सर्वोच्च अदालत के इस एक फैसले से बढ़ रहे ईसाई अल्पसंख्यकों पर हमले

2008 में ओडिशा के एक चर्च पर हिंदुत्ववादियों के हमले की एक तस्वीर. एफी फोटो

विरोध और हंगामे के बीच 23 दिसंबर 2021 को कर्नाटक विधानसभा ने धार्मिक स्वतंत्रता अधिकार संरक्षण विधेयक को मंजूरी दी. बिल पर बहस होने के महीनों पहले से ही क्षेत्रीय मीडिया “ईसाइयों द्वारा जबरन सामूहिक धर्मांतरण” की कहानियां फैलाना शुरू कर दी थी. क्षेत्रीय मीडिया ने हिंदुओं को पीड़ितों और ईसाइयों को खलनायक के रूप में दर्शाया. 9 मार्च को कन्नड़ समाचार चैनल दिग्विजय 24X7 ने "आतंकवाद से भी भयानक है धर्मांतरण! क्या आप जानते हैं कि एक हिंदू के ईसाई धर्म अपनाने से कितना पैसा बनाया जाता है?” शीर्षक से एक एपिसोड चलाया.

यह कार्यक्रम सांप्रदायिक विद्वेष को भड़काने के लिए चलाया गया था. एंकर ममता हेगड़े ने ईसाइयों के खिलाफ विद्वेष को भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का उल्लेख किया जिसे स्टैनिस्लॉस निर्णय के नाम से भी जाना जाता है. 1977 के इस फैसले में किसी के धर्म के प्रचार के अधिकार और एक अलग धर्म में परिवर्तित होने के अधिकार के बीच अंतर किया गया था. हेगड़े ने कहा, “बहुत लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि अगर कोई ईसाई पादरी उनके पास आता है तो उन्हें क्या करना चाहिए. ऐसे में व्यक्ति को पुलिस को फोन करना चाहिए और शिकायत दर्ज करानी चाहिए. पुलिस को बताएं कि वे धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश कर रहे हैं. अगर दस लोगों को सजा मिल गई तो ग्यारहवां व्यक्ति आपके पास आएगा ही नहीं. अगर हम हिम्मत नहीं दिखाएंगे, अपने धर्म की रक्षा नहीं करेंगे तो यह नहीं रुकेगा. 1976 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि प्रचार के अधिकार का मतलब धर्मांतरण का अधिकार नहीं है.”

ईसाइयों को बदनाम करने के लिए जिस तरह की खतरनाक बयानबाजी हम आजकल नियमित रूप से देखने लगे हैं वह एंकर भी उसी ढ़ंग से जबरन धर्मांतरण के मुद्दे को उठाती रही. उस महीने ईसाइयों पर धर्मांतरण का झूठा आरोप लगाने वाली छह घटनाएं हुईं. जिस दिन कार्यक्रम प्रसारित किया गया था उसी दिन कर्नाटक में एक निजी हॉल में हिंदू लोगों की भीड़ ने घुसकर शांतिपूर्वक प्रार्थना करने के लिए एकत्र हुए लोगों को परेशान किया, धमकाया और उन पर जबरन सामूहिक धर्मांतरण कराने का आरोप लगाया. इनमें से कुछ घटनाओं को मोबाइल फोन पर रिकॉर्ड करके दिग्विजय और इसी तरह के ऑनलाइन पोर्टल पर प्रसारित किया गया.

यहां कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी जरूर उठते हैं जैसे, स्टैनिस्लॉस का निर्णय कैसे आया और इसका जमीनी स्तर पर क्या प्रभाव पड़ा है? यह धार्मिक विश्वास के मुक्त प्रचार, उसकी अभिव्यक्ति और अभ्यास की गारंटी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 25 के साथ मेल खाता है या नहीं? यहां तक ​​कि संविधान के निर्माण के दौरान भी धर्म के प्रचार के अधिकार पर भरपूर बहस हुई थी और इसे संविधान सभा में प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ था. लेकिन जिस विचार के कारण अनुच्छेद 25 को लागू किया गया उसे उच्चतम न्यायालय ने स्टैनिस्लॉस के फैसले खत्म कर दिया.

स्टैनिस्लॉस के फैसले के बाद कई राज्यों ने धार्मिक स्वतंत्रता कानूनों को अपनाया है, जिनमें हरियाणा और कर्नाटक शामिल हैं. और लगभग आधी शताब्दी बाद यह निर्णय अल्पसंख्यकों, विशेषकर ईसाइयों, पर हमला करने की खुली छूट दे रहा है. पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2021 में नवंबर तक कर्नाटक में ईसाइयों के खिलाफ हुए अपराधों की कम से कम 39 घटनाएं हुईं थी. 1977 में सुप्रीम कोर्ट ने 1967 के ओडिशा धर्म स्वतंत्रता अधिनियम और मध्य प्रदेश धर्म स्वतंत्र अधिनियम, 1968 को चुनौती देने वाली दो अपीलों को एक साथ जोड़कर फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट ने माना कि दोनों अपीलें एक ही मुद्दे से जुड़ी थीं और जबरन धर्मांतरण से संबंधित प्रावधानों में दी गई चुनौती में नियम समान थे.

