(एक)
स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त की सुबह, दिल्ली में मूसलाधार बारिश हो रही थी. सुबह सात बजे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 17वीं सदी में बनी ऐतिहासिक धरोहर, लाल किला, की प्राचीर पर खड़े होकर बुलेट प्रुफ कांच के केबिन से राष्ट्रीय ध्वज लहराते हुए मौजूद जवानों तथा नागरिकों को सलामी दे रहे थे. परेड देखने के लिए आए स्कूली बच्चे, छतरियों के अपार समंदर के बीच हुड़दंग मचा रहे थे, मानो किसी मेले में आए हों. सेना और अर्धसैनिक बल के जवान बारिश में तरबतर, गीली सड़क पर कदम ताल कर रहे थे.
यह असामान्य रूप से एक उदास स्वतंत्रता दिवस था, इस उदासी का सबब महज मौसम का बिगड़ा हुआ मिजाज ही नहीं था बल्कि पिछले सात वर्षों में, अपनी सरकार की सफलताओं का कच्चा-चिट्ठा पेश करने के बाद, सिंह ने अपने आठवें स्वतंत्रता दिवस भाषण का अधिकांश समय देश के सामने खड़े संकटों को गिनवाने में बिताया. हाल ही में अंजाम दिया गया मुंबई का आतंकवादी हमला; लगातार जारी “नक्सलवादी चुनौतियां”; मुद्रास्फीति की दर और खाद्य पदार्थों की आसमान छूती कीमतें; भूमि अधिग्रहण द्वारा जनित तनावपूर्ण स्थितियां और इन सबसे बढ़कर, “भ्रष्टाचार की समस्या” – “एक ऐसी मुश्किल जिसके लिए किसी सरकार के पास कोई जादू की छड़ी मौजूद नहीं है.”
भाषण के पश्चात सिंह को 24, अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय ले जाया गया, जहां पार्टी का अपना ध्वजारोहण कार्यक्रम चल रहा था. वैसे तो परंपरा के अनुरूप, कांग्रेस अध्यक्ष को ध्वजारोहण समारोह का संचालन करना होता है, लेकिन चूंकि पार्टी अध्यक्षा सोनिया गांधी उस समय अमेरिका के अस्पताल में अपने इलाज के सिलसिले में भर्ती थीं, इसलिए यह उम्मीद की जा रही थी कि राहुल गांधी उनकी जगह ध्वज लहराएंगे. इसके बावजूद, उन्होंने यह कार्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेता, मोतीलाल वोहरा के जिम्मे सौंप दिया, और पास खड़े सिंह तथा अन्य वरिष्ठ नेतागण ध्वज को सलामी देते हुए, झंडा ऊंचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, गीत गाने लगे. अपनी ट्रेडमार्क नीली पगड़ी में मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम के अलावा सभी ने सरों पर गांधी टोपी पहन रखी थी – जो कभी स्वतंत्रता आंदोलन चलाने वाली इस पार्टी का प्रतीक चिन्ह हुआ करती थी, लेकिन यह अभी हाल ही में अन्ना हजारे का नवीनतम और सबसे प्रचलित प्रतीक बनकर उभरी थी.
अगले दिन से मराठी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दिल्ली में अनिश्चितकालीन अनशन करने के अपने इरादे की घोषणा कर दी थी. कांग्रेसी नेताओं पर दबाव बढ़ता जा रहा था, लाल किले पर सिंह के भाषण का एक चौथाई हिस्सा भ्रष्टाचार से निपटने और लोकपाल कानून लाए जाने की आवश्यकता को समर्पित था, जिसकी मांग हजारे कर रहे थे. ध्वजारोहण के पश्चात, राहुल गांधी ने सिंह, चिदंबरम और रक्षामंत्री ए. के. एंटनी को पार्टी दफ्तर में हजारे को लेकर विचार-विमर्श करने के लिए तलब किया. पार्टी के सबसे भरोसेमंद समस्या-निवारक, वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी परिसर छोड़कर जा चुके थे, सो राहुल ने उन्हें भी वापस बुलवा लिया.
