'हिंदू हृदय सम्राट' स्वामी असीमानंद

विवेक सिंह/कारवां
विवेक सिंह/कारवां

[I]

जेलर ने हुक्म दिया, “स्वामीजी को बुलाओ.” दो सिपाही जेलर के ऑफिस से बाहर आए और दौड़ने लगे. कानों के पर्दे भेद देने वाला शोर कमरे में गूंजने लगा. लग रहा था जैसे सैकड़ों लोग एक साथ चीख रहे हों. साल 2011 की जनवरी में अंबाला केन्द्रीय कारावास में कैदियों से मिलने वालों की भीड़ है.

कुछ देर बाद फायरब्रांड नेता असीमानंद जिनके ऊपर 2006 से 2008 तक देश के कई नागरिक ठिकानों पर आतंकी हमले करने का आरोप है जेलर के कार्यालय के दरवाजे से भीतर दाखिल हुए. उन्होंने घुटनों तक लंबे गेरुए रंग के वस्त्र धारण किए हुए थे. उनके कपड़ों से साफ था कि इन्हें थोड़ी देर पहले इस्त्री किया गया था. उन्होंने एक बंदर टोपी पहन रखी थी जिससे उन्होंने अपना ललाट ढंक रखा था और गले में एक गेरुआ शॉल लपेट रखा था. ऐसा लगा कि मुझे देखकर वे आश्चर्यचकित हैं. हमने एक-दूसरे को प्रणाम किया और फिर वे वहां से मुझे साथ वाले एक कमरे में ले गए. इस कमरे में सफेद धोती-कुर्ते में किरानी बैठे थे और बेहद भारी-भरकम खातों पर काम कर रहे थे. वो दरवाजे के पीछे रखे सफेद लकड़ी के ट्रंक पर बैठे और मुझे पास की मेज से कुर्सी खींचकर बैठने का इशारा किया. वो एक अच्छे मेजबान की तरह अनौपचारिक थे और मुझसे वहां आने के बारे में पूछा. मैंने कहा, “किसी को तो आपकी कहानी कहनी ही है.”

ये असीमानंद के उन चार साक्षात्कारों में एक की शुरुआत थी जो मैंने दो सालों से कुछ अधिक समय में लिए थे. उनके ऊपर फिलहाल हत्या, हत्या का प्रयास, आपराधिक षडयंत्र और देशद्रोह जैसे आरोप लगे हैं. ये आरोप उन धमाकों के मामले में लगे हैं जिनमें कम से कम 82 लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी थी. इसकी भी आशंका थी या है कि उन पर दो मामले और चल सकते हैं जिनमें आरोपपत्र में उनका नाम तो है लेकिन उन्हें औपचारिक तौर पर आरोपी नहीं बनाया गया है. इन पांच धमकों में 199 लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी थी और इसने भारतीय समाज के समरसता के धागे को तोड़ने का काम किया था. यदि असीमानंद दोषी सिद्ध होते हैं तो उन्हें फांसी के फंदे पर चढ़ना पड़ सकता है.

हमारी बातचीत के दौरान असीमानंद बेहद हार्दिक बने रहे और खुलकर बातचीत की. उन्होंने अपने जीवन की जो कहानी बताई वह शानदार होने के साथ बेहद डरावनी भी थी. उन्होंने जिन हिंसा की घटनाओं को अंजाम दिया है उस पर उन्हें बेहद गर्व है और उन्हें उन आदर्शों पर भी गर्व है जिनके आधार पर उन्होंने अपना जीवन जिया है. चार दशकों से अधिक समय तक उन्होंने तहे दिल से हिंदू राष्ट्रवाद का प्रचार प्रसार किया है; इस दौरान उन्होंने ज्यादातर समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के आदिवासी मामलों की शाखा वनवासी कल्याण आश्रम के झंडे तले काम किया है. इस दौरान उन्होंने संघ आधारित हिंदुत्व की विचारधारा और हिंदू राष्ट्र की इसकी परिकल्पना को फैलाने का काम किया है. इस अपने जीवन के 60वें दशक को जी रहे असीमानंद ने अपने विचारों में रत्ती भर का क्षय नहीं आने दिया है.

साल 1949 में नाथूराम गोडसे और उसके सहयोगी नारायण आप्टे को अंबाला जेल में फांसी पर लटकाया गया था और वहीं उनका अंतिम संस्कार किया गया. उन्हें ये सजा मोहनदास गांधी की हत्या के मामले में मिली थी. उनके साथ इस षडयंत्र का हिस्सा रहे गोडसे के भाई गोपाल को 18 साल उम्र कैद की सजा मिली थी. आज के दौर में हिंदू राष्ट्रवाद आधारित आतंकवाद का संभवत: सबसे बड़ा चेहरा असीमानंद हैं. धमाकों के पहले जिन पत्रकारों की मुलाकात असीमानंद से हुई थी उन्होंने उनके बारे में मुझे बताया था कि वे एक बेहद अभिमानी और असहिष्णु व्यक्ति हैं. लेकिन मैंने जेल के अंधकार वाले रिकॉर्ड रूम में जो देखा उससे लगा कि जेल की सजा ने असीमानंद को एक अलग इंसान बना दिया है लेकिन इसके बावजूद उनके भीतर पछतावे की कोई भावना नहीं है. असीमानंद ने मुझसे कहा, “मेरे साथ जो भी होगा वह हिंदुओं के लिए अच्छा होगा. लोगों में हिंदुत्व का भाव आएगा.”

18 फरवरी 2007 की रात को दिल्ली जंक्शन रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 18 से समझौता एक्सप्रेस रोज की तरह अपने सफर पर चल पड़ी थी. समझौता जिसे हम दोस्ती एक्सप्रेस के नाम से भी जानते हैं, उन दो गाड़ियों का हिस्सा है जो भारत-पाकिस्तान को रेल लिंक से जोड़ती हैं. उस रात इसके 750 यात्रियों में से लगभग तीन चौथाई पाकिस्तानी यात्री अपने वतन लौट रहे थे. आधी रात से कुछ मिनट पहले-और ट्रेन के सफर के शुरू होने के एक घंटे बाद-16 डब्बों वाली इस ट्रेन के दो अनारक्षित डब्बों में इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) का धमाका हुआ. रात के गलियारों से निकलती ये ट्रेन अब धूं-धूं करके जल रही थी.

धमाकों की वजह से डब्बों के दरवाजे बंद हो गए जिससे यात्री भीतर कैद होकर रह गए. एक रेलवे अधिकारी ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया था, “घटना भयानक थी. यात्रियों के पूरी तरह से जल चुके और अधजले शरीर डब्बों में चारों ओर बिखरे हुए थे.” बाद में सूटकेस में बंद दो आईईडी को घटना स्थल से जब्त किया गया था, ये दोनों किसी कारण से फटे नहीं थे; इस यंत्र (आईईडी) को पीईटीएन, टीएनटी, आरडीएक्स, पेट्रोल, डीजल और केरोसीन जैसी चीजों को मिलाकर बनाया गया था. इस धमाके में 68 लोगों की मौत हो गई.

ये पांच हमलों में से दूसरा और सबसे भयानक हमला था जिसमें असीमानंद का नाम सामने आया. समझौता ट्रेन ब्लास्ट मामले में अब वे मुख्य आरोपी हैं; मई 2007 में हैदराबाद का मक्का मजिस्द धमाका जिसमें 11 लोगों की जानें गई थीं उसमें असीमानंद तीसरे नंबर के आरोपी हैं; साल 2007 के ही अक्टूबर महीने में राजस्थान की अजमेर दरगाह पर एक धमाका हुआ था जिसमें तीन लोगों की मौत हुई थी और इस मामले में असीमानंद छठे नंबर के आरोपी हैं. दो और मामलों में उनके नाम सामने आए हैं हालंकि, उन्हें इनमें अभी तक आरोपी नहीं बनाया गया है. ये मामले सितंबर 2006 में महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए धमाके और सितंबर 2008 में यहीं हुए एक और धमाके के हैं जिनमें 37 लोगों की जानें चली गई थीं.

विभिन्न एजेंसियों ने अलग-अलग समय पर इनमें से कई ममलों की जांच की है- इनमें मंबई एंटी-टेरर स्कॉवड (एटीएस), राजस्थान एटीएस, सीबीआई और एनआईए जैसी एजेंसियों के नाम शामिल हैं. इन पांच मामलों में कम से कम एक दर्जन आरोपपत्र दाखिल किए गए हैं. 31 लोगों को औपचारिक तौर पर आरोपी बनाया गया है और उनमें से असीमानंद के दो बेहद करीबी साथियों-प्रज्ञा सिंह ठाकुर जो बीजेपी की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्य थीं और सुनील जोशी जो कि इंदौर में आरएसएस के पूर्व नेता थे का नाम शामिल है. सभी जांच एजेंसियों ने इस बात पर जोर दिया कि हमले का षडयंत्र रचने में असीमानंद की अहम भूमिका थी. अपने बयान के मुताबिक एम असीमानंद ने इसके लिए प्लान बनाने के कार्यक्रमों का आयोजन किया, कहां हमले करने हैं ये तय किया, आईईडी बनाने के लिए जो पैसे लगने थे उसका इंतजाम किया और इन्हें अपने पास रखा और उन लोगों को शरण दी जिन्होंने बमों को धमाके की जगह पर रखा था.

दिसंबर 2010 और जनवरी 2011 में असीमानंद ने कोर्ट के सामने दो अपराधों की स्वीकारोक्ति की. ये दिल्ली और हरियाणा की कोर्ट में हुआ जिनमें उन्होंने हमले की योजना बनाने की बात स्वीकारी. उन्होंने कानूनी सहायता लेने से इनकार कर दिया. उन्होंने न्यायिक हिरासत में 48 घंटे गुजारे थे और इस दौरान उन्हें जांच एजेंसियों से दूर रखा गया था जिसके बाद उन्होंने ये बयान दिए थे. इसका अभिप्राय ये था कि उनके ऊपर कोई दबाव न रहे और उन्हें मन बदलने का मौका मिल सके. दोनों बार असीमानंद ने तय किया की वे अपने अपराध स्वीकारेंगे और इसी के तहत कोर्ट में अपने बयान दर्ज करवाए. उनके और उनके दो साथी षडयंत्रकारियों के गुनाह कबूलने में एक समान बात सामने आई जिसमें कहा गया था कि इन हमलों का षडयंत्र आरएसएस के एक वरिष्ठ सदस्य को जानकारी में रखकर किया गया था.

28 मार्च 2011 को असीमानंद ने सहायता स्वीकार कर ली. पिछले दिनों उन्होंने जो गुनाह कबूल किए थे उससे पलट गए और दावा किया कि ये बयान उनके ऊपर किए गए अत्याचार और दबाव के बाद दिए गए थे. उन्होंने ट्रायल कोर्ट के सामने एक अर्जी दी थी जिसमें लिखा था, “असीमानंद के कथित स्वीकारोक्ति को मीडिया को लीक किया गया. ये चौंकाने वाला है और जानबूझकर किया गया लगता है. ये एक डिजाइन का हिस्सा लगता है जिसके तहत मामले का राजनीतिकरण करके इसका प्रचार किया जा सके. इससे ये भी लगता है कि इसका मीडिया ट्रायल किए जाने की भी योजना है जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदू आतंक की धारणा को बल दिया जा सके और इससे देश की सरकार चला रही पार्टी को फायदा पहुंचाया जा सके.” समझौता मामले पर काम कर रहे बचाव पक्ष के कई वकीलों और असीमानंद ने मुझे बताया कि सभी वकील संघ के सदस्य हैं; उनमें से एक ने कहा कि वे मामले को अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद की मीटिंग में मैनेज करते हैं. अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद आरएसएस की कानून शाखा है.

जब मैंने उनका साक्षात्कार लिया तब असीमानंद ने किसी तरह के टॉर्चर की बात से इनकार किया और इससे भी इनकार किया कि उन्होंने जो गुनाह कबूले थे उसके लिए उन्हें मजबूर किया गया था या उन पर कोई दबाव डाला गया था. उन्होंने कहा कि जब सीबीआई ने उन्हें धमाकों के मामले में गिरफ्तार किया तो उन्होंने तय किया कि “इस बारे में सब कुछ बता देने का यह एक अच्छा समय है. मुझे पता था कि इसके लिए मुझे फांसी हो सकती है लेकिन मैं वैसे भी बूढ़ा हो चुका हूं”.

हमारी बातचीत के सिलसिले के दौरान असीमानंद जिस हमले की साजिश में शामिल थे उसकी कहानी का विवरण बेहद लंबा हो गया. हमारे तीसरे और चौथे साक्षात्कार में उन्होंने मुझे बताया कि उनकी आतंकवादी गतिविधियों को आरएसएस के आलाकमान से हरी झंडी मिली थी-इसके तार संघ के वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत तक से जुड़े हैं, तब वे संघ के महासचिव थे. असीमानंद ने भागवत ने उनसे हिंसा को लेकर जो कहा था उसके बारे में बताते हुए मुझसे कहा, “ये बहुत जरूरी है और इसे किया जाना चाहिए. लेकिन आपको इसे संघ से नहीं जोड़ सकते.”

असीमानंद ने मुझे उस मुलाकात के बारे में बताया जो कथित तौर पर 2005 में हुई थी. सूरत में आरएसएस की एक गुप्त बैठक हुई थी. वरिष्ठ संघ नेता भागवत और इंद्रेश कुमार गुजरात के डेंग के एक मंदिर पहुंचे. इंद्रेश कुमार अभी संघ की सात सदस्यीय राष्ट्रीय आधिकारिक परिषद के सदस्य हैं. भागवत और इंद्रेश इस यात्रा के बाद वहां पहुंचे जहां असीमानंद रह रहे थे. इसके लिए उन्हें दो घंटे का सफर और तय करना पड़ा. भागवत और कुमार को असीमानंद से मिलने के लिए एक टेंट के पास जाना पड़ा. ये टेंट मंदिर से कई किलोमीटर दूर एक नदी के किनारे लगा हुआ था. इस दौरान उनकी मुलाकात असीमानंद के सहयोगी सुनील जोशी से भी हुई. जोशी ने भागवत को उस प्लान के बारे में बताया जिसके तहत भारत के कई मुस्लिम ठिकानों पर बम धमाका किया जाना था. असीमानंद के मुताबिक आरएसएस के दोनों नेताओं ने इस प्लान को हरी झंडी दी और भागवत ने उनसे कहा, “आप इस पर काम कर सकते हैं.” वहीं, इंद्रेश ने आगे कहा, “आप इस पर सुनील के साथ काम कर सकते हैं. हम इसमें शामिल नहीं होंगे लेकिन अगर आप ये कर रहे हैं तो ये मानकर चल सकते हैं कि हम आपके साथ हैं.”

