जोधपुर का सेशन कोर्ट परिसर 9 फरवरी को खचाखच भरा था. दोपहर दो बजे तक करीब 200 लोगों की भीड़ बिल्डिंग के बाहर जमा हो चुकी थी. भीड़ में हर उम्र और अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोग थे. हालांकि, जवान लड़कियों की तादाद ज्यादा थी. कुछ जींस और स्वेटशर्ट पहने थीं; कुछ ने सलवार-कमीज और ऊनी स्वेटर डाले हुए थे. कई लोग शहर के बाहर से आए थे और अपने साथ छोटे रुकसैक और कपड़े लेकर चल रहे थे. एक परिवार ने मुझे बताया कि वह हजार किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से आया है; एक आदमी कोई दो हजार किलोमीटर की दूरी तय कर पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी से आया था.
भीड़ को काबू में रखने के लिए दोपहर 2 बजे के बाद पुलिस ने बिल्डिंग के गेट पर अर्धवृत्त आकार में हदबंदी करनी शुरू कर दी. लोगों का हुजूम लगातार बढ़ता चला जा रहा था और सभी की नजरें परिसर के गेट पर जमी थीं.
थोड़ी देर बाद एक नीले रंग की वैन, जिस पर “रायट कंट्रोल” लिखा था, गेट के अंदर दाखिल हुई. वैन के चारों तरफ अफरातफरी मच गई. कुछ वैन के पीछे “बापू! बापू!” चिल्लाते हुए भागने लगे. सीटियां बजाते और लाठियां भांजते, पुलिसकर्मी उन्हें वैन से दूर धकेल रहे थे. तोतिया रंग की सलवार-कमीज पहने और हाथों में अपना बैग और स्मार्टफोन थामे एक औरत वैन के साथ-साथ दौड़ रही थी. कोर्ट बिल्डिंग से थोड़ा पहले, जब वैन दायें मुड़ी तो वह सामने आ गई और अपने दोनों हाथों को याचना की मुद्रा में जोड़कर “बापू! बापू!” चिल्लाने लगी.
जिस बूढ़े इंसान को वह पुकार रही थी, जब उसकी नजरें उससे मिलीं तो उसके चेहरे पर सहसा मुस्कान खिल आई. वैन में मोटी-मोटी जालियों वाली खिड़की के पीछे बैठा वह आदमी आसाराम यानी आसुमल हर्पलानी यानी स्वयंभू गॉडमैन था. बापू ने आशीर्वाद की मुद्रा में अपना हाथ उठाया. औरत को लगभग बचाते हुए वैन ने तीखा मोड़ काटा और परिसर के पिछले गेट की तरफ मुड़ गई. आम लोगों और मीडिया वालों को कोर्ट तक पहुंचने न देने के लिए पुलिस पूरे परिसर में फैली हुई थी.
भीड़ के बीच से रास्ता बनाते हुए, मैं किसी तरह पीछे वाले प्रवेश द्वार तक पहुंची. आसाराम वैन के दरवाजे पर रुका और अपने चाहने वालों के लिए आशीर्वाद की मुद्रा में दोनों हथेलियां उठाईं. 75-वर्षीय बापू कहलाने वाले उस शख्स की त्वचा पीली पड़ गई थी और आंखें सुर्ख लाल थीं. उसने कड़क सफेद धोती-कुर्ता, क्रीम रंग का स्वेटर और आसमानी रंग की ऊनी टोपी पहन रखी थी. उसके कंधे से सफेद रंग की शॉल लटक रही थी और एक हाथ में छड़ी थी. दर्जन भर पुलिसकर्मियों से घिरे आसाराम ने कोर्ट में प्रवेश किया. उस पर अपने जोधपुर-स्थित आश्रम में, एक सोलह साल की लड़की से कथित तौर पर बलात्कार का मुकदमा चल रहा था. यौन उत्पीड़न, गलत ढंग से बंदी बनाने और धमकाने के साथ-साथ, उस पर प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस एक्ट (पोस्को) के तहत भी आरोप थे. इसके अलावा, अहमदाबाद में दर्ज एक और बलात्कार का आरोप भी उस पर था. उसी मामले में शिकायतकर्ता की छोटी बहन ने आसाराम के 45-वर्षीय पुत्र नारायण साईं पर भी बलात्कार का मामला दर्ज किया था.
दिसंबर 2013 में जोधपुर मुकदमा शुरू होने के बाद से ही पुलिस आसाराम को नियमित रूप से जेल और कोर्ट के चक्कर लगवा रही है. शुरुआत में इससे भी भारी भीड़ को नियंत्रित करना पड़ता था. हालांकि अब भीड़ में कमी आई है लेकिन अब भी जो लोग जमा होते हैं वे अपने गुरु के प्रति श्रद्धा में उतने ही जोशोखरोश से भरे होते हैं.
कोर्ट की लिफ्ट खराब थी इसलिए आसाराम को सीड़ियों के रास्ते ले जाया गया. पुलिस को चकमा देकर, जो करीब 50 लोग बिल्डिंग के प्रवेश द्वार तक पहुंचने में कामयाब हुए थे, वे “बापू! बापू!” का जाप करने लगे. जैसे-जैसे आसाराम सीड़ियां चढ़ रहा था, लोगों में आतुरता बढ़ती जा रही थी. वे सभी अपने हाथ उठाकर और पंजों के बल खड़े होकर, अपने श्रद्धेय की एक झलक पा लेना चाहते थे. आसाराम मुड़ा और उसने अपनी हथेली उनकी तरफ बढ़ाई. “बापू!” की कातर आवाज इमारत में गूंजने लगी. फिर अचानक पुलिस सीटियाँ बजाती हुई हरकत में आई और मुस्तैदी से भीड़ को तितरबितर कर दिया.
अगस्त 2013 की एक धूसर और बूंदाबांदी वाली दोपहर को मैं मध्य उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर कस्बे में पहुंची. जिस 16-वर्षीय लड़की का केस जोधपुर में चल रहा था, मैं वहां उसके पिता से मिलने आई थी. लड़की के द्वारा शिकायत दर्ज किए अभी एक हफ्ता ही बीता था और तमाम मीडिया परिवार पर टूट पड़ा था. पिता परेशान होकर पत्रकारों से मिलना बंद कर चुके थे. उनके घर पहुंचने के बाद, मैंने हस्तलिखित अर्जी उनके दोस्त और पड़ोसी के हाथों अंदर भिजवाई और उन्हें किसी तरह मिलने के लिए राज़ी कर लिया.
मुझे पिछवाड़े से अंदर ले जाया गया और मेरा परिचय एक दूधिया रंग का कुर्ता-पायजामा पहने लंबे-चौड़े आदमी से करवाया गया. अपनी बेटी के साथ हुए उस खौफनाक हादसे से वे अभी तक सदमे में थे. उन्होंने रोते-रोते अपने परिवार को आपबीती सुनाई.
परिवार के सभी सदस्य आसाराम के शिष्य थे. उन्होंने शाहजहांपुर आश्रम को बनाने में आर्थिक योगदान भी दिया था. “हम उनको भगवान की तरह पूजते थे,” पिता ने बताया. आसाराम के इस उपदेश पर विश्वास करते हुए कि उनके आश्रम में शिक्षित बच्चा, वांछित मूल्यों के साथ पलेगा, निरीह माँ-बाप ने अपने तीन बच्चों में से दो को, मध्य प्रदेश-स्थित छिंदवाड़ा जिले के आश्रम में भेज दिया.
फिर एक दिन उन्हें बेटी से संबंधित फोन आया. वह 7 अगस्त 2013 का दिन था. शिल्पी नामक हॉस्टल वार्डन, जो अब केस में सह-आरोपी है, ने “हमें बताया कि हमारी बेटी की तबीयत बिगड़ गई है, इसलिए हमें तुरंत छिंदवाड़ा आश्रम पहुंच जाना चाहिए.” चिंतित मां-बाप अगले दिन ही, लड़कियों के हॉस्टल में अपनी बेटी से मिलने छिंदवाड़ा पहुंच गए. वहां जाकर उन्हें पता चला कि उसे दौरा पड़ा था. “वार्डन ने हमें बताया कि कुछ दुष्ट आत्माएं हमारी बेटी में प्रवेश कर चुकी हैं, जिन्हें केवल आसाराम ही निकाल सकते हैं,” पिता ने याद करते हुए कहा. “उसने हमें जल्द-से-जल्द, उनसे मिल लेने के लिए कहा.”
वार्डन ने बताया कि आसाराम छिंदवाड़ा आश्रम में नहीं, बल्कि दिल्ली में हैं. जब लड़की को लेकर उसके मां-बाप दिल्ली पहुंचे तो पता चला, वे जोधपुर आश्रम के लिए निकल गए हैं. आखिरकार, 14 अगस्त को वे जोधपुर पहुंचे और आसाराम से मिलने में कामयाब रहे. आसाराम ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे उनकी बेटी में प्रविष्ट दुष्ट आत्माओं से उसे छुटकारा दिलाने के लिए अनुष्ठान करेंगे.
अगली रात, आसाराम ने मां-बाप और बेटी को अपनी कुटिया में बुलाया. थोड़ी देर मंत्रो का जाप करने के बाद, उसने उनसे जाने के लिए कहा. “वे मेरी बेटी को पूजा के लिए अपनी कुटिया के अंदर ले गए. हमें उन पर पूरा-पूरा भरोसा था इसलिए हमने उसे बेखौफ उनके साथ छोड़ दिया और खुद बाहर आकर भजनों का जाप करने लगे.”
लड़की करीब एक घंटे बाद बाहर आई, “वह रो रही थी और सदमे में थी,” पिता ने बताया. पूछने पर उसने, शाहजहांपुर वापिस चलने के लिए कहा. इस तरह, वे अगली सुबह अपने घर लौट गए. वापिस लौटने पर, लड़की ने अपनी आपबीती मां को बताई और मां ने पिता को. “उन्होंने उसे दूध का गिलास पीने को कहा और फिर उसके साथ बलात्कार किया,” पिता ने बताया. “उन्होंने मेरी बेटी के साथ जबर्दस्ती की. उसने प्रतिरोध किया.” चार्जशीट में, लड़की के साथ आसाराम द्वारा किए गए व्यवहार का उद्वेलित कर देने वाला विवरण दिया गया है: आसाराम ने अपने कपड़े उतार दिए और लड़की को मौखिक सेक्स करने के लिए मजबूर किया और जब वह रो रोकर प्रतिरोध कर रही थी, वह उसके शरीर को चूमने लगा और उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया. किसी को बताने पर, लड़की के माता-पिता और परिवार के सदस्यों को मार डालने की धमकी भी दी गई.
लड़की के मां-बाप बहुत गुस्से में थे. “हम आसाराम से तुरंत मिलना चाहते थे. हम दिल्ली गए जहाँ वे सत्संग कर रहे थे, लेकिन उन्होंने हमसे मिलने से साफ इनकार कर दिया.” फिर वहां से सीधा वे सबसे नजदीक पड़ने वाले, कमला नगर पुलिस थाने में गए और अपनी शिकायत दर्ज करवाई.
जब 2013 में पीड़िता के पिता मुझे घटनाक्रम सुना रहे थे वे बहुत गुस्से में थे. “मेरा उन पर इतना भरोसा था कि अगर मैंने उसे उस रात उस हालत में ना देखा होता तो मैं अपनी बेटी पर भी यकीन नहीं करता,” उन्होंने कहा. “मुझे अफसोस है कि मेरी बेटी ने तुरंत हमें नहीं बताया, वरना मैं कुटिया के बाहर पड़े पत्थरों से उसी वक़्त उसका सर फोड़ देता.”
मैं जब उनसे दिसंबर 2016 में दुबारा मिला तो वे बहुत परास्त लग रहे थे. दुमंजिला घर के सामने जब मैं उनके छोटे से दफ्तर में दाखिल हुआ तो मैंने एक आदमी को वहां कागजात छांटते और डाक पर दस्तखत करते सामने बैठा पाया. मुझे यह समझने में कुछ वक़्त लग गया कि वे ही पीड़िता के पिता हैं. इन तीन सालों में, वे दस साल के बराबर बुढ़ा गए थे और बहुत कमजोर लग रहे थे. उनके सर के बाल भी लगभग झड़ चुके थे.
एक समय में उनका फलता फूलता ट्रांसपोर्ट का बिजनेस था. उनके पास दस से भी ज्यादा ट्रक हुआ करते थे. आसाराम के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने में, एक-एक करके अधिकतर ट्रक बिक गए. सुनवाई के लिए जोधपुर के चक्कर लगाते-लगाते उनके परिवार का जीवन भी अस्तव्यस्त हो गया. “मैं बता नहीं सकता, यह मुकदमेबाजी कितनी मुश्किल और दर्दनाक चीज़ है,” उन्होंने कहा. “यह भी कोई ज़िन्दगी है? हमें एक ऐसे शहर के चक्कर लगाने पड़ते हैं जो हमारा नहीं है. लेकिन हर कुछ दिनों बाद, हम अपने सामान के साथ वहां पड़े होते हैं. शाम को पांच बजे, कोर्ट ख़त्म हो जाता है. एक अनजाने में शहर में लंबे दिन और लंबी रातों में अब कोई क्या करे? एक छोटे से होटल के कमरे में लेटे-लेटे यही सोचते पड़े रहते हैं कि यह हमारे साथ क्या हुआ.”
