वह कौन सी बात है जो भारत को सबसे अलग देश बनाती है? अन्य किसी देश में भारत जितनी धार्मिक, भाषाई और जातीय विविधताएं नहीं हैं. कुछ एक पश्चिम यूरोपीय और नई दुनिया के देशों में ही भारत जितनी नस्लीय विषमता पाई जाती है. विषमता का कारण औपनिवेशिक दौर की गुलामी, दास व्यापार, एक स्थान से दूसरे स्थान में पलायन और आजादी मिलने के बाद वैश्विक दक्षिण से उत्तर की तरफ विस्थापन रहा है. यहां के समुदायों में शुद्धता और अशुद्धता की धारणाओं पर आधारित व्यवस्था व्यापक रूप से विद्दमान हैं यानी नातेदारियों में बंधा समाज, ऊंच-नीच की जन्मना मान्यता और सहगोत्रीय विवाह. जाति व्यवस्था जैसी भीषण ऊंच-नीच की मान्यता दुनिया में और कहीं मौजूद नहीं है.
ऐसा नहीं है कि औपनिवेशिक शासन में मात्र भारत ने ही उदार-लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था को चयन किया था. फिर भी, इसका क्षेत्रीय विस्तार, जनसंख्या, सामाजिक विविधता और आर्थिक पिछड़ेपन की व्यापकता ने इसे दूसरे लोकतांत्रिक देशों से अलग बना दिया है. पश्चिम में औद्योगिक और आर्थिक उन्नति के लंबे समय बाद सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का विस्तार महिलाओं तक हुआ. इससे बेहद अलग परिस्थितियों में भारत ने लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित एक राजनीतिक ढांचा खड़ा किया है. अगर आपातकाल के 21 महीनों को छोड़ दें तो इसने अच्छा काम किया है और इसकी एक वजह संविधान है. 1950 में लागू होने के बाद से ही इसे खूब प्रशंसा मिली है.
लेकिन अब लगभग 70 साल बाद जब देश में हो रहे आम चुनावों में संघ परिवार के एक हिस्से के सत्ता में लौटने का डर है. संघ ऐसा संगठन है, जिसने अपनी बातों और कामों से संविधान में मौजूद उदारवादी तत्वों के प्रति विरोध प्रकट किया है. ऐसे में यह समय है जब गणतंत्र के मूलभूत चार्टर पर आलोचनात्मक बहस की जाए.
संविधान का मूल्यांकन, मूल्यांकन करने वाली राजनीतिक मान्यतों से प्रभावित होता है. उदारवादियों या समाजवादी लोकतंत्रों के उलट मेरा मानना है कि एक अधिक न्यायपूर्ण, समतावादी, लोकतांत्रिक और पारिस्थितिक रूप से स्थायी देश और दुनिया, केवल पूंजीवाद और इससे संबंधित राजनीतिक ढंचों के मिट जाने से आ सकती है. मेरा मानना है उदार लोकतंत्र की भी एक सीमा है जो उपरोक्त प्रकार की दुनिया और देश के निर्माण में बाधक है. मेरे लिए यह दिवास्वपन ही है कि आज का नवउदारवादी पूंजीवाद और उसके तई मिलने वाली आजादी और सामाजिक लाभों को शनै: शनै: विस्तार दिया जा सकता है और धन और शक्ति की असमानता को बड़े स्तर पर कम किया जा सकता है.
मेरे विचार में संविधान को आंकने का सबसे बेहतर तरीका पूरी तरह से लोकतांत्रिक और नौकरशाही विरोधी समाजवाद होना चाहिए. तब भी जो लोग मेरी इस बात से सहमत नहीं है उन्हें इस बात के लिए राजी किया जा सकता है कि दस्तावेजों में दर्ज सर्वोत्तम मानकों को मानने के बाद भी संविधान को सामाजिक न्याय और स्वच्छंदतावाद, उदारवादी लोकतांत्रिक स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता की जरूरत है.
संविधान अपनी आकांक्षाओं पर कितना खरा उतरा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें सांस्कृतिक और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए क्या है. दुनियाभर में उदार-लोकतांत्रिक विचार रखने वाले लोगों के लिए यह एक परिचित मानक है. लेकिन यहां एक और कसौटी है जिस पर भारतीय संविधान को कसा जाना चाहिए और वह है- इसकी सकारात्मक विभेद की मान्यता से परे जाकर व्यापक सामाजिक न्याय की प्रप्ति का विचार. तब हमें तीन चीजों पर गौर करना होगा- संविधान द्वारा तैयार किया गया लोकतांत्रिक ढांचा, सामाजिक न्याय के लिए इसकी प्रतिबद्धता और भारत की विविधता को संभालने का इसका तरीका.
कई लोग दावा करते हैं कि संविधान अच्छा है, लेकिन अयोग्य नेताओं, नौकरशाहों और जजों के कारण इसे सही से लागू नहीं किया जा सका. स्कॉलर माधव खोसला अपनी किताब दि इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन में अंबेडकर का हवाला देते हुए लिखते हैं, "संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो अगर इस पर काम करने वाले लोग खराब होंगे तो यह खराब होगा और संविधान कितना भी खराब क्यों न हो अगर इसके लिए काम करने वाले लोग अच्छे होंगे तो यह अच्छा होगा." इस चेतावनी का उल्लेख करते हुए भी खोसला, व्यक्तियों की शक्तियों को नजरअंदाज करते हैं.
राजनीतिक विश्लेषक समीर के. दास दि फाउंडिग मोमेंटः सोशल जस्टिस इन द कॉन्स्टिट्यूशनल मिरर में कई खामियों, खासकर ‘चूकों’ की तरफ इशारा करते हैं. वह संविधान विशेषज्ञ ग्रेनविल ऑस्टिन के 1966 के मशहूर लेख दि इंडियन कॉन्स्टिट्यूशनः कॉर्नरस्टोन ऑफ ए नेशन का जिक्र करते हुए कहते हैं कि संविधान निर्माता भविष्य की जटिलताओं और घटनाओं को नहीं देख पाए. लेकिन दास संविधान में मौजूद 'न्याय की विविध अवधारणाओं" का जिक्र करते हुए कहते हैं कि खामियों के बाद भी संविधान की उचित व्याख्या और कार्यान्वयन लोकतांत्रिक पतन को रोकने में बड़ी भूमिक निभा सकते हैं
यह आज की भारतीय राजनीति का चेहरा दिखाता है. कोई इस बात की आड़ नहीं ले सकता कि अच्छे इरादों और अंतिम सामाजिक परिणामों के बीच की खाई के लिए संविधान दोषी नहीं है, क्योंकि इसका काम समाज के सभी वर्गों को समान आकार देना है. लगभग 30 प्रतिशत लोग गरीबी में जी रहे हैं. अगर हम मूलभूत जरूरतों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और घर को जोड़ दें तो लगभग 40 प्रतिशत अतिरिक्त लोग इस श्रेणी में आ जाएंगे. जिसे असंगठित क्षेत्र के राष्ट्रीय उद्यम आयोग के पूर्व चेयरमैन अर्जुन सेनगुप्ता "कमजोर गरीब" बताते हैं. जिनके लिए खराब फसल, उच्च मुद्रास्फीति या परिवार में आई बीमारी कहर बरपा सकती है. आय, धन और राजनीतिक शक्ति में असमानता लगातार बढ़ रही है. संघ द्वारा फैलाई जा रही हिंदू अंधराष्ट्रीयता गणतंत्र का सबसे शक्तिशाली राजनीतिक विचार बनकर उभरा है और संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी ने देशभर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. कभी-कभी होने वाली सांप्रदायिक हिंसा पिछले पांच सालों में साधारण सी घटना बन गई. पुलिस और अदालतों ने भी इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया. पिछले तीन दशकों में शोषित जातियों का राजनीतिक जोर भारत की बड़ी उपलब्धि थी, लेकिन अब इस पर भी लगातार हमले जारी हैं.
