15वीं सदी में कबीर ने ठेठ बनारसी में लहजे में कहा था, “तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन की देकी. मैं कहता सुरझावनहारी, तू देता उरझाई रे.”
कागज पर काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के आसरे जिस ऐतिहासिक विकास का सब्जबाग पूरे देश को दिखाया जा रहा है, दरअसल वह विकास के नाम पर एक खतरनाक उलझन पैदा करती है. वहीं दूसरी ओर बिना किसी उलझन के हमारी आंखें विकास के इस सरकारी भ्रम को अयोध्या से 200 किमी दूर काशी में दूसरे अयोध्या के रुप में कॉम्युनल कॉरिडोर की खिंची जा रही लकीर की शिनाख्त कर रही हैं.
सरकारी परियोजना काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के तहत 600 करोड़ की लागत से काशी विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानव्यापी मस्जिद के पूर्वी छोर और मणिकर्णिका घाट के बीच अब न तो छोटी गलियां बची हैं और न ही गलियों में समाया हुआ कोई मोहल्ला. यहां न कोई मकान-दुकान है और न लोग रह गए हैं. 600 परिवारों के विस्थापन और परंपरागत रोजगार एवं हजार सालों से गंगा के तट पर जीते आ रहे समाज के ध्वंस के बाद और जमींदोज किए जा चुके 300 मकानों के रास्ते अब जो दिखता है तो वह समतल हो चुका खुला मैदान है. इस समतल मैदान के जरिए ही एक-डेढ़ किमी दूर मणिकर्णिका के घाट से अब जो दिखता है वह है काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का साथ-साथ होना.
मंदिर-मस्जिद के साथ-साथ होने में हमारी मजहबी सियासत को अपना एक सुनहरा भविष्य दिख रहा है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 24 फरवरी 2017 को तमिलनाडु के कोयंबटूर में शिवभक्तों की सार्वजनिक सभा में जो कहा वह भी इसी ओर इशारा करता है. मोदी ने उस भाषण में काशी से कोयंबटूर का जिक्र करते हुए दावा किया कि “यह काशीविश्वनाथधाम एक प्रकार से भोले बाबा की मुक्ति का पर्व है. ऐसे जकड़ा हुआ था हमारा बाबा, चारों तरफ दीवारों में फंसा हुआ था”. मोदी ने आगे दावा किया, “कितने सदियों से यह स्थान दुश्मनों के निशाने पर रहा. कितनी बार ध्वस्त हुआ, कितनी बार अपने अस्तित्व के बिना जिया, लेकिन यहां की आस्था ने उसको पुनर्जन्म दिया, पुनर्जीवित किया, पुनर्चेतना दी.”
इस परियोजना का शिलान्यास करने के दूसरे दिन मोदी ने ट्वीटर पर एक वीडियो साझा किया जो काशी विश्वनाथ धाम कॉरीडोर के सरकारी विजन का डिजिटल संस्करण था. इस वीडियो में काशी विश्वनाथ के आसपास बड़ा खुला परिसर देखा जा सकता है जिसमें प्रदर्शन स्थल, पुस्तकालय, दर्शनार्थियों के लिए खरीदारी की जगह, मंदिर के कर्मचारियों के कार्यालय और “मंदिर चौक” को देखा जा सकता है. आंखों पर जोर देने पर ज्ञानवापी मस्जिद भी वीडियो में देखाई पड़ती है जबकि आसपास के दूसरे स्थलों को सफाई से, नामों के साथ, दिखाया गया है. काशी विश्वनाथ धाम कॉरीडोर के डिजाइन और योजना का श्रेय गुजरात की कंपनी एचसीपी को दिया गया है.
काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत राजेन्द्र तिवारी कहते हैं, “पिछले 8-10 साल में दक्षिण भारतीयों का काशी में आगमन पांच से दस गुना बढ़ गया है”. बीएचयू के अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर अचल गौड़ भी मानते हैं कि बनारस में अब हर दिन लगभग 100 बसें दक्षिण भारत से आ रही हैं जो अपने आप में आश्चर्य की बात है.
