इस साल जुलाई में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक फैसला सुनाया जो पिछले दो दशकों में लिए गए सबसे अहम फैसलों में से एक हो सकता है. हालांकि यह मामला अपने आप में इतना मामूली था कि राज्य के मुखर अधिवक्ताओं, राजनेताओं और स्तंभकारों की नजर इस पर नहीं पड़ी. औद्योगिक शहर सलेम का एक छोटा सा बौद्ध ट्रस्ट पिछले दस सालों से अदालत से गुहार कर रहा है कि वह पेरियारी गांव में एक छोटे से मंदिर की पहचान करे जहां बुद्ध की एक मूर्ति लगी है. मूर्ति पेरियारी के हिंदुओं के लिए प्रार्थना का केंद्र थी जिन्होंने इसके चारों ओर एक कंक्रीट का मंदिर बना लिया था और दावा किया था कि यह उनके स्थानीय देवता थलाइवेटी मुनियप्पन की मूर्ति है जिन्हें, सिर विहीन मुनियप्पन भी कहते हैं. तमिलनाडु के कई मंदिरों की तरह इस पर भी राज्य सरकार के हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग (एचआरसीई) का स्वामित्व था.
यह मामला एक दशक से भी ज्यादा समय से लंबित था. नवंबर 2017 में एक सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने राज्य के पुरातत्व विभाग की तमिल विकास शाखा को मंदिर का अध्ययन करने और मूर्ति की पहचान के बारे में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा. चंदन और हल्दी के लेप की कई परतों को पोंछने के बाद, विभाग के अधिकारियों ने मूर्ति की पहचान की कि ऐतिहासिक रूप से इस मूर्ति में बुद्ध का प्रतिनिधित्व करने वाली सभी शारीरिक विशेषताएं हैं. फैसले ने रिपोर्ट के निष्कर्षों की पुष्टि की लेकिन राज्य को एक उलझन में छोड़ दिया. अदालत ने फैसला सुनाया कि यह जगह अब एचआरसीई के स्वामित में नहीं हो सकती जो इसके स्वामित्व की मांग कर रहा था लेकिन सरकार के पास बौद्धों का प्रतिनिधित्व करने वाले वैधानिक निकाय की कमी थी, जिसे ये बौद्ध मंदिर सौंपा जा सके. फैसले में मंदिर में हिंदू प्रार्थनाओं पर रोक लगा दी गई और यह बताते हुए कि मूर्ति बुद्ध की है एक बोर्ड स्थापित करने के लिए कहा और मंदिर पुरातत्व विभाग को सौंप दिया गया है. इस पर कोई टिप्पणी नहीं की गई कि कैसे तमिलनाडु का बौद्ध समुदाय इस पर अपना अधिकार पा सकता है और यहां अपने धार्मिक कार्यों का संचालन कर सकता है.
साफ तौर पर पेरियेरी का मामला हिंदू मूर्ति के बौद्ध मूल के पाए जाने का अंतिम उदाहरण होने की संभावना नहीं है. इतिहास में कई बार बौद्ध धर्म दक्षिणी भारत का प्रमुख दरबारी और लोकप्रिय धर्म रहा. राज्य भर में बुद्ध की अनगिनत मूर्तियों की खुदाई जारी है. ऐतिहासिक रूप से कई जाने-माने विद्वान और बौद्ध धर्म अनुयाई तमिल राज्य से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, खासकर कांचीपुरम से जो बौद्ध शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र था. इसमें बोधिधर्म, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे बौद्ध धर्म को चीन ले गए, दिग्नाग, जो बौद्ध ज्ञानशास्त्र के विद्वान थे और बुद्धघोष, जो श्रीलंका में आज भी पूजे जाते श्रद्धेय हैं. ये तीनों ही कांचीपुरम में पढ़ते थे.
