ग्रामीण छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के एक पादरी के अनुसार, 20 मई को कोक्कर पाल गांव में दो ईसाई आदिवासी परिवारों के घर पर भीड़ ने हमला किया. भारत में ईसाइयों के खिलाफ हिंसा की निगरानी करने वाले संगठन पर्सेप्शन रिलीफ के समन्वयक रवि कुमार ने इसकी पुष्टि की. पादरी ने मुझे बताया, "रात 11 बजे के आसपास मारपीट शुरू हुई. वे रात के अंधेरे में जंगल में छिप गए. औरतें रास्ता भूल गईं और अपने पति से अलग हो गईं. उन्हें बुरी तरह से पीटा गया और तीन किलोमीटर तक घिसटते रहने के बाद वे हम तक पहुंच सके. रवि ने मुझसे कहा कि परिवार अपने गांव नहीं लौट सकता. “वे एक अस्पताल में थे और अब किसी और के घर में रह रहे हैं. हमने उनसे कहा कि वे अपने गांव ना लौटें क्योंकि वे वहां सुरक्षित नहीं हैं. जिन परिवारों पर हमला किया गया उनकी ओर से पादरी द्वारा दायर एफआईआर कारवां के पास है.
पादरी ने बताया कि कोइतुर और मौरिया समुदायों के दो परिवार, क्रमशः अपने हमलावरों को पहचान नहीं पा रहे थे. “उनके घर से कपड़े बाहर फेंके गए. और अगर उन्होंने धर्म नहीं छोड़ा तो उनसे चले जाने को कहा गया,'' पादरी ने कहा.
पादरी के अनुसार, भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद के स्थानीय सदस्यों ने जिले में ईसाइयों, विशेष रूप से आदिवासी ईसाइयों को जबरदस्ती हिंदू धर्म में परिवर्तित करने के लिए एक सुसंगत अभियान चलाया था. उन्होंने कहा, "नवंबर 2019 से वे हमलों का सामना कर रहे हैं," वे उन आदिवासी परिवारों का जिक्र कर रहे थे जिन पर मई में हमला किया गया था. पादरी ने मुझे बताया कि 2019 के अंत में, पहला हमला होने के बाद परिवारों ने प्राथमिकी दर्ज नहीं कराने का फैसला किया था क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि हिंसा बंद हो जाएगी. लेकिन उन्हें जनवरी 2020 में दूसरे हमले का सामना करना पड़ा. पादरी ने 2020 में चुने गए गांव के सरपंच पर आरोप लगाया कि उन्होंने परिवार पर हमला करने वाले गांव के स्थानीय लोगों की निगरानी की. उन्होंने कहा कि सरपंच बीजेपी से जुड़े हैं. "पंचायत चुनावों के बाद ट्रैक्टर में सवार होकर एक भीड़ चर्च को गिराने के लिए यह कहते हुए आई कि आदिवासी लोग आपके चर्च जाते हैं," उन्होंने कहा. “यह रविवार की प्रार्थना के दौरान हुआ था. स्थानीय हिंदुओं ने तीन साल से लगातार मेरे साथ दुर्व्यवहार और उत्पीड़न किया है.” 20 मई को दोनों परिवारों के घरों पर फिर से हमला किया गया.
कोक्कर पाल का हमला उसी पैटर्न को दिखाता है जिसे विदेशी और भारतीय मानवाधिकार समूहों द्वारा कई रिपोर्टों में नोट किया गया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में भारत में ईसाई विरोधी हमलों की संख्या में इजाफा हुआ है और यहां तक कि नोवेल कोरोनावाइरस के चलते हुई देशव्यापी तालाबंदी के दौरान भी हमले हुए हैं. पिछले दो वर्षों में उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बड़ी संख्या में ऐसे हमले हुए हैं. इन राज्यों में धार्मिक रूप से भेदभावपूर्ण धर्म परिवर्तन विरोधी कानून का मसौदा तैयार किया गया है. ये कानून दलितों और आदिवासियों जैसे वंचित समूहों को ईसाई धर्म में परिवर्तित होने को बहुत कठिन बना रहे हैं जबकि ठीक तभी घर वापसी या हिंदू धर्म में रूपांतरण की अनुमति दे रहे होते हैं. ये परिवर्तन अक्सर हिंसक होते हैं. छत्तीसगढ़ में ईसाइयों के खिलाफ हमलों के कई मामलों में पुलिस और प्रशासन ने अपराधियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है. ईसाइयों को पुलिस से कोई समर्थन नहीं मिलने के कारण स्थानीय लोग, जो उनके विरोधी हैं, उन्होंने समुदाय के सदस्यों के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार किया और उनके घरों और चर्चों को ध्वस्त कर दिया.