पार्टी के तीन अंतरंगियों के अनुसार– जिनमें दो कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्लूसी) के सदस्य और एक शीर्ष कांग्रेसी कार्यकर्ता शामिल हैं– राहुल गांधी ने अपनी गैर-हाजिरी के दौरान हजारे पर किए जा रहे व्यक्तिगत प्रहारों से नाराजगी जताई. उन्होंने सुझाया कि हजारे द्वारा किए जाने वाले अनशन से, विनम्रता और कौशल से निबटा जाना चाहिए.
अपनी मां के विपरीत, जो वरिष्ठ पार्टी नेताओं को अपने दृढ़ एवं स्पष्ट आदेश देने लिए जानी जाती हैं, मंडरा रहे संकट को टालने में राहुल के निर्देश लचर साबित हुए. इन तीन अन्तरंग पार्टी सूत्रों के अनुसार, बैठक के बाद वकील से राजनेता बने चिदंबरम और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने साथ मिलकर, हजारे के अनशन को रोकने की योजना गढ़ी. अगली सुबह, चिदंबरम ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 और भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत, हजारे की गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए. इसके बाद तो जैसे आसमान टूटकर सर पर गिर पड़ा. गुस्साई भीड़ तिहाड़ जेल के बाहर जमा हो गई, जबकि हजारे ने चिदंबरम की इस गलती का भरपूर फायदा उठाते हुए तब तक रिहा होने से इंकार कर दिया, जब तक कि उनके अनशन की शर्तों को नहीं मान लिया जाता. हजारे और उनके साथियों ने सरकार को नीचा दिखा दिया था. उसके बाद, जो दिल्ली के रामलीला मैदान में घटित हुआ उसे भारतीय टेलीविजन का सबसे सफल “रियालिटी शो” कहा जा सकता है, जिसके अविराम प्रसारण से सभी न्यूज चैनलों को रिकॉर्ड-तोड़ रेटिंग प्राप्त हुई.
सिंह की प्रधानमंत्री की कुर्सी, पिछले एक साल के घोटालों और अन्य नाकामयाबियों की वजह से चरमराती लग रही थी. उनकी सत्यनिष्ठ एवं ईमानदार व्यक्तित्व की छवि, जो उन्हें लंबे समय तक आलोचना से बचाती रही, को एक जोरदार झटका लगा था जो अब उनको और उनकी सरकार की असफलताओं को ढांपने में विफल साबित हो रहा था. अगर प्रधानमंत्री ने निजी तौर पर हजारे की गिरफ्तारी का विरोध किया भी था, तो भी इतना तो साफ दिखता था कि उन्होंने इस गिरफ्तारी को रोकने के लिए कुछ कारगर नहीं किया.
“यह मनमोहन सिंह ही थे जिनका नाम खराब हुआ क्योंकि उन्होंने सबकुछ चिदंबरम के हाथों में छोड़ दिया था,” सीडब्लूसी के एक सदस्य ने बताया. “जो लोग गलतियां करते हैं, वे फिर करते ही चले जाते हैं, खासकर, जब पेशेवर लोग मंत्री बनते हैं तो उनमें एक दंभ आ जाता है.” जब पूरे राष्ट्र की नजरें रामलीला मैदान पर टिकी थीं, कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं ने चोरी छुपे अपने खंजर निकाल लिए थे और प्रधानमंत्री को भी नहीं बक्शा था. “सबने एक-दूसरे को बुलाकर अपनी भड़ास निकाली और सभी का गुस्सा चिदंबरम, सिब्बल और मनमोहन सिंह पर फूट पड़ा,” पार्टी कार्यकर्त्ता ने बताया.
जल्द ही इन ‘पेशेवर’ मंत्रियों को पीछे धकेल दिया गया और उनकी जगह प्रणब मुखर्जी को सामने लाया गया, जो आनन-फानन में बुलाये गए संसद के विशेष सत्र में लोकपाल बिल की मांग के प्रस्ताव पर विधि निर्माताओं से करीब-करीब सर्वसम्मति प्रकट करवाने के बाद, हजारे का अनशन तुड़वाने में कामयाब रहे. सीडब्लूसी सदस्य के अनुसार, “हजारे से निपटने के लिए अंतत: प्रणब को सामने लाने के फैसले का अर्थ था कि चिदंबरम और सिब्बल को झिड़क मिली थी” और सिंह को दरकिनार कर दिया गया था. अपने ही साथियों द्वारा की गई भारी चूकों को संभाल पाने में अक्षमता के कारण, मनमोहन सिंह से राजनीतिक नेतृत्व की कमान छीन कर प्रणव को सौंप देना, अगर सरेआम झिड़कना नहीं था तो और क्या था?”