इस इतिहास के बावजूद राज्य सरकार ने इस क्षेत्र पर बौद्ध धर्म के प्रभाव का दस्तावेजीकरण करने के लिए कुछ खास नहीं किया. पुरातत्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने स्वीकार किया कि विभाग के पास उन बौद्ध मठों, विहारों और मूर्तियों की संख्या का मोटा-मोटा अनुमान भी नहीं है. इसका अध्ययन एमके स्टालिन की मौजूदा सरकार के लिए एक बड़ी उपलब्धि हो सकता है, विशेष रूप से तमिल संस्कृति और पुरातत्व के मंत्री थंगम थेनारासु के अधीन, जिन्होंने तमिल इतिहास के अध्ययन और स्तुति में गहरी रुचि दिखाई है. बौद्ध स्थलों के लिए अन्य धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों के समान उत्साह का अभाव संदेहास्पद है.
इस क्षेत्र के कई बौद्ध स्थलों के दस्तावेजीकरण और अध्ययन का बोझ ऐसे उत्साही बौद्धों पर पड़ता है जो भावना से प्रेरित तो हैं लेकिन अनजान हैं. उदाहरण के लिए, प्रबोध ज्ञान और अभय देवी, केरल के बौद्ध भिक्षु हैं जिन्होंने बुद्ध की मूर्तियों की तलाश में दक्षिणी राज्यों की यात्रा की है. वे इनका अध्ययन करते हैं और अपनी वेबसाइट में इसके बारे लिखते हैं. अपने सीमित संसाधनों के बावजूद उन्होंने 2016 से तमिलनाडु में 100 से अधिक बौद्ध स्थलों का दस्तावेजीकरण किया है.
तमिलनाडु में बौद्ध धर्म केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं थी. भारत के आधुनिक बौद्ध पुनरुत्थान को भी राज्य में खोजा जा सकता है. उन्नीसवीं सदी के जाति-विरोधी कार्यकर्ता और समाज सुधारक योति थास ने, जिनको तमिलनाडु के द्रविड़ और दलित आंदोलनकरी अपना वैचारिक पुरखा बताते हैं, 1898 में प्रसिद्ध रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया था. थास ने क्षेत्र के दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए द्रविड़ महाजन सभा जैसे संगठनों की स्थापना की और साथ ही ओरु पेसा तामिजान और द्रविड़ पांडियन, जैसे तमिल अखबार निकले, जिन्होंने 1891 की जनगणना में "अछूतों" से खुद को हिंदुओं के रूप में नहीं बल्कि "जातिविहीन द्रविड़ियन" के रूप में दर्ज कराने का आग्रह किया.
1898 में थास ने रोयापेट्टा में शाक्य बौद्ध संस्था की स्थापना की. इसने मद्रास प्रेसीडेंसी में बौद्ध धर्म के पुनर्जन्म की मांग की खासकर उत्पीड़ित जातियों के बीच. उत्तरी तमिलनाडु के कई हिस्सों में इस संस्था का बड़ा असर था यहां तक कि तमिल बौद्ध धर्म को बैंगलोर, कोलार गोल्ड फील्ड्स, नागपुर और पुणे तक ले गए थे, जहां अक्सर तमिल दलित रेलवे या सेना में रोजगार के लिए पलायन करते थे. आंदोनल ने कभी भी अछूतों को जाति से बचने में मदद करने के लिए धर्म परिवर्तित करने का दावा नहीं किया. इसके बजाए उन्होंने रूपांतरण को एक खोई हुई पहचान की पुनर्खोज के रूप में बताया, जो अमेरिका में अश्वेत समुदायों के बीच विभिन्न आंदोलनों के ही समान था.
शाक्य बौद्ध संस्था की मुख्य शाखाओं में से एक चेन्नई के पड़ोस में पेरम्बुर में एक बौद्ध विहार में थी. यह इस बात का प्रमाण है कि राज्य में बौद्ध धर्म क्या था, यह क्या हो सकता था और आज कहां खड़ा है. मैंने पहली बार जब इसे देखा था तब मैं दस साल का था. धम्म के बारे में लंबे प्रवचनों को सुनने के बजाए मैंने अपना समय प्रवेश द्वार पर सुशोभित विदेशी मूल के एक बड़े से पेड़ से छोटे-छोटे मुट्ठी भर फूलों को इकट्ठा करने में बिताया. अन्य बच्चों के साथ और विहार का रखरखाव करने वालों की दयालु लेकिन चौकस निगाहों के नीचे, मैंने घर ले जाने के लिए इनमें से कमल की तरह के ज्यादातर फूलों को तेजी से बटोरा. जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, यह जगह वह नींव बन गई जिस पर मैंने नैतिकता और चरित्र की अपनी समझ का निर्माण किया था.
