अंधेरी सुबह

नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या

तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर (1945 से 2013) सौजन्य महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति
तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर (1945 से 2013) सौजन्य महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति

नरेंद्र दाभोलकर 18 अगस्त 2013 की शाम को गपशप के मूड में थे. 67 साल के तर्कवादी महाराष्ट्र के सतारा जिले के रहमतपुर शहर में अंधविश्वास के खिलाफ व्याख्यान देकर कार से अपने घर सतारा लौट रहे थे. यह शहर से लगभग आधे घंटे की दूरी पर था. रास्ते में दाभोलकर ने "लंबे दीर्घआयु के लिए स्वस्थ आहार, नियमित व्यायाम और समय प्रबंधन के फायदों पर बात की." इस यात्रा में उनके साथ रहे एक पुराने मित्र और सूचना के अधिकार के एक्टिविस्ट शिवाजी राउत ने उन्हें याद करते हुए बताया.

दाभोलकर काफी देर से घर पहुंचे. फिर अगली सुबह जल्दी उठ कर पुणे जाने के लिए सुबह 6 बजे की बस पकड़ी. वह आम तौर पर हफ्ते पहले दो दिन शहर में बिताते, जहां वह महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (एमएएनएस) के काम का निरीक्षण करते. यह समिति उन्होंने 1989 में बनाई थी. पुणे में दाभोलकर को 68 साल से चल रहे साप्ताहिक साधना के ताजा अंक पर भी काम करना होता जिसका उन्होंने 15 सालों तक संपादन किया.

दाभोलकर करीब साढ़े नौ बजे पुणे पहुंचे लेकिन इससे पहले कि वह अपने काम पर जा पाते उन्हें "जाति पंचायतों पर एक टेलीविजन बहस में भाग लेने के लिए फौरन मिली सूचना पर" मुंबई बुलाया गया. यह बात पुणे के एक पत्रकार और साधना के तत्कालीन कार्यकारी संपादक विनोद शिरसाथ ने मुझे बताई. जब तक दाभोलकर वापस लौटे, तब तक आधी रात हो चुकी थी और वह एक फ्लैट में रहने चले गए, जो साधना चलाने वाले ट्रस्ट से संबंधित था. उन्होंने अगले दिन एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई थी, जिसमें उन्हें आगामी गणपति उत्सव के दौरान तालाबों, झीलों और नदियों में विसर्जन के लिए प्लास्टर की बजाए पर्यावरण के अनुकूल मूर्तियों का उपयोग करने की आवश्यकता के बारे में बोलना था.

दाभोलकर 20 अगस्त की सुबह उठे, एक साधारण बैंगनी खादी शर्ट और हल्का सूती पतलून पहन टहलने के लिए फ्लैट से बाहर निकल गए. वह लगभग एक किलोमीटर चल कर ओंकारेश्वर पुल पर पहुंचे, जो मुथा नदी पर बना है और एक किनारे पर ओंकारेश्वर मंदिर को दूसरे किनारे पर लोकप्रिय बाल गंधर्व सभागार से जोड़ता है. दाभोलकर ने मंदिर के छोर से पुल पार करना शुरू किया.

दो आदमी उनके इंतजार में इलाके में घूम रहे थे. दाभेलकर अभी आधा पुल भी नहीं पार कर पाए थे कि जब दोनों आदमी उनके पास आए और उन पर गोलीबारी शुरू कर दी. एक गोली उनकी दाहिनी आंख के ऊपर कनपटी में लगी और उनकी खोपड़ी में जा घुसी. दूसरी गोली उनकी गर्दन को चीरती हुई छाती में जा लगी. तीसरी उनके पेट को छूते हुए निकल गई. दाभोलकर मुंह के बल जमीन पर गिर पड़े. गोली चलाने वाले भाग निकले और पास में खड़ी एक मोटरसाइकिल पर चढ़कर पुराने शहर से गुजरने वाली छोटी गलियों में से एक में भाग निकले.

दाभोलकर के बेटे, हामिद, जो सतारा में थे , को उस सुबह करीब 8.30 बजे एक पुलिसकर्मी का फोन आया, जिसने घटना के बारे में बताया. उन्होंने तुरंत शिरसाथ को फोन किया और उन्हें बताया कि दाभोलकर को "गोली मार दी गई है और उन्हें ससून अस्पताल में भर्ती कराया गया है." उन्होंने कहा, "आप कृपया जल्दी करें, मैं भी जा रहा हूं." लेकिन गोली लगते ही दाभोलकर की मौत हो चुकी थी.

उसी दिन बाद में दाभेलकर के शरीर को सतारा ले जाया गया. महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण और राज्य के गृह मंत्री आरआर पाटिल समेत हजारों लोग उनके अंतिम दर्शन के लिए उनके घर पहुंचे . राउत ने कहा कि शोक मनाने वालों में से कई गहरे सदमे में थे और घर में सन्नाटा छाया हुआ था.

लेकिन उस दिन मौजूद हर कोई दब्बू नहीं बना रहा. राउत ने याद किया कि ''देर शाम कोल्हापुर से कॉमरेड गोविंद पानसरे के पहुंचने पर चुप्पी टूटी थी.” एक तर्कवादी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य 81 वर्षीय पानसरे औपचारिक रूप से दाभोलकर के सहकर्मी नहीं थे - लेकिन समान विचारधारा वाले दो सार्वजनिक हस्तियों के रूप में, वे एक-दूसरे के काम से अच्छी तरह परिचित थे और उनका समर्थन करते थे. राउत ने कहा कि जब वह पहुंचे तो पानसरे दाभोलकर के शव के पास खड़े हो गए और हत्या की निंदा करते हुए नारेबाजी की. वह मीडिया में भी मुखर रहे. टाइम्स ऑफ इंडिया ने उन्हें अगले दिन यह कहते हुए उद्धृत किया, "दाभोलकर की हत्या एक संकेतक है कि हमारे बीच कट्टरपंथी और फासीवादी हैं जो हिंसा से सभी तर्कसंगत आवाजों को कुचलना चाहते हैं."

 पानसरे एक व्यापक खतरा जाहिर कर रहे थे : कि हिंसक हिंदू समूह प्रमुखता से बढ़ रहे थे और प्रगतिशील राजनीति और विचार की एक लंबे समय से चली आ रही परंपरा के साथ एक क्षेत्र में बोलने की आजादी का गला घोंट रहे थे. उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में पश्चिमी महाराष्ट्र ज्योतिराव फुले का सत्यशोधक समाज और प्रति सरकार जैसे आंदोलनों के जन्म का गवाह रहा है. समाज जहां जातिगत भेदभाव से लड़ने के लिए समर्पित था वहीं प्रति सरकार, एक साम्राज्य-विरोधी किसान विद्रोह था जिसके प्रतिभागियों ने विस्तृत सामाजिक कार्यक्रम भी किए. दाभोलकर कई तरह से इस परंपरा के उत्तराधिकारी थे, लेकिन, जैसा कि उन्होंने तर्कवादी विचारों को बढ़ावा देने का प्रयास किया, उन्हें लगातार विरोध का सामना करना पड़ा, अक्सर खुले खतरों के रूप में. इनमें से कुछ खतरे हिंदू समूहों से आए, खासकर गोवा स्थित सनातन संस्था से जो दाभोलकर की हत्या के बाद से जांच एजेंसियों की गहन जांच के दायरे में आ गई है.

अभय वर्तक (बाएं) और संजीव पुनाळेकर सनातन संस्था के प्रवक्ता एवं अधिवक्ता हैं जिन्होंने क्रमशः तर्कवादियों की हत्याओं में शामिल होने के आरोपों से संगठन का आक्रामक रूप से बचाव किया है. विजयानंद गुप्ता / हिंदुस्तान टाइम्स / गैटी इमेजिस

पानसरे का टाइम्स ऑफ इंडिया को दिया गया बयान भविष्यवाणी साबित हुआ. डेढ़ साल बाद,16 फरवरी 2015 की सुबह, उन्हें भी कोल्हापुर में उनके घर के पास गोली मार दी गई; चार दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई. उस साल 30 अगस्त की सुबह, कुछ सौ किलोमीटर दक्षिण, कर्नाटक के धारवाड़ शहर में, एक अन्य तर्कवादी विद्वान एमएम कलबुर्गी की, जो पूर्व में हम्पी में कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में कार्यरत थे, उनके घर में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. अंधविश्वास और मूर्ति पूजा के खिलाफ बोलने के चलते कलबुर्गी भी हिंदू समूहों के गुस्से के केंद्र में थे. तीन हत्याएं, जिनके लिए अभी तक किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया, ने पूरे इलाके और देश खामोंशी की चादर में लपेट लिया, जैसा कि अन्य मुखर कार्यकर्ताओं ने सोचा कि क्या उन्हें अपनी आवाज मध्यम कर देनी चाहिए.

सबसे पेचीदा पहलुओं में से एक दो फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं के जरिए दिया गया बैलिस्टिक विश्लेषण है - एक मुंबई में और दूसरा बेंगलुरु में. दाभोलकर की हत्या के कुछ ही घंटों बाद दो आदमियों, मनीष नागोरी और विकास खंडेलवाल को, जबरन वसूली के एक अन्य मामले में नवी मुंबई में गिरफ्तार किया गया था. महाराष्ट्र के आतंकवाद-रोधी दस्ते एटीएस ने बाद में उन्हें एक अन्य मामले में, 2012 में पुणे विश्वविद्यालय में एक सुरक्षा गार्ड की हत्या, संदिग्ध संलिप्तता के लिए पुणे पुलिस को सौंप दिया. नवंबर 2013 में मुंबई प्रयोगशाला ने राज्य के तत्कालीन गृहमंत्री आरआर पाटिल को एक बैलिस्टिक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें नागोरी और खंडेलवाल को दाभोलकर की हत्या से जोड़ा गया था. इसमें दावा किया गया था कि उनके पास से जब्त हथियारों का इस्तेमाल हत्या में होने की संभावना है.

दो साल से कुछ अधिक समय बाद फरवरी 2016 में मुंबई और बेंगलुरु प्रयोगशालाओं से नई जानकारी के बारे में मीडिया रिपोर्टें सामने आने के बाद यह खोज भ्रम में फंस गई. सीबीआई की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह ने बॉम्बे हाई कोर्ट को बताया कि जहां मुंबई प्रयोगशाला ने दावा किया कि तीनों हत्याओं में एक ही हथियार का इस्तेमाल किया गया था, बेंगलुरु प्रयोगशाला ने दावा किया कि उनमें अलग-अलग हथियार शामिल थे. एजेंसी ने निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले स्कॉटलैंड यार्ड सहित अन्य संगठनों से परामर्श करने के लिए अतिरिक्त समय मांगा.