असीमानंद ने बोलना जारी रखा, “उन्होंने मुझसे कहा, ‘स्वामीजी, अगर आप ये करते हैं तो हम इसके साथ सहज हो जाएंगे. फिर कुछ गलत नहीं होगा. इसका अपराधिकरण नहीं होगा. अगर आप ये करते हैं तो लोग ये नहीं कहेंगे कि हमने सिर्फ अपराध करने के लिए अपराध किया. इसे विचारधारा से जोड़ा जाएगा. ये हिंदुओ के लिए बहुत जरूरी है. आप कृपा करके इसे जरूर करिए. आपको हमारा आशीर्वाद प्राप्त है.’”

जांच एजेंसियों ने जो आरोपपत्र दायर किया है, उसके मुताबिक कुमार ने साजिशकर्ताओं को नैतिक और इसके लिए जरूरी चीजों का सर्मथन मुहैया कराया लेकिन उन्होंने इसमें भागवत के कद के किसी का नाम शामिल नहीं किया है. हालांकि, एक बार सीबीआई ने कुमार से पूछताछ की लेकिन बाद में मामला एनआईए के हाथों में चला गया जिसने इस मामले को असीमानंद और प्रज्ञा सिंह के आगे नहीं बढ़ाया. (जोशी कथित तौर पर षडयंत्र की कई कड़ियों को जोड़ने वाला हिस्सा थे- इनमें वे भी शामिल थे जिन्होंने बम बनाया और वे भी जिन्होंने बम को हमले की जगह पर रखा- जोशी की मौत दिसंबर 2007 में रहस्यमई परिस्थितियों में हो गई.)

जब 2010 में पहली बार ये आरोप सामने आए कि हमले में कुमार की भूमिका थी तो आरएसएस उनके बचाव में उतर गया. भागवत ने तो कुमार पर लगे इन आरोपों के खिलाफ धरने तक में हिस्सा लिया. ऐसा शायद ही हुआ है कि किसी सर-संघचालक ने ऐसी किसी गतिविधि में हिस्सा लिया हो. बीजेपी ने भी उनका बचाव किया है और पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी मामले में कुमार की वकील थी. चार्जशीट में उनका नाम आने के बाद लेखी ने उनका बचाव किया. आरोपियों में से एक के वकील ने मुझे बताया कि कुमार “बहुत महत्वकांशी” हैं और “सर-संघचालक बनने के इंतजार में हैं.”

18 फरवरी 2007 को दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 18 से छूटी समझौता एक्सप्रेस में सवार 750 यात्रियों में से लगभग तीन चौथाई पाकिस्तानी यात्री अपने वतन लौट रहे थे. आधी रात को इसके दो अनारक्षित डब्बों में इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) का धमाका हुआ. अमित भार्गव / कोर्बिस

जांच में शामिल जांच एजेंसियों में से एक एजेंसी के अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर मुझे गृह मंत्रलाय को सौंपी गई गुप्त रिपोर्टों का निरीक्षण करने दिया. रिपोर्ट में गृह मंत्रालय से इस बात का अनुरोध किया गया था कि वे संघ को कारण बताओ नोटिस जारी कर पूछे कि उनके खिलाफ सबूत होने की स्थिति में उसे बैन क्यों नहीं किया जाए. गृह मंत्रालय ने अब तक इस रिपोर्ट के ऊपर कोई कदम नहीं उठाया है.

आरएसएस को बैन होने का डर है- गांधी की हत्या के बाद 1948 में इसे थोड़े समय के लिए बैन किया गया था; 1975 की इमरजेंसी में भी इसे बैन किया गया था; और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी इसे बैन किया गया था- सो इसके नेतृत्व पर ये डर मंडराता रहता है. जब कभी इसके किसी सदस्य पर आतंकी हिंसा का मामला सामने आया है तो संघ ने वही नीति अपनाई है जो इसने नाथूराम गोडसे के मामले में अपनाई थी: सवाल ही नहीं है कि षडयंत्रकारी को अपना हिस्सा मान लेंगे या उसे अपना हिस्सा मानने से इनकार कर देंगे. ऐसे मामलों में आरएसएस की एक ही राय होती है कि इन सबने पहले ही संघ से नाता तोड़ लिया या वे अपनी निजी क्षमता में ये सब कर रहे थे या हिंसा का मार्ग अपनाने के लिए खुद को सबसे अलग कर लिया.

इस मामले में असीमानंद आरएसएस के लिए एक बड़ी मुश्किल पेश करते हैं. 1952 में अस्तित्व में आने के बाद से वनवासी कल्याण आश्रम संघ परिवार का केंद्रीय हिस्सा रहा है और असीमानंद ने अपने युवा जीवन का पूरा हिस्सा इस संस्था की सेवा के लिए समर्पित किया है. जिस समय उन्होंने इस हमले का प्लान बनाया था, उस समय वे वनवासी कल्याण आश्रम (वीकेए) की धार्मिक शाखा के राष्ट्रीय प्रमुख थे- एक दशक के लिए- ये पद खास तौर पर उनके लिए बनाया गया था. इस आतंकी वारदात के भी पहले तय तरीके से की गई हिंसा (जिनमें सामप्रदायिक हिंसा भी शामिल है) उनके काम करने के तरीके का अभिन्न अंग था.

भागवत और कुमार पर आरोप है कि दोनों साल 2005 के मध्य से ही असीमानंद के हिंसा के षडयंत्र से अवगत थे. असीमानंद का बहिष्कार नहीं किया गया- दूर दूर तक ऐसा नहीं था. आरएसएस के साप्ताहिक मुखपत्र ऑर्गनाइजर की एक रिपोर्ट के मुताबिक उसी साल दिसंबर महीने में असीमानंद को एक लाख रुपए का पुरस्कार दिया गया था. ये पुरस्कार उन्हें एसएस गोलवलकर की जन्म जयंती पर दिया गया था. गोलवलकर आरएसएस के दूसरे सबसे पूज्य प्रमुख रहे हैं; इस दौरान बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पार्टी के पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने समारोह का मुख्य भाषण दिया था. चाहे कुमार पर इस मामले में उनके खिलाफ लगे आरोपों के जांच की छाया न पड़ी हो, इस बात पर सवाल नहीं के बराबर है कि आरएसएस ने असीमानंद के साथ अपने भाईचारे को दृढ़ता से नकारा है.

संघ के सदस्यों द्वारा पिछले दशक में किए गए हमलों की निंदा करते हुए स्वामी अग्निवेश ने मुझसे कहा, “हिंदुत्व आधारित आतंक से संघ खुद को और हिंदू समाज के अन्य लोगों को नुकसान पहुंचाएगा.” अग्निवेश हिंदू समाज के एक प्रमुख समाज सुधारक हैं. उन्होंने कहा, “ये निंदनीय है.” राजनीतिक विज्ञानी ज्योतिरमाया शर्मा ने कहा, “आरएसएस खुद को खुले तौर पर किए गए और छुप कर किए गए दोनों तरह के अभियानों में शामिल करता है. लेकिन संस्था का मुख्य तरीका गुरिल्ला युद्ध पद्धति में हमला करके गायब हो जाने वाली वह शैली है जिसकी वकालत शिवाजी के गुरु रामदास किया करते थे और दिक्कत ये है कि हमारे देश में पर्याप्त उदार संस्थान नहीं हैं- ये राजनीतिक पार्टियों से लेकर पर्याप्त रूप से मजबूत मीडिया तक पर लागू होता है- इसलिए हिंदू धर्म के नाम पर उधम मचाकर किए गए ऐसे आतंकी कृत्यों से लोहा लेना आसान नहीं है.” हिंदुत्व पर शर्मा तीन किताबें लिख चुकी हैं.

उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद 1948 से लेकर अब तक संघ ने लंबा सफर तय किया है. लोगों को अपने अनुसार ढालने और राष्ट्र निर्माण के अपने प्रयासों के तहत आरएसएस और इससे जुड़ी संस्थाएं खास तौर पर बीजेपी को देख कर ऐसा लगता है कि अब ये भारत की मुख्यधारा के एक बड़े तबके को प्रस्तुत करते हैं. असीमानंद भी कई वजहों से ऐसे ही प्रयासों का परिणाम हैं और वे आरएसएस के लक्ष्य को अपना लक्ष्य मानते हैं-चाहे ये संघ के लक्ष्य से बड़ा बन गया हो: उन्होंने मुझे बताया कि वे भविष्य में एक वैश्विक हिंदू राष्ट्र का विचार रखते हैं.

[II]

हिंदू राष्ट्र में असीमानंद का तीक्ष्ण विश्वास और इसे हासिल करने के लिए हिंसा के प्रति उनकी निष्ठा की उत्पति दो ऐसे धाराओं से हुई जो आपसे में जुड़ी तो हैं लेकिन मूलभूत रूप से बिल्कुल अलग हैं- पहला तो रामकृष्ण मिशन का दुनियावी कर्मयोग और दूसरा आरएसएस का हिंदुत्व. असीमानंद का निर्माण इन्हीं दोनों धाराओं को मिलाकर हुआ और एक हद तक उन्होंने जीवन के तपस्वी रूप को आरएसएस के अतिवाद राजनीति के साथ मिलाने का फैसला किया. कुछ हद तक ये उनके संघ की शाखाओं में शुरुआती दिनों में लिए गए उनके हिस्से की वजह था और कुछ हद ये उनकी पिता के आर्दशों के त्याग का भी परिणाम था. असीमानंद के अपने कहे के मुताबिक, हिंदुत्व की एक राजनीतिक ताकत किसी जागृति की तरह थी.

विस्फोट के एक वर्ष पहले शबरी धाम में असीमानंद. परोमा मुखर्जी

पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में 1951 में असीमानंद का जन्म नाबा कुमार सरकार के रूप में हुआ था. वे आजादी की लड़ाई का हिस्सा रहे विभूतीनाथ सरकार के सात बेटों में से दूसरे नंबर के बेटे थे. उनके पिता एक घोर गांधीवादी इंसान थे जिनका कहना था कि गांधी उनके भगवान हैं. कामारपुकुर नाम के जिस गांव में वे रहते थे वहीं 19वीं सदी के संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म हुआ था जो “यथो मत, ततो पथ” (भगवान के रास्ते पर चलने के लिए कई तरह के विश्वास हैं). रामकृष्ण के सबसे मशहूर शिष्य स्वामी विवेकानंद ने 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जिसके सहारे उन्होंने कर्मयोग के कार्य को आगे बढ़ाया. कर्मयोग में इंसान खुद को भूलकर सेवा करता है. जब असीमानंद बड़े हो रहे थे तो वे इसकी लोकल ब्रांच के इर्द-गिर्द पले बढ़े- यहां रामकृष्ण के भक्त उनकी तीर्थयात्रा पर आया करते थे-यहीं असीमानंद साधुओं को भक्ति भजन गाते सुनाते और जीवन की कई शामें बिताते.

विभूतीनाथ और उनकी पत्नी प्रमिला दोनों ही चाहते थे कि उनके बेटे मिशन के पवित्र आदेशों का पालन करें- ये उस दौर में कई धार्मिक बंगाली परिवारों के लिए गौरव की बात थी. लेकिन असीमानंद और उनके भाईयों का झुकाव आरएसएस की तरफ भी था जिसके समाज सेवा की परिभाषा एमएस गोलवलकर के नेतृत्व में तेजी से बढ़ रही थी. असीमानंद ने याद करते हुए कहा कि उनके पिता उनसे कहा करते थे, “मैं अपनी जवानी में विचारधाराओं के पीछे गया और उनके साथ जिया. इसलिए जब तुम किसी विचारधारा से प्रभावित होते हो और इससे जुड़ना चाहते हो तो मैं इसे समझ सकता हूं. लेकिन आरएसएस वह संस्था है जिसने गांधी की हत्या की है, इसलिए इसके खिलाफ तुम्हें चेतावनी देना मेरा कर्तव्य है.” इसके बावजूद बड़े होकर परिवार के लड़के वहां के आरएसएस कार्यकर्ताओं के करीब आ गए. सरकारी आवास में इन कार्यकर्ताओं का लड़कों के साथ खाना पीना होता था और फिर लड़के संघ की स्थानीय शाखा में हिस्सा लेने लग गए. असीमानंद के बड़े भाई संघ से पूरी तरहे से जुड़ गए. असीमानंद और उनके छोटे भाई सुशांत सरकार जिनसे मैं कामारपुकुर में मिला, मुझे बताया कि उनके पिता ने इसे रोकने की कोशिश नहीं की, लेकिन उन्होंने इसके खिलाफ एक सख्त चेतावनी जरूर दी: (इसमें कहा गया) भाइयों में से कोई कभी भी पिता को संघ के किसी सदस्य से मिलवाने की कोशिश नहीं करेगा.

संघ के दो स्वयंसेवकों के प्रभाव में आकर असीमानंद के विश्वास और समझ में अभूतपूर्व परिवर्तन आए. ये उस दौर में हुआ जब वह बीस साल की उम्र पार कर गए थे. पहले संघ कार्यकर्ता बिजोय अद्या थे जो असीमानंद को उग्र हिंदू राजनीति की ओर ले गए. कोलकाता के उस ऑफिस में जहां अब वे बंगाली में आने वाली संघ की साप्ताहिक समाचाक पत्रिका स्वास्तिक का संपादन करते वहीं उन्होंने मुझे बताया कि वे पहली बार 1971 में असीमानंद से मिले. तब असीमानंद एक स्थानीय विश्वविद्यालय में भौतिकी में स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे-बाद में उन्होंने इसमें परास्नातक की डिग्री भी हासिल कर ली-लेकिन अद्या के मुताबिक, “असीमानंद के परिवार वालों को हमेशा से लगता था कि वह अपने बाकी के भाइयों से बिल्कुल अलग हैं.” अद्या ने कहा, “उन्हें पता था कि उनके यह बेटा बाकी के भाईयों की तरह आम जिंदगी नहीं जिएगा.” इस दौरान असीमानंद ने हालांकि, विवेकानंद मिशन में भी नियमित तौर पर जाना नहीं छोड़ा था. अद्या ने कहा, “उन्हीं के घर की देन थी कि मैंने साहित्य का जो बड़ा हिस्सा पढ़ा, वहीं से पढ़ा.”

