असम के बंगाली मुस्लिमों को जबरदस्ती बेदखल कर रही बीजेपी सरकार

मई, 2016 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से बेदखली, असम में एक नियमित घटना बन गई है. अनुपम नाथ/एपी

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4 मार्च को असम वन सेवा अधिकारियों, पुलिस अधिकारियों और अर्धसैनिक बलों की एक टीम ने मध्य असम के होजाई और कार्बी आंगलोंग जिलों के सीमाई इलाके में रहने वाले 500 से ज्यादा परिवारों को बेदखल कर दिया. इस दौरान एक स्थानीय समूह द्वारा फेसबुक पर पोस्ट किए गए एक वीडियो में 22 वर्षीय महिला कुलसुम बेगम को देखा जा सकता है, जो अपने नवजात बच्चे के साथ जमीन पर लेटी है. उसने महज दो घंटे पहले अपने बच्चे को जन्म दिया है. वीडियो में एक स्थानीय पत्रकार कार्बी आंगलोंग के जंगलों के सहायक सरंक्षक से पूछ रहा है, "आप इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं? आप एक एसीएफ अधिकारी हैं, आप इसे अस्पताल क्यों नहीं भेजते." कैमरा पीड़िता की तरफ घूमता है और रिपोर्टर पूछता है, "बच्चा जिंदा है?"

बेगम और उसके नवजात को बेदखली वाली जगह पर दो रातें गुजारनी पड़ीं क्योंकि उसके पास अस्पताल जाने के लिए पैसा नहीं था. गांव वालों ने संसाधन जुटाकर उसे नजदीक के होजाई सिविल अस्पताल में भर्ती कराया, जहां से उसे गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल रेफर कर दिया गया. मैं अस्पताल में बेगम की 50 वर्षीय सास रमीसा खातून से मिला, जिन्होंने मुझे अपने परिवार के बेदखली की खौफनाक कहानी बताई. उन्होंने कहा कि यह बेदखली अभियान बिना किसी पूर्व सूचना के 2 मार्च को शुरू हुआ था. अगले दिन रविवार था, इसलिए किसी को बेदखल नहीं किया जाना था, लेकिन बेगम के परिवार ने अभियान के डर से अपना घर तोड़ना शुरू कर दिया. बेगम के पति ने छत की टिन शीटों को हटा दिया, लेकिन अपने बच्चे के जन्म को देखते हुए दीवारों को खड़ा रहने दिया. अगले दिन सुबह लगभग आठ बजे उसकी पत्नी को बेटा हुआ.

खातून बताती है कि इसके थोड़ी देर बाद लगभग आठ अधिकारी उनके घर पहुंचे और किचन की छानबीन शुरू कर दी. खातून पहचान नहीं पाई कि वे पुलिस अधिकारी थे या अर्धसैनिक बल. अचानक उन्होंने अपना सामान बाहर ले जाना शुरू कर दिया. खातून ने मुझे बताया, "जैसे ही मैं अंदर वापस आई, मैंने देखा कुलसुम फर्श पर पड़ी है. मैंने उसे पेड़ों के पीछे छिप जाने को कहा और बच्चे को उठा लिया. मुझे डर था कि वे उसे मार डालेंगे." खातून ने बताया कि कुलसुम चल नहीं पा रही थी क्योंकि पुलिस वालों ने उसके साथ मारपीट की थी. बेगम का पति उसे बाहर लेकर गया, जिसके बाद वह बेहोश हो गई. खातून के मुताबिक, सरकार की तरफ से कोई भी बेदखली की जगह या अस्पताल में उनसे मिलने नहीं आया. मेरी यात्रा के तीन दिन बाद चोट के कारण वह मर गई. उसका बच्चा बच गया, लेकिन उसके देवर फरिदुल इस्लाम के अनुसार, “बच्चे को पीलिया हुआ है और वह 24 मार्च से जीएमसीएच के आईसीयू में भर्ती है”.

जब कुलसुम अपनी जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रही थी तो उसे अवैध घुसपैठिए और खतरनाक अतिक्रमणकारी की तरह देखा गया बेगम के बच्चे का रोना अब भी मेरे कानों में गूंज रहा है. उसका एकमात्र कसूर उसके मां-बाप की पहचान है, जिसे लेकर वह जन्मा है. आजकल ऐसा लग रहा है कि वह पहचान असम में एक गुनाह बन गई है.