चूंकि मुंबई प्रयोगशाला ने नागोरी खंडेलवाल और उनके हथियार को दाभोलकर की हत्या से जोड़ते हुए अपनी पहली रिपोर्ट को आधिकारिक तौर पर वापस नहीं लिया था, यह स्पष्ट नहीं था कि प्रयोगशाला उस पहली खोज पर कायम है या नहीं. लेकिन मीडिया ने इस विसंगति को नहीं उठाया और इसके बजाए अपना ध्यान नागोरी और खंडेलवाल और पहली बैलिस्टिक रिपोर्ट से हटाकर बेंगलुरु और मुंबई प्रयोगशालाओं के निष्कर्षों के बीच विरोधाभासों पर केंद्रित कर दिया.

पिछले साल 30 सितंबर को मैं बिना बताए मुंबई फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी गया. मुझे हैरान करते हुए या वास्तव में, भ्रमित करते हुए, एक बै​लेस्टिक विशेषज्ञ, जिससे मैं मिला, को पहली रिपोर्ट के बारे में जानकारी थी. उसने 2013 के निष्कर्षों को दोहराया. उन्होंने दावा किया कि दाभोलकर की हत्या की जगह से बरामद खाली गोले नागोरी और खंडेलवाल से जब्त 7.65 मिलीमीटर देशी पिस्तौल से मेल खाती थी. उन्होंने जोर देकर कहा कि "हमारे द्वारा परीक्षण किए गए खाली गोले पर निशान बरामद हथियार से मेल खाते हैं."

भले ही बेंगलुरू और मुंबई की प्रयोगशालाओं के दावों के बीच विरोधाभास को पेशेवर राय के अंतर बतौर रखा जा सकता है, लेकिन मुंबई प्रयोगशाला के 2016 के दावे को अपने 2013 के दावे के साथ मेल बैठाना मुश्किल था. नागौरी और खंडेलवाल को अप्रैल 2014 में दाभोलकर मामले में इस तकनीकी आधार पर छोड़ दिया गया था कि पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर कानून के अनुसार उनके खिलाफ चार्जशीट दायर नहीं की थी. लेकिन, मैंने सोचा, कैसे 2013 में दो लोगों के पास से जब्त हथियार का इस्तेमाल 2015 में पानसारे और कलबुर्गी की हत्याओं में किया जा सकता था?

 जिस दिन दाभोलकर की हत्या हुई, खबर फैलने के बाद सनातन से संबद्ध एक समूह, हिंदू जनजागृति समिति या एचजेएस ने अपनी वेबसाइट पर एक्टिविस्ट के चेहरे पर लाल "X" के साथ एक तस्वीर अपलोड की. इस कदम की तीखी आलोचना हुई और पुणे पुलिस के साइबर क्राइम सेल ने एचजेएस को तस्तीर को हटाने का निर्देश दिया. मामला वहीं खत्म हो गया.

संस्था लंबे समय से दाभोलकर के खिलाफ हमले जारी रखे हुए थे, उनकी जनसभाओं को बाधित करती, अपने प्रकाशनों और अपनी वेबसाइटों पर उनकी आलोचना करती और उन्हें "हिंदूद्रोही" करार देती. लेकिन यह तस्वीर उन कई गुमनाम धमकियों की अनुगूंज थी जो दाभोलकर को जीवित रहते हुए मिली थीं. शायद इनमें से आखिरी में लिखा था, “गांधी को याद करो. याद रखो कि हमने उनके साथ क्या किया था.” उनके परिवार ने मुझे बताया कि यह धमकी उन्हें अक्सर, कभी-कभी सार्वजनिक समारोहों में भी मिलती थी. दाभोलकर ने इन चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करने का विकल्प चुना और पुलिस सुरक्षा को नामंजूर कर दिया.

दाभोलकर की हत्या के एक दिन बाद संस्था ने अपनी वेबसाइट के पहले पन्ने पर इसके संस्थापक जयंत आठावले का एक बयान प्रकाशित किया. इसमें लिखा था, “जन्म और मृत्यु पूर्व निर्धारित हैं और हर किसी को अपने कर्म का फल मिलता है. बीमारी से बिस्तर पर पड़े रहने या किसी सर्जरी के बाद मरने के बजाए, दाभोलकर के लिए ऐसी मौत ईश्वर का आशीर्वाद है. आठावले ने कहा कि हालांकि, "दाभोलकर एक नास्तिक थे और भगवान में विश्वास नहीं करते थे. वही भगवान दिवंगत आत्मा को सांत्वना देंगे."

संगठन और हत्या के बीच संभावित कड़ी के बारे में कई अनुमान लगाए गए. संस्था पर पहले से ही हिंसा के कई कृत्यों में हाथ होने का संदेह था. 2008 में, इसके कई "चाहने वालों" को उस साल हुए कच्चे बमों के विस्फोट के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था. नवी मुंबई और ठाणे के सभागारों में दो विस्फोट हुए जहां अम्ही पचपुते नाटक का मंचन किया जा रहा था, जिसके बारे में एचजेएस ने दावा किया था कि उसने हिंदू भावनाओं को आहत किया है. एक धमाका पनवेल के एक सिनेमाघर में हुआ जहां बॉलीवुड फिल्म जोधा अकबर की स्क्रीनिंग हो रही थी, जिसमें संगठन ने दावा किया कि एक हिंदू महिला को गलत तरीके से दिखाया गया है. संस्था के दो सदस्य- विक्रम भावे और रमेश गडकरी को पहले दो धमाकों के लिए दोषी ठहराया गया था और दस साल जेल की सजा सुनाई गई थी. लेकिन बंबई उच्च न्यायालय ने बाद में उन्हें जमानत दे दी और उनकी सजा को निलंबित कर दिया- उनकी अपील अदालत के समक्ष लंबित है. संस्था ने घटनाओं में किसी भी भूमिका से इनकार किया और दावा किया कि गिरफ्तार किए गए लोग स्वतंत्र रूप से काम कर रहे थे.

 लेकिन संस्था की बातें सुझाती है कि इसमें हिंसा की प्रवृत्ति थी. जुलाई 2008 में प्रतिधारा वेबसाइट के लिए 'आध्यात्मिक रूप में आपराधिक?' शीर्षक वाले लेख में पत्रकार सुभाष गाताडे ने लिखा है कि जबकि संगठन के अधिकांश पाठ कथित रूप से आध्यात्मिक विषयों से संबंधित हैं, "साधकों के प्रशिक्षण में एक बहुत महत्वपूर्ण पाठ 'रक्षा पर पाठ' है." इसके माध्यम से, गाताडे ने बताया, संस्था के साधकों को "एयर राइफल्स के साथ प्रशिक्षण दिया गया था.” उन्होंने कई उदाहरणों का भी हवाला दिया जिसमें संस्था के ग्रंथ हिंसा से नजर फेरते दिखाई दिए. उदाहरण के लिए, अठावले ने अपनी किताब साइंस एंड स्पिरिचुअलिटी में लिखा, "अगर आपको संतों या गुरुओं ने बुराइयों को नष्ट करने की सलाह दी है तो ऐसा ही करो. तब ये काम आपके मत्थे नहीं चढ़ेंगे.

अठावले के काम को बढ़ावा देने वाली एक वेबसाइट उन्हें मुंबई के एक "मनोचिकित्सक और नैदानिक सम्मोहन चिकित्सक" के रूप में वर्णित करती है, जिन्होंने आधुनिक चिकित्सा की सीमाओं की खोज की जब उन्होंने देखा कि उनके अपने रोगियों में से कुछ "एक पवित्र व्यक्ति या स्थान" से मदद मांगने के बाद ही ठीक हो गए.” समूह की वेबसाइट के अनुसार, उन्होंने "समाज में जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने" के लिए, 1999 में पड़ोसी राज्य गोवा में संस्था की स्थापना की. संगठन ने लोगों में धार्मिक प्रवृत्तियों को विकसित करने और "साधकों को उनके आध्यात्मिक उत्थान के लिए व्यक्तिगत मार्गदर्शन" प्रदान करने की भी मांग की. 1985 के बाद से अठावले, एक मामूली, चश्माधारी व्यक्ति, ने खुद को आध्यात्मिक क्षेत्र के लिए समर्पित कर दिया और, साइट कहती है, जल्द ही देवत्व के लक्षण दिखाना शुरू कर दिया. कथित तौर पर उनके बाल सुनहरे रंग में बदलने लगे और "ओम" का प्रतीक उनके नाखूनों, उनकी जीभ और उनकी त्वचा के कुछ हिस्सों पर दिखाई दिया.

 

पुणे में ओंकारेश्वर पुल को पार करते हुए 20 अगस्त 2013 को दाभोलकर की हत्या कर दी गई थी. स्ट्रडेल /एएफपी/गैटी इमेजिस

संस्था के अधिकारियों का कहना है कि अठावले अब संगठन की गतिविधियों में शामिल नहीं हैं. ''साल 2006 से, विभिन्न बीमारियों और बुढ़ापे के कारण, वह अपने कमरे तक ही सीमित हैं," अभय वर्तक, एक प्रवक्ता ने मुझे ईमेल पर बताया. “इसलिए, संस्था की सभी गतिविधियों और विभिन्न आश्रमों का प्रबंधन सनातन संस्था के साधकों और ट्रस्टियों की देख-रेख में किया जाता है.”

राज्य सरकार ने कई साल पहले संगठन पर शक जताया था. मैंने महाराष्ट्र गृह मंत्रालय से तत्कालीन कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी गठबंधन सरकार के अप्रैल 2011 के एक पत्र की एक प्रति प्राप्त की जो केंद्रीय गृह मंत्रालय को लिखा गया था जहां कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी. पत्र में कहा गया है, ''आपको सूचित किया जाता है कि सनातन संस्था के कार्यकर्ताओं के खिलाफ बम विस्फोट के तीन मामले दर्ज हैं. गिरफ्तार अभियुक्तों ने संस्था के आधिकारिक प्रकाशन सनातन प्रभात के लेखन से प्रोत्साहन और प्रेरणा प्राप्त की है. विस्फोटों पर एक "विस्तृत रिपोर्ट" संलग्न करते हुए, पत्र में कहा गया है, "यह सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि पूर्वोक्त संगठन अपनी संबद्ध सहायक संस्थाओं/ट्रस्टों के साथ प्रतिबंधित होने के लिए उत्तरदायी है." लेकिन अनुरोध कभी लागू नहीं किया गया और संस्था सक्रिय रही.

 नासिक, पुणे, उस्मानाबाद और अहमदनगर जिलों के परिवारों के एक समूह द्वारा बंबई उच्च न्यायालय में याचिका भी संस्था की गतिविधियों को रोकने में अप्रभावी रही. याचिकाकर्ताओं ने शिकायत की कि उनके परिवार की युवा महिला सदस्यों ने उन्हें छोड़ दिया और संस्था आश्रम में शामिल हो गईं. एक याचिका में कहा गया है कि संस्था ने, "ईश्वरी राज्य के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए," ऐसी सामग्री प्रकाशित जो "1950 के भारत के संविधान के अनुसार स्थापित प्रणाली को उखाड़ फेंकने के लिए अपने सदस्यों को निर्देशित करती है." याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह "भारतीय राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने" जैसा है और अदालत से सनातन संस्था को एक आतंकवादी संगठन घोषित करने और इसे प्रतिबंधित करने के लिए कहा.