सरकारी लाइब्रेरी में जो किताबें थीं उनमें अ राउजिंग कॉल टू द हिंदू नेशन नाम की भी एक किताब थी. ये विवेकानंद के भाषणों का संग्रह है जिसे एकनाथ रानडे ने संपादित किया है. रानडे हिंदुत्व की मुहिम का एक बड़ा चेहरा रहे हैं और इसलिए उनके साथियों ने उन्हें अंडरग्राउंड “सरसंघचालक” का उपनाम दिया. ये नाम उन्हें उस दौर में उनके नेतृत्व के लिए मिला जब गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर बैन लग गया था. किताब का जोर विवेकानंद की उस पुकार पर है जिसमें वे हिंदुओं से “उठाने! जागृत होने! और तब तक नहीं रुकने के लिए कहते हैं जब तक की लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए.” अद्या ने कहा कि रामकृष्ण मिशन ने गलत तरीके से विवेकानंद की धर्मनिरपेक्ष छवि गढ़ी थी जिसके सहारे वे सरकारी पैसे हासिल कर सकें और रानडे के लेखन ने इसे ठीक कर दिया. (आरएसएस प्रमुख गोलवलकर की आज्ञा पर रानडे ने कन्याकुमारी में बन रहे 1.35 करोड़ के विवेकानंद रॉक मेमोरियल के बनाए जाने के काम की देखरेख भी की. ये काम 1970 में पूरा हुआ था.) अद्या ने असीमानंद को ये किताब पढ़ने के लिए उत्साहित किया.

असीमानंद ने मुझे बताया, “रामकृष्ण मिशन के मुताबकि हर धर्म बराबर है. वे क्रिसमस से ईद तक सब मनाते थे और इसी वजह से मैं भी ऐसा किया करता था. जब अद्या ने कहा कि ये उस तरह से नहीं है जैसा विवेकानंद कहा करते थे तो मैंने उसकी बात का भरोसा नहीं किया.” इसके बाद असीमानंद ने रानडे को पढ़ना शुरू किया. विवेकानंद से जुड़ी एक लाइन ने असीमानंद को खासा प्रभावित किया: “हर वह व्यक्ति जो हिंदू धर्म छोड़कर जाता है सिर्फ उसके आदमी होने में कमी नहीं है बल्कि वह दुश्मन ज्यादा है.”

असीमानंद ने कहा, “ये पढ़कर मुझे करारा झटका लगा. इसके बाद के दिनों में मैंने इस पर बहुत विचार किया. फिर मैंने एक चीज महसूस की कि विवेकानंद के ज्ञान का पूरी तरह से विश्लेषण करना मेरे सीमित समझ की बात नहीं है. लेकिन जैसा कि उन्होंने ये कहा है, मैं पूरी जिदगी इसका पालन करूंगा.” इसके बाद असीमानंद ने कभी रामकृष्ण मिशन का मुंह नहीं देखा.

रानडे ने जिस रूप में विवेकानंद को पेश किया अगर वह असीमानदं की राजनीतिक दृढ़ता की आत्मा बना तो इसे रूप देने वाले आरएसएस कार्यकर्ता का नाम बसंत राव भट्ट था. तपस्वी स्वभाव के भट्ट 1956 में नागपुर से कलकत्ता इसलिए आ गए थे ताकि वे असीमानंद के लिए काम कर सकें. भट्ट आरएसएस के मिशन के लिए बेहद तीक्षणता से प्रतिबद्ध थे लेकिन उनको देखकर सौम्य और अपने वश में कर लेने वाले करिश्मे का ऐहसास होता था; असीमानंद ने मुझे बताया, “इस बात पर विश्वास करना मुश्किल है कि जिस संस्थान के लिए बसंत जैसे लोग काम करते हैं वह बुरा हो सकता है.” बाद में भट्ट बंगाल में आरएसएस के अभियान प्रमुख बन गए. भट्ट से ही असीमानंद को वह युक्ति सूझी जिसका सहारा लेकर वे संघ की विचारधारा को रामकृष्ण परमहंस मिशन के पशुधन सेवा के साथ जोड़ सकते हैं.

जब 1975 की इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी ने आरएसएस को बैन कर दिया था तो उन्होंने इसके सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई करनी शुरू की. हजारों संघ कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया और इनमें असीमानंद भी शामिल थे. भट्ट अपने गुरू रानडे की राह पर चल निकले और अंडरग्राउंड अभियान चलाना शुरू कर दिया. इसके तहत वे जेल में बंद कार्यकर्ताओं के परिवार की मदद करने लगे. जब इमरजेंसी समाप्त हो गई तो बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों को अपनी जद में लाने के लिए भट्ट ने वनवासी कल्याण आश्रम की शुरुआत की. इसके तुरंत बाद असीमानंद उनके साथ आ गए और संगठन के लिए अपना पूरा समय लगाने लगे. 1978 में उन्होंने देश के पूर्वोत्तर के हिस्से में पहले वीकेए की स्थापना की. इसकी स्थापना पश्चिम बंगाल के पुरुलिया के बाघमुंडी के जंगलों में की गई थी.

पूर्वोत्तर में इस तरह से खुद को फैलाना उस मुहिम का हिस्सा था जिसके तहत वीकेए को देश भर के आदिवासी इलकों में ले जाने का प्लान बनाया गया था. जब आरएसएस नेता बालासाहेब देशपांडे ने जशपुर (जो अब छत्तीसगढ़ में है) में इसकी स्थापना की थी तब से इस संस्था ने इसाई मिशनरियों के प्रभाव को चुनौती दी है. उन्होंने उरांव जनजाति के लगभग दर्जन भर बच्चों के साथ इसकी शुरुआत की थी और इसके बाद यही प्रयास रहा कि आदिवासियों को इसाई बनने से रोका जाए. इसाईयत को लेकर संघ का मानना है कि ये देश की एकता के लिए खतरा है. संघ का ये भी मानना है कि इसने पूर्वोत्तर जैसे राज्यों में अलगाववादी मुहिम को बढावा दिया है जिससे लंबे समय तक खतरा बना रहा है. वीकेए उसी तर्ज पर काम करता है जिस पर काम करके इसाई मिशनरियों को सफलता मिली हैं: ये खेल के मैदान बनाता है, प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल चलाता है, छात्रावास और स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाएं देता है और इन्हीं सब जगहों पर धर्मातंरण का काम चलता है. इसका लक्ष्य हिंदुत्व को बढ़ावा देना है और इसके सहारे संघ के सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव को बढ़ाना है.

असीमानंद ने अगले 10 साल तक पुरुलिया में इन्हीं लक्ष्यों को पूरा करने का काम किया. लेकिन उन्होंने ये भी तय किया कि वे अपने माता-पिता के उस मर्जी का भी पालन करेंगे जिसके तहत दोनों चाहते थे कि असीमानंद एक मठवासी की तरह अपना जीवन बिताएं और इसकी वजह से उन्होंने 31 साल की उम्र में सन्यास ले लिया. भट्ट ने उनसे कहा कि अगर आदिवासियों के साथ काम करना और संघ के उद्देश्य को आगे बढाना उनका मिशन है तो उन्हें सन्यास लेने की जरूरत नहीं है. लेकिन असीमानंद अपना मन बना चुके थे और पुरुलिया छोड़कर वो बंगाली गुरु स्वामी परमानंद के आश्रम चले गए. असीमानंद ने कहा, “मैंने उन्हें इसलिए अपना गुरू चुना क्योंकि वे रामकृष्ण परमहंस के दिखाए मार्ग पर चलते थे. वे मुख्यतौर पर दलितों के साथ काम करते थे. लेकिन वे हिंदुत्व को फैलाने में भी शामिल थे.” परमानंद ने ही नाबा कुमार सरकार को सन्यास की प्रतिज्ञा दिलाई और उन्हें नया नाम असीमानंद दिया जिसका मतलब- “ऐसा सुख जिसकी कोई सीमा नहीं है.

सन्यास लेने के बाद असीमानंद पुरुलिया और आदिवासियों के साथ उनके काम पर वापस लौट आए. वहां आश्रम में उनके संपर्क में वीकेए के प्रमुख नेता आए जिनमें इसके अखिल भारतीय आयोजन सचिव के. भास्कर राव भी शामिल थे. वे अपने जीवन में ज्यादातर समय केरल में संघ के प्रमुख रहे (केरल में संघ अपनी 4000 शाखाओं को लेकर सेखी बघारता है-जो किसी भी राज्य की तुलना में ज्यादा हैं). असीमानंद से प्रभावित होकर 1988 में राव और जगदेव राम ओरावं ने उनसे वीकेए के धर्मजागरण को अंडमान में फैलाने को कहा. धर्मजागरण वह काम है जिससे आध्यात्मिक जागरण किया जाता है.

अंग्रेजों के जमाने से ही अंडमान निकोबार के 500 से ज्यादा द्वीपसमूहों पर भारत की मुख्य भूमि से जाकर लोग बसे हैं. वहां बसने वालों के लिए शहर बनाने का काम करने के लिए आदिवासियों को उस इलाके से वहां ले जाया गया जिसे आज छत्तीसगढ़ कहते हैं. असीमानंद ने मुझे बताया कि 1970 तक संघ को इस बात की चिंता सताने लगी की वहां गए आदिवासियों पर इसाई मिशनरियों का खासा प्रभाव पड़ा है जिसकी वजह से वहां हिंदुओं और हिंदुत्व के लिए खतरा पैदा हो गया है. इस द्वीप से एक दशक से ज्यादा तक कांग्रेस के मनोरंजन भक्ता लोगों के प्रतिनिधि चुनकर आए हैं. असीमानंद को वहां जाकर आरएसएस की पकड़ मजबूत करनी थी.

असीमानंद ने कहा, “जब मैं पहली बार अंडमान पहुंचा, वहां ऐसी कोई जगह नहीं थी जहां से काम किया जा सके और ऐसे लोग भी नहीं थे जिनके साथ काम किया जा सके.” उन्होंने वहां के आदिवासियों के साथ संपर्क बढ़ाने की ठानी जिसके लिए उन्होंने मिलनसारिता और सरल धार्मिक उत्साह के मेलजोल का सहारा लेने की ठानी. हालांकि, उन्होंने इसके बारे में बहुत कुछ नहीं बताया, उन्होंने मुझसे कहा कि अंडमान में भी आदिवासियों को हिंदू बनाने के लिए उन्होंने हिंसा की धमकी देने का सहारा लिया. उन्होंने इसे सुधार कहते हुए “घर वापसी” का नाम दिया. (संघ का मानना है कि आदिवासी मूल रूप से हिंदू हैं, जीववादी नहीं, और वे उन्हें “फिर से हिंदू बनाने” में विश्वास करते हैं)

असीमानंद ने बेहद जटिल तरीके के प्रचार प्रसार का इस्तेमाल किया. वे आदिवासियों के बीच जाकर रहे और परिवार के उन बुजुर्ग सदस्यों की तलाश की जिन्होंने नए धर्म को पूरी तरह गले नहीं लगाया था. उन्होंने कहा, “उन्होंने मुझे बताया कि हालांकि, उन्होंने इसाई धर्म अपना लिया है, वे फिर भी अपनी परंपरा को जिंदा रखना चाहते हैं-जिनमें उनके त्यौहार और नृत्य शामिल हैं. इसके बाद मैंने उनसे कहा कि इसे पूरा करना मेरा काम है.”

इस समुदाय के बुजुर्गों के साथ हासिल किए गए अच्छे रिश्ते के बाद असीमानंद ने आधा दर्जन लड़कियों को भर्ती किया और उन्हें भजन सीखने के लिए कन्याकुमारी के विवेकानंद केंद्र भेज दिया और, उन्होंने कहा कि, इस बीचे उन्हें “हनुमान में यकीन करना सिखाया गया.” इसके बाद उन्हें जशपुर के वीकेए के मुख्यालय ले गए जहां लड़कियों ने तीन महीनों तक हिंदू संस्कृति पर ज्ञान प्राप्त किया. इसके बाद असीमानंद और लड़कियों ने एक तरह का रोड शो निकाला जो अडंमान के गांवों से होता हुआ गुजरा जिसमें भजन गाए जा रहे थे और नए बच्चों की भर्ती की जा रही थी. असीमानंद को लगा कि ऐसी लड़कियों के साथ सफर करना जो युवा और कुंवारी हैं, सही नहीं है, इसलिए उनकी शादी कर दी गई और बच्चों की अगली खेप-जिन्हें लड़कियों ने ट्रेनिंग दी थी-आठ साल की उम्र के करीब वाले थे.

असीमानंद ने इसके बाद हिंदू समुदाय को औपचारिक बनाने का काम किया जिसके लिए पूजा के स्थायी जगहों और आधिकारिक समितियों का निर्माण किया गया जो इनकी देख भाल कर सकें. पोर्ट ब्लेयर में आर. दामोदरन नाम के एक व्यक्ति स्थानीय मंदिर समिति के अध्यक्ष बनाए गए और बिसनु पद रे नाम के एक बंगाली को सचिव बनाया गया.

1990 तक असीमानंद ने अंडमान में अपना पूरा समय दिया. उन्होंने कहा कि उनके प्रयासों से ही इसकी नींव पड़ी जिसकी वजह से रे उस इलाके में 1999 से बीजेपी के सांसद बने. असीमानंद ने मुझे बताया, “मैंने उन्हें कहा कि उनके लिए राजीनिति में जाना अच्छा होगा और इसी के बाद वे दिल्ली जाकर वाजपेयी से मिले. राजनीति भी हमारे काम का हिस्सा है.” साल 2007 में दामोदरन भी बिना किसी विरोध के पोर्ट ब्लेयर नगर पालिका परिषद के अध्यक्ष बने.

अंडमान से चले जाने के बाद भी असीमानंद वहां बार-बार जाते रहे जिसमें कई बार वे प्राकृतिक आपदाओं के बाद दवाएं और खाना लेकर पहुंचे. लेकिन उन्होंने अपने राहत कार्य को बेहद संवेदनहीनता से उन्हीं तक सीमित रखा जिन्होंने खुद का हिंदू होना स्वीकार किया. उन्होंने मुझे 2004 में आई सुनामी के बाद की कहानी बताई. उन्होंने कहा, “एक इसाई महिला आई और अपने बच्चे के लिए दूध मांगा. मेरे लोगों ने इसके लिए मना कर दिया. फिर महिला ने कहा कि उसके बच्चे ने तीन दिनों से कुछ भी नहीं खाया है और विनती करते हुए कहा कि बच्चा कुछ नहीं खाएगा तो मर जाएगा इसलिए कृपा कर थोड़ा सा दूध दे दो. उसके बाद लोगों ने कहा कि जाकर स्वामीजी से बात कर लो. मैंने उससे कहा कि वे लोग जो कर रहे हैं वह सही. तुम्हें यहां कोई दूध नहीं मिलेगा.” ये वह कहानी है जिसे असीमानंद बार-बार दोहराना पसंद करते हैं.