संविधान को "जीवित दस्तावेज" कहा जाता है, जिसने न केवल भारतीय समाज के विकास को आकार दिया है बल्कि बढ़ते सामाजिक रुझानों और पैटर्न का भी इस पर असर पड़ा है. कई देश संविधान को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए पुराना बदलकर नया अपना लेते हैं, वहीं भारत में इसे "जीवित" रखने के लिए लगातार संशोधन करने पड़े हैं. (भारत ने 69 सालों में संविधान में 103, ऑस्ट्रेलिया ने 100 सालों में 8 और अमेरिका ने 200 सालों में 27 संशोधन किए हैं.) ऐसे में यह पूछना जरूरी हो जाता है कि इन संशोधनों से पुरानी खामियां दूर हुईं, संविधान को पहले से ज्यादा उदार बनाया या इसने समाज को पहले की तरह ही चलने दिया. देश के मौजूदा हालत को देखते हुए इसका जवाब “हां” नहीं हो सकता.
संविधान और भारतीय समाज के बीच संबंध की जटिल प्रक्रिया अध्ययन का विषय है. मैं यहां पर वह विषय नहीं लाना चाहूंगा, लेकिन संविधान और भारतीय समाज के बीच संबंध के अध्ययन में वे सारे सवाल आ जाते हैं जो मैं इस दस्तावेज से पूछना चाहता हूं. संविधान किस प्रकार के लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहता है और यह समय के साथ राजनीति के निर्विवाद सत्तावादी बहाव को मंजूरी देने में कितना जिम्मेदार है.
वर्ग शक्ति में असमानता को, संविधान में "लोगों की इच्छा" के विचार के पीछे छिपाया गया, जो चुनावी लोकतंत्र के माध्यम से जाहिर होता है. संविधान उस तथ्य की वसीयत है जिसके मुताबिक, संविधान सभा के सदस्य सार्वभौमिक मताधिकार से नहीं चुने गए थे, ये लोग उस कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन को हटाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया, बस सत्ता को अंग्रेजों के हाथों से भारत के हाथों में ले लिया. यह आज भी प्रशासन और शासन की मशीनरी की रक्षा के लिए बड़े और विस्तृत प्रावधान रखता है. यह भारत सरकार कानून-1935 से लिया गया है. एक औपनिवेशिक कानून संविधान में भी शामिल किया गया. वरिष्ठ वकील राजीव धवन अपनी किताब “द कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ इंडियाः मिरकल, सरेंडर, होप” में कुछ हद तक निंदनीय तर्क देते हैं कि संविधान ने अपना आकार कैसे ग्रहण किया. धवन लिखते हैं, "हम भारत के लोग" जिनका दस्तावेज "बनाने में थोड़ा योगदान है, को संविधान को अपनाने को कहा गया, जिसका एक हिस्सा ब्रिटिश भारत का क्लोन है", जो "झूठे वादे" करता है. भारतीयों के पास "इस समझौते को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं जो हमारे नेताओं ने हम पर राज करने के लिए खुद को दिया है."
शुरुआत से ही संविधान का हिंदू, प्रमुख जातियों और पितृसत्ता की तरफ झुकाव रहा है. (यह संयोग नहीं है कि संविधान सभा के अधिकतर सदस्य हिंदू और प्रमुख जातियों से आने वाले पुरुष थे.) उदाहरण के लिए अनुच्छेद 1 में देश को "इंडिया" जो भारत है नाम दिया गया है. यह एक मुस्लिम शासन से पहले के गौरव का आह्वान करता है- जब एक हिंदू राजा ने भारतवर्ष में शासन किया था. संविधान के जानने वाले कई लोग जैसे फली नरीमन और एचएम सीरवाई और जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर इन खामियों के प्रति ज्यादा ध्यान नहीं देते. कुछ ही लोगों में यह साहस है कि दस्तावेज के झुकाव पर बात की जा सके. उन कम लोगों में से एक स्कॉलर प्रीतम सिंह हैं और मैं उनके लेखन के लिए उनका कर्जदार रहूंगा. खास कर उनके पेपर, "हिंदू बायस इन इंडियाज 'सेक्यूलर' कॉन्स्टिट्यूशनः प्रोबिंग फ्लावस इन द इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ गवर्नेंस" के लिए.
संविधान द्वारा दिए गए राष्ट्रवाद पर भी ध्यान देना चाहिए. लगातार सरकारों ने जम्मू-कश्मीर को भारत में विलय करने के समय दी गई स्वायत्ता को कमजोर करने की संवैधानिक शक्तियों का गलत इस्तेमाल किया है. इस रुझान के आलोचकों में से भी किसी ने यह बात नहीं की कि राष्ट्रवाद का लोकतांत्रिक दृष्टिकोण, स्वतंत्रता या अपने फैसले खुद लेने का अधिकार है. इस बात की परवाह किए बगैर कि मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी या किसी दूसरी जगह के लोग क्या चाहते हैं भौगोलिक "एकता और अखंडता" को किसी भी देश के लिए सर्वोच्च समझा जाता है. यानि लोगों से ज्यादा जमीन जरूरी है.
ये चिंता आज और बढ़ गई है. प्रगतिशील लोग, दक्षिणपंथी लोगों द्वारा देश के साधनों और नागरिक समाज पर नियंत्रण से डर गए है. हिंदुत्व का प्रमुख चेहरा संघ, हिंदू राष्ट्र का एजेंडा आगे बढ़ा रहा है और यह दोनों सदनों का दो तिहाई बहुमत प्राप्त करने की कोशिश में है ताकि वह अपने एजेंडे के मुताबिक संविधान में संशोधन कर सके.
कुछ उदारवादियों और वामपंथी आवाजों ने प्रतिरोध में नारा दियाः संविधान बचाओ. मैं मानता हूं कि यह नारा अपर्याप्त है और इसकी जगह नए नारे का सुझाव दूंगाः “संविधान और इसमें दिए गए उदार मूल्यों और सिद्धांतों को बचाओ और उन्हें मजबूत करो”. यह संविधान की अक्षमता तो बताता है, लेकिन उन समाजवादी और उदारवादी लोगों को भी जवाब देता है जो संविधान को मुझसे कम सराहते हैं. अगर संघ अपनी अलोकतांत्रिक महत्वाकांक्षा में सफल हुआ तो यह नारा भविष्य में अपनी जगह और पुख्ता करेगा.
भारतीय समाज के सांप्रदायिक और अलोकतांत्रिक गुणों को कम आंकना, संविधान के गुण को ज्यादा आंकने के समानांतर है. आगे बढ़ते भारत में इन दोनों को लेकर स्पष्ट होना होगा.
स्कॉलरों के बीच न्याय और लोकतंत्र की अवधारणाओं पर बहस होती है तब भी सामाजिक न्याय के विचार और इसके मूल्य पर असहमति होती है. पुराने समय में धर्म के नैतिक तंत्र से जिंदगी चलती थी. इसमें आम तौर पर महिलाओं की अधीनता और मौजूदा सामाजिक असमानताएं शामिल थीं. आधुनिकता के साथ-साथ न्याय और सबकी भलाई की बात भी उभर कर आई. यह जागरुकता के कारण था, जिसकी मुख्य वैचारिक विरासत उदारवाद और समाजवाद है- जिसका सबसे बड़ा समतावादी संस्करण मार्क्सवाद है.
दार्शनिक ब्रायन बैरी अपनी किताब ‘व्हाई सोशल जस्टिस मैटर्स’ में लिखते हैं कि औद्योगिक क्रांति के समय तक न्याय का विचार सामाजिक न होकर व्यक्तिगत था. इसमें अधिकारों की प्राप्ति, धोखाधड़ी न होना, व्यापार में 'उचित' पैसा मिलना और जुर्म के लिए सजा मिलना आदि शामिल था. इस दृष्टिकोण में न्याय की एक सकारात्मक अवधारणा मौजूद है. इसके बाद एक नया विचार आया जिसमें कहा गया कि मनुष्यों के बीच असमानता गलत है और सब लोग बराबर हैं. यह उस जैसा नहीं है जिसमें कहा गया है कि सब लोग एक समान हैं, लेकिन इसमें मनुष्य होने के विचार के कारण उनके व्यक्तित्व को इज्जत दी गई है. इसमें कहा गया है कि नए आदर्शों पर समाज का निर्माण होना चाहिए, जिसमें नैतिक उन्नति हो और संसाधनों, मौकों और अधिकारों के प्रावधान और उन्हें वितरित करने वाली संस्थाओं को सुधारा जाए, चाहे वह फैक्ट्री, बाजार, राज्य, स्कूल, राजनीतिक दल कुछ भी हो. जो सवाल यहां बचता है कि कैसे सत्ता, धन और मौकों की इस असमानता को दूर किया जा सकता है. इसके जवाब में उदारवादियों और समाजवादियों के विचार अलग-अलग हैं.
