हाशिए की आवाज

कैकेयी और शूर्पणखा का दानवीकरण

24 May, 2022

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रामायण से जुड़ी मेरी यादें स्मरण शक्ति विकसित होने से पहले की जान पड़ती हैं. मुझे केवल अवसाद से भरी तस्वीरों, तेज आवाजों और अपनी कटी हुई नाक से निकलते खून को संभालकर स्थानीय रामलीला के अस्थायी मंच से भागती शूर्पणखा को देख लोगों की कर्कश हंसी, दुर्गा पूजा पंडाल के बाहर बिकते धनुष-बाण और दशहरे पर कॉलोनी पार्क में किसी भी इंसान से बेहद बड़े दस सिर वाले रावण को जलाया जाना याद है. नहीं, लेकिन मुझे उस कटी हुई नाक के कारण हुई हिंसा, खिलौने वाले हथियार या जलते हुए पुतले से न तो झटका लगा और न ही कोई डर. शायद जंगलों, पहाड़ों और महासागर जैसे इलाकों में रहने वाले राक्षसों और बंदर ब्रिगेड की शानदार कहानियों से पहले ही मेरा परिचय हो चुका था.

इन कारनामों के बीच नीले शरीर वाला व्यक्ति मेरे लिए कोई अजनबी नहीं था. हालांकि वह एक अवतार था. उसकी कमल जैसी आंखें और कैलेंडर में छपे भगवान, और मूर्तियों की तरह सुंदर मुस्कुराहट थी. लता मंगेशकर और डीवी पलुस्कर की मधुर आवाज में उनके बचपन को एक गीत “ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया" में पिरोया गया जिसमें उन्हें एक ऐसे प्यारे बच्चे के रूप में दिखाया गया जिसके चलने से पायल झंकार करती है. वर्ष 1965 में आई बेहद लोकप्रिय हिंदी फिल्म में उन्हें "अल्लाह मेघ दे पानी दे छाया दे रे तू, रामा मेघ दे, श्यामा मेघ दे" गीत के जरिए एक किसान और दुनिया के देवता के रूप में दिखाया गया जिससे सूखी धरती को ठीक करने के लिए बादल और बारिश भेजने की विनती की गई थी. वहीं वर्ष 1967 में मिलन फिल्म की "राम करे ऐसा हो जाए मेरी निंदिया तोहे मिल जाए" पंक्तियों में वह आत्म-बलिदानी प्रेम के परोपकारी प्रतीक थे जिन्हें पीड़ित प्रिय की खातिर सुकून की नींद लाने के लिए कहा गया था. और नया जमाना (1971) की मॉडर्न लड़कियों द्वारा पारिवारिक मानदंडों का उल्लंघन करने वाले बढ़ते प्यार की असामान्य बेचैनी को जाहीर करने के लिए भी "रामा, रामा गजब हुई गवा रे, हाल हमरा अजब हुई गवा रे" का सहारा लिया गया था.

ये सभी तस्वीरें, प्रार्थना और गीत एक साथ मिलकर भावात्मक परोपकार से जुड़ी जटिल परिस्थितियां बना देते हैं. इसी तरह मुझे बिना किसी के बताए ही पता चला कि मीराबाई ने सोलहवीं शताब्दी में राम के लिए जो गीत गाया था "पायो जी मैंने राम रतन धन पायो" उनका मतलब रत्न या जवाहरात से नहीं बल्कि ऐसी भक्ति से था जो इस दुनिया के भौतिकवाद और पारंपरिकता से मुक्ति दिलाती थी.

इन सभी गंभीर प्रार्थनाओं के बीच कहीं न कहीं एक शहर का विनाश और एक गर्भवती पत्नी का परित्याग भी छिपा था.

मध्यवर्गीय बंगाली घरों के अधिकांश बच्चों की तरह रामायण से मेरा पहला पाठ्य परिचय सत्यजीत रे के दादा, उपेंद्रकिशोर रे चौधरी द्वारा लिखी छेलेदेर रामायण (लड़कों के लिए रामायण) के माध्यम से हुआ था. बंगाली में "लड़का" एक कल्पित बच्चा है पुस्तक का शीर्षक इस तथ्य के बावजूद ऐसा रखा गया. उदाहरण के लिए बचपन का मतलब छेलेबेला या लड़कपन है और नर्सरी राइम में छेले भुलानो छरा (लड़के को खुश करने के लिए छंद) कहा जाता है. जिस भाषा का व्याकरण यूं तो लिंग-तटस्थ है, पर जिसके दैनिक शब्दकोष में लड़कीपन या यहां तक कि एक लिंग-तटस्थ बचपन की गैरमौजूदगी उन तरीकों को बता रही है जिसमें संस्कृति शक्तिवानों की कैद में पलती-बढ़ती है.

1897 में प्रकाशित छेलेदर रामायण औपनिवेशिक राष्ट्र के बच्चों को उनकी विरासत से परिचित कराने की चौधरी की एक कोशिश थी. पीछे मुड़कर देखने पर मुझे आश्चर्य होता है कि क्या वह शीर्षक दुखद या अचेतन निंदा की अभिव्यक्ति था. कहानी में एक पुरुषोत्तम व्यक्ति के आदर्श, भाईचारे के बंधन और ब्राह्मणों द्वारा सिखाए गए राजत्व के कर्तव्य जैसे कुलीन मर्दों के कौशल, इच्छाओं और लक्ष्यों को जोरदार तरीके से दर्शाया गया था. इस महाकाव्य में लक्ष्मण द्वारा रावण की बहन शूर्पणखा की नाक काट देने के कारण एक युद्ध भी शुरू होता है जहां प्रतिशोध में सूर्पणखा का भाई रावण सीता का अपहरण कर लेता है. महाकाव्य में महिलाओं के आपसी प्रेम को कहीं नहीं दर्शाया गया. दशरथ और राम की तरह प्यार करने वाली कोई मां-बेटी नहीं है, दोनों भाईयों राम और लक्ष्मण की तरह किसी बहनों की एकजुटता नहीं दिखती भले ही सीता और लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला दोनों बहनें और भाभी हों. महिलाओं की आपसी मित्रता का एकमात्र उदाहरण कैकेयी और मंथरा है जिन्हें राम को सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में राज्याभिषेक से रोकने के लिए एक दुष्ट साजिशकर्ता के रूप में दर्शाया गया है. तो फिर इस कथा में लड़कियों के लिए क्या था? और कृपया जवाब में सीता न कहें, क्योंकि हम सभी जानते हैं कि यह कहानी कैसे समाप्त होती है.