उन्हें उम्मीद है कोर्ट 2017 तक अपना फैसला सुना देगा. आसाराम ने “ईश्वर के नाम पर हमें धोखा दिया है, जबकि वह संत के भेस में एक दरिंदा है,” उन्होंने कहा. “मुझे बस अब फैसला चाहिए और उसको अधिकतम सजा. सभी अभियोजन पक्षों के बयानों पर बहस हो चुकी है. अब सिर्फ बचाव पक्ष के बयान होने बाकि हैं. मुझे आशा है कि अगले कुछ महीनों में फैसला आ जायेगा.”
लड़की द्वारा शिकायत दर्ज किये जाने के बाद, चश्मदीदों पर एक के बाद एक हुए हमलों और हत्याओं के कारण परिवार अपनी सुरक्षा को लेकर सहमा हुआ था. मारे गए लोगों में परिवार के मित्र और गवाह, कृपाल सिंह भी थे. पीड़िता के पिता अपने ही सुरक्षाकर्मियों से आश्वस्त नहीं दिख रहे थे, जिन्हें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी सुरक्षा के लिए लगाया गया था. हालांकि, मुझे अंदर का रास्ता एक विश्वासपात्र ने दिखाया था, पिता की शिकायत थी कि मुझे अंदर आने देने से पहले उसे जांच लेना चाहिए था. “आपको तो पता है, इस स्थिति में, मैं किसी पर भी भरोसा नहीं कर सकता.”
परिवार के सदस्यों ने अपना कहीं आना-जाना बहुत कम कर दिया है. घर के तीन मर्द (पीड़िता के पिता और दो भाई) तभी घर से बाहर निकलते थे जब जरूरी हो; जबकि औरतें घर के अंदर ही रहती थीं. उनकी बेटी “पिछले साढ़े तीन सालों से एक कैदी की तरह रह रही है,” पिता ने कहा. “वह घर से बाहर नहीं निकल सकती. वह एक जवान बच्ची है और यही वक़्त है, जब उसे दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए अपना समय पढ़ाई-लिखाई में लगाना चाहिए. लेकिन रोज जो खतरा हम झेल रहे हैं उस वजह से वह घर से बाहर नहीं निकल सकती.” उनके बेटों को भी इस सबका सामना करना पड़ता है, और वे ना तो नियमित पढ़ाई-लिखाई कर सकता है ना कोई काम.
वे भले ही इस कानूनी लड़ाई से पस्त नज़र आते हों, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया को अंत तक ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. “हम इस लड़ाई को अंत तक लड़ेंगे,” उन्होंने कहा. “अगर वे मुझे मार डालते हैं, तो मेरे बच्चे इस लड़ाई को लड़ेंगे. जब तक हममें से एक भी जिंदा है हम लड़ेंगे, लेकिन इस आदमी को नहीं छोड़ेंगे. तब तक हार नहीं मानेंगे, जब तक उसे हमेशा के लिए जेल की सलाखों के पीछे ना भेज दें.”
एक पाखंडी गॉडमैन के रूप में आसाराम भारत में कोई अनोखा नहीं है. सालों से सत्य साईं बाबा, श्रीश्री रवि शंकर और जग्गी वासुदेव जैसे लोग, लाखों अनुयाइयों की धार्मिक दुर्बलताओं के साथ खिलवाड़ और उनके बल पर अपने साम्राज्य खड़े करते रहे हैं. इन साम्राज्यों के भीतर, क्या क्या गुल खिलाये जाते हैं वे अमूमन लोगों की नजरों से छिपे रहते हैं. ये कैसे खड़े किये जाते हैं, कैसे इनका संचालन होता है और यहां कैसी-कैसी कारस्तानियां की जाती हैं, इसका खुलासा कभी-कभार ही मीडिया में होता है.
आसाराम के मामले में, पीड़ितों और गवाहों के असाधारण साहस, जिन्होंने उसके खिलाफ जुबान खोलने की हिमाकत दिखाई, उसके उत्त्थान और पतन, उसके आश्रम और अनुयाइओं के बारे में खासी जानकारी मौजूद है. 2013 में, जोधपुर केस दायर होने के बाद और भी कई जानकारियां सार्वजानिक हुई हैं. उन्हें साथ मिलाकर जोड़ने से एक ऐसे शख्स की तस्वीर उभरती है, जो अपनी अपार धन-सम्पदा, धार्मिक और राजनीतिक प्रभुत्व के जरिये बेहद ताकतवर बन बैठा था. लेकिन, जैसे-जैसे आसाराम की ताकत में इजाफा हुआ और आश्रमों का जाल बढ़ता गया, उनके कई अनुयाइओं के लिए जीवन अकथनीय नर्क बनता चला गया.
आसुमल हर्पलानी उर्फ आसाराम का जन्म अप्रैल 1941 में सिंध इलाके के बेराणी गाँव में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है. द टेलीग्राफ के अहमदाबाद-स्थित पत्रकार बसंत रावत, जिन्होंने आसाराम के ऊपर अखबारों में बहुत लिखा है, ने मुझे इमेल साक्षात्कार में बताया कि गॉडमैन का जन्म “सिंधी समुदाय की एक बनिया उपजाति में हुआ.” 1947 में, बंटवारे के बाद परिवार अहमदाबाद आ गया, जहां आसाराम ने बचपन के कई साल बिताए. उसकी अपनी ही संस्था से प्रकाशित जीवनी, संत आसारामजी की जीवन झांकी, के अनुसार वह 1960 के मध्य में आध्यात्मिक गुरु लीलाशाह का शिष्य बना. लीलाशाह ने ही उसे आसाराम नाम दिया.
1972 में, आसाराम ने अहमदाबाद से करीब दस किलोमीटर दूर, साबरमती नदी के किनारे गुजरात के मोटेरा नामक कस्बे में एक कुटिया बनाई. रावत के मुताबिक, उसने ऐसा लीलाशाह द्वारा “सिंधी-बहुल कच्छ के तटवर्ती कस्बे में स्थित, गांधीधाम आश्रम से निकाले जाने के बाद किया.” मोटेरा से आसाराम ने अपने किस्म के हिन्दू धर्म का प्रचार करना शुरू किया. इसमें धर्मग्रंथों का सरल पाठ और तांत्रिक क्रियाएं शामिल थीं. बाद में, शोधकर्ताओं ने पाया कि जिस धार्मिक आचरण का वह प्रचार प्रसार करता हैं उसमे अनिष्टकारी कर्मकांड अनुष्ठान शामिल हैं, जिसे अमूमन काला जादू की संज्ञा दी जाती है. “आसाराम का आध्यात्मिक प्रोजेक्ट, मोहभंग हुए, शक्तिविहीन, लाचार लोगों, जिनमे अधिकतर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के हिंदी भाषी तथा आदिवासी शामिल थे, के लिए ही तैयार किया गया था,” रावत ने लिखा. “उनका नुस्खा : घरेलु दवाइयां, आध्यात्मिक प्रवचन, मंत्रोचारण और भक्तिभाव.”
मोटेरा स्थित आश्रम से आसाराम ने अपना साम्राज्य फैलाना शुरू किया. उसने नए नए केंद्र स्थापित किए और साल-दर-साल उसके अनुयाइओं की संख्या में इजाफा होता चला गया. उसके प्रवचनों के अलावा, एक और चीज़ जो लोगों को आकर्षित करती थी, वह थी: “मुफ्त भोजन और अन्य सुविधाएं, जो उन्हें उस वक़्त प्रदान की जातीं जब वे प्रवचनों को सुनने के लिए आश्रम जाते,” रावत ने बताया. “गुजरात के आदिवासी-बहुल क्षेत्रों, दक्षिणी राजस्थान और मध्य प्रदेश में भोजों का आयोजन किया जाता, जिनमे मुफ्त भोजन, बर्तन और कपड़े वितरित किए जाते थे.” आसाराम की अपनी वेबसाईट के हवाले से, आने वाले दशकों में आसाराम ने, अपने बेटे के साथ मिलकर, अपने साम्राज्य का विस्तार 19 देशों में फैले 400 आश्रमों तक कर दिया. आसाराम का दावा है कि दुनिया भर में उसके चार करोड़ अनुयाई हैं.
उसके साम्राज्य के प्रसार को इस बात से भी मदद मिली कि गुजरात समेत भारत के कई इलाकों में हिन्दू दक्षिणपंथी विचारधारा बहुत तेजी से फ़ैल रही थी. “आसाराम के उत्थान में 1985 के बाद से गुजराती मध्यम वर्ग के सुनियोजित हिन्दुकरण का भी हाथ है,” अहमदाबाद में रहने वाले समाजशास्त्री, अच्युत याग्निक ने बताया. “शुरू में बहुत से सिंधी, अन्य पिछड़े वर्गों और मध्यमवर्गीय दलित उनके अनुयाई बने. बाद के वर्षों में उच्च मध्यमवर्गीय के लोग भी उनमे शामिल हो गए.”
कांग्रेस पार्टी की गुजरात इकाई के पूर्व अध्यक्ष, अर्जुन मोधवाडिया के अनुसार, इस फैलाव में संदिग्ध भूमि अधिग्रहण भी शामिल है. आसाराम की “कार्यप्रणाली में खाली पड़ी सरकारी एवं नगर निगम की जमीन, और कभी-कभी निजी जमीनों, पर कब्जा कर लेना और फिर उसको नियमित करने के लिए दबाव बनाना शामिल था,” मोधवाडिया ने कहा. “उदाहरण के लिए, आसाराम ने सूरत में जमीन के बड़े टुकड़े पर कब्जा कर लिया. जब सूरत के निगम आयुक्त ने जमीन वापिस लेने की कोशिश की तो आसाराम के हजारों चेलों ने ऐसा हुड़दंग मचाया कि आयुक्त को मजबूरन वापिस लौटना पड़ा.”
आसाराम की संपत्ति इन सालों में कई गुना बढ़ गई. 2014 में शोधकर्ताओं द्वारा उसकी संपत्ति की कीमत 9000 से 10,000 करोड़ रुपए के बीच आंकी गई. “इसमें बैंकों में जमा धन, शेयर बाजार में लगाया पैसा, डिबेंचरस और सरकारी बांड शामिल हैं.” इस आंकलन में विभिन्न राज्यों में आसाराम के आश्रमों के कब्जे में जमीनों का मूल्य शामिल नहीं किया गया है.
जैसे-जैसे उसके भक्तों की संख्या बढ़ती गई, आसाराम राजनीतिज्ञों को भी आकर्षित करने लगा. उन्हें लगा कि वे उसके जरिए बड़ी तादाद में वोटरों को अपील कर सकते हैं. राजनीतिज्ञों में जो उनके अनुयाई रहे हैं, उनमे भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी, और नितिन गडकरी के अलावा, वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, प्रेम कुमार धूमल और उमा भारती भी शामिल हैं. वरिष्ठ कांग्रेसी नेता भी उसके अनुयाई रहे हैं, जिनमे दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और मोतीलाल वोहरा के नाम प्रमुख हैं.
राजनीति शास्त्र वैज्ञानिक, क्रिस्टोफ जेफरेले ने अपनी किताब, द गुरु इन साउथ एशिया, में एक निबंध में इंदिरा गांधी की विस्तार से चर्चा की है. उन्होंने लिखा कि भारत में राजनीतिज्ञों और गुरुओं के बीच संबंध को ना केवल जायज माना जाता है, बल्कि “राजीनीतिक स्वीकार्यता के लिए भी इसे जरूरी समझा जाता है.” ऐसे गुरुओं में तांत्रिकों को “दूसरों से कम तरजीह” दी जाती है. हिन्दू धर्म की मुख्यधारा के विपरीत, तांत्रिक पद्दति “यौन अनुभव के रूप में वासना का “गुणगान करती है और अहिंसा के मार्ग को छोड़कर, पशु बलिदान का आग्रह करती है. इसे निषेध आचारों को लांघने और काले जादू से भी जोड़ कर देखा जाता है.”
लेकिन तांत्रिक गुरुओं ने फिर भी राजनीतिज्ञों को अपनी तरफ आकर्षित किया है. “तंत्र और शक्ति के बीच की घनिष्ठता (खासतौर पर तांत्रिक गुरु की शक्तियां) से यह समझ आता है कि क्यों इतने सारे राजनीतिक नेता उनकी सेवाएं लेना चाहते हैं,” जेफरेले ने लिखा.
