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देश की राजधानी दिल्ली जाने वाला नेशनल हाइवे-2 और बिहार के गया जिला के आमस प्रखंड मुख्यालय से दक्षिण की दिशा में महज पांच किलोमीटर की दूरी पर दलितों का भूप नगर गांव, जहां मुख्य रूप से मांझी और भोक्ता समाज के लोग रहते हैं, विकास की पहुंच से कोसो दूर दिखाई देता है. 22 वर्ष पूर्व यहां के लोगों को पता लगा कि समूचा गांव एक त्रासदी की चपेट में है, जो साल दर साल असमय मौत और शारीरिक अक्षमता के रूप में विकराल होती जा रही है. दरअसल इस गांव के भू जल में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से कई गुणा ज्यादा है.
गांव वालों के मुताबिक दो दशक पूर्व ही वैज्ञानिकों ने जांच रिपोर्ट में कहा था कि यहां के पानी में अत्याधिक फ्लोराइड है, जिसका सेवन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है. हाल ही में बिहार सरकार की संस्था किलकारी बिहार बाल भवन ने भी 20.04.2019 को अपनी जांच रिपोर्ट में कहा है कि यहां के पीने के पानी में प्रति लीटर 8 मिलीग्राम फ्लोराइड है, जो बच्चों के लिए और भी हानिकारक है. भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने भी प्रति लीटर पानी में फ्लोराइड की मात्रा 1.0 मिलीग्राम तय की है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार, यह मात्रा 1.5 मिलीग्राम से अधिक नहीं होनी चाहिए.
पहाड़ों से होते हुए पथरीले रास्ते को पार कर जब करीब 55 घर और लगभग 450 की आबादी वाले भूप नगर गांव में मैं दाखिल हुआ, तो कमोबेश हर घर में शारीरिक अक्षमता देखने को मिली. जैसे पैरों की टेढ़ी-मेढ़ी हड्डियां, लाठी लेकर चलते और चारपाई पर लाचार पड़े लोग. इन्हीं लोगों में शामिल 45 साल के शहदेव मांझी भी हैं जिनका 16 साल का बेटा दशरत मांझी विकलांगता का दंश झेलते हुए इसी महीने चल बसा. शहदेव मांझी खुद भी जन्मजात दाहिने पैर से विकलांग हैं और थोड़ा बहुत लंगड़ाते हुए चल तो लेते हैं लेकिन औरों की तरह मजदूरी या कोई दूसरा काम नहीं कर पाते हैं. वह लंगड़ाते हुए मेरे पास आकर कहते हैं, “पैर से नहीं बनता है. जोड़-जोड़ में दर्द है. कमर से भी झुक नहीं पाता हूं. मेरा बेटा दस साल तक ठीक था लेकिन उसके बाद वह भी पैरों से लाचार हो गया. पैर की हड्डी टेढ़ी हो गई थी. बिस्तर पर ही पड़ा रहने लगा था और धीरे-धीरे दोनों पैरों से पतला हो गया. जब उसकी मौत हुई तो सिर्फ कंकाल जैसा बचा था.”
वह आगे बताते हैं, “अब मेरे दो बेटे बचे हैं, जो ज्यादा समय बाहर रहते हैं. 15 साल का अखिलेश अभी तो गांव में ही है और 25 साल का राकेश गुजरात के सूरत में मजदूरी कर रहा है. पांच बेटियां हैं जिनमें से तीन की शादी हो गई है. अभी दो बेटियां और हैं शादी के लिए.” शहदेव ने अपनी तीन बेटियों की शादी कम उम्र ही कर दी है. 17 साल की तीसरी बेटी की शादी पिछले साल ही की है.