बंगाल में कई अन्य लोगों की तरह मेरे लिए भी छेलेदेर रामायण, भारत की औपनिवेशिक मुक्ति के बाद 1951 में कोलकाता के प्रतिष्ठित साहित्य संसद के बच्चों के कोने द्वारा प्रकाशित अत्यंत लोकप्रिय चित्रमय संस्करण था. इस ग्राफिक कथा के पहले फ्रेम में तीन खूबसूरत महिलाओं को सामने रखा गया. साथ ही एक विवरण में लिखा गया कि अयोध्या की ये तीन रानियां संतान नहीं हो पाने के कारण दुखी थीं. उनके पति दशरथ का जिक्र नहीं होने पर भी अपने विशाल धनुष और तरकश के साथ उनकी एक धुंधली छवि देखी जा सकती थी. उनकी मूंछें पहले से ही सफेद थीं और उसकी तुलना में तीन रानियां ह्रष्ट-पुष्ट और जवान लग रही थीं. लेकिन मैं लोकप्रिय किताबों और कहानियों की कई पौराणिक कथाओं के माध्यम से बहुत कुछ सीखने की कोशिश कर रही थी जबकि मेरी उम्र अभी तक दोहरे अंकों में नहीं आई थी. जैसे मैंने सुना है कि युवा देवी गौरी ने युगों तक की तपस्या के बाद वृद्ध और विधुर शिव से विवाह किया था. इसके बहुत बाद में मैंने मनुस्मृति में पढ़ा, जो यकीनन ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म का सबसे प्रभावशाली निषेधात्मक पाठ है, कि एक तीस वर्षीय व्यक्ति को बारह साल की लड़की से शादी करनी चाहिए ... और चौबीस साल के पुरुष को आठ साल की लड़की से." (9.93).

क्षेत्रिय भाषा के लोकप्रिय साहित्य, विशेष रूप से मेयली छरा ( महिलाओं की मौखिक रूप से गाई जाने वाली कविताएं ) उन महिलाओं के आंसुओं और क्रोध की गवाही देती है जिन्हें दूल्हा और दुल्हन के बीच उम्र के इस बेमेल अंतर के रिवाज पर अमल करने के लिए मजबूर किया गया था :

मैंने सिक्के से शंख की चूड़ियों और कानों की बालियां खरीदी

लेकिन शादी के समय मैंने देखा कि वह आदमी दाढ़ी वाला एक बूढ़ा आदमी था.

पिता और माता की आंखों में आग लगी, और चाचा ने नहीं देखा

कि यह तंबाकू चबाने वाला आदमी मेरे लिए बहुत बूढ़ा हो गया है!

या

रोते-बिलखते मैंने चाचा से कहा

तुमने मेरे लिए इतना बूढ़ा पति ढूंढा.

प्रिय चाचा मैं विनती करती हूं

मुझे वापस मेरी मां के पास ले चलो.

लेकिन इस तरह की महिला अभिव्यक्तियां जाति और लैंगिक पदानुक्रम की समान रूप से मिलीभगत वाली ताकतों द्वारा बेदम हैं, जिनकी निर्मित वैचारिक श्रेणियां लौकिक और देसी को शास्त्रिक मार्ग से नीचे रखकर ब्राह्मण पुरुष की हिरासत में हाशिए पर डाल देती हैं. अर्थ-निर्माण की ये सामाजिक प्रथाएं संस्कृति की विभिन्न शैलियों-जैसे महाकाव्य और मेयेली छरा- को टकराने नहीं देती हैं। इस प्रकार महिला विरोधों को हाशिए पर रखा जाता है और घरेलू किस्म का बनाया जाता है.

युवा पाठकों के लिए एक आदर्श पुस्तक का काम करने वाली रामायण भी जोरदार तरीके से दलील रखती है कि पत्नियों को पुत्रों को जन्म देना चाहिए. भले ही वे दिखाते हैं कि ब्राह्मण ऋषि ऋष्यश्रृंग द्वारा गर्भ को भरने वाले अनुष्ठान से भी दशरथ की पत्नियों को पुत्रों की प्राप्ति हो सकती है. पीवी केन की 1956 में धर्मशास्त्रों का इतिहास में ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म के प्रभावशाली ग्रंथों द्वारा निर्धारित इन कुछ मौलिक अनुष्ठानों को सारणीबद्ध किया गया है जिसमें पुरुष द्वारा प्रायश्चित, बलिदान और प्रार्थना के अनुष्ठानों के माध्यम से पुत्र प्राप्ति की जा सकती थी. इस तरह से यह नुस्खे महिलाओं की प्रजनन में भूमिका और अधिकार को कम कर देते थे. फिर भी महिलाओं को लड़का पैदा नहीं होने पर दोषी ठहराया जाता था. मनुस्मृति 3.61 के अनुसार जब महिला पुरुष को रिझा कर उत्तेजित नहीं कर पाती तब बच्चे पैदा नहीं हो पाते." और अगर कोई महिला बांझ है या जिसने केवल बेटियों को जन्म दिया है या फिर बच्चों की मृत्यु हो गई है कुछ वर्षों के बाद उसे छोड़ दिया जाता है (मनुस्मृति, 9.81).

यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि लिंग आधारित मूल्यों के प्रभुत्व वाली दुनिया में बच्चों के लिए लिखी कई रामायण का बंगाली संस्करण महिला संताप के वर्णन के साथ शुरू और समाप्त होता है. जिसके आखिर में सीता को एक प्रभामंडल के साथ धरती माता के रूप में दिखाया जाता है जो हमेशा के लिए पाताल लोक में समा जाती है. नारंगी बादलों जैसी दिखने वाली आग की लपटों में घिरी हुई सीता सतीप्रथा की याद दिलाती हैं जिसमें विधवाओं को उनके पति की चिता के साथ ही जला दिया जाता था. इस दृश्य में सीता एक सती की तरह ही विलीन होती नजर आती हैं. हालांकि पीछे मुड़कर देखें तो यह अर्थपूर्ण लगता है कि आखिरकार मां ने ही बेटी की मर्दाना सम्मान के क्रूर मानकों और महिलाओं को धोखा देने और सताने के चलन से बचाने के लिए लगाई गई गुहार का जवाब दिया हो. सीता को उनकी मां द्वारा इस दुनिया से इस तरह से दूर ले जाया जाना अजीब तरह से सुकून देने वाला था. इसलिए राम की वापसी और राम राज्य के वादे का जश्न मनाने के लिए जलाए गए दीपों के बीच मेरे बचपन की रामायण मुझे उस महान महाकाव्य की याद दिलाती है जो महिला दुख और आंसुओं में घिरा हुआ है. जब से मैं पैदा हुई हूं मुझे यह एहसास होता रहा है कि शुरू से ही कई अन्य महिलाओं और कुछ पुरुषों द्वारा महाकाव्य के कुछ प्रमुख नियमों को अपनाया गया है. और यह भी कि सीतायन का कार्य भी अभी चल ही रहा है.

