खिलाड़ी : हिंदुत्व का चहेता चेहरा अक्षय कुमार

हिंदुत्व का चहेता चेहरा अक्षय कुमार

अक्षय कुमार की शुरुआत मारधाड़ करने वाले ऐक्शन हीरो के रूप में हुई, फिर उन्होंने एक कुशल हास्य अभिनेता की भूमिकाएं निभाईं और अब उम्र के पांचवें दशक में प्रवेश करने के साथ उनकी मिस्टर इंडिया यानी एक जागरुक राष्ट्रवादी हीरो की छवि दिखाई दे रही है. आलोक सोनी / हिंदुस्तान टाइम्स

अक्षय कुमार को भारत से प्यार है. वह सचमुच भारत से प्यार करते हैं. ऐसा उन्होंने अपनी फिल्मों में, अपने विज्ञापनों में और अपने ढेर सारे ट्वीट में कहा है.

मार्च 2020 में कोविड-19 महामारी ने देश का सारा कामकाज ठप कर दिया और यही हाल इस अभिनेता का भी हुआ. महाराष्ट्र सरकार ने लोगों से कहना शुरू किया कि वे अपने घरों से बाहर न निकलें लिहाजा अक्षय कुमार की फिल्म सूर्यवंशी के प्रोमोशन का अंतिम दौर रद करना पड़ा. यह फिल्मकार रोहित शेट्टी की सबसे ताजा कृति थी जो पुलिस के जीवन पर आधारित थी और इसे अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना पड़ा.

लेकिन अभी भी अक्षय कुमार काफी हद तक व्यस्त नजर आ रहे थे क्योंकि पिछले कुछ समय से एक अदाकार के रूप में उनका काम फिल्मों तक ही सीमित नहीं था. कोविड -19 के संकट के दौरान उन्होंने एक जिम्मेदार सुपरस्टार और सोशल मीडिया पर लोगों का मनोबल बढ़ाने के अगुआ के रूप में अपनी भूमिका निभानी शुरू कर दी थी. उनके जितने भी ट्वीटर पोस्ट थे उनमें जोशपूर्ण सामग्री की बाढ़ आ गई थी. नरेन्द्र मोदी ने जैसे ही आपात स्थितियों के लिए प्रधानमंत्री नागरिक सहायता और राहत कोष की घोषणा की, अक्षय कुमार ने इस घोषणा के चंद मिनटों के अंदर प्रधानमंत्री राहत कोष अथवा पीएम-केयर्स में दान स्वरूप 25 करोड़ रुपए दिए. प्रधानमंत्री ने जब कहा कि पूरे देश को थाली बजाकर स्वास्थ्यकर्मियों के साथ एकजुटता दिखानी चाहिए तो कुमार ने तुरंत एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें वह अपने घर के बाहर खड़े होकर जोर जोर से थाली बजा रहे थे. उन्होंने उम्मीदों से भरा एक गीत अपनी पोस्ट पर लगाया, दिया जलाया, राहत कोष जुटाने के लिए कार्यक्रम का आयोजन किया और लोगों से अपील की कि वे सुरक्षित रहें और घर के अंदर रहें. जून में जब सरकार ने लॉकडाउन के प्रतिबंधों को खत्म करने की इच्छा प्रकट की तो कुमार ने एक जनसेवा विज्ञापन के जरिए लोगों से कहा कि वे चिंता न करें, मास्क पहनें, सुरक्षित रहें और घर से बाहर निकलें लेकिन सावधानीपूर्वक. उस समय ऐसा लगता था कि अगर सरकार के पास कोई संदेश है तो कुमार तुरंत संदेशवाहक का काम कर रहे थे.

दिसंबर 2019 में उन्होंने मीडिया से कहा, “मैं यह सोचने में यकीन नहीं करता कि देश ने आपको क्या दिया है बल्कि इसमें यकीन करता हूं कि आप देश को क्या दे सकते हैं. मिसाल के तौर पर आप किसी क्रिकेट टीम के लिए एक कप्तान का चुनाव करते हो और फिर टीम की जिम्मेदारी हो जाती है कि वह कप्तान की बातों को सुने. नेता का अनुसरण करें चाहे वह किसी भी पार्टी का हो... उसे देश का नेतृत्व करने दीजिए क्योंकि चुना तो आप ही लोगों ने है.”

1991 में बॉलीवुड में अपनी पहली फिल्म के बाद से ही अक्षय कुमार को 120 से भी अधिक फिल्मों में देखा गया जिसमें वह अपने कैरियर के एक दौर से दूसरे दौर में प्रवेश करते चले गए. उनकी शुरुआत मारधाड़ करने वाले ऐक्शन हीरो के रूप में हुई, फिर उन्होंने एक कुशल हास्य अभिनेता की भूमिकाएं निभाईं और अब उम्र के पांचवें दशक में प्रवेश करने के साथ उनकी मिस्टर इंडिया यानी एक जागरुक राष्ट्रवादी हीरो की छवि दिखाई दे रही है.

हाल के वर्षों में रिलीज उनकी फिल्मों में बेबी और नाम शबाना जैसी राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित फिल्में; गोल्ड, केसरी और मिशन मंगल जैसी वास्तविक जीवन पर आधारित फिल्में तथा पैडमैन और टॉयलेट जैसी समाज सुधार के कथानक से भरी फिल्में शामिल हैं. कुमार की मानें तो यह महज इत्तफाक है कि उनकी फिल्में उन्हीं मुद्दों पर आधारित हैं जिनको भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार उजागर करना चाहती है : देशभक्ति, राष्ट्रीय सुरक्षा, स्वच्छता अभियान आदि. अगस्त 2019 में उन्होंने कहा, “मोदी सर ने 2014 में स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की और 2017 में मेरी फिल्म टॉयलेट : एक प्रेम कथा आई. इसलिए आपका यह कहना गलत है. चंद्रमा पर भारत के अभियान से संबंधित चंद्रायन परियोजना 2015 से ही विकसित हुई और हमने दिसंबर 2018 में मिशन मंगल की शूटिंग शुरू की. इसलिए ये सारी चीजें महज एक इत्तफाक हैं.” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कुमार ने कहा कि “भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना 15 अगस्त 1969 को हुई और यह भी इत्तफाक है कि हमारी फिल्म मिशन मंगल इस संगठन की स्थापना की 50वीं वर्षगांठ पर रिलीज हो रही है. यह बात मुझे अभी कुछ महीने पहले ही पता चली.” कंप्लीट सिनेमा पत्रिका के संपादक अतुल मोहन ने पिछले वर्ष मार्च में मुझे बताया कि, “पिछले चार-पांच वर्षों में देशभक्ति वाली फिल्मों के निर्माण में वृद्धि हुई है और इसके लिए अक्षय कुमार तथा कुछ अन्य लोगों का खासतौर पर शुक्रगुजार होना चाहिए. बीजेपी के सत्ता में आने के बाद देशभक्ति और राष्ट्रवाद के मुद्दों पर खुलकर बहस होती है और इसकी वजह से ऐसी फिल्मों के प्रोडक्शन को बढ़ावा मिला है. जब प्रधानमंत्री देशभक्ति, स्वास्थ्य और सफाई पर खुलकर बोलते हैं तो इससे भी सामाजिक तौर पर प्रासंगिक फिल्मों को बढ़ावा मिलता है.”

लेकिन हिंदी सिनेमा में आई राष्ट्रवाद की इस लहर के पीछे ऐसा लगता है कि एक अघोषित मिलीभगत वाली प्रणाली है. अपनी छवि के प्रति बेहद सतर्क सरकार न केवल फिल्मों के विषयवस्तु पर बारीकी से निगाह टिकाए रखती है बल्कि यह भी देखती है कि सेलेब्रेटी लोग सार्वजनिक तौर पर किस तरह की राय व्यक्त करते हैं. कुछ से तो सीधे संपर्क किया जाता है कि वे सरकार की बातों को जोरदार ढंग से लोगों के बीच रखें. इस काम में जो लोग सहयोग करते हैं उन्हें तरह-तरह से पुरस्कृत किया जाता है : टैक्स में कटौती, सरकारी एसाइनमेंट, राष्ट्रीय पुरस्कार वगैरह वगैरह. जो नहीं सहयोग करते उन्हें संस्थानों का दुरुपयोग कर दंडित किया जाता है. अक्षय कुमार ने शुरुआती दिनों में ही अपनी इच्छा से सरकार का सहयोगी बनने का निर्णय लिया और बड़ी कुशलता के साथ उन्होंने अपनी खुद की धारणाओं और  सरकारी एजेंडा में शामिल साझा आधार ढूंढ लिया.

अक्षय कुमार की शुरुआत मारधाड़ करने वाले ऐक्शन हीरो के रूप में हुई, फिर उन्होंने एक कुशल हास्य अभिनेता की भूमिकाएं निभाईं और अब उम्र के पांचवें दशक में प्रवेश करने के साथ उनकी मिस्टर इंडिया यानी एक जागरुक राष्ट्रवादी हीरो की छवि दिखाई दे रही है. नितिन कनोत्रा / हिंदुस्तान टाइम्स

हिंदू राष्ट्रवादी प्रतिष्ठान को कुमार को अपनाने के पीछे बहुत सारे उपयोगी तत्व दिखाई देते हैं : लोगों के अंदर की यह धारणा कि कुमार फिल्म उद्योग में एक आउटसाइडर यानी बाहरी व्यक्ति के रूप में उपस्थित हैं; लोगों के अंदर एक ऐसी छवि जो उन्हें आमिर खान, शाहरुख खान और सलमान खान जैसे तीन बड़े मुस्लिम दिग्गजों के खिलाफ एक हिंदू विकल्प के रूप में देखती है; लोगों को मदद करने की उनकी चिंता और विज्ञापनों में जिम्मेदार संदेश. अब ये सारी बातें सरकार और कुमार दोनों के लिए परस्पर लाभकारी हैं. एक स्वतंत्र कम्युनिकेशन कंसल्टेंट कार्तिक श्रीनिवासन ने ई-मेल के जरिए मुझे बताया, “अगर बॉलीवुड की हस्तियों के दिखाई देने की सीमा एक शुक्रवार से दूसरे शुक्रवार तक ही फैली हुई है तो जन सेवा विज्ञापनों के माध्यम से कुमार के लिए यह फैलाव और भी ज्यादा हो जाता है. हाल के दिनों में महत्वपूर्ण लोगों के जीवन पर बनी फिल्मों (बॉयोपिक्स) और अतिराष्ट्रवादी फिल्मों से न  केवल अक्षय कुमार को बल्कि विकी कौशल और जॉन इब्राहम जैसे अभिनेताओं को भी मदद मिली है-   हालांकि विवेक ओबेराय को इसका बिलकुल लाभ नहीं मिला.”

कब कौन सी फिल्म रिलीज हो, इसके लिए बहुत सोच समझ कर समय तय किया जाता है. पहले प्रोड्यूसर लोग अपनी फिल्मों की रिलीज के लिए दिवाली का चयन करते थे लेकिन आजकल सप्ताहांत की छुट्टियों को ज्यादा महत्व दिया जाता है क्योंकि फिल्म रिलीज होने के बाद टिकट खिड़की पर पहले हफ्ते में कितनी कमाई होती है, इस पर काफी हद तक फिल्म की किस्मत का फैसला होता है. माना  जाता है कि सलमान खान की फिल्में ईद के मौके पर और आमिर खान की क्रिस्मस के मौके पर रिलीज होती रही हैं और अब अक्षय कुमार की फिल्मों को गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस वाले सप्ताहांत की छुट्टियों में रिलीज की उम्मीद की जाती है. गोल्ड 15 अगस्त 2018 को, टॉयलेट 11 अगस्त 2017 को, मिशन मंगल 15 अगस्त 2019 को और रुस्तम 12 अगस्त 2016 को रिलीज हुई. इसी प्रकार एयरलिफ्ट 22 जनवरी 2016 को रिलीज हुई और बच्चन पांडेय अगले वर्ष गणतंत्र दिवस के हफ्ते में रिलीज होगी.

वैसे तो विवेक ओबेराय ने नरेन्द्र मोदी पर आधारित एक प्रचारात्मक बॉयोपिक में मुख्य भूमिका निभाई और कंगना रानौत अयोध्या पर फिल्म बनाने में लगी हैं जबकि विवेक अग्निहोत्री और अशोक पंडित जैसे फिल्म निर्माता खुले तौर पर बीजेपी के प्रति अपना समर्थन प्रदर्शित करते हैं जबकि अक्षय कुमार में इनके मुकाबले ज्यादा रणनीतिक कौशल दिखाई देता है. उन्होंने कभी बहुत जाहिर तौर पर सरकार के कार्यक्रमों अथवा नीतियों का बचाव नहीं किया या सरकार की आलोचना करने वालों पर कोड़े नहीं बरसाए. मार्केटिंग और एडवर्टाइजिंग कंसल्टेंट संजय शर्मा ने मुझसे कहा, “हमें मानसिक तौर पर सरकारी कामकाज और राजनीति के बीच एक भेद बनाए रखने की जरूरत है. ऐसे लोगों की संख्या काफी है जो ऐसा नहीं करते और वे उन्हें एक दक्षिणपंथी प्रचारक के रूप में देखते हैं. मैं थोड़ा अलग ढंग से इन चीजों को देखता हूं. वह यानी अक्षय कुमार काफी चतुर हैं. वह उन लोगों में से नहीं हैं जो खुल्लम खुल्ला ऐसा करते हैं. उन्हें इस बात की गहरी समझ है कि जनता के नजरिए से अगर देखा जाए तो जिस दिन वह जरूरत से ज्यादा दक्षिणपंथी नजर आएंगे वह ढेर सारे ऐसे दर्शकों को खो देंगे जो उदारवादी सोच रखते हैं.”

कुमार ने अतीत में अपने जो विचार व्यक्त किए हैं और साथ ही इस तथ्य की रोशनी में देखा जाए कि वह कनाडा के नागरिक होने का पासपोर्ट रखते हैं, खुद को अगर वह एक हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं तो इसके पीछे उनकी सोची समझी रणनीति है. अपने प्रचलित "खिलाड़ी" नाम के अनुरूप ही वह यहां भी लोकप्रियता हासिल करने का आडंबर बनाए रखते हैं. ऐसा लगता है कि उनकी विचारधारा उनकी किसी गहरी राजनीतिक प्रतिबद्धता की बजाय उस फिल्म से प्रभावित रहती है जिसे प्रोमोट करने में वह लगे होते हैं.