विहार के उपासक एन जीनाराजू नामक एक अस्सी वर्षीय पुजारी थे, जिन्होंने थास के बाद तमिल बौद्ध धर्म को अपने मंद दिनों में भी बनाए रखा. उनकी मां विहार के एक स्कूल में पढ़ाया करती थी और उनके सहयोगियों में स्वप्नेश्वरी अम्मल जैसे दिग्गज शामिल थे, जिन्होंने ओरु पेसा तामिजान के लिए काफी लिखा और बाद में मुख्य रूप से बौद्ध महिलाओं के लिए एक पत्रिका तमिल वुमन की स्थापना और संपादन किया. जीनाराजू ने मुझे उस प्रासंगिकता के बारे में भी समझाया जिसका विहार लंबे समय से आनंद ले रहा था. बीआर अंबेडकर 1950 के दशक की शुरुआत में दक्षिण भारत के अपने दौरे पर यहां आए और चौदहवें दलाई लामा तेनजिंग ग्यात्सो ने भी 1956 में यहां का दौरा किया, जिससे तमिल बौद्ध धर्म को अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली.
विहार के आसपास की ज्यादातर जमीन कानूनी और अवैध लेनदेन में खत्म गई है और अब स्मारक विशाल अपार्टमेंटों से बौना हो गया है. मेरे बच्चों के खेलने के लिए बूढ़े होते पेड़ से फूल कम होते जा रहे हैं. अब यह जगह केवल उन लोगों की यादों में है जो यहां खेले और सीखे. विहार और जिस विचारधारा का वह प्रतिनिधित्व करता है, उसके संरक्षक लगातार कम होते जा रहे हैं. तमिलनाडु में बौद्ध धर्म, थास के दिनों में प्रचलित सार्वजनिक और आधुनिक वास्तविकता से दूर, व्यक्तिगत और ऐतिहासिक रूप से संचालित है.
आज तमिलनाडु की बौद्ध आबादी उसका एक छोटा सा हिस्सा है जो कभी थी. 2011 की जनगणना ने देश में 8.4 मिलियन बौद्धों की गणना की और दिखाया कि धर्म की विकास दर 1991 और 2001 के बीच 23.2 प्रतिशत से गिरकर मात्र 6.1 प्रतिशत रह गई है. बौद्धों की सबसे बड़ी सघनता महाराष्ट्र में है जो देश में उनकी कुल संख्या का लगभग तीन चौथाई हैं. जनगणना में इस बात को भी दर्ज किया गया है कि ऐसा खासकर अंबेडकर और उनके अनुयायियों के जाति व्यवस्था को छोड़ने के साधन बतौर अनुसूचित जातियों के बड़े पैमाने पर बौद्ध धर्म में धर्मांतरण के कारण है. महाराष्ट्र की लगभग आधी अनुसूचित जाति आबादी बौद्ध है. तमिलनाडु में देश की चौथी सबसे बड़ी अनुसूचित जाति रहती है, राज्य के निवासियों के पांचवें भाग से अधिक जिसमें लगभग 11000 बौद्ध हैं. वे आबादी का केवल 0.015 प्रतिशत हैं और राज्य के प्रत्येक दस लाख दलितों में से लगभग साढ़े सात सौ का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस कम प्रतिनिधित्व का प्रभाव इस तथ्य से और पेचीदा हो जाता है कि तमिलनाडु में बौद्ध भौगोलिक रूप से बिखरे हुए हैं, जिनका कोई बड़ा धार्मिक या राजनीतिक केंद्र नहीं है.
