आमतौर पर हिंदू राष्ट्र का नक्शा पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को ऊपर से नीचे तक केसरिया रंग में सराबोर दिखाता है. कुछ लोगों को इस रंग में एकता की उदात्त दृष्टि दिखाई देती है लेकिन मैं उस कीमत के बारे में सोचती हूं जो इस एकरूपता को हासिल करने के लिए इमारतों, संस्कृतियों और लोगों के हिंसक और दर्दनाक खात्मे से चुकानी पड़ेगी. 6 दिसंबर 1992 को हिंदुओं की भीड़ ने सोलहवीं सदी की ऐतिहासिक और दुर्लभ मस्जिद की ईंट दर ईंट उखाड़ कर शुद्धीकरण कर दिया. जिस काम को उस भीड़ ने कानून को ताक पर रख कर किया था उसे इस साल भारत की सर्वोच्च अदालत ने कानूनी मोहर लगा दी.
9 नवंबर को पांच जजों की पीठ ने फैसला सुनाया कि क्योंकि कुछ आधुनिक हिंदू मानते हैं कि एकदम उसी जगह भगवान राम पैदा हुए थे, इसलिए बाबर कालीन मस्जिद के ध्वंसावशेष पर आधुनिक हिंदू मंदिर बनाया जाए. शीर्ष अदालत का ताजा फैसला आधुनिक विश्वास पर आधारित है और इसका उन्नीसवीं सदी से पहले के इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है. फैसले का ज्यादातर हिस्सा उपनिवेशवाद से पहले के अतीत के बारे में गलत बयानी करता है. हिंदुत्व विचारधारा के साथ कदमताल करते हुए, अदालत ने ऐतिहासिक हकीकत और सभी धर्मावलंबियों के साथ समान व्यवहार के दिखावे तक को त्याग दिया.
फैसले की शुरुआत दो बिल्कुल अलग-अलग विचारों की तुलना से होती है. फैसले की शुरुआत में कहा गया है : "हिंदू समुदाय इस (विवादित अयोध्या संपत्ति) पर भगवान विष्णु के अवतार भगवान राम का जन्मस्थान होने का दावा करता है. मुस्लिम समुदाय इस पर पहले मुगल सम्राट बाबर द्वारा निर्मित ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद होने दावा करता है.” अदालत ने इन दो दृष्टिकोणों को तुलना की जो ऐतिहासिक हकीकत से बिल्कुल अलग है.
सभी इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि सोलहवीं शताब्दी की शुरुआत से ही बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाने वाली एक मस्जिद 1992 तक विवादित स्थल पर कायम थी. कांसप्रेसी थ्योरी को मानने वालों को छोड़कर सभी जीवित लोग इस बात से सहमत हैं कि 1990 के दशक की शुरुआत तक अयोध्या के उस स्थान पर एक प्रमुख मस्जिद मौजूद थी. यह किसी मुकदमे में किसी वादी का "दावा" भर नहीं है, यह इतिहास में अच्छी तरह से दर्ज एक तथ्य है.
इसके उलट, राम का जन्मस्थान आस्था का विषय है जिसे केवल कुछ हिंदू मानते हैं. जहां तक हम जानते हैं, पूरे ऐतिहासिक दौर में ज्यादातर हिंदू, राम के जन्मस्थान को लेकर बहुत संजीदा नहीं थे. प्राचीन ग्रंथों में इस मुद्दे पर गैर-संजीदगी इसी बेरुखी की ओर इशारा करती है. उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जब ब्रिटिश उपनिवेशवादी ‘बांटो और राज करो’ की अपनी रणनीति के तहत सक्रिय रूप से हिंदू-मुस्लिम झगड़े का बीज बो रहे थे तब जाकर बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम पहली बार पैदा हुए. मोटे तौर पर, आज धरती पर जीवित ज्यादातर लोग - जिनमें हिंदू भी शामिल हैं - राम के जीवन के बारे में सोचते तक नहीं हैं और वे राम के जन्म को इतिहास में घटी कोई वास्तविक घटना भी नहीं मानते हैं. इस पर मैं आगे बात करूंगी.
फैसले के आरंभ की गलत तुलना, मुसलमानों से अधिक हिंदुओं के प्रति सम्मान प्रकट करती है. यह अनुचित रूप से एक दर्ज ऐतिहासिक तथ्य को, जिसे सभी पक्ष स्वीकार करते हैं, उस आस्था के साबित न किए जा सकने वाले तथ्यों के सामने ला खड़ी करती है, जिस पर एक समुदाय के कुछ ही लोगों को यकीन है. मतलब यह कि हिंदू विश्वास का तर्क मुस्लिम के खिलाफ दिया जा सकता है.