अप्रैल 2020 में एक स्वतंत्र संघीय सरकार आयोग, संयुक्त राज्य अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग, ने मोदी सरकार के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन की बढ़ती संख्या की निगरानी के बाद भारत पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की. यूएससीआईआरएफ पैनल ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है कि भारत को ''व्यवस्थित रूप से चल रही और धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन में संलग्न और उसे सहन करने के लिए'' खास ध्यान देने योग्य (पार्टिकुलर कंसर्न) देश के रूप में नामित किया जाना चाहिए. पार्टिकुलर कंसर्न या सीपीसी के देश वे हैं, जहां संबंधित सरकारें "वैश्विक स्तर पर धार्मिक स्वतंत्रता के सबसे खराब उल्लंघन करती या सहती हैं." संयुक्त राज्य की वर्तमान सीपीसी सूची में बर्मा, चीन, ईरान और उत्तर कोरिया शामिल हैं. रिपोर्ट भारत में ईसाइयों के खिलाफ हमलों की बढ़ती संख्या पर विशेष ध्यान देती है. रिपोर्ट में कहा गया है, "अक्सर जबरन धर्म परिवर्तन के आरोपों के तहत कम से कम 328 हिंसक घटनाओं के साथ, ईसाइयों के खिलाफ हिंसा में भी इजाफा हुआ है." इसमें आगे उल्लेख किया कि ऐसे उल्लंघन के लिए जिम्मेदार सरकारी अधिकारियों और एजेंसियों को संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रवेश करने से रोक दिया जाना चाहिए.
29 अप्रैल को भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि यूएससीआईआरएफ की रिपोर्ट "पक्षपातपूर्ण" और "नए दर्जे की गलत बयानी" है. श्रीवास्तव ने हालांकि, यूएससीआईआरएफ की रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़ों के बारे में कुछ नहीं कहा. एजेंसी पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, "हम इसे एक पार्टिकुलर कंसर्न संगठन के रूप में मानते हैं और इसी के मुताबिक उसके साथ बर्ताव करेंगे."
पर्सेप्शन रिलीफ के संस्थापक शिबू थॉमस ने मुझे बताया कि उत्तर प्रदेश में 2017 से 2019 के बीच ईसाइयों के उत्पीड़न के सबसे अधिक उदाहरण देखे गए हैं. "मुझे लगता है कि प्रशासन और धार्मिक कट्टरपंथी गलबहिया कर रहे हैं. पुलिस ईसाइयों की रक्षा करने के बजाय कट्टरपंथियों का साथ दे रही है क्योंकि उत्तर प्रदेश में ईसाइयों का प्रतिशत बहुत कम है,” उन्होंने कहा. उन्होंने कहा कि सौ से अधिक चर्चों को मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के प्रशासन के तहत जबरदस्ती बंद कर दिया गया है. थॉमस के अनुसार, धार्मिक असहिष्णुता के लिए शीर्ष दस राज्यों में यूएससीआईआरएफ द्वारा भारत को शामिल किया जाना भी वित्तीय प्रतिबंधों के संभावित परिणाम को देखते हुए चिंता का विषय है.
पर्सेप्शन रिलीफ की इस वर्ष के लिए जारी पहली तिमाही रिपोर्ट में ईसाइयों के खिलाफ उत्पीड़न, धमकी और हिंसा की 187 घटनाओं को दर्ज किया गया है. 1 जून को थॉमस के साथ मेरी बातचीत के दौरान, उन्होंने उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के जमालकुल गांव में एक पादरी का उल्लेख किया जिन पर एक ईसाई घर में प्रार्थना सत्र आयोजित करने के लिए चाकू से हमला किया गया और उन्हें आईसीयू में भर्ती करना पड़ा.
