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27 जून की दोपहर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने व्हाइट हाउस के रोज गार्डन में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया. इसके बाद दोनों नेताओं की पहली मुलाकात हुई और दोनों अपनी-अपनी तय प्रतिक्रियाओं के साथ अपने-अपने प्लेटफॉर्म पर खड़े थे. वहां मौजूद जनता से ट्रंप पहले मुखातिब हुए. उन्होंने कहा, “मुझे मीडिया, अमेरिका और भारत के लोगों को बताने में गर्व हो रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी और मैं सोशल मीडिया पर वैश्विक नेता हैं.” उनके इस बयान से लोगों को हंसी जरूर आई लेकिन बाद में उन्होंने असली कूटनीतिक बात शुरू की. जब ट्रंप असली बात की तरफ बढ़े- “माननीय प्रधानमंत्री मैं आपके साथ काम करने की राह देख रहा हूं ताकि हम अपने-अपने देशों के लिए नौकरियां पैदा कर पाएं”- हवा के झोंके मोदी के पास पड़े कुछ पन्ने उड़ा ले गए.
ऐसा देखते ही अजीत डोभाल हरकत में आ गए. वो पहली कतार में लगी अपनी सीट से उठे. इस कतार में उनके साथ भारत के विदेश सचिव, अमेरिका में भारत के राजदूत और अन्य वरिष्ठ अधिकारी बैठे थे. लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) डोभाल इन सब से पहले उठे और लॉन से बिखरे हुए पन्नों को इकट्ठा करके पोडियम पर मौजूद अपने बॉस (मोदी) को वापस दे दिया. 72 साल के डोभाल ने हमेशा की तरह सूट और टाई पहन रखी थी. कागज इकट्ठा करके मोदी को देने के बाद वहां से लौटने से पहले, उन्होंने ग्लास के कवर को भी वापस उसके ऊपर रखा. यह कवर भी हवा का शिकार हुआ था. इसके बाद मोदी ने बिना किसी बाधा के अपना भाषण दिया.
समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) ने इससे जुड़ी एक छोटी सी ख़बर भेजी जिसमें इस घटना का जिक्र था. इसके बाद भारत में कई बड़े मीडिया संस्थानों ने अपनी सनसनीखेज हेडलाइन के साथ इसे छापा: “व्हाइट हाउस के एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल ने मोदी को बचाया”, “जब डोभाल ने पीएम मोदी को व्हाइट हाउस में शर्मनाक स्थिति से बचाया” जैसी कई और हेडलाइनें थीं जो इसी भाषा में थीं. इन्हें सोशल मीडिया पर फैलाया गया. फेसबुक और ट्विटर पर डोभाल के कई फैन पेज हैं. इन पर उनके हजारों फॉलोअर हैं. न्यूज चैनलों ने भी घटना की फुटेज को चलाया. डोभाल ने जो किया था वो दिन समाप्त होने से पहले काफी वाह वाही बटोर चुका था.
अजीत डोभाल भारत की सुरक्षा से जुड़े सबसे ताकतवर नौकरशाह हैं. उनकी नियुक्ति सीधे पीएम मोदी ने की है और डोभाल सिर्फ उन्हीं के प्रति जवाबदेह हैं. वो नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल (एनएससी) के प्रमुख हैं. ये एक सलाहकार बॉडी है जिसे गृह मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के साथ काम करना पड़ता है. संस्थानिक पदक्रम में एनएससी के एक पायदना नीचे स्ट्रेटेजिक पॉलिसी ग्रुप का नंबर आता है. इसमें सभी मंत्रालयों के सचिव होते हैं जो काउंसिल का हिस्सा होते हैं, इसमें सेना के तीनों (जल, थल, वायु) हिस्सों के प्रमुख भी शामिल होते हैं, वहीं देश की बड़ी खुफिया एजेंसियों- इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ)- के प्रमुख भी इसका हिस्सा होते हैं. इसमें नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर का काम भारत सरकार के लिए ऐसी सुरक्षा नीति को तैयार करके तालमेल बिठाना होता है, जिसके जरिए भारत की सुरक्षा, आंतिरक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सही तरीके से हो सके. उसका काम सुरक्षा से जुड़ी जानकारी का मुख्य समीक्षक होने के अलावा खासतौर पर जब मामला खुफिया सूचना से जुड़ा हो तब सरकारी संस्थाओं और पीएम के बीच सलाहकार होने का होता है. इन सबके ऊपर, न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी (एनसीए) की आधिकारिक परिषद के प्रमुख के तौर पर इनका काम भारत के न्यूक्लियर हथियार भंडार के एक्शन और कंट्रोल से जुड़ी बातों के लिए एनसीए के प्रमुख को सलाह देना होता है. एनसीए एक राजनीतिक परिषद है जिसके प्रमुख प्रधानमंत्री होते हैं.
ऊपर जो बातें बताई गई हैं वो डोभाल का आधिकारिक काम या आधिकारिक ताकत है. असली ताकतें क्या हैं, ये साफ नहीं है. खास तौर पर, उनका काम जितना रहस्यमई है उसकी वजह से सरकारी कामकाज को भीतर से जानने और समझने वालों का मानना है कि उनके पास उससे बहुत ज़्यादा ताकत है जो उन्हें आधिकारिक तौर पर मिली है. डोभाल उन चंद लोगों में शामिल हैं जो पीएम मोदी से सीधे तौर पर बात कर सकते हैं और उनके पहले के कई सुरक्षा सलाहकारों की तुलना में उनके पास बेहद केंद्रीकृत ताकत है. एनएसए के साथ काम कर चुके एक विश्लेषक ने मुझे जानकारी दी कि गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय पर डोभाल का बहुत ज्यादा प्रभाव है. मंत्रिमंडल सचिवायल के एक पूर्व सदस्य ने कहा कि भारत की खुफिया एजेंसियों की जो कामकाज की संरचना है डोभाल उससे हटकर काम करते हैं और सीधा इसके कार्यकारियों से डील करते हैं. उन्होंने ये भी कहा कि डोभाल मोदी के प्रमुख सहालकारों में से एक हैं और उनके कद के बराबर के बस विदेश सचिव (एस जयशंकर) हैं. ब्लूमबर्ग में 2016 में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि “कुछ लोग अजीत डोभाल को पीएम मोदी के बाद भारत का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति मानते हैं.”
एनएसए में डोभाल को जो औपचारिक ताकतें हासिल हैं, उनकी खुद के द्वारा पेश की गई छवि उससे कहीं ज़्यादा बड़ी है. हालांकि, जब से उन्होंने अपना पदभार ग्रहण किया है तब से पब्लिक में बोलने से बचते रहे हैं. वहीं, आईबी से रियारमेंट और एनएसए प्रमुख के पद पर नियुक्त के दौरान 2005 से 2014 के बीच उन्होंने भारत की कई आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय जटिल समस्याओं के लिए कई अनूठे सिद्धांत और कठोर समाधान सुझाए. अल्पसंख्यक राजनीति जैसे ऐसे कई मुद्दों पर उन्होंने काम किया जो आम तौर पर खुफिया या राष्ट्रीय सुरक्षा के सीमा से बाहर हैं. रिटायर हो चुके जासूसों की ओमार्टा (चुप्पी) परंपरा को दरकिनार करते हुए उन्होंने अपने 33 साल के शानदार सफर की कई जबरदस्त बातें भी सामने रखीं. इसका नतीजा ये हुआ कि सबके सामने एक मशहूर व्यक्तित्व वाले बहुत बड़े राजनेता और रणनीतिकार की ऐसी छवि पेश हुई जिसे लेकर लगा कि यह जिंदगी और मौत जैसी स्थितियों से निपटने के लिए सबसे बेहतरीन व्यक्ति है.
उनके इस व्यक्तित्व को निखारने में मीडिया का बड़ा योगदान रहा- इसमें मुख्य भूमिका उन पत्रकारों की रही है जो राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा से जुड़े रहे हैं. डोभाल जब आईबी में थे तभी से मीडिया ने उनकी छवि और कहानियों को बेहद बढ़ा-चढाकर पेश किया, बावजूद इसके की इन कहानियों के सच का कभी पता नहीं चल पाया और कई कहानियां तो ऐसी हैं जिनका सच पता लगा पाना नामुमकिन है. उन्हें “भारत का जेम्स बॉन्ड” बुलाना एक तरह के मिथ्याभिमान है, लेकिन इसे इतनी बार दोहराया गया है कि अब ये हिंदी फिल्म के किसी डायलॉग की तरह आम हो गया है. आज के दौर में मीडिया में उनका कद उनके पहले के किसी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और वर्तमान सरकार में किसी नौकरशाह से बड़ा है.
डोभाल के आलोचकों का कहना है कि उनके बारे में जो कहानियां कही जाती हैं वो उनकी सही छवि पेश नहीं करती हैं और उन घटनाओं को भी सही तरीके से पेश नहीं करती हैं जिनका वो हिस्सा रहे हैं. आलोचकों का ये भी कहना है कि जब वो आईबी का हिस्सा थे तब वो ‘ऑपरेशन मैन’ बनकर रह गए जो जासूसी और दमन की नीतियों में तो बेहतर था, लेकिन इस दौरान उनकी तैयारी उस राजनयिक और राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में नहीं की गई जिसकी उन्हें वर्तमान पद पर रहने के दौरान जरूरत है. इस पद पर विवेकपूर्ण फैसले उतने ही अहम हैं जितना किसी को अपने वश में करना या डर से काम निकलवाना. इनका कहना है कि डोभाल का तेजतर्रारपन उनके सीमित होने का एक लक्षण है. इसके उदाहरण के लिए एक रूपक का इस्तेमाल करते हुए कहा गया कि जब एक अदमी के पास एक हथौड़ा होता है, तब उसकी आंखों को चारों तरफ कील नजर आती है.
अभी तक तो एनएसए का रिकॉर्ड कुछ खास नहीं रहा. घुसपैठ में आई तेजी की वजह से कश्मीर के हालात इतने बदतर हैं जितने बीते कई दशकों में नहीं रहे. मई 2014 में डोभाल के पदभार संभालने के बाद से भारत के साथ सीमा साझा करने वाले और पास के देशों के साथ रिश्ते पहले से और खराब हुए हैं. यहां तक की बरीक रणनीतिक दृष्टिकोण से डोभाल के नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े होते हैं: पठानकोट एयरफोर्स स्टेशन पर हुए आंतकी हमले की जवाबी कार्रवाई में डोभाल के निर्देशों का ही पालन किया जा रहा था. बाद में कई विशेषज्ञों ने इसे असंगत करार दिया. इनमें से कोई भी बात भारत की सुरक्षा के लिहाज से सही नजर नहीं आती.
डोभाल के राजनीतिक संबंधों का उनके पेशेवर जीवन पर खासा प्रभाव रहा है. आईबी के दिनों में भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के साथ उनके मजबूत संबंध थे. 2014 के आम चुनावों के पहले जब वो आरएसएस के विशेषज्ञ समूह का हिस्सा थे तब ऐसी अफवाहें थीं कि चुनाव प्रचार में वो मोदी की मदद कर रहे हैं और तब की सरकार को कमजोर करने का काम कर रहे हैं. इस योजना में उनके योगदान से जुड़ी जानकारी धीरे-धीरे बाहर आनी शुरू हुई है. उन्होंने मोदी के प्रति ऐसी निष्ठा दिखाई है जिस पर सवाल खड़े नहीं किए जा सकते-कुछ लोगों की आंखों में ये वो अनोखा गुण है जो ऐसा काम करने वाले के पास होना चाहिए क्योंकि उसे ऐसे तथ्यों को सामने रखना पड़ता है जिसे शायद प्रधानमंत्री सुनना नहीं चाहते हों. डोभाल द्वारा लिए गए निर्णय और उनके बयानों से ये साफ है कि वो आरएसएस के आक्रामक हिंदू राष्ट्रवाद का पालन करने वालों में से हैं. ऐसी धारण वाले व्यक्ति का देश का अब तक का सबसे मशहूर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होना इसे भी दर्शाता है कि कैसे एक बड़ी आबादी के भीतर सनक और पूर्वग्रह को भरा गया है. डोभाल के भारत को देखने के नजरिए का अध्ययन करने पर अभी जो लोग देश को चला रहे हैं और उनके समर्थकों के बारे सब कुछ साफ हो जाता है.
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डोभाल के शुरुआती दिनों के बारे में बहुत कम जानकारी है. उनका जन्म 1945 में हुआ था. ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखने वाले डोभाल उत्तराखंड की पहाड़ियों में घिरी नाम के गांव में पैदा हुए थे. उनके पिता भारत की फौज में एक अफसर थे. उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम और कांग्रेस नेता एचएन बहुगुणा उनकी मां के चचेरे भाई थे. डोभाल की पढ़ाई राजस्थान के अजमेर मिलिट्री स्कूल में हुई और इसके बाद की डिग्री की पढ़ाई के लिए वो आगरा विश्वविद्यालय गए जहां उन्होंने अर्थशास्त्र की पढ़ाई की. 1968 में वो भारतीय पुलिस सेवा का हिस्सा बने. वो उस साल के केरल कैडर का हिस्सा थे. कोट्टायम में ट्रेनिंग के बाद उन्हें थालास्सेरी का अपर पुलिस अधीक्षक नियुक्त किया गया. 1971 के अंत और 1972 की शुरुआत में जब शहर में कुख्यात सांप्रदायिक दंगे हुए तब डोभाल वहीं थे. केरल पुलिस के एक पूर्व महानिदेशक एलेक्जेंडर जैकब के मुताबिक डोभाल ने दंगों को रोकने में अहम भूमिका निभाई थी. जैकब ने 1989 में इन दंगों पर एक रिपोर्ट लिखी जिसमें उन्होंने ये बात कही है. 1972 तक डोभाल को आईबी में भेज दिया गया था, वो इसके ऑपरेशन विंग का हिस्सा थे. साल 2005 में रियाटर होने के पहले, भले ही बेहद कम समय के लिए, वो इस संस्था के निदेशक के पद तक पहुंचे.
डोभाल जब आईबी में थे उस दौरान आजाद भारत के इतिहास की आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी कई बड़ी घटनाएं हुईं. उन्होंने इनमें से कई पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ा, हो सकता है ये उतना गहरा ना रहा हो जितने उनसे जुड़ी कहानियों में बताया जाता है. जिस किसी घटना से वो जुड़ते थे उनमें एक सामान बात होती थी और इस सामान बात को आईबी से जुड़े लोगों ने “अलग तरह की सोच” के इस्तेमाल का नाम दिया था, आमतौर पर इसका इस्तेमाल न्यायेतर माध्यमों से जुड़े कार्य के लिए व्यंजनात्मक तौर पर किया जाता रहा है. डोभाल इसके लिए अकेले तौर पर जिम्मेदार नहीं थे- भारतीय खुफिया सेवा डोभाल के आईबी का हिस्सा बनने के बहुत पहले से इन माध्यमों का इस्तेमाल करती आई है. लेकिन इन घटनाओं और कार्यप्रणाली ने डोभाल पर गहरा प्रभाव छोड़ा.
जब वो बिल्कुल नए थे तब आईबी के पहले काम के लिए वो आइजोल गए, वहां उन्होंने 1977 तक आईबी के सहायक संस्था के प्रमुख के तौर पर काम किया. उनके एक बैचमेट और आईबी के पूर्व विशेष निदेशक के एम सिंह के मुताबिक डोभाल ने खुद उन्हें यहां भेजे जाने की मांग की थी. ये एक साहसिक कदम था. 1966 में आस-पास की पहाड़ियों में विद्रोह हो गया, तब ये पहाड़ियां असम का हिस्सा थीं. लालडेंगा नाम के फौज के पूर्व हलवदार के नेतृत्व में मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) ने एक अलगाववादी घुसपैठ की मुहिम की शुरुआत की. सरकार ने इसका जवाब पुरजोर हिंसा के साथ दिया. भारत सरकार ने अपने ही देश के नागरिकों के खिलाफ वायु सेना तक का इस्तेमाल किया. इसी के तहत आइजोल पर बमवर्षा की गई. सरकारी बलों ने आइजोल और बाकी के शहरों से एमएनएफ वालों को साफ कर दिया. लेकिन ग्रामीण इलाकों में गुरिल्ला युद्ध जारी रहा जिसकी वजह से गांव के गांव जबरदस्ती खाली करवा दिए गए ताकि विद्रोहियों और उनके लड़कों को भूखा रखा जा सके और उनके राशन को रोक कर उनके ठिकनों का पता लगाया जा सके. डोभाल के वहां पहुंचने तक घुसपैठ तो कमजोर हो गई थी, लेकिन इलाके की स्थिति अब भी बेहद नाजुक थी.
1974 में अपनी सेवा के छठे साल में डोभाल को पुलिस पदक हासिल हुआ, ये एक अवॉर्ड है जो सम्मानिय सेवा के लिए मिलता है. उन्हें ये मेडल बेहद कम उम्र में हासिल हुआ- आमतौर पर ये उन अधिकारियों को हासिल होता रहा है जिन्होंने लंबे समय तक अपनी सेवा दी है.
घुसपैठ आधिकारिक तौर पर 1986 में समाप्त हो गई. इसके लिए मिजो शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुआ जिसके तहत सरकार ने मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया. लेकिन डोभाल इतने लंबे समय तक यहां नहीं ठहरे. हालांकि, उनकी जीवनी लिखने वाले कुछ पत्रकारों के मुताबिक ये सब अकेले उनकी वजह से ही संभव हो पाया था.
डोभाल के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनने के बाद उनका एक प्रोफाइल छपा जिसमें पत्रकार निखिल गोखले लिखते हैं, “जुलाई 1986 का मिजो समझौता...डोभाल की पहल से तेजी से आगे बढ़ा.” गोखले आगे बताते है, “पूर्वोत्तर में एक मध्यम-स्तर के खुफिया विभाग के अधिकारी के तौर पर वो मिजो नेशनल फ्रंट के भीतर घुस गए...इनके आधा दर्जन के करीब टॉप कमांडरों को ठिकाने लगा दिया और एसएनएफ की कमर तोड़ दी जिसकी वजह से इसके नेता लालडेंगा को शांति के लिए मजबूर होना पड़ा.”
“नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल जासूसों के सरताज हैं” के नाम से लिखे गए एक लेख में पत्रकार सैकत दत्ता ने एमएनएफ के इस पूर्व नेता के हवाले से लिखा है, “मेरे नीचे सात सैन्य कमांडर थे. डोभाल के जाने तक उनमें से छह समाप्त हो गए थे और मेरे पास शांति समझौत के लिए हां कहने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था.” सैकत ने ये बात लालडेंगा से लिए गए एक इंटरव्यू के हवाले से कही थी. हालांकि, उन्होंने न तो ये बताया था कि ये इंटरव्यू किसने लिया और ना ही ये कि ये इंटरव्यू कब लिया गया.
इसे बात को बार-बार मीडिया में छापा गया. जबकि इस पर सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं. 1972 में जब डोभाल आइजोल पहुंचे तब तक परिस्थितियां एमएनएफ के खिलाफ हो चुकी थीं. 1960 के अंत में बढ़ते दमन से भाग निकलने के लिए विद्रोहियों ने पूर्वी पाकिस्तान से लगने वाली सीमा पर चारों तरफ अड्डे बना लिए थे. 1971 में हुए भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान को हार का सामना करना पड़ा जिसके बाद बांग्लादेश का जन्म हुआ. इसी के बाद विद्रोहियों को उनके इस पनाहगाह से निकाल बाहर किया गया और वो भटकने को मजबूर हो गए. इसी के बाद एमएनएफ ने पहली बार भारत को समझौते का प्रास्ताव दिया, लेकिन बातचीत असफल रही. तब के असम के प्रमुख सचिव विजेंद्र सिंह जाफा ने बाद में लिखा कि एमएनएफ के तीन प्रमुख नेता भारत में घुस गए हैं और क्षमादान दिए जाने पर आत्मसमर्पण करने को तैयार हैं. ये सब डोभाल के वहां पहुंचने से पहले की बात है.
1972 की शुरुआत में भारत ने मिजोरम को केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर मान्यता दी और इसके बाद ये राज्य बना. इससे विद्रोह में शामिल नरम दल के लोगों को बल मिला. जाफा ने विद्रोहियों की घटती ताकत के पीछे की वजह बताते हुए कुछ और जानकारी दी. 1975 में मिजोरम में कार्यरत पुलिस महानिरीक्षक की हत्या कर दी गई. उनकी जगह पर फौज से रिटायर ब्रिगेडियर जीएस रंधावा ने ली. जाफा लिखते हैं कि दुश्मनों को मार गिराने के लिए, “नए पुलिस प्रमुख ने दुश्मन जैसा भेष बना लेने की नीति अख्तियार की जिससे उन्हें उल्लेखनीय सफलता हासिल हुई जिसकी वजह से कई बार उन्हें इसका भी श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने मिजोरम में विद्रोह की कमर तोड़ दी.”
शांति पर मुहर लगाने के लिए अभी भी बहुत काम बाकी था और यहीं डोभाल ने अपनी भूमिका अदा की. उनके कार्यकाल के दौरान सरकार और विद्रोहियों के बीच समझौते से जुड़ी बातचीत ने रफ्तार पकड़ी. 1975 में लालडेंगा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लिखा और शांति के प्रति अपनी रुचि जाहिर की. दिल्ली में हुई गुप्त बातचीत के बाद दोनों पक्षों ने इस बात पर जोर देते हुए एक समझौता तैयार किया जिसमें कहा गया कि मिजोरम भारत का अभिन्न अंग है.
तब के आइजोल के जिलाधिकारी रहे वीके दुग्गल ने मुझे बताया, “प्रधानमंत्री की तरफ से इसके लिए अनुमति और निर्देश आया और उपराज्यपाल और खुफिया विभाग ने इसका पालन किया. खुफिया विभाग ने गुप्त बातचीत को अंजाम दिया...डोभाल मिजोरम में सीधे मैदान संभाल रहे थे. जो लोग भूमिगत थे उन तक डोभाल की अच्छी पहुंच थी.”
2006 में डोभाल ने एक समाचार पत्र को एक साक्षात्कार में कहा कि उन्होंने आइजोल में विद्रोहियों को अपने घर पर बुलाया था. इस दौरान उनकी पत्नी भी मौजूद थीं लेकिन डोभाल ने उन्हें इसकी भनक तक नहीं होने दी कि घर में विद्रोही आए हैं. उन्होंने कहा, “उनके पास भारी मात्रा में हथियार थे लेकिन मैंने वचन दिया था कि वो सब सुरक्षित होंगे. मेरी पत्नी ने उनके लिए सूअर का मीट बनाया, बावजूद इसके कि उसने ऐसा कभी नहीं किया था.”