जिसकी प्रचलित और मजबूत सोच यह होगी कि महिलाओं को पवित्र, एकसंगमनी और पतिव्रता होना चाहिए. वाल्मीकि की रामायण चेतावनी देती है कि बुरी महिलाओं को गुण और दोष की कोई समझ नहीं होती और सिर्फ अपनी इच्छा से काम करती हैं जिसे वे अपने पतियों से भी ज्यादा तवज्जों देती हैं. (अयोध्याकांड, 109.25). लेकिन महिला चाहे अच्छी हो या बुरी उसे सुरक्षा की जरूरत होती है और किसी को भी उन पर ज्यादा भरोसा करके उन्हें अपने रहस्य नहीं बताने चाहिए (अयोध्याकांड, 94.40). इस तरह की खामियों के बावजूद रामायण वास्तव में हमें उत्सव और दंड के इस बुतपरस्त ढांचे से परे महिलाओं की एक अधिक जटिल और विविध तस्वीर दिखाती हैं.

मैं रामायण में दो महिला पात्रों कैकेयी और शूर्पणखा को देखती हूं जिन्हें स्पष्ट रूप से बुरा दर्शाया गया है. मेरा प्रयास महाकाव्य में उनके बुरे इरोदों को समझने और यह सामने लाने का है कि इस किताब में महिला इच्छाओं, विशेषाधिकारों और बेदखली के बारे में क्या छिपाया गया है. मैंने इसके लिए वाल्मीकि की रामायण को पढ़ा. मैंने इसे इसलिए चुना क्योंकि इसे आदिकाव्य की संज्ञा दी गई है, भले ही तब रामकथा शुरू हो गई हो लेकिन इस शैली में लिखी गई यह पहली कविता है. और जैसा कि कवि, विद्वान और लेखक उमाशंकर जोशी ने 1981 में साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित सम्मेलन में इसका इक्ष्वाकु वंश की वीरगाथा के रूप में उल्लेख किया था. वाल्मीकि की रामायण या जिसे आजकल पढ़ा जाता है भारत के उत्तर-पूर्वी, उत्तर-पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्रों के तीन मुख्य समीक्षाओं की पुनर्निर्मित कथा है जो संस्कृति में मौजूद मिथकों के प्रमुख व्याख्यानों से जुड़ी हुई है. हालांकि इसे तेजी से रामानंद सागर के टेलिविजन पर चलाए गए हिंदी संस्करण द्वारा लोगों तक पहुंचाया जा रहा है जिसे पहली बार 1987 में दूरदर्शन द्वारा प्रसारित किया गया था.

कई बार मजबूती से यह तर्क दिया जाता है कि कैकेयी रामायण में केंद्रीय साजिशकर्ता और इसे आगे तक चलाए रखने वाला किरदार है. वह राजा दशरथ की तीन पत्नियों में से एक है जिसने न सिर्फ अयोध्या के उत्तराधिकारी के रूप में राज्याभिषेक की पूर्व संध्या पर अपने सौतेले बेटे राम को गद्दी से हटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई साथ ही उन्हें चौदह साल के लिए वनवास पर भी भिजवाया. कैकेयी को एक दुष्ट के रूप में देखा गया और उसके अपने बेटे, जिसे वह राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में पेश कर रही थी, सहित सभी ने कैकेयी की निंदा की. दूसरी पुस्तक अयोध्याकांड के अंत में पश्चाताप करने वाली कैकेयी वापस दरकिनार कर दिया जाता है. हालांकि वह यादों में एक कट्टरपंथी आक्रामक और ऐसी महिला के रूप में जीवित रहती है जिसकी कामुकता प्राकृतिक पितृवंशीय और पितृसत्तात्मक परिवार को नष्ट कर देती है. यह कोई संयोग नहीं है कि हिंदी फिल्मों में “हुस्न के लाखो रंग” गाने के जरिए अपनी सुंदरता को प्रदर्शित करने वाली लोकप्रिय अभिनेत्री पद्मा खन्ना को सागर की रामायण में इस रानी की भूमिका निभाने के लिए चुना गया, जिसने स्टीरियोटाइप को और मजबूत करने में मदद की. कैकेयी को ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की अच्छी पतिव्रता महिला, जिसके लिए पति की दासता ही मोक्ष का एकमात्र मार्ग होता है, के बिलकुल उलट रूप में याद किया जाता है.

महिला यौनिकता (सैक्सुअलिटी) पर बल देना कैकेयी के प्रभावशीलता को कम करता है, जो कई जगहों पर प्रदर्शित भी होता है. कहानी में कैकेयी अपने पति दशरथ से जो कुछ भी मांगती है उसके इस अधिकार से इनकार नहीं किया जाता और जा सकता है क्योंकि जब उसने अपने पति की जान बचाई थी तब उसे दो वरदान देने का वादा किया गया था :

जब देवताओं और असुरों का युद्ध हो रहा था तो तुम्हारा पति देवताओं के राजा की सहायता करने के लिए राजसी सिद्ध पुरुषों के साथ गया और वह तुम्हें साथ ले गया … जहां वह घायल होकर बेसुध हो गया था, तब तुमने उसे उस युद्ध से सुरक्षित बाहर निकाला था. जब तुम्हारा पति शस्त्रों से घायल हुआ तब तुमने उसका उद्धार किया ... और इसलिए अपनी कृतज्ञता में उन्होंने तुम्हें दो वरदान दिए. (अयोध्याकांड, 9.9–13)

