ओआईसी में सुषमा स्वराज के भाषण से बीजेपी और आरएसएस को सीख लेने की जरूरत

अबू धाबी में इस्लामिक सहयोग संगठन की 1 मार्च को हुई विदेश मंत्रियों के परिषद के शिखर सम्मेलन में, विदेश मामलों की मंत्री सुषमा स्वराज के भाषण की जमकर वाहवाही हुई. इस बैठक में 57 मुस्लिम बहुल देशों ने भाग लिया था. आतंकवाद के खिलाफ ठोस प्रयासों के प्रति भारत के सहयोग का प्रस्ताव देते हुए स्वराज ने कहा कि इस लडाई को “किसी धर्म के खिलाफ युद्ध” की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. उनके भाषण से स्पष्ट था कि “किसी धर्म” से उनका मतलब इस्लाम से है. अपने भाषण में उन्होंने कुरआन से कई उद्धरण दिए. उन्होंने एक गंभीर बात भी कही, “जिस प्रकार इस्लाम का अर्थ शांति है उसी प्रकार अल्लाह के 99 नामों में से किसी का अर्थ हिंसा नहीं है.” उन्होंने कुरआन का उद्धरण देते हुए कहा, “धर्म के मामलों में जबरदस्ती” नहीं होनी चाहिए और सभी धर्म “अमन, करुणा और भाईचारे” का संदेश देते हैं.

स्वराज ने भाईचारे और विविधता की बात करने वाले गुरु नानक, ऋग्वेद और स्वामी विवेकानंद का उल्लेख किया. स्वराज के भाषण में कुरआन के शांति के दर्शन का उल्लेख था. स्वराज ने कुरआन की उस बुनियादी बात का उल्लेख किया जो मानती है कि “अलग अलग राष्ट्र और समूहों” को इसलिए बनाया गया है ताकि “वे एक दूसरे को जान सकें, इसलिए नहीं कि वे एक दूसरे से घृणा करें”. स्वराज ने इस्लामिक चरमपंथियों और आतताइयों की गलत बयानी और वैचारिक दिवालियेपन को शानदार तरीके से स्पष्ट किया.

चरमपंथियों की खोखली विचारधारा के खिलाफ स्वराज ने वैचारिक उपाय भी सुझाए. उन्होंने सभी धर्मो के सही अर्थों और मिशन का प्रचार करने, विश्वासों के बीच सम्मान को प्रोत्साहन देने, “भाईचारे के संदेश” से घृणा की भाषा का खंडन करने, चरमपंथ के खिलाफ उदारता को पेश करने, बहिष्करण का मुकाबला समरसता से करने और युवाओं को विनाश के रास्ते से निकाल कर सेवाभाव के रास्ते पर चलने के लिए प्रोत्साहित करने की बात की.

भाषण के लिए स्वराज को मिली वाहवाही सही है. उनके भाषण में इस बात का ख्याल था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का लक्ष्य कोई एक कौम नहीं होना चाहिए. ऐसा करते हुए स्वराज ने एक अंतरविरोध को भी सबके सामने ला दिया जो उनकी कथनी और उनकी पार्टी के गणमान्य नेताओं के इस्लाम के प्रति दृष्टिकोण को दिखाता है. हजारों बार भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सार्वजनिक तौर पर ऐसी बातें कहीं हैं जो स्वराज के सुझावों से बिल्कुल अलग हैं.

मसलन, 13 अगस्त 2014 को आदित्यनाथ ने, जो हाल में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, लोक सभा में धर्मनिर्पेक्षता के मुद्दे पर बहस में भाग लेते हुए कहा था, “चर्चा का विषय यह होना चाहिए कि कौन साम्प्रदायिक है. साम्प्रदायिक वह व्यक्ति है जो कहता है कि उसका खुदा और पैगंबर सबसे महान है और केवल उसे जीने का अधिकार है जो उन पर यकीन रखता है.”