शांति समझौते के मसौदे को अमली जामा पहनाए जाने की दरकार थी, इसके लिए 1976 के मार्च में खुफिया विभाग ने तब के कलकत्ता में एमएनएफ की एक आपातकालिन सभा का आयोजन किया. अपने संस्मरण में तब के पूर्वी सेना कमांड के सेनाध्यक्ष जेएफआर जैकब लिखते हैं, “एक लंबी बातचीत जो शांति समझौते की तरफ बढ़ रही थी अभी भी बरकरार है. बिना किसी शक के डोभाल खुफिया विभाग के वो सबसे जबरदस्त अधिकारी थे जिनके साथ काम करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ.”
1976 का समझौता प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुआ. शांति को अंतिम रूप देने वाला मिजो शांति समझौता एक दशक बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में हुआ जिसके पीछे बेहद पेचीदे राजनीतिक प्रयासों की अहम भूमिका रही.
वीके दुग्गल ने मुझे बताया, “हमारे द्वारा लागू की गई सभी रणनीतियां अंतत: राजनीतिक फैसले थे. राजनीतिक नेतृत्व को कई पहलुओं को ध्यान में रखना होता था. मुझे नहीं लगता कि डोभाल कि इसमें कोई बहुत भूमिका रही थी लेकिन रणनीतियों के तए किए जाने के बाद उन्हें लागू करने में उस समय की उनकी भूमिका बेहद ठोस थी.”
खुफिया विभाग में डोभाल के समकालीन रहे एक अधिकारी ने मुझे बताया, “डोभाल और लालडेंगा साथ पीने वाले दोस्त बन गए. उन्होंने लालडेंगा का भरोसा जीता. ... इन अभियानों में ऐसा विरले ही होता है कि सिर्फ एक आदमी जिम्मेदार हो लेकिन कई बार एक आदमी अहम होता है.” पूर्व अधिकारी ने कहा कि उनका काम ही है जिसकी वजह से उन्होंने ऐसी बरकत की. वो कहते हैं, “बाकी सब बातें हैं.”
मानवाधिकार अधिवक्ता रवि नायर ने मुझे बताया, “एमएनएफ की ताकत समाप्त हो चुकी थी. उनके पास न तो नए हथियार थे और न ही नए लोग और वो समझौते के लिए तैयार थे. वो जब दिल्ली आए तो अपनी निराशाजनक स्थिति के साथ सबसे मिले. जिनसे वो मिले उनमें जॉर्ज फर्नांडिस तक का नाम शामिल है.” नायर तब के बड़े कद के विपक्ष के नेता फर्नांडिस के राजनीतिक सचिव के तौर पर काम कर रहे थे और लालडेंगा ने उनसे संपर्क साधने की कोशिश की थी. उन्होंने उन अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों की ओर ध्यान आकर्षित किया जिनकी वजह से लालडेंगा के पास विकल्प नहीं बचे थे: इनमें बांग्लादेश का जन्म, चीन की बदली विदेश नीति की वजह से अपना समर्थन वापसे ले लेना, बर्मा और चीन की पहाड़ियों में इनके पनाहगाहों के समाप्त होना जैसी बातें शामिल थी. उन्होंने कहा, “इन सभी कारणों से लालडेंगा को समझौते के लिए झुकना पड़ा. अगर खुफिया एजेंट भू सामरिक परिस्थितियों में आए बदलाव का श्रेय लेने लगे- तो भगवान ही मालिक है!”
जैसा कि उनकी मशहूर जीवनियों में लिखा है, डोभाल ने अगला तख्तापलट पाकिस्तान में किया. वो 1980 की शुरुआत में वहां पहुंचे लेकिन ये साफ नहीं है कि किस समय. इस दौरान इस्लामाबाद के भारतीय उच्चायोग में उनकी तैनाती हुई थी. इसके पहले एक बार फिर उन्होंने खुफिया विभाग की सहायक संस्था के प्रमुख के तौर पर सिक्किम में अपनी सेवा दी थी. ये वो दौर था जब भारत वहां अपनी स्थिति मजबूत कर रहा था जिसके बाद 1975 में इसे भारत का हिस्सा बना लिया गया.
खुफिया काम की सवेंदनशीलता को देखते हुए पाकिस्तान में डोभाल ने जो भी किया उसका पता लगाने के लिए बहुत कम ऐसी जानकारी है जिसकी सत्यता पर भरोसा किया जा सके. लेकिन पत्रकारों ने इस कमी को पूरा करने के लिए कहानियां बनाई हैं- और यही डोभाल ने खुद भी किया है.
2014 में “आखिर क्यों अजीत डोभाल भारत के लिए अब तक सबसे बेहतरीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं” के शीर्षक से लिखे गए एक लेख में पत्रकार राजीव शर्मा लिखते हैं, “डोभाल वो व्यक्ति हैं जिन्होंने अपनी जान को दांव पर लगाकर पाकिस्तान में बेहद भीतर तक घुसने की हिम्मत दिखाई और कई सालों तक वहां गुप्त तरीके से रहे जिसकी वजहे से वो पाकिस्तान के कहूटा परमाणु संयंत्र के बारे में वास्तविक समय में खुफिया सूचना भेजने में कामयाब रहे.” पत्रकार शिशिर गुप्ता ने 2012 में लिखा कि “ऐसा कहा जाता है कि 1980 में इस्लामाबाद में अपनी छह सालों की पोस्टिंग के दौरान डोभाल पाकिस्तान के कहूटा स्थित परमाणु प्रतिष्ठन तक में घुस गए थे.”
एक सुरक्षा पत्रकार ने मुझे बताया कि डोभाल ने पहले उस नाई की दुकान में जगह बनाई जो परमाणु प्रतिष्ठान के वैज्ञानिकों को सेवा देता था और वहां से उन्होंने बाल के नमूने इकट्ठा किए. उन्होंने कहा कि इसके सहारे यूरेनियम के उस ग्रेड का पता लगाया गया जिस पर ये लोग काम कर रहे थे.
ऐसे संवेदनशील अभियान की ऐसी विस्तृत जानकारी और इसमें डोभाल का योगदान तब असाधारण लगती है जब इसकी तुलना डोभाल की पाकिस्तान में हुई नियुक्ति पर मौजूद जानकारी को लेकर आम सहमति से की जाए, क्योंकि नियुक्ति से जुड़े जो साक्ष्य मौजूद हैं उन्हें लेकर आम सहमति नहीं है. यहां तक की उनके आधिकारिक पद तक से जुड़ी जानकारी का यही हाल है. इस पर भी संशय है कि पाकिस्तान में मौजूद उनके समकक्षों की जानकारी के बिना वो एक जासूस के तौर पर काम कर रहे होंगे- खुफिया अधिकारियों को मध्यम स्तर के राजनयिकों के रूप में पेश करना इस पेशे की एक पुरानी चाल है. रॉ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे बताया कि “बंपर-से-बंपर तक की निगरानी” की वजह से पाकिस्तान स्थित भारतीय उच्चायोग में तैनात किसी के लिए जासूसी करना असंभव काम है.
साल 2014 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकरा बनने से पहले डोभाल ने पुणे में मौजूद श्रोताओं को खुद पाकिस्तान से जुड़ा अपना एक किस्सा सुनाया. उन्होंने एक व्याख्यान खत्म किया था और सवाल ले रहे थे. इसी बीच एक युवा ने कहना शुरू किया, “सर मैंने सुना है कि आप पांच सालों तक पाकिस्तान में थे.” डोभाल ने इसे ठीक करते हुए कहा, “सात साल.” इसके बाद उस युवा ने डोभाल से उस समय के बारे में कुछ बताने को कहा. डोभाल ने हिंदी में कहा कि वो इस बारे में एक छोटी सी कहानी साझा करेंगे क्योंकि कुछ साल पहले किसी ने इस बारे में अखबार में लिखा था. उन्होंने कहा कि एक बार लाहौर में वो एक कब्रगाह के पास से गुजर रहे थे और जैसा कि वो एक मुस्लिम बनकर वहां पर रह रहे थे, उन्होंने कब्रगाह के भीतर जाने का फैसला लिया. कोने में बैठे सफेद लंबी दाढी वाले एक व्यक्ति का ध्यान उन पर गया और उन्होंने डोभाल को बुलाया. उस आदमी ने डोभाल से कहा, “तुम एक हिंदू हो.” डोभाल ने कहा कि वो हिंदू नहीं हैं. उस आदमी ने डोभाल को पीछे पीछे आने को कहा जिसके बाद कुछ गलियों से होते हुए उन्हें एक छोटे से कमरे में ले गया और दरवाजा बंद कर दिया. व्यक्ति ने फिर से जोर देकर कहा कि डोभाल एक हिंदू हैं जिसके जवाब में डोभाल ने कहा कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं. व्यक्ति ने जवाब दिया, “आपके कानों में छेद हैं.” इसके बाद डोभाल ने मान लिया कि उनका जन्म एक हिंदू परिवार में हुआ था और उनके कानों में बचपन में छेद करवाया गया था. लेकिन बाद में उन्होंने अपना धर्म बदल लिया. व्यक्ति ने ये बात मानने से इंकार कर दिया और कहा कि कान का छेद छिपाने के लिए उन्हें प्लास्टिक सर्जरी करवा लेनी चाहिए. इसके बाद उन्होंने डोभाल को बताया कि वो भी एक हिंदू हैं और “इन लोगों” ने उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी. इसके बाद उन्होंने कहा कि अब वो जैसे तैसे अपनी जान बचा रहे हैं और “डोभाल जैसे लोगों” को देखकर खुश होते हैं. इसके बाद उस व्यक्ति ने एक छोटी सी आलमारी खोली जिसमें शिव और दुर्गा की मूर्ती थी जिसकी वो बावजूद इसके लगातार पूजा करते हैं कि उनके आस पास के लोग उन्हें एक इज्जतदार मुसलमान के तौर पर देखते हैं.
ये कहानी भारत की सोशल मीडिया पर तैरने लगी जिसके बाद मुख्यधारा की मीडिया में भी अपनी जगह बना ली. लेकिन जब ये पाकिस्तान के कानों तक पहुंची तब उन्हें झूठी लगी. पाकिस्तान में बातचीत के सियासत नाम के मंच को इस्तेमाल करने वाले एक यूजर ने प्रतिक्रिया दी, “विश्वास करना मुश्किल है कि इतनी अच्छी हिंदी के उच्चारण वाले किसी व्यक्ति को पाकिस्तान में सात सालों तक लोग मुसलमान मानते रहे हों.”
विदेश मंत्रालय के एक पूर्व अधिकारी उस वक्त पाकिस्तान में ही थे और उन्होंने मुझे बताया, “वो पाकिस्तान में कोई खुफिया काम नहीं कर रहे थे. उन्हें खुफिया विभाग ने इसलिए नियुक्त किया था ताकि वो आंतरिक सुरक्षा और हाई कमिशन से जुड़ी चीज़ें देख सकें. मुझे लगता है, ये उनके ‘जानकारी का अधिकारी’ होने की बात खुफिया थी.” उन्हें कई सालों से जानने वाले एक वरिष्ठ संपादक के मुताबिक डोभाल का परिवार उनके साथ पाकिस्तान में रहता था और उनका बेटा शौर्य वहीं स्कूल जाता था.
अनुभवी पत्रकार शेखर गुप्ता ने पिछले साल डोभाल के बारे में लिखा, “अगर मुझे ठीक से याद है तो उनकी पहचान बस उनके व्यवसायिक हिस्से के प्रमुख होने वाली पोस्टिंग तक खुफिया थी. मुझे इस बात पर विश्वास है कि तब भारत और पाकिस्तान के बीच बहुत व्यापार नहीं था.” वो कहते हैं कि डोभाल “इस बात पर निगाह गड़ाए हुए थे कि जब कोई सिख पाकिस्तान में अपने धार्मिक स्थल पर जाता है तो वो किस तरह के विनाश और अलगाववादी प्रचार का शिकार होता है”- ये उस दौर की बात है जब खालिस्तान की मुहिम अपने चरम पर थी. आगे कहा गया कि “ऐसी ही एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के दौरान उन पर तीर्थयात्रियों के एक जत्थे ने हमला कर दिया था. इसके पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर सर्विस इंटेलिजेंस (आईएसआई) का हाथ था.” इंटर सर्विस इंटेलिजेंस या आईएसआई-पाकिस्तान की मुख्य खुफिया एजेंसी है-ज्यादातर लोगों का मानना है कि खालिस्तान विद्रोह में इसका हाथ था.
1982 से 1985 के बीच जी पार्थसार्थी कराची में भारत के वाणिज्य दूत थे और बाद में देश के हाई कमिश्नर बने. उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें याद है कि डोभाल को इस्लामाबाद का पहला सचिव नियुक्त किया गया था. पार्थसार्थी कहते हैं, “वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने नवाज शरीफ से संपर्क साधा था. 1982 के इस मामले के दौरान शरीफ एक युवा थे जो राजनीति में आने को तैयार थे.” जब शरीफ से संपर्क साधा गया तब वो पाकिस्तान स्थित पंजाब के वित्त मंत्री थे. 1982 में पाकिस्तान दौरे पर गई भारतीय टीम जब लाहौर पहुंची तो शरीफ ने अपने घर पर एक भव्य पार्टी के आयोजन से उनका स्वागत किया. पार्थसार्थी का कहना है कि ये डोभाल की वजह से ही संभव हुआ.
1980 के अंत के दौरान डोभाल वापस लौटकर भारत स्थित पंजाब में आ गए जहां उन्होंने खालिस्तान विद्रोह को शांत करने का जिम्मा संभाला. तब ये भारत के घरेलू स्तर पर सबसे बड़ा खतरा था. उनकी जीवनी लिखने वाले का कहना है कि 1988 में जब खालिस्तानी उग्रवादियों ने स्वर्ण मंदिर के भीतर अपने लिए किलाबंदी कर ली तब डोभाल अमृतसर स्थित इस मंदिर में ही थे. 1984 में हुए ऑपरेशन ब्लू स्टार की यादें अभी भी ताजा थीं. तब भारतीय बलों ने उग्रवादियों को निकाल बाहर करने के लिए प्रांगण पर धावा बोला था और इसमें आम लोगों की जान को खासा नुकसान पहुंचा था, वहीं इस पवित्र स्थान को भी नुकसान पहुंचा था. यहीं नहीं, सिखों और भारत सरकार के रिश्तों में भी काफी कड़वाहट आ गई थी. सो इस बार सरकार को कोई बेहतर समाधान चाहिए था.
उग्रवादियों के हमले के बाद पंजाब के पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल के नेतृत्व में सरकारी बलों ने 9 मई को परिसर की घेराबंदी शुरू की. निशानेबाजों को इसके आप-पास की ऊचीं इमारतों पर भेजा गया और पानी और बिजली काट दी गई. इसके बाद सुरक्षाबलों ने विद्रोहियों को निशाना बनान शुरू किया. फंसाए जाने और हतोत्साहित किए जाने के बाद विद्रोहियों ने 18 मई को समर्पण करना शुरू कर दिया. इसी के साथ ऑपरेशन ब्लैक थंडर 2 समाप्त हो गया.
ऑपरेशन ब्लू स्टार की इस बात के लिए आलोचना हुई थी कि उस ऑपरेशन के दौरान स्वतंत्र समीक्षक वहां मौजूद नहीं थे, इसलिए ऑपरेशन ब्लैक थंडर 2 के दौरान गिल ने सैकड़ों पत्रकारों को बुलाया था. इनकी मौजूदगी के अलावा इस दौरान बड़ी मात्रा में प्रशासनिक अधिकारियों की भी मौजूदगी बनी रही जिसकी वजह से उसी साल बाद में ऑपरेशन से जुड़ी कई बातें छापी गई थीं. इनमें से कुछ में ऑपरेशन के दौरान इंटेलिजेंस के योगदान से जुड़ी बातें भी शामिल हैं.
मलोय कृष्णा धर तब पंजाब में खुफिया विभाग का हिस्सा थे और बाद में संस्था के संयुक्त निदेशक बने. इस घटना के बारे में उन्होंने 2005 में आई अपनी किताब में लिखा है. किताब में उन्होंने लिखा है कि घेराबंदी के दौरान, “परिक्रमा में मौजूद खुफिया विभाग के बहरूपियों ने जो रिपोर्ट भेजी उसमें वहां हथियारों और बमों की ताजा खेप पहुंचने की बात कही गई थी.” शेखर गुप्ता और पत्रकार विपुल मुदगल ने इंडिया टुडे के लिए लिखा, “9 मार्च को...पहरे पर तैनात अधिकारी हर हरकत पर नजर बनाए हुए थे. इस दौरान हर व्यक्ति, हथियार, चेहरे की गितनी और पहचान की जा रही थी.”
1988 में सरबजीत सिंह अमृतसर के उपायुक्त थे. 2002 में उन्होंने ऑपरेशन ब्लैक थंडर: पंजाब में आतंकवाद पर एक प्रत्यक्षदर्शी का वर्णन नाम की एक किताब लिखी. इसमें वो लिखते हैं, “13 मई को खुफिया विभाग के सहायक निदेशक नेहचल संधू ने एक रिपोर्टर बनकर मंदिर में मौजूद उग्रवादियों से बात की. उनके मुताबिक उग्रवादियों की आवाज में मायूसी थी. इस वजह से उन्होंने उग्रवादियों को सलाह दी कि बाहर निकलने के लिए उन्हें उपायुक्त से फोन पर बात करनी चाहिए.” अगले दिन सिंह ने जानकारी दी कि उग्रवादियों ने गिल समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों से बात की. सिंह ने इस मुहिम में सफलता का श्रेय मुख्य तौर पर गिल को दिया. वहीं उन्होंने गिल के कनिष्ठ अधिकारी जूलियो रिबेरो और राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के प्रमुख वेद मारवाह को भी इसका श्रेय दिया. राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड गृह मंत्रालय के भीतर आने वाला एक विशेष बल है जिसने घेराबंदी समाप्त करने में एक अहम भूमिका निभाई थी.
इनमें से किसी में डोभाल के बारे में कुछ लिखा या कहा नहीं गया. सालों बाद जब इस घटना से जुड़े किसी व्यक्ति का नाम छुपाए जाने की जरूरत नहीं थी और सबके नाम लिए जाने लगे तब भी इस मामले पर जो लिखा गया उसमें भी डोभाल का जिक्र नहीं था.
पत्रकार यतीश यादव ने “सुपर जासूस की वापसी” के नाम से एनएसए प्रमुख की एक प्रोफाइल लिखी है,
1988 की बात है. अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के करीब रहने वाले लोग...और खालिस्तानी उग्रवादियों ने एक रिक्शे वाले को रिक्शा चलाते देखा...रिक्शे वाले ने उग्रवादियों को इस बात का भरोसा दिलाया कि वो आईएसआई का गुर्गा है, उसे पाकिस्तानी आकाओं ने खालिस्तानी मुहिम में मदद करने के लिए भेजा है. ऑपरेशन ब्लैक थंडर के दो दिनों पहले रिक्शे वाला स्वर्ण मंदिर के भीतर गया और बेहद अहम जानकारियों के साथ वापस लौटा, इसमें अंदर मौजूद आतंकियों की संख्या और उनकी वास्तविक ताकत जैसी अहम बातें शामिल थीं. जब आखिरी हमला शुरू हुआ तब ये युवा पुलिस वाला मंदिर के भीतर मौजूद था और उस बेहद अहम जानकारी को सुरक्षा बलों तक पहुंचा रहा था जिसकी वजह से तलाशी को सफलता पूर्वक अंजाम देने में मदद मिली.
पत्रकार प्रवीण स्वामी ने 2014 की फरवरी में लिखते हुए इसका और विस्तृत ब्यौरा दिया है.
1988 की गर्मी में पूरे पंजाब में झुलसा देने वाली मौत की हवा बह रही थी, इसी बीच एक छोटे कद का दृढ व्यक्ति स्वर्ण मंदिर में घुसा. वहां उसके प्रवेश करने के बाद खालिस्तानी आतंकी कमांडर सुरजीत सिंह पेंटा ने एक सम्माननीय अतिथि की तरह उसका स्वागत किया. पेटां ने इस मंदिर को अपने किले में तब्दील कर दिया था. अगले कई दिनों तक पेंटा ने उस व्यक्ति के साथ मंदिर में विस्फोटक बिछाने का काम किया. पेंटा को लग रहा था कि वो पाकिस्तान की इंटर सर्विसेट एजेंसी (आईएसआई) के निदेशालय की तरफ से भेजा गया अधिकारी है. पेंटा को इस बात का भरोसा था कि भारतीय सुरक्षा बल 1984 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जैसे मंदिर के अंदर घुस गए थे, इसके चारों तरफ विस्फोटक लगा देने से वो ऐसा करने से बचेंगे.
नई दिल्ली ने पेटा कि धमकियों को नजरअंदाज कर दिया: सारे विस्फोटक बेकार थे और जिसे पेटा आईएसआई का आदमी समझ रहे थे, दशकों बाद वो भारत के खुफिया विभाग का आदमी निकला. बाद में भारत के राष्ट्रपति ने डोभाल को कीर्ति चक्र से सम्मानित किया. ये चांदी का एक छोटा सा चक्र होता है जिसमें धर्म का पहिया और एक कमल का फूल बना होता है और इस पर कीर्ति चक्र लिखा होता है.
2006 में स्वामी ने भारत, पाकिस्तान और खुफिया जिहाद के नाम से एक किताब लिखी है जिसकी अभिस्वीकृति में डोभाल का नाम दिया है.
किताब की समीक्षा लिखते हुए डोभाल ने इसके लेखक से साथ लंबे समय से नाता होने की ओर इशारा किया है. वो लिखते हैं, “कई साल पहले मैंने स्वामी के पत्रकरिता संबंधी परिदृश्य में एक शोधकर्ता का जिद्दीपन और बुद्धिजीवी जैसी जिज्ञासा देखी थी- ये वो गुण है जो आम तौर पर एक खुफिया अधिकारी को पसंद नहीं आते! तय जानकारी से बाहर जाकर उनकी जानने की इच्छा और जो मौजूद है उसके बार में वैचारिक स्पष्टीकरण ढूंढ निकालने में वो बीतते समय के साथ और पैनापन लाते चले गए हैं.”
