2014 के लोक सभा चुनाव का वक्त था. एक शाम पंजाब के लुधियाना जिले के कस्बा सुधार में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार हरिंदर सिंह खालसा के पक्ष में एक चुनावी जुलूस निकल रहा था. जुलूस में हर वर्ग के लोग शामिल थे. “कदी हां कर के कदी ना कर के, वोट झाड़ू नूं पा दे नीं तूं लंबी बांह करके. असीं देश बदलना है, असीं पंजाब बदलना है, असीं बेईमानां राज बदलना है.” नौजवान खुद-ब-खुद आम आदमी पार्टी के पक्ष में ऐसे गीत, बोलियां और टप्पे जोड़ कर गा रहे थे. जुलूस में शामिल नौजवान जसविंदर सिंह ने मुझे बताया था कि उन्होंने अपने गांव में दोस्तों के साथ मिल कर आप का प्रचार शुरू किया है. उन्होंने कहा, ''शुरुआत में तो पारंपरिक पार्टियों से जुड़े गांव के नेताओं ने हमे रोकने की कोशिश की पर जब हम नहीं रुके तो गांव के और लोग भी हमारे साथ जुड़ने लगे. वीर जी! मैं हरिंदर सिंह खालसा जी को अच्छी तरह जानता भी नहीं पर आप और केजरीवाल को दिल्ली में हमने 49 दिनों में देख लिया. हम भी यह चमत्कार पंजाब में देखना चाहते हैं. हम आम लोग हैं. हमारे साथ कोई बड़ा नेता नहीं है. इन आम लोगों में से ही नेता बनेंगे जो पंजाब और देश की तस्वीर संवार देंगे.'' जसविंदर पूरे जोश खरोश के साथ बोलते ही चले गए. ''पंजाब के लोग अकाली और कांग्रेस दोनों से परेशान हैं इन्होंने हमारे पंजाब को बर्बाद कर दिया. निराशा के इस आलम में मेरे जैसे नौजवान के लिए दो ही रास्ते हैं या तो देश छोड़ कर विदेश चले जाएं या फिर हथियार उठा लें. आप ने मेरे जैसों को राह दिखाई है कि वोट के रास्ते पंजाब को लूटने वालों को सबक सिखाया जाए.’’
2022 के पंजाब विधान सभा चुनाव में जहां मीडिया की सुर्खियों में आप का धुंआधार प्रचार दिख रहा है वहीं आप के सत्ता में आने की भविष्यवाणी भी होने लगी हैं. इस बीच जसविंदर जैसे कितने ही वॉलंटियर और कार्यकर्ता ऐसे हैं जिन्हें अपने सपने टूटते हुए या टूट चुके नजर आ रहे हैं. वह खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं. पंजाब में आम आदमी पार्टी की राजनीति का एक पहलू यह भी है.
दिसंबर 2013 में दिल्ली में 49 दिनों की केजरीवाल सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाए कदम, जन-लोकपाल बिल, 1984 के कत्लेआम मामले में जांच के लिए एसआईटी गठित करने जैसे तमाम ऐसे फैसले लिए थे जिसने प्रवासी पंजाबियों के दिल जीत लिए थे. पंजाब के हताश-निराश नौजवानों को केजरीवाल और उनके साथियों ने भगत सिंह को याद करना, इंकलाब जिंदाबाद और व्यवस्था परिवर्तन जैसे नारों से अपनी ओर खींचना शुरू किया. पंजाब में वामपंथी पृष्ठभूमि वाले लोग और मानव अधिकार कार्यकर्त्ता, लिबरल तबका आम आदमी पार्टी से जुड़ने लगे. आप के नेताओं ने सिस्टम से असंतुष्ट हुए कॉमरेडों और थक-हार चुके सिख संगठनों को (जिनमें से कुछ की पृष्ठभूमि खालिस्तानी या उग्र सिख विचारों के थे) भी अपने साथ जोड़ा. डॉ. धर्मवीर गांधी, एच. एस.फूलका और डॉ. दलजीत सिंह जैसी शख्सियतों के आप से जुड़ने के कारण पार्टी को पंजाब में और बल मिला. कई सालों बाद वामपंथी और पंथक ग्रुप एक झंडे के नीचे इकठ्ठे दिखाई देने लगे. उस समय पंजाब के कई विद्वान तो यहां तक कहने लगे थे कि पंजाब का लंबे समय से दिल्ली से टूटा हुआ संवाद फिर कायम होने लगा है. केजरीवाल और उनके साथी पंजाबियों के हीरो बन गए. जिसके चलते 2014 के लोकसभा चुनाव में जहां आम आदमी पार्टी को पूरे देश में शिकस्त मिली वहीं पंजाब में उसने 4 सीटें जीतीं.
पटियाला से डॉ. धर्मवीर गांधी ने परनीत कौर (कैप्टन अमरिंदर सिंह की पत्नी और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री) को करीब 21 हजार मतों से हराया. फतेहगढ़ साहिब से हरिंदर सिंह खालसा 54 हजार से अधिक मतों के फर्क से कांग्रेसी उम्मीदवार साधू सिंह धर्मसोत से विजयी हुए. संगरूर हलका से भगवंत मान, सुखदेव सिंह ढींडसा से 2 लाख 17 हजार मतों के फर्क से विजय हुए और फरीदकोट से प्रो. साधू सिंह 1लाख 82 हजार मतों के फर्क से जीते. पंजाब में आप को 24 फीसदी से अधिक वोट मिले थे. यह चारों निर्वाचन क्षेत्र मालवा के वामपंथी और लोक संघर्षों वाले इलाके हैं. मौजूदा किसान आंदोलन का गढ़ भी मालवा क्षेत्र रहा है.