यहां आदित्यनाथ आरएसएस की उस बहुप्रचारित बातों को प्रकट कर रहे थे जिसमें बताया जाता है कि सदियों पहले जब इस उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्से में मुस्लिम शासकों का शासन था तब मौत का भय दिखा कर हिंदुओं का जबरदस्ती धर्मांनतरण किया जाता था. आरएसएस अन्य सभी बातों को नजरअंदाज करता है जिनके चलते लोगों ने इस्लाम कबूल किया होगा. आदित्यनाथ ने मुस्लिम आबादी के खिलाफ जहर उगल कर अपना राजनीतिक करियर बनाया है. गोरखपुर में 2007 में हुए दंगों के इलजाम उन पर लगे थे जिसे उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद हटा लिया गया.

फरवरी 2018 में राज्य सभा का अपना कार्यकाल पूरा होने से एकाध महीना पहले विनय कटियार ने एक चर्चा में भाग लिया जिसमें मुसलमान को पाकिस्तानी कहने को गैर कानूनी बनाने की बात थी. उस चर्चा में भाग लेते हुए कटियार ने कहा, “भारत में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है. उन लोगों ने आबादी के आधार पर देश का विभाजन कराया. तो फिर वे लोग यहां क्यों हैं? मुसलमानों को उनका हिस्सा दिया जा चुका है. उन्हें बंगलादेश या पाकिस्तान चले जाना चाहिए.” कटियार की यह टिप्पणी स्वतः स्वराज के ओआईसी में दिए उस प्रस्ताव से उल्टी है जिसमें उन्होंने “बहिष्करण के स्थान पर मेलमिलाप” की वकालत की है.

कुछ हिंदुत्वादियों का मानना है कि इस्लाम में सभी राजनीतिक इकाइयों की अपेक्षा कौम को अहमियत दी जाती है इसलिए मुस्लिमों में राष्ट्रवाद की भावना कमजोर है. 2017 में भोपाल में दिए एक लेक्चर में केन्द्रीय मंत्री गिरीराज सिंह ने यही बात की थी. सिंह ने दावा किया, “धीरे धीरे कौमियत की मांग तेज हो रही है.” उन्होंने आगे कहा, “कौमियत एक खास समुदाय या समाज के एक खास वर्ग की बात करती है, संपूर्ण समाज की नहीं. मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि इस्लाम में राष्ट्रवाद की कोई कल्पना नहीं है.”

सिंह का यह दावा आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर की मान्यता से मेल खाता है जिन्होंने जुलाई 1940 से लेकर जून 1973 तक आरएसएस का नेतृत्व किया था. उनके भाषणों और लेखों के संग्रह बंच ऑफ थॉट्स में गोलवलकर पहले प्रश्न करते हैं, “वे लोग (ईसाई और मुसलमान) केवल धर्म परिवर्तन करने से पराए कैसे हो गए?” इसके बाद जवाब देते हुए कहते हैं, “किसी भूभाग के भीतर पैदा हो जाने भर से, उस भूभाग की मानसिक बुनावट को ग्रहण किए बिना, कोई भी व्यक्ति उस देश का नागरिक नहीं बन जाता.” इस बात को समझाने के लिए गोलवलकर एक शेरनी की कहानी बताते हैं जिसने एक सियार को अपना दूध पिला कर पाला था. एक बार जब शावक और सियार के सामने हाथी आ गया तब सियार दुबक कर शेरनी की गोद में चला गया. यह देख कर शेरनी ने कहा, “इस बात में कोई शक नहीं है कि तुमने मेरा दूध पिया है लेकिन तुम अपना चरित्र नहीं बदल सकते.”

इसके बाद गोलवलकर घोषणा करते हैं, “ऐसा ही होता है राष्ट्र के साथ.” सियार की तरह ही मानव भी अपना चरित्र नहीं बदल सकते. लेकिन राष्ट्र, जंगल की मानिंद सियारों को पाल नहीं सकता. सियार को शेर में बदलने के लिए गोलवलकर का तर्क था, “नव आगंतुकों को अपनी प्राचीन परंपरा के अनुरूप अपनी जीवन पद्धिति में पूर्ण परिवर्तन ला कर नया जन्म लेना होगा.”