पूरे फैसले में न्यायाधीश, मुसलमानों की तुलना में हिंदुओं के लिए कहीं अधिक सहानुभूति दिखाते दिखाई दिए. मसलन, अदालत ने दोनों समुदायों के लिए सबूत के अलग-अलग मानकों का इस्तेमाल किया. अदालत ने मुस्लिम पक्षकारों की इसलिए आलोचना की कि वे “मस्जिद में इस अवधि में (1528-1856/7) नमाज अता करने के साक्ष्य उपलब्ध कराने में असफल रहे.” लेकिन 900 से अधिक पेजों के फैसले में अदालत ने दोनों हिंदू प्रतिवादियों से राम के जन्म की ऐतिहासिक घटना का प्रमाण देने को नहीं कहा.
फैसले में बार-बार हिंदुओं बनाम मुसलमानों की चर्चा की गई है. इसमें 299 बार “हिंदुओं” शब्द का उल्लेख हुआ लेकिन “मुस्लिमों” का केवल 174 बार. इसने कभी भी व्यापक श्रेणियों का उपयोग करते हुए किसी भी समूह को सामयिक रूप से परिभाषित नहीं किया है जिस पर सदमे से किसी भी विद्वान का मुंह खुला का खुला रह जाएगा. एक स्थिर, समरूप समूह के रूप में "हिंदू" की धारणा से उस प्राच्यवादी पूर्वाग्रह की सड़ांध आती है कि भारतीय और भारत का अस्तित्व ऐतिहासिक परिवर्तन से बाहर है. कालातीतता की इस कपोल कथा ने अदालत के लिए, आस्था के एक अपेक्षाकृत हालिया सबूत - राम के सटीक जन्मस्थान - को कार्रवाई के लिए कानूनी आधार मानकर फैसला सुनाने का साहस दिया.
कभी-कभी अदालत की राय में मुसलमानों को दी जाने वाली विरल सहानुभूति सबसे मजबूत रूप में अर्थपूर्ण चुप्पी में सामने आती है. उदाहरण के लिए, 2003 में बाबरी मस्जिद स्थल पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का कार्य लें, जो पहले के भवन या भवनों के बारे में संभवत: जानकारी प्रदान करने वाला था. फैसला कहता है : “पुरातत्वविदों को निर्देश दिया गया था कि वे भगवान राम की मूर्ति स्थापित की गई जगह और उस मूर्ति के चारों ओर 10 फीट की दूरी तक खुदाई का काम न करें. एएसआई से कहा गया कि वह इस स्थल पर पूजा को न रोके.” इसे पढ़ने के बाद, मैंने सहजता से सोचा कि क्या मुस्लिम भावनाओं, मस्जिद में नमाज पढ़ सकने, पर भी इसी तरह ध्यान दिया गया था. लेकिन फिर मुझे याद आया कि हिंदू भीड़ ने 2003 आते-आते सुनिश्चित कर लिया था कि मस्जिद का नामोनिशान बाकी न बचे.
अयोध्या का फैसला ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ खिलवाड़ करने का घटिया काम करता है. यह फैसला इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की हिंदुत्व की रणनीति की गूंज के समान है. नजीर देखिए, फैसले में 1991 के इतिहासकारों की रिपोर्ट, "रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद, ए हिस्ट्रीशीटर्स टू द नेशन", जिसे आरएस शर्मा, एम अतहर अली, डीएन झा और सूरजभान ने तैयार किया था और 2003 के एएसआई की रिपोर्ट दोनों पर चर्चा की गई है. हालांकि, यह निष्कर्ष निकाला गया है कि "इतिहासकारों की रिपोर्ट को, जो एएसआई की रिपोर्ट से पहले की है, बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता क्योंकि उन्हें एएसआई रिपोर्ट से निकली सामग्री के विश्लेषण का लाभ नहीं मिला है." ऐतिहासिक पद्धति के रूप में यह मूल्यांकन गलत है. इतिहास संचयन, सभी प्रासंगिक साक्ष्यों और कभी-कभी बढ़ती हुई बारीकियों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने वाला अनुशासन है. नई व्याख्याओं को पुरानी दलीलों के मुकाबले तोला जाना चाहिए बजाय अनुमानों के आधार पर पुरानी व्याख्याओं को बदलने के.