इस बात पर कोई मतभेद नहीं है कि सभी लोगों को बराबर मौके मिलने चाहिए. इसका मतलब यह नहीं है कि परिणामों की एकरूपता जरूरी हो. कहने का मतलब है कि असमान बनने के लिए समान मौके होने चाहिए. लेकिन क्या तब भारी रूप से असमान परिणामों को आगे बढ़ने दिया जाएगा. असमानता पर अगर कोई रोक लगी तो वह क्या होगी. अमेरिका के जाने-माने उदारवादी विचारक जॉन रॉल्स ने इस बारे में कोई समाधान नहीं बताया कि क्या किया जाना चाहिए. उनका मानना है कि केवल उन असमानताओं को आगे जाना चाहिए जो "सबसे कम लाभान्वित" लोगों को फायदा पहुंचाती हों. इसके बाद कुछ लोग यह कह सकते हैं कि अमीर लोगों को और अमीर होने देना चाहिए, ताकि वे ज्यादा निवेश करें जिससे अर्थव्यवस्था को फायदा होगा और इसका असर गरीबों पर पड़ेगा.
उदारवादी और समाजवादी डेमोक्रेट्स के लिए भी उत्पादन का आधारभूत मतलब "संपत्ति का अधिकार" है, जो सबकी भलाई के लिए जरूरी है. मार्क्सवादियों के लिए सामाजिक कल्याण के उनके समाजवादी विजन में यह बात लागू नहीं होती. अधिकार होना एक बात है और उसे प्राप्त कर पाना दूसरी. किसी मौके को सफलतापूर्वक भुनाने के लिए संसाधनों की जरूरत होती है. जहां उदारवादी न्याय की बात करते हुए अधिकारों की बातचीत पर चले जाते हैं, जबकि समाजवादी, जो मौकों और संसाधनों को ज्यादा महत्व देते हैं, वे सामाजिक-राजनीतिक स्थिति में ज्यादा स्थिर बदलाव की बात करते हैं.
उदारवादियों के विपरीत समाजवादी, व्यक्ति और बड़े समूहों में ज्यादा मजबूत संबंध मानते हैं. बहुसांस्कृति उत्साही लोगों में ऐसा नहीं होता है, जो व्यक्ति और बड़े समूहों के विचारों से घिरे रहते हैं और एक-दूसरे के सांस्कृतिक योगदान की वजह से परिभाषित किए जाते हैं. गंभीर समाजवादियों द्वारा संबंध या जुड़ाव रखने वाले समुदायों को सांस्कृतिक मामलों की बजाय सामाजिक दृष्टि से देखा जाता है और यह संख्या में काफी होते हैं. उदाहरण के लिए- वर्ग. एक व्यक्ति का विकास होना समाज का विकास होने से अलग नहीं है और इस विकास का पैमाना "खुशी" नहीं बल्कि हर व्यक्ति की अपनी विशिष्ट क्षमता की पूर्ति करने में सक्षम होना है.
क्या न्याय कुछ हद तक इतिहास की सीमाओं के पार (ट्रांस-हिस्टोरिकल) होना चाहिए? क्या हम हमारे समय से पहले हुए अन्याय के लिए जिम्मेदार हैं? मोटे तौर पर इसका जवाब “हां” है. हम शक्ति, धन और प्रतिष्ठा की असमान परिस्थितियों में पैदा हुए हैं. अधिकतर लोगों के लिए जिंदगी में उनका महत्व, विरासत और मेरिट आदि में सामाजिक स्थिति उनके शुरुआती कदम से आखिरी कदम के बीच की दूरी मानी जाती है. कुछ समूह जैसे शोषित जातियां ऐतिहासिक रूप से इतनी पिछड़ी हुई हैं कि उन्हें विशेष सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक सहारे की जरूरत है. अल्पसंख्यक अधिकार काफी नहीं है. संसाधनों और मौकों की भी गिनती होनी चाहिए.
अपनी शुरुआत से ही दस्तावेज ने सामाजिक-आर्थिक न्याय के सिद्धांतों को मूलभूत अधिकारों की बजाय निर्देशक सिद्धांतों में डालकर अपने अभिजात्य चरित्र को साबित किया है. संविधान का उदार सामाजिक विजन का दावा इन्हीं सिद्धांतों में इंगित होता है. संविधान के तहत, राज्य पर मूलभूत अधिकारों के तहत नहीं दिए गए सामाजिक अधिकारों को पूरा करने की कोई अनिवार्यता नहीं है. अगर सरकार की किसी योजना के कारण इनका उल्लंघन होता है तो भारतीय कानून और सुप्रीम कोर्ट इसे मानते हैं, लेकिन लाभान्वित व्यक्ति तक इसका लाभ पहुंचाने में असफल रहे हैं.
संविधान हमेशा से यथास्थिति में एक से ज्यादा उदार बदलावों को तर्कसंगत बनाने का साधन रहा है. उदाहरण के लिए “सर्व शिक्षा का अधूरा वादा”. संविधान लागू होने के 10 सालों के भीतर निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 45 में 14 साल तक के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की बात कही गई है, लेकिन छह दशकों बाद 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून आने पर ही यह मूलभूत अधिकार बना और राज्य और केंद्र सरकार के लिए इसे पूरा करना अनिवार्य हुआ. लेकिन फिर भी इसका यह मतलब नहीं कि सबको शिक्षा मिल गई. यहां तक की सब जगह इसकी गुणवत्ता में भी सुधार नहीं हुआ है.
नेहरू के समाजवाद के वर्जन ने एक कल्याणकारी राज्य का आह्वान किया, भले ही वह पूंजीवादी है. संविधान की प्रस्तावना में "समाजवाद" का न होना इस बात का संकेत है कि संविधान सभा की आम राय समाजवादी विचारों के खिलाफ थी. इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान इस शब्द को प्रस्तावना में जोड़ा, लेकिन समाजवाद को लेकर उनकी प्रतिबद्धताओं की बात न ही की जाए तो ही बेहतर होगा.
बुर्जुआ उदारवादी-लोकतांत्रिक संविधान और भारतीय संविधान निश्चित रूप से एक जैसे हैं और हमेशा से वर्ग असमानता के प्रति सहिष्णु रहे हैं. इसमें आमतौर पर "मूल आजादी" का बचाव किया जाता है जो निजी संपत्ति के अधिकार और उत्पादक संपत्ति में संचय के लिए बाध्य करता है. भारत में आजादी के तुरंत बाद सामाजिक न्याय की चिंता के बीच और भूमि सुधारों के कारण एक अलग समझौता हुआ. "संपत्ति खरीदने, रखने और बेचने" के अधिकार को मूलभूत अधिकारों में डाला गया, लेकिन जनहित को देखते हुए इस पर कुछ प्रतिबंध लगा दिए. गरीब समर्थक भूमि सुधार के उपाय असमान रूप से फैले, सीमित और अधूरे थे. 1978 में एक संशोधन ने इस अधिकार को अनुच्छेद-19 से हटा दिया और इसे केवल कानूनी अधिकार बना दिया. कुल मिलाकर, निजी धन के स्थिर संचय के लिए कोई रूकावट नहीं है. पब्लिक सेक्टर का विस्तार और बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी पूंजीवाद वर्ग के लिए बाधा की बजाय फायदा पहुंचाने वाला साबित हुआ. दरअसल, पिछले तीन दशकों में उत्पादक संपत्तियों को डिनेशनलाइज और निष्क्रिय करने की प्रवृत्ति रही है. निजी संपत्ति अधिकारों के बचाव के लिए भारत ने दूसरे उदारवादी लोकतंत्रों से अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है.
जातीय असमानता पर संविधान का क्या कहना है? अनुच्छेद- 15 में कहा गया है कि जाति के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जा सकता. लेकिन यह सरकारी सेवाओं और सार्वजनिक नियंत्रण और प्रशासन के बारे में है. यह भारतीय समाज के रोजाना के सामाजिक रिश्तों के दायरों पर लागू नहीं होता. नागरिक अधिकारों का बचाव अधिनियम छूआछूत पर केंद्रित है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम तीन दशकों से अस्तित्व में है और इसे शोषित जातियों के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए लाया गया था. ये पर्याप्त कदम हैं, लेकिन छूआछूत को प्रतिबंधित करना और जातीय भेदभाव की निंदा करना पर्याप्त नहीं है. जातीय भेदभाव पर कड़ा प्रतिबंध होना चाहिए और दस्तावेज को जातीय व्यवस्था को खत्म करने के लिए स्टैंड लेना चाहिए. यह ऐसा कदम होना चाहिए जो निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया जाना चाहिए.
लेकिन इसके लिए अभी तक कुछ नहीं किया गया है. भारतीय संविधान में होने के कारण यह भारतीय धर्म निरपेक्षता की प्रकृति बताता है और जमीन पर काम भी कर रहा है. इसकी मंजूरी दबदबे वाली जाति की संवैधानिक सभा ने दी थी. मौजूदा तंत्र यह सुझाव देता है कि छूआछूत और भेदभाव खत्म हो सकता है, लेकिन जाति व्यवस्था बनी रहेगी. हमें इस पर बहस शुरू करनी चाहिए कि लोकतांत्रिक दायरे में रहकर जाति व्यवस्था के खिलाफ क्या कानून बनाया जा सकता है?
संविधान, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण से सकारात्मक भेदभाव की पुष्टि करता है. यह आने वाली कई पीढ़ियों के लिए जाति व्यवस्था का मुकाबला करने के लिए एक जरूरी साधन बना रहेगा. यह तर्क दिया जा सकता है कि इस ढांचे के कारण जातिगत भेदभाव पर पूर्ण प्रतिबंध का कोई मतलब नहीं है, लेकिन उदारवादी लोकतंत्र वाले दूसरे देशों से तुलना पर पता चलता है कि नस्लीय और लैंगिक भेदभाव की लाइन पर सकारात्मक कार्रवाई करते हुए इसे खत्म किया जा सकता है. भारत भी जाति व्यवस्था के साथ यह कर सकता है.
लैंगिक भेदभाव के मुद्दे पर भी संविधान निर्माताओं को हर बड़े धर्म की परंपराओं के अनुसार बनाए गए पर्सनल लॉ की जगह एक प्रगतिशील यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाना था. औपनिवेशिक काल के दौरान कांग्रेस के अंतर-धार्मिक गठबंधन और मौलवियों द्वारा मुसलमानों के मामलों में मध्यस्थता को देखते हुए यह मुश्किल हो सकता था, लेकिन आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने के कारण पार्टी की प्रतिष्ठा और अधिकार को देखते हुए अगर इसके नेता चाहते तो संविधान सभा को इसके लिए तैयार कर सकते थे. यह बात भी सही है कि गैर धर्मनिरपेक्ष और हिंदुओं के प्रति झुकाव रखने वाले पार्टी नेतृत्व ने कांग्रेस का रुख तैयार करने में मदद की थी. कुछ साल बाद हिंदू पर्सनल लॉ में बड़े बदलाव किए गए और उन्हें आजादी और समानता की तरफ लाया गया, लेकिन महिलाओं को उनके पूरे अधिकार मिलने में अभी लंबा वक्त लगेगा. निर्देशक सिद्धांत यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात करते हैं, लेकिन यह ऐसा मामला है जिस पर कभी गंभीरता से विचार नहीं हुआ. यूनिफॉर्म सिविल कोड आने से शादी, तलाक, पैतृक संपत्ति आदि से जुड़े कई मौजूदा हिंदू कानून और परंपराएं बदल जाएंगी, लेकिन भारत के राजनेताओं ने कभी इसे चुनौती देने की हिम्मत नहीं दिखाई.
सामाजिक न्याय के अर्थ के साथ, लोकतंत्र का मतलब चुनाव क्षेत्र भी है. उदार लोकतंत्र की पारंपरिक बातचीत में उदारवाद को लोकतंत्र से ज्यादा अहमियत दी जाती है. उदारवाद व्यक्ति के निर्धारित लाभ पर राज्य सत्ता की शक्ति को प्रतिबंधित करता है, जहां जब तक किसी दूसरे के जीवन में परेशानी न बने, व्यक्ति की जीने की आजादी को जरूरी समझा जाता है. उदारवादियों के लिए, एक लोकतांत्रिक देश की प्रमुख विशेषताओं में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, मनमानी गिरफ्तारी के खिलाफ सुरक्षा और स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा बेगुनाही को बरकरार रखने की शर्त है. जहां, बोलने, इकट्ठा होने, जुड़ने, व्यवसाय और व्यापार पर केवल न्यायोचित प्रतिबंध होने चाहिए. उदार लोकतंत्र में अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए भी जगह होनी चाहिए. इसके अलावा विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति का संतुलन और पर्याप्त बंटवारा होना चाहिए.
लोकतंत्र की उदार अवधारणा कानूनी और राजनीतिक अधिकारों के प्रक्रियात्मक डोमेन पर फोकस करती है. इसमें दी गई कानूनी प्रतिबद्धताएं बहुत जरूरी हैं, लेकिन यह समाजवादियों द्वारा दी गईं अधिक ठोस लोकतंत्र की धारणा के विपरीत भी हो सकती हैं. पुरानी समझ के मुताबिक, लोकतंत्र लोकप्रिय सशक्तिकरण के साथ हमेशा चलते रहने वाला व्यवसाय है. यह सशक्तिकरण, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और नागरिक स्वतंत्रता के दायरे से परे जाकर मानव अस्तित्व के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक डोमेन को शामिल करने वाला होना चाहिए. किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ चुनिंदा समूहों द्वारा नागरिकता का राजनीतिक प्रतिनिधित्व रोका नहीं जा सकता, लेकिन इसे एक समस्या के साथ-साथ समाधान के रूप में भी देखा जाना चाहिए. लोकतंत्र राज्य सत्ता के विकेंद्रीकरण के बारे में होना चाहिए, जहां लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले फैसलों में लोगों का प्रभाव हो. यहां व्यक्ति के विकास को निजी मामला नहीं देखा जाता. सत्ता समीकरणों की समानता, निर्णय लेने की विकेंद्रीकृत प्रक्रिया, प्रत्यक्ष रूप से नीति-निर्माण में भागीदारी जैसी चीजें एक साथ चल सकती हैं.
लेकिन उदार लोकतंत्र के मानकों के अनुसार, संविधान की लोकतांत्रिक साख कहां खड़ी है? पहले हमें यह पूछना चाहिए कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन की व्यवस्था कितनी प्रभावी है.
भारतीय संसद, कार्यपालिका पर पर्याप्त लोकतांत्रिक नियंत्रण का प्रयोग नहीं करती. ऐसा कार्यपालिका को मिली संवैधानिक शक्तियों के कारण है- खासकर पूरे देश या देश के किसी हिस्से में आपातकाल की घोषणा करना, जिसमें मूलभूत अधिकार सस्पेंड हो जाते हैं. इस असंतुलन को भारतीय दंड संहिता और दूसरे कानूनों से बढ़ावा मिलता है, जो औपनिवेशिक काल से प्रेरित हैं. नजरबंदी के कानून जैसे गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम आदि को विरोध दबाने, राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने और प्रगतिशील अभियानों को रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे ही देशद्रोह का कानून है. केंद्र सरकार अपने द्वारा नियुक्त राज्यपाल की मदद से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर विधानसभा को भंग सकती है. ऐसे कानूनों को खत्म किया जाना चाहिए.
एक दूसरे पर नजर रखने के रूप में काम करने के बजाय, कार्यपालिका और संसद ने बराबर काम किया है. दोनों संस्थाओं को जवाबदेह बनाने की जिम्मेदारी कोर्ट पर आ गई है. निचली अदालतों, मजिस्ट्रेट और सेशन कोर्ट को अक्सर स्थानीय शक्तियां रिश्वत देती हैं. यहां तक की हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्याय आमतौर पर देर से मिलता है और देर से मिला न्याय “अन्याय” के बराबर होता है. सुप्रीम कोर्ट, कार्यपालिका के काम पर नजर रखकर इसे जवाबदेह बनाकर इसके कामों की जांच कर सकती है. इसके बावजूद जब दमनकारी कानून और राज्य के कामों को रोकने की बात आती है तो उच्च न्यायपालिका ढीली पड़ जाती है.
न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच इस बात पर भी विवाद चल रहा है कि संविधान का अंतिम फैसला देने वाला (आर्बिट्रेटर) कौन है? सुप्रीम कोर्ट की संविधान की व्याख्या केवल दस्तावेज पर आधारित नहीं है. कई बार इसने संविधान निर्मताओं की 'मंशा' पर विचार किया है. कई बार, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान को "रचनात्मक रूप से अपनाने" की तरफ अपना झुकाव दिखाया है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1973 में दिया गया संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत कोर्ट को निर्णायक और विवादास्पद शक्तियां देता है. लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली चुनी हुई संसद संविधान संशोधन की शक्ति रखती है, लेकिन बिना चुना हुआ सुप्रीम कोर्ट इस सिद्धांत के तहत संविधान के मूल भाव से छेड़छाड़ करने वाले किसी भी संशोधन को निरस्त कर सकता है.
कोर्ट ने संविधान की व्याख्या की शक्ति का इस्तेमाल करते हुए कई प्रगतिशील मामलों में फैसले दिए हैं, जैसे- सूचना का अधिकार और मूलभूत अधिकारों के तहत निजता पर फैसला आदि. लेकिन क्या सु्प्रीम कोर्ट की बेंचों को संविधान के सरंक्षक के रूप में काम करना चाहिए, जब उन्हें केवल सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच जांच सकती है और ऐसी स्थिति में क्या होगा जब इस बात पर न्यायिक सहमति न बन पाए कि धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, संघवाद और संविधान के दूसरे मूल तत्वों के अलावा दूसरे मूल तत्व क्या होंगे? यह बात भी चिंताजनक है कि उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्तियां पारदर्शी नहीं हैं और न ही इसकी कोई जवाबदेही है कि वे अपने फैसले कैसे लेते हैं.
राजनीतिक व्यवहार और हिंदू अधिकारों की विचारधारा को न्यायसंगत बनाने में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों ने अहम भूमिका निभाई है. सु्प्रीम कोर्ट ने 1949 में बाबरी मस्जिद में गैरकानूनी रूप से रखी गई राम की मूर्ति को हटाने के लिए कभी नहीं कहा और जब याचिका दायर कर बाबरी मस्जिद को ढहने से बचाने के लिए केंद्र सरकार से सुरक्षाबलों की तैनाती की मांग की गई तो इसे अस्वीकार कर दिया गया. 1995 में कोर्ट ने गैर-लोकतांत्रिक विचारधारा होने के बावजूद हिंदुत्व को "जीवन का रास्ता" बताया. इसके बारे में यह भी कहा जा सकता है कि इसने हिंदुत्व को आगे बढ़ाने वाले आंदोलनों को धीमा किया है. संविधान की मूल सरंचना का सिद्धांत न होने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे इस्तेमाल न करने की स्थिति में यह और भी खराब हो सकता था.
हमें यह भी देखना होगा कि संविधान द्वारा परिभाषित ससंदीय और पार्टी व्यवस्था लोगों की इच्छाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व कर रही हैं या नहीं. यहां भी कुछ कमजोरियां हैं. राज्यसभा के सांसद उस राज्य के निवासी होने जरूरी नहीं हैं, जहां से वे प्रतिनिधि हैं. संसद और राज्य विधानसभाओं में सदस्य अपनी पार्टी के खिलाफ जाकर वोट नहीं कर सकते. विश्वास मत के मौके पर पार्टी के खिलाफ वोट न करने की बात समझ आती है, लेकिन दूसरे मामलों में यह तर्कसंगत नहीं लगता और बहस के स्थान को कम करता है. अगर चुने गए नेता अपनी साइड नहीं बदल सकते तो उनकी जरूरत ही क्या है?
हालांकि, संविधान के लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के दावे की सबसे बड़ी बात फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम है. इसको न्यायसंगत बताने के लिए यह तर्क दिया जाता है कि पारदर्शी या मिश्रित आनुपातिक प्रतिनिधित्व के मुकाबले फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट व्यवस्था स्थिरता लाती है. यह भी कहा जाता है कि यह प्रतिस्पर्धात्मक दो या तीन पार्टी व्यवस्था को बढ़ावा देती है जो लंबे समय तक न टिकने वाली गठबंधन सरकारों से अच्छा होता है. लेकिन स्थिरता ही अपने आप में सब कुछ नहीं है न ही इसे चुनावी पसंद के उचित प्रतिनिधित्व की बजाय प्राथमिकता देनी चाहिए. इसके अलावा राज्यों और सरकारों के बीच गठबंधन की सरकारें चली हैं. केंद्र का ही उदाहरण लें तो 1999 से 2014 के बीच तीन बार ऐसे मौके आए हैं.
किसी तरह का आनुपातिक प्रतिनिधित्व आज हिंदुत्व के अलोकतांत्रिक हमले के खिलाफ एक संस्थागत आधार देगा. आजादी से लेकर 2014 के आम चुनावों तक, जब भी देश में एक पार्टी की बहुमत वाली सरकार आई है, जीतने वाली पार्टी को कभी बहुमत का समर्थन नहीं मिला है. इसे हमेशा 40 से 49 प्रतिशत तक वोट शेयर मिला है. 2014 में हिंदी भाषी राज्यों में अभूतपूर्व समर्थन के चलते बीजेपी बहुमत से सत्ता में आई, लेकिन इसे केवल 31 प्रतिशत वोट मिले. यह इस बात का मजाक है कि सरकार ने हमेशा लोकप्रिय जनादेश का प्रतिनिधित्व किया है.
भारत के लोगों की सियासी और सामाजिक विविधता देश के क्षेत्रीय दलों जैसे निषाद पार्टी, शिरोमणि अकाली दल और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी में बेहतर रूप से दिखती है, जिनका आधार विशेष सामाजिक समूहों में हैं. ये पार्टियां अपने फायदे के लिए लोकसभा में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बात कर सकती हैं, लेकिन इसके साथ यह समस्या है कि फिर विधानसभाओं में ऐसी व्यवस्था का इंतजाम करना होगा. मजूबत क्षेत्रीय पार्टियां इस व्यवस्था को नहीं चाहतीं क्योंकि राज्य में बहुमत मिलने या ज्यादा सीटें मिलने पर इससे राज्य में उनकी सरकार बनाने में मुश्किलें होंगी.
संविधान की खामियां
सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ने गणतंत्र में हिंदुत्व के उभार को मजूबत किया है, लेकिन दस्तावेज में दो कमियां और भी हैं, जिन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद के पाले में हवा का काम किया है.
एक कमी, जो संविधान में पाई जाती है वह यह है कि यह राष्ट्र और राष्ट्रवाद की दोषपूर्ण और खुद की समझ पर आधारित है. जैसा कानूनी विद्वान उपेंद्र बक्शी ने बताया कि भारतीय संविधान "इस विश्वास को बनाए रखता है कि देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए जरूरी शक्तियां स्वाभाविक रूप से न्याय को आगे बढ़ाने वाली हैं." ये जन्म के समय राष्ट्र की असल सीमाओं के भूभाग के विस्तार की इजाजत देती हैं, लेकिन भूभाग के अलगाव को मना करती हैं.
संविधान इस धारणा पर आंशिक रूप से विश्वास करता है कि हर अलगाववाद किसी बाहरी हमले या प्रभाव से पैदा हुआ है. वह इस विचार को नहीं मानते कि भौगोलिक एकता अपने आप में एक निर्विवाद गुण नहीं है. जब किसी प्रांत या क्षेत्र के लोग संघ का हिस्सा नहीं बनने की इच्छा रखते हैं- क्योंकि पूर्व औपनिवेशिक अलगाव का इतिहास रहा है या उन्हें लगता है कि देश में उन्हें दबाकर रखा जा रहा है या दमन किया जा रहा है तो वे आजादी के अधिकारों की मांग करते हैं. इससे अलगाव की मांग भी पैदा हो सकती है. कुछ ही ऐसी सरकारें रही हैं जिन्होंने नागरिकों की ऐसी आवाज को सुना या स्वीकार किया है. चाहे उनके संविधान में इसकी इजाजत न हो.
भारत में एक विषम संघवाद है, जहां एक राज्य के पास दूसरे राज्य जितनी विधायी शक्तियां नहीं हैं. दूसरी ओर देखें तो कुछ राज्यों के पास ऐसी शक्तियां हैं जो दूसरे राज्यों के पास नहीं है. इस प्रकार का संघवाद आमतौर पर उन औपनिवेशिक साम्राज्य के पतन के बाद उभरता है जहां के राज्यों ने अपने राज्यों पर एक समान नियमों और प्रक्रियाओं से शासन नहीं किया था. नागालैंड और कश्मीर दोनों में आजादी के बाद भारत की सरकार ने यहां के लोगों की आवाजें दबाने के लिए दमन का सहारा लिया. लंबे समय तक चले दमन ने आजादी के लिए नागाओं की मांग को जन्म दिया जो अब अपने लिए स्वायत्ता की मांग कर रहे हैं. कश्मीर की कहानी अलग है.
कश्मीर के भारत में विलय होने की सटीक परिस्थितियों के बारे में अभी तक विवाद है. साथ ही इस बात पर भी विवाद है कि भारत ने इसके लिए कोई दोहरी चाल चली थी. विलय के समय भारत द्वारा की गए कानूनी और औपचारिक प्रतिबद्धताएं विवादों से परे हैं. जम्मू कश्मीर के पास अपना अलग झंडा होगा, अपना संविधान तैयार करने के लिए संविधान सभा होगी. मूल व्यवस्था संघवाद से ज्यादा 'कन्फेडरल' थी, जिसके तहत राज्य के विदेशी मामले और संचार के मामले केंद्र सरकार के अधीन होंगे. अपना संविधान होने के कारण जम्मू-कश्मीर भविष्य में भारत के संविधान के तहत नहीं आएगा, लेकिन विशेष परिस्थितियों में राज्य सरकार की "सलाह" या "सहमति" से भारतीय संविधान में उल्लेखित राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है. केंद्र द्वारा राज्य की मूल मंशा और भावना को कमजोर करने का रास्ता अनुच्छेद- 370 में छिपा है.
इसके बाद दमन की खेदजनक कहानी शुरू होती है. 1953 में राज्य के नेता शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर केंद्र के नुमाइंदे बक्शी गुलाम मोहम्मद को राज्य का प्रमुख बनाया गया. अधिकतम स्वायत्ता की बात कहकर राज्य की संविधान सभा को भंग कर केंद्र सरकार के नियम थोप दिए गए. संविधान के अनुच्छेद, जिन्हें जम्मू-कश्मीर में लागू किया गया था, केंद्र सरकार को राज्य की चुनी हुई सरकार को भंग करने और यहां का प्रशासन चलाने की अनुमति देते थे. जवाहर लाल नेहरू और उनके बाद के समय में जम्मू-कश्मीर की स्वायत्ता को धीरे-धीरे खत्म किया गया और यह क्षेत्र भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार में आ गया.
जम्मू-कश्मीर लगभग 3500 दिनों तक राष्ट्रपति और राज्यपाल शासन से प्रभावित रहा है और अब भी ऐसे ही शासन से चल रहा है. पंजाब, जहां खालिस्तानी आंदोलन बहुत पहले खत्म हो गया था, 3510 दिन तक राष्ट्रपति शासन रहा था. लेकिन दोनों में सबसे लंबे समय तक जम्मू-कश्मीर में छह साल राष्ट्रपति शासन रहा है.
1947 से 1964 के बीच संघ सूची में शामिल 3 को छोड़कर 97 विषय, जो संसद को कानून बनाने का अधिकार देते हैं; संघवर्ती सूची के 47 में से 26, जिन पर राज्य और केंद्र सरकार कानून बना सकती है और भारतीय संविधान के 395 अनुच्छेदों में से 260 का जम्मू-कश्मीर तक विस्तार कर दिया गया. उसके बाद सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम, सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम और आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम जैसे दमनकारी कानून लागू किए गए. यह बात यहां तक पहुंच गई है कि बीजेपी और संघ के कई नेता सार्वजनिक तौर पर राज्य को अनुच्छेद- 370 के तहत दी गई सीमित स्वायत्ता को खत्म करने की बात करते हैं. लोकतांत्रिक भारत की राजनीति, चाहे कार्यपालिका हो, विधायिका हो या न्यायपालिका हो, धीरे-धीरे खत्म होती इस व्यवस्था को बचाने का प्रयास नहीं कर रहे हैं. यहां तक की पहले के वादे भी पूरे नहीं किए जा रहे हैं.
दूसरा क्षेत्र जहां गहन विश्लेषण की जरूरत है- वह है संविधान का धर्मनिरपेक्षता का दावा. कई राजनीतिक पंडित यह मानते हैं कि लोकतांत्रिक देश का धर्मनिरपेक्ष होना जरूरी नहीं है, जैसे इजरायल, एक यहूदी देश है, जहां गैर-यहूदियों के लिए दोयम नागरिकता का प्रावधान है. लेकिन अधिकतर दूसरे, उदार लोकतांत्रिक दृष्टिकोण रखने वाले मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के बीच एक मूलभूत ओवरलैप है.
कुछ ऐसे अहम सिद्धांत हैं जो किसी राज्य को धर्मनिरपेक्ष बनाते हैं. पहला, किसी के धार्मिक या आध्यात्मिक मोक्ष की रक्षा करना या इसे बढ़ावा देना राज्य का काम नहीं होना चाहिए. दूसरा, इसकी संस्थाओं पर किसी धार्मिक व्यक्ति या संस्था का नियंत्रण नहीं होना चाहिए. तीसरा, सभी नागरिकों के लिए बिना उनका धर्म देखे समान अधिकार होने चाहिए, चाहे ये अधिकार लोकतांत्रिक हों या न हों. यह इस बात की ओर इशारा करता है कि कोई राज्य धर्मनिरपेक्ष हो सकता है, लेकिन लोकतांत्रिक नहीं जैसे तुर्की, माओ का चीन और स्टालिन का सोवियत संघ.
राज्य को उन धार्मिक क्रियाकलापों में कितना दखल देना चाहिए, जिसे कुछ लोग नैतिक रूप से अपमानजनक मान सकते हैं? कुछ सामान्य सिद्धांत हमें इस बारे में मार्गदर्शन दे सकते हैं. जाति, लिंग और नस्लों में समानता के कुछ बुनियादी व्यक्तिगत अधिकार हैं जिन्हें समूह के अधिकारों पर प्राथमिकता देनी चाहिए. यहां पर किसी व्यक्ति के लिए किसी समूह या धार्मिक निषेधाज्ञा से "निकलने का अधिकार" भी होना चाहिए, जहां उसे लगे कि यह उस पर थोपा गया है या इसे नीचा दिखाया गया है. इसमें से किसी को भी इस अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए कि अल्पसंख्यक अधिकारों के सिद्धांत को नकारा जा रहा है. किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सिद्धांत बुनियादी रहते हैं. ऐसे में "अल्पसंख्यकवाद" पर संघ के प्रवक्ताओं के हमलों को पूरी तरह नकारा जाना चाहिए. अगर हम ऐसे अधिकारों का फायदा उठाने वाले लोगों द्वारा विशिष्ट टिप्पणियों का विरोध करते हैं तो धार्मिक निकायों को भी पुराने नियमों को आधुनिक लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्य अपनाने के लिए आगे किया जाना चाहिए.
लेकिन खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले राज्यों को इस बात में भी सावधानी बरतनी चाहिए कि वे धार्मिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत पसंद के मुद्दों को कैसे संबोधित करते हैं, जबकि ये कुछ हद तक समाजीकरण प्रक्रियाओं का परिणाम हैं. उदाहरण के लिए, यूरोपीय लोकतांत्रिक देशों के विपरीत भारत काफी समझदारी से धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को बनाए रखने के नाम पर मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली पोशाक जैसे कि हिजाब, बुर्का या नकाब को गैरकानूनी घोषित करने के बेतुके हद तक नहीं गया. कुछ पेशों जैसे चिकित्सा और पढ़ाई के अलावा, जहां मरीजों और छात्रों के साथ आमने-सामने बातचीत की आवश्यकता हो सकती है, ऐसे प्रतिबंधों का कोई औचित्य नहीं है. किसी की कपड़े पहनने की बुनियादी स्वतंत्रता का सम्मान किया जाना चाहिए.
कई प्रगतिवादी इस ओर इशारा करते हैं कि संविधान में दिए गए और जमीन पर अमल में लाए जाने वाले धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों में बहुत फर्क है. यह संविधान के लिए एक प्रकार की छूट की तरह काम करता है. असली तथ्य तो यह है कि दस्तावेज में लिखी बातें धार्मिक पक्षपात वाली हैं.
संविधान इस्लाम के लिए छूट देता है, जैसे यूनिफॉर्म सिविल कोड की कमी और सिखों के लिए सार्वजनिक तौर पर कृपाण रखने की इजाजत. इसके आगे भी धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर संविधान छात्रों को धार्मिक दिशा-निर्देश के लिए किसी भी धार्मिक संप्रदाय, संस्था आदि को शैक्षणिक संस्थान खोलने की इजाजत देता है, चाहे वह संस्थान सरकार द्वारा सहायता ही क्यों न पा रहा हो. इसके अलावा यह कहता है कि यदि किसी ट्रस्ट द्वारा स्थापित किसी शिक्षण संस्थान में धार्मिक निर्देश सिखाए जाते हों और सरकार इसे अधिग्रहित कर ले तब भी संस्थान में ये निर्देश जारी रह सकते हैं. संविधान में सबसे पक्षपाती विलक्षण ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म के पक्ष में हैं.
मैंने जाति व्यवस्था को बनाए रखने वाले संविधान की प्रभावी मंजूरी और छूआछूत और जातीय भेदभाव खत्म करने में इसकी अनुकूल परिस्थिति का पहले ही जिक्र किया है. मैंने इसकी "भारत" नाम की विवादास्पद पसंद का जिक्र भी किया है. इन खामियों की सूची में जोड़ने के लिए अभी भी काफी कुछ है.
संविधान सभा की बहस में, भीमराव अंबेडकर ने धार्मिक स्वतंत्रता को केवल पूजा करने की स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित किया, और उससे बाहर की सभी प्रथाओं को शामिल नहीं किया. ऐसी परिभाषा सति और बाल विवाह जैसी हिंदू प्रथाओं का विरोध करने का आधार बनी. संविधान के अनुच्छेद-25 में धार्मिक स्वतंत्रता की अंतिम परिभाषा एक समझौता दिखती है. इसने धर्म का अभ्यान और प्रचार को "सार्वजनिक आदेश का विषय, धन और स्वास्थ्य के अधीन" कहा है. इस विस्तृत क्षेत्र को देखते हुए इस खंड की कैसे व्याख्या की जा सकती है, इस बात में कोई आश्चर्य नहीं की राज्य के दखल के बिना कोई नीरस धार्मिक प्रथा बनी रह सकती है.
संविधान सभा के कट्टर ब्राह्मणवादी गौ हत्या पर प्रतिबंध नहीं लगवा पाए, लेकिन उन्होंने निर्देशक सिद्धांतो में पशुपालन का आवरण ओढाकर गायों को बचाने की जरूरत पर जोर दिया. तब से अधिकतर राज्यों ने गौ हत्या पर रोक लगा दी है और कई राज्यों में सांडों और बैलों को मारने पर भी प्रतिबंध है.
कई राज्यों ने बलपूर्वक, लालच या धोखे से किए जाने वाले धर्म परिवर्तन पर रोक लगा दी है. इन प्रतिबंधों के निशाने पर मुसलमान और ईसाई हैं. हिंदुओं द्वारा किए जाने वाले धर्म परिवर्तन को अक्सर यह कहकर नजरअंदाज कर दिया जाता है कि यह "असली" धर्म में वापसी है. बलपूर्वक धर्मांतरण पर लगाई गई रोक न्यायपूर्ण है, लेकिन पाबंदी के दो अन्य आधार राज्य का अनुचित हस्तक्षेप बताते हैं. हिंदुत्व के कई दिग्गजों का कहना है कि नरक और स्वर्ग में ईसाइयों का विश्वास धोखे का कारण बनता है. पैसे देकर धर्मांतरण करने पर रोक विशेष रूप से प्रगतिशील मिशनरी समूहों को निशाना बनाकर लगाई गई है, जो आदिवासी और पिछड़े क्षेत्रों में स्कूलों और अस्पतालों जैसे नागरिक संस्थानों की स्थापना करते हैं. धर्मांतरण को रोकने के लिए एक मानदंड के रूप में इसे खारिज कर देना चाहिए. दुनियाभर में हिंदू संप्रदायों समेत कई ऐसे संप्रदाय हैं जो मानसिक और आध्यात्मिक जरूरतें पूरी कर लोगों को दूसरे धर्म में परिवर्तित कर रहे हैं.
अनुच्छेद 25, धार्मिक स्वतंत्रता देते हुए, अपने उपखंड में यह भी कहता है कि यह आजादी राज्य को सभी हिंदुओं के लिए पब्लिक चार्टर के हिंदू धार्मिक संस्थान खोलने से नहीं रोकती है. दस्तावेज के उपखंड में लिखा है, "हिंदुओं के संदर्भ में सिख जैन या बौद्ध धर्म मानने वाले लोगों के संदर्भ को शामिल किया जाएगा." यहां संविधान को लगभग हिंदुत्व की अस्मितावादी परियोजना के तौर पर देखा जा सकता है, जो इन धर्मों को प्राचीन भारत से जुड़ा देखता है और मानता है कि इन्हें हिंदू धर्म ने आकार दिया है. ईसाई, पारसी, इस्लाम और यहूदी धर्म के विपरीत इन धर्मों को स्वदेशी माना जाता है. संघ परिवार में सिखों का जिक्र मुगलों और मुस्लिम अतिक्रमणकारियों से हिंदुओं को बचाने के संदर्भ में किया जाता है. इस अस्मितावादी रवैये ने जैनों और सिखों में हिंदुत्व विचारधारा के बारे में कुछ हद तक नाराजगी पैदा कर दी लेकिन यह किसी खुले संघर्ष को बल देने के लिए पर्याप्त नहीं है. अंबेडकर द्वारा हिंदुत्व के सामने बौद्ध धर्म को रखकर कुछ हद तक जमीन तैयार की है, जिससे दलित मुखरता मजबूत हुई है.
अनुच्छेद- 26 प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय को धार्मिक और मूर्त प्रायोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का अधिकार देता है, लेकिन अनुच्छेद-25 का खंड 2 (अ) धार्मिक क्रियाकलापों से जुड़ी किसी भी "आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनियमित करने या प्रतिबंधित करने के लिए राज्य की शक्ति की बात करता है. यह सुविधाओं के निर्माण की देखरेख, भक्तों द्वारा दिए गए धन के खर्च और पुजारी के उम्मीदवारों की योग्यता भी देख सकता है. अनुच्छेद- 26 सभी धार्मिक संस्थानों के प्रति निष्पक्ष है, लेकिन असल में राज्य, कॉर्पोरेट क्षेत्र और हिंदू धार्मिक प्रतिष्ठानों के बीच एक बड़ी और शक्तिशाली सांठ-गांठ सामने आई है. लेखकर मीरा नंदा अपनी किताब “द गॉड मार्केटः हाउ ग्लोबलाइजेशन इज मेकिंग इंडिया मोर हिंदू” में इस सांठगांठ का पर्दाफाश करती हैं.
सिखों के मामले 1925 के सिख गुरुद्वारा कानून के तहत देखे जाते हैं. मुस्लिम, मस्जिदें और चैरिटी अधिकतर 1954 के वक्फ कानून और ईसाइयों के चर्चों के मामलों के लिए 1914 में बने नेशनल काउंसिल ऑफ चर्च के तहत नियम देखे जाते हैं. लेकिन हजारों की संख्या में हिंदू संप्रदायों को देखने के लिए कोई प्राधिकरण नहीं है. राज्य सरकारों ने हिंदूओं, जैनों और बौद्ध मंदिरों की देखरेख के लिए कई नियामक निकाय बनाए हैं.
संविधान ने हिंदी को "संघ की आधिकारिक भाषा" घोषित किया है, जिसे राज्यों और केंद्र के बीच बातचीत के लिए अंग्रेजी के साथ इस्तेमाल किया जाएगा. हालांकि, हिंदी को किसी दूसरी भारतीय भाषा से ज्यादा बोला जाता है, फिर भी यह देश की कुल जनसंख्या के एक छोटे हिस्से में बोली जाती है. यह दर्जा प्राप्त करने के पीछे संविधान सभा में उत्तर भारतीयों और दबदबे वाली जातियों के लोगों का बड़ा हाथ है. संविधान संस्कृत को भी आठवीं अनुसूची में शामिल कर आधिकारिक दर्जा देता है, जिसे कुछ सौ लोगों द्वारा बोला जाता होगा. भीली और लम्मी जैसी जनजातीय भाषाएं, जिन्हें 10 लाख से भी ज्यादा लोग बोलते हैं, उन्हें यह सम्मान प्राप्त नहीं है. अनुच्छेद- 351 संस्कृत निष्ठ हिंदी को बढ़ावा देता है जो अपनी शब्दावली के लिए "मुख्य तौर पर संस्कृत और कुछ हद तक दूसरी भाषाओं पर निर्भर है." हिंदी के प्रचार की कीमत हिंदुस्तानी को चुकानी पड़ी, जो फारसी और अरबी से लिए अपने शब्दों के कारण उर्दू को ज्यादा अहमियत देती है. इसके अलावा एक हिंदी राष्ट्रवाद काम कर रहा है जहां दूसरी उत्तर-भारतीय भाषाओं को हिंदी में सम्मिलित मान लिया गया या उन्हें बोलियों के रूप में आगे बढ़ाया गया.
भारतीय राज्य, राज्य और केंद्रीय स्तर पर गुरुकुल, ऋषिकुल और पाठशालाओं के माध्यम से हिंदू धर्मगुरुओं के प्रचार और कॉलेज स्तर पर ज्योतिष के कोर्स के माध्यम से "वैदिक ज्ञान" को बढ़ावा देता है. सरकार हिंदू धार्मिक संस्थाओं को स्कूल, अस्पताल और दूसरे संस्थानों के लिए कम दाम में या उपहार के तौर पर जमीन देती हैं. इसके अलावा उन्हें संरक्षण और मान्यता भी प्रदान करती हैं. इसके बाद इन्हें कॉरपोरेट और निजी चंदे से बनाया और इनका रखरखाव किया जाता है. अंत में इसका नतीजा धर्मनिरपेक्ष माने जाने वाले देश में सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में हिंदू संस्थानों के रूप में सामने आता है.
शुरुआत से भारतीय संविधान अद्भुत नहीं था, जैसा बहुत लोग दावा करते हैं. इसकी धर्मनिरपेक्षता, उदार स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के दावे कभी पूरे नहीं हुए और इन पर जरूरत से ज्यादा रोक लगी हुई है. इसके "परिवर्तनकारी विजन" का लक्ष्य एक कल्याणकारी, पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना करना था, जो समय के साथ इसके सरंक्षण में उभरा है और किसी भी तरह इसे निरस्त नहीं करेगा. इसलिए हम एक नवउदारवादी पूंजीवाद में आ गए हैं और आम जनता के लिए गंभीर कल्याणकारी प्रावधानों का लाभ उठा रहे हैं, जो बड़े स्तर पर गरीबी को बने रहने और शक्ति और धन में असमानता को ऊंचे स्तर तक बढ़ने की इजाजत देता है.
भारतीय लोकतंत्र ने हालांकि लंबे समय तक अपने मैक्रो-स्तरीय संरचनाओं और संस्थानों में एक रिश्तेदार स्थिरता का आनंद लिया, हमेशा के लिए हिंसा को सहन किया और इसके मेसो और सूक्ष्म स्तरों पर लोकतांत्रिक प्रथाओं की कमी है.
भारतीय लोकतंत्र ने हालांकि लंबे समय तक सूक्ष्म-स्तर पर बनावट और संस्थाओं में स्थिरता भी देखी है. साथ ही यह छोटे और सूक्ष्म स्तर पर हमेशा से हिंसा और लोकतांत्रिक क्रियाकलापों की कमी के प्रति सहिष्णु रहा है. पिछले तीन दशकों से चीजें और खराब हुई हैं. कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका, सरकार और मीडिया को पक्षपातपूर्ण नियुक्तियों और भ्रष्टाचार के माध्यम से धीरे-धीरे खोखला कर दिया गया है.
इन सबसे खराब, आज देश की एकमात्र दबदबे वाली राजनीतिक शक्ति संघ परिवार है, जिसके फासीवादी गुणों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. पूरी दुनिया में ऐसी ताकतें फिर से उभर रही हैं लेकिन उनके विपरीत संघ के पास लगभग 100 सालों का अखंड कार्यकाल है. चुनावों में कम या ज्यादा सफलता के बावजूद संघ का आधिपत्य स्थापित करने के लिए अभियान हमेशा जारी रहा. इसके कैडर और संस्थानों ने भारतीय समाज में अपनी जड़ों को अभूतपूर्व रूप से जमा लिया है. संघ का विजन देश की बड़ी आबादी को आकर्षित करता है फिर भले कई विपक्षी पार्टियां हिंदू भारत के विचार का विरोध ही क्यों न करती हों.
संघ के खिलाफ संघर्ष में हमारे पास संविधान में पर्याप्त सकारात्मक पहलू हैं लेकिन हमें यह भी पूछना चाहिए कि लोगों में भरी जा रहे इस कॉमन सेंस के खिलाफ यह दस्तावेज कितना मजबूत है.
इस कॉमन सेंस के मुताबिक नवउदारवाद की इस व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है और आर्थिक बहस का केवल एक ही प्रश्न है कि सामाजिक ताकतों के प्रचलित संतुलन के आधार पर अधिक अनुशासनात्मक या क्षतिपूरक कदम उठाए जाने चाहिए. दूसरा पक्ष, जो संघ की सफलता से उपजा है कि क्या चुनावी सफलता चाहने वाली हर पार्टी को हिंदू बहुसंख्यकवाद के आगे झुकना और धार्मिक अल्पसंख्यक के तुष्टिकरण दिखने की कोशिश से खुद को दूर करना पड़ेगा. इस हिसाब से बीजेपी और संघ की जमीन पर खेलने से बचने का कोई तरीका नहीं है. लड़ाकू और सैन्यवादी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने और बढ़ती वैश्विक शक्ति का दर्जा प्राप्त करने के लिए भारत के क्षेत्रीय प्रभुत्व पर जोर देने के लिए आम सहमति बढ़ रही है.
भारतीय राजनीति की धुरी दक्षिण की तरफ काफी घूम गई है. कांग्रेस भले ही बिल्कुल दक्षिणपंथी ताकत नहीं है, लेकिन यह बहुत पहले ही दक्षिणपंथी ताकत में बदल गई थी. इसके पास अपना कोई प्रेरणा देने वाला परिवर्तनकारी विजन नहीं है. संघ के दावे का उत्तर देने के लिए आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और विचारधारा समेत हरेक मोर्चे पर नए तरीकों की जरूरत है. यह ऐसे संविधान के निर्माण की तरफ जाना चाहिए जो भारत के लोगों को अभी से अधिक अधिकार प्रदान कर सके.
( कारवां अंग्रेजी के मई 2019 अंक में प्रकाशित इस निबंध का अनुवाद तरुण कृष्ण ने किया हैं.)