[III]

गुजरात में डांग सबसे छोटा और सबसे कम आबादी वाला जिला है और राज्य के दक्षिणी हिस्से में स्थित है. ये महाराष्ट्र की सीमा के पूर्व और पश्चिम में स्थित है. यहां बसे 2 लाख के करीब लोगों में 75 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन गुजारते हैं और 93 प्रतिशत लोग आदिवासी हैं. अन्य आदिवासी इलाकों की तरह इस इलाके ने संसाधन और विचारधारा के बंटवारे के मामले में अभूतपूर्व संघर्ष देखा है. सबसे पहले 1830 में अंग्रेजों ने इलाके के राज को अपने अधीन कर लिया और 1842 में इलाके के सागौन से भरे जंगलों के दोहन का अधिकार अपने लिए छीन लिया. अभी भी जिले का आधा हिस्सा सागौन के जंगलों से पटा पड़ा है. इसाई मिशनरियों के अलावा अंग्रेजों ने इलाके में सभी सामाजिक और राजनीतिक गतिविधि पर पाबंदी लगा दी. उन्हें इस बार का डर था कि अगर ऐसी कोई गतिविधि होती है तो आदिवासी जिस तरह से जमीन पर अपना अधिकार समझते हैं वे किसी और के हाथों में जा सकता है. वहां पहला मिशन स्कूल जिला मुख्यालय आहवा में 1905 खोला गया था और तब से ही इसाई धर्म में धर्म परिवर्तन के काम में अलग अलग स्तर पर लगे लोग यहां पर सक्रिय हैं. असीमानंद के मुताबिक डांग को इसाई “पश्चिम का नागालैंड” बुलाते थे. उन्होंने कहा, “ये खतरा उतना ही बड़ा है जितना की पूर्वोत्तर में है.”

असीमानंद पहली बार 1996 में डांग गए. ये उनके उस देश भ्रमण का हिस्सा था जिसके लिए उन्हें वीकेए ने भेजा था. संस्था ने उनसे उनके सफल धर्मांतरण कार्यक्रम को देश भर के अन्य आदिवासी इलाकों में फैलाने को कहा था; इसके लिए उन्होंने श्रद्धा जागरण विभाग तक का गठन किया था और उन्हें इसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया. लेकिन असीमानंद को लगा कि अगर वे इलाके में काम करते हैं तो वहां बहुत ज्यादा प्रभाव छोड़ सकते हैं और इसी वजह से उन्हें डांग की तरफ बेहद खिंचा हुआ महसूस किया. उन्होंने कहा, “डांग की जो परिस्थितियां थी उसके हिसाब से काम करने के लिए मैं निपुण हूं- इसका हिस्सा आदिवासियों के बीच रहना और उनके साथ काम करने जैसी बातें हैं. इंसान को हमेशा वही काम करना चाहिए जिससे उसे संतुष्टि हासिल होती है.” उन्होंने मुझे बताया कि पूर्वोत्तर के उलट डांग में इसकी संभावनाएं थीं कि इस इलाके को इसाईयों से वापस पाया जा सकता था.

हालांकि, सबसे पहले असीमानंद संघ के भक्त हैं और उनके वरिष्ठों को इस बात की चिंता थी कि गुजरात के जंगलों में वे उनके राष्ट्रीय जनादेश को पूरा करने में सफल नहीं हो पाएंगे. 1998 तक असीमानंद ने उन्हें इस बात के लिए नहीं मनाया कि उन्हें डांग आधारित उनके अभियान पर पूरा ध्यान देने दिया जाए. उनकी आशंकाएं गलत साबित हुई: जिले में खुद को स्थापित करने के लिए साल से कम समय में असीमानंद संघ कार्यकर्ताओं को देश भर में प्रेरित करने में सफल रहे. इसके लिए उन्होंने धर्म परिवर्तन के अन्य तरीकों और हिंसा आधारित दबाव के मिश्रण का सहारा लिया. असीमानंद ने कहा कि वीकेए के सचिव और केरल आरएसएस के प्रमुख ने इसे “देश भर के लिए एक उदाहरण” का नाम दिया.

1998 में जिस समय असीमानंद वघई आए, कई आदिवासियों ने मुझे बताया कि डांग में धार्मिक विभिन्नताएं पहले से ही आदिवासी समुदाय के लिए कठिनाई पैदा कर रही थीं. 1970 तक इलाके में इसाई धर्म में धर्म परिवर्तन करवाने वाले तुलनात्मक रूप से सीमित थे; लेकिन 1991 से डांग में इसाई आबादी हर साल औसतन 9 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ रही थी. ये तथ्य जनगणना के आंकड़ों पर आधारित हैं. मां-बाप के निधन के बाद भाई की भाई से इस बात पर लड़ाईयां होने लगी कि अंतिम यात्रा किस धर्म के आधार पर निकाली जानी चाहिए. असीमानंद के वहां पहुंचने के पहले इसाईयों पर 20 हमलों की घटनाएं दर्ज की गई थीं और 1998 में ये बेहद तेजी से बढ़ती चली गईं.

शबरी धाम मंदिर में असीमानंद ने अपने सहयोगी षडयंत्रकारियों के साथ विस्फोट की योजना बनाई. मोरारी और मोदी ने मंदिर के निर्माण के लिए धन संकलन में मदद की. जावेद राजा/इंडियन एक्सप्रेस आर्काइव

हर साल वीकेए आश्रम में दो दर्जन लड़कों को शरण दी गई जिसके तहत उन्हें मुफ्त में खाने और रहने को मिलता ताकि व वहां के स्थानीय सरकारी स्कूल में जा सकें. आश्रम में दिन की शुरुआत में असीमानंद बच्चों के साथ एकता मंत्र का उच्चारण करते थे जो कि भारत माता का एक गीत है-और गांधी से गोलवलकर जैसे देश के प्रमुख हस्तियों के लिए-इसे संघ के स्वंयसेवकों द्वारा हर कार्यक्रम की शुरुआत में गाया जाता है. आश्रम के जिन छात्रों से असीमानंद की मुलाकात हुई उनमें से एक का नाम फूलचंदा बबलो था. वह असीमानंद का गाइड और बॉडीगार्ड बन गया. डांग में मिली सफलता के लिए असीमानंद ने सबसे ज्यादा श्रेय बबलो को ही दिया.

जब मैं पिछले साल वघई आश्रम गई तो बबलो मुझसे मिलने के लिए अपने गांव से आया. वह मोटा था, उसका चेहरा गोल था और उसकी मुस्कान में जो गरमाहट थी वह उसकी आंखों में दिखाई देती थी- वह ऐसा व्यक्ति लगता था जिसके ऊपर मैं किसी अंजान जगह पर इस बात का भरोसा कर सकती थी कि अगर वह मुझे रास्ता दिखाए तो मैं उस रास्ते पर निकल पडूं. बबलो ने मुझे सबसे विचलित कर देने वाली कहानियां भी सुनाईं उनमें उसकी गरमाहट का एहसास भरा था.

असीमानंद के काम करने का वही तरीका था जो उन्होंने अंडमान में अपनाया था. उन्होंने बबलो पर भरोसा जताया कि वह उन्हें ऐसे समुदायों के पास ले जाए जहां लोग आसानी से उनका स्वागत करें और जहां वे लोगों की भर्ती कर सकें ताकि जंगल में अपने प्रभाव को बढ़ाने का काम आसानी से कर सकें. इसके बाद वे और उनके स्वयंसेवक दूर दराज के गांव की चढ़ाई किया करते जहां वह एक बार में एक हफ्ते के लिए ठहरते और इस दौरान वे आदिवासियों के साथ खाते और उन्हीं की झोपड़ियों में सोते. असीमानंद हिंदुत्व पर प्रवचन देते; चॉकलेट बांटते, हनुमान के लॉकेट बांटते और बच्चों को हनुमान चालिसा की प्रतियां भी देते; भजन गाते; और गांव वाले से कहते की उन्हें इसाई धर्म नहीं अपनाना चाहिए. हर गांव में असीमानंद ऐसे लोगों की सूची बनाते जिन्हें हिंदू बनाया जा सकता है. इस लिस्ट पर असीमानंद की पैनी निगाह रहती थी. जब वे अगली जगह के लिए निकलते तो उनके सहायक इसका पूरा बंदोबस्त करते कि आदिवासी झोपड़ियों पर भगवा झंडा लहराते नजर आए.

डांग में असीमानंद द्वारा क्रिसमस के दिन आयोजित रैली के बाद ईसाई हॉस्टल में हमला किया गया. बीनू एलेक्स

असीमानंद ने इन सौम्य तरीकों का मिलान डराने के तरीकों के साथ किया. बबलो ने कहा, “उन्होंने असल जिंदगी से जुड़ी स्थितियों की बात की जो बंगाल की सीमा पर सच में व्याप्त थीं. वहां हिंदू समुदाय के तमाम लोगों को दूसरी तरफ से आने वाले मुसलमानों की वजह से भागना पड़ा था.” उन पर्चों को जिन्हें वे हजारों की संख्या में छपवाते और जिले भर में बंटवाते, असीमानंद इसाईयों की भी आलोचना किया करते थे. जून 1998 में एक बहुत बड़ी रैली की घोषणा करने वाले ऐसे ही एक पर्चे पर उन्होंने चेतावनी दी: “आओ हिंदुओं, चोरों से सावधान हो जाओ.” नीचे के आक्षेपों में लिखा था: “डांग की सबसे बड़ी समस्या ये है कि यहां के संस्थान इसाई पादरियों द्वारा चलाए जा रहे हैं ... सेवा का मुखौटा पहनकर संत के भेष में ये लोग आदिवासियों का दोहन कर रहे हैं ... उनका धर्म झूठ और धोखा है.” असीमानंद ने ऐसी बातों को जल्द ही हिंसा में परिवर्तित कर दिया.

1998 में क्रिसमस की शाम को अहवा स्थित दीप दर्शन स्कूल पर विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और हिंदू जागरण मंच के सदस्यों ने हमला कर दिया. ये सब वीकेए से जुड़ी संस्थाएं हैं. कारमेल की ननों में शामिल स्कूल चलाने वाली सिस्टर लिलि ने बताया कि इस हमले में 100 से ज्यादा लोग शामिल थे. उन्होंने ये भी कहा कि पत्थरों से लैस इन लोगों ने जमकर उत्पात मचाया और स्कूल की खिड़कियां तोड़कर यहां लड़कों के लिए बने छात्रावास की छत बर्बाद कर दी. जब मैं उनके स्कूल गई तो सिस्टर लिलि ने मुझे बताया, “मैं उस दिन बहुत ज्यादा डर गई थी.”

वहां से 30 किलोमीटर दूर एक और स्कूल पर हमला किया गया था; वहां अनाज की एक कुटिया को लूट लिया गया और फिर उसे आग के हवाले कर दिया गया. गढ़वी गांव में 200 लोगों की एक भीड़ ने कथित तौर पर वहां के एक स्थानीय चर्च को ढहा कर उसे आग के हवाले कर दिया; इसके बाद वे पड़ोस के एक गांव में गए और वहां के चर्च को भी जलाकर जमींदोज कर दिया. अगले दिन वाकी गांव के चर्च में भी आग लगा दी गई; इस हमले के लिए कथित तौर पर जंगल विभाग की एक जीप का इस्तेमाल किया गया था. इसके अगले दिन डांग में गावों में स्थित छह चर्चों को बर्बाद कर दिया गया. गांव के इसाईयों के घरों पर पत्थरबाजी की गई. इसाईयों और मुसलमानों के व्यापार को बर्बाद कर दिया गया और इसाई अदिवासियों पर हमला किया गया.

हमले और तबाही का ये दौर 10 दिनों तक ऐसे ही चलता रहा. ये 1998 के दिसंबर के मध्य में शुरू हुआ और अगले साल की जनवरी तक जारी रहा. असीमानंद ने बेहद गौरवान्वित भाव से दावा किया, “40000 इसाईयों ने हिंदू धर्म अपना लिया. हमने 30 चर्चों को ढहा दिया और मदिंर बना दिए. इसे लेकर थोड़ा हल्लागुल्ला जरूर हुआ.”

क्रिसमस की सुबह हमले की शुरुआत हिंदू जागरण मंच की तीन रैलियों के साथ हुई-इनमें से एक अहवा और बाकी की दो पड़ोस के जिले के तहसील में निकली गई थीं-इनका आयोजन असीमानंद ने किया था. दशरथ पवार के मुताबिक अहवा की इस रैली में 3,500 संघ कार्यकर्ता त्रिशूल और लाठियों से लैस थे. पवार तक डांग में बीजेपी के महासचिव थे. असीमानंद के इसाई विरोधी विचारों के तर्ज पर इस रैली में नारे उछाले गए. जिले के मुख्य सड़कों पर भगवा बैनर लटका दिए गए थे. वहां के लोकल पादरी ने जिला कलेक्टर भरत जोशी को इससे जुड़ी याचिका दे रखी थी जिसमें मामले में दखल देने की मांग की गई थी. मामले को शांत करने की जगह जिलाधिकारी ने अहवा रैली के मंच को अपनी उपस्थिति से शोभित किया.

रैलियों के बाद जिस स्तर के दंगे हुए उसके पीछे एक संयोजक के तौर पर असीमानंद के कौशल का बहुत बड़ा हाथ था. पवार ने कहा कि उनके यहां आने के पहले जिले में महज मुट्ठी भर संघ कार्यकर्ता थे; असीमानंद ने हिंदुत्व की मुहिम में ताकत भरी और इसे हजारों सदस्यों के साथ एक मुहिम में बदल दिया. उन्होंने कहा, “उनके शब्द आपके भीतर सोए हुए हिंदू को जगाने के लिए काफी थे.”

असीमानंद ने मुझे बताया, “धर्मांतरण को रोकना आसान काम है. धर्म की जड़ों का इस्तेमाल कीजिए. हिंदुओं को कट्टर बना दीजिए. बाकियों का काम वे खुद कर देंगे.”