सबसे प्रमुख राजनेता, जिसने आसाराम के प्रति अपनी भक्ति जाहिर की वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जिनका खुद का शहर वडनगर, मोटेरा से केवल 90 किलोमीटर की दूरी पर है. मोदी और आसाराम के संबंध उन दिनों से हैं, जब दोनों को ही राष्ट्रव्यापी ख्याति प्राप्त नहीं हुई थी.
वर्ष 2000 के मध्य का एक विडियो है, जिसमे मोटेरा के आश्रम में आसाराम के भक्तों का जमावड़ा लगा है. इस जमावड़े में मोदी, जो उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री थे, आसाराम के नाम के कसीदे पढ़ रहे हैं. “यह मेरा सौभाग्य था कि मैं उनसे उस समय मिला जब मुझे कोई नहीं जानता था,” मोदी ने कहा. “उसी समय से बापू का मुझ पर आशीर्वाद रहा है और आज तक मुझे उनका स्नेह मिल रहा है.” आसाराम की वाणी में, मोदी ने आगे कहा, “यौगिक शक्ति का संचार है और उसमें विश्वास करने से, गुजरात में हम करोड़ों लोगों के सपने साकार होंगे.” उन्होंने जोड़ा, “मैं बापू के पवित्र चरणों में प्रार्थना करता हूँ, उन्हें नमन करता हूं. मैं इस विश्वास के साथ यहाँ आया हूं कि पवित्र बापू का स्नेह, उनका आशीर्वाद, उनकी शुभकामनाएं मुझमे एक नई शक्ति का संचार करेंगे, और मैं इसके लिए खुद को भाग्यशाली मानता हूं. मैं सौभाग्यशाली बापू के सामने सष्टांग प्रणाम करता हूं.”
लेकिन 2008 के बाद, जब उनकी असलियत लोगों के सामने आने लगी, राजनेता आसाराम से दूरी बनाने लगे. उसी साल 5 जुलाई को, साबरमती नदी में उनके मोटेरा आश्रम के नजदीक दो बच्चों की क्षतविक्षत अधजली लाशें बरामद हुईं. अभिषेक और दीपेश वाघेला नाम के ये बच्चे, आश्रम की दस एकड़ जमीन पर बने स्कूल में पढ़ते थे.
परिवार के इस भयानक त्रासदी से जूझने के दौरान उन्हें किसी किस्म का सरकारी सहयोग नहीं मिला. दीपेश के पिता, प्रफुल्ल वाघेला ने बताया कि उस समय गुजरात में आश्रम का इतना जबर्दस्त प्रभाव था कि पुलिस पहले तो एफआईआर भी दर्ज नहीं कर रही थी. “हमारे विरोध करने के बाद ही सरकार ने मामला सीआईडी को सौंपा. आखिरकार, 21 जुलाई 2008 को एफआईआर दर्ज हुई.”
अगस्त 2008 में मोदी-शासित गुजरात सरकार ने, इन मौतों की छानबीन हेतु हाई कोर्ट के अवकाशप्राप्त जज डी.के. त्रिवेदी के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया. आयोग ने अपनी रिपोर्ट जुलाई 2013 में दाखिल की, लेकिन इसके निष्कर्ष सार्वजनिक नहीं किए गए. इस बीच पुलिस ने अगस्त 2012 में, मोटेरा आश्रम के सात पदाधिकारियों के खिलाफ हत्या के आरोप-पत्र दाखिल कर दिए.
वाघेला ने पिछले महीने मुझे बताया कि वे मामले की पुन: छानबीन के लिए सुप्रीम कोर्ट में जाने की सोच रहे हैं. “हमारा केस यहां अहमदाबाद में अभी भी निचली अदालत में घिसट रहा है. जब भी हम कोर्ट जाते हैं, कभी सरकारी वकील व्यस्त होता है, कभी जज छुट्टी पर होता है, या, दूसरे मामलों में उलझा होता है. हमें नहीं मालूम कि हम क्या करें.” उन्होंने “दो बच्चों की हत्या की सीबीआई या किसी अन्य भरोसेमंद एजेंसी” से दुबारा जांच की मांग की है. उनके मुताबिक, गुजरात पुलिस ने “कभी मामले की सही दिशा में जांच नहीं की. वे बस अपराधियों को बचाना चाहते हैं.”
वाघेला ने इस मुत्तालिक राज्य सरकार को दोषी ठहराया, खासकर, मोदी को. मुख्यमंत्री के अपने पूरे कार्यकाल के दौरान गृह मंत्रालय, जिसके अधीन पुलिस आती है, भी उनके निजी चार्ज में रहा. “सब कुछ तत्कालीन मुख्यमंत्री के हाथ में था,” उन्होंने कहा. “लेकिन निष्पक्ष पुलिस जांच की बजाय, उन्होंने आयोग गठित कर दिया. आप बताइए वे ऐसा क्यों करना चाहेंगे? क्योंकि उस वक़्त आसाराम का गुजरात में बहुत वर्चस्व था.” उन्होंने आगे कहा, “अगर गुजरात सरकार ने, 2008 में ही सही कदम उठा लिए होते तो शायद बाद के पीड़ितों को बचाया जा सकता था.”
चूंकि गुजरात सरकार, आसाराम और मोटेरा की मौतों को लेकर कोई परोक्ष या अपरोक्ष संबंध स्थापित नहीं कर पाई, इसलिए आसाराम का न्याय व्यवस्था से आमना सामना 2013 में ही हो पाया, जब जोधपुर की पीड़िता ने अपना केस दायर किया. फिर उसी साल अक्टूबर में, सूरत की दो लड़कियों ने आसाराम और उनके पुत्र नारायण साईं के खिलाफ, बलात्कार, धमकियां देने और गलत ढंग से बंदी बनाए जाने को लेकर केस दायर कर दिया. पिछले साल दिसंबर में साईं को भी गिरफ्तार कर लिया गया.
जांचकर्ता अपने केस को मजबूत करने में लग गए. हर एक मामले में, कथित पीड़ितों के बयान बेहद महत्वपूर्ण थे, लेकिन पुलिस ने घटनाओं की सही एवं विस्तृत तस्वीर बनाने और आश्रम में आरोपी के बर्ताव को समझने के लिए अलग-अलग किस्म के गवाहों से भी बात की. इनमे आश्रम के पूर्व अनुयाई, पीड़ितों के परिवारों के सदस्य और वे मित्र जो उनके आश्रम से जुड़ाव के गवाह थे, शामिल थे. अकेले जोधपुर मामले में ही, अभियोजन पक्ष ने केस में मदद करने वाले 50 गवाहों की पहचान की थी.
फिर गवाहों पर हमले होने लगे.
28 फरवरी 2014 की सुबह, सूरत की बहनों में से एक के पति के ऊपर उस वक़्त चाकू से कई वार किए गए, जब वे अपने घर लौट रहे थे. जख्म गंभीर थे लेकिन वे बच गए. एक पखवाड़े से भी कम समय के भीतर, 10 मार्च 2014 को, पूर्व भक्त और आसाराम के विडियोग्राफर, राकेश पटेल, जो सूरत मामले में गवाह बन गए थे, पर शहर में मोटरसाइकिल सवारों ने चाकू से हमला कर दिया. पटेल भी बच गए. एक हफ्ते के अन्दर ही, कपड़ा व्यापारी दिनेश भाग्चंदानी पर, दो मोटरसाइकिल पर सवार आदमियों ने एसिड फेंका. वे भी सूरत केस में गवाह थे. एसिड से झुलसने के बावजूद भी, भाग्चंदानी हमलावरों में से एक को धर-दबोचने और पुलिस के हवाले करने में कामयाब रहे.
किशोर बोडके नामक इस हमलावर की जब पुलिस ने पड़ताल की तो पता चला वह बस्वराज बासु के इशारों पर काम कर रहा था, जो खुद कर्णाटक के बीजापुर जिले का रहने वाला है और आसाराम के भक्तों में से एक है. “पूछताछ के दौरान आरोपी ने पुलिस को बताया कि वे कुल 12 लोग थे, जो मुख्य गवाहों को ठिकाने लगाने के मकसद से 18 फरवरी को सूरत आए थे,” सूरत के तत्कालीन कमिश्नर, राकेश अस्थाना, ने प्रेस कांफ्रेंस में बताया. “हमें शक है कि इन हमलावरों को आश्रम से पैसों की मदद दी गई होगी. ये पांच गिरफ्तार लोग, सुपारी लेकर काम करने वाले बदमाश नहीं हैं. ये साईं के भक्त हैं.”
अगला निशाना अम्रुत प्रजापति बने. वे एक आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं, जिन्होंने आसाराम के साथ 15 वर्षों तक काम किया. 2005 में उन्हें छोड़ने के बाद, प्रजापति आसाराम के घोर विरोधी बन बैठे और वे सभी मामलों में महत्वपूर्ण गवाह हैं. 23 मई 2014 को, राजकोट में प्रजापति के क्लिनिक पर एक आदमी, मरीज के रूप में दाखिल हुआ. जैसे ही प्रजापति उन्हें जांचने लगे, उसने पिस्तौल निकाली और उनके गले में गोली दाग दी. 17 दिन बाद उनकी मौत हो गई.
शाहजहांपुर के पत्रकार नरेंद्र यादव अगला निशाना बने. उन्होंने आसाराम और उनके पुत्र के खिलाफ केसों के बारे में कई रिपोर्टें छापी थीं. 17 सितंबर 2014 को जब यादव अपने दफ्तर से बाहर निकल रहे थे, दो हमलावरों ने उन पर वार कर दिया. वे बच गए.
जनवरी 2015 में, 36-वर्षीय अखिल गुप्ता की दो मोटरसाइकिल सवारों ने उस वक़्त गोली मारकर हत्या कर दी जब वे मुज्जफरनगर में अपने घर की तरफ पैदल लौट रहे थे. गुप्ता अहमदाबाद आश्रम को छोड़ने और सूरत केस में गवाह बनने से पहले, आश्रम में खानपान और हिसाब-किताब का काम देखते थे.
गवाह न केवल अपने घरों और कार्यस्थलों पर असुरक्षित थे, बल्कि उन अदालतों में भी, जहां वे अपनी गवाहियां देने जाते थे. गुप्ता के ऊपर हमले के करीब एक महीने बाद, 13 फरवरी 2015 को, 41-वर्षीय राहुल सचान के ऊपर जोधपुर सेशंस कोर्ट के बाहर हमला किया गया. राहुल, आसाराम के पूर्व सहायक थे, जो अब तीनों केसों में गवाह बन चुके थे. पुलिस को दिए गए सचान के बयान के अनुसार, उस दिन दोपहर के वक़्त जब आसाराम को कोर्ट से बाहर ले जाया जा रहा था, उन्होने अपने एक चेले को अपने गले पर गला काटने की मुद्रा में हाथ फेरते हुए, साचन पर हमला करने का इशारा किया. सत्यनारायण ग्वाला नाम का यह चेला, इशारा पाते ही सचान की तरफ बढ़ा और जैसे ही सचान पुलिस की गाड़ी में बैठने वाले थे, उसने पीछे से चाकू से उन्हें गोदना शुरू कर दिया. इस हमले से, सचान आंशिक रूप से लकवाग्रस्त हो गए. फिर 25 नवंबर 2015 को, वे रहस्यमयी तरीके से गायब हो गए. उन्हें आज तक ढूंढा नहीं जा सका है.
सैंतीस-वर्षीय महेंद्र चावला अगला निशाना बने. वे साईं के निजी सहायक के रूप में काम कर चुके थे और अब सभी मामलों में गवाह थे. 13 मई 2015 के दिन, हरियाणा के पानीपत जिले में उनके गांव में ही दो हमलावरों ने उन पर गोली चला दी. चावला अब आंशिक रूप से अपाहिज हैं और पुलिस सुरक्षा में रहते हैं.
दो महीने से भी कम समय बाद, 10 जुलाई 2015 को, 35-वर्षीय कृपाल सिंह की दो मोटरसाइकिल सवारों द्वारा उस वक़्त गोली मारकर ह्त्या कर दी गई जब वे बाजार से घर लौट रहे थे. कृपाल, जोधपुर पीड़िता के पारिवारिक मित्र थे और इस केस में उन्होंने कुछ हफ्ते पहले ही गवाही दी थी.
गवाहों पर इन हमलों के मामलों में, एक साल बाद ही पुलिस के हाथ कुछ बड़ी सफलता लग पाई. 15 मार्च 2016 को, दो साल की जद्दोजहद के बाद गुजरात एंटी-टेरोरिज्म स्क्वाड ने आसाराम के नजदीकी राजदां और अनुयाई, कार्तिक हलदर को छत्तीसगढ़ के उसके ठिकाने से गिरफ्तार किया.