उत्तर प्रदेश सरकार, उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग की सलाह पर राज्य कानून आयोग द्वारा तैयार किए गए एक धर्मांतरण विरोधी विधेयक को लागू करने के कगार पर है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी दूसरे धर्म में परिवर्तित करने के इच्छुक व्यक्ति को सरकारी आधिकारी से अनुमति लेनी होगी जो धर्मांतरण के कारण की जांच करेगा. आयोग के प्रस्ताव में छत्तीसगढ़ के धर्मांतरण विरोधी कानून, छत्तीसगढ़ धर्म स्वातंत्र्य संहिता (1968 का स्वतंत्रता अधिनियम) और बीजेपी की अगुवाई में पिछली छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा पेश किए गए संशोधन का हवाला दिया गया है. छत्तीसगढ़ के संशोधन में यह प्रावधान है कि "पूर्वजों के मूल धर्म या किसी भी व्यक्ति द्वारा अपने मूल धर्म में वापसी को 'धर्मांतरण' के रूप में नहीं माना जाएगा." इसका मतलब यह होगा कि उत्तर प्रदेश का प्रस्तावित कानून घर वापसी यानी वीएचपी जैसे दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा आयोजित कार्यक्रम जिसमें ईसाई और मुस्लिमों को हिंदू धर्म में वापिस लाने को जबरन धर्मांतरण के रूप में नहीं देखा जाएगा.
छत्तीसगढ़ में इस संशोधन के पारित होने के कारण राज्य ने ईसाई समुदाय पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली. थॉमस ने मुझे बताया कि संशोधन से राज्य में समुदाय पर हमलों में वृद्धि हुई है. "छत्तीसगढ़ में गांवों में रहने वाले आदिवासी पीड़ित हैं," थॉमस ने आदिवासी ईसाइयों का जिक्र करते हुए मुझे बताया. "कांग्रेस की सरकार है, लेकिन वे उनकी आवाज नहीं उठा रहे हैं." 4 जून को जब मैंने कुमार से बात की तो उन्होंने बताया कि पिछले महीने ही छत्तीसगढ़ में इस तरह के तीन हमले हुए थे. “लोग अपने-अपने विश्वास के अनुसार प्रार्थना करते हैं. लेकिन ग्रामीण इस बात को नहीं समझते. वे कहते हैं कि अंग्रेज लोगों को यहां आकर अपने देवता की पूजा करने की इजाजत नहीं दी जाएगी. 2020 में मेरे सामने यहां घर वापसी के दो मामले आए और हिंसा के तो कई मामले आए. कुमार ने आरोप लगाया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस तरह के हमलों में अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेता है. उन्होंने मुझे बताया कि कई मामलों में पुलिस के पास शिकायत दर्ज करने के बावजूद, जिन ईसाइयों पर हमला किया गया था, और जिन्हें धमकी और हिंसा का शिकार होना पड़ा है, उन्हें ही छिपते फिरना पड़ा है.
18 जून को मैंने सुकमा जिले के बोदीगुडा गांव के एक आदिवासी ईसाई कुराम देशा से बात की. देशा ने बताया कि उन पर कई बार कट्टरपंथी हिंदू समूहों ने हमला किया है. देशा ने कहा, "मैं 2017 से ही आस्तिक हूं. मैं उससे पहले चर्च नहीं जा रहा था लेकिन मेरे चर्च जाने से पहले मेरी बहनें जा रही थीं." उन्होंने मुझे बताया कि उनकी बहनें और उनके चाचा के बच्चे उनके जाने से पहले चर्च जा रहे थे. 8 फरवरी 2017 को उनके परिवार पर हमला किया गया था. "ग्रामीणों ने चर्च जाने वालों और परिवार के अन्य सदस्यों को पीटा," उन्होंने कहा. “मैं उस समय ईसाई धर्म में विश्वास करने वाला भी नहीं था. पिटाई के बाद हमें एहसास हुआ कि हमें मसीह के नाम पर बिना किसी कारण पीटा गया था." देशा ने मुझे बताया कि अगले साल ग्रामीणों ने परिवार के खिलाफ धमकी जारी करने के लिए कई बैठकें कीं. "फिर 2017 में इस तरह के झगड़े अधिक हुए. उन्होंने हमारे घर को बर्बाद कर दिया. हमने थाने में सूचना दी. पुलिस ने ग्रामीणों को दुबारा ऐसा न करने की सलाह दी. उन्होंने अगले साल हमारे लिए कुछ नहीं किया.” जब मैंने देशा से पूछा कि उनके परिवार पर हमला किसने किया, तो उन्होंने कहा, "जो लोग आरएसएस से जुड़े थे."