पंजाब के राजनीतिक चिंतकों का मानना है कि आप उस वक्त 8 से 10 सीटें जीत सकती थी पर पार्टी हाईकमान ने पंजाब को कम करके आंका. लुधियाना सीट से आप के उम्मीदवार एच. एस. फूलका अपने निकटम प्रतिद्वंदी कांग्रेस के रवनीत बिटू से सिर्फ 19 हजार मतों से हारे थे. आनंदपुर साहिब से आप के हिम्मत सिंह शेरगिल बेशक तीसरे नंबर पर थे लेकिन विजयी उम्मीदवार अकाली दल के प्रेम सिंह चंदूमाजरा से वह महज 44 हजार वोटों से पीछे रह गए थे. हिम्मत सिंह शेरगिल चुनाव प्रचार के दौरान लोक सभा हलका में पड़ते एक विधान सभा क्षेत्र मंन तो जा ही न सके थे.
2014 के लोकसभा चुनाव के समय पंजाब में आप के कन्वीनर और पार्टी की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य रहे सुमेल सिंह सिद्धू बताते हैं कि उस समय आप हाईकमान को यह एहसास भी नहीं था कि पंजाब में उन्हें कितना समर्थन मिल रहा है. चुनाव प्रचार के शुरुआत में तो वे यही सोच रहे थे कि अगर पार्टी को कुछ हलकों में 75 हजार वोट भी पड़ जाएं तो बड़ी तसल्ली वाली बात होगी. जालंधर, लुधियाना, होशियारपुर और आनंदपुर यह चार सीटें ऐसी थीं जो हम आराम से जीत रहे थे और ''हमने अपने हाथों से बिना मतलब गवां दीं.’’
पंजाब में लोगों के बीच आप दखल देने लगी थी. लेकिन जल्द ही किसी साफ विचारधारा की कमी वाली इस पार्टी में तू-तू मैं-मैं होने लगी. लोकसभा चुनाव के कुछ महीनों बाद ही दो विधान सभा सीटों (पटियाला शहरी और तलवंडी साबो) के लिए उप-चुनाव हुए. पंजाब में आप के नेताओं में इन सीटों पर अपने पसंदीदा उम्मीदवार को टिकट दिलाने के लिए अंदरूनी लड़ाई की खूब खबरें आईं. इन दोनों सीटों पर आप के उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हुईं. उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव तक आप ने पंजाब में कोई उप-चुनाव नहीं लड़ा.
2014 में ही संगरूर जिले के बलद कलां गांव में उच्च जाति के लोगों द्वारा दलितों का बहिष्कार किया गया तो आप से जुड़े दलित समाज ने आशा की कि भगवंत मान इस पर बोलेंगे. यह मुद्दा लोक सभा में भी उठा तब भी इस मुद्दे पर भगवंत मान की नकारात्मक भूमिका रही. इसी तरह 2016 में जिला संगरूर के जलूर गांव में जब दलितों का बहिष्कार किया गया तब भी भगवंत मान चुप रहे. राजनीतिक कार्यकर्त्ता मुकेश मलौद ने मुझे बताया कि जब आप की ओर झुकाव रखने वाले उनके संगठन के कुछ लोगों ने एक मीटिंग में भगवंत मान को बुलाकर इन मुद्दों का हल करने को कहा तो भगवंत ने साफ कह दिया कि ''अगर वह ऐसा करेंगे तो जट्ट वोट उनसे कट जाएंगे.’’
2014 के अंत में योगेंद्र यादव की केजरीवाल से नाराजगी दिखाई देने लगी तो इसका असर पंजाब में भी दिखा पर इसके बावजूद 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप ने 70 में से 67 सीटें जीत कर मिसाली जीत हासिल की. प्रवासी पंजाबियों का इस जीत में अहम योगदान रहा. पंजाबियों ने दिल्ली के चुनावों को इंकलाब की आस की तरह देखा और दिल्ली जाकर आप के लिए इस उम्मीद के साथ प्रचार किया गया कि वह इंकलाब दिल्ली से होकर पंजाब पहुंचेगा. प्रवासी पंजाबियों ने खुद दिल्ली आकर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया. कुछ प्रवासी पंजाबियों ने तो ग्रुप बनाकर दिल्ली विधानसभा क्षेत्रों को अडॉप्ट कर प्रचार किया और पैसा लगाया. अमेरिका में रहने वाले एक प्रवासी पंजाबी ने नाम न छपने की शर्त पर मुझे बताया कि दिल्ली के 2015 वाले विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर आप को उसकी वैबसाईट से ऑनलाइन डोनेशन दिया और अमेरिका से दिल्ली जा रही टीम के साथ भी पैसे भेजे. उन्होंने कहा, ''मैंने उस समय खुद 5 हजार अमरीकी डॉलर चंदे के रूप में खर्च किए. मेरे कई और दोस्तों ने अपनी हैसीयत के मुताबिक आप को चंदा दिया था. कई दोस्तों ने तो पैसा लगाने के लिए विधान सभा के अलग-अलग क्षेत्र भी चुन लिए थे. हम दिल्ली के दरवाजे पंजाब में खूबसूरत सरकार देखने के सपने संजोए बैठे थे.’’
दिल्ली विधान सभा चुनाव जीतने के बाद आप में अंदरूनी कलह बढ़ गई. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी से बाहर कर दिया गया. उनके साथ जुड़ी कई अहम हस्तियां भी आप से अलग हो गईं या उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इस फूट का असर पंजाब में भी पड़ा. इस बीच राज्य में भूषण और यादव से जुड़े पार्टी नेता तो पार्टी से अलग हुए ही पार्टी के अंदर स्वराज के एजंडे को लागू करने, अंदरूनी लोकतंत्र और पार्टी की राज्य इकाइयों को ज्यादा अधिकार दिए जाने की मांग भी उठने लगी. वॉलंटियर्स ने आरोप लगाने शुरू किए कि उन्हें पार्टी हाईकमान उन्हें नजरअंदाज कर रही है.