इस वर्ष पुलिस पर आधारित फिल्म के अलावा बहुत उम्मीद है कि वह एक ऐतिहासिक कथानक पर आधारित फिल्म पृथ्वीराज में दिखाई देंगे जिसमें उन्होंने बारहवीं सदी के राजपूत राजा की भूमिका निभाई है. इसके अलावा एक जासूसी थ्रिलर बेलबॉटम और एक रोमांटिक फिल्म अतरंगी रे में भी वह नजर आएंगे. फिल्म व्यवसाय के एक वरिष्ठ विश्लेषक तरन आदर्श का कहना है कि अक्षय कुमार को अभी अपनी किसी फिल्म के जरिए 300 करोड़ का आंकड़ा छूना बाकी है जैसा कि आमिर खान (पीके, दंगल) और सलमान खान (सुल्तान, टाइगर जिंदा है) ने छूकर दिखाया है. लेकिन उनकी फिल्मों ने लगातार 100 करोड़ से ऊपर का आंकड़ा छू लिया है और गुड न्यूज, मिशन मंगल तथा हाउस फुल 4 के जरिए लगातार वह 200 करोड़ के आंकड़े को पार कर चुके हैं. जैसा कि फिल्म कंपेनियन के संपादक अनुपम चोपड़ा ने मुझे बताया- “कामयाबी और कीर्तिमान स्थापित करने के मामले में औसतन वह अपने समय के हर अभिनेता से आगे हैं.”

अक्षय कुमार की फिल्मों को गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस वाले सप्ताहांत की छुट्टियों में रिलीज की उम्मीद की जाती है. गोल्ड 15 अगस्त 2018 को, टॉयलेट 11 अगस्त 2017 को, मिशन मंगल 15 अगस्त 2019 को और रुस्तम 12 अगस्त 2016 को रिलीज हुई.

खेलकूद और मार्शल आर्ट में दिलचस्पी रखने वाले अक्षय कुमार, जिनका पैदायशी नाम राजीव हरि ओम भाटिया है, मुंबई में ही पले-बढ़े. थाईलैंड में प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद अपने गृह नगर में उन्होंने मार्शल आर्ट के टीचर के रूप में काम शुरू किया. 1991 में सौगंध फिल्म के साथ उनका बॉलीवुड में प्रवेश हुआ लेकिन इससे पहले उन्होंने कुछ समय तक फोटोग्राफी और मॉडलिंग की. उनके पिता सेना में नौकरी करते थे और फिल्म उद्योग से उनका कोई संबंध नहीं था.

1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में कुमार ने खिलाड़ी जैसी मारधाड़ वाली अनेक ऐक्शन फिल्मों में काम किया. उस समय तक वह एक ऐक्शन स्टार के रूप में ही जाने जाते थे. संचार विशेषज्ञ श्रीनिवासन ने मुझे बताया कि “बॉलीवुड के लिए अक्षय कुमार पूरी तरह बाहरी व्यक्ति थे--शाहरुख खान से भी ज्यादा बाहरी. शाहरुख के पास कम से कम टीवी में काम करने का अनुभव था और वह दिल्ली के रहने वाले थे लेकिन अक्षय के साथ ऐसा कुछ भी नहीं था... बाहरी का ठप्पा लिए उन्होंने किसी गॉडफादर की मदद के बगैर अपनी खुद की प्रतिभा से अपने आप को एक ब्रांड के रूप में स्थापित किया.”

प्रारंभिक सफलता के बाद बॉक्स ऑफिस पर लगातार असफल फिल्मों ने कुमार के सामने दिक्कतें पैदा कर दीं. 1997 में उन्होंने निर्माता-निर्देशक सुनील दर्शन से संपर्क किया जो जानवर के लिए कलाकारों का चयन करने में लगे थे. दर्शन को पता था कि कुमार को अपनी फिल्म में लेना कठिन है क्योंकि उस समय तक कुमार का कोई बाजार नहीं था. लेकिन उन्होंने जो कुछ देखा उससे उन्हें तसल्ली हुई--कुमार देखने में आकर्षक थे और साथ ही आज्ञाकारी तथा अनुशासित लग रहे थे. दर्शन ने जोखिम उठाया. जानवर को जबर्दस्त कामयाबी मिली और कुमार का कैरियर एक बार फिर पटरी पर आ गया. इसके बाद दर्शन और कुमार की जोड़ी ने छह और फिल्में बनाईं जिनमें अंदाज भी शामिल है जिसके जरिए उन्होंने प्रियंका चोपड़ा और लारा दत्ता को पहली बार मौका दिया. दर्शन का मानना है कि "इस फिल्म ने कुमार को हमेशा के लिए स्थापित कर दिया."

चाहे जैसे भी देखा जाए, अक्षय कुमार एक ऐसे अभिनेता हैं जो काम में भरपूर सहयोग करते हैं. सुबह जल्दी उठने और जमकर व्यायाम करने के लिए वह मशहूर हैं. अपने सह कलाकारों के प्रति वह अत्यंत उदार हैं और निर्देशकों के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध. केसरी के निर्देशक अनुराग सिंह का कहना है, "मैंने उनके काम करने के तरीके और उनकी निष्ठा को अच्छी तरह देखा है. सुबह सात बजे ही वह तैयार हो कर आ जाते हैं और काम शुरू करने के लिए बेताब हो जाते हैं." एक प्रोड्यूसर होने के नाते फिल्म पर आने वाली लागत को वह अच्छी तरह समझते हैं. "अक्षय कुमार को बस एक या दो टेक की जरूरत पड़ती है. उन्हें पता है कि जहां तक प्रोडक्शन का मामला है, समय ही पैसा है. वह हमेशा मौज मस्ती के मूड में रहते हैं और माहौल को हल्का बनाए रखते हैं."

पैडमैन के डायरेक्टर आर बाल्की ने मुझे बताया, "स्क्रिप्ट के मामले में अक्षय कुमार की जबर्दस्त समझ है. वह एक ऐसे कलाकार हैं जो उसके मर्म को पकड़ लेते हैं. उनके अंदर किसी तरह की नखरेबाजी नहीं है और वह दिल लगाकर बड़े सहज ढंग से काम करते हैं. वह झटपट सोचते और फैसला लेते हैं."

जमीन से जुड़े लोगों के बीच कुमार की काफी लोकप्रियता है. दर्शन ने "सुपर स्टार" की उनकी खूबियों को परिभाषित करते हुए बताया कि उनके अंदर "समूचे परिवार" से सीधे तौर पर जुड़ने की क्षमता है. 2001 में अपने जमाने के सुपरस्टार राजेश खन्ना और डिम्पल कपाडिया की बेटी ट्विंकल खन्ना से उनकी शादी हुई और फिर तो इस उद्योग में बाहरी होने का उन पर लगा ठप्पा भी आधिकारिक तौर पर खत्म हो गया.

2001 में उनकी फिल्म हेराफेरी आई जिसमें उनके हास्य अभिनेता के रूप ने लोगों को चौंका दिया और इस भूमिका में वह बेहद कामयाब रहे. इससे यह भी पता चला कि एक ऐक्शन स्टार और रोमांटिक हीरो के रूप में ही नहीं बल्कि वह किसी भी रूप में कामयाब हो सकते हैं. इसने उनकी अलग अभिनय क्षमता को प्रदर्शित किया. 2000 से शुरू हुए दशक के प्रारंभिक वर्षों में कुमार ने प्रियंका चोपड़ा के साथ और फिर कैटरीना कैफ के साथ कुछ फिल्में कीं और यह भी एक सफल जोड़ी साबित हुई. इस अवधि में इनके साथ प्रतिवर्ष उन्होंने 3-4 फिल्में कीं. अनुपमा चोपड़ा का कहना है कि यह सचमुच उनका शानदार विकास था. इन वर्षों में उन्होंने काफी इज्जत और शोहरत कमाई.

अक्षय कुमार की फिल्मों को गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस वाले सप्ताहांत की छुट्टियों में रिलीज की उम्मीद की जाती है. गोल्ड 15 अगस्त 2018 को, टॉयलेट 11 अगस्त 2017 को, मिशन मंगल 15 अगस्त 2019 को और रुस्तम 12 अगस्त 2016 को रिलीज हुई.

मोदी समर्थक के रूप में पहचान बनाने से काफी पहले उन्हें 2009 में पद्मश्री सम्मान मिला था जब सत्ता में यूपीए की सरकार थी. 1990 के दशक में उनके श्वसुर राजेश खन्ना कांग्रेस सांसद रहे थे और सांसद न रहने के बाद भी बीच बीच में पार्टी के लिए प्रचार अभियान में भाग लेते थे. अनेक मुद्दों पर कुमार की पत्नी ट्विंकल उनसे मतभेद व्यक्त करती रही हैं और इसे प्रायः दोनों ने स्वीकार किया है. 2017 में उन्होंने एक बातचीत में बॉम्बे टाइम्स से कहा, “ट्विंकल और मैं एक दूसरे के खिलाफ नहीं हैं. दरअसल उसका अपना दृष्टिकोण है और मेरा अपना. पति और पत्नी के बीच ऐसा ही होना भी चाहिए.” कुछ लोग उनकी इस टिप्पणी को वैवाहिक संबंधों के बारे में एक मोहक टिप्पणी कहते हैं. कुछ अन्य लोग इसे सभी दर्शकों और राजनीतिक गुटों को खुश रखने का एक भोला बहाना मानते हैं.

2007 के दशक की फिल्म नमस्ते लंदन में एक दृश्य है जिसमें वह चरित्र, जिसका अभिनय अक्षय कुमार ने किया है, ऊपरी तौर पर ही सही उस समय की सत्तारूढ़ कांग्रेस के मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी जैसे दिग्गजों की और पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की प्रशंसा करता है. उस पात्र के बाल अजीब भूरे रंग के हैं लेकिन उसके शब्दों में तिरंगे की झलक है. एक भाषण में कुमार ने दूसरों को नीचा जताने वाले एक अंग्रेज की आंखों में आंखे डालते हुए कुछ कहा जिसका उतनी ही गंभीरता से कैटरीना कैफ ने अनुवाद किया :

हम एक ऐसे देश से आते हैं जहां कैथोलिक मूल की महिला ने एक सिख को प्रधानमंत्री का पद दिलाने के लिए खुद को किनारे कर लिया और उस पद की शपथ मुस्लिम राष्ट्रपति ने दिलाई जो अस्सी प्रतिशत हिंदुओं वाले देश का राष्ट्रपति था. तुम्हारे लिए यह जानना भी दिलचस्प होगा कि तुम्हारे ढेर सारे शब्द हमारी संस्कृत भाषा से निकले हैं... हम चंद्रमा पर पहुंच कर वापस आ गए लेकिन अभी भी तुम लोग यही समझते हो कि हम अभी तक रस्सियों की कलाबाजी से बाहर नहीं निकल सके हैं.

पर्दे पर किसी पात्र द्वारा कहे गए शब्दों को किसी अभिनेता के विचार मान लेना गलत होगा लेकिन इस उद्धरण में एक खूबसूरत विडंबना भी है और इससे यह भी पता चलता है कि पिछले दशक में सिनेमा में किस तरह राष्ट्रवाद ने अपना विकास किया और किस तरह इसी के साथ कुमार का भी विकास हुआ.

2007 में यूपीए सरकार की प्रशंसा करना मुश्किल नहीं था. अभी तक उस पर घोटालों की कोई आंच नहीं आई थी और “धर्मनिरपेक्षता” शब्द गाली नहीं बना था. 2007 का वर्ष कुमार के लिए वह वर्ष था जिसमें उनका झंडा शान से लहरा रहा था--एक के बाद एक उनकी चार फिल्में कामयाबी की बुलंदी पर पहुंची थीं. इसके बाद ऊपर चढ़ता पारा अटक गया और कई फिल्में फ्लाप हो गईं. इसकी शुरुआत 2008 की निर्देशक नागेश कुकनूर की प्रायोगिक फिल्म 8x10 तस्वीर से हुई. इसके बाद चांदनी चौक टु चाइना और फिर 2009 में बड़े बजट की फिल्म ब्ल्यू भी पिट गई. 2010 में तीस मार खां ने भी औसत से कम का बिजनेस किया और ऐक्शन रिप्ले भी बॉक्स ऑफिस पर फ्लाप साबित हुई. जनवरी 2011 तक फिल्म व्यवसाय के विश्लेषक कोमल नहाटा यह सवाल पूछते नजर आए--"क्या अक्षय कुमार के दिन लद गए?" उस वर्ष पटियाला हाउस और थैंक्यू ने भी बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कामयाबी नहीं हासिल की.

नहाटा ने लिखा, "उन दिनों बॉलीवुड से संबंधित किसी पत्रिका या अखबार के पन्ने पलटिए तो यही नजर आता था कि सब लोग अक्षय कुमार पर ही हमला कर रहे हैं. कोई भी चैनल देखिए जिस पर फिल्मों की चर्चा हो रही हो और शायद आपको कोई यह कहता मिल जाए कि कैसे अक्षय कुमार अब 'लगभग खत्म' हो गए... लेकिन क्या इस अभिनेता के लिए सचमुच इतने बुरे दिन आ गए हैं जिसका नाम अभी तीन वर्ष पहले तक बॉक्स ऑफिस पर जादू बिखेरने वाले अभिनेता के रूप में लिया जाता था? सचमुच ऐसा नहीं!”

अक्षय कुमार की फिल्मों को गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस वाले सप्ताहांत की छुट्टियों में रिलीज की उम्मीद की जाती है. गोल्ड 15 अगस्त 2018 को, टॉयलेट 11 अगस्त 2017 को, मिशन मंगल 15 अगस्त 2019 को और रुस्तम 12 अगस्त 2016 को रिलीज हुई.

2000 के दशक की समाप्ति तक, जिन दिनों एक के बाद उनकी फिल्में फ्लाप हो रही थीं, कुमार का मोह भंग हो चुका था और वह कुछ नए की तलाश में थे. निश्चय ही भारत महान था लेकिन अक्षय कुमार  फिर कैसे उस महानता की बुलंदी पर पहुंच सकेंगे?