देशा ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान आरएसएस के सहयोगियों ने उनके परिवार पर फिर से हमला किया. "मई में उन्होंने हमारे घर को बर्बाद कर दिया और हमारा सारा सामान बाहर फेंक दिया. हमें पीटा और हमारे सामान को आग लगाने की धमकी दी.” परिवार अगले दो सप्ताह तक इसी टूटे-फूटे घर में रहा क्योंकि उनके पास जाने के लिए कहीं और जगह नहीं थी. “15 दिनों तक हम इसी स्थिति में रहे. पानी टपक रहा था और हमारा सामान बर्बाद हो गया था. तब हम दोरनापाल पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज कराना चाहते थे.'' बोडीगुडा गांव इसी क्षेत्र में आता है. ''लेकिन पुलिस इसे दर्ज करने को तैयार नहीं थी. उन्होंने कुछ नहीं किया. उनके अनुसार, पुलिस ने उनके परिवार पर हमला करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है. गांव के कई लोग अभी भी उनका विरोध करते हैं और उनके परिवार को समुदाय से निकाल दिया गया है. देश ने कहा कि कठिनाइयों के बावजूद ईसाई धर्म में परिवर्तित होना एक अच्छा निर्णय था. “हम पहले भी दासता का जीवन जी रहे थे. अभी हम स्वतंत्र हैं. हम चर्च जाते हैं. चर्च के अधिकारी हमारे साथ खड़े हैं.”
दोरनापाल पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर सुरेश जांगड़े ने मुझे बताया कि मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है. "पीड़ितों ने लिखित में कहा कि वे मामले को आगे नहीं ले जाना चाहते और अगर ऐसा हमला फिर से होता है तो वे आगे आएंगे." उन्होंने कहा कि मामले के जांच अधिकारी को अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया गया है. देशा ने बताया कि स्थानीय लोगों ने इस समझौते को केवल इसलिए स्वीकार किया था क्योंकि पुलिस और ग्रामीणों दोनों ने इस पर सहमत होने के लिए दबाव दिया था. "हां, हमने उनके साथ समझौता किया," देशा ने कहा. "एसडीओपी" -त्रिपिक चतुर्वेदी, दोरनापाल पुलिस स्टेशन के उप-विभागीय अधिकारी- सर ने कहा कि ग्रामीणों ने उन्हें आश्वासन दिया है कि वे फिर से ऐसा नहीं करेंगे. ग्रामीण इस बात पर सहमत हुए कि वे इसे नहीं दोहराएंगे. इसलिए पुलिस ने हमें उन्हें माफ करने के लिए कहा. इसलिए हमने उन्हें माफ कर दिया और हमने एक समझौता किया." यह पूछे जाने पर कि क्या उन्होंने हमले की जांच को प्राथमिकता दी है, उन्होंने कहा, “हां, लेकिन ग्रामीणों और पुलिस ने कहा कि वे इसे दोबारा नहीं करेंगे, इसलिए हम सहमत हुए.”