2015 से 2017 तक का दौर आप में अंदरूनी खींचातानी का रहा. आरोप-प्रत्यारोप और साजिशों का दौर चलता रहा. इस समय जो भी नेता पार्टी हाईकमान पर सवाल उठाता या पार्टी में राज्यों को ज्यादा अधिकार देने की मांग करता उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता. केंद्रीय पक्ष के समर्थक पंजाब के नेता पूरी तरह हाईकमान का साथ देते. लेकिन जब हाईकमान उनका पत्ता काट देती तो वह भी अपने पूर्ववर्तियों वाले सवाल उठाने लगते. जब डॉ. धर्मवीर गांधी ने पार्टी की केन्द्रीय हाईकमान की कार्य प्रणाली पर सवाल उठाए और ‘स्वराज’ के संकल्प के तहत पार्टी की राज्य इकाइयों के लिए अधिक अधिकारों की मांग की तो हरिंदर सिंह खालसा और सुच्चा सिंह छोटेपुर ने गांधी को “गद्दार” करार देते हुए और हाईकमान का पक्ष रखते हुए कहा कि “केजरीवाल ही आम आदमी पार्टी है और आम आदमी पार्टी ही केजरीवाल है.” लेकिन जब हरिंदर सिंह खालसा ने पार्टी छोड़ी और सुच्चा सिंह छोटेपुर को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया तो वही आरोप दोनों ने पार्टी की केंद्रीय हाईकमान और केजरीवाल पर लगाए.
2015 से 2017 के बीच दूसरी पार्टियों से आप में कई नेता शामिल हुए. इसी समय सुखपाल खैरा भी कांग्रेस छोड़ आप में शामिल हुए थे. इस समय में ही पार्टी में राज्य कनवीनर लगातार बदले गए. सुच्चा सिंह छोटेपुर के बाद गुरप्रीत घुग्गी (कॉमेडी कलाकार) और फिर बाद में भगवंत मान को यह जिम्मेदारी मिली.
आप पंजाब के सबसे पहले कनवीनर सुमेल सिंह सिद्धू अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं, “पार्टी में आते समय मुझे इस बात का एहसास था कि इसमें कई तरह की विचारधारा वाले लोग शामिल हैं. उनके साथ पार्टी के अंदर रह कर एक और तरह की लड़ाई लड़नी पड़ेगी. मैं इस लड़ाई को भी लड़ने के लिए तैयार था. पंजाब में आप को सबसे पहले प्रवासी पंजाबियों का बड़े स्तर पर समर्थन मिला. पंजाब के लोग दोनों पारंपरिक पार्टियों से दुखी थे, खासकर तत्कालीन अकाली सरकार में नशा और खनन माफिया राज्य का सामाजिक वातावरण खराब कर रहा था. अकाली कार्यकर्त्ताओं की गुंडागर्दी का जोर था. पंजाब में पहले भी तीसरा राजनीतिक दल उभारने की कोशिशें हुई हैं जिन्हें सफलता न मिल सकी थी.” सिद्धू आगे बताते हैं, “2013-2014 वाला दौर पार्टी की अच्छाई का दौर था. यह अच्छाई जमीन पर भी दिख रही थी. मेरी दिलचस्पी वॉलंटियर्स को तैयार करने में थी. उस समय वॉलंटियर्स पार्टी की रीढ़ थे. उन्होंने खुद ही जमीन पर पार्टी का प्रचार किया और चुनाव में अपने स्तर पर बूथ तैयार किए. मुझे लगता था कि वॉलंटियर्स में जोश और जज्बा तो बहुत है पर उन्हें सैद्धांतिक रूप से सिखाने की जरूरत है पर पार्टी की केंद्रीय हाईकमान ने वॉलंटियर्स को हमेशा कम करके देखा.’’
पंजाब आप में आंतरिक विवाद फरवरी 2014 में ही दिखना शुरू हो गया था जब केजरीवाल, सिसोदिया और उनसे जुड़े कुछ पंजाब के नेता पारंपरिक पार्टियों से जुड़े नेताओं की पार्टी में एंट्री और उन्हें टिकट देने की सोचने लगे थे, खासकर मनप्रीत सिंह बादल और जगमीत बराड़ जैसे नेताओं को पार्टी में शामिल करने की बातें होने लगी थीं. सुमेल सिंह सिद्धू, जो उस वक्त पार्टी की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य थे, वह कहते हैं, ''मैं इसका विरोध करता रहा और ऐसे नेताओं की एंट्री रोकता रहा. मुझे पता था की इसकी सजा मुझे जरूर मिलेगी.”
उन्होंने बताया कि पार्टी के अंदरूनी माहौल से बहुत सारे नेता और कार्यकर्ता दुखी थे. “आतिशी मार्लेना के पति भी कई बार यह दुख मुझ से साझा कर चुके थे. वह निराशा में जाने लगते तो मैं उनको हिम्मत देता. केजरीवाल और उसकी टोली वॉलंटियर्स को कुछ समझती ही नहीं थी. शुरू में बड़े होनहार नौजवान पार्टी के साथ जुड़े. बहुतों ने अपनी नौकरियां छोड़ी, उनकी पारिवारिक जिंदगी भी तबाह हो गई. उनमें से ज्यादा निराश होकर घर बैठ गए. “स्वराज” का सपना टूटने के कारण कई अभी भी मानसिक संताप से बाहर नहीं निकले. आप की केंद्रीय हाईकमान ने पंजाब के नेताओं को आपस में उलझा कर अलग-थलग करके रखा. छोटेपुर और भगवंत मान की कोशिश भी दिल्ली दरबार के नजदीक होने की रही जिस कारण ये नेता पंजाब की लड़ाई नहीं लड़ सके. जब पार्टी ने 2017 वाला विधानसभा चुनाव लड़ा तो वॉलंटियर्स की हस्ती बिलकुल जीरो थी. उनका सीधा हिसाब था कि 24 फीसदी वोट हमारे पास हैं 10 फीसदी का जुगाड़ दूसरी पार्टियों के नेताओं को अपने में शामिल करके कर लेंगे.” सुमेल सिंह सिद्धू ने आरोप लगाते हुए कहा, “2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी सिख पत्ता खेल रही थी अब 2022 वाले चुनाव में पंजाब के हिंदुओं का वोट लेने के लिए तिरंगा यात्रा जैसे प्रपंच कर रही है. पार्टी का कौमी मुद्दों पर स्टैंड बहुसंख्यावादी है.”