एक कुलीन महिला जो अपनी रसोई और शयनकक्ष में मिलने वाले आराम की ही आदि हो दशरथ को एक महा युद्ध से कैसे निकाल सकती है? इसका जवाब शायद कैकेयी के नाम में ही निहित है जो कि केकया नाम के स्थान पर रखा गया था. वाल्मीकि की रामायण में अयोध्या के चरम उत्तर-पश्चिम में पांचालदेश और कुरु जंगलों (अयोध्याकांड, 62.10) से परे और बहलिका के इलाके से आगे केकया का पता बताया गया है जहां तक यात्रा करने में भरत को लगभग सात रातें लगती थी. प्रख्यात संस्कृत विद्वान और पुरातत्वविद् एचडी संकलिया बताते हैं कि केकया का जिक्र शतपथ ब्राह्मण (X.6.1–2) और छांदोग्य उपनिषद (V.4) में किया गया है और बाद में पाणिनी (अष्टाध्यायी, 7.3.2) में इसका उल्लेख किया गया है. केकया का प्राचीन समाज योद्धा महिलाओं से भरा हुआ था जो एक कीमत अदा करने पर शादी करती थी.

अयोध्याकांड, 99.5 में धर्म के पालन करने वाले राम भरत को बताते हैं कि मेरे प्रिय भाई बहुत पहले जब हमारे पिता तुम्हारी मां से शादी करने वाले थे तब उन्होंने तुम्हारे नाना को वधू-मूल्य शपथ (दुल्हन खरीदन की एक कीमत) दी थी. और वह मूल्य तुम्हें अयोध्या का राजा बनाने का वचन था जो हमारे पिता ने तुम्हारे नाना को दिया था.

विवाह जो किसी व्यक्ति के सामाजिक-यौन जीवन और अधिकारों की व्यवस्था है, महाकाव्य में भी स्पष्ट रूप से एक समान रूप से चलने वाली संस्था नहीं थी. दुल्हन की कीमत देने की प्रथा जिसे अक्सर असुर विवाह के रूप में जाना जाता है प्राचीन भारत में प्रचलित थी और महाभारत में माद्री का विवाह भी इसका एक उदाहरण है. इसके अलावा महिलाओं के विवाह की शर्तों को निर्धारित करने के अधिकार का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है. उदाहरण के लिए शकुंतला पौरवों के राजा दुष्यंत से कहती है, "मेरा पुत्र जब पैदा होगा वही आपका उत्तराधिकारी और राजा बनेगा... यदि ऐसी शर्त पूरी हो सकती है तो आप मेरे साथ रह सकते हैं" (आदिपर्वन, 67). बाद में कालिदास का नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम महिला अधिकारों की इस धारणा को बदल देता है क्योंकि यह शकुंतला को कम मुखर बनाता है और इसमें राजा द्वारा अपने बेटे को उत्तराधिकारी बनाने के वादे को व्यक्तिगत या राजनीतिक के बजाय एक अभिशाप और धुंधली स्मृति के रूप में दर्शाया गया है.

विवाह के अनेक मानदंड अन्य प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी मिलते हैं जिनमें ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म के नियामक भी शामिल हैं. उदाहरण के लिए विवाह के आठ रूपों का उल्लेख मनुस्मृति में मिलता है लेकिन वे विवाह के पितृवंशीय रूपों के साथ पदानुक्रम में व्यवस्थित होते हैं जिसमें कई प्रकार के कन्यादान शामिल हैं और जिसे उच्च दर्जा दिया जाता है जबकि जहां दुल्हन के संरक्षण का हस्तांतरण नहीं होता जैसे गंधर्व को बहुत नीचे रखा गया है (3.21.45). लोक कथाओं, साहित्य और जनगणना के रिकॉर्ड से पता चलता है कि बाद तक भी दुल्हन का मूल्य देने की प्रथा भारत के कई हिस्सों में जारी रही. 1917 में आए शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के बंगाली उपन्यास में देवदास का चर्चित प्रेम मुसीबत में बदल जाता है क्योंकि दोनों परिवारों के ब्राह्मण होने के बाद भी देवदास का परिवार पार्वती के परिवार को दुल्हन का मूल्य देने की प्रथा का पालन करने के कारण दीन-हीन मानता है.

कैकेयी के पास अपने बेटे के लिए अयोध्या के सिंहासन की मांग करने के प्रथागत (दुल्हन की कीमत) और संविदात्मक (वरदान) दोनों अधिकार थे. कैकेयी को केवल बुरी महिला के रूप में पहचाना जाना विवाह संस्था के भीतर महिलाओं की अनेक भूमिकाओं और अधिकारों में नियमित गिरावट का प्रमाण है. गौरतलब है कि कैकेयी के इतना रोने और कोसने के बावजूद अयोध्या के लोग भरत को अपना राजा मानने से इनकार नहीं कर रहे थे- "हे प्रतापी राजकुमार आपको आज ही हमारा राजा बनना चाहिए और जैसे ही वे भरत के पास पहुंचे प्रजा ने उसी तरह नमस्कार किया जिस तरह वे दशरथ को करते थे." (अयोध्याकांड, 73.1 और 75.10). भरत की अनुपस्थिति में राम का राज्याभिषेक करना दशरथ का जल्दबाजी में लिया गया निर्णय था, जो तब लिया गया था जब भरत शत्रुघन के साथ अपने नाना और मामा से मिलने जाता है. यह तब और संदेहास्पद हो जाता है जब कैकेय को सूचित या आमंत्रित किए बिना किया जाता है:

“मेरा मानना ​​है कि आपके अभिषेक के लिए सबसे अच्छा समय है जब भरत शहर से बाहर हो.” (अयोध्याकांड, 4.25)

रामायण के ये विवरण दशरथ का कैकेयी और केकया से किए अपने वादे से मुकरने को उजागर करते हैं. उदाहरण के तौर पर यह महाकाव्य वंशवाद और उसे मजबूत करने वाली प्रथा, जिसमें सबसे बड़े पुत्र को राज्य विरासत में मिलता है, को सामने लाता है.