मई, 2016 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से बेदखली, असम में एक नियमित घटना बन गई है. राज्य के नेता, सरकारी मशीनरी और शक्तिशाली मीडिया घराने, असम के बंगाली मूल के मुसलमानों को निकालने के मिशन पर जुट गए हैं. इस निष्कासन का एक पैटर्न है, सरकारी जमीन पर रहने वाले मुसलमानों को निशाना बनाना. इन लोकसभा चुनावों के लिए यह दो मकसद पूरा कर रहा है- पहला बीजेपी की राज्य के मुसलमानों को अतिक्रमणकारी बताकर उन्हें निकालने की राजनीति पूरी हो रही है और दूसरा राज्य के आदिवासी इलाकों में बीजेपी के प्रति बढ़ती अंसतुष्टि के बीच यह सांप्रदायिक आधार पर राज्य का ध्रुवीकरण कर रही है.

गुवाहाटी के रहने वाले कवि और सामाजिक कार्यकर्ता हाफिज अहमद ने मुझे बताया, "बीजेपी राज्य में मुसलमानों से नफरत के आधार पर सत्ता में आई थी. वे चाहते हैं, यह माहौल बना रहे, जिससे आने वाले चुनावों में इसका फायदा मिले. ऐसे में निष्कासन ही उनके लिए सबसे बढ़िया तरीका है."

आगामी विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी का प्रचार असम के लोगों की "जाति, माटी और भेटी" यानी पहचान, जमीन और आधार बचाने को लेकर है. होजाई-कार्बी आंगलोंग बेदखली अभियान से पता चलता है कि सरकार को जमीन के इस पुनर्ग्रहण से जिला अधिकारियों द्वारा लिखे गए विरोध-पत्र थोड़ा रोक सकते हैं. बेदखली अभियान से पहले और इसके दौरान होजाई के डिप्टी कमिश्नर तनमय प्रतिम बोरगहैन ने राज्य के मुख्य सचिव को कई पत्र लिखे थे. इसमें उन्होंने सरकार से यह बेदखली अभियान कुछ समय बाद चलाने को कहा था. उनका मानना था कि यह अभियान विवादित जगह पर चलाया जा रहा है, जिस पर होजाई और कार्बी आंगलोंग जिले अपना-अपना दावा करते हैं. बोरगहैन ने 28 फरवरी को लिखे पत्र में लिखा, "कार्बी आंगलोंग या होजाई जिले के विवादित इलाके मे चलाए गए किसी भी अभियान से कानूनी पचड़े और कानून व्यवस्था के अलावा दूसरी परेशानियां भी हो सकती हैं."

कार्बी आंगलोंग प्रशासन दावा करता है कि सीमाई इलाके संरक्षित जंगल में बने है, जबकि होजाई प्रशासन का दावा है कि इन कडेस्टरल गांवो की जिले के राजस्व विभाग ने गणना की है. 28 फरवरी को लिखे पत्र में बोरगहैन ने लिखा कि होजाई जिले के जमीन रिकॉर्ड के मुताबिक, "विवादित इलाके में 8 'गैर-कडेस्टरल' गांवों में लगभग 9 हजार की आबादी है और यह नोटिफाइड जंगल नहीं हैं." उन्होंने लिखा संभावित बेदखली अभियान की जगह पर पांच शैक्षणिक संस्थान, दो मार्केट और कई दूसरी संस्थाएं भी हैं.

बोरगहैन ने अपने पत्र के माध्यम से मुख्य सचिव को इस अभियान के चुनावों पर पड़ने वाले असर को लेकर भी सतर्क किया था. उन्होंने लिखा कि यहां 8 पोलिंग स्टेशन हैं जहां 6778 पंजीकृत मतदाता हैं. अंत में उन्होंने "असम सरकार द्वारा अंतिम सीमा के निर्धारण करने तक कार्बी आंगलोंग प्रशासन द्वारा चलाए जाने वाले अभियान को रोकने के लिए दखल देने को कहा था."