पूछताछ से पता चला कि हलदर, जो अपने आपको आसाराम का “फ़िदाईन” बताता था, ने ही प्रजापति, गुप्ता और सिंह की हत्याओं की साजिश रची थी और उन्हें अंजाम देने में भी शामिल था. उसने पुलिस को यह भी बताया कि उसने पूरे देश भर से आसाराम के भक्तों से 25 लाख रूपये जमा किये थे और कि वह उन पैसों से गवाहों को मारने के लिए एके-47 राइफल खरीदने वाला था. उसने यह भी स्वीकार किया कि उसका इरादा, जोधपुर मामले के जांच अधिकारी, सहायक कमिश्नर चंचल मिश्रा, पर बम फेंकने का भी था.
इन सभी मामलों में, सरकार उन गवाहों की रक्षा करने में नाकायाब रही है जिनकी जान खतरे में थी. आसाराम के पूर्व निजी सहायक, राहुल सचान, का मामला तो खासतौर पर शोचनीय है. अगस्त 2015 में, अपने ऊपर हमले के छह महीने बाद और गायब होने के तीन महीने पहले, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इस बात की सनद हेतु शपथपत्र भी दिया था कि उनकी जान खतरे में है और कि सरकार द्वारा उन्हें प्रदान की गई सुरक्षा अपर्याप्त है.
वही शपथपत्र आज प्रेत बनकर हमारे सरों पर मंडरा रहा है. इसमें सचान ने साफ-साफ कहा था कि उन्हें उन लोगो से “लगातार जान की धमकियां मिल रही हैं” जो खुद को “आरोपी के इशारे पर काम करने का दावा कर रहे हैं.” उन्होंने आगे कहा, बहुत कोशिशों के बाद “मुझे उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिन के वक्त आठ घंटे के लिए सशस्त्र सिपाही मुहैया करवाया गया.” लेकिन इन घंटों के बाहर वे असुरक्षित थे. “मुझे रातों को नींद नहीं आती क्योंकि मैं लगातार आरोपी के फायरिंग दस्ते की गोलियों के डर के साए में जीता हूं,” उन्होंने लिखा. “मैं दिन में अपनी नींद पूरी करता हूँ, जब मेरा सुरक्षागार्ड मौजूद होता है.” उन्होंने बताया पुलिस ने उनसे कहा उनके ऊपर हमला “किसी बड़ी साजिश का हिस्सा नहीं है, ना ही उसका आरोपी से कोई लेनादेना है.” खतरे की गंभीरता की रौशनी में, उन्होंने लिखा, “मैं चाहता हूं मुझे मेरी सुरक्षा हेतु हथियारबंद गार्ड, किसी केंद्रीय संस्था द्वारा प्रदान करवाया जाए, ना की राज्य सरकार द्वारा.”
सचान ने कहा भी, “मेरी मौत धीरे-धीरे मेरे करीब आ रही है, महज मेरे इस जुर्म के लिए कि मैंने यह सुनिश्चित करना चाहा कि न्याय बना रहे और, खासकर, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार ना हो, उनकी इज्ज़त के साथ खिलवाड़ ना किया जाए.” उन्होंने दावा किया कि उन्होंने आसाराम को “भोली-भाली कमसिन उम्र की लड़कियों और महिलाओं को सम्मोहित करते हुए,” खुद अपनी आंखों से देखा है. “मैं सूरत और अहमदाबाद के मामलों में, कम से कम अपनी गवाही होने तक जीना चाहता हूं...जिस रफ्तार से गवाहों को मारा जा रहा है, या उन पर हमले हो रहे हैं, यह मेरी दिली तमन्ना है कि मरने से पहले, मैं ऐसे दरिदों का पर्दाफाश होते देखना चाहता हूँ ताकि इंसाफ जिंदा रह सके.”
25 नवंबर को, सचान के लापता हो जाने का ब्यौरा भी सरकार के शर्मनाक बेरुखी भरे रवैये को दर्शाता है. इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए साक्षात्कार में सचान के सुरक्षागार्ड विजय बहादुर ने कहा, “मुझे पता चला है कि साचन गार्ड अमित के साथ कैसरबाग पहुंच चुके हैं,” उस शाम जब उन्हें आखिरी बार देखा गया था. बहादुर ने कहा, “सचान ने तब गार्ड को लौट जाने के लिए कहा. ” “उन्होंने बस पकड़ी और कहीं निकल गए,” बहादुर ने कहा. “तभी से वे लापता हैं.” बहादुर ने ठीक इस घटना के बाद “लापता सचान” की सुरक्षा का जिम्मा संभाला, लेकिन उन्होंने 20 दिसंबर तक अपने से वरिष्ठ अफसरों को उनकी गुमशुदगी के बारे में आगाह नहीं किया, लापता होने के एक महीना बाद तक. “30 नवंबर से मैं, साचन के ठाकुरगंज के उनके किराए के मकान पर जा रहा हूं, लेकिन हर बार मैंने वहां ताला लगा पाया,” उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को बताया. बहादुर ने यह भी दावा किया कि सचान का फोन इस पूरे दौरान बंद आता रहा.
सुरक्षा प्रदान करवाने के लिए याचना हेतु दायर की गई याचिका में, साचन का प्रतिनिधित्व वकील बेन्नेट कास्तेलेनो कर रहे थे. बेन्नेट का जन्म मुंबई में हुआ लेकिन अब वे अपना समय भारत और न्यूज़ीलैण्ड के बीच बिताते हैं. वे महाराष्ट्र और गोवा बार कौंसिल में पंजीकृत हैं. एक ईमेल साक्षात्कार के जरिए बेन्नेट ने लिखा, “वे एक सीधे साधे इंसान थे जो बात करते हुए हकलाते थे; वे बहुत ही शालीन और प्यारे व्यक्ति थे.” साचन ने आसाराम के खिलाफ आवाज उठाना इसलिए जरूरी समझा, उन्होंने लिखा, क्योंकि “वे इस अपराधबोध के साथ जी रहे थे कि उन्हें पता था कि आसाराम औरतों और बच्चों का यौन शोषण करते हैं. वे उस वक़्त मजबूर थे क्योंकि वे अपने गुरु की भक्ति में अंधे हो गए थे. उन्हें बच्चों की चीखें सुनाई देती थीं और जब उन्होंने इसके बारे में अपने गुरु से सवाल किए तो उन्हें बताया गया कि इस शारीरिक हनन से लड़कियों को मोक्ष की प्राप्ति होती है.” सालों तक, बेन्नेट ने लिखा, सचान “अपने गुरु का पर्द्फाश करने से डरते रहे. वे इस अपराधबोध के साथ तब तक जीते रहे जब तक जोधपुर और गुजरात के पीड़ितों ने सामने आकर आसाराम की काली करतूतों का खुलासा नहीं कर दिया.”
बेन्न्नेट ने बताया कि सचान और भी उन कई परिवारों के संपर्क में थे, “जिनके बारे में उन्हें पता था कि आसाराम ने उनका अहित किया है.” और ताकि, “अधिक से अधिक पीड़ित सामने आएं.” उन्होंने जोड़ा, सचान के लापता होने के साथ ही ये संभावना भी ख़त्म हो गई सी लगती है. “वे भक्तों के दबाव में नहीं आए थे. वे अपने अपराधबोध की हर कीमत चुकाने को तैयार थे.”
बेन्नेट के अनुसार, धमकियों और रिश्वत के लालच के आगे, साचन जरा भी विचलित नहीं हुए. “एक आदमी, जिसे मैं एक साझे दोस्त के जरिए जानता था, जो संघ का करीबी होने का दावा करता था, ने मुझे इस कानूनी लड़ाई को रोकने के लिए 50 करोड़ रुपए देने की पेशकश की.” बेन्नेट ने इस पेशकश के बारे में साचन को बताया. “सचान को परखने के लिए मैंने उनसे कहा, 50 करोड़ ले लो और न्यूज़ीलैण्ड या किसी अन्य यूरोपीय देश में जा बसो. उन्होंने तुरंत कहा, वे ऐसा काम कभी नहीं करेंगे.” उन्होंने सचान को अन्य मौकों पर भी परखा, लेकिन, “वे कभी भी अपनी इस लड़ाई से टस से मस नहीं हुए.”
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अन्य गवाह अपनी आपबीती सामने लाने से हिचकते हैं. जनवरी में मैंने साईं के पूर्व निजी सचिव महेंद्र चावला से संपर्क किया. हमारी फोन पर कई बार बातचीत हुई, लेकिन जब तक एक साझे दोस्त ने मेरी गारंटी नहीं ले ली, तब तक उन्होंने मुझसे आमने-सामने मिलने के लिए हामीं नहीं भरी. मैं उनसे हरियाणा में उनके गाँव के पास, जनवरी की कड़कती सर्दी की एक सुबह मिला. वे मुलाकत की जगह पर पैदल चलकर आए थे. उनके साथ उनका हथियारबंद सुरक्षागार्ड भी मौजूद था. हम पैदल ही उनके घर तक गए और आंगन में एक धूप के टुकड़े के पास, प्लास्टिक की कुर्सियों पर बैठ गए. उनका गार्ड आसपास ही मंडराता रहा.
वर्ष 1996 में, जब चावला आश्रम की दुनिया की तरफ मोहित हुए उनकी उम्र 18 साल थी. “मैं एक बहुत ही धार्मिक परिवार से आता हूं,” उन्होंने मुझे बताया. एक दिन आसाराम के कार्यक्रम में शामिल होने के बाद, “मैंने अपने भाई और पत्नी के साथ गुरु दीक्षा ग्रहण की.” उस दिन से उन्होंने आसाराम को अपना धर्मगुरु स्वीकार कर लिया. “इसके बाद मैं उनके उपदेशों को रेडियो कैसेट पर सुनता रहता था और उनकी पत्रिकाएं पढ़ता था.”
एक साल के अंदर ही, चावला ने पूरी तरह से आश्रम के कामों में लीन होने का फैसला कर लिया. शुरू में उन्होंने पानीपत के निर्माणाधीन आश्रम में मजदूरी की. लेकिन जल्द ही उनका ओहदा बढ़ गया. उनका तबादला, अहमदाबाद-स्थित आश्रम में कर दिया गया, जहां से आसाराम के ब्रांडेड उत्पाद – कैसेट, पत्रिकाएं, दवाइयां और अगरबत्तियां – अलग-अलग जगहों पर वितरित की जातीं थीं. उन्हें फिर उस गाड़ी का बिक्री इंचार्ज बना दिया गया, जिससे ये उत्पाद अहमदाबाद आश्रम से स्थानीय बाजारों में पहुंचाए जाते थे.
वर्ष 2001 में, आसाराम ने चावला को राजस्थान स्थित अपने लखावा गांव वाले आश्रम में भेज दिया. उन्हें सात एकड़ में फैले इस आश्रम का मैनेजर बना दिया गया. “मैंने ड्रिप सिंचाई, बायोगैस प्लांट और पेड़ लगाकर इलाके को विकसित किया,” उन्होंने कहा. “मुझे हर पन्द्रह दिनों या कभी-कभी हर हफ्ते, सीधे आसाराम को आश्रम की गतिविधियों की जानकारी देनी होती थी.” आसाराम को अब वे सीधे फोन करते थे. वहीं से वे नारायण साईं के संपर्क में भी आए.
साईं के साथ चावला मध्य प्रदेश स्थित झाबुआ जिले गए, जहां एक नया आश्रम बनाया जा रहा था. जल्द ही साईं को लगने लगा कि वे काम के आदमी हैं और उसने उन्हें अपना निजी सहायक बना लिया.
साल 2002 की दिवाली से थोड़ा पहले, चावला का आमना-सामना आसाराम और साईं के खौफनाक तरीकों से हो गया. एक रात जब, “मैं बाथरूम जाने के लिए उठा. जैसे ही मैं अपने कमरे से बाहर निकला मैंने देखा एक आदमी बरामदे के बीचोंबीच धूनी कमाकर बैठा हुआ है. आश्रम के एक तरफ सामने छोटा सा झरना बहता था. जब मैं थोड़ा नजदीक पहुंचा तो देखा वह आदमी नारायण साईं था. वे एक आग के सामने बैठे हुए थे और उनके सामने एक इंसान लेटा हुआ था. उसकी छाती पर एक इंसानी खोपड़ी रखी हुई थी.”
आश्रम के अनुशासन का पालन करते हुए, “मैंने प्रणाम किया और कुछ दूरी पर जाकर बैठ गया,” चावला ने बताया. “फिर साईं ने कहा, ‘विघ्न मत करो’ और मुझे वहां से जाने के लिए कहा. इसके बाद वे अपने कमरे पर जाकर सो गए.