मद्रास प्रेसीडेंसी में बौद्ध धर्म के एक प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक शक्ति से आज खंडित और उपेक्षित इकाई में परिवर्तित होने की क्या वजह है? इसका एक बड़ा कारण राज्य के अनुसूचित जाति समुदायों पर ईवी रामासामी और द्रविड़ आंदोलन के प्रभाव हैं. रामासामी, जिन्हें पेरियार के नाम से जाना जाता है, ने अपने शुरुआती समय में इस बात की वकालत की कि अनुसूचित जाति समुदाय अस्पृश्यता से बचने के लिए इस्लाम या बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो जाते हैं. उन्होंने 1956 में रंगून में विश्व बौद्ध सम्मेलन में भी भाग लिया था. हालांकि उन्होंने द्रविड़ आंदोलन को आगे बढ़ाया लेकिन उन्होंने उन उत्पीड़ित जातियों के बीच अपने अनुयायियों में परिवर्तित होने की अपील को कभी नहीं दोहराया, जिनके साथ छुआछूत नहीं होती थी.
पेरियार इस बात पर कायम रहे कि असमानता का आदर्श समाधान केवल सभी धर्मों का पूर्ण विनाश ही हो सकता है. कार्ल मार्क्स से एक कदम आगे बढ़ते हुए उन्होंने धर्म को जनता के लिए अफीम ही नहीं बल्कि जहर बताया. जानकार इस बात पर अड़े हैं कि क्या बौद्ध धर्म को उसकी मूर्तिभंजक नास्तिकता में एक धर्म माना जाना चाहिए. अनुसूचित जाति समुदायों के बीच उनके प्रभाव से तमिलनाडु में बौद्ध धर्म में परिवर्तन बहुत ही कम हुआ है. पेरियार की सक्रियता ने जाति के उन्मूलन के लिए विभिन्न रास्तों की पेशकश की. हालांकि यह आदर्शवादी हो सकता है इसने समुदाय को तोड़ने में भूमिका निभाई. यहां तक कि जब जातिगत संघर्ष भड़क उठे, उदाहरण के लिए 1981 में मीनाक्षीपुरम में सामूहिक धर्मांतरण या हाल ही में मेट्टुपलयम में एक जाति की दीवार का गिरना, जिसमें 17 लोग मारे गए- तमिलनाडु में दलितों के लिए इस्लाम पसंदीदा धर्म है, बड़े पैमाने पर दलित इस्लाम में धर्मांतरण का विकल्प चुनते हैं. यह राज्य के अंबेडकरवादी बौद्धों द्वारा अपने विश्वास को एक विकल्प के रूप में लोकप्रिय बनाने में उनकी विफलता को दिखाता है.
पेरियारवादी आंदोलन का एक और हानिकारक प्रभाव कह सकते हैं कि बौद्ध धर्म का अधर्मीकरण रहा है. तमिलनाडु में अक्सर यह दोहराया जाता है कि बौद्ध धर्म एक धर्म नहीं बल्कि जीने का एक तरीका है. इसे केवल सिद्धांतों और पद्धतियों के एक समूह के रूप में देखा जाता है जो पूर्ण विश्वास के बजाए समानता की बात करते हैं. यह खुद पेरियार की एक घोषित स्थिति थी और द्रविड़ इयक्का तमिझर पेरावई के सुब्बैया वीरपांडियन जैसे पेरियारवादी नेताओं में आज भी जिंदा है, जिन्होंने बौद्ध धर्म को "द्रविड़ आंदोलन के भीतर मैत्रीपूर्ण अंतरविरोध" बताया है. इसने कई तमिल अनुसूचित जातियों को औपचारिक रूप से परिवर्तित होने से रोक दिया है क्योंकि उनकी समझ में वे पहले से ही बौद्ध जीवन शैली का अनुसरण कर रहे हैं. इस तरह की समझ बौद्ध समुदाय को अलग-अलग तरीकों से प्रभावित करती है, संख्या बतौर हाशिए का होने के चलते उनकी मांगों की ताकत कमजोर है. महाराष्ट्र में अंबेडकरवादियों ने न केवल सैद्धांतिक रूप से बल्कि वैधानिक रूप से भी बौद्ध धर्म अपनाया है और कानून की नजर में यह बौद्धों को जो महत्व देता है उसे खारिज नहीं किया जा सकता है. उनकी जनगणना संख्या बहुत ही वास्तविक रूप में राजनीतिक ताकत बनती है.