इसके बावजूद, बीजेपी नेता और जिले की प्रशासनिक संस्था कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद के मुख्य कार्यकारी सदस्य तुलीराम रोंघांग ने मीडिया को बताया कि विवादित इलाके पर 1600 से ज्यादा घरों में रह रहे "गैर-कानूनी शरणार्थी, बांग्लादेशी मुस्लिम" के खिलाफ बेदखली अभियान जारी है. होजाई के रहने वाले किसान-अधिकार कार्यकर्ता सैदुर रहमान के मुताबिक, बेदखली अभियान के पहले दो चरणों में 600 से ज्यादा घरों को तोड़ा गया, कुछ को जला दिया गया, सरकारी स्कूलों और पोलिंग बूथों को नष्ट कर दिया और पीने के पानी के स्रोतों तक पहुंचना मुश्किल कर दिया गया.

4 मार्च को, बोरगहैन ने मुख्य सचिव को एक और पत्र लिखा. इसमें उन्होंने सूचना दी कि कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद ने "होजाई और कार्बी आंगलोंग के बीच प्रांतीय सीमा का अतिक्रमण करते हुए गैर-अधिकृत तरीके से कई दुकानें और घर खाली करवाए हैं ...जिससे होजाई जिले के लोगों में गंभीर नाराजगी है." बोरगहैन ने फिर लिखा, "अगर बेदखली अभियान लंबे समय तक चलता है तो इससे न सिर्फ कानून व्यवस्था खराब होगी बल्कि आने वाले लोकसभा चुनावों को भी यह बुरी तरह प्रभावित करेगा." उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि यह अभियान राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के अपडेट करने के बाद किए गए दावों और आपत्तियों को भी प्रभावित करेगा. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के नियमों के मुताबिक, जो नागरिक खुद को असम का साबित नहीं कर पाया, उसे भारतीय नागरिकता नहीं दी जाएगी.

8 मार्च को कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद अधिकारी, पुलिस और अर्धसैनिक बल इस अभियान के तीसरे चरण के लिए होजाई-कार्बी आंगलोंग की निष्कासन वाली जगह पर पहुंचे, लेकिन गुवाहाटी हाई कोर्ट की दखल के बाद इस अभियान पर रोक लग गई. कोर्ट ने बोरगहैन के पत्र का संज्ञान लेते हुए मुख्य सचिव को आदेश दिया कि "जब तक अंतिम सीमा का निर्धारण नहीं हो जाता, तब तक इस अभियान पर रोक लगाई जाए."

हाई कोर्ट के इस आदेश ने अभियान वाली जगहों पर इसका विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस की ज्यादतियों को नहीं रोका. दोपहर में जब मैं कुलसुम बेगम से मिलने अस्पताल जा रहा था, तभी उसी इलाके के 29 वर्षीय ऐनउद्दीन ने फोन कर मुझे बताया कि पुलिस प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज कर रही है. पीछे से मुझे लोगों के चीखने और प्रार्थना करने की आवाज आ रही थी. थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझे पुलिस की ज्यादतियों की कुछ फोटो भेजी, इनमें से एक सदमे में दिख रहे एक सफेद दाढ़ी वाले आदमी की फोटो थी, जो दो युवाओं का सहारा लेकर खड़ा था. ऐनउद्दीन ने इसके साथ लिखा था, "पुलिस ने इसकी टांग तोड़ दी है."

बीजेपी ने सरकार बनते ही निष्कासन की यह प्रक्रिया शुरु कर दी थी. 6 फरवरी, 2017 को राज्य के राजस्व मंत्री पल्लब लोचन दास ने विधानसभा में बताया कि सरकार ने सत्ता में आने के पहले छह महीनों में असम के 17 जिलों से 3481 परिवारों को निकाला है. तब से सरकार के राज्यभर में ऐसे बड़े स्तर वाले बेदखली अभियान जारी हैं, लेकिन इसने इन अभियानों से जुड़े आंकड़े नहीं दिए हैं. असम सरकार में राजस्व और आपदा प्रबंधन राज्यमंत्री भवेश कालिता ने मुझे बताया कि ये अभियान अभी भी जारी है इसलिए उनके पास इसके ताजा आंकड़े नहीं हैं. हालांकि, अधिकतर जनसांख्यिकीय आंकड़े उपलब्ध नहीं है, लेकिन ज्यादातर अभियान मुस्लिम-बहुल इलाकों में चलाए गए हैं और कई मामलों में आदिवासी समुदायों को भी विस्थापित होना पड़ा है.