हालांकि, दोनों अपीलें अलग-अलग स्थितियों से उत्पन्न अलग-अलग समस्याओं को लेकर की गई थीं. मध्य प्रदेश में धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम को एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्मांतरण पर रोक लगाने के लिए लागू किया गया था और यह अनिवार्य किया गया था कि राज्य के अधिकारियों को किसी भी धर्मांतरण के बारे में सूचित किया जाए. रायपुर के एक ईसाई पादरी स्टैनिस्लॉस ने धर्मांतरण का पंजीकरण कराने से इनकार कर दिया जिसके परिणामस्वरूप अधिनियम के तहत उसे आपराधिक मुकदमे का सामना करना पड़ा. पादरी ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर कहा कि इस तरह के कानून को अधिनियमित करना राज्य सरकार के दायरे में नहीं आता. और अधिकारियों को धर्मांतरण के बारे में सूचित करना दबाव देने के बराबर है. हालांकि उच्च न्यायालय ने इसे सार्वजनिक व्यवस्था का मामला बताते हुए पादरी के तर्क को खारिज कर दिया. युलिथा हाइड और अन्य बनाम ओडिशा राज्य मामले में याचिकाकर्ताओं ने ओडिशा के धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती दी गई. चार याचिकाकर्ताओं में से दो ईसाई धर्म का प्रचार करने वाले पादरी थे.

इस मामले में ओडिशा उच्च न्यायालय ने धर्मांतरण से जुड़ी सभी प्रक्रियाओं की बारीकी से जांच की. मामले को लेकर कहा गया कि याचिकाकर्ताओं ने धर्मांतरण की इच्छा रखने वालों को धार्मिक निर्देश दिए थे और इन धार्मिक सिद्धांतों को समझने के बाद ही वे धर्मांतरण कर सकते थे. ईसाई धर्म की धार्मिक किताब बाइबिल की समझ के आधार पर अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि प्रत्येक ईसाई का धार्मिक कर्तव्य है कि वह अपने धर्म का प्रचार करे.

ओडिशा उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि किसी भी धर्म को मानने और प्रचार करने की स्वतंत्रता की गारंटी देने वाले अनुच्छेद 25 में भी धर्मांतरण की बात शामिल है. यह माना गया कि अनुच्छेद 25 में मौजूद उचित प्रतिबंध धोखाधड़ी द्वारा रूपांतरण के मामलों को रोक पाने के लिए पर्याप्त थे. अदालत ने ओडिशा अधिनियम में इसकी परिभाषाओं को लेकर अस्पष्टता होने की यह कह कर आलोचना की कि ये सभी प्रकार की धर्मांतरण गतिविधियों का अपराधीकरण करते हैं. इसने प्रचार पर रोक को अनुच्छेद 25 की भावना के खिलाफ माना. सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि अदालत ने फैसला सुनाया कि यह कानून धार्मिक आस्था को नियंत्रित करता है जो कि संविधान में मौजूद राज्य के अधिकार क्षेत्र में आने वाला विषय नहीं है.

स्टैनिस्लॉस का फैसला देने वाले उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश एएन रे ने केवल मध्य प्रदेश की अपील में उठाए गए मुद्दों पर ही ध्यान दिया और ओडिशा उच्च न्यायालय के निष्कर्षों के खिलाफ तर्क देने के कठिन कार्य को टाल दिया. नतीजतन उच्चतम न्यायालय ने असमानता, गोपनीयता और स्वायत्तता के उल्लंघन जैसी पत्र में बताई गईं चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया. आपातकाल के दौरान जब जीवन का अधिकार भी न्यायिक जांच के दायरे में होता था ऐसे में यह हैरानी की बात नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय ने वही रुख अपनाया जो मौलिक अधिकार के रूप में धार्मिक प्रचार करने के अधिकार पर अपनाया था.