27 अगस्त को संसद के मैराथन सत्र के दौरान, लोक सभा में उस दिन दो दर्जन से ज्यादा सांसदों ने भ्रष्टाचार और लोकपाल बिल पर खड़े होकर अपने विचार रखे, जो मुखर्जी की इस चेतावनी से शुरू हुआ था कि “दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज संकट के कगार पर खड़ा है”. इसके अलावा भी, 102 अन्य सांसदों ने लिखित बयान दिए. नाटकीयता से भरे इस दिन मनमोहन सिंह के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला और वे पूरे समय विपक्ष द्वारा की जा रही आलोचनाओं के बाणों को बदकार सा मुंह बनाकर एक गूंगे गवाह की तरह गुमसुम बैठे रहे.
लोक सभा में, विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की तरफ से शायद सबसे तीखा प्रहार किया गया. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सांसद ने, हिंदी में अपना जोशीला भाषण देते हुए प्रधानमंत्री की आलोचना करने के अलावा, प्रधानमंत्री की अपने ही साथियों के बीच अप्रभावशाली होने की खिल्ली उड़ाई. उन्होंने कहा, “वैसे तो हमारे प्रधानमंत्री बोलते नहीं हैं, और बोलते हैं, तो कोई उनकी सुनता नहीं है.”
(दो)
आज भारतीय राजनीति में इस बात पर लगभग सर्वसहमति सी बन गई लगती है कि मनमोहन सिंह का सितारा छिटककर कहीं दूर जा गिरा है. सिंह के चेहरे पर जो दबी-दबी मुस्कान, दो साल पहले आम चुनावों में कांग्रेस की जीत और भारत-अमेरिका परमाणु संधि के बाद देखी जा सकती थी, वह अब स्मृति में धुंधलाने लगी है. सिंह और उनकी सरकार के लिए अन्ना हजारे को लेकर मिली विफलता, विफलताओं की एक लंबी कड़ी में महज एकदम ताजा किस्सा भर थी, जिन्होंने उनकी बेदाग छवि को पहले-पहल धीमे-धीमे, फिर एकसाथ धूल में मिलाना शुरू किया.
नित नए घोटालों, विभिन्न मामलों में चल रही जांचों और पूर्व मंत्रियों एवं सांसदों की गिरफ्तारियों की मसालेदार खबरों का भोज करने में सभी अखबार और टीवी चैनल व्यस्त हैं, जबकि एक आम नागरिक आसमान छूती खाद्य पदार्थों की कीमतों तथा मुद्रास्फीति की बढ़ती दर की भारी मार के बोझ से दबा जा रहा है. इसने कांग्रेस के कट्टर समर्थक वोटरों को भी उससे दूर धकेल दिया और 1991 में बतौर वित्तमंत्री भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के निर्माता के रूप में देखे जाने वाले, सिंह की जादूगरी का तिलिस्म भी तोड़ डाला.
मनमोहन सिंह ने 1996 के एक इंटरव्यू में स्वयं कहा था कि “संकट के समय में ही मस्तिष्क एकाग्रचित हो पाता है.” लेकिन खुद को एक के बाद एक आने वाले संकटों से घिरा पाकर, उनकी सरकार बिखरी सी प्रतीत रही है. वह शख्स जिसने कभी भारत को उसके सबसे बड़े आर्थिक संकट से उबारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और देश की अर्थव्यवस्था को विस्फोटक आर्थिक वृद्धि की राह पर डाला; जिसकी छवि हमेशा एक मुस्तैद, बामकसद प्रबंधक की रही, जो अनवरत समस्याओं को सुलझाने में इस कदर व्यस्त रहता कि उसके पास फालतू के राजनीतिक खेल खेलने, या फिजूल में कैमरे के सामने खड़े रहने का समय नहीं होता था, आज वही शख्स एक बिना किसी समाधान का “टेक्नोक्रेट” नजर आता है. “एक अभिभूत, थका हारा, पीला पड़ गया चेहरा और भावात्मक रूप से व्यय हो चुका इंसान.”