पुरातत्वविद जया मेनन और सुप्रिया वर्मा ने मुस्लिम पक्षकारों में से एक सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से एएसआई की 2003 की खुदाई का निरीक्षण किया था. उन्होंने इसमें अनियमितताओं, पुराने तरीकों और रिपोर्ट के बुरे निष्कर्षों पर कई आपत्तियां जताईं. एक पेशी में उन्होंने बताया कि "एएसआई ने अपनी परिकल्पना के अनुरूप सबूतों में हेरफेर की है जो पेशेवर ईमानदारी के खिलाफ है." कुल मिलाकर, मेनन और वर्मा ने "उत्खनन प्रक्रियाओं में देखी गईं कई समस्याओं" के बारे में, तीन महीने से भी कम समय में ऐसी 14 शिकायतें दर्ज कीं जिसकी वे खुद गवाह थीं. इन्हें उन लोगों ने निजी तौर पर तीन महीनों से भी कम में खोजा था. 2010 के एक लेख में इन दोनों ने लिखा था, “अकादमिक लिहाज से देखें तो एएसआई के पुरातत्वविदों ने जो काम किया है वह भारत और विदेशों में सामाजिक विज्ञान के लिहाज से बहुत ही निम्न दर्जे का है. पुरातत्व विषय में अनुसंधान या अकादमिक हिस्से से इसका बहुत कम लेना—देना है.” उनके तर्क मजबूत हैं और बताते हैं कि रिपोर्ट को केवल इसकी हालिया तारीख के कारण सबसे अच्छी व्याख्या होने के बजाय बहुत हद तक अविश्वसनीय माना जाना चाहिए.
लेकिन हिंदुत्व के विचारक अलग तरीके से सोचते हैं. वे आमतौर पर सभी पूर्व अकादमिक कार्यों को खारिज करते हुए अपनी पूर्वधारणा के अनुकूल होने वाले नए साक्ष्यों को उनके स्रोतों की परवाह किए बिना पेश करते हैं. यह कुतर्क करने की अच्छी रणनीति तो है लेकिन बौद्धिक हुनर नहीं है.
फैसले में कहीं भी उन सबसे बुनियादी सवालों को नहीं उठाया गया जो उस जगह को लेकर हिंदू दावे से संबंधित थे : क्या राम एक वास्तविक ऐतिहासिक व्यक्ति थे? जब राम को हिंदू भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है, तो वह पारिभाषिक रूप से इतिहास के दायरे से बाहर हो जाते हैं. इतिहास दिव्य प्राणियों के अस्तित्व का समर्थन नहीं करता है. जहां तक राम को एक इंसान के रूप में माना जाता है तो एक देवता के रूप में उसे सम्मान देने के लिए मंदिर बनाने का सवाल विवादास्पद हो जाता है. राम की ऐतिहासिकता को जानने में अदालत की बेहद कम दिलचस्पी ने व्यापक हिंदू बहुसंख्यवादियों की सोच को ही प्रतिबिंबित किया.
भक्तों को अच्छी तरह से पता है कि राम त्रेता युग के अवतार हैं. लेकिन कौन भक्त यह बता सकता है कि त्रेता युग कब था. डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता आनंद पटवर्धन ने 1990 में कई कारसेवकों के इंटरव्यू किए. 1992 की उनकी डाक्यूमेंट्री फिल्म राम के नाम में उन इंटरव्यू के अंश हैं. उन्होंने कारसेवकों से राम के जन्म के बारे में पूछा :
निर्देशक: भगवान राम किस सदी में पैदा हुए थे?
करसेवक 1 : यह प्राचीन इतिहास है ... यह कहना मुश्किल है!
निर्देशक: आप जानते हैं कि राम का जन्म कहां हुआ था लेकिन कब हुआ क्या यह बता सकते हैं?
करसेवक 1 : नहीं. मेरे लिए यह बताना असंभव है.
निदेशक (कारसेवक 2 और 3 को देखते हुए): क्या आप बता सकते हैं?
करसेवक 2 : नहीं.
करसेवक 3 : नहीं… यह एक इतिहास का विषय है और केवल इतिहास को जानने वाला ही यह बता सकता है.