इसने अपने निर्णय को इस बात तक सीमित रखा कि क्या मध्य प्रदेश और ओडिशा के कानूनों ने अनुच्छेद 25 का उल्लंघन किया है और क्या राज्य विधानमंडल ऐसे कानूनों को लागू करने के लिए सक्षम हैं. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को यह विचार करना था कि अनुच्छेद 25 में प्रयुक्त "प्रचार" शब्द का क्या अर्थ है. इस शब्द के अर्थ का पता लगाते समय न्यायाधीशों से न्यायिक सिद्धांतों को ध्यान में रखने उम्मीद की गई थी लेकिन इसके बजाय, न्यायाधीशों ने केवल शब्द की शब्दकोशीय परिभाषा पर ध्यान केंद्रित किया और संविधान सभा में हुई व्यापक बहस का उल्लेख करने में विफल रहे. हालांकि अनुच्छेद 25 स्पष्ट रूप से धार्मिक निष्ठा के नियमन से संबंधित है लेकिन किसी व्यक्ति की संस्था और पसंद को दरकिनार करते हुए निर्णय में इस मुद्दे की जटिलता को स्वीकार नहीं किया. इसमें केवल इतना कहा गया है कि प्रचार का अर्थ होगा धर्म के सिद्धांतों को प्रसारित करने का प्रयास. यह अस्पष्ट परिभाषा "अन्य नागरिकों" के हितों की रक्षा के लिए तैयार की गई थी. हालांकि अन्य नागरिक कौन हैं यह स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया. लेकिन निर्णय वयस्क के तौर पर अपने अनुसार निर्णय लेने की एक नागरिक में निहित कर्तव्य की भावना को स्वीकार करने में विफल रहा.

अनुच्छेद 25 के केंद्र से धर्मांतरण को हटाकर इसने आस्था से जुड़े आध्यात्मिक जुड़ाव के अनुभव को कम कर दिया जैसा कि ओडिशा उच्च न्यायालय ने उजागर किया था. और इस मुद्दे को लेकर अनिश्चितता को और बढ़ा दिया. यूलिथा हाइड मामले में ओडिशा उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण और समझ ने धर्मांतरण को अनुच्छेद 25 के हिस्से के रूप में मान्यता दी और धर्मांतरण की मांग करने वालों के लिए विचारधारा को एक आवश्यक प्रोत्साहन प्रणाली के रूप में स्वीकार किया. इसने सार्वजनिक व्यवस्था की बारीक समझ को प्रस्तुत किया और आधिकारिक या गैर-आधिकारिक कर्ताओं द्वारा बिना किसी बाधा के अपनी धार्मिक राह को चुनने के लिए एक नागरिक के अधिकार को प्राथमिकता दी.

प्रचार के अधिकार पर संविधान सभा और इसकी उपसमितियों में मौलिक अधिकारों और अल्पसंख्यकों दोनों से जोड़कर भरपूर बहस हुई थी. बीआर आंबेडकर की अनुच्छेद 25 का मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका थी. धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार की उनकी अभिव्यक्ति में सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के अनुकूल सीमाओं में रहते हुए प्रचार और धर्मांतरण का अधिकार शामिल था. उनका खुद का जीवन इस विचार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है कि किसी भी व्यक्ति के पास परिवर्तित होने की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकारों होना चाहिए. संविधान सभा के एक अन्य सदस्य केएम मुंशी ने धोखाधड़ी, जबरदस्ती या अनुचित तरीके से रूपांतरण को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करने वाले एक खंड को शामिल करने का प्रयास किया.

जवाब में एम रूथनास्वामी ने ईसाई धर्म जैसे कुछ धर्म के धर्मांतरण करने और उन्हें अपने सिद्धांतों के अनुसार अपने विचारों का प्रचार करने की अनुमति देने के लिए प्रावधान किए जाने का मुद्दा उठाया. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने जबरदस्ती धर्मांतरण पर रोक लगाने वाले प्रावधान की आवश्यकता पर भी सवाल उठाया जो पहले से ही भारतीय दंड संहिता में शामिल किया जा चुका था.

यह एक ऐसा प्रश्न है जो धार्मिक स्वतंत्रता कानूनों के संदर्भ में आज भी प्रासंगिक है. सलाहकार समिति ने अल्पसंख्यकों और मौलिक अधिकारों पर उप-समितियों की सिफारिशों को देखा. इसके बाद सभी ने प्रचार करने के अधिकार को शामिल करने के पक्ष में मतदान किया जिसने अंततः अनुच्छेद 25 रूप लिया. समिति ने धोखाधड़ी, जबरदस्ती या अनुचित तरीके से धर्मांतरण को रोकने वाले खंड को भी हटा दिया. लोकनाथ मिश्रा ने इस अनुच्छेद को "हिंदूओं की दासता का घोषणापत्र" और "संविधान के मसौदे का सबसे काला हिस्सा" बताते हुए धार्मिक प्रचार के अधिकार पर कड़ी आपत्ति जताई. जिसके जवाब में के संथानम ने जोर देकर कहा कि प्रचार केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा था.