“यह पतन इतना नाटकीय रहा,” साठ के दशक से सिंह को जानने वाले एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा. “बिखराव साफ नजर आ रहा है, लगभग दिशाहीन. वे बहुत लाचार लगने लगे हैं. बेशक लोग कहेंगे कि वे एक ईमानदार व्यक्ति हैं और कोई भी उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा सकता. लेकिन जब आप एक ऐसे दल का नेतृत्व कर रहे हैं, जो भ्रष्टाचार में गले तक डूबा है, तो जवाबदेही भी आपकी ही बनती है. आप उसका बचाव कैसे कर सकते हैं? कर ही नहीं सकते.”
“महज कार्टूनों पर नजर डालिए,” पूर्व मंत्री ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “हर रोज उनका आकार कम होता जा रहा. उन्हें बहुत बुरा लगता होगा.”
बिजनेस विषयों पर लिखने वाले पत्रकार और 2004 से 2008 तक, सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने कहा, “वे अपने जीवन के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं, राजनीति में प्यार और नफरत किया जाना तो चलता है, लेकिन कम से कम आपका मजाक नहीं उड़ना चाहिए.”
उनकी अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ सदस्य खुलेआम ये कयास लगाते फिर रहे हैं कि उन्हें अगले आम चुनावों से पहले हटा दिया जायेगा. हालांकि ,इसकी आशंका कम ही नजर आती है लेकिन इतने लोगों द्वारा इन अटकलों का लगना ही अपने आप में गंभीर मसला है. यह साफ देखा जा सकता है कि सिंह, जो अब 79 वर्ष के हैं, अपने लंबे और असाधारण सार्वजानिक जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं. 1991 में, 58 साल की उम्र में वित्तमंत्री बनने से पहले वे आर्थिक नीतियों के क्षेत्र में हर एक शीर्ष पद पर काम कर चुके थे: इससे पहले उन्होंने मुख्य आर्थिक सलाहकार, वित्त सचिव, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के पद पर काम किया है. पहले बतौर वित्तमंत्री और फिर प्रधानमंत्री, सिंह ने चुपचाप लेकिन निर्णायक तौर पर दशकों से कांग्रेस पार्टी और देश को परिभाषित करने वाले दो मूल सिद्धांतों को तहस-नहस किया. ये सिद्धांत थे- योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था और गुटनिरपेक्षता पर आधारित विदेश नीति. मनमोहन सिंह ने एक बार अपनी विरासत को लेकर किए गए एक सवाल के जवाब में कहा था, “मुझे आशा है कि मैंने भारत के लंबे इतिहास के फुटनोट में अपना नाम दर्ज करवा लिया है.” संभवत: एक दिन भारत की नाटकीय ढंग से कायापलट करने वालों में उनकी गिनती हो. इंदिरा और राजीव गांधी से भी ज्यादा.
हालांकि, भविष्य के इतिहासकार उनके बारे में क्या फैसला करेंगे इससे पहले से ही परेशानियों में घिरे प्रधानमंत्री को शायद ही कोई राहत मिले. उनको सूली पर चढ़ाने का जो सिलसिला चल पड़ा है उससे बच पाना करीब-करीब नामुमकिन सा लगता है. वर्तमान प्रशासन को “शब्दों के परे निकम्मा और नाकारा” घोषित करने वाले प्रबुद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने मुझे बताया कि अब वे सिंह को एक ऐसे शख्स के रूप में देखते हैं, “जो दिन-ब-दिन और त्रासद होता जा रहा है.”
“वे बुद्धिमान, ईमानदार हैं और उनके पास सरकार में काम करने का चार दशकों से ज्यादा का अनुभव है” गुहा ने कहा. “लेकिन दब्बूपन, लापरवाही और बौद्धिक बेईमानी उन्हें हमारे इतिहास का एक दुखद किरदार बनाकर पेश करेगी.”