पितृवंशीय रीति-रिवाजों से भरी इस दुनिया में कैकेयी ने जो किया वह समस्या पैदा करने वाला था. इस सबको यौन संबंधो में ढ़ालकर देखना पितृसत्ता द्वारा चलने वाले समाज के भीतर महिला सामर्थ्य के अवमूल्यन का संकेत देता है जो जाति और वर्ग पदानुक्रम के साथ मिलकर काम करता है. कैकेयी की वैध मांग को निंदनीय ठहराना भी बहुविवाह संबंधों में फंसी महिलाओं की पीड़ा और चिंताओं को समझना और मुश्किल कर देता है. राजसी परिवारों में बहुविवाह, जहां विवाह भी राजनीतिक गठबंधन होते थे परस्पर विरोधी पक्षों का झगड़ा सुलझाने का एक तरीका होता था. लेकिन इस संदर्भ में महिलाओं की मांगें को महिलाओं के बीच छोटे-मोटे झगड़े के रूप में समझकर खारिज कर दिया जाता था. फिर भी रामायण में ही एक और रानी है जो इस मुद्द पर अपनी आवाज उठाती है. यह राम की मां कौशल्या हैं जिन्हें पारंपरिक और लोकप्रिय रूप से सज्जन, प्रेमपूर्ण, अच्छी पत्नी और मां के रूप में दर्शाया जाता है. रामायण के कई अंशों में वह अपने बेटे राम से कहती है, "लेकिन मुझे जो खुशी और आराम मेरे पति के शासनकल में नहीं मिल सका मुझे उम्मीद थी कि शायद मेरा बेटा मुझे दे सके. राम मैं तुम्हारे पिता की अन्य पत्नियों के साथ नहीं रह सकती" (अयोध्याकांड, 17.20 और 21.15).

और यह वास्तव में आश्चर्यजनक बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि कौशल्या दो नहीं बल्कि तीन सौ पचास सह-पत्नियों में से थी. कैकेयी की तरह कौशल्या भी अपने बेटे के राज्याभिषेक में अपने और अपने साम्राज्य की दया पर चलने वाले अन्य कुलों की भलाई ही देखती थी. बहुविवाह संबंधों में फंसी महिला की परेशानियों और एक मां के अधिकार को रामायण में किनारे पर धकेल दिया गया है और सिर्फ एक पुरूष का अपने पिता या भाई के प्रति भक्ति का गुणगान किया है. अपने अधिकारों का दावा करने वाली कैकेयी को एक बुरी मां के रूप में दिखाया गया है जिसे उसके खुद के बेटे भरत ने भी अस्वीकार कर दिया है क्योंकि उसने कौशल्या के सामने राम के प्रति वफादारी की कसम खाई है. लेकिन यहां तक ​​​​कि अच्छी मां कौशल्या भी ज्यादा बेहतर नहीं है क्योंकि राम के गुणगान में उनके किए कार्यों को छिपा दिया. उनका मानना था कि दशरथ के सभी पुत्रों को तपस्या, वैदिक पाठ और अन्य सभी गुणों में राम के समान होना चाहिए. (अयोध्याकांड, 45.10).

यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि कैकेयी की सलाहकार एक महिला, मंथरा थी जो कैकेयी की पारिवारिक नौकर थी और जन्म के समय से उसके साथ रहती थी" (अयोध्याकांड, 7.1). मंथरा ने ही कैकेयी को भरत के राजा नहीं बनने के नुकसान बताए थे. "राघव राजा होंगे और फिर राघव के पुत्र जबकि भरत को शाही उत्तराधिकार से वंचित कर दिया जाएगा" (अयोध्याकांड, 8.10). मंथरा के राजनीतिक कौशल पर उसे शातिर और द्वेषपूर्ण, पापी कहकर पर्दा खींचा जाता है. उसे एक कुबड़ा के रूप में भी वर्णित किया गया है जिससे शारीरिक स्थिति को नैतिक भ्रष्टता का कारण बनाया जा सके. मंथरा के कूबड़ की निंदा न केवल विकलांगों के लिए कहानी के दृष्टिकोण और उसके ऐतिहासिक मूल्य को उजागर करती है बल्कि कैकेयी का एक सभ्य पक्ष भी दिखाती है जिसे समाज याद नहीं रखता है:

आप हवा में कमल की तरह झुकी हैं ... आपका सीना धनुषाकार है, आपके कंधों जितना ऊंचें है ... और आपका यह विशाल कूबड़ रथ के पहिये के केंद्र जैसा चौड़ा है  आपके चतुर विचार राजनीतिक ज्ञान और जादुई शक्तियां शायद इसमें संग्रहीत होगीं. (अयोध्याकांड, 9.30-4).

मंथरा को केकया की रहने वाली और केकया के स्वार्थ के लिए सेवा करने वाली के रूप में पेश किया गया है. वह जानती थी कि, "जब तक राम वन से लौटेंगे तब तक आपका वफादार पुत्र और उनके समर्थक गहरी राज्य में जड़ें जमा चुके होंगे और जनता के दिल में जगह बना लेंगे" (अयोध्याकांड, 9. 25). लेकिन राजनीतिक सत्ता की इस प्रतियोगिता को महिला की मांगों का साधन बनाकर सांस्कृतिक रूप से अधर्म के रूप में पेश किया गया. इसे राजशाही और पितृसत्ता के उद्भव और बाद में संस्थापन के संदर्भ में विरासत की बहुल परंपराओं के साथ रामायण की एक सौदेबाजी के रूप में पढ़ा जा सकता है.

महिलाओं को कार्रवाई के लिए उकसाने का यह उदाहरण हानिकारक परिणामों से भरा है जब सीता राम को स्वर्ण हिरन लाने के लिए भेजती है. लेकिन इस बार राम अपने पिता की तरह क्रूर राजा होने के कदम पर चलते हैं. और आखिर में सीता को अयोध्या से निकाल दिया जाता है, भले ही राम  स्वीकार करते हैं कि "मुझे दिल से पता था कि सीता शुद्ध थी" (उत्तरकांड, 44.9). कैकेयी के विपरीत कहानी सीता को न केवल कहान से गायब कर दिया जाता है बल्कि पाताललोक तक ले जाया जाता है जहां से उन्हें बिल्कुल भी नहीं सुना जा सकता है. इस प्रकार यहां तक ​​कि उच्च संकल्प रखने वाली महिला (उत्तरकांड, 46.6) की भी अपने पति की राजनीतिक छवि और महत्वाकांक्षा के हित में बलि दे दी जाती है, ताकि कोई यह न कहे:

और राम उसका तिरस्कार कैसे नहीं कर सकते जिन्हें लंका ले जाया गया और उन्होंने जाने क्या-क्या झेला है. राक्षसों के नियंत्रण में अशोक वाटिका में रखा गया. और अब हमें यह अपनी पत्नियों को भी बताना होगा. राजा जो करता है लोग हमेशा उसी का पालन करते है (उत्तरकांड, 42.18-19) और इस तरह महिलाओं के संदर्भ में बात लागू होती है.

