कोरोना लॉकडाउन में मस्जिद और गुरुद्वारा आए साथ, भूखे मजदूरों के लिए शुरू की साझी रसोई

कोविड-19 लॉकडाउन में असलम चौधरी, हरबंस सिंह और सुरेंद्न सिंह कालू सराय मस्जिद परिसर में प्रवासी मजदूरों के लिए खाना बनाते हैं. वे शाहपुर जाट, हौज खास गांव, महरौली, बेगमपुर और कालू सराय में प्रवासियों के लिए 600 से 700 पैकेट भोजन पहुंचाते हैं. शाहिद तांत्रे/कारवां

कोविड-19 लॉकडाउन के चलते भूख से बेहाल प्रवासी मजदूरों को खाना खिलाने के लिए दक्षिणी दिल्ली के कालू सराय इलाके में मस्जिद और गुरुद्वारा एक साथ आए हैं. 30 मार्च से ही कालू सराय गांव के गुरुद्वारा श्री सिंह सभा के 2 सेवादार, हरबंस सिंह और सुरेंद्र सिंह, हर रोज सुबह 9 बजे पास की मस्जिद में जा रहे हैं. जब तक वे मस्जिद पहुंचते हैं पड़ोस के ही असलम चौधरी तथा कुछ अन्य लोग गोदाम से चावल का एक बैग निकाल चुके होते हैं, सब्जियों की कटाई और मसालों को छांटना शुरू हो चुका होता है. प्याज, टमाटर, आलू, फल्ली, गाजर और हरी मटर को काटकर तैयार हो चुका रहता है और अदरक और लहसुन का बारीक पेस्ट मिक्सर में बन गया होता है. अब इन्हें तेल में डाला जाएगा. यह मैन्यू मोटे तौर पर हर दिन का है यानी अलग-अलग सब्जियों का पुलाव, हालांकि रोज-रोज के खाने में कुछ सब्जियां जरूर बदल जाती हैं. सोयाबीन के टुकड़े गाजर और फल्ली की जगह ले लेते हैं, या इसके बजाय वे दाल डालकर खिचड़ी बनाते हैं. चौधरी ने कहा, "चावल पकाना और पैक करना आसान है और पुलाव पौष्टिक होता है." उन्होंने कहा कि अगर दिल्ली की झुग्गियों या शहर भर में फैले मजदूरों को खाना खिलाना है तो ऐसा करना ही पड़ेगा.

24 मार्च को, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोविड-19 के प्रसार का मुकाबला करने के लिए 21 दिनों के राष्ट्रव्यापी बंद की घोषणा की. अगले दिन रिपोर्टें आने लगीं कि दिल्ली और मुंबई जैसे शहरी केंद्रों से हजारों मजदूर पड़ोस के राज्यों में अपने घरों तक पहुंचने के लिए सैकड़ों मील की यात्रा पर निकल पड़े. ऐसे शहरों में बिना निश्चित आय वाले लोगों, जैसे दिहाड़ी मजदूर, झुग्गी-झोपड़ियों के निवासी और शारीरिक श्रम में लगे लोग- ने देखा कि धंधों, कारखानों और छोटे स्तर की विनिर्माण इकाइयों के बंद हो जाने से उनकी आय का जरिया बंद हो गया है. समाचारों की रिपोर्ट के अनुसार इन शहरों में बेरोजगारी और भुखमरी का संकट पैदा हो गया है. दिल्ली सरकार ने तब से कुछ कदमों की घोषणा की है, जैसे कि 4 लाख लोगों को खिलाने के लिए 500 भूख राहत केंद्र स्थापित करना और भूख हेल्पलाइन शुरू करना. राष्ट्रीय राजधानी के कई हिस्सों में, नागरिक-समाज समूह, व्यक्ति और धार्मिक संस्थान जैसे मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे हजारों मजदूरों को खिलाने की जिम्मेदारी उठाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ये ऐसे प्रयास हैं जिन्हें उस पैमाने की कमी और पहुंच का सामना करना पड़ रहा है जो सरकार प्रदान कर सकती है.