आदिवासी ईसाइयों पर निरंतर हिंसा और उत्पीड़न की घटनाएं छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले की घटनाओं के समान है. जिले के कमेली गांव के एक आदिवासी ईसाई ने मुझसे कहा, “ये चीजें होती रहती हैं. हम हर साल मार झेलते हैं.” हिंदू समूहों द्वारा समर्थित स्थानीय लोगों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, “वे हमें परेशान करते हैं और हमें यहां से भाग जाने को कहते हैं. वे कहते हैं कि हमारी जगह यहां नहीं है. यहां केवल हिंदू ही रहेंगे.” उन्होंने बताया कि इस साल गांव के सभी 105 ईसाइयों को अपने घर खाली करने के लिए कहा गया था. उन्होंने कहा कि वह 25 साल से ईसाई हैं. "अगर सिर्फ कुछ साल की बात होती, तो मामला अलग होता," उन्होंने कहा. “लेकिन मुझे इस धर्म को अपनाए कई साल हो गए हैं. मैं उन्हें बताता हूं कि मैं अब इसकी निंदा नहीं कर सकता, चाहे कुछ भी हो जाए. हमने पुलिस में शिकायत दर्ज की थी लेकिन कुछ नहीं किया गया. हमने कम से कम तीन बार शिकायत की.”
दंतेवाड़ा जिले के एक पादरी विक्लिफ चिन्नम सागर ने मुझे बताया कि हिंदुत्व समूह पिछले पांच सालों से लगातार घर-वापसी कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं, जो तालाबंदी के दौरान आम हो गए हैं. सागर ने कहा, "मैंने जिन परिवारों से बात की है, उन्हें परेशान किया जा रहा है और कहा गया है कि अगर वे मसीह को मानना जारी रखते हैं तो उन्हें गांव छोड़ना पड़ेगा." उन्होंने मुझे बताया कि स्थानीय ईसाई निकायों के साथ, वह समुदाय की शिकायतों को उठाते हुए जिला कलेक्टर को लिखने की योजना बना रहे थे.
छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल ने मुझे बताया कि पूरे राज्य में घर वापिसी जैसी गतिविधियों की आवृत्ति में अचानक वृद्धि एक परिघटना है. उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में, शिवसेना की स्थानीय इकाई ने कई चमकीले पोस्टर लगा दिए हैं, जो जनता को "आक्रोश रैली" यानी ईसाई धर्म के खिलाफ धार्मिक रैली, के लिए आमंत्रित कर रहे हैं. पोस्टर में कहा गया है कि 22 जुलाई को शहर में एक बड़ा घर-वापसी समारोह होगा. पोस्टर पर दिए गए नारों में से एक है, "देश का हिंदू जागेगा, पोप पदरी भागेगा."
20 जून को छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम ने आयोजन के लिए शिवसेना की बीजापुर जिला इकाई के खिलाफ एक प्राथमिकी दर्ज की. आगामी कार्यक्रम से संबंधित सोशल-मीडिया पोस्ट, बैनर, पोस्टर और पर्चे का हवाला देते हुए, खामरडीह पुलिस स्टेशन से मंच की शिकायत में कहा गया है, “यह प्रचार सामग्री ईसाई समुदाय की स्वतंत्रता, भ्रातृत्व, जीवन और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का गला घोंटती है, जो गंभीर अपराध है.” बीजापुर के जिला कलेक्टर को संबोधित इसी तरह के एक पत्र में मंच ने लिखा कि "संविधान को छोड़कर कोई और भारत में निवास करने के लिए शर्तें निर्धारित नहीं कर सकता है."
शिवसेना की रैली के बारे में पूछे जाने पर खामारडीह की नगर निरीक्षक ममता अली शर्मा ने कहा, “हमने शिकायत को बीजापुर को भेज दिया है. एक बार विवरण वहां से आने के बाद हम जांच को आगे बढ़ाएंगे.” यह पूछे जाने पर कि क्या शिवसेना के राज्य सचिव रेशम जांगड़े और राज्य पार्टी उपाध्यक्ष चंद्रमौली मिश्रा के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी क्योंकि दोनों ने रैली की व्यवस्थित करने में मदद की थी, तो उन्होंने दोहराया कि वे बीजापुर पुलिस अधिकारियों से जानकारी मिलने की प्रतीक्षा कर रही हैं.