ऐसा लगता है कि आधिकारिक तौर पर घोषित नास्तिकता की तमिलनाडु में ज्यादा पैठ नहीं है. केवल 0.26 प्रतिशत आबादी ने 2011 की जनगणना में धर्म का जिक्र नहीं किया है. पेरियारवादी स्वाभिमान आंदोलन के विचारकों को, ठंडे दिमाग वाले तर्क के साथ, जिसका वे खुद पर गर्व करते हैं, यह देखना चाहिए कि इस आंकड़े का मतलब है कि उनका आदर्श समाधान फलने-फूलने से बहुत दूर है. यह कठोर ब्राह्मणवाद के प्रति उनके खुद के समर्पण पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है . मैं पेरियारवादी धड़े के कई लोगों के साथ लगातार संपर्क में हूं और उनमें से कुछ ही मुझे विश्वास के साथ बता सके कि उन्होंने या खुद पेरियार ने जनगणनाकर्ताओं के सामने आने पर "हिंदू" टैग को छोड़ दिया था.
इसने राज्य की अनुसूचित जाति आबादी को कहां छोड़ा है? पेरियार के बाद अनुसूचित जाति समुदाय के शिक्षित वर्ग अभी भी प्रोटेस्टेंट हिंदू बने हुए हैं. इसने बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच एक नश्वर संघर्ष के रूप में भारतीय धार्मिक इतिहास की आंबेडकर की छवि को कमजोर कर दिया है या, कम से कम, इसने इस तरह के विचारों को वर्तमान में प्रवेश करने से रोक दिया है, इसके बजाए इसे हमारे दैनिक जीवन से हटाए गए ऐतिहासिक स्वयंसिद्ध तक सीमित कर दिया है. खासकर, चूंकि द्रविड़वाद पेरियार की विचारधारा से दूर भटकता है और राजनीतिक सत्ता के लिए एक अधिक मुख्यधारा का वाहन बन जाता है, अनुसूचित जाति समुदायों को फिर से सोचने की जरूरत है कि क्या पेरियार ने लगभग आधी सदी पहले जो जवाब दिए थे, वे अभी भी एक बहुत ही अलग राजनीतिक सेटिंग के लायक हैं.
इन ऐतिहासिक रुझानों से तमिलनाडु के अनुसूचित जाति समुदायों को मिलने वाले भौतिक लाभों को मापना कठिन है, खासकर उसकी तुलना में जिसका महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति समूह लाभ ले रहे हैं. महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कम से कम यह सुनिश्चित करता है कि इन समुदायों की संपत्ति धार्मिक दान के रूप में नहीं जाती है, खासकर ब्राह्मणों को जो अभी भी हिंदू पुजारियों पर एकाधिकार रखते हैं. 2011 की जनगणना पर आधारित शोध से पता चलता है कि धर्मांतरण ने महाराष्ट्र के बौद्धों को देश भर में किसी भी प्रमुख धार्मिक समूह की उच्चतम साक्षरता दर के साथ-साथ समग्र जनसंख्या की तुलना में बेहतर लिंग अनुपात और महिला साक्षरता दर में लाया है. तमिलनाडु के अनुसूचित जाति के लिए कोई तुलनीय डेटा मौजूद नहीं है.
दोष अकेले दूसरों के कंधों पर नहीं डाला जा सकता. बौद्ध धर्म अपनाने के एक दिन बाद आंबेडकर ने मिलिंद पन्हा के एक हिस्से को फिर से दोहराया. यह लगभग 2000 साल पुरानी एक क्लासकीय पाली रचना है, जो उन कारणों का वर्णन करती है कि धर्मों का पतन क्यों हुआ. आंबेडकर ने धर्म के विशुद्ध रूप से अस्थायी होने और दर्शन का अभाव होने के पहले कारण को खारिज कर दिया, जो उनके अनुमान में, अत्यधिक विद्वान बौद्ध परंपरा में एक गैर-कारक था. दूसरा कारण विद्वान प्रचारकों की कमी है, जबकि तीसरा महज एक कुलीन बौद्धिक खोज होना जिसमें तीर्थस्थलों और स्थलों की कमी हो जहां जनता पूजा कर सके. तमिल बौद्ध धर्म में बाद के इन दोनों मामलों का बहुत अभाव है.