शूर्पणखा रामायण की अन्य महत्वपूर्ण प्रवर्तक और आगे की सोच रखने वाली महिला है. घर में तीन सौ पचास सह-पत्नियों और वेश्याओं के साथ रहने वाली अच्छी महिलाओं के विपरीत वह अकेले जंगलों में जहां चाहे वहां जा सकती थी. (अरण्यकांड, 18.2) जंगलो से घिरी महाकाव्य की दुनिया में, जहां पांच अपसराएं एक ऋषि की पत्नियां हैं (अरण्यकांड, 10.16) और अप्सराओं की मंडली आने वाले इक्ष्वाकु सैनिकों की (अयोध्याकांड, 85.54) हर इच्छा पूरी करती है वहां शूर्पणखा अपने यौन संबंधों को लेकर एक के बाद एक, दो आदमियों से अभिशप्त है. उनमें से पहला राम है जो उसका मजाक बनाते हुए बताता है कि वह पहले से ही शादीशुदा है. लेकिन वह उसे छेड़ने के लिए आगे सुझाव देता है कि उसे अपने जैसे सुंदर लेकिन अविवाहित भाई के साथ अपनी किस्मत आजमानी चाहिए. जोकि शायद ऐसी दुनिया के लिए बिल्कुल सही राय है जहां पति का इंतजार करते हुए ही पत्नियां गुमनामी में मर जाती हैं. वहीं लक्ष्मण का आक्रामकता में आकर शूर्पणखा की नाक काटना आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि ब्राह्मणवादी साहित्य में उन महिलाओं के प्रति उन्माद है जो अपनी इच्छाओं और अधिकारों को लेकर जागरूक हैं.

वाल्मीकि की रामायण में शूर्पणखा का परिचय मर्दाना और ब्राह्मणवादी नजरिए से कुरूप और घड़े जैसे पेट वाली, तांबे के रंग के बालों वाली महिला के रूप में दिया गया है (अरण्यकांड, 16.8-10). लेकिन बाद में वह यहां बताए गए झूठे चुलबुले और दुष्ट चरित्र से उलट ही नजर आती है. तुलसीदास द्वारा सोलहवीं शताब्दी में लिखित रामचरितमानस में शूर्पणखा का आकार और चलन अनिवार्य और बेतरतीब रूप से महिला कामुकता को दर्शाता है क्योंकि सुन्दर पुरूष को देखकर चाहे वह उसका अपना भाई हो, पिता हो, पुत्र हो या गरुड़, एक महिला उत्तेजित हो जाती है और अपने जुनून को रोक नहीं सकती.(16.3)

शूर्पणखा के खराब आचरण की नैतिक रूप से मेरे बचपन के रंगों से भरे सचित्र वर्णन में लक्षणों के आधार पर पुष्टि की गई है, साथ ही 1960 के दशक के उत्तरार्ध से प्रचलन में आए अमर चित्र कथा नाम के रामायण के ग्राफिक संस्करण में शूर्पणखा की काली त्वचा, बड़े जानवर जैसे पैने दांत बुराई को स्वाभाविक बनाकर पेश किया गया है. काली त्वचा के इस वर्णन को अन्य प्रचलित शास्त्री कथाओं ने भी मजबूत किया है. जैसा कि देवी पार्वती द्वारा शिव को प्राप्त करने के लिए अपनी काली रंग से छुटकारा पाने के लिए की गई तपस्या में देखा गया था. फिर भी जहां से मैं आती हूं उस क्षेत्र के दो सबसे लोकप्रिय राम, अठारहवीं शताब्दी के रामप्रसाद सेन और स्वामी विवेकानंद के आध्यात्मिक उपदेशक उन्नीसवीं शताब्दी के रामकृष्ण परमहंस देवी काली को मनाते हैं. जादवपुर विश्वविद्यालय में संस्कृत की पूर्व प्रोफेसर सुकुमारी भट्टाचार्जी ने बताया कि नारी, चामुंडा, काली और दुर्गा जैसी देवियों का काला रंग और खौफनाक रूप ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म में अभिरस, शबरस और पुलिंदस जैसे सामाजिक समूहों के शक्तिशाली पौराणिक देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है. काली त्वचा और बिखरे बाल, शराब और मांस का सेवन, जोर से हंसना और शिकारी और योद्धा जैसी पराक्रम जो इन देवी-देवताओं की पहचान है, शास्त्रों में दी गई उनकी शक्ति और लोकप्रियता की स्वीकृति के साथ-साथ ब्राह्मणवाद घृणा की अवधारणा को भी चिह्नित करते हैं. क्या रामायण में दिखाई शूर्पणखा के प्रति नफरत बाकियों की तरह की ऐसी किसी कथा से उपजी हो सकती है?

शूर्पणखा राम और लक्षमण से जंगल में मिलती है और जंगल को अयोध्या में भयानक और डरावना माना जाता है. (अयोध्याकांड, 4.2 और 25.5) लेकिन यह भयानक जंगल भी एक विवादित इलाका है क्योंकि यहां अधिकतर पूजा की जाती रही है जिससे होने वाली ब्रह्म की आवाज जंगल में गूंजती है यहां पवित्र आश्रमों की पूरी श्रृंखला है जिसे (अरण्यकांड, 1.5 और 1.9) राक्षसों से बेहद खतरा है. लेकिन महाकाव्य में जंगलों में ही राक्षसों से सामना क्यों होता है. यह एक ऐसा सवाल है जिसे पूछने की जरूरत है. रामायण में बताए गए जंगल मुख्य रूप से धर्म और अधर्म के बीच युद्ध के मैदान के रूप में प्रयोग किए जाते हैं. और जो शायद नैतिकता को आजमाने के मैदान से कहीं अधिक हैं. यह सुनहरे चावल की पैदावार करने वाली (अरण्यकांड, 15.17) अनमोल भूमि है जिसके लिए अयोध्या के राजा पहले से ही निवासियों से कर वसूलते थे. हालांकि इसे लेकर स्वामित्व का विवाद रहा हो क्योंकि राक्षस भी यहां अपना आश्रय होने का दावा किया है.( अरण्यकांड, 16.11) उन्होंने भारत के दक्षिणी क्षेत्र में जहां अगस्त्य का आश्रम था अपना अधिकार छोड़ दिया था (अरण्यकांड, 10.80–2) लेकिन जनस्थान पर राक्षसों की टुकड़ी (अरण्यकांड, 17.25) का कब्जा माना जाता था, जो इक्ष्वाकु के वंश की जगह पौलस्त्य के प्रति वफादार थे जिसका मुखिया रावण था. महाकाव्य का अंतिम भाग उत्तरकांड राक्षसों की वंशावली का वर्णन करता है जिसमें पुलस्त्य को ब्रह्मा के दादा बताया गया है. (2.4)

