7 जनवरी 1993 को नरसिम्हा राव सरकार ने अयोध्या में निश्चित क्षेत्र के अधिग्रहण अध्यादेश की घोषणा की. इसके तहत सरकार विवादित स्थल को अपने कब्ज़े में लेकर इसके आसपास अतिरिक्त भूमि खरीदने वाली थी ताकि राम मंदिर, एक मस्जिद, तीर्थयात्रियों के लिए सुविधा-केंद्र, एक पुस्तकालय और संग्रहालय का निर्माण किया जा सके. तब बीजेपी ने इस अध्यादेश का विरोध किया. बीजेपी के तत्कालीन उपाध्यक्ष एसएस भंडारी ने इसे “पक्षपातपूर्ण, तुच्छ और विकृत” करार दिया था. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी प्रस्ताव को “गैर-इस्लामिक”बताते हुए इसका विरोध किया था क्योंकि शरिया के तहत मस्जिद को समर्पित भूमि को किसी भी तरह से बेचा या उपहार में दिया या अलग नहीं किया जा सकता है. फिर भी सरकार ने अयोध्या के कोट रामचंद्र गांव में 67.7 एकड़, यानी 27.4 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण किया. ज़मीनों के पिछले मालिकों को उनकी ज़मीन और संपत्तियों के लिए जिला प्रशासन द्वारा निर्धारित सर्कल दरों के हिसाब से बाज़ार मूल्य का भुगतान किया गया.
9 नवंबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने रामलला के पक्ष में फ़ैसला सुनाते हुए मोदी सरकार को तीन महीने के भीतर एक नया ट्रस्ट बनाने का आदेश दिया. 5 फ़रवरी 2020 को सरकार ने राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र (आरजेटीके) की स्थापना की और अधिग्रहीत 67.7 एकड़ ज़मीन ट्रस्ट को सौंप दी.
5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अधिग्रहीत जमीन पर भूमि पूजन किया. इसके तीन महीने बाद, 11 नवंबर 2020 को, ट्रस्ट ने दिल्ली के तीन मूर्ति भवन में एक महत्वपूर्ण बैठक बुलाई. बैठक ट्रस्टी वासुदेवानंद सरस्वती की अध्यक्षता में हुई. बैठक के दौरान ट्रस्टी अनिल मिश्रा ने मंदिर परिसर के विस्तार का प्रस्ताव रखा. मिश्रा अयोध्या में होमियोपैथ हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे हैं. मिश्रा ने विस्तार की वजह मंदिर के ईशान्य कोण, उत्तर पूर्व दिशा, में "वास्तुरचना" का ठीक नहीं होना और मंदिर परकोटे को आयताकार या वर्गाकार बनाने की ज़रूरत बताया. ट्रस्ट ने एकमत से प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. हालांकि, इस ज़मीन के अधिकांश भाग पर फ़कीरे राम, कौशल्या भवन और कैकेयी कोप भवन जैसे मंदिर थे. देखा जाए तो पुरातात्विक साक्ष्यों के अभाव के बावजूद राम जन्मभूमि अभियान का आधार यह था कि बाबरी मस्जिद वहां स्थित थी, जहां राम का जन्म हुआ था और इसलिए मंदिर कहीं और नहीं बन सकता था. सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुओं को बाबरी मस्जिद की ज़मीन इसलिए सौंपी क्योंकि उसने माना की अधिकांश हिंदू उस जगह को रामजन्मभूमि मानते हैं. मतलब ज़मीन सौंपने का आधार हिंदुओं की आस्था थी, न कि पुरातात्विक सबूत. इसके बाबजूद, आरजेटीके ने स्थानीय अदालत में फ़कीरे राम मंदिर के विस्थापन का न सिर्फ समर्थन किया बल्कि यह तर्क भी दिया कि मंदिर में रखी भगवान की मूर्ति और गर्भगृह दोनों का विस्थापन किया जा सकता है. और इसमें हिंदुओं की आस्था आहत होने वाली जैसी कोई बात नहीं है. उन्होंने यह भी तर्क दिया कि 1993 से मंदिर में कोई पूजा नहीं हुई है इसलिए इसे विस्थापित किया जा सकता है. ट्रस्ट के इस कानूनी पक्ष ने उसके दोगलेपन को जगजाहिर कर दिया. आरजेटीके ऐसे मंदिरों को तोड़ने या कहीं और बसाने के लिए तैयार था, जो उसकी योजनाओं के लिहाज से असुविधाजनक थे.