कुमार ने 1995 में पहली बार कनाडा की यात्रा की थी. अपनी 8x10 तस्वीर में कुमार ने कनाडा के एक नागरिक की भूमिका निभाई थी और 2008 में अपनी कनाडा यात्रा के दौरान उन्होंने कहा था कि टोरंटो भी उनका घर है. उन्होंने कहा कि "फिल्मों से रिटायर होने के बाद मैं यहीं आकर रहूंगा." अब यह बात उन्होंने अपने दिल से कही थी या कनाडा के दर्शकों के साथ आत्मीयता स्थापित करने के इरादे से, यह कहना मुश्किल है. लेकिन लगभग उसी समय यह खबर सामने आई कि कुमार जल्दी ही निर्देशक दीपा मेहता की एक बड़ी फिल्म में काम करेंगे जो कोमागाटा मारू की घटना पर आधारित है. इस घटना का संबंध उन भारतीयों से है जो 1914 में एक जापानी जहाज में सवार होकर कनाडा पहुंचे थे लेकिन उन्हें कनाडा में प्रवेश करने की इजाजत नहीं मिली थी.

नवंबर 2009 में, जो कि व्यवसाय की दृष्टि से कुमार के लिए एक बुरा वर्ष था, उन्हें अगले वर्ष वैंकूवर में होने वाले शीतकालीन ओलंपिक्स के लिए मशाल ले जाने वाले व्यक्ति के रूप में नामजद किया गया. जून 2010 में कनाडा की सरकार ने उन्हें सम्मानित करते हुए भारत के लिए कैनेडियन टूरिज्म कमीशन एंबेसडर नियुक्त किया. कनाडा के पर्यटन और लघु उद्यम राज्य मंत्री रॉब मूर को उद्घृत करते हुए बताया गया कि उन्होंने कहा, "कनाडा के सर्वोत्तम पर्यटन स्थलों से परिचित कराने में वह अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे.. हम भारतीय पर्यटकों को आमंत्रित करते हैं कि वे पूरी तरह एक नए ढंग से कनाडा को देखें और महसूस करें."

इस संबंध ने उस समय एक नई ऊंचाई हासिल कर ली जब कुमार से 2010 में कहा गया कि वह भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफेन हॉर्पर के डिनर के लिए मेजबानी करें. इसे एक अपारंपरिक कदम के रूप में देखा गया. द्विपक्षीय संबंधों में आई उदासीनता के कई  दशकों बाद अखबारों ने इसे एक ऐतिहासिक अवसर के रूप में रेखांकित किया. कुमार की उपस्थिति से  इस घटना की गरिमा में और भी वृद्धि हो गई.

2011 में कुमार ने ब्रेकअवे फिल्म प्रोड्यूस की जिसे स्पीडी सिंघ्स के रूप में हिंदी में डब किया गया था. इसकी पृष्ठभूमि टोरंटो थी और इसमें देश के लोकप्रिय खेल आइस हॉकी को दिखाया गया था. 2012 आते आते टूरिज्म कनाडा के साथ उनकी भूमिका समाप्त हो चुकी थी. डेस्टिनेशन कनाडा के स्ट्रेटेजिक एडवाइजर टेस मेस्मर ने ईमेल के जरिए मुझे बताया, “मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि उस समय तैयार की गई प्रचार सामग्री का अभी भी इस्तेमाल हो रहा है या नहीं और सीधे तौर पर मैं यह नहीं बता सकता कि वह कौन सी चीज थी जिसने उन्हें यहां आकर्षक बनाया क्योंकि यह आठ वर्ष पुरानी बात है (और हमारे यहां छह वर्ष के ही रिकार्ड रखे जाते हैं.)”

अक्षय कुमार की फिल्मों को गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस वाले सप्ताहांत की छुट्टियों में रिलीज की उम्मीद की जाती है. गोल्ड 15 अगस्त 2018 को, टॉयलेट 11 अगस्त 2017 को, मिशन मंगल 15 अगस्त 2019 को और रुस्तम 12 अगस्त 2016 को रिलीज हुई.

शायद यही वह दौर था जब कुमार को कनाडा की नागरिकता दी गई. पत्रकार टॉम ब्लैकवेल ने, जिन्होंने नेशनल पोस्ट में 2019 में यह समाचार पहली बार प्रकाशित किया, एक ईमेल के जरिए मुझे बताया कि यह बहुत स्पष्ट नहीं है कि उन्हें नागरिकता कब मिली “लेकिन हार्पर मंत्रिमंडल के एक पूर्व कैबिनेट मंत्री ने मुझसे इस बात की पुष्टि की कि हार्पर सरकार द्वारा उन्हें विशेष फास्ट ट्रैक नागरिकता प्रदान की गई. उन्होंने 2010 से 2012 तक कनाडा के पर्यटन संगठन के लिए काम किया था और जैसा कि उस मंत्री का दावा है उन्हें तत्काल नागरिकता प्रदान की गई. पिछले वर्ष उन्होंने भारतीय मीडिया को बताया था कि गत सात वर्षों से वह कनाडा नहीं गए और इस बात से मुझे लगता है कि नागरिकता देने का काम 2010-12 के बीच हुआ होगा. लेकिन यह एक अनुमान ही है.”

कनाडा सरकार के साथ अक्षय कुमार की निकटता ने उन्हें वहां अपना पैर जमाने में मदद पहुंचाई. ग्रेट टोरेंटो इलाके में उन्होंने हार्पर की पार्टी कंजरवेटिव पार्टी आफ कनाडा के लिए चुनाव प्रचार किया. जैसा कि ब्लैकवेल ने मुझे बताया, इस इलाके में “इंडो-कनाडियन वोटर्स की भारी संख्या है और यहां के वोट लिबरल्स तथा कंजर्वेटिव्स के बीच डोलते रहते हैं.” ब्लैकवेल के अनुसार “अगर कोई बॉलीवुड का प्रसिद्ध अभिनेता चुनाव प्रचार करता है तो जाहिर सी बात है कि कुछ वोटरों पर इसका असर पड़ता ही है. 2011 के संघीय चुनाव में जब हार्पर ने ऐसा किया तो उन्हें उन सभी सीटों पर सफलता मिली. इससे पहले के दोनों चुनावों में अधिकांश सीटें लिबरल्स को मिली थीं.”

उनका यह संबंध न तो गुप्त था और न किसी तरह की शर्मिंदगी पैदा करने वाला था और शायद यह बात यहीं खत्म हो जाती लेकिन इसके तुरंत बाद कुमार ने अपने कैरियर में एक बार फिर उछाल आते देखा और इसी प्रक्रिया में उनको इस बात का भी एहसास हुआ कि उम्र बढ़ने के साथ अब वह अपने कैरियर को अगले किस दौर में ले जाना चाहते हैं--शायद भारत में राष्ट्रवादी दिखाई देने वाले दौर में.

मैंने अक्षय कुमार को इंटरव्यू करने की बहुत कोशिशें कीं लेकिन सफल नहीं हो सकी.

2013 आते आते कुमार वापस आ गए थे और एक बार फिर राउडी राठौर तथा हाउसफुल 2 से अपने कैरियर को दुबारा जमाने में लग गए थे. उसी वर्ष निर्देशक नीरज पांडेय के साथ उन्होंने एक हल्की फुल्की थ्रिलर फिल्म स्पेशल 26 में काम किया और यह एक लाभदायक संबंध साबित हुआ. 2014 में बीजेपी सत्ता में आई और इसके राष्ट्रवाद का ब्रांड लोक-लुभावन संस्कृति का हिस्सा बनने लगा. 2014 में हॉलीडे और 2015 में बेबी फिल्म के साथ लोगों ने अक्षय कुमार का पुराना ऐक्शन स्टार वाला रूप देखा जिसमें देश को आगे और केंद्र में रखते हुए एक नेक गुस्से का इजहार नजर आता है.

कंगना रानौत अयोध्या पर फिल्म बनाने में लगी हैं जबकि विवेक अग्निहोत्री, अनुपम खेर, विवेक ओबेराय और अशोक पंडित जैसे फिल्म अभिनेता और निर्माता खुले तौर पर बीजेपी के प्रति अपना समर्थन प्रदर्शित करते हैं जबकि अक्षय कुमार में इनके मुकाबले ज्यादा रणनीतिक कौशल दिखाई देता है. वॉरेन टोडा / ईपीए

बेबी में उन्होंने आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए, जिसका स्रोत 26/11 का मुंबई हमला था, एक अंडरकवर काउंटर टेररिज्म यूनिट के संचालक की भूमिका निभाई थी. हिंदुस्तान टाइम्स में इस फिल्म की समीक्षा करते हुए अनुपमा चोपड़ा ने लिखा कि, "फिल्म के प्रारंभ में ही कुछ बातों की झलक मिलती है जब बेबी के प्रमुख (गंभीर दिख रहे डैनी डेंजोगप्पा) कहते हैं कि आतंकवादी गिरोहों में भारतीयों की भर्ती से राज्य की विफलता का पता चलता है. लेकिन नीरज ने अपने कथानक में इस जटिल धारणा को स्थापित करना नहीं पसंद किया. इसकी बजाय हमें और भी ज्यादा वीरतापूर्ण घटनाक्रम देखने को मिलता है जिसमें कुछ अच्छे लोग और एक महिला भी अपने देश के लिए अपना जीवन कुर्बान करने को तैयार मिलते हैं."

इस अस्पष्टता या कम से कम राज्य को पूरी तरह दुरुस्त न होने जैसा दिखाने की कोशिश को आगे जारी नहीं रखा गया. 2016 की फिल्म एयरलिफ्ट में कुमार के अभिनय का और भी बेहतर रूप देखने को मिला. इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छी कमाई की और फिल्म समीक्षकों ने भी इसकी तारीफ की.

रंगों के फीकेपन के साथ पूरी तरह यथार्थ को चित्रित करने वाली इस फिल्म का कथानक 1990 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में भारत द्वारा संचालित एक ऑपरेशन की कहानी है जिसमें विदेश में फंसे हुए लोगों को बड़े पैमाने पर विमान द्वारा निकाला गया था. खाड़ी युद्ध शुरू होने के थोड़े ही समय बाद कुवैत में फंसे भारतीय स्वदेश वापसी के लिए बेचैन थे. उन्हें एनआरआई (प्रवासी भारतीयों) के एक समूह ने मदद की थी और उनके प्रयासों के फलस्वरूप सरकार से बातचीत और कूटनीतिक दांव पेंच की मदद से 17 लाख लोगों को वापस उनके देश पहुंचाया गया. इस फिल्म के निर्माताओं ने कुमार के साथ किसी अन्य फिल्म पर बातचीत करने के दौरान जब इस कथानक का उल्लेख किया तो कुमार ने बेहद उत्साहित होकर इसमें अभिनय करने की इच्छा जताई.

फिल्म की राजनीति बहुत सटीक थी. इसमें पाकिस्तान की बखिया नहीं उधेड़ी गई थी. शुरू में इसका हीरो अपनी भारतीय पहचान को लेकर बहुत दुविधाग्रस्त था--काफी हिचकिचाहट से भरा था. मेनन ने पिछले मार्च में मुझे बताया, "ईमानदारी से कहूं तो हम लोगों का इरादा कोई देशभक्ति पूर्ण फिल्म बनाने का नहीं था. हम तो बस एक कहानी सुनाना चाहते थे." तो भी कहानी की मांग थी कि झंडा फहराया जाए और इसी क्रम में तिरंगे को इसका उचित स्थान मिला. मेनन का कहना है कि फिल्म के रिलीज होने तक वह काफी नर्वस थे और फिल्म की जबर्दस्त कामयाबी ने उन्हें एक हद तक हैरान किया. मेनन के पास हूबहू ऐसी ही फिल्में बनाने के कई प्रस्ताव आए. मेनन ने बताया, "लोग चाहते थे कि ऐसी ही कोई फिल्म बनाई जाए जिसमें फंसे हुए लोगों को कहीं से निकाला गया हो और भारत का झंडा बुलंद हो रहा हो. किसी ने कहा क्या हम यमन में फंसे शरणार्थियों के संकट पर फिल्म नहीं बना सकते? कुल मिलाकर एयरलिफ्ट जैसी कहानी लोग चाहने लगे. दुर्भाग्यवश इससे एक ऐसे ट्रेंड की शुरुआत हुई जो आगे बढ़ते बढ़ते अंधराष्ट्रवाद का रूप लेने लगा. मैं तो वीरता और पराक्रम की वैसी कहानियां पसंद करता था जो अंधराष्ट्रवाद का शिकार न हों."

कंगना रानौत अयोध्या पर फिल्म बनाने में लगी हैं जबकि विवेक अग्निहोत्री, अनुपम खेर, विवेक ओबेराय और अशोक पंडित जैसे फिल्म अभिनेता और निर्माता खुले तौर पर बीजेपी के प्रति अपना समर्थन प्रदर्शित करते हैं जबकि अक्षय कुमार में इनके मुकाबले ज्यादा रणनीतिक कौशल दिखाई देता है. विकिमीडिया कॉमन्स

इस दौरान कुमार ने डिशूम और हाउसफुल सीरीज की हल्की फुल्की और पैसा कमाऊ फिल्मों में काम जारी रखा लेकिन उनकी निगाहें देशभक्ति से मिलने वाले पुरस्कार पर टिकी रहीं. 2016 में जम्मू कश्मीर के उड़ी कस्बे में आतंकवादियों का हमला हुआ और तब इंडियन मोशन पिक्चर्स प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ने तय किया कि भारत में काम करने को लेकर पाकिस्तानी कलाकारों पर प्रतिबंध लगाया जाए. कुमार ने बड़ी चालाकी से इस विवाद से अपने को अलग रखते हुए मारे गए जवानों के समर्थन में एक वीडियो जारी किया. उन्होंने लोगों से इसके पक्ष में खड़े होने की अपील की और इस बात की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की कि लोग सैनिकों के परिवारों को तरजीह दें और सेना में काम करने की मुश्किलों को समझें.

2017 में बेबी फिल्म की तर्ज पर एक अन्य फिल्म नाम शबाना के जरिए वह एक बार फिर राष्ट्रीय सुरक्षा वाले अवतार में प्रकट हुए. 2016 में उनकी फिल्म रुस्तम रिलीज हुई. यह एक वास्तविक घटना पर आधारित थी और इस फिल्म में वह फिर सेना की वर्दी में नजर आए. इसमें उन्होंने नौसेना के अधिकारी के. एम. नानावती की भूमिका निभाई थी जिसने अपनी पत्नी के प्रेमी को मार दिया था लेकिन जिसे जूरी ने रिहा कर दिया था. समीक्षकों ने इस फिल्म में उनके अभिनय और कहानी के प्रस्तुतिकरण की आलोचना की थी लेकिन कुमार को इसके लिए 2017 में राष्ट्रीय पुस्कार से नवाजा गया. निर्णायक मंडल के अध्यक्ष फिल्म निर्देशक प्रियदर्शन थे जिन्होंने कुमार के साथ हेराफेरी, गरम मसाला, और भूल भुलैया में काम किया था. निर्णायक मंडल द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए अक्षय कुमार के नाम के चयन की जम कर आलोचना हुई. वैसे तो इस तरह के पुरस्कारों में हमेशा से ही पक्षपात और भाई भतीजावाद का आरोप लगता रहा है लेकिन एक ऐसे बेजान अभिनय के लिए कुमार को पुरस्कार दिए जाने से इस तरह के पुरस्कारों का पाखंड और भी स्पष्ट होकर सामने आ गया. उसी वर्ष रिलीज हुई अलीगढ़ फिल्म के लेखक अपूर्व असरानी ने ट्विट किया- “क्या कनाडा के नागरिकों को भारत का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाना चाहिए?”