मनमोहन सिंह के बारे में विचार करते हुए जवाबों से ज्यादा, सवाल जहन में आते हैं. वे बहुत ही निजी किस्म के इंसान हैं, जिनके बारे में बात करते हुए उनके दोस्त और साथी उन्हें ‘शर्मीला’, ‘कम बोलने वाला’, ‘शालीन’ और ‘विनम्र’ बताते हैं. सिंह खुद को मीडिया और जनता से दूर रखना पसंद करते हैं. वे अपने निजी एहसासों और जज्बातों की रक्षा, सरकारी रहस्यों से भी ज्यादा करते प्रतीत होते हैं. उनकी यह एक ऐसी विशेषता है जो उस औरत से भी मिलती-जुलती है जिन्होंने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए चुना और जिसने देश के सबसे महत्वपूर्ण रिश्ते को अभेध्य अपारदर्शिता प्रदान की. “वे असल में एकाकी पसंद शख्स हैं,” पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा. “मुझे नहीं लगता उनके बहुत सारे मित्र हैं. वे बहुत शर्मीले इंसान हैं. उन्हें इस तरह का प्रतिकूल प्रचार कतई पसंद नहीं आ रहा होगा. वे सोचते होंगे, ‘मैंने यह खुद को किस पचड़े में डाल दिया.’”
लेकिन 1991 के मिथकीय नायक, 2004 के अकस्माती प्रधानमंत्री और 2011 के अपमानित किए जा रहे नेता के बीच में कहीं “असली मनमोहन सिंह” छुपे हैं. हालांकि, वे खुद किसी को उनके जीवन और काम के बारे में जानने वालों के लिए मददगार नहीं बनते. प्रधानमंत्री कार्यालय ने उनसे साक्षात्कार के लिए आने वाली ढेरों अर्जियों को कूड़ेदान में फेंक दिया. एक दो बार को छोड़कर पिछले सात सालों में उन्होंने मीडिया द्वारा किए गए लगभग सभी सवालों को नजर अंदाज ही किया है.
मनमोहन सिंह की यह कहानी मैंने चार महीनों के शोध के बाद पिरोई है. इसको लिखने के दौरान मैंने पिछली आधी सदी के अंतराल में उनके निजी और सार्वजानिक जीवन से अंतरंग रूप से जुड़े, 40 से अधिक लोगों के साक्षात्कार किए हैं.
सिंह का अल्पभाषी होना या उनको “मौनी बाबा” की संज्ञा दिया जाना कोई मिथक नहीं है. उनके साथियों, दोस्तों और रिश्तेदारों से बातचीत के संग्रहित विवरणों से कभी-कभी एक बहुत ही पेचीदा और परस्पर विरोधी तस्वीरें भी उभर कर सामने आ सकती हैं: संकोची लेकिन आत्मविश्वासी; विनम्र लेकिन महत्वकांक्षी; शंकालु लेकिन इरादों का पक्का; और अपनी धारणाओं के प्रति अड़ियल लेकिन उन पर अमल करने को लेकर अत्यंत चयनशील. बतौर राजनेता उनकी कमजोरी और दब्बूपन के साथ-साथ सोनिया गांधी के प्रति उनकी चापलूसी को अक्सर बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया है.
अब इस प्रश्न कि आखिर इतने आदर्श और अनुकरणीय करियर में ऐसा मोड़ क्यों आया का निश्चित उत्तर तो सिर्फ मनमोहन सिंह ही दे सकते हैं. अपनी आप बीती बयान करने के प्रति उनकी उदासीनता को देखते हुए यही लगता है कि पाठकों तक उनके संस्मरणों के पहुंचने की फिलहाल तो कोई उम्मीद नजर नहीं आती.
2006 में, चार्ली रोज के साथ साक्षात्कार के दौरान अमरीकी टॉक शो में बोलते हुए मनमोहन सिंह ने खुद को आडंबरपूर्ण विनम्रता के साथ “एक बड़ी कुर्सी पर बैठने वाला मामूली इंसान” बताया. सिंह के आलोचक कहेंगे कि उन्होंने कई मर्तबा स्वयं की यह छवि पेश करने की कोशिश की है, जबकि उनके समर्थक इसे उनकी प्रशंसनीय विनम्रता का सूचक मानेंगे. हालांकि, वर्तमान संदर्भों में आलोचकों का नजरिया, प्रशंसकों पर भारी पड़ता नजर आ रहा है.