तमिलनाडु में बौद्ध प्रचारकों की भारी कमी है. राज्य में एक भी स्थायी बौद्ध मठ नहीं है. बौद्ध समुदाय या संघ के लिए एक आंतरिक शासी निकाय का निर्माण, इस विश्वास में अनुयायियों को प्रशिक्षित करने के लिए एक स्थापित प्रक्रिया के बिना नहीं हो सकता है. अनुमान अलग-अलग हैं लेकिन मेरी समझ में पूरे राज्य में 15 से भी कम भिक्कु और भिक्कुनी हैं. उन सभी ने अपेक्षित प्रशिक्षण भी नहीं लिया है.
सरकार संचालित मंदिरों में गैर-ब्राह्मण पुजारियों को लाने के लिए उन्हें प्रशिक्षित करने की कोशिशों के हिस्से बतौर तमिलनाडु सरकार के पास छह अर्चक पल्लिस पेइर्ची यानी हिंदू पुजारियों को प्रशिक्षण देने के स्कूल हैं. पेरियार के समय से ही यह द्रविड़ आंदोलन का एक पुराना लक्ष्य रहा है. बौद्ध पुजारियों के लिए एक समान प्रशिक्षण विद्यालय का निर्माण एक अनुचित मांग नहीं है. अगस्त में राज्य सरकार ने घोषणा की कि आंबेडकर के जन्मदिन को सभी सरकारी कार्यालयों में समानता की प्रतिज्ञा के साथ समानता दिवस के रूप में मनाया जाएगा. राज्य में बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार के लिए इसी तरह की चिंता आंबेडकर के घोषित लक्ष्यों के लिए एक उचित श्रद्धांजलि होगी.
एक और बड़ी चुनौती राज्य में बौद्धों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अभाव रहा है. तमिलनाडु में इसे मानने वालों का कोई प्राकृतिक राजनीतिक संरक्षक मौजूद नहीं है. इसके विपरीत महाराष्ट्र में बौद्ध नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों की भीड़ है. तमिलनाडु का सबसे बड़ा दलित राजनीतिक दल थोलो तिरुमावलवन के नेतृत्व वाला विदुथलाई है चिरुथैगल काची यानी लिबरेशन पैंथर्स पार्टी है. वीसीके पेरियारवादी नास्तिकता और बौद्ध धर्म के एक काल्पनिक उत्सव के बीच धर्मांतरण पर कोई आधिकारिक स्थिति लिए बिना डोलना जारी रखे हैं.
थिरुमावलवन की अपनी डॉक्टरेट थीसिस उस सामाजिक और आर्थिक उत्थान के बारे में थी जो मीनाक्षीपुरम रूपांतरण एससी समुदायों में लाया था. लेकिन वीसीके ने निस्संदेह द्रविड़ पार्टियों के साथ अपने चुनावी समझौते से प्रभावित होकर कभी भी कोई बड़ा धर्मांतरण कार्यक्रम आयोजित नहीं किया. चुनावी दल भी चुनावी आशंकाओं के साथ आते हैं और थिरुमावलवन ने खुद टिप्पणी की है कि, तमिलनाडु जैसे राज्य में, धर्मांतरण से अनुसूचित जाति की एकता के विखंडन और समुदाय के परिणामी चुनावी ताकत कमजोर होने की संभावना है.