राज्य में ईसाई विरोधी बयानबाजी और हिंसा पर सरकार की प्रतिक्रिया अक्सर कमजोर रही है. सुकमा जिले के पादरी ने मुझे बताया कि उन्होंने सुकमा में जिसका घर नष्ट हुआ था उस परिवार की ओर से स्थानीय पुलिस स्टेशन में एक प्राथमिकी दर्ज की थी. जब मैंने उनसे ऐसी शिकायतों के बारे में पुलिस की प्रतिक्रिया के बारे में पूछा तो उन्होंने बहुत रूखा जवाब दिया, "वे दो-तीन दिनों के बाद गांव में जाकर गवाहों के बयान लेते हैं और उस क्षेत्र का सर्वेक्षण करते हैं जहां हिंसा हुई थी. कार्रवाई करने के बजाय वे हमें और अधिक डराते हैं. वे कहते हैं, ‘तीन ईसाई घर हैं. उन्हें भी मारो.'' सुकमा पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर गोवर्धन निर्मलकर ने कहा, ''आरोपियों को सुकमा अदालत में पेश किया गया है और गिरफ्तार किया गया है. '' उन्होंने कहा, “दस आरोपी हैं. यह हिंदुओं और ईसाइयों के बीच लड़ाई प्रतीत होती है. मैंने उन सभी को गिरफ्तार किया है जिनके नाम घटना के संबंध में अब तक सामने आए हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से इसकी जांच कर रहा हूं. ” उन्होंने हमले में किसी भी संगठनों के शामिल होने से इनकार किया.
इसी तरह की बात करते हुए, कुमार ने मुझसे कहा, "जब तक हम पुलिस पर दबाव नहीं बनाते, वे कोई काम नहीं करते. उन्होंने इसे किनारे कर दिया और यह तभी हुआ जब हम इसे उच्च न्यायालय में ले गए कि मामले की सुनवाई हो.” उन्होंने मुझे ऐसे एक मामले के बारे में बताया. सितंबर 2014 में छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम ने सिरीसुगुडा गांव में ग्राम सभा द्वारा पारित एक प्रस्ताव को चुनौती देते हुए याचिका दायर की थी जिसमें "सभी गैर-हिंदू धर्मों की प्रार्थना, बैठक और प्रचार जैसे धार्मिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया गया था." 2014 के मई और जून में बस्तर में 50 से अधिक अन्य ग्राम पंचायतों ने राज्य के पंचायती राज अधिनियम के तहत समान प्रस्तावों को पारित किया था जिसमें “सभी गैर-हिंदू धार्मिक प्रचार, प्रार्थना और गांवों में भाषणों” को प्रतिबंधित कर दिया गया. अक्टूबर 2015 में बिलासपुर उच्च न्यायालय ने छत्तीसगढ़ ईसाई मंच के पक्ष में फैसला सुनाया. उच्च न्यायालय ने प्रस्ताव को असंवैधानिक करार दिया था लेकिन सिरीसिगुडा ग्राम परिषद और आदिवासी बैल्ट की अन्य परिषदों ने संविधान को धता बताना जारी रखे हुए हैं.
छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम के अध्यक्ष पन्नालाल ने मुझे बताया कि दक्षिणी छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासी समाज में आरएसएस की काफी घुसपैठ हुई है. उन्होंने कहा कि उत्तरी और मध्य छत्तीसगढ़ में ईसाइयों के खिलाफ हमलों की संख्या कुछ हाई-प्रोफाइल अदालती मामलों के कारण कम हो गई है. "आरएसएस की इकाइयां बस्तर में बहुत सक्रिय हैं," उन्होंने कहा. "जो हमले होते हैं, वे कुछ निहित स्वार्थों के कारण होते हैं." उन्होंने मुझे बताया कि पहले बजरंग दल-आरएसएस से जुड़ा एक उग्रवादी संगठन सीधे चर्चों पर हमला करता था. अब वे अपने से जुड़े आदिवासियों से अपने ही समुदाय के उन लोगों पर हमला कराते हैं जो ईसाई हो गए हैं. “वे आदिवासियों को अन्य आदिवासियों के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं. अब वे खुद आगे नहीं आ रहे हैं. यह एक उकसाने वाली लड़ाई है.”