अगले दिन सुबह-सुबह, साईं उनके कमरे पर आए और पिछली रात के बारे में पूछने लगे. “अभी सूर्योदय नहीं हुआ था. मुझे याद है कि वह भोर के पहले का पहर था,” चावला ने कहा, “मैंने आपको अग्नि के आगे बैठे देखा. आपके सामने एक शरीर पड़ा था और उसके सीने पर एक इंसानी खोपड़ी रखी हुई थी. साईं ने फिर मुझे बताया वह एक बच्चे का शरीर था, जो मृत अवस्था में उनके पास लाया गया था.” साईं ने उसके बाद उनसे कहा कि जो कोई भी उस दृश्य को देख लेता है, उसकी या तो तत्काल मृत्यु हो जाती है, या फिर वह अपना दिमागी संतुलन खो बैठता है. साईं के मुताबिक, वे इसलिए बच गए क्योंकि उनके ऊपर गुरु का आशीर्वाद था. उसके बाद साईं ने देखे गए दृश्य के बारे में किसी किस्म की शंका के बारे में उनसे पूछा. चावला ने इनकार में सर हिला दिया.
चावला ने स्वीकार किया कि आज यह अजीब लग सकता है कि उन्होंने उस वक़्त शोर क्यों नहीं मचाया और क्यों साईं से सवाल खड़े नहीं किए. आश्रम में “हमें हमेशा गुरु की आज्ञा का पालन करना सिखाया जाता था. गुरु से सवाल ना करना, उनकी मंशा पर संदेह ना करना हमारी दीक्षा का अहम हिस्सा था. दिमाग को खोखला कर देने वाली व्यवस्था में, मुझे सवाल ना करने की दीक्षा दी गई थी.” आश्रम द्वारा प्रकशित दो पुस्तकें, गुरु भक्ति और गुरु गीता, हमारे मन में इस विचार को ठूंस-ठूंस कर भर देने के लिए महत्वपूर्ण थीं, चावला ने बताया.
चावला द्वारा दिए गए विवरण के अनुसार, साईं को लगा वे विश्वासपात्र हैं इसलिए और उसने “काला जादू”, जिसे वे खुद भी करता था, उन्हें सिखाने की कोशिश की. बाद में उसी दिन साईं ने उन्हें कुछ तांत्रिक मंत्र दिए. ये मंत्र उसने अपने लैटरहेड पर खुद के हाथ से लिखे थे. उस कागज पर मरण मंत्र, वशीकरण मंत्र और वाणी अवरुद्ध मंत्र लिखे थे. उसने उन्हें उन मंत्रों के जाप का अभ्यास करने का निर्देश दिया, लेकिन उन्होंने कभी नहीं किया, चावला ने कहा.
साईं ने चावला को अपने “जादू” का पेशेवर बनाने की एक और कोशिश की. “कुछ हफ्तों बाद, वे अपने साथ, मुझे और एक अन्य युवा भक्त को उदयपुर से रजरप्पा ले गए...यह रांची के पास एक जगह है और चिन्नामस्तिका माता के मंदिर के लिए मशहूर है.” चिन्नामस्तिका एक देवी हैं, जो अपना कटा सर अपने एक हाथ में लेकर चलती हैं. यह मंदिर, अपने काले जादू और तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए भी प्रसिद्ध है. चावला ने याद करते हुए बताया, “साईं हमें इस मंदिर में आधीरात के वक्त ले गए और जो वहां बूढ़े तांत्रिक थे उनसे हमें काले जादू सिखाने के लिए कहा. लेकिन उस बूढ़े तांत्रिक ने यह कहते हुए मना कर दिया कि काला जादू मोक्ष के रास्ते में रोड़ा है. उसने कहा, उसने काले जादू के चक्कर में उन्होने अपना जीवन तो नष्ट कर लिया है, और अब वे नहीं चाहते कि दो और युवाओं का जीवन नष्ट हो.”
साईं के साथ उस बच्चे की लाश, चावला को आज भी परेशान करती है. “मुझे नहीं पता कि असलियत में, वह बच्चा वहां मरा हुआ लाया गया था या जिंदा; वह बच्चा आया कहां से, उसकी लाश कहां गई, इंसानी खोपड़ी कहां से आई और उसे कहां ठिकाने लगाया गया,” उनके मन में सवाल बहुत से थे पर जवाब नहीं था. “मुझे कुछ नहीं पता. लेकिन मैंने साईं को, एक छोटे बच्चे पर काला जादू और तांत्रिक विद्या आजमाते हुए जरूर देखा है.”
इस वक्त तक चावला की जिम्मेवारियां बढ़ गईं थीं. वे साईं की रैलियां और उसके भाषण भी आयोजित करने लगे थे. इसके साथ-साथ, वे उसकी यात्राओं का प्लान बनाना और हर आयोजन के बाद पैसा एकत्रित करना भी सुनिश्चित करने लगे थे.
“हमारे सोने का कोई निश्चित समय नहीं था, ना हमें ढंग का खाना दिया जाता था; और, बीमार पड़ने पर हमें घर भेज दिया जाता था.” सर्दियों में भक्तों को स्वेटर या अन्य ऊनी कपड़े तक नहीं दिए जाते. जब चावला ने इसके बारे में पूछा तो उन्हें बताया गया कि उनका शरीर अब उनका नहीं, गुरु का है; और, उन्हें स्वेटरों की कोई जरूरत नहीं. “हमें अपने वर्षों की मेहनत का, एक नया पैसा नहीं मिला,” चावला ने बताया. असल में, उल्टे उनकी मां उन्हें कभी-कभी पैसा भेजा करती थी, लेकिन “वे लोग उसे भी मुझसे छीन लिया करते थे,” यह कहकर कि “जो भी मेरा है, अब वह मेरे गुरु का है.” परंतु, “आसाराम और साईं अपनी मनपसंद के छप्पन भोग खाते और सबसे बढ़िया कपड़े और महंगे ऊनी वस्त्र पहनते.”
चावला को साईं के आचरण के बारे में पहले-पहल उसके ड्राईवर से पता चला. ड्राईवर से उनकी दोस्ती हो गई थी, “एक दिन साईं के ड्राईवर ने बड़े भारी मन से मुझे बताया कि ये साईं, वैसा संत नहीं है जैसा हम सोचते हैं कि वह है.” चावला ने आगे कहा, “उसने मुझे बताया कि साईं सफर पर हों या आश्रम में, सबके सोने के बाद वे मुझे अलग-अलग औरतें लाने के लिए कहते हैं.” ड्राईवर ने कहा कि उसे यह सब करना अच्छा नहीं लगता. “कभी वह लड़कियों को कार के ट्रंक में बैठने के लिए कहता, तो कभी पिछली सीट के फर्श पर झुकने के लिए.”
साईं इन औरतों को बराबर गालियां देता और उनके साथ बलात्कार करता, ड्राईवर ने बताया. “कुछ हफ्तों बाद, हम साईं के प्रवचनों के लिए, ठाणे के येऊर गांव में थे,” चावला ने कहा. वह गांव के फार्महाउस में ठहरा हुआ था. ड्राईवर ने मुझे दिखाया कि साईं, महिला भक्त का यौन शोषण कर रहा था.
उसके बाद ऐसी कई घटनाएं उन्होंने अपनी आंखों से देखीं, “ड्राईवर लड़कियां लेके आता और उजाला होने से पहले उन्हें छोड़ आता. कभी-कभी तो रात के दो या तीन बजे भी,” उन्होंने कहा. सभी लड़कियां आसाराम और साईं की भक्त होतीं, जिनका पहले दिमाग फेरा जाता और फिर उनका यौन शोषण किया जाता.
इस ब्रेनवॉशिंग में अक्सर हिन्दू पौराणिक कथाओं का इस्तेमाल होता था, जिसे उन्होंने कोर्ट को भी बताया है. “साईं इन महिलाओं से कहते थे, वे भगवान कृष्ण हैं...वे कहते कि पिछले जन्म में वे गोपियां हुआ करती थीं और साईं उनके भगवान कृष्ण. और चूंकि वे उन्हें अंतिम तौर पर मोक्ष नहीं दिलवा सके इसीलिए उनका पुनर्जन्म हुआ है. वे उन औरतों को यकीन दिलवा देते थे कि वे असल में उनका दैहिक शोषण नहीं, बल्कि उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं; और, उन्हें इस संसार के कष्टों से सदा के लिए मुक्ति दिलवा रहे हैं.”
चावला ने 2005 में आसाराम की चाकरी छोड़ दी और आश्रमों से दूर एक सामान्य जीवन जीने का प्रयास किया. लेकिन जब 2008 में मोटेरा का मामला सामने आया तो जो कुछ उन्होंने अपनी आँखों से देखा था उसे कोर्ट को बताने का फैसला किया.
उसी के बाद से चावला को, आसाराम के भक्तों से धमकियां मिलने लगीं. ये धमिकयां इस हद तक बढ़ गईं कि उन्हें अपना बीमे का काम बंद करके घर बैठना पड़ा. 2013 में, एक दिन उनसे गाँव के सरपंच मिलने आये. उनके साथ आसाराम का एक भक्त और दो और लोग भी थे. “चारों मेरे घर पर आकर मुझे धमकाने लगे. उनमे से एक, जो साईं का पुराना भक्त था, मुझे यह कह कर खुली धमकी देने लगा कि ‘बापू और साईं के खिलाफ बोलने वालों को एक-एक करके ख़त्म कर दिया जाएगा.’”
चावला को पैसों की भी पेशकश की गई. “वे अपने साथ आसमानी रंग का सूटकेस लेकर आए थे, जो हजार-हजार के नोटों से भरा था. उनमे से एक ने कहा कि यह पैसा रखो और सब भूल जाओ. मैंने मना कर दिया,” उन्होने बताया.
दो साल बाद, 13 मई 2015 को उन पर हमला हुआ. उस दिन उनका सुरक्षाकर्मी छुट्टी पर था. वे उस वक्त अपने किराए के मकान के पहले तले पर दरवाजे के नजदीक बैठे हुए थे. उन्होंने बाहर सीड़ियों पर क़दमों की आहट सुनी. “मैंने दरवाजे से बाहर झांका तो देखता हूं कि दो आदमी बंदूकें हाथों में लिए ऊपर चढ़े आ रहे हैं.” चावला ने बताया, उनमे से एक वही आदमी था, जो दो साल पहले, 2013 में, सरपंच के साथ उनके घर आया था.
घर के दो पटों वाला दरवाजा दोनों दिशाओं में खुलता था. उन्हें आता देख चावला ने जब सरपट उठकर उसे तेजी से बंद करने की कोशिश की तब तक वे दरवाजे तक पहुंच चुके थे. उन दोनों ने दरवाजे को अंदर की तरफ धकेलकर खोलना चाहा. उनमे से एक आदमी चिल्ला रहा था, “साईं के खिलाफ गवाही देता है.”
इस धक्कमपेल में, चावला दरवाजा बाहर की तरफ ठेलने में कामयाब रहे. इस कवायद में उन दोनों का संतुलन बिगड़ गया जिसका फायदा उठाकर चावला तेजी से बाहर की ओर लपके और छज्जे पर चढ़ गए, जो घर के जमीनी तले के प्रवेश द्वार के ठीक ऊपर बना था. “इससे पहले कि मैं नीचे कूद पाता, उनमे से एक ने मेरा कालर पकड़ लिया और गोली चलाने की कोशिश की...मैंने उसे धक्का दिया और नीचे कूदने का प्रयास किया. उसी वक़्त उसने गोली चला दी, लेकिन गोली मुझसे बच कर निकल गई और दीवार में जा धंसी.” मौक़ा पाकर, चावला छज्जे से जमीन पर कूद पड़े. “लेकिन इससे पहले मैं हिलडुल पाता, उसने ऊपर से एक गोली और दाग दी, जो आकर मेरी पीठ में लगी...गोली लगते ही मैं चक्कर खाकर गिर पड़ा और वे वहां से यह समझ कर भाग खड़े हुए कि मैं मर चुका हूँ.”
इस हमले में बाल-बाल बचने के बाद, चावला ने खुद की हिफाजत के लिए एक लाइसेंसी बंदूक हांसिल करने की भी कोशिश की. पुलिस के रवैये से उन्हें बहुत निराशा हाथ लगी. “मैंने कितनी बार शिकायत की, लेकिन पुलिस ने कभी मुझे गंभीरता से नहीं लिया...जब भी मैं उनके पास बंदूक के लाइसेंस की खातिर गया, उन्होंने मुझे बहुत बेईज्ज़त किया. यहाँ गवाहों की सुरक्षा का कोई इन्तेजाम नहीं है. पुलिस और प्रशासन के असहयोग के चलते, आप गवाहों से क्या अपेक्षा रखते हैं? सच्चाई के लिए खड़े होने की जिम्मेवारी हमारे ही कन्धों पर क्यों हो?”