इस मामले में असीमानंद जिसे एक उपलब्धि के बारे में दावा करते हैं वह है एचजेएम की स्थापना जिसे बिल्कुल अदिवासी संस्था की तरह नजर आने के लिए बनाया गया था. उन्होंने बताया क्योंकि जिस तरह की हिंसा होती थी, “हम संघ के सारे काम वीकेए के सहारे नहीं कर सकते थे. इसलिए हमें आदिवासियों के साथ मिलकर इसके लिए एचजेएज की स्थापना करनी पड़ी. जानूभाई-एचजेएम के अदृश्य अध्यक्ष-“को कुछ भी नहीं पता था. क्या एक्शन लिया जाना चाहिए, कब पैम्फलेट छपवाए जाने चाहिए, वे सारे निर्णय हमारे द्वारा लिए जाते थे. हमने उन्हें बस इसलिए चेहरा बनाकर रखा था क्योंकि वह आदिवासी थे. आदिवासी संघ का सारा काम किया करते थे.”

चाहे प्रेरणा से या डरा धमका कर, असीमानंद के घर वापसी का कार्यक्रम भी बेहद मशहूर हो गया. अगले तीन से चार सालों तक जब कभी उनके पास 50 से 100 ऐसे संभावित की लिस्ट रहती जिन्हें हिंदू बनाया जा सकता था, वे और उनके सहायक उन्हें इकट्ठा करके खुले ट्रकों और जीपों में भरकर सूरत के उनाई मंदिर ले जाते. मंदिर के पास एक ऐसा झरना है जहां से हमेशा गरम पानी गिरता है, यहां लाए गए लोगों को उसमें डुबकी लगवाई जाती जिसके बाद तिलक पूजा किया जाता और फिर आदिवासियों को हिंदू करार दे दिया जाता है. उसके बाद उन्हें उन्हीं गाड़ियों में भर दिया जाता जिनमें उन्हें लाया गया था. हां, वापसी के दौरान उनके पास हनुमान की एक तस्वीर और हनुमान चालिसा जरूर होती थी. वापसी में गाड़ियों में से तेज भजन बजवाया जाता ताकि ये सारा कार्यक्रम एक शानदार दृश्य में बदल जाएं. ये उत्सव वघई आश्रम के पास जाकर रुकता जहां असीमानंद भोज का आयोजन करते और सबको हनुमान का एक लॉकेट देते.

आदिवासियों के लिए असीमानंद की चिंता शायद कभी इस बात से आगे बढ़ी हो कि वो जीजस की प्रार्थना कर रहे हैं या राम की. जनवरी 1999 में द वीक के एक साक्षात्कार में असीमानंद ने कहा, “हम गरीबी हटाने या विकास कार्यों में रुचि नहीं रखते. हम बस आदिवासियों की आध्यात्मिकता को जगाने की कोशिश कर रहे हैं.” उनके इस तरीके का वहां के स्थानीय समुदाय के साथ मेलजोल का जो मिश्रण होता था उससे एक ताकतवर अपील पैदा होती थी. बबलो ने कहा, “मैंने कभी ऐसा इंसान नहीं देखा जो स्वामीजी के जैसा कठिन जीवन जीता हो. पूरी श्रद्धा के साथ वे सबसे पिछड़े समुदायों के पास जाते हैं और उनके साथ रहते हैं. वो वहां रहते हैं, वहीं खाते हैं और उनके साथ मेल मिलाप बढ़ाते हैं- और उन लोगों को अपना बना लेते हैं. अंत में लोगों के भीतर ये विश्वास आ जाता है कि अब कोई ऐसा है जो उनके लिए खड़ा हो सकता है.”

डांग के बारे में बताते हुए असीमानंद ने मुझसे कहा ये भारत की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है. कई पत्रकार जो वहां 1990 के दौर में काम करते थे, इस बात से सहमत थे. जब मैंने जून 2013 में इलाके का दौरा किया तब जंगलों की रंगत फीकी पड़ गई थी और ये पहले जैसे घने भी नहीं रह गए थे. (असीमानंद ने मुझसे जेल में कहा, “आपको इसे मॉनसून के समय देखना चाहिए.”) मेरी नजरों में जो चीज ठहरी वह थी इलाके में बनी सड़क- पहाड़ों में कई मीलों तक विश्व स्तरीय सड़क बनाई गई थी. ये असीमानंद के सबसे अहम राजनीतिक संरक्षक यानी नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा बनवाई गई थी.

असीमानंद के आश्रम में आयोजित धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेते असीमानंद और मोदी (दाएं से दूसरे) .

1998 की शुरुआत में जिस समय असीमानंद डांग पहुंचे, बीजेपी नेता केशुभाई पटेल को गुजरात के सीएम पद की शपथ दिलवाई गई थी. आजादी के बाद के ज्यादातर समय राज्य में कांग्रेस की मजबूत पकड़ थी. हालांकि, इससे पहले भी पटेल ने 1995 में सात महीनों के लिए राज्य की कमान संभाली थी. मार्च 1998 में वाजपेयी देश के पीएम बने-और उनकी सरकार को विचारधारात्मक समाझौते करने थे वे भविष्य की गोद में थे-वाजपेयी के पीएम बनने के बाद आरएसएस कार्यकर्ताओ में इस बात की उम्मीद काफी बढ़ गई कि जो उनके सपने का भारत है वह सच होने जा रहा है.

डांग में क्रिसमस के दौरान हुए दंगे उन बदलावों की छोटी झलक के समान है जो वह लाना चाहते थे. असीमानंद की सफलता के शुरुआती लक ये थे की खुद सोनिया गांधी अहवा पहुंचीं और वहां हुई हिंसा की निंदा करते हुए इसे “गहरा धक्का” पहुंचाने वाला करार दिया. बाकी के नेताओं और सितारों ने सोनिया के साथ कदमताल की. मामले की न्यूज कवरेज से असीमानंद के पब्लिक प्रोफाइल में उछाल आ गया- और ऐसे ही संघ में उनके लिए आदर को लेकर भी हुआ. इसके थोड़े दिनों बाद संघ ने उन्हें अपने सालाना श्री गुरुजी अवॉर्ड से नवाजा. इस अवॉर्ड का नाम गोलवलकर के नाम पर रखा गया है.

दिल्ली में असीमानंद के दंगों के बाद मचे हंगामे को शांत करने के लिए गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी को दखल देने के लिए मजबूर होना पड़ा. असीमानंद ने कहा, “जब मेरे धर्मांतरण की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरने लगीं और जब सोनिया गांधी उड़ान भरकर यहां मेरी आलोचना करने आईं, मीडिया में इसकी खूब चर्चा हुई. तब आडवाणी जी गृहमंत्री थे और केशुभाई पटेल को मुझे काबू करने के आदेश दिए. इसके बाद उन्होंने मुझे काम करने से रोकना शुरू कर दिया और यहां तक की मेरे लोगों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया.” लेकिन मोदी पहले से अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे और अपने हथियार को धार दे रहे थे. असीमानंद ने कहा कि अहमदाबाद में आरएसएस के वरिष्ठों की एक मुलाकात के दौरान मोदी उनके पास आए और उनसे कहा, “मुझे पता है कि केशुभाई आपके साथ क्या कर रहे हैं. स्वामीजी जो आप कर रहे हैं उसकी कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है. आप असली काम कर रहे है. अब ये तय किया गया है कि मैं मुख्यमंत्री बनूंगा. मुझे आने दीजिए और फिर मैं आपका काम करूंगा. आप आराम से रहिए.” (मामले में कई बार मोदी के कार्यालय से संपर्क साधने की कोशिश की गई लेकिन कोई जवाब हासिल नहीं हुआ.)

अक्टूबर 2001 को मोदी राज्य के सीएम बनाए गए. अगली फरवरी के अंत में जब वे मुस्लिम विरोधी दंगे शुरू हुए जिनमें 1,200 गुजरातियों की जानें गईं तो असीमानंद ने उत्तर डांग के पंचमहल जिले में अपने हमले शुरू किए. उन्होंने दावा किया: “उस इलाके में मुसलमानों के सफाए का जिम्मा मेरे ऊपर था.”

बाद में उस साल मोदी डांग यात्रा पर इसलिए आए ताकि वे असीमानंद के प्रभाव को बल दे सकें. 2002 के अक्टूबर में असीमानंद ने शबरी धाम का निर्माण शुरू किया, ये एक पवित्र सिवान था जो एक आदिवासी महिला की याद में बनाया जा रहा था. ऐसी मान्यता थी कि उन्होने 14 साल के बनवास के दौरान राम की मदद की थी. इससे जुड़े मंदिर और आश्रम निर्माण के लिए पैसे इकट्ठा करने के लिए उन्होंने आठ दिनों की रामकथा का आयोजन किया. इस मंदिर और आश्रम के केंद्र में राम ही होने वाले थे लेकिन दिखाया गया मोरारी बापू को. इस आयोजन ने कम से कम 10 हजार लोगों को आकर्षित करने में मदद की. मोदी इस दौरान फिर से सीएम पद पाने के लिए प्रचार अभियान चला रहे थे. दरअसल दंगों के बाद उन्होंने जुलाई में अपनी सरकार को भंग करवा दिया था. इसी सिलसिले में असीमानंद के प्रोग्राम को शुरू करने के लिए वे मंच पर प्रकट हुए.

उस साल मोदी के चुनावी घोषणापत्र में गुजरात धर्म की आजादी से जुड़ा एक बिल भी शामिल था, जिसमें ये प्रस्तावित किया गया था कि हर तरह के धर्मांतरण के लिए जिला न्यायाधीश की मंजूर लेनी पड़ेगी. असीमानंद के पैसे इकट्ठा करने के कार्यक्रम के चार महीने बाद, मोदी के भरोसेमंद सहायक अमित शाह बिल को राज्य की विधानसभा में लेकर आए; बिल पास हो गया और अप्रैल 2003 को कानून में बदल गया. इसके तुरंत बाद असीमानंद ने मोदी, मुरारी और संघ नेतृत्व के साथ मिलकर डांग में एक हाई प्रोफाइल घर वापसी के आयोजन की योजना बनाई.

अपने रामकथा के अंत में मोरारी बापू ने शबरी धाम में एक नए कुंभ मेले का प्रस्ताव रखा. चार सालों की तैयारी में होने वाले इस कार्यक्रम में धर्मांतरण के खिलाफ और हिंद धर्म के पक्ष में जश्न मनाया जाना था. आरएसएस के साथ मिलकर असीमानंद ने यह तय किया कि इस आयोजन की तैयारी वे खुद करेंगे.

2006 की फरवरी के दूसरे हफ्ते में कई हजार भारतीय जंगलों से घिरे शिविर में पहुंचे. ये असीमानंद के शबरी धाम आश्रम से छह किलोमीटर की दूरी पर था. सब लोग शबरी कुंभ मेले के उद्घाटन समारोह का हिस्सा बनने पहुंचे थे. चार पारंपरिक कुंभ मेले होते हैं और शबरी कुंभ मेला भी उन्हीं की तर्ज पर रीति रिवाज आधारित शुद्धिकरण को बढ़ावा देने को अपनाने की राह पर था; जिसके तहत वहां आए लोगों को समारोहपूर्वक स्थानीय नदी में उतारा जा रहा था, जिसके तहत आदिवासी इस बात का संकेत देंगे को वे हिंदू धर्म में लौट आए हैं. मध्य भारत से हजारों आदिवासियों को ट्रकों में भर कर इस समारोह के लिए लाया गया था; मैंने जो आरटीआई दाखिल की थी उसके जवाब से पता चला कि गुजरात सरकार ने नदी में पानी पहुंचाने के लिए इस दौरान 53 लाख रुपए की रकम खर्च की थी- इसके सहारे इसमें इतना पानी भरा गया ताकि वहां आई भीड़ को इसमें जगह मिल सके.

शबरी कुंभ मेला हिंदू दक्षिणपंथ के भीतर एकता के प्रदर्शन का भी मौका था: तीन दिन के मेले में जानीमानी धार्मिक हस्तियां (जैसे कि मोरारी बापू, आसाराम बापू, जयेंद्र सरस्वती और साध्वी ऋतंभरा), आरएसएस और संघ परिवार के बड़े नेता (जिनमें इंद्रेश कुमार और विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया और अशोक सिंघल जैसे कट्टर नेता) और वरिष्ठ बीजेपी नेता (जिनमें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी शामिल थे) ने मंच साझा किया. सैंकड़ों पूर्णकालिक सदस्य और हजारों स्वयंसेवकों ने समारोह के आयोजन का काम संभाला. जैसा कि एक शोधकर्ताओं के जोड़े ने इसके बारे में कहा, शबरी कुंभ “साधुओं, संघ और सरकार के मिलन का समारोह” था.

त्यौहार के पहले दिन मोदी ने वहां मौजूद लोगों से कहा कि आदिवासियों को राम से दूर ले जाने की हर कोशिश असफल होगी. स्टेज के बैकग्राउंड में हिंदूओं के देवता राम की एक बहुत बड़ी तस्वीर थी जिसमें वह 10 सिरों वाले रावण पर तीर चला रहे थे. तब के आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने ज्यादा हमलावर बात कही. उन्होंने वहां मौजूद साधुओं से कहा, “हम कट्टर मुसलमानों और इसाईयों से कपट युद्ध की लड़ाई लड रहे हैं.” इसके बाद उन्होंने कहा, “इसमें हमे हर वो चीज इस्तेमाल करनी है जो हमारे पास है.” सुदर्शन के सहायक मोहन भागवत (जो 2009 में सुदर्शन के रिटायर होने के बाद सरसंघचालक बने) ने कहा, “जो हमारा विरोध करेगा उसके दांत तोड़ दिए जाएंगे.”

खबरों के मुताबिक, 150000 से 500000 लोगों ने इस कुंभ मेले में हिस्सा लिया, हालांकि धर्मपरिवर्तन की बड़ी घटनाएं सामने नहीं आईं. आज मुश्किल से ही कोई ऐसा भक्त है जो शबरी धाम मंदिर जाता है और मंदिर का ये हाल है कि ये कर्मचारियों को रखने की स्थिति में नहीं है. जिस आश्रम में असीमानंद रहते थे उसे ढहा दिया गया है. मंदिर के प्रमुख पुजारी के सहायक प्रदीप पटेल ने मुझे बताया कि मंदिर इसलिए काफी बदनाम हो गया है क्योंकि ये असीमानंद से जुड़ा है और इसकी वजह से वे गुजराती दानदाता इससे दूर चले गए जिनकी सहायता से ये मंदिर चला करता था. कुछ मराठी जो मंदिर दर्शन को आते हैं वे मुश्किल से भंडार में 10 रुपए का दान देकर जाते हैं, इसके पीछे की वजह ये है कि डांग आने तक उनके सारे पैसे सफर में खर्च हो जाते हैं. इस पर दुखी होते हुए असीमानंद ने मुझसे कहा, “ये मेरी गलती है. मैं ठीक से इसका निर्माण नहीं कर पाया.”