 नवंबर 2013 के अंत में, दाभोलकर की हत्या के कुछ महीने बाद, उनके परिवार ने महाराष्ट्र के राजनेता सुशील कुमार शिंदे से मुलाकात की, जो तब यूपीए सरकार के गृह मंत्री थे, उन्होंने भी संगठन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की. जब मैं पिछले साल 30 सितंबर को शिंदे से मुंबई में उनके घर पर मिला, तो उन्होंने इस मामले में ज़िम्मेदारी लेने से इनकार करते हुए कहा, “हां, मैं उनसे मिला था. लेकिन हमें वोट देकर बाहर कर दिया गया.”

जैसे-जैसे दाभोलकर और पानसरे की हत्याओं की जांच आगे बढ़ी है, संगठन और हत्याओं के बीच परेशान करने वाली कड़ियां उभर कर सामने आई हैं. 16 सितंबर 2015 को, महाराष्ट्र पुलिस की एक विशेष जांच टीम ने पानसरे की मौत में शामिल होने के संदेह में सांगली में समीर गायकवाड़ नाम के एक साधक को गिरफ्तार किया. और इस साल 10 जून को, सीबीआई ने दाभोलकर की हत्या में शामिल होने के संदेह में एक अन्य साधक, वीरेंद्र तावड़े नामक पनवेल के एक चिकित्सक को गिरफ्तार किया.

इस तरह की जांच के सामने पीछे हटने के बजाए संस्था आक्रामक हो गई है. 23 सितंबर 2015 को, जब एसआईटी ने उसे कोल्हापुर मजिस्ट्रेट के सामने उसकी हिरासत की मांग करने के लिए पेश किया तो संजीव पुनालेकर के नेतृत्व में 31 वकीलों की एक भीड़, जो हिंदू विधिज्ञ परिषद के रूप में जाने जाने वाले एक समूह से जुड़ी हुई है, गायकवाड़ का बचाव करते दिखाई दी. अपने ईमेल में, अभय वर्तक ने यह दावा करते हुए गायकवाड़ का समर्थन किया कि पुलिस उसके खिलाफ "सबूत खोजने तलाश रही थी". उन्होंने जोर देकर कहा कि "समीर निर्दोष है और तथाकथित जांच एक साजिश है." उन्होंने तावड़े की गिरफ्तारी को भी एक साजिश के रूप में वर्णित किया और कहा कि इसके चलते "बस समीर की जमानत पर रिहाई में देरी हुई; नहीं तो वह अब तक जेल से बाहर होता.'

सनातन प्रभात ने 7 अक्टूबर 2015 को एक तस्वीर के साथ एक संक्षिप्त रिपोर्ट में घोषणा की कि शिवसेना और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं सहित 30 लोग संस्था को अपना समर्थन देने के लिए ओंकारेश्वर मंदिर में तीन दिन पहले मिले थे. समूह ने "सहयोग" करने और "सोशल मीडिया के माध्यम से सनातन की वास्तविक स्थिति को लोगों तक पहुंचाने" का संकल्प लिया. दाभोलकर के बेटे हामिद, जिन्हें एक ईमेल द्वारा रिपोर्ट के बारे में सूचित किया गया था, को आश्चर्य हुआ कि एचजेएस के बैनर तले आयोजित समूह इतनी बेशर्मी से बैठक कर सकता है, उस जगह से कुछ ही मीटर की दूरी पर जहां दाभोलकर की हत्या हुई थी.

इस बीच, संस्था लगातार हिंसक बयानबाजी कर रही है. सनातन प्रभात के सितंबर संस्करण में 1993 के मुंबई बम विस्फोटों के दोषी याकूब मेमन की फांसी पर हिन्दू जनजागृति समिति की प्रेस विज्ञप्ति प्रकाशित हुई. विज्ञप्ति में "राष्ट्र-विरोधी" तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का आह्वान किया गया. सतारा के अपने गृह जिले में विशेष रूप से श्रद्धेय सत्रहवीं शताब्दी के एक संत और आध्यात्मिक कवि का हवाला देते हुए विज्ञप्ति में कहा गया है कि, "समर्थ रामदास स्वामी की शिक्षा के अनुसार, देश-विरोधी कुत्तों की तरह होते हैं, उन्हें मार दिया जाना चाहिए."

मैंने वर्तक से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ संस्था के संबंध के बारे में पूछा, जो कुछ अटकलों का विषय रहा है. अपने ईमेल में उन्होंने कहा, “आरएसएस की गतिविधियों का प्रसार असाधारण रहा है; हालांकि, उनमें आध्यात्मिक आधार का अभाव है. सनातन संस्था लापता कड़ी को उपलब्ध कराने का प्रयास कर रही है. आख़िरकार, आरएसएस और सनातन संस्था ऐसे संगठन हैं जो हिंदुत्व के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं; कहने की जरूरत नहीं है कि कुछ सामान्य सूत्र हो सकते हैं.''

दाभोलकर सतारा में बड़े हुए, सात भाइयों और तीन बहनों में सबसे छोटे थे, सभी का झुकाव बौद्धिक गतिविधियों और सामाजिक उद्देश्यों की ओर था. इसमें उन्हें उनकी माता ताराबाई ने प्रोत्साहित किया. दाभोलकर के भाइयों में से एक पुणे विश्वविद्यालय के कुलपति हो गए, जबकि दूसरे ने राज्य में जैविक खेती को लोकप्रिय बनाने के लिए गणितज्ञ के रूप में अपना करियर छोड़ दिया. उनके एक और भाई, दत्तप्रसाद, एक प्रसिद्ध लेखक, कार्यकर्ता और वैज्ञानिक हैं और अब कई साल पहले दिल्ली में एक औद्योगिक शोध संस्थान के निदेशक से सेवानिवृत्त होने के बाद सतारा में रहते हैं.

दाभोलकर और उनके साथी कार्यकर्ताओं ने 1997 में व्यसन के खिलाफ एक युवा अभियान शुरू किया. प्रशिक्षण और डॉक्टर के रूप में काम करने के बाद, दाभोलकर ने अपना अभ्यास छोड़ दिया और 1971 में एक कार्यकर्ता के रूप में अपना करियर शुरू किया. सौजन्य से महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति

जून 2015 में जब मैं उनसे उनके घर पर मिला, तो दत्ताप्रसाद ने बताया कि जब वह और दाभोलकर बच्चे थे उस वक्त सतारा पेंशनभोगी शहर के रूप में मशहूर था, लेकिन यह राजनीतिक गतिविधियों का एक बड़ा केंद्र भी था. उन्होंने कहा कि जब बच्चे शहर की छोटी-छोटी गलियों में कंचे खेलने में मगन नहीं होते, तो आरएसएस की तरह कांग्रेस के जमीनी स्तर के संगठन, सेवा दल की बैठक में होते. इस दौरान दाभोलकर का दिल कबड्डी में रमने लगा, जो ताउम्र उनका जुनून बन गया. बाद में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर के कबड्डी खिलाड़ी के रूप में योग्यता प्राप्त की. उन्होंने 2007 के पत्रिका के एक लेख में लिखा, "मराठी में केवल एक किताब है जो एक खेल बतौर कबड्डी का विस्तृत और व्यवस्थित विवरण देती है और वह किताब मैंने लिखी है."

एक कार्यकर्ता के रूप में दाभोलकर का काम 1971 में शुरू हुआ, जब वह एक गांव एक पनोथा यानी वन विलेज वन वेल नामक एक आंदोलन में शामिल हुए, जिसने राज्य भर के गांवों को दलितों को सार्वजनिक कुओं तक पहुंचने की इजाजत देने के लिए राजी करने की मांग की. अगले दो दशकों में, दाभोलकर, जिन्होंने अपनी प्रैक्टिस छोड़ने से पहले एक डॉक्टर के रूप में प्रशिक्षण लिया और काम किया, ने कई तरह की सामाजिक परियोजनाएं शुरू कीं: उन्होंने कार्यकर्ताओं के लिए एक कोष शुरू किया, नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे अन्य आंदोलनों से जुड़े थे, और, 1991 में, सतारा में नशामुक्ति और मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक केंद्र स्थापित किया.

1998 के बाद से, दाभोलकर ने साधना का संपादन भी किया- जिसकी स्थापना 1948 में स्वतंत्रता सेनानी और कार्यकर्ता साने गुरुजी ने भारत की स्वतंत्रता की पहली वर्षगांठ पर की थी. समाचार पत्र डीएनए के अनुसार, 1998 में संपादक के रूप में कार्यभार संभालने के बाद, दाभोलकर ने साधना के प्रसार को 1500—2000 प्रतियों से लगभग 7000 प्रतियों तक बढ़ाने में कामयाबी हासिल की. शिरसाथ ने कहा कि सतारा में उनके अंतिम संस्कार के दौरान दाभोलकर की पत्नी शैला ने पूछा कि क्या साधना का ताजा अंक प्रेस में भेज दिया गया है. "डॉक्टर ने इसकी सराहना की होगी. उसने कभी भी काम करना बंद नहीं किया, भले ही घरेलू मोर्चे पर समस्याएं हों," उन्होंने उनसे कहा. 

लेकिन दाभोलकर ने शायद अंधविश्वास के अभिशाप के रूप में जो देखा उससे लड़ने में सबसे अधिक ऊर्जा डाली. उन्होंने 1989 में एमएएनएस की स्थापना की और अपना बाकी जीवन इसे बनाने के लिए समर्पित कर दिया. एमएएनएस के राज्य अध्यक्ष अविनाश पाटिल के अनुसार अपने शुरुआती सालों में लगभग 17 शाखाओं से, 2014 तक बढ़कर लगभग 250 शाखाएं हो गईं.

तेजी से आधुनिक हो रहे देश में, यह ध्यान केंद्रित करने के लिए एक अजीब विकल्प लग सकता है - खासकर कई अन्य लोगों ने शिक्षा या स्वास्थ्य जैसे विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त क्षेत्रों में काम करना चुना. लेकिन दाभोलकर का मानना था कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों के प्रति संवेदनशील था, जो अलौकिक शक्तियों का दावा करते थे, जिनमें तथाकथित ज्योतिषी, काला जादू करने वाले और बाबा शामिल थे. ऐसे लोगों ने प्रचलित अंधविश्वासों के चलते महा शक्ति का ढोंग किया. अंधविश्वास विरोधी कानून के लिए लड़ने में दाभोलकर को जो प्रतिरोध मिला, उसने साफ कर दिया कि दाभोलकर ने उनकी दुम पर पैर रख दिया है और तर्कवाद और संदेहवाद के विचारों के फैलने से कई लोगों को खतरा महसूस हुआ. कानून का बीजेपी और शिवसेना के साथ-साथ कई हिंदू धार्मिक समूहों ने विरोध किया था. दाभोलकर के आलोचकों ने उन पर हिंदू धर्म के खिलाफ होने का आरोप लगाया और दावा किया कि कानून हिंदू संस्कृति, रीति-रिवाजों और परंपराओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा.