राक्षसों की मजबूत शक्ति से इनकार नहीं किया जा सकता था इसलिए जंगल में रहनेवाले सन्यासियों को अपनी रक्षा के लिए (अरण्यकांड, 5.4-5) राम से राक्षसों का सर्वनाश करने की लिए अपील करने की जरूरत पड़ी. बिना किसी प्रकार की सुरक्षा प्रदान किए राजा द्वारा कर के रूप में फसल का छठा भाग लेना एक तरह से अनैतिक होगा. राम ही थे जो जंगल में भी राजस्व इकट्ठा करने के सही तरीके जानते थे. (अयोध्याकांड, 1.20) और जिन्हें सीता द्वारा बिना किसी उकसावे के लापरवाही से हिंसा करने के लिए फटकार भी पड़ती है…

मुझे डर है कि किसी भी वनवासी को देखकर आप अपना तीर चलाने के लिए मजबूर हो सकते हो ... बिना किसी कारण और उकसावे के क्या आपको अपना धनुष उठाना चाहिए. आपको अपना ध्यान राक्षसों का विनाश करने पर मोड़ना चाहिए ... न की जिन्होंने कोई गलत काम नहीं किया उनपर. (अरण्यकांड, 8.6 और 11.23).

जो बात यहां निकलकर आती है वह यह है कि वन में रहने वाले लोग जो ब्राह्मणों के अतिक्रमण का विरोध करते थे, क्योंकि उनकी अग्नि पूजा हरे-भरे निवास स्थान को संभावित रूप से नुकसान पहुंचाती थी, उन्हें राक्षस की संज्ञा दे दी जाती थी. रोमिला थापर ने महाकाव्य में राज्य और जंगल के बीच खोज करते हुए बताया है कि विंध्य क्षेत्र में राक्षस शब्द का अर्थ शायद ताम्रपाषाण संस्कृतियों और सहस्राब्दी ईसा पूर्व में काले और लाल दिखने वाले लोगों के रूप में पहचाना गया. पुराणों का कहना है कि राम का जंगल में निर्वासन करने के बाद जंगल राक्षसों से मुक्त हो गया था, जहां बाद में राम के पुत्र कुश और उनके वंशजों द्वारा एक राज्य की स्थापना कर संचालन किया गया था. यह राक्षस मध्य में स्थित गंगा घाटी की नदियों और जंगलों की प्रारंभिक और अल्पविकसित कृषि संस्कृतियों से भी हो सकते हैं जो उस समय तक आर्यों के लिए विदेशी जैसे थे, जैसा कि शूर्पणखा नाम से भी पता चलता है- सूप की तरह नाखून वाली एक महिला. थोड़ी संस्कृत का ज्ञान होना भी थोड़ी लैटिन का ज्ञान होने जितना ही खतरनाक होता है क्योंकि हम में से अधिकांश यह मानते हैं कि शूर्पणखा नाम उसके नुकीले नाखूनों या उसकी नुकीली पर रखा गया है.

राक्षसों का मूल और ऐतिहासिक स्थान जो भी रहा हों, वे ब्राह्मणों और उनके आश्रमों के निरंतर अतिक्रमण को चुनौती देने और लालची शासकों से जंगल को बचाने का काम करते थे जो वन में रहने वाले लोगों और आदिवासी समुदायों की द्वेषपूर्ण पौराणिक कथाओं के माध्यम से ब्राह्मण साहित्य में लगातार बढ़ते रहे और आखिर में भूमि के मूल निवासी बड़ी सफाई से अपनी ही जमीन पर बाहरी बन जाते हैं. पौराणिक कथाओं में निषाद समुदाय को छोटे और काले होने के कारण राजा वेना की जांघ से पैदा होने वाले समुदाय माना गया जो ब्राह्मणों से बिलकुल विपरीत माने जाते हैं इसके अलावा गुप्त काल के अभिलेखीय रिकॉर्ड भी वन जनजातियों के खिलाफ हिंसा का उल्लेख करता है. इस मामल में ब्राह्मणवादी कथाओं में राक्षसों को मुख्य रूप से कच्चा मांस खाने और जंगल में महिलाओं के स्वतंत्र रूप से अकेले आने-जाने के संदर्भ में भी अपमानित किया गया है.  (अरण्यकांड, 9.11) (अरण्यकांड, 16.18).

राक्षसों को अत्यधिक इच्छा से जोड़कर देखा जाता था खासकर कामेच्छा से और वाल्मीकि की रामायण में अयोध्या और लंका के बीच एक पहली अंतर कामुक विलासिता है जिसे बाद में सजीव ढ़ंग से सुंदरकांड में हनुमान सीता की खोज के रूप में वर्णित किया गया है. वाल्मीकि की घड़े जैसे पेट वाली शूर्पणखा प्रतीकात्मक रूप से अत्यधिक इच्छा की ओर इशारा करती है जो लक्ष्मण को दिए राम के निर्देश को भी सही ठहराती है:

"मेरे शेर भाई मटके जैसे पेट वाली इस कुरूप और कामुक महिला को खत्म कर दो. (अरण्यकांड, 17.20).”

और फिर भी दो पुरुषों के बीच फंसी हुई शूर्पणखा बदला लेने की अपनी साजिश को अंजाम देने के लिए सीता का उपयोग करती है. यह शूर्पणखा द्वार रावण को बताया हुआ सीता का एक कामुक वर्णन ही था जो अपहरण और युद्ध का कारण बनता है. शूर्पणखा अपनी योजना में सफल तो हो जाती है लेकिन केवल तभी तक, जब तक हवा की तरह फैलती आग ने लंका को आगोश में नहीं ले लिया. (सुंदरकांड, 52.9) जिस कारण उसे न केवल पागल बल्कि दोषी भी ठहराया गया:

यह हमारी जाति का दुर्भाग्य ही है कि सफेद बालों वाली बुढ़िय जो राघव से निपटने के लिए इतना अनुपयुक्त थी, उसे वहां जाने के लिए कहा गया. यह एक अनुचित और हास्यास्पद कार्य था, जिसकी सभी ने निंदा की और इसने दुसाना, खारा और अन्य सभी राक्षसों को नष्ट कर दिया. (उत्तरकांड, 82.9-10).