(तीन)
मनमोहन सिंह जैसे विनम्र और अपने में रहने वाले इंसान के लिए, जिसने उच्च नौकरशाही की सापेक्षिक गुमनामी से निकलकर बतौर समाजवाद के नारे के विध्वंसक के रूप में विदेशी पत्रकारों की प्रशंसा बटोरते हुए एक उथल-पुथल और नाटकीयता से भरे क्षण में किसी देववाणी के समान उद्घोषणा की कि “भारत को नींद से जागने की जरूरत है.”
जब जून 1991 में, पी.वी. नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री का पद संभाला तब दुनिया भारी बदलावों के दौर से गुजर रही थी. पूर्वी यूरोप में साम्यवाद का विघटन हो और जर्मनी का एकीकरण हो चुका था, सोवियत संघ अपने विघटन के कुछ ही महीनों के अंदर इराक के कुवैत पर हमले को विफल करने के लिए अमेरिका के साथ युद्ध लड़ रहा था. भारत में स्थितियां और भी ज्यादा विस्फोटक बनी हुई थीं. नवंबर 1990 और मार्च 1991 के छोटे से अंतराल में दो सरकारें गिर चुकीं थीं और कांग्रेस पार्टी से प्रधानमंत्री पद के दावेदार राजीव गांधी की मई 1991 में चुनाव अभियान के दौरान हत्या हो चुकी थी, जिसने 25 साल में पहली बार कांग्रेस को गांधी-रहित नेता वाली पार्टी बना डाला था.
राजीव गांधी के विदेश मंत्री रह चुके और दर्जन भर भाषाओं में निपुण, आंध्र प्रदेश के नरसिम्हाराव को विरासत में अर्थव्यवस्था, तबाही की नोंक पर रखी मिली थी. 1985 और 1991 के बीच भारत का विदेशी कर्ज लगभग दोगुना हो चुका था. बाहरी झटकों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में आसमान छूती तेल की कीमतों और खाड़ी युद्ध के चलते, भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार घटकर इतना रह गया था कि उससे बस दो हफ्तों का आयात किया जा सकता था. पैसा उगहाने के लिए सरकार इस कदर व्यग्र थी कि उसने तस्करों से जब्त किए गए 20 टन सोने को यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड के पास 20 करोड़ डॉलर की एवज में गिरवी रखने के लिए चुपचाप भिजवा दिया था. जब यह रकम भी कम पड़ गई तो रिजर्व बैंक (आरबीआई)का 47 टन सोना, इंग्लैंड और जापान भेजा गया ताकि 40.5 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त कर्ज और लिया जा सके. एक ऐसे देश में जहां सोना गिरवी रखा जाना, हताशा का अंतिम पड़ाव माना जाता है, सरकार के इस कदम को खतरे की घंटी माना जा सकता था.
प्रधानमंत्री चुने जाने से कुछ दिन पहले, जब राव कांग्रेस पार्लियामेंट्री पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए चुने गए तब कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा ने उनसे मुलाकात की. “मैंने उनको फोन करके कहा कि मुझे उन्हें कुछ बहुत जरूरी चीज दिखानी है,” चंद्रा ने मुझे बताया. “मैंने आर्थिक संकट पर सात या आठ पेज का एक मेमो तैयार किया था. जब मैंने उन्हें वह सौंपा तो उन्होने पूछा. ‘क्या आप चाहते हैं कि मैं इसे अभी पढ़ूं? मैं कैबिनेट के गठन में व्यस्त हूं.’ मैंने उनसे कहा वह काम कुछ मिनटों बाद भी हो सकता है और उन्हें मेमो को अभी पढ़ना चाहिए. जब उन्होंने उसे पढ़ने के बाद पूछा, ‘क्या हालात इतने खराब हैं?’ मैंने कहा, ‘असल में इससे कहीं ज्यादा.’” वित्त सचिव एस.पी. शुक्ला और मुख्य आर्थिक सलाहकार दीपक नैय्यर भी चंद्रा के साथ वहां मौजूद थे. चंद्रा ने राव से कहा कि वे चाहें तो इस तरह से कर्ज लेकर यथास्थिति बनाए रख सकते हैं, जिसे वैसे भी ज्यादा समय तक जारी नहीं रखा जा सकता, या यह घोषणा करें कि सरकार अर्थव्यवस्था का उदारीकरण करने जा रही है. चंद्रा ने राव से कहा, “अगर यह हमारी नई नीति होने जा रही है, तो उस का इस समय कम विरोध होगा बनिस्पत ऐसी स्थिति में जब आईएमएफ या वर्ल्ड बैंक के कहने पर हमें यह करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.”