1980 के दशक के उत्तरार्ध में शुरू हुए ढाई दशकों तक, दाभोलकर ने बड़े पैमाने पर महाराष्ट्र का दौरा किया, आमतौर पर राज्य परिवहन की बसों में, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक व्याख्यान दिए. उन्होंने चमत्कारों और दैवीय कृत्यों की नकल करके उन्हें भी खारिज कर दिया. दत्ताप्रसाद ने कहा, "नरेंद्र एक महान वक्ता थे.लेकिन उनकी असली ताकत असाधारण संगठनात्मक कौशल थी जिसने उन्हें महाराष्ट्र के हर तालुका में प्रतिबद्ध स्वयंसेवकों का एक नेटवर्क बनाने में सक्षम बनाया. आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के बाद से किसी ने भी यह उपलब्धि हासिल नहीं की थी.''

2007 के लेख में, दाभोलकर ने अपने समूह की लोकप्रियता के लिए स्पष्टीकरण दिया. "एक कारण मैं सोच सकता हूं कि जीवन के सभी क्षेत्रों के लोग, सभी उम्र के, अमीर और गरीब, शिक्षित और अशिक्षित, पुरुष और महिलाएं, सभी में विश्वास और अंधविश्वास के बारे में एक निश्चित जिज्ञासु रुचि है," उन्होंने लिखा. उनका मानना था कि एमएएनएस "इस रुचि को उत्तेजित करता है और उनके साथ जुड़ता है."

दिसंबर 2010 में, पृथ्वीराज चव्हाण के मुख्यमंत्री और अजीत पवार के उपमुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद, दाभोलकर को उम्मीद थी कि अंधविश्वास विरोधी कानून जल्द ही पारित हो जाएगा, क्योंकि दोनों राजनेताओं को अंधविश्वास पर संदेह करने के लिए जाना जाता था. दाभोलकर ने पुणे मिरर को बताया, "हम निश्चित रूप से तर्कवादी जोड़ी में आशा की किरण देखते हैं. मैं चव्हाण के पिता, कांग्रेस सांसद दाजीसाहेब को जानता था, जो एक मार्क्सवादी थे. स्थिति हमारे पक्ष में है. बिल मार्च में आने वाले बजट सत्र में पारित हो जाना चाहिए. लेकिन इन दोनों की निगरानी में दाभोलकर की हत्या कर दी गई. (एक विडंबनापूर्ण घटनाक्रम में, आउटलुक पत्रिका ने जुलाई 2014 में बताया कि पुणे के पुलिस प्रमुख गुलाबराव पोल ने दाभोलकर के हत्यारों को खोजने के लिए काले जादू का सहारा लिया था. पत्रिका ने पाया कि पोल ने एक पूर्व पुलिसकर्मी की मदद मांगी थी, जो तांत्रिक बन गया था और एक लकड़ी के उपकरण से आत्मा बुलाने की कोशिश की थी.)

दाभोलकर की हत्या के बाद एकमात्र सांत्वना यह था कि राज्य सरकार ने चार दिन बाद अंधविश्वास विरोधी अध्यादेश जारी किया. पानसरे सहित कई कार्यकर्ता सरकार से अध्यादेश को कानून में बदलने का आग्रह करते रहे. चार महीने बाद, विधानसभा ने महाराष्ट्र रोकथाम और मानव बलि और अन्य अमानवीय, बुराई और अघोरी प्रथाओं और काला जादू उन्मूलन अधिनियम, 2013 पारित किया.

सतारा में स्त्री रोग विशेषज्ञ शैला ने मुझे बताया कि दाभोलकर को पुलिस ने लाइसेंसी बन्दूक ले जाने की सलाह दी थी, लेकिन उन्होंने इस विचार को खारिज कर दिया था. "वह एक सामाजिक कारण के लिए समर्पित व्यक्ति थे," उन्होंने कहा. “कई धमकियां मिलीं और मुझे हमेशा उन पर शारीरिक हमला होने का डर रहता था. लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि कोई उनकी जान ले लेगा.'' दत्ताप्रसाद ने भी कहा कि दाभोलकर धमकियों से विचलित नहीं हुए. "वह कहा करते थे, 'अगर मैं सुरक्षा कवर लेता हूं, तो मेरे विरोधी मेरे साथी कार्यकर्ताओं के पीछे पड़ जाएंगे. अगर किसी को मरना है, तो मुझे मरने दो.'”

दत्ताप्रसाद को भी उनके काम के लिए धमकियां मिली हैं. उन्होंने उन्नीसवीं सदी के विचारक स्वामी विवेकानंद को हिंदू वर्चस्व के समर्थक के रूप में चित्रित करने के हिंदू संगठनों के प्रयासों का मुकाबला करने की कोशिश की है. अपने लेखन और भाषणों के माध्यम से, दत्ताप्रसाद ने एक तर्कवादी और एक समाजवादी और एक वैज्ञानिक स्वभाव के समर्थक के रूप में विवेकानंद की एक अधिक सूक्ष्म तस्वीर पेश करने की कोशिश की है. उन्होंने कहा, "हम कट्टरपंथी ताकतों को उन्हें हथियाने नहीं दे सकते. विवेकानंद के बारे में जाना जाना चाहिए कि वह क्या हैं."

जून 2015 में दत्ताप्रसाद के घर पर एक गुमनाम हस्तलिखित पोस्टकार्ड आया, जिसमें दत्ताप्रसाद के सेवानिवृत्त होने और सामाजिक कारणों का समर्थन करना बंद करने का सुझाव देते हुए एक छिपी हुई धमकी दी गई थी. दत्ताप्रसाद ने मुझे बताया कि इसके बाद उन्हें जान से मारने की और भी सीधी धमकियां मिलीं, लेकिन उन्होंने उन्हें कम महत्व देना चुना. फिर भी उन्हें पुलिस सुरक्षा दी गई थी. "मैं अपने पूरे जीवन में एक सामान्य व्यक्ति रहा हूं," उन्होंने कहा. "यह सब उपद्रव इस उम्र में झेलना बहुत ज्यादा है."

लेकिन ऐसा "उपद्रव" तीन हत्याओं के बाद निर्विवाद रूप से आवश्यक लग रहा था, विशेष रूप से यह देखते हुए कि वे अपने तरीकों में कितने समान थे. इन समानताओं ने अटकलों को हवा दी कि उनके पीछे एक सामान्य हाथ हो सकता है. पानसरे भी 16 फरवरी 2015 को अपनी पत्नी उमा के साथ सुबह की सैर पर निकले थे, तभी उनके हत्यारे उन पर टूट पड़े. जुलाई 2016 में टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा रिपोर्ट किए गए एक बयान में एक 14 वर्षीय लड़के ने जांचकर्ताओं को बताया, "मैंने अचानक पटाखे जैसी आवाज सुनी और मोटरसाइकिल पर पीछे बैठे एक छोटी सी बंदूक पकड़े हुए एक सवार को देखा." एक गोली पैदल चल रही एक बूढ़ी औरत को लगी. वो गिर गई." लड़के ने बताया कि बाइक सवार फिर आगे निकल गया, और "यू-टर्न लिया," जिससे बाइक फिसल गई. "तब तक पीछे बैठा युवा फुट रेस्ट पर खड़ा हो गया और एक अबोबा पर गोली चला दी" - दादाजी के लिए मराठी - "जो उनकी ओर आ रहा था. उसने कई गोलियां चलाईं. वह गिर गया."

दाभोलकर की तरह पानसरे ने भी अपने काम से कई दुश्मन बना लिए थे. 1988 में लिखी अपनी किताब शिवाजी कोन होता? (हू वाज़ शिवाजी?), जिसकी मराठी, अंग्रेजी और आठ अन्य भारतीय भाषाओं में कुल 200,000 से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं, उनके विरोधियों को लंबे समय से खौलाए हुए है. किताब में तर्क दिया गया था कि शिवाजी ब्राह्मणों और गायों के रक्षक नहीं थे, बल्कि किसानों, महिलाओं, दलितों और यहां तक कि मुसलमानों के रक्षक थे. उनके श्रद्धेय योद्धा राजा के इस चित्रण ने भगवा समूहों और मराठी उग्रवादियों को भड़का दिया.

गोविंद पानसरे की 1988 में लिखी किताब शिवाजी कोण होता से हिंदू समूह नाराज थे, जिसने योद्धा राजा शिवाजी को किसानों, दलितों, महिलाओं और मुसलमानों के रक्षक के रूप में चित्रित किया.

फिर भी, पानसरे ने हिंदुत्व से लेकर लुटेरे पूंजीवाद तक जिन विचारधाराओं का विरोध किया, उनके खिलाफ उन्होंने अपनी अथक सक्रियता जारी रखी. उनकी हत्या के एक हफ्ते बाद, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की प्रोफेसर श्रुति तांबे ने इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में लिखा कि वह एक "बातचीत करने वक्ता" थे, जिनका "जीवन मेहनतकश जनता के साथ दैनिक प्रतिबद्धता का एक उदाहरण था.” तांबे ने लिखा, जब वह कोल्हापुर में सीपीआई कार्यालय में उनसे मिलतीं, तो पानसरे को आमतौर पर "महिला घरेलू कामगारों, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, सेवानिवृत्त सैनिकों, महिला संगठनों, विभिन्न ट्रेड यूनियनों आदि के प्रतिनिधियों" से बात करते हुए पाया जाता था.

गोविंद पानसरे उदय देवलेकर / हिंदुस्तान टाइम्स

कलबुर्गी की तरह पानसरे को भी अपने काम के लिए लगातार धमकियां मिल रही थीं. कोल्हापुर में शिवाजी विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी में भाग लेने के बाद उनकी हत्या के कुछ समय पहले, उन्हें धमकी दी गई थी, जहां उन्होंने पूरे भारत में मंदिरों में मोहनदास गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की मूर्तियों को स्थापित करने के विचार पर हमला किया था. यह विचार हिंदू महासभा द्वारा प्रस्तावित किया गया था, शायद केंद्र में एक हिंदुत्ववादी पार्टी के शासन ने इसे प्रोत्साहित किया था. उनकी हत्या के कुछ हफ्ते पहले, पानसारे के एक पूर्व छात्र, जो पुणे में एक वरिष्ठ पत्रकार के रूप में काम करते हैं, ने मुझे बताया, "कठोर विरोध के बावजूद, उन्होंने कोल्हापुर में सेवानिवृत्त पुलिस महानिरीक्षक एस.एम. मुश्रीफ की विवादित किताब हू किल्ड करकरे? सार्वजनिक भाषण देने पर जोर दिया था. लोगों की अच्छी भीड़ थी, लेकिन पानसारे को पुणे से गुमनाम पोस्टकार्ड मिले थे, जिसमें उन्हें 'दाभोलकर' बनाने की धमकी दी गई थी.'