मैं और मेरे सहयोगी इन अभियानों का दस्तावेज बनाने के लिए लगातार ऐसी जगहों पर घूम रहे हैं. पिछले तीन सालों में मैं ऐसी 10 जगहों पर गया हूं. इन बेदखली अभियानों के अध्ययन करने से एक साफ पैटर्न उभर कर सामने आता है कि किसी इलाके में रह रहे मुस्लिम लोगों को बांग्लादेशी अवैध शरणार्थी बता दिया जाता है, बिना किसी पूर्व सूचना और तय प्रकिया का पालन किए बेदखली अभियान चलाया जाता है और यह जिम्मेदारी लोगों की लापरवाही और बलप्रयोग द्वारा किया जाता है. राज्य सरकार की यह मोडस-ऑपरेंडी असम के नागांव जिले के काजीरंगा नेशनल पार्क के पास सितंबर, 2016 में चलाए गए पहले अभियान में भी देखी गई थी.

अक्टूबर, 2015 में गुवाहाटी हाई कोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार ने काजीरंगा नेशनल पार्क के बाहरी इलाके में बसे तीन गांव बंदरदुबी, देओसुरसंग और पलखुवा में बेदखली अभियान चलाया. इस अभियान के दौरान सरकार ने लगभग दो सौ परिवारों के घर तोड़ दिए. इनमें 7 घर मुसलमानों के थे. पुलिस ने एक 12 वर्षीय लड़की समेत दो लोगों को गोली मारी, पुलिस के लाठीचार्ज और फायरिंग में कई लोग घायल हुए थे. इस बेदखली अभियान के तुरंत बाद राज्य के वित्त मंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने ट्विटर पर जिला प्रशासन को बधाई देते हुए लिखा कि बीजेपी सरकार "कभी जाति, माटी और भेटी" पर समझौता नहीं करेगी.

लगभग दो सप्ताह बाद, शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं की एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम का हिस्सा बनकर मैं उस जगह पर पहुंचा. किसानों के संगठन के एक ऑफिस पर एक किसान ने मुझे अपनी जमीन के दस्तावेज दिखाते हुए कहा, "हम न तो अतिक्रमणकारी हैं और न ही अवैध बांग्लादेशी शरणार्थी, हमें हमारी पट्टे की जमीन से ही बेदखल कर दिया गया." सरकारी रिकॉर्ड में भी यह दर्ज है कि बंदरदुबी और देओसुरसंग को 1961 में पट्टा दिया गया था, जबकि काजीरंगा को 1974 में नेशनल पार्क घोषित किया गया था. यहां तक की अब्दुल हामिद नामक पीड़ित ने मुझे जमीन के दस्तावेजों की सर्टिफाइड कॉपी दिखाई, जिसमें यह साफ तौर पर लिखा है कि जमीन नेशनल पार्क के लिए निर्धारित इलाके में नहीं थी. उन्होंने मुझे छह महीने पुरानी राजस्व की रसीद दिखाई और कहा, "मैं नियमित तौर पर राजस्व का भुगतान कर रहा हूं, सरकार मुझे पुनर्वास के बिना कैसे बेदखल कर सकती है?"

असम के किसी भी मेनस्ट्रीम मीडिया ने गैर-कानूनी रूप से हो रहे इस निष्कासन पर रिपोर्टिंग नहीं की. इसकी बजाय मीडिया ने पीडि़तों को उन अवैध बांग्लादेशी शरणार्थियों की तरह पेश किया जिन्होंने असम के मूल लोगों की जमीनों का अतिक्रमण कर लिया है. होजाई-कार्बी आंगलोंग निष्कासन अभियान के बाद भी मीडिया ने यही नैरेटिव जारी रखा. मैंने असम के सबसे पुराने और सबसे ज्यादा वितरित होने वाले अंग्रेजी दैनिक के पत्रकार से बात की, जिसकी स्टोरी में पीड़ितों को "अवैध बांग्लादेशी शरणार्थी" बताया गया था. जब मैंने उनसे पूछा कि वे इन लोगों के बांग्लादेशी होने को लेकर इतना निश्चित कैसे हैं तो उन्होंने बताया कि उसे उन लोगों को "बांग्लादेशी" बताना पड़ा क्योंकि सत्ता में बैठे लोग उन्हें इन्हीं नामों से पहचानते हैं. पत्रकार ने सुरक्षा के डर से अपनी पहचान गोपनीय रखी है.