अक्षय कुमार के लिए अब कुछ नए क्षेत्र इंतजार में पड़े थे. टॉयलेट : एक प्रेम कथा के जरिए उन्होंने सामाजिक कार्यों और सकारात्मक प्रचार को एक साथ अंगीकार किया. इस फिल्म में सरकार द्वारा शुरू किए गए स्वच्छ भारत अभियान का खुल्लमखुल्ला प्रचार किया गया था. साफ-सफाई को बढ़ावा देने वाली यह एक प्रोपोगेंडा फिल्म थी. 2017 की इस फिल्म में सीधी-सपाट कहानी थी : पत्नी को खुश रखने के लिए पति को घर में टॉयलेट बनाना चाहिए. जैसा कि बॉलीवुड के नायकों के साथ होता रहा है, इस फिल्म में कुमार ने एक नव-विवाहित युवा की भूमिका निभाई है जो गांव को शिक्षित करने, अंधविश्वासों से लड़ने और पुरुषत्व का एक नया संस्करण प्रस्तुत करने के मकसद से गांव को शिक्षित करने के मिशन पर निकला है. उससे कहा जाता है कि, "तुम्हारी लड़ाई प्रचलित परंपराओं के खिलाफ है- यह एक बहुत कठिन काम है." कुमार का चरित्र अपनी प्रेरणा के लिए सीधे मोदी तक जाता है, "जब हमारा प्रधानमंत्री नोटों का चलन रोक सकता है तो हम अपने पेटों के इस चलन को क्यों नहीं रोक सकते?" इस वाक्य के जरिए नोटबंदी के प्रति समर्थन का इजहार किया गया है.

कंगना रानौत अयोध्या पर फिल्म बनाने में लगी हैं जबकि विवेक अग्निहोत्री, अनुपम खेर, विवेक ओबेराय और अशोक पंडित जैसे फिल्म अभिनेता और निर्माता खुले तौर पर बीजेपी के प्रति अपना समर्थन प्रदर्शित करते हैं जबकि अक्षय कुमार में इनके मुकाबले ज्यादा रणनीतिक कौशल दिखाई देता है. मिलंद शेल्टे / दि इंडिया टुडे ग्रुप / गैटी इमेजिस

यहां तक कि फिल्म के रिलीज होने के पहले ही केंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु ने ट्वीटर पर अक्षय कुमार के प्रयासों की प्रशंसा की. फिल्म रिलीज होने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे टैक्स फ्री कर दिया और कुमार को स्वच्छ भारत का एंबेसडर नियुक्त किया गया. उन्होंने भारत को स्वच्छ बनाने से संबंधित पुस्तक में एक अध्याय लिखा और इसके लोकार्पण समारोह में शामिल हुए. ऐसा लगा जैसे फिल्म और सरकार का संदेश दोनों एक दूसरे में घुलमिल गए. रिलीज से पहले कुमार ने ट्वीट किय : "पांच वर्षों में जो हुआ वह अविश्वसनीय है और ग्रामीण क्षेत्रों में साफ-सफाई की दृष्टि से परिवर्तन असाधारण है."

उन्होंने स्वच्छ भारत योजना के लिए एक विज्ञापन अभियान की शुरुआत की जिसमें पेय जल और स्वच्छता मंत्रालय के सचिव ने सार्वजनिक तौर पर इस अभिनेता के प्रयासों की प्रशंसा की. मंत्रालय ने अपनी एक विज्ञप्ति में कहा, "उन्होंने कहा कि टॉयलेटः एक प्रेम कथा से लेकर, जिसे देशभर के ग्रामीण और शहरी समुदाय की प्रशंसा मिली, ट्विन पिट टॉयलेट संबंधी स्वच्छ भारत मिशन में भाग लेने तक श्री अक्षय कुमार देश में चल रहे स्वच्छता आंदोलन के जबर्दस्त समर्थक साबित हुए हैं."

यद्यपि समीक्षकों ने इस फिल्म को “फिल्मी पर्चेबाजी” और “खालिस प्रचार” बताकर इसका अवमूल्यन किया और कहा कि यह “यह हूबहू स्वच्छ भारत अभियान द्वारा जारी जनसेवा संबंधी वीडियो की तरह है” लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इसने 130 करोड़ रुपए से अधिक की कमाई की. कुमार की भक्ति में अगर किसी को थोड़ा बहुत संदेह भी था तो इस फिल्म ने उस संदेह पर पूरी तरह विराम लगा दिया.

2017 का वर्ष अगर शौचालयों के अभियान वाला वर्ष था तो 2018 अब मासिक धर्म के दौरान साफ- सफाई वाला वर्ष होने जा रहा था. ट्विंकल खन्ना ने निर्देशक आर बाल्की से भेंट की और उन्हें सुझाव दिया कि वह अरुणाचलम मुरुगनंथम पर एक फिल्म बनाएं. अरुणाचलम मुरुगनंथम एक ग्रामीण उद्यमी हैं जिन्होंने माहवारी के समय इस्तेमाल होने वाले नैपकिन को कम लागत में बनाने की अवधारणा पेश की थी. चूंकि निर्देशक बाल्की अपने ही विचारों से पैदा विषयों पर फिल्में बनाना पसंद करते हैं इसलिए इस विषय पर फिल्म बनाने के प्रति उन्होंने हिचकिचाहट दिखाई. पिछले अप्रैल में बाल्की ने मुझे बताया, "मैंने जब इस पर कुछ और जानने की कोशिश की तो जैसे जैसे मुझे इसकी जानकारी मिलती गई मैंने महसूस किया कि यह तो एक चमत्कारिक जीवन है." पैडमैन में कुमार ने एक बार फिर एक साधारण किंतु जागरूक व्यक्ति की भूमिका निभाई जो ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के सामने उत्पन्न समस्याओं को दूर करने के लिए अथक परिश्रम करता है. यह फिल्म विश्व स्तर पर बाजार के लिहाज से 100 करोड़ को पार गई और समाज सुधारक की भूमिका के लिए कुमार को और भी ज्यादा प्रशंसा मिली. बाल्की का कहना है कि, “कोई भी फीचर फिल्म बुनियादी तौर पर मकसद से नहीं बल्कि कहानी से संचालित होती है. फिल्म के लिए मनोरंजन पहली जरूरत है. अगर किसी मकसद से मनोरंजन में मदद मिलती है तो यह होना चाहिए. जनता भाषण सुनने के लिए पैसे नहीं देती.”

कंगना रानौत अयोध्या पर फिल्म बनाने में लगी हैं जबकि विवेक अग्निहोत्री, अनुपम खेर, विवेक ओबेराय और अशोक पंडित जैसे फिल्म अभिनेता और निर्माता खुले तौर पर बीजेपी के प्रति अपना समर्थन प्रदर्शित करते हैं जबकि अक्षय कुमार में इनके मुकाबले ज्यादा रणनीतिक कौशल दिखाई देता है. मिलंद शेल्टे / दि इंडिया टुडे ग्रुप / गैटी इमेजिस

मिशन मंगल मोटे तौर पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिकों के जीवन पर आधारित है जिन्होंने मंगल ग्रह पर जाने वाले मिशन में योगदान किया था. इस फिल्म का बीजारोपण पैडमैन के प्रचार के लिए चल रहे कार्यों के दौरान हुआ था जब निर्देशक बाल्की ने इस नई परियोजना के बारे में अपने लेखन का जिक्र किया. यद्यपि मिशन मंगल में उनकी भूमिका समूह में काम करने वालों में से एक की थी और कहानी के केंद्र में विद्या बालन की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण थी लेकिन फिल्म साफ तौर पर अक्षय कुमार के सहारे ही आगे बढ़ती है.

यहां भी सरकारी प्रचार के साथ भारतीयता का मिलाजुला एक सकारात्मक संदेश प्रसारित हुआ. मंगल ग्रह के अभियान की सफलता के कारकों में एक प्रमुख कारक जुगाड़ का विचार भी है जिसका अर्थ कम लागत में उच्च क्वालिटी तैयार करना होता है. यह धारणा ‘मेकिंग इन इंडिया’ वाली धारणा से जुड़ती है जो सरकार की मेक इन इंडिया पहल का रूप है जिसका मकसद भारत में ही उत्पादन के लिए कंपनियों को प्रोत्साहित करना है. बेशक, इस मिशन को कई बार आघातों का सामना करना पड़ा लेकिन ऐसा कोई भी आघात नहीं था जिसका मिशन की टीम के सदस्य मुकाबला न कर सकें. बाल्की ने बताया, “हम ऐसे देश नहीं हैं जो हर मामले में और हमेशा अपने ऊपर गर्व करें. अभी भी बहुत सारी चीजें हैं जिनके बारे में हम गर्व नहीं कर सकते. लेकिन आज खुद को भारतीय कहने में हम कम शर्म महसूस करते हैं.”

पैडमैन और एयरलिफ्ट दोनों में दक्षिण भारत के वास्तविक नायक उत्तर भारतीय बन गए. एयरलिफ्ट में दक्षिण भारत के प्रवासी भारतीयों के एक गुट को रंजीत कटियाल के चरित्र में ढाल दिया गया जिसकी भूमिका अक्षय कुमार ने निभाई. इसके पक्ष में दलील देते हुए राजा मेनन ने कहा कि यह फिल्म किसी के जीवन पर आधारित बायोपिक नहीं थी और एक हिंदी मूवी के लिए यह रूपांतरण मायने रखता है.

गोल्ड फिल्म के जरिए एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में ओलंपिक खेलों में भारत की पहली जीत को दिखाया गया है. यह बहुत ढीले ढाले तौर पर 148वें ओलंपिक खेलों में हॉकी में भारत के स्वर्ण पदक की जीत से प्रेरित है और इसमें बंगाली उच्चारण के साथ अक्षय कुमार को दिखाया गया है. हालांकि तिरंगे को इसमें कई बार लहराया गया है लेकिन यह भारतीय और पाकिस्तानी टीमों के बीच की खुशमिजाजी को और बंटवारे की वजह से दोनों देशों के बीच के पुराने संबंधों की जटिलताओं को दर्शाता है. 2019 में केसरी रिलीज हुई और यह ‘हिंदुस्तान की मिट्टी’ के लिए संघर्ष कर रहे शहीदों को केसरिया श्रद्धांजलि है. इस फिल्म का कथानक भी ढीले ढाले तौर पर कुछ ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है जिसमें अंग्रेजों द्वारा प्रताड़ित सिख रेजिमेंट ने हमलावर मुस्लिम कबीलों को रोके रखा.

छोटे पर्दे और विज्ञापनों में कुमार को सेना के लिए खाना बनाते दिखाया गया है. राष्ट्रवाद की ताकत पर टाइल्स बेचते दिखाया गया है और ग्रामीण भारत के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए चित्रित किया गया है. ग्रामीण सशक्तीकरण की एक घटना पर निर्मित 2018 के एक वीडियो में उन्होंने कहा, "गांव क्या है? मेरे पिता गांव के ही थे... मेरा मानना है कि प्रतिभाएं गांव से आती हैं."

इसके आयोजक वाई4डी के अध्यक्ष प्रफुल्ल निकम ने मुझसे पिछले वर्ष मार्च में कहा, “हम एक ऐसा  चेहरा चाहते थे जिसे गांव के युवक पसंद करें. हमने कई अभिनेताओं से संपर्क किया. वही अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने पैसे की बात नहीं की बल्कि यह पूछा कि क्या इससे गांव के लोगों को कुछ लाभ मिलेगा?” निकम ने आगे बताया कि अक्षय कुमार की छवि “हमारे मकसद से पूरी तरह मेल खाती थी.” एक मौके पर तो उस कार्यक्रम में भाग ले रहे एक व्यक्ति से कुमार इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसकी कहानी को अपनी उस फीचर फिल्म की मुख्य थीम के रूप में इस्तेमाल करने में दिलचस्पी दिखाई जो वह एक ऐसे किसान के बारे में बना रहे हैं जो अचानक धनी बनने के बाद अपने गांव लौटता है. निकम ने बताया कि, “उन्होंने कहा कि यह ऐसा विषय है जिसे बताया जाना चाहिए लेकिन इसके लिए उन्हें ऐसे किसी लेखक की तलाश है जो इसमें फिल्म की दृष्टि से मनोरंजन के तत्व डाल सके.”

ऐसा लगता है कि कुमार की छवि को उसी ढर्रे पर निर्मित किया गया है जिस पर मोदी ने अपनी छवि बनाने की कोशिश की है : राष्ट्रवादी, विचारशील, ईमानदार, शासनपक्षीय और जनपक्षीय. हालांकि कुमार ने चालू कॉमेडी फिल्मों में काम जारी रखा लेकिन इस स्थल तक आते आते उन्होंने ऐसी भूमिका में भी अपने को ढाल लिया जो सामाजिक तौर पर जागरूक और लोगों का भला करने वाला हो, किसी मकसद से संचालित व्यक्ति हो और जो राष्ट्र की खुशहाली के लिए पूरी तरह समर्पित हो. इसने उन्हें एक और भूमिका के लिए चाक-चौबंद कर दिया और अफवाह फैल गई कि एक बायोपिक में वह जल्दी ही प्रधानमंत्री की भूमिका में नजर आएंगे. बाद में इस अफवाह का खंडन सामने आया लेकिन उससे पहले अभिनेता शत्रुघन सिन्हा ने, जो उस समय तक बीजेपी सांसद थे, और सेंसर बोर्ड के तत्कालीन प्रमुख पहलाज निहलानी ने इस भूमिका के लिए कुमार का चयन किए जाने की ताईद की. निहलानी ने डीएनए से कहा, “हमारे प्रधानमंत्री की भूमिका निभाने के लिए अक्षय से बेहतर और किसी के बारे में मैं सोच ही नहीं सकता. एक आदर्शवादी और स्वप्नदर्शी के रूप में उनकी बेदाग छवि है. जरा उनके काम पर ही आप निगाह डालें- टॉयलेटः एक प्रेम कथा और पैडमैन समाज सुधार की ऐसी फिल्में हैं जो उस सिनेमा की याद दिलाते हैं जिनसे गुरूदत्त और व्ही शांताराम जुड़े थे. इसके अलावा मोदी जी की ही तरह अक्षय एक सामान्य श्रमिक वर्ग से ऊपर उठ कर आज राष्ट्रीय स्तर के अभिनेता बने हैं. हम निश्चय ही मोदी जी की भूमिका में अक्षय को देखने की जबर्दस्त संभावना पाते हैं.”