उनके मारे जाने के बाद पानसरे के समर्थकों ने हर महीने की बीस तारीख को उस रास्ते पर, जिस पर पानसरे हर सुबह चला करते थे, एक प्रतीकात्मक विरोध के रूप में चलने का संकल्प लिया. इसे वे आज भी जारी रखे हुए हैं. पानसरे की बहू मेघा ने मुझे बताया कि प्रदर्शनकारी दाभोलकर के परिवार और पुणे में एमएएनएस कार्यकर्ताओं द्वारा अपनाए गए तरीकों से प्रेरित थे, जो हर महीने की बीस तारीख को ओंकारेश्वर पुल पर जमा होते थे, वह भी एक विरोध के रूप में. उन सभाओं ने अमोल पालेकर, नसीरुद्दीन शाह, नागराज मंजुले, सोनाली कुलकर्णी और अतुल पेठे सहित सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, शिक्षाविदों और फिल्म, टेलीविजन और थिएटर के प्रमुख कलाकारों को आकर्षित किया है. सभाओं में वे जो नारे लगाते हैं, उनमें से एक है, "फुले, शाहू, अंबेडकर, अम्ही सारे दाभोलकर" (हम सब दाभोलकर हैं). मेघा ने कहा, "हम चाहते हैं कि हत्यारे और राज्य यह जान लें कि असंतोष को आसानी से दबाया नहीं जा सकता."

कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों के लिए, तर्कवादियों की हत्या इस बात का भयावह प्रतीक है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से पश्चिमी महाराष्ट्र की राजनीति कितनी दूर चली गई है. उस युग ने देखा कि इस क्षेत्र ने भारत के कुछ सबसे प्रगतिशील कार्यकर्ताओं और विचारकों को जन्म दिया. ज्योतिराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई के अलावा, धर्मनिरपेक्षता, तर्कवाद, सकारात्मक कार्रवाई और लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने वाले गोपाल गणेश अगरकर, शाहू महाराज और भाऊराव पाटिल जैसे सुधारक भी इस क्षेत्र में सक्रिय थे. स्वतंत्रता के बाद, उनकी विचारधाराओं ने ट्रेड यूनियनों, दलित पार्टियों, कम्युनिस्ट पार्टियों और यहां तक कि कांग्रेस सहित विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक समूहों की नींव के रूप में कार्य किया. लेकिन तथ्य यह है कि समान कारणों से लड़ने वाले कार्यकर्ता आज सनातन संस्था जैसे समूहों से लगातार खतरों और धमकियों का सामना करते हैं, यह बताता है कि यह नींव दशकों से धीरे-धीरे खिसक गई है.

साधना के जुलाई 2016 के अंक के कवर पर दाभोलकर की हत्या में शामिल होने के संदेह में जून में गिरफ्तार वीरेंद्र तावड़े की तस्वीर थी. साप्ताहिक साधना के सौजन्य से

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल का राजनीतिक सफर इस पर कुछ प्रकाश डालता है कि यह परिवर्तन कैसे हुआ. कांग्रेस के एक सदस्य, वसंतदादा ने मोहनदास गांधी के अंग्रेजों "भारत छोड़ो" के आह्वान के जवाब में, 1942 में नाना पाटिल नामक एक नेता द्वारा सतारा में शुरू किए गए एक किसान विद्रोह, प्रति सरकार में भाग लिया. प्रति सरकार क्रांतिकारियों ने सतारा में एक समानांतर सरकार की स्थापना की, पुस्तकालयों और स्कूलों की स्थापना करके शिक्षा को बढ़ावा दिया और तर्कवाद का प्रचार किया. (उन्होंने कुछ कम प्रगतिशील तरीके भी अपनाए, जैसे "न्यायदान मंडल," या जन अदालतें आयोजित करना, जहां सामंती शोषकों, ब्रिटिश हमदर्दों और अन्य मिश्रित अपराधियों पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें दंडित किया गया. एक आम सजा थी लोगों के पैरों के तलवों पर मारना.)

वसंतदादा प्रति सरकार के एक महत्वपूर्ण नेता थे. जुलाई 1943 में, वह और कई साथी क्रांतिकारी सांगली जेल से बाहर आ गए, जहां उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए ब्रिटिश शासकों द्वारा कैद कर लिया गया था. पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में वसंतदादा के सीने में गोली लगी. हालांकि उनकी चोट गंभीर थी, वे बच गए और अगले 45 सालों में एक हाई-प्रोफाइल राजनीतिक करियर बनाया. 

लेकिन जैसा कि उन्होंने ऐसा किया, कई लोगों का मानना है कि वसंतदादा ने प्रति सरकार और आम तौर पर प्रगतिशील आंदोलन को धोखा दिया. स्वतंत्रता के बाद, उन्होंने और यशवंतराव चव्हाण और बालासाहेब देसाई सहित मराठा जाति समूह के अन्य कांग्रेस नेताओं ने दावा किया कि प्रगतिशील आंदोलन उनकी विरासत का हिस्सा था, लेकिन व्यवहार में, उन्होंने एक शासक वर्ग को बढ़ावा दिया, जिसमें अमीर मराठा किसान शामिल थे, और कुछ अन्य पिछड़ा वर्ग, या ओबीसी समूह. राज्य में सत्ता बनाए रखने की इस बुनियादी रणनीति ने दशकों तक कांग्रेस की अच्छी सेवा की, जिसने 1980 के दशक के अंत तक इसे शासन करने दिया. 

कार्यकर्ता भरत पाटणकर ने आजादी के बाद कांग्रेस के उदय और हाल ही में हिंदू पार्टियों के विकास के बीच एक समानता की ओर इशारा किया : उस पहले चरण में भी वामपंथी नेताओं की हत्याओं की एक श्रृंखला देखी गई थी. उन्होंने कहा, "40 के दशक के अंत और 50 के दशक की शुरुआत में, इस क्षेत्र में कमेरी के चंद्रोजी पाटिल, काले के कॉमरेड केडी पाटिल, बेनापुर के बालासाहेब शिंदे और मलखेड के पोपट मास्टर की हत्याएं देखी गईं. अब दाभोलकर और पानसारे हैं." उनके पिता, बाबूजी पाटणकर भी, जो प्रति सरकार के एक प्रमुख नेता थे, इस अवधि के दौरान गायब हो गए. 24 जनवरी 1952 को एक बैठक में बुलाए जाने के बाद, उन्होंने कहा, "मेरे पिता रहस्यमय परिस्थितियों में लापता हो गए ... उनका शव कभी नहीं मिला."

वर्षों से, स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व और केंद्र के बीच दरारें विकसित होने लगीं. जैसा कि केंद्र ने राज्य इकाई को नियंत्रण में रखने की कोशिश की, राज्य के नेताओं, उनमें से वसंतदादा, ने एक तत्कालीन हिंदू पार्टी, शिवसेना, जिसे 1966 में बाल ठाकरे द्वारा गठित किया गया था, को मौन समर्थन देकर प्रतिशोध लिया. सेना ने एक विरोधी राजनीति का तरीका अपनाया और कई मुद्दों पर काम किया : इसने सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा दिया, इस क्षेत्र में बाहरी लोगों की आमद के खिलाफ आवाज उठाई और उद्योगों पर ट्रेड यूनियनों की पकड़ को तोड़ने के लिए लड़ाई लड़ी. 1984 में, पार्टी ने कथित तौर पर भिवंडी, कल्याण, ठाणे और मुंबई में दंगे करवाए. ये 1992 और 1993 में मुंबई में बहुत बड़े दंगों के पूर्वाभास थे, जिसने सेना को 1995 में बीजेपी के साथ साझेदारी में राज्य में राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के लिए आवश्यक गति प्रदान की. वास्तव में, राज्य के सबसे प्रमुख कांग्रेसी नेताओं में से एक, वसंतदादा ने, वामपंथियों के साथ जुड़ाव के बावजूद, हिंदुत्व की राजनीति के उदय को सक्षम बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

यहां तक कि जब उन्होंने महाराष्ट्र में अपने उत्थान की साजिश रची, हिंदू समूहों ने महसूस किया कि वे वामपंथी विचारधाराओं की अनदेखी नहीं कर सकते, जिनकी पश्चिमी महाराष्ट्र में मजबूत उपस्थिति थी. आरएसएस ने 1983 में सामाजिक समरसता मंच की स्थापना करके जाति की समस्याओं को अपने हिंदुत्व एजेंडे में शामिल करने का प्रयास किया. इस समूह ने बजाए "सामाजिक न्याय" के पुराने वामपंथी विचार के, जो खुद जाति व्यवस्था के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई से जुड़ा था "सामाजिक सद्भाव" या जातियों के बीच सद्भाव के विचार की बात की. मंच की वेबसाइट के अनुसार, हिंदू विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी, जिन्होंने इसके उद्घाटन पर बात की थी, ने "डॉ. आंबेडकर और डॉ. हेडगेवार की सामाजिक विचारधारा में सामान्य बिंदुओं का पता लगाया" - हालांकि हेडगेवार हिंदुत्व के एक प्रतिबद्ध समर्थक थे, और आंबेडकर ने हिंदू धर्म को एक दमनकारी व्यवस्था के रूप में देखा जिसे जड़ से उखाड़ने की जरूरत है.

पानसरे की हत्या के सिलसिले में सितंबर 2015 में समीर गायकवाड़ की गिरफ्तारी, हत्या के बाद के सात महीनों में इस मामले में पहली सफलता थी. इंडियन एक्सप्रेस आर्काइव

हिंदू समूह अपने इतिहास को नया रूप देने का प्रयास करते रहते हैं. 15 दिसंबर 2015 को, इंडियन एक्सप्रेस ने संघ के विचारक एमजी वैद्य द्वारा 'मिसअंडरस्टैंडिंग द आरएसएस' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि संगठन के स्वयंसेवक स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे हैं. उन्होंने लिखा है कि प्रति सरकार के नेता "सतारा के नाना पाटिल, जिन्होंने एक उग्र ब्रिटिश विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया था, पास के शहर के संघचालक पंडित सातवलेकर के घर में कई दिनों तक भूमिगत रहे." 

