सबके भैय्या

अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के भीतर सत्ता संघर्ष

22 फ़रवरी 2019
एक प्रचलित नेता के रूप में अखिलेश यादव ने पहली बार अपनी छाप 2008 में छोड़ी थी, जब उन्होंने मायावती शासन के खिलाफ पूरे राज्य में छात्रों के आंदोलनों का नेतृत्व किया था.
साभार: समाजवादी पार्टी
एक प्रचलित नेता के रूप में अखिलेश यादव ने पहली बार अपनी छाप 2008 में छोड़ी थी, जब उन्होंने मायावती शासन के खिलाफ पूरे राज्य में छात्रों के आंदोलनों का नेतृत्व किया था.
साभार: समाजवादी पार्टी

दो साल पहले 6 सितंबर की सुबह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की मुख्य सचिव अनीता सिंह को सूचना मिली कि पड़ोस के राज्यों हरियाणा और दिल्ली से हजारों लोग मुजफ्फरनगर जिले के एक गांव में एकत्रित हो रहे हैं और अगले दिन इलाके के हिन्दू जाटों की एक विशाल राजनीतिक बैठक, “जाट महापंचायत”, का आयोजन किया जाने वाला है, जिसके कारण पहले से ही धमकियों और शक से बिगड़े माहौल में तनाव बढ़ने का अंदेशा है. कुछ दिनों पहले ही दो नौजवान जाटों और एक मुसलमान युवक की कथित तौर पर एक झगड़े के दौरान हत्या कर दी गई थी. झगड़े की वजह यह अफवाह थी कि वह मुसलमान युवक एक हिंदू महिला को हैरान-परेशान कर रहा था. भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं की मिलीभगत और प्रोत्साहन से जाटों से संबंधित कई संघटनों ने इसकी प्रतिक्रिया में महापंचायत बुलाने का फैसला लिया. इस पूरे प्रकरण ने इलाके के हिंदुओं और मुसलामानों को आपस में बांट दिया और क्षेत्रीय सरकारी महकमें, हिंसा की आशंका के तहत तैयार हो गए.

लोगों के मजमा लगाने पर प्रतिबंध के आदेश, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत पहले से ही अमल में थे. पिछले पखवाड़े में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और जिला मजिस्ट्रेट का दो बार तबादला किया चुका था. पुलिस और पैरा मिलेट्री के हजारों जवान, किसी भी संभावित भड़काऊ स्थिति का सामना करने के लिए मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में तैनात कर दिए गए थे. अतिरिक्त डायरेक्टर जनरल अरुण कुमार को खास तौर पर स्थिति पर नजर रखने के लिए लखनऊ से वहां भेजा गया था. इसके बावजूद महापंचायत को रोकने के लिए सचिवालय से कोई आदेश जारी नहीं किया गया.

इसी दिन, उत्तर प्रदेश के अब तक के सबसे नौजवान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, सूचना तकनीकी के निकाय नासकोम के नए मुख्यालय का उद्घाटन करने के लिए दिल्ली में थे. निकाय का नया दफ्तर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र नोएडा, जो उनके राज्य का हिस्सा था, में बनाया गया था. लेकिन वे समारोह का उद्घाटन, दिल्ली के बीचोंबीच बने एक होटल, ताज मानसिंह, में बैठकर कर रहे थे. 2012 में, सत्ता संभालने के बाद उन्होंने नोएडा में शुरू की गई कई परियोजनाओं का उद्घाटन दूर से ही बैठकर किया था, आमतौर पर लखनऊ में. कईयों का अनुमान था कि वे ऐसा “नोएडा जिंक्स” या “नोएडा के श्राप” के कारण करते थे. इस राजनीतिक श्राप के मुताबिक यह मान्यता है कि जिस भी मुख्यमंत्री ने नोएडा की धरती पर कदम रखा, उसे आगामी चुनावों में अपनी सीट गंवानी पड़ी थी. इसके कारण अखिलेश को मीडिया की आलोचना का भी शिकार बनना पड़ा. उद्घाटन को कवर करने आए पत्रकारों ने यादव से जानना चाहा कि एक टेक-सेवी पर्यावरण इंजिनियर, जो अपने राज्य के छात्रों को कंप्यूटर बांटता फिरता है, क्या ऐसी बेसिरपैर की बातों में भी यकीन रखता है. एक रिपोर्टर ने पूछा कि एक नौजवान और आधुनिक विचारों वाले मुख्यमंत्री, नोएडा से खौफ क्यों खाते हैं. यादव ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया: “क्योंकि आप लोग वहां रहते हैं.”

“अखिलेश की खूबी यह है कि वे कट्टरपंथी नहीं हैं और अपेक्षाकृत रूप से एक सीधे-साधे इंसान हैं,” उन्होंने कहा, “इसके साथ-साथ वे औसत दर्जे के नेता हैं.

उत्तर प्रदेश के लखनऊ सचिवालय के पंचम तल, जहां मुख्यमंत्री का दफ्तर स्थित है, पर नोएडा का श्राप भी निवास करता है. कम से कम बीस साल से सत्ता में रहने वाला हर व्यक्ति नोएडा जाने को अपनी सत्ता के लिए बुरा शगुन मानता आया है. कहते हैं जो कोई भी वहां गया उसको सत्ता में फिर दुबारा मौका नहीं मिला. यह नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह, और राजनाथ सिंह के साथ भी हो चुका था. अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव भी अपने एक कार्यकाल के दौरान वहां गए और उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा. सत्ता वापिस पाने पर उन्होंने वह गलती दुबारा नहीं दोहराई. अखिलेश से पहले मायावती ने भी अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में इस श्राप से मुक्ति पाने की कोशिशें कीं लेकिन वे भी असफल रहीं जब उनको 2012 के विधान सभा चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा.

नेहा दीक्षित स्वतंत्र पत्रकार हैं और दक्षिण एशिया की राजनीति एंव सामाजिक न्याय विषयों पर लिखती हैं.

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