आदिवासियों की जमीनों के लिए एक कवच के तौर पर देखा जाता है. पिछली रघुवर सरकार ने इसमें संधोधन करने की कोशिश की थी, लेकिन राज्य भर में हुए व्यापक विरोध प्रदर्शन के बाद उसे अपना निर्णय वापस लेना पड़ा था.
इन दोनों एक्ट में जो प्रमुख प्रावधान हैं उसके मुताबिक आदिवासियों की जमीनों की खरीद-बिक्री पर रोक है. एसपीटी यानी संथाल परगना टीनेंसी एक्ट 1949 के तहत कोई बाहरी व्यक्ति जमीन की खरीद-बिक्री नहीं कर सकता है. यहां तक कि एक आदिवासी अपनी जमीन केवल आदिवासी को बेच सकता है. छोटानागपुर टीनेंसी एक्ट यानी सीएनटी के तहत भी कोई बाहरी व्यक्ति जमीन की खरीद-बिक्री नहीं सर सकता है. इसमें सिर्फ एक ही थाना के अंतर्गत आने वाले आदिवासी एक-दूसरे को जमीन बेच-खरीद सकते हैं.
गौरतलब है कि राज्य में पिछली रघुवर सरकार में हुए जमीन से जुड़े पत्थलगड़ी आंदोलन को लेकर देश-दुनिया तक खबर हुई थी. तब कि सरकार ने इस आंदोलन को गैर संवैधानिक बताया था और इससे जुड़े दस हजार लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा हुआ था. मौजूदा सरकार ने तब विपक्ष में रहते हुए इस मुद्दे को चुनावी सभा में खूब भुनाया था और कहा था कि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो सभी के ऊपर से मुकदमा वापस लिया जाएगा. हालांकि हेमंत सोरेन ने सत्ता संभालते ही कैबिनेट की पहली बैठक में निर्णय लिया कि पत्थलगड़ी से जुड़े लोगों पर हुए देशद्रोह के मुकदमों को वापस लिया जाएगा लेकिन खबरों की माने तो उन पर से मुकदमा अब तक नहीं हटा है.
ऐसे में चुनौती यह है कि एक बार फिर से खूंटी में जमीन के मुद्दे पर आंदोलन का माहौल बन सकता है. हालांकि इस बार केंद्र में बीजेपी की ही सरकार है लेकिन राज्य में खुद को आदिवासी-मूलवासियों का हितैषी कहने वाली पार्टी झामुमो की सरकार ही सवालों के घेरे में है.
भूल सुधार : इस रिपोर्ट में इस्तेमाल की गईं फोटों के लिए पहले पत्रकार मो. असग़र खान को क्रेडिट दिया गया था. यह एक चूक थी. ये फोटों संजय वर्मा के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं. भूल को सुधार लिया गया है और कारवां को इस गलती का खेद है.