सिर्फ चावला जैसे गवाह ही इस डर के माहौल में नहीं जी रहे थे कि सरकार उनको सुरक्षा प्रदान करने में असफल रही है. शाहजहांपुर में रहने वाले पत्रकार नरेंद्र यादव, जो सितंबर 2014 में बच गए थे और जिन्हें उसके बाद पुलिस सुरक्षा प्रदान का दी गई थी, ने मुझे बताया कि उनकी सुरक्षा हटा ली गई है. यह इस साल मार्च की घटना है, उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के तुरंत बाद. उन्हें बताया गया कि चूंकि चुनाव प्रचार में लगे राजनेताओं की सुरक्षा के लिए सिपाहियों की जरूरत है, इसलिए उनकी सुरक्षा वापिस ली जा रही है. “मुझे नहीं पता चुनाव समाप्त होने के बाद भी, मेरा गार्ड मुझे वापिस क्यों नहीं मिला है,” उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया. “मुझे इतना डर लगता है कि मैं गाड़ी भी अक्सर एक हाथ में पिस्तौल और दूसरे हाथ में स्टीयरिंग थाम कर चलाता हूँ. यह बहुत गंभीर स्थिति है. मैं इतना सहमा हुआ रहता हूं कि मुझे डर है कि किसी दिन मैं इस दहशत में अपनी तरफ ‘हेलो’ कहने आ रहे आदमी पर ही गोली ना चला दूं.”
दिसंबर में, मैं 44-वर्षीय यादव से शाहजहांपुर के एक पार्क में मिला. उन्होंने पहले मुझे पूरे पार्क की सैर करवाई और फिर हम बातचीत करने के लिए एक जगह घास पर बैठ गए.
यादव, जो दैनिक जागरण अखबार में रिपोर्टर हैं, ने मुझे बताया कि उन्होंने अगस्त 2013 से सितंबर 2014 के बीच आसाराम के ऊपर कुल 287 स्टोरी की थीं. शाहजहांपुर एक पुराने विचारों का शहर है. उनकी खबरों ने पीड़ितों के समर्थन में माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. लेकिन विडम्बना देखिए कि उनको ही उनके काम के लिए धमिकयां मिलनी शुरू हो गईं.
यादव ने बताया, 17 सितंबर 2014 के दिन, रात को करीब 10 बजे वे दिन भर की ख़बरें फाइल करके दफ्तर से निकल रहे थे. रोज़मर्रा की तरह उन्होंने सफारी सूट पहना हुआ था और कंधे पर एक छोटा बैग लटक रहा था, जिसमे गरम पानी के लिए थर्मस रखा था जो उनकी पत्नी ने उन्हें दिया था क्योंकि वे पिछले कुछ दिनों से खांसी से परेशान थे.
यादव अपनी कार तक पहुंचे और जैसे ही उन्होंने दरवाजा खोलने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, किसी ने पीछे से आकर उनका सर पकड़ कर अपनी तरफ मरोड़ा. यादव ने पहले सोचा कोई दोस्त छेड़खानी कर रहा है, लेकिन तभी अचानक उन्होने अपनी गर्दन पर धातु को महसूस किया, और अगले ही पल उन्हें पता चल गया कि वे जख्मी हो गए हैं और उनका खून बह रहा है. हमलावर ने उन पर एक बार और वार किया.
चावला को उस वक्त को याद करके एहसास होता है कि शायद ये उनकी खुशकिस्मती थी कि वे उस दिन बच निकले. उनकी गर्दन में हमेशा दर्द रहता था. इसलिए वे अपनी गर्दन हमेशा टाइट और सीधी रखते थे. इसी का नतीजा था कि हमलावर, जिसने दरांती से हमला किया था, उनका सर इस हद तक नहीं खींच पाया कि पूरी तरह से उनका गला सामने आ जाता. वह चूक गया और दरांती उनकी थोड्डी के करीब चली. फिर उसने दूसरी कोशिश भी की लेकिन इस बार उनके कंधे से झूल रहे बैग की बेल्ट आड़े आ गई. उसके बाद, “ईश्वर की कुछ ऐसी कृपा हुई और मैं जितनी जोर से चीख सकता था चीखा...और फिर मैंने उसके हाथ से दरांती छीन ली. हम दोनों खून में लथपथ थे. मेरी पूरी सफारी कमीज़, चेहरा और हाथ खून से सने थे. हमलावर के हाथ पर भी खून लगा था, शायद, इसी कारण उसके हाथ से दरांती फिसल गई. इससे पहले कि मुझे पता चलता कि हो क्या रहा है, उसने छलांग लगाईं और कुछ ही क़दमों की दूरी पर खड़े अपने साथी की बाइक पर बैठा और इस तरह दोनों वहां से भागने में सफल हुए.” यादव को तुरंत हस्पताल ले जाया गया, जहां उनके एक घाव पर 48 और दूसरे घाव, जो गाल की हड्डी से गर्दन की तरफ था, पर 28 टाँके आये.
जब पुलिस ने हमले की प्रतिक्रियास्वरुप, उनके और उनके परिवार के खिलाफ ही छानबीन शुरू कर दी तो यादव को बहुत हैरत हुई. “मैं कहता ही रह गया कि यह हमला आसाराम और उनके चेलों की साजिश है...मेरे दोस्तों और परिवार ने भी यही बात दोहराई. मैंने पुलिस को बताया कि मुझे मेरी कवरेज बंद करने के लिए लगातार धमिकयां और रिश्वत की पेशकश हो रही थी. लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी. उल्टे सारी छानबीन का रुख मेरी तरफ मोड़ दिया गया. पुलिस वालों ने मेरे और मेरी पत्नी के काल्पनिक ‘अफेयर्स’ ईजाद कर डाले और मेरे गांव की पुरानी दुश्मनियों तक के गड़े मुर्दे खोद निकाले. यहां तक कि उन्होंने मेरे परिवार पर ‘लाई डिटेक्टर टेस्ट’ करवाए, लेकिन कुछ भी बाहर नहीं आ पाया.”
यादव द्वारा उस आदमी की लीड दिए जाने के बावजूद भी पुलिस का उस दिशा में काम ना करना निहायत शर्मनाक था. उनके मुताबिक, आसाराम का एक चेला हमले से कुछ हफ्ते पहले कानपुर से उनसे मिलने आया था. “वह एक दिन मेरे दफ्तर में आया और खुद को बदायूं का राहुल यादव बताने लगा...उसने मुझे एक पार्सल दिया और कहा, ‘यह बापू ने सद्बुद्धि का प्रसाद भेजा है, आपके लिए. नहीं छापोगे तो नाश हो जाएगा आपका.’” पैकेट में आसाराम की मुखपत्रिका, ऋषि प्रसाद, तथा अन्य प्रचार सामग्री थी.
हमले के कुछ हफ्तों बाद यादव ने उसी आदमी को शाहजहांपुर पीड़िता के घर के सामने सड़क के पार एक दुकान पर बैठा हुआ देखा. “मैंने एक नजर में ही उसका चेहरा पहचान लिया. मैं पीड़िता के घर के बाहर बैठे गार्ड के पास गया, और फिर हम दोनों ने उसके पास जाकर उसका नाम पूछा. उसने कहा वह कानपुर से कोई नारायण पाण्डेय है. हमने उसे तुरंत पुलिस के हवाले कर दिया, लेकिन कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ.”
आसाराम और यादव पर हमले के बीच की संभावित कड़ी को पुलिस बहुत बाद में जाकर उजागर कर पाई, जब शाहजहांपुर पीड़िता के परिवार के मित्र कृपाल सिंह का कत्ल हुआ. सिंह की हत्या की जांच के दौरान, शाहजहांपुर पुलिस ने गुजरात पुलिस से संपर्क किया. उसने हाल ही में, कार्तिक हलदर को गिरफ्तार किया था, जो खुद को आसाराम का फिदाईन बताता था. “गुजरात पुलिस की छानबीन के दौरान हलदर ने स्वीकार किया था कि वह शाहजहांपुर के पत्रकार की हत्या की साजिश में शामिल था. उसके मुताबिक़ वह यह सब आसाराम के कहने पर कर रहा था,” यादव ने कहा.
अगर गवाह, पत्रकार और आसाराम के केसों से जुड़े अन्य लोग अपनी जान को लेकर इस कदर डरे हुए हों तो लाजमी है कि पीड़ित उनसे दुगने डर के माहौल में जीते होंगे. फरवरी के मध्य में, मैंने सूरत बहनों में से छोटी बहन से संपर्क किया. उसने साईं पर बलात्कार का आरोप लगाया था. तीन हफ्ते तक मेसैज के जरिये संपर्क में रहने के बाद, वे मुझसे बात करने के लिए राजी हुईं. इसके बावजूद कि वे चार-चार गार्डों की हिफाजत में रहती हैं, उनको अपनी जान का डर लगा रहता है. “मुझे अपनी परवाह नहीं, लेकिन अपने पति और बच्चों की फ़िक्र लगी रहती है...उन्होंने कुछ गलत नहीं किया...मेरी वजह से उनको कोई नुकसान नहीं होना चाहिए.”
छोटी बहन द्वारा दिया गया ब्यौरा, चावला के उस ब्यौरे से मेल खाता था कि कैसे आसाराम और साईं के शिकार लोगों का ब्रेनवॉश और यौन शोषण किया जाता था.
जोधपुर परिवार की तरह, सूरत बहनें भी नितांत धार्मिक परिवारों से आतीं थीं. उनके माता- पिता, जो सूरत के आश्रम में नियमित आते जाते थे, ने अपनी बेटियों को भी प्रवचनों और अन्य कार्यक्रमों के लिए ले जाना शुरू कर दिया था. “शुरू में हमारी आश्रमों और कैंपों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी,” छोटी बहन, जो अब 32 वर्ष की हैं, ने मुझे बताया. “सभी बच्चों की तरह हम भी सारा वक़्त खेलने-कूदने और अपने में मस्त रहना चाहते थे. लेकिन हमारे माता-पिता हमें वहां नियमित रूप से ले जाने लगे. फिर धीरे-धीरे हम आसाराम के प्रवचनों को सुन सुन कर, आश्रम में शामिल हो गए.”
पहली बार परिवार ने 1996 में अपनी बड़ी बेटी, जो उस वक्त 16 साल की थी, को अहमदाबाद आश्रम में भेजा. “वह वहां 12-दिवासीय अनुष्ठान में शामिल होने गई थी,” छोटी बहन ने कहा. “इसमें भक्त को 12 दिनों तक लगातार आश्रम में रहकर पूजा-अर्चना और मन्त्र जाप करना होता है.” इस प्रक्रिया के खत्म होने पर, जब मां अपनी बेटी को लिवाने गई तो आसाराम की पत्नी, लक्ष्मी देवी ने उसे ले जाने की इजाजत देने से यह कहते हुए मना कर दिया, “क्या करेगी अब संसार में वापिस जाकर? इतनी अच्छी लड़की है, अब इसे यहीं गुरु के चरणों में रहने दीजिए.”
मां के अंदर, आसाराम और साईं के प्रति दासत्व का भाव कूट-कूटकर भरा था और वे उनका कहा नहीं टाल पाईं. “मां अकेली कर भी क्या सकतीं थी?” मां का बचाव करते हुए छोटी ने बहन ने कहा. “इसलिए वे खाली हाथ ही वापिस चलीं आईं और उन लोगों ने उसे आश्रम में रख लिया.”
यह उनके श्रद्धाभाव की तीव्रता का ही संकेत था कि बेटी से बिछड़ने के बावजूद भी, माता-पिता आसाराम और साईं के भक्त बने रहे. कुछ सालों बाद, वर्ष 2000 में, “मैं अपने मां-बाप के साथ सूरत में नारायण साईं के कैंप पर गई,” छोटी बहन ने बताया. “मेरी भी उम्र उस वक्त 16 साल थी.”
वहां साईं ने उसे अलग बुलाकर, झबुआ स्थित मेघनगर आश्रम में आने का निर्देश दिया. “उन्होंने अपनी सेविका को इशारा किया. सेविका समझ गई कि साईं ने मुझमे दिलचस्पी दिखाई है. उसने तुरंत ही यह कहते हुए मेरा ब्रेनवॉश करना शुरू कर दिया कि ‘बाहरी संसार में कुछ नहीं रखा, जो कुछ भी है यहीं गुरु के चरणों में है.’”
बाकि भक्त भी समझ गए कि साईं ने मुझे खासतौर पर चुना है. “जब मैं आश्रम की लाइन में खड़ी थी, उनमे से कुछ ने आकर मुझसे पूछा कि मैं कहां से आई हूं और मुझे खाने के लिए प्रसाद दिया...वे बोले प्रसाद मुझे खुद ही खाना है, किसी के साथ बांटना नहीं है. ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि मैं खुद को सबके बीच खास महसूस कर सकूं.”
बाद में वे मेघनगर आश्रम गईं. “जब मैं वहां गई उस वक़्त बहुत ठंड पड़ रही थी और आश्रम अभी बन ही रहा था...मुझे निर्माण कार्य में मदद करने के लिए कहा गया. सो मैंने और छह या सात लड़कियों ने मिलकर आश्रम के निर्माण में अपना श्रमदान किया,” उन्होने कहा.