हालांकि, इलाके में कई तरह की गतिविधियां देखने को मिलती हैं. गुजरात सरकार को लगता है कि मंदिर ही वह चीज है जिसकी इस क्षेत्र को सबसे ज्यादा दरकार है, इसलिए डांग के लोग इसी के सहारे अपनी रोजी रोटी हासिल कर सकते हैं. 2012 में राज्य ने राम ट्रायल प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया. ये एक सरकारी प्रोजेक्ट था जिसके तहत रामायण के काल्पणिक चरित्रों ने जो सफर तय किया था उसका पुण्यस्मरण किया जाना था और शबरी धाम इस योजना का अहम हिस्सा है.

मैंने एक आरटीआई फाइल की थी. इसमें ये बात निकलकर सामने आई कि राम ट्रायल प्रोजेक्ट के तहत शबरी मंदिर को राज्य सरकार से 13 करोड़ रुपए हासिल हुए. ये पैसे शिव का मंदिर, चार झरने, एक सर्विस रोड और प्रागंण में एक कुआं, एक पार्किग की जगह और एक बैठने की जगह- इसके अलावा साफ-सफाई के तहत शौचालय निर्माण आदि, सतह का निर्माण, बिजली लगवाने और पानी का कनेक्शन लेने के लिए दिए गए थे. इसकी तुलना में मोदी सरकार को अभी भी वो प्लान देना है जिसके तहत इसे इस बात की अनुमति मिलेगी कि ये केंद्र सरकार द्वारा दी गई 11.6 करोड़ रुपए का डांग के विकास में इस्तेमाल कर सकें. ये पिछड़े क्षेत्र को मिलने वाली रकम के तहत आता है. पैसे पिछले छह सालों से ऐसे ही पड़े हैं और इन पर किसी ने कोई दावा नहीं किया. वहां के स्थानीय इसाई संस्थानों को भी राज्य सरकार ने बंद कर दिया है. दीप दर्शन स्कूल की सिस्टर लिलि ने कहा, “1998 से गांधीनगर में हमें काली सूची में डाल दिया गया है. हम लगातार स्कूल के लिए नए फंड पाने के लिए फाइलें जमा करते रहे हैं लेकिन वह हमें कुछ नहीं देते.”

नवसारी के उनाई मंदिर में जहां असीमानंद ने भारी संख्या में धर्मांतरण को अंजाम दिया था, उसे भी राम ट्रायल प्रोजेक्ट के तहत 3.63 करोड़ रुपए दिए गए. जून 2013 में जब मैं वहां गई तब तक मुख्य इमारत का काम पूरा कर लिया गया था. नई बिल्डिंग शानदार और बेहद प्रभावशाली थी. दीवार के पीछे पुराना छोटा सा मंदिर है जहां असीमानंद अपने आदिवासी समूह को धर्मांतरण के लिए लेकर आए थे. मंदिर के एक पुजारी ने मुझे बताया कि यहां दर्शन करने आने वालों की संख्या में बीते दिनों में इजाफा हुआ है लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है कि सालों भर गरम पानी देने वाला झरना सूख गया.

[IV]

इसके बाद के तीन सालों में शबरी कुंभ मेला की तैयारी के साथ-साथ असीमानंद लंबे समय से संघ के कार्यकर्ता रहे लोगों से मिलते और उन समस्याओं की चर्चा करते जो धर्मांतरण से कहीं ज्यादा बड़ी हैं. इस समूह के मुख्य सदस्यों में एबीवीपी की कार्यकारी सदस्य प्रज्ञा सिंह ठाकुर; और संघ के इंदौर से पूर्व जिला नेता सुनील जोशी शामिल थे.

2003 की शुरुआत में असीमानंद को जयंतीभाई केवट का फोन आया. वो उस समय डांग के बीजेपी सचिव थे. केवट ने उनसे कहा, “प्रज्ञा सिंह आपसे मिलना चाहती है.” केवट ने दोनों की मुलाकात सूरत के नवसारी स्थित अपने घर में अगले महीने करवाई.

असीमानंद को याद आया कि वो भोपाल में एक वीएचपी कार्यकर्ता के घर पर सिंह से मिले थे. ये मुलाकात 1990 के अंत में हुई थी. वो सिंह की उपस्थिति से प्रभावित थे- छोटे बाल, टी-शर्ट, जींस-और जिस वाक्पटुता के साथ वो बोलती थीं. (2006 के बाद किसी वक्त तीक्ष्णता से दिए गए एक निंदा से भरे भाषण में सिंह ने घोषणा की, “हम [आतंकियों और कांग्रेस नेताओं] को समाप्त कर देंगे और उन्हें राख में तब्दील कर देंगे.”) नवसारी में सिंह ने असीमानंद से कहा कि एक महीने के समय में वो उनसे वीकेए के वघई आश्रम में मिलेंगी.

सिंह ने मुझे बताया कि असीमानंद हिंदू हित के लिए जिस तरह के काम कर रहे थे उसी ने उन्हें सबसे पहले उनकी तरफ आकर्षित किया. जब पिछले दिसंबर को हम मिले तो सिंह ने कहा, “वो एक महान सन्यासी थे और देश के लिए महान कार्य कर रहे थे.”

नवसारी में हुई मुलाकात के बाद अपने वादे के मुताबिक सिंह डांग पहुंचीं. उनके साथ तीन लोग और थे. इनमें से एक सुनील जोशी थे.

एक खबर के मुताबिक जो लोग जोशी को जानते थे उनका मानना था कि जोशी “स्वकेंद्रित और बेहद सक्रिय” हैं. सिंह ने मुझसे कहा कि वो एक भाई की तरह थे और दोनों की मुलाकात आरएसएस की वजह से हुई थी. असीमानंद ने याद करते हुए कहा कि उन्होंने जोशी को शबरी धाम आश्रम में रखा था. इस दौरान जोशी पूरा दिन भजन और पूजा किया करते थे और असीमानंद जंगलों में घूमकर आदिवासियों से मिला करते थे. जिस समय जोशी और सिंह ने असीमानंद के साथ समय बिताना शुरू किया, जोशी मध्य प्रदेश में आदिवासी कांग्रेस नेता और कांग्रेस नेता के बेटे की हत्या के मामले में वांछित थे. ये वो अपराध था जिसके लिए संघ ने उन्हें वहिष्कृत कर दिया था.

एक और सदस्य जल्द ही उनके समूह का हिस्सा बना. कनाडा में काम करने के दौरान भरत रतेश्वर नाम के एक प्रशासनिक पेशेवर ने भी डांग में असीमानंद के काम के बारे में सुना था; उन्होंने बाहर की अपनी इस जिंदगी को त्याग कर भारत लौटने और असीमानंद की मदद करने का फैसला लिया. वलसाड जिले के पास रतेश्वर ने एक घर बनाया जहां असीमानंद और उनके सहयोगी आश्रम के रास्ते में ठहरते थे.

असीमानंद और प्रज्ञा सिंह दोनों ने मुझे बताया कि वो कुंभ आने के पहले के सालों में प्राय: मिला करते थे. दोनों के बीच देश की बढ़ती मुस्लिम आबादी को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा होती थी. असीमानंद इसे देश के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते थे. असीमानंद ने मुझसे कहा, “इसाईयों के मामले में हम एक साथ खड़े होकर उन्हें धमका सकते हैं. लेकिन मुसलमान तेजी से अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं. क्या आपने वो वीडियो देखी है जिनमें तलिबान वाले लोगों का गला रेंत देते हैं. हां, मैं मुलाकातों के दौरान इस बारे में बात किया करता था. मैंने कहा कि अगर मुस्लिम इसी रफ्तार में बढ़ते रहे तो वो जल्द ही भारत को पाकिस्तान बना देंगे और हिंदुओं को यहां उसी अत्याचार से होकर गुजरना पड़ेगा जिससे उन्हें पाकिस्तान में गुजरना पड़ता है.” उन्होंने कहा कि समूह इसके लिए “रोकथाम के रास्ते” तलाशने लगा. समूह के सदस्य इस्लामी आतंकी हमलों को लेकर भी गुस्सा थे. खासतौर पर ऐसे हमले जो हिंदुओं के पूजा की जगह जैसे कि अक्षरधाम मंदिर पर किए जाते थे. 2002 में गुजरात के गांधीनगर के इस मंदिर पर किए गए हमले में 30 लोगों की जानें चली गई थीं. असीमानंद अक्सर इस समस्या के समाधान के तौर पर निर्दोष मुसलमानों के खिलाफ हमले का उपाय सुझाते थे और इस पर बार बार जोर देते थे. इसके लिए वो बम के बदले बम की वकलात करते थे.

इस सूमह की बातचीत अगले दो सालों तक जारी रही, इस बीच असीमानंद के कुंभ की तैयारी भी चलती रही. असीमानंद के कहे के मुताबिक जल्द ही मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार ने हमले की योजना को अपनी हरी झंडी दे दी. कुंभ में जहां एक तरफ उन्होंने अन्य हिंदू दक्षिणपंथी नेताओं के साथ केंद्रीय भूमिका निभाई वहीं असीमानंद अपने आश्रम लौट गए. आरएसएस में उनकी वरिष्ठता और लोकप्रियता के बावजूद वो भागवत के साथ इस एक बात के लिए राजी हो गए थे कि उन्हें सावर्जनिक स्थलों पर आरएसएस से दूरी बना कर रखनी चाहिए. कुंभ पर अपना ध्यान लगाने की जगह उन्हें हमले की योजना बनाने पर ध्यान देना था.

शबरी कुंभ मेले के बाद एक महीने से भी कम समय में बनारस में दो बम धमाके हुए जिनमें 28 लोगों की मौत हो गई और 100 के करीब लोग घयाल हो गए. इनमें से एक बम एक हिंदू मंदिर के प्रवेश द्वार पर रखा गया था. असीमानंद, सिंह, जोशी और रतेश्वेर तुंरत शबरी धाम में जुटे जहां उन्होंने जवाब देने की ठानी.

अपने गुनाहों को कबूलने के दौरान असीमानंद ने कहा कि जोशी और रतेश्वर इस बात के लिए राजी हो गए कि वो पिस्टल खरीदने झारखंड जाएंगे और डेटोनेटर में इस्तेमाल होने वाले सिम कार्ड को खरीदने की भी जिम्मेदारी ली. असीमानंद ने दोनों को 25-25 हजार रुपए दिए. उन्होंने ये सलाह भी दी कि षडयंत्र को अंजाम देने के लिए दोनों अन्य कट्टर साधुओं की भी भर्ती करने की कोशिश करें. (अंत में उन्होंने जिन्हें राम भक्त करार दिया उन्होंने नफरत फैलाने का काम किया.) झारखंड में जोशी ने अपने दोस्त देवेंद्र गुप्ता से संपर्क साधा, गुप्ता झारखंड के जामताड़ा जिले के आरएसएस प्रमुख थे. उन्होंने इन लोगों को नकली ड्राइविंग लाइसेंस मुहैया कराया जिससे सिम कार्ड खरीदे गए.

जून 2006 में टीम रतवेश्वर के घर में इकट्ठा हुई. जोशी और सिंह षडयंत्र का हिस्सा बनने को तैयार चार और लोगों को लेकर पहुंचे- इनमें संदीप डांग, रामचंद्र कलसंग्रा, लोकेश शर्मा और एक और व्यक्ति थे जिन्हें अमित के नाम से जाना जाता है. डांग को “टीचर” के पुकारू नाम से भी बुलाया जाता था. वो मध्य प्रदेश के शाजापुर जिले में आरएसएस के जिला प्रमुख थे; कलसंग्रा इंदौर से आरएसएस के व्यवस्थापक थे.

शबरी कुंभ में 150000 से अधिक लोगों ने भाग लिया. अमित दवे

आरोपपत्र के मुताबिक जोशी ने धमाके को अंजाम देने के लिए तीन टास्क फोर्स का गठन किया. एक समूह का काम ऐसे युवाओं की भर्ती करना और उन्हें प्रेरित करना था जो बम को धमाके की जगह पर रखेंगे; एक का काम बम के लिए जरूरी चीजों को जुटाने का था; और तीसरे को बम बनाकर धमाके को अंजाम देना था. जोशी षडयंत्र के अलग-अलग हिस्सों को जोड़ने वाला बनने को तैयार हुए. इसके बाद उन्होंने कहा कि समझौता एक्सप्रेस को निशाना बनाकर सबसे ज्यादा पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतारा जा सकता है. असीमानंद ने मालेगांव, हैदराबाद, अजमेर और अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का नाम सुझाया.

डांग में कई महीने बिना खबरों के बीत गई. इसके बाद दिवाली के जश्न के दौरान असीमानंद से मिलने जोशी सबरीधाम आश्रम आए. असीमानंद ने अपने गुनाहों को कबूलते हुए जो बयान दिए थे उसके मुताबिक जोशी ने मालेगांव में 8 सितंबर को हुए दो धमाकों की जिम्मेदारी ली. इस धमाके में 31 लोगों की जानें चली गई थीं. कालसंग्रा के साथ मिलकर डांग ने जोशी को बम बनाने का सामान जुटाने, बम बनाने और हमले को अंजाम देने में मदद की थी. ये सारी बातें आरोपपत्र में दर्ज हैं.

16 फरवरी 2007 को शिवरात्री का दिन था. जोशी और असीमानंद फिर से मिले. इस बार दोनों गुजरात के बारापुर स्थित कर्दमेश्वर मंदिर में मिले. दोषों की स्वीकारोक्ति के मुताबिक जोशी ने असीमानंद से कहा कि “थोड़े दिनों में अच्छा समाचार मिलने वाला है.” दो दिनों बाद समझौता एक्सप्रेस में धमाके हुए. इसके एक या दो दिन बाद जोशी, असीमानंद इस षडयंत्र का बड़ा हिस्सा रहे लोग रतेश्वर के घर पर मिले जहां जोशी ने हमले की जिम्मेदारी ली. इस बार उन्होंने असीमानंद को बताया कि डांग और उसके साथियों ने धमाके को अंजाम दिया. अगले आठ महीनों तक हमले जारी रहे; मई महीने में इस समूह ने मक्का मस्जिद में धमाका किया और अक्टूबर में अजमेर की दरगाह पर धमाका किया.