अगली सुबह मैंने बेदखली की जगह वाली फैक्ट-फाइंडिंग के एक मिशन पर असम सरकार की पहुंच और ताकत का प्रत्यक्ष अनुभव किया. लंका रेलवे स्टेशन पर मुझे एक पुलिस अधिकारी का फोन आया जिसने मुझे लंका थाने में समन किया है. मैंने पुलिस अधिकारी को बताया कि मैं अपने सहयोगी का इंतजार कर रहा हूं और हम दोनों साथ ही थाने आ जाएंगे, लेकिन अगले 10 मिनट में 10 बार पुलिस के फोन आ चुके थे. थाने में कम से कम 5 पुलिस अधिकारियों ने लगभग सात घंटे तक मुझसे पूछताछ की. इन अधिकारियों में डीएसपी, एएसपी और स्पेशल ब्रांच के अधिकारी शामिल थे.

अधिकारी विनम्र थे और उन्होंने हमें खाने को स्नैक्स भी दिए, लेकिन वे काफी कठोर थे. उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं स्थिति को जानने के लिए उत्सुक क्यों हूं, मेरी पृष्ठभूमि, मैं कहां काम करता हूं और किसके लिए लिखता हूं और उस अंतर्राष्ट्रीय समाचार संगठन के बारे में पूछा जिसे मैंने इंटरव्यू दिया या जिसके लिए मैंने लिखा. पुलिस अधिकारियों को मेरे अल-जजीरा के साथ संबंधों को लेकर संदेह था. अल-जजीरा के लिए मैंने बेदखली अभियान के दौरान रिपोर्टिंग की थी. अधिकारी इसे अंतर्राष्ट्रीय समाचार प्लेटफॉर्म की जगह गैरकानूनी संगठन की तरह देख रहे थे.

आखिरकार पुलिस ने हमें निष्कासन अभियान वाली जगह पर जाने और डिप्टी कमिश्नर बोरगहैन से मिलने से रोक दिया. बोरगहैन ने मुझे बाद में फोन पर बताया कि पुलिस ने हमें उस जगह पर जाने से इसलिए रोका था क्योंकि उन्हें "डर था कि हमारे जाने से वहां तनाव और बढ़ सकता है." उन्होंने यह सवाल टाल दिया कि राज्य के प्रशासन ने उनके पत्र के बाद भी बेदखली अभियान को जारी क्यों रखा. मैंने असम के मुख्य सचिव आलोक कुमार और केएएसी के प्रमुख सचिव महानंदा हजारिका से संपर्क करने की कोशिश की. मैं उनसे पूछना चाहता था कि उन्होंने निष्कासन को लेकर बोरगहैन की चिंताओं पर विचार क्यों नहीं किया. हजारिका ने मुझे केएएसी ऑफिस जाने को कहा, लेकिन फोन इंटरव्यू के लिए मेरे कॉल और मैसेज का जवाब नहीं दिया. कुमार ने भी कॉल और मैसेज का जवाब नहीं दिया.

पिछले कुछ महीनों से असम में बीजेपी की लोकप्रियता घट रही है. पार्टी से मोहभंग की शुरुआत 2016 में नागरिकता संशोधन बिल पेश करने के बाद हुई, जिसमें मुस्लिमों के अलावा दूसरे शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है, जबकि बीजेपी के सहयोगी दलों ने बांग्लादेश से आ रहे हिंदू शरणार्थियों का विरोध किया है. हालांकि, बीजेपी ने लोकसभा चुनावों को देखते हुए अपने सहयोगियों को मना लिया है, कार्बी आंगलोंग जैसे आदिवासी इलाकों में स्वायत्त परिषद के फंडों को लेकर भ्रष्टाचार और रामदेव की पतंजलि हर्बल को जमीन देने के केएएसी के प्रस्ताव ने यह नाराजगी और बढ़ाई है. होजाई के एक कार्यकर्ता और किसान-अधिकार संगठन ‘कृषक मुक्ति संग्राम समिति’ होजाई प्रमुख रहमान ने कहा कि बीजेपी दीफू लोकसभा क्षेत्र में अपनी जमीन खो रही है. इस लोकसभा क्षेत्र में स्वायत्त जिले दीमा हसाओ और कार्बी आंगलोंग आते हैं.