ज्ञानवापी मस्जिद से कोई आधे किमी की दूरी पर मौजूद विश्वनाथ संस्कृत लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन सुधांशु तिवारी बताते हैं, “पहले चारों तरफ से घिरे हुए थे तो उतना दिखता नहीं था, अब चारों तरफ से खुल जाएगा तो सामने दिखने लगेगा”. वहीं सुधांशु तिवारी बाबरी जैसी घटना यहां पर घटने से इनकार भी नहीं करते. हिंदू सांप्रदायिकता की सियासत ने जिस तरह से 1992 में बाबरी के ढांचा गिराने के बाद पूरे उत्तर भारत में एक निर्णायक मौजूदगी दर्ज करने में सफलता पाई, ठीक उसी तर्ज पर हिंदू सांप्रदायिकता की सियासत ज्ञानवापी मस्जिद को ध्वंस कर दक्षिण भारत में अपनी मौजूदगी दर्ज करने की फिराक में है.
जब बनारस में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के शिलान्यास के मौके पर खुद नरेन्द्र मोदी काशी विश्वनाथ के तथाकथित ऐतिहासिक विध्वंस करने की कहानी कहने और आक्रमणकारी के तौर पर दुश्मनों के बारे में दुनिया को बताना नहीं भूलते हैं तो फिर शक को सच मानने में देर नहीं लगती. वैसे तो सरकारी तौर पर कागजों में कॉरिडोर का मकसद बताया गया है कि गंगा के तट से काशी विश्वनाथ मंदिर आने में कोई दिक्कत नहीं हो और दर्शानार्थी गंगा के घाट से काशी विश्वनाथ मंदिर को साफ-साफ देख सकें. अब तक आधिकारिक रूप में ज्ञानवापी मस्जिद का किसी तरह से जिक्र नहीं हुआ है.
ज्ञानवापी मस्जिद की मौजूदगी के जमीनी मायने की बात करें तो काशी विश्वनाथ और ज्ञानव्यापी मस्जिद के बीच की दूरी महज 10 मीटर है. यहां पर सुन्नी वक्फ बोर्ड की तीन संपत्तियां, प्लॉट न. 9130, 8263 और 8276, हैं. ज्ञानव्यापी मस्जिद एक बीघा, 9 विस्वा और 6 धूर वाले प्लॉट न. 9130 पर खड़ी है. बाकी के दो प्लॉट भी इसी के आस-पास हैं. दिसंबर 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमिटी, वाराणसी ने मस्जिद के उतरी-पूर्वी छोर पर मौजूद प्लॉट न. 8276 ज्ञानवापी मस्जिद की सुरक्षा के लिए 1993 में आधिकारिक तौर पर जिला प्रशासन को सौंप दिया जो आज भी जिला प्रशासन के पास है. मस्जिद के उतरी छोर पर प्लॉट न. 8263 है, जिसे “छत्ता द्वार चबूतरा” कहते हैं.
कानूनी तौर पर पहला विवाद 1936 में उस वक्त शुरू हुआ जब कुछ स्थानीय लोगों ने मस्जिद और मस्जिद के आस-पास की जमीन पर अधिकार के लिए, बनारस की सिविल कोर्ट में एक याचिका दाखिल की. लेकिन 1937 में सिविल कोर्ट ने न सिर्फ मस्जिद और मस्जिद के आस-पास फैली कब्र की जमीन को वक्फ बोर्ड की संपत्ति माना बल्कि स्थानीय मुसलमानों को मस्जिद के पश्चिमी छोर पर बने दो कमरे में साल में एक बार उर्स मनाने का अधिकार भी दिया. इस बीच बनारस में मुसलमानों की कुल आबादी 3.5 लाख के आस-पास है. ज्ञानवापी मस्जिद के इमाम और शहर के मुफ्ती अब्दुल बातीन नोमानी कहते हैं, “जब से मस्जिद कायम हुई है तब से वहां नमाज अता की जा रही है.” मंदिर-मस्जिद के तमाम ऐतिहासिक विवाद पर पूर्णविराम लगाते हुए सन 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने उपासना स्थल विशेष उपबंध अधिनियम 1991 कानून बनाया. इस कानून की धारा 4 में साफ कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 को मौजूद उपासना स्थल का धार्मिक स्वरुप वैसा ही बना रहेगा जैसा वह उस दिन मौजूद था. साथ में यह भी प्रावधान किया गया है कि अयोध्या को छोड़ देश के अन्य हिस्सों में 15 अगस्त 1947 से मौजूद कोई भी उपासना स्थल न्यायिक विवाद की सीमा में नहीं होगा तथा पहले से चल रहे न्यायिक विवाद मान्य नहीं होंगे और न ही उपासना स्थल से किसी प्रकार की छेड़छाड़ मान्य होगी.