घेराबंदी के दौरान डोभाल ने जो भी किया उसका आंखो देखा हाल बताने वाले इकलौते शख्स करण खर्ब हैं. करण एक सेवानिवृत्त कर्नल हैं और वो इस ऑपरेशन के दौरान एनएसजी के एक दस्ते का नेतृत्व कर रहे थे. जिस साल डोभाल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने थे यानी साल 2014 में छपे एक लेख में करण लिखते हैं,
जब डोभाल वहां पहुंचे, तब उन्हें सभी लोग नहीं पहचानते थे. कुछ चुनिंदा लोगों को इस अभियान के दौरान एक शानदार पुलिसा वाले की उनकी भूमिका के बारे में पता था. स्वर्ण मंदिर के भीतर जो भी चल रहा था उन्होंने हमें उसकी सीधी जानकारी दी...ये सब उन्होंने अपनी जान की परवाह किए बगैर किया. गोलियों की बारिश के बीच वो पूरे स्वर्ण मंदिर परिसर में चहलकदमी कर रहे थे. बहुत बाद में हमें पता चला कि उन्होंने खुद को एक आईएसआई एजेंट के रूप में पेश किया था.
जब खर्ब से मेरी मुलाकात हुई तब उन्होंने इन ब्यौरों की पुष्टी की और कई अन्य जानकारियां दीं. उन्होंने कहा, “यहां तक की जब हम गोलियां चला रहे थे, वो अंदर बाहर आ जा रहे थे.” खर्ब ने मुझसे ये बात भी बताई कि वो और डोभाल दोस्त हैं.
9 मई को जब गोलीबारी शुरू हुई तब पत्रकार दिनेश कुमार परिसर के भीतर थे. उन्होंने मुझसे कहा, “मुझे इस बात पर बहुत ज्यादा शक है कि डोभाल स्वर्ण मंदिर के भीतर थे. 1 बजे के करीब गोलीबारी शुरू हुई. हम वहां से शाम 7 बजे निकले. हम चार पत्रकारों के अलावा पांच और लोग थे लेकिन हम सब साथ थे और एक-दूसरे को जानते थे.” ये भी एक रहस्य है कि जब डोभाल भीतर थे तब उन्होंने जानकारी बाहर कैसे भेजी. क्योंकि बिना किसी रुकावट के परिसर के बाहर भीतर आने जाने से शक पैदा होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. उन दिनों में जो इकलौत विकल्प और था, वो था फोन करना. कुमार कहते हैं कि ऐसी स्थिति में वॉकी-टॉकी की जरूरत पड़ती लेकिन इससे भी शक पैदा होता.
सतीश जैकब नाम के एक और पत्रकार इस घेराबंदी के गवाह रहे हैं, उन्होंने मुझे बताया, “मैंने एनएसजी के उन शार्पशूटर कमांडो के साथ बड़े आराम से तीन दिन बिताए और मिला-जुला. वो एक होटल की छत पर से स्वर्ण मंदिर के भीतर मौजूद इकलौते टैंक की निगरानी कर रहे थे. लेकिन मैंने इस सुपरकॉप (डोभाल) को कही नहीं देखा.” जैकब कहते हैं कि डोभाल के कारनामों के जो किस्से प्रवीण स्वामी कहते हैं वो सच हो सकते हैं लेकिन उन्हें सुनने के बाद उन पर यकीन करना मुश्किल है. इस दौरान वहां एक और रिपोर्टर विपुल मुद्गल मौजूद थे और उनका कहना है कि, “ऐसी बातों को स्वीकार करना या नकार देना दोनों ही बहुत मुश्किल है लेकिन मुझे इन पर बहुत ज़्यादा शक है.”
तब के पंजाब अभियान में शामिल एक पूर्व खुफिया विभाग के अधिकरी ने मुझे बताया, “एक मानक संचालन प्रक्रिया होती है जिसका सबको पालन करना होता है. डोभाल तब सह निदेशक थे. यानी डीआईबी”-जिसे आईबी का डायरेक्टर भी कहते हैं-“उनके कंट्रोल में सबकुछ होता है. ...कोई वरिष्ठ अधिकारी भीतर जाने की सोच भी नहीं सकता है.” अधिकारी ने कहा अगर किसी अपने आदमी को उनका आदमी बनाकर भेजा जाना है तो, “ऐसी परिस्थिति में एक सिपाही या प्रधान सिपाही को भेजा जाएगा या किसी ऐसे को भेजा जाएगा जिसका विद्रोहियों के साथ कोई संबंध हो जिसकी वजह से वो उनके साथ सहज स्थिति में हो. हमने कभी किसी बाहरी को नहीं भेजा. सिर्फ मेरे कह देने मात्र से की मैं आईएसआई से हूं, कोई आतंकी संस्था ये बात नहीं मानेगी.”
1990 की शुरुआत में खालिस्तानी विद्रोह को मोटे तौर पर समाप्त कर दिया गया था. अभी के दौर में आम सहमति इस बात पर है कि इस सफलता का श्रेय मुख्य तौर पर केपीएस गिल और जूलियो रिबेरो के नेतृत्व में वहां की स्थानीय पुलिस को जाता है. खुफिया विभाग समेत खुफिया तंत्र से इनके काम को मदद जरूर मिली होगी और इसमें डोभाल का भी हाथ रहा होगा-लेकिन ये किसी स्तर तक था ये साफ नहीं है. खर्ब ने मुझे बताया कि “पंजाब में खुफिया अभियान पूरी तरह से डोभाल के जिम्मे था.” 2011 में डोभाल ने भारत में आंतकवाद के मुकाबले की राजनीति के नाम से छपी एक किताब की प्रस्तावना लिखी. वहां उन्होंने इसमें खुफिया विभाग को श्रेय देते हुए कहा कि इसमें लिखी बातें “आम धारणा को ध्वस्त करती हैं जिसका मानना है कि सिर्फ और सिर्फ बल की वजह से खालिस्तानी उग्रवाद को हराया जा सका और भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो द्वारा किए गए खुफिया पैंतरेबाजी की महता से हुए फायदे को रेखांकित करती है, जिसने आईएसआई द्वारा की गई गलतियों का बहुत अच्छे से इस्तेमाल किया.” शेखर गुप्ता ने 2016 में लिखा, “मैंने हल्की हंसी मजाक में प्राय: कहा है कि ऑपरेशन ब्लैक थंडर के फेज (1989-90) में पंजाब में मारे या पकड़े गए हर ए या बी श्रेणी के उग्रवादी का ‘कैच डोभाल ने पकड़ा, बोलिंग गिल ने की’ इसलिए दोनों को श्रेय जाता है. अंतिम फेज में, देश भर में खालिस्तानी आतंकियों की तलाश में डोभाल ज्यादा सक्रिये थे और इसे उस आडम्बर के साथ अंजाम दिया जिसके लिए वो जाने जाते हैं.” उनके काम से जुड़ा विवरण अभी लिखा जाना बाकी है.
1992 और 1996 के बीच, डोभाल लंदन स्थित भारत के दूतावास में कार्यरत थे. वहां उन्होंने जो भी किया उसमें से बेहद कम बातें सामने आई हैं. पूर्वोत्तर, पाकिस्तान और पंजाब भी उन्होंने जो किया उसे सबके सामने आने में बहुत समय लगा. तब तक डोभाल का करियर बहुत आगे निकल गया था. लाइमलाइट में उनकी पहली उपस्थिति सदी की शुरुआत में आई थी.
1999 में क्रिस्मस के त्यौहार के दौरान एक भारतीय एयरलाइन की एक फ्लाइट काठमांडू से दिल्ली के लिए उड़ान भरने वाली थी. लेकिन इसे हाईजैक कर लिया गया. 1C 814 संख्या का ये जहाज अमृतसर में उतारा गया जिसके बाद इसे लाहौर ले जाया गया फिर दुबई और अंत में विमान कंधार में जाकर रुका.
दिल्ली में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की निगरानी में प्रमुख नौकरशाहों और मंत्रियों के आपदा प्रबंधन वाले एक समूह की बैठक बुलाई गई. 27 दिसंबर को विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी विवेक काटजू के नेतृत्व में एक भारतीय दल कंधार पहुंचा. इनके साथ एक और समूह था जिसके जिम्मे मध्यस्थता का काम था. इस टीम का हिस्सा रॉ के दो अधिकारी थे और इनके अलावा खुफिया विभाग से नेहचल संधू और डोभाल भी इसमें शामिल थे.
इस संकट के तुरंत बाद, इंडिया टुडे में एक लेख छपा जिसमें हरिंदर बवेजा और नकवी भौमिक ने मध्यस्थता से जुड़ी बातों के बारे में बताया. इसमें तालिबान तटस्थ भूमिका निभाने की बात कर रहा था लेकिन साफ था कि वो विमान का अपहरण करने वालों के साथ है. बवेजा और भौमिक ने लिखा है, “दोतरफा आक्रमण का सामना कर रही मध्यस्था में शामिल टीम के लोगों ने अपनी भूमिका ही बदल दी. एक तरफ जहां काटजू तालिबान से बातचीत करने लगे वहीं डोभाल ने अपरणकर्ताओं के मामले में कमान संभाली.”
बंधकों के बदले अपहरणकर्ताओं ने कई चीजें मांगी जिनमें 36 इस्लामी आतंकियों को रिहा किए जाने के अलावा 200 मिलियन डॉलर कैश की भी मांग की गई थी. बावेजा और भैमिक लिखते हैं, “डोभाल ने अपहरणकर्ताओं से अपील की कि पहले वो महिलाओं और बच्चों को जाने दें. इसके पीछे की मंशा ये थी कि अपहरणकर्ताओं के भीतर कितना दृढनिश्चय है इसका पता लगाया जा सके और उनकी मानवीय संवेदनाओं का सहारा लिया जा सके.” लेकिन ये असफल हो गया. बाद में 2006 में दिए गए एक साक्षात्कार में डोभाल ने बवेजा को बताया, “वो फिदायीन मिशन पर थे. ...इस देश ने जितने अपहरणकर्ताओं का सामना किया है मैं उन सभी से होकर गुजरा हूं. बातचीत करने वाले के जिम्मे एक अहम काम ये होता है कि वो सामने वाले की दिमागी हलचल का पता लगाए और देखे के उनके दिमाग में क्या चल रहा है. सो उन्होंने इसी के साथ शुरु किया. मुझे लगा कि 36 घंटे बीत जाने के बाद वो लोग किसी तरह का लचीलापन दिखाएंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.”
साल 2000 के मार्च में विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने संसद को बताया कि एक ऐसा समय आया जब तालिबान ने बीच में आकर कहा कि अपहरणकर्ताओं ने पैसे और भारत में दफनाए गए उग्रवादियों के अवशेष लौटाने की जो मांग की है वो गैर इस्लामिक है. सिंह ने दावा किया कि इसके बाद वो इन मांगों से पीछे हट गए.
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक 30 दिसंबर को तालिबान ने बातचीत करने आए दल और अपहरणकर्ताओं को अंतिम चेतावनी दे डाली. इसके बाद अपहरणकर्ताओं ने जिन 36 इस्लामी आतंकियों के नाम दिए थे उनमें से तीन आतंकियों की रिहाई पर वो राजी हो गए. उनमें से सबसे बड़ा नाम मसूद अजहर का था जिसने बाद में चलकर जैश-ए-मोहम्मद जैसे उग्रवादी संगठन की नींव रखी.
सदी के आखिरी दिन अपहरण किए गए लोगों को आतंकियों के बदले छुड़ाया गया और अपहरणकर्ता अफगानिस्तान में गयाब हो गए. जसवंत सिंह ने कंधार के लिए उड़ान भरी और इस दौरान उनके साथ वो तीन आतंकी थे. 2015 में पत्रकार सीमा मुस्तफा ने लिखा था कि सिंह अपने साथ वो रकम भी ले गए थे जिसकी मांग अपहरणकर्ताओं ने की थी-और बाद में संसद में झूठा बयान दे दिया.
ये पूरी घटना भारतीय राजनीति और इसके सुरक्षा संस्थान के लिए एक विपदा साबित हुई. विपक्ष ने उस समय सरकार के इस “आत्मसमर्पण” की निंदा की. एएस दौलत तब रॉ के प्रमुख और सरकार की आपदा प्रबंधन टीम का हिस्सा था, अपनी किताब कश्मीर: द वाजपेयी ईयर्स उन्होंने इसे “बेवकूफाना गलती” करार दिया. तब के कट्टर गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने इस वजह से इस्तीफे तक की धमकी दे डाली क्योंकि उन्हें लगा कि इसकी वजह से भारत कमजोर नजर आ रहा था. 2006 में एक साक्षात्कार में डोभाल ने इसे “राष्ट्रीय खुफिया विफलता” करार दिया. मुस्तफा ने लिखा है कि विमान के अपहरण के बाद की असफलता “को छुपाने के लिए बहुत बातें दबा दी गईं और हर कोई इसी कोशिश में था कि इसका दोष दूसरे के सिर मढ़ दे.” उन्होंने बताया है कि इसमें शामिल सभी अधिकारियों को पदोन्नति दी गई और “उनमें से एक आज काम में वापस लौट आया है.”
साल 2014 में टीवी पर बोलते हुए दौलत ने कहा, “IC 814 के मामले में किसी तरह के जश्न की कोई वजह नहीं थी. हमारे सभी विकल्प ठप्प पड़ गए थे. जो आखिरी चीज हमें करनी थी वो ये कि किसी कीमत पर यात्रियों को प्लेन समेत बचा लें. फिर डोभाल-साहब ने ये कर दिखाया. सिर्फ डोभाल ही नहीं, वहां और भी लोग थे...ये एक सामूहिक प्रयास था.”
इस घटना में कई लोग बाद में इस मामले पर सरेआम बात करने को लेकर उदासीन दिखे, लेकिन निवृत्त होने के बाद डोभाल बार-बार इस घटना का जिक्र करते पाए गए. मायरा मैकडॉनल्ड ने 2016 में छपी अपनी किताब हार की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता: कैसे पाकिस्तान ने दक्षिण दक्षिण एशिया के बड़े युद्ध में हार का सामना किया में उनका एक साक्षात्कार छापा जिसमें उन्होंने कहा कि अगर अपरहणकर्ताओं को आईएसआई का समर्थन हासिल नहीं होता तो “हम अपरहणकर्ताओं से प्लेन खाली करवा लेते.” इस मामले में उनकी भूमिका मीडिया के लिए एक ऐसा चीज है जिसे उनकी सफलता को दर्शाने के लिए बार बार इस्तेमाल किया जाता है.
डोभाल के काम के लिहाज से 1990 के दौर में कश्मीर एक अहम जगह थी. उस दशक में भारत घुसपैठ की जबरदस्त समस्या से जूझ रहा था, क्योंकि हजारों कश्मीरी युवा नियंत्रण रेखा पार करके ट्रेनिंग लेने पाकिस्तान जा रहे थे और उग्रवादी बनकर लौट रहे थे. कठोर दमन और भारी संख्या में सैन्य बलों की मौजूदगी के बावजूद दशक के मध्य में सरकार घाटी में अपनी पकड़ वापसे पाने के लिए संघर्ष कर रही थी.
ब्रिटेन के खोजी पत्रकार एड्रियन लेवी और कैथी स्कॉच क्लार्क 2012 में छपी अपनी किताब द मिडो में लिखते हैं कि इसे शांत करने की प्रक्रिया में डोभाल ने एक नई रणनीति का इस्तेमाल किया. उन्होंने “बेहद करीब से उग्रवादियों के पाकिस्तानीकरण पर नजर डाली, सीमा रेखा से बढ़ती घुसपैठ की निगरानी की, इसके बाद उन्होंने इस पर लगाम लगाने की बेहद दूरगामी योजनाएं बनाई और पाकिस्तान की पोल खोलने का काम किया.” उनकी ये किताब कश्मीरी उग्रवादियों के उस कृत्य पर थी जिसमें उन्होंने 1995 की गर्मियों में पश्चिमी जगत के छह सैलानियों को अगवा कर लिया था.
साल 2012 में एक पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में लेवी कहते हैं कि अपहरण के पीछे पाकिस्तान का हाथ था जिसे भारत ने पहचान लिया और “इसका इस्तेमाल पड़ोसी मुल्क के कश्मीर को अस्थिर करने के प्रायस का पर्दाफाश करने के लिए किया और ऐसा उस समय हुआ जब पश्चिम इस पर किसी तरह के दखल से बच रहा था क्योंकि उसे ये मानवाधिकार का छोटा मामला लगता था.” उन्होंने कहा, “भारतीय फौज और इंटेलिजेंस में मौजूद समझौता विरोधी धड़ों” ने एक अभियान चलाया जिसके तहत स्थिति का हवाला देकर ये साबित किया जा सके कि “पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो आंतकवाद का समर्थक है” और ये भी कहा गया कि “इस दौरान खुफिया विभाग, रॉ और आर्मी को पता था कि बंधकों को वारवान घाटी में कहां रखा गया है- ये समय जुलाई 1995 के मध्य में कुछ 10 या 11 हफ्तों का था.” जब अपहरण में शामिल संगठन अल-फरन ने हार मान ली, “घाटी के खुफिया विभाग और सैन्य प्रतिष्ठान में कुछ लोगों द्वारा समर्थित लोगों ने बंधकों को अपने जिम्मे ले लिया.” छह में से एक बंधक भाग निकला, एक का सिर कलम कर दिया गया और उनमें से जिन चार का पता नहीं चला, उन्हें मृत मान लिया गया.
कश्मीर में सुरक्षा स्थिति के एक विशेषज्ञ ने इस अपहरण पर अध्ययन किया था और उन्होंने ऊपर कही गई बातों की मुझसे पुष्टी की. उन्होंने जानकारी देते हुए कहा कि जिन खुफिया अधिकारियों ने ये अभियान चलाया था उनमें डोभाल भी शामिल थे. एएस दौलत भी इसका हिस्सा था. 1990 के मध्य में वो आईबी में डोभाल के वरिष्ठ थे, बाद में उन्हें पदोन्नति देकर रॉ का प्रमुख बना दिया गया. विशेषज्ञ ने कहा कि जिस दौरान ये घटना हुई उस दौरान जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था जिसकी वजह से इंटेलिजेंस के लोगों ने जैसा चाहा वैसा किया.
विशेषज्ञ ने मुझसे डोभाल कि “शून्य संदेह नीति” के बारे में बताया- “ये परिभाषा डोभाल के सहकर्मियों ने उछाली थी, क्योंकि डोभाल व्यवहारिक विचारों वाले सपने देखते थे और कई बार ऐसी बातें सोचते थे जो शायद ही कोई और सोच पाए जिसके बाद वो इन विचारों को मीटिंग में सबके सामने रखते थे. इन्हें साझा करने के दौरान वो अपनी पलकें तक नहीं झपकाते थे.” विशेषज्ञ ने कहा कि “शून्य संदेह नीति” का मतलब इसी से था कि डोभाल “कभी किसी तरह के शक को जगह नहीं देते थे.”
कश्मीर में डोभाल के काम की सार्वजनिक जानकारी न के बराबर है लेकिन भारतीय पत्रकारों ने इससे जुड़ी बातें सामने लाई हैं. खासतौर पर उनकी प्रमुख जीवनियों में उन्हें इस बात का श्रेय दिया गया है कि उन्होंने लोक-गायक से उग्रवादी बने कुका पारे को पाला बदलने के लिए मना लिया था और इखवान-उल-मुसलमीन की स्थापना की. ये पाला बदलने वाले आंतकियों की एक आतंकवाद विरोधी इकाई थी. बाद में जाकर इस पर बलात्करा, हत्या, ब्लैकमेल, अपहरण और लोगों को गायब करने जैसे कई गंभीर आरोप लगे.
रक्षा विश्लेषक भरत कर्नाड ने 2016 में लिखा कि “पारे का पाला बदलवाना एक राजनीतिक जीत भी थी जिसकी वजह से केंद्र सरकार 1996 में जम्मू-कश्मीर में चुनाव करवाने में सफल रही.” कश्मीर में 1990 से राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था. चुनावों के दौरान भारी मात्रा में भारतीय सुरक्षा बलों के जवानों की भी तैनाती हुई जिन्हें अफस्पा के तहत खुली छूट हासिल थी. इस चुनाव में अब्दुल्ला की जीत के बाद उनकी सरकार बनी जिसे घाटी में उस दौरान आई घुसपैठ में कमी के पीछे की बड़ी वजह बताया जाता है.
कश्मीर: द वाजपेयी ईयर्स में ए एस दौलत इस पर लिखते है, पारे को अपने पाले में लाने और उसकी इकाई का गठन करने के पीछे सिर्फ डोभाल और आईबी का हाथ नहीं था. दौलत ने लिखा है कि “राष्ट्रीय राइफल्स से कुका पारे नाम के लोक-गायक की मुलाकात अब्दुल्लाह से करवाई गई जिसके बाद उन्होंने आतंकवाद विरोधी बल का नेतृत्व किया...ये फौज की कई सफलताओं में से एक सफलता थी.” साउथ कश्मरी में इखवान-उल-मुसलमीन के प्रमुख लियाकत अली खान ने मुझे 2015 में एक इंटरव्यू के दौरान बताया कि बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स (बीएसएफ) के ईआर राममोहन ने परे की मुलाकात आर्मी से करवाई थी.
कश्मीर में रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव रखने वाली आशा खोसा के मुताबिक डोभाल और आर्मी जनरल शांतनु चौधरी पूर्व उग्रवादियों की एक क्षेत्रिए फौजी टुकड़ी बानने के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनके गृहमंत्री आडवाणी को मनाने में बहुत प्रभावी थे. ये एक बड़ी समझ का कारण बना.1998 में खान और इखवान-उल-मुसलमीन के अन्य सदस्य बेहद कम अंतराल के लिए बीजेपी के सदस्य बने. इसके अगले साल खाने ने मुझे बताया कि सरकार और सभी सुरक्षा बलों ने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के गठन का समर्थन किया था, इस पार्टी ने भारत का हिस्सा रहते हुए कश्मीर के लिए ज्यादा स्वायत्तता की वकालत की और भारत से अलगाव की मांग नहीं की. कई पूर्व अलगाववादी इस पार्टी का हिस्सा बन गए. कश्मीर में उस वक्त आईबी के सबसे प्रमुख आदमी डोभाल ने इस प्रक्रिया में मदद की. साल 2002 में पीडीपी ने घटी में पहली बार सत्ता हासिल की.
कारगिल युद्ध के बाद 1999 की गर्मियों में, भारतीय बलों के प्रदर्शन पर आई एक आधिकारिक रिपोर्ट ने खुफिया अभियानों की विफलताओं के बारे में बताया. वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार मे एक मल्टी एजेंसी सेंटर का गठन किया जिसका काम कई खुफिया संस्थाओं के प्रयासों में तालमेल बिठाना था. तक के आईबी के विशेष निदेशक डोभाल को इसकी कामन सौंपी गई.