रहमान ने कहा, "बीजेपी को ऐसी स्थिति की सख्त जरूरत थी, जिसके माध्यम से वे लोकसभा चुनाव से पहले आदिवासी वोट को मजबूत कर सकें, इसके लिए मुसलमानों के खिलाफ बेदखली अभियान चलाने से ज्यादा बेहतर और क्या हो सकता है, वह भी तब जब बीजेपी यह दावा कर सकती है कि उसने काउंसिल की जमीन को वापस हासिल कर लिया है जो कभी उनके नियंत्रण में नहीं थी." असम यूनिवर्सिटी के दीफू कैंपस में आदिवासी अध्ययन के सहायक प्रोफेसर प्रफुल्ल नाथ ने कहा कि बीजेपी सरकार आदिवासी जमीन पर मुसलमानों का कब्जा बताकर इस स्थिति का और फायदा उठा सकती है. नाथ ने कहा, "सरकार जानती है कि अगर यह अभियान होजाई जिला द्वारा चलाया जाता तो काफी हो-हल्ला मच सकता था, लेकिन यह कार्बी आंगलोंग प्रशासन द्वारा किया गया, जिसे वे आदिवासी कार्ड के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं."

नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के मद्देनजर असम सरकार में मंत्रियों ने सांप्रदायिक और ध्रुवीकरण फैलाने के लिए बयानबाजी का सहारा लिया, राज्य के मुसलमानों को अवैध शरणार्थी बताया जिन्होंने असम के मूल लोगों से उनके जमीनें और संसाधन छीन लिए थे. उदाहरण के लिए, 2016 में राज्य के वित्त मंत्री शर्मा ने यह झूठ फैलाना शुरु किया कि मुस्लिम निवासियों ने सतरा से जुड़ी जमीन पर अतिक्रमण शुरू कर दिया है. सतरा आधुनिक आसामी समाज के शिल्पकार श्रीमंत संकरदेव द्वारा स्थापित धार्मिक मठ है.

आसामियों के लिए सतरा उनके राज्य और संस्कृति का भावात्मक हिस्सा है. शर्मा ने इसके गौरव का आह्वान करते हुए इसे मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए इस्तेमाल किया. शर्मा ने 2016 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूछा, "क्या धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह है कि सतरा को अपने मूल स्थानों से दूर जाना होगा? क्या धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह है कि कुछ लोग बताद्रवा सतरा की जमीन को छीन लेंगे?", लेकिन शर्मा की भड़काऊ बयानबाजी तब रुक गई जब कलिता ने राज्य विधानसभा के समक्ष सरकारी रिकॉर्ड रखा, जिसमें पता चला कि धार्मिक मठों की भूमि पर तथाकथित बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा अतिक्रमण नहीं किया गया है, बल्कि यह ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा नष्ट हो गई थी और सरकार इसे बचाने में विफल रही थी.

आज के समय में सरकार से कोई सवाल नहीं करता है. यहां तक कि मानवाधिकार संगठन भी नहीं. जनवरी, 2017 में जब मैं एक अंतर्राष्ट्रीय बाल-अधिकार संगठन के एक बड़े अधिकारी से बात कर रहा था, तब मेरे एक दोस्त ने मुझे तीन दिन के नवजात के शव की फोटो भेजी, जो सिपाझार इलाके में बेदखली अभियान के कुछ दिन बाद पुनर्वास कैंप में मर गया था. मैंने उसे वह फोटो दिखा, निष्कासित किए गए बच्चे के लिए कुछ करने की मांग की. उसने जवाब दिया, "अब्दुल, आधिकारिक तौर पर मैं कुछ नहीं कर सकता. यह अलग सरकार है, लेकिन अगर तुम मुझसे व्यक्तिगत रूप से कुछ करने को कहोगे तो मुझे कुछ दान करने में खुशी होगी."

काजीरंगा फैक्ट-फाइंडिंग मिशन के दौरान, एक अनुभव ने पुनर्वास शिविरों में व्याप्त भयावह स्थितियों के बारे में बताया. एक कैंप में मैंने एक छोटे लड़के को उत्सुकता से हमारी ओर देखते देखा. जब मैंने उसकी फोटो लेने के लिए अपने कैमरा खोला, बच्चा जोर से रोने लगा, उसकी मां भागकर बाहर आई और उसे गोद में ले लिया. मां ने हमें बताया कि निष्कासन अभियान के बाद से उसके बच्चे को "खाकी वर्दी और बंदूक जैसी दिखने वाली हर चीज" से डर लगता है. इस घटना ने मुझे उस सीरियाई लड़की की वायरल फोटो की याद दिला दी जिसने कैमरे को बंदूक समझकर आत्मसमर्पण कर दिया था.