वीसीके के भीतर अन्य लोगों ने बौद्ध धर्म पर अधिक कड़ा रुख अपनाया है. पार्टी के उप महासचिव गौतम सना ने तमिलनाडु बौद्ध संघ परिषद बुलाई जिसकी पहली बैठक अगस्त 2021 में हुई थी. यह राज्य के अलग-अलग बौद्ध समुदायों में से एक राजनीतिक समुदाय को आकार देने में एक सकारात्मक कदम है, लेकिन नया निकाय उसी मुद्दे से ग्रस्त है जिससे समुदाय ग्रस्त है: संघ का नेतृत्व करने के लिए प्रशिक्षित भिक्खु और भिक्कुनी की कमी, जैसा कि पूरे देश में अन्य संघों में आम है. एकमात्र अन्य पार्टी जिसने राज्य में बौद्ध निर्वाचन क्षेत्र को आकार देने का प्रयास किया है, वह के आर्मस्ट्रांग के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी की तमिलनाडु शाखा है. आर्मस्ट्रांग खुद एक बौद्ध हैं. कुछ छोटे क्षेत्रों के बाहर, हालांकि, बसपा की राज्य में बहुत कम मौजूदगी है और चुनावी रूप से कमजोर बनी हुई है.
महाराष्ट्र में अपने समकक्षों के विपरीत, तमिल बौद्धों को अभी तक संगठित नहीं किया गया है और उनमें एकीकृत सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का अभाव है. सिखों के विपरीत, उनके पास अपनी घरेलू ताकत को मजबूत करने के लिए एक मजबूत प्रवास नहीं है. जैनियों के विपरीत, वे एक व्यापारिक समुदाय नहीं हैं जिनका आर्थिक दबदबा है, या यहां तक कि आर्थिक स्वतंत्रता भी नहीं है. ईसाइयों के विपरीत, उनके पास धार्मिक संस्थानों और गतिविधियों के प्रशासन के लिए स्थापित तंत्र नहीं है. मुसलमानों के विपरीत, उनके पास एक सहज बिरादरी की कमी है - जैसा कि उपमहाद्वीप के अन्य हिस्सों में बौद्धों के साथ उनके खराब संपर्कों से स्पष्ट है. संक्षेप में, तमिल बौद्धों को अल्पसंख्यक होने के सभी नुकसान हैं, बिना किसी लाभ के जो सरकारें अल्पसंख्यक धर्मों को दे सकती हैं.
अगर तमिलनाडु सरकार, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के अधीन, बौद्धों के लिए वैधानिक निकाय स्थापित करने वाली थी, तो यह पहली बार नहीं होता जब द्रविड़ आंदोलन ने सामाजिक न्याय के हित में ऐसा किया हो. 1923 में, जस्टिस पार्टी के नेतृत्व में प्रांतीय सरकार ने मद्रास हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम पारित किया. इसने मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में ला दिया और उन्हें समतावादी कानून के अधीन कर दिया. पेरियार, जो उस समय मद्रास प्रेसीडेंसी कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे, ने स्पष्ट रूप से इस अधिनियम का समर्थन करते हुए तर्क दिया कि यह उन लोगों की जांच करेगा जो धर्म के नाम पर लोगों के धन को लूट रहे थे. इस अधिनियम को न केवल जस्टिस पार्टी बल्कि समग्र रूप से गैर-ब्राह्मण आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि माना जाता है, जो द्रविड़ राजनीति का अग्रदूत था. इसने इस राजनीतिक धारा की शुरुआत को कानून के माध्यम से हिंदू धार्मिक संस्थानों में सामाजिक समानता स्थापित करने के कई प्रयासों के रूप में चिह्नित किया.