हां यह सच है कि इतिहास के जानकारों ने राम काल का अनुमान लगाया है. वाल्मीकि की रामायण के एक प्रमुख विशेषज्ञ, रॉबर्ट गोल्डमैन का मानना है कि “धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से राम को पौराणिक युग त्रेता का बताया जाता है जो 867102 ई.पू रहा होगा. आधुनिक विज्ञान हमें बताता है कि होमो सेपियन्स दो लाख साल पहले अस्तित्व में आए और निएंडरथल शायद तीन लाख साल पहले. अगर आप ज्ञात मानव इतिहास में राम को फिट करना चाहेंगे तो आपको शायद कहना पड़े कि वह होमो सेपियन्स और निएंडरथल से पहले की मानव प्रजाति होमो इरेक्टस थे.
ऐसा कहना भले मजाक जैसा लगता हो लेकिन अयोध्या फैसले को इससे मदद मिलती है जो कहता है कि किसी कंपनी या जहाज की तरह ही राम के “न्यायिक व्यक्ति” होने का अर्थ यह नहीं है कि उनमें “मानवीय गुण” थे. फिर भी हम इस अधिक स्वीकार्य अकादमिक नजरिए को अपना सकते हैं कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि राम मूर्त रूप में कभी मौजूद थे और जैसा कि गोल्डमैन ने कहा है, वाल्मीकि की रामायण को "महत्वपूर्ण कल्पनिक रचनाओं" में सबसे अच्छा माना जाता है.
आधुनिक कानूनी मानकों के अनुसार, हिंदू पक्षकारों के पास राम के जीवन और जन्मस्थान के बारे में कोई पुख्ता सबूत नहीं है. इसके विपरीत, मुस्लिम दावेदार ज्ञात मानव इतिहास में बाबरी मस्जिद को वैध रूप से रख सकते हैं. अदालत हिंदू भावनाओं को बहुत ज्यादा तरजीह देकर इस तथ्यात्मक असंतुलन की भरपाई करती है. जैसा कि प्रोफेसर रोमिला थापर ने चिन्हित किया कि आस्था पर इतिहास का यह रुख लोगों की नजर में सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता को कमजोर करता है. मैं इससे सहमत हूं. मुझे यह भी लगता है कि अदालत बहुत कुछ कर सकती थी जो उसने नहीं किया यानी वह इस अखंड, एकल आस्था की प्रकृति पर सवाल उठा सकती थी.
हार्वर्ड में भारतीय धर्मों की एक विद्वान डायना इक ने लिखा है कि 1980 के दशक के अंत तक, अयोध्या में ऐसे एक दर्जन से अधिक मंदिर थे जो राम का जन्मस्थान होने दावा करते थे. उन्होंने अपनी पुस्तक इंडिया : ए सैक्रेड जियोग्राफी में लिखा है, ''जन्मस्थान के लिए ऐसे अनेकानेक दावे आम हैं. इन दावों में प्रतिद्वंद्विता की भावना नहीं बल्कि बहुलतावाद की विशिष्ट हिंदू परंपरा है, कोई ऐसा स्थान जो वास्तव में महत्वपूर्ण है, उसकी नकल भी उतनी ही महत्वपूर्ण है और कई जगहों पर उसी की तरह कायम है.” फिर हम पूछ सकते हैं : जब हिंदू परंपराओं में ही लंबे समय तक कई सारी कहानियों को अपनाया गया है तो अब आकर राम की जन्मभूमि के बारे में, इस एकल कहानी पर क्यों समझौता किया गया? स्पष्ट रूप से इसलिए क्योंकि बहुलतावादी हिंदू मुसलमानों को वैसा झटका नहीं देता है जो बहुसंख्यवाद चाहता है.
अयोध्या फैसले में 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने का कई बार उल्लेख किया गया है लेकिन यह फैसला उन लोगों के नाम नहीं लेता जो इस तबाही के पीछे थे. बाबरी मस्जिद दुर्घटनावश ध्वस्त नहीं हुई थी. तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकारों की मौन स्वीकृति से हिंदू भीड़ ने इसे जानबूझकर ध्वस्त किया था. भीड़ तेजी से फैल रही सजातीय और लड़ाकू हिंदू पहचान से प्रेरित थी जिसने मुसलमानों के प्रति घृणा को अपने कृत्य का बहाना बनाया था. इस लड़ाकू हिंदूवाद का हिंदुत्व के साथ मजबूत संबंध है लेकिन यह इससे अधिक दिखने की कामना करता है. हिंदुत्व के विचारकों ने अयोध्या विवाद का इस्तेमाल, हिंदू मान्यताओं को संकीर्ण करने के लिए किया. फैसला हिंदू पहचान की संकीर्णता को स्वीकार करता है. उन हिंदुओं का क्या होगा जो नहीं मानते कि राम का जन्म बाबरी मस्जिद स्थल पर हुआ था या वे जो एक प्रमुख मस्जिद के मलबे पर आधुनिक मंदिर को नहीं बनाना चाहते? सुप्रीम कोर्ट के लिए ऐसे हिंदू होते ही नहीं.
