एक पुरानी कहनी यूं है कि एक राजा ने अपने बेटे को जंगल की लय सुनने के लिए भेजा. जब राजकुमार पहली बार जंगल में गया तो वहां कीड़ों की आवाजों और पक्षियों के गीतों की आवाज के साथ हाथी के चिंघाड़ने और शेर के दहाड़ने की आवाज ही सुन सका. उस राजा ने अपने पुत्र को बार-बार जंगल में ऐसी ध्वनियां सुनने के लिए भेजा जो सामान्यत: सुनी नहीं जाती. यह सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक उसने सांप के फुफकारने और तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट नहीं सुन ली. राजा ने फिर आदेश दिया कि राजकुमार तब तक तक जंगल जाता रहे जब तक कि वह ठहराव में खतरे की आहट को और सूर्योदय में आकाश की किरणों को न पहचान ले. आशय यह था कि राजकुमार को उनकी आवाजों को भी सुनना आना चाहिए जो चीजें आवाज नहीं करतीं.
30 जनवरी को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पूरी हो गई और इसीलिए पूछा ही जाना चाहिए कि उनकी यात्रा सामाजिक और राजनीतिक तौर पर कहां तक गई. यह यात्रा 7 सितंबर 2022 को कन्याकुमारी से शुरू हुई और देश के 12 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों से गुजर कर 30 जनवरी को श्रीनगर के लालचौक पर राष्ट्रीय झंडा फहरा कर खत्म हुई. 30 जनवरी को शायद इसलिए चुना गया है क्योंकि 1948 में इसी तारीख को नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की थी. फिर भी बहुत कम लोगों को दिखाई दिया कि राहुल गांधी के हाथ में कश्मीर का झंडा नहीं था. समझना मुश्किल नहीं कि अनुच्छेद 370 द्वारा प्राप्त अधिकारों को खत्म करने के मोदी सरकार के फैसले पर गांधी का क्या स्टैंड है.
अब हम उसी कहानी पर लौटते हैं जहां से यह बात शुरू की थी. क्या राहुल गांधी ने उन लोगों की आवाज भी सुनी जो बोल नहीं सकते थे?
जब यह यात्रा शुरू हो रही थी, तब बात हो रही थी कि राहुल गांधी पहली बार मेहनत कर रहे हैं. बताया गया कि यह जानना दिलचस्प होगा कि उनके पास कितने शब्द होंगे, कितने किस्से-कहानियां होंगे जो वह यात्रा में सुनाएंगे, जिनसे वह लोगों में संभावना और उम्मीद पैदा करेंगे? लेकिन ऐसा भी इस यात्रा में नजर नहीं आया जिसने उपरोक्त उम्मीदों को मजबूत किया हो.
ऐसा तो नहीं होगा कि लोग राहुल गांधी से मिलते होंगे और अपनी बात नहीं कहते होंगे. वे जरूर उनसे अपने दर्द, परेशानियां बयां करते होंगे. फिर आखिर ऐसी क्या वजह है कि राहुल उनकी बातें देश के लोगों तक लेकर नहीं जा सके?
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