गोलवलकर ने लिखा कि ईसाई और मुसलमान हिंदू धर्म अपना कर अपनी प्राचीन परंपरा में दुबारा जन्म ले सकते हैं. उन्होंने लिखा, “यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने भटके हुए भाइयों को सदियों की उनकी धार्मिक गुलामी से मुक्त हो कर प्राचीन घर में लौट आने का आह्वान करें.” उन्होंने आगे लिखा, “यह चीजों को सही तरह से समझने के लिए और अपने पैतृक रीति रिवाजों, पौशाक, विवाह संस्कार और दाह संस्कार और अन्य चीजों को ग्रहण करने का आह्वान है.”

हिंदुत्ववादियों की वैचारिक परंपरा ओआईसी में स्वराज के भाषण से उलट है जिसमें स्वराज ने भारतीय मुस्लिमों के खानपान के तरीके, कपड़े पहने के ढंग और उनकी सांस्कृतिक और भाषाई विरासत, जिससे उन्हें मोहब्बत है और जहां वे पीढ़ी दर पीढ़ी रहते आए हैं, की प्रशंसा की थी. गोलवलकर और हिंदुत्व के नजरिए से मुसलमानों की अलग पहचान राष्ट्र के प्रति उनकी वफादारी में बाधक है. उन्हें हिंदू संस्कृति में समाहित किया जाना चाहिए. इस अवधारणा के चलते ही घर वापसी जैसी सोच का जन्म हुआ है जो धार्मिक अल्पसंख्यकों को हिंदू धर्म में वापस आने को कहता है.

ऐसा ना चाहने वाले अल्पसंख्यकों के लिए गोलवलकर ने 1936 में लिखी अपनी पुस्तक “वी ऑर वर नेशनहुड डिफाइंड” में दोयम दर्जे का नागरिक बन जाने को विकल्प की तरह पेश किया है. गोलवलकर ने लिखा, “इन लोगों को अपने अलग अस्तित्व को भुला देना होगा या उन्हें हिंदू राष्ट्र के अधीन होकर, किसी भी अधिकार का दावा किए बिना, बिना विशेषाधिकार के, यहां तक नागरिक के रूप में अधिकारों से वंचित होकर देश में रहना होगा.”

2006 में आरएसएस ने आधिकारिक रूप से इस किताब को अस्वीकार कर दिया था. उस वक्त प्रकाशित एक रिपोर्ट में अक्षय मुकुल ने लिखा है कि आरएसएस विचारक और दिल्ली विश्वविद्यालय में लेक्चरर राकेश सिन्हा, जो फिलहाल राज्य सभा में बीजेपी के सांसद हैं, ने आरएसएस के इस निर्णय का बचाव किया था. सिन्हा ने कहा कि गोलवलकर की वैचारिक यात्रा 1940 में उनके सरसंघचालक बनने से शुरू हो कर 1973 में उनकी मृत्यु तक जारी रही. यानी इस पुस्तक के प्रकाशित होने के एक वर्ष बाद से. तो भी जो गोलवलकर ने इस किताब में कहा है वह उनकी बंच ऑफ थोट्स का सार है लेकिन इसमें उन्होंने बस समाहित न होने वालों के अंजाम की बात नहीं की है.

