22 अप्रैल 1498 की दोपहर. पूर्वी अफ्रीका के मालिंदी बंदरगाह से कुछ किलोमीटर दूर कप्तान मेजर वास्को द गामा की खुशी का ठिकाना नहीं है. इस महाद्वीप में मोजाम्बिक से मोम्बासा के बीच दक्षिणपूर्वी तट पर चार महीनों तक बहते रहने के बाद इस पुर्तगाली कप्तान को एक ऐसा नाविक मिल गया था जो उसे भारत ले जाने वाला था. अपनी यात्रा में द गामा को स्थानीय शासकों, अरब और अफ्रीकी व्यापारियों की शत्रुता का सामना करना पड़ा था.
''एशिया का समुद्री मार्ग खोजने वाले'' के रूप में मशहूर द गामा को कालीकट पहुंचाने वाले नाविक का नाम कांजी मालम था. वह गुजराती था. कपास और नील का यह व्यापारी सोने और हाथीदांत के बदले अपने माल का सौदा करने अफ्रीकी तटों पर अक्सर जाया करता था. आश्चर्य की बात नहीं कि एक गुजराती, द गामा को भारत लेकर आया था. जहाज चलाने, समुद्र में सफर करने और व्यापार करने के मामले में गुजारती कौशल का पहले ही लोहा माना जा चुका था. साथ ही गुजरातियों ने फारस की खाड़ी से लेकर मलेशिया और इंडोनेशिया तक व्यापार मार्ग स्थापित कर रखे थे.
पुर्तगालियों के यहां पहुंचने के दो शताब्दी पहले गुजरात, दुनिया के दो मुख्य व्यापार अक्षों सिल्क और मसाला व्यापार का जंक्शन पर रह चुका है. ये उपमहाद्वीप में प्रवेश करने वाले अफ्रीकी, अरब और एशियाई बंदरगाहों के सामानों के लिए एक प्रमुख वितरण का केंद्र था. समुद्री किनारे से एक अंतर्देशीय व्यापार मार्ग बिहार, दूसरा उत्तर में मथुरा और तीसरा दक्षिण में मराठावाड़ को जाता था. यूरोप के लोगों के भारत में कदम रखने से सदियों पहले ग्रीस, अरब, फारस, अफ्रीका और चीन के व्यापारी गुजरात में व्यापार करने आते थे.
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जनवरी 2011 के दूसरे हफ्ते में 100 से ज्यादा देशों के 10000 से ज्यादा व्यापारी गांधीनगर पहुंचे. ये लोग साल में दो बार होने वाले “वाइब्रेंट गुजरात” समिट में हिस्सा लेने पहुंचे थे. यह एक निवेश संबंधित संकल्पों और दस्तखतों से जुड़ा एक मैराथन समारोह है. जिसका मुख्य उद्देश्य गुजरात में व्यापार को बढ़ावा देना है. इसमें संयोग की बात नहीं कि ऐसा करते हुए इसका काम सुर्खियां बटोरना भी है. 2011 मेले ने गिनती के मामले में निराश नहीं किया. जब यह समाप्त हुआ, तब तक व्यापारियों ने 450 बिलियन डॉलर से ज्यादा के निवेश का वादा किया था, जो किसी भी विकासशील अर्थव्यवस्था के एक इवेंट में हासिल की गई सबसे बड़ी रकम थी. मीडिया ने इस अद्भुत रकम को लेकर न सिर्फ नम्रतापूर्वक नगाड़े पीटे बल्कि व्यापारियों द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री को दिए जा रहे सम्मान का भी एक सुर में गुणगान किया.
सम्मेलन के पहले दिन भारत में होने वाले सार्वजनिक समारोहों की आम परंपरा का निर्वहन करते हुए मंच पर बेतरतीब भीड़ मौजूद थी. इस कार्यक्रम का आयोजन नव-निर्मित महात्मा मंदिर में किया गया था, जो गांधी से जुड़ा एक स्मारक है. लेकिन संभावित रूप से इसका इस्तेमाल एक सम्मेलन केंद्र के तौर पर किया गया था. मंच पर तीन पंक्तियों में 80 लोग बैठे थे. लेकिन सभी की निगाहें उस व्यक्ति पर थीं, जो केंद्र में थे. वही इसके आयोजक और शो के निर्विवाद सितारे थे, जिनका नाम नरेंद्र मोदी है. उन्होंने हाथी-दांत के रंग का सूट और बिना रिम वाला ट्रेडमार्क बुल्गारी चश्मा पहन रखा था. उनकी भूरी दाढ़ी को करीने से तराशा गया था, जिसकी वजह से मोदी हर तरफ से ऐसे व्यक्ति लग रहे थे, जो फैसले लेने वाला हो. वो हर वक्ता को एकाग्रचित होकर सुन रहे थे और ये एकाग्रता कभी-कभार की मुस्कुराहटों से टूट जाया करती थी. उनके दोनों ओर दो देशों के दूत थे, जिन्होंने इस आयोजन के आधिकारिक भागीदारों के तौर पर दस्तखत किए थे. इसमें जापान के राजदूत और कनाडा के हाई कमिश्नर शामिल थे. जो इंडिया इंक के दो प्रमुख राजदूत रतन टाटा और मुकेश अंबानी से घिरे थे. इनके अलावा तीन दर्जन कॉर्पोरेट चेयरमैन और सीईओ भी मंच पर संतुष्टि से मुस्कुरा रहे थे. ऐसा करने में इनके साथ रवांडा के प्रधानमंत्री और अमेरिका-इंडिया बिजनेस काउंसिल के प्रमुख भी शामिल थे,जिन्होंने मंच से ये घोषणा की थी कि वो अगले सम्मेलन में अमेरिका को इसके साथी देश के तौर पर देखना चाहते हैं.
वाइब्रेंट गुजरात को सफलतापूर्वक एक प्रमुख वैश्विक व्यापार कार्यक्रम के रूप में प्रस्तुत किया गया था. इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मोदी की लॉबिंग और पीआर संभालने वाली अमेरिका स्थित ''एप्को वर्ल्डवाइड'' को इसे प्रोजेक्ट को प्रमोट करने के लिए दो अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट हासिल हुए हैं. साल 2003 से हुए ऐसे पांच सम्मेलनों ने गुजरात के लिए 920 बिलियन डॉलर के निवेश हासिल किए हैं. लेकिन मोदी के लिए इसकी कीमत नंबरों में नहीं आंकी जा सकती. वास्तव में ये आंकड़े भ्रामक हो सकते हैं. हालांकि मोदी का दावा है कि इन सम्मेलनों में निवेश के जो वादे किए गए, उनमें 60 प्रतिशत से ज्यादा सफल रहे. लेकिन राज्य उद्योग विभाग के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि जो वादे किए गए थे, उसका सिर्फ 25 प्रतिशत निवेश ही राज्य में आया. हालांकि, एक खरब डॉलर का एक चौथाई हिस्सा मुश्किल से किसी छुट्टे के बराबर ही है. लेकिन छवि और वास्तविकता में काफी असमानता होना असल में निवेश से जुड़े इस सम्मेलन के पीछे की सामरिक प्रतिभा को दर्शाता है. भारतीय राजनीति में चीज़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के ऐसे अकल्पनीय उदाहरण कम ही मिलते हैं.
भारत का गुजरात जैसा राज्य जहां व्यापार करना बहुत सरल रहा है और जिसे उसके उद्योगों के लिए जाना जाता है, वहां निवेश को मोदी ने एक हाई-प्रोफाइल प्रदर्शनी में बदल दिया है. और सालाना निवेश की रकम को एक बार में बढ़ा-चढ़ाकर किए जाने वाले खुलासे से भरी घोषणा में बदल दिया है. दूसरे शब्दों में कहें तो, मोदी ने गुजरात की प्राचीन व्यापारिक और उद्यमशील ऊर्जा का,'अपनी छवि'को चमकाने के लिए सफल इस्तेमाल किया है.
1200 गुजरातियों की मौत का कारण बने मुस्लिम-विरोधी नरसंहार के 10 साल बाद मोदी न सिर्फ अपने अतीत को मिटाने में सफल रहे हैं, बल्कि उन्होंने राजनीतिक तरक्की से जुड़ी विलुप्त संभावनाओं को भी फिर से जिंदा किया है. इसके लिए उन्होंने, उनके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले “फासीवादी”, “जन संहारक” और “हिदुंत्व कट्टपंथी” जैसे विशेषणों की जगह अपनी पसंद की उपाधि ''विकास पुरुष'' को चुना है. भारत के बड़े बिजनेस घरानों के लिए मोदी “भारत के अगले नेता”, “भाविष्य का दृष्टीकोण रखने वाले”, “कभी न रुकने वाले” और “देश को नेतृत्व देने वाले” लीडर हैं. उनके बारे में ऐसा प्रचार करने वालों में टाटा, अंबानी और मित्तल के नाम शामिल हैं. हालांकि, भारत के बड़े उद्योगपतियों के साथ मोदी को अच्छी शुरुआत नहीं मिली थी. नौ साल पहले फरवरी 2003 में भारत के सबसे बड़े और सबसे महत्वपूर्ण व्यापार संघ "भारतीय उद्योग परिसंघ" (सीआईआई) ने दिल्ली स्थित अपने सभागार में एक विशेष सत्र का आयोजन किया था, “गुजरात के नए मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाकात''. इस मीटिंग को मोदी के विशेष अनुरोध पर आयोजित किया गया था. राज्य में हुए दंगों के बाद हुए चुनाव में उन्होंने जोरदार जीत हासिल की थी. लेकिन दंगों के लिए अभी भी उनकी सार्वजनिक रूप से निंदा की जा रही थी. ऐसा करने वालों में देश के बड़े व्यापारी भी शामिल थे. साथ ही साथ उन्हें हिंसा के बाद अव्यवस्थित हुई अर्थव्यवस्था से भी जूझना पड़ा रहा था.
गुजरात की सड़कों पर भीड़ ने जिस तरह कोहराम मचाया था, वो वहां के स्थानीय मुसलमानों तक सीमित नहीं रही थी. 1000 से ज्यादा ट्रकों और जनरल मोटर फैक्ट्री की ओपल एस्ट्रा कारों की एक खेप में आग लगाए जाने की घटना ने अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरीं. एक अनुमान के मुताबिक, दंगों के दौरान गुजरात में व्यापार को 20 खरब का नुकसान हुआ. सांप्रदायिक हिंसा की काली छाया ने अंतरराष्ट्रीय निवेशकों के भीतर घबराहट पैदा कर दी. सितंबर 2002 में तो नए विदेशी पूंजी निवेश का अकाल पड़ गया था. भारतीय उद्योगपतियों को यहां खुले तौर पर स्थिति के और बिगड़ने का डर था और वो इसे अपने व्यापार के लिए संकटमयी राज्यों में गिनते थे. ये स्थिति मोदी के आने से पहले की थी.
दंगों के बाद के महीनों में, भारतीय कॉर्पोरेट जगत के बड़े नामों ने खुले तौर पर अपने गुस्से और चिंता को जाहिर किया था. एचडीएफसी बैंक के सीईओ दीपक पारेख ने कहा था कि, 'भारत ने अपना धर्मनिरपेक्ष चेहरा खो दिया'. गुजरात में जो हुआ, उससे वो शर्मिंदा हैं.’ नौवाहन कंपनी एएफएल के सीएमडी सायरस गुजदार ने गुजरात में मुसलमानों के साथ जो हुआ, उसकी तुलना “नरसंहार” से की. बेंगलुरु के दो सबसे बड़े आईटी मुखिया इंफोसिस के नारायण मूर्ति और विप्रो के अजीम प्रेमजी ने इसकी कठोर सर्वजानिक निंदा की. साल 2002 में सीआईआई के एक राष्ट्रीय सम्मेलन में एनर्जी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी थर्मैक्स की अनू आगा ने गुजरात में मुसलमानों की पीड़ा पर जब एक आवेगहीन भाषण दिया तो लोग खड़े होकर तालियां बजाने लगे.
मोदी को पता था कि वो दबाव में है. लेकिन उन्हें ये भी पता था कि उन्हें गुजरात की जनता से जोरदार बहुमत हासिल हुआ है. चाहे दंगा हो या न हो, भारत के बड़े व्यापारियों के लिए गुजरात बेहद अहम है.
इसीलिए, वो उद्योग के दिग्गजों के बीच अपनी छवि सुधारने दिल्ली आए. लेकिन हमेशा की तरह उन्हें ये भी अपने ही शर्तों पर करना था.
मंच पर मोदी के साथ दो ऐसे बिजनेस घराने के लोग थे, जिनकी स्थिति ठीक नहीं थी. इनमें "जमशेद गोदरेज" और "राहुल बजाज" का नाम शामिल था. इनके अलावा सीआईआई के डायरेक्टर जनरल तरुण दास भी मौजूद थे. अगर मोदी को गोदरेज और बजाज से दोस्ताना स्वागत की उम्मीद थी तो, उनके हाथ निराशा ही लगी. गोदरेज ने पिछले महीने मुंबई में हुई एक घटना याद दिलाई. दरअसल ये घटना मोदी को चुनाव में मिली जीत से जुड़ी एक सार्वजनिक समारोह की थी, जहां ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर ने मोदी का उपहास किया था. इसी की याद दिलाते हुए गोदरेज ने मोदी को नसीहत दी कि, अपनी इस जीत के बाद वो हर गुजराती का बचाव और सुरक्षा सुनिश्चित करें.
बजाज तो इससे भी खुलकर बोले- उन्होंने साल 2002 को गुजरात के लिए “बर्बाद साल” घोषित कर दिया. उन्होंने मोदी की ओर देखते हुए पूछा, “हम कश्मीर, पूर्वोत्तर या उत्तर प्रदेश और बिहार में निवेश क्यों हासिल नहीं कर पाते? ये सिर्फ आधारभूत संरचना की कमी की वजह से नहीं बल्कि इसके पीछे असुरक्षा की भावना भी है. मुझे आशा है कि,गुजरात के साथ ऐसा नहीं होगा. ये सब दिमाग में पिछले साल हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना की वजह से आता है.”
बजाज एक बार फिर मोदी की ओर मुखातिब हुए, “हम जानना चाहेंगे कि आप किस बात में यकीन करते हैं, आप क्या हैं? क्योंकि नेतृत्व जरूरी है.” उन्होंने कहा, “आज आप गुजरात में अपनी पार्टी और सरकार के निर्विवाद नेता हैं और हम आपको अच्छी तरह से जानना चाहते हैं. हम हर तरह की सरकार के साथ काम करने को तैयार हैं, लेकिन हमारे समाज के लिए क्या बेहतर है और इसके लिए कौन-कौन सी चीज काम करती है, उस पर हमारी अपनी राय है.” आलोचनाओं की बाढ़ को मोदी ने धैर्य के साथ सुना, वे चुप, लेकिन उग्र थे.
मोदी ने भारतीय उद्योग के नेताओं के सामने दहाड़ते हुए कहा, “आप और आपके छद्म-धर्मनिरपेक्ष साथी अगर जवाब चाहते हैं तो गुजरात आ सकते हैं, मेरे लोगों से बात कर सकते हैं. गुजरात देश का सबसे शांतिप्रिय राज्य है.” कमरे में तनाव का माहौल व्याप्त हो गया. मोदी फिर गोदरेज और बजाज की ओर मुड़े, “गुजरात को बदनाम करने में दूसरे का स्वार्थ छुपा है, आपका स्वार्थ क्या है?”
अपने इस रोष को मोदी गुजरात वापस ले गए और तुरंत सीआईआई को ये दिखाने में लग गए कि असली सिक्का किसका चलता है. कुछ दिनों के भीतर मोदी के नजदीकी गुजरात व्यापारियों ने एक प्रतिद्वंद्वी संगठन बना लिया और इसे उन्होंने "गुजरात का पुनरुत्थान समूह (आरजीजी)'" नाम दिया. इसमें अडाणी ग्रुप के गौतम अडाणी, कडीला फार्मास्यूटिकल्स के इंद्रवाड़ा मोदी, निरमा ग्रुप के कर्सन पटेल और बकेरी इंजीनियर्स के अनिल बकेरी थे. इस समूह ने ये कहते हुए सीआईआई से अपने हाथ खींच लेने की धमकी दी कि, संस्था ने मोदी और सभी गुजरातियों का अपमान किया है. आरजीजी ने गुजरातियों के गर्व की कसम खाते हुए प्रेस में एक बयान जारी किया और मांग की कि सीआईआई के गुजरात चैप्टर को “राज्य के हितों की रक्षा में असफल रहने” की वजह से इस्तीफा दे देना चाहिए.
एक महत्वपूर्ण राज्य और इसके ताकतवर व्यापार समुदाय के खुले विरोध के बाद तरुण दास के पास डरने के पर्याप्त कारण थे. 100 से ज्यादा गुजराती कंपनियों ने धमकी दी थी कि वो सीआईआई छोड़ देंगी. अगर ऐसा होता तो, इससे पश्चिमी भारत में संस्था की उपस्थिति की कमर टूट जाती. दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अपने मंत्रियों तक सीआईआई की पहुंच पर लगाम लगा दी. जिससे इसके एक लॉबिंग की संस्था होने के मुख्य मिशन को गहरा धक्का लगा.
दास तब के वित्त मंत्री और मोदी के करीबी दोस्त, अरुण जेटली के पास पहुंचे. उन्होंने स्थिति ठीक करने की कोशिश की. दो घंटे तक जेटली के घर चली बातचीत में जेटली ने दास से सीआईआई और इसके इरादों से जुड़े सवालों की बौछार लगा दी और कहा कि वो इसके बारे में मोदी से बात करेंगे. मोदी जल्द ही जेटली के घर खाना खाने आने वाले थे.
कुछ दिनों बाद जेटली ने दास से कहा कि स्थिति को ठीक किया जा सकता है. मोदी को सीआईआई से एक औपचारिक माफी चाहिए. दास ऐसा करने के लिए आतुर थे,हालांकि उन्हें थोड़ी हिचकिचाहट भी हो रही थी. ये बात उन्होंने रिटायरमेंट के बाद बिजनेस टुडे को दिए गए एक इंटरव्यू में सार्वजनिक की.
दास ने कहा था, “जिस शाम मैं मोदी से मिलने जा रहा था (उन्हें माफीनामा देने के लिए), मेरी बीबी ने टोकते हुए मुझसे कहा, ‘आप ये नहीं कर सकते...’ हमारे करीबी दोस्तों में अनु आगा, अजीम प्रेमजी, जमशेद गोदरेज और मुस्लिम और पारसी समुदाय के कई लोग हैं. मेरा जवाब था कि, मेरे पास दो विकल्प हैं, मैं ये त्याग सकता हूं और कह सकता हूं कि मैं ये नहीं करूंगा, नहीं तो मुझे मेरे सदस्यों का ध्यान रखना होगा.”
दास ने अपने जवाब को माफी से कमतर करके पेश करना बेहतर समझा,(उन्होंने कहा, “ये एक माफीनामा नहीं था लेकिन हमें आशंका थी कि, मीडिया इसी तौर पर पेश करेगा.”) लेकिन अहमदाबाद जाकर उन्होंने मोदी को खुद चिट्ठी दी वो अपनी कहानी खुद बयां करती है, “अपको जो ठेस लगी और जो दर्द हुआ, उसके लिए सीआईआई के हम लोग काफी दुखी हैं और छह फरवरी के बाद से उपजी गलतहमी को लेकर मैं बेहद खेद प्रकट करता हूं. इसी दिन दिल्ली में हमारी मुलाकात हुई थी.” तीन महीने बाद इस सुलह को आगे बढ़ाते हुए सीआईआई ने निवेशकों के साथ मोदी की पहली अंतर्राष्ट्रीय मुलाकात ज्यूरिख में हुए 'विश्व आर्थिक फोरम' में कराई.
सीआईआई के एक पूर्व अधिकारी ने मुझसे कहा, “समय के साथ एक-एक करके मोदी ने व्यापार समुदाय में सबके ऊपर जीत हासिल कर ली. पहले-पहले जब बजाज और गोदरेज ने बोलना शुरू किया तो लोगों ने गौर किया मोदी के खिलाफ बोलने वाले मुख्यत: पारसी समुदाय के लोग हैं. सबको लगा कि पारसी समुदाय असुरक्षित महसूस कर रहा है. लोगों ने मोदी के खिलाफ के प्रतिरोध का ये मतलब निकाला. मोदी ने ये महसूस किया और उन्होंने वाइब्रेंट गुजरात के एक समारोह के दौरान रतन टाटा को वाजपेयी के हाथों पुरस्कार दिलवा दिया, बस काम हो गया. इस मामले में मोदी बहुल चालाक, बहुत धूर्त हैं, आपको पता ही है. वो अपनी पत्ते आराम से खोलते हैं.”
ये किसी से छुपा नहीं है कि मोदी अगले 2014 आम चुनाव में बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार बनना चाहते हैं. पार्टी के भीतर के लोग पहले से ही ये संभावनाएं जता रहे हैं कि वो दिल्ली शिफ्ट होकर बीजेपी की अध्यक्षता अपने हाथों में ले सकते है. इसके पीछे प्रतिद्वंदियों को किनारे करने और खुद को राष्ट्रीय स्तर पर और प्रमुखता से पेश करने की मंशा है. इंडिया टुडे के जनवरी में कराए गए एक पोल में 24 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वो मोदी को अपने अगले पीएम के तौर पर देखना चाहते हैं. इस सर्वे में मोदी पहले नंबर पर थे. यहां गौर करने लायक बात यह है कि पिछले छह महीनों में इसी सर्वे में उनके नंबर दोगुने हो गए हैं. लेकिन 2012 मोदी के लिए एक अहम साल है, गुजरात दंगों के 10 साल पूरे होने के साथ-साथ उनका तीसरा विधानसभा चुनाव भी होने वाला है. घर में मोदी की एक और जीत उन्हें और ऊंचाई देगी और अगर वो हारते हैं, जिसकी संभावना नहीं है या बहुत कम है, तो उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.
(2)
नरेंद्र मोदी की कहानी कई ऐसी संस्थाओं की कहानी है, जिनके तहत उनको पाला-पोसा और प्रशिक्षित किया गया था. ये बीती आधी सदी में उनकी संस्थाओं के राजनीतिक उदय और उनके बीच मोदी के बढ़ते कद की कहानी है.
मोदी के लिए इनमें से पहली और सबसे अहम संस्था 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' है. ये वो संस्था है, जिसने उन्हें बनाने और उनके वैश्विक विचार तैयार करने में अहम भूमिका निभाई. साथ ही, उनकी राजनितिक महत्वकांक्षा को पर भी दिए.
1925 में अपनी स्थापना के बाद के दशकों में आरएसएस या संघ ने एक उग्रवादी हिंदुत्व को बढ़ावा दिया, जिसने गांधी के अहिंसक और सहिष्णु हिंदुत्व को चुनौती दी. ठीक इसी समय आरएसएस ने एक कट्टर धार्मिक राष्ट्रवाद का प्रचार किया,जिसने देश को हिंदू राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने की मांग की. ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के ठीक विपरीत था. आज़ादी और बंटवारे के समय तक, गांधी और कांग्रेस के लिए हिंदू दक्षिणपंथ के भीतर इतनी नफरत फैल गई थी कि आरएसएस के नाथूराम गोडसे ने 1948 में महात्मा गाँधी की हत्या कर दी. नेहरू ने आरएसएस को बैन कर, 20000 से ज्यादा आरएसएस कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया.
1949 में संघ पर से बैन हटा लिया गया. लेकिन चार दशकों तक बने रहने की वजह से इसने एक भूमिगत संस्था का रूप अख्तियार कर लिया था. गुजरात में इसके विकास की बागडोर शांत और मेहनती लक्ष्मणराव इनामदार ने संभाली और आरएसएस में ''वकील साहेब'' के नाम से मशहूर इनामदार इसे आगे ले गए. इनामदार ने राज्य भर में शाखाओं को फैला दिया और धीरज के साथ जमीन से जुड़े कार्यकर्ता तैयार करने लगे. इन स्वयंसेवकों में एक आठ वर्षीय लड़का वडनगर के छोटे लेकिन पौराणिक रूप से महत्वपूर्ण शहर में शाखा में शामिल हो गया. जिसका नाम था'' नरेन्द्र मोदी.''
वडनगर की ये शाखा 1944 में बाबूभाई नायेक नाम के एक स्कूल टीचर ने स्थापित की थी. वो महाराष्ट्र के उन कई संघ कार्यकर्ताओं में से एक थे,जो देश भर में फैल कर शिक्षा संस्थानों में दाखिला ले लेते थे ताकि युवाओं को आरएसएस में भर्ती कर सकें. गांधी की हत्या के बाद नायेक शांति से अपने काम पर ध्यान देने लगे, लेकिन वो कभी कभार राज्य के नेता वकील साहेब की आवभगत भी करते, ताकि भर्ती किए गए नए लोगों को संबोधित किया जा सके. 1958 में दीवाली के दिन जो बच्चे वकील साहेब से बाल स्वयंसेवक की शपथ लेने के लिए लाइन में लगे थे, उनमें एक नरेन्द्र मोदी भी थे.
नरेन्द्र मोदी के सबसे बड़े भाई सोमभाई मोदी ने मुझे बताया, “नरेन्द्र हमेशा कुछ अलग करना चाहता था. 'उससे कुछ ज्यादा', जो हम रोज घर और स्कूल में काम के तौर पर करते थे, और आरएसएस की शाखा ने उन्हें ये दे दिया.”
दामोदर मूलचंद मोदी और उनकी पत्नी हीराबेन के छह बच्चों में मोदी तीसरे थे. ये परिवार जाति व्यवस्था में नीचे आने वाली ‘घांची’ जाति से है, जो मध्यकालीन शहर वडनगर की संकीर्ण और घुमावदार गलियों के भीतर रहता था. घांची जाति के लोग परंपरागत तौर पर सब्ज़ी का तेल निकालने और बेचने वाले रहे हैं. लेकिन अपने बड़े परिवार को चलाने के लिए दामोदरदास मोदी वडनगर रेलवे स्टेशन पर एक चाय की दुकान भी चलाते थे, जबकि हीराबेन और बच्चे तेल के मिल का जिम्मा संभालते थे. वडनगर में आयुर्वेदिक इलाज करने वाले मोदी के साथ स्कूल में पढ़ चुके डॉक्टर सुधीर चौधरी कहते हैं, “सुबह के समय नरेन्द्र रेलवे स्टेशन पर अपने पिता की मदद किया करते और जब स्कूल की घंटी बजती तो वो रेल की पटरियां पार करके क्लास में आ जाते थे”.
मोदी ने वडनगर के प्रवेश द्वार पर स्थित, एक को-एड गुजराती-मीडियम संस्थान भगवताचार्या नारायणचार्या हाई स्कूल से पढ़ाई की है. मोदी के संस्कृत के शिक्षक रहे प्रह्लाद पटेल ने मुझे बताया ,राज्य के सीएम (मोदी) उन्हें “एक साधारण छात्र के तौर पर याद हैं. लेकिन उनकी डिबेट यानी बहस और रंगमंच में खासी रुचि थी. मैंने स्कूल में डिबेट क्लब बनाया और मुझे याद है, मोदी इस क्लब के नियमित छात्रों में थे.
सुधीर जोशी ने मुझे बताया, “क्लास के बाद हम शाम को अपनी किताबें घर छोड़कर सीधे शाखा की ओर भाग जाते थे.”
सोमभाई ने मुझे बताया, “मां-बाप की मदद करने और स्कूल जाने के बाद ये शाखा ही थी, जिसे वो इन सबसे ज्यादा गंभीरता से लेते थे. नरेन्द्र ने नमक और तेल खाना बंद कर दिया तो हमें लगा कि,वो एक वैद्य बनने के मिशन पर हैं.”
जैसा कि उनके भाई बताते हैं “कुछ ज्यादा” की तलाश में एक युवा मोदी को, आरएसएस ने एक उद्देश्य की भावना और दिशा दी. लेकिन वो अपने उद्देश्य को लेकर निश्चित नहीं थे कि, क्या उन्हें पुरोहित जैसी ज़िंदगी जीनी चाहिए या हिंदुत्व के विकास के लिए कार्यकर्ता का काम करना चाहिए. उनके परिवार वालों ने उनकी शादी की तैयारी शुरू कर दी. ये वडनगर के घांची जाति की परंपरा पर आधारित थी.जो ''तीन चरणों'' में होती थी. इसकी शुरुआत तीन-चार साल की उम्र में सगाई से होती थी. जिसके बाद एक धार्मिक आयोजन (शादी) 13 साल की उम्र में होता था और 18 से 20 साल की उम्र में तब गौना (सहवास) होता था, जब परिवार को लगता था कि इसका समय आ गया है. मोदी की सगाई उनसे तीन साल छोटी लड़की जशोदाबेन चिमनलाल से हुई. वो पास के ब्राह्मणबाड़ा गांव से थीं. सोमभाई ने मुझे बताया कि,उन्होंने 13 साल की उम्र में ही शादी की रस्म पूरी कर ली. लेकिन बड़े उद्देश्य की तलाश में मोदी हिमालय चले गए और अपनी पत्नी और दो परिवारों को अनिश्चि में छोड़ दिया.
अपनी इस यात्रा के दौरान की बात बताने का इकलौता माध्यम ''मोदी खुद'' हैं. यहां तक कि उनके परिवार को भी पता नहीं था कि वो कहा हैं? सोमभाई ने याद किया, “हमें कुछ नहीं पता था कि,वो कहां गायब हो गए? फिर दो साल बाद वो अचानक से लौट आए. उन्होंने हमसे कहा कि उन्होंने अपना सन्यास समाप्त करने का फैसला लिया है और वो अब अहमदाबाद जाकर हमारे चाचा बाबूभाई की कैंटीन में काम करेंगे.”
अहमदाबाद में मोदी ने बस स्टैंड के पास स्थित कैंटीन चलाने में अपने अंकल की मदद की और फिर गीता मंदिर के पास साइिकल पर अपनी चाय की दुकान लगा ली. उस समय अहमदाबाद में रहने वाले एक वरिष्ठ संघ प्रचारक ने याद किया कि यही वो समय था, जब मोदी ने संघ में लौटने का फैसला लिया. हालांकि, कई और लोगों की तरह इस प्रचारक ने भी इस डर से कि कहीं मुख्यमंत्री नाराज न हो जाएं, अपना नाम छापने से मना कर दिया. उन्होंने कहा, “सुबह की शाखा से लौटने के बाद कुछ प्रचारक उनकी रेहड़ी से चाय पिया करते थे. वडनगर की शाखा की पृष्ठभूमि होने की वजह से मोदी ने उन्हें प्रभावित किया. जल्द ही वो अपनी रेहड़ी समेटकर आरएसएस के राज्य मुख्यालय पहुंच गए और वहां सहायक के काम पर लग गए.”
मोदी ने अधिकृत तौर पर उनकी जीवनी लिखने वाले एमवी कामथ से कहा, “जब वकील साहब ने मुझे उनके साथ जुड़ने के लिए बुलाया तो (गुजरात में आरएसएस के मुख्यालय हेडगेवार भवन में) वहां 12 से 15 लोग एक साथ रह रहे थे. मैं तब संघ कार्यालय में काम कर रहा था और मुझे लगा कि यही वो जगह है,जहां मुझे होना चाहिए.” जैसा मोदी ने याद किया कि उनका रोज का रुटीन सुबह प्रचारकों के लिए चाय और नाश्ता तैयार करना था, “जिसके बाद पूरी बिल्डिंग जिसमें आठ से नौ कमरे थे,साफ करनी पड़ती थी. मैं यहां झाड़ू-पोछा भी लगाता और वकील साहेब के और अपने कपड़े भी धोता था...कम से कम एक साल तक ये मेरा रुटीन था. यही वो समय था जब मैं कई लोगों से मिला.” हेडगेवार भवन में मोदी का आवास संघ के लिए गुजरात और देश भर में एक अहम दौर था. इस दौर में संघ ने अपनी कट्टरपंथी भूमिगत संप्रदाय की छवि त्याग दी और एक वैध और ताकतवर राजनीतिक ताकत के तौर पर उभरी.
अहमदाबाद स्थित एक बड़े समाज वैज्ञानिक त्रिदीप सुह्रुद के मुताबिक ऐसे ''चार कारण'' थे जिन्होंने गुजरात में आरएसएस को “खुलकर समाने आने” में मदद की. सुह्रुद ने कहा, “पहला 1974 का नवीरमण आंदोलन था. ये मुख्यतौर पर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के बीच शुरू हुआ,जिसका कारण होस्टल में बढ़ी खाने के कीमत थी. लेकिन तुरंत ये राज्य की बेहद भ्रष्ट सरकार के खिलाफ राज्यव्यापी छात्र आंदोलन में तब्दील हो गया. दूसरा कारण इमरजेंसी थी, इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई में गांधीवादियों और समाजवादियों के महागठबंधन में आरएसएस ने सक्रिय भाग लिया. तीसरा कारण, दान में आरएसएस की भूमिका थी. 1971 में जब राज्य में महामारी फैली तो संघ ने अपने कर्यकर्ताओं को इकट्ठा किया और 1979 में जब मच्छु नदी के पास एक बांध टूट गया और हजारों लोग मारे गए तो आरएसएस ने फिर ऐसा ही किया. अंतत: संघ को राज्य के रजवाड़े परिवारों की नाराजगी का फायदा मिला. 1971 में इंदिरा गांधी ने इनसे इनकी पदवी और इन्हें मिलने वाले पैसे छीन लिए. इसलिए ये लोग उस राजनीतिक ताकत की ओर देख रहे थे, जो इंदिरा विरोधी हो.”
गुजरात आरएसएस में मोदी ने जल्दी ही बड़ी जिम्मेदारियां हासिल कर लीं. जिनमें सफर कर रहे संघ कार्यकर्ताओं के ट्रेन और बस का टिकट करवाना भी शामिल था. वहीं, हेडगेवार भवन में आई चिट्ठियां भी वहीं खोलते थे. इसी दौरान मोदी एक महीने के ऑफर ट्रेनिंग कैंप में हिस्सा लेने आरएसएस के राष्ट्रीय मुख्यालय नागपुर गए. संघ में आधिकारिक पद पाने के लिए ये उनके लिए जरुरी था. एक वरिष्ठ प्रचारक ने मुझे बताया, “आरएसएस में गंभीरता से लिए जाने के लिए, पहले लेवल की ट्रेनिंग जरूरी थी और मोदी जब 22 या 23 साल के थे, तभी ये ट्रेनिंग उन्होंने पूरी कर ली थी.” उसके बाद मोदी को गुजरात में आरएसएस की छात्र इकाई आखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) का 'प्रचारक इन चार्ज' बना दिया. इमरजेंसी के दौरान उनके पास ये पद था. एबीवीपी जैसी खुलकर काम करने वाली संस्था के मामले में संघ के प्रचारक इन चार्ज को एक भूमिगत गाइड की तरह काम करना होता है. जैसे कोई नस चमड़े के भीतर छुपी हो, अपना काम लोगों की नजर से बचकर करना होता है. लेकिन मोदी का निजी तरीका जो ऐसी पाबंदियों को कुछ नहीं समझता था पहले से खुलकर सामने आ रहा था.
एक वरिष्ठ प्रचारक, जो 1970 के दौरान गुजरात एबीवीपी के सदस्य थे, उन्होंने मुझे बताया, “बेहद छोटी चीजों पर भी मोदी की साफ राय थी और वरिष्ठ नेताओं को लगता था कि वो लोगों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं. संघ के नेताओं को ये पंसद नहीं था.”
प्रचारक ने इमरजेंसी के दौरान हुई ऐसी ही घटना का जिक्र किया. “हम एबीवीपी वालों को आसपास पड़ोस में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने को कहा गया था. एक दिन हम लोग अहमदाबाद के भुल्लाभाई चार रास्ता पर मीटिंग कर रहे थे.” उन्होंने कहा, “हमें सरकार के खिलाफ बोलना था,लेकिन हमें अपनी लहजे का ध्यान भी रखना था. क्योंकि यही संघ का तरीका था. वहीं, पुलिस और खुफिया तंत्र भी हमारे ऊपर नजर बनाए हुए थे. लेकिन जब मीटिंग चल रही थी तो, नरेन्द्र भाई वहां साइकिल से गुजरे. वह हमारे विरोध की रचनात्मक शांति देख कर आग बबूला हो, मंच पर कूद गए और माइक अपने हाथों में ले गर्मजोशी से भरा भाषण देने लगे. उन्होंने गालियों का इस्तेमाल भी किया और सरकार के खिलाफ जमकर अपना गुस्सा दिखाया.”
उन्होंने कहा,“लोगों को ये बहुत पसंद आया. लेकिन उस रात हेडगेवार भवन में वरिष्ठ आरएसएस नेताओं ने मोदी को उनके घातक और अनचाहे कदम के लिए फटकार लगाई. ये फटकार इसलिए लगाई गई थी कि एक अंडरग्रांउड प्रचारक खुले में आ गया था. उन्होंने मोदी को उपदेश दिया ‘बोलने के बारे में तो भूल ही जाओ. तुम्हें वहां नहीं जाना चाहिए था. अगर मीटिंग फेल हो जाती तो कोई बात नहीं होती, लेकिन अपनी भूमिका के प्रति अनुशासन और आज्ञाकारिता सबसे ऊपर होती है.’”
संघ और इसकी विचारधारा के लिए उनकी निष्ठा मोदी के व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती थी. क्योंकि संघ के संगठन की संरचना और शैली, समूह को किसी निजी व्यक्ति से ऊपर रखती है और व्यक्ति के गुस्से को काबू में रखती है. वहीं नेतृत्व द्वारा स्थापित प्रोटोकॉल का सम्मान करना इसके लिए सबसे अहम है.
शंकरसिंह वाघेला, आरएसएस और बीजेपी में मोदी के सीनियर थे. वो बाद में गुजरात के सीएम भी बने. वाघेला, मोदी के कट्टर प्रतिद्वंदी थे. उन्होंने याद करते हुए कहा कि, जब मोदी युवा थे तब भी आरएसएस की कार्यशैली की परवाह नहीं करते थे. वाघेला ने कहा, “मोदी देर तक सोने की वजह से अक्सर सुबह की शाखा से गायब रहते थे. वो समूह में मौजूद लोगों से हमेशा अलग काम करने की कोशिश करते. अगर हम सब लंबी बांह का कुर्ता पहनते, तो वो छोटी बांह का पहन लेते. जब हम सब खाकी का निक्कर पहनते तो वो सफेद निक्कर पहन लेते. और मुझे याद है, एक दिन जब गोलवलकर आए तो उन्होंने सबके सामने मोदी से, छंटी हुई दाढ़ी रखने के बारे में सवाल किए.”
लेकिन मोदी के भीतर अनुशासन की कमी पर वो प्रतिष्ठा भारी थी, जो उन्होंने एक कुशल और कर्तव्यपूर्ण आयोजक के रूप में अर्जित की थी, अगर नेता उन्हें किसी काम का जिम्मा सौंपते, तो वो निश्चिंत हो जाते थे कि काम पूरा हो जाएगा. इमरजेंसी के दौरान जब संघ को छुपाकर अपना साहित्य छापना था तो, इस काम को गुजरात भेज दिया गया और मोदी ने कुशलतापूर्वक कई भाषाओं में लाखों पर्चे छपवाने का काम किया. उसके बाद उन्हें सुरक्षित और गुपचुप तरीके से देश भर में संघ की शाखाओं में भेज दिया गया. ये बात मुझे दूसरे वरिष्ठ प्रचारक ने बताई. एक और मौके पर संघ के लिए खुलकर काम करने वाली इसकी एक और संस्था विश्व हिंदू परिषद ने जब गुजरात में अपनी राज्यव्यापी मीटिंग का आयोजन किया तो,मोदी को सम्मेलन की योजना और आयोजन की जिम्मेदारी मिली. इस दौरान उनके जिम्मे भारी मात्रा में कैश की देख रेख का भी काम था. वीएचपी नेता कैश को लेकर चिंतित थे,लेकिन मोदी ने एक देहाती लेकिन व्यावहारिक समाधान निकाला, उन्होंने जमीन में गड्ढा खोदकर इसके ऊपर अपना बिस्तर लगा लिया.
कुछ ही सालों के भीतर, एक आयोजक और कार्यकर्ता के रूप में मोदी के कौशल ने उन्हें गुजरात में आरएसएस के लिए अनिवार्य बना दिया. लेकिन उन्हें एहसास हुआ कि संघ नेताओं के मैनेजर से एक नेता बनने के लिए बहुत कुछ करना होगा. इमरजेंसी के दौरान उन्होंने जिन वरिष्ठ लोगों की मदद की थी, उनमें से कई संसद और विधानसभा में पहुंच गए थे, बाकी लोग गुजरात में जनता पार्टी की सरकार में मंत्री बन गए थे. मोदी नागपुर लौटे और आरएसएस मुख्यालय में दो अतिरिक्त कोर्सों की ट्रेनिंग पूरी की. वरिष्ठ प्रचारक ने मुझसे कहा, “वो महत्वाकांक्षी थे और उन्हें पता था कि लेवल दो और तीन की ट्रेनिंग के बिना न तो वो कभी बीजेपी में पहुंच पाएंगे और न हीं बड़े नेता बन पाएंगे.”
इमरजेंसी समाप्त होने के एक साल बाद 1978 में मोदी को मध्य गुजरात के छह जिलों में आरएसएस का प्रचारक इन चार्ज बनाया गया. महज तीन साल बाद जब वो 31 साल के थे, उन्हें फिर पदोन्नति मिली. इसके बाद वो पूरे गुजरात में संघ और इसके लिए खुलकर काम करने वाले संगठनों के बीच संपर्क का केंद्र बन गए.
(3)
आरएसएस के अंदर मोदी का तेजी से उदय हुआ लेकिन असली राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए उन्हें आरएसएस के विशुद्ध विचारधारात्मक क्षेत्र से बाहर निकल कर बीजेपी में पहुंचना था. इसकी शुरुआत 1987 में तब हुई जब उन्हें गुजरात में संगठन सचिव नियुक्त किया गया. यह व्यक्ति राज्य में आरएसएस का वह व्यक्ति होता है जिसे बीजेपी को देखना होता है. वह बीजेपी के राज्य के राष्ट्रीय अध्यक्ष की तरह नहीं होता जो लोकप्रिय हस्तियां होती हैं. संगठन सचिव का काम गुप्त और पीछे से पार्टी को चलाना होता है. वह आरएसएस और इसी राजनीतिक शाखाओं के बीच एक "पुल" की तरह होता है.
गुजरात में मोदी आठ साल संगठन सचिव रहे. संयोग से यही वह समय था, जब राज्य में बीजेपी का अभूतपूर्व विकास हुआ. इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 1985 में बीजेपी के पास 11 सीटें थीं और एक दशक बाद पार्टी के पास 121 सीटें हो गईं. हालांकि राज्य में पार्टी के पास दो बहुत ही वरिष्ठ नेता केशुभाई पटेल और शंकरसिंह वाघेला थे. दोनों ही बीजेपी के अध्यक्ष रहे चुके थे. लेकिन अब मोदी भी राज्य में ताकत का तीसरा केंद्र बन गए थे. इस ताकत के तहत वह गठबंधन बनाने के फैसले से लेकर, राज्य और केंद्र में उम्मीदवारों के चयन तक को प्रभावित करते.
इस दौरान गुजरात में सांप्रदायिक दंगों की तीन बड़ी घटनाएं हुईं और हर दंगे में मरने वालों की संख्या पिछले दंगे से ज्यादा होती. 1985 में 208 लोगों की मौत हुई, 1990 में 219 लोगों की मौत हुई और 1992 में 441 लोगों की मौत हुई. राज्य में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव से बीजेपी को फायदा हुआ और पार्टी के हिंदू वोट बढ़ते चले गए. तनाव को भुनाने के लिए बीजेपी ने रोडशो का आयोजन कर दो राज्यव्यापी अभियान लॉन्च किए. जिनमें मोदी ने पर्दे के पीछे अहम भूमिका निभाई. 1987 में निकाली गई पहली यात्रा का नाम न्याय यात्रा और 1989 में निकाली गई दूसरी यात्रा का नाम लोक शक्ति रथ यात्रा था. 1990 में जब बीजेपी अध्यक्ष आडवाणी ने अपनी अयोध्या रथयात्रा की शुरुआत की, जिसके तहत बाद में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई, तो उन्होंने इस यात्रा की शुरुआत गुजरात के सोमनाथ मंदिर से ही की. इस अभियान के पहले पड़ाव का सारा इंतजाम मोदी ने ही किया था. इसके अगले साल मोदी को पहला राष्ट्रीय कार्यभार मिला जब उन्हें बीजेपी के नए अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में उन्हें देशव्यापी यात्रा का आयोजक बनाया गया. इसकी शुरुआत दक्षिणी छोर के तमिलनाडु से होकर श्रीनगर में तिरंगा फहराए जाने पर संपन्न हुई.
1990 की शुरुआत में हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन का उदय हो गया था और साथ ही यह एक दुर्जेय राजनीतिक ताकत में भी तब्दील हो गया था. चुनावी मामले में बीजेपी के पास संसद में गठबंधन का भाग्य तय करने के लिए पर्याप्त सीटें थीं और पार्टी अपनी बूते भी कुछ राज्यों में सरकार बनाने में सफल रही थी. इसने साबित कर दिया था कि धार्मिक जोश वाली भीड़ को सड़कों पर लाने में यह पार्टी पारंगत है और इसका बड़ा उदाहरण बाबरी मस्जिद मामला और जोशी का कश्मीर में लंबामार्च था.
एकता यात्रा की अवधि के दौरान मोदी ने इसका रूट तय किया और रास्ते में प्रत्येक जगह पर समारोह का आयोजन किया. मोदी ने उन्हें दिए गए काम को बखूबी निभाया. लेकिन यात्रा में शामिल एक पार्टी नेता को याद है कि उस वक्त भी संकेत मिल रहे थे कि मोदी आदेशों का पालन करने वाले भर नहीं हैं. पार्टी नेता ने कहा कि मोदी अक्सर जोशी के निर्देशों से छिटक जाते. उन्होंने एक छोटी घटना बताई जिसमें जोशी ने आग्रह किया था कि यात्रा में शामिल बड़े राष्ट्रीय नेताओं से लेकर छोटे कार्यकर्ता एक साथ खाना खाएंगे. लेकिन मोदी अक्सर गायब हो जाते और अपने ही काम में लगे रहते. उन्होंने कहा, “जब यात्रा बेंगलुरु पहुंची तो अनंत कुमार और मोदी गायब हो गए. अनंत कुमार बेंगलुरु के नेता थे. जब जोशी ने पाया कि मोदी साथ खाना नहीं खा रहे हैं तो वह आग बबूला हो गए. अगली सुबह जोशी ने मोदी को हम सबके सामने डांट लगाई और कहा कि उन्हें ठीक से रहना चाहिए. अनुशासन पवित्र चीज है. वह भले ही यात्रा को आयोजित कर रहे हैं लेकिन अनुशासन उन पर भी लागू होता है.”
लेकिन यात्रा के बाद जब मोदी गुजरात लौटे तो और अधिक स्वयत्ता से काम करने लगे. जिससे उनके और शंकरसिंह वाघेला के बीच विवाद पैदा हो गया. वाघेला मोदी से 10 साल सीनियर थे और बीजेपी में बेहद ताकतवर भी. वह पार्टी में फंड लाने वाले और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से गठबंधन बनाने वाले प्रमुख व्यक्ति थे. लेकिन राज्य में वाघेला के ऊपर केशुभाई पटेल थे जो बीजेपी की सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री बनते. मोदी से उम्मीद थी कि वह बीजेपी और आरएसएस के बीच “पुल” का काम करेंगे लेकिन उनके आदेश देने की प्रवृति और अपने मनमाफिक काम करने की वजह से बीजेपी नेताओं में विवाद पैदा होने लगा. तब बीजेपी के महासचिव और प्रमुख पार्टी विचारक के गोविंदाचार्या ने कहा, “वह एक मेहनती व्यक्ति हैं लेकिन उन्हें छोटे कद का काम पसंद नहीं था. मोदी केशुभाई और शंकरसिंह वाघेला के कद का होना चाहते थे.”
वाघेला ने मुझे बताया, “मोदी बीजेपी के रोजमर्रा के काम में दख्ल देने लगे जबकि पार्टी अध्यक्ष के तौर पर वह मेरा काम था. पार्टी के संविधान के मुताबिक संगठन सचिव को सिर्फ पार्टी को निर्देश देना होता है उन्हें लागू करवाने का काम उसका नहीं होता.”
इस समय बीजेपी विपक्ष में थी. दोनों नेताओं के बीच दरार बढ़ गई और विचारधारात्मक रूप से नैतिकतावादियों ने साथ मिलकर एक लक्ष्य की सेवा करने की ठानी. यह लक्ष्य राज्यव्यापी चुनावों में जीत हासिल करने का था. बीजेपी कार्यकर्ताओं के पास वोटरों को मैनेज करनी की कोई खास ट्रेनिंग नहीं थी. उन्हें वोटर रिकॉर्ड मेंटेन करना नहीं आता था. उन्हें बूढ़े और बीमार लोगों के लिए परिवहन की व्यवस्था भी नहीं आती थी जिसका फायदा विपक्ष उठा ले जाता था और कुछ ऐसे मजेदार नुस्खे भी थे जो दूसरी पार्टी के अनुभवी कार्यकर्ता खूब जानते थे. मोदी, वाघेला और पटेल आरएसएस, वीएचपी और एबीवीपी के 150000 लोगों को ट्रेनिंग देने के लिए साथ ले आए. यह 1995 के चुनाव के ठीक पहले की बात है. इससे चुनाव में बीजेपी को खूब फायदा हुआ था.
182 सदस्यों वाली विधानसभा में बीजेपी की सीटों की संख्या जहां 67 से 121 यानी दोगुनी हो गई वहीं कांग्रेस 45 सीटों पर सिमट गई. पार्टी ने पटेल को सीएम चुना और मोदी उनके साथ ज्यादा समय बिताने लगे. जिसकी वजह से वाघेला और अकेले पड़ गए. उन्हें इसका भी एहसास हुआ कि दोनों नेता मिलकर उनके खिलाफ मोर्चा खोल रहे हैं. वाघेला ने मुझसे कहा, “मोदी हर रोज केशुभाई के साथ दोपहर और रात का खाना खाने लगे और उनके कान भरते कि मैं उनके खिलाफ विद्रोह की तैयारी कर रहा हूं और उन्हें विधायकों को मुझसे दूर रखना चाहिए.”
लेकिन वाघेला भी महत्वाकांक्षी और अधीर थे. 1995 में वह बीजेपी के आधे विधायकों को मध्य प्रदेश के एक रिसॉर्ट में लेकर चले गए और धमकी दी कि अगर पटेल को हटाकर उन्हें सीएम नहीं बनाया गया तो सरकार गिरा देंगे. केंद्रीय नेतृत्व को दखल देना पड़ा और अटल बिहारी वाजपेयी को मसले को हल करने के लिए गुजरात जाना पड़ा.
पटेल को एक तीसरे उम्मीदवार सुरेश मेहता के लिए स्थान छोड़ने को कहा गया और मोदी को सजा देकर बीजेपी का राष्ट्रीय सचिव बनाकर दिल्ली भेज दिया गया जहां उन्हें पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर की जिम्मेदारी सौंप दी गई.
1996 के लोकसभा चुनाव में उम्मीद के विपरीत वाघेला लोकसभा चुनाव हार गए. इसके लिए उन्होंने आरएसएस, मोदी और पटेल को दोष दिया. बीजेपी से नाता तोड़कर उन्होंने बागी उम्मीदवारों के साथ नई पार्टी बना ली. मेहता की सरकार गिर गई और कांग्रेस के समर्थन से वाघेला मुख्यमंत्री बन गए.
दिल्ली में निर्वासन झेल रहे मोदी के लिए यह किसी चमत्कार की तरह था. पार्टी मुख्यालय में रोज उनका बीजेपी के कई राष्ट्रीय नेताओं के साथ उठना-बैठना होता ही था. मोदी ने वाघेला के दल-बदल का खूब लाभ लिया. वह जिस किसी से मिलते उससे यही कहते वह पहले व्यक्ति थेजिन्होंने वाघेला के बारे में पार्टी को चेताया था. इसकी वजह से परोक्ष और विडंबनात्मक रूप से मोदी का कद बढ़ गया. 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो एक बार फिर मोदी की पदोन्नती हुईऔर वह पार्टी के राष्ट्रीय संगठन सचिव बनाए गए. इस पद का व्यक्ति देश भर में बीजेपी और आरएसएस के बीच सेतु का काम करता है.
भारतीय जन संघ और बीजेपी के पांच दशक के इतिहास में पहले सिर्फ तीन संगठन सचिव हुए हैं. विचारधारात्मक रूप से तीनों विशुद्ध निष्ठावान संघी थे. मोदी से पहले इस पद पर जो लोग रहे उन्होंने मीडिया से दूरी बनाए रखी और पर्दे के पीछे से काम किया लेकिन मोदी चकाचौंध चाहते थे.
1999 के करगिल युद्ध और उसके बाद वाजपेयी और जनरल परवेज मुशर्रफ के बीच रही असफल बातचीत के दौरान मोदी लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस कर टीवी पर नजर आने लगे. इस दौरान वह अपना राष्ट्रवादी जोश भी दिखाने लगे जो बाद में चलकर उनकी असल पहचान बना. टीवी डिबेट के दौरान जब उनसे पूछा गया कि पाकिस्तान के उकसावे का क्या जवाब होना चाहिए? तो उन्होंने कहा,“चिकन बिरयानी नहीं, बुलेट का जवाब बम से दिया जाएगा.”
उधर गुजरात में कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से वाघेला की सरकार जल्द ही गिर गई और मुख्यमंत्री के तौर पर केशुभाई पटेल की वापसी हुई. इस दौरान वह, संजय जोशी, हरेन पांडेया और गोवर्धन झाडापिया जैसे युवा नेताओं से घिरे थे जबकि दिल्ली में बैठे मोदी अभी तक इस फ्रेम से गायब थे. लेकिन पटेल के नेतृत्व में बीजेपी कई स्थानीय चुनाव हार गई और 2001 के दो उपचुनावों में भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. इसके पीछे की बड़ी वजह कच्छ में आए भूकंप के बाद स्थिति को सही तरीके से नहीं संभाल पाना था. इस दौरान केंद्र में मोदी अपने पूर्व सहयोगी पटेल के खिलाफ चुपचाप अभियान चलाने लगे.
उस वक्त दिल्ली में वरिष्ठ पद पर बैठे एक बीजेपी नेता ने बताया, “मोदी हमसे शिकायत करते कि कैसे केशुभाई असफल हो रहे हैं और कैसे वह सिर्फ ''विकास के बारे में सोचते हैं ना कि राज्य में हिदुंत्व के विकास के बारे में. “मोदी पार्टी के नेताओं को हमेशा केशुभाई के बारे में बुरी बातें कहते. वह ठीक उसी तरह से था जैसा उन्होंने वाघेला के मामले में केशुभाई के साथ किया था.”
वाजपेयी ने अचानक मोदी को राज्य का सीएम बना दिया. मोदी के अपने बयान के मुताबिक, ''उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बनाया जाना उनके लिए भी आश्चर्यजनक था''. उनके आधिकारिक जीवनी लेखक को दिए गए एक इंटरव्यू में मोदी ने कहा कि वह एक टीवी कैमरामैन के साथ थे तभी उन्हें वाजपेयी का कॉल आया कि शाम को मीटिंग है. मोदी ने कहा, “जब में उनसे मिला तो उन्होंने कहा, ‘पंजाबी खाना खाकर आप मोटे हो गए हैं आपको वजन कम करना चाहिए. यहां से जाइए. दिल्ली छोड़ दीजिए.’ मैंने पूछा, ‘कहां जाऊं?’ उन्होंने जवाब दिया, ‘गुजरात जाइए, आपको वहां काम करना है.’ मुझे इस बात का अंदाजा नहीं था कि अटलजी मुझे मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं. लेकिन तब अटलजी ने कहा, ‘नहीं...नहीं, आपको चुनाव लड़ना होगा.’ जब मुझे पता लगा कि मुझे मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है तो मैंने अटलजी से कहा, ‘ये मेरा काम नहीं है. मैं गुजरात से छह सालों से दूर हूं. मुझे मुद्दों का भी पता नहीं है. मैं वहां क्या करूंगा? यह मेरी पसंद का काम नहीं है. मैं किसी को जानता भी नहीं.’...पांच या छह दिन बीत गए. फिर मुझे उस काम के लिए तैयार होना पड़ा जो पार्टी चाहती थी.”
लेकिन मोदी ने जो कहा था, पार्टी के कई नेता उससे अलग बताते हैं. इनका कहना है कि मोदी ने इस काम को पाने के लिए जमकर लॉबिंग की थी. वह जब से दिल्ली आए थे तब से ऐसा ही कर रहे थे. एक बीजेपी नेता ने मुझसे कहा, “उन्हें पता था कि गुजरात बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री नहीं चुनेगी इसलिए यह काम केंद्र के किसी बड़े व्यक्ति से करवाना पड़ेगा. गुजरात के नेताओं को पता था कि मोदी कितने ज्यादा विभाजक और आत्मतुष्ट हैं.” यहां तक कि मोदी के बारे में यह बात पता चली थी कि उन्होंने दिल्ली के कुछ संपादकों से पटेल के बारे में नकारात्मक खबर करने को कहा था. अपने संस्मरण में आउटलुक के संपादक विनोद मेहता ने ऐसी ही एक मुलाकात का जिक्र किया है, “जब वह पार्टी के दिल्ली ऑफिस में काम कर रहे थे तो नरेन्द्र मोदी मेरे दफ्तर आए. वह कुछ दस्तावेज लाए थे जिससे साबित होता था कि गुजरात के सीएम केशुभाई कुछ गलत कर रहे हैं. जो अगली बात मुझे पता चली वह यह कि केशुभाई की जगह उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया गया है.”
गुजरात बीजेपी के विधायक कहीं इस फैसले का विरोध ने करें इसलिए तब के बीजेपी अध्यक्ष केशुभाई ठाकरे मोदी के साथ गुजरात गए और बीजेपी के एक और वरिष्ठ नेता मदन लाल खुराना भी साथ थे. उनकी उपस्थिति ने यह तय किया कि बिना चुने जिन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया है वह गुजरात में सुरक्षित लैंड कर सकेंगे. आरएसएस के लिए मोदी की नियुक्ति एक बड़ी सफलता थी. उसके इतिहास में पहली बार एक सच्चा प्रचारक मुख्यमंत्री बना था.
राज्य में महज एक साल बाद चुनाव होने थे. मोदी जैसे ही गुजरात में लैंड हुए वैसे ही अपने महत्वाकांक्षी इरादे सब को जता दिए. गुजरात पहुंचकर मोदी ने प्रेस से कहा, “मैं यहां एक वनडे मैच खेलने आया हूं. मुझे ऐसे तेज बल्लेबाजों की जरूरत है जो इस लिमिटेड ओवर के गेम में रन बना सकें.” इस दौरान शायद ही कोई यह जानता होगा कि मोदी का वनडे मैच टेस्ट सीरीज में तब्दील हो जाएगा और जो 11 सालों के बाद अभी भी खेला जा रहा है.
(4)
7 अक्टूबर 2001 ही वह तारीख थी, जो गुजरात के साथ-साथ पूरी दुनिया के लिए भी अहम थी. एक तरफ जहां मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. वहीं, ठीक इसी दिन अमेरिका और इसके सहयोगियों ने काबुल, कंधार और जलालाबाद पर पहला बम गिराया. ये न्यूयॉर्क के ''वर्ल्ड ट्रेड सेंटर'' पर हुए हमले के एक महीने से भी कम समय में हुआ. विश्व में अचानक से इस्लामिक जिहाद का डर बैठ गया और अमेरिकी राष्ट्रपति ने “आतंकवाद पर वैश्विक युद्ध” के उदय की घोषणा कर दी. इसमें किसी क्षेत्र को बख्शा नहीं जाना था. सयुंक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव पास किया. इसमें सदस्य देशों को आतंकवाद से लोहा लेने के लिए अतिरिक्त कानूनी कदम उठाने को प्रोत्साहित किया गया था. सभी राजनीतिक नेताओं के लिए इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मायने काफी जोर शोर से हरे-भरे हो गए थे. इसके तहत कैसे और किसी भी फैसले को सही ठहराने की ताकत मिल गई थी.
उधर गांधीनगर में नई ताकत पाकर मोदी ने सरकार चलाने के गुर सीखने में अपनी पूरी ताकत लगा दी. इसके पहले उनके पास किसी राजनीतिक कार्यालय का अनुभव नहीं था, और उन्हें अभी अपना ''पहला चुनाव'' भी लड़ना था. मोदी के साथ काम कर चुके एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया, “अधिकारियों के साथ ज़्यादातर ब्रीफिंग में वो बिल्कुल चुप रहते थे. वो अधिकारियों को बात करने देते और सीखने की कोशिश करते कि प्रशासन कैसे काम करता है. वो बहुत सचेत थे, मुझे लगता था कि वो हर शब्द, लय और हर एक चीज की तस्वीर बना लेते थे.” हालांकि इस दौरान मोदी को बीजेपी के उन वरिष्ठ नेताओं का विरोध भी झेलना पड़ा, जो उनके आगे बढ़ने से नाराज थे. उनके एक पूर्व मंत्री ने याद किया, “कैबिनेट में वो इस बात पर जोर देते कि वो एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें दिल्ली ने नियुक्त किया है और हमें बताते कि क्या किया जाना है.”
दिल्ली में बीजेपी की सरकार ने इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के देर से शुरू किए गए अभियान को अपने पाकिस्तान विरोध के बदले के तौर पर देखा. साल के अंत तक जब 13 दिसम्बर को संसद पर हमला हुआ, तो 10 लाख से ज्यादा सैनिकों को पाकिस्तान के साथ वाले बॉर्डर पर भेज दिया गया. साथ ही सरकार ने आयात किए जाने वाले सामान पर “युद्ध टैक्स” लगा दिया, ताकि फौज की तैनाती का खर्च निकल सके. ये प्रचंड राष्ट्रवाद और चारों तरफ फैली मुस्लिम विरोधी भावना का दौर था. आरएसएस की विचारधारा के तहत पले मोदी के लिए राजनीतिक मिजाज कभी ऐसा नहीं रहा था, जो उनके विचारों से इतना ज्यादा मेल खाए.
2002 के फरवरी में एक दिन 12 साल की अनिका नाम की एक बच्ची को पता चला कि,वो अपने स्कूल के वार्षिक दिवस में एक मार्च को नृत्य का प्रदर्शन करेगी. वो लार्सन एंड टर्बो सूरत के एक वरिष्ठ इंजीनियर की बेटी थी. पोशाक में ये उसका पहला डांस होने वाला था और अनिका इस बात की जिद कर रही थी कि अहमदाबाद में रहने वाले उसके दादा-दादी उसके इस डांस के लिए सूरत आएं. अनिका के दादा-दादी ने उससे वादा किया कि वो सूरत जरूर आएंगे.
अनिका के इस डांस के दो दिन पहले 27 फरवरी को गोधरा से गुजर रही एक ट्रेन में 58 लोगों की मौत हो गई. अहमदाबाद से 160 किलोमीटर दूर इस शहर में मरने वालों में कई महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे. इस ट्रेन में वीएचपी और इसके युवा मोर्चा बजरंग दल के लोग सवार थे. ये सब अयोध्या से बाबरी मस्जिद विध्वंस की 10वीं सालगिरह मनाकर लौट रहे थे. शुरुआती जांच में कहा गया कि गोधरा के मुसलमानों ने पहले से बनाए गए प्लान के तहत, ट्रेन के कोच पर हमला किया है.
उसी रात 72 साल के बुजुर्ग अहमदाबाद के पूर्व सांसद एहसान जाफरी ने अपनी पोती अनिका को फोन कर ये दुखद समाचार दिया. जाफरी ‘गुलबर्ग सोसाइटी’ में रहते थे. अहमदाबाद के इस इलाके में मोटे तौर पर ''उच्च वर्ग के मुसलमान''रहते थे. कांग्रेस के अनुभवी नेता जाफरी ने महसूस किया कि अगले दिन सूरत तक का सफर सुरक्षित नहीं होगा. फोन पर उन्होंने अनिका से कहा कि वो नहीं आ पाएंगे. अनिका ने मां से इसकी शिकायत की, “ये सिर्फ एक बंद है और उन्हें आना चाहिए.”
28 फरवरी की दोपहर के करीब अनिका ने एक बार फिर अपने दादा को फोन किया. उनसे पूछा, “आप निकल गए?” जिस पर दादा का जवाब आया, “बेटा, यहां स्थिति ठीक नहीं है, हर जगह उपद्रवी हैं.” उन्होंने कहा कि उन्हें फोन रखना पड़ेगा, क्योंकि उन्हें और बहुत फोन करने हैं.
गुलबर्ग सोसाइटी के आस-पास भारी भीड़ पहले ही इकट्ठा हो गई थी. उनके पास पेट्रोल बम, साइकिल चेन और तलवार थे. वो “बदला लो और मुसलमनों को हलाल कर दो” जैसे नारे लगा रहे थे. जाफरी के पड़ोस से कई लोग और पड़ोस की झुग्गियों से कई मुसलमान जाफरी के घर में शरण लेने आए थे. उन्हें लगा था कि जाफरी के पूर्व सांसद का दर्जा उन्हें सुरक्षा प्रदान करेगा. जाफरी की पत्नी जाकिया ने मुझे बताया, “मदद के लिए उन्होंने सौ से ज्यादा फोन कॉल किए होंगे.” उन्होंने गुजारत के पुलिस महानिदेशक, अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर, राज्य के प्रधान सचिव सहित, दर्जनों और लोगों को फोन कर उनसे मदद की भीख मांगी थी. इस नरसंहार में बच निकले एक व्यक्ति ने बाद में कोर्ट को बताया कि जाफरी ने मोदी तक को फोन किया था,“जब मैंने उनसे पूछा कि मोदी ने क्या कहा, (जाफरी) ने कहा मदद का तो सवाल ही नहीं, उल्टे वो गालियां देने लगे थे.” जाफरी के मदद की गुहार दिल्ली में डिप्टी पीएम लाल कृष्ण आडवाणी तक पहुंची. बीजेपी के भीतर मोदी का एक करीबी आदमी 28 फरवरी को आडवाणी के साथ था. उसने मुझे बताया कि, बीजेपी नेता ने मोदी के ऑफिस को फोन करके जाफरी के बारे में पूछा था.
2.30 बजे तक भीड़ गुलबर्ग सोसाइटी का दरवाजा तोड़कर भीतर घुस गई थी. जाफरी के घर में उन लोगों की बाढ़ आ गई. औरतों का रेप कर उन्हें जिंदा जला दिया गया, मर्दों से “जय श्री राम” के नारे लगवा कर उनके टुकड़े कर दिए गए, बच्चों तक को नहीं बख्शा गया. बाद में कोर्ट को इससे जुड़ी एक रिपोर्ट सौंपी गई. जिसमें बताया गया कि,''जाफरी को नंगा करके हमलावरों के सामने परेड करवाई गयी, फिर उनकी उंगलियां और पैर काट लिए गए, उसके बाद उन्हें जलती हुई चिता में फेंक दिया गया.'' आधिकारिक पुलिस रिपोर्ट में गुलबर्ग सोसायटी में 59 लोगों की हत्या की बात है, हालांकि स्वतंत्र जांच में ये संख्या 69 या 70 है. जाफरी की पत्नी जाकिया और चंद लोगों ने खुद को ऊपर के कमरे में बद कर लिया था, जिसकी वजह से वो बच गए.
आज तक मोदी यही कहते आए हैं कि उस दिन शाम में जब तक उन्हें पुलिस ने इसकी जानकारी नहीं दी, तब तक उन्हें नहीं पता था कि गुलबर्ग सोसायटी में क्या हुआ है? लेकिन तब के राज्य के डिप्टी कमिश्नर (इंटेलिजेंस) संजीव भट्ट का कहना है कि,''मोदी झूठ बोलते आए हैं.'' (मोदी और उनके प्रशासन ने भट्ट के इस बयान को पुरजोर चुनौती दी है और अन्य पुलिस वालों के अलावा सरकारी अधिकारियों द्वारा दिए गए बयानों को भी ऐसी ही चुनौती दी गई है.) भट्ट ने जोर देकर कहा कि मोदी तब गृहमंत्री थे और वो वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और खुफिया नेतृत्व के साथ पूरे दिन लगातार संपर्क में थे. मोदी को जमीनी स्थिति का खूब पता था. भट्ट ने मुझे बताया कि 2 बजे के पहले उन्होंने कई बार मोदी के साथ फोन पर बातचीत की और जानकारी दी कि भीड़ ने गुलबर्ग को घेर लिया है. वो मोदी से दोपहर में मिले और रिपोर्ट दी कि स्थिति में तुरंत दखल देने की दरकार है.
भट्ट ने मुझे बताया, “मोदी का जवाब बेहद अजीब था. उन्होंने पहले मुझे सुना और फिर कहा, ‘संजीव, पता करने की कोशिश करो कि क्या पहले कभी जाफरी की गोली चलाने की आदत रही है?’”
भट्ट ने आगे दो कांग्रेस नेताओं का जिक्र करते हुए कहा, “मुख्यमंत्री कार्यालय के बाहर कॉरिडोर में अचानक से पूर्व मुख्यमंत्री अमरसिंह चौधरी और पूर्व गृहमंत्री नरेश रावल मेरे सामने आ गए. नरेश रावल पहले मेरे मंत्री थे,सो हमारी बातचीत हुई. उन्होंने मुझे बताया कि गुलबर्ग से एहसान भाई पागलों की तरह फोन किए जा रहे हैं और वो मोदी से मिलने आए थे. मैंने कहा कि मैंने मुख्यमंत्री को इसकी जानकारी दे दी है, लेकिन आप भी जाकर उन्हें ये बात बता दीजिए.”
भट्ट ने आगे कहा, “फिर गुलबर्ग पर मौजूद मुझे सूचना देने वाले का फोन मेरे पास आया. उसने मुझसे कहा कि जाफरी ने गोली चला दी है. मैं आश्चर्यचकित रह गया. जब मैं अपने ऑफिस पहुंचा तो मेरे टेबल पर एक छोटी सी रिपोर्ट पड़ी थी, जिसमें लिखा था कि बचाव में जाफरी ने गोली चलाई है. तभी मुझे पता चला गया कि इस आदमी (मोदी) को मुझसे पहले चीजें पता चल रही हैं.”
गुजरात दंगे सांप्रदायिक दंगों का वह पहला घमाका था, जो टीवी पर लाइव दिखाया जा रहा था और देश भर में लोगों ने युवाओं को सड़कों पर आतंक मचाते देखा. ये युवा बदले की मांग कर रहे थे और सभी मुसलमान को देश छोड़ने के लिए कह रहे थे. बीजेपी में, जिसके राष्ट्रीय नेतृत्व ने मोदी को महज पांच महीने पहले मुख्यमंत्री चुना था, गुजरात में हुए खून खराबे से पार्टी के अंदर फूट पड़ गई. कट्टर नेताओं ने मोदी का पुरजोर समर्थन किया. लेकिन नरमपंथियों को डर था कि उदारवादी हिंदू, जो बीजेपी को “बाकी पार्टियों से अलग” मानते हैं, वे आतंकी हिंदुत्व का उभरता चेहरा देख कर पार्टी से दूर हो जाएंगे. जब दंगे बिना किसी रुकावट के जारी रहे तो विदेशी सरकारों ने प्रधानमंत्री कार्यालय पर दबाव बनाना शुरू किया. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी हरकत में आए. मोदी के करीबी बीजेपी नेता ने मुझे बताया, “मोदी और वाजपेयी के बीच का रिश्ता काफी हताशा से भरा था. मोदी को वाजपेयी के धुर ब्राह्मण चरित्र से ही दिक्कत थी- उनकी उम्दा पसंद, उनकी कविता. वहीं वाजपेयी, मोदी को ‘भोंडा’ समझते थे.” वाजपेयी को इसकी पूरी आशंका थी कि मोदी हिंसा नहीं रुकने देंगे और उन्हें हटाना भी चाहते थे. लेकिन उन्हें पता था कि उन्हीं के डिप्टी आडवाणी और आरएसएस इसका पुरजोर विरोध करेंगे.
उदारवादी खेमे से मोदी को चुनौती देने वाले पहले व्यक्ति शांता कुमार थे. वह तब के कैबिनेट मंत्री और हिमाचल के मुख्यमंत्री रह चुके थे. उन्होंने कहा कि गुजरात की हिंसा से उन्हें दर्द हुआ है और वह इससे खिन्न हैं. साथ ही कुमार ने वीएचपी और बजरंग दल के खिलाफ एक्शन की मांग भी की. उन्होंने घोषणा करते हुए कहा कि, “मृतकों के शरीर पर वोट गिनने वाला हिंदू नहीं होता. जो लोग खून बहाकर गुजरात में हिंदुत्व को मजबूत कर रहे हैं वे हिंदुओं के दुश्मन हैं.” इस बयान से आरएसएस आग बबूला हो गया. कुमार का यह बयान गोवा में होने वाली बीजेपी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के कुछ ही दिनों पहले आया था. संघ के नेता नहीं चाहते थे कि पार्टी के उदारवादियों के चक्कर में उनके फुल टाइम प्रचारक से सीएम बने पहले व्यक्ति का कार्यकाल समाप्त हो जाए. बीजेपी अध्यक्ष के जन मूर्ति ने कुमार को बुलावा भेजा. वहीं, आडवाणी ने घोषणा की कि पार्टी का कोई भी सदस्य अगर अनुशासनहीनता करता पाया गया तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी. कुमार को दो माफीनामे लिखने को मजबूर किया गया. पहला, कृष्णमूर्ति को और दूसरा, वीएचपी के आरएसएस इंचार्ज को. उन्हें वह बयान भी वापस लेना पड़ा, जिसमें कहा था कि वीएचपी ने पूरे हिंदू समाज को कलंकित किया है.
उदारवादियों में इस बात की चिंता थी कि गठबंधन वाली बीजेपी की यह सरकार उस स्थिति में गिर जाएगी, यदि किसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया. लेकिन इसका संघ पर कोई असर नहीं पड़ा. बीजेपी के एक पूर्व राष्ट्रीय सचिव के मुताबिक, ताकतवर आरएसएस नेता और पूर्व बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाउ ठाकरे ने पार्टी के बाकी नेताओं तक यह बात फैलाई कि मोदी का बचाव किए जाने की जरूरत है फिर चाहे वाजपेयी सरकार ही चली जाए. पूर्व बीजेपी सचिव ने बताया, “पार्टी में लॉबिंग और इसके विरोध में लॉबिंग हो रही थी. अंत में ठाकरे, आडवाणी, मोदी और जेटली का खेमा, वाजपेयी खेमे पर भारी पड़ा.”
लेकिन बीजेपी के साथ गठबंधन वाली धर्मनिरपेक्ष क्षेत्रिय पार्टियां टस से मस नहीं हुईं. बिहार की जनता दल (यूनाइटेड), तमिलनाडु की द्रविड़ मुन्नेत्र कडगम, आंध्र प्रदेश की तेलगू देशम पार्टी और पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार के साथ बनी रहीं. 12 अप्रैल 2002 को जिस समय बीजेपी की कार्यकारिणी बैठक शुरू हुई, उदारवादी हार चुके थे. वाजपेयी के पास मोदी समर्थक ताकतों को चुनौती देने की हिम्मत नहीं थी. जिस उदारवादी पीएम ने एक महीने पहले मोदी को हटाए जाने की इच्छा जताई थी, उसने आरएसएस के सामने सरेंडर कर दिया. साथ ही गोवा कार्यकारिणी के अपने भाषण में वाजपेयी ने कट्टरपंथियों का झंडा उठा लिया और मोदी की भाषा बोलने लगे.
वाजपेयी ने कहा, “इंडोनेशिया, मलेशिया जहां भी मुसलमान हैं,वे शांति से नहीं रहना चाहते. वे समाज के साथ मेल-जोल नहीं रखते. वे शांति से नहीं रहना चाहते... हमें धर्मनिरपेक्षता का पाठ किसी से पढ़ने की जरूरत नहीं है. मुसलमानों और ईसाइयों के आने से पहले ही भारत धर्मनिरपेक्ष था.”
संभवत: पहली बार कोई प्रधानमंत्री, किसी मुख्यमंत्री के सामने मजबूर हो गया था. फिर वहां से वाजपेयी हमेशा मोदी से डर कर जिए. दिसंबर 2002 में जब मोदी अपने पहले राज्यव्यापी चुनाव का प्रचार कर रहे थे तो उन्होंने खुलकर पार्टी से कहा कि वाजपेयी और बाकी वरिष्ठ नेताओं को इसमें जितनी जल्दी हो भाग लेना चाहिए क्योंकि वह नहीं चाहते कि अंत में अंतिम धक्का देने की बात कह कर मोदी के किए का श्रेय कोई और ले जाए. बीजेपी के भीतर के एक व्यक्ति ने मुझे बताया, “वाजपेयी मोदी से इतना डरते थे कि “जब हम चुनाव के लिए अरुण जेटली और उमा भारती के साथ अहमदाबाद गए, तो उन्होंने हमसे फ्लाइट में कहा, ‘आम तौर पर जब प्रधानमंत्री और पार्टी के नेता किसी राज्य में जाते हैं तो मुख्मंत्री उम्मीद लगाए इंतजार कर रहे होते हैं. यहां, भूल जाइए कि मोदी मुझे लेने आएंगे. मेरा दिल यह सोचकर घबरा रहा है कि मोदी रैली में क्या बोलेंगे.’” सब हंसने लगे और वाजपेयी भी. लेकिन वह गंभीर थे.
मोदी की सफलता ने सिर्फ वाजपेयी के भीतर ही डर नहीं भरा. बल्कि बीते एक दशक में जहां मोदी को लगातार हुए दो चुनावों में सफलता मिली, वहीं केंद्र में पार्टी को दो हारों का सामना करना पड़ा. इस कारण मोदी बीजेपी में सफलता का पैमाना बन गए और पार्टी में उदारवादियों की जगह सिमटती चली गई.
गोवा कार्यकारिणी बैठक के एक दशक बाद इस साल की शुरुआत में, मैं शांता कुमार से मिलने गया. वे भी मोदी के प्रशंसकों में शामिल हो गए हैं. उन्होंने मुझसे कहा, “जो पहले हुआ वह बीती बात हो गई. लेकिन अब गुजरात को देखिए. मैं मोदी जी से पिछले महीने गुजरात में मिला और मैंने उनसे कहा कि आपने जो गुजरात में किया हमें उसे पूरे भारत में करने की जरूरत है यानी “हिंदुत्व और विकास का एकाकार करना. उन्होंने शानदार काम किया है. जो सफलता मोदी ने गुजरात में हासिल की है, एक दिन हम पूरे भारत में करके दिखाएंगे.”
इस साल की सर्दी में एक सुनहरे दिन मैं गुलबर्ग सोसाइटी के खंडहर से गुज़रा. एक शोर शराबे वाली सड़क के पास प्रवेश द्वार पर एक लोहे का गेट अपनी पोस्ट से लटका हुआ था. ये एक सूखे पेड़ सा लग रहा था, जिसे कटने का इंतजार हो. खंडहर कालोनी के भीतर मैं, उन दो तल्ले मकानों से गुजरा जिन्हें लोग छोड़कर भाग गए थे. इन सबकी खिड़कियां और दरवाजे गायब थे. पेशाब और मल की बदबू से मुझे उल्टी आने लगी. जाफरी का घर गेट के ठीक पास था. जंगली बोगनविलिया द्वारा एक जला हुआ खोल उगा था. अंदर दीवारों पर धुएं और राख के धब्बे थे. ऐसा लग रहा था जैसे बिल्डिंग को काले रंग में रंग दिया गया हो, अंदर बिल्कुल रोशनी नहीं थी. जब मैं लीविंग रूम में गया तो किनारे बैठी एक कुतिया चित्कारने लगे और अपने उन चार पिल्लों के साथ उठ खड़ी हुई जो इसका दूध पी रहे थे. जैसे-तैसे मैं ऊपर गया. रास्ते में ईंट और बोगनविलिया के कांटे पड़े थे और फिर हर कमरे में गया. ये भूतिया घर था, जिनकी मनहूस दीवारों में अभी भी हत्या की शिकार होने वाली भीड़ के डर और असहायता का अवशेष था.
गुलबर्ग सोसायटी में हत्याओं के दिन के बाद हड्डियों के अंबार और अधजली लाशों को ट्रक में भरकर दुधेश्वर के एक मुस्लिम कब्रगाह में ले जाया गया. वहां के रखरखाव का जिम्मा संभालने वाले हजरा बीवी अब 40 साल के हो गए हैं. उन्होंने 10 साल पहले की घटना को याद करते हुए बताया, एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदना पड़ा ताकि 179 लोगों को दफनाया जा सके. उन्होंने मुझसे कहा, “सिर्फ गुलबर्ग से ही नहीं, उस दिन कई जगहों से कई ट्रक आए. मुझे याद है कि मेरे नन्हें बेटे ने मुझसे पूछा कि क्या कहीं कोई भूकंप आया है? मैंने उससे कहा-हां, “आया था.”
(5)
मोदी के पुनर्जन्म में एक निर्णायक टर्निंग पॉइंट था "टाटा नैनो". ये वो क्षण था, जब उनकी छवि कट्टर हिंदू नेता से व्यापार समर्थक "विकास पुरुष" की बन गई.
इसकी शुरुआत 3 अक्टूबर 2008 को हुई,जब रतन टाटा ने घोषणा की कि वो पश्चिम बंगाल के सिंगुर में अपनी बेहद प्रचारित लोगों की कार बनाने के लिए बनी फैक्ट्री को बंद कर देंगे. वहां किसान इसके खिलाफ दो साल से प्रदर्शन कर रहे थे. चार दिनों बाद टाटा ने घोषणा की कि वो नैनो प्लांट गुजरात में लगाऐंगे, जो मोदी के लिए प्रचार की चकाचौंध हो गई. जैसा कि मोदी ने बाद में ये कहानी बताई कि,वो गुजरात के अपने भाषणों में इसे दोहराना पसंद करते थे. जैसे ही टाटा ने बंगाल में नैनो के प्लांट को बंद करने की घोषणा की, मोदी ने उनसे संपर्क किया. मैंने टाटा को एक एसएमएस भेजा, “गुजरात में आपका स्वागत है". ये बस महज इतना आसान था.
इसके बाद चार और राज्य टाटा के पास नैनो को जमीन देने का प्रस्ताव लेकर पहुंचे थे, लेकिन कोई वो करने को तैयार नहीं था,जो मोदी करने को तैयार थे. टाटा ने टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा, “गुजरात के सीएम ने काफी तेजी दिखाई. बाकी के राज्यों में उनकी अच्छी नीयत के बावजूद, उन्हें कई चीजें व्यवस्थित करनी थी. इसलिए हमने गुजरात को चुना और सब ठीक हो गया.”सिर्फ 10 दिनों के भीतर एक करार पर दस्तखत कर लिया गया.
मोदी ने टाटा को जो ऑफर दिया था वो भी काफी उदार था. समझौते की शर्तों के मुताबिक टैक्स के तौर पर दी जाने वाली रकम को पहले 20 सालों तक कंपनी ऑपरेशन लोन के तौर पर अपने पास रखेगी. जिसे बाद में 0.1 प्रतिशत ब्याज दर पर तब वापस लौटाना पड़ेगा, जब 20 साल का समय समाप्त हो जाएगा. हालांकि, टाटा को लगा था कि टैक्स बिल का गणित पहले ही नहीं बिठा सकते, लेकिन इसके पक्ष में दिए जा रहे लोन की वजह से कंपनी की बचत इसके शुरुआती 22 खरब के निवेश से कहीं ज्यादा होगी.
टाटा को जमीन के दो प्लाटों में से एक को चुनने का विकल्प दिया गया. ये दोनों जमीनें पहले गुजरात इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (जीआईडीसी) के पास थीं. लेकिन सानंद में टाटा ने जो प्लांट चुना, वो पास के हाईवे के पटने वाली किसानी की जमीन थी. टाटा ने सरकार से ये जमीन खरीदने को कहा. ये मोदी के लिए रोज का काम था, जिन्हें पता था कि गुजरात, पश्चिम बंगाल नहीं है और वो पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट मंत्रियों से बेहतर सौदा कर सकते हैं. लेकिन मामले को लेकर जैसा माहौल था, वैसे में प्रभावित किसानों का किसी तरह का विरोध काफी असहज स्थिति पैदा कर सकता था. उन्हें पता था कि उन्हें समझदारी से काम लेना है.
रवुभा वाघेला जो कांग्रेस के स्थानीय नेता थे, उनके हिस्से हाईवे के पास की सबसे ज्यादा जमीन थी. वही किसानों की तरफ से सौदे का मोल-भाल कर रहे थे और वो आसानी से सौदे को विफल भी कर सकते थे. वाघेला ने मुझे बताया, “मोदी और टाटा की संयुक्त घोषणा के एक दिन पहले तक हम जीआईडीसी के सचिव के साथ जबदस्त मोल-भाव में लगे थे. हमारे बीच कीमत को लेकर सहमति नहीं बनी.”
वाघेला ने कहा, “उन्होंने हमसे छुपाया कि जमीन का सौदा टाटा के लिए हो रहा है. सीएम ऑफिस ने हमें, ये बताने से मना किया था.” रात तक बातचीत जारी रही और ये तब तक चली जब तक जीआईडीसी सचिव महेश्वर साहू ने अपना तुरुप का इक्का न चल दिया. वाघेला ने कहा, “10 बजे रात तक बातचीत फंसी रही. साहूजी ने कहा कि अगले दिन रतन टाटा अहमदाबाद में होंगे. यह जमीन नैनो प्लांट के लिए चाहिए और कहा कि टाटा को कोई दिक्कत न हो.” वाघेला ने कहा, “हम सब खुशी से झूम उठी.” गुजरातियों के तौर पर हमारे और बाकियों के बीच यही अंतर है. हम जमीन से बेहद जुदा तरीके से जुड़े हैं और हमारा गणित अलग तरीके से काम करता था. हमने हिसाब लगाया कि अगर हम ये जमीन बेच देते हैं, तो हमारे साथ की जमीन की कीमत में कितना इजाफा होगा. एक घंटे के भीतर हम सबसे अच्छी कीमत के लिए तैयार हो गए और समझौते पर दस्तखत हो गया.”
मोदी से इंडस्ट्रीयल प्रोजेक्टों के खेवनहार साहू ने अपनी कार्यशैली के बारे में मुझे बताया. उन्होंने कहा, “पहली बार आप किसानों की कीमत बताते हैं ताकि जमीन बेचने के फायदे को देख सकें. फिर हम वाघेला जैसे लोगों को पहचान देते हैं. इसके बाद काम हो जाता है.” वाघेला ने जैसे ही अपनी 30 एकड़ की जमीन टाटा के मोटर साइट के लिए बेची, उन्हें मोदी के ऑफिस में आमंत्रित किया गया. उनकी मुलाकात के दिन द टाइम्स के स्थानीय संस्करण ने वाघेला के बारे में एक स्टोरी छापी, इसकी हेडलाइन थी ‘सानंद का सबसे अमीर आदमी और अमीर हो गया.’
वाघेला ने मुझे बताया, “मोदीभाई अपनी कुर्सी से उठे और पूरे जोश के साथ मेरा स्वागत किया. उन्होंने कहा, ‘रघुभाई आपकी लक्ष्मी (जमीन) मुझे दे दीजिए.’ मोदी ने कहा, ‘मेरी नजर सानंद पर है. हमें इसे शानदार और अद्भुत बनाना चाहिए. पूरी दुनिया को यहाँ आने और देखने दीजिए.’”
नैनो की फैक्ट्री को सानंद लाने के सौदे ने दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर खींचा. जून 2010 में प्लांट के उद्घाटन से कुछ ही हफ्ते बाद 'फोर्ड और प्यूजियट' दोनों ही गुजरात पहुंचे और अपनी फैक्ट्री बनाने के जमीन मांगी. जीआईडीसी ने 2,200 एकड़ की कुल ज़मीन अधिग्रहित कर फोर्ड और प्यूजियट को पर्याप्त जमीन मुहैया करा दी (साथ-साथ टाटा को जैसा वित्तीय प्रोत्साहनों का बड़ा पैकेज दिया गया था, इन्हें भी दिया गया). सानंद के किसानों का जो शुरुआत विरोधी था, वो जल्द ही ढेर हो गया क्योंकि जमीन के बदले मिल रही कीमत बढ़ गई. बाजार की कीमत से "10 गुना ज्यादा" कीमत में जमीनें बिकीं. टाटा के आने से पहले एक एकड़ की कीमत 3 लाख रुपए थी, जीआईडीसी ने एक एकड़ के लिए 30 लाख रुपए दिए और बिक्री के एक हफ्ते के भीतर चेक भी दे दिए गए.
हीरापुर उन गांवों में शामिल है, जिसकी जमीन ली गई थी. मैं वहां बिक्कुभाई बरोड़ से मिला. 71 साल के दुबले-पतले बिक्कुभाई ने अपनी 40 एकड़ जमीन बेची थी. इससे हुए फायदे से उन्होंने पास की 80 एकड़ सस्ती जमीन, दो बंगले और तीन कार खरीद ली थीं. उन्होंने कहा, “फ्लैट में कौन रहेगा? वो मुरगी के घोंसले जैसा होता है, हवा नहीं आती.” इसलिए मैंने अपने बेटों के लिए शहर में बंगाल खरीद लिया. उन्होंने कहा, “जब हम ऑडी खरीद सकते हैं, हम नैनो क्यों खरीदें? नैनो बहुत सस्ती है, भले ही वो हमारे अपने खेतों में बनती हो.”
सानंद में मोदी की सफलता की कहानी ने उनके विकास पुरुष की छवि को और चमका दिया. जल्द ही वोटरों और व्यापारियों को दिए जाने वाले हर भाषण में मोदी इसका इस्तेमाल करने लगे. लेकिन गुजरात में राज्य प्रायोजित हर औद्योगिक परियोजना सही तरीके से नहीं चल रही थी. भागनगर जिले में समुंद्र किनारे बसे छोटे से शहर महुवा में विकास से जुड़ी बाधाएं दूर करने की मोदी की प्रसिद्धी ने उनके लिए थोड़े-बहुत दुश्मन पैदा कर दिए थे.
2003 में सरकार ने गुजरात की बड़ी कंपनियों में शामिल निरमा को सीमेंट प्लांट के लिए महुवा में 700 एकड़ जमीन दे दी. (निरमा के संस्थापक और चेयरमैन करसन पटेल रिसर्जेंट ग्रुप ऑफ गुजरात के उन नेताओं में शामिल थे, जिन्होंने उसी साल सीआआईआई के खिलाफ मोदी का समर्थन किया था.) लेकिन निरमा को दी गई 300 एकड़ जमीन में झील और जलाशय भी शामिल थे, जो वहां के 50000 स्थानीय किसान, खेती और पशुपालन के लिए इस्तेमाल करते थे. किसानों ने इसका विरोध किया, जिसे कंपनी और मोदी सरकार ने अनदेखा कर दिया. लेकिन विरोध तेज हो गया और इसे तब खूब प्रचार मिला, जब महुवा के बीजेपी विधायक कानुभाई कलसारिया ने अपने ही सीएम के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. 11000 से ज्यादा किसानों ने सौदे के खिलाफ अपने खून से दस्तखत किए. 5000 लोग, 400 किलोमीटर चलकर अहमदाबाद अपना विरोध दर्ज कराने गए.
निरमा और गुजरात सरकार ने दावा किया कि ये बंजर जमीन है. लेकिन जब किसानों ने पर्यावरण मंत्रालय से इसकी शिकायत की तो उनके पक्ष में फैसला आया और प्लांट की पर्यावरण से जुड़ी मंजूरी रद्द हो गई. किसानों ने इसका जश्न राज्य के ऊपर से नीचे वाले विकास के एजेंडा के खिलाफ दुर्लभ जीत के रूप में मनाया. तीन बार के बीजेपी विधायक कलसारिया को अनुशासनहीनता के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया गया. उन पर अज्ञात गुंड़ों ने हमला भी किया. लेकिन वो गुजराती किसनों की आवाज बन गए. जिनका आरोप है कि,मोदी सरकार उद्योगपतियों को लोगों की कीमत पर पैसे और जमीन लुटा रही है.
2002 के दंगों को लेकर जब भी मोदी या उनकी सरकार की आलोचना होती, वो बड़ी चालाकी से इसे गुजरात और गुजरातियों पर हमले का रंग दे देते. बीते कुछ सालों में बेहद सूक्ष्मता से उन्होंने राज्य में हुए विकास की कहानी कहने के लिए यह नायब तरीका अपनाया. सरकार ने मीडिया को बिना किसी रुकावट, कुशल प्रशासन, तेजी से निर्माण और आर्थिक विकास की सकारात्मक कहानियां दी हैं.
मोदी इस पर इठलाना पसंद करते हैं कि गुजरात में राज्य की दरकार से ज्यादा बिजली है. “गुजरात के चमत्कार” से जुड़ी बड़ी तस्वीर वाली हर कहानी के मामले में वो यही करते हैं. बिजनेस टुडे से सिडनी हेराल्ड तक ,यही कहानी कहता नजर आता है. लेकिन किसान जिनमें संघ का किसान यूनियन भी शामिल है, पिछले एक दशक से विरोध कर रहा है कि उसकी बिजली की जरूरतें पूरी नहीं होती हैं. सरकार के अपने आंकड़े बताते हैं कि 2000 से 2010 के बीच खेती को दी जाने वाली बिजली में 43 प्रतिशत की गिरावट आई है. 375000 से ज्यादा किसान अभी भी अपनी सिंचाई पंप के लिए बिजली के कनेक्शन का इंतज़ार कर रहे हैं. करीब से देखने पर पता चलता है कि, पिछले दशक में गुजरात के आर्थिक विस्तार के बड़े आंकड़े गिरे हैं. राज्य के जीडीपी विकास ने पिछले दशक में भारत को बस थोड़ा सा पीछे छोड़ दिया. लेकिन ये उम्मीद के हिसाब से है.गुजरात लंबे समय से औद्योगिक राज्य रहा है और मोदी के नेतृत्व में विकास दर पिछले दो दशकों की तुलना में बहुत ज़्यादा नहीं रही है. हालांकि, मोदी ने गुजरात को भारत के राज्यों के मुकाबले विदेशी पूंजी निवेश के मामले में निर्विवाद नेता के तौर पर पेश किया है, लेकिन 2000 से 2009 के बीच राज्य इस मामले में चौथे नंबर पर था, जो 2011 में खिसककर छठे नंबर पर पहुंच गया. इसके पहले महाराष्ट्र, एनसीआर, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश का नंबर था. विदेशी पूंजी निवेश के मामले में महाराष्ट्र को गुजरात से नौ गुना ज्यादा निवेश मिलता है. वहीं, योजना आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि, गुजरात के आर्थिक विकास के बावजूद, राज्य गरीबी कम करने के मामले में बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश से भी पीछे है.
अपने आप में ये आंकड़े शायद ही मोदी के रिकॉर्ड पर सवाल खड़े करते हैं. ये बताते हैं कि आर्थिक चमत्कार-करने वाली उनकी छवि बेहद सावधानी से, पब्लिक रिलेशन अभियान के सहारे बनाई गई है. ये इस झूठ पर आधारित है कि गुजरात, भारत के अन्य राज्यों से विकास के मामले में कहीं आगे है और जो भी इसे आंकड़ों से गलत साबित करने की कोशिश कर रहा है, वो सिर्फ सच से खिलवाड़ करके मोदी और हर गुजराती को बदनाम कर रहा है.
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12 सितंबर 2011 को मोदी ने तीन शब्दों का एक ट्वीट किया- “भगवान महान है !” जिस एसआईटी को शुरुआत में नरसंहार के नौ मामलों को देखने के लिए बनाया गया था, उसे सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्देश दिया. इसमें एहसान जाफरी की हत्या के मामले में मोदी के शामिल होने की जांच भी शामिल थी. सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी को गुजरात की निचली अदालत में इसकी रिपोर्ट देने को कहा था. रिपोर्ट से ये तय होना था कि क्या सीएम के खिलाफ आरोप दायर किए जा सकते हैं? दरअसल ये दोष मुक्ति नहीं थी,लेकिन मोदी को सुप्रीम कोर्ट से और कड़े आदेश की आशंका थी,जो मामले में 2003 की तरह टिप्पणी कर सकता था. जिसमें कोर्ट ने मोदी को “आज का नीरो” कहा था. या इससे भी बदतर ये कि सुप्रीम कोर्ट मामले को गुजरात से बाहर भेजकर उन्हें पहले नंबर का आरोपी बना सकता था.
जैसा कि उनके जीत के एहसास वाले ट्वीट से साफ है, मोदी को लगा कि उनके नया अभियान को शुरू करने का मौका आ गया है. 5 दिनों बाद अपने जन्मदिन पर उन्होंने अहमदाबाद में तीन दिनों के व्रत की शुरुआत की. ये सद्भावना के बैनर तले हुआ. लेकिन इसे वैसी भारी मीडिया कवरेज न मिली जैसी मोदी को उम्मीद थी. इसमें हिस्सा लेने के लिए 10000 लोगों को जुटाया गया और मोदी के सहयोगी और प्रतिद्वंदी बीजेपी नेताओं को गुजरात में उनके साथ मंच पर मौजूद होने के लिए मजबूर किया गया. व्रत के पहले दिन मोदी ने देश भर के अखबारों में पहले पूरे पन्ने पर प्रचार किया. उस दिन उनकी मुस्कुराती तस्वीर ने देश भर के वोटरों का अभिवादन किया. यह हर राज्य की मातृभाषा हिंदी, पंजाबी, बंगाली, मराठी, तेलगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम, उर्दू, असमिया और ओडिया में एक सद्भावना संदेश था. जिसका पूरा बिल गुजरात सरकार को भेजा गया.
अहमदाबाद उपवास के अंत में मोदी ने घोषणा की कि, वो राज्य के तमाम 26 जिलों में एक दिन का उपवास रखेंगे. उन्होंने सद्भावना रोड शो को उसी साल शुरू होने वाले विधानसभा चुनावों के प्रचार के साथ मिला दिया. नवंबर 2011 के अंत में जब मोदी का रोड शो सोनगढ़ से कुछ दूरी पर रुका तो मैं इसे देखने गया. यह महाराष्ट्र सीमा के पास बहुमत से जनजातीय आबादी वाला एक निस्तेज पहाड़ी शहर है.
उपवास बंजर खेत के एक फैलाव पर आयोजित किया गया था, जिसे मोदी के आने की उम्मीद में तुरंत हल चलाकर बराबर किया गया था. दूर से देख कर लगता था,जैसे यहां किसी उत्सव का आयोजन होना है. पार्किंग में स्टेट ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन की 100 से ज्यादा बसें थीं, जो जिले भर से इसमें शामिल होने वालों को लाने ले जाने का काम कर रही थीं. पास में ही खड़े कई ट्रकों को भीड़ ने घेर रखा था. राज्य कर्मचारी मुफ्त में अमरूद, स्ट्राबेरी और आम के पौधे बांट रहे थे.
सफेद टेंट के भीतर मोदी को स्टेज पर उपवास करते देखने के लिए 10,000 से ज्यादा लोग इकट्ठा हुए थे. भीड़ में चारों ओर प्लाज्मा टीवी लगाए गए थे, ताकि मोदी का चेहरा लोगों को करीब से दिखाई दे. स्टेज पर कम से कम 50 लोगों से घिरे मोदी एक ही मुद्रा में बैठे थे. वो चिंतनशील मुद्रा में, दार्शनिक की मूर्ति की तरह एक हाथ से अपने माथे को छू रहे थे. उनकी ठोड़ी को उनके अंगूठे का सहारा था. सुबह से शाम तक वो उन नेताओं और धार्मिक नेताओं का भाषण सुनते जो उनके किए का कसीदा पढ़ते. हर स्क्रीन पर बेहद साफ नजर आ रहे मोदी के चेहरे से लग रहा था कि वो पूरा जोर देकर ध्यान लगा रहे हैं. इस बीच भीड़ पर भी गहन नजर बनाए हुए हैं. थोड़ी देर पीछे बैठने के बाद मैं खड़ा हुआ और सीधे पहली कतार में चला गया. 100 मीटर की दूरी थी,फिर भी मुझे पक्के तौर पर लगा कि मोदी की निगाहें मेरा पीछा कर रही हैं.
मोदी जिनके लिए राज्य के कुशल नेतृत्व के तहत पूर्ण नियंत्रण में व्यक्तिगत रूप से आदेश देने या पूछताछ करने के लिए निम्न स्तर के स्थानीय अधिकारियों को बुलाना शामिल है. उसमें पत्रकारों पर निगाह रखना स्वाभाविक रूप से आ जाता है. मई 2002 में जब लोक रिपोर्टर के बीच ये बात फैलने लगी कि मोदी असल में शादीशुदा हैं, तो गांधीनगर में इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार दर्शन देसाई ने सीएम की पत्नी को वडनगर के पास उनके गांव में ढूंढ निकाला. वो एक दिन अहले सुबह ब्राह्मणवाड़ा गांव के लिए निकल पड़े और जशोदाबेन, उनके भाई और उस स्कूल के हेडमास्टर से मिले,जहां वो पढ़ा रही थीं. उनमें से कोई इंटरव्यू के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि उन्हें बदले का डर था. लोकल बीजेपी के कई लोगों ने ये साफ किया कि उनके सवालों की जरूरत नहीं है, साथ ही उन्हें वहां से जाने के लिए कहा गया.
देसाई ने मुझे बताया, “मुझे याद है कि मैंने बस घर पहुंच जूते उतारे ही थे कि मेरे सेल फोन पर कॉल आई. उधर से आ रही आवाज ने गुजराती में कहा, ‘सीएम आपसे बात करना चाहते हैं.’ तुरंत मोदी लाइन पर आए. उन्होंने कहा, ‘नमस्कार’ और फिर पूछा, ‘तो फिर एजेंडा क्या है?’
देसाई ने बताया, मैंने कहा, ‘मैं समझा नहीं.’ उन्होंने कहा, ‘आपने मेरे खिलाफ लिखा है. यहां तक की आपके अख़बार ने भी मोदी मीटर शुरू किया है.’ वो उस कॉलम की बात कर रहे थे, जो मेरे पेपर ने दंगों के दौरान चलाया था,मैं शांत रहा. उन्होंने कहा, ‘मुझे’ पता है कि आज आप क्या कर रहे थे? आपने जो किया है, वो हद पार करना है. और इसी लिए मैं जानना चाहता हूं कि आपका एजेंडा क्या है?’ मैं डरा नहीं था, लेकिन थोड़ा नर्वस था. मैंने कहा, ‘मेरा कोई एजेंडा नहीं है. आप मेरे संपादक से संपर्क कर सकते हैं. फिर उन्होंने कहा, ‘ठीक है, इसके बारे में सोचना,’ और फोन रख दिया.”
मोदी के ऑफिस से इंटरव्यू का अनुरोध करते हुए मैंने कई चिट्ठियां लिखीं. लेकिन जब कोई जवाब नहीं आया तो मैंने उनके जनसंपर्क अधिकारी जगदीश ठक्कर से बात की. उन्होंने मुझे बताया, “आपको पता है, मोदीजी से मिलना बहुत मुश्किल है. वे खुद चुनते और तय करते हैं कि किससे मिलना है.” फिर भी, मैं ठक्कर के साथ अपने प्रयासों में लगा रहा. जब मोदी चीन में एक व्यापारिक दल का नेतृत्व कर रहे थे तब मैंने उन्हें फोन किया और तब भी किया जब मोदी पोरबंदर में महात्मा गांधी की जन्मस्थली पर उपवास पर बैठे थे. ठक्कर ने मुझे भरोसा दिलाया, “आपके सभी संदेश मोदीजी तक ठीक से पहुंचा दिए हैं. उन्हें पता है, आप मिलने की कोशिश कर रहे हैं और उन्होंने आपकी चिट्ठियां पढी हैं. लेकिन उन्होंने इस बारे में मुझे कुछ नहीं कहा है.” मोदी के सोनगढ़ वाले उपवास से पहले मैंने ठक्कर को एक बार फिर बताया, “मैं मोदी के व्रत में शामिल रहूंगा, पूछिए! क्या मोदी एक घंटे का वक्त मुझे दे सकते हैं?”
अन्य पत्रकारों ने मेरी इस राय से सहमति जताई कि मोदी बहुत कम अखबार या पत्रिकाओं के पत्रकारों से बात करते हैं. जब उन्हें जरूरी लगता है तो वह टीवी चैनलों को इंटरव्यू देना बेहतर समझते हैं. साल 2007 में करण थापर ने सीएनएन-आईबीएन पर मोदी का एक बेहद मशहूर और विवादास्पद इंटरव्यू किया था. थापर ने मुझे बताया कि 18 महीने मोदी को राजी करने में लगे. थापर ने कहा, “मुझे याद है कि मैं उन्हें हर हफ्ते खत लिखता था लेकिन वह कभी जवाब नहीं देते थे. हार कर मैं मोदी के दोस्त अरुण जेटली के पास गया और उन्होंने मोदी को राजी कर लिया.”
थापर का मोदी के साथ 30 मिनट तक होने वाला इंटरव्यू महज तीन मिनट चला पाया. थापर ने प्रशासक के रूप में मोदी के कौशल को मिल रही वाहवाही से अपना पहला सवाल शुरू किया. थापर ने पूछा, “लेकिन फिर भी लोग आपको मुंह पर "सामूहिक हत्यारा" कहते हैं, वे आपके ऊपर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप भी लगाते हैं. क्या आप छवि के संकट का सामना कर रहे हैं?”
मोदी का चेहरा सख्त और लाल हो गया. उन्होंने कुछ अबूझ से शब्द बोले. साफ दिख रहा था कि वह गुस्सा हैं. कुछ ही देर में उन्होंने ब्रेक लेने की बात की और अपने कुर्ते से लैपल माइक हटाकर घोषणा की कि वे इंटरव्यू समाप्त कर रहे हैं और वहां से चले गए. उन्होंने थापर से कहा, “आप यहां आए, दोस्ती बनाई. आपके अपने विचार हैं, आप उसी को दोहराते रहते हैं.”
अचानक से खत्म हुए इस इंटरव्यू को सीनएनए-आईबीएन ने समाचार की तरह बार-बार चलाया- “मोदी इंटरव्यू से भाग गए”. चैनल ने इसे 33 बार दोहराया. थापर ने बताया कि अगले दिन उन्हें मोदी का फोन आया. वह याद करते हैं, “मोदी ने मुझसे पूछा, ‘क्या आप मेरे कंधे पर रख कर अपनी बंदूक चला रहे हैं?’ मैंने कहा, ‘क्या मैंने आपसे नहीं कहा था कि इंटरव्यू पूरा करना बेहतर रहेगा?’ बातचीत से लग रहा था कि वे सहज हैं. उन्होंने कहा कि अगली बार जब वे दिल्ली आएंगे तो साथ डिनर करेंगे और मुझे दोबारा इंटरव्यू देंगे. बातचीत के दौरान शायद उन्होंने, ‘आई लव यू’ भी कहा था.” थापर ने मुझे बताया कि पिछले पांच सालों में उन्होंने मोदी को हर छठे हफ्ते खत लिखा है लेकिन मोदी ने कभी जवाब नहीं दिया.
सोनगढ़ के स्टेज पर बीजेपी के मंत्री और नीति निर्माता बारी-बारी से मोदी को राशन कार्डों, सरकारी स्कूल में खेल के मैदानों और बोरबेल की संख्या बताने लगे, जो मोदी के शासनकाल में जिले को मिले हैं. भीड़ भी मोदी के साथ व्रत कर रही थी और थकी नजर आ रही थी. साथ ही उद्घोषक अक्सर “भारत माता की जय! गुजरात की जय! नरेन्द्रभाई मोदी की जय!” के नारे लगाता और भीड़ वापस से नारे लगाने लगती. मंच से कुछ मध्यम आयु वर्ग के पुरुषों और महिलाओं ने मोदी के सम्मान में एक कर्कशी आवाज में बेसुरा गाना गाया जो कुछ इस तरह था- “आओ ढोल बजाएं, आओ मेल-मिलाप के ढोल बजाएं, आओ मुख्यमंत्री के लिए ढोल बजाएं.” जब गाना खत्म हो गया तो उद्घोषक ने बताया, “आपके सम्मान में यह खूबसूरत गीत किसी और नहीं बल्कि खुद जिला कलेक्टर आरजे पटेल ने लिखा, बनाया और बजाया है.” लोगों ने ताली बजाई. मोदी जस के तस बने रहे और कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
पार्टी के लोगों की कुछ घंटों की चमाचागिरी के बाद, जिसका वैसे तो सीएम के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, मोदी उठे और कतार में खड़े लोगों से मिलने लगे. वहां खड़े तमाम लोग जोश से भरे थे और बहुतों के हाथों में तोहफे थे. कुछ लोगों के हाथों में शाल या गुलदस्ते भी थे. एक सज्जन अपने हाथों से बनी मोदी की तस्वीर लेकर आए थे. अन्य दो महिलाओं ने मोदी को कढ़ाई कर बनाई तस्वीर दी. मोदी की जैसी प्रशंसा वहां हुई, वह अद्भुत थी.
जब यह साफ हो गया कि सुबह पांच बजे तक मोदी अपना व्रत नहीं तोड़ेंगे और न ही तब तक कुछ बोलेंगे, तो मैंने कांग्रेस द्वारा सोनगढ़ बस स्टैंड पर आयोजित उपवास को देखने जाने का फैसला किया. जब मैं पहली कतार से जाने के लिए खड़ा हुआ तो मोदी ने अपना हाथ ऊपर उठाकर मेरी ओर इशारा किया. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या मोदी मुझे बुला रहे हैं? उन्होंने फिर हाथ हिलाया जैसे कह रहे हों कि, “हां तुम ही”. फिर उन्होंने ठक्कर को इशारा किया जो स्टेज पर पहुंचकर मोदी के मुंह के पास अपना कान लगाकर सुनने लगे. एक या दो मिनट बाद 60 साल के बुजुर्ग ठक्कर दौड़ते हुए मेरी ओर आए. वे कांप रहे थे. मुझे एक क्षण के लिए डर लगा कि वे अपना संतुलन खो देंगे. लेकिन उन्होंने मेरे हाथ पकड़ लिया और हांफते हुए कहा, “मोदीजी आपसे मिलेंगे और साक्षात्कार भी देंगे, लेकिन आज नहीं. उन्हें व्रत के लिए मंच पर बैठना है. गांधीनगर के उनके ऑफिस में अगला शुक्रवार कैसा रहेगा?” मैंने स्टेज पर मौजूद मोदी को देखा. उन्होंने अपना सिर "हां" में हिलाकर मुझे इशारा किया और फिर मेरी ओर अपना हाथ उठाया.
'कांग्रेस का प्रतिस्पर्धी उपवास' वैसे एक कम भव्य आयोजन था. वहां 2000 से भी कम लोग मौजूद थे. जो कंधे से कंधे तक जुड़े थे. तुल्नात्मक रूप से छोटे और गंदे टेंट में उन्हें पसीना आ रहा था. पार्टी के करीब 40 नेता छोटे से मंच पर किसी भीड़ की तरह मौजूद थे. केंद्र में तुषार चौधरी थे, जो केंद्रीय मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री अमरसिंह चौधरी के बेटे हैं. जब वो स्टेज से उतरे तो मैंने उनसे पूछा,'' वो और उनकी पार्टी उपवास करके मोदी की नकल क्यों कर रहे हैं? क्या लोगों तक पहुंचने का कोई और तरीका नहीं है?'' उन्होंने कहा, “हम मोदी की नकल नहीं कर रहे हैं, बल्कि हम इस मौके को ये जागरुकता फैलाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं कि, मोदी में कोई सद्भावना नहीं है. जैसे कि सोनगढ़ में ही,जहां आदिवासी आबादी बहुत बड़ी है,हम एक खतरनाक बीमारी ‘सिकल सेल एनिमिया’ का सामना कर रहे हैं. पिछले कुछ हफ्तों में वहां 160 लोगों की मौत हुई है, लेकिन मोदी ने वहां कुछ नहीं किया. जबकि, दो हफ्ते पहले नेपाल में एक हल्के भूकंप से हुई 30 लोगों की मौत पर मोदी ने तुरंत घोषणा की कि गुजरात सरकार, नेपाल को पैसे भेजेगी. ऐसे बड़े विरोधाभास मोदी के काम करने का हिस्सा हैं. इसीलिए हम ये संदेश फैला रहे हैं,”
चौधरी ने कहा,अगर पार्टी में एकता हो तो मोदी को हराया जा सकता है. लेकिन इसकी उम्मीद बहुत कम है. तम्बू के पीछे मैंने एक कांग्रेस कार्यकर्ता से बात की जो छोटे स्तर पर प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिस्पर्धी गुटों के पास मुझे ले गया. उसने बताया, वह साथी सोनगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री सोलंकी के बेटे का आदमी है, वो शंकरसिंह वाघेला का आदमी है, बिना बालों वाला व्यक्ति शक्ति सिंह गोहिल का आदमी है, जो विधानसभा में कांग्रेस के विपक्ष के नेता हैं, अगला अहमद पटेल का आदमी है जो की सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव हैं और ये सिलसिला जारी रहा.
जब मैं मोदी के भाषण के लिए लौटा, तो महौल काफी बदल चुका था. सब कुछ अपनी जगह पर बिल्कुल ठीक था. मंत्री तारीफ करने लगे, धार्मिक नेता आशीर्वाद देने लगे. अंत में मोदी अपना भाषण देने के लिए खड़े हुए, उनकी निगाहें सिर्फ भविष्य पर थी.
मोदी के हाथों में कागज के तीन छोटे टुकड़े थे, जिनमें वो विकास कार्यक्रम लिखे थे, जो उन्होंने सोनगढ़ के लिए बनाए थे. वो गरजे, “ज़िले के लिए 200 करोड़ रुपए!” और फिर हर प्रोजेक्ट के बारे में विस्तार से बताया. एक नया पुल, जंगलों में सड़क, एक जलाशय. जब ये समाप्त हो गया तो उन्होंने बोलना शुरू किया “विकास…विकासस...विकासससस.”
उन्होंने कहा, “जब दुनिया विकास के बारे में पूछती है तो 'गुजरात' का नाम सामने आता है. जब वो गुजरात के बारे में पूछते हैं तो उन्हें विकास नजर आता है! विकास! गुजरात! गुजरात! विकास!”
मोदी ने पहले अपने हाथों को बायें से दायें घुमाया और फिर दायें से बायें। इसके साथ शब्द निकले...“गुजरात-विकास! विकाससस-गुजरात!”
प्रेम में डूबी जनता के सामने मंच पर मोदी की,नाटक के ऊपर पूरी पकड़ थी. वो बहुते तेज, मजबूती और आत्मविश्वास के साथ बोल रहे थे. एक ऐसे नेता कि तरह जो लोगों को भरोसा दिला रहा हो कि,वो सब संभाल लेगा. उन्होंने अपने हालिया चीन दौरे के बारे में बात करते हुए एक राजनेता का रुख अख्तियार कर लिया,उन्होंने कहा, गुजरात में पैदा होने वाला बैंगन यूरोप नहीं जाता था, राज्य के व्यापारियों और व्यापारिक संवेदनशीलता से अपील करते हुए, उन्होंने कहा कि दुनिया के सबसे बड़े कार निर्माताओं ने उनकी मेज पर अपना प्लांट गुजरात में लगाने की अपील की भरमार लगा दी है. उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर गुजरात में कुछ भी गलत है तो ये केंद्र की कांग्रेस नीत सरकार का दोष है,जो उनके साथ काम करने को तैयार नहीं है. वो बिना तैयार और बिना किसी दोष के बोल रहे थे. उनकी निगाहें पूरी तरह से दर्शकों पर टिकी थीं. जब वो बोल रहे थे तो टेंट में पूरी तरह खामोशी छा गई. किसी का ध्यान फोन पर नहीं था. कहीं प्लास्टिक के चरमराने की आवाज नहीं थी. कई लोगों के मुंह खुले के खुले रह गए.
अगर सदभावना उपवास-वहां भक्ति में डूबे लोगों और देश भर में चले प्रचार अभियान, भविष्य में मोदी की राजनीतिक महत्वकांक्षाओं की विशालता को दर्शाते हैं, तो गुजरात में बनाए जा रहे विशाल वास्तुशिल्प परियोजनाओं का स्तर उनके विरासत में स्मारकों को स्थापित करने की समान रूप से भव्य इच्छा को दिखाते है. मैंने 20 से ज़्यादा उच्च अधिकारियों, वास्तुकारों, मैनेजरों और योजना बनाने वालों से बात की,जो मोदी के निर्माण कार्यों में लगे थे. सबने नाम उजागर नहीं करने का अनुरोध किया,क्योंकि मोदी से उनका रोज का संपर्क था. एक ने कहा, “अगर उन्हें पता चला कि,मैंने आपसे बात कि है तो ये मेरे लिए बेहद घातक होगा. मेरा नाम मत लिखिएगा.” मोदी के तहत काम कर रहे कुछ डिजाइनर और योजनाकार वैसे भारतीय हैं, जो विदेश से लौटे हैं.
2007 वाइब्रेंट गुजरात समिट के कुछ हफ्ते पहले मोदी ने फैसला किया कि, वह अहमदाबाद में बड़े पैमाने पर शहरी नवीकरण कार्यक्रम की योजनाओं को प्रदर्शित करना चाहते हैं, जिनमें ''साबरमती रिवरफ्रंट विकास प्रोजेक्ट''भी शामिल था. साबरमती, शहर को दो भागों में बांट देता है और प्रस्तावित पुनर्विकास कम से कम 10000 लोगों को विस्थापित कर देगा. जो नदी के दोनों ओर बस्तियों में रहते हैं. नदी के किनारे 12 किमी तक 500 एकड़ जमीन ली जाएगी, जिसमें पार्क, प्रोमेनाड, बाजार, कार्यालय और व्यापार केंद्र बनाए जाएंगे. ये मोदी का आइडिया नहीं था, बल्कि, लंदन और पेरिस जैसे नदी किनारे वाले महान शहरों के उदाहरण से प्रेरित था. पहली बार इसे 50 साल पहले फ्रांस के लिए वास्तुकार ने प्रस्तावित किया था. इसे सालों तक स्थगित रखा गया, जो 1990 के दौरान ड्राइंगबोर्ड से थोड़ा आगे बढ़ा. फिर 2001 में आए भूकंप के बाद इसे एक बार फिर किनारे कर दिया गया. जिसकी वजह से राज्य के खजाने में सेंध नहीं लगी. लेकिन 2002 के दंगों के बाद मोदी को एक अवसर नजर आया. प्रोजेक्ट में शामिल एक अधिकारी ने कहा, “दंगों के बाद रिवरफ्रंट उन पहली परियोजनाओं में से एक थी,जिसे मोदी ने यह दिखाने के लिए गले लगाया कि वह एक विकास समर्थक व्यक्ति हैं.”
2007 निवेश सम्मेलन के समय पुनर्विकास की संभावना के बारे में ज़्यादा पता नहीं था. मोदी ने प्रोजेक्ट से जुड़े अधिकारी से एक बड़ा दृश्य चित्रण मांगा जो आने वाले व्यापारियों के समूह को दिखाया जा सके. परियोजना से जुड़े अधिकारी ने मुझे बताया, “वास्तुकार से हमने एक बड़ा कैनवास बनवाया. ये 12 मीटर लंबा और 4 मीटर ऊंचा था. इसे उठाने में दो दर्जन लोग लगे.”
परियोजना अधिकारी ने कहा, “सम्मेलन की शाम मोदी इस नमूने को देखने आए. ये ठीक वैसा मॉडल नहीं था. ये किसी वास्तुकार की ब्लैक-एंड-व्हाइट ड्राइंग की तरह था जिसमें ''नहीं को नीला'' रंगा गया था. जिसने भी इसे देखा वो आनंदित था लेकिन,मोदी को ये पसंद नहीं आया. उन्होंने भुनभनाते हुए हमसे कहा, ‘आपका नक्शा एक ‘बंजर खिड़की’ सा नजर आता है. इसको रंगीन बनाकर इसे पेंट कीजिए.’”
परियोजना अधिकारी ने कहा, “वास्तुकार आग बबूला हो गए-उन्होंने कहा, ‘क्या उन्हें पता भी है कि वास्तुकार का नक्शा कैसा होता है?’ फिर मैंने कहा, ‘वो बॉस हैं, आइए ऐसा ही करते हैं.’ उस रात हमने बड़ा सा कैनवास खरीदा, और करीब 40 कलाकारों ने चारों तरफ रंगते हुए इस पर काम किया. अगले दिन तक हमने मोदी की ''बंजर खिड़की'' को ''गुजराती दुल्हन'' की तरह सजा दिया.”
परियोजना अधिकारी ने आगे कहा, “इस व्यक्ति को पता है कि उन्हें क्या चाहिए? अगर एक वास्तुकार को उनके सामने उनके सलाह की मूर्खता का एहसास होता है तो, अगर वो विश्व प्रमुख वास्तुकार है तो भी चुप रहेगा और वही करेगा जो कहा गया है.”
अहमदाबाद से 30 किलोमीटर दूर, धूल से भरे घास के मैदान वाली बंजर जमीन पर मोदी की सबसे बृहद निर्माण परियोजना आकार ले रही थी. बिल्कुल नई और बहुत बड़ी. अकेली आर्थिक राजधानी, ‘भारत के शंघाई का अपना रूप’. जिसे जमीन से तैयार किया गया हो. इसका तटस्थ उपनाम गुजरात इंटरनेशनल फाइनेंस टेक-सिटी (या “गिफ्ट सिटी”) रखा गया. जिसके प्लान के तहत 886 एकड़ में 124 गगनचुंबी इमारते बनाई जानी हैं, जिसमें 75 मिलियन स्क्वॉयर फिट जगह ऑफिस के लिए होगी, जो शंघाई, टोक्टो और लंदन के आर्थिक जिलों को मिला देने पर भी उनसे ज़्यादा है. मोदी उन आर्थिक कंपनियों को 2017 तक ललचाकर गुजरात लाना चाहते हैं,जिन्होंने मुंबई में अपना मुख्यालय खोल रखा है. पूंजी बाजार, व्यापार डेस्क, हेज फंड, सॉफ्टवेयर बनाने और बैंकों के अलावा बीमा कंपनियों को बैक एंड ऑपरेशन के क्षेत्र में उम्मीद है कि 2020 तक भारत 11 मिलियन नौकरियां और 425 बिलियन डॉलर का विकास करेगा, और मोदी का प्लान ''गिफ्ट सिटी'' के इसी बड़े टुकड़े को अपने हिस्से में करने का है.
अपना शंघाई बनाने के लिए मोदी ने वास्तुकारों को सीधे सूत्र से भर्ती किया है. शहर का डिजाइन 'पूर्वी चीन वास्तुकला डिजाइन और अनुसंधान संस्थान' कर रही है. इन्होंने ही शंघाई का ज़्यादातर आधुनिक डिजाइन तैयार किया है. एक वास्तुकार ने जिसने मोदी की कई परियोजनाओं पर काम किया मुझे बताया, “चित्रकारी का हर हिस्सा चीन से आता है. मोदी उन पर भरोसा करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि, उन्हें क्या चाहिए. वो चीन गए हैं जहां, शंघाई ने उनका दिल जीत लिया. वो इसकी नकल करना चाहते हैं, शीशे से बनी एक संपदा की तरह.”
बिल्डिंग निर्माण की जगह पर एक मैनेजर ने मुझसे कहा, ''गिफ्ट सिटी'' परियोजना अपने दूसरे पड़ाव में है. जमीन समतल कर दी गई है और पहले दो टावरों का निर्माण हो रहा है. इसके जरिए कंप्यूटर और तकनीक से जुड़ी कंपनियों के लिए दो मिलियन स्क्वॉयर फीट जगह दिए जाने की योजना है. एक और परियोजना मैनेजर ने कहा, “आईटी कंपनियों को टैक्स पर मिलने वाली छूट 2013 में समाप्त हो रही है, जिससे 10 लाख से ज़्यादा कर्मचारी यहां आएंगे. तब ये भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी शहरी परियोजना बन जाएगी. यही वो समय होगा, जब मोदी को आश्चर्यचकित करने वाली शीशे की बिल्डिंग तैयार होंगी. जिसके केंद्र में 'डायमंड टावर' शामिल होगा. 80 माले की इस गगनचुंबी इमारत को ऐसे बनाया गया है कि देखने में ये तराशे गए हीरे की तरह लगे. यहां एक ''नागा टावर'' भी होगा. जिसके नाम के पीछे की वजह यह है कि ये एक उलझे हुए सांप की तरह दिखेगा.”
वास्तुकार ने आगे कहा, “जब मैंने एक वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में ये डिजाइन देखा तो सदमे में था. इसे देखकर मुझे लगा कि ये एक बहुत ही विदेशी किस्म का अजीब विचार है. मुझे लगा कि जैसे राजा आदेश दे रहा हो कि, ‘जाओ और मेरे लिए एक नया साम्राज्य तैयार कर दो,और कोई इस आदेश का पालन करने लग गया हो.’”
मोदी के लिए काम करने वाले एक और वास्तुकार ने तो इसे और नाटकीय रूप में प्रस्तुत किया, “मुझे पता नहीं कि मैं अल्बर्ट स्पिअर या रॉबर्ट मोसे हूं. मुझे उम्मीद है कि ये दूसरा वाला हो.” न्यूयॉर्क शहर के निर्माण में मोसे का सबसे ज़्यादा योगदान था. हालांकि, उन्होंने धड़ल्ले से कई बहुत बड़ी परियोजनाओं को लागू करवाया. जिसकी वजह से कई न्यूयॉर्क वासी उनके दुश्मन बन गए. वहीं, अल्बर्ट स्पिअर, हिटलर का वास्तुकार था.
हालांकि मोदी की ज्यादातर वास्तु परियोजनाएं भविष्य पर उनके दावे को दिखाते हैं. गांधीनगर का महात्मा मंदिर, अतीत पर उनके स्वामित्व का दावा करने के प्रयास की ओर इशारा करता है. मोदी ने भवन परिसर को गांधी को श्रद्धांजलि के रूप में वर्णित किया है. लेकिन एक आरएसएस विचारधारा की अजीब दृष्टि के अलावा भी,एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के प्रतीक को लागू करने के लिए,जिससे संघ हमेशा घृणा करता है. महात्मा मंदिर,गांधी के बारे में लगभग कुछ भी नहीं दर्शाता. हां, वहां एक बड़ा कंक्रीट का चरखा जरूर है, जिसके साथ रेत के ढेर से बनी महात्मा की मूर्ति है. (बिल्डिंग के एक मैनेजर ने कहा, “जल्द ही हमारे पास तस्वीरों की एक प्रदर्शनी और गांधी की किताबें भी होंगी.”) लेकिन मोटे तौर पर बिना खिड़कियों वाली कंक्रीट की भूरी संरचना, जो अभी भी आंशिक रूप से निर्माणाधीन है,एक विशाल साबुन के बक्से जैसी दिखती है. इसके भीतर कई सारे सम्मेलन कक्ष और ध्वनिरोधी सभागार बने हैं. ये वैसी जगहें हैं ,जिनका इस्तेमाल वाइब्रेंट गुजरात जैसे सम्मेलनों की डील करने के लिए किया जा सकता है. यहां के मेरे दो दौरों के दौरान जिन लोगों को मैंने देखा उनमें सिर्फ व्यवसायी थे ,जो फाइलों के साथ यहां-वहां जा रहे थे. इनके अलावा पुलिस वाले और सुरक्षा बल थे, जो या तो बिल्डिंग या अंदर मौजूद गणमान्य व्यक्तियों की सुरक्षा में लगे थे.
जब मैं गांधीनगर में था, तो मोदी के साथ मेरे मिलने का समय आ गया था. मैंने एक दिन पहले ही मोदी के आदमी जगदीश ठक्कर से संपर्क साधा. कुछ घंटों बाद उन्होंने मुझे फोन किया और कहा, “माफ कीजिएगा, मोदीजी ने कहा है कि वो आपसे नहीं मिल सकते...सच में माफ कीजिएगा. ऐसा संभव नहीं है.” अगले कुछ महीनों तो मैं, इसके लिए कई बार अनुरोध करता रहा- चिट्ठियां, टेक्सट मैसेज, फोन कॉल सब किया. लेकिन कोई जवाब नहीं आया और न ही ये पता चला कि कौन सी बात से मोदी का हृदय परिवर्तन हो गया.
गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे कहा, “अगर वो सोनगढ़ में सच में आपसे मिलना चाहते थे, फिर कदम वापस खींच लिए तो इसके पीछे ये कारण होना चाहिए कि इस बात की ढेर सारी खुफिया जानकारी इकट्ठा कर ली गई होंगी कि आपने यहां किस तरह के लोगों का साक्षात्कार लिया है. क्या किसी संयोग की वजह से, आपकी मुलाकात गोवर्धन झड़ापिया से हुई ?” मैंने 'हां' में जवाब दिया. फिर पत्रकार ने कहा, “तभी तो, इस बात से वो चिढ़ गए होंगे. क्या आपने ‘दंगे वाला दौरा किया’?” मैंने पूछा कि आपका मतलब उन इलाकों से है, जो 2002 के दंगों में तबाह हो गए थे और मैंने कहा कि 'हां' मैं वहां गया था.
पत्रकार ने बेहत तीखे अंदाज़ में कहा, “अगर आप मोदी के बारे में लिखना चाहते हैं तो फिर आप सीधे उनके पास जाइए और वही लिखिए जो वो चाहते हैं. आप गुजरात में घूम-घूम कर हर तरह के लोगों से नहीं मिल सकते. दरअसल उन्हें पता है कि एक छद्म-धर्मनिरपेक्ष हैं, जो उन्हें लेकर पूर्वाग्रहित है-फिर उन्हें आपसे क्यों मिलना चाहिए”?
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2002 के दंगों के समय गोवर्धन झड़ापिया गुजरात के गृह मामलों के राज्यमंत्री थे. मोदी के पास गृह मंत्रालय था और वो उनके कनिष्ठ थे. मोदी की तरह उन पर भी हिंसा में शामिल होने के आरोप हैं. गुजरात में 15 सालों तक वीएचपी के नेता रहे झड़ापिया 1990 के दौरान बीजेपी में शामिल हुए थे. झड़ापिया ने बताया, “आरएसएस ने मुझसे बीजेपी में काम करने को कहा और मैं गुजरात में पार्टी का प्रधान सचिव बन गया.”
वो गुजरात बीजेपी के तीन अहम नेताओं में से एक हैं. तीनों के भीतर संघ का भरपूर प्रभाव रहा है.झड़ापिया ने पार्टी के भीतर मोदी की निरंकुशता के खिलाफ आवाज उठाई थी. मोदी के राजस्व मंत्री के तौर पर काम करने वाले हरेन पांड्या की पहले 2003 में रहस्यमई परिस्थितियों में मौत हो गई. फिर बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव बने सजंय जोशी को तब इस्तीफा देना पड़ा,जब एक सीडी में वो एक नग्न महिला के साथ नजर आए. बाद में पता चला की ये सीडी झूठी है. इस सीडी को बीजेपी नेताओं तक फैलाने वाले का आज तक पता नहीं चला. तीसरे झड़ापिया थे, जिन्हें 2002 के अंत तक पहले मंत्रिमंडल से और फिर पार्टी से भी बाहर का रास्ता दिखाया गया.
झड़ापिया ने मुझसे कहा, “मोदी सिर्फ एक अक्षर समझते हैं और वो है "मैं". मुझे सीधे मोदी से मौत की धमकी मिली थी.”
झड़ापिया ने आगे कहा, “फरवरी 2005 में मैंने राज्य पुलिस के एक खुफिया अधिकारी को मेरा पीछे करते देखा, जब मैंने उसे पकड़ा तो उसने कहा कि उसे, गृह मंत्रालय से मेरा पीछा करने के आदेश मिले हैं.” झड़ापिया ने कहा कि कुछ दिनों बाद बीजेपी विधायकों की सीएम के साथ एक मीटिंग थी. उन्होंने कहा, “मैंने मोदी से मीटिंग में पूछा, ‘आप अपने पार्टी के विधायकों के खिलाफ किस तरह की जासूस गतिविधि कर रहे हैं?’ मैंने पूछा कि एक खुफिया अधिकारी मेरा पीछा क्यों कर रहा है? फिर एक वरिष्ठ मंत्री वाजूभाई वाला ने माइक्रोफोन लिया और कहा, ‘गोवर्धनभाई, शांत हो जाओ. हम इसका पता लगाएंगे, लेकिन अभी ये सवाल नहीं बनता है.’ मोदी ने कुछ नहीं बोला लेकिन उनके सचिव ने मुझे एक पर्ची दी जिसमें लिखा था, ‘कृप्या सीएम से मिलें.’”
उन्होंने आगे कहा, “मीटिंग के बाद मैं उनसे उनके चेंबर में मिला. (उप गृहमंत्री) अमित शाह वहां वैठे थे. मोदी ने मुझसे पूछा, ‘आप इस तरह से सवाल सरेआम क्यों पूछ रहे हैं?’ मैंने कहा, ‘मैं क्या करूं? ये कोई निजी मसला नहीं है.’ फिर उन्होंने सख्ती से मेरी आंखों में देखा और कहा, ‘ख़त्म हो जाओगे गोवर्धनभाई...’आप खत्म होने वाले हैं.”
झड़ापिया ने कहा, “मैंने पूछा आप किस तरह से खत्म होने की बात कर रहे हैं? शारीरिक या राजनीतिक?”
“मोदी ने कहा, ‘आपने एल के आडवाणी और ओम माथुर से दिल्ली में मेरी शिकायत की है?’
“मैंने कहा, हां! बिल्कुल. मेरे पास दिल्ली के लोगों से शिकायत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. लेकिन अगर आप कह रहे हैं कि आप मुझे समाप्त कर देंगे तो मैं आपको बता दूं कि मैं तभी मरुंगा, जब मेरा समय पूरा हो जाएगा. फिर कभी मुझे धमकी देने की कोशिश मत कीजिएगा.”
झड़ापिया अब एक पुलिस रक्षक दल और एक दर्जन सुरक्षा कर्मियों के साथ घूमते हैं. एक पूर्व उप गृह मंत्री के तौर पर और उस समय विवादित रहने की वजह से, सरकार ने उन्हें दंगों के बाद सुरक्षा मुहैया कराई थी. हालांकि, पांड्या के साथ ऐसा नहीं था. झड़ापिया ने कहा, “हरेन निर्भिक थे. उन्हें लगता था कि उन्हें कुछ नहीं होगा. ये एक गलती थी.”
आरएसएस से आने वाले और मीडिया में जबरदस्त पैठ रखने वाले, लंबे और सुंदर ब्राह्मण हरेन पांड्या गुजरात बीजेपी के भीतर मोदी के जबरदस्त राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे. दोनों सार्वजनिक रूप से 2001 में भिड़े. वह वक्त था जब मुख्यमंत्री नियुक्त हो जाने के बाद मोदी विधानसभा में अपनी जीत के लिए सुरक्षित सीट ढूंढ रहे थे. वह पांड्या के क्षेत्र अहमदाबाद के एलिसब्रिज से उपचुनाव लड़ना चाहते थे. यह बीजेपी के लिए बेहद सुरक्षित सीट थी. लेकिन पांड्या, मोदी के लिए सीट छोड़ने के लिए राजी नहीं हुए. बीजेपी के एक राज्य पदाधिकारी ने पांड्या के कथन को इस तरह याद किया, “मुझे बीजेपी के किसी युवा के लिए यह सीट खाली करने को कहा जाए तो मैं कर दूंगा, लेकिन इस आदमी के लिए नहीं करूंगा.”
दंगों के तीन महीने बाद मई 2002 में पांड्या ने गुप्त रूप से न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर की अगुआई में एक स्वतंत्र जांच-समिति को अपना बयान दे दिया. मोदी को पता नहीं चल सकता था कि पांड्या ने क्या कहा है. लेकिन लिखित रिकॉर्ड से पता चलता है कि मोदी के प्रधान सचिव पीके मिश्रा ने राज्य खुफिया एजेंसी के महानिदेशक को पांड्या पर नजर रखने के निर्देश दिए थे, खासकर जांच-समिति से जुड़ी गतिविधियों पर. खुफिया एजेंसी के महानिदेशक ने 7 जून 2002 को रजिस्टर में लिखा है, “डॉ पीके मिश्रा ने कहा है कि ऐसा शक है कि राजस्व मंत्री श्री हरेनभाई पांड्या के मामले में शामिल हैं. इसके बाद उन्होंने एक मोबाइल नंबर 9824030629 दिया और कॉल डिटेल की जानकारी मांगी.”
पांच दिनों बाद 12 जून 2002 को रजिस्टर में एक और एंट्री है, “डॉ पीके मिश्रा को सूचित किया गया है कि जिस मंत्री की निजी जांच आयोग (न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर) से मुलाकात हुई है वह श्री हरेन पांड्या हैं. मैंने यह भी बताया कि मामला लिखित में नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह मुद्दा काफी संवेदनशील है और राज्य खुफिया ब्यूरो को दिए गए कर्तव्यों का चार्टर बॉम्बे पुलिस मैनुअल से जुड़ा नहीं है. यह भी पता चला है कि फोन नंबर 9824030629 हरेनभाई पांड्या का मोबाइल नंबर है.”
जल्द ही समाचारों से पता चला कि मोदी मंत्रिमंडल के किसी मंत्री ने अय्यर कमीशन के सामने बयान दिया है और ट्रेन जलाए जाने के दिन मोदी के आवास पर हुई मीटिंग के बारे में पहली बार यह पता चला कि उस बैठक में मोदी ने कथित तौर पर उच्च पुलिस और खुफिया अधिकारियों को आदेश दिया कि अगले दिन गोधरा मामले में न्याय होगा और पुलिस को “हिंदू प्रतिक्रिया” की राह में न आने के आदेश दिए.
इस लीक की वजह से मोदी को पांड्या के खिलाफ बीजेपी में अनुशासन का मामला बनाने के पर्याप्त सबूत मिल गए. जिसके दो महीने बाद पांड्या को मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा. लेकिन मोदी यहीं नहीं रुके. राज्य में दिसंबर 2002 में चुनाव होने थे और मोदी के हाथ वह मौका लग गया जिसके तहत वह पांड्या को एलिसब्रिज की उस सीट के लिए मना कर सकते थे जिसे एक साल पहले पांड्या ने खाली करने से इनकार कर दिया था. बीजेपी के भीतर मुख्यमंत्री के करीबी एक शख्स ने मुझसे कहा, “मोदी न तो कभी भूलते हैं और न ही कभी माफ करते हैं. एक नेता के लिए इतने लंबे समय तक बदला लेने में लगे रहना अच्छी बात नहीं होती.”
मोदी नेपांड्या से वह सीट छीन ली जिसका वह 15 सालों से प्रतिनिधित्व करते आए थे. बीजेपी और आरएसएस के नेतृत्व ने मोदी से ऐसा नहीं करने को कहा. लेकिन मोदी अड़े रहे. नवंबर के अंत में आरएसएस नेता मदन दास देवी मोदी से उनके आवास पर मिलने आए और उन्हें आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन, उनके डिप्टी मोहन भागवत, एलके आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी का संदेश सुनायाः बहस करना बंद कीजिए, चुनाव से पहले फूट मत डालिए और पांडया को उनकी सीट वापस दे दीजिए. देवी ने मोदी से देर रात तक बात की लेकिन मोदी नहीं माने. राज्य के पार्टी पदाधिकारी ने बताया, “उन्हें (मोदी) पता था कि उन्हें नागपुर (संघ मुख्यालय) और दिल्ली से फोन आने लग जाएंगे क्योंकि उन्होंने देवी की बात नहीं मानी थी. सो उस रात सुबह 3 बजे वह खिंचाव और थकान की वजह बताकर गांधीनगर सिविल अस्पताल में भर्ती हो गए.”
पार्टी के उस पदाधिकारी के मुताबिक पांड्या मोदी से मिलने हॉस्पिटल गए थे. हरेन ने मोदी से कहा था, “बुजदिल की तरह सोने का नाटक मत कीजिए. मुझे ''न'' कहने की हिम्मत दिखाइए.” मोदी टस से मस नहीं हुए. आखिरकार, आरएसएस और बीजेपी के नेताओं ने हार मान ली. मोदी दो दिनों बाद हॉस्पिटल से निकले और पांड्या की सीट नए नेता को दे दी गई. दिसंबर में वह गोधरा से उपजी सांप्रदायिकता की लहर पर सवार होकर सत्ता में वापस लौट आए.
उधर पांड्या ने दिल्ली से गुजरात तक बीजेपी और आरएसएस के हर बड़े नेता से मिलना शुरू कर दिया और बताने लगे कि अपने निजी स्वार्थ के लिए मोदी पार्टी और संघ दोनों को बर्बाद कर देंगे. वैसे वे वरिष्ठ बीजेपी नेता, जो पंड्या को अभी भी पार्टी के लिए एक अहम व्यक्ति मानते थे, ने तय किया कि पांड्या को राष्ट्रीय कार्यकारी के सदस्य या पार्टी प्रवक्ता के रूप में दिल्ली मुख्यालय बुला लेंगे. गोवर्धन झड़ापिया ने मुझे बताया, “मोदी ने इसे भी विफल करने की कोशिश की क्योंकि पांड्या का दिल्ली जाना दीर्घावधि में मोदी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता था.”
तीन महीने बाद मार्च 2003 में पांड्या को पार्टी अध्यक्ष का फैक्स मिला कि उन्हें दिल्ली आना है. इसके अगले दिन अहमदाबाद में उनकी हत्या कर दी गई. गुजरात पुलिस और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने दावा किया कि पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई), लश्कर-ए-तैयबा और दुबई स्थित अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम ने मिल कर पांड्या की हत्या कराई है. 12 लोगों को गिरफ्तार करके उन पर पांड्या की हत्या का आरोप लगाया गया. लेकिन आठ साल बाद, 2011 सितंबर में, गुजरात हाई कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी करके पूरे मामले को खारिज कर दिया. जज ने कहा, “जांच में पूरी तरह से ढिलाई बरती गई. यह जांच आंखों पर पट्टी बांधकर की गई. संबंधित जांच अधिकारियों को उनके अक्षमता के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. इसकी वजह से अन्याय हुआ. कई लोगों का भारी उत्पीड़न हुआ और सार्वजनिक संसाधनों के गलत इस्तेमाल के अलावा अदालतों का समय भी बर्बाद हुआ.”
पांड्या के पिता विट्ठलभाई ने सरेआम मोदी पर अपने बेटे की हत्या का आरोप लगाते हुए इससे संबंधित एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की थी. याचिका में मुख्यमंत्री की भूमिका की जांच किए जाने की मांग थी. हालांकि अदालत ने साक्ष्यों की कमी का हवाला देकर याचिका को खारिज कर दिया था.
आरबी श्रीकुमार जिन्होंने दंगों के ठीक बाद एक साल तक, राज्य के खुफिया तंत्र का प्रतिनिधित्व किया, उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें मुख्यमंत्री कार्यालय ने हरेन पांड्या की हरकतों और गतिविधियों की जानकारी लगातार देते रहने के लिए कहा गया था.
झड़ापिया ने मुझसे कहा, “मैं यह नहीं कह रहा कि मोदी ने पांड्या की हत्या कराई. लेकिन यह भी सच है कि बीजेपी के भीतर अगर कोई मोदी के खिलाफ मुंह खोलता है तो वह राजनीतिक या शारीरिक रूप से खत्म हो जाता है.”
पांड्या की हत्या के बाद कुछ महीनों तक जांच का जिम्मा गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच के पास था. इसके प्रमुख डीजी वंजारा थे, जो गैंगस्टर सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी के “फेक एंकाउंटर” की वजह से जेल में थे. वंजारा ऐसी ही आधा दर्जन न्यायेत्तर हत्याओं में जांच का सामना कर रहे हैं. जब पांड्य मामले को सीबीआई को सौंप दिया गया तो वंजारा के सहयोगियों में से एक अभय चुडासमा, जो सोहराबुद्दीन की हत्या मामले में जेल जा चुके हैं, को जांच में मदद के लिए सीबीआई के पास भेज दिया गया. पांड्या मामले की जांच का हिस्सा वो दोनों भ्रष्ट अधिकारी थे, जो मोदी के उप गृहमंत्री अमित शाह द्वारा कथित रूप से चलाए जाने वाले उगाही रैकेट का भी हिस्सा थे. मोदी के पसंदीदा लोगों में से एक शाह को फर्जी मुठभेड़, हत्याओं और षड्यंत्र के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, जो अब जमानत पर बाहर है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उनके गुजरात जाने की अनुमति नहीं दी और वे फिलहाल दिल्ली के गुजरात भवन के कमरा नंबर दो में रहते हैं.
नवंबर 2011 में गुजरात हाई कोर्ट ने एक फर्जी मुट्ठभेड़ मामले में अपना फैसला सुनाया. ये मामला साल 2004 में इशरत जहां नाम की युवा लड़की और तीन युवाओं की हत्या का था. पुलिसा का दावा था कि चारों ही लश्कर-ए-तयैबा के आतंकी थे, जो नरेंद्र मोदी की हत्या करना चाहते थे. लेकिन मृतकों के परिवार वालों ने उनके निर्दोष होने का दावा किया है. साथ ही उन पर लगे आरोपों को चुनौती देते हुए एक याचिक भी दायर की है.
कोर्ट में वकीलों, पुलिस, नेताओं और स्थानीय पत्रकारों का तांता लगा था, मैं दूसरी कतार में दोनों पक्षों के वकीलों के पीछे था. जब दोनों जजों का कमरे में प्रवेश हुआ तो वहां शांति थी. दोनों, राज्य के महाधिवक्ता कमल त्रिवेदी से मुखातिब हुए. न्यायधिश जयंत पटेल ने फैसला पढ़ा, “मुठभेड फर्जी नहीं है,ये हम दोनों का फैसला है. जो आरोपी हैं, उन पर मुकदमा चलाने के लिए एक नया मामला दर्ज करना चाहिए.”
पटेल फिर त्रिवेदी और पीड़ितों के वकील मुकुल सिन्हा की ओर मुड़े और कहा, “अब कोर्ट अधिवक्ताओं से जानना चाहती है कि वो मामले की जांच किस एजेंसी से करवाना चाहते हैं?”
त्रिवेदी ने अनुरोध किया, मामला राज्य के भीतर ही रहे, “गुजरात पुलिस को एक और मौका दिया जाना चाहिए. उन्हें मामले की जांच करने का मौका देने की कृपा करें.”
इसके बाद सिन्हा बोले. उन्होंने कहा, “गुजरात पुलिस ही आरोपी है. इसलिए मामले की जांच केंद्रीय एजेंसियों द्वारा की जानी चाहिए. अतीत में राज्य सरकार ने केंद्रीय एजेंसियों का राजनीतिक विरोध किया है,लेकिन फिर भी मेरा मानना है कि या तो एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) या सीबीआई को जांच करनी चाहिए.”
त्रिवेदी ने उपहास करते हुए कहा, “मुकुल सिन्हा कहते हैं कि राजनीतिक विरोध हो रहा है,” लेकिन पटेल ने उन्हें बीच में ही रोक दिया, क्या हमें उन्हें नहीं सुनना चाहिए?”
कोर्ट का ये कमरा ठहाकों से गूंज उठा और त्रिवेदी अपनी आवाज चीख के स्तर पर ले गए. “हंसिए मत... हंसिए मत. ऐसा नहीं हो सकता कि सरकार कानून या सम्मानीय कोर्ट की इज्जत ना करे. मैं विनती करता हूं कि मामले को नए सिरे से देखा जाए और गुजरात पुलिस को एक मौका और मिले.”
कोर्ट ने त्रिवेदी की दलील नहीं मानी और मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी. जो उन्हीं पुलिस अधिकारियों की जांच करेगी जिनके ऊपर “घातक आतंकियों” की हत्या का आरोप है. गुजरात सरकार को लगे कानून धक्कों में ये सबसे ताजा है, जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस जनवरी दिए गए आदेश के बाद आया है. जिसमें गुजरात में 2003 से 2009 के बीच हुए 20 से अधिक कथित फर्जी मुठभेड़ के मामलों को फिर से खोलने के लिए एक जांच पैनल को तीन महीने की समय सीमा दी गई थी. अमित शाह ने कैबिनेट में 10 पोर्टफोलियो अपने जिम्मे रखे थे. गुजरात में उन्हें "मोदी की चेतना के रखवाले" के रूप में जाना जाता है. उनके खिलाफ चल रहे मामले मोदी के लिए एक और बड़ा सरदर्द हैं. ये और बदतर हो सकते हैं, अगर शाह के उगाही गिरोह और फर्जी मुठभेड़ के मामले में चल रही जांच के मामलों में ऐसे सवाल पूछे जाने लगे कि क्या इसकी जिम्मेदारी उपगृह मंत्री से ऊपर की ओर तक जाती है?
फर्जी मुठभेड़ के मामलों के उजागर होने से पहले के सालों में मोदी हर “आतंकी” के मारे जाने के बाद अपने अधिकारियों की जमकर तारीफ करते थे. साल 2007 में एक चुनावी रैली के दौरान सीएम ने गैंगस्टर सोहराबुद्दीन शेख की हत्या का जश्न तक मनाया. मोदी ने उनके नाम के हर अक्षर पर जोर देकर उनका नाम लिया-“सोहररआआ-बु-दीननन”. जिसकी वजह से उनके धर्म को लेकर कोई भ्रम नहीं रह गया. मोदी ने पूछा, “कांग्रेस वाले कहते हैं कि ,मोदी एंकाउंटर करवा रहा है और कह रहे हैं ,मोदी ने शोहराबुद्दीन को मार डाला...आप बताइए कि सोहराबुद्दीन के साथ क्या करें?” भीड़ ने जवाब दिया. “मार डालो, मार डालो.”
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एक मशहूर लेख में जिसे 2002 दंगों के बाद सेमिनार में छापा गया था, समाज विज्ञानी और भारत के सबसे प्रमुख बुद्धिजीवी ''आशीष नंदी'' ने मोदी के एक दशक पहले, 1980 के अंत में लिए गए साक्षात्कार के बारे में बताया. ये वो दौर था, जब भविष्य के सीएम को कोई नहीं जानता था. ''वो एक छोटे आरएसएस प्रचारक थे, जो छोटे-मोटे बीजेपी कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाने की कोशिश कर रहे थे.”
नदीं की ट्रेनिंग नैदानिक मनोचिकित्सक के रूप में हुई है. मोदी के साथ “लंबे और असंबद्ध” इंटरव्यू की उनके ऊपर पड़ी छाप के बारे में उन्होंने कहा:
इसमें मुझे कोई संदेह नहीं रहा कि ये एक क्लासिकल और नैदानिक फासीवाद का मामला है. मैं ‘फासवादी’ को कभी भी,किसी को अपमानित करने वाले शब्द के रूप में इस्तेमाल नहीं करता. मेरे लिए ये एक ऐसी श्रेणी है, जिसे इलाज की दरकार है. इसमें सिर्फ किसी की विचारधात्मक स्थिति ही नहीं आती बल्कि, उसके व्यक्तित्व के गुण भी आते हैं और साथ ही विचारधारा से संदर्भ रखने वाले उसके प्रेरणा देने वाले ढर्रे भी.
मुझे पढ़ने वालों को ये बताने में जरा भी आनंद नहीं आ रहा कि मनोचिकित्सक, मनोविज्ञान-विश्लेषकों और मनोवैज्ञानिक ने सालों के गहन अध्ययन के बाद सत्तावादी व्यक्तित्व के लिए जो पैमाने तय किए हैं, मोदी के भीतर वो सब हैं. उनके भीतर शुद्धतावादी जड़त्व, भावनात्मक जीवन का संकुचन, मंसूबों का अंहकार से भरे बचाव का भारी इस्तेमाल, इंकार और उनकी अपनी महत्वाकांक्षाओं का भय,जो हिंसा की कल्पनाओं से मिला हुआ है,सब मौजूद है. इस मकड़जाल में एक साथ मौजूद साफ पागलपन और जुनून के लक्ष्ण हैं. मुझे अभी भी याद है कि,कैसे वो बेहद सहजता के साथ संतुलित लहजे में भारत के खिलाफ ''वैश्विक षड्यंत्र का सिद्धांत'' के बारे में बता रहे थे, जिसमें हर मुसलमान गद्दार और संभावित आतंकवादी के रंग में रंग दिया गया है.
इन दिनों तो मोदी के प्रशंसक इन बातों को ये कहते हुए खारिज कर देंगे कि राष्ट्रीय विरोधी "छद्म-धर्मनिरपेक्ष" बुद्धिजीवी मोदी की उपलब्धियों से जलते हैं और शायद कांग्रेस इन्हें ऐसा कहने के लिए पैसे दे रही है. लेकिन अगर उनके क्लिनिकल इलाज की बात को किनारे भी कर दें तो, ये साफ है कि मोदी की खुद की छवि को राजनेता के तौर पर पुनर्स्थापित करने के प्रयास को भारी सफलता मिली है. क्योंकि नंदी को मुख्यधारा में राय देने वालों की सीमाओं से बहुत दूर कर दिया गया है.
मोदी की छवि में बदलाव के पीछे बेहद उन्नत पब्लिक रिलेशन के अभियान की अहम भूमिका रही है. लेकिन उनका ये छवि निर्माण, वास्तविक उपलब्धि की नींव पर टिका है. एक कुशल और सक्षम प्रशासक के रूप में उनके रिकॉर्ड पर कोई सवाल नहीं है. वो ''ताकत के ऊपर पैसे''को प्रथामिकता देने वाले लगते हैं. ये उन वोटरों के लिए बड़ी बात है, जिन्हें ज़्यादातर नेता भ्रष्ट, निक्कमें और कमज़ोर लगते हैं. साल 2001 में उन्हें सीएम बनाए जाने के समय से उन्होंने राज्य में दो विधानसभा चुनाव जीते हैं और दोनों में उन्हें दो तिहाई बहुमत हासिल हुआ है. शहरों में उनकी जबरदस्त लोकप्रियता है. जो लोग उन्हें चाहते हैं वो असामान्य रूप से उनके प्रति प्रेम का इजहार करते हैं.
एक ऑटोवाला के मुताबिक: “मोदी अगले 10 सालों तक गुजरात पर राज करेंगे.” एक रोडियो टैक्सी वाले के मुताबिक, “मोदी के साथ भगवान हैं, अगर मोदी किसी को मारना चाहते हैं तो उनके लिए मैं ये कर सकता हूं.” कागज-कलम की दुकान चलाने वाली एक महिला के मुताबिक, “मोदी उत्तम पुरुष हैं.” एक होटल वेटर के मुताबिक: “जब गुजरात पर आतंकी हमले हो रहे थे तो मोदी ने इसे बचाया.”
मोदी निश्चित रूप से अपने विरोधियों में भी समान रूप से जुनून पैदा करते हैं, और उनकी संख्या भी कम नहीं है. उनके ऊपर एक थकाऊ ठप्पा लगा है कि वो ‘विभाजनकारी’ हैं. लेकिन उनसे प्यार और नफरत करने वाले दोनों ही तरह के लोग उन्हें एक जैसी बातों के लिए पसंद करते हैं. दोनों तरह के लोगों को लगता है कि मोदी पूरे नियंत्रण में रहते हैं और संस्थानों और नियमों को दरकिनार करने का माद्दा रखते हैं. एक मजबूत और करिश्माई नेता के तौर पर जो “किसी कीमत पर काम को अंजाम देता है” और इसके लिए स्थापित मानकों या तौर-तरीकों की भी परवाह नहीं करता.
इसे लेकर कोई सवाल नहीं है कि मोदी खुद को इस तरह से नहीं देखते. बीजेपी के भीतर का एक आदमी जो मोदी और अरुण जेटली, जो कि अभी पार्टी का सांस्थानिक चेहरा हैं, दोनों के करीब है,उन्होंने मुझे बताया कि मोदी अपने दोस्त जेटली की, कानून को जरूरत से ज़्यादा सम्मान देने के लिए आलोचना करते हैं. उन्होंने कहा, “जेटली उन चंद नेताओं में हैं, जो मोदी से खुलकर बात करते हैं. लेकिन मोदी अक्सर शिकायत करते हैं कि ‘जेटली सिर्फ संविधान की बात करते हैं.’”
हालांकि, हाल में कानून मोदी के बड़ी समस्या बन गया है. गुजरात में उनके विरोधियों ने सरकार के भीतर भ्रष्टाचार की जांच के लिए अधिकारिक लोकायुक्त की नियुक्ति को स्वीकार करने के लिए मोदी को मजबूर करने के लिए याचिकाओं की एक श्रृंखला दायर की है. ये वो पद है, जिसे मोदी ने बीते आठ सालों से जबरदस्ती खाली रखा है. विपक्ष का मानना है कि लोकायुक्त बड़े पैमाने पर दिए गए उन रियायतों और करों की जांच कर सकते हैं, जिनसे मोदी ने गुजरात में कंपनियों को लुभाने की पेशकश की. जिनकी जानकारियों को बेहद सतर्कता से छुपाकर रखा गया है. मोदी की प्रशंसा करने वाले उद्योगपतियों के साथ उनके सहज संबंध उनकी अहम पूंजियों में से एक हैं और वो अपने व्यापार समर्थक झुकाव को चुनावी जिम्मेदारी में बदलने का जोखिम नहीं लेना चाहते. बीजेपी के भीतर के लोगों के मुताबिक, मोदी को सच में ऐसा डर सताता है कि उनका भाग्य आंध्र प्रदेश के पूर्व सीएम एन चंद्रबाबू नायडू जैसा हो सकता है ,जो बड़े व्यापारियों और बिजनेस प्रेस के चहेते थे, लेकिन 2004 में कांग्रेस से हार गए और फिर कभी सत्ता में नहीं लौटे.
गुजरात के एक पूर्व सीएम ने मुझसे कहा, “मोदी सिर्फ जीतने के बारे में सोचते हैं और हर वक्त जीतने की सोचते हैं. बाकी नेता सोच सकते हैं कि एक दिन वो हार सकते हैं और उसके मुताबिक तैयारी करते हैं. लेकिन उनका ये रुख एक दिन उन्हें मुश्किल में डाल सकता है, क्योंकि भविष्य में वो महज किसी एक छोर पर हो सकते हैं- या तो वो प्रधानमंत्री बन जाएंगे, या जेल में होंगे. अगर मैं लंबे समय तक जीवित रहा, तो उन्हें कहीं और देखकर मुझे आश्चर्य होगा. इसे या तो पहला होना चाहिए या दूसरा.”
मेरे गुजरात छोड़ने के थोड़ा पहले एक आरएसएस नेता ने अपनी भावनाओं को कड़वाहट भरी आह में व्यक्त किया, “ मोदी शिवलिंग पर विराजमान बिच्छू है. न उसको हाथ से उतार सकते हैं, न ही उसे जूते से मार सकते हैं.”
(द कैरवैन के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित)
अनुवाद- तरुण कृष्ण