19 फरवीर 2007 को सिंह समझौता धमाके की ब्रेकिंग न्यूज देखने के लिए बैठी थीं. इस दौरान उनके साथ बहन और सहायिका नीरा सिंह थीं. नीरा ने गवाह के तौर पर बयान देते हुए ये बात कही. जब धमाके की तस्वीरें देखकर नीरा रो पड़ीं तब सिंह ने उन्हें रोने से मना किया क्योंकि जिन्हें मारा गया था वो मुसलमान थे. जब नीरा ने कहा कि मरने वालों में कुछ हिंदू भी थे तो सिंह ने जवाब दिया, “चने के साथ घुन भी पिसता है.” इसके बाद सिंह ने अपनी बहन और नीरा को आइक्रीम की छोटी सी पार्टी दी.

भोपाल अदालत परिसर के बाहर प्रज्ञा सिंह. उनके टॉर्चर के आरोपों की आडवाणी ने निंदा की. एएम फारुकी/द हिन्दू आर्काइव

2007 के अंत में, षडयंत्र से जुड़ी चीजों ने एक भयानक मोड़ ले लिया. मध्य प्रदेश के देवास में 29 दिसंबर को सुनील जोशी को एक सुनसान जगह पर उनकी मां के घर के पास गोली मार दी गई. जोशी के चार सहायक- राज, मेहुल, घनश्याम और उस्ताद थे- जो उनके साथ रहते थे और साथ ही घूमते फिरते थे. (राज और मेहूल बेस्ट बेकरी धमाका और लूट मामले में पुलिस की वांछित लिस्ट का हिस्सा थे. गुजरात में हुए 2002 के दंगों के दौरान इस वारदात में 14 लोगों की जिंदा जलाकर मार दिया गया.) जोशी की हत्या के बाद उनके चारों साथी रहस्यमयी तरीकों से गायब हो गए.

जोशी की मौत के बाद असीमानंद ने इससे जुड़ी बातें जाननी चाहीं. इसके लिए उन्होंने सैन्य खुफिया अधिकारी कर्नल श्रीकांत पुरोहित का नंबर डायल किया. पुरोहित से उनकी मुलाकात आरएसएस के एक उग्रवादी संगठन अभिनव भारत से जुड़ी एक बैठक के दौरान नासिक में हुई थी.

पुरोहित एक रहस्यमयी शख्सियत हैं. पिछले तीन सालों से वो 2008 में हुए दूसरे मालेगांव धमाके का षडयंत्र रचने के लिए सलाखों के पीछे हैं. कई बार उन्होंने इस बात का दावा किया है कि वो फौज में अपने वरिष्ठ लोगों के आदेश पर मामले में डबल एजेंट की भूमिका निभा रहे थे यानी दोनों तरफ से खेल रहे थे लेकिन काम फौज का कर रहे थे. उन्होंने आउटलुक से 2012 में कहा था, “मैंने अपना काम ठीक से किया है, अपने अधिकारियों को जानकारी में रखते हुए सब किया है- और आर्मी के रिकॉर्ड में ये सब कागज पर दर्ज है. उन्हें सच पता है जिन्हें इसे जानने की जरूरत है.” प्रज्ञा सिंह के वकील गणेश सोवानी ने मुझे बताया कि पुरोहित के मामले में वो सावधानी से काम ले रहे हैं. गणेश ने कहा, “हमें नहीं पता की उनके असली इरादे क्या हैं.” गुनाह कबूलने के दौरान असीमानंद ने जो कहा उसके मुताबिक जोशी आदिवासी कांग्रेस नेता कि हत्या में शामिल थे, उनके साथ जो हुआ वो बदले में की गई कार्रवाई हो सकती है.

पांच महीने बाद महाराष्ट्र और गुजरात में पांच बम धमाके हुए- इनमें से दो मालेगांव और एक मोदासा में हुआ- इनमें कम से कम सात लोगों की जान चली गई और 80 के करीब लोग घायल हो गए. असीमानंद को तुरंत संदीप डांगे का फोन आया जिन्होंने असीमानंद से कहा वो उन्हें कुछ दिनों के लिए शबरी धाम में पनाह दें. असीमानंद गुजरात में नदियाड़ के रास्ते में थे और उन्हें अपनी अनुपस्थिति में डांगे के जिम्मे आश्रम छोड़ना सही फैसला नहीं लगा. डांगे ने उनसे कहा कि वो उन्हें व्यारा के बस डिपो से लेकर चलें, ये शबरी धाम से 70 किलोमीटर की दूरी पर था और साथ हीं डांगे ने कहा था कि उन्हें बड़ौदा में छोड़ दिया जाए. व्यारा में असीमानंद जब डांगे से मिले तो रामचंद्र कालसंग्रा के साथ वो बेहद चिंतित थे. उन्होंने कहा कि वो महाराष्ट्र से आ रहे हैं. असीमानंद ने पुलिस के सामने याद करते हुए कहा कि बड़ौदा तक की तीन किलोमीटर की यात्रा में दोनों पूरी तरह चुप थे.

अक्टूबर 2008 में सिंह पहली व्यक्ति थीं जिन्हें षडयंत्र में शामिल होने के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था. ये गिरफ्तारी मालेगांव के दूसरे धमाके के मामले में हुई थी. ये गिरफ्तारी तब की गई जब एटीएस ने इस बात को पुख्ता कर लिया कि धमाके में इस्तेमाल किया गया एक स्कूटर सिंह का था. जल्द ही ये आरोप सामने आए कि जब वो पुलिस हिरासत में थीं तब उनके साथ बेहद क्रूर अत्याचार किए गए. खबर पाकर असीमानंद बेहद विचलित हो गए. नवंबर के पहले हफ्ते में मुंबई एटीएस ने मामले में बड़ी गिरफ्तारी की- पुरोहित की. उनके ऊपर आतंक के मामले में आरोपी लोगों को बम बनाने की ट्रेनिंग देने और आर्मी का आरडीएक्स देने के आरोप लगे. उस महीने के बाद में एटीएस ने दयानंद पांडे नाम के एक और षडयंत्रकारी को गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद अचानक से गिरफ्तारियों पर लगाम लग गई; दरअसल मामले के मुख्य जांचकर्ता और मुंबई एटीएस के मशहूर प्रमुख हेमंत करकरे को 26 नवंबर को मुंबई पर हुए आतंकी हमले में आतंकियों ने गोली मार दी जिससे उनकी मौत हो गई.

अप्रैल 2010 तक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया. इसी बीच अजमेर धमाके की जांच कर रही राजस्थान एटीएस ने देवेंद्र गुप्ता को गिरफ्तार कर लिया. गुप्ता झारखंड के वहीं जिला प्रमुख हैं जिन्होंने जोशी, रतेश्वर और बाकियों को नकली पहचान पत्र मुहैया कराए थे. जुलाई में एनआईए ने समझौता मामले को अपने हाथों में ले लिया. इस दौरान मक्का मस्जिद मामले की जांच सीबीआई कर रही थी और षडयंत्र से जुड़े कई लोगों पर निगरानी की जा रही थी जिनमें असीमानंद भी शामिल थे.

इंद्रेश कुमार ने कथित तौर पर समझौता एक्सप्रेस हमले को मंजूरी दी थी. श्रीनिवास कुरुगंती/कारवां

अब तक असीमानंद को इस बाद का ऐहसास हो गया था कि बात उन तक आने वाली है; फूलचंद बबलो ने मुझे बताया कि अपनी गिरफ्तारी के पहले के महीनों में असीमानंद बेहद विचलित थे. बबलो ने कहा, “मामले की जांच के बारे में वो चुप रहा करते थे, बिल्कुल चुप और हम उनसे कुछ नहीं पूछते थे.” उस समय असीमानंद लगभग 60 साल के थे. उन्होंने तुरंत शबरीधाम छोड़कर देश भर में इधर उधर भागना शुरू कर दिया ताकि वो गिरफ्तारी से बचे रहें. लगातार सफर की वजह से वो कमजोर हो गए और इससे उनका स्वास्थ्य खराब हो गया. अंत में वो हरिद्वार के पास एक गांव में जाकर रुक गए और अपना नाम बदल कर रहने लगे. ये नवंबर तक चला लेकिन इसी महीने सीबीआई ने उनका पता लगा लिया. उन्होंने कहा, “मैं गिरफ्तार होने वाला आखिरी व्यक्ति था.”

आसीमानंद को हैदराबाद जेल ले जाया गया जहां तुरंत उन्होंने अपना गुनाह कबूल कर लिया. असीमानंद ने मुझे बताया, “सीबीआई को पहले से पूरी कहानी पता थी.” असीमानंद ने जो एक बयान दिया उसमें एक चौंकाने वाली बात थी कि उन्होंने अपना गुनाह क्यों कबूल किया. कैद किए जाने के थोड़े दिन बाद वो कलीम नाम के एक लड़के से मिले. वो भी हैदराबाद में कैद था. कलीम भी मक्का मस्जिद मामले के उस धमाके में आरोपी था जिसका षडयंत्र असीमानंद ने रचा था. कलीम असीमानंद की सेवा किया करता था और उसकी दयालुता ने असीमानंद के अंदर का इंसान जगा दिया. असीमानंद ने दावा किया कि वो पछतावे की भावना से अपना गुनाह कबूल कर रहे थे.

जब हमारे पहले साक्षात्कार के दौरान मैंने इस घटना का जिक्र किया तो असीमानंद ने मुझे शरारत भरी नजरों से देखा. उन्होंने पूछा, “तो कलीम के बारे में जो खबर थी वो कितनी बड़ी थी?” उन्होंने कहा कि ये बात पूरी तरह से पुलिस द्वारा बनाई गई बनावटी बात थी. फिर उन्होंने कहा, “कलीम को पता था कि मैं उसी जेल में हूं लेकिन मैं उससे मिल नहीं सका. मैं किसी मुस्लिम लड़के से कभी भी ऐसी बात कैसे कह सकता हूं?”

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत. असीमानंद ने बताया कि भागवत ने उनसे कहा था कि हमले बहुत आवश्यक हैं. त्रिभिवन तिवारी/ द आउटलुक

अपनी स्वीकारोक्ति के बाद असीमानंद ने दो चिट्ठियां तैयार कीं- एक तो भारत के राष्ट्रपति के लिए थी जिसमें समझौता धमाके की जिम्मेदारी लेने के बात लिखी गई थी और दूसरा पाकिस्तान के राष्ट्रपति के लिए थी, जिसमें लिखा था: “इसके पहले की कानून संस्थाएं मुझे फांसी पर लटका दें, मैं ये मौका चाहता हूं कि मुझे हाफिज सईद, मुल्ला उमर और पाकिस्तान के अन्य जिहादी आतंकवादियों को बदलने/सुधारने का मौका मिले. आप या तो उन्हें मेरे पास भेज सकते हैं या आप भारत सरकार से इसकी मांग कर सकते हैं कि वो मुझे आपके पास भेज दे.”

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पुलिस प्रमुख विशाल गर्ग का ऑफिस एनआईए के दिल्ली स्थित ठाठ वाले हेडक्वॉटर में मामूली कक्ष है. उनके ऑफस में एक शीशे की दीवार में फाइलों का एक कैबिनेट है जिसमें चार दराज हैं. इन पर लिखा है “अजमेर धमाका”, “समझौता धमाका”, “सुनील जोशी हत्या” और “कागज-कलम.” गर्ग के पीछे एक सफेद बोर्ड लगा है जिस पर समझौता और अजमेर मामले में आने वाली कोर्ट की तारीखें लिखी हैं, इन मामलों में गर्ग जांच अधिकारी हैं. एक और दीवार पर वांधछतों के पोस्टर हैं जिनमें संदीप डांगे, रामचंद्र कालसंग्रा और एक और अशोक नाम का व्यक्ति है और ये सभी समझौता मामले में फरार है. डांगे और कालसंग्रा की जानकारी देने वाले को 10-10 लाख के इनाम की घोषणा की गई है.

पिछले साल जब मैं उनके ऑफिस गई तब गर्ग ने कहा, “हम यहां अक्सर आरुषि के मामले का उदाहरण देते हैं. अपराध होने के तीन दिन बाद मामला सीबीआई के हाथों में दिया गया था और फिर वो घटनास्थल पर पहुंचे. आप कल्पना कर सकती हैं कि कितने अहम साक्ष्यों से हाथ धोना पड़ा होगा.” देखने से गर्ग ऊपर से नीचे तक एक आतंकविरोधी आईपीएस अधिकारी लगते थे- यहां तक की उनके एविएटर के चश्मे से भी ऐसा ही लगता था. उन्होंने आगे कहा, “हमारे हाथ में समझौता मामला अपराध के तीन साल बाद आया. आप कल्पना कर सकती हैं कि मामले की जांच हमारे लिए कितनी मुश्किल रही होगी.”

गर्ग ने आगे कहा, “हम अभी तक ये पता लगाने में सफल नहीं रहे हैं कि पैसे कहां से आए क्योंकि ये लेन देन बैंक के जरिए नहीं किए गए और ना तो इनका कहीं लेखाजोखा है. आप इसे जांच की सीमा भी कह सकती हैं. हमें पता है कि असीमानंद ने सुनील जोशी को नगद पैसे दिए थे लेकिन इसका पता नहीं है कि रकम कितनी थी. धमाके के लिए सामान कहां से आया, इसकी भी जांच जारी है. “वांछित” अपराधियों के पोस्टर की तरफ इशारा करते हुए गर्ग ने कहा, “इन दोनों पर जिन पर 10 लाख का इनाम है वही इस मामले के असली गुनहगार हैं. हम उन्हें पकड़ा है ताकि हमें मामले की साफ तस्वीर नजर आए.”

एनआईए के रास्ते में कई कठिनाईयां हैं. साल 2012 की जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने एजेंसी को प्रज्ञा सिंह से सुनील जोशी के मामले में पूछताछ करने से मना कर दिया. इसके लिए तकनीकी आधार दिए गए और कहा गया कि मामले की एफआईआर साल 2009 में तब दर्ज हुई थी जब इस एजेंसी का जन्म भी नहीं हुआ था. कोर्ट ने एजेंसी को लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित से भी पूछताछ करने से मना कर दिया है और ऐसा ही एक और आरोपी के मामले में भी हुआ है. एनआईए के वकील और सलाहकार अहमद खान ने एजेंसी को सलाह दी है कि वो सारे मामलों को एक जगह कर ले और उनको एक कोर्ट में चलाए लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है.