 

2001 में अपने जमाने के सुपरस्टार राजेश खन्ना और डिम्पल कपाडिया की बेटी ट्विंकल खन्ना से उनकी शादी हुई और फिर तो इस उद्योग में बाहरी होने का उन पर लगा ठप्पा भी आधिकारिक तौर पर खत्म हो गया. डिनोडिया फोटो

राष्ट्रवाद की भारी भरकम खुराक फिल्मों के लिए कोई नई बात नहीं है. 1960 और 1970 के दशक में अभिनेता मनोज कुमार ने धुर राष्ट्रवादी फिल्मों से अपना परचम लहराया था लेकिन इस तरह की फिल्में बहुत समय तक जिंदा नहीं रहतीं. लगान भी एक ऐसी फिल्म थी जिसमें हाशिए पर पड़े कुछ भारतीयों के एक समूह ने चुनौती स्वीकार करते हुए घमंडी अंग्रेजों को उन्हीं के खेल क्रिकेट में हरा दिया. विदेशों में बसे भारतीयों के लिए अपने देश के प्रति प्यार को स्वदेश, परदेस और नमस्ते लंदन जैसी अनेक फिल्मों का मुख्य विषय बनाया गया है.

पहले की बनी इस तरह की फिल्मों से हाल में लहलहा रही फिल्मों की फसल के बीच फर्क महज इनका तेजी से बनना नहीं है बल्कि उनके द्वारा प्रदर्शित राष्ट्रवाद की प्रकृति भी है. अनुपमा चोपड़ा ने मुझसे बताया, “यह लहर बहुत अलग किस्म की है. इसमें सत्ता प्रतिष्ठान की ओर झुकाव है. यह संकीर्ण रूप से परिभाषित और उकताहट पैदा करने वाला राष्ट्रवाद है.” उन्होंने यह भी कहा कि लगान और बॉम्बे जैसी फिल्मों की “अलग किस्म की बुनावट” है.

भले ही अक्षय कुमार ने राष्ट्रवादी फिल्मों को उस तरह अपनाया हो जैसा किसी अन्य अभिनेता ने पहले नहीं किया लेकिन इस आजमाइश में वह अकेले नहीं हैं. सलमान खान की भारत, जॉन अब्राहम की परमाणु और आमिर खान की दंगल-- इन सारी फिल्मों के साथ बड़ी गहराई से तिरंगा जुड़ा हुआ है.

मुख्य धारा की अधिकांश बॉलीवुड फिल्मों में उच्च जाति के नायकों को स्थान मिलता रहा है. कुमार ने खुद इनमें से कइयों की भूमिका निभाई है. गैर उच्च जाति के चरित्र और खासतौर पर नायक कम ही दिखाई देते हैं. फिल्म समीक्षक, फिल्म निर्माता और फिल्मफेयर के पूर्व संपादक खालिद मुहम्मद ने बातचीत में मुझसे कहा, “मुस्लिम सामाजिक विषयों, दरबारियों और नवाबों पर बहुत सारी फिल्में बनी हैं. एक समय था जब निश्चय ही इस्लामिक चरित्रों और तत्वों को लेकर काफी फिल्में बनती थीं.”

निर्देशक हंसल मेहता ने आज बनने वाली ऐतिहासिक फिल्मों की सरलीकृत राजनीति अथवा खेलकूद पर आधारित बायोपिक्स की ‘निरापद’ प्रकृति की ओर संकेत करते हुए कहा कि इस तरह की फिल्मों में किसी जटिलता के बगैर राष्ट्रवाद को एकदम आगे और केंद्र में रखा जा सकता है. किसी कालखंड के कथानक पर आधारित फिल्मों में एक स्पष्ट लाइन खिंची होती है क्योंकि उनका संबंध वास्तविक जीवन से होता है. पानीपत, पद्मावत और तान्हाजी जैसी ऐतिहासिक फिल्मों में, जिनमें से दो के निर्माण में तो 200 करोड़ रुपए से भी ज्यादा पैसे लगे, उच्च जाति के शासकों की उपलब्ध्यिों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है. पद्मावत और केसरी- इन दोनों फिल्मों में मुसलमानों को बर्बर और अनैतिक दिखाया गया है.

पानीपत फिल्म मराठा साम्राज्य और दुर्रानी साम्राज्य के बीच पानीपत के तीसरे युद्ध पर आधारित है और इस फिल्म ने तो कूटनीतिक हस्तक्षेप को भी आमंत्रित किया. अफगान दूतावास ने इतिहास संबंधी इसकी खामियों पर चिंता व्यक्त की. हंसल मेहता का कहना है, “बीजेपी-आरएसएस का एक एजेंडा पाठ्यक्रमों और इतिहास का पुनर्लेखन है. आप राष्ट्रवादी हिंदुत्व नजरिए से इतिहास की नई व्याख्या देकर उनकी मदद कर रहे हैं. इस माध्यम में कई सीमाएं हैं, घटनाओं को नाट्यात्मक बनाया जाता है. लेकिन इन सबके बावजूद आप किसी चीज को काफी हद तक प्रामाणिक बना सकते हैं या ऐसा तो कर ही सकते हैं कि वह किसी एक पक्ष की ओर झुकता न दिखाई दे. मिसाल के तौर पर अगर कश्मीर मुद्दे को ध्यान में रख कर देखें तो रोजा जैसी फिल्में काफी संतुलित नजर आती हैं.” मेहता के अनुसार ध्रुवीकरण की वजह से हमने पूरी तरह मर्यादा की बलि चढ़ा दी है.” 2019 की शुरुआत में आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए कई राजनीतिक फिल्में बनाई गईं मसलन पीएम नरेन्द्र मोदी, दी एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर और उड़ी. इनमें 2016 के उन सरकारी दावों को दिखाया गया जिनमें पाकिस्तान शासित कश्मीर के आतंकवादी अड्डों के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक चलाने की बात कही गई थी. वही मुहावरा तान्हाजी के प्रचार में इस्तेमाल हुआ जो कि एक काल-खंड पर आधारित फिल्म थी और जिसके बारे में वर्णन किया गया कि यह “ऐसा सर्जिकल स्ट्राइक था जिसने मुगल साम्राज्य को हिला दिया.”

फिल्म उड़ी में दिलेरी का अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण दिखाई देता है और इसमें “हाउ इज द जोश?” जैसा एक विजय उद्घोष सुनने को मिला. इसे अपने चुनाव अभियानों में बीजेपी के राजनीतिज्ञों और जनता ने बार बार दुहराया. खुद मोदी ने बॉलीवुड की एक सभा को संबोधित करते हुए लोगों से यह सवाल किया और इसी प्रकार बजट भाषण के दौरान पीयूष गोयल ने जब उड़ी की प्रशंसा की तो अन्य सांसदों ने इसी नारे को दुहराया. बॉलीवुड ने एक राष्ट्रीय मिथक का निर्माण किया और लोगों की भाषा में एक अर्थपूर्ण नारे को जोड़ दिया.

वारसा (पोलैंड) की वार स्टडीज यूनिवर्सिटी के एशिया रिसर्च सेंटर के अध्यक्ष क्रिस्टोफ इवानेक ने मुझे एक ईमेल के जरिए बताया, “निश्चय ही राष्ट्रवाद व्यापार की दृष्टि से मुनाफा देता है और पिछले कुछ वर्षों के दौरान विषय वस्तु के चयन में राष्ट्रवाद को स्थान मिलना साफ तौर पर दिखाई देता है. इससे भारत में हो रहे राजनीतिक परिवर्तनों की कुछ हद तक झलक मिलती है. लेकिन मैं नहीं समझता कि फिलहाल बॉलीवुड के सिनेमा के लिए हिंदू राष्ट्रवाद कोई बड़ा खतरा है... मुझे ऐसा लगता है कि सिनेमा जगत के कुछ लोग रणनीतिक तौर पर अपनी पसंद का चुनाव करते हैं. वे ऐसी फिल्में बना रहे हैं और उन्हें इस ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं जो देश के राजनीतिक मूड के अनुरूप हो.” इवानेक का मानना है कि सरकार का परिवर्तन होते ही फिल्म उद्योग के लोग फिर अपने में परिवर्तन कर लेंगे.

निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप ने समय समय पर सरकार की आलोचना की है और उनका कहना है कि अधिकांश फिल्म निर्माताओं और सरकार के बीच कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है. उन्होंने राष्ट्रवादी फिल्मों की संख्या में वृद्धि को “विशुद्ध रूप से व्यावसायिक कारणों” से होना बताया. उन्होंने आगे कहा कि हो सकता है कि ऐसा करने के पीछे यह चाहत छिपी हो कि “कोई उनके द्वारा किए जा रहे काम को पसंद करेगा. हो सकता है उनका एजेंडा राष्ट्रीय पुरस्कार या पद्मश्री या सरकार से किसी तरह का लाभ पाना हो.”

केसरी के निर्देशक अनुराग सिंह का मानना है कि, “मनोरंजन का कारोबार ऐसे ही चलता है. जब किसी खास तरह का सिनेमा सफल हो जाता है तो लोग उसी धारा का पालन करने लगते हैं, उसी लीक पर चलने लगते हैं. उन्हें पता है कि इस तरह की फिल्मों के लिए दर्शकों का एक बना बनाया समूह है और लोग उस तरह की फिल्में देख रहे हैं. हो सकता है कि एक सीमा के बाद उनका मन इससे भर जाए लेकिन अभी तो ऐसा नहीं है.”

कुछ लोगों का मानना है कि इस तरह की फिल्मों के दिन अब लद रहे हैं. बाल्की ने एक बातचीत में कहा, “बात बात में अगर आप खुद को राष्ट्रवादी दिखाते हैं तो हर बार श्रोताओं के अंदर वही जोश नहीं देखने को मिलेगा. कहा जाता है कि एक अवसर को आपने भुना लिया और फिर काम पूरा हो गया.”

सकारात्मक संदेशों को प्रसारित करने वाली इस तरह की अनेक फिल्मों को अलग अलग राज्यों में टैक्स  की छूट मिल गई है जिससे वे ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंच सकी हैं. वैसे तो कुछ फिल्म निर्माताओं का मानना है कि टैक्स से राहत मिली फिल्मों को उबाऊ माना जाता है और हो सकता है कि उनसे हमेशा अच्छी कमाई न हो लेकिन कर मुक्त होने से स्पष्ट तौर पर यह संकेत तो मिलता ही है कि इस फिल्म को सरकार की स्वीकृति प्राप्त हुई है. दंगल, नीरजा और हिंदी मीडियम- इन सबको टैक्स की छूट मिली. यही हाल अक्षय कुमार की एयरलिफ्ट, टॉयलेट, मिशन मंगल और पैडमैन के साथ था.

दि इंटरप्रेटर पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में इवानेक ने लिखा- “यह दलील दी जाती है कि कुछ चुनी हुई फिल्मों पर टैक्स का बोझ कम करने से न केवल उन फिल्मों का संदेश ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचता है बल्कि निर्माताओं को भी इस बात की प्रेरणा मिलती है कि वे अपनी भावी फिल्मों के लिए सही विषयों का चयन करें. इस तरीके से भारत के विभिन्न राज्य सिनेमा पर बड़ी बारीकी के साथ अपने नैतिक प्राधिकार का इस्तेमाल करते हैं हालांकि आमतौर पर वे अपनी इस ताकत का इजहार नहीं करते.”

पिछले वर्ष जून में ईमेल के जरिए ही इवानेक ने स्पष्ट किया था कि “नैतिक प्राधिकार” को बहुत ढीले ढाले ढंग से परिभाषित किया गया है. उन्होंने कहा कि, “ऐसा नहीं लगता कि इन फिल्मों के दायरे में आने वाले विषयों के लिए कोई निश्चित नियम हैं जिनकी वजह से मनोरंजन कर में उन्हें छूट मिल जाती है.” ऐसा कहते समय उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि खेलकूद से संबंधित फिल्मों और देशभक्ति अथवा सामाजिक विषयों से संबंधित फिल्मों को आमतौर पर इस तरह की छूट प्राप्त होती है.

लेकिन टैक्स में छूट दिया जाना राजनीतिक तौर पर भी काम करता है. इवानेक का कहना है कि, “पहली बात तो यह कि सरकारें उन्ही फिल्मों को यह छूट देती है जिन्हें वह राजनीतिक तौर पर अपने लिए अपेक्षाकृत ज्यादा उपयोगी समझती हैं. दूसरे, ऐसी फिल्मों को भी छूट मिल जाती है जिनके निर्माता या जिनमें काम करने वाले प्रमुख अभिनेता सत्ताधारी पार्टी के करीब हैं.”

 

जून 2010 में कनाडा की सरकार ने उन्हें सम्मानित करते हुए भारत के लिए कैनेडियन टूरिज्म कमीशन एंबेसडर नियुक्त किया. अर्को दत्ता / रॉयटर्स

दिसंबर 2018 में फिल्म निर्माताओं का एक प्रतिनिधिमंडल जीएसटी में परिवर्तन के लिए प्रधानमंत्री से मिला. इस बैठक के बाद 100 रुपए से कम के टिकटों पर जीएसटी दर 18 प्रतिशत से घटाकर 12 प्रतिशत और 100 रुपए से ऊपर के मूल्य के टिकटों पर यह दर 28 प्रतिशत से घटाकर 18 प्रतिशत कर दी गई. सोशल मीडिया पर फिल्मी सितारों ने इसके लिए मोदी और सरकार को धन्यवाद दिया. प्रधानमंत्री ने भी इस बैठक और बैठक में हुए विचार विमर्श के बारे में ट्वीट किया. मोदी ने बॉलीवुड के सितारों के साथ इस तरह की कई बातचीत की और सेल्फी भी खींची. उन्होंने इन सितारों से ऑन लाइन आग्रह किया कि वे जनता को मतदान में भाग लेने और अपने को ‘फिट’ रखने के लिए प्रोत्साहित करें.