हिंदुत्व को मानने वालों को इस बात पर यकीन दिलाने के लिए कि आरएसएस भारत में रहने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों के देश पर संदेह नहीं करता या उन्हें अपने रीति रिवाजों को बदलने की जरूरत नहीं है, केवल गोलवलकर की उस किताब को अस्वीकार कर देना काफी नहीं है. उदाहरण के लिए जून 2017 में आरएसएस नेता और मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संरक्षक इंद्रेश कुमार ने दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में रमजान के महीने में भाषण दिया. भाषण में उन्होंने रोजेदार छात्रों से अपील की कि वे गोश्त खाना छोड़ दें क्योंकि इसे खाने से कई प्रकार की बीमारियां होती हैं. जामिया के छात्रों ने जब इस बात का विरोध किया तो इंद्रेश ने एक इंटरव्यू में सफाई दी कि वे गोमांस छोड़ने की बात कर रहे थे न कि मटन की. उसी साक्षत्कार में कुमार ने दावा किया कि कुरआन में गौकशी का विरोध है और कुरआन के सबसे लंबे अध्याय सुर अल बक्रा में गोमांस खाने से होने वाली बीमारियों का जिक्र है. कुमार के इन दावों में कोई सच्चाई नहीं है. यह विचारणीय है कि कुमार को यह नाटक क्यों करना पड़ा लेकिन उनकी टिप्पणी से स्पष्ट है कि गौकशी के नाम पर होने वाली हत्याओं के लिए वे मुसलमानों को ही जिम्मेदार ठहराते हैं. ऐसे मामलों में पिछले पांच सालों में जबरदस्त बढ़ोतरी आई है.

भारत में मुस्लिमों की तकलीफों के लिए उन्हीं को जिम्मेदार मानने वाले बस इंदे्रश ही नहीं हैं. हिंदुत्व के ठेकेदारों ने अंतर विवाह संबंध बनाने वाले मुसलमानों पर हिंदू लड़कियों को मुसलमान बनाने के लिए “लव जिहाद” करने का आरोप भी लगाया है. कई बार मुसलमानों पर हिंसक हमले किए गए. अंतर धर्म विवाह शायद एक तरीका है उसे प्राप्त करने का जिसकी आशा स्वराज ने ओआईसी में दिए अपने भाषण में की है. उन्होंने कहा था, “मान्यता को मान्यता से बात करनी होगी, संस्कृति को संस्कृति को समझना होगा, समुदायों को सेतू बनाने होगें, अपने बीच दिवार नहीं.” लेकिन मुस्लिम शासकों को राक्षस बना कर, उनके बसाए शहरों का नाम बदल कर और विधान सभा चुनावों के वक्त धार्मिक धुव्रीकरण के मकसद से चालाकी भरे भाषण देकर, बीजेपी-आरएसएस ने समुदायों के बीच दिवार खड़ी करने का काम ही किया है, पुल बनाने का नहीं. इसने न संयम अपनाया है न ही विविधता की अवधारणा को माना है.

हिंदुत्व को मानने वालों के भीतर तक घरकर बैठी उपरोक्त विचारधारा के हजारों उदाहरण मौजूद हैं. गौरतलब है कि पुलवामा में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के काफिले पर हमले के बाद, दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जफरुल इस्लाम खान ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर को पत्र में लिखा : “हिंदुत्ववादी मुस्लिम बहुल इलाकों में और मिश्रित इलाकों के मुस्लिम घरों के सामने रैली निकाल रहे हैं और भड़काऊ नारे लगा रहे हैं.” एक न्यूज वेबसाइट के रिपोर्टर ने बी.के. दत्त कालोनी से रिपोर्ट दी कि शांतिमार्च निकाल रहे लोग “बाबर की औलादों” वाला नारा लगा रहे थे. मुस्लिमों को अपमानित करने और यह बताने के लिए कि मुसलमान हिंदू धर्म का सम्मान नहीं करते “बाबर की औलाद” को गाली की तरह प्रयोग किया जाता है. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि जिन लोगों को स्वराज की बातों को अंगीकार करने की सबसे पहले जरूरत है वे उनकी ही पार्टी में ही सबसे अधिक मौजूद हैं. यदि सुषमा स्वराज अपनी पार्टी के लोगों को ही अपनी बात मानने के लिए राजी कर लें तो यह बड़ी बात होगी.