शांति के लिए महिलाओं के एकजुट होने की आवश्यकता वाल्मीकि की रामायण में दिया गया एक महत्वपूर्ण नैतिक सबक है जिसमें समकालीन समय के लिए जरूरी सीख छुपी है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि यह संदेश लंका पर राम की जीत के बाद सीता द्वारा दिया गया क्योंकि वह उन राक्षसों को दंडित नहीं करना चाहती थी जो उन्हें धमकाते और पीड़ा देते थे:

एक महान व्यक्ति कभी भी बुराई करने वालों से उस बुराई का बदला नहीं लेता" (युद्धकांड, 101.35) सीता की नजर में राक्षस भी राज्य के नागरिक थे. (युद्धकांड, 101.30) और इस प्रकार अत्यधिक लोकप्रिय रामायण विभिन्न तरीकों से एक प्रासंगिक और शक्तिशाली कथा बनी हुई है. इसका अनोखा आधार एक निर्मित परंपरा के नाम पर जो जाति और लिंग के संरक्षकों ने खारिज कर दिया था उसे फिर से पाने में मदद करता है.

यह कहा जाता है, जो सही भी है कि भारतीय साहित्यिक इतिहास की सबसे विशिष्ट और अनूठी विशेषताओं में से एक रामकथा की निरंतरता और विभिन्न धार्मिक परंपराओं में कहानी को प्रदर्शित करने के विभिन्न तरीके हैं. हालांकि क्या महिलाओं के बिना रामायण की कल्पना करना संभव है : न कोई कैकेयी न शूर्पणखा और न ही सीता? और फिर भी जब रामायण में महिलाओं की बात आती है तो सोलहवीं शताब्दी के कुछ उदाहरणों पर आकर ध्यान रुक जाता है: क्रमशः बंगाली और तेलुगु में चंद्रबती और मोल्ला के उपन्यास क्या यह नहीं बताते कि इन कहानियों में लेखक युद्ध पर केवल सरसरी तौर पर लेकिन सीता के दुख पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है. और बाद में सीता को निर्दयता से अस्वीकृति देने से इनकार करता है?

मोल्ला ने कहा, "एक कविता हमेशा तुरंत समझ में आने वाली होनी चाहिए लेकिन अगर उसकी चेतना से छेड़छाड़ की गई हो तो हम उसे कैसे समझेंगे?” रामायण से संबंधित महिलाओं के लोक गीतों को संग्रहित करने वाली नबनीता देव सेन कहती हैं कि बंगाली गानों में अक्सर राम को सीता का छोड़ देन के लिए पापी-पापी और पत्थर जैसे दिल वाला कहा गया है जबकि मराठी गीत एक बहन की तरह सीता का दुख बांटने वाले और महिलाओं को प्रोत्साहित करने वाले होते हैं. लेकिन इन आवाजों लौकिक और देसी को रामायण जैसे प्रमुख शास्त्रिक कथाओं तक पहुंचने की अनुमति नहीं है जहां राम की वापसी को एक शुभ अवसर के रूप में देखा गया जहां सीता ने बेटों को जन्म दिया. (उत्तरकांड, 41.15).

मुझे याद है कि 1990 के दशक की शुरुआत में बहुभाषी और मानवतावादी विद्वान शिशिर कुमार दास ने शास्त्रीय साहित्य पर एक कार्यक्रम के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के एक समूह को संबोधित करते हुए पूछा, "आप में से कितने लोग रामायण के बारे में जानते हैं?" आपसी भिन्नताओं के बावजूद हम सबने हाथ खड़े कर दिए थे. अपनी आंखों में एक चमक के साथ उन्होंने आगे पूछा, "और आप में से कितने लोगों ने रामायण पढ़ी है?" इस बार शायद ही किसी ने हाथ उठाया था. सभी का माना था कि वह संस्कृत में लिखी मूल रामायण की बात कर रहे थे, जबकि हमने असंख्य शैलियों में इसे पढ़ा, सुना और देखा था.

यह समय हिंदू धर्म के केंद्र में मौजूद और कई रामायणों में साफ तौर पर दिखने वाली सार्थकता की श्रृंखला को तोड़ने और बहुस्वरता को मजबूत करने का है. परंपरा के नाम पर इस समाज को जो आकार दिया गया है जाति-पितृसत्तात्मक पर आधारित समाज की अच्छी महिलाओं के उलट हमें उसके हाशिए को तलाशने और सवाल उठाने की जरूरत है. (अयोध्याकांड, 14.1) यह एक ऐसा रास्ता है जिससे शक्तिशाली लोग भी बचकर निकल गए.

रामायण के अंत में सीता ने अपने परित्याग का विरोध करते हुए पूछा था, मैंने क्या पाप किया था, या मैंने किसे उसकी पत्नी से अलग किया कि मुझ निर्दोष, गुणी आचरण वाली पत्नी को इस धरती के स्वामी ने त्याग दिया? (उत्तरकांड, 47.4)
वहीं समकालीन दलित और नारीवाद की आवाज को उठाने वाली हीरा बंसोडे भी इतने शक्तिशाली रूप से अपनी कविता में सवाल उठाती हैं :

शबरी

तुमने बेर खिलाने के बजाय

भूत और भविष्य दोनों जानने वाले आपने सर्वज्ञ राम से

एकलव्य के अंगूठे के हृदयविदारक बलिदान के बारे में,

निर्दोष सीता के निष्कासन के बारे में

क्यों नहीं पूछा?

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सास्वती सेनगुप्ता दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाती हैं. उनका सबसे हालिया काम है म्यूटेटिंग गॉडेस: बंगाल्स लौकिक हिंदूइज्म एंड जेंडर राइट्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित.

Osheen Siva is a multidisciplinary artist from Tamil Nadu, currently based in Goa. Through the lens of surrealism, speculative fiction and science fiction and rooted in mythologies and her Dalit and Tamilian heritage, she imagines new words of decolonised dreamscapes, futuristic oasis with mutants and monsters and narratives of feminine power.