आर्थिक विनाश का सामना कर रहे राव को पता था कि तीन कारणों से उन्हें खद्दरधारी वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं से अलग हट कर अपना वित्तमंत्री चुनना पड़ेगा. पहला, उन्हें एक ऐसा निपुण अर्थशास्त्री चाहिए था, जो अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थानों के साथ बातचीत करने में सक्षम हो. दूसरा, उग्र सुधारवादी नीतिगत बदलावों का व्यापक विरोध होने की सूरत में जिसे आसानी से कैबिनेट से बाहर निकाला जा सके और तीसरा, अगर नया वित्तमंत्री सफल भी रहता है तो भी वह पार्टी में राव के रुतबे के लिए खतरा पैदा न कर सके. भारत को भारी कर्ज की दरकार के चलते, कुछ हद तक आर्थिक उदारवाद का खाका अपनी शक्लो-सूरत इख्तियार करने लगा था. जो जानना बाकि रह गया था वह यह कि इसका क्रियान्वन कैसे होगा.
इंदिरा गांधी के प्रभावशाली मुख्य सचिव रहे और राव के करीबी मित्र पी.सी. अलेक्जेंडर ने इस खोज में मदद की. “अलेक्जेंडर, राव के साथ बैठ कर फोन खटकाते, नामों की सूची बनाते, समुच्चय बिठाते, काटते, फिर से लिखते,” पूर्व केंद्रीय मंत्री ने याद करते हुए बताया. अलेक्जेंडर की पहली पसंद आरबीआई के पूर्व गवर्नर आई.जी. पटेल ने जब प्रस्ताव ठुकरा दिया तो उन्होंने आरबीआई में पटेल के उत्तराधिकारी मनमोहन सिंह को फोन लगाया. मनमोहन सिंह की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और उन्होंने झट से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, पूर्व केंद्रीय मंत्री ने बताया. लेकिन इसके बाद दो दिन तक अलेक्जेंडर की तरफ से चुप्पी छाई रही.
पूर्व कैबिनेट मंत्री ने बताया, शनिवार के दिन 22 जून की सुबह, जब सिंह यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन के अपने दफ्तर में बैठे हुए थे उन्हें एक फोन आता है. तीन महीने पहले ही वे इसके चेयरमैन नियुक्त हुए थे. फोन राव का था, जो उस दोपहर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाले थे. राव ने मनमोहन से पूछा, ‘आप वहां क्या कर रहे हैं? घर जाइए और कपडे बदल कर राष्ट्रपति भवन चले आइये.’
शनिवार की उस दोपहर राव के साथ शपथ लेने वाले चंद कैबिनेट मंत्रियों में सिंह भी शामिल थे. वे तुरंत ही अपने काम पर लग गए. “मनमोहन ने शनिवार और इतवार को घर से ही काम किया,” मणिशंकर अय्यर ने बताया, जो बाद में चलकर सिंह की पहली कैबिनेट में मंत्री बने. “वे अन्य अर्थशास्त्रियों से सलाह-मशविरा करके पैसा जुटाने की योजना बना रहे थे.”
सोमवार को दफ्तर में अपने पहले दिन, सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस बुलवाकर संभावित सुधारों की गुंजाइशों की घोषणा की. उन्होंने वादा किया कि आर्थिक विकास में बाधक “बेकार के नियंत्रणों” को हटा दिया जायेगा और कहा कि “विश्व बदल चुका है, इसलिए देश को भी बदलना होगा.”