पाटनकर ने वैद्य के दावे को "पूरी तरह झूठ" और "पिछली घटनाओं को हथियाने के संघ के बड़े लक्ष्य के अनुरूप सतारा के इतिहास को फिर से लिखने का एक खराब प्रयास" के रूप में खारिज कर दिया. उन्होंने मुझे बताया, “मेरे माता-पिता नाना पाटिल के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे. मैंने कभी अपनी मां या उनके सहयोगियों को सातवलेकर या आरएसएस के किसी व्यक्ति का जिक्र करते नहीं सुना.” इसके अलावा, उन्होंने कहा, “प्रति सरकार की विचारधारा हमेशा आरएसएस के लक्ष्यों के उलट थी. इसने महात्मा फुले की विचारधारा से प्रेरित होकर ब्राह्मणवादी प्रभुत्व और सामंती तरीकों को चुनौती दी और समाप्त कर दिया.''

लेकिन भले ही इस विरासत पर हिंदू समूहों के दावे संदिग्ध हों, उन्होंने वामपंथी आंदोलनों से राजनीतिक रणनीति के महत्वपूर्ण सबक जरूर लिए. मिलिंद एकबोटे, जो आरएसएस स्वयंसेवकों के परिवार से हैं और संघ के स्वयंसेवक के रूप में दो बार अयोध्या की यात्रा कर चुके हैं, ने मुझे पुणे में अपना आधार बढ़ाने के लिए आरएसएस की रणनीति के बारे में बताया. उनका काम 1974 में शुरू हुआ, जब संगठन के तत्कालीन प्रमुख बालासाहेब देवरस ने घोषणा की, "अगर अस्पृश्यता गलत नहीं है, तो दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है." इस बयान को व्यापक रूप से आरएसएस के लिए एक नए लक्ष्य यानी उत्पीड़ित जातियों को अपने पाले में लाने के रूप परिभाषित किया जाने लगा गया था.

एकबोटे ने 1990 के दशक की शुरुआत में पुणे नगर निगम के एक निर्वाचित बीजेपी सदस्य के रूप में कार्य किया और पार्टी द्वारा दरकिनार किए जाने से पहले राजनीति में हाथ आजमाया. फिर भी, अपने करियर के दौरान उन्होंने देखा है कि कैसे गंज पेठ, जहां फुले का घर था, सहित भीड़भाड़ वाले इलाकों में आरएसएस घुस गया, जहां शहर के वंचित लोग रहते थे. "मेरे जैसे कई लोग थे जिन्होंने कम आय वाले क्षेत्रों में काम करना चुना," उन्होंने कहा. उन्होंने 1970—80 के दशक में शहर की विभिन्न मलिन बस्तियों में अपने साथी स्वयंसेवकों का जिक्र किया जैसे, पुणे निर्वाचन क्षेत्र से बीजेपी के वर्तमान सांसद अनिल शिरोले; उसी निर्वाचन क्षेत्र के पूर्व सांसद प्रदीप रावत और दिवंगत केंद्रीय मंत्री गोपीनाथ मुंडे आदि.

एकबोटे ने कहा, "हमने चॉल और बस्तियों में शाखाएं शुरू कीं और दलितों और अन्य निचली जातियों के समूहों को हमसे जुड़ने के लिए प्रेरित किया." अनुयायियों को जीतने के लिए समूह नियमित रूप से इन क्षेत्रों में हाई-प्रोफाइल नेताओं के दौरे का आयोजन करता. उनमें कोल्हापुर स्थित करवीर पीठ के शंकराचार्य भी थे, जिन्होंने 1986 में मध्य पुणे में लोहिया नगर झुग्गी का दौरा किया था. एकबोटे और उनके सहयोगियों ने 50 दलित विवाहित जोड़ों को इकट्ठा होने और धार्मिक नेता का स्वागत करने के लिए राजी किया. उन्होंने 1988 में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी की यात्रा की तैयारी के लिए शहर में जोतीराव फुले के पैतृक घर के अहाते की सफाई को भी याद किया, जो जीर्ण-शीर्ण पड़ा हुआ था. एकबोटे ने कहा "हमने 25 मालाएं गिनीं."

ये मुश्किल साल थे, एकबोटे ने समझाया. संसदीय चुनावों के लिए बीजेपी के उम्मीदवार, अन्ना जोशी क्षेत्र से मुश्किल से एक हजार वोट पाने में कामयाब रहे. लेकिन 1995 में शिवसेना के साथ सत्ता में आने तक पार्टी ने धीरे-धीरे एकबोटे जैसे जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के प्रयासों से बल प्राप्त किया. इस अवधि के दौरान कुछ दलित नेता भी उभरे, जो पार्टी में प्रमुख व्यक्ति बने रहे. मातंग जाति के दलित नेता दिलीप कांबले, जिनकी मध्य पुणे की घनी आबादी वाली झुग्गियों में अच्छी खासी उपस्थिति है, 1995 में पार्वती विधानसभा क्षेत्र से चुने गए और मंत्री बने. आज, वह सत्तारूढ़ देवेंद्र फडणवीस सरकार में सामाजिक न्याय राज्य मंत्री हैं.

गठबंधन ने 1999 में सत्ता खो दी और अगले 15 वर्षों के लिए विपक्ष में चला गया - एक ऐसी अवधि जिसके दौरान सेना-बीजेपी की साझेदारी कमजोर हुई. लेकिन 2014 के चुनावों में दोनों दलों ने जोरदार वापसी की, इस बार बीजेपी की अगुवाई में. पार्टी ने पुणे शहर में विशेष रूप से प्रभावशाली परिणाम दिए, जहां उसने एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना को सभी आठ विधानसभा सीटों पर जीत दिलाई. इससे पहले साल में, उसने बीजेपी के प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के पक्ष में एक लोकप्रिय लहर पर सवारी करते हुए, पुणे लोकसभा क्षेत्र को अपनी झोली में डाला था.

पार्टियों के साथ एकबोटे की किस्मत नहीं बढ़ी'. चुनाव टिकट की तलाश में, वह 2014 के विधानसभा चुनावों के दौरान बीजेपी से शिवसेना में चले गए, लेकिन शिवाजीनगर निर्वाचन क्षेत्र से हार गए. तब से, वह गौ रक्षा के एक प्रवर्तक के रूप में सक्रिय रहे हैं और उन्होंने अपने संगठन समस्त हिंदू अघाड़ी के बैनर तले कई गौशालाओं का समर्थन किया है, जो हिंदुत्व को समर्पित हैं.

पानसारे हत्याकांड में गायकवाड़ की गिरफ्तारी के बाद सनातन संस्था और हिन्दू जनजागृति समिति के खुले समर्थन में आने वालों में एकबोटे भी शामिल थे. उन्होंने मुझे बताया, "समीर गायकवाड़ की गिरफ्तारी सच्चे हिंदुओं के बीच चिंता का एक गंभीर कारण है. देखिए, सनातन आध्यात्मिकता का प्रचार करना चाहती है. वे अपने प्रकाशनों और वेबसाइटों में थोड़े आक्रामक हो जाते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि उनके साधक हत्याएं कर रहे हैं."

अक्टूबर 2015 में जारी एक बयान में, एकबोटे ने इन संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वालों की निंदा की. "इन लोगों का एकमात्र एजेंडा हिंदू-घृणा है," उन्होंने मुझे बताया जब हम नवंबर में मिले थे, और आरोप लगाया कि "कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने संस्था और एचजेएस को फंसाने के लिए सब कुछ किया था". उन्होंने दाभोलकर और पानसरे की "छद्म धर्मनिरपेक्षता" की भी कटु आलोचना की. "उन्होंने "आम लोगों की भावनाओं और विश्वासों को चोट पहुंचाने के लिए," 'विवेकवाद' की गलत व्याख्या की," उन्होंने कहा.

मारे गए तीन तर्कवादियों की तरह, भरत पाटणकर को भी कई गुमनाम पत्र मिले हैं, जिसमें उन्हें अपनी सक्रियता छोड़ने की चेतावनी दी गई है. सीसी बाय-एसए 4.0

सितंबर 2015 में, दाभोलकर और पानसरे के परिवारों द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई के बाद, बॉम्बे हाई कोर्ट ने उनके मामलों की जांच पर चिंता व्यक्त की- पहली सीबीआई द्वारा और दूसरीइ एक विशेष जांच दल, या एसआईटी द्वारा. अदालत ने प्रगति करने में विफल रहने के लिए दोनों की आलोचना की. जस्टिस रंजीत मोरे और राजेश केतकर की बेंच ने कहा, "यह एक परेशान करने वाला कारक है."

इसके बाद जांच में तेजी आती दिखाई दी. अदालत द्वारा याचिकाओं पर सुनवाई शुरू करने के एक हफ्ते बाद, एसआईटी ने पानसरे हत्याकांड के सिलसिले में गायकवाड़ को गिरफ्तार कर लिया. अपराध के बाद लगभग सात महीनों में यह पहली बड़ी सफलता थी.

अन्य नाम भी सामने आने लगे. अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में, कोल्हापुर के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया कि पुलिस के पास सांगली के साधक रुद्र पाटिल नाम के व्यक्ति से गायकवाड़ के करीबी संबंधों के महत्वपूर्ण सुराग थे. पाटिल 2009 में गोवा के मडगांव में बम विस्फोट के एक मामले में भी वांछित था, जिसमें एक स्कूटर पर विस्फोटक ले जाते समय दो साधकों की मौत हो गई थी. तब से वह फरार चल रहा था. अधिकारी ने कहा कि इसी मामले में एक अन्य भगोड़ा, सारंग अकोलकर नाम का एक व्यक्ति भी हत्याओं की कड़ी के सिलसिले में जांच के दायरे में था. अधिकारी ने कहा कि कोल्हापुर में पढ़ाई करने वाले पाटिल पर पानसारे की हत्या में शामिल होने का संदेह है. दाभोलकर की हत्या में संभावित संलिप्तता के लिए पुणे के रहने वाले अकोलकर की जांच की जा रही थी.

7 अक्टूबर को मामले पर बहस करते हुए, दोनों परिवारों के वकील अभय नेवागी ने उच्च न्यायालय को बताया कि जांच एजेंसियां पाटिल को पकड़ने के अपने कर्तव्य में विफल रही हैं, भले ही उन्होंने उसकी गिरफ्तारी की मांग करते हुए अंतरराष्ट्रीय पुलिस एजेंसी इंटरपोल को "रेड नोटिस" जारी किया था. उन्होंने कहा, एजेंसियां जिस तरह से काम कर रही हैं, उसे देखिए. "वह छह साल से फरार है."

नेवागी ने यह भी बताया कि पाटिल की पत्नी, प्रीति, कोल्हापुर में गायकवाड़ का प्रतिनिधित्व करने वाली वकील थीं, प्रभावी रूप से यह सुझाव देते हुए कि एजेंसी संदिग्धों के बीच संभावित संबंधों की पूरी तरह से जांच नहीं कर रही थी. अपनी टिप्पणियों में, अदालत, जिसने जांच की प्रगति पर गोपनीय रिपोर्ट पढ़ी थी, ने पाटिल के महत्व के सवाल पर परिवारों के साथ सहमति व्यक्त की और एजेंसियों के काम की आलोचना की. जस्टिस मोरे ने कहा, ''रिपोर्ट रुद्र पाटिल को पकड़ने के लिए उठाए गए कदमों पर चुप है. इसमें कोई शक नहीं है कि कोई लिंक है."

