क्या कहीं पहुंची राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा?

27 जनवरी 2023 को श्रीनगर से लगभग 100 किलोमीटर पहले बनिहाल में लगा राहुल गांधी का बड़ा कटआउट. तौसीफ मुस्तफा/एएफपी/गैटी इमेजिस

We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing

एक पुरानी कहनी यूं है कि एक राजा ने अपने बेटे को जंगल की लय सुनने के लिए भेजा. जब राजकुमार पहली बार जंगल में गया तो वहां कीड़ों की आवाजों और पक्षियों के गीतों की आवाज के साथ हाथी के चिंघाड़ने और शेर के दहाड़ने की आवाज ही सुन सका. उस राजा ने अपने पुत्र को बार-बार जंगल में ऐसी ध्वनियां सुनने के लिए भेजा जो सामान्यत: सुनी नहीं जाती. यह सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक उसने सांप के फुफकारने और तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट नहीं सुन ली. राजा ने फिर आदेश दिया कि राजकुमार तब तक तक जंगल जाता रहे जब तक कि वह ठहराव में खतरे की आहट को और सूर्योदय में आकाश की किरणों को न पहचान ले. आशय यह था कि राजकुमार को उनकी आवाजों को भी सुनना आना चाहिए जो चीजें आवाज नहीं करतीं.

30 जनवरी को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पूरी हो गई और इसीलिए पूछा ही जाना चाहिए कि उनकी यात्रा सामाजिक और राजनीतिक तौर पर कहां तक गई. यह यात्रा 7 सितंबर 2022 को कन्याकुमारी से शुरू हुई और देश के 12 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों से गुजर कर 30 जनवरी को श्रीनगर के लालचौक पर राष्ट्रीय झंडा फहरा कर खत्म हुई. 30 जनवरी को शायद इसलिए चुना गया है क्योंकि 1948 में इसी तारीख को नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की थी. फिर भी बहुत कम लोगों को दिखाई दिया कि राहुल गांधी के हाथ में कश्मीर का झंडा नहीं था. समझना मुश्किल नहीं कि अनुच्छेद 370 द्वारा प्राप्त अधिकारों को खत्म करने के मोदी सरकार के फैसले पर गांधी का क्या स्टैंड है.

अब हम उसी कहानी पर लौटते हैं जहां से यह बात शुरू की थी. क्या राहुल गांधी ने उन लोगों की आवाज भी सुनी जो बोल नहीं सकते थे?

जब यह यात्रा शुरू हो रही थी, तब बात हो रही थी कि राहुल गांधी पहली बार मेहनत कर रहे हैं. बताया गया कि यह जानना दिलचस्प होगा कि उनके पास कितने शब्द होंगे, कितने किस्से-कहानियां होंगे जो वह यात्रा में सुनाएंगे, जिनसे वह लोगों में संभावना और उम्मीद पैदा करेंगे? लेकिन ऐसा भी इस यात्रा में नजर नहीं आया जिसने उपरोक्त उम्मीदों को मजबूत किया हो.

ऐसा तो नहीं होगा कि लोग राहुल गांधी से मिलते होंगे और अपनी बात नहीं कहते होंगे. वे जरूर उनसे अपने दर्द, परेशानियां बयां करते होंगे. फिर आखिर ऐसी क्या वजह है कि राहुल उनकी बातें देश के लोगों तक लेकर नहीं जा सके?

यात्राओं का भारत में बड़ा महत्व है. इस देश में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक यात्राएं होती रही हैं. यात्राओं को हमेशा प्रेरणा से जोड़ा गया है. पूर्व में इसके यात्री अपनी यात्राओं पर मिले लोगों की बातों, प्रेरणाओं और चुनौतियों का जिक्र करते रहे हैं- जैसे मोहनदास गांधी, कांशी राम और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सिंह.

राहुल गांधी ने 9 जनवरी को एक किस्से का वीडियो अपने ट्वीटर हैंडल पर डाला जिसमें वह बता रहे थे कि वह भरी ठंड में हाफ टी-शर्ट क्यों पहनते हैं. राहुल गांधी कहते हैं, "मैं आपको बताता हूं मैं क्यों टीशर्ट पहनता हूं : यात्रा शुरू हुई, केरल में भयंकर गर्मी है. ऐसा लग रहा था टीशर्ट उतार दो. मैं मध्य प्रदेश गया. ठंड आ रही थी. सुबह-सुबह तीन गरीब बच्चे मेरे पास आ गए. फटी हुई शर्ट थी. वे फोटो खिचाना चाहते थे. जैसे ही मैंने उनको पकड़ा वे कांप रहे थे. उन्होंने पतली सी शर्ट पहन रखी थी. उस दिन मैंने निर्णय ले लिया कि जब तक मैं नहीं कांपूंगा मैं टीशर्ट पहनूंगा."

राहुल गांधी के इस तरह के किस्से जनसरोकार से जुड़े नहीं थे. यह तो एक उदाहरण है. जाहिर है राहुल गांधी से जो लोग मिलते होंगे वे जरूर अपनी परेशानियों पर बात करते होंगे. पर उन में से किसी एक की भी कहानी वह नहीं सुनाते. लगता है जिन लोगों ने इस यात्रा की प्लानिंग की थी, उन्होंने इस कार्य का कुछ भी बुनियादी अध्ययन नहीं किया था. क्या उन्होंने सोचा कि जिन जिलों से हम हो कर जा रहे हैं वहां के अगल-बगल के गांव, शहर और कस्बों में कुछ दिन पहले यात्रा से जुड़े पर्चे बांट दिए जाते, जो बताते कि आखिर क्यों इस समय इस यात्रा की आवश्यकता है या कि देश के ऐसे हालात में यात्रा क्यों जरूरी है? क्या यात्रा के योजनाकारों ने विचार किया था कि जहां भी रात का पड़ाव हो, उस क्षेत्र के नेता, प्रधान, गणमान्य व्यक्ति और आमजन से शाम के खाने पर एक चर्चा आयोजित हो, जिससे उस पूरे क्षेत्र में एक संदेश जाए.

राहुल के समर्थक सोशल मीडिया में उन्हें दार्शनिक और तपस्वी या जो चाहे बना दें लेकिन जब तक वह जनसरोकार की बात जनभाषा में नहीं कर सकेंगे, तब तक देश के लोगों का राहुल से कोई जुड़ाव नहीं होगा. यही मुझे इस यात्रा में दिखा. राहुल कहीं भी जनभावनाओं के साथ, जनता के किस्सों के साथ यात्रा करते नहीं दिखे. राहुल के किस्सों में सिर्फ राहुल थे, जबकि जनता की रोजमर्रा की परेशानियां या उनसे मिली प्रेरणा और उत्साह को वह यात्रा के कथानक में शामिल नहीं कर सके.

Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute


सुनील कश्यप स्वतंत्र पत्रकार हैं. पूर्व में वह कारवां में रिपोर्टिंग फ़ेलो थे.