2017 के विधान सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने जोर-शोर से चुनावी मुहिमें चलाईं. पार्टी के अंदर नेताओं का आना जाना भी लगा रहा. प्रवासी पंजाबियों ने इस बार भी तन-मन-धन से पार्टी का साथ दिया. उस चुनाव में आम आदमी पार्टी ने कोई मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया था तो पार्टी के अंदर और बाहर यह सवाल उठने लगा कि कहीं केजरीवाल खुद तो पंजाब का मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते? ‘पंजाब का मुख्यमंत्री पंजाब का हो, बाहर का नहीं’ यह आवाज भी उठने लगी. इसके साथ ही पंजाब के प्रमुख आप नेताओं ने खुद को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया. भगवंत मान, फूलका, सुखपाल खैरा सभी के कार्यकर्ता उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश करने लगे.
4 फरवरी 2017 को होने वाले विधानसभा चुनावों से कुछ दिन पहले मौड़ मंडी बम धमाका हुआ जिस बारे में अभी तक भी कुछ खास सामने नहीं आ सका है. इसका आरोप उग्र सिख संगठनों पर लगने लगा. विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि आम आदमी पार्टी विदेशों में बैठे खालिस्तानियों से समर्थन लेती है और पंजाब का माहौल खराब करने की साजिश कर रही है. इसके साथ ही जिला मोगा में केजरीवाल द्वारा आप के समर्थक एक पूर्व खालिस्तानी के घर जाने के मुद्दे को भी मीडिया में काफी जगह मिली जिसके चलते केजरीवाल विरोधियों के निशाने पर आ गये.
आप को 2017 के विधानसभा चुनाव में 20 सीटें हासिल हुईं. दो सीटें उसकी सहयोगी पार्टी लोक इंसाफ पार्टी को मिली. आप ने विपक्षी दल का दर्जा हासिल किया. कई सालों बाद कोई तीसरी पार्टी यह दर्जा हासिल कर सकी थी. कांग्रेस ने 77 सीटें पाकर सरकार बनाई और अकाली दल को अपनी ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा.
लेकिन इधर आम आदमी पार्टी में अंदरूनी जंग फिर शुरू हो गई. दिसंबर 2017 में पार्टी को गुरदासपुर लोकसभा उप-चुनाव में बुरी हार का सामना करना पड़ा. 2017 के विधानसभा चुनाव में नशा अहम मुद्दा था. केजरीवाल से लेकर आप के हर छोटे-बड़े नेता ने इस मुद्दे पर अकाली दल और विक्रमजीत सिंह मजीठिया को घेरा था लेकिन 2018 में केजरीवाल ने विक्रमजीत सिंह मजीठिया से माफी मांग ली जिसके चलते पंजाब के लोग पार्टी से नाराज हो गए. रोषस्वरूप पार्टी के राज्य कनवीनर भगवंत मान और सह-कनवीनर अमन अरोड़ा ने अपने-अपने पदों से इस्तीफा दे दिया. 2018 में ही एच. एस.फूलका ने विपक्षी दल के नेता और विधानसभा सदस्य के पद से इस्तीफा दे दिया. फूलका वाली सीट भी पार्टी उप-चुनाव में अकाली दल से हार गई.
फूलका के बाद विपक्षी दल के नेता बने सुखपाल खैरा ने रेफरेंडम-2020 के हक में बयान दिया. इस बयान के बाद पंजाब में आप फिर से विवादों में घिर गई. हालांकि खैरा ने अगले दिन अपना बयान वापिस ले लिया यह कहते हुए कि उनके बयान का गलत अर्थ निकाला जा रहा है. आप की दिल्ली हाईकमान ने खैरा की टिप्पणी से खुद को अलग करते हुए खैरा को स्पष्टीकरण देने के लिए कहा. इसके साथ ही दिल्ली और पंजाब ईकाई में दूरियां बढ़नी फिर शुरू हो गईं. आप हाईकमान द्वारा खैरा को नेता विपक्ष के ओहदे से हटा दिया गया और दिड्बा से विधानसभा सदस्य हरपाल चीमा को विपक्षी दल का नेता बना दिया गया. इससे लोगों में आप की हाईकमान द्वारा पंजाब इकाई पर धौंस जमाने की धारणा को बल मिला.
2 अगस्त 2018 को बठिंडा में खैरा धड़े द्वारा सुखपाल खैरा को नेता विपक्ष के ओहदे से गैर-लोकतांत्रिक ढंग से हटाने के विरोध में एक कन्वेंशन हुई थी. आप की केंद्रीय हाईकमान ने इसे पार्टी विरोधी काम बताया. इस बठिंडा कन्वेंशन में आप के सात विधायकों और हजारों वॉलंटियर्स ने शिरकत की थी. बाद में खैरा ने आप से अलग होकर पंजाब एकता पार्टी बनाई. 2022 के विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस की टिकट से चुनाव लड़ रहे हैं.