दो महीने बाद, 14 दिसंबर को एसआईटी ने कोल्हापुर की एक अदालत में गायकवाड़ के खिलाफ 372 पन्नों की चार्जशीट दायर की. दस्तावेज़ में 77 गवाहों के बयान शामिल थे, जिनमें 14 वर्षीय लड़का भी शामिल था, जो पानसरे की हत्या के समय मौजूद था और जिसने गायकवाड़ की पहचान की थी.

लेकिन इसके बाद जांच फिर ठप होती दिखी; कई महीनों तक किसी बड़े घटनाक्रम की घोषणा नहीं की गई. अप्रैल 2016 में, अदालत ने एजेंसियों को फिर से फटकार लगाई. "दो मामलों में कोई ठोस सुराग प्राप्त करने से पहले कितनी और हत्या की वर्षगांठ और स्थिति रिपोर्ट का इंतजार करना चाहिए?" जस्टिस एससी धर्माधिकारी और शालिनी फनसालकर-जोशी की खंडपीठ ने कहा. 3 मई को, अदालत ने एजेंसियों से कहा कि वे "जांच पूरी करने, या कम से कम वास्तविक प्रगति करने में अधिक मुस्तैदी और तत्परता दिखाएं," और उन्हें आश्वासन दिया कि "जब तक मामले इस न्यायालय के समक्ष हैं, तब तक जांच से पहले कोई बाधा और रुकावट नहीं डाली जा सकती".

पहली बार, अदालत ने संस्था से संभावित संबंधों पर भी ध्यान दिया, मौखिक रूप से जांच एजेंसियों को अपने सदस्यों से पूछताछ करने का निर्देश दिया. इस साल जनवरी में, मैं इस मामले में विशेष सरकारी वकील हर्षद निंबालकर की नियुक्ति के तुरंत बाद मीडिया ब्रीफिंग में शामिल हुआ था. निंबालकर ने कहा कि संस्था के शामिल होने के पुख्ता सबूत हैं. उन्होंने कहा कि गायकवाड़ के खिलाफ चार्जशीट में पानसरे और संगठन के बीच दुश्मनी के लंबे इतिहास का विवरण दिया गया है. उन्होंने कहा, "संस्था ने पानसारे के खिलाफ गोवा में दीवानी और अन्य आपराधिक मामले दर्ज किए थे. इसने उनकी सक्रियता के खिलाफ महाराष्ट्र और गोवा की बार काउंसिल से भी शिकायत की थी. इससे पता चलता है कि उनकी हत्या से संगठन को सीधे तौर पर फायदा हुआ था.” निंबालकर ने कहा, ''फिलहाल हमारा मकसद गायकवाड़ को जमानत मिलने की कोई गुंजाइश नहीं देना है. हम अदालत को बताएंगे कि जांच अभी जारी है और वह अपने सहयोगी रुद्र पाटिल की तरह भाग सकता है.”

लेकिन संस्था के प्रवक्ता वर्तक ने जोर देकर कहा कि साधक "निर्दोष हैं और उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है." संगठन के वकील पुनालेकर ने भी मुझे फोन पर बताया कि इस मामले में उसे गलत तरीके से घसीटा जा रहा है.

29 दिसंबर 2015 को, कोल्हापुर पुलिस को पुनालेकर का एक अजीब सा अशुभ पत्र मिला, जिसमें उन्होंने कहा था कि पानसारे मामले के गवाह खतरे में हो सकते हैं. उन्होंने लिखा, "पश्चिमी महाराष्ट्र आपराधिक गतिविधियों के लिए कुख्यात है और इस बात की संभावना है कि गवाह उन लोगों का निशाना हो सकते हैं जो सनातन संस्था की छवि को खराब करना चाहते हैं." जब मैंने उनसे बात की तो पुनालेकर ने कहा कि उनके पत्र का उद्देश्य धमकी देना नहीं था. "मेरा इरादा सरल था, और जैसा कि कहा गया है, गवाह के लिए सुरक्षा सुनिश्चित करना," उन्होंने कहा. पुनालेकर ने इसके बजाए पुलिस पर आरोप लगाया. "लेकिन कोल्हापुर पुलिस की मंशा क्या थी, जिसने चुनिंदा रूप से इसकी सामग्री मीडिया को लीक कर दी?" उन्होंने कहा. "यह सब किसी तरह संस्था और उसके सहयोगी संगठनों को फंसाने के लिए किया जा रहा था."

दाभोलकर मामला इस साल 10 जून को तब सुर्खियों में आया जब सीबीआई ने पनवेल स्थित सर्जन वीरेंद्र तावड़े और एचजेएस के सदस्य को गिरफ्तार किया. 48 वर्षीय तावड़े, जो मूल रूप से तटीय शहर देवगढ़ का रहने वाला है, ने 2006 के आसपास सतारा आने से पहले कोल्हापुर में छह साल बिताए थे. उसने दो साल तक विभिन्न अस्पतालों में काम किया, इस दौरान उसने संस्था का नेतृत्व भी किया. दाभोलकर की अंधविश्वास विरोधी जनसभाओं को बाधित करके या उन्हें रोकने के लिए अधिकारियों पर दबाव डालकर उनका पीछा करने का प्रयास किया. 11 जून को उसे कोर्ट में पेश किया गया. सीबीआई ने उसके ईमेल, कॉल रिकॉर्ड और उसके घर से बरामद एक हार्ड डिस्क का हवाला देते हुए कहा कि उसे हत्या से तीन महीने पहले एक अज्ञात स्रोत से "दाभोलकर पर ध्यान केंद्रित करने" के निर्देश मिले थे. उसी दिन, मीडिया रिपोर्टों में सीबीआई सूत्रों के हवाले से कहा गया कि तावड़े एक प्रमुख साजिशकर्ता हो सकता है, और हो सकता है कि उसने अपराध के लिए हथियार और गोलियों की व्यवस्था की हो.

मामले से जुड़े एक वरिष्ठ सीबीआई अधिकारी ने मुझे बताया कि तावड़े अकोलकर के संपर्क में था और उसने सांगली के जठ तालुका के करजनागी गांव में हथियारों का प्रशिक्षण लिया था. अधिकारी ने कहा कि यह रुद्र पाटिल और उनके चचेरे भाई मालगोंडा का पैतृक गांव था - जो गोवा विस्फोट में मारे गए दो लोगों में से एक था.

जबकि तावड़े की गिरफ्तारी एक सफलता की तरह लग रही थी, जून के मध्य में मुंबई मिरर और टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में एक प्रमुख गवाह द्वारा सीबीआई को दिए गए एक बयान की एक सनसनीखेज कहानी प्रकाशित की, जिसने एजेंसियों के दावों को गंभीर रूप से खारिज कर दिया कि वे प्रभावी जांच कर रहे थे. गवाह, कोल्हापुर निवासी, ने कहा कि उसने विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और सनातन संस्था के साथ काम किया था, लेकिन वह किसी भी संगठन का औपचारिक हिस्सा नहीं था. अपने विवरण के अनुसार, "2013 के आसपास," तावड़े ने उनसे संपर्क किया, और उनसे रिवाल्वर बनाने, गोलियां खरीदने और दो आदमियों को आश्रय देने में मदद मांगी. गवाह ने कहा कि वह अनुरोधों से भटक गया. मुंबई मिरर की रिपोर्ट में कहा गया है, "20 अगस्त, 2013 को, मैंने डॉ नरेंद्र दाभोलकर की गोली मारकर हत्या के बारे में सुना और मेरे दिमाग में डॉ. तावड़े के साथ मेरी पूरी बातचीत के बारे में पता चल गया. वह और उनके समूह के अन्य लोग डॉ दाभोलकर के सटीक ठिकाने के बारे में जानते थे. मैंने अपने पुलिसकर्मी मित्र को फोन किया और उनसे किसी वरिष्ठ अधिकारी से संपर्क करने और मिलने का समय तय करने को कहा. मैंने उनसे यह भी कहा कि मैं चाहता हूं कि वह मेरी आशंकाओं को अपने वरिष्ठों के साथ साझा करें. 

गवाह ने कहा कि उसने कोल्हापुर में वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और बाद में एटीएस के एक अधिकारी से मुलाकात की. उसने दावा किया कि उसने एटीएस अधिकारी से कहा कि वह "अगर जरूरत हो तो अदालत में गवाही देने के लिए तैयार है" और अधिकारी ने "ठीक है कहा लेकिन इसके बारे में कुछ नहीं किया." मुंबई मिरर की रिपोर्ट ने उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया कि, डेढ़ साल बाद, "फरवरी 2015 को, गोविंद पानसारे की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी." 

रिपोर्ट में गवाह के बयान को कथित तौर पर कहा, "पानसरे पर हमले के कुछ घंटों के भीतर, कोल्हापुर के राजारामपुरी डिवीजन के एक पुलिस अधिकारी ने मुझसे संपर्क किया." उसने दावा किया कि उसने एक बार फिर पुलिस को वह सब कुछ बताया जो वह जानता था, लेकिन "एक बार फिर, कुछ नहीं हुआ." जनवरी 2016 में जाकर सीबीआई ने उससे संपर्क किया और दाभोलकर मामले में गवाह बनाया.

दाभोलकर ने अंधविश्वास के खिलाफ एक कानून के प्रचार में दो दशक से अधिक का समय बिताया. उनके मारे जाने के चार महीने बाद, राज्य सरकार ने दिसंबर 2013 में कानून बनाया. सौजन्य से महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति

दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की तरह भरत पाटणकर भी खतरनाक गुमनाम चिट्ठियों से परिचित हैं. एक हस्तलिखित पोस्टकार्ड जुलाई 2014 को उनके दरवाजे पर पहुंचा, उन्हें "जनाब डॉ भरत पाटणकर" के रूप में संबोधित किया और उन पर "ब्राह्मण से नफरत करने वाले उदारवादी होने का आरोप लगाया, जो मानते हैं कि दुनिया और इसमें निहित सभी ज्ञान फुले-शाहू-अंबेडकर से शुरू और उन्हीं पर समाप्त होता है." कुछ दिनों बाद एक अन्य धमकी में उन्हें "बहुजन ढोल पीटना बंद करने" की चेतावनी दी गई.