इस दौरान उन पर किसी से बातचीत करने या इधर-उधर जाने की पाबंदी थी. “हमें जैसे कैद में रखा गया था. मेरा नाम भी बदल दिया गया था...वे मुझे मां से मिलने घर भी नहीं जाने देते थे, ना फोन पर बात करने की इजाजत दी जाती थी. यह किसी यंत्रणा से कम नहीं था.” नया नाम बाहरी दुनिया से नाता टूट जाने में मदद करता था. “अगर कोई मेरे घर से मुझे ढूंढने आता भी, तो मुझे वहां नहीं पाता. वे मुझे मेरे असली नाम से पूछते और मेरे नाम का वहां कोई होता नहीं,” उन्होंने कहा.
सन 2002 में, वे साईं के साथ बिहार और नेपाल की यात्रा पर गईं (उनके अनुसार महेंद्र चावला भी साथ थे). इस यात्रा के बाद, साईं उनके पीछे पड़ गया. “नेपाल से जब हम लौटे तो एक दिन मुझे सूरत आश्रम में आने के लिए कहा गया.” उसने अपने एक सेवक का फोन नंबर दिया और आने से पहले फोन कर लेने के लिए कहा. सेवक ने उनसे कहा, आश्रम आने और साईं से मुलाकात के बारे में वे किसी अन्य भक्त से जिक्र ना करें. “उसने कहा कि अगर मैं दूसरी लड़कियों को बताती हूं कि साईं ने मुझे खासतौर पर मुलाकात के लिए बुलवाया है तो उन्हें इस बात से इर्ष्या हो सकती और उन्हें लगेगा कि साईं की कृपा उन पर नहीं है,” छोटी बहन ने बताया. “आज मुझे ऐसा लगता है कि एक सोची-समझी साजिश के तहत, सेविकाओं के बीच इस झूठी प्रतिस्पर्धा को खड़ा किया जा रहा था ताकि साईं से निजी मुलाकात को खास दर्जा दिया जा सके.”
आश्रम पहुंचने पर उन्होंने इन निर्देशों का पालन किया. उन्हें साईं की कुटिया में पिछले द्वार से ले जाया गया. जब वे कुटिया में पहुंची तो उनकी मुलाकात साईं से हुई, “उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा, ‘संसार में क्या रखा है. तुम्हारा जो भी है गुरु का है. तुम पिछले जन्म की गोपी हो और मैं कृष्ण, और मैं तुम्हारा संसार काट रहा हूं.’”
सूरत की इस पीड़िता ने कई बार साईं को आश्रम में अन्य महिलाओं के ऊपर गुस्सा होते हुए देखा. जब भी साईं किसी महिला को पुरुष से बात करते हुए देख लेता तो उसे बहुत गालियां निकालता और उसके साथ मारपीट करता. “एक बार साईं की पत्नी आश्रम के मैनेजर से किसी काम के सिलसिले में बात कर रहीं थी. मैंने देखा कि साईं बाहर निकला और उसके गालों पर सबके सामने चार चांटे जड़ दिए. वह बहुत गालीगलौच करने वाला आदमी था और जब भी उसे गुस्सा आता वह किसी को नहीं बख्शता था. वह जो भी बर्ताव महिलाओं के साथ करता, उसे ‘प्रभु की लीला’ माना जाता. लेकिन अगर कोई महिला आश्रम में किसी मर्द से बात करने की हिमाकत करती, तो साईं के हाथों उसकी पिटाई तय थी.”
जब 2002 की उस दोपहर का जिक्र आया (जब उनके साथ बलात्कार हुआ था) तो उनका गला रुंध आया. “मुझे नहीं पता, आप इसे कैसे लिखेंगे,” उन्होंने झेंपते हुए कहा. आसाराम और साईं “महिलाओं को ‘ओरल सेक्स’ (मौखिक मैथुन) करने के लिए मजबूर किया करते थे. वे विकृत लोग हैं. यहां तक कि वे महिलाओं के मूंह में वीर्यस्खलन के लिए जबरदस्ती करते थे...उसने मुझे भी अपना वीर्य पीने के लिए मजबूर किया. उस वक़्त मैं इतनी सहमी हुई थी कि मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए.” दो साल की ब्रेनवाशिंग ने उन्हें दिमागी रूप से पंगु बना दिया था. “हमें सिखलाया गया था कि गुरु से कभी सवाल मत करो. यह सब मेरे लिए आसान नहीं था...वह मुझसे बहुत बुरी तरह और क्रूरता से पेश आया था.”
इस घटना के करीब एक साल बाद, जब वे गुजरात के हिम्मतनगर वाले आश्रम में बतौर मैनेजर काम कर रही थीं, उन्होंने आसाराम और साईं के पंजों से आजाद होने का फैसला किया.
“पहली बार जब मैंने आश्रम छोड़ने और घर वापिस लौटने की मंशा जाहिर की तो साईं की सेविकाओं ने मेरे हाथ-पांव बांधकर, आश्रम की एक कोठरी में बंद कर दिया...मैं पूरी रात रोती रही.” अगले दिन साईं आया, “उसने मुझे बेरहमी से मारापीटा...मेरे शरीर पर लात-घूंसे चलाए और भद्दी-भद्दी गालियां दीं. उसने कहा, “जाएगी आश्रम से? क्यों जाना चाहती है? क्या करेगी अब बाहर जाकर?”
इसके बाद उन्होंने वहां से भागने का प्लान बनाया और अपने भाई को फोन करके हिम्मतनगर आश्रम आने के लिए कहा. उन्होंने उसे आश्रम वालों के सामने माँ की बीमारी का बहाना बनाने की हिदायत दी. यही बहाना उन्हें भी करना था. “मैंने भाई को अच्छी तरह से सब कुछ समझा दिया था. वह अगले दिन मुझे लेने आ गया. मुझे पता था कि साईं मुझे किसी और कारण के लिए जाने की अनुमति नहीं देगा. अगर मैं भागी तो वह मुझ पर चोरी का आरोप लगाएगा और अगर मैंने इजाजत मांगी तो वह मुझे कमरे में बंद करके पीटेगा.”
तरकीब काम कर गई. “जब मेरा भाई मुझे लेने आया तो साईं ने उससे बात की. भाई ने मां की तबीयत वाली बात दोहराई. मुझे दस दिनों के लिए जाने की इजाजत दे दी गई.” इजाजत मिलते ही उन्होंने अपना सामन बांधा और अपने जिम्मे का हिसाब-किताब एक अन्य सेविका के हवाले करके वहां से निकल गईं.
जब वे दस दिन के बाद नहीं लौटीं तो साईं ने अपनी सेविकाओं को उनके घर भेजा. उनसे वापिस लौटने के लिए दबाव बनाया गया. वे नहीं मानीं तो उनसे साईं से एक बार फोन पर बात करने के लिए कहा गया. जब उन्होंने सार्वजनिक फोन से साईं को फोन लगाया तो “वह मुझ पर चिल्लाने लगा.” लेकिन वे डटी रहीं और दृढ़ निश्चय के साथ कहा कि उनके माँ-बाप नहीं चाहते वे लौटें.
साईं ने जोर देकर कहा हिसाब-किताब देने एक बार तो उन्हें आश्रम आना ही पड़ेगा. जब उन्होंने बताया कि वे पहले ही हिसाब-किताब कर चुकी हैं. “लेकिन उसने कहा, तुम्हे मुझे आमने-सामने बैठकर हिसाब देना होगा.”
जोर देने पर वे अपने माँ-बाप के साथ आश्रम जाने के लिए राज़ी हो गईं. पिता की सेहत खराब होने के बावजूद भी, कुछ दिनों बाद वे हिम्मतपुर के लिए निकल पड़े. “जब तक हम हिम्मतपुर पहुंचे, शाम के सात बज चुके थे...आश्रम, शहर से 15 किलोमीटर दूर है तो हमने रात एक रिश्तेदार के यहां गुजारना तय किया.” साईं को फोन करके आने की इत्तेला दे दी गई और अगले दिन आश्रम में मिलना तय पाया गया. “उसने मुझसे मेरे ठहरने की जगह का पता पूछकर फोन रख दिया. हम भी सोने चले गए.”
रात दो बजे के करीब, “साईं ने जीप में कुछ लोगों को हमारे ठिकाने पर भेज दिया. हम सब छत पर थे और नीचे दुकानें थीं. वे नीचे से चीखने चिल्लाने लगे, “बाहर निकालो उसको, यहीं छिपा के रखा है.” मुझे गंदी-गंदी गालियां दी गईं और घर पर पत्थर बरसाए गए. हम सब बहुत डर गए थे,” उन्होंने कहा. “फिर वे वहां से चले गए. हमने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही पहली बस से वापिस लौट आए.” उसके बाद कई दिनों तक उनके मां-बाप के पास आश्रम और साईं से धमकी भरे सन्देश आते रहे. उन्होंने राहत की सांस ली कि वे उस दिन आश्रम नहीं गए थे. ऐसा करने पर वे ज्यादा खतरे में आ सकते थे.
कुछ दिनों बाद, उनकी बड़ी बहन भी अहमदाबाद आश्रम से वापिस घर लौट आई. “उसको भी बहुत यंत्रणा दी गई थी,” छोटी बहन ने बताया. “जिस दौरान हम अलग-अलग आश्रमों में थे, हम एक दो बार ही मिले होंगे और मुझे याद है कि उसने कहा था कि वह भी घर वापिस लौटना चाहती है.” एक ही तरह की दुश्वारियां झेलने के बाद भी, दोनों बहनों को इस बीच फुर्सत से बैठकर आपबीती साझा करने का मौका ही नहीं मिला,” उन्होंने बताया. आखिर जब वे 2007 में मिले “तब जाकर हमने एक-दूसरे से अपने दुखड़े रो पाए. लेकिन तब भी हम अपने मां-बाप को अपनी आपबीती बताने का साहस नहीं जुटा पाए.”
आसाराम के खिलाफ अक्टूबर 2013 में पहला मुकदमा दर्ज होने के बाद ही ये दोनों बहनें अपनी शिकायत दर्ज करने का साहस जुटा पाईं. अब तक वे शादीशुदा और बाल बच्चेदार हो चुकीं थीं. अपनी शिकायत दर्ज कराने के कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपनी मां को अपने साथ हुई खौफनाक ज्यादतियों के बारे में बताया था. बीमार पिता को अब तक भी कुछ नहीं पता चला था.
छोटी बहन ने शिकायत दर्ज करने का फैसला अपने पति के समर्थन से लिया. इतना जोखिम भरा कदम उठाने की एक वजह यह भी थी कि दोनों बहनों को आसाराम के गिरफ्तार होने और फिर उसकी जमानत खारिज होने से इत्मिनान हो गया था. “जब जोधपुर शिशु बलात्कार मामले का खुलासा हुआ तो हमें लगा कि आसाराम को पुलिस कभी गिरफ्तार नहीं करेगी,” उन्होंने कहा. “हम टीवी के जरिए खबरों पर लगातार नजर रखे हुए थे. हमें लगा अगर उसे गिरफ्तार कर भी लिया गया तो वह अपने रसूख के चलते दो घंटे के अंदर ही जमानत पर बाहर आ जाएगा. लेकिन जोधपुर पुलिस ने उसे इंदौर से गिरफ्तार किया. जब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से भी उसकी जमानत खारिज हो गई तो हमने सोचा कि अब तो हमें भी जुबान खोल ही देनी चाहिए.”
आसाराम ने, जोधपुर केस में अपने बचाव के लिए, देश के सबसे जानेमाने और सबसे महंगे वकीलों की फौज खड़ी कर दी. इस केस ने मीडिया का सबसे ज्यादा ध्यान अपनी तरफ खींचा है. इसकी एक वजह रही कि यह सबसे पहला मामला था. जोधपुर केस इस वजह से भी ज्यादा मशहूर हुआ क्योंकि इसमें आसाराम के खिलाफ, सख्त पोक्सो और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में भी आरोप लगे थे. जो वकील आसाराम के बचाव में उतरे उनमे राम जेठमलानी, राजू रामचंद्रन, सुब्रमनियन स्वामी, सिद्धार्थ लूथरा. के.टी.एस तुलसी, सलमान खुर्शीद और यू.यू ललित शामिल थे. दूसरी तरफ, जोधपुर पीड़िता को न्याय दिलवाने की मुहिम, शहर के दो गुमनाम वकील, पी.के वर्मा और पी.सी सोलंकी, चला रहे थे.