एनआईए ने कहा है कि एक सहायक आरोप पत्र जल्द दर्ज किया जाएगा जिसमें और षडयंत्रकारियों के नाम होंगे और गर्ग ने मुझे बताया कि वो इस पर काफी मशक्कत से काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा, “पिछले हफ्ते मेरा एक सहायक मुझसे लिफ्ट में मिला और कहा, ‘साब, आज आप बहुत स्मार्ट लग रहे हो.’ मैंने उससे कहा कि वो भी ऐसा दिख सकता है अगर वो सोना छोड़ दे.” गर्ग ने आगे कहा कि वो तेजी से हंसने लगा, और कहा कि एक बार एक कमांडिंग ऑफिसर था जो उसे बताया करता था कि अगर वो सोएगा तो उसे इस बात के सपने आएंगे कि उसके आरोपी अच्छा समय बिता रहे हैं.

जब मैंने गर्ग से पूछा कि एनआईए ने कभी इंद्रेश कुमार से कोई बातचीत क्यों नहीं की, उन्होंने कहा कि ये एक आंतरिक मामला है और वो इस पर बात नहीं करेंगे.

2008 में जब प्रज्ञा सिंह को गिरफ्तार किया गया तब पी चिंदबरम और दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेस नेता इसे भगवा आतंकवाद कह कर इसकी आलोचना करने लगे. आरएसएस और बीजेपी नेता तुरंत अपने संस्थान को दाग से बचाने के लिए इसके खिलाफ कूद पड़े- पहले तो उन्होंने निंदा की और फिर आरोपियों का बचाव करने लगे.

प्रज्ञा सिंह की गिरफ्तारी के बाद वरिष्ठ बीजेपी नेता उमा भारती ने कहा, “मैं हैरान हूं और ये शर्म की बात है कि बीजेपी उन्हें अस्वीकार कर रही है. जब उन्हें उसकी जरूरत थी तब उन्होंने उसे इस्तेमाल किया.” बीजेपी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने इसका जवाब देते हुए कहा, “उन्हें स्वीकार और अस्वीकार करने का कोई सवाल ही नहीं है. उन्होंने 1995-96 में ही एबीवीपी से अपना नाता तोड़ लिया था.” पार्टी को बाद में तब शर्मिंदा होना पड़ा जब साध्वी प्रज्ञा की वो ताजा तस्वीरें सामने आईं जिनमें वो बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और शिवराज सिंह चौहान के साथ नजर आ रही थीं. एक और तस्वीर में वो गुजरात में दंगों के बाद हुए चुनाव में नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करती नजर आ रही थीं.

जब ऐसे आरोप समाने आए कि प्रज्ञा सिंह को प्रताड़ित किया गया है तो बीजेपी ने पाला बदल लिया. एलके आडवाणी ने उनके साथ हुए “अमानवीय बर्ताव” की आलोचना की और कहा कि ये साफ है कि जांच एजेंसियां “राजनीतिक रूप से प्रेरित होकर और गैरपेशेवराना तरीके से काम कर रही हैं.” (बाद में राजनीतिक विशलेषक प्रताप भानू मेहता ने मामले पर कहा, “पिछले चुनाव से पहले एलके आडवाणी को साध्वी प्रज्ञा के असंस्कृत, आवेशपूर्ण और पूरी तरह से बेवजह बचाव जितना नुकसान किसी और बात ने नहीं पहुंचाया.”)

लेकिन नवंबर 2010 में असीमानंद के गिरफ्तार होने के डेढ़ हफ्ते पहले आरएसएस ने अपना सबसे जोरदार प्रदर्शन शुरू किया (और अपने इतिहास का सबसे महान)- ये प्रदर्शन इंद्रेश कुमार के लिए किया गया था, क्योंकि जांच से जुड़ी मीडिया की खबरों में उनका नाम सामने आने लगा था. संघ प्रमुख ने देश भर में विरोध प्रदर्शन करवाए. ऑर्गेनाइजर के मुताबिक देश भर में हुए 700 से अधिक धरनों में 10 लाख से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया; असल में रैलियों में आरएसएस का पूरा नेतृत्व मंचों पर नजर आने लगा. लखनऊ में हुए एक प्रदर्शन में मोहन भागवत ने कुमार के पक्ष में खुद के उतरने का महत्व बताया. उन्होंने कहा, “संस्था के इतिहास में पहली बार सरसंघचालक ने न सिर्फ एक धरना में हिस्सा लिया बल्कि बैठकों को भी संबोधित किया क्योंकि आरएसएस पर आंतक का तमगा लगाने के लिए षडयंत्र रचा जा रहा है.” इस मंच को मोहनदास कमरचंद गांधी के पोस्टर से सजाया गया था. भागवत ने आगे कहा, “हिंदू समाज भगवा रंग और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- ये सब के सब आंतकी अर्थ के विपरीत हैं.”

सीबीआई और एटीएस की जांच से महत्वपूर्ण सुराग सामने आए और गवाहों के बयान से साफ था कि धमाकों में कुमार की भूमिका थी. एनआईए की अपनी चार्जशीट में इस बात की ओर इशारा था कि वो षडयंत्र में शामिल अहम लोगों के परामर्शदाता थे (खास तौर पर सुनील जोशी के) और सीबीआई ने उनसे पूछताछ की. जुलाई 2011 के अंत में इस बारे में काफी खबरें आईं की एनआईए कुमार से पूछताछ करना चाहती है. लेकिन वो पहले से मीडिया में एजेंसी के खिलाफ आक्षेप कर रहे थे: “जब एनआईए के पास मेरे खिलाफ आंतक से जुड़े कानून के मामले में पुख्ता सबूत हैं, तो ये मुझे गिरफ्तार क्यों नहीं कर रही?” उन्होंने ये तक दावा किया कि उन्हें, प्रज्ञा सिंह और असीमानंद को गलत तरीके से फंसाया गया है. एजेंसी को अभी भी उनसे पूछताछ करनी है.

आरएसएस और बीजेपी ने हर मौके पर मामले में जारी जांच को कांग्रेस द्वारा किया गया फंसाने का प्रयास बता कर खारिज कर दिया. अगर ये सच है तो जिस अनमने तरीके से मामले को देखा जा रहा है उससे सवाल खड़े होते हैं कि इन एजेंसियों के ऊपर सरकार का क्या प्रभाव है.

पिछले साल जब मैंने कुमार का साक्षात्कार किया तो उन्होंने शिकायत की कि पत्रकार उनसे सिर्फ आरएसएस की राजनीति से जुड़े सवाल करते हैं और उन्हें संस्था के सामाजिक प्रयासों में कोई दिलचस्पी नहीं है. उन्होंने कहा, “फिर वो उन्हीं सवालों को छापते हैं और हमारे काम के बारे में सारी बातों को गायब कर देते हैं. अब मीडिया को धीरे-धीरे अहसास होने लगा है कि उन्होंने आरएसएस जैसी विविधतापूर्ण संस्था की अनदेखी करने की गलती की है.” जब बात धमाके में उनकी भूमिका की ओर मुड़ी तो उन्होंने कहा, “मैं लोगों को इस बात के लिए चेतावनी देता हूं कि वो जब मेरे बारे में लिख रहे हों तो सतर्क रहें.” उनकी आवाज में गुस्सा था. बाद में जब मैंने उनसे उस बात के बारे में पूछने के लिए फोन किया जब उन्होंने आतंकी हमले के लिए आशीर्वाद दिया था तो वो बिल्कुल खामोश हो गए. मोहन भागवत के ऑफिस ने मुझसे कहा कि मैं अपने सवालों के जबाव के लिए उन्हें मेल करूं लेकिन जब तक ये लेख छपने के लिए गया था तब तक उनका जवाब नहीं आया था.

24 जनवरी, दिन शुक्रवार को हरियाणा के पंचकुला में एक स्पेशल एनआईए कोर्ट ने समझौता ब्लास्ट मामले में असीमानंद के खिलाफ आरोप तय किए. अंबाला जेल में तीन महीने रहने और 31 महीने की सुनवाई के बाद उनकी जांच आगे बढ़ सकी. जयपुर की एक एनआईए कोर्ट में वो सिंतबर 2013 से अजमेर मामले में अभियोगाधीन (जिसके ऊपर मामला चल रहा हो) रहे हैं. मक्का मस्जिद धमाका मामले में अभी ट्रायल शुरू भी नहीं हुआ है; पिछले नवंबर को वो पहली बार उस हैदराबाद कोर्ट गए जो उनके मामले की सुनवाई कर रहा है.

2008 के मालेगांव धमाके की प्रमुख आरोपी प्रज्ञा सिंह ने एनआईए की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. उनका ये भी दावा है कि उन्हें कैंसर है और फिलहाल इसका इलाज भोपाल के एक आयुर्वेदिक अस्पताल में चल रहा है. उन्होंने जमानत से जुड़े कई प्रार्थना पत्र दाखिल किए हैं जिन्हें एनआईए को चुनौती दे रखी है.

फिलहाल ऐसा लगता है कि ये मामला कई सालों तक खिंचेगा. दोनों पक्षों के वकील एक-दूसरे पक्ष पर कोर्ट कार्यवाही में हो रही देरी का ठीकरा फोड़ते आए हैं और पंचकुला कोर्ट से आगे मामले में आरोप तय होने से पहले कई जानने लायक बातें समाने आई हैं.

अंबाला में असीमानंद को एक स्पेशल बी-श्रेणी के जेल में राम कुमार चौधरी के साथ रखा जा रहा है. राम कुमार चौधरी हिमाचल प्रदेश से कांग्रेस के सांसद रहे हैं. उनके ऊपर नवंबर 2012 में एक 24 साल की महिला को मौत के घाट उतारने का आरोप लगा था. दोनों का रसोईया एक ही है जो उनके कहे के अनुसार उनका खाना बनाता है और दोनों को सिर्फ रात के वक्त ही कैद किया जाता है.

जनवरी 2014 में हमारे आखिरी साक्षात्कार के दौरान उन्होंने पूछा कि क्या मैं चाय लूंगी. इससे पहले की मैं कोई जवाब दे पाती एक दुबला सा नौजवान लड़का जिसे तुच्छ अपराध के लिए जेल में डाला गया था, आया और मेरे हाथों में मीठी चाय थमाकर चला गया. असीमानंद ने लड़के को करीब खींचा और कहा, “ये मेरा लड़का है. इसे जल्द छोड़ दिया जाएगा.” उन्होंने लड़के के चेहरे को देखा और हंसते हुए कहा, “ये चायवाला बड़ा होकर नरेंद्र मोदी बन सकता है.”

हमारे साक्षात्कार के दौरान जेल अधिकारी प्राय: रुकता और असीमानंद से उनका हाल चाल पूछता रहता. असीमानंद ने कहा, “ये सब मुझसे कहते हैं कि जो भी हुआ अच्छा हुआ. उन्हें ये नहीं पता कि मैंने इसे अंजाम दिया है या नहीं, लेकिन उन्हें इस बात का सुकून है कि जिसने भी ऐसा किया अच्छा किया.”

जब मैं असीमानंद के पश्चिम बंगाल स्थित गांव कामारपुकुर गई तो उनके परिवार वाले मुझसे बात करने को लेकर काफी उदासीन दिखे. उनके छोटे भाई सुशांत ने मुझे बताया, “कुछ महीने इंतजार कीजिए. एक बार मोदी जी प्रधानमंत्री बन जाएं तो मैं गांव के बीच में एक मंच लगाउंगा और लाउडस्पीकर पर चिल्लाकर वो सब बताउंगा जो असीमानंद ने किया है.”

हमारी एक मुलाकात के दौरान असीमानंद ने नाथूराम गोडसे के आखिरी शब्दों का मतलब समझाते हुए कहा: मेरी अस्थियों को तब तक समुद्र में ना बहाया जाए जब तक सिंधू नदी फिर से भारत से होकर बहने न लगे. उन्होंने फूलचंद बबलो को इस बात का भरोसा दिलाया है कि हालांकि ऐसा हो सकता है कि उनका मामला लंबा खिंचे लेकिन उन्हें जरूर रिहा कर दिया जाएगा. उन्होंने मुझे बताया कि उनके जैसे लोगों का काम प्रज्ञा सिंह और सुनील जोशी आगे ले जाएंगे: “ये होगा. ये समय से होगा.”

सुधार: 1) असीमानंद से संवाददाता की पहली मुलाकात दिसंबर 2011 में एक कोर्ट की सुनवाई के दौरान हुई थी. अंबाला जेल में पहला साक्षात्कार 10 जनवरी 2012 को हुआ. 2) आरोप पत्र से लिया गया प्रज्ञा ठाकुर का एक बयान और इसके अनुवाद को ऑनलाइन लेख में ठीक कर दिया गया है. 3) गुजरात धर्म की आजादी कानून, 2003 को 2008 में समाप्त नहीं किया गया था. साल 2006 में विधानसभा ने इसे लेकर एक संशोधन पास किया गया जिसे 2008 में वापस लिया गया था. 4) असीमानंद की मुलाकात से जुड़े एक शुरुआती लाइन में प्रतिलेखन से जुड़ी गलती है. असल में लाइन का मतलब है: ‘असीमानंद के मुताबिक दोनों आरएसएस नेताओं ने इसकी सहमति दी और भागवत ने उन्हें कहा, “आप इसमें सुनील के साथ काम कर सकते हैं. हम इसका हिस्सा नहीं होंगे. लेकिन आप अगर ये कर रहे हैं तो आप ये मान कर चल सकते हैं कि हम आपके साथ हैं.”’ 5) शबरी कुंभ के वक्त नरेंद्र मोदी गुजरात के सीएम के तौर पर अपना पूरे कार्यकाल की सेवा दे रहे थे. कारंवा को इन अशुद्धियों का खेद है.

(द कैरवैन के फरवरी 2014 में प्रकाशित इस प्रोफाइल का अनुवाद तरुण कृष्ण ने किया है.)


लीना रघुनाथ अमेरिका में स्वतंत्र पत्रकार और कारवां की एडिटोरियल मैनेजर रह चुकी हैं. द न्यू इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स में लेख आदि प्रकाशित, अंग्रेजी साहित्य में एमए और एलएलबी. 2015 और 2018 में रिपोर्टिंग के लिए मुम्बई प्रेस कल्ब ने रेडइंक पुरस्कार से सम्मानित.