भले ही हम आस्था के बारे अदालत की संदिग्ध स्वीकृति से कानूनी रूप से सहमत हों, हम भारतीय कानून द्वारा वर्जित तमाम धार्मिक विश्वासों के बारे में असहज सवालों का सामना करेंगे ही. क्या अय्यप्पा भक्तों के महिला अशुद्धता के विचार के चलते महिलाओं को फिर सबरीमाला मंदिर में जाने से रोक दिया जाएगा? क्या कानूनी तौर पर एक गांव के आधे लोग दूसरे लोगों को उनकी जाति के आधार पर कुएं का इस्तेमाल करने से रोक सकते हैं? कई हिंदू ईमानदारी से महिलाओं और खासकर जातियों पर लगे उन प्रतिबंधों को मानते हैं जिन्हें अनुष्ठानिक शुद्धता को बनाए रखने के लिए निर्धारित किया गया है. इसके अलावा, राम के जन्मस्थान के सिद्धांत के विपरीत, इन विचारों के कम से कम कुछ पहलुओं की वैधता का प्राचीन इतिहास में पता लगाया जा सकता है. क्या अदालत उपरोक्त मामलों पर "उपासक के विश्वास को मानेगी" क्योंकि वह अयोध्या के मामले में तो इसे "मानती" है?
कोई भी इस सवाल का जवाब नहीं देता कि आस्था कैसे वास्तविकता से टकरा सकती है. अयोध्या के फैसले के बारे में जो बात सबसे ज्यादा मायने रखती है, शायद, उसे नजरंदाज कर दिया गया. न्यायिक विवेचना बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद महीने तक हिंदू भीड़ के नेतृत्व में हुए दंगों और कत्ल हुए हजारों मुसलमानों का जिक्र नहीं करती.
फैसले में कहीं भी अपराध को संबोधित नहीं किया. आदेश में अंतर्निहित था कि एक धार्मिक इमारत को दूसरे के अवशेषों पर खड़ा किया जाएगा. फैसले में इस बात पर काफी ध्यान दिया गया कि क्या बाबरी मस्जिद को एक हिंदू मंदिर के ऊपर बनाया गया था. जजों ने बेमन से निष्कर्ष निकाला कि इस सिद्धांत का समर्थन करने के लिए कोई सबूत नहीं है लेकिन उन्हें इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर यह सच है, तो वे इसे एक हानिकारक तथ्य के रूप में देखेंगे कि बाबरी मस्जिद नफरत और विनाश का एक स्मारक थी. फिर हम राम मंदिर बनाने के लिए क्या करेंगे, जिसे जानबूझकर एक मस्जिद के मलबे पर बनाया जाएगा?
अदालत का फैसला यह नहीं मानता है कि जिस दिन ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को ढहाया गया था, उस दिन सभी भारतीयों ने अपनी विरासत का एक हिस्सा खो दिया था. कुछ बाबर-काल की इमारतें आज भी बची हुई हैं और वे भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. फिर भी, अदालत बाबरी मस्जिद को केवल मुसलमानों के लिए मूल्यवान मानती है और यह मानती है कि सभी गैर-मुस्लिम बाबरी मस्जिद को भारतीय इतिहास का दुर्भाग्यपूर्ण धब्बा मानते हैं. अदालत ने 400 साल पहले मस्जिद के निर्माण पर टिप्पणी की, “कानून का इस्तेमाल ऐसे तरीके के तौर पर नहीं किया जा सकता जिससे अतीत में जाकर हर उस इंसान को कानूनी राहत दी जा सके जो उन बातों से सहमत न हो जो इतिहास के किसी मोड़ पर घटित हुई है.” अंततः जजों की विवेचना अदालत के इरादे का अलग अर्थ पेश करती है. भीड़ की हिंसा में सभी भारतीयों की ऐतिहासिक धरोहर, सोलहवीं सदी की मस्जिद, का नामोनिशान मिटा देना, इतिहास का ऐसा ही गलत मोड़ है. जजों की चेतावनी के अनुसार, 2019 की अदालत की विवेचना यह सुनिश्चित करती है कि भारतीय कानून इस गलती को ठीक न करे.