इस कानून के बावजूद 1991 में आरएसएस से जुड़े पंडित सोमनाथ व्यास ने प्राचीन मूर्ति स्वंयभू भगवान विश्वेश्वर के तौर पर अंजुमन इंतजामिया मस्जिद को पक्ष बनाते हुए स्थानीय अदालत में याचिका दाखिल की और मांग की कि मस्जिद की जमीन मंदिर को सौंप दी जाए. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए स्थानीय अदालत ने फैसला दिया कि गवाही के जरिए पता लगाया जाएगा कि ज्ञानवापी मस्जिद 15 अगस्त 1947 में थी या नहीं. अंजुमन इंतजामिया मस्जिद ने उपासना स्थल विशेष उपबंध अधिनियम 1991 कानून का हवाला देते हुए स्थानीय अदालत के फैसले पर रोक लगाने की याचिका इलाहाबाद हाईेकोर्ट में दाखिल की. मई 2018 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस याचिका की सुनवाई करते हुए स्थानीय अदालत के फैसले पर स्टे लगा दिया. फिर पंडित सोमनाथ व्यास परिवार के जितेंद्रनाथ व्यास ने अक्टूबर 2018 में ज्ञानवापी मस्जिद की सुरक्षा की गुहार अंजुमन इंतजामिया मस्जिद के साथ सुप्रीम कोर्ट में की. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद की सुरक्षा पर सरकार की दलील को स्वीकर करते हुए याचिका को खारिज कर दिया. 1996 विश्व हिंदू परिषद से जुड़े शिव कुमार शुक्ला ने स्थानीय अदालत में याचिका दाखिल कर मस्जिद से लगे श्रृंगार गौरी पर पूरे साल जलाभिषेक करने की अनुमति मांगी थी जिसे आदालत ने स्वीकार नहीं किया. श्रृंगार गौरी पर साल में एक दिन चैत्र नवरात्रि की चतुर्थी पर पूजा करने की परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है. इस पर कोई विवाद नहीं है.
1992 में बाबरी के ढांचा गिराने के बाद जमीनी तौर पर सांप्रदायिक विवाद की घटनाएं घटित होनी शुरु हो गईं. 1992 के बाद ज्ञानवापी मस्जिद की सुरक्षा में 2400 पुलिस बल, एक आईपीएस, एक आईएएस, एक मजिस्ट्रेट, दो सीओ, तीन इंस्पेक्टर, एलआईयू, बम डिस्पोजल टीम, ब्लैक कैट कमांडो, पीएसी और स्थानीय पुलिस की तैनाती 24 घंटे रहती है. लेकिन मंदिर के महंत राजेंद्र तिवारी पुलिस की इस भारी-भरकम तैनाती को “जादे जोगी मठ उजाड़” की संज्ञा मानते हैं. तिवारी कहते हैं, “1992 से पहले इस मस्जिद में देखभाल के नाम पर सिर्फ एक चौकीदार रहता था.” अंजुमन इंतजामिया मस्जिद के ज्वाइंट सेक्रेटरी एस. एम. यासीन बताते हैं कि 1995 में विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल और उमा भारती सावन के महीने में मस्जिद की पश्चिमी दीवार के पास जलाभिषेक की एक नई परंपरा स्थाई तौर पर शुरू करना चाहते थे जिसे स्थानीय प्रशासन ने सफल नहीं होने दिया और फिर 1996 में प्रशासन ने मंदिर मस्जिद के बीच लोहे की बैरिकेडिंग कर दी. महंत राजेंद्र तिवारी बताते हैं कि कोई 15 साल पहले मंदिर के कार्यपालक अधिकारी एस. के. पांडे ने मंदिर के शिवलिंग को ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में फेंक दिया. गलती पकड़े जाने पर इस अधिकारी को तत्काल निलंबित कर दिया गया. बीते एक साल में दो मह्त्वपूर्ण घटनाएं घटीं.