पेरियारी मंदिर का मामला तमिलनाडु सरकार को धार्मिक स्थलों पर लोकतांत्रिक निरीक्षण करने और सामाजिक रूप से प्रतिनिधि लाइनों के साथ उनके विकास को सुनिश्चित करने का एक और मौका देता है. यह सरकार को सामाजिक न्याय और उत्पीड़ित जातियों के स्वाभिमान के लिए समर्पित एक और संस्कृति को विकसित करने का अवसर देता है -जिस आदर्श की स्टालिन ने सत्ता में आने से पहले और बाद में शपथ ली थी. बौद्धों के लिए एक वैधानिक निकाय का निर्माण यह सुनिश्चित कर सकता है कि उनके पास उसी प्रकार के वित्त पोषण और समर्थन तक पहुंच हो जो अन्य अल्पसंख्यक धर्मों के पास है. बौद्ध स्थलों के दस्तावेजीकरण, नवीनीकरण और सार्वजनिक पहुंच को बढ़ाने के प्रयासों से इसे और अधिक बढ़ाया जा सकता है - ऐसी चीजें जिन्हें बढ़ावा देने और देखरेख करने के लिए सरकार को विशिष्ट रूप से रखा गया है. बौद्ध धर्मार्थ बंदोबस्तों की देखरेख करने वाले एक सुव्यवस्थित बोर्ड के पास तमिल इतिहास की हमारी समझ का विस्तार करने का एक अनूठा अवसर होगा और इसके भीतर बंधी मुक्ति की धाराएं, एक कथा के अनुरूप होगी जिसे बढ़ाने के लिए सरकार पहले से ही काम कर रही है.
इससे तमिलनाडु को बहुत लाभ हो सकता है, जैसा कि अन्य राज्यों को होता है. अमरावती में राज्य की एक नई राजधानी का निर्माण करते हुए, आंध्र प्रदेश सरकार ने बौद्ध पर्यटन के लिए अपनी क्षमता को पहचाना. शहर की योजना के केंद्र में एक चालीस मीटर की ध्यान में बैठे बुद्ध की प्रतिमा होनी है जो एक संग्रहालय के साथ क्षेत्र में बौद्ध धर्म और बुद्ध के महत्व को दर्शाता है. बौद्ध थीम पार्क, बुद्धवनम का निर्माण तेलंगाना को वैश्विक बौद्ध पर्यटन मानचित्र पर लाने के लिए किया गया था. पार्क प्रतीकात्मक रूप से आठ खंडों में विभाजित है, जो बुद्ध के आष्टांग मार्ग को दर्शाते हैं और एक बौद्ध विश्वविद्यालय, मठ, बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार पर एक संग्रहालय और एक शोध पुस्तकालय की मेजबानी करता है. यह सब तब है जबकि बौद्ध अविभाजित आंध्र प्रदेश की आबादी का केवल 0.04 प्रतिशत है.
यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी सरकार कर्नाटक में एक बौद्ध पर्यटन सर्किट पर काम कर रही है जो केंद्र सरकार द्वारा प्रचारित किए जा रहे अखिल भारतीय सर्किट से जुड़ता है. केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय के अधिकारियों ने पिछले साल कहा था कि भारत की बौद्ध विरासत एक लाभदायक बाजार है. केंद्र सरकार ने बौद्ध पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 325.53 करोड़ रुपए के बजट को मंजूरी दी है. हालांकि तमिलनाडु को इस अनुदान से कोई लाभ नहीं हुआ, राज्य का पर्यटन मंत्रालय अपने पड़ोसियों से सीख ले सकता है और अपना स्वयं का बौद्ध सर्किट विकसित कर सकता है. यह अक्सर बौद्ध स्थलों को पुनर्जीवित करने और संरक्षित करने के लिए एक आत्मनिर्भर तंत्र साबित हुआ है और राज्य में कई ऐसे हैं जिन्हें संरक्षण की सख्त आवश्यकता है.
मद्रास में 1944 के भाषण के में आंबेडकर ने कहा था कि जस्टिस पार्टी, जिसे पेरियार ने तब द्रविड़ कड़गम में बदल दिया था, "कुछ भी नहीं है अगर यह लोकतंत्र की पार्टी नहीं हो सकती." उन्होंने तर्क दिया कि लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को पार्टी के हितों और भाग्य के लिए गहरी चिंता थी. आंबेडकर ने माना कि किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति का केंद्रीय उद्देश्य बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच की खाई को दूर करना है. बिना राजनीतिक प्रतिनिधित्व वाले अल्पसंख्यक के रूप में बौद्ध उस स्टालिन सरकार के तहत तमिलनाडु में लोकतंत्र की स्थिति का एक लिटमस टेस्ट हैं जो जस्टिस पार्टी के प्रत्यक्ष वंशज के रूप में खड़ी है.
(अंग्रेजी से अनुवाद : पारिजात)