उस दौर में डोभाल को जानने वाले एक रॉ अधिकारी ने बिना आगे की जानकारी दिए मुझे बताया कि आईबी का ये आदमी “इस संस्था की सरंचना को लेकर बिल्कुल स्पष्ट और दृढ़ था.” डोभाल के बेहद करीब काम करने वाले कई लोगों ने मुझे बताया है कि वो बहुत देर तक काम करते हैं और बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धी स्वभाव के हैं. रॉ के एक पूर्व अधिकारी ने मुझे बताया कि डोभाल को लेकर संस्था में एक आम राय है कि वो “हमारे सूत्रों को अपने पाले में लेने की कोशिश करते थे. वो उनसे कहते थे कि हमारे भीतर उतनी काबिलियत नहीं है और ऐसा सुनने के बाद सूत्र वापस आकर हमें बताते थे. वो हमसे एक कदम आगे रहना चाहते थे और वो हमेशा हमसे मीलों आगे रहते थे.”
एक वरिष्ठ आईबी अधिकारी ने कहा, “मुझे आश्चर्य होता था कि उन्हें किस चीज से शक्ति मिलती है. डोभाल कभी क्षणिक कमजोरी का शिकार नहीं होते थे. उन्हें तो यश या गर्व महसूस होता था, हमेशा यही सोचते थे कि वो सबसे अच्छे हैं.” अधिकारी ने कहा कि जब डोभाल लंदन में कार्यरत थे, उन्होंने सभी माध्यमों को दरकिनार करते हुए सीधे ब्रिटेन के खुफिया विभाग से संपर्क साधने की कोशिश की. वहां तैनात रॉ के अधिकारियों ने ब्रिटिश खुफिया विभाग को उल्लंघन की जानकारी दी और भारतीय प्राधिकारी से भी शिकायत थी, हालांकि इनसे कुछ हासिल नहीं हुआ.
साल 2003 की शुरुआत में ऐसी अफवाह थी कि लाल कृष्ण आडवाणी चाहते हैं कि डोभाल तब के आईबी डायरेक्टर के पद पर काम कर रहे व्यक्ति की जगह ले लें. डायरेक्टर का कार्यकाल अगले साल अगस्त में समाप्त होने वाला था. डोभाल और आडवाणी दोनों ही तेजतर्रार थे और अपने इसी गुण की वजह से तब तक एक-दूसरे के बेहद करीब आ गए थे. साल 1998 और 2004 के बीच आडवाणी गृहमंत्री थे और इस दौरान करीब आधे दशक तक डोभाल को उन्हीं को जवाब देना पड़ता था.
बाद में आडवाणी ने अपनी जीवनी में लिखा,
गृहमंत्री के तौर पर मेरे कार्यकाल की शुरुआत में एक दिन अजीत डोभाल नाम के एक वरिष्ठ आईबी अधिकारी मेरे पास आए. “अभियान को बेहतर अंजाम देने वाली” ख्याति रखने वाले डोभाल ने मुझसे कहा, “सर, हम ओडिशा के बालासोर जिले में आईएसआई का एक मॉड्यूल ध्वस्त करने में कामयाब रहे हैं.” उन्होंने मुझसे इसकी जो विविध जानकारी साझा कि वो दिल दहाल देने वाली थी. ...आने वाले सालों में, मुझे भारत में आईएसआई के घुसने की ऐसी कई कहानियां सुनने को मिली...मैंने डोभाल से कहा, “मैं चाहता हूं कि इसे ध्वस्त करने को आईबी अपनी पहली प्राथमिकता बना ले. इस उद्देश्य के लिए संस्था को जो भी चाहिए होगा मुहैया कराया जाएगा.”
डोभाल की पदोन्नती में आडवाणी के समर्थन के पीछे पेशेवर से ज्यादा राजनीतिक कारण थे. पत्रकार जोसी जोसेफ ने उस वक्त लिखा, “कुछ अहम चुनावों के मद्दे नजर आने वाले सालों में आईबी की भूमिका अहम होने की उम्मीद है, इसमें अगले साल अप्रैल में होने वाले आम चुनाव भी शामिल हैं. डोभाल का नाम भी रॉ प्रमुख के लिए मैदान में है लेकिन अगर ऐसा हुआ तो बहुत से दिल जलने वाले हैं क्योंकि इस पर पद जो अन्य दावेदार हैं वो उनके वरिष्ठ हैं.” जोसेफ ने ये भी लिखा है कि तब के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार व्रजेश मिश्रा ने भी डोभाल को आगे बढ़ाए जाने का विरोध किया था. लेकिन उनके विरोध को दरकिनार कर दिया गया.
साल 2004 के जून में तीन मुस्लिम व्यक्ति और इशरत जहां नाम की एक युवा महिला की अहमदाबाद के बाहरी इलाके में गोली मारकर हत्या कर दी गई. इस गुजरात पुलिस और आईबी के अहमदाबाद युनिट के साझा अभियान में अंजाम दिया गया था. अधिकारियों ने कहा कि मारे गए लोग लश्कर-ए-तैयबा से थे और तब के गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी की हत्या के अभियान पर थे. उन्होंने ये भी कहा कि चारों को एक कार का पीछे करने के दौरान मार गिराया गया. इस जानकारी पर कई सवाल उठाए गए हैं. ये सब उस दौर में हुआ जब वाजपेयी सरकार की वापसी की सभी भविष्यवाणियों को धत्ता साबित करते हुए केंद्र में कांग्रस के गठबंधन की सरकार बनी.
एक दशक बाद सीबीआई जांच में इन चारों की फेक एंकाउंटर में की गई न्यायेतर हत्या के मामले में कई अधिकारियों पर आरोप लगाया गया. इनमें हत्या के दौरान गुजरात एसआईबी के प्रमुख राजेंद्र कुमार और आईबी के तीन अन्य अधिकारियों के नाम शामिल थे. साल 2013 में जब ये मामला आगे बढ़ रहा था तब डोभाल अपने पूर्व सहकर्मी के जबरदस्त बचाव में सामने आए और खुफिया कार्य की प्रक्रिया पर अपनी समझ की एक झलक की पेशकश की. उन्होंने साक्षातकर्ता को बताया, “आप सिर्फ किसी की असावधानी की वजह से देश को बर्बाद नहीं कर सकते हैं. नहीं तो इसके अलग-अलग परिणाम होंगे. फिर आईबी के लोग अपनी सैलरी लेकर आराम फरमाने लगेंगे. ... यदि आप किसी भी प्रक्रिया से किसी भी तरह से कुछ भी खोजने की कोशिश कर रहे हैं जिसके द्वारा आप गैरकानूनी खुफिया जानकारी इकट्ठा करते हैं, आईबी वाले इसे नहीं करेंगे.”
साल 2013 में “इशरत जहां मामला: खुफिया विभाग जांच की आंच नहीं झेल पाएगा” नाम से लिखे गए एक लेख में प्रवीण स्वामी 1988 में स्वर्ण मंदिर में उठाए गए डोभाल के कदमों की याद दिलाते हैं और इसकी भी याद दिलाते हैं कि इसके लिए उन्हें शांतिकाल में सहास के लिए दूसरा सबसे बड़ा सम्मान कीर्ति चक्र मिला था. फिर वो लिखते हैं, “उन्हें ये मेडल जघन्य अपराधों के लिए दिया गया. कई पूर्व खुफिया अधिकारियां की तरह डोभाल को भी लगता है कि पूर्व के अभियान पर बात नहीं करने के लिए वो बाध्य हैं. हालांकि, मुझे इस बारे में सोचने के लिए उनकी अनुमति है कि इस दौरान पाकिस्तानी खुफिया अधिकारी की निर्मम हत्या की गई थी, जिन पर आतंकवादी होने का शक था उन्हें गैरकानूनी तरीके से हिसारत में रखा गया था, पीड़ा दी गई थी, भारत की सीमाओं पर गैरकानूनी तरीके से हथियारों और विस्फोटकों की तस्करी की गई थी और नकली पहचान का इस्तेमाल किया गया था.”
साल 2014 में स्वामी ने एक बार फिर 1988 में डोभाल द्वारा लिए गए निर्णयों पर लिखा,
अब, जब मुंबई कॉलेज की छात्रा इशरत जहां और अन्य तीन की न्यायेतर हत्या के मामले में आईबी के पूर्व विशेष निदेशक रजिंदर कुमार ट्रायल का सामना कर रहे हैं, डोभाल की कहानी से हमें कुछ खास बात पता चलती है. इशरत का मामला हत्या की संस्कृति का हिस्सा मात्र है. बदले में ये संस्कृति एक बहुत बड़ी असफलता का एक लक्षण है. दशकों से भारत सरकार इस गंभीर बहस से बचती रही है कि जवाबी कार्रवाई और आतंकवाद के खिलाफ एक व्यवहार का कानूनी ढांचा कैसा होना चाहिए. इसका संचालन कैसे होना चाहिए और ये कैसे तय हो कि इसका गलत इस्तेमाल नहीं होगा. क्षमात निमार्ण और जवाबदेही से जुड़े सवालों को भी आसानी से अनदेखा किया गया है.
साल 2004 के आम चुनाव में अटल बिहारी वायपेयी की सरकार हार गई और कांग्रेस नीत गठबंधन को जीत मिली जिसके बाद आडवाणी और वाजपेयी के करीबी डोभाल को आईबी का निदेशक बनाए जाने की संभावनाओं पर खतरा मंडराने लगा. लेकिन उनकी वरिष्ठता और किया हुआ काम उनके फायदा का साबित हुआ और इस सरकार में भी डोभाल ने अपने सहयोगी खोज निकाले. जेएन दीक्षित नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाए गए. एक पूर्व आईबी अधिकारी ने मुझे बताया कि जैसे ही दीक्षित ने प्रभार संभाल, डोभाल "के उनके साथ बेहद अच्छे संबंध बन गए. सभी महत्वकांक्षी लोगों की तरह उन्हें पता था कि आगे कैसे बढ़ना है."
2005 में दीक्षित का निधन हो गया और उनकी जगह एम के नारायणन ने ले ली. वो 1980 के आखिर और 1990 की शुरुआत में दो बार आईबी के निदेशक रहे थे. डोभाल नारायणन के शिष्यों में से थे. पूर्व आईबी अधिकारी ने मुझे बताया, "अगर मुझे नर्मी से काम लेना होता है तो मैं दौलत से ये काम करवाता हूं और अगर मुझे सख्ती से पेश आना होता है तो मुझे डोभाल की जरूरत पड़ती है." नारायणन डोभाल की सेवा अवधि को बढ़ाकर दो सालों का पूर्ण कार्यकाल दे सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. साल 2005 में डोभाल रिटायर हो गए. डोभाल की जगह पर नारायणन ने उन्हीं के बैचमेट ई एल एस नरसिम्हा को चुना और उन्हें दो सालों का पूर्ण कार्यकाल दिया.
III |
रिटायरमेंट के बाद डोभाल खामोश पड़ गए थे.
साल 2005 की जुलाई में मुंबई पुलिस ब्रांच के अधिकारी विक्की मल्होत्रा को गिरफ्तार करने के लिए मुंबई से दिल्ली आ रहे थे. मल्होत्रा अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन का साथी था. राजन हत्या और उगाही के कई मामलों में वांछित था. मल्होत्रा शहर के बीचो बीच पकड़ा गया. वो उस वक्त पकड़ा गया जब एक लक्जरी होटल से एक कार में निकल रहा था. अधिकारी तब दंग रह गए जब उन्होंने डोभाल को उसके साथ कार में देखा. द टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने पहले पन्ने पर इससे जुड़ी एक रिपोर्ट "आईबी के पूर्व प्रमुख का गैंगस्टर दोस्त पकड़ा गया" के नाम से छापी थी. इसमें लिखा था कि "पूर्व आईबी प्रमुख (डोभाल) ने किसी को फोन लगाया जिसके बाद उन्हें जाने दिया गया. ... मल्होत्रा ने बाद में पुलिस के सामने खुलासा किया कि वो अधिकारी के काल पर दिल्ली आया था. दोनों ने होटल में नाश्ता किया जिसके बाद अधिकारी कार में बिठाकर उसे कहीं छोड़ने जा रह था. ऐसा भी बताया गया कि मल्होत्रा ने ये भी कहा था कि छोटा राजन को इस मुलाकात के बारे में पता था." वो डोभाल के साथ क्या कर रहा था इसका खुलासा आज तक नहीं किया गया है.
एक पूर्व अधिकारी ने मुझे बताया कि डोभाल अपनी रियाटयरमेंट के बाद, “छह महीनों तक डिप्टी सुरक्षा सलाहाकार पद पाने की कोशिश करते रहे.” उन्होंने कहा कि नारायणन का ये पद डोभाल को नहीं देने के पीछे की वजह मल्होत्रा वाली घटना रही होगी-यही बात मुझे दो अन्य पूर्व अधिकारियों ने भी कही. इनमें से एक पूर्व अधिकारी ने कहा कि इसके लिए डोभाल ने कभी नारायणन को माफ नहीं किया. आने वाले सालों में नारायणन को लेकर ऐसी खबरी छपने लगीं कि वो लागातर हो रहे बम धमाकों को रोकने में असफल हैं, इन खबरों से उनकी छवी को नुकसान पहुंच रहा था. उदाहरण के लिए साल 2006 में हुए मुंबई लोकल में धमकों के बाद एक अंग्रेजी अखबार ने इसका दोष नारायणन के सर मढ़ दिया. इसने एक “सेवानिवृत्त खुफिया प्रमुख” सूत्र के हवाले से ये लिखा.
कांग्रेस द्वारा नकार दिए जाने के बाद डोभाल वापस बीजेपी के अपने पुराने संरक्षकों के पास लौट गए. साल 2004 में मिली हार के बाद बीजेपी में नेतृत्व को लेकर प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ. आडवाणी के नेतृत्व वाले पार्टी के पुराने धड़े को नए धड़े ने किनारे कर दिया. डोभाल ने इस दौरान उभरते सितारे नरेंद्र मोदी का साथ देने का फैसला किया.
नितिन गोखले ने मुझे बताया कि साल 2008 के करीब जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तभी उन्होंने डोभाल को यहां एक विश्वविद्यालय की स्थापना करने के लिए बुलाया. अगले साल रक्षा शक्ति यूनिवर्सिटी को खोला गया और इसमें “पुलिस विज्ञान और आंतरि सुरक्षा” से जुड़ा कोर्स शुरू किया गया. डोभाल इसके निदेशक मंडल का हिस्सा हैं.
साल 2009 में आरएसएस के विवेकानंद केंद्र ने एक प्रबुद्ध मंडल विवेकानंद इंटरनेशनल फांउडेशन (वीआईएफ) की स्थापना की. विवेकानंद केंद्र की स्थापना 1970 में आरएसएस के नेताओं ने की थी. डोभाल को इसका संस्थापक निदेशक नियुक्त किया गया. इसकी वेबसाइट के मुताबिक उन्होंने उद्घाटन के दौरान कहा था कि वो “बौद्धिक समुदाय में राष्ट्रवाद का तालमेल बिठाना चाहते हैं और प्रतिभावान युवा खोजकर्ताओं को इसके लिए उत्साहित करना चाहते हैं कि वो उन विषयों की विभिन्न शैलियों में शोध की गहराई से जांच करें जो राष्ट्रीय हितों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं.” ऐसी घोषणा के बावजूद डोभाल ने इस संस्था को ज्यादातर सेवानिवृत्त नौकरशाहों और राजनयिकों से भर दिया. वीआईएफ के कर्मचारियों में पत्रकार राजीव शर्मा का नाम भी शामिल है. नितिन गोखले यहां आने जाने वालों में शामिल हैं.
वीआईएफ खुद को “एक स्वायत्त और भेदभाव से मुक्त” संस्था बताती है लेकिन आरएसएस से इसका जुड़वा एक खुला रहस्य है. आरएसएस से जुड़े एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने मुझे बताया कि संस्था “भावनात्मक तौर पर संघ से जुड़ी हुई” है. वीआईएफ के गठन के पीछे आरएसएस के स्वदेशी जागरण मंच के नेता स्वामीनाथन गुरुमूर्ति ने एक बड़ी ताकत का काम किया. राजनीतिक कार्यकर्ता ने मुझे बताया, “जब डोभाल आईबी में थे तब हम सब सीमा पार से होने वाली घुसपैठ को लेकर चिंतित थे, बाद में साथ रहने से हुए लगाव ने एक संरचना को जन्म दिया. वहां लक्ष्य और सोच को लेकर हमेशा से समझ थी.”
जब वीआईएफ की स्थापना हुई थी उस दौरान डोभाल का बेटा विदेश में इन्वेस्टमेंट बैंकर का पेशा करके लौटा था. जल्द ही वो इंडिया फाउंडेशन नाम के अपने प्रबुद्ध मंडल का निदेशक बन गया. इसमें उनके प्रमुख हिस्सेदार राम माधव थे जो उस वक्त आरएसएस के राष्ट्रीय प्रवक्ता थे. प्रमुख तौर पर दिल्ली और बाकी जगहों में मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी पर काम करने का जिम्मा इस संस्था के पास था.
साल 2010 के अंत में आरएसएस के नेता इंद्रेश कुमार पर अजमेर की सुफी दरगाह पर 2007 में हुए घमाके को लेकर षडयंत्र करने का आरोप लगाया जिसके दबाव की वजह से संस्था बचाव की मुद्रा में आ गई. संस्था ने कुमार के बचाव में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किए और इसके अलावा इन्होंने प्रज्ञा और असीमानंद का भी बचाव किया. ये दो और नाम थे जो आरएसएस से जुड़े होने के अलावा अजमेर धमाके और 2007 और 2008 में हुए दो अन्य धमाकों से जुड़े हुए थे.
साल 2011 की अप्रैल में वीआईएफ ने “काले धन” पर दो दिनों के सेमिनार का आयोजन किया था. इसमें हिस्सा लेने वालों में डोभाल, गुरुमूर्ति, स्वयंभू बाबा रामदेव, सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे, भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाने वाले कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल, नेता सुब्रमण्यम स्वामी, सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी किरण बेदी और आरएसएस प्रचारक केएन गोविंदाचार्य शामिल थे. इसके तुरंत बाद हजारे और रामदेव ने अपना बहु-प्रचारित भ्रष्टाचार के खिलाफ भूख हड़ताल का कार्यक्रम शुरू किया. तब की सरकार पर भ्रष्टाचारी होने के आरोप लगाए गए. इसकी वजह से भारी विरोध प्रदर्शन हुए जिससे सरकार को काफी नुकसान हुआ और बीजेपी, आरएसएस से जुड़ी संस्थाओं को ऐसा माहौल दिया जिससे 2014 के चुनाव प्रचार में काफी मदद मिली. केजरीवाल, स्वामी, बेदी और गोविंदाचार्य सभी इस मुहिम के नेतृत्व में शामिल थे.
जब इस आंदोलन और वीआईएक के बीच किसी तरह के संबंध से जुड़ा सवाल डोभाल से किया गया तब उन्होंने कहा कि आंदोलन में “हमारी कोई भूमिका नहीं है.” लेकिन उन्होंने कहा, “भ्रष्टाचार और काले धन की वजह से भारत का नाश हो रहा है. हमें इस पर चर्चा करने से कोई गुरेज नहीं है.” डोभाल ने इस बात से भी इनकार किया कि संस्था का आरएसएस से कोई लेना-देना है.
इसी के आस-पास मीडिया की खबरों में बताया गया कि डोभाल के ऊपर आईबी ने निगरानी लगा रखी है. आउटलुक के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि उन्हें इस बारे में कुछ भी नहीं पता और आईबी “अगर मेरी निगरानी कर रही है तो सिर्फ अपना काम रही है-ये सरकार की आँख और कान है.” उनका बीजेपी का हिस्सा होने के कांग्रेस की अटकलों के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, “मैं कैसे बीजेपी में शामिल हो सकता हूं? कोई आईएसआई या सीआईए में शामिल हो सकता है. कांग्रेस और सपा की तरह बीजेपी एक मुख्यधारा की पार्टी है. ... सार्वजनिक संभाषण जिस स्तर तक गिर गया है वो परेशान करने वाला है. मत भूलिए कि मैं सबसे बड़ा सम्मान पाने वाला अधिकारी हूं.”
साल 2011 की अप्रैल में पंजाब के आरएसएस नेताओं का एक दल एक प्रमुख समाचारपत्र के संपादक से मिला. ये दल राज्य के एक पूर्व कांग्रेस सांसद ने गठित किया था और जिस संपादक से ये मिला उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. इस मुलाकात के बारे में बताते हुआ संपादक ने मुझसे कहा कि उनसे मिलने आए लोगों ने कहा, “देखो, इंद्रेश जी और बाकियों का मामला निष्कर्ष तक पहुंचने वाला है. आपको हमें संपादकिय तौर पर समर्थन देने है ताकि इसमें देर कराई जा सके.” संपादक ने कहा, “जब मैंने ऐसा करने से मना कर दिया तब दल के लोगों ने मुझे बदनाम करने के लिए अफवाह फैलाने की मुहिम छेड़ दी.”
संपादक ने कहा कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का संचालन आईवीएफ से हो रहा था. उन्होंने कहा, “गृह मंत्रालय के कुछ वरिष्ठ नौकरशाह और खुफिया अधिकारी इसमें छुपे तौर पर हिस्सा ले रहे थे. इसका नेतृत्व डोभाल के हाथों में था और संभवत: ये उनका सबसे सफल अभियान था.”
सेवानिवृत्त होने के बाद डोभाल खुले तौर पर दिखाई देने वाले बन गए, ऐसा खासतौर पर उनके वीआईएफ से जुड़ने के बाद हुआ. उन्होंने भारत की आंतरिक और विदेश नीति पर खुलकर बोलना, लिखना और साक्षात्कार देना शुरू कर दिया. मीडिया में उनकी तारीफों में छपी पुरानी बातें एक बार फिर से वापस आने लगीं और इनमें से कई को डोभाल के ब्लॉग पर फिर से छापा गया. इसी दौरान पब्लिक में उनकी छवी और उनके कट्टर विचार मजबूत जड़े जमाने लगे.
छवी को लेकर उनका ध्यान मददगार साबित हुआ. डोभाल को जानने वाले बहुत से लोग उनके बारे में राय रखते हैं कि वो सांसरिक चीजों के भोग विलास को काफी पसंद करते हैं. इनमें धुम्रपान, पान मसाला के सेवन के अलावा दोस्तों और पत्रकारों के साथ उनके घर पर शराब का सेवन भी शामिल है. एक पूर्व खुफिया अधिकारी ने मुझे बताया कि शहर के बाहरी हिस्से में उनका एक बहुत बड़ा घर है जिसमें एक बड़ी सी बैठक है. यहां “डोभाल की कई तस्वीरें लगी हैं जिनमें वो अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के साथ हाथ मिलाते नजर आ रहे हैं.” सुरक्षा से जुड़ी रिपोर्टिंग करने वाले एक पत्रकार जो डोभाल को लंबे समय से जानते हैं, उन्होंने कहा, “डोभाल इस चीज को लेकर बेहद सचेत रहते हैं कि उन्होंने क्या पहना है, ठीक वही उन्होंने अपने घर के साथ भी किया है.”
डोभाल के कई बयान बीजेपी और आरएसएस के डरावने बहुसंख्यवाद से मेल खाते हैं. साल 2006 में दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “भारत को बाहर की अपेक्षा भीतर से ज्यादा खतरा है जिसमें बंगलादेशी घुसपैठ शामिल है.” इस विवादित धारणा को बीजेपी और संघ ने जन्म दिया है जो उनके अप्रवासी बंगलादेशियों पर लगातार जारी मुहिम का हिस्सा है- जिसे वो सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते आए हैं. डोभाल का भी यही मानना है.
भारत में कई समस्याएं हैं जिनमें- सजातिय, धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई और जाति की समस्याएं हैं. पूरा प्रयास इस बात पर है कि अभी बहुत सी बातों में आपसी मिलान होना बाकी है. ...भारत की आंतिरक कमजोरियों के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं. ... किसी विशेष समुदाय का वोट पाने के लिए मुझे उनके पक्ष का काम करना होगा. अगर अल्पसंख्य और बहुसंख्यक एक-दूसरे से डरे हुए नहीं होंगे, तो वोट बैंक समाप्त हो जाएगा. ऐसी स्थिति में नेताओं को वोटरों के दिमाग को असली या काल्पनिक भय भरना पड़ता है. राजनीति में सफलता की चाबी यही है कि लोगों के अंदर डर का राज कायम करो और नए डर पैदा करते रहो.
उसी साल लिखे एक विचार में डोभाल ने समाजिक तौर पर पिछड़े लोगों को शैक्षणिक संस्थानों और नौकरी में मिलने वाले आरक्षण की भी बातें की थी. उन्होंने कहा,
“आरक्षण का विषय भारत में तेज-तर्रार युवाओं में गुस्से और हताशा का कारण है. इसे वो न्याय और समानता के छीने जाने के तौर पर देखते हैं. ...हममें से कितने लोगों के भीतर ये मानने का सहास है कि पंजाब, जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर और नक्सलियों की जो समस्या थी वो कुछ हद तक फूट डालने वाली राजनीति की वजह से थी जिससे बाहरी दुश्मनों को दखल देने के मौके मिले? ... सुरक्षा के लिहाज से आरक्षण का मुद्दा और खासतौर पर जिस तरह से इसे हैन्डल किया गया है भारत के हितों के खिलाफ है. इसकी जगह पर एकीकरण की रणनीति लाने की जरूरत है जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को एक साथ लाया जा सके ताकि इस नियम के तहत एक ऐसी आबादी का हिस्सा आ जाए कि इस पर सवाल उठने बंद हो जाए.”
2013 में बीजेपी के एक समारोह में भाषण देते हुए डोभाल ने कहा कि पार्टी वो इकलौती पार्टी है जो भारतीय पहचान को बाकी के पहचान के ऊपर तरजीह देती है. उन्होंने कहा, “हम अपने राष्ट्र निर्माण को विविधता आधारित नहीं बना सकते. एक राष्ट्र एकता की ताकतों को कमजोर करके मजबूत नहीं बन सकता है और हम विविधता को इसलिए मजबूत नहीं कर सकते क्योंकि हमारी संस्कृति विविध है.”
साल 2011 में वीआईएफ की वेबसाइट पर छपे एक लेख में डोभाल ने उदार लोकतंत्रों की इस बात के लिए आलोचना की कि वो “हिंसा के कृत्यों (वो चाहे जितने वीभत्स हों) को आम अपराध की तरह लेते हैं और इसकी सजा कानून की आम प्रक्रिया से तय करते हैं, वहीं इसे युद्ध की श्रेणी में नहीं रखते. न्यायशास्त्र गलते करने वाले के पक्ष में बहुत ज्यादा है, वहीं उनके खिलाफ तो ये कुछ भी नहीं करता जो विदेशी जमीन से ये काम कर रहे हैं. जब गलत करने वालों को रोकने और सजा देने का वक्त आता है तब राज्य के उपकरण, इसका कानून, पुलिस, न्याय प्रणाली और यहां तक की फौज खुद को इस मामले में बेहद असक्षम पाते हैं.”
अपनी सेवानिवृत्ति के बाद डोभाल ने कांग्रेसनीत सरकार के उस फैसले का जमकर विरोध किया जिसके तहत आतंकवाद निरोधक कानून यानी पोटा 2002 को साल 2004 में समाप्त कर दिया. पोटा को वाजपेयी सरकार ने पास किया था और सुरक्षा एजेंसियों को हाथों में ये ताकत दे दी थी कि वो “आतंकियों” की पहचान कर उन्हें गिरफ्तार करें. साल 2011 में वाआईएफ की वेबसाइट पर छपे लेख में उन्होंने लिखा कि भारत में, “देश की ताकत को कमजोर शासन, राजनीतिक कारणों, और भ्रष्टाचार ने कमजोर किया है. राजनीतिक कारकों ने अपनी काली परछाई डालनी शुरू की है जिसके लिए इसने अधिकार से जुड़े काननू बनाने और इसे पूरी राजनीतिक ताकत से लागू करने को जरिया बनाया है. पोटा को हटाना दिखाता है कि गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में संगठित अपराधों से निबटने के लिए केंद्र विशेष कानून को हरी झंडी देने को लेकर उदासीन है और इससे आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन को लेकर हो रही राजनीति साफ झलकती है.”
डोभाल ने न्यायेतर हत्या के आरोप में शामिल खुफिया और सुरक्षा अधिकारियों की सुरक्षा से जुड़े कानून पर भी अपनी राय जाहिर की है. इसमें उन्होंने गुजरात में साल 2004 में मारी गई इशरत जहां और उसके अगले साल गुजरात पुलिस की हिसारत में मारे सोहराबुद्दीन शेख के मामले का भी जिक्र किया है. बाद वाले मामले में अभियोग पर टिप्पणी करते हुए डोभाल ने 2010 में लिखा, “ऐसे कई लोग हैं जो महसूस करते हैं कि अपरिहार्य परिस्थितियों में ऐसी चीजों के लिए एक उच्च तर्क होता है.” अपने तर्क को बल देने के लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के के फैसले का उल्लेख किया, “उनका तर्क कि कानून का शासन न्याय हासिल करने का एक माध्यम है, ये अपने आप में न्याय नहीं है. सिद्धांत ये है कि किसी व्यक्ति को होने वाले फायदे से समाज का कल्याण होना चाहिए.”
साल 2015 में दिए गए व्याखान में डोभाल ने कहा, “किसी की निजी नैतिकता को समाज और देश के व्यापक हित के ऊपर नहीं लागू किया जा सकता. ... और, इसलिए, देश को उन सभी माध्यमों का सहारा लेना होगा जो इसकी सुरक्षा के लिहाज से अहम हैं. ये सिर्फ इस पीढ़ी के लिए नहीं बल्कि आने वाली सभी पीढ़ियों के लिए लागू होता है.” उन्होंने इस बात को पूरा करने लिए देश की सेवा के लिए दिए गए अपने बलिदन के बारे में बताया. उन्होंने कहा, “मैं उत्तराखंड के एक ब्राह्मण परिवार से हूं और मेरा परिवार पारंपरिक तौर पर शाकाहारी रहा है. मेरी पोस्टिंग सात सालों के लिए पूर्वोत्तर में हो गई और उसके बाद सात सालों के लिए मैं पाकिस्तान भेज दिया गया. ... मुझे मांसाहार पसंद नहीं था. ऐसा नहीं था कि मैं किसी तरह का मांसाहारी खाना नहीं खाता था लेकिन तब मुझे ये बहुत ज्यादा पसंद नहीं था. लेकिन फिर एक समय आया जब मैं और कुछ नहीं बल्कि सिर्फ मांसाहारी खाना खाने लगा. जब आप व्यापक सामाजिक आदर्शों से जुड़े प्रश्नों का सामना कर रहे होते हैं तब इसमें आपके खुद के लिए जगह नहीं होती.”
डोभाल के लंबे भाषणों में कोई तालमेल नहीं होता लेकिन इनमें भरपूर मात्रा में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती हैं जिन्हें किसी और को बताया जा सके. ऐसे सैकड़ों भाषण यूट्यूब पर पड़े हैं. साल 2010 में “विश्वविद्यालय भाईचारा दिवस” के मौके पर हुए एक समारोह ऐसा ही एक भाषण दिया गया था जिसे यूट्यूब पर “मुस्लिम नैतिकता पर अजीत डोभाल” के शीर्षक से अपलोड किया गया था. इसमें वो कहते हैं,
“अगर भारत ने सार्वभौमिक भाईचारे पर उपदेश देना बंद कर दिया होता और हमने मजबूती दिखाई होती तो अभी की तुलना में बहुत ज्यादा शांति होती. हमने सार्वभौमिक भाईचारे पर लंबे समय और कई सदियों तक उपदेश देने का काम किया है. हमने अपने दुश्मनों को उकसाया है. ... कमजोर होना किसी को हिंसा के लिए उकसाने का सबसे बड़ा कारण है. सार्वभौमिक भाईचारे की हत्या इसलिए कर दी जाएगी क्योंकि आप कमजोर हैं. ... धर्म पर जीत हासिल कर ली जाएगी क्योंकि आप कमजोर हैं.”
डोभाल और आरएसएस के राष्ट्रवाद का ये ब्रांड पाकिस्तान के खिलाफ पर्याप्त मात्रा में युद्ध भड़काने के साथ आता है. यूट्यूब पर 2014 में दिए गए एक भाषण में उन्होंने कहा,
“तो पाकिस्तान से कैसे निबटे? ... आपको पता है, किसी दुश्मन से तीन तरीकों से निबटते हैं. पहला तो सुरक्षात्मक तरीक होता है. ... इसमें ऐसा होता है कि अगर कोई हमारे पास आता है तो हम उसे कुछ भी करने से रोकेंगे और अपनी रक्षा करेंगे. दूसरा है सुरक्षा करने के साथ वापस हमला करना. इस मामले में हम अपनी सुरक्षा के लिए वहां तक जाते हैं जहां से हम पर हमला हो रहा है. और तीसरा हमलावर रुख होता है जिसमें आप किसी बात की परवाह नहीं करते. ... हम आज सिर्फ सुरक्षात्मक लहजे में काम कर रहे हैं. अब, जब हम सुरक्षात्मक-हमलावर रुख अपनाते हैं तब हम पाकिस्तान की कमजोरियों पर काम कर रहे होते हैं. ... पाकिस्तानी की कमजोरियां भारत की तुलना में कई कई गुणा बड़ी हैं. जैसे ही उन्हें पता चलेगा कि भारत ने सुरक्षात्मक की जगह सुरक्षात्मक आक्रमक नीति अपना ली है, वो इसका सामना करने की स्थिति में नहीं होगा.”
डोभाल ने इसका अंत उनकी उस लाइन के साथ किया जिसक कई जगहों पर इस्तेमाल हुआ है. साल 2008 में मुंबई में हुए हमलों और बलूचिस्तान में जारी अलगाववादी विद्रोह का जिक्र करते हुए उन्होंने आगाह किया, “तुम एक बार मुंबई जैसी घटना को अंजाम दे सकते हो- तुम्हारे हाथों से बलूचिस्तान निकल सकता है.”
ये सब उसमें जुड़ता जा रहा है जिसे तेज़ी से “डोभाल सिद्धांत” का नाम दिया गया है. पेशे से वकील रहे राजनीतिक टिप्पणिकार एजी नूरानी ने 2015 में डोभाल के वैश्विक नजरिए के बारे में लिखते हुए कहा, “डोभाल सिद्धांत की तीन प्रमुख बातों में नैतिकता की परवाह न करना, किसी तरह की आशंका और गुणा भाग से मुक्त अतिवाद और फौज की शक्ति पर निर्भरता जैसी बातें शामिल हैं.”
खुफिया विभाग में एक दशक तक काम करने वाले एक अधिकारी ने मुझे बताया कि डोभाल “खासकर ऐसी भावना रखते हैं कि हिंदू लगभग 1000 सालों से सताए जा रहे हैं. ... वो मुझे बताया करते थे कि धर्मनिरपेक्षता को लेकर मेरे विचार ठेठ यूरोपीय वामपंथ पर आधारित है.” अधिकारी का डोभाल के बारे में कहना है कि वो पूरी तरह से एक ऐसे पदलोलुप हैं जिनमें काफी दक्षता है.
आईबी में हमेशा से दक्षिणपंथ का एक मजबूत समर्थक वर्ग रहा है. संस्था के सह-निदेशक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद मलोय धर ने अपनी ओपन सीक्रेट में खुले तौर बीजेपी और आरएसएस के समर्थन की बात कही. बावजूद ऐसी पृष्ठभूमि के दो पूर्व आईबी अधिकारियों ने सेवानिवृत्ति के बाद खुले तौर पर दिए गए डोभाल के बयानों पर आश्चर्य प्रकट किया. इनमें से एक अधिकारी डोभाल का सीनियर था और एक जूनियर. दोनों ने मुझे बताया कि जब वो डोभाल के साथ काम करते थे तब वो “तर्कसंगत” हुआ करते थे. डोभाल के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “एक बार उन्हें टीवी पर आतंकवाद से जुड़े किसी विषय पर बोलते हुए सुना जिसके बाद मैंने खुद से कहा, ‘अजीत, तुम्हें क्या हुआ. हम ज्यादातर मुद्दों पर आम राय रखते थे.’” डोभाल के पूर्व कनिष्ठ ने तीन दशक का समय आईबी में बिताया था. उन्हें लगता था कि उनके विचारों में आया अक्रामक बदलाव सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था जिसके सहारे कांग्रेस-नीत सरकार को “दबाया” जा सके.
हालांकि, वीआईएफ में डोभाल के साथ काम कर चुके एक विश्लेषक का कहना है कि डोभाल आरएसएस की विचारधारा से इत्तेफाक नहीं रखते हैं. उन्होंने मुझे बताया, “वो सिर्फ उनका इस्तेमाल करते हैं. ये उनके लिए सहूलियत भरा है क्योंकि वहां विचारों की समानता है.” अपनी बात को बल देने के लिए उन्होंने आगे कहा, “क्या आपको पता है कि आईवीएफ के सम्मेलनों और सेमिनारों में मांसाहारी खाना परोसा जाता है?”
IV |
जनवरी 2014 में दिए गए एक इंटरव्यू में जब उनके बीजेपी से जुड़ने की अफवाहों के बारे में पूछा गया तब उन्होंने कहा, “मैं किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य नहीं हूं और ना ही कभी रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि किसी सरकार में मैं किसी तरह का पद लेना पंसद करूंगा.”
जब बीजेपी नीत गठबंधन ने चुनाव जीता लिया तो कुछ महीनों बाद एनएसए के पद के लिए जारी अटकलें चंद नामों पर जाकर थम गईं इनमें: पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल; अमेरिका में भारत के राजदूत सुब्रमण्यम जयशंकर; संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व प्रतिनिधि हरदीप सिंह पुरी; और सबसे पसंदीदा के पहचान रखने वाले डोभाल का नाम शामिल था.
एक पूर्व आईबी प्रमुख ने मुझे बताया कि अंत में जाकर दो नामों- डोभाल और पुरी- पर बात रुकी. पुरी जल्द ही वित्त मंत्री बनने जा रहे अरुण जेटली के दोस्त थे. उन्होंने कहा, “हरदीप का हास्यबोध बेहतर है और वो अपने ऊपर हंसना पसंद करते हैं. मुझे नहीं लगता कि डोभाल को भी ऐसा ही करना पसंद है. मीडिया में भी दोनों की अच्छी लॉबी है. अगर आप लोगों पर छाप छोड़ने और उन्हें प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं तो इसके लिए हरदीप सही हैं. डोभाल शातिर हैं.”
मई के अंत में डोभाल ने पदभार संभाला. इस पर शिशिर गुप्ता ने लिखा, “संघ का विश्वासपात्र होने के अलावा उन्हें वित्त मंत्री अरुण जेटली और गृहमंत्री राजनाथ सिंह का भी भरोसा प्राप्त है, वहीं उन्होंने आईबी से सेवानिवृत्त होने के बाद पर्दे के पीछे से मोदी और बीजेपी के लिए भी काम किया है.” स्वामीनाथन गुरुमूर्ति ने ट्वीट कर लिखा, “डोभाल छत्रपति शिवाजी और भगत सिंह के समाकालीन संस्करण हैं.”- दोनों से हिंदू राष्ट्रवादियों को बहुत प्यार है.
आईवीएफ के दो और सदस्यों को मोदी के नीचे काम करने के लिए नियुक्त किया गया. सेवानिवृत्त सिविल सेवक नृपेंद्र मिश्रा को प्रधान सचिव बनाया गया और पीके मिश्रा को अतिरिक्त प्रधान सचिव बनाया गया. मिश्रा तब मोदी के प्रधान सचिव थे जब वो गुजरात के सीएम थे. वीआईएफ से ताल्लुक रखने वाले दोनों में से पहले व्यक्ति के पास प्रधानमंत्री कार्यालय में तीन सबसे बड़े पदों का कार्यभार है.
डोभाल ने वीआईएफ से अपना संपर्क बनाए रखा. बीजेपी में मौजूद उनके साथियों में से थिंक टैंक के बारे में जानकारी रखने वाले एक सुरक्षा विश्लेषक ने मुझे बताया, “2014 में एक वक्त आया जब वीआईएफ में कुछ वरिष्ठ सदस्यों से बुरा बर्ताव किया जा रहा था. उन्होंने डोभाल से बार-बार शिकायत की और फिर एक दिन डोभाल उनके ऑफिस पहुंच गए और एक घंटे के करीब बैठे. उन्होंने परेशान किए जा रहे व्यक्ति से कहा ‘जो लोग आपके ऊपर नजर रख रहे हैं और आपको परेशान कर रहे हैं, उन्हें संदेश दे दिया जाएगा कि आप प्रधानमंत्री के करीबी हैं’ इसके बाद उनके साथ जो हो रहा था, रुक गया.” इस घटना के बाद डोभाल की उस छवि को बल मिला जिसके बारे में कहा जाता है कि जो उनके करीब हैं उनके लिए वो बहुत वफादार हैं. एक पूर्व राजनयिक ने भी मुझे बताया कि डोभाल की पहचान “दोस्तों का दोस्त” वाली है.
दिल्ली थिंक टैंक के एक रणनीतिक विश्लेषक ने मुझे वीआईएफ के बारे बताया कि “सैद्धांतिक तौर पर एनएसए से इसकी हॉटलाइन जुड़ी है” और आगे कहा कि संगठन कई विदेशी प्रतिनिधिमंडलों के लिए पड़ाव डालने की जगह है.
डोभाल भारतीय इतिहास के पांचवे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं. अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में इस पद का गठन अमेरिका के ऐसे ही पद को मॉडल मानते हुए किया गया था. ब्रजेश मिश्रा पहले एनएसए बने और साल 2004 तक इस पद पर बने रहे. हालांकि, इस भूमिका में रक्षा, खुफिया विभाग और राजनयिक काम के साथ तालमेल बिठाना होता है लेकिन पांच में से जो तीन एनएसए रहे हैं वो राजनियक क्षेत्र से आए हैं. डोभाल से पहले एमके नारायणन इकलौते खुफिया अधिकारी थे जिन्होंने एनएसए का पद हासिल किया था.
आईबी के निदेशक के तौर पर नारायणन को बहुत ज्यादा सम्मान हासिल था लेकिन उन्होंने कभी एक एनएसए के तौर पर अपनी पहचान नहीं की, खास तौर पर ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अपने कार्यकाल के दौरान वो बहुत से बड़े आंतकी हमले रोकने में नाकामयाब रहे थे. जितने लोगों से मैंने बात की उनमें से ज्यादातर का मानना था कि मिश्रा ने इस बात का मानक तय किया कि एक एनएसए कैसा होना चाहिए. वाजपेयी और मिश्रा करीबी दोस्त थे और एक ही वक्त में वो एनएसए होने के साथ-साथ प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव भी थे. वाजपेयी सरकार में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के प्रमुख का कार्यभार संभालने वाले रणनीतिक विश्लेषक के सुब्रमण्यम ने साल 2010 में एक साक्षात्कार में कहा, “प्रधान सचिव और एनएसए के काम को एक साथ करने की वजह से ब्रजेश मिश्रा को बड़ी ताकतों के साथ संपर्क साधने में आसानी होती थी जिसकी वजह से उन्होंने भारत की छवि एक महत्वपूर्ण ताकत के तौर पर पेश की.” वाजपेयी के कर्मचारियों में शामिल रहे एएस दौलत ने 2014 में एक टीवी चैनल को बताया कि मिश्रा एक “सही पसंद” साबित हुए थे और “एक तरह से अटल जी के दिशानिर्देश में वो देश चला रहे थे.”
डोभाल के साथ वीआईएफ में काम कर चुके एक विश्लेषक ने मुझे बताया, “डोभाल के पास ब्रजेश मिश्रा जैसी असीमित शक्तियां नहीं हैं. मोदी को आम सहमति से घिन्न है और वो सब कुछ अकेले तय करते हैं. वो हां में हां मिलाने वालों को पसंद करते हैं. उन्हें नेताओं पर भरोसा नहीं है इसलिए वो नौकरशाह के करीब हैं. सबके साथ ये रिश्ता मालिक और नौकर का है. डोभाल भी इस मामले में अलग नहीं है.”
डोभाल के साथ आईबी में काम कर चुके एक अधिकारी ने मुझे बताया, “वो अपने मालिक के कहे का पालन करते हैं. हम सब नौकरशाह भाड़े पर काम करने वालों की तरह हैं. हम पैसे, ताकत और सुविधाओं जैसी की चीजों के लिए काम करते हैं.”
साल 2014 में अपनी एक स्पीच के दौरान जब डोभाल सवालों के जबाव दे रहे थे तब एक दर्शक ने पूछा कि अच्छा अनुयायी होने के लिए किस बात की दरकार होती है, जवाब में उन्होंने कहा, “अपने वरिष्ठ से कभी प्रतिस्पर्धा मत करो और उससे बेहतर करने से बचो. कभी भी उसे असुरक्षा का भाव मत दो.”
