रामायण से जुड़ी मेरी यादें स्मरण शक्ति विकसित होने से पहले की जान पड़ती हैं. मुझे केवल अवसाद से भरी तस्वीरों, तेज आवाजों और अपनी कटी हुई नाक से निकलते खून को संभालकर स्थानीय रामलीला के अस्थायी मंच से भागती शूर्पणखा को देख लोगों की कर्कश हंसी, दुर्गा पूजा पंडाल के बाहर बिकते धनुष-बाण और दशहरे पर कॉलोनी पार्क में किसी भी इंसान से बेहद बड़े दस सिर वाले रावण को जलाया जाना याद है. नहीं, लेकिन मुझे उस कटी हुई नाक के कारण हुई हिंसा, खिलौने वाले हथियार या जलते हुए पुतले से न तो झटका लगा और न ही कोई डर. शायद जंगलों, पहाड़ों और महासागर जैसे इलाकों में रहने वाले राक्षसों और बंदर ब्रिगेड की शानदार कहानियों से पहले ही मेरा परिचय हो चुका था.
इन कारनामों के बीच नीले शरीर वाला व्यक्ति मेरे लिए कोई अजनबी नहीं था. हालांकि वह एक अवतार था. उसकी कमल जैसी आंखें और कैलेंडर में छपे भगवान, और मूर्तियों की तरह सुंदर मुस्कुराहट थी. लता मंगेशकर और डीवी पलुस्कर की मधुर आवाज में उनके बचपन को एक गीत “ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया" में पिरोया गया जिसमें उन्हें एक ऐसे प्यारे बच्चे के रूप में दिखाया गया जिसके चलने से पायल झंकार करती है. वर्ष 1965 में आई बेहद लोकप्रिय हिंदी फिल्म में उन्हें "अल्लाह मेघ दे पानी दे छाया दे रे तू, रामा मेघ दे, श्यामा मेघ दे" गीत के जरिए एक किसान और दुनिया के देवता के रूप में दिखाया गया जिससे सूखी धरती को ठीक करने के लिए बादल और बारिश भेजने की विनती की गई थी. वहीं वर्ष 1967 में मिलन फिल्म की "राम करे ऐसा हो जाए मेरी निंदिया तोहे मिल जाए" पंक्तियों में वह आत्म-बलिदानी प्रेम के परोपकारी प्रतीक थे जिन्हें पीड़ित प्रिय की खातिर सुकून की नींद लाने के लिए कहा गया था. और नया जमाना (1971) की मॉडर्न लड़कियों द्वारा पारिवारिक मानदंडों का उल्लंघन करने वाले बढ़ते प्यार की असामान्य बेचैनी को जाहीर करने के लिए भी "रामा, रामा गजब हुई गवा रे, हाल हमरा अजब हुई गवा रे" का सहारा लिया गया था.
ये सभी तस्वीरें, प्रार्थना और गीत एक साथ मिलकर भावात्मक परोपकार से जुड़ी जटिल परिस्थितियां बना देते हैं. इसी तरह मुझे बिना किसी के बताए ही पता चला कि मीराबाई ने सोलहवीं शताब्दी में राम के लिए जो गीत गाया था "पायो जी मैंने राम रतन धन पायो" उनका मतलब रत्न या जवाहरात से नहीं बल्कि ऐसी भक्ति से था जो इस दुनिया के भौतिकवाद और पारंपरिकता से मुक्ति दिलाती थी.
इन सभी गंभीर प्रार्थनाओं के बीच कहीं न कहीं एक शहर का विनाश और एक गर्भवती पत्नी का परित्याग भी छिपा था.
मध्यवर्गीय बंगाली घरों के अधिकांश बच्चों की तरह रामायण से मेरा पहला पाठ्य परिचय सत्यजीत रे के दादा, उपेंद्रकिशोर रे चौधरी द्वारा लिखी छेलेदेर रामायण (लड़कों के लिए रामायण) के माध्यम से हुआ था. बंगाली में "लड़का" एक कल्पित बच्चा है पुस्तक का शीर्षक इस तथ्य के बावजूद ऐसा रखा गया. उदाहरण के लिए बचपन का मतलब छेलेबेला या लड़कपन है और नर्सरी राइम में छेले भुलानो छरा (लड़के को खुश करने के लिए छंद) कहा जाता है. जिस भाषा का व्याकरण यूं तो लिंग-तटस्थ है, पर जिसके दैनिक शब्दकोष में लड़कीपन या यहां तक कि एक लिंग-तटस्थ बचपन की गैरमौजूदगी उन तरीकों को बता रही है जिसमें संस्कृति शक्तिवानों की कैद में पलती-बढ़ती है.
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