इस साल जुलाई में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक फैसला सुनाया जो पिछले दो दशकों में लिए गए सबसे अहम फैसलों में से एक हो सकता है. हालांकि यह मामला अपने आप में इतना मामूली था कि राज्य के मुखर अधिवक्ताओं, राजनेताओं और स्तंभकारों की नजर इस पर नहीं पड़ी. औद्योगिक शहर सलेम का एक छोटा सा बौद्ध ट्रस्ट पिछले दस सालों से अदालत से गुहार कर रहा है कि वह पेरियारी गांव में एक छोटे से मंदिर की पहचान करे जहां बुद्ध की एक मूर्ति लगी है. मूर्ति पेरियारी के हिंदुओं के लिए प्रार्थना का केंद्र थी जिन्होंने इसके चारों ओर एक कंक्रीट का मंदिर बना लिया था और दावा किया था कि यह उनके स्थानीय देवता थलाइवेटी मुनियप्पन की मूर्ति है जिन्हें, सिर विहीन मुनियप्पन भी कहते हैं. तमिलनाडु के कई मंदिरों की तरह इस पर भी राज्य सरकार के हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग (एचआरसीई) का स्वामित्व था.
यह मामला एक दशक से भी ज्यादा समय से लंबित था. नवंबर 2017 में एक सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने राज्य के पुरातत्व विभाग की तमिल विकास शाखा को मंदिर का अध्ययन करने और मूर्ति की पहचान के बारे में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा. चंदन और हल्दी के लेप की कई परतों को पोंछने के बाद, विभाग के अधिकारियों ने मूर्ति की पहचान की कि ऐतिहासिक रूप से इस मूर्ति में बुद्ध का प्रतिनिधित्व करने वाली सभी शारीरिक विशेषताएं हैं. फैसले ने रिपोर्ट के निष्कर्षों की पुष्टि की लेकिन राज्य को एक उलझन में छोड़ दिया. अदालत ने फैसला सुनाया कि यह जगह अब एचआरसीई के स्वामित में नहीं हो सकती जो इसके स्वामित्व की मांग कर रहा था लेकिन सरकार के पास बौद्धों का प्रतिनिधित्व करने वाले वैधानिक निकाय की कमी थी, जिसे ये बौद्ध मंदिर सौंपा जा सके. फैसले में मंदिर में हिंदू प्रार्थनाओं पर रोक लगा दी गई और यह बताते हुए कि मूर्ति बुद्ध की है एक बोर्ड स्थापित करने के लिए कहा और मंदिर पुरातत्व विभाग को सौंप दिया गया है. इस पर कोई टिप्पणी नहीं की गई कि कैसे तमिलनाडु का बौद्ध समुदाय इस पर अपना अधिकार पा सकता है और यहां अपने धार्मिक कार्यों का संचालन कर सकता है.
साफ तौर पर पेरियेरी का मामला हिंदू मूर्ति के बौद्ध मूल के पाए जाने का अंतिम उदाहरण होने की संभावना नहीं है. इतिहास में कई बार बौद्ध धर्म दक्षिणी भारत का प्रमुख दरबारी और लोकप्रिय धर्म रहा. राज्य भर में बुद्ध की अनगिनत मूर्तियों की खुदाई जारी है. ऐतिहासिक रूप से कई जाने-माने विद्वान और बौद्ध धर्म अनुयाई तमिल राज्य से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, खासकर कांचीपुरम से जो बौद्ध शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र था. इसमें बोधिधर्म, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे बौद्ध धर्म को चीन ले गए, दिग्नाग, जो बौद्ध ज्ञानशास्त्र के विद्वान थे और बुद्धघोष, जो श्रीलंका में आज भी पूजे जाते श्रद्धेय हैं. ये तीनों ही कांचीपुरम में पढ़ते थे.
इस इतिहास के बावजूद राज्य सरकार ने इस क्षेत्र पर बौद्ध धर्म के प्रभाव का दस्तावेजीकरण करने के लिए कुछ खास नहीं किया. पुरातत्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने स्वीकार किया कि विभाग के पास उन बौद्ध मठों, विहारों और मूर्तियों की संख्या का मोटा-मोटा अनुमान भी नहीं है. इसका अध्ययन एमके स्टालिन की मौजूदा सरकार के लिए एक बड़ी उपलब्धि हो सकता है, विशेष रूप से तमिल संस्कृति और पुरातत्व के मंत्री थंगम थेनारासु के अधीन, जिन्होंने तमिल इतिहास के अध्ययन और स्तुति में गहरी रुचि दिखाई है. बौद्ध स्थलों के लिए अन्य धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों के समान उत्साह का अभाव संदेहास्पद है.
इस क्षेत्र के कई बौद्ध स्थलों के दस्तावेजीकरण और अध्ययन का बोझ ऐसे उत्साही बौद्धों पर पड़ता है जो भावना से प्रेरित तो हैं लेकिन अनजान हैं. उदाहरण के लिए, प्रबोध ज्ञान और अभय देवी, केरल के बौद्ध भिक्षु हैं जिन्होंने बुद्ध की मूर्तियों की तलाश में दक्षिणी राज्यों की यात्रा की है. वे इनका अध्ययन करते हैं और अपनी वेबसाइट में इसके बारे लिखते हैं. अपने सीमित संसाधनों के बावजूद उन्होंने 2016 से तमिलनाडु में 100 से अधिक बौद्ध स्थलों का दस्तावेजीकरण किया है.
कमेंट