2019 के लोकसभा चुनाव में आप को निराशा का सामना करना पड़ा था. वह केवल भगवंत मान की संगरूर सीट ही जीत पाई. कई जगह उसके उम्मीदवारों की जमानतें भी जब्त हुईं. 6 पार्टियों के साझा मोर्चा पंजाब डेमोक्रेटिक एलाइंस (पीडीए) ने चुनावों में आप से बेहतर प्रदर्शन किया. इनमें आप से अलग हो कर बनी सुखपाल खैरा की ‘पंजाब एकता पार्टी’, धर्मवीर गांधी की नवां पंजाब पार्टी, लोक इंसाफ पार्टी, सीपीआई, आरएमपी और बसपा शामिल थी. यह गठबंधन भले ही कोई सीट न जीत पाया हो पर इसमें शामिल पार्टियों ने अपना वोट जरूर बढ़ा लिया था. पीडीए में शामिल बसपा ने आनंदपुर साहिब से 1 लाख 46 हजार वोट, होशियारपुर से 1 लाख 28 हजार वोट और जालंधर से 2 लाख से अधिक वोट लेकर तीसरा स्थान हासिल किया. लोक इंसाफ पार्टी ने लुधियाना में दूसरा और फतेहगढ़ साहिब में तीसरा स्थान हासिल किया. पटियाला से धर्मवीर गांधी 1 लाख 68 हजार वोट हासिल कर तीसरे स्थान पर रहे. खडूर साहिब से पंजाब एकता पार्टी से मानव अधिकार कार्यकर्त्ता मरहूम जसवंत सिंह खालरा की पत्नी परमजीत कौर खालरा ने चुनाव लड़ा और 2 लाख से अधिक वोट लेकर तीसरे नंबर पर रहीं. इस सीट की खासियत यह थी कि यहां पर सिख संगठनों और वाम संगठनों ने मिलकर परमजीत कौर खालरा के लिए प्रचार किया. इस चुनाव में नोटा को 154430 वोट पड़े. जानकारों का मानना है कि पीडीए और नोटा को पड़े वोट आम आदमी पार्टी से नाराज हुए वोट थे.
आम आदमी पार्टी के जरिए स्वराज, अंदरूनी लोकतंत्र, राज्य इकाइयों को आत्मनिर्णय की इच्छा रखने वाले आज भी केंद्रीय हाईकमान के ऊपर यह आरोप लगाते हैं कि वे अपने कार्यकर्ताओं के साथ नाइंसानी करते हैं. पार्टी वॉलंटियर्स की यह शिकायत है कि स्थानीय मसलों में वॉलंटियर्स की नहीं बल्कि पंजाब से बाहर के और दिल्ली से नियुक्त किए गए पर्यवेक्षकों की ही सुनी जाती है. चुनाव नजदीक आते ही इनकी दखलंदाजी बढ़ जाती है.
पंजाब के नामचीन राजनीतिक शास्त्री प्रोफेसर रौनकी राम का कहना है, “पंजाब में आप के साथ दो तरह के व्यक्ति जुड़े थे. पहले, जो समाज की बेहतरी के लिए जुड़े थे और ईमानदार थे, वे विश्वास करते थे कि आप के जरिए सुंदर समाज बनाया जा सकता है और दूसरे ऐसे लोग थे जिन पर लोकसभा और विधानसभा की टिकटों के लिए पैसों के लेन-देन के भी आरोप लगते रहे हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद दिल्ली के इन पर्यवेक्षकों के बारे में कई किस्से सामने आने लगे. इन्होंने न सिर्फ पंजाब से पैसे कमाए बल्कि पंजाब के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को भी खराब किया है.”
आप से जुड़े एक पुराने वॉलंटियर से जब मैंने बात करनी चाही तो सुनते ही उन्होंने कहा, “रहने दो, पुराने जख्म न कुरेदो. मैं अपनी जिंदगी के उस दौर को भूल जाना चाहता हूं. मेरे लिए पार्टी सब कुछ थी. मुझे पार्टी द्वारा समाज बदलने की आस थी. मैं अपना 60 लाख रुपया बर्बाद कर चुका हूं.'' भर्राई सी आवाज में उसने फिर से कहा, ''कृपा करके मेरे जख्म हरे न करो,” और फोन काट दिया.
आप से जुड़े रहे एक अन्य वॉलंटियर ने नाम न छापे जाने की शर्त पर मुझे अपना अनुभव बताते हुए कहा कि “मैं आप से 2013 के आखिर में जुड़ा और 2017 तक जुड़ा रहा. 2017 के विधानसभा चुनाव में मैं एक हलके का कैंपेन मेनेजर रहा हूं. शुरुआत में आप की नीतियां जैसे कि जनलोकपाल बिल, स्वराज, संघीय ढांचे पर जोर, भ्रष्टाचार का खात्मा, व्यवस्था परिवर्तन के नारों ने मुझे आप की तरफ खींचा. बड़ी जल्दी पता लग गया था कि पार्टी तो खुद इन सिद्धांतों के उलट है. लेकिन 2017 तक पार्टी के साथ इस आस से जुड़ा रहा कि कोई बात नहीं पार्टी में कभी तो सुनी जाएगी.'' उन्होंने आगे कहा, ''2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हमने चुनावों का विश्लेषण करने और जीत की खुशी में जालंधर में वॉलंटियर्स की मीटिंग रखी थी जिस पर दिल्ली हाईकमान ने सख्त ऐतराज किया. मुझ समेत पांच अन्य वॉलंटियर्स को अरविंद केजरीवाल के सामने पेश किया गया. उस दिन केजरीवाल ने जिस भाषा में बात की, मेरा भ्रम टूट गया. वह भाषा क्रूरता और अहंकार से भरी थी. आप में अभी भी बहुत वॉलंटियर्स हैं जिनके साथ बुरा बर्ताव होता है. वे इसलिए आगे नहीं आते कि कहीं पार्टी कमजोर न हो जाए. अभी भी वे पार्टी के बारे आदर्श सोच पाले बैठे हैं.”
आम आदमी पार्टी का बड़ा समर्थक रहा प्रवासी पंजाबी समाज 2022 के इन विधानसभा चुनाव में पहले जितनी रुची नहीं ले रहा. प्रवासियों के बड़े हिस्से का आप से मोह भंग हुआ है. वे पार्टी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रहे हैं. कनाडा में रहने वाले आप के पूर्व समर्थक ने नाम न छापे जाने की शर्त पर मुझसे कहा, “मैं और मेरे कई दोस्त आप से उम्मीद रखते थे कि यह पार्टी पंजाब के भले के लिए काम करेगी, लेकिन बाद में जाकर इसका असली चेहरा उजागर हुआ. पंजाब हित के बारे में आप के नेताओं का कोई एजेंडा नहीं है. अल्पसंख्यक मसलों पर इसकी सोच बड़ी खतरनाक और मौकापरस्त नजर आई है. जब मैं आप से जुड़ा था तो हम मित्रों ने ‘मैं पंजाब बोल्दा हां’ नाम की संस्था बना कर आप को आर्थिक सहायता की थी. पार्टी की वेबसाइट पर जा कर और अपने दोस्तों के जरिए भारत में डॉलर भेजते रहे. दिल्ली चुनाव के समय हमने एक लाख डॉलर इकट्ठा कर भेजे थे. आप के दिल्ली वाले नेता भी यहां आते रहे हैं. मुझे तो सिर्फ यही महसूस हुआ कि इनका काम हम प्रवासियों से पैसे बटोरना ही था.”
ब्रिटिश कोलंबिया में रहने वाले आप के पूर्व समर्थक तरलोचन सिंह सोहल कहते हैं, “विदेशों में आप के प्रति प्रवासी पंजाबियों में पहले जैसा झुकाव नहीं है. इसके लिए पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी की नीतियां जिम्मेवार हैं. मैं आप के साथ शुरू से ही जुड़ गया था. हम दोस्तों ने मिलकर ‘आप सपोर्टर’ ग्रुप बनाया था. यह ग्रुप बना कर हमने 2014 के लोकसभा चुनाव, 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव और 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी फंड जुटाया था. दिल्ली विधान सभा चुनाव में हमने 108000 हजार डॉलर इकठ्ठा किए जिसमें से 8000 यहां हॉल वगैरह बुक करने में लगे बाकि पार्टी की वेबसाईट से ऑनलाइन भेजा था. इसी तरह 2017 में हमने पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए 45 हजार डालर आप के उम्मीदवार बलजिंदर कौर, सुखपाल खेहरा, एच.एस. फूलका, जरनैल सिंह (पत्रकार जिसने 2017 में प्रकाश सिंह बादल के खिलाफ लंबी क्षेत्र से चुनाव लड़ा था) और एक महलकलां क्षेत्र के उम्मीदवार के लिए यह राशि भेजी थी. बलजिंदर कौर के लिए 7 लाख रुपए हमने 2014 वाले विधान सभा उप-चुनाव में भी भेजे थे. हमारी शिकायत यह रहती थी हम जब पार्टी वेबसाइट के जरिए अपने उम्मीदवारों को फंड भेजते थे तो सबसे पहले यह फंड दिल्ली हाईकमान के पास पहुंचता था लेकिन फंड सही समय पर उम्मीदवारों के पास नहीं पहुंचता था. कई बार तो हमने दबाव डाल कर ये फंड रिलीज करवाए. ऐसा भी होता था कि उम्मीदवारों को जितना फंड हमने भेजा होता था उन्हें पूरा नहीं मिलता था. मुझे यह महसूस भी होने लगा कि फंडों का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा. इसके अलावा जब आप ने कश्मीर मसले पर गलत स्टैंड लिया और दिल्ली हिंसा के मामले में अपनी चुप्पी साधे रखी तो मुझे साफ हो गया कि आप बीजेपी की बी-टीम ही है.”
पंजाब में आम आदमी पार्टी कई राष्ट्रीय और पंजाब से जुड़े मुद्दों पर अपने स्टैंड को लेकर सवालों के घेरे में रही है. शाहीनबाग आंदोलन के हक में पंजाब में बड़ी जनसभाएं हुईं, राज्य से कई जत्थे शाहीनबाग की महिलाओं के साथ एकजुटता जाहिर करने के लिए दिल्ली पहुंचे. लेकिन केजरीवाल सरकार ने इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी. जब मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 द्वारा प्रदत अधिकार हटा दिए तो पंजाब ने इसका खुलकर विरोध किया. पंजाब में सरकार के इस फैसले के खिलाफ और कश्मीरियों के पक्ष में प्रदर्शन हुए. पंजाब की राजनीति के केंद्र में राज्यों को ज्यादा अधिकार दिए जाने का मुद्दा हमेशा से रहा है. जब केजरीवाल सरकार ने मोदी के इस फैसले की हिमायत की तो पंजाब में इसका विरोध हुआ. भगवंत मान को भी इस मुद्दे पर जनता और मीडिया के तीखे सवालों का सामना करना पड़ा. इसी तरह 2020 की दिल्ली हिंसा, उमर खालिद के खिलाफ कार्रवाई को परवानगी देने, अल्पसंख्यकों से जुड़े ऐसे कई मुद्दे हैं जिनको लेकर केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की स्थिति को लेकर पंजाब में सवाल उठते रहे हैं. पंजाब की राजनीति में हमेशा से प्रमुख रहे मुद्दों जैसे पानी का मुद्दा, चंडीगढ़ और पंजाबी भाषी इलाकों का मुद्दा आदि पर आप की स्थिति कभी भी स्पष्ट नहीं रही. केजरीवाल द्वारा पंजाब की पराली को दिल्ली के प्रदूषण का कारण बताए जाने की भी पंजाब में आलोचना होती रही है.