बॉलीवुड में आमतौर पर मोदी सरकार के बारे में यह धारणा है कि उन तक बॉलीवुड के लोगों की पहुंच है और वह फिल्म उद्योग की बातों को सुनते हैं. 2001 में नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) सरकार के अंतर्गत ही फिल्म उद्योग को पहली बार “उद्योग” का दर्जा मिला और मोदी सरकार के शासनकाल में 2019 के अंतरिम बजट के जरिए भारतीय फिल्म निर्माताओं को “सिंगिल विंडो क्लियरेंस” के दायरे में शामिल किया गया जिससे फिल्म बनाने के लिए अनुमति प्राप्त करने का रास्ता आसान हो गया.

राजनीतिज्ञों और सरकारों ने हमेशा ही बॉलीवुड को अपने प्रभाव में रखने की कोशिश की ताकि वे इसकी चमक-दमक का अपने हित में इस्तेमाल कर सकें. फिल्मी सितारों ने भी इसके एवज में सत्ता के करीब रहने के फायदों का मजा लिया है. जनवरी 2019 सितारों के साथ ली गई मोदी की तस्वीर देखने से 1960 अथवा 1970 के दशक के उस फोटोग्राफ की याद आ जाती है जिस में इंदिरा गांधी को उस समय के प्रमुख सितारों के साथ देखा जा सकता है जिनमें दिलीप कुमार, राजकपूर और शर्मिला टैगोर शामिल हैं. खालिद मुहम्मद ने इंदिरा गांधी के साथ ली गई तस्वीर के बारे में कहा, “बहुत सारी पुरानी तस्वीरें देखी जा सकती हैं जिनमें समूचा फिल्म उद्योग उनके पीछे खड़ा है. केंद्र ने हमेशा बॉलीवुड को आकर्षित किया है.”

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रायः फिल्म फेयर पुरस्कारों के समारोहों में भाग लिया. काफी समय से राष्ट्रीय पुरस्कारों के बारे में यह धारणा है कि वे राजनीति से प्रभावित रहते हैं. मेहता का कहना है कि, “इमरजेंसी के दौरान भी ऐसे कई फिल्म निर्माता देखने में आए जिन्होंने कांग्रेस सरकार को खुश करने के लिए फिल्में बनाईं. यहां तक कि नेहरू के काल में भी ऐसी फिल्में बनीं जो उनकी शैली के समाजवाद की चर्चा करती थीं. प्रायः मुख्य धारा के कलाकारों और अन्य लोगों ने सरकारी नीतियों को ध्यान में रखकर फिल्मों का निर्माण किया. हमेशा यह प्रवृत्ति रही है कि उस समय की सरकार की नीतियों के अनुरूप काम किया जाय.”

मैंने जिन तमाम लोगों से बातचीत की उनमें से बहुत सारे लोगों का यह कहना है कि जिस पैमाने पर और जितनी तीव्रता के साथ इस सरकार ने फिल्म उद्योग को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश की वह पहले कभी नहीं देखी गयी. मोदी सरकार ने एक ऐसी व्यवस्था तैयार कर दी है जिसमें सरकार के माफिक आने वाले विषयों पर बनी फिल्में बड़े बड़े पुरस्कार ले सकें जबकि मामूली आलोचना करने वालों को गंभीर परिणाम भुगतने पड़े.

अनुराग कश्यप ने मुझे बताया, “सरकार इस उद्योग के लोगों का अच्छी तरह इस्तेमाल कर रही है. यह सरकार जानती है कि जनता की धारणा बनाने में फिल्म उद्योग का कैसे इस्तेमाल किया जाय... मोदी जी एक मार्केटिंग जीनियस हैं.” उन्होंने यह भी बताया कि तरह तरह से लोगों को पुरस्कृत किया जाता है मसलन सेंसरशिप से निबट कर, अगर कोई मुकदमा है तो उसे वापस लेकर और टैक्स से छूट देकर.

कश्यप ने “कोऑप्ट” किए जाने के अपने खुद के अनुभव को बयान किया. 2014 में उन्होंने बताया कि जब यह सरकार पहली बार सत्ता में आई तो वह इस सरकार को संदेह का लाभ देने के पक्ष में थे. तत्कालीन सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राजवर्द्धन राठौर उनके पास गए. कश्यप ने फिल्म के बीच में सिगरेट से संबंधित चेतावनी को लेकर अपनी चिंता राठौर को बताई. उन्होंने मुंबई में फिल्म उद्योग के कुछ सदस्यों के साथ राठौर की एक बैठक का आयोजन किया और गजेंद्र चौहान को फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया का चेयरमैन नियुक्त किए जाने के सरकार के फैसले के खिलाफ विरोध नहीं व्यक्त किया जो एक दोयम दर्जे के अभिनेता हैं और बीजेपी के समर्थक हैं. कश्यप ने कहा, “मैंने यह सोचना शुरू किया कि हो सकता है मैं गलत होऊं क्योंकि मंत्री तथा अन्य लोग मुझ तक आ रहे हैं. उन्होंने अन्य लोगों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया होगा.” जब कश्यप की फिल्म उड़ता पंजाब के सामने सेंसरबोर्ड ने दिक्कतें पैदा कीं, उन्होंने महसूस किया कि उन्हें 'साधने' की कोशिश की जा रही थी और फिर उन्होंने बोलना शुरू किया.

कश्यप ने बताया कि सरकार की उन्होंने जो आलोचना की उससे उनकी फिल्मों की संभावनाओं को क्षति पहुंची. उनकी दोनों फिल्मों सांड़ की आंख और मुक्काबाज को, जिनकी शूटिंग उत्तर प्रदेश में हुई थी और इस लिहाज से जिन्हें राज्य की फिल्म बंधु योजना का लाभ मिलना चाहिए था, सरकारी समर्थन मिलने से खुले तौर पर इनकार कर दिया गया. “चूंकि मैं आलोचक था इसलिए इस फिल्म के निर्माताओं को वह सब्सिडी नहीं मिली,” उन्होंने कहा.

एक फिल्म निर्माता ने, जो अपना नाम जाहिर करना नहीं चाहता, मुझे बताया कि एक सरकारी अधिकारी ने उससे भेंट की और कहा कि वह ऑन लाइन जो भी टिप्पणियां करता है उस पर नजर रखी जाती है. इसके बाद उस अधिकारी ने इस फिल्मकार को एक दस्तावेज थमाया जिसमें प्रधानमंत्री की उपलब्धियों की सूची थी. उस अधिकारी ने कहा, “आप देखिए कि उन्होंने हमारे देश के लिए क्या किया है.” इसके साथ ही उसने सुझाव दिया कि हमें कुछ सकारात्मक बातें ट्वीट करनी चाहिए. उसने इस फिल्मकार से यह भी कहा, “आप यह नहीं समझते कि हमलोग क्या कर रहे हैं. इससे उन्हें (मोदी जी को) तकलीफ होती है.” फिल्मकार का कहना था कि उसकी इस बात से मेरे अंदर थोड़ी दहशत हुई.

एक अन्य मौके पर उसी फिल्मकार को सरकार की विकास गतिविधियों पर फिल्म बनाने को कहा गया. यह कहा गया कि बहुत सारी ऐसी कहानियां हैं जिन्हें आप ढूंढ सकते हैं, प्रोत्साहित कर सकते हैं. कहा गया कि आप इन विषयों पर फिल्म बनाइए, यह अच्छा रहेगा. अब अगर आप समझदार हैं तो इन बातों को अच्छी तरह समझ सकते हैं.

अभिनेताओं ने प्रायः पार्टी राजनीति में हिस्सा लिया है, चुनाव लड़ा है या उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया है. जया बच्चन लंबे समय से समाजवादी पार्टी की सांसद हैं. बॉलीवुड की अपनी पारी समाप्त करने के बाद सुनील दत्त काफी समय तक कांग्रेस सांसद रहे. हेमा मालिनी ने संसद की दोनों सदनों में बीजेपी का प्रतिनिधित्व किया है. लेकिन फिल्म और राजनीति के बीच यह एक अलग तरह का गठबंधन है जिसका सरोकार व्यक्ति विशेष की दिलचस्पी और उसके रुझान से है. तत्कालीन कांग्रेस प्रवक्ता संजय झा ने पिछले वर्ष मार्च में मुझसे बातचीत में बताया, “किसी बड़ी राजनीतिक रणनीति के हिस्से के रूप में बॉलीवुड को कभी भी कोऑप्ट नहीं किया गया. 2014 के बाद से फिल्म उद्योग और राजनीतिक संस्थान के बीच बेहद घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ है. आपका एक ऐसी राजनीतिक पार्टी से साबका पड़ा है जो अधिकांश दलों के मुकाबले राजनीतिक संचार के महत्व को अच्छी तरह समझती है.”

यह सब कैसे होता है इसका एक बहुत स्पष्ट उदाहरण आम चुनाव से कुछ ही दिनों पहले फरवरी 2019 में उस समय देखने को मिला जब कोबरा पोस्ट नामक वेबसाइट ने अपने एक महीने के स्टिंग ऑपरेशन के नतीजों को रिलीज किया. इसमें फिल्म उद्योग की एक विकृत तस्वीर दिखाई देती है. यह स्टिंग ऑपरेशन जिन रिपोर्टरों द्वारा किया गया था उन्होंने खुद को राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में पेश किया था और इनमें से ज्यादातर ने खुद को बीजेपी का प्रतिनिधि बताया था और सरकार के पक्ष में ट्विट के माध्यम से प्रचार करने के लिए कुछ सेलेब्रेटीज को भारी धनराशि देने की पेशकश की थी. कोबरा पोस्ट के संस्थापक अनिरुद्ध बहल ने बताया कि, “आश्चर्य नहीं कि हमने पैसे के बदले ट्विट के बारे में सुना. यह मामला केवल मनोरंजन जगत का नहीं बल्कि अन्य क्षेत्रों का भी है.”

अभिनेता शक्ति कपूर और सनी लिओनी तथा गायक मिका सिंह सहित अनेक जानी मानी हस्तियों ने इस तरह राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में प्रचार करने के बदले पैसा लेने पर अपनी सहमति दी और यह सब कैमरे में कैद हो गया. किसी बड़े सितारे से संपर्क नहीं किया गया लेकिन चलते चलते एक बार अक्षय कुमार का नाम आया. इस प्रस्ताव पर सहमति देते हुए अभिनेता जैकी श्राफ ने जरूर यह कहा कि- “हां हां अक्षय की तरह... अक्षय हमारे साथ है.” रिपोर्टर ने संकेत दिया कि अक्षय कुमार और अनुपम खेर का पहले से ही बीजेपी की ओर झुकाव दिखाई दे रहा था जबकि अपेक्षाकृत “तटस्थ” दिख रहे श्राफ का ऐसा कोई झुकाव नहीं था. इस लिहाज से बीजेपी के समर्थन में ट्विट करने पर उनकी सहमति काफी मायने रखती है.

युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय अभियान प्रभारी और कर्नाटक में कांग्रेस के सोशल मीडिया ऑपरेशन के पूर्व  प्रमुख वाइ बी श्रीवत्स ने मुझे बताया, “बड़ी हैसियत वाले एकदम पैसे के लिए ऐसा नहीं करते. वे खुद को सत्ता के करीब ले जाने और सत्ता से कुछ पाने की उम्मीद से करते हैं. बीजेपी के पास लोगों को प्रभावित करने का नेटवर्क काफी बड़ा है. कई मामलों में इन एकाउंट्स को सीधे बीजेपी ही देखती है... बीजेपी ने बस यह किया है कि अपनी बातों को जोरदार ढंग से सामने लाने के लिए एक रणनीति के तौर पर कुछ प्रभावशाली लोगों का इस्तेमाल किया है.”

श्रीवत्स ने बताया कि कांग्रेस ने इस काम के लिए नामीगिरामी लोगों का पूरी तरह सहारा नहीं लिया है. इसकी बजाय इसने उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित किया है कि अगर वे उसकी विचारधारा को मानते हैं तो महत्वपूर्ण मुद्दों पर खुलकर अपनी बात कहें.

निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप ने समय समय पर सरकार की आलोचना की है और उनका कहना है कि अधिकांश फिल्म निर्माताओं और सरकार के बीच कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है. उन्होंने राष्ट्रवादी फिल्मों की संख्या में वृद्धि को “विशुद्ध रूप से व्यावसायिक कारणों” से होना बताया. बिप्लव भुयान / हिंदुस्तान टाइम्स

कुछ बड़े सिने अभिनेता राजनीतिक मुद्दों पर बोलने का जोखिम उठा चुके हैं. 2015 में अभिनेता आमिर खान को उस समय जबर्दस्त आलोचनाओं का सामना करना पड़ा जब उन्होंने यह कह दिया था कि देश में पहले की तुलना में सहिष्णुता कम दिखाई देती है. इसके उन्हें व्यावसायिक दुष्परिणाम भी झेलने पड़े. शाहरुख खान को भी कुछ ऐसी ही टिप्पणी कहते बताया गया था हालांकि उन्होंने बाद में इससे इनकार किया लेकिन उन्हें तत्काल बीजेपी के हमले का सामना करना पड़ा. पिछले वर्ष नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ जब विरोध प्रदर्शन हो रहे थे उस समय उदारवादियों ने इन बड़े सितारों की खामोशी की आलोचना की थी. एक फिल्मकार ने मुझे बताया कि, “अभी काफी दबाव महसूस किया जा रहा है. यह सरकार कुछ ज्यादा ही नियंत्रण रखना चाहती है. पहले लोग अपनी बात खुलकर कहने में कम डरते थे.”

बावजूद इसके नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शनों के समर्थन में अनुराग कश्यप, निर्देशक अनुभव सिन्हा और स्वरा भास्कर जैसे लोगों ने खुलकर अपनी बात कही. संजय झा ने बताया, “लोगों को डर रहता है कि कहीं आयकर का छापा न पड़ जाए, उनकी फिल्मों को रोक न दिया जाए और सिनेमा घरों के बाहर हिंसा न भड़का दी जाए जिससे उनकी व्यापारिक सफलता पर आंच आए... हॉलीवुड के कलाकार अमेरिकी राष्ट्रपति के भय से ग्रस्त नहीं रहते हैं लेकिन भारत में ऐसा नहीं है. आप बहुत सारे ऐसे लोगों को देखेंगे जो सरकार को खुश करने के लिए घुटनों के बल चलने लगते हैं.”

2019 के आम चुनाव से पहले कांग्रेस ने अपना घोषणापत्र तैयार करने के सिलसिले में विभिन्न उद्योगों के साथ बातचीत की ताकि उनके विचारों को इसमें शामिल किया जा सके. मुंबई में कांग्रेस की यह बैठक उसी दिन चल रही थी जिस दिन पेडर रोड पर सिनेमा के म्यूजियम का उद्घाटन करने मोदी पहुंचे थे. झा ने मुझे बताया कि, “कुछ लोग तो पूरी तरह व्यामोह से ग्रस्त थे...बहुत सारे लोगों के अंदर यह साहस नहीं था कि वे आएं और हमारे साथ बातचीत में भाग लें.”

फिल्मों के मामले में देखा गया है कि कुछ उपद्रवियों, धार्मिक समूहों और यहां तक कि सरकार द्वारा भी उस समय नुकसान पहुंचा दिया जाता है जब फिल्म का कोई विषय उन्हें नापसंद होता है या फिल्म से जुड़े कलाकार खुलकर कोई ऐसी बात कह देते हैं जो सरकार को नागवार लगती है. यह एक ऐसी बात है जिसकी वजह से प्रत्यक्ष तौर पर बनी कोई राजनीतिक फिल्म या कोई फिल्मी हस्ती व्यापारिक गणित को जोखिम में डाल देता है. कम से कम तीन ऐसी फिल्में हैं- फना, फिराक और परजानिया जिन्हें गुजरात में उस समय प्रतिबंधित किया गया जब मोदी वहां के मुख्यमंत्री थे. पद्मावत, आरक्षण और मद्रास कैफे को भी कुछ अन्य राज्यों में विरोध का सामना करना पड़ा.

जनवरी 2020 में जब दीपिका पादुकोण को सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी की एक बैठक में देखा गया तो बीजेपी समर्थकों ने उनकी फिल्म छपाक के बहिष्कार की मांग की. बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म की असफलता के पीछे यह कारण था या नहीं, कहना मुश्किल है लेकिन दीपिका पादुकोण को निशाने पर तो लिया ही गया.

अनुराग कश्यप को भी ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा और उन्होंने देखा कि उनका आईएमडीबी पेज नष्ट कर दिया गया है और साथ ही सोशल मीडिया पर संगठित रूप से उन्हें ट्रोल किया जा रहा है. कश्यप ने बताया, “वे हर तरीके से आपकी साख गिराने की कोशिश करते हैं. वे इस तरह का माहौल तैयार करते हैं कि अगर मैं किसी थिएटर में जाऊं तो वहां हिंसा हो जाए. वे ऑन लाइन फिल्म के खिलाफ वोट देते हैं. अलग अलग साइटों पर जाकर जो रेटिंग है उसके साथ घाल मेल करते हैं. वे एक भय का वातावरण तैयार करते हैं.”

राष्ट्रवादी फिल्मों का अभ्युदय इसी इको सिस्टम का उपउत्पाद है. झा ने कहा कि, “यह सरकार बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद का पक्ष लेते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा का भय दिखा कर अपना उल्लू सीधा करती है. बेशुमार संदेश भेजे जाते हैं और बॉलीवुड के पास इतनी समझ तो है ही कि वह इन संदेशों का अर्थ ग्रहण कर सके.”

केंद्र की सरकार और राज्य सरकारें प्रायः महत्वपूर्ण संदेशों को प्रसारित करने के लिए फिल्मी सितारों को तैनात करती है. सार्वजनिक महत्व के कुछ मुद्दों या संदेशों के प्रति जनता के अंदर जागरुकता बढ़ाने में अभिनेताओं का इस्तेमाल कोई असाधारण बात नहीं है. ऐसा होता रहा है. 2009 से 2016 तक, जब तक हटा नहीं दिया गया, आमिर खान अतुल्य भारत (इनक्रेडिबुल इंडिया) के ब्रांड एंबेसडर थे और नशीले पदार्थों के खिलाफ कई विज्ञापनों में दिखाई देते थे. महाराष्ट्र सरकार के पर्यटन विज्ञापनों में अजय देवगन अपनी पिछली फिल्म तान्हाजी के साथ जुड़े नजर आते थे. अमिताभ बच्चन गुजरात पर्यटन के प्रचार अभियान के लोकप्रिय ब्रांड एंबेसडर थे.

लेकिन सरकार समर्थक सितारे के रूप में अक्षय कुमार की निरंतरता और दृश्यता कुछ अलग किस्म की है. कार्तिक श्रीनिवासन ने मुझे बताया कि, “अगर वह एक विख्यात सुपरस्टार के यहां अपनी शादी के जरिए बॉलीवुड की मंडली में जमने की कोशिश कर रहे हों और सरकार के साथ दोस्ताना रवैया अपनाते हुए इसे करना बेहतर समझते हों तो यह उनका मौजूदा इको सिस्टम में या तंत्र में अपने को स्थापित करने का प्रयास है. ऐसा लगता है कि कुमार ने वह रास्ता ढूंढ लिया है जिसके जरिए अपनी खुद की धारणाओं और सरकार के प्रोपोगेंडा के साथ तालमेल बैठा सकें.

अक्टूबर 2016 में उड़ी पर हुए आक्रमण के कुछ ही समय बाद उन्होंने जनता से इस बात का आग्रह किया कि फालतू बहसों में समय नष्ट करने की बजाय वह उन जवानों के जीवन के बारे में सोचे जो देश की सीमाओं की रक्षा कर रहे हैं. शुरू से ही कुमार भारत के वीर कोष के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं. यह कोष दानदाताओं के पैसे से सरकार द्वारा निर्मित एक कोष है जो युद्ध के दौरान मारे गए सैनिकों के परिवारों को पैसे देता है. कुमार ने नियमित तौर पर इस कोष की बैठकों में हिस्सा लिया है और चूंकि यह मूलतः उन्हीं का विचार था लिहाजा उन्हें इसका ब्रांड एंबेसडर बनाया गया. सितंबर 2017 में भारत के वीर का पंजीकरण एक ट्रस्ट के रूप में किया गया. इसके बोर्ड में सरकारी अधिकारियों और पूर्व बैडमिंटन खिलाड़ी पी गोपीचंद के साथ अक्षय कुमार भी हैं.

इस कोष की स्थापना के समय से ही इसकी देखभाल करने वाले नोडल अधिकारी विजय कुमार जोर देकर बताते हैं कि इस कोष के एक पैसे का भी दुरुपयोग नहीं हुआ है. लेकिन ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ऐक्टिविस्ट साकेत गोखले जैसे कुछ लोगों ने इस कोष के बारे में और इसके साथ अक्षय कुमार की संलग्नता के बारे में सवाल उठाए हैं. इन सवालों में यह भी है कि किस तरह किसी एक अभिनेता की व्यक्तिगत पहल को गृह मंत्रालय ने अपना लिया. इसके बारे में और जानकारी इकट्ठा करने के लिए गोखले ने सूचना के अधिकार के तहत अनुरोध भेजा है.

पिछले वर्ष जून में जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने कहा, “किसी कार्रवाई में मारे जाने वाले भारत के सैनिक के लिए बने सरकारी कोष का वितरण कैसे हो इसका फैसला कोई व्यक्ति कैसे कर सकता है और वह भी तब जब वह भारत का नागरिक भी नहीं है. किस आधार पर उसे नियुक्त किया गया है? समूचे परिदृश्य में वह कैसे मौजूद है? यह केवल इत्तफाक नहीं है कि यही व्यक्ति सरकार के विभिन्न प्रचार अभियानों में शामिल है और यह वही व्यक्ति है जिसने प्रधानमंत्री का इंटरव्यू लिया.”

गोखले ने कहा कि इस ट्रस्ट की अधिसूचना सरकारी गजट के जरिए नहीं जारी की गई थी जैसा कि होना चाहिए था. उन्होंने हैरानी व्यक्त करते हुए कहा, “यह सरकार देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटती रहती है फिर कैसे इसने कनाडा के किसी नागरिक को इस बात की इजाजत दे दी कि वह तय करे कि किस बहादुर सैनिक को पैसे मिलने चाहिए?”

2019 चुनावी साल था और इस साल कुमार और ज्यादा छानबीन के दायरे में आ गए. उन्हें प्रधानमंत्री को इंटरव्यू करने का एक दुर्लभ मौका प्रदान किया गया और उसी समय कांग्रेस ने एक पुरानी कहानी सामने ला दी जिसमें वह मोदी के साथ नौसेना के जहाज में मौजूद दिखाई दिए. उस साल मई में मुंबई में हुए मतदान के दौरान एक पत्रकार ने अपने कैमरे में उस घटना को कैद कर लिया जिसमें उसने बड़ी विनम्रता के साथ जानना चाहा था कि उनके वोट न देने की आलोचना हुई है. इसके कुछ ही समय बाद ट्विटर पर इसकी चर्चा की भरमार हो गई. क्या बॉलीवुड का नागरिक कोई असाधारण व्यक्ति है जो वोट न दे? यह खासतौर पर कुछ लोगों को बहुत प्रहसन भरा लगा क्योंकि कुछ ही हफ्ते पहले जब ट्विटर पर प्रधानमंत्री ने लोगों से अपील की थी कि वे मतदान में हिस्सा लें तो कुमार ने इस पर अपनी टिप्पणी दी थी- “जनतंत्र की सही पहचान चुनावी प्रक्रिया में जनता की भागीदारी से होती है. राष्ट्र और मतदाताओं के बीच मतदान ही जबर्दस्त प्रेम कहानी है.” जाहिर सी बात है कि इस प्रेम कहानी में वह नहीं शामिल थे.

जैसे जैसे समय गुजरता गया कुछ और कहानियां सामने आती गईं. अक्षय कुमार ने 2017 में कहा था कि उन्हें “ऑनरेरी” कनाडा की नागरिकता मिली है लेकिन उनके इस दावे की आल्ट न्यूज ने जब जांच की तो यह गलत साबित हुआ. इस वेबसाइट ने लिखा--”कनाडा के प्रधानमंत्री की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के आधार पर यह पता चला है कि कनाडा के ऑनरेरी नागरिक की सूची में केवल पांच लोग हैं और अक्षय कुमार उन पांच लोगों में नहीं हैं.”

उनकी कनाडा की नागरिकता का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में आ गया और तब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन ब्रांड्स (यह संस्था जाने माने लोगों पर अध्ययन करती है) ने 484 “सहस्राब्दि के विशिष्ट जनों” से जनमत संग्रह किया. इसके नतीजे से पता चला कि जनमत संग्रह में शामिल 94 प्रतिशत लोग एक सप्ताह पहले तक यह नहीं जानते थे कि अक्षय कुमार के पास कनाडा का पासपोर्ट है. इस संस्थान के  संदीप गोयल ने अपने ब्लॉग में लिखा, “लेकिन 82 प्रतिशत लोगों का मानना है कि अगर अक्षय  ‘देशप्रेमी’ की भूमिका निभाते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. जनमत संग्रह में भाग लेने वाले 91 प्रतिशत लोगों का कहना था कि वे चाहते हैं कि खिलाड़ी कुमार ‘भारत’ की भूमिकाएं निभाते रहें जैसा कि वह इधर कुछ दिनों से कर रहे हैं.”

कुमार की राष्ट्रवादी छवि पर ऐसा लगता है कि कोई आंच नहीं आई और जैसा कि संचार सलाहकार श्रीनिवासन ने मुझे बताया “इसका काफी कुछ श्रेय बीजेपी की बेहद सक्रिय उग्र राष्ट्रवाद फैलाने वाली ऑन लाइन सेना को जाता है. इस सेना के लोग इस धारणा को लोगों के अंदर पैदा करते हैं कि कौन अथवा क्या चीज ‘भारतीय’ है और उनके लिए पासपोर्ट होने या न होने का कोई मतलब नहीं है. वे इस तथ्य पर जाते हैं कि कौन मौजूदा बीजेपी सरकार का समर्थन करता है और यही भावना मायने रखती है. ऐसे में इस तथ्य का कोई मतलब नहीं है कि उन्होंने कनाडा की नागरिकता लेनी पसंद की.”

2019 में जब हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट में अक्षय कुमार से नागरिकता वाले मामले पर सवाल पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि उन्होंने भारतीय पासपोर्ट के लिए आवेदन कर दिया है. उन्होंने कहा, “मुझे इस बात से बहुत तकलीपफ होती है कि अपना राष्ट्रवाद साबित करने के लिए मेरे पास कागज का एक टुकड़ा होना चाहिए लेकिन उस टुकड़े का कुछ भी अर्थ क्यों न हो, मैंने भारतीय पासपोर्ट के लिए आवेदन कर दिया है और जल्दी ही वह मुझे मिल जाएगा. पिछले वर्ष मैंने सूचना के अधिकार के तहत कुमार की नागरिकता के बारे में गृहमंत्रालय से जानकारी के लिए अनुरोध किया लेकिन मेरे अनुरोध को एक विभाग से दूसरे विभाग भेजा जाता रहा. अभी भी मुझे उसका कोई जवाब नहीं मिला.

कुमार की छवि को उसी ढर्रे पर निर्मित किया गया है जिस पर मोदी ने अपनी छवि बनाने की कोशिश की है : राष्ट्रवादी, विचारशील, ईमानदार, शासनपक्षीय और जनपक्षीय. पीटीआई

दिसंबर 2019 में नागरिकता विरोधी आंदोलन के दौरान जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में पुलिस के उग्र प्रवेश पर खुशी जाहिर करते हुए किए गए एक ट्विट को कुमार ने “लाइक” किया. इसे बड़ी तेजी से उन्होंने वापस भी ले लिया और साथ ही एक स्पष्टीकरण दिया कि स्क्रोल करते समय “गलती से” बटन दब गया था. हालांकि राष्ट्रवाद और सामाजिक योजनाओं पर सरकार के साथ खड़े होने में कुमार को कोई परहेज नहीं है लेकिन खुल्लमखुल्ला दिए गए किसी राजनीतिक बयान से वह कतराते हैं. दिल्ली पुलिस की भूमिका पर अनेक अभिनेताओं और फिल्मकारों ने पक्ष या विपक्ष में बातें कहीं लेकिन कुमार ने चुप रहना बेहतर समझा.