गांव में दाखिल होते ही पांच घर के बाद दाहिने तरफ 40 साल के संजय मांझी का घर है. वह बताते हैं कि उनके ऊपर 12 महीने कर्जा रहता है. कर्जा तोड़ने के लिए वह मजदूरी करते हैं. लेकिन जब भी कर्जा टूटता है शरवन (12) या जीतन(10) का पैर टूट जाता है और उनके मरहम-पट्टी के लिए उन्हें फिर से कर्जा लेना पड़ता है. शरवन और जीतन दोनों ही संजय मांझी के बेटे हैं, जो जन्मजात से ही विकलांग है. दोनों का घुटना चपटा है. जबकि उसके नीचे और ऊपर की हड्डियां टेढ़ी हैं और दोनों के हाथ की भी हड्डियां ऐसी ही हैं. मिट्टी की दीवार से लगकर बैठे दोनों बच्चों की ओर इशारा करते हुए संजय मांझी कहते हैं, “दोनों का पैर चपटा है, हाथ टेढ़ा है. हाथ के बल घिसट कर चलते हैं और थोड़ा-सा भी फिसलने पर पैर टूट जाता है. दस-दस बार से ज्यादा दोनों का पैर टूट चुका है. शरवन का पैर टूटे अभी एक महीना भी नहीं हुआ. आप देखिए इसके पैर में पट्टी भी लगी हुई है.”
9 साल पहले संजय की पत्नी सबसे छोटे बेटे राजू को जन्म देने के एक साल बाद चल बसी थीं और चमकी बुखार से पिछले साल राजू की भी मौत हो गई.
गांव में लोग शारीरिक अक्षमता के साथ-साथ मानसिक रूप से भी कमजोर होते जा रहे हैं. जो शारीरिक रूप से थोड़ा ठीक हैं उनमें से अधिकतर मजदूरी करने शहर चले गए हैं इसलिए जो लोग बाहर से गांव की समस्या जानने के लिए आते हैं उनसे बात करने के लिए 60 साल के बुलाकी मांझी को बुलाया जाता है. बुलाकी मांझी का मानना है कि देश में लगाए गए लॉकडाउन ने गांव के लोगों की गरीबी पहले से अधिक बढ़ा दी है. मजदूरी के लिए लोग पहले भी पलायन करते थे लेकिन अब पलायन और बढ़ गया है क्योंकि आस-पड़ोस में काम की कमी है.
अपने घर के ओसारे में कुर्सी पर लाठी लिए बैठे बुलाकी मांझी कहते हैं, “गांव की सबसे बड़ी परेशानी तो यहां का पानी है. हम लोग जानबूझ कर जहर पी रहे हैं. क्या करें? कहां जाएं? पूरा गांव ही फ्लोराइड का पानी पी रहा है. हमारा गांव तो मूलभूत सुविधा से एकदम दूर है. न सड़क है, न शौचालय. न पेयजल, न डॉक्टरों की सुविधा. बीमार पड़ने पर मरीज को खाट पर लाद कर सात से आठ किलोमीटर दूर डॉक्टर के पास ले जाते हैं.”
बुलाकी का कहना है कि गांव के लोगों को हो रही शारीरिक समस्या की वजह यहां का फ्लोराइड युक्त पानी है. उनके मुताबिक, इसका असर उनके शरीर पर भी पड़ा है. चलने-फिरने के लिए इन्हें लाठी का सहारा लेना पड़ता है और कमर के दर्द से भी परेशान हैं. यही नहीं 40 साल का उनका बेटा संजय मांझी भी फ्लोराइड के कारण पिछले कई सालों से पैरों से लाचार है. वह अधिकतर समय घर पर ही रहता है.
बुलाकी मांझी ने आगे बताया, “इस गांव में 45 से भी ऊपर लोग आज भी विकलांग हैं जो कोई काम नहीं कर सकते और दस सालों में 10-12 लोग सिर्फ विकलांगता के कारण मर चुके हैं. बहुत सारे बिस्तर पर हैं जिनका सही से इलाज नहीं हुआ, तो कभी भी मर सकते हैं. आपको हर घर में कोई न कोई हड्डियों का रोगी मिलेगा, या कोई जन्मजात अपंग, या फिर तीस साल का होते-होते पैरों की हड्डी टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है. या फिर दांत पीले होने लगते हैं.”
गांव के चापाकलों पर पीले रंग से क्रॉस का चिन्ह लगा हुआ है जिस पर ‘आठ मिलीग्राम फ्लोराइड’ भी लिखा हुआ है. फिर भी गांव वाले इसी पानी को पीने और इसी से खाना पकाने को विवश हैं.
गांव के आखिरी छोर पर 35 साल की सोनमातिया देवी अपनी द्वारी के बाहर चारपाई पर चित पड़ी रहती हैं. बीते एक साल से पैर और कमर से इस कदर मजबूर हो गई हैं कि खुद से अनाज का एक दाना तक मुंह में नहीं डाल सकतीं. दस साल की बेटी सुमन खाना बनाने के अलावा मां की देखभाल भी करती है. 16 साल का बेटा कुलदीप और पति भोला सिंह भोक्ता मजदूरी और थोड़ी बहुत खेती के चक्कर में दिन भर बाहर रहते हैं.
सोनमातिया देवी सही से बोल भी नहीं पातीं. इनके बारे में पूछने पर स्थानीय लोगों ने बताया, “सोनमातिया देवी पहले ऐसी नहीं थीं. पांच साल पहले तक ठीक थीं और घर का काम कर लिया करती थीं. लेकिन धीरे-धीरे पैरों से लाचार हो गईं. उसको हड्डी में झुनझुनी है और टेढ़ी भी हो गई है. रीढ़ की हड्डी में भी हर समय दर्द रहता है. इतना पैसा भी नहीं कि अच्छे से इलाज कराया जाए.”
इसी तरह 45 साल की सूरजी देवी भी बीते एक साल से अपने मिट्टी के घर के भीतर बिस्तर पर पड़ी रहती हैं. वह कहती हैं, “कमर से एकदम नहीं बनता है. न बैठने का बनता है, न उठने का. कमर और ठेहुना में हर समय झुनझुनी रहती है. पैर भी टेढ़ा हो गया है. पहले सब काम करते थे.”
इनके मुताबिक, पति काईल मांझी (50 वर्षीय) भी अब पैर से विकलांग हो गए हैं. लाठी के सहारे बकरी पालन और मौसम में थोड़ा बहुत खेती कर लेते हैं, जिससे परिवार चल रहा है. इस काम में उनका बड़ा बेटा विनोद मांझी (25 वर्ष) पिता का हाथ बंटाता है. जबकि बबीता (22 वर्ष) और कविता (21 वर्ष) दो बेटियां हैं जिनकी शादी हो गई है. सबसे छोटा बेटा शत्रुघन 12 साल का है.
भूप नगर गांव गया जिला के शेरघाटी विधान सभा के आमस प्रखंड के आमस पंचायत में पड़ता है. बुलाकी मांझी इस पंचायत के 2001 से 2010 तक मुखिया भी रहे हैं. आप दस साल तक मुखिया रहे फिर भी गांव की समस्या दूर नहीं कर पाए? इसके जवाब में वह अफसोस जाहिर करते हुए कहते हैं, “मुझे इस बात का दुख है. लेकिन हमारे टाइम में उतना फंड नहीं आता था. 50 हजार रुपए तक ही फंड होता था, जिससे गली का कुछ सोलिंग का काम करवाया था.”
पूरा गांव घूम जाने पर सड़क या नाली बनी हुई मुझे नहीं मिली. स्वच्छ भारत अभियान के तहत मिलने वाले व्यक्गित शौचालय से भी गांव वाले वंचित हैं. पांच सामुदायिक शौचलय बने हैं लेकिन बिना टंकी के वे भी बेकार पड़े हैं. बस दो साल पहले गांव में बिजली आई है और तीन सार्वजनिक चापाकल हैं. जबकि गांव में कई परिवार ऐसे भी हैं जिन्हें सरकारी राशन भी नहीं मिल पाता है.
आमस पंचायत के हाल के मुखिया अरविंद कुमार मिश्रा का कहना है कि वह गांव की समस्याओं से अवगत हैं और इसे दूर करने का प्रयास भी कर रहे हैं. वह यह भी मानते हैं कि गांव की समस्या बड़ी है और स्थाई समाधान अब तक नहीं निकल पाया है. उन्होंने मुझे मोबाइल पर कहा, “मैं उस गांव की समस्या को देख रहा हूं. मैंने पेयजल के सभी पदाधिकारियों तक गांव की समस्या पहुंचाई है लेकिन कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. सड़क का काम शुरू हुआ था लेकिन वन विभाग ने काम रुकवा दिया. गांव में नाली, सड़क, शौचालय का कार्य निर्माणाधीन है.”
वहीं आमस के ब्लॉक के विकास पदाधिकारी (बीडीओ) रमेश कुमार सिंह इस पर कहते हैं, “विकास कार्य जारी है. चूंकि गांव जाने के लिए रास्ता नहीं है. वहां कोई वाहन नहीं पहुंच पाता है इसलिए विकास का कार्य होने में बाधा आती है. रही बात पानी के परमानेंट उपाय की, तो लोग वहां पर बसें नहीं, यह उपाय हो सकता है. इसके लिए बहुत बार प्रयास भी हुआ लेकिन गांव वाले माने नहीं. पानी के प्लांट के खराब होने की बात मेरे संज्ञान में है. उसे जल्द ही ठीक किया जाएगा.”
गांव के लोगों के मुताबिक, 1998-99 में गांव में महामारी हुई थी. इसमें आठ लोगों की मौत हो गई थी. इसके बाद गया के तत्तकालीन डीएम अमृत लाल मीणा ने गांव का निरीक्षण किया था. उन्हीं की पहल पर पहली बार इस गांव में 29 लोगों को इंदिरा आवास योजना के तहत घर मिले. दो चापाकल लगाए गए लेकिन इस दौरान बढ़ती जा रही विकलांगता और शारीरिक अक्षमता को गांववासी प्राकृतिक समझकर नजअंदाज करते रहे. जब इसे लेकर अखबारों में खबरें प्रकाशित हुई तो बिहार सरकार के तत्तकालीन मंत्री शकील अहमद खान ने 2003 में गांव का दौरा किया और वैज्ञानिकों ने निरीक्षण किया.
बुलाकी मांझी ने इस बारे में मुझे बताया, “वैज्ञानिकों ने कहा था कि पानी में बहुत मात्रा में फ्लोराइड है. गांव को विस्थापित करना होगा. हम लोगों ने विस्थापन से इनकार कर दिया क्योंकि हमें डर था कि क्या हम सब लोग एक साथ यहां की तरह रह पाएंगे? अगर हमें दूसरी जगहों पर घर बना कर मिल भी जाता तो खेती के लिए जमीन कहां से मिलती. गांव में तो लोग मजदूरी और थोड़ी खेती से ही जिंदा हैं. बताएं, हम लोग कैसे, कहां जाते?”
23 साल के चंद्रदीप सिंह भोक्ता तीन भाइयों में मंझले हैं. वह जन्म से ही दाहिने पैर से विकालांग हैं. उनकी मां छठिया देवी का पैर भी टेढ़ा हो गया है. गांव में लोगों से बात करते देख चंद्रदीप हमारे पास आकर कहने लगते हैं, “सर, मैं भी विकलांग हूं और मेरी मां भी. विकलांगता के चलते मेरा ब्याह नहीं हो पा रहा है. मैं बहुत छोटा था तभी बाबू जी (तेतर सिंह भोक्ता, 40) भी पैर की विकलांगता से मर गए. मां का पैर टेढ़ा हो गया. वह अब लंगड़ा कर चलती है. बड़ा भाई अपने परिवार के साथ बाहर रहता है. हमसे भारी काम नहीं होता है. आमस बाजार जाकर होटल में प्लेट धोने का काम करते हैं. बहुत परेशानी है, सर.”
गांव में यह व्यथा सिर्फ चंद्रदीप तक ही सीमित नहीं है. 20 साल का सुधीर भी जन्मजात दोनों पैरों से विकलांग है. उसके सभी दांत पीले और खराब हो चुके हैं और वह मानसिक रूप से भी कमजोर है. इसी तरह 35 साल के हलखोरी मांझी और 28 साल के विजय मांझी भी जन्मजात पैरों से विकलांग हैं. 30 साल के परवेश सिंह भोक्ता का नाम भी इन्हीं विकलांग लोगों की सूची में आता है, जो लाठी के सहारे चलते हैं. चलते समय इनके दोनों पैर थरथराते हैं. 75 साल के मंगर मांझी बीते तीन सालों से पैर की मजबूरी के कारण बिस्तर पर हैं. इनके मुताबिक, इनका 38 वर्षीय एक बेटा है जो जन्मजात विकलांग है. जबकि 60 साल के भाई पैरू सिंह के पैरों में अब सिर्फ टेढ़ी हो गई हड्डियां बची हैं.
गांव में कई लोग ऐसे भी हैं जिनका मानना है विकलांगता के कारण उनकी शादी नहीं हो पाई. वे कहते हैं कि अब लोग इस गांव में शादी करने से भी कतराते हैं. यही नहीं, जब मैं गांव में घूमकर लोगों से बात कर रहा था, तो उसी दौरान 8-15 साल के करीब एक दर्जन बच्चों के दांतों पर सड़न और पीलापन पाया. इनमें अमित कुमार (12 वर्ष), उदित कुमार (12 वर्ष), सुनील कुमार (10 वर्ष), अनिल कुमार (12 वर्ष), आकाश कुमार (9 वर्ष), सोनू कुमार (10 वर्ष), ओम प्रकाश (13 वर्ष) और 8 साल का निवास कुमार हैं.
गांव वालों के मुताबिक, फ्लोराइड युक्त पानी की समस्या का हल निकालने के लिए इनसे 2003 में कहा गया था कि आमस ब्लॉक में टंकी बैठेगी और उसी से फिल्टर होकर गांव में पानी स्पलाई होगा. तीन साल बाद 2006 में पाइप भी बिछ गया लेकिन आज तक उसमें पानी नहीं आया. 2009-2010 में गांव में पानी फिल्टर करने वाला प्लांट लगा, जिसको चलाने का काम एक कंपनी को दिया गया. 2016 में फिल्टर का कैमिकल खत्म हो गया तो चार साल तक प्लांट बंद रहा. अखबार में खबर आई तो प्लांट में कैमिकल डालकर फरवरी 2020 में फिर से चालू किया गया लेकिन बोरिंग खराब होने से और कैमिकल खत्म होने से पिछले दो महीने से प्लांट बंद है.
बुलाकी मांझी इस बारे में कहते हैं, “गांव में नल-जल योजना वाला पाइप बिछ गया. उसमें पानी भी आ जाएगा लेकिन हम पूछते हैं कि कौन सा पानी आएगा उसमें. फ्लोराइड वाला ही तो पानी इसमें भी आएगा न. इसके बाद भी हम लोगों को वही फ्लोराइड वाला पानी पीना पड़ेगा. तब इस योजना का क्या फायदा? हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि पानी का स्थाई समाधान करे, नहीं तो गांव में आने वाला बच्चा भी इस पानी से नहीं बचेगा.”
बिहार सरकार ने साल 2015 में ‘सात निश्चय योजना’ की घोषणा की थी. इसके बाद 27 सितंबर 2016 को जल-नल योजना शुरू की गई. योजना में बिहार के लगभग दो करोड़ परिवारों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने का लक्ष्य था लेकिन बीते चार सालों (2016-20) में पंचायती राज विभाग की वेबासाइट के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में इस योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में कुल आवंटित कार्य में से करीब 14 फीसदी ही कार्य पूरे हुए हैं. इसी के तहत गया जिला के 4573 वार्ड के 2787 वार्डों में पेयजल योजना के तहत 2964 कार्य आवंटित किए गए थे, जिनमें मात्र 146 कार्य ही पूरे हो पाए हैं. वहीं, आमस पंचायत के 13 वार्ड के चार वार्ड में कार्य होना था लेकिन एक भी वार्ड का कार्य पूरा नहीं हो पाया है. इन्हीं चार वार्डों में भूप नगर का 12 नंबर वार्ड भी शामिल है जहां जल-नल योजना के तहत पेयजल आपूर्ति होनी थी.
‘सात निश्चय योजना’ के तहत नाली-गली योजना का भी यही हाल है. इस योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में पक्की गली एवं नाली का निर्माण किया जाना था. पंचायती राज विभाग के आंकड़ों के मुताबिक बीते चार सालों में कुल आवंटित कार्य की तुलना में 50 फीसदी भी कार्य पूरे नहीं हो पाए. लेकिन इन चार सालों में किए कार्य को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी सरकार की उपलब्धि मानते हैं. उन्होंने इसी मद्देनजर 2020 के बिहार विधान सभा चुनाव में ‘सात निश्चय पार्ट-2’ की घोषणा की थी और अपने हालिया बयान में कहा है कि जल्द ही बिहार में ‘सात निश्चय पार्ट-2’ योजना की शुरुआत की जाएगी. हालांकि ‘सात निश्चय पार्ट-1’ में जो कार्य पूरे नहीं हुए उसे पूरा करने की भी बात कही है.
भूप नगर गांव में 1962 से राजकीय प्रथामिक विद्यालय चल रहा है लेकिन स्कूल के 52 छात्रों पर बीते तीन सालों से एक ही शिक्षक हैं. पड़ोस के पथरा गांव के रहने वाले जितेंद्र कुमार यहां 17 साल से शिक्षक हैं. शिक्षण के अलावा वह अपने स्तर से यहां के लोगों की समस्या भी सुलझाने का प्रयास करते रहते हैं. वह हमसे कहते हैं, “पांचवी तक पढ़ाई करने के बाद गांव के बच्चे आगे नहीं पढ़ पाते हैं. गांव वाले बेचारे क्या करें? बच्चों को पढ़ाएं या उन्हें हो रही बीमारी का इलाज कराएं? ये लोग तो अपनी दो पीढ़ी से त्रासदी झेल रहे हैं. मैंने 10-15 साल में जो लोग फ्लोराइड के पानी की वजह से मरे हैं उनको निकट से देखा है.”
उन्हीं के बारे में जितेंद्र कुमार आगे बताते हैं, “35 साल के गनौरी मांझी जन्मजात ही दोनों पैर-हाथ से विकलांग थे. सात साल पहले ही इनकी मृत्यु हुई है. 45 साल के कन्हाई मांझी पहले बहुत स्वास्थ थे लेकिन बीच में पैर धीरे-धीरे ऊपर उठ गया था और कमर धंस गई. इसके कारण वह न सीधे होकर सो सकते थे और न ही सही से बैठ सकते थे. 2017 में अत्यधिक विकलांगता के कारण उनकी मृत्यु हो गई. 36 साल के बरहेम सिंह भोक्ता की भी मौत पांच साल पहले हुई. वह हड्डी के रोग के कारण काफी पतले हो गए थे. इसी तरह 42 साल के झमन सिंह भोक्ता की 2009 में शारीरीक विकलांगता के कारण मौत हो गई. वह पैर से काफी मजबूर हो गए थे. आखिरी समय में वह कंकाल की तरह हो गए थे. 50 साल के शिवनंदन मांझी और 55 साल के रामदेव मांझी की भी मौत दो साल पहले हुई है. वे मौत से कुछ साल पहले पैर से विकलांग हो गए थे. इसी तरह 35 साल के मोहन मांझी, 30 साल की बसंती देवी और 65 साल की पारवती देवी की मौत आठ साल में आगे-पीछे हुई, जो विकलांगता झेल रही थीं.”
फ्लोराइड का दंश झेलने वाला भूप नगर कोई इकलौता गांव नहीं है. बिहार के लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग की माने तो राज्य में 11 जिलों के 98 प्रखंड के करीब चार हजार से ज्यादा बसाहटों के भूजल में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से काफी ज्यादा है.
फ्लोराइड स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक है इस बारे में गया के जिला मलेरिया पदाधिकारी डॉक्टर एहतेशामुल हक कहते हैं, “ऐसे तो पीने के पानी में फ्लोराइड आईडियल एक मिलीग्राम से भी कम होना चाहिए लेकिन जब यह मात्रा डेढ़ मिलीग्राम से अधिक होगी तब दो तरह की बीमारियां होंगी. एक डेंटल फ्लोरोसिस, जिसमें दांत पीले होंगे, सड़न हो जाएगी. दूसरा स्केलेटल फ्लोरोसिस, जिसमें 3 से 6 मिलीग्राम होने पर इसका सबसे ज्यादा असर हड्डियों पर पड़ता है. बदन के किसी भी हिस्से की हड्डी टूटेने लगती है, टेढ़ी होने लगेगी. जैसे पैर, कमर या रीढ़ की हड्डियां. इसके अलावा लकवा और जन्मजात विकलांगता भी हो सकती है. जो भी लोग ऐसा पानी पीते हैं जरूरी नहीं है उसका असर तुरंत दिखे. बाद में भी पड़ सकता है. लंबे समय तक फ्लोराइ का वाला पानी पीने से हड्डियों पर असर पड़ने की संभावना अधिक होती है.”
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद रांची के पूर्व वैज्ञानिक डॉक्टर समर पाल सिंह का कहना है कि अधिक मात्रा में फ्लोराइड युक्त पानी का सेवन होगा तो इसका अधिक असर हड्डियों पर होगा. वह कहते हैं कि जबकि इस पानी से सिंचाई या इससे उगने वाली फसल का सेवन करने से उतना नुकसान नहीं है, जितना पीने से है.
1999 में हुई माहामारी को छोड़ दें तो गांव वालों के मुताबिक उनके यहां आज तक न ही कोई सरकारी और न किसी एनजीओ की ओर से कभी कोई स्वास्थ्य शिविर लगा है जो उन्हें बताए कि फ्लोराइड युक्त पानी पीने से उन्हें क्या-क्या बीमारियां हो रही हैं.
सामाजिक कार्यकर्ता शैलेश मिश्रा कहते हैं, “भूप नगर गांव के लोग आजादी के 73 साल बाद भी अपने मौलिक अधिकारों से वंचित हैं, उन्हें पेयजल तक नसीब नहीं है. स्वास्थ्य की सुविधा भी नहीं है. न सड़क है, न शौचालय. पूरा गांव खुले में शौच के लिए मजबूर है.”
इनके मुताबिक इन्होंने गांव की समस्या को लेकर लगातार आवाज उठाई है. खबरों के माध्यम से सरकार तक पहुंचाने की कोशिश भी की लेकिन आज तक स्थाई समाधान नहीं हो पाया है.
गांव के लोगों का मुख्य पेशा मजदूरी है. या तो ये लोग आस-पड़ोस के गांव-कस्बों में दिहाड़ी मजदूरी करते हैं या फिर शहर पलायन कर जाते हैं. इनके मुताबिक, इनके पूर्वज पहले बगल के झरी गांव में जमींदारों के बंधुआ मजदूर हुआ करते थे. भूदान आंदोलन के तहत विनोबा भावे ने 1952 में वन बिहारी प्रसाद भूप के द्वारा 251 एकड़ का एक मौजा देकर उन्हें बसाया था. इसलिए गांव का नाम भूप नगर पड़ा. 1955 में पहली बार 21 परिवार यहां आए. इसके बाद धीरे-धीरे परिवार के और सदस्य भी यहां बसते गए लेकिन गांव वाले कहते हैं कि 251 एकड़ के जमीन में से वे 100 एकड़ पर ही काबिज हैं, जो उन 55 घर के परिवारों के बीच बंटी हुई है. ये लोग इस जमीन पर बमुश्किल चार से पांच माह का अनाज ही उगा पाते हैं. बाकी 151 एकड़ को वन विभाग ने जंगल की जमीन बताकर अपने कब्जे में ले लिया है.
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