इन दिनों देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर की रिहाई के मामले को लेकर सिख संगठन दिल्ली की केजरीवाल सरकार को घेर रहे हैं. उनका आरोप है कि केजरीवाल सरकार ने भुल्लर की रिहाई के मामले पर फैसला नहीं लिया. याद रहे कि केंद्र सरकार ने 2019 में देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर को रिहा करने का नोटिफिकेशन जारी किया था. प्रोटोकॉल के मुताबिक सजा के बारे फैसला दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर को सजा समीक्षा बोर्ड की सिफारिश पर लेना था. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक हर राज्य में जेल मंत्री की अगुवाई में ऐसे बोर्ड हैं. दिल्ली में जेल मंत्री सतेंद्र जैन इस बोर्ड के चेयरमैन हैं. 11 दिसंबर 2020 को जब देवेंद्र पाल भुल्लर की रिहाई के बारे बोर्ड की बैठक हुई तो यह मामला रद्द कर दिया गया. अरविंद केजरीवाल ने पहले तो इस मुद्दे पर चुप्पी बनाए रखी और जब मामला गर्म हो गया तो कहा कि विरोधी पार्टियां इस पर गंदी राजनीति कर रही हैं.
मौजूदा विधानसभा चुनाव में भी आप का चुनाव प्रचार जोर-शोर से चल रहा है. मालवा में आप का आधार मजबूत दिख रहा है. दोआबा और माझा क्षेत्र में आप अपनी स्थिती मजबूत करने पर जोर लगा रही है लेकिन पार्टी इस बार भी नैतिकता और पारदर्शिता के मामले में सवालों के घेरे में है. इस बार भी पैसे लेकर टिकट बेचने के आरोप पार्टी पर लग रहे हैं. जालंधर में आप के पंजाब मामलों के सह-प्रभारी राघव चड्डा को इसी मुद्दे पर आप के कार्यकर्ताओं के गुस्से का सामना करना पड़ा. आप के फिरोजपुर (देहाती) से नेता आशू बंगड तो अपनी मिली हुई विधान सभा की टिकट वापस करके कांग्रेस में शामिल हो गए. उन्होंने आप पार्टी के प्रमुख नेताओं पर मोटी रकम लेकर विधान सभा टिकट बेचने का आरोप लगाया है. आशू बंगड आरोप लगाया है कि उनसे बार-बार यह कह कर मोटी रकम मांगी जाती रही कि “तेरी टिकट पक्की कर देंगे”. वह पहले भी कुछ रकम दे चुके थे. उन्होंने आप के नेता प्रतिपक्ष हरपाल चीमा, मोगा से आप उम्मीदवार के पति पर यह सब करने के आरोप लगाए हैं.
11 फरवरी को पंजाब के कैबिनेट मंत्री और कांग्रेस नेता परगट सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मिस्टर पुंज नाम के व्यक्ति को पेश किया जिसने दावा किया कि अरविंद केजरीवाल की एक करीबी रिश्तेदार ने उससे पैसे लेकर विधानसभा का टिकट देने का वायदा किया था. उसके पास रकम की भुगतान के सबूत हैं. मिस्टर पुंज ने बताया कि उसके एक जानकर ने उसे दिल्ली में उस महिला के साथ मिलाया था.
आम आदमी पार्टी में इस बार जहां हलका भदोड़ से उम्मीदवार लाभ सिंह उगोके और संगरूर से उम्मीदवार नरेंद्र कौर भराज साधारण परिवारों से होने के कारण चर्चा में हैं, वहीं कई पार्टियां बदल चुके अमीर कारोबारी कुलवंत सिंह को भी टिकट दी गई है. इसी तरह जालंधर में आपराधिक रिकॉर्ड वाले व्यक्ति को टिकट देने का मामला भी चर्चा का विषय बना हुआ है. आप ने इन चुनावों में 40 से अधिक ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दी हैं जो दल बदल कर आए हैं. इन चुनावों में राघव चड्ढा की मनमर्जियां भी चर्चा का विषय बनी हुई हैं. पार्टी के वॉलंटियर ही सवाल उठा रहे हैं कि पंजाब का मुख्य प्रभारी तो जरनैल सिंह हैं लेकिन राघव चड्ढा का इतना दखल क्यों है? आम आदमी पार्टी ने जिस ढंग से मुख्यमंत्री के चेहरे का ऐलान किया है उस पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. पहला तो जिस फोन नंबर पर मुख्यमंत्री के चेहरे के लिए लाखों लोगों के फोन आने का दावा किया गया है उसकी सच्चाई पर सवाल खड़े हो रहे हैं. दूसरा सवाल यह उठता है कि पार्टी यही तरीका टिकट देते वक्त क्यों नहीं अपना सकती. किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने भी आप के नेताओं पर पैसे लेकर टिकट बेचने का संगीन आरोप लगाया है.
आप ने जिस तरह पिछले विधानसभा चुनाव में सिख पत्ता खेला था इस बार वह हिंदू वोटरों को रिझाने के लिए शहरों में ‘तिरंगा यात्रा’ आयोजित कर रही है. यह तिरंगा यात्रा पठानकोट, गुरदासपुर व जालंधर जैसे हिंदू आबादी वाले इलाकों में आयोजित की गई हैं. इसके साथ ही केजरीवाल और राघव चड्ढा राष्ट्रीय सुरक्षा, पाकिस्तान के खतरे पर बिल्कुल बीजेपी की भाषा बोल रहे हैं. हाल में केजरीवाल ने यहां तक कह दिया कि “पंजाब में हिंदू सुरक्षा को लेकर चिंतित है.” इससे पहले जब नवजोत सिंह सिद्धू ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को अपना बड़ा भाई कहा था तो चड्ढा ने यह कह कर विरोध किया कि सिद्धू दुश्मन देश के प्रधानमंत्री को भाई कैसे कह रहे हैं. चड्ढा की इस टिप्पणी का पंजाब में कड़ा विरोध हुआ. सोशल मीडिया पर यह आवाज उठी कि चड्ढा पंजाबियत को नहीं समझते, जबकि पंजाब में दोनों देशों की खैर मांगने वालों की तादात काफी ज्यादा है. जब फिरोजपुर में मोदी की रैली वाला मुद्दा उठा तो आप की पोजीशन बिलकुल केंद्र सरकार वाली थी. जालंधर में केजरीवाल ने मीडिया को संबोधित करते हुए धर्मांतरण विरोधी कानून की हिमायत की है. यह बात भी याद रखने वाली है कि इन चुनावों में जब आप के मुख्यमंत्री चेहरे की बात उठी थी तो केजरीवाल ने ही कहा था कि आप का मुख्यमंत्री का चेहरा सिख होगा. उनके इस बयान को सांप्रदायिक तौर पर देखा गया.