अगले दिन ही, सिंह ने राव के साथ अपनी पहली आधिकारिक बैठक की. यह अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ था कि राव सुधारों को लेकर किस हद तक प्रतिबद्ध हैं. वित्त मंत्रालय में तत्कालीन वरिष्ठ सचिव के अनुसार, “मनोमाहन सिंह को कुछ खबर नहीं थी कि वे कहां हैं, वे अभी तक काफी घबराए हुए थे.” सिंह ने प्रधानमंत्री को बताया कि देश को फौरन कम से कम 5 अरब डॉलर के कर्ज की आवश्यकता है. उन्होंने सुझाया वैसे तो इस साल का काम 2 अरब डॉलर से भी चल जायेगा, लेकिन मौजूदा समस्याओं को ध्यान में रखते हुए आईएमएफ से अगले एक साल के लिए भी पहले से कर्ज लेकर रखने में ही समझदारी है. “राव के दिमाग में कोई दुविधा नहीं थी,” वरिष्ठ सचिव ने याद किया. “वे मनमोहन सिंह से अधिक आश्वस्त थे.” राव ने सिंह के प्रस्ताव को तुरंत ही अपनी मंजूरी दे दी. नए वित्तमंत्री ने वापस अपने दफ्तर जाकर आईएमएफ के मैनेजिंग डायरेक्टर, मिशेल कैमडेसस को भारत की जरूरतें और “भारत के सामाजिक उद्देश्यों” को ध्यान में रखते हुए, जरूरी ढांचागत सुधारों को लाने का वादा किया.
आने वाले महीने निर्णायक साबित होने वाले थे, सिंह को एक ऐसा बजट तैयार करना था जो आईएमएफ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय कर्जदाताओं की अपेक्षाओं पर भी खरा उतरे ताकि उन्हें यकीन हो सके कि भारत उदारीकरण की अपनी प्रतिबद्धता को लेकर गंभीर है. “बजट के उस महीने में राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी लगभग हर रोज बैठकें किया करती थी,” वरिष्ठ सचिव ने बताया. “मनमोहन सिंह इतने अस्थिर और घबराए हुए रहते थे कि अधिकांश समय राव को ही बोलना और दूसरों को समझाना पड़ता था.”
अपने पहले या दूसरे बजट के दो-एक साल के भीतर ही “मनमोहनोमिक्स” शब्दावली के चलन में आने से पहले ही, 1991 के संकट के दौरान सिंह की भूमिका इतिहास में दर्ज हो चुकी थी. प्रधानमंत्री ने शालीनता से लेकिन जोर देकर कहा कि सुधारों का “कोई एक व्यक्ति श्रेय नहीं ले सकता.” वक्त ने हालांकि राव के महत्वपूर्ण योगदान को धीरे-धीरे भुला दिया है. उन्हें आज किसी और चीज के लिए नहीं बल्कि सिर्फ सिंह को अपना वित्तमंत्री चुनने के लिए यदाकदा याद कर लिया जाता है. “मनमोहन सिंह असल में पुरानी से नई व्यवस्था में परिवर्तित नए चेले भर थे,” वरिष्ठ सचिव ने बताया. “सो हर परिवर्तित चेले की तरह वे भी ढुलमुल थे, भले उन्हें देख कर लगता हो कि सब कुछ ठीक हो जाएगा. दूसरी तरफ, राव, जो कैबिनेट की मीटिंगों में चाय या कॉफी के बीच तक फैसला नहीं ले पाते थे, बाजार को बंधनों से आजाद करने को लेकर आश्चर्यजनक रूप से आश्वस्त दिखते थे, उन्होंने ही मनमोहन को उन सब कदमों को उठाने के लिए आत्मविश्वास दिया.”
“उन्हें डर था कि पार्टी उन पर धावा बोल देगी,” वित्त मंत्रालय में सिंह के साथ काम कर चुके एक अन्य वरिष्ठ नौकरशाह ने बताया. “क्योंकि उन्होने ही वर्तमान में चल रही पंच-वर्षीय योजना को बनाया था और अब वे ही उन नीतियों को लागू कर रहे थे जो उसके बरखिलाफ जाती थीं. प्रधानमंत्री और तमाम सचिवों ने उन्हें भरोसा भी दिलाया कि सब ठीक है, लेकिन इसको गले से उतरने में समय लगा.”
कुछ हफ्तों बाद 24 जुलाई को दो चