दो साल पहले 6 सितंबर की सुबह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की मुख्य सचिव अनीता सिंह को सूचना मिली कि पड़ोस के राज्यों हरियाणा और दिल्ली से हजारों लोग मुजफ्फरनगर जिले के एक गांव में एकत्रित हो रहे हैं और अगले दिन इलाके के हिन्दू जाटों की एक विशाल राजनीतिक बैठक, “जाट महापंचायत”, का आयोजन किया जाने वाला है, जिसके कारण पहले से ही धमकियों और शक से बिगड़े माहौल में तनाव बढ़ने का अंदेशा है. कुछ दिनों पहले ही दो नौजवान जाटों और एक मुसलमान युवक की कथित तौर पर एक झगड़े के दौरान हत्या कर दी गई थी. झगड़े की वजह यह अफवाह थी कि वह मुसलमान युवक एक हिंदू महिला को हैरान-परेशान कर रहा था. भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं की मिलीभगत और प्रोत्साहन से जाटों से संबंधित कई संघटनों ने इसकी प्रतिक्रिया में महापंचायत बुलाने का फैसला लिया. इस पूरे प्रकरण ने इलाके के हिंदुओं और मुसलामानों को आपस में बांट दिया और क्षेत्रीय सरकारी महकमें, हिंसा की आशंका के तहत तैयार हो गए.
लोगों के मजमा लगाने पर प्रतिबंध के आदेश, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत पहले से ही अमल में थे. पिछले पखवाड़े में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और जिला मजिस्ट्रेट का दो बार तबादला किया चुका था. पुलिस और पैरा मिलेट्री के हजारों जवान, किसी भी संभावित भड़काऊ स्थिति का सामना करने के लिए मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में तैनात कर दिए गए थे. अतिरिक्त डायरेक्टर जनरल अरुण कुमार को खास तौर पर स्थिति पर नजर रखने के लिए लखनऊ से वहां भेजा गया था. इसके बावजूद महापंचायत को रोकने के लिए सचिवालय से कोई आदेश जारी नहीं किया गया.
इसी दिन, उत्तर प्रदेश के अब तक के सबसे नौजवान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, सूचना तकनीकी के निकाय नासकोम के नए मुख्यालय का उद्घाटन करने के लिए दिल्ली में थे. निकाय का नया दफ्तर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र नोएडा, जो उनके राज्य का हिस्सा था, में बनाया गया था. लेकिन वे समारोह का उद्घाटन, दिल्ली के बीचोंबीच बने एक होटल, ताज मानसिंह, में बैठकर कर रहे थे. 2012 में, सत्ता संभालने के बाद उन्होंने नोएडा में शुरू की गई कई परियोजनाओं का उद्घाटन दूर से ही बैठकर किया था, आमतौर पर लखनऊ में. कईयों का अनुमान था कि वे ऐसा “नोएडा जिंक्स” या “नोएडा के श्राप” के कारण करते थे. इस राजनीतिक श्राप के मुताबिक यह मान्यता है कि जिस भी मुख्यमंत्री ने नोएडा की धरती पर कदम रखा, उसे आगामी चुनावों में अपनी सीट गंवानी पड़ी थी. इसके कारण अखिलेश को मीडिया की आलोचना का भी शिकार बनना पड़ा. उद्घाटन को कवर करने आए पत्रकारों ने यादव से जानना चाहा कि एक टेक-सेवी पर्यावरण इंजिनियर, जो अपने राज्य के छात्रों को कंप्यूटर बांटता फिरता है, क्या ऐसी बेसिरपैर की बातों में भी यकीन रखता है. एक रिपोर्टर ने पूछा कि एक नौजवान और आधुनिक विचारों वाले मुख्यमंत्री, नोएडा से खौफ क्यों खाते हैं. यादव ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया: “क्योंकि आप लोग वहां रहते हैं.”
उत्तर प्रदेश के लखनऊ सचिवालय के पंचम तल, जहां मुख्यमंत्री का दफ्तर स्थित है, पर नोएडा का श्राप भी निवास करता है. कम से कम बीस साल से सत्ता में रहने वाला हर व्यक्ति नोएडा जाने को अपनी सत्ता के लिए बुरा शगुन मानता आया है. कहते हैं जो कोई भी वहां गया उसको सत्ता में फिर दुबारा मौका नहीं मिला. यह नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह, और राजनाथ सिंह के साथ भी हो चुका था. अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव भी अपने एक कार्यकाल के दौरान वहां गए और उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा. सत्ता वापिस पाने पर उन्होंने वह गलती दुबारा नहीं दोहराई. अखिलेश से पहले मायावती ने भी अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में इस श्राप से मुक्ति पाने की कोशिशें कीं लेकिन वे भी असफल रहीं जब उनको 2012 के विधान सभा चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा.
नासकॉम के उदघाटन समारोह में, अपने भाषण के दौरान यादव ने उत्तर प्रदेश द्वारा सूचना तकनीकी में की गई तरक्की और समाजवादी सरकार द्वारा नागरिकों को लैपटॉप बांटे जाने की योजना का उल्लेख किया. वे अब नासकॉम मुख्यालय में साइबर सुरक्षा लैब खोलने की योजना बना रहे थे. “हमने राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति पर नजर रखने के लिए पुलिस कण्ट्रोल रूमों का आधुनिकीकरण किया है,” यादव ने कहा. “सीसीटीवी और जीपीएस से लैस, पुलिस जीपों की मदद से अब मौका-ए-वारदात पर फौरन पहुंचा जा सकता है. इससे अपराध की सूचना मिलने और उस पर कार्रवाई करने के वक्त में बहुत बड़ा फर्क पड़ेगा.”
अगले दिन 7 सितंबर को, नांगला-मन्दौर गांव में जैसे लोगों का समंदर उमड़ पड़ा हो. महापंचायत में शामिल होने के लिए, डेढ़ लाख लोगों का हुजूम जमा हो चुका था. उनमे से कई अपने हाथों में बंदूकें, भाले, कटारें, तलवारें और डंडे लिए हुए थे. स्थानीय मीडिया ने भड़काऊ भाषणों और नारों की रिकॉर्डिंग की. स्थानीय केबल टीवी चैनलों और व्हाट्सएप के जरिए मुसलमानों से बेटियों और बहुओं की रक्षा करने तथा हिन्दू युवाओं की मौतों का बदला लेने के लिए ललकारा गया.
फिर उस शाम, एक अफवाह तेजी से फैलनी शुरू हुई कि बैठक से वापस लौट रहे सैकड़ों हिंदुओं को गुस्साए मुसलामानों ने हलाक कर, लाशों को जौली नाले में फेंक दिया है. आधी रात बीतते-बीतते, मुसलमान-विरोधी हिंसा शुरू हो गई. 8 सितंबर की सुबह जब पुलिस को कार्रवाई करने के आदेश मिले तब तक पचास से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे; औरतों के साथ कथित रूप से बलात्कार और हजारों- हजार लोग बेघर हो चुके थे.
जिन जीपीएस से लैस पुलिस जीपों की बात यादव ने नासकॉम के अपने भाषण के दौरान बहुत इतराते हुए की थी, वह कम प्रासंगिक नहीं थी. “स्थानीय प्रशासन और लखनऊ मुख्यालय को घटना से दो सप्ताह पहले से हर एक मिनट की खबर मिल रही थी,” महापंचायत वाले दिन मुजफ्फरनगर में मौजूद अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक ने बताया. “हमें जीपीएस नहीं, आदेश की जरूरत थी.”
हिंसा को लेकर राज्य सरकार की प्रतिक्रिया बेजान और खुद का बचाव करने वाली थी. सच्चाई ये थी कि हमले के शिकार लोगों को बचाने में उसने बहुत ढिलाई से काम लिया तथा उन्हें राहत पहुंचाने में तो उसने और भी अधिक ढिलाई बरती थी. खुद यादव ने मुजफ्फरनगर का दौरा, दंगों के पूरे एक हफ्ते से भी ज्यादा के बाद 15 सितंबर को किया. उस वक़्त उन्होंने प्रेस को कुछ सादे से दोहराए जा सकने वाले बयान दिए. दो दिन बाद जब उन्होंने अपना फेसबुक स्टेटस बदला, तो वे अपने प्रदेश में हुए दंगों के बारे में कुछ नहीं सोच रहे थे. उन्होंने लिखा, “जीवन चलता रहता है.”
यादव का राज्य, दुनिया के किसी भी देश में सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य है. यहां देश के सबसे गरीब लोग रहते हैं और सामाजिक द्वंद्व बहुत गहरे तक पैठा हुआ है. जातिगत पुलिस हिंसा, यहां रोजमर्रा की बात है. जातिवाद और महिलाओं पर अत्याचार की संस्कृति के बावजूद, यहां जाति-विरोध और गरीबों के हितों को ध्यान में रखने वाली राजनीति का एक उत्साहजनक इतिहास रहा है.
कई सालों तक उत्तर प्रदेश के देहाती इलाके किसी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा के दाग से अछूते रहे. 1992 के मंथन के बाद भी, जब बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं की अगुवाई में हिंदुत्व के पैरोकारों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी थी, प्रदेश के ग्रामीण इलाके किसी बड़ी भयानक हिंसात्मक घटना से बचे रहे. मस्जिद विध्वंस से कुछ महीने पहले, समाजवादी पार्टी के संस्थापक, विभाजनकारी लेकिन प्रभावशाली नेता मुलायम सिंह यादव को इस नाजुक स्थिरता को बनाए रखने वाले नेता का श्रेय जाता है. समाजवादी पार्टी की स्थापना ही शक्तिशाली यादव-मुसलमान वोटर गठबंधन के आधार पर की गई थी. यह आधार, राजनीतिक विरोध और चुनावों में एक-के-बाद-एक हार के बावजूद भी कायम है.
राज्य के इतिहास में अब तक की सबसे भयानक मुसलमान-विरोधी हिंसा के बाद, सांप्रदायिक सद्भाव का यह समझौता टूटता नजर आया और इसने पार्टी के अवसरवादी और अक्षम चेहरे को भी उजागर कर दिया. इसी कारण 2014 के आम चुनावों में, समाजवादियों को मूंह की खानी पड़ी. 2009 के चुनावों में 80 में से केवल 10 सीटें लाने लाने वाली बीजेपी ने इस बार 71 सीटें जीतने में कामयाबी पाई.
इस बीच यादव, मौके पर मौजूद न रहकर, अपने लखनऊ निवास से, नोएडा परियोजनाओं का उद्घाटन करते रहे. सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, उन्होंने एक महिला हेल्पलाइन, राज्य में कानून व्यवस्था सुधारने के उद्देश्य से पुलिस के लिए 1056 जीपीएस से लैस गाड़ियां, और 300 वातानुकूलित एम्बुलंसों को लांच किया. इसके अतिरिक्त, उन्होंने छात्रो में 15 लाख कंप्यूटर भी वितरित किए.
एक प्रचलित नेता के रूप में यादव ने पहली बार अपनी छाप 2008 में छोड़ी थी, जब उन्होंने मायावती के शासन के खिलाफ पूरे राज्य में छात्रों के आंदोलनों का नेतृत्व किया था. जब समाजवादी पार्टी, नेतृत्व के संकट से गुजर रही थी वे इसके ताजातरीन चेहरे के रूप में उभर कर सामने आए. उत्तर प्रदेश में समस्याओं का तकनीकी हल खोजने और साफ-सुथरी छवि वाले युवा नेता के रूप में उनकी साख आज भी कुछ हद तक कायम है.
लेकिन उनकी व्यक्तिगत खूबियां और पारिवारिक पृष्ठभूमि उनकी पहचान की सबसे जानीमानी विशेषताएं रही हैं. कई महीनों के दौरान, मैंने उनको जानने के लिए साठ से अधिक लोगों का साक्षात्कार किया. इनमे उनके दोस्त, परिवार के लोग, पार्टी सदस्य, सरकारी अफसर और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी शामिल थे. सभी से बात करते हुए जो विशेषण बार-बार इस्तेमाल में आते रहे, वह थे: वे सभ्य, शिष्ट, दयालु और शरीफ व्यक्ति हैं. पूर्व समाजवादी नेता, शाहिद सिद्दीकी ने कहा उनकी समस्या यह है कि वे “सरकार चलाने के लिहाज से बहुत शरीफ हैं.”
इसी वजह से दूसरे लोग उनके लिए काम करते प्रतीत होते हैं. जब अखिलेश ने शपथ ग्रहण की तो यह कहा गया कि यह तयशुदा बात है कि असल ताकत तो, पार्टी के तुर्रमखां नेताओं के हाथों में ही रहेगी : उनके पिता मुलायम सिंह यादव, उनके चाचा शिवपाल और राम गोपाल यादव, और मुलायम के करीबी तथा उत्तर भारत के प्रभावशाली मुसलमान नेता आजम खान के पास. उनके कार्यकाल के तीन साल बाद भी, शक्ति-विभाजन की यही धारणा कायम रही, बल्कि इसमें एक इजाफा और हो गया और वह नाम था अनीता सिंह का, जो एक वरिष्ठ नौकरशाह हैं तथा पंचम तल पर बैठे लोगों में उनका बहुत दबदबा है.
फिर भी अखिलेश के आलोचक उन्हें निरंतर गिरती समाजवादी राजनीति में, अक्षमता और अवसरवाद के प्रतीक के रूप में देखते हैं. इसका कारण है साफ दिखती जाति-आधारित हिंसा और कानून व्यवस्था तंत्र में लगातार आती गिरावट की शिकायतें. सत्ता में तीन साल रहने के बाद भी, मुख्यमंत्री द्वारा इन मामलों में निर्णायक फैसले न ले पाने का दोष भी उन पर डाला जाता है.
मुजफ्फरनगर विस्थापितों के लिए लगाए गए आखिरी राहत शिविरों को जनवरी 2014 तक खाली करवा दिया गया था. यह उस वक्त किया गया जब यादव परिवार सैफई महोत्सव में व्यस्त था. यह रंगरंगीला सांस्कृतिक महोत्सव, यादव परिवार के गांव सैफई में हर साल मनाया जाता है. महोत्सव में पूरा व्रहत यादव परिवार तथा उत्तर प्रदेश के प्रभावशाली नेता और नौकरशाह शामिल थे. गणमान्य व्यक्तियों को लाने-लेजाने के लिए सात चार्टर्ड हवाई जहाजों का इस्तेमाल हुआ था. 2009 में, पार्टी के खिलाफ प्रचार करने वाले सलमान खान ने स्टेज पर माधुरी दीक्षित के साथ अपने जलवे बिखेरे. अखिलेश ने अपने इस कौतुक स्वांग का बचाव करते हुए कहा, “इस महोत्सव ने युवा शक्ति को प्रोत्साहन देने वाले मंच का काम किया है. क्या गांवों में रहने वाले लोगों को मनोरंजन का अधिकार भी नहीं है?”
“मनोरंजन के अधिकार” पर उनकी व्यक्तिगत राय ने भले ही उन्हें उनके चंद मतदाताओं के बीच चहेता बना दिया हो लेकिन इसने उन्हें कुछ अफसरों द्वारा “मौज मस्ती बाबा” का तमगा भी पहना दिया. तेरह सालों तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ इशारा करते हुए, उर्दू के एक वरिष्ठ पत्रकार ने इसे देश के मुख्यमंत्रियों का मोदीकरण करार दिया, “जहां विकास की होड़ में नैतिक मूल्यों को तिलांजली देने से गुरेज नहीं किया जाता, जहाम चुनावों में दो व्यक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा को तरजीह दी जाती है और जहां विकास के दिखावे और जमीनी आंकड़ों में कोई तालमेल नहीं पाया जाता.”
2013 में पार्टी छोड़ने वाले एक पूर्व समाजवादी नेता की इस मसले पर थोड़ा ज्यादा ही व्यक्तिगत किस्म की राय थी. “अखिलेश की खूबी यह है कि वे कट्टरपंथी नहीं हैं और अपेक्षाकृत रूप से एक सीधे-साधे इंसान हैं,” उन्होंने कहा, “इसके साथ-साथ वे औसत दर्जे के नेता हैं. वे पार्टी में सिर्फ अपनी उन्नति से प्रोत्साहित होते हैं, न कि किसी विचारधारा से. इसी कारण उनके द्वारा लिए गए व्यक्तिगत कदम मूर्खतापूर्ण होते हैं. लेकिन अगर कुल मिलाकर देखा जाए तो ये सब मिलकर एक विध्वंसकारी व्यवस्था का निर्माण करते हैं और इसमें वे असल में पूरी तरह से भागीदार हैं.”
चंबल नदी विंध्य पर्वत श्रृंखला के उत्तर से निकलती है और प्रदेश में यमुना से जा मिलती है. महाभारत कथा में चंबल को चर्मनयावती भी कहा गया है, अर्थात एक ऐसी नदी जो आर्य राजा रंतिदेव द्वारा बलि दिए गए हजारों जानवरों के रक्त से बनी है. सैकड़ों सालों के अंतराल में इसके पानी ने, अपने रस्ते में पड़ने वाली मुलायम धरती को नष्ट कर गहरे और ऊंचे बीहड़ों का निर्माण किया है. कम से कम एक सदी तक ये बीहड़, उच्च-जाति के जमींदारों और उनकी फौजों के खिलाफ बागियों और डाकुओं की रणभूमि रहे.
अखबारों की खबरों की मार्फत देश को जानने वाले देशवासियों के लिए, यह रहस्यमयी और मनहूस इलाका एक छोटे से गांव सैफई से कुछ ही दूरी पर स्थित है, जो मध्य उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में पड़ता है. यहां महान समाजवादी नेता, राम मनोहर लोहिया के स्वंयभू उत्तराधिकारी मुलायम सिंह यादव का जन्म 1939 में हुआ. उनके पुत्र, अखिलेश यादव का जन्म भी इसी धरती पर 1973 में हुआ. यह वही साल था जब 11 साल की फूलन देवी का विवाह, उनसे उम्र में कहीं बड़े आदमी के साथ कर दिया गया था. फूलन देवी, बाद में चलकर बंदूकधारी बागी बन बैठीं और चंबल इलाके में एक किंवदंती बन गईं और समाजवादी पार्टी से सांसद चुनीं गईं.
मुलायम सिंह का भी मालती देवी से बालविवाह कर दिया गया था. शादी के 16 साल बाद, अखिलेश के रूप में उनके पहले पुत्र का जन्म हुआ. बदकिस्मती से जन्म देते वक्त, मालती देवी को कुछ चिकित्सीय पेचीदगियां पेश आईं और वे हमेशा के लिए मरणासन्न अवस्था में चली गईं. मुलायम सिंह के साथ व्यक्तिगत और व्यावसायिक ताल्लुक रखने वाले व्यक्ति, जिसने मुझे यह किस्सा बताया, ने कहा, बेटा पैदा करने के बाद वे बिलकुल “निष्क्रिय” हो गईं.
अब तक लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में विधायक बन चुके थे, जिसने उन्हें लखनऊ में एक व्यस्त नेता बना दिया था. अखिलेश के जन्म के समय वे वहां मौजूद नहीं थे और लगता है उसके बाद भी आने वर्षों में वे अपने परिवार से बहुत कम ही मिलने गए. जब बच्चा एक साल का हुआ तो मुलायम को जसवंतनगर चुनाव क्षेत्र से पुन: विधायक चुन लिया गया. इस सीट से वे 1996 तक सात बार चुने गए. उनके भाई और पार्टी में दूसरे नंबर के सबसे शक्तिशाली नेता शिवपाल पिछली चार बार से यहां के विधायक हैं.
अखिलेश का लालन-पालन उनके अनपढ़ खेतिहर दादा-दादी ने किया. उन्होंने उनकी जन्मतिथि या उनके औपचारिक नाम की तरफ कोई खास ध्यान नहीं दिया. सैफई में एक बुजुर्ग ने मुझे बताया कि सब उन्हें ग्रामप्रधान द्वारा दिए गए नाम, “टीपू” से बुलाते थे. टीपू की शुरुआती शिक्षा सैफई और इटावा के स्कूलों में हुई, जहां उन्हें रिश्तेदारों के यहां भेज दिया गया था.
चाचा शिवपाल में उन्हें एक बड़ा साथी मिल गया, जिन्होंने हाल ही में अपनी स्कूली शिक्षा समाप्त की थी. दोनों अपने घर के बाहर आलू के खेतों में साथ वक्त गुजारते (अगस्त 2014 में अखिलेश की सरकार ने इन्ही खेतों के आलुओं से पास की जमीन पर वोदका (शराब) बनाने वाली 800 करोड़ रुपए की फैक्ट्री को स्थापित किए जाने का ऐलान किया).
जब 1975 में, इंदिरा गांधी सरकार ने इमरजेंसी का ऐलान किया, मुलायम सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 19 महीनों के लिए जेल में डाल दिया गया. उनकी बहन के परिवार के एक दोस्त, इटावा के सेंट मेरी स्कूल में टीपू के दाखिले में मदद करने के लिए उनके साथ गए थे. दाखिला देने वाले अधिकारी ने सलाह दी कि स्कूल रजिस्टर में घर का नाम डालना उचित नहीं रहेगा, इसलिए उस दोस्त ने कुछ आधिकारिक नाम सुझाए जिनमें से टीपू ने “अखिलेश” को चुना. बाद के सालों में, अखिलेश ने लखनऊ में कुछ पत्रकारों को बताया कि सरकारी खातों में उनके जन्म की तारिख 1 जुलाई 1973 बताई गई है, जो एक अजीब इत्तेफाक से अकादमिक सत्र के शुरू होने के दिन से भी मेल खाती है.
अस्सी के दशक के मध्य तक इटावा में मुलायम की समाजवादी राजनीति की जड़ें गहरे नहीं पैठ पाईं थीं. उत्तर प्रदेश में मतदाताओं में सबसे मजबूत माने जाने वाले : ब्राह्मण-दलित-मुसलमान गुट, सालों से कांग्रेस की गिरफ्त में थे. एक तरफ तो गरीबी और दूसरी तरफ, जमीन पर अपने स्वामित्व को सामंती नजरिए से देखने के आदी हो चुके राज्य में चुनाव करवाना हमेशा एक सरदर्दी भरा काम रहा है. उच्च जाति के रईस जमींदार और राजनेता चुनावों के नतीजे अपने पक्ष में पलटने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे, यहां तक कि वे इलाके की बहुसंख्यक पिछड़ी जातियों पर वोटो की खातिर डाकुओं का हमला भी करवा सकते थे. मुलायम के राजनीतिक जीवन के दो दशकों के भीतर ही, दो सामाजिक ताकतें धमकी और दादागिरी के इस कुचक्र को तोड़ने वाली थीं.
पहली लहर थी : कांग्रेस के विरोध में जाट नेता और भविष्य के प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, और, “नेताजी” यानी मुलायम सिंह की अगुआई में अन्य पिछड़े वर्गों का पुरजोरता के साथ उभर कर सामने आना.
दूसरी लहर थी : राजनीतिक शक्ति और जमीन पर अपने वर्चस्व की ख्वाइश की इस लड़ाई में, पिछड़ी जातियों के डाकुओं की बढ़ती ताकत. जब अखिलेश आठ साल के थे तो मल्लाह उपजाति में जन्म लेने वाली फूलन देवी ने अपने साथ हुए बलात्कार के प्रतिशोध में बहमई गांव में 22 ठाकुरों का खुलेआम कत्ल कर दिया था. यह 1982 का साल था. उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, कांग्रेस के वी.पी. सिंह ने इलाके के डाकुओं की धरपकड़ के आदेश जारी किए जिसके फलस्वरूप पार्टी की शक्तियां और राज्य की पुलिस उन पर निर्ममता के साथ टूट पड़ीं.
अगले ही साल, मुलायम ने अखिलेश को राजथान स्थित धौलपुर मिलिट्री स्कूल में भेज दिया. पत्रकार सुनीता अरोन द्वारा लिखित, विंड्स ऑफ चेंज नामक अखिलेश की जीवनी में लिखा है कि मुलायम के दोस्त ने उन्हें इस बात के लिए मनाया कि मिलिट्री स्कूल का अनुशासन उनके बेटे के लिए सही रहेगा. मुलायम, जो अपनी जवानी में एक पहलवान थे, इसके लिए राजी हो गए. फिर भी शिवपाल ही दाखिले की औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए अखिलेश के साथ गए.
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने जेल से अपनी पुत्री के नाम इतने पत्र लिखे हैं कि उनको मिलाकर एक पूरी किताब बन सकती है. इसके विपरीत, अखिलेश के लिए मुलायम, हमेशा दूर की कौड़ी रहे. उनकी पूरी स्कूली शिक्षा के दौरान, मुलायम केवल दो बार ही उनसे मिलने आए. अरोन ने लिखा, मुलायम ने “स्कूल के दौरान उन्हें जो खत लिखा उसे टेलीग्राम भी कहा जा सकता था. इसमें लिखा था: ‘पढ़ने में मेहनत करो, काम आएगा.’”
स्कूल की छुट्टियों के वक्त, अखिलेश अक्सर खुद को एक खाली मकान में पाते थे. उस घर में जितने और लोग थे उनका उनके साथ बैठना मुफीक नहीं था: जैसे, पुलिस कांस्टेबल, दफ्तर के कर्मचारी, और घर की देखरेख करने वाले नौकर-चाकर. कितनी भी मात्रा में पिलाई गई सामाजिक बराबरी की घुट्टी पुराने किस्म के इन्तेजामातों का मुकाबला नहीं कर सकती. “वे मंत्री के बेटे थे,” घर के एक नौकर ने मुझे बताया. “हम उन्हें उनके नाम से नहीं पुकार सकते थे, इसलिए हम उन्हें “भैय्या” कहकर पुकारने लगे.”
परिवार के करीबी एक व्यक्ति के अनुसार, 1988 में ऐसी ही एक छुट्टी के दौरान अखिलेश की मुलाकात, सरकारी नौकरी में अफसर रहीं साधना गुप्ता से हुई. साधना गुप्ता को 2007 में मुलायम की पत्नी के रूप में पहचाना गया. “उनके जीवन में साधना के आने के बाद ही वे मुख्यमंत्री बने. इसलिए मुलायम उन्हें शुभ मानते हैं,” उस व्यक्ति ने बताया. हालांकि, किशोर अखिलेश की साधना से नहीं पटी और इसी दौरान उन्होंने उन्हें कथित तौर पर तमाचा भी जड़ दिया था. इसके बाद, “अखिलेश को नेताजी के जीवन में एक सतत रहने वाले व्यवधान के रूप में देखा जाने लगा,” परिवार के इस मित्र ने बताया, “और उन्हें एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता रहा.”
जनता दल के नेता के रूप में 1989 में, मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने. यह वही हलचलों वाला समय था, जिसके प्रभाव देश के राजनीतिक जीवन में आज भी मौजूद हैं. उसी साल नवंबर में, प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के करीब राम मंदिर निर्माण के लिए विवादास्पद शिलान्यास के आदेश दे डाले. अगले ही वर्ष, बीजेपी की अगुआई में दक्षिणपंथी घटकों ने मस्जिद के विध्वंस के लिए शोरशराबा मचाना शुरू कर दिया. उनका दावा था कि मस्जिद का निर्माण, भगवान राम की वास्तविक जन्मभूमि पर हुआ है. मुलायम द्वारा दिए गए बाबरी मस्जिद की रक्षा के आश्वासन की वजह से उनका नाम “मुल्ला मुलायम” पड़ गया. “यहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता,” उन्होंने गरज कर कहा.
यादव-मुसलमान गठजोड़ के लिए यह एक महत्वपूर्ण क्षण था. कांग्रेस ने उच्च जातियों के वोट खो देने के डर से, मुलायम सिंह सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया, जिसके चलते उन्हें 1991 में अपना मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ा. सरकार हथियाने का मौका पाकर, बीजेपी ने लखनऊ में कल्याण सिंह के रूप में अपना ओबीसी दावेदार खड़ा कर दिया. अक्टूबर 1992 में, मुलायम ने अपनी समाजवादी पार्टी की औपचारिक घोषणा कर दी. कुछ ही महीनों बाद, दंगाई भीड़ ने 6 दिसंबर के दिन बाबरी मस्जिद ढहा दी.
अब तक, करीब-करीब 20 वर्ष के हो चुके अखिलेश को धौलपुर से मैसूर के इंजीनियरिंग कॉलेज में भेज दिया गया. उन्होंने अपनी जीवनी लिखने वाली सुनीता अरोन को बताया कि उन्हें नई पार्टी की सूचना डेक्कन हेराल्ड नामक अखबार के जरिए पता लगी.
दिल्ली और लखनऊ के राजनीतिक हलकों में बवंडरों के बावजूद, वे अगले कुछ सालों तक कर्णाटक में ही बने रहे. मुलायम सिंह अब केंद्र में गठजोड़ बनाने की राजनीति में पूरी तरह से लिप्त थे, जहां एक के बाद एक समर्थन के अभाव में सरकारें गिर रहीं थीं. मुलायम ने तो, जनता दल के नेतृत्व वाली गठजोड़ सरकार में प्रधानमंत्री पद के लिए भी पासा फेंक दिया था, लेकिन वे असफल रहे. पहले एच. डी. देवगौड़ा, फिर आई. के. गुजराल बाजी मार ले गए. 1996 में, अखिलेश जब इंजिनियर बनकर लखनऊ लौटे तो उस वक्त मुलायम यूनाइटेड फ्रंट सरकार में देश के रक्षा मंत्री थे.
उसी साल अक्टूबर की एक शाम, पत्रकारों का एक दल लखनऊ के ताज होटल में किसी साथी का जन्मदिन मना रहा था. तभी वहां एक जवान लड़का, गर्दन पर तौलिया डाले रेस्तरां में दाखिल हुआ और वहां रखे पियानो के पास जाकर पियानो बजाने वाले से जगह बनाने के लिए कहा. इसके बाद उसने तोड़फोड़ शुरू कर दी. मैनेजर ने पत्रकारों को दूसरे रेस्तरां में शिफ्ट कर दिया. एक हफ्ते बाद ही, रक्षामंत्री के बेटे की हरकतों की एक छोटी सी खबर इंडिया टुडे में छपी. “उसी साल उन्हें, एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने के लिए ऑस्ट्रेलिया भेज दिया गया,” परिवार के एक मित्र ने बताया.
उत्तर प्रदेश में जाति-आधारित राजनीति के कायापलट ने समाजवादी पार्टी को दमदार प्रतिद्वंद्वी भी दिए. दलित नेता कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना 1984 में कर दी थी, जिसकी कमान उनकी मौत के बाद मायावती ने संभाल ली. उनके नेतृत्व में बीएसपी ने अप्रत्याशित चुनावी सफलता हासिल की. 1995 और 2012 के बीच, मायावती प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं. 2007 से 2012 के बीच वे आखिरी बार मुख्यमंत्री बनीं थीं. अखिलेश पत्रकारों से अपने संवाद के दौरान उन्हें कभी-कभी बुआ कहकर बुलाते हैं.
मायावती को चुनौती देने के लिए समाजवादी पार्टी की तरफ से, अखिलेश सबसे जाने-पहचाने चेहरे के रूप में सामने आए. पार्टी को नेतृत्व में बदलाव की बहुत समय से दरकार थी और अखिलेश उनमे सबसे माकूल चेहरा था. उनमे भी बड़े होकर एक जबरदस्त बदलाव आ चुका था. वे मध्य उत्तर प्रदेश के कन्नौज संसदीय क्षेत्र से दो बार सांसद चुने गए. वे अब शादी-शुदा व्यक्ति और एक पिता थे. 1999 में, सिडनी से वापस लौटने और सांसद बनने के बाद वे अधिकांश समय दिल्ली में ही बने रहे. इस दौरान, वे ‘पेज थ्री’ के अलावा बिरले ही कभी खबरों की सुर्खिंयों में रहे.
फिर फरवरी 2007 में, मुलायम सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा पेश करके पहली बार सार्वजानिक रूप से साधना को अपनी पत्नी और प्रतीक को अपना बेटा स्वीकार किया. यह हलफनामा, यादव परिवार पर अपनी आय से अधिक संपत्ति रखने के लिए कोर्ट में दर्ज मामले के सिलसिले में था. जुलाई 2007 में, सीबीआई द्वारा जमा की गई प्राथमिक रिपोर्ट में कहा गया था कि मुलायम और साधना शादीशुदा हैं, हालंकि, इसमें शादी की तारीख नहीं दी गई थी (अखिलेश की मां का देहांत 2003 में हो गया था). इस रिपोर्ट में यह भी दर्ज था कि साधना का बेटा प्रतीक “उसकी पिछली शादी से है. चन्द्र प्रकाश गुप्ता से उनकी पिछली शादी जुलाई 1986 में हुई थी और प्रतीक का जन्म 7 जुलाई 1987 को हुआ. उन्होंने उनको 5 मार्च 1990 को तलाक दे दिया.”
समाजवादी पार्टी के तीन सदस्यों के अलावा मुझे कई और लोगों ने बताया कि हलफनामे में मुलायम द्वारा दूसरी पत्नी और बेटे को आधिकारिक तौर पर स्वीकार लिए जाने के बाद ही अखिलेश, लखनऊ में पैठ बनाने के लिए उतावले हो उठे. वे अब चाहते थे कि उन्हें समाजवादी पार्टी में एक ताकतवर व्यक्ति और मुलायम के उत्तराधिकारी के रूप में पहचाना जाने लगे.
“‘जवानी’ उनके साथ थी जिसे एक सामंती एवं पितृसत्तात्मक पार्टी में सबसे ज्यादा तरजीह दी जाती थी,”’ राष्ट्रीय अखबार के लिए उत्तर प्रदेश को कवर करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया. यह वस्तुत: सही बात थी. अखिलेश अब तक पार्टी के चार युवा संगठनों के प्रमुख बन चुके थे जिनमे, युवजन सभा, लोहिया वाहिनी, समाजवादी छात्र सभा और मुलायम सिंह यूथ ब्रिगेड शामिल थीं. लेकिन वे कभी-कभार ही इनकी गतिविधियों में हिस्सा लेते थे. इसी दौरान भारतीय छात्रों पर ऑस्ट्रेलिया में की जा रही क्रूर हिंसाओं की खबरे देश के अखबारों में सुर्खियां बन रही थीं. पिछले कई सालों से मुंबई-आधारित राज ठाकरे का क्षेत्रवाद राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बटोर रहा था. वे जब-तब उत्तर प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी कामगारों के खिलाफ “भैय्या भगाओ महाराष्ट्र बचाओ” के नारों से भावनाएं भड़काने का काम अंजाम देते रहते थे. लोहिया वाहिनी के प्रमुख आनंद भादुरिया के अनुसार, इसने अखिलेश को जमीनी स्तर पर भागीदारी करने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने राज्य के छात्रों से मिलना-जुलना शुरू किया और युवा शक्ति पर नियंत्रण बनाने की योजना बनाई.
समाजवादी पार्टी ने स्थानीय छात्र राजनीति को शुरू से ही पाला-पोसा है. युवाओं पर इसने अपनी पकड़ अपनी मर्दानगी और जाति की शक्ति की लफ्फाजी से हासिल की है. इस क्षेत्र में मायावती की कोई खास पकड़ नहीं रही. बीएसपी का कभी कोई प्रभावशाली छात्र विंग नहीं रहा. इसका मुख्य वोटिंग आधार दलित हैं जिनके पास उत्तर प्रदेश में शिक्षा पाने के बहुत कम साधन मौजूद हैं और छात्रों के स्तर पर उनसे जुड़ने के लिए राजनीतिक मंच अपेक्षाकृत बहुत कम हैं. 2002 में बतौर मुख्यमंत्री मायावती ने उत्तर प्रदेश के अंदर छात्र चुनावों में हिस्सा लेने के लिए उम्र की सीमा तय कर दी थी. यह उन पेशेवर छात्र नेताओं पर एक सीधा प्रहार था, जो कॉलेजों में सालों तक यूनियन नेता बनने की उम्मीद में टिके रहते थे, ताकि वहां से एक लंबी छलांग लगाकर दलगत राजनीति में आ सकें.
छात्र राजनीति के प्रति मायावती के इस दृष्टिकोण ने अखिलेश के लिए जमीनी स्तर पर ताकत हासिल करने का दावा ठोंकने के लिए रास्ता खोल दिया. जनवरी 2008 में, बीएसपी के एक मंत्री नकुल दुबे ने लखनऊ स्थित कन्याकुब्ज कॉलेज जाने का कार्यक्रम बनाया. इसकी प्रतिक्रया में एक छात्र नेता ने, फीस में इजाफे और पिछले साल मायावती द्वारा छात्र यूनियन के चुनावों पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रतिरोध करते हुए एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया. यह नेता सुनील यादव था, जो आगे चलकर समाजवादी छात्र सभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना और आज जिसकी गिनती अखिलेश के दाहिने हाथ के रूप में की जाती है.
“हमने इसकी योजना भैय्या के साथ मिलकर पहले से ही बना ली थी,” यादव ने उस विरोध प्रदर्शन को याद करते हुए कहा. “जैसे ही भैय्या ने मुझे दिल्ली से फोन पर इसके आयोजन की इजाजत दी, मैं कुछ छात्रों का जत्था लेकर नकुल दुबे को काली झंडियां दिखाने के लिए निकल पड़ा.” पुलिस द्वारा छात्रों पर लाठियां बरसाने के बाद अफरातफरी मच गई. लगभग तभी, पूरे राज्य के अन्य शहरों से विरोध में छात्र अपनी-अपनी कक्षाओं से बाहर आ गए. सिर में चोट लगने से लहुलुहान सुनील यादव की तस्वीरें, राज्य में टीवी के परदे पर हर जगह छा गईं.
विरोध में शामिल होने के लिए अगले ही दिन लखनऊ पहुंचे अखिलेश को, 30000 अन्य छात्रों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. दंगे जैसी स्थितियां पैदा होने लगीं. विरोध के इस कदर फैल जाने की सूरत में, बीएसपी के पास तानाशाह बन जाने के अलावा कोई और चारा नहीं था. सुनील यादव के शब्दों में, “भैय्या पीढ़ी” ने अपनी छाप छोड़ दी थी.
यही भैय्या पीढ़ी अखिलेश का लोकल सपोर्ट ग्रुप बनी और इसी ने अखिलेश को उनकी पहचान दिलवाई. वे कभी उत्तर प्रदेश के किसी कॉलेज में नहीं गए. लेकिन अपने इस अंदरूनी दबदबे के न होने ने उनके दृष्टिकोण को तरोताजा दिखने में मदद की. युवाओं की अपनी इस नई मण्डली के साथ, वे आदरभाव के साथ पेश आते और उनसे खूब बातचीत करते. वे उन्हें बेहतरीन माइलेज देने वाली बाइकों और कारों के बारे में अपनी सलाहें देते और क्रिकेट पर अपनी राय रखते. “वे सही मायनों में सभी के भैय्या थे,” सुनील ने कहा. “यूथ विंग का कोई भी सदस्य उन्हें कभी भी फोन कर सकता था. किस वरिष्ठ नेता को अपने सभी कार्यकर्ताओं के नाम पता हैं? उन्हें मालूम हैं.”
इन्ही नए वफादारों का नेटवर्क है, जिस पर आज भी अखिलेश भरोसा करते हैं. लखनऊ पुलिस के स्थानीय खुफिया विभाग के एक अफसर ने बताया कि आज तक भी अगर राज्य से कोई परेशानी भरी खबर आती है, तो अखिलेश खबर की पुष्टि अपने इन्ही स्थानीय संपर्कों से करते हैं, जो उन्होंने 2008 के छात्र विरोध प्रदर्शनों के दौरान बनाए थे.
2009 के आम चुनावों से ठीक पहले अचानक समाजवादी पार्टी के सितारे, जो गर्दिश में जाते नजर आ रहे थे, चमक उठे. खुद अखिलेश ने दो चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ा और दोनों पर विजयी घोषित हुए. समाजवादियों का गढ़ माने जाने वाली फिरोजपुर की सीट उनको छोड़नी पड़ी. हालांकि उप-चुनावों में, पार्टी को इस सीट से शर्मनाक रूप से हाथ धोना पड़ा और इस हार का परिणाम, अखिलेश के राजनीतिक जीवन में एक नया मोड़ लेकर आया.
1995 में सिडनी जाने से जरा पहले, अखिलेश की लखनऊ में एक डिंपल रावत नामक लड़की से मुलाकात हुई, जिसके साथ वे अपने ऑस्ट्रेलिया प्रवास के दौरान लगातार संपर्क में रहे और जिससे वे वापस लौटकर शादी करना चाहते थे. कई लोगों ने मुझे बताया कि मुलायम इस समुदाय से अपनी खटपट के चलते अपने यादव बेटे और उत्तराखंड की एक पहाड़ी ठाकुर लड़की के मेल से खुश नहीं थे. इस मेल से उनको अपने ओबीसी वोटरों के साथ संभावित तौर पर दिक्कतें पेश आ सकती थीं. अखिलेश ने विरोध का बिगुल बजा दिया. उन्हें एक ऐसे व्यक्ति का समर्थन मिल गया जिसकी उन्होंने उम्मीद नहीं की थी. मुलायम सिंह के नजदीकी और पूर्व कांग्रेस नेता एवं व्यवसायी अमर सिंह ने इसमें अखिलेश का साथ दिया.
अमर सिंह खुद भी एक ठाकुर थे, जो 1996 में समाजवादी पार्टी में शामिल हुए थे. पार्टी के पुराने दिग्गजों की असहजता के बावजूद, उन्हें सीधा राज्य सभा में भेज दिया गया था. इन दिग्गजों को लगता था कि पार्टी में उन्हें इस कदर सिर पे बिठाना, लोहिया के विचारों और पार्टी के समाजवादी सिद्धांतों से समझौता करने के बराबर था. लेकिन मुलायम सिंह को उन पर भरोसा था. इसलिए राजधानी के राजनीतिक हलकों में पैठ बनाने के लिए उन्होंने दिल्ली में पार्टी मसलों की कमान उन्हें सौंप दी.
जो कहानियां मैंने अमर सिंह के बारे में सुनी उनसे यह साफ जाहिर था कि 1996 और 2010 के बीच, जिन सालों में वे पार्टी के साथ औपचारिक तौर पर जुड़े रहे, उन्होंने पार्टी और मुलायम के परिवार में बहुत से बदलावों को अंजाम दिया. अखिलेश ने कथित तौर पर एक कार्यकर्ता से कहा था कि उन्होंने, “खटिया पर सोने वाले मेरे बाप को, फाइव स्टार की लत लगा दी.”
लखनऊ से निकलने वाले एक अखबार के संपादक के मुताबिक, अमर सिंह ने पियानो तोड़ने वाली उस घटना के बाद अखिलेश को ऑस्ट्रेलिया भेजने के लिए मुलायम को राजी कर लिया था. उन्होंने साधना और प्रतीक को सार्वजनिक रूप से वैधता दिलवाने के लिए भी कड़ी मेहनत की थी. 1999 में, जब अखिलेश ने अपने पिता की मर्जी के खिलाफ जाकर डिंपल से शादी करने के लिए बगावत करने की धमकी दी तो अमर सिंह ने ही मुलायम को शादी के लिए मनवाया. इस संपादक ने बताया कि उन्होंने ही उन्हें समझाया कि ठाकुरों का वोट पाने का यही एक मौका है. जिस साल अखिलेश सांसद बने, उसी साल नवंबर में डिंपल से उनकी शादी हो गई.
इस बीच, अमर सिंह पार्टी के नजरिए और काम करने के तरीके में कई बदलाव ला चुके थे. बतौर यूपी विकास परिषद् चेयरमैन उन्होंने अपने लॉबिंग के हुनर के बल पर, आदि गोदरेज, अनिल अंबानी, कुमारामंगलम बिड़ला और अमिताभ बच्चन सहित देश के बड़े उद्योगपतियों और फिल्म अभिनेताओं का समर्थन प्राप्त किया और उन सभी को परिषद् का सदस्य नामांकित किया. “अमर सिंह के प्रवेश से, पार्टी में पैसा बनाना और भ्रष्टाचार एक ईमानदार कोशिश बन गए,” पूर्व पार्टी सदस्य शाहिद सिद्दीकी ने बताया. मैंने इस दौर के बारे में जिन लोहियावादियों से बातचीत की उन्होंने समाजवादी पार्टी में बढ़ती इस उपभोग की संस्कृति के लिए अमर सिंह को दोषी ठहराया. हिंदी फ़िल्मी सितारों की चकाचौंध लिए सैफई महोत्सव में, इस उपभोग की संस्कृति की झलक सबसे ज्यादा दिखती थी.
हालांकि, समाजवादी पार्टी के इन वरिष्ठ नेताओं से बात करने के बाद, जो मुझे समझ आया उसका लब्बोलुबाब था कि अमर सिंह उनके और मुलायम के बीच व्यवधान बन गए थे. इस आघात को कईयों ने महसूस किया : आपसी रिश्ते बनाने की मुलायम सिंह की कला ने ही पार्टी को खड़ा किया था. इसके अलावा, अमर सिंह की यह चकाचौंध 2000 के दशक में पार्टी के कोई काम नहीं आ रही थी. मायावती की ताकत दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी. उनके 2007 के “सर्वजन समाज” अर्थात ब्राह्मण-दलित चुनावी गठजोड़ के चुनावी पैंतरे से, समाजवादी पार्टी के पारंपरिक तानेबाने को तगड़ा झटका लगा था. 2009 के लोक सभा चुनावों के लिए समय रहते, पार्टी इससे नहीं उभर पाई. हालांकि, बाकि सदस्यों की बनिस्पत अखिलेश की सीट अभी भी सुरक्षित थी, बल्कि दोहरी सुरक्षित थी. उन्होंने कन्नौज और फिरोजाबाद से 2009 का चुनाव लड़ा और जीता भी. उन्होंने कन्नौज की सीट पर बने रहने का फैसला किया. फिरोजाबाद पार्टी का पुराना गढ़ था और अब तक वहां के सांसद राम गोपाल यादव के सुपुत्र अक्षय रहते आये थे. लेकिन 2009 के उप-चुनाव नतीजों ने, पार्टी को भारी झटका दे डाला. इस मुकाबले में फिल्मी हस्ती और कांग्रेस के राज बब्बर ने, समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी डिंपल यादव को बुरी तरह पछाड़ डाला.
राज बब्बर और अमर सिंह की पुरानी दुश्मनी थी. बब्बर पहले समाजवादी पार्टी में हुआ करते थे लेकिन सिंह के साथ टिकट वितरण को लेकर हुए विवाद के बाद उन्हें 2006 में पार्टी से निकाल दिया गया था. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया, “बब्बर को हारने के लिए अमर सिंह ने यह चाल चली थी”. “उन्होने ही डिंपल का नाम सुझाया. उन्होंने सोचा कि परिवार का सदस्य होने के नाते वे सबसे सुरक्षित प्रत्याशी साबित होंगी.”
लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान अमर सिंह द्वारा उठाए गए कुछ गलत कदम महंगे साबित हुए. एक मुसलमान बहुल क्षेत्र में पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को लाने का उनका फैसला लोगों को कत्तई नहीं सुहाया. फिर एक फिल्मी सितारा अनजाने में उनके पतन का कारण बन गया. कई लोगों का मानना था कि अमर सिंह द्वारा, बब्बर के प्रचारक सलमान खान के बारे में जो तिरस्कारपूर्ण बातें कही गईं उसने मुसलमान वोटरों को पार्टी से अलग—थलग कर दिया. सलमान के मुरीदों को शायद अपने हीरो के बारे इस तरह की ऊलजलूल बातें पसंद नहीं आईं और उन्होंने इसे भी उतना ही महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बना डाला. बात कुछ भी रही हो. नतीजतन, डिंपल बुरी तरह चुनाव हार गईं और अमर सिंह ने जैसे खुद को बियाबान में अकेले पाया.
उप-चुनावों के तुरंत बाद, पार्टी ने 2012 के विधान सभा चुनावों के टिकट आवंटन के लिए अर्जियां मंगवानी शुरू कर दीं. अखिलेश खुद इन अर्जियों को देखते और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ मिलकर संभावी प्रत्याशियों का साक्षत्कार लेते. अब तक पार्टी के कई नेताओं को समझ आ चुका था कि उनकी पुरानी रणनीतियों के साथ कुछ तो बहुत गड़बड़झाला है. 2009 के चुनावों में हार के बाद, समीक्षा के लिए बैठक में मौजूद एक नेता ने याद करते हुए बताया कि एकत्रित लोगों से अमर सिंह ने उन्हें उलाहना देने के अंदाज में पूछा, “आप में से कोई जानता है कि हान्नाह मोंटाना कौन है?” इस बारे में किसी को नहीं पता था. फिर सिंह ने कहा, “अखिलेश से पूछो. उन्हें पता है. इसलिए हमें पार्टी चलाने के लिए युवा पीढ़ी की जरूरत है.”
अखिलेश शायद अब डिजनी एक्सपर्ट बने रहने भर से ही संतुष्ट नहीं थे. उन्होंने एक सर्वेक्षण करवाया जिससे पता चला कि मतदाता समाजवादी पार्टी के शासन को “गुंडा राज” के रूप में देखते हैं. उन्होंने इस छवि को धोने के लिए ऐसे लोगों को टिकट देना बंद कर दिया जिनके खिलाफ दायर आरोपपत्रों को नजरअंदाज करना मुश्किल था, जैसे कि कई हत्याओं के मामलों में आरोपी रहे डी.पी. यादव. 403 प्रत्याशियों में से पार्टी ने 85 प्रत्याशी, 40 से साल कम उम्र वाले उतारे. लेकिन छवि को साफ करने की तमाम कवायद के बावजूद, पार्टी ने फिर भी 2012 के चुनावों में अधिकतर दागदार प्रत्याशियों को ही उतारा.
उस पूरे साल अमर सिंह के साथ संबंधों में तेजी से गिरावट आई. एक पार्टी नेता और सांसद के अनुसार, अखिलेश के चाचा रामगोपाल, जो सिंह को बिलकुल पसंद नहीं करते थे, ने अपनी सारी ताकत अखिलेश को सत्ता हासिल करने के लिया तैयार करने में झोंक दी. इसी नेता ने बताया कि अखिलेश ने मुलायम के सुरक्षाकर्मियों और उनके स्टाफ तथा उनके और अमर सिंह के बीच फोन कॉल तक काट डाले. जनवरी 2010 में, अमर सिंह और फिल्मी हस्ती जया प्रदा ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और एक साल बाद उन्हें पार्टी की “धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी छवि को बिगाड़ने की कोशिश करने के आरोप में” पार्टी से ही निकाल दिया गया.” एक वरिष्ठ नेता के सचिव ने कहा, सिंह का बलिदान इसलिए दिया गया कि दिखाया जा सके कि पार्टी एक नया पन्ना पलट रही थी.
अखिलेश ने अपने चुनाव अभियान कार्यक्रम को डिजाइन करने के किए प्रोफेशनलस की एक टीम की मदद ली. इसमें संगीत निर्देशक, निखिल-विनय की जोड़ी भी शामिल थी. पत्रकार और रेडियो कार्यक्रम पेश करने वाले नीलेश कुमार ने गाने लिखे और पार्टी के चुनाव चिन्ह का इस्तेमाल करते हुए “उम्मीद की साईकिल” टैगलाइन लेकर आए. हिंदी फिल्म “नील और निक्की” के निर्देशक, अर्जुन सबलोक ने विज्ञापन अभियान संभाला.
फरवरी 2011 में, अखिलेश को औपचारिक तौर पर पार्टी के यूपी राज्य का अध्यक्ष चुन लिया गया. अगले महीने ही पार्टी ने, बीएसपी पर निशाना साधते हुए “बिगड़ती कानून व्यवस्था, महिलाओं के खिलाफ अपराध” और व्यापक भ्रष्टाचार के मुद्दों को लेकर एक विशाल अभियान छेड़ दिया. मायावती ने, मानो अपनी सरकार के खिलाफ इन आरोपों की पुष्टि करते हुए, दमनकारी कदम उठाए. उस साल मार्च के महीने में, उन्होंने मुलायम और अखिलेश को अपने घरों में नजरबंद कर दिया. लेकिन इसका विपरीत असर पड़ा. राज्य भर में इस गिरफ्तारी के विरोध में हिंसक प्रदर्शन हुए और मामला संसद तक जा पहुंचा.
बीएसपी को उन्हें छोड़ना पड़ा, लेकिन उन्होंने अगले दस दिनों में अखिलेश को दो बार और गिरफ्तार किया. मनीष तिवारी और राजन पांडे ने अपनी किताब बैटलग्राउंड यूपी में लिखा, मायावती सरकार “समाजवादी पार्टी के हजारों हजार कार्यकर्ताओं को नियंत्रण में नहीं रख पा रही थी, जो राज्य के विभिन्न शहरों में पुलिस चेतावनी के बावजूद, मायावती का पुतला जलाने के लिए निकल आए थे. पार्टी दफ्तर में बैठे अखिलेश को राज्य भर से समाजवादी कार्यकर्ताओं के विरोध प्रदर्शनों की ख़बरों के लगातार फोन आए जा रहे थे. यादव अपनी पार्टी के शक्ति प्रदर्शन से खुश थे. पार्टी के अन्दर भी संतोष का भाव था. नए नेतृत्व ने आखिरकार यह मुमकिन कर दिखाया था.”
अखिलेश के अभियान में पीछे-पीछे मोटरों के काफिले के साथ, प्रदेश के देहाती इलाकों से गुजरते हुए एक साइकिल यात्रा भी शामिल थी. राज्य सरकार ने उन्हें नए नोएडा-आगरा एक्सप्रेसवे से गुजरने की इजाजत नहीं दी. “भैय्या ने फिर हमसे कहा, चलो फिर फ्लाईओवर के नीचे से होते हुए मिटटी वाले रास्ते से चलते हैं,” अखिलेश के साथ यात्रा में शामिल आनंद भदुरिया ने कहा. “उन्होंने कहा एक दिन वे इस एक्सप्रेसवे का उदघाटन करेंगे. जो उन्होंने किया भी.” उनकी यात्रा के दौरान, अखिलेश के सौतेले भाई, प्रतीक ने लखनऊ के जानेमाने पत्रकार की बेटी अपर्णा बिष्ट से शादी रचा ली. अपर्णा भी एक पहाड़ी ठाकुर हैं, लेकिन जैसे कि शायद उम्मीद भी थी, इस बार मुलायम को इस मेल से कोई ऐतराज नहीं था.
आशीष यादव, जो अब पार्टी के मीडिया मैनेजर हैं, ने मुझे बताया, मार्च 2012 में मतगणना वाले दिन मुलायम ने उनसे तीन बार पूछा कि क्या हम जीतेंगे. उसी शाम जब नतीजे घोषित हुए, जायद खान पार्टी मुख्यालय में अखिलेश को मुबारकबाद देने पहुंचे. “क्या आप जानते थे वे कौन थे?” आशीष ने अखिलेश से पूछा. भावी मुख्यमंत्री ने सिर हिलाकर हामी भरी और 2008 की उनकी फिल्म फैशन का डायलाग दोहराया, “कहते हैं सक्सेस की सीड़ी चड़ते हुए जिन लोगों से मुलाक़ात होती है, वही लोग फिर से सीड़ी उतरते हुए भी मिलते हैं.”
उत्तर प्रदेश के अधिकतर अफसर और राजनीतिक कार्यकर्ता, जिनसे मैंने इस कहानी के लिए संपर्क किया, व्हाट्सएप या एसएमएस पर आसानी से उपलब्ध थे (राज्य के लगभग किसी अफसर ने ईमेल का जवाब नहीं दिया). मेरे द्वारा साक्षात्कार किए गए कई लोगों ने मुझे अपने व्हाट्सएप फॉरवार्डिंग सर्किलस से जोड़ दिया. इन लोगों के लिए मैं फ़्लर्ट करने की वस्तु बन गई, जो मुझे नियमित रूप से लंपटता से भरी हुई प्रेम कविताएं और शायरी भेजा करते. उत्तर प्रदेश में यह जानी-अंजानी महिलाओं के साथ मेलजोल बढ़ाने का आम तरीका है. एक पार्टी कार्यकर्ता ने मुझे बताया कि जिस आदमी को मैं जवाब नहीं दे रही थी उसने इस कार्यकर्ता को मुझसे बात ना करने की सलाह दी क्योंकि मैं एक “चरित्रहीन” औरत थी.
इस सर्किल में किसी औरत को “चरित्रहीन” कहना उसकी बेइज्जती करने का प्रचलित तरीका है. राज्य की महिला आयोग की एक पूर्व सदस्या ने माना कि जब उन्होंने एक वरिष्ठ पुरुष अफसर के साथ दौरे पर जाने से इंकार कर दिया तो उन्हें भी चरित्रहीन घोषित कर दिया गया था. “दौरा” शब्द का इस्तेमाल, सेक्स करने के लिए शहर से बाहर जाने के लिए किया जाता है. यह इसलिए नहीं कि “आपने मना कर दिया,” उन्होंने कहा. “बल्कि इसलिए कि यह मान लिया गया कि आप आजकल किसी और के साथ सो रही हैं.”
बातचीत के दौरान आशीष यादव से मैंने इन व्हाट्सएप मेसेजिस के बारे में यूं ही जिक्र किया था. जब मैं इस कहानी के लिए अपने आखिरी साक्षात्कारों को खत्म कर रही थी तभी मुझे अखिलेश के नंबर से एक मेसेज आया. एक महीना पहले मैंने साक्षात्कार के लिए जो निवेदन किया वे उसके लिए राजी हो गए थे. मैंने आशीष को ब्यौरा जानने के लिए फोन किया. उन्होंने कहा कि उन्होंने शायरी समस्या का जिक्र भैय्या से किया था और वे यह जानकर बहुत शर्मिंदा हुए और मुझे समय देने के लिए मान गए.
जुलाई के शुरू में, मैं लखनऊ में मुख्यमंत्री निवास पर मुलाकात के समय से एक घंटा पहले पहुंचकर पारंपरिक चिकनकारी से नई-नई सुसज्जित लॉबी में इंतजार करने लगी. छत के आखिर में, साईकिल के कबाड़ से बनी एक मूर्ति लटक रही थी, जिस पर रौशनी कुछ इस तरह से की गई थी कि पास की दीवार पर उसकी परछाई से मुलायम सिंह का चेहरा बन रहा था. मुझे बताया गया कि अपने शपथ ग्रहण के बाद, अखिलेश ने घर में लगी सभी नीली टाइल्स को निकलवा कर पूरे घर का रंगरोगन दुबारा से करवाया था. नीला रंग उनके पूर्व, सत्ताधारी बीएसपी से जुड़ा था.
एक घंटे बाद बाद मुझे एक बड़े से दफ्तर में बुलाया गया, जिसके बाहर झांकने पर फुटबॉल का मैदान दिखता था जहां एक सिरे पर गोलपोस्ट लगा था. लंबी खाली मेज के पीछे की अलमारी पर मैंने लोहिया की गुदी छवि देखी. मेज पर साईं बाबा और विष्णु भगवान की छोटी-छोटी मूर्तियां, दुनिया के नक्शे वाला एक सुनहरी रंग का ग्लोब, और शिनैल ब्लू परफ्यूम की बोतल भी रखी थी. इसके अलावा, किताबों के खाने में एच.जी. वेल्स की द न्यू मैकियावली तथा बेनजीर भुट्टो और ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की जीवनियां रखी थीं. मैंने मेज पर करीने से रखी फाइलों के लेबल पढ़ने के लिए जैसे ही अपनी गर्दन आगे उचकाई मुख्यमंत्री ने कमरे में प्रवेश किया.
यादव ने मुझसे हिंदी और अंग्रेजी में बात की. उन्होंने अपने बचपन और व्यक्तिगत इतिहास से जुड़े सवालों का जवाब देने से साफ इनकार कर दिया. इसकी बजाय उन्होंने मुझे “सरकार के बारे में” लिखने के लिए कहा. “मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह कोई बहुत लंबी यात्रा है,” उन्होंने कहा. “लेकिन जरूर मैंने बहुत कुछ देख लिया है.” उन्होंने उत्तर प्रदेश और उसकी राजनीति को समझने में आने वाली दिक्कतों और समय के साथ अपनी बढ़ती जिम्मेवारियों के बारे में तेजी से बिना रुके बोलना शुरू किया. “जब मैं और आप बात कर रहे हैं, हम विश्व जनसंख्या दिवस भी मना रहे हैं. आज मेट्रो कार्यक्रम के दौरान मैंने अपने भाषण में कहा कि हमें मेट्रो की जरूरत है क्योंकि जनसंख्या बढ़ रही है.”
बीच में सवाल पूछने से पहले ही उन्होंने पार्टी घोषणा पत्र में किए गए अपने वायदों को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाओं और सुधारों के बारे में बताना शुरू कर दिया. उन्होंने दावा किया कि सभी वायदे पूरे किये गए हैं, चाहे वे लैपटॉप हों, या, नए स्कूल और कॉलेज, बिजली सप्लाई, हाईवे, मुफ्त सिंचाई हो. “हमने वो सभी परीक्षाएं पास कर लीं हैं,” उन्होंने दावा किया. “मैं तो कहूंगा कि हमने सभी काम कर लिए हैं और अब हम “उत्तर परदेस” को असली विकास के पथ पर ले जायेंगे.” उनके किस्म की हिंदी में उन्होंने भी अपने पिता मुलायम के अंदाज में प्रदेश का नाम ही उत्त परदेस कर दिया था.
बातचीत में ब्रेक के दौरान मैंने उनसे पूछा कि बतौर मुख्यमंत्री वे कौन सी तीन मुख्य सफलताएं गिनवाना चाहेंगे, “अपनी तीन मुख्य सफलताएं मैं बताता हूं,” मेरा सवाल अभी अधर में ही लटका था कि उन्होंने मुझे वही सरकारी लाइन थमा दी: इन्फ्रास्ट्रकचर, स्वास्थ्य और सामाजिक योजनायें.
हालांकि, सरकार के कामों के बारे में उनकी आशावादिता पूरी तरह से तथ्यों से मेल नहीं खाती थी. समस्या तब और बढ़ जाती है, जब उत्तर प्रदेश में सामाजिक बुराइयों और अन्याय से संबंधित सरकारी आंकड़ा कई बार सवालों के घेरे में आ चुका हो. अप्रैल 2014 में जारी किये गए सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2013 में प्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं के 80 मामले बताए गए थे. इसके बावजूद, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ने कहा उसी साल के दौरान, 750 किसानों ने आत्महत्या की थी. इस साल खराब मौसम की वजह से, फसल नुकसान के लिए मुवावजे के रूप में वितरित करने के लिए केंद्र ने राज्य सरकार को 490 करोड़ रुपए दिए थे. यह पैसा किसानों के पास बहुत देर से पहुंचा. कुछ किसानों को तो सिर्फ सौ-सौ रुपए ही दिए गए. बाकियों को इससे भी कम मिला.
अखिलेश ने माना कि किसानों द्वारा आत्महत्याएं एक राष्ट्रीय समस्या है. “हमने आत्महत्याएं करने वाले किसानों के परिवारों की मदद की है. लेकिन केंद्र सरकार ने क्या किया? उनको भी कहना चाहिए कि उन्होने भी मदद की है.” लागतार चढ़ते-गिरते चीनी के दाम ने, राज्य के गन्ना किसानों को बर्बाद करके रख दिया है. दंगो के शिकार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वे क्षेत्र, देश भर में गन्ना उगाने वाले किसानों के सबसे बड़े क्षेत्रों में शुमार किया जाता है. उनकी सरकार अपनी तरफ से यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है कि किसानों को भुगतान हो. “हम उन्हें अपने बजट में से पैसा दे रहे हैं. चीनी मिलों को काम करना चाहिए, मूल्यों पर नियंत्रण होना चाहिए, समय पर भुगतान किये जाने चाहिए,” उन्होंने कहा. “लेकिन केंद्र को इसके लिए कदम उठाना होगा.” उनके मुताबिक़ उनकी सरकार ने केंद्र को इस मुत्तालिक मदद के लिए इतनी बार लिखा है कि वे मुझे इसकी एक पुस्तिका बना कर दे सकते हैं.
“विधान सभा के लिए उन्ही लोगों ने हमें वोट दिया, जिन लोगों ने 2014 में आपको दिया था. आपके भी सासंद भारी बहुमत से विजयी हुए थे, फिर क्यों नहीं आप उनके भले के लिए काम करते?”
कई और मुख्य मंत्रियों की तरह अखिलेश भी अपनी राजधानी को ग्लोबल मेट्रोपोलिस की तर्ज पर ढालने के सपने से अछूते नहीं रहे हैं. जब वे अभी मुख्यमंत्री बनकर आए ही थे, उन्होंने कथित तौर पर एक मीटिंग के अंदर मौजूद लोगों से भी कहा भी था कि वे लखनऊ को सिंगापुर बनाएंगे ताकि जब गांव देहात का कोई वहां आए तो वापिस जाकर पूरे इलाके में इस बात को फैला दे कि यह सरकार विकास को लेकर किस कदर संजीदा है. जुलाई 2012 में, 102 करोड़ रुपए की लागत वाला, “लंदन आई” की तर्ज पर “लखनऊ आई” प्रोजेक्ट शुरू किया था. लखनऊ विकास प्राधिकरण के प्रमुख इसे अखिलेश के “सपनों का प्रोजेक्ट” बताते हैं.
अखिलेश की इस तकनीक-पसंद आधुनिक पुरुष की छवि को कभी-कभी झटका भी लगा है. दिल्ली में जून 2014 में आयोजित एक आयोजन में, अमरीका के 20 निवेशकों ने राज्य में 20000 करोड़ रुपए के निवेश की पुष्टि की. वरिष्ठ अफसर आलोक रंजन के साथ शुरुआती मुलाकात के बाद, निवेशक अखिलेश के साथ भी मुलाकात करना चाहते थे. जब लखनऊ में हुई इस बैठक के दौरान निवेशकों ने एक प्रेजेंटेशन दिया जिसमें बताया गया था कि उनके दिमाग में किस तरह की परियोजनाएं हैं, तो प्रेजेंटेशन के बीच में अखिलेश ने पूछ लिया, “तो आप न्यूयॉर्क से हैं? आपके पास वहां “स्टेचू ऑफ लिबर्टी है? क्या हम, यहां लखनऊ में उसके जैसा कुछ नहीं बना सकते?” एक अफसर, जो उस मीटिंग में मौजूद थे, ने बताया कि निवेशक उनके इस छिछोरेपन पर भौचक्के रह गए.
एक मुख्य सचिव ने बताया कि अखिलेश मीटिंगों के दौरान अक्सर अपने फोन को देखते रहते हैं और कभी-कभार व्हाट्सएप पर आए लतीफे भी सुनाने बैठ जाते हैं. लेकिन हमारे साक्षात्कार के दौरान, जब उन्होंने अपने फोन को देखना शुरू किया तो वह मुझे एक खबर सुनाने के लिए था : “मैनपपुरी का विकास एक्सप्रेसवे की तरह होगा. एक्सप्रेसवे 102 किलोमीटर लंबा है. यह 10 जिलों और 232 गांवों से होकर गुजरेगा, जिसमें 19 गांव मैनपुरी के भी शामिल हैं. इसमें 13 छोटे और 52 बड़े पुल तथा चार सब्जियों के बड़े बाजार होंगे. खूबसूरती के लिए रास्ते में तालाब भी खोदे जाएंगे.”
वे बीच-बीच में योजना को समझाने के लिए रुकते और फिर पढ़ना शुरू कर देते. “मैंने सभी छोटे-बड़े तालाबों को खुदवा दिया है, उन्होंने कहा. “मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज तथा शोपिंग मॉल भी बनाए जाएंगे. हम केवल जगह प्रदान करवाएंगे और नियमन करेंगे. प्राइवेट पार्टियों के लिए टेंडर खोले जाएंगे.”
उन्होंने आगे कहा, “पूरे रास्ते में दो लाख पेड़ लगाए जाएंगे.” वे रुके और बोले, “सिर्फ दो लाख? नहीं, हम करोड़ों पेड़ लगाएंगे.”
यह सवाल कि क्या उत्तर प्रदेश बड़े निवेशकों द्वारा किए गए वायदों और इस मुत्तालिक किए गए प्रचार की कसौटी पर खरा उतर पाएगा या नहीं अनुउत्तरित ही रहा. न अखिलेश, न किसी और से इसका जवाब मिल पाया. राज्य के सिंचाई विभाग के लिए काम करने वाले एक सरकारी ठेकेदार ने इस संबंध में अपनी निराशा जाहिर की. उन्होंने कहा, “ऐसा नहीं था कि मायावती सरकार साफ-सुथरी थी”. किसी भी योजना पर दस्तखत से पहले 10 प्रतिशत का अग्रिम कमीशन देना होता था, जिसका पांच प्रतिशत पार्टी फंड में चला जाता था और बाकि की राशि विधायक और अफसर के बीच में बंट जाती थी.
लेकिन उनके मुताबिक समाजवादी सरकार के शासन में कमीशन की कोई तयशुदा राशि की गणना नहीं की जा सकती : यह कमीशन 10 से 65 प्रतिशत तक भी हो सकता है. यादव होना जरूर मदद करता है (वे खुद भी एक यादव हैं). “और अगर आप ऐसे यादव हैं जो दूसरे किसी और यादव से ज्यादा कमीशन दे सकते हैं तो प्रोजेक्ट आपके हवाले कर दिया जाएगा,” उन्होंने बताया. “उस दूसरे यादव को अपना दिया हुआ अग्रिम कमीशन भी वापिस नहीं मिलेगा.”
अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के दस महीने बाद जनवरी 2013 में समाजसेवियों का एक दल उनसे राज्य में खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने की सिफारिश करने के सिलसिले में मिला. “उन्हें मुलाकात के लिए 35 मिनट का समय दिया गया, जिसमें से 20 मिनट उन्होंने बेल्जियन मूल के योन द्रेज से यह जानने में खर्च कर दिए कि वे इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेते हैं,” एक कार्यकर्ता, जो इस बैठक के दौरान मौजूद थे, ने मुझे बताया. “एक प्रशिक्षित इंजिनियर होने के बावजूद उन्हें दिखाए जा रहे नक्शे समझ में नहीं आ रहे थे. जब हमने उन्हें उत्तर प्रदेश में कुपोषण की ऊंची दर बताई तो उनका कहना था, ‘अच्छा उत्तर प्रदेश, बिहार से भी पीछे है?’” समाजसेवी ने जब उनसे कहा कि उत्तर प्रदेश अपने राज्य में खाद्य सुरक्षा कानून को केंद्र में यूपीए से भी पहले लागू कर सकता है तो उन्होंने राज्य के योजना आयोग के अध्यक्ष एन.सी. वाजपेयी की तरफ देखकर कहा, “आप हमारे फूड और सिविल सप्लाई मंत्री को तो जानते ही हैं. सिर्फ नेताजी ही उन्हें मना सकते हैं.” वे राजा भैय्या के नाम से मशहूर रघुराज प्रताप सिंह की तरफ इशारा कर रहे थे, जो कुछ निर्दलीय ठाकुर विधायकों के गुट के नेता हैं और जिनका समाजवादी पार्टी सरकार बनवाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है.
इस रिपोर्ट के लिखने के शुरुआती समय में मुझे शोले फिल्म के मशहूर डायलाग की तर्ज पर एक मेसेज भेजा गया: “क्यों रे सांभा, कितने चीफ मिनिस्टर थे?” जब मैं दोपहर में राज्य सरकार में मुख्य सचिव से मिलने गई तो यह लतीफा मैंने उन्हें सुनाया. वे खूब हंसे और मेरे बताने से पहले ही अगली लाइन मुझे बता दी, “जवाब है साढ़े पांच. लतीफे के अनुसार उत्तर प्रदेश के पांच मुख्यमंत्री हैं: मुलायम सिंह, शिवपाल, राम गोपाल, आजम खान और मुख्य सचिव अनीता सिंह, अखिलेश इसमे दशमलव पांच की भरपाई करते हैं.
अपने पिता की बनिस्पत, अखिलेश का शासन काल शुरू से ही सत्ता के केंद्र में दरार की तरफ इशारा करता है. मुलायम सिंह पूरे उत्तर प्रदेश पर छाए हुए हैं और सरकार और प्रशासन की तमाम शक्तियां उनकी ही पीढ़ी के साथियों और चमचों में निहित है, न कि “भैय्या पीढ़ी” के. शिवपाल के पास पब्लिक वर्क्स विभाग के साथ-साथ सिंचाई, आय, भूमि विकास और जल संसाधन विभाग भी हैं. राम गोपाल ने संसद के दोनों सदनों में समाजवादियों का नेतृत्व किया है. वे दिल्ली में, पार्टी के काम भी देखते हैं, जिसको लेकर वे कई बार अमर सिंह से भी उलझते रहे हैं. दोनों के बेटे, पार्टी का काम से भी जुड़े हुए हैं और भविष्य में अखिलेश के लिए चुनौती बन सकते हैं. आजम खान, पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और किसी भी और नेता की बनिस्पत इलाके के मुसलामानों पर उनका सबसे ज्यादा वर्चस्व है. वे रामपुर को अपनी जागीर समझते हैं. “वे मुसलमान समुदाय के माई-बाप बनना चाहते हैं,” एक पूर्व पार्टी सदस्य ने बताया.
समाजवादी पार्टी के नेताओं का महत्व उनके वफादारों के जबरदस्त समर्थन आधार और रणनीतिक गठबंधन खड़े करने की उनकी काबलियत से आता है. जब अखिलेश सत्ता में आए लखनऊ में आम धारणा यह थी कि वे न तो अपने बड़ों से मुकाबला कर पाएंगे और ना ही नियुक्तियों और तबादलों के नौकरशाही खेल से ऊपर उठ पाएंगे. “सच्चाई यह है कि वे इसके आगे जाना भी नहीं चाहते,” मुख्यमंत्री कार्यालय में काम करने वाले एक अफसर ने बताया.
लेकिन अखिलेश को प्रतिस्पर्धा देने वाले उनके पिता की पीढ़ी तक ही सीमित नहीं हैं. लखनऊ के दौरे पर गए एक केंद्रीय मंत्री से जब अखिलेश की सरकार के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, “पहले हमको लगता था कि राज्य में कई सारे मुख्यमंत्री हैं, लेकिन अब जो हम देख रहे है हैं उससे लगता है कि कोई असली मुख्यमंत्री के ऊपर भी बैठा हुआ है,” पत्रकार अलका पांडे ने मार्च 2013 में फर्स्टपोस्ट में लिखा. पांडे का दावा था कि मंत्रीजी साफ तौर पर अनीता सिंह की तरफ इशारा कर रहे थे, जो काम तो अखिलेश के साथ करती हैं लेकिन उनको व्यापक तौर पर मुलायम और उनकी पत्नी साधना के प्रति ज्यादा वफादार माना जाता है. ऐसा लगता है इस श्थिति ने उन्हें एक अजीब पशोपश की स्थिति में डाल दिया है. अखिलेश की कोर टीम के एक युवा पार्टी सदस्य ने बताया, मुख्यमंत्री और नौकरशाह के बीच लगभग एक साल से कोई मुलाकात नहीं हुई है.
कोर टीम के इस सदस्य ने एक किस्सा मुझे बताया जिससे यह साफ हो जाता है कि दोनों शुरू से ही एक-दूसरे को नीचा दिखाने का काम कर रहे हैं. 15 नवंबर 2012 को अखिलेश ने यह बताने के लिए कि उन्हें अभद्र भाषा में मेसेज और फोन कॉल्स आ रहे हैं, राज्य के अफसरों और मंत्रियों की एक बैठक बुलवाई. अखिलेश के अनुसार कॉलर उनसे पूछ रहा था कि उसे सरकार के वायदे के अनुसार दिया जाने वाला लैपटॉप कब मिलेगा. उनका कहने का मकसद, नौकरशाही और अनीता सिंह को इस कोताही के लिए जिम्मेवार ठहराना था.
वह जमावड़ा महिला फोन हेल्पलाइन के लांच के लिए था. मुख्यमंत्री के भाषण के बाद, जब धन्यवाद प्रस्ताव दिया जा रहा था, अनीता सिंह ने तत्कालीन डीआईजी नवनीत सिकेरा को मंच पर आमंत्रित किया और उनके कानों में कुछ फुसफुसाया. बैठक जब खत्म होने को थी तो सिकेरा ने माइक हाथ में लेकर कहा कि महिलाओं की हेल्पलाइन लांच का मौका होने के बावजूद किसी महिला ने अब तक कुछ नहीं बोला है, इसलिए अब आपको अनीता सिंह संबोधित करेंगी. प्रोटोकोल के खिलाफ जाकर, अनीता सिंह उत्तर प्रदेश में महिला सुरक्षा को लेकर एक लंबा-चौड़ा भाषण देने लगीं. अखिलेश अपनी सीट पर बैठे-बैठे यह सब देख रहे थे और अपना फोन चेक करने का नाटक कर रहे थे. “शक्ति प्रदर्शन का यह खुला खेल फर्रूखावादी था,” लांच में शिरकत ले रहे एक अफसर ने बताया.
अखिलेश और अनीता सिंह के कामकाजी संबंध, गतिरोध से शुरू हुए और धीरे-धीरे बिगड़ते ही चले गए. जिन कई अफसरों और पार्टी नेताओं से मेरी बात हुई, सभी ने मुझे फैसले लेने की प्रक्रिया में एक-दूसरे के रास्ते में अड़चने डालने की कहानियां सुनाई. अखिलेश के नजदीकी, एक युवा अफसर ने बताया कि अनिता सिंह बार-बार मुख्यमंत्री द्वारा लिए गए प्रशासनिक तबादलों और नियुक्तियों को नजरंदाज कर जातीं थीं. एक वरिष्ठ पुलिस अफसर ने बताया कि मुज़फ्फरनगर हिंसा से पहले, जब एडीजी अरुण कुमार इलाके में पीएसी तैनात करने को लेकर अनीता सिंह से निर्देश लेने गए तो उन्हें समय पर निर्देश नहीं मिले क्योंकि कथित तौर पर मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री के बीच संवाद नहीं रह गया था. अखिलेश से जब मैंने इंटरव्यू के दौरान इसके बारे में जानना चाहा तो उन्होंने मुजफ्फरपुर को लेकर किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया. अनीता सिंह के दफ्तर में भी मैंने इंटरव्यू के लिए कई संदेश छोड़े लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.
यह कथित गतिरोध कई सारी गंभीर गलतियों का सबब बन गया. अखिलेश के शासन के 18 महीनों, मार्च 2012 से लेकर सितंबर 2013 तक, के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 115 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और 50000 से ऊपर लोग सांप्रदायिक दंगों की वजह से बेघर हो गए. 2013 में, कई महीनों तक राज्य की पांच महत्वपूर्ण पुलिस शाखाओं में मुख्य निदेशक और सहायक मुख्य निदेशक के पद खाली पड़े रहे. इन विभागों में पुलिस रिक्रूटमेंट एंड प्रमोशन बोर्ड, इंटेलिजेंस हेडक्वार्टरस, विजिलेंस एस्टेब्लिश्मेंट, इकोनोमिक ओफेंसस विंग और सिक्यूरिटी हेडक्वार्टरस शामिल थे. इन पांच में से चार विभाग सीधे मुख्यमंत्री को जवाबदेह हैं. जिन मुख्य सचिव ने “5.5 मुख्यमंत्री” लतीफे पर ठहाके लगाए थे ने बताया कि कई वरिष्ठ पुलिस अफसर अनीता सिंह के साथ काम करना ही नहीं चाहते थे. इसकी वजह अनीता सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1990 बैच की एक तो काफी युवा अफसर हैं और दूसरे उनके और अखिलेश के बीच टकराव के कारण सभी उनसे कन्नी काटे रहते हैं.
अखिलेश के शासन काल के दौरान कानून व्यवस्था खासतौर पर विवाद का विषय बनी रही. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार इस साल अप्रैल में मुलायम सिंह अपने निवास लखनऊ के 5, विक्रमादित्य मार्ग पर शिवपाल और रामगोपाल से लखनऊ जिला पुलिस अधीक्षक यश्वस्वी यादव से छुटकारा पाने की योजना बनाने के लिए छुप कर मिले (यश्वस्वी महाराष्ट्र कैडर के आईपीएस अफसर हैं और उनको अखिलेश का करीबी माना जाता है). मुख्यमंत्री ने दिसंबर 2014 में किसी तरह से यश्वस्वी को उनके खिलाफ पिछली पोस्टिंग में भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद इस पोस्ट पर नियुक्त किया था. शिवपाल और राम गोपाल, मुलायम से अपने मतभेदों के बावजूद उनके साथ हो लिए. मकसद था : अखिलेश के पर काटना. जब मई में यश्वस्वी का तबादला किया गया तो लखनऊ को बिना पुलिस अधीक्षक के 45 दिन काटने पड़े.
इस सब के बावजूद, पिता और पुत्र ने सहअस्तित्व का एक ऐसा रास्ता अपना लिया है जिसमे दोनों अपने-अपने किरदार अदा कर सकते हैं : मुलायम द्वारा एक निराश अनुशासनप्रिय पिता और अखिलेश द्वारा एक आज्ञाकारी बेटे का. एक पूर्व पार्टी सदस्य ने 2012 की एक बैठक का जिक्र किया जिसमें मुलायम ने सरकार की अकर्मण्यता को लेकर खुलेआम अखिलेश को खूब लताड़ लगाईं थी. “पिता और पुत्र के बीच, सालों से इसको लेकर सहमति बनी हुई है. नेताजी उन्हें सरेआम लताड़ लगाते हैं. वरिष्ठ नेता समझते हैं कि बेटे को भी नहीं बक्शा जा रहा और नेताजी की गैर-पक्षपाती नेतागिरी उसी तरह सतत चलती रहती है.” चाचाओं से भरी पार्टी में, यह रणनीति भरोसा दिलाने का काम करती है. मुलायम के दशकों से सहयात्री रहे पुराने समाजवादियों के लिए भी यह संतुष्टि देने वाला प्रतीत होता है कि नए नेता पर अंकुश रखा जा रहा है. “अखिलेश अपनी आज्ञाकारी बेटे की छवि से खुश हैं. बच्चे अखिलेश को भी अपनी जगह बनाने और अस्तित्व बचाने का मौका मिल जाता है,” उन्होंने कहा.
सूचना विभाग में मुख्य सचिव नवनीत सहगल से मैंने उनके लखनऊ स्थित कार्यालय में इस साल मई के महीने में मुलाकात की. इस मीटिंग के दौरान एक अफसर अंदर आया और उसने सहगल को बीज विभाग के खिलाफ एक ऐसे शख्स की शिकायत के बारे में बताया जो विभाग से अपने 6 करोड़ रुपए की बकाया राशि की मांग कर रहा था. सहगल ने तुरंत ही एक रिपोर्टर को फोन लगाया. “हमारा बीज विभाग बहुत अच्छा काम कर रहा है,” उन्होंने कहा, “इस पर एक सकारात्मक रिपोर्ट करो. हम तुम्हें दस्तावेज मुहैय्या करवाएंगे. यह भी बताना कि कोई हमसे 6 करोड़ की फिरौती मांग रहा है.”
सहगल, मायावती सरकार में एक ताकतवर अफसर थे. लेकिन शासन बदलते ही उन्हें तथाकथित सजा वाली पोस्टिंग के तहत सचिवालय में कहीं और भेज दिया गया था. जब समाजवादी सरकार को एक बार फिर से लगा कि वह छवि प्रबंधन की समस्या से जूझ रही है तो उसने अपनी छवि सुधारने के इरादे से इसी साल उन्हें वापिस मुख्यमंत्री कार्यालय में बुला लिया.
जब मैंने जन-संपर्क के मुत्तालिक मुख्यमंत्री से उनके प्रशासन के फोकस के बारे में पूछा तो उनका कहना था, “अपनी योजनाओं के प्रचार-प्रसार और जागरूकता बढ़ाने के लिए सरकार को जितनी जरूरत हो उतनी पीआर एजेंसियों की मदद लेनी चाहिए.”
प्रचार के इस कोलाहल ने ऊतर प्रदेश में पत्रकारों के लिए सीधा खतरा उत्पन्न कर दिया है. इसी गर्मी में स्वतंत्र पत्रकार, जगेन्द्र सिंह की मौत राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियां बनीं. जगेन्द्र की मौत आग से झुलसने की कारण हुई थी. मरने से पहले उन्होंने अपनी मौत के लिए समाजवादी मंत्री राम मूर्ति वर्मा को को जिम्मेवार ठहराया था, जिसकी गैरकानूनी करतूतों के बारे में वे अपने लेखों में लिखते रहे थे. इस स्टोरी के प्रेस में जाते वक्त पता चला कि अखिलेश यादव सरकार ने, जगेन्द्र के परिवार को कुछ मुआवजा दे दिया था और इस मामले में चल रही जांच को पूरा करने में लगी थी. हालांकि पूरी जांच के दौरान सरकार ने, वर्मा को सस्पेंड करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया.
अखिलेश से मेरी मुलाक़ात के तीन दिन पहले मीडिया के कई चैनलों और अखबारों ने एक स्थानीय पत्रकार की मां को बाराबांकी पुलिस थाने के बाहर जिंदा जलाए जाने की खबर चलाई थी. मैंने मुख्यमंत्री से पूछा कि पत्रकारों के खिलाफ हिंसा की अनदेखी करके क्या सरकार अपने आलोचकों पर दबाव बनाना चाहती है? “बाराबांकी मामले की जांच जारी है,” उन्होंने कहा. “लेकिन जहां तक मुझे ज्ञात है, कुछ परिवार वालों ने ही महिला को आत्मदाह करने के लिए डीजल थमाया था. यह घटना पुलिस थाने में नहीं हुई. अगर कोई थाने के बाहर किसी को उकसाता है तो इसमें पुलिस क्या कर सकती है? पूछताछ के लिए पुलिस लोगों को जरूर उठाती है लेकिन इस मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ. चूंकि हमारा एक बड़ा राज्य है, एक राजनीतिक राज्य है, इसलिए भी कई बार मीडिया इतना तूल देती है.”
एक ऐसे राज्य में जहां सामाजिक अस्मिता इतने गहरे तक पैठी हो, पुलिस अफसरों की जातिगत प्रतिबद्धता रोजमर्रा के कानून व्यवस्था बनाए रखने के काम में बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. पुलिस महकमे में उच्च पदों पर बैठे यादवों की संख्या राज्य में उनकी संख्या के प्रतिशत से मेल नहीं खाती. उत्तर प्रदेश के गृह विभाग में कार्यरत एक अफसर ने बताया कि बड़े पुलिस जिलों के पुलिस थानों को चलाने वालों में साठ प्रतिशत यादव हैं, जबकि पूरे राज्य में यादवों की का प्रतिशत, 25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हैं.
जब मैंने अखिलेश से राज्य में जातिगत निष्ठाओं की पैठ के बारे में पूछा तो उन्होंने उससे साफ़ इंकार कर दिया. "उत्तर में जाति, दक्षिण की भांति ही एक समस्या है. आपने तो इतना घूमाफिरा है. आप जानती हैं कि भेदभाव हर कहीं मौजूद है. लेकिन समाजवादी, भेदभाव के बिना काम करते हैं,” उन्होंने कहा.
जब अखिलेश पहली बार सांसद बनकर लोक सभा पहुंचे तो निचले सदन में चंबल की फूलन देवी भी हुआ करती थीं. उन्होंने कहा, चंबल के जाति युद्धों को लेकर उनकी कोई व्यक्तिगत स्मृति नहीं है. “मेरी पढ़ाई-लिखाई पहले एक ईसाई और फिर एक मिलिट्री स्कूल में हुई, जहां इस तरह का विभाजन नहीं था,” उन्होंने कहा. बाहरी लोग डकैतियों से ज्यादा डरते थे बनिस्पत उनके जो वहीँ के रहने वाले थे. “उनकी आपसी रंजिशें जमीन के मुद्दों को लेकर थीं. आपने पान सिंह तोमर नामक फिल्म जरूर देखी होगी?” वे राष्ट्रीय खेलों के विजेता धावक, जो चंबल लौटने पर डाकू बन गया था, की जीवनी पर आधारित फिल्म की बात कर रहे थे.
“लेकिन मैंने अब उस इलाके को एक ‘लायन सफारी’ में बदल दिया है,” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा. वे नेशनल चंबल सैंक्चुरी के एक प्रोजेक्ट की तरफ इशारा कर रहे थे, जिसका उदघाटन उन्होंने 2012 में किया था. “डाकुओं की जगह अब वहां शेर विचरण करेंगे. यह तीन हजार एकड़ में फैला एक बड़ा प्रोजेक्ट है. वक्त बदल चुका है.”
मुज़फ्फरनगर हिंसा के सवाल को मैंने एक अलग तरीके से पेश किया. मैंने उनसे पूछा, क्या यह सही नहीं है कि प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के लिए उनकी पार्टी मौके के हिसाब से अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता को अपनाती है? समाजवादियों ने 2014 अभियान के दौरान बीजेपी नेता अमित शाह द्वारा अपने चुनावी भाषणों में “सम्मान” और “सुरक्षा” जैसे मुलम्मे चढ़ी हुई शब्दावली के इस्तेमाल पर कोई आपत्ति नहीं जताई. जबकि उसने तेजी से फैलती ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्ताहदुल मुसलमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हिंसा प्रभावित इलाकों में जाने से रोक दिया. शायद इसकी वजह यह रही हो कि पार्टी को डर था कि कहीं एमआईएम प्रदेश के मुसलामानों को अपनी तरफ ना खींच ले? उनका जवाब था, “कानून व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए, यह प्रशासन द्वारा लिया गया निर्णय था. हमारी इसमें कोई भूमिका नहीं थी.”
उनके अनुसार, राज्य की मिलीजुली जनसंख्या बीजेपी के लिए समस्या है, जिसने यहां पैठ बनाने के लिए विभाजनकारी राजनीतिक खेल खेला है. “इसी वजह से बीजेपी हर मतभेद के मुद्दे को सांप्रदायिक मुलम्मा पहना देती है.” हालांकि, उनके इस जवाब ने इस तथ्य को मद्देनज़र नहीं रखा कि दंगे और साम्प्रदायिक हिंसा लगभग हमेशा तब मुमकिन होती है जब सरकारी तंत्र अपनी जिम्मेवारी का निर्वाह नहीं करता या उससे मूंह मोड़ लेता है. “मुजफ्फरनगर पर अब और बात नहीं होगी. जहां तक सरकार से हो सका उसने मदद की,” उन्होंने कहा.
“ऐसा नहीं हैं कि मुख्यमंत्री कार्यालय को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े स्तर की हिंसा की भनक नहीं थी,” जब मैं मुख्यमंत्री के एक सहायक से इस वर्ष अप्रैल में मिली, उन्होंने बताया, “यह ढुलमुल रवैय्या था.” इसका एक कारण कानून व्यवस्था की खातिर सरकार द्वारा महापंचायत से कुछ हफ्ते पहले लिया गया फैसला भी हो सकता है. कुछ समय पहले अगस्त में, सरकार ने राज्य भर से विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) की गतिविधियों पर प्रतिबन्ध के चलते उसके 1698 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया था. गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ताओं में विहिप के शीर्ष के नेता, जैसे अशोक सिंघल, महंत नित्य गोपाल दास और प्रवीण तोगड़िया भी शामिल थे, जो प्रतिबन्ध के बावजूद अयोध्या पहुंचने में सफल हो गए थे. इस गिरफ्तारी ने सरकार को मुसीबत में डाल दिया था. सहायक अफसर के अनुसार, “मुख्यमंत्री कार्यालय, महापंचायत पर प्रतिबन्ध लगाकर फिर से मुसीबत में नहीं फंसना चाहता था.”
मुजफ्फरनगर हिंसा में मरने वालों की संख्या में भी एकमत नहीं है. सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक़ 60 मौतें, सात बलात्कार और 40000 लोग बेघर हुए. दंगा पीड़ित मोहम्मद हारुन और अन्यों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका में मरने वालों की संख्या 200 के ऊपर बताई गई है. संख्या अलग हो सकती है लेकिन इस सच्चाई से मूंह नहीं मोड़ा जा सकता कि महीनों बाद तक भी लाशें बरामद होती रहीं.
सितंबर 2013 के अंत में गृह मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में उस साल साम्प्रदायिक दंगों के 247 हादसे हो चुके थे. इससे एक साल पहले ऐसे हादसों की संख्या 118 थी. बीजेपी के चुनावी पैंतरे में दंगों के लिए दोषी और कानूनी कार्रवाई झेल रहे जाटों के प्रति संवेदना रखना शामिल था. इस रणनीति ने पार्टी को अभूतपूर्व सफलता दिलवाई. पिछली लोक सभा में अपनी 10 सीटों के मुकाबले, 2014 के चुनावों में इसको 80 में से 71 सीटें प्राप्त हुईं. समाजवादी पार्टी को केवल पांच सीटें ही प्राप्त हुईं और बीएसपी का तो खाता ही नहीं खुल पाया. आजाद भारत में पहली बार, उत्तर प्रदेश ने लोक सभा के लिए एक भी मुसलमान को नहीं चुना.
मुजफ्फरनगर दंगों के तुरंत बाद समाजवादी पार्टी छोड़ने वाले एक शख्स ने बताया कि यादव-मुसलमान गठबंधन ने अब चरमराना शुरू कर दिया है. “मुलायम सिंह, मुल्ला मुलायम के नाम से जाने जाते थे, अखिलेश यादव, भैय्या के नाम से जाने जाएंगे.”
लेकिन लगातार बढ़ती धार्मिक हिंसा को लेकर बेचैनी के बावजूद उत्तर प्रदेश के प्रभावशाली मुसलमान नेता आज भी मुलायम की पार्टी को अपना खैरख्वाह मानते हैं. झूठे आतंकवादी केसों में फंसे लोगों की रिहाई के लिए काम करने वाले, रिहाई मंच के संस्थापक वकील मोहम्मद शोएब ने मुझे एक कहानी सुनाई, जिससे पता चलता है कि ये संबंध कितने गहरे या उथले रहे हैं.
साठ-वर्षीय शोएब, मई 2013 में, अपने पड़ोस में एक विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. उनका विरोध, निमेश आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए था. आयोग का गठन मायावती सरकार ने किया था, लेकिन रिपोर्ट, अखिलेश सरकार के सामने पेश की गई. इस आयोग ने बनारस, फैजाबाद और लखनऊ के बम धमाकों के सिलसिले में 2007 में गिरफ्तार दो युवाओं पर लगे आरोपों की छानबीन की थी और पुलिस द्वारा की गई लापरवाही का पर्दाफाश किया था. 2013 में, उनमे से एक संदेहास्पद परिस्थितियों में मृत पाया गया. आयोग ने पुलिस द्वारा गढ़ी गई कहानी और गिरफ्तारी में गंभीर खामियां पाईं और पुलिस को गड़बड़ियों के लिए दोषी पाया. शोएब के इस विरोध को अब राष्ट्रीय मीडिया की भी तबज्जो मिलने लगी थी.
विरोध के दौरान शोएब को लखनऊ की “टीले वाली मस्जिद” के इमाम, मौलाना फजलुर रहमान वैजी, जिन्हें मुसलमान बिरादरी में एक प्रभावशाली आवाज माना जाता है, का फोन आया. शोएब ने बताया कि इमाम ने मेरे और अखिलेश के साथ मुलाकात करने की मंशा जाहिर करने के लिए फोन किया था. “वे मेरे और अखिलेश की तस्वीर एक साथ खिंचवाना चाहते थे ताकि मैं कृतज्ञ होकर उनके साथ शामिल हो जाऊं. वे आंदोलन को खत्म करना चाहते थे.”
“समाजवादी पार्टी और बीजेपी में कोई फर्क नहीं है,” उन्होंने अपनी बात जारी रखी, “दोनों ही असुरक्षा को पोसते हैं और समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काते हैं. ध्रुवीकरण और अपना अस्तित्व बचाने के लिए दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है. जैसे बीजेपी, संघ जैसे कट्टरपंथियों की दलाली करती है; वैसे ही समाजवादी पार्टी, रुबाबदार मुसलमान कट्टरपंथियों की रखैल है. दोनों ही, अपनी-अपनी बिरादरी के लिए कुछ नहीं करते.”
वहां दूसरी तरफ अखिलेश सांप्रदायिक सद्भाव लाने के लिए मंत्रणा कर रहे थे. उन्होंने मुझे बताया कि उनकी सरकार द्वारा लैपटॉप बांटने और एम्बुलेंस सेवा शुरू करने की योजनाएं सरकार की “सबसे बड़ी समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष योजनाएं हैं.” जब मैंने उनसे पूछा कि समाजवाद से उनका क्या मतलब है तो उन्होंने कहा, “हमने बिना जाति और धर्म का भेद किए, बच्चों में लैपटॉप बांटे हैं. जैसे ही आप इन्टरनेट से कनेक्ट होते हैं आप अपने लिए सूचनाओं का एक पूरा संसार खोल देते हैं. जिन लोगों ने लैपटॉप हासिल करने के बारे में कभी नहीं सोचा था उनके पास भी आज लैपटॉप है. केंद्र ने हाल ही में डिजिटल इंडिया योजना का उदघाटन किया और एक महिला को लैपटॉप दिया. जब मैंने उसकी तस्वीर देखी तो कहा कि हमने उत्तर प्रदेश में 16 लाख लैपटॉप बांटे हैं. पूरे यूपी में एक भी ऐसा गांव नहीं है जहां समाजवादियों ने लैपटॉप न बांटा हो.”
वे एक युवा मुख्यमंत्री थे जो विकास के अपने सपने को पूरा करने के लिए तकनीकी पर भरोसा कर रहे थे. फिर क्या कारण हो सकता है कि वे नोएडा नहीं जाते, जो कि उनके राज्य में सबसे शहरी और तकनीकी-पसंद जगह है?
“नोएडा में क्या है?” उन्होंने कहा, “कोई जाता ही नहीं है.” मैंने नोएडा के श्राप का जिक्र किया. “नहीं, वो बात नहीं,” उन्होंने अंग्रेजी में कहा और फिर हिंदी पर वापस आ गए. “ये बातें बहुत सालों से की जा रही हैं कि नोएडा जाने वाली सरकार और मुख्यमंत्री वापस सत्ता में नहीं लौटता. कभी-कभी हमें अपनी भलाई के लिए इन बातों पर ध्यान दे लेना चाहिए.” उन्होंने जोर देकर दोहराया, “अपनी भलाई के लिए, हमें इन सरगोशियों को कान लगाकर सुनना चाहिए.”
(कैरवैन के सितंबर 2015 अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का अनुवाद राजेन्द्र सिंह नेगी ने किया है. अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)