जब मैं 31 मार्च को मस्जिद में चौधरी से मिला तो उन्होंने कहा, "स्थिति बहुत खराब है. मुझे दक्षिण दिल्ली के महरौली, हौज खास गांव, बेगमपुर से भोजन के लिए बहुत हताशा भरे फोन आ रहे हैं." मोदी की लॉकडाउन की घोषणा के दो दिन बाद 26 मार्च से चौधरी की रसोई शुरू हुई. चौधरी एक मेस चलाते हैं और कैटरिंग का व्यवसाय करते हैं. वे ज्यादा मात्रा में खाना पकाना जानते हैं. शुरू में उन्होंने प्रवासियों के लिए खाना पकाने के लिए कुछ लोगों को काम पर रखा था लेकिन वे उनके द्वारा बनाए गए भोजन से खुश नहीं थे. पास के गुरुद्वारे में लंगर की बात करते हुए उन्होंने कहा, “लंगर बंद है, इसलिए मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं उनके बर्तन उधार ले सकता हूं. वे सहमत हो गए." चौधरी ने कहा कि गुरुद्वारे ने उन्हें दो बड़े बर्तन भेजे हैं - एक बड़ा भगोना, जिसमें 25 किलोग्राम चावल बन सकते हैं और एक छोटा भगोना जिसमें 10 किलोग्राम तक चावल बन सकता है. गुरुद्वारे ने दो रसोइयों को भी भेजा, जो खाना बनाने में चौधरी की मदद कर सकते थे. रसोइया, सुरेंद्र सिंह के साथ आए लंगर सुपरवाइजर हरबंस सिंह ने कहा, "हम यहां जो कर रहे हैं, वह लंगर में हम जो करते हैं उससे बहुत अलग नहीं है. यह ईश्वर की कृपा है और जब तक लॉकडाउन जारी है हम सेवा करेंगे."

चौधरी पहले दिन बेसमेंट में स्थित अपनी मेस में खाना बना रहे थे और गुरुद्वारा के कर्मचारी भी उनके साथ हो गए. चूंकि बेसमेंट में अंधेरा और घुटन थी इसलिए अगले दिन ही उन्होंने रसोई को अब खाली पड़ी मस्जिद में स्थानांतरित कर दिया. जिस दिन मैंने वहां का दौरा किया तो 10 बजे तक 10 किलोग्राम आलू, 7 किलोग्राम टमाटर और प्याज और ढाई-ढाई किलोग्राम गाजर, बीन्स और मटर पकने के लिए तैयार थे. चावल को पानी में भिगो दिया गया था और देगजी तैयार की जा रही थी. सुरेंद्र सिंह, जिन्हें कालू सराय में बिल्ला के नाम से जाना जाता है, खाना बना रहे थे. बिल्ला एक स्कूल में काम करते हैं और अपना बाकी समय गुरुद्वारे के लंगर में बिताते हैं. चूंकि स्कूल और गुरुद्वारा दोनों बंद हो गए थे तो वे अपनी सेवाएं चौधरी की रसोई में दे रहे थे. वे लगातार नौजवानों को निर्देश देते थे और उन्हें बताते थे कि सब्जियों को कैसे काटें और साफ करें, इस दौरान हरबंस एक कुर्सी पर बैठकर पूरी प्रक्रिया का पर्यवेक्षण करते थे. हर 15 मिनट में, उनमें से एक व्यक्ति पास से ही हैंड सैनिटाइज़र की एक नीली बोतल उठा लाता और इसे बाकी लोगों को भी देता. कमरे में सभी लोग या तो मास्क पहने हुए थे या उनके चेहरे पर रूमाल बंधा हुआ था.

चौधरी ने कहा, ''कोविड-19 एक ऐसी बीमारी है, जिसे पासपोर्ट धारक भारत में लाए थे और अब राशन कार्ड धारक इससे पीड़ित हैं. मुझे कल गाजियाबाद के इंदिरापुरम से फोन आया और हमने खाने के कुछ पैकेट देने वहां गए." चौधरी और उनकी टीम के पास सरकार द्वारा जारी किए गए तीन लॉकडाउन पास हैं. यह पास उन्हें पुलिस द्वारा रोड ब्लॉक की स्थिति में जाने की अनु​मति देता है. वे खाना पहुंचाने के लिए एक महंगे स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल का भी इस्तेमाल करते हैं. "क्या आपने कभी पुलिस को महंगे वाहनों को रोकते या ड्राइवरों को परेशान करते देखा है?" चौधरी ने पूछा. "बस गरीबों को ही खामियाजा भुगतना होता है." उन्होंने कहा कि वाहन का बूट खाने के पैकेट और सूखे राशन से भरे बैग रखने के लिए काफी बड़ा है.