अभियोजन पक्ष के वकीलों ने बताया उन दोनों को केस छोड़ने के लिए धमिकयां दी गईं और करोड़ों रूपए की रिश्वत पेश की गई. “हम रिश्वत लाने वाले को चेतावनी देकर वापिस भेज देते थे,” वर्मा ने मुझे बताया जब मैं उन दोनों वकीलों से फरवरी में, उनके जोधपुर वाले घर में मिला. “और मौत से हम डरते नहीं.”
इन मामलों में वर्मा और सोलंकी की सफलताओं में यह सुनिश्चित करना भी था कि आसाराम की सभी जमानती याचिकाएं खारिज कर दी जाएं. आसाराम ने छह याचिकाएं, ट्रायल कोर्ट में, तीन राजस्थान हाई कोर्ट में और दो सुप्रीम कोर्ट में, दायर कर रखीं थीं. सोलंकी ने यह भी बताया कि आसाराम के वकीलों ने आज तक कुल 40 याचिकाएं ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट में दायर कर रखीं हैं. “पहले उन्होंने आरोपपत्र को चुनौती दी, फिर उन्होंने कोर्ट के द्वारा अपराध के संज्ञान को ललकारा, फिर उन्होंने स्पेशल पब्लिक प्रासीक्यूटर की नियुक्ति पर सवाल उठाए,” वर्मा ने कहा. सोलंकी ने जोड़ा, “वे बड़े कोर्टों में हर छोटी से छोटी बात पर भड़क उठते थे, जमानत के खारिज होने पर भी. लेकिन दो या तीन को छोड़कर, कोर्ट के सभी आदेश अभियोजन के पक्ष में थे.”
वर्मा ने बताया कि उन्होंने और सोलंकी ने, जोधपुर केस को अपना मिशन बना लिया था. “हम सच्चाई के लिए लड़ रहे हैं,” उन्होंने कहा. “हम यह केस पैसों के लिए नहीं लड़ रहे. एक तरफ हालात यह हैं कि बचाव पक्ष हर एक सुनवाई पर लाखों खर्च कर रहा है और वहीं दूसरी तरफ पीड़िता के बाप की किसी को भी बड़ी रकम देने की हैसियत नहीं है.”
दोनों वकीलों ने बड़े गर्व से जेठमलानी, तुलसी और स्वामी जैसे दिग्गजों से आमना-सामना होने के किस्से सुनाए. सोलंकी ने कहा जेठमलानी से टक्कर लेने के लिए वे खासतौर पर उत्सुक थे, जब वे राजस्थान हाई कोर्ट में आसाराम की जमानत के लिए जोधपुर आने वाले थे. जेठमलानी ने कोर्ट में तकरार करने की कोशिश की कि लड़की नाबालिग नहीं थी और इसलिए इस केस में पोस्को लागू नहीं होता. हमने इस दावे को आसासी से गलत साबित कर दिया. जेठमलानी ने यह भी तकरार रखी कि चूंकि आरोप पत्र में ‘पेनीट्रेशन’ का जिक्र नहीं है इसलिए बलात्कार के आरोप का सवाल ही पैदा नहीं होता. “लेकिन उन्हें यह जानकारी देकर शिक्षित किया गया कि पोस्को कानून में संशोधन के बाद, भारतीय दंड संहिता के अनुसार भी बलात्कार की परिभाषा व्यापक हो चुकी है, वर्मा ने कहा, “और बलात्कार के अपराध में अब पेनीट्रेशन होना जरूरी नहीं है.”
जेठमलानी ने यह भी तर्क रखा कि पीड़िता की मेडिकल जांच एफआईआर होने से पहले ही कर ली गई थी, जो उनके अनुसार, आपराधिक न्यायशास्त्र के नियमों के खिलाफ था. शुरू में वे अपने इस तर्क से जज को आश्वस्त करने में सफल करते लगे. “लेकिन हमारे काबिल वकील साहब ने या तो पोस्को पढ़ा ही नहीं था या फिर वे पोस्को कानून के सेक्शन 27 को छिपा रहे थे,” उन्होंने कहा. “क़ानून के अनुसार जांच अधिकारी को यह अधिकार है कि वह एफआईआर दर्ज होने से पहले यौन-शोषित नाबालिग बच्चे का मेडिकल करवा सके. यह क़ानून का तकाजा है और यह सुनकर जेठमलानी ऐसे चुप हुए मानो उनके मूंह में जुबान ही ना हो. मेरी तकरार मान ली गई और राजस्थान हाई कोर्ट ने आसाराम की जमानत की अर्जी खारिज कर दी.”
के.टी.एस. तुलसी ने, वर्मा के स्पेशल पब्लिक प्रोसीक्यूटर होने पर आपत्ति जाहिर की. उनका तर्क था कि उनकी नियुक्ति को सरकारी गजट में ‘नोटिफाई’ नहीं किया गया है. “हमने उन्हें उनकी जानकारी के लिए बताया कि उनको ठीक से जानकारी प्रदान नहीं की गई है,” वर्मा ने कहा. सोलंकी ने बताया कि वर्मा पहले से ही जोधपुर के डिप्टी डायरेक्टर ऑफ़ प्रॉसिक्यूशन के पद पर आसीन थे इसलिए उनके नाम को दुबारा नोटिफाई करने की जरूरत नहीं थी. “जब हमने यह कहा तो तुलसी एकदम खामोश हो गए,” वर्मा ने बताया.
जब सुब्रमनियन स्वामी 2015 में आसाराम के बचाव में मैदान में उतरे तो इन दोनों वकीलों ने उनको भी अढ़ंगी लगाकर चारों खाने चित्त कर दिया. सोलंकी ने बताया कि स्वामी ने कोर्ट में यह कहकर अपनी बात शुरू की कि उन्हें पता चला है कि देश पूर्व मुख्य न्यायधीश, आर.एम. लोधा, जोधपुर से ही थे और कि उन्होंने ही (स्वामी ने) नब्बे के दशक में, जब वे केन्द्रीय कानून मंत्री थे, लोधा को सुप्रीम कोर्ट में लाने की सिफारिश की थी. उनका यह बिल्कुल नामाकूल बयान था. इसे कोर्ट को प्रभावित करने वाले बयान के रूप में भी लिया जा सकता था. चूंकि स्वामी बतौर वकील कोर्ट में पंजीकृत नहीं थे, वकीलों ने उनके केस में हाजिर होने के औचित्य पर ही कानूनी अड़चन को सामने रख दिया. इस पर, स्वामी भड़क उठे और खुद को 2G घोटाले का खुलासा करके सरकार को गिराने वाले वकील के रूप में पेश करके एंठ दिखाने लगे, और कि, इस प्रक्रिया के दौरान, वे पहले भी कई बार कोर्ट में बतौर अधिवक्ता पेश हो चुके हैं. “लेकिन फिर हमने यह कहते हुए कि उनका इस केस में दलील देने का कोई अधिकार नहीं बनता, अपनी प्राथमिक आपत्ति दर्ज कर दी थी,” वर्मा ने बताया. सोलंकी ने उनकी बात में जोड़ते हुए कहा, “स्वामी तुरंत मुझ पर चिल्लाये, ‘क्यों?’”
सोलंकी ने सुप्रीम कोर्ट के हरिशंकर रस्तोगी केस की तरफ इंगित किया, जिस पर स्वामी आस लगाए बैठे थे, और जो वास्तव में उनके खिलाफ गया. “फैसला कहता है, अगर आरोपी अपने मामले की जिरह एक ऐसे व्यक्ति से करवाना चाहता है जो वकील न हो, तो उसे कोर्ट के समक्ष अर्जी देनी होगी और कोर्ट फैसला करेगा कि उक्त अधिवक्ता केस में जिरह कर सकता है या नहीं,” सोलंकी ने कहा. “मैंने उनसे पूछा कि आरोपी आसाराम की अर्जी कहाँ है? क्या उसने कोर्ट के समक्ष, लिखित या मौखिक रूप से, यह निवेदन किया है कि श्री सुब्रमनियन स्वामी ही उसके वकील होंगें?” अभियोजन पक्ष ने कहा कि उनको स्वामी के जिरह करने से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उन्हें सही प्रक्रिया का पालन करना चाहिए. “हमने उन्हें 40 मिनटों तक इन्तजार करवाया, जब तक जेल से आसाराम की तरफ से अर्जी नहीं आ गई,” वर्मा ने कहा.
सोलंकी ने कहा वे और वर्मा, आसाराम के सामने डटे रहने वाले पीड़ितों और गवाहों के साहस से प्रेरणा लेते थे. उन्होंने देखा था कि कैसे जोधपुर की पीड़िता दो महीने तक लगातार कोर्ट के चक्कर लगाती रही. उसके मां-बाप, क्रमश: बीस दिनों और एक महीने बाद कोर्ट के सामने पेश हुए. जांच अधिकारी चंचल मिश्रा एक साल तक कोर्ट आते रहे. वकीलों को लगा उनका सामूहिक साहस, आसाराम को एक दिन सजा दिलवाना जरूर सुनिश्चित करेगा. “आसाराम के अपराधों का घड़ा भर गया है,” सोलंकी ने कहा.
जिस दिन से मैंने जोधपुर कोर्ट का नजारा देखा है, यह साफ हो गया था कि इतने घिनौने और गंभीर आरोपों के बाद भी, आसाराम के अनुयाइयों का उसके प्रति आदर और भक्ति भाव कम नहीं हो रहा था. “मैं इससे ज्यादा क्या बोल सकता हूं?” उस दिन कोर्ट में एक पुलिस अफसर ने मुझसे कहा. “अगस्त 2013 में, आसाराम के गिरफ्तार होने के बाद से, लोग यहाँ उसकी पूजा करना जारी रखे हुए हैं. उसके भक्त आज भी पूर्णमासी के दिन वर्त रखते हैं और उसे जोधपुर जेल के बाहर उसकी पूजा करने के बाद ही खोलते हैं.”
आसाराम शुरू में पुलिस से भी अपने अधीनस्थ होने की अपेक्षा करता था. लेकिन “जब कोर्ट में मुकदमा शुरू हुआ तो वह इतना हताश हो चुका था कि कांस्टेबलों को बराबर कोसता रहता,” तीन साल तक इस केस पर काम करने वाले एक वरिष्ठ पुलिस अफसर ने मुझे बताया. ऐसा लगता था जैसे गॉडमैन को लगता हो कि वह अपनी कथित दैवीय शक्तियों से उनको डरा सकता है. वे उनको कठोरतापूर्वक घूरता और कहता, ‘मैं तुम्हे भस्म होने का श्राप देता हूं.”
पुलिस वालों ने तो गॉडमैन के श्रापों की परवाह नहीं की, “लेकिन दुःखद बात यह है कि आम आदमी उसकी ‘दैवीय शक्तियों’ के झांसे में आ जाता है,” अफसर ने कहा. “मुकदमे के तीन साल के बाद भी, बाहर उसके समर्थन में खड़े लोग, उसके प्रभाव का जीता-जागता उदाहरण हैं.” एक पुलिस वाले ने मुझे बताया कि कुछ बेशर्म किस्म के वकीलों ने जोधपुर कोर्ट के बाहर पैसों की एवज में भक्तों को आसाराम की झलक दिखाने को अपना साइड बिजनेस बना लिया है.
कोर्ट का दिन समाप्त होने तक, आसाराम के दर्शन के लिए भीड़ फिर से जमा होने लगी थी. मैं कोर्ट रूम के बाहर प्रतीक्षा करता रहा. शाम छह बजे के करीब आसाराम को बाहर लाया गया. जब वह सामने वाले बरामदे से धीरे-धीरे बाहर आ रहा था, हमारी आंखें क्षण भर के लिए मिलीं. उसे फिर नीचे की तरफ लाया गया और उसके बाद नीली वैन की तरफ ले जाया गया.
वैन पुलिस दस्ते के साथ जब कोर्ट परिसर के बाहरी गेट की तरफ बढ़ी तो मर्द और औरत फिर एक बार इसके पीछे “बापू! बापू! कहते हुए दौड़े.” एक जवान महिला ने वैन के टायर के नीचे की जमीन से मिट्टी उठाई और उसे अपने माथे पर लगा लिया.
उस रात मैं जोधपुर जेल भी गई . मुझे उत्सुकता थी यह देखने की कि आसाराम के भक्त वहां भी एकत्रित हुए हैं या नहीं. जेल की बाहरी दीवारें, भक्तों ने ‘बापू; और ‘गुरु कृपा’ से रंग दी थीं. आसाराम के भक्तों का एक समूह जेल के मुख्य द्वार के सामने सो रहा था. ठण्ड से खुद को बचाने के लिए उन्होंने पॉलिथीन को शरीर से लपेट रखा था. दूर से देखने पर वे किसी मुर्दाघर में अंतिम संस्कार के लिए एक पंक्ति में पड़ी लाशें नजर आ रहे थे.
(अंग्रेजी कारवां के अप्रैल 2017 अंक में प्रकाशित इस रिपोर्ट का अनुवाद राजेन्द्र सिंह नेगी ने किया है.