2016 से पहले राजनीति और सरकार में अगर कुमार की कोई दिलचस्पी थी तो उन्होंने इसे कभी ऑन लाइन प्रकट नहीं किया. 2016 तक उनके जितने भी ट्विट हें उनमें प्रधानमंत्री, सरकार या सत्ताधारी पार्टी का कोई उल्लेख नहीं है. शायद पहली बार 6 फरवरी 2016 को ऐसा देखा गया जब उन्होंने मोदी के साथ अपनी और अपने बेटे की तस्वीर पोस्ट की. इसके बाद से शासन और राष्ट्रवादी जोश के प्रति उनकी दिलचस्पी में तेजी से वृद्धि हुई. ट्विटर में वह महज 26 लोगों को फॉलो करते हैं और प्रधानमंत्री उनमें से एक हैं. जिन ट्विट संदेशों को डिलीट कर दिया गया है उनसे भी किसी कहानी का पता चलता है. मई 2018 में जब मोदी सरकार के दौरान पेट्रोल की कीमतों मे वृद्धि हो रही थी, देखा गया कि कुमार ने 2012 के एक पुराने ट्विट को डिलीट कर दिया जिसमें यूपीए सरकार के दौरान पेट्रोल की बढ़ती कीमतों पर टिप्पणी की गई थी.

खासतौर पर पिछले तीन वर्षों के दौरान अनेक मोर्चों पर प्रधानमंत्री के कार्यों को लेकर उनके ट्विट देखने को मिले हैं. कुछ अन्य अभिनेताओं ने भी अपने सोशल मीडिया पेज पर ऐसा ही किया है- कंगना रानौत ने तेजी के साथ और कुछ ने कभी कभार. मिसाल के तौर पर कुमार ने प्रायः फिटनेस को लेकर मोदी के ट्विट को दुहराया है. उन्होंने मोदी की अमेरिका यात्रा पर ट्विट किया, कोरोना महामारी के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा घोषित जनता कर्फ्यू का पालन करने के लिए ट्विट किया और ब्रिटिश एडवेंचरर बेयर ग्रिल्स के साथ मोदी के इंटरव्यू की चर्चा की.

कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान तैयार किए गए एक विज्ञापन में, जो जून 2020 में जारी हुआ, कुमार ने प्रधानमंत्री की बात को स्वर दिया जब उन्होंने लोगों से “आत्मनिर्भर” होने की अपील की. उन्होंने इसे इस संदर्भ में कहा कि जब वे घर से बाहर निकलें तो अपनी सुरक्षा का ध्यान रखें. एक डॉक्टर और कम्युनिटी मेडिसिन की एसोसिएट प्रोफेसर अक्सा शेख ने उस समय मुझसे कहा कि, “ऐसा नहीं कि मैं अक्षय कुमार और भारत सरकार से कोई महान या बुद्धिमानी वाली बात की उम्मीद करती थी लेकिन यह वीडियो उन हजारों लोगों का उपहास करता है जिनकी मौत हो गई. अभी तो हमने इसका चरम रूप भी नहीं देखा है. अभी तो हमारे यहां समूह वाली इम्युनिटी भी विकसित नहीं हुई है... सबसे ज्यादा पाखंडपूर्ण बात तो यह है कि इन्ही अक्षय कुमार ने दो महीने पहले एक संदेश के जरिए लोगों से अपील की थी कि वे सरकार की बात पर ध्यान दें और किसी तरह की बहादुरी दिखाए बगैर खुद को घर के अंदर रखें.”

लेकिन कुमार की सरकार समर्थक छवि बहुत बुलेटप्रूफ नहीं है. दिक्कत तब पैदा हुई जब अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु हुई और बॉलीवुड में एक भूचाल जैसा आ गया. अभिनेता राजपूत मूलतः बिहार के थे और ‘जस्टिस फॉर सुशांत’ नारा बीजेपी के लिए लोगों को जोड़ने वाला नारा बन गया था क्योंकि यह घटना बिहार राज्य के चुनाव से एकदम पहले हुई थी. सरकार समर्थक समाचार चैनलों और ट्रोल करने वालों के गिरोह ने किसी बड़े षडयंत्र की थ्योरी का प्रचार किया, हत्या के आरोप लगाए और इसके लिए बलि का बकरा बनाने के मकसद से बॉलीवुड में एक आक्रामक अभियान शुरू किया. जल्दी ही कुमार भी इसकी चपेट में आ गए.

सितंबर 2020 में प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर वाले आवाहन को ध्यान में रखते हुए कुमार ने देश में ही विकसित एक ऑन लाइन गेम की घोषणा की जिसका नाम फियरलेस ऐंड यूनाइटेड गार्ड्स या फाओ-जी था. इसे मोबाइल गेम बनाने वाली कंपनी एनकोर ने तैयार किया था. फाओ-जी को विश्व स्तर पर लोकप्रिय पब-जी के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया था. चीनी ऐप के खिलाफ मोदी सरकार के जेहाद के फलस्वरूप पब-जी को प्रतिबंधित कर दिया गया था. अक्षय कुमार के अनुसार इस खेल से होने वाली आय का 20 प्रतिशत ‘भारत के वीर’ कोष में जाना था. लेकिन सुशांत सिंह राजपूत के समर्थकों ने इसमें अड़चन पैदा कर दी-- उनका आरोप था कि फाओ-जी की सारी अवधारणा राजपूत ने तैयार की थी. इसके बाद यू ट्यूब पर सक्रिय बिहार के एक व्यक्ति ने सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले से किसी आधार के बगैर अक्षय कुमार को जोड़ दिया और फिर तुरंत कुमार ने उसे मानहानि का नोटिस जारी करते हुए 500 करोड़ रुपए के हर्जाने की मांग की.

जैसे जैसे राजपूत की मृत्यु की जांच का काम आगे बढ़ा और ड्रग का धंधा करने वालों के साथ बॉलीवुड के लोगों के संबंधों की खोजबीन शुरू हुई, समूचा फिल्म उद्योग जनता के सामने एक सवालिया निशान बनकर खड़ा हो गया. कुमार ने तुरंत एक वीडियो जारी किया जिसमें बड़ी सहजता के साथ जनता के रोष को संबोधित किया गया था और यह स्वीकार किया गया था कि निश्चित तौर पर इस उद्योग में ड्रग का इस्तेमाल करने वाले कुछ लोग हैं लेकिन यह भी कहा गया था कि यह एकमात्र ऐसा उद्योग नहीं है जहां नशीले पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता हो और अभिनेताओं को निशाना बनाना सही तरीका नहीं है. सुशांत सिंह राजपूत के मामले में गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग के लिए रिपब्लिक टीवी तथा टाइम्स नाउ समाचार चैनलों के खिलाफ अनेक फिल्म निर्माता अदालत में गए और उनमें अक्षय कुमार भी शामिल थे. इसे बॉलीवुड की एकता कायम रखने के एक दुर्लभ उदाहरण के रूप में देखा गया.

अक्टूबर में अक्षय कुमार की ही ताजा फिल्म लक्ष्मी बम के ट्रेलर के रिलीज होने के बाद इसके बहिष्कार की मांग तेज हो गई. यह एक तमिल फिल्म का हिंदी संस्करण था और इस हॉरर कॉमेडी में अक्षय कुमार एक महिला किन्नर की भूमिका में नजर आते हैं जिस पर किसी प्रेत का प्रभाव है. फिल्म पर लोगों ने ऑन लाइन माध्यम के जरिए इस बात पर आपत्ति प्रकट की कि “बम” शब्द के साथ किसी देवी का नाम जोड़ा गया है और साथ ही अलग अलग धर्मों के बीच फिल्म में दिखाए गए रोमांस पर भी लोगों ने ऐतराज किया. कुमार की आलोचना करते हुए उन्हें “कनाडा कुमार”, “फर्जी राष्ट्रवादी” और “पाकिस्तान का दोस्त” कहा गया. ट्विटर पर “#शेम ऑन यू अक्षय कुमार” के साथ साथ “#बॉयकॉट लक्ष्मी बम” खूब चला. फिल्म की प्रोड्यूसर शबीना खान को “कश्मीरी अलगाववादी” कहा गया. प्रशांत पटेल उमराव नाम के एक वकील ने, जिनका दूसरों के काम में बाधा डालने का अपना ही इतिहास है, उस भीड़ का नेतृत्व किया जो कुमार की यह कहकर भर्त्सना करती थी जिसमें कहा गया था कि इनका “व्यापारिक लाभ के लिए इस्लाम को बढ़ावा देने का इतिहास” है.

अचानक ही हिंदुत्व के अनुयायियों द्वारा कुमार की खामियों के बारे में गड़े मुर्दे उखाड़े जाने लगे. 2012 में उनके तथा कुछ अन्य लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी कि उन्होंने ओएमजीः ओह माई गॉड फिल्म में धार्मिक भावनाओं को आहत की है. इस फिल्म में पूर्व बीजेपी सांसद परेश रावल ने भगवान के खिलाफ मुकदमा चलाने की कोशिश करने वाले एक नास्तिक की भूमिका निभाई है जबकि कुमार ईश्वर की भूमिका में हैं. इस फिल्म का मकसद धर्म के व्यवसायीकरण और फर्जी महात्माओं के जमावड़े पर व्यंग्य पैदा करना था लेकिन हिंदुत्ववादी समूहों को यह रास नहीं आया.

हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने सूचना और प्रसारण मंत्री से संपर्क कर दावा किया कि फिल्म का नाम लक्ष्मी बम अत्यंत आपत्तिजनक और अपमानजनक है तथा यह फिल्म “लव जेहाद को बढ़ावा देती है.” हिंदू सेना ने पहले भी ओएमजी का विरोध किया था लेकिन उसके हाथ कुछ नहीं लगा. गुप्ता का मानना है कि कुमार का यह आक्रामक इतिहास और बीजेपी के साथ उनका संबंध दुहरे चरित्र का परिचायक है. उन्होंने कहा, “बीजेपी ने अब उन्हें गले लगा लिया है और माफ कर दिया है. यह बीजेपी का दो चेहरा है.”

फिल्म निर्माता ने यह विरोध देखते हुए शीर्षक से “बम” शब्द हटा दिया और फिल्म का नाम महज लक्ष्मी रख दिया. विष्णु गुप्ता इससे भी बौखला गए. उन्होंने कहा, “यह महज पैसा कमाने वाली राष्ट्रवादी छवि है. बीजेपी के साथ अपने को जोड़ कर लोग समझते हैं कि वे मुनाफे में रहेंगे. लोग राष्ट्रवाद की लहर पर सवारी गांठना चाहते हैं. लेकिन सत्ता में बीजेपी हो या कांग्रेस, हमें इससे कोई मतलब नहीं.”

फिल्म लक्ष्मी मूलतः थिएटर में रिलीज के लिए बनी थी लेकिन उसे नवंबर में डिजनी + हॉट स्टार पर रिलीज किया गया. फिल्म समीक्षकों ने इस पर बमबारी की लेकिन जिन चैनलों पर रिलीज हुई उन्होंने कहा कि बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने देखा.

हिंदुत्व के अनुयायियों द्वारा कुमार की खामियों के बारे में गड़े मुर्दे उखाड़े जाने लगे. 2012 में उनके तथा कुछ अन्य लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी कि उन्होंने ओएमजीः ओह माई गॉड फिल्म में धार्मिक भावनाओं को आहत की है.

अभी हाल में ऑन लाइन शो तांडव के साथ कुमार के संबंधों को लेकर उन पर प्रहार किया गया क्योंकि तांडव में उनकी सास डिंपल कपाडिया ने अभिनय किया है. इस आरोप के बाद कि इसमें हिंदुओं का अपमान किया गया है, निर्माताओं ने इसके कुछ दृश्य को काट दिया. इसके अलावा कुमार की एक और भावी फिल्म बेलबॉटम के बहिष्कार की मांग भी शुरू हो गई है.

काजल श्रृंगला एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बीजेपी की समर्थक हैं जिनको ऑनलाइन बहुत बड़ी संख्या में लोग फॉलो करते हैं. उन्होंने मुझसे कहा, “मैं उनके अंदर एक दुहरा मानदंड देखती हूं.” श्रृंगला के अनुसार फिल्म की रिलीज का समय देखकर कुमार कुछ “खास किस्म की” टिप्पणियां करते हैं जबकि उनकी पत्नी प्रधानमंत्री और हिंदुओं का मजाक उड़ाती हैं.

पिछली दिवाली में कुमार ने अपनी नई फिल्म राम सेतु की घोषणा की. उन्होंने भगवा गमछे के साथ अपना एक पोस्टर साझा किया जिसमें पृष्ठभूमि में भगवान राम की फोटो लगी हुई है. विष्णु गुप्ता को यह बात भी पसंद नहीं आई कि वह अपने को हिंदू राष्ट्रवादी दिखाना चाहते हैं. उन्होंने कहा, “अब इस समय राम मंदिर की लहर है इसलिए लोग इसे देखेंगे. लेकिन इसे कायदे से बनाना होगा. क्या वे सच दिखा सकेंगे?”

अक्षय कुमार पर हाल ही में उस समय अवसरवादी होने का आरोप लगाया गया जब कुछ ऐसे पुराने वीडियो सामने आए जिसमें उन्होंने फालतू किस्म के हिंदू रीति रिवाजों के खिलाफ बातें कही हैं. एक अवसर पर बातचीत के दौरान उन्होंने कहा- “मंदिर शब्द की जरूरत क्या है? मंदिर का अर्थ है मन के अंदर. हर सवालों का जवाब खुद हमारे अंदर है.” कुमार ने यह भी कहा था कि अब हर छह महीने पर वह वैष्णो देवी की यात्रा पर नहीं जाते. एक अन्य इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि मंदिरों में “बहुत बर्बादी होती है” और कहा कि अगर आप अच्छा बनना चाहते हैं तो “जरूरी नहीं कि मंदिर में जाएं.”

लेकिन कुमार अभी इस मूड में नहीं हैं कि वह अपने हिंदुत्व समर्थक प्रशंसकों के आधार को खो दें. अभी इसी वर्ष जनवरी में उन्होंने एक वीडियो जारी किया जिसमें उन्होंने घोषणा की थी कि ध्वस्त बाबरी मस्जिद की जगह पर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए वह दान दे रहे हैं. उन्होंने रामायण में वर्णित धार्मिक राम सेतु के निर्माण के बारे में एक कहानी का भी बयान किया. ऐसा लगता है कि यह वीडियो एक ही साथ दो चीजों के प्रचार के लिए है : कुमार की आने वाली फिल्म और सरकार की राम मंदिर परियोजना. उन्होंने जनता से अपील की कि “वह ऐतिहासिक राम मंदिर के निर्माण के लिए अपनी क्षमता अनुसार योगदान करे” और अंत में उन्होंने “जय श्रीराम” कहा.

(अंग्रेजी कारवां के 1 फरवरी 2021 के अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का हिंदी में अनुवाद आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)