प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया, “जब डोभाल प्रधानमंत्री के साथ होते हैं, तब कोई भीतर नहीं जाता. यहां तक की प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्रा भी नहीं. यहां तक की किसी तरह का कॉल तक ट्रांसफर नहीं किया जाता.” मीडिया ने मोदी और डोभाल की नजदीकियों के किस्सों को खूब उछाला है. डोभाल के एनएसए बनने के पांच महीने बाद राजीव शर्मा ने लिखा, “गुजरात के दिनों से ही मोदी का झुकाव नेताओं और मंत्रियों के बदले अधिकारियों पर ज्यादा रहा है...मोदी डोभाल के भीतर को उत्तम व्यक्ति पाते हैं जिसके ऊपर वो पूरी तरह से भरोसा कर सकते हैं और डोभाल वो आदमी हैं जो मोदी की खुफिया रणनीति से लेकर राजनीतिक मिशन तक को अच्छी तरह से अंजाम दे सकते हैं.”
जो सरकार, प्रबुद्ध मंडल और मीडिया से हैं उनके बीच इस बात को लेकर आम सहमति है कि गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय पर डोभाल की पकड़ है. गृहमंत्री के तौर पर राजनाथ सिंह पहले से चली आ रही परंपरा की तुलना में कम बेहद कम जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं. वहीं, रक्षा मंत्रालय में स्थायित्व की कमी रही है क्योंकि मोदी के चार साल से थोड़े ज्यादा के कार्यकाल में इस मंत्रालय में दो बार बदलाव हो चुके हैं. बेहद ऊंचे पद पर विराजमान रहे मंत्रीमंडल स्तर के एक नौकरशाह ने मुझे बताया कि वैसे तो “सुषमा स्वराज बेहद सक्षम व्यक्ति हैं” लेकिन विदेश मंत्री के तौर पर उन्हें “लगभग नगण्य ताकत मिली है.”
डोभाल के प्रभाव के दायरे के पीछे वीआईएफ और इंडिया फाउंडेशन से उनकी कड़ी का जुड़ा होना एक अहम कारण है. साल 2015 में इकनॉमिक टाइम्स ने लिखा कि इंडिया फांउडेशन हर हफ्ते “बंद दरवाजे की पीछे अहम नीतियों से जुड़े सत्रों” का आयोजन करता है. संस्था ने विदेश राजदूतों के समारोहों का आयोजन किया है, विदेशी गणमान्य व्यक्तियों की मेजबानी की है और मोदी के विदेश दौरों के दौरान आयोजन करवान में मदद कर है, इन आयोजनों में साल 2014 में अमेरिका के न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन में हुई रैली भी शामिल है. जब मैंने एक नौकरशाह से बात की तब उन्होंने इस संस्था की तुलना कांग्रेस के दौरन में बनाए गए नेशनल एडवाइजरी काउंसिल से की.
शौर्या डोभाल इंडिया फाउंडेशन के निदेशकों में से एक हैं, ये बावजूद इसके है कि वो जेमिनी फाइनेंशियल सर्विसेज के भारतीय कार्य प्रमुख हैं. ये एक निवेश निधि है जिसके प्रमुख साउदी अरब के प्रिंस हैं. इकनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट में उनके बारे में लिखा गया है कि “मोदी सरकार के नीति निर्माण में योगदना देने वाले वो बेहद अहम व्यक्ति हैं.” इंडिया फाउंडेशन के एक और डायरेक्टर राम माधव अब बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव हैं. शौर्य और माधव के अलावा इसके निदेशकों में कैबिनेट मंत्री सुरेश प्रभु, राज्यमंत्री निर्मला सीतारमण, जयंत सिन्हा, एमजे अकबर के अलावा बीजेपी और आरएसएस से जुड़े कई और दिग्गजों का नाम शामिल है.
जुलाई के महीने में जब मैं इंडिया फाउंडेशन के दिल्ली के बेहद सम्मानजनक हेली रोड स्थित पते पर गया तब पाया कि इसके गेट पर कोई नेम प्लेट यानी नाम लिखी तख्ती नहीं लगी है. विदेश मंत्रालय से जुड़े एक पूर्व अधिकारी ने मुझे बताया कि संस्थान को पैसे कहां से मिलते हैं ये बहुत साफ नहीं है. इसे मिलने वाले पैसे को लेकर इसका कहना है कि जो पाठ्य सामग्री ये छापते हैं उसके ग्रहकों से ये पैसे आते हैं, पूर्व अधिकारी ने कहा, “”लेकिन किसी को इस बात का ज्ञान नहीं है कि इंडिया फांउडेशन की पत्रिकाएं उनके लिए इतने पैसे लाती हैं. ...मैंने अभी तक किसी अच्छे अनुसंधान का कोई साक्ष्य नहीं देखा है. हां, उनके पास बड़े समरोह कराने की क्षमता जरूर है.” जब मैंने राम माधव से ये कहा तब उन्होंने जवाब दिया कि संस्था के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है और “इसके समारोहों के लिए उद्योगपति चंदा” देते हैं.
कैबिनेट स्तर के पूर्व नौकरशाह ने कहा कि एनएसए प्रधानमंत्री का द्वारपाल बनकर रह गया है. उन्होंने कहा, “खुफिया एजेंसिया के प्रमुखों की पहले प्रधानमंत्री तक पहुंच होती थी. लेकिन एनएसए के गठन के बाद पीएम तक जो अहम पहुंच पहले हासिल थी उसमें कटौती कर दी गई.” उन्होंने आगे कहा कि ऐसा “डोभाल के आने के बाद हुआ है. एनएसए को वस्तुपरक (ऑब्जेक्टिव) होना चाहिए और बुनियादी तथ्यों में नहीं पड़ना चाहिए. जो एमके के साथ हुआ वही डोभाल के साथ भी हो रहा है. वो सीधे उस व्यक्ति को फोन करते हैं जिसे काम करना है और इसकी वजह से प्रमुख की भूमिका कमजोर हुई है.”
मानवाधिकार अधिवक्ता रवि नायर ने मुझे बताया. “लोकतांत्रिक व्यवहार के मामले में डोभाल सही नहीं है. उनके निमार्ण में संस्थागत जवाबदेही जैसी चीजों से बरी होने जैसी बात शामिल है.”
कुछ लोगों का कहना है कि डोभाल का तरीका फायदेमंद है. साल 2014 में राजीव शर्मा ने लिखा, “एक तरफ जहां राजनाथ सिंह आईबी के सबसे बड़े बॉस हैं, वहीं डोभाल की पहुंच सीधे आईबी और इसकी रिपोर्ट तक है, वो भी वास्तविक समय में. कई मायनों में डोभाल पहले एनएसए हैं जिसे लगभग एक दर्जन खुफिया एजेंसियों तक निरकुंश पहुंच हासिल है- इनमें सैन्य और असैनिक दोनों तरह की एजेंसियां शामिल हैं. वो “दिन में 10 बार” आईबी, रॉ और एमआई प्रमुखों के अलावा सैन्य खुफिया सूचना से जुड़े लोगों से बात करते हैं.”
नितिन गोखले ने मुझे बताया, “कई खुफिया एजेंसियों, सुरक्षा बलों और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के बीच बहुत ज्यादा तालमेल है. ऊपर के लोगों के बीच बहुत ज्यादा तालमेल है. ...अगर आप एक आलोचक हैं तो आप इसे सत्ता का केंद्रीकरण कह सकते हैं. उन्हें सुरक्षा बलों का भरपूर सम्मान प्राप्त है. आप इसे डर का नाम भी दे सकते हैं. लेकिन इसे नजीते सही रहे हैं.”
आतंरिक सुरक्षा के मामलों में डोभाल को मिली ताकतों के बारे में कोई विवाद नहीं है. लेकिन मोदी की घरेलू नीति के ऊपर जो उनका प्रभाव है वो संभवत: उतना जोरदार नहीं है जैसा मीडिया ने इसे पेश किया है. इस जुलाई सरकारी महकमों में मशहूर पत्रिता ब्यूरोक्रेसी टूडे ने एक सर्वे कराया जिसमें पूछा गया “मोदी सरकार में सबसे मजबूत नौकरशाह कौन है?” इससे 16000 लोगों ने हिस्सा लिया जिनमें 80 प्रतिशत यानी 12000 लोग सरकारी कर्मचारी थे और इस सर्वे में पहला नाम पीके मिश्रा का निकलकर सामने आया. मिश्रा मोदी के अतिरिक्त प्रधान सचिव हैं. सर्वे में हिस्सा लेने वाले में से एक दहाई से भी कम लोगों ने डोभाल का नाम चुना.
विदेश नीति के मामले में, जोकि डोभाल के पहुंच में एक परिभाषित कारक रहा है, उनके और विदेश सचिव सुब्रमण्यम जयशंकर के बीच तालमेल रहा है. चीन के राजनयिक और इसके पहले अमेरिका के राजनयिक के तौर पर वो कई अधिकारिक दौरों पर मोदी को लेने पहुंचे हैं, इनमें मोदी का अमेरिका का वो दौरा भी शामिल है जिसमें वो पीएम बनने के बाद पहली बार अमेरिका गए थे. मोदी ने 2015 में जयशंकर को विदेश सचिव बनाने के लिए तब के विदेश सचिव को हटा दिया और दो साल का कार्यकाल समाप्त होने के बाद इस साल उनके कार्यकाल को एक साल के लिए बढ़ा दिया. विदेश मंत्रालय से जुड़े कई लोगों ने मुझे बताया कि जयशंकर को लेकर मोदी के भीतर जिस तरह का विश्वास है उसकी वजह से वो बीते लंबे समय के सबसे ताकतवर विदेश सचिव हैं. डोभाल के कुछ विरोधियों ने मुझे बताया कि अगर 2019 में मोदी दोबारा चुने जाते हैं तो डोभाल की जगह जयशंकर ले लेंगे.
डोभाल के पास राज्यमंत्री का दर्जा है और वो आधिकारिक तौर पर मंत्रालय के सचिव पद पर कार्यरत जयशंकर के वरिष्ठ हैं. पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने विदेश सचिव की नियुक्त के समय लिखा था, “जबकि डोभाल मोदी के एनएसए हैं, उनकी विदेश नीति के अनुभव की कमी और ‘सामरिक’ से आगे नहीं बढ़ पाने की उनकी कमजोरी की वजह से वो जगह बनी जिसे जयशंकर भरेंगे.” सरकारी महकमों में डोभाल को प्यार से डोगरा या साउथ ब्लॉक का स्टेशन हाउल ऑफिसर बुलाते हैं. साउथ ब्लॉक वो जगह है जहां से विदेश मंत्रालय और पीएमओ का काम काज चलता है. एक और पुकारू नाम जो तेजी से फैल रहा है वो “राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (पाकिस्तान) है”- इसका तात्पर्य ये है कि उन्हें लेकर लोगों का मानना है कि पाकिस्तान के अलावा बाकी के देशों को लेकर उनकी समझ शून्य है.
ताकत के लिए होने वाली जोर आजमाइश को लेकर ऐसे मौके आए हैं जब एनएसए और विदेश सचिव के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई है. हालांकि, जयशंकर को जानने वाले विदेश मंत्रालय के एक पूर्व अधिकारी ने कहा कि इन बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया. उन्होंने जयशंकर की कार्यशैली के बारे में संक्षिप्त में बताते हुए कहा, “वो सामने वाले से पूछते हैं कि किसी समस्या के समाधान के लिए उसके पास क्या उपाए है और एक बार उसकी राय जानने के बाद समस्या को उसी तरह से हल करने की कोशिश करते हैं.”
इस पूर्व अधिकारी ने एक बता बताई जिसे लेकर दोनों के बीच मतभेद हुआ था. उन्होंने कहा कि सरकार ने प्रबुद्ध मंडलों को सीधे तौर पर उनके काम काज के लिए पैसा देना शुरू कर दिया है और डोभाल और जयशंकर के बीच इस बात को लेकर असहमति थी कि किन्हें पैसे दिए जाने चाहिए. पूर्व अधिकारी ने कहा, “डोभाल और एमजे अकबर को लगा कि सिर्फ वीआईएफ और इंडिया फाउंडेशन जैसे दक्षिणपंथी प्रबुद्ध मंडलों को पैसे दिए जाने चाहिए, जबकि विदेश सचिव का मानना है कि इसका दायरा बढ़ाया जाना चाहिए. ...लेकिन इस बात पर लगभग आम सहमति है कि प्रबुद्ध मंडलों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए.”
मोदी के करीबी माने जाने वाले पत्रकार उदय माहूरकर ने प्रधानमंत्री के प्रशासन पर लिखी एक हालिया किताब में डोभाल और जयशंकर के बीच विभाजन की ओर इशारा किया है. वो लिखते हैं, “मोदी की वैश्विक पहल का खाका विदेश सचिव एस जयशंकर द्वारा तैयार किया गया था जिसमें डोभाल का योगदान राष्ट्रीय सुरक्षा की लिहाज से जुड़ा था जिसमें भारत के पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश शामिल थे.”
मैं अगस्त के तीसरे हफ्ते में डोभाल के ऑफिस पहुंचकर साक्षात्कार का समय मांगा. उनके कर्मचारियों में शामिल एक सदस्य ने मुझे फोन करके ये बताया कि डोभाल बहुत ज्यादा व्यस्त हैं और मुझसे बात नहीं कर पाएंगे.
सबकी नजरों के सामने उठाया गया एनएसए का पहला कदम साल 2014 के अक्टूबर में सामने आया जब दो कथित इस्लामी आतंकी पश्चिम बंगाल के बर्धमान में गलती से हुए एक धमाके में मारे गए. जब पुलिस वहां पहुंची तब उन्हें भारी मात्रा में विस्फोटक प्राप्त हुआ. वहां अच्छी संख्या में मीडियाकर्मी मौजूद थे और उन सबकी निगाहों के बीच धमका स्थल पर डोभाल हेलिकॉप्टर से बर्धमान पहुंचे. टीवी चैनलों ने उन्हें गहरे काले रंग के सूट और गहरे रंग का चश्मा पहने दिखाया जिसमें वो पास की एक लंबी इमारत से घटनास्थल का मुआयना कर रहे थे.
डोभाल तब राज्य की सीएम, तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी से मिले. जिस बिल्डिंग में धमाका हुआ वहीं से तृणमूल कांग्रेस का लोकल ऑफिस भी चलता था. लोकल मीडिया की रिपोर्ट में ये बात सामने आई कि डोभाल ने इस बात पर नाराजगी जाहिर की थी कि राज्य सरकार की जानकारी के बगैर या इसके साथ राज्य में एक आतंकी नेटवर्क सामने आया है. इसके बाद आने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने ममता बनर्जी और राष्ट्रीय स्तर के विपक्ष के हमलों के जवाब में राज्य की सीएम के खिलाफ आतंक को लेकर नरम रुख अपनाने का आरोप लगाया. इस घटना ने डोभाल को संभवत: वो पहला राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार बनाया जो देश की राजनीति में खुलकर उतरे.
साल 2016 की शुरुआत में हैदराबाद यूनिवर्सिटी के दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद मोदी सरकार भयंकर राजनीतिक संकट में फंस गई. वेमुला को आरएसएस की छात्र इकाई की शिकायत के बाद सस्पेंड कर दिया गया था बीजेपी नेता द्वारा इसे सरकार तक पहुंचाया गया था. मामले में जातिवाद के आरोपों ने जब देश भर में विरोध का रूप ले लिया, टाइम्स ऑफ इंडिया ने “अजीत डोभाल के पास एक रिपोर्ट है जिसके मुताबिक रोहित बेमुला दलित नहीं थे” जैसी हेडलाइन से एक खबर छापी. इसे लिखने वाली भारती जैन को सुरक्षा से जुड़ी रिपोर्टिंग का भरोसेमंद चेहरा माना जाता है. उन्होंने लिखा, “एक खुफिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि रोहित वेमुला की मां और दादी दोनों ने परिवार की जाति वढेरा घोषित कर रखी है, ये दलित नहीं बल्कि एक पिछड़ी जाति है.” इस दावे का बचाव यूनिवर्सिटी के कुलपति और बीजेपी के वरिष्ठ ने नेताओं को कठोर एस-एटी एक्ट से बचाने के लिए किया गया.
उस साल बाद में अप्रैल के महीने में बंद दरवाजे के पीछे हुए एक सत्र में डोभाल ने सुप्रीम कोर्ट के जजों को संबोधित किया. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, डोभाल ने जजों को देश की सुरक्षा को जिन बातों से खतरा है उनके बारे में बताया और कहा कि लोकतंत्र के सभी खंभों को मिलकर काम करने की दरकार है ताकि भारत को बाह्य और आंतरिक खतरों से बचाया जा सके.
लेकिन डोभाल का घरेलू नीति पर सबसे विवादास्पद प्रभाव, आश्चर्यजनक रूप से, सुरक्षा के क्षेत्र से आया है. इनमें से कुछ कर्मचारियों के साथ किए गए व्यवहार से जुड़ा है. उनके राज्यों के लोगों को आगे बढ़ाए जाने में रही उनकी कथित भूमिका पर भी खूब अटकलें लगाई गई हैं और उनके राज्य से जिन लोगों को आगे बढ़ाया गया है उनमें: पिछले साल पदोन्नती पाकर सेना प्रमुख बने विपिन रावत, रॉ प्रमुख अनिल धस्माना, सैन्य संचालन के महानिदेशक ऐके भट्ट; और राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन के प्रमुख आलोक जोशी का नाम शामिल है.
डोभाल की नीतियों के परीक्षण की सबसे अहम जमीन कश्मीर रही है. डोभाल के एनएसए रहते हुए घाटी की सुरक्षा में तेजी से गिरावट आई है. साल 2015 की शुरुआत में बीजेपी ने पीडीपी के साथ जम्मू-कश्मीर में एक गठबंधन सरकार बनाई. डोभाल ने 1990 में पीडीपी के जन्म में अहम भूमिका निभाई थी. अगले साल जब सुरक्षा बलों ने आतंकी बुरहान वानी को मार गिराया तो घाटी में विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई. पुलिस और सुरक्षा बलों ने इन प्रदशर्नों का चौंकाने वाला क्रूरता के साथ जवाब दिया, जिसके परिणाम स्वरूप कम से कम 100 लोगों की मौत हो गई और इतने ही पेलेट गन की मार से अंधे हो गए. सरकार ने एक हफ्ते का कार्फ्यू लगा दिया और मीडिया कवरेज पर भी बैन लगा दिया गया. ऐसी कहीं नहीं दिखाई दिया इस अशांति को राजनीतिक माध्यम से हल करने की कोई कोशिश की गई हो. इसके बाद जिन आतंकियों को मारा गया उनके जनाजे में अभूतपूर्व भीड़ देखने को मिली है और रिपोर्ट्स के हवाले से पता चला है कि भारी संख्या में कश्मीरी युवा हथियार उठाने का रास्ता चुन रहे हैं.
साल 2010 में डोभाल ने कश्मीर को लेकर अपनी सोच की एक झलक दी थी, ये सोच उस घटना के बाद प्रकट की गई थी जिसमें विरोध प्रदर्शनों में 100 के करीब लोगों की मौत हुई थी. ये प्रदर्शन सुरक्षाबलों द्वारा की गई उस न्यायेतर हत्या के विरोध में किए गए जिनमे तीन कश्मीरी लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, हालांकि सुरक्षाबलों का कहना था जिन्हें मारा गया वो आतंकी थे. डोभाल ने अपने एक भाषण के दौरान कहा था, “अत्यधिक प्रतिक्रिया देने की जरूरत नहीं है. हारना नहीं है. तुष्टीकरण नहीं करना है.” उन्होंने कहा कि ऐसा कोई राजनीतिक प्रश्न है ही नहीं जिसे हल किए जाने की जरूरत है. 1994 में भारतीय संसद ने कश्मीर को लेकर जो संकल्प लिया था जिसमें कहा गया था कि “जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग था, है और रहेगा और इसके देश के अन्य हिस्सों से अलग किए जाने के प्रयासों के खिलाफ सभी जरूरी कदम उठाए जाएंगे.”
कश्मीर में अपनी सेवा दे चुके एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया, “1990 के दौर में जब आतंक अपनी चरम पर था तो भी मैंने आतंकियों के जनाजों में ऐसा जबरदस्त विरोध प्रदर्शन नहीं देखा. अब आतंकी मसीहा बन गए हैं. जब बाहर से दबाव डाला जाता है तब उन्हें लगता है कि उनको घेरा जा रहा है और वो एक साथ आ जाते है. अगर आप छूट देते हैं तो आंतरिक असहमतियां खड़ी हो जाती हैं. हमारे दौर में वो आपसे में लड़ा करते थे.” अधिकारी ने वर्तमान सरकार की इस बात के लिए आलोचना की कि ये हर स्थिति को कानून व्यवस्था के नजर देख रही है. इनका एक ही रवैया है, “आतंकी है तो गोली मार दो, पत्थरबाज है तो भी गोली मार दो.”
आईबी के एक पूर्व विशेष निदेशक ने कहा, “पत्थरबाजों को उन्हीं जेलों में रखा जाता है जिनमें आंतकियों और चरमपंथियों को जिसकी वजह से वो उग्र विचारों वाले बन जाते हैं. जब हम किसी से बात नहीं करते हैं, तो पाकिस्तान इसका फायदा उठाता है. हम पाकिस्तान को जितना हो सके अवसर प्रदान कर रहे हैं.”
पूर्व एनएसए और एक समय डोभाल के गुरू रहे एमके नारायणन ने पिछले साल एक लेख में लिखा कि “ताजा स्थिति को पहले की परिस्थितियों से जुड़ा हुआ मानकर उनके साथ निपटना बहुत साधारण तरीका साबित हो सकता है” और “भीतर-भीतर जो हो रहा है उसे समझने का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया गया है.” उनके अनुसार, “भारत ने विदेशी आतंकियों और पाकिस्तान आधारित आतंकवाद पर अहम जीत हासिल कर ली है लेकिन अब इसके सामने उससे भी जटिल समस्या है जिसके तहत इसे कश्मीरी युवाओं को अपने पाले में लेना है, ये उनकी इस पीढ़ी का भारत से भ्रम टूट जाने के पहले किए जाने की जरूरत है नहीं तो इसके परिणाम डरावने होंगे.”
कश्मीर सुरक्षा के एक विशेषज्ञ ने इस पर बात करते हुए “डोभाल विरोधाभास” जैसी एक नई परिभाषा सामने रखी. उन्होंने कहा कि 1990 में घुसपैठ के खिलाफ कड़े रवैये में पूर्व आतंकियों के सरकार द्वारा इस्तेमाल जैसी बातों ने सरकार को शुरुआती पकड़ मजबूत करने में तो मदद की लेकिन ये सच कि कश्मरी अभी भी स्थिर होने की स्थिति से कोसों दूर है, इसकी ओर इशारा करता है कि हमें इन बातों पर विचार करना चाहिए कि जो नीतियां अपनाई गईं उनसे क्या हासिल हुआ. विशेषज्ञ ने कहा, “पूर्व आतंकियों ने सरकार के लिए काफी कुछ ऐसा किया जिसके लिए जम्मू-कश्मीर सरकार ने मना कर दिया था. लेकिन जल्द ही वो सरकार की पकड़ से बाहर निकल गए. उनकी हिसांत्मकता और गैरकानूनी रवैये की वजह से उनके और भारत के विरोध को भारी बल मिला. जब ये मार गिराए गए तब जो इनके इलाके थे वो घुसपैठियों और अलगाववादियों के हाथों में आ गए.”
विशेषज्ञ ने आगे कहा कि डोभाल ये देखने में असक्षम हैं कि छद्म ताकत के इस्तेमाल के विपरीत परिणाम क्या हो सकते हैं क्योंकि ये “इनके इस्तेमाल की वजह से शुरुआत में मिली सफलता की तुलना में बेहद गंभीर हो सकते हैं.” उदाहरण के तौर उन्होंने कहा कि अमेरिका समर्थित मुजाहिद्दीन सोवियत के साथ युद्ध खत्म होने के बाद इस्लामी आतंक के जनक बने. डोभाल के बारे में उन्होंने कहा, “वो एक शार्क हैं जिससे ये संदेश साफ हो जाता है कि वो दुश्मन को खा जाने में यकीन करते हैं, लेकिन शार्क अपनों को भी खा जाता है. वो डर तो पैदा कर सकते हैं लेकिन शांति हासिल नहीं कर सकते.”
डोभाल के करियर पर नजर रखने वाले एक सुरक्षा विश्लेषक ने मुझे बताया, “सरकार से जुड़े आतंकियों ने पंजाब और कश्मीर में कई हत्याओं को अंजाम दिया जिसकी वजह से राजनीतिक प्रक्रिया में देरी हुई. हर झूठी हत्या से कई आतंकियों का जन्म होता है और इससे लोकतंत्र को गहरा धक्का लगता है.”
कश्मीर में अपनी सेवा दे चुके एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया कि राज्य में बीजेपी के कड़ाई से निपटने का रुख उस नीति का हिस्सा है जिसके तहत पार्टी देश भर में राष्ट्रवादी आधार को मजबूत करना चाहती है. उन्होंने कहा, “राज्य में बीजेपी और कांग्रेस के रुख में यही अंतर है कि कांग्रेस को कभी नहीं लगा कि कश्मीर को कभी राज्य के बाहर राजनीतिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.”
कश्मीर में पनपे भारी विद्रोह के अलावा डोभाल के नेतृत्व के लिए कश्मरी और भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर फौज और सुरक्षा संस्थनों पर हो रहे सिलसिलेवार हमले एक बड़ी चुनौती बनकर पेश हुए हैं. एक बड़ी चुनौती तब सामने आई जब आतंकियों ने उत्तरी पंजाब में स्थित पठानकोट एयर फोर्स स्टेशन पर हमला कर दिया. ये हमला 2 जनवरी 2016 को सुबह की पहली किरण से पहले किया गया था. एक दिन पहले मिली खुफिया सूचना में बताया गया था कि इस इलाके में हमला हो सकता है बावजूद इसके हमलावर बिना किसी चुनौती के हवाईअड्डे के काफी भीतर तक घुस गए. रक्षा विषलेश्क और पूर्व कर्नल अजय शुक्ला के मुताबिक एनएसए ने आदेश दिया थआ कि महत्वपूर्ण जगहों की सुरक्षा के लिए 1 जवनरी को सावधानी बरती जाए लेकिन शुरुआती तौर पर आर्मी की सिर्फ 50 टुकड़ियों को बेस पर की मांग की गई. हमला के कुछ दिनों बाद शुक्ला ने एक लेख में लिखा, “सुरक्षा जानकारी के आधार पर डोभाल ने अंदाजा लगाया था कि उनके लिए इस हमले से निपटना बेहद आसान होगा और उन्होंने इसकी उम्मीद नहीं लगाई थी कि वहां आतंकियों के एक से ज्यादा समूह हो सकते हैं, डोभाल ने अपना तुरुप का पत्ता चला-उन्होंने आदेश दिया कि 150-160 नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (एनएसजी) को हवाई रास्ते से तुरंत वहां लाया जाए. आर्मी को इंतजार करने को कहा गया.”
एक और रक्षा विश्लेषक राहुल बेदी ने लिखा, “जैसा कि देखने से साफ था कि डोभाल पूरे अभियान को खुद नियंत्रित करना चाहते थे, उन्होंने इस बात को पूरी तरह अनदेखा किया कि पठानकोठ क्षेत्र में 50000 आर्मी के जवान मौजूद हैं, देश में संभवत: ऐसी संख्या में ये अपनी तरह की इकलौती मौजूदगी है.”
शुरुआती हमले में कई रक्षा कर्मचारियों की मौत हो गई. जवाबी कार्रवाई में चार हमलावरों को मार गिराया गया. शाम तक कहा गया कि सफलता के साथ मिशन को समाप्त कर दिया गया है.
शिशिर गुप्ता ने ट्वीट किया, “अजीत डोभाल को झुककर सलाम, शनदार जवाबी कार्रवाई, एनएसजी को बीच में ला पीपी और एजेंसियों के बीच बेहतरीन तालमेल बिठाया.” कई और सुरक्षा से जुड़े पत्रकारों ने भी ट्वीट कर तरह तरह की बातें कहीं. उनके साथ गृहमंत्री राजनाथ सिंह और रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने भी ताल में ताल मिलाई. मोदी ने ट्वीट किया, “पठानकोट में आज हमारे जवानों ने एक बार फिर से अपना पराक्रम दिखाया. मैं उनके बलिदान को सलाम करता हूं.”
अगले दिन वहां बच गए बाकी के आतंकियों ने फिर ताजा हमला किया जिसकी वजह से तीन जानों का और नुकसान हुआ. कई दिनों तक बिना रुकावट के चले अभियान के बाद अखिरी आतंकी को 5 जनवरी को मार गिराया गया. आधिकारिक तौर पर सात भारतीय कर्मी शहीद हुआ या उनकी जानें गई थी और छह आतंकी मार गिराए गई.
घटना का विश्लेषण करते हुए एक समाचार पत्र में सेवानिवृत्त जनरल एचएस पनाग ने लिखा कि शुरुआती तौर पर सिलसिलेवार चूक हुई. उन्होंने लिखा, “किसी एजेंसी को निर्धारित नहीं किया गया और ये भी नहीं बताया गया कि नेतृत्वकर्ता कौन होगा और किसके निर्देशों का पालन करना है.” उन्होंने लिखा कि हालांकि, इलाके के सबसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी नेतृत्वकर्ता की समझादारी भरी पसंद होने चाहिए थे, लेकिन नेतृत्व एनएसजी ने अपने हाथों में ले लिया. शुरुआती मुठभेड़ के बाद, “इलाके की अच्छे से तलाशी नहीं ली गई ... एनएसजी की ऐसी ट्रेनिंग नहीं है कि वो बड़े इलाकों की अच्छी तरह से तलाशी ले सक और इसके लिए अतिरिक्त आर्मी की टुकड़ी को बुलाया जाना चाहिए था.” पनाग ने निष्कर्ष निकाला, “फौज के क्षेत्र में एनएसए को अभियानों में अचड़न डालने से बचना चाहिए. मोटे तौर पर निर्देष दिए जा सकते हैं लेकिन विस्तृत तौर पर तैयारी करने की जिम्मेदारी सुरक्षा बलों पर छोड़ देनी चाहिए.”
अजीत शुक्ला ने लिखा, “जिसे खुफिया जानकारी पर आधारित छोटा आंतक विरोधी अभियान बनाया जाना चाहिए था वो अजीत डोभाल की कमजोर कार्यशैली की वजह से एक पराजय में बदल गया.”
शेखर गुप्ता ने लिखा, “सिर्फ एक लाइव ऑपरेशन का ऐहसास और वो मैदान में वापस आ गए, भले ही ये उनके दिमाग में हुआ. इसी वजह से एनएसजी को तुरंत पठानकोट भेजने का फैसला लिया गया. लेकिन आतंक विरोधी अभियान और श्रेष्ठ खुफिया अभियान में अंतर है और एयरफोर्स बेस जैसे सवेंदनशील और फैले इलाके में एक बड़े हमले से निपटने. ... इसने डोभाल को किसी विकल्प के साथ नहीं छोड़ा क्योंकि चारों ओर उन्हें ऐसे इंसान के तौर पर देखा जा रहा था जो अभियान को नियंत्रित कर रहा है.”
अगला बड़ा आंतकी हमला सितंबर के महीने में हुआ और कश्मरी के उरी के एक आर्मी कैंप पर हुए इस हमले में 18 सैनिक शहीद हो गए. इसके 11 दिनों बाद आर्मी ने घोषणा की कि “सर्जिकल स्ट्राइक” करके फौज ने सीमा पर आतंकियों को भारी नुकसान पहुंचाया है और आंतकियों के कई अड्डों को ध्वस्त कर दिया. इसके पहले भी सर्जिकल स्ट्राइक हुए थे लेकिन कभी भी सरेआम इसका दिखावा नहीं किया गया था. फिर मीडिया इस फैसले के लिए मोदी का गुणगान करने लगा. रक्षा से जुड़े पत्रकारों ने इसके लिए डोभाल की योजना को श्रेय दिया.
घटना की सही समीक्षा कहीं और से आई. पहले से मुश्किल विवाद में एक आदमी को सर्वेसर्वा के तौर पर पेश किए जाने की सार्थकता पर कुछ विश्लेषकों ने सवाल उठाए. पत्रकार मायरा मैकडोनाल्ड ने हारने वाले का कोई नहीं होता में लिखा, “बॉर्डर पार की गई कार्रवाई एक रणनीतिक से ज्यादा एक सामरिक सफलता थी, क्योंकि पुराने नियम लागू थे. ऐसे हमलों से इस बात की गुंजाईश नहीं थी कि बाकियों से लड़ते हुए पाकिस्तान जिहादियों को समथर्न देने की अपनी नीति त्याग देगा. ... कश्मरी घाटी के भीतर, भारत को अभी भी राजनीतिक हल तलाशने की दरकार है जिससे घाटी के लोगों की नाराजगी का रास्ता निकाला जा सके.”
2014 आम चुनाव के अपने घोषणा पत्र में बीजेपी ने कहा कि कांग्रेस नीत सरकार “भारत के पड़ोसी देशों के साथ लंबे समय तक बने रहने वाला आपसी संबंध बनाने में असफल रही है. देश के पुराने सहियोगियों के साथ इसके संबंध कमजोर पड़े हैं. भारत और इसके पड़ोसी एक दूसरे से दूर चली गई हैं. स्पष्टता की जगह हमें उल्झन दिखाई देती है. देश चलाने की कला की ऐसी अनुपस्थिति आज से पहले कभी इतनी कमजोर महसूस नहीं हुई है.”
अपने शपथ ग्रहण समारोह में मोदी ने दक्षिण एशिया के सभी राष्ट्राध्यक्षों को निमंत्रण दिया था. इस समारोह में सभी आए, यहां तक की तब के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भी आए. बताया गया कि ये विचार डोभाल का था. मोदी समर्थकों ने इसे एक राजनेता जैसा प्रयास करार दिया और भविष्यवक्ताओं ने बेहतर भारत-पाकिस्तान रिश्तों की उम्मीद जताई.
ये निर्रथक साबित हुआ. सीमा पर हुए संघर्ष विराम ने इस बात की याद दिलाने का काम किया कि यथास्थिति कायम है. भारत में पाकिस्तान के हाई कमिश्नर कश्मीर में अलगाववाद की मुहिम चलाने वाले हुर्रियत के नेताओं से मिले. भारत सरकार और मीडिया ने इसके लिए पाकिस्तान को लताड़ लगाई और भारत ने अगस्त महिने में होने वाली द्विपक्षीय वार्ता रद्द कर दी.
एनएसए बनने के पहले भी डोभाल पाकिस्तान से बातचीत को लेकर अपने विचारों को खुलकर प्रकट करते थे. पूर्व राजनयिकों, फौजियों, खुफिया अधिकारियों ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उनके कार्यकाल के दौरान मांग की कि वो यूएन जनलर असेंबली में एक पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से होने वाली उनकी मुलाकात रद्द कर दें. इसका मांग के मुखिया डोभाल थे. उनकी मांग थी कि इसके बजाय ऐसे कदम उठाए जाएं “जिसका खामियाजा पाकिस्तान को भुगतना पड़े.”
दिसंबर 2015 में विदेशी दौर से भारत लौट रहे मोदी अचनाक से लाहौर में उतर गए. मोदी नवाज शरीफ का जन्मदिन और उनकी पोती की शादी में शरीक होने पहुंचे थे. रॉयटर्स ने लिखा, “मोदी के एक करीब सहयोगी ने बताया कि ये फैसला अचनाक से प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल द्वारा लिया गया था और इसे भारत की स्थिति में अचानक से आए बदलाव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए.”
एक पूर्व राजनयिक जी पार्थसार्थी ने मुझे बताया कि जब मोदी सत्ता में आए, तब सबको लगा कि डोभाल बहुत सख्ती से पेश आएंगे. उन्होंने कहा, “इसलिए उन्होंने पाकिस्तान की ओर कदम बढ़ाने का फैसला लिया. उन्होंने ये कदम इसलिए उठाया ताकि उन्हे लेकर जो राय है उसे बदला जा सके. लेकिन संघ में मोदी के समर्थक और संघ परिवार का बड़ा तबका इसे स्वीकार नहीं करेगा.” आरएसएस से जुड़े एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने मुझे बताया, “इसे लेकर बहुत गुस्सा था.”
पहले के अनुभव के आधार पर कुछ विश्लेषकों ने दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्ते नहीं चाहने वाले तत्वों द्वारा मोदी के दौरे के जवाब में “रंग में भंग डालने वाले” हमले भविष्यवाणी की. कुछ ही दिनों बाद पठानकोट हमला हो गया. पाकिस्तान ने इसकी निंदा की; मोदी ने इसका ठीकरा “मानवता के दुश्मनों” पर फोड़ा.
बाद के दिनों में पीयू रिसर्च सेंटर ने मोदी को लेकर लोगों की राय के बारे में एक सर्वे किया. पीएम मोदी को बाकी मामलों में तो नंबर मिले लेकिन पाकिस्तान के मामले में नंबर काट लिए गए. सर्वे में कहा गया, “[पाकिस्तान को लेकर] बाकी पार्टियों के अलावा बीजेपी में भी नापसंदगी है.”
मोदी ने नीति बदल दी. तब से उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि पाकिस्तान “अपने नागरिकों पर हवाई हमले करता है” और अब “समय आ गया है कि पाकिस्तान को इसके अपने लोगों के खिलाफ बलुचिस्तान और पीओके में किए गए अत्याचारों का दुनिया को जबाव देना पड़ेगा”-पीओके का मतलब पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मरी से है. साल 2016 में स्वतंत्रता दिवस के दौरान दिए गए अपने भाषण में उन्होंने फिर से बलुचिस्तान का जिक्र किया. मीडिया ने इसे “कूटनीतिक स्ट्राइक (हमला)” करार दिया.
मोदी सरकार बलुचिस्तान में पिछले साल ही बड़ी चाल चल चुकी थी. साल 2015 के अक्टूबर में अलगाववादी बलुचिस्तान लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन के एक प्रतिनिधि ने दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें नेताओं के एक समूह के बयान पढ़े जाने थे, ये लंदन में निर्वासित नेताओं के बयान थे. पाकिस्तान ने बीएलओ के प्रतिनिधियों की भारत की राजधानी दिल्ली में मौजूदगी का विरोध किया. द हिंदू में छपी एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टी की गई थी कि “जब जब जम्मू-कश्मरी को लेकर भारत पर आरोप लगाए जाएंगे तब तब जमकर बलुचिस्तान और पीओके का इस्तेमाल किया जाएगा.” बीएलओ के प्रतिनिधि ने बताया कि वो साल 2009 से भारत में हैं और वो “दिल्ली में सुरक्षित महसूस करते हैं और उन्हें बीजेपी के एक धड़े से समर्थन प्राप्त है.”
मोदी प्रशासन पर लिखी गई अपनी किताब में उदय माहूरकर ने लिखा है कि प्रधानमंत्री ने “बलूचिस्तान से जुड़े रिश्तों में राजनयिक स्ट्राइक लेने से पहले इस पर बहुत सोच विचार और बहुत सारा जमीनी काम के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने बहुत जमीनी स्तर पर इसकी योजना बनाई थी. बाद में पता चला कि इससे ना सिर्फ पाकिस्तान की बोलती बंद हो गई बल्कि चीन को भी कुछ समझ नहीं आया. इसके कारण: ये हमला जितना पाकिस्तान के खिलाफ है उतना ही चीन के खिलाफ है क्योंकि चीन 3000 किलोमीटर लंबा आर्थिक गलियारा बना रहा जिसकी जद में बलूचिस्तान के मकरान तट पर स्थित ग्वादार बंदरगाल से लेकर चीन का शिनजियांग प्रांत तक आता है.”
ये साफ नहीं है की इस “स्ट्राइक” से भारत के दोनों सबसे बड़े पड़ोसियों को उकसाने के अलावा भी कुछ हासिल हुआ. पाकिस्तान और चीन के कॉरिडोर का कार्यक्रम बिना किसी रुकावट के जारी है. इसे लेकर भारत की सबसे बड़ी भू-राजनीतिक जवाबी कार्रवाई ये रही है कि वो ईरान के चाबहार में बंदरगाह बनाने को लेकर काम कर रहा है. ग्वादार ईरान-पाकिस्तान की सीमा पर है जिसकी वजह से भारत यहां चीन के बंदरगाह को मुकाबला देने की स्थिति में होगा. लेकिन ये काम भी पूरा होने से बहुत दूर है.
मोदी के कार्यकाल में भारत की पाकिस्तान नीति को इस बात का खामियाजा भुगतना पड़ा है कि ये एक सी नहीं रही. सरकार ने समय के हिसाब से ये तय किया कि उसे कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए, ऐसे में कोई दूरगामी रणनीति नजर नहीं आती. कुछ हद तक इसके ले जिम्मेदारियों के बंटवारे में उतार-चढाव जिम्मेदार है.
एक अनुभवी रायनयिक संवाददाता ने कहा कि “शुरुआत में मोदी ने जयशंकर पर चीन को लेकर और डोभाल पर पाकिस्तान को लेकर भरोसा जताया.” संवाददाता ने इसमें शामिल व्यंग्य की ओर इशारा किया- चीन के बारे में जयशंकर को अद्भुत जानकारी है क्योंकि वो वहां राजनयिक के तौर पर तैनात थे और डोभाल की पाकिस्तान के बारे में ऐसी ही जानकारी है. उन्होंने आगे कहा, “डोभाल को चीन में विशेष दूत बनाया गया. 2015 के मार्च में जयशंकर को सार्क देशों की राजधानियों में भेजा जिसे पाकिस्तान के साथ बातचीत का छुपा हुआ प्रयास माना गया. लेकिन 2015 के अंत तक जब पाकिस्तान को लेकर मोदी का तरीका बदल गया था, डोभाल पाकिस्तान के एनएसए से बैंकॉक में मिले ... और एक बार फिर भारत पाकिस्तान नीति के चेहरे बन गए.”
नेपाल के साथ भी रिश्तों में सबसे अहम बात नीति में समानता नहीं होनी रही है. मोदी अगस्त 2014 में काठमांडू गए, ये दौरा तब हुआ जब उन्हें पीएम बने अभी थोड़े ही दिन हुए थे. वहां उन्होंने विकास को लेकर सहयोग बढ़ाने का वादा किया और “नेबर फर्स्ट (सबसे पहले पड़ोसी)” की राह पर चलने की बात कही. लेकिन ये सब बातें तुरंत हवा हो गईं.
साल 2015 के सितंबर में नेपाल नए संविधान को अपनाने की कगार पर था और ऐसा करते ही गृहयुद्ध के बाद के एक नए दौर के शुरू होने की संभावना थी. लेकिन इसके कुछ प्रवाधानों की वजह से लोगों के गुस्से ने विरोध प्रदर्शनों का रूप ले लिया. खास तौर पर दक्षिणी सीमा पर मधेसी इलके इसके खासे प्रभाव में आए. आने वाले दिनों इन प्रदर्शनों में कई लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी. भारत, जो पहले नए संविधान को समर्थन दे रहा था, ने असंतोष को लेकर चिंता व्यक्त की, लेकिन ऐसा कुछ नहीं कि लगे कि भारत अपनी लंबे समय से जारी नीति में बदलाव लाने जा रहा है. संविधान अपनाए जाने के दो दिन पहले जयशंकर काठमांडू पहुंचे और इसके अपनाए जाने के विरोध में मुहिम चलाने लगे और इसे तब तक टालने की मांग की जब तक मधेशियों की समस्या का समाधान नहीं निकल जाता.
कई नेपालियों को लगा कि भारत उनके देश में दखल दे रहा है-नेपाल को ऐसा लंबे समय से लगता आया है. नेपाली पत्रकार अमीत ढकाल ने लिखा, “जयशंकर जो संदेश लेकर आए थे, उसे देने का समय ही नहीं बल्कि जिसे कठोर तरीके से इसे दिया गया वो बेहद घातक था.”
पत्रकार ज्योति मल्होत्रा ने लिखा, “जब मामले ने तूल पकड़ा तो उस समय नेपाल का मामला संभाल रहे डोभाल को इसे जयशंकर के हाथों में सौंपना पड़ा.” विदेश मंत्रलाय की जानकारी रखने वाले एक विश्लेषक ने मुझे बताया कि डोभाल काठमांडू जाकर ये संदेश देने को लेकर उदासीन थे और इसलिए जयशंकर को ऐसा करने दिया.
नेपाल ने तय समय पर अपना संविधान अपनाया जिसके बाद भारत और नेपाल दोनों के बीच एक दूसरे को झिड़कने का ऐहसास रह गया. तब से दोनों देशों के बीच तनाव रहा है. संविधान तो अपना लिया गया लेकिन इसके बाद भारत और नेपाल के बीच तन गई और दोनों देशों ने एक दूसरे के विरुद्ध अवरोध लगा दिए. भिंडत के प्रमुख करणों में वो संशोधन थे जो भारत चाहता था कि नेपाल अपने संविधान में करे, वहीं भारत ने नेपाल में बढ़ते चीनी निवेश की वजह से भी ऐसा किया था. इन सबकी वजह से एक तरफ जहां भारत के लिए गुस्सा बढ़ता चला गया, वहीं चीन लोगों के बीच मशहूर होता चला गया.
श्रीलंका को लेकर भी भारत का वैसा ही रुख रहा है जैसा नेपाल को लेकर रहा है. वहीं, चीन के साथ नजदीकियां बढ़ाने वाले अन्य साउथ एशियाई देशों के साथ भी भारत का रवैया बेहद अड़ियल रहा है.
2014 के अक्टूबर में डोभाल कोलंबो गए. वहां की महिंदा राजपक्षे की सरकार ने भारत की कीमत पर चीन के साथ रिश्तों को बढ़ावा दिया था. अब, जबकि डोभाल वहां होने वाले चुनावों के थोड़ दिन पहले ही पहुंचे थे, वो देश के राष्ट्रपति राजपक्षे से मिलने से पहले वहां के विपक्ष के नेताओं से मिले. दिसंबर महीने में राजपक्षे सरकार ने कोलंबो में तैनात रॉ के स्टेशन ऑफिसर को देश से बाहर कर दिया. बाद में पता चला कि उन्हें बाहर करने के पीछ तब की श्रीलंका सरकार के आरोप थे कि वो विपक्ष की मदद कर रहे हैं. अगले महीने राजपक्षे मैत्रीपाला सिरीसेना से चुनाव हार गए, आपको बता दें कि सिरीसेना ने अंतिम क्षण में राजपक्षे की पार्टी छोड़कर विपक्ष से हाथ मिला लिया था.
श्रीलंका में आम राय यही थी कि डोभाल ने राजपक्षे की हार का षडयंत्र रचा जिसके पीछे की सबसे बड़ी वजह चीन से उनकी खीझ थी. इस साल मार्च में द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में राजपक्षे की भाई गोटाबाया राजपक्षे के बायन छपे जो एक समारोह के दौरान कोलंबो में दिए गए थे. रिपोर्ट में कहा गया था, “गोटबाया ने कहा कि खुफिया सेवा में डोभाल के शुरुआती दिनों से ही चीन वो विषय रहा है जिससे वो कभी उबर नहीं पाए.” रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि गोटबाया को लगता है कि डोभाल के पहले जो एनएसए शिवशंकर मेनन थे, “वो चीजों को राजनयिक के तौर पर देखते थे. डोभाल उन चीजों को खुफिया विभाग के आदमी की तरह देखते हैं.”
श्रीलंका की नई सरकार ने चीन के साथ अपना सहयोग जारी रखा है. 2016 में लिखे गए अपने संस्मरण में शिवशंकर मेनन लिखते है, “विशिष्टता की उम्मीद करना ठीक नहीं रहेगा. श्रीलंका और भारत के अन्य छोटे पड़ोसियों के लिए भारत का ध्यान आकर्षित करने के लिए चीन को इस्तेमाल करना और रिश्ते मजबूत करना और भारत का इस्तेमाल करके चीन के निवेश और समर्थन प्राप्त करना एक लाभदायक रणनीति है, अनुभव के आधार पर ये बात पहले साबित हो चुकी है. आंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम काज के तरीके को न मानना और ना पहचान देना बेवकूफाना होगा.”
म्यांमार के साथ भी भारत के रिश्ते ने विदेश नीति में एक और बड़ी भूल को उजागर किया. साल 2015 के जून में भारत-म्यांमार की सीमा पर मौजूद एक आंतकी समूह ने भारत के सुरक्षा बलों पर मणिपुर में हमला कर दिया. भारत ने म्यांमार में घुसकर अतंकियों के ठिकाने तबाह कर दिए. इस अभियान को म्यांमार की सरकार ने कथित तौर पर इस बार पर हरी झंडी दी थी कि इसका प्रचार नहीं किया जाएगा. लेकिन जब दिल्ली में सरकार के मंत्रियों ने इस पर शेखी बघारनी शुरू की तब अपनी संप्रभुता पर आंच आते देख म्यांमार ने कहा कि ऐसा कोई अभियान हुआ ही नहीं है. सितंबर महीने में हुए ऐसे ही एक और अभियान को म्यांमार ने घुसपैट बताकर इसका विरोध किया.
एक राजनियक के तौर पर अंतरराष्ट्रीय मंच पर डोभाल की असली परीक्षा चीन के मामले में हुई है. साल 2014 के सितंबर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत दौरे पर आए थे. इस दौरान दोनों देशों के बीच लंबे समये से चले आ रहे सीमा विवाद के मुद्दे को लेकर कोई बात आगे बढ़ने की उम्मीदें जागी थी. जब बातचीत का मौका आया तब मोदी ने जयशंकर की जगह डोभाल को अपने विशेष राजदूत के तौर पर आगे बढ़ाया. विदेश मंत्रालय के एक पूर्व अधिकारी और रॉ के एक पूर्व अधिकारी ने मुझे बताया कि डोभाल ने खासतौर पर इस काम की मांग की थी.
साल 2015 में चली कई दौर की बातचीत से शायद ही कुछ हासिल हुआ. जिसके बाद साल 2016 में एक दौर की बताचीत और हुई. इसके पहले चीन ने यूएन में भारत के उन प्रयासों को धत्ता बता दिया था जिसके तहत भारत मसूद अजहर को एक अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करवाना चाहता था. अजहर वही आंतकी है जिसे आईसी 814 जहाज की हाईजैकिंग के बाद छोड़ा गया था और बाद में चलकर इस पर आरोप लगे कि इसने पठानकोट हमले की सजिस रची है और उसे अंजाम दिलवाने में ये सबसे अहम रहा है.
कुछ दिनों बाद भारत ने डोल्कन ईसा को वीजा दे दिया. ईसा उइगर जातीय समूह के निर्वासित नेता हैं और चीन में वॉन्टेड हैं. उन्हें ये वीजा भारत के धर्मशाला में एक सम्मेलन में शामिल होने के लिए दिया गया था. चीन ने कहा कि ईसा को इंटरपोल ने वॉन्टेड भगोड़े की सूची में रखा है और भारत को इसके बाद होने वाले परिणाम को लेकर आगाह किया. भारत के विदेश मंत्रालय ने ये वीजा रद्द कर दिया.
शेखर गुप्ता ने ट्वीट कर कहा, “डोल्कन ईसा का मामला एक खुद को दिया अपमान था. शुक्र है कि सही दिमाग वालों की चल गई न कि उन अपरिपक्व नए योद्धाओं की जो हमारी कूटनीति में नए हैं.” एक अनुभवी राजनयिक संवाददाता ने मुझ बताया कि ईसा के वीजा पर लिए गए फैसले और बाद में इसे वापस लेने के फैसले से जयशंकर और डोभाल की तरीकों के बीच असामंजस्य साफ दिखाई दिया.
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर राजेश राजागोपालन ने लिखा, “समझ नहीं आता कि भारत इस बात की उम्मीद कैसे लगाए बैठा है कि मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र संघ की आंतकियों सूचि में शामिल करवा देने से उसका विध्वंसकारी रवैया कैसे बदल जाएगा ... इन पर भारत अपने जितने राजनयिक प्रयासों को खर्च करता है उसकी तुलना में वैसे लाभ मिलने की गुंजाईश नहीं है.”
अगस्त 2016 में द टेलिग्राफ ने छापा, “प्रधानमंभी नरेंद्र मोदी ने विदेश सचिव एस जयशंकर के हवाले भारत की चीन और पाकिस्तान संबंधित कूटनीति कर दी है. इससे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की इस मामले में लगभग पूरी पकड़ समाप्त हो गई जो दो सबसे मजबूत पड़ोसियों पर हासिल थी. जयशंकर अब अपने चीनी समकक्षी से लगातार बातचीत करेंगे जिसके सहारे उस मुश्किल द्विपक्षीय रिस्तों को ठीक करने की कोशिश की जाएगी जो पिछले महीने में हुई कई नोंक-झोंक की वजह से खतरे में पड़ गई थी.”
वीआईएफ में डोभाल के साथ काम कर चुके एक विश्लेषक ने मुझे बताया, “डोभाल के पर चीन को लेकर इसलिए कतर दिए गए हैं और जयशंकर को आगे लाया गया है क्योंकि चीजें बहुत ज्यादा पेचीदा हैं और इन्हें उत्कृष्ट कूटनीति की दरकार है. पाकिस्तान के साथ मामला पूरी तरह से आतंकवाद का है.”
लेकिन सीमा से जुड़े मामले पर बातचीत के लिए डोभाल मोदी के विशेष राजदूत बने रहे. इस साल जून में चीन ने डोकलाम में एक सड़क बनाने की कोशिश की. ये उस तिराहे पर चीनी दावे के साथ बनाया जा रहा था जहां भारत, चीन और भूटान आकर मिलते हैं. भूटान के साथ हुए समझौते और अपने रणनीतिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए भारत ने भूटान के दावे का बचाव किया. भारतीय सैनिक इलाके में घुस गए और चीनी सेना का सामना किया और लंबे गतिरोध की नौबत आ गई. घटना के दौरान डोभाल के चीन दौरे से पहले चीनी सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स में एक संपादकीय छपा जिसका शीर्षक “डोभाल के दौरे से सीमा पर हुए गतिरोध को लेकर चीन के रुख में कोई बदलाव नहीं होगा.” इसमें लिखा गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार “उन षडयंत्रकारियों में प्रमुख नाम लगते हैं जिनकी वजह से वर्तमान गतिरोध पैदा हुआ है.” कई महीने तक चले गतिरोध के बाद अगस्त के महीने में दोनों पक्ष पीछे हटने को राजी हुए.
ऐसे लेखों की बाढ़ आ गई जिनमें कहा गया कि ऐसा डोभाल के मजबूत स्टैंड की वजह से ही संभव हो पाया. जी न्यूज ने “डोकलाम गतिरोध से डोभाल और उनकी टीम कुछ इस तरह से निपटी” की हेडलाइन से छपे एक लेक ने लिखा, “जब कूटनीतिक बातचीत चल रही थी तो ये साफ था कि भारत सेना प्रमुख विपिन रावत को आगे रखकर मजबूती के साथ बातचीत कर रहा है ‘जिसमें ज्यादा से ज्यादा क्षति के साथ निपटने की तैयारी शामिल थी.’”
हालांकि, रक्षा और विदेश नीति पर एक अनुभवी पत्रकार आर प्रसन्ना ने लिखा,
साफ तौर पर मोदी को उनके रणनीतिक मैनेजरों ने पहाड़ पर चढ़ा दिया है. पहले तो वो चीन का दिमाग पढ़ने में असफल रहे जो भारत को कमजोर बनाने के लिए तैयार था. चीन ने डोकलाम में सड़क बनाने की अपनी सोच के बारे में पहले ही जानकारी दे दी थी लेकिन हमारे राजनयिकों ने उन्हें इसके खिलाफ राजी करने को लेकर कुछ नहीं किया. जब चीनी वहां पहुंच गए तब भारत ने पहले फौज और बाद में कूटनीति का इस्तेमाल किया. ये काम उल्टे तरीके से होना चाहिए था. ... पूरे गतिरोध के दौरान भूटान ने एक शब्द नहीं कहा. जब इसकी नौबत आ गई कि बिना बोले काम नहीं चलेगा तब भूटान ‘ओफ़्फ़’ करके रह गया. भारत का शुक्रिया अदा नहीं किया गया. सवाल है, ऐसी चुप्पी क्यों थी?
हिमाली क्षेत्र के पत्रकार टेरिंग शाक्या ने गतिरोध के दौरान लिखा, “भारतीय मीडिया का भूटान की रक्षा के नाम पर युद्ध भड़काने का काम राष्ट्रवादी भावनाएं पैदा करने के लिहाज से ठीक हो सकता है लेकिन भूटान इससे इत्तेफाक नहीं रखता. एक तरफ जहां भूटान के उत्तर से हमले का डर नहीं है, वहीं दूसरी तरफ भारतीय बलों की मौजूदगी इनकी संप्रभुता को जरूर ठेस पहुंचाएगी.”
एक वरिष्ठ राजनयिक संवाददाता ने भारत-चीन रिश्ते पर मुझे बताया, “मोदी के सत्ता में आने के बाद रिश्तों किसी तरह की प्रगति नहीं हुई है. ऐसा लगता है कि दूसरे चरण को आगे बढ़ाने के लिए डोभाल ने कोई कदम नहीं उठाया. रिश्ते कभी ठीक हुए ही नहीं. डोभाल का पूरा जोर सीमा मुद्दा से जुड़ा रहा. तीनों सालों बाद ये मुद्दा ही समाप्त हो गया है. दिक्कतें ठीक उसी तरह से बनी हुई हैं जैसा ये साल 2014 में बनी हुई थीं.”
उन्होंने आगे कहा, “डोभाल एक पुलिस वाले हैं जिनका रुख कानून-व्यवस्था वाला है और वो दूरगामी सोच नहीं रखते हैं.” वहीं, आगे कहा गया कि चीन के ऊपर अब ज्यादा पकड़े वाले जयशकंर, “चीजों को राजनयिक के तौर पर देखते हैं.” लेकिन संवाददता ने मुझे ये भी बताया, “डोभाल और जयशंकर दोनों ही सख्त नीतियों वाले हैं और पारम्परिक के अलावा ऐतिहासिक कारणों से अपनी निहितार्थ को प्रभावित होने या जाने नहीं देते हैं. वो दुनिया के बारे में अपनी राय खुलकर जाहिर करते हैं और ये मोदी के लिए सहज स्थिति पैदा करती है. ... चीन समेत हमारे पड़ोसी मुल्कों में डोभाल और जयशंकर को लेकर कोई सम्मानजनक राय नहीं है क्योंकि उन्हें ऐसे व्यक्ति के तौर पर नहीं देखा जाता जो कूटनीतिक दृष्टी रखते हों बल्कि एक राजनीतिक पार्टी का सदस्य माना जाता है..”
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लोगों के बीच दिए गए अपने बयानों में, डोभाल ने बार-बार चौथी पीढ़ी के युद्ध की बात की है. उन्होंने सबसे पहले इसके बारे में साल 2006 में लिखा था और 2015 तक वो इस पर बोलते आए. इसमें युद्ध की पुरानी समझ पर आधारित बात होती है जिसमें इसे दो देशों के बीच होने वाले हिंसका संघर्ष के तौर पर देखा जाता है और इसे बेहद आसानी से समझाने के लिए जिन बातों का सहारा लिया जाता है उनमें ये भी बताया जाता है कि इनमें शामिल एक पार्टी है जो देश का हिस्सा नहीं है लेकिन हथियारबंद हिंसा कर रही है. उदाहरण के लिए इसे कई आतंकी घुसपैठों पर लागू किया जा सकता है और इसे ऐसे समूहों पर भी लागू किया जा सकता है जो अंतरराष्ट्रीय और विकेंद्रित आतंकी समूह हों. इसमें बा-बार आने वाला एक संकेंद्रण “अदृश्य” होता है, जो आमतौर पर देश के भीतर का एक दुश्मन होता है.
डोभाल ने 2012 में लिखा, “विध्वंसकारी और हिंसक समूह खुद को असंतुष्ट और पृथ्क लोगों के मसीहा का भेष बना लेते हैं जिसके बाद वो हिंसक और गैरकानूनी घटनाओं को अंजाम देते हैं. इसके बाद जब सरकार कानून का सम्मान करने वाले नागरिकों की रक्षा करने वाले नागरिकों की सुरक्षा के लिए कानून को कठोरता से लागू करते है तब इसे उत्पीड़न और अत्याचार के रंग में रगा जाता है ताकि सरकार में लोगों की विश्वसनीयत को ठेंस पहुंचे.”
साल 2015 में हैदराबाद की नेशनल पुलिस अकादमी में बोलते हुए उन्होंने कहा, “इस युद्ध को फौज के सहारे नहीं जीता जा सकता. अगर पुलिस जीतेगी तभी देश जीतेगा.”
ताकतवर पदों पर बैठे डोभाल के सहयोगियों को देखकर ऐसा लगता है कि उन्होंने डोभाल की सोच को अपना लिया है. आडवाणी ने भी अपनी जीवनी में “अदृश्य ताकत” का ज़िक्र किया है. 2014 में मोदी ने मिलिट्री कमांडरों की एक सम्मेलन से कहा, “एक तय सीमा के बाद हम भविष्य में ऐसे सुरक्षा खतरों का सामना करने वाले हैं जो शायद दिखाई न दें. स्थितियां पैदा होंगी और तेजी से बदल जाएंगी और तकनीक में होने वाले बदवाल की वजह से इनका जवाब देना और रफ्तार बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा. तब ऐसा हो सकता है कि खतरों का पता हो लेकिन दुश्मन अदृश्य हो.”
रक्षा से जुड़ी पत्रिका फोर्स के संपादक प्रवीण साहनी ने मुझे बताया, “ऐसा करना डोभाल को इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि ऐसा करने में वो बेहद सहज होते हैं क्योंकि आतंकवाद उनके विशेषता का क्षेत्र है. अगर भारतीय फौज अपने मन में ये बिठा ले तो उसे पारंपरिक युद्ध की तैयारी करने की कोई जरूरत नहीं. आतंकवाद आपके लिए कैसे खतरा हो सकता है जब आपके लिए दो मिलिट्री लाइन्स साफ हैं.”- चीन और पाकिस्तान के दोनों के साथ, जिसमें पहला दूसरे की भरपूर मदद करता है. “लेकिन भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा चीन है, चीन है, चीन है.”
पूर्व राजनयिक जी पार्थसार्थी ने इस बात से सहमति जताई की भारत की वर्तमान विदेश नीति सही नहीं है. उन्होंने कहा, "हम पाकिस्तान को लेकर बहुत ज्यादा सोचते हैं. भारत के मामले में ये सिर्फ चीन का एक नुकसान पहुंचाने वाली ताकत है. अपनी 'मोतियों की माला' की रणनीति के तहत हिंद महासागर में भारत को घेरना इसका मुख्य उद्देश्य है."
डोभाल ने 2015 में पुलिस अकादमी में कहा था, “हम एक ऐसे महान और मजबूत देश नहीं बन सकते जो अपनी आंतरिक सुरक्षा नहीं संभाल सकता.” उनके सामने सुरक्षा से संबंधित कई घटनाएं हुई हैं. इसी महीने कश्मीर में आतंकियों ने अमरनाथ जाने के रास्ते में सात लोगों को मार दिया. सरकारी की पहले से खुफिया सूचना होने के बावजूद इसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेने के लिए चौतरफा आलोचना हुई. अगस्त में स्वयंभू गुरमीत राम रहीम सिंह के समर्थकों ने उन्हें रेप के मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद हरियाणा, पंजाब और एनसीआर में जमकर बवाल काटा. इसमें 30 लोगों की मौत हो गई.
बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र ने इस बात की घोषणा की, “व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा सिर्फ सीमा तक सीमित नहीं है बल्कि व्यापक तौर पर ये सैन्य सुरक्षा; आर्थिक सुरक्षा; ऊर्जा, खाना, और पानी और स्वास्थ्य सुरक्षा; समाजिक एकजुटता और सामंजस्य को भी अपने में समेटे हुए है.” बावजूद इसके गोरक्षकों को खुलकर अपना राज चलाने की आजादी दी गई है और 2014 से अब तक उन्होंने कई जानें ले ली हैं.
बीजेपी के घोषणापत्र में इस बारे में भी बात की गई थी कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों में सुधार किया जाएगा और उन्हें राजनीतिक दखलअंदाजी से मुक्त किया जाएगा. लेकिन अभी तक कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है. डोभाल ने लंबे समय से नेशनल काउंटर-टेरिरिज्म सेंटर बनाए जाने की मांग को समर्थन दिया है ताकि खुफिया जानकारी को एक जगह मजबूत करके इसके विश्लेषण को बेहतर बनाया जा सके. इसकी पहले पिछले सरकार ने की थी लेकिन इस पर तब लगाम लग गई जब मोदी के गुजरात समेत कई अन्य राज्यों ने इस बात पर आपत्ति जताई कि ये उनके खुफिया अभियानों में दखल देने जैसे होगा. डोभाल के तीन सालों तक एनएसए रहने के बाद इस विचार को पिछले साल फिर से ताजा किया गया लेकिन ये सपना किसी नजदीक समय में सच होता नजर नहीं आ रहा.
बीएसएफ के पूर्व प्रमुख ईएन राममोहन ने एक अखबार से मई महीने में एक साक्षात्कार के दौरान कहा था, “एनएसए को अति सतर्कतापूर्वक निष्पक्ष होना चाहिए लेकिन डोभाल सत्ताधारी पार्टी के दक्षिणपंथी रुख का समर्थन कर रहे हैं. सुरक्षा को संभालने के दौरान उन्हें तब चुप नहीं रहना चाहिए जब पार्टी गलत कदम उठाती है. जब पार्टी ऐसा कुछ करती है जो संविधान की अवहेलना कर रहा हो तब एनएसए को आगे आकर इस ओर इशारा करना चाहिए कि ये गलत है.” राममोहन ने कहा, “डोभाल एक शानदार अफसर हैं लेकिन वो बीजेपी के चमचे की तरह व्यवहार कर रहे हैं. यही उनकी विरासत बन कर न रह जाए.”
परिशिष्ट:
प्रवीण दोंती ने डोभाल के कार्यलाय को साक्षात्कार से जुड़ा जो निवेदन 18 अगस्त को किया था, डोभाल ने उसका जवाब 1 सितंबर को फोन करके दिया, ये कॉल तब आया जब ये कहानी सितंबर 2017 के अंक में छप चुकी थी और इसमें कुछ भी जोड़ने का समय निकल गया था. सात मिनट की बातचीत में डोभाल ने कहा, “जहां तक राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का सवाल है वो सरकार की नीति है और अजीत डोभाल यंत्र का हिस्सा मात्र है. आपको इसे सरकार के प्रदर्शन के तौर पर देखना आना चाहिए. ... मुझे कभी किसी चीज के लिए ज्यादा जिम्मेदार न ठहराएं. ... मैं इन्हें बनाने में कुछ हद तक शामिल हूं. मैं इन्हें लागू करने में भी शामिल हूं. लेकिन मैं अकेला नहीं हूं. इसमें सेना प्रमुख शामिल हैं, इसमें नौसेना प्रमुख शामिल हैं, इसमें खुफिया महकमों के प्रमुख शामिल हैं, इसमें इसरो शामिल है, इसमें डीआरडीओ शामिल है, इसमें विदेश सचिव भी शामिल हैं. चारों तरफ हर कोई है. मैं इस टीम का हिस्सा हूं. हो सकता है कि मैं इसका नेतृत्व करता हूं लेकिन मैं टीम का हिस्सा हूं. ... संभव है कि मीडिया सही हो, संभव है कि मीडिया बहुत ज्यादा सही नहीं भी हो, मैं वो करता हूं जो मुझे पता है या जो मैं कर सकता हूं, मैं अपनी भूमिका अदा करता हूं.”