उन्होंने कहा, "विभिन्न धर्मों, सार्वजनिक व्यवस्था, नीति और स्वास्थ्य स्थिति के बावजूद अनुच्छेद का केंद्र सभी की सहनशीलता से जुड़ हुआ है." जिसका प्रभाव अन्य धर्मों पर भी पड़ा था. टीटी कृष्णमाचारी ने बताया कि "हिंदु और आर्य समाजी ईसाइयों, मुसलमानों, जैनियों, बौद्धों और हर दूसरे धर्म की तरह अपने शुद्धि के प्रचार को तब तक जारी रख सकते हैं जब तक कि यह सार्वजनिक व्यवस्था में नीति और अनुशासन और अन्य परिस्थितियों जैसे एक सभ्य सरकार के मापदंडों पर बने रहता."

कृष्णमाचारी ने लोगों द्वारा धर्मांतरण करने के कुछ कारणों के बारे में भी बताया. उन्होंने कहा कि कई भारतीयों ने ईसाई धर्म को उसे दिए गए दर्जे के कारण वह अपनाया था. "ईसाई धर्म अपनाने वाल एक अछूत व्यक्ति उच्च जाति के हिंदू के साथ हर मामले में बराबर हो जाता है और अगर हम इस विशेष लाभ को प्राप्त करने की आवश्यकता को हटा दें जोकि निस्संदेह एक बहुत ही महत्वपूर्ण लाभ है तब धर्म में व्यक्ति के विश्वास के अलावा किसी के लिए भी ईसाई बनने का कोई और कारण नहीं बचेगा." लक्ष्मी कांत मैत्रा ने कहा, "धार्मिक प्रचार का मतलब हथियार, तलवार या जबरदस्ती धर्मान्तरित करना ही नहीं होता है.” उन्होंने पूछा, "लेकिन अगर आप अपनी धार्मिक आस्था दूसरों को दिखाकर, वर्णन करके और अनुनय के माध्यम से व्यक्त कर सकते हैं तो इसमें बाधाएं क्यों हों. मुझे इसमें कोई बुराई नहीं दिखती. और मुझे लगता है कि यह हमारे मौलिक अधिकार का मूल तत्व होगा." कार्यवाही से यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि संविधान निर्माताओं ने धार्मिक प्रचार करने के अधिकार को धर्म को मानने और साधना करने के अधिकार के लिए महत्वपूर्ण माना.

स्पष्ट रूप से स्टैनिस्लॉस में दिया गया निर्णय अनुच्छेद 25 को पारित करते समय संविधान सभा में हुए विचार-विमर्श के विपरीत है. आस्था के प्रचार के अधिकार पर स्टैनिस्लॉस के फैसले के बाद हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने सबसे पहले उन लोगों के अधिकारों पर विचार किया जो सर्वोच्च न्यायालय से अलग निर्णय की मांग कर रहे थे. भारतिय इवेंजेलिकल फेलोशिप बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य मामले में अदालत ने एक व्यक्ति के अपने धर्म को बदलने के अधिकार और अपने विचारों को गुप्त रखने के अधिकार को मान्यता दी. फैसले में कहा गया कि, "किसी भी इंसान को उसका धर्म बताने के लिए विवश क्यों किया जाना चाहिए? धर्म बदलने पर एक व्यक्ति को अधिकारियों को सूचित करने के लिए क्यों कहा जाए?" इसमें आगे कहा गया कि, "यदि कोई व्यक्ति अपना धर्म बदलता है और तथाकथित पूर्वाग्रह से प्रभावित पक्षों को नोटिस जारी किया जाता है तो धर्मांतरित व्यक्ति के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक यातना झेलने की संभावना अधिक रहती है. राज्य द्वारा सुझाया उपाय समस्या से अधिक हानिकारक साबित हो सकता है.”

अदालत ने जनहित और बहुसंख्यक हितों के बीच भी यह तर्क देते हुए अंतर किया कि अल्पसंख्यक विचारों को चुप नहीं कराया जाना चाहिए. स्टैनिस्लॉस का निर्णय राज्य को सूचित करने के मुद्दे को हल करने में विफल रहा. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय की वरिष्ठता के कारण उच्च न्यायालय के दिए गए निर्णय की गंभीर खामियों को दूर नहीं किया जा सका. स्टानिस्लॉस का तर्क पुट्टस्वामी और शफिया जहान जैसे हालिया फैसलों से और कमजोर हो गया है जिसमें स्वायत्तता और गोपनीयता के मौलिक अधिकारों को बरकरार रखा गया है. आपातकाल के दौरान आए इस दशकों पुराने फैसले पर पुनः विचार करने और यह समझने का समय आ गया है कि वर्तमान समय में यह फैसला ऐसा क्या कर रहा है जो अल्पसंख्यकों के खिलाफ मामलों को इतना अधिक बढ़ा रहा है.