29 मार्च को, चौधरी और उनकी टीम जब खाना देने के लिए सराय काले खां बस टर्मिनल जा रहे थे तो उन्हें बच्चों सहित सात लोगों का एक परिवार मिला. उन्होंने रोका और पूछा कि वे कहाँ जा रहे हैं. चौधरी ने कहा, "वे दिहाड़ी मजदूर थे जो दिल्ली से उत्तर प्रदेश के कासगंज जा रहे थे, क्योंकि उनके ठेकेदार ने उन्हें बिना भुगतान किए छोड़ दिया था. उनके पास बच्चों के लिए दूध खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे." टीम ने उन्हें कुछ खाने को दिया.

भोजन तैयार करने में तीन घंटे लगते हैं, बिल्ला ने कहा. दोपहर 1 बजे तक, खाना पैक होने के लिए तैयार था. टीम ने चम्मचों से भरकर खाना प्लास्टिक की थैलियों में डालना शुरू किया. चौधरी ने कहा, "मैं उन्हें कम से कम 400-500 ग्राम पैक करने का निर्देश देता हूं. 600 और 700 के बीच भोजन के पैकेट तैयार किए जाते हैं और दोपहर 2 बजे तक वितरण के लिए तैयार होते हैं, तब तक टीम भी तैयार हो जाती है. वे पहले शाहपुर जाट जाते हैं, जहाँ बहुत से बंगाली और बिहारी प्रवासी रंगाई और सिलाई के उद्योगों में काम करते हैं. वे वहां भोजन के लगभग 100 पैकेट वितरित करते हैं. उनका अगला पड़ाव हौज खास गांव होता है. चौधरी ने कहा, "कैफे और रेस्तरां से दूर, एक बिहारी बस्ती है. हम वहां 100 अन्य पैकेट वितरित करते हैं." महरौली में लगभग 150 पैकेट इस्लाम कॉलोनी में ले जाए जाते हैं और 150 पैकेट बेगमपुर और कालू सराय में भूखे लोगों के बीच बांटे जाते हैं. भोजन के अलावा, टीम के पास गेहूं के आटा, चावल, दाल, साबुन, हेयर ऑयल, प्याज, टमाटर और आलू से युक्त सूखे राशन के "किट" भी हैं.

आम तौर पर शाम 5 बजे टीम भोजन वितरित करके वापस लौट आती है फिर बर्तन धोए जाते हैं और अगले दिन के लिए सब्जियां और चावल खरीदा जाता है. रात के भोजन की व्यवस्था कर पाना संभव नहीं है, इसलिए वे यह सुनिश्चित करने की कोशिश करते हैं कि उनके द्वारा वितरित प्रत्येक लंच पैकेट में इतनी कैलोरी मात्रा में भोजन हो कि लोगों का अगले दिन दोपहर के भोजन तक काम चल जाए. चौधरी ने कहा, "हम अपनी क्षमता के अनुसार सब कुछ कर रहे हैं." सब्जी की कीमतें बढ़ने के बावजूद, उनकी मेस में सब्जी देने वाला उन्हें अच्छी कीमत पर सब्जियां देता है. चौधरी बताते हैं, ''हमने अपना पैसा लगा दिया है और जो लोग मदद करना चाहते हैं वे भी दे सकते हैं. "बाद में हमने ओखला और अन्य स्थानों के लोगों से चावल और खाना पकाने का तेल लेना शुरू किया." चौधरी ने आगे कहा, ''लॉकडाउन ने बहुत दहशत पैदा की है. सरकार को इसे थोड़ा बेहतर करना चाहिए था.”


तुषार धारा कारवां में रिपोर्टिंग फेलो हैं. तुषार ने ब्लूमबर्ग न्यूज, इंडियन एक्सप्रेस और फर्स्टपोस्ट के साथ काम किया है और राजस्थान में मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ रहे हैं.