अंजुमन इंतजामिया मस्जिद के संयुक्त सचिव एस. एम. यासीन के अनुसार 25 अक्तूबर 2018 को कॉरिडोर से जुड़े सरकारी अधिकारियों के इशारे पर मस्जिद के उत्तर में स्थित छत्ता द्वार के चबूतरे को तोड़ने की कोशिश की गई. स्थानीय मुसलमानों को इसकी भनक लगी और प्रशासन के खिलाफ लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया. विरोध के चलते प्रशासन को दुबारा छत्ता द्वार के चबूतरे की मरम्मत करानी पड़ी. इसके बाद, 2 मार्च 2019 को कुछ लोगों ने प्रशासन की मदद से मस्जिद की दीवार के पास एक गड्ढा कर नंदी देवता की एक पुरानी मूर्ति को गाड़ने की कोशिश की. इन लोगों को ऐसा करते रंगे हाथ पकड़ा गया. एस. एम. यासीन बताते हैं कि हाल के दिनों में मस्जिद के उत्तर में सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण कर्माइचल लाइब्रेरी की बिल्डिंग को भी गिराने की कोशिश की गई, जिसका उस लाइब्रेरी में रह रहे सुरक्षाबलों ने भी विरोध किया है. उनका कहना है कि अगर इस लाइब्रेरी की बिल्डिंग को गिरा दिया जाता है तो हम मस्जिद की सुरक्षा करने में असमर्थ हो जाएंगे.
वहीं यासीन बताते हैं कि जब नरेन्द्र मोदी इस साल कॉरिडोर के शिलान्यास के लिए यहां पहुंचे तो बिना इजाजत मस्जिद की जमीन का इस्तेमाल सभा के लिेए हुआ. इस हालात में मस्जिद के इमाम अब्दुल बातीन नोमानी बाबरी जैसी घटना दुबारा घटित होने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं. महंत राजेन्द्र तिवारी बताते हैं कि पहले से चली आ रही परंपरा के विपरीत इन दिनों मंदिर का द्वार शयन आरती के बाद भी 24 घंटों खुला रहता है. इसी तरह की चालबाजी दिसंबर 1949 में बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखने से अपनाई गई थी. 22-23 दिसंबर 1949 की रात प्रशासन के सहयोग से बाबरी मस्जिद के अंदर जबरन मूर्ति रख दी गई और फिर भारी भरकम प्रशासन की मौजूदगी के बावजूद 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया. तिवारी बताते हैं कि जब बाबरी मस्जिद गिराई गई थी तो पूरा बनारस दो महीने तक दंगों की चपेट में था. कई लोग मारे गए थे और शहर की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी.
राजेन्द्र कहते हैं कि एक बार सुप्रीम कोर्ट बाबरी मामले पर फैसला सुना दे तो सरकार के पास इस मामले पर राजनीति करने के लिए कुछ नहीं बचेगा. वह कहते हैं, इनके पास राम नहीं रहेंगे ...ये बेरोजगार हो जाएंगे.
ज्ञानवापी मस्जिद को कब्जाने की कोशिश से समझ आता है कि इसका उददेश्य इलाके में भारी संख्या में हिंदुओं की उपस्थिति को सुनिश्चित करना है. पूर्व महंत राजेन्द्र कहते हैं, “पूरा का पूरा एरिया खाली करने का क्या मतलब है? आप को पांच लाख लोगों को इक्ट्ठा करना है. तीन लाख लोग जब आएंगे तो यहां का माहौल दूसरा हो जाएगा, यहां का वातावरण बदल जाएगा”. वहीं यासीन को भरोसा है कि “मस्जिद के विध्वंश में मुकामी लोग नहीं शरीक होंगे. जो आएंगे वह बाहर से आएंगे”.