पाटनकर ने मुझे बताया, "स्त्री रोग में अपने एमडी में प्रवेश से लेकर 1973 में एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने का फैसला लेने तक धमकियां मेरे जीवन का एक हिस्सा रही हैं." नफरत ने उनके व्यक्तिगत जीवन के पहलुओं को भी नहीं छोड़ा, जैसे कि अमेरिका में जन्मी समाजशास्त्री गेल ओमवेट से उनका विवाह. उन्होंने कहा, "इसने दक्षिणपंथियों को कभी-कभार सवाल उठाने के लिए प्रेरित किया है. जैसे, 'पटनकर कौन है? उसकी पत्नी एक विदेशी है?'”

दाभोलकर और पानसरे सहित राज्य के अन्य कार्यकर्ताओं की तरह, पाटनकर ने अपने लेखन और सक्रियता में, हिंदू दक्षिणपंथ और दमनकारी पूंजीवाद के बीच एक कड़ी बनाई है. उन्होंने 1980 के दशक के उत्तरार्ध में राज्य के दक्षिणी जिलों में कृष्णा घाटी में बांध से बेदखल लोगों के साथ काम करने और कांग्रेस सरकार की त्रुटिपूर्ण सिंचाई नीतियों के खिलाफ लड़ाई शुरू की. पाटनकर ने कहा, "इस आंदोलन के पीछे की भावना की जड़ें फुले की सत्यशोधक परंपरा में थीं, जिन्होंने किसानों की पानी की जरूरतों की उपेक्षा करने के लिए अपने समय की सिंचाई नौकरशाही की आलोचना की थी."

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, 1992 में, पाटणकर ने सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने के लिए भी अपने काम का विस्तार किया. विध्वंस के एक साल बाद 6 दिसंबर 1993 को, उन्होंने कोल्हापुर में किसानों के विरोध का आयोजन किया, जिसमें 25,000 लोगों ने भाग लिया. उस दिन मौजूद लोगों में पानसारे भी थे, जिन्होंने आंदोलनकारियों को संबोधित किया था.

तब से, पाटनकर की सक्रियता में सांप्रदायिकता-विरोधी और पूंजीवाद-विरोधी प्रवृत्तियां आपस में जुड़ गई हैं. उन्होंने सांगली, सतारा और सोलापुर जिलों के 13 सूखा-प्रवण, पूर्वी तालुकों में रैलियों का आयोजन किया है. पाटणकर ने कहा, "इन तालुकों के सूखा प्रभावित लोग 1993 से हर साल 26 जून को कोल्हापुर के तत्कालीन शासक और समाज सुधारक शाहू महाराज की जयंती पर बड़ी संख्या में इकट्ठा होते हैं." उन्होंने कहा, अपनी बैठकों के दौरान, वे "सांप्रदायिक ताकतों के उदय के राजनीतिक और सामाजिक प्रभावों पर चर्चा करते हैं और पानी तक समान पहुंच और कृष्णा जल के उचित हिस्से की मांगों को जारी रखते हुए प्रति-रणनीतियों की योजना बनाते हैं."

पाटणकर ने भी अक्सर अपने लेखन के माध्यम से अपनी स्थिति स्पष्ट की है. 1993 में पहली बार मराठी में प्रकाशित 'हिंदू या सिंधु' शीर्षक से व्यापक रूप से परिचालित निबंध में उन्होंने लिखा, "हिंदुत्ववादी पूंजीपतियों की संतान हैं जो श्रमिकों, खेतिहर मजदूरों, किसानों, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों, खानाबदोशों, किराएदार, बलुतेदारों का शोषण करते हैं.” उन्होंने तर्क दिया कि हिंदुत्व ताकतें "पुराने ब्राह्मणवादी धर्म को एक नए रूप में बहाल करके जातिवादी शोषण को बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं. मुसलमानों को उनके खून के प्यासे हमले का सीधा निशाना बनाया गया है.”

उनकी मुखर सक्रियता ने तीखा विरोध किया है. 2014 में दो धमकी भरे पत्रों के बाद, एक तीसरा फरवरी 2015 में पानसारे की हत्या से एक पखवाड़े पहले आया, जिसमें पूछा गया था कि क्या पाटनकर को "कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा ब्राह्मणों और हिंदुओं को खत्म करने के लिए नियुक्त किया गया था." इसने ब्राह्मणों की तुलना यहूदियों से की और उन्हें याद दिलाया कि हिटलर के नाज़ी भी बाद के विनाश में विफल रहे थे. पत्र ने पाटनकर और पानसारे को "कट्टरपंथी मुसलमानों के हाथों की कठपुतली" के रूप में खारिज कर दिया.

पानसरे की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद एक और पत्र आया. इसमें टूटी-फूटी अंग्रेजी में 61 टाइप किए गए शब्द थे, और इसे टोन में बदलाव के रूप में चिह्नित किया गया था. प्रेषक ने पहले के पत्रों के लिए माफी मांगी, उन्हें "भावनाओं का विस्फोट" कहा. आगे कहा, “यह बिल्कुल भी खतरान नहीं था. बड़ी भूल थी. अब से मैं अपने आस-पास जो हो रहा है उससे दूर रहने की कोशिश करुंगा.” पत्र इन शब्दों के साथ समाप्त हुआ, “मैं किसी भी तरह से किसी भी घटना/संगठन से जुड़ा नहीं हूं. आपके लंबे स्वस्थ जीवन की कामना करता हूं.”

लगभग एक महीने बाद, पाटनकर को उनके आवास पर डाक द्वारा सनातन प्रभात की एक प्रति प्राप्त हुई. उन्होंने इस बारे में स्थानीय मीडिया को बताया और संदेह व्यक्त किया कि संस्था हत्याओं से जुड़ी हो सकती है. यह पूरे महाराष्ट्र में व्यापक रूप से रिपोर्ट किया गया था.

24 मार्च को पाटनकर ने अपने संगठन और कई वामपंथी दलों द्वारा सनातन प्रभात के कोल्हापुर कार्यालय पर एक विरोध मार्च की घोषणा की, जिसके खिलाफ उन्होंने कहा कि प्रगतिशील आंदोलनों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण प्रचार किया गया था, जिसे पत्रिका ने वर्षों तक चलाया था. प्रदर्शनकारियों का इरादा संस्था और तर्कवादियों की हत्याओं के बीच संभावित संबंधों की जांच के लिए अधिकारियों पर दबाव डालना था. उनकी घोषणा के जवाब में, संस्था के अनुयायियों और समर्थकों ने जवाबी मार्च निकालने की धमकी दी. समूहों के बीच तनाव बढ़ गया, जिससे पुलिस को कोल्हापुर में निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी. उसी दिन, पाटनकर और उनके समर्थकों ने अपने मार्च के साथ आगे बढ़ने का प्रयास किया, जहां संस्था समर्थकों से उनका सामाना हुआ. दोनों गुटों के एक-दूसरे के खिलाफ नारेबाजी करने से स्थिति तनावपूर्ण हो गई. अंत में पुलिस ने हस्तक्षेप किया और लोगों को शांत रहने के लिए कहा. 

इस समय तक मराठी मीडिया ने पाटनकर को मिली धमकियों को उजागर कर दिया था. सनातन प्रभात के विरोध के बाद, पुलिस ने इन धमकियों के आलोक में निवारक कार्रवाई करने का निर्णय लिया. पाटणकर का पुश्तैनी घर, राष्ट्रीय राजमार्ग 4 से सटे कासेगांव के पुराने क्वार्टर में पत्थर-ईंट की एक मामूली संरचना है, तब से सशस्त्र पुलिस गार्डों की निरंतर निगरानी में है.

18 जून 2016 को प्रकाशित 'एक "सहिष्णु" राज्य' शीर्षक वाले एक संपादकीय में, द इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली ने कहा, "जबकि दाभोलकर, पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्याएं (साथ ही उनके जैसे अन्य लोगों को दी गई प्रताड़ना) निंदनीय हैं, क्या आबादी के बड़े हिस्से की चुप्पी और उनके उत्पीड़कों को राजनीतिक हितों का निरंतर समर्थन और भी घृणित नहीं हैं.” संपादकीय ने तर्क दिया कि सरकार की उचित प्रतिक्रिया की अनुपस्थिति, "एक स्पष्ट संकेत है कि नागरिक महसूस करते हैं कि वे सुरक्षित नहीं हैं कि अगर वे धार्मिक निहित स्वार्थों के खिलाफ बोलते हैं और राज्य उनकी शिकायतों को गंभीरता से नहीं लेगा." इसने चेतावनी दी कि एक समाज "जो असहमति के विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकता है या ऐसे विचारों की हिंसक प्रतिक्रिया के सामने चुप रहता है, वह सांस्कृतिक और बौद्धिक रसातल में डूब रहा है."

पिछले साल जुलाई में, मैंने हत्याओं की प्रतिक्रिया की इसी तरह की आलोचना सुनी, जब मैं पाटनकर के साथ सांगली जिले के कुंडल शहर में 93 वर्षीय राम लाड से मिलने गया, जो प्रति सरकार के अंतिम जीवित क्रांतिकारियों में से एक थे. लाड, जिनकी बड़ी, तेज आंखें और एक मोटी, भूरी मूछ हैं, वह सुन नहीं सकते, लेकिन इसके आलाव वह एकदम दुरुस्त थे. "आजादी ने हमें क्या दिया?" लाड ने कहा. "हमने आवाम की खुदमुख्तारी कायम करने की उम्मीद में एक दमनकारी विदेशी शासन से लड़ाई लड़ी. हम आज निराश महसूस कर रहे हैं. शासक बदल गए, लेकिन अत्याचार जारी है. कहां है वो आज़ादी जिसकी हमें उम्मीद थी?”

मैंने उनसे क्षेत्र में वामपंथ की मौजूदगी को कमजोर करने में वसंतदादा जैसे नेताओं की भूमिका के बारे में पूछा. "अकेले वसंतदादा को दोष क्यों?" उन्होंने कहा. यहां तक कि यशवंतराव चव्हाण और शरद पवार ने भी महाराष्ट्र के लोगों को निराश किया. राजनीति उनके लिए सत्ता हथियाने का जरिया बन गई.”

उन्होंने कट्टरपंथी ताकतों के उदय के खिलाफ खड़े होने में विफल रहने के लिए युवा पीढ़ी को फटकार लगाई. वे "मूक दर्शक थे," उन्होंने कहा, "जबकि उदारवादी होने का दावा करने वाले सत्ता के सामने हाथ जोड़ कर खड़े थे." लोगों ने "जातिवाद, सांप्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता और आर्थिक असमानता जैसी सदियों पुरानी बुराइयों से आंखें मूंद लेने" का रास्ता चुना. यह कहते ही वह और अधिक उत्तेजित हो गए और फिर मुझ पर झपटे, "तुम्हारी पीढ़ी गुस्सा क्यों नहीं है?"


अनोश मालेकर पुणे के पत्रकार हैं. उन्हें भारत की सैर करना और ​​समाज के हाशिए के लोगों पर लिखना पसंद है. द वीक और द इंडियन एक्सप्रेस में काम कर चुके हैं और पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित हैं.