धर्मवीर गांधी कहते हैं, “केजरीवाल और उनकी पार्टी की छवि एक धोखेबाज वाली बनी है. इसने पंजाब के लोगों को गुमराह किया है. पंजाब में तिरंगा यात्रा, ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारों से अंदाजा लग जाता है कि यह पंजाब में किस तरह की सियासत लागू करना चाहते हैं. यह पंजाबी विरासत नहीं है. हमारी विरासत भाईचारे की है. तिरंगा यात्रा भी राज्य के हिंदू आबादी वाले बड़े शहरों में निकाली गई है. यह जानबूझकर पंजाबी समाज का ध्रुवीकरण करने की कोशिश की जा रही है. पहली बार है कि किसी सियासी पार्टी ने यह काम किया है. राघव चड्ढा जैसे व्यक्ति कभी सुनील जाखड़ को हिंदू होने के कारण कांग्रेस के मुख्यमंत्री न बनाए जाने जैसा सांप्रदायिक मुद्दा उठाते हैं, तो कभी पाकिस्तान का अंधा विरोध करके बीजेपी की भाषा बोलते हैं. आप और केजरीवाल ने कभी भी पंजाब के मुद्दों पर ईमानदारी से स्टैंड नहीं लिया. अगर किसान आंदोलन की ही बात की जाए तो केजरीवाल ने कभी दिल्ली में आंदोलन के पक्ष में आवाज नहीं उठाई. केजरीवाल तो अपनी मोहल्ला सभाओं के जरिए दिल्ली में किसानों के हक में विशाल जनसमूह इकठ्ठा कर सकते थे. उलटे केजरीवाल सरकार ने केंद्र सरकार द्वारा पास किए गए तीनों कृषि कानूनों में से एक कानून को 20 नवंबर 2020 को नोटिफाई भी कर दिया था. जब आंदोलन तेज हो गया तो फिर बिल फाड़ना ड्रामा ही हुआ. मुझे इस वक्त आप और बीजेपी में कोई फर्क नहीं लगता.”
पंजाब के सामाजिक चिंतक और प्रोफेसर बावा सिंह का मानना है, “इस बार अगर आप पंजाब में सफलता हासिल करती है तो उसका एक श्रेय किसान आंदोलन को भी जाएगा क्योंकि किसान आंदोलन के दौरान हजारों भाषण में यही दोहराया गया कि पारंपरिक पार्टियों से पीछा छुड़ाओ. बड़े किसान संगठन चुनाव में नहीं हैं. आप ने यही प्रचार भी किया है कि हम नए हैं एक मौका हमें भी दो.”
वहीं, पंजाब के प्रसिद्ध विद्वान और आम आदमी पार्टी को नजदीक से देख रहे प्रोफेसर हरजेश्वर पाल सिंह का कहना है कि “पंजाब में आप एक अलग किस्म की पार्टी है जिसकी न कोई पक्की विचारधारा है और न ही पार्टी ढांचा. इसका एक ही उद्देश्य है सत्ता प्राप्ति. यह सत्ता प्राप्ति के लिए बारह महीने तीस दिन काम करती है. सोशल मीडिया का खूब इस्तेमाल करती है. यह लोगों के रोजमर्रा के मसले उठाती है लेकिन बड़े वैचारिक मसलों और कौमियत के मुद्दों पर मौकापरस्त है. इन्होंने लोगों में अपना दिल्ली मॉडल का खूब प्रचार किया है. कुल मिलाकर पार्टी का चरित्र सेंटर-राइटिस्ट है. अगर आप पंजाब में कामयाब हो भी जाती है तो पार्टी के लिए पंजाब बड़ा टेढ़ा राज्य साबित होगा. एक तो पंजाब के आर्थिक हालत दिल्ली से अलग हैं. दूसरा पंजाब में आप के नेता नौसिखिए हैं.”
भूल-सुधार : इस लेख के प्रकाशन के बाद एक अंश को जोड़ा गया है. जोड़ा गया अंश है : “इसी तरह 2017 में हमने पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए 45 हजार डालर आप के उम्मीदवार बलजिंदर कौर, सुखपाल खेहरा, एच.एस. फूलका, जरनैल सिंह (पत्रकार जिसने 2017 में प्रकाश सिंह बादल के खिलाफ लंबी क्षेत्र से चुनाव लड़ा था) और एक महलकलां क्षेत्र के उम्मीदवार के लिए यह राशि भेजी थी. बलजिंदर कौर के लिए 7 लाख रुपए हमने 2014 वाले विधान सभा उप-चुनाव में भी भेजे थे. हमारी शिकायत यह रहती थी हम जब पार्टी वेबसाइट के जरिए अपने उम्मीदवारों को फंड भेजते थे तो सबसे पहले यह फंड दिल्ली हाईकमान के पास पहुंचता था लेकिन फंड सही समय पर उम्मीदवारों के पास नहीं पहुंचता था. कई बार तो हमने दबाव डाल कर ये फंड रिलीज करवाए. ऐसा भी होता था कि उम्मीदवारों को जितना फंड हमने भेजा होता था उन्हें पूरा नहीं मिलता था. मुझे यह महसूस भी होने लगा कि फंडों का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा. इसके अलावा जब आप ने कश्मीर मसले पर गलत स्टैंड लिया और दिल्ली हिंसा के मामले में अपनी चुप्पी साधे रखी तो मुझे साफ हो गया कि आप बीजेपी की बी-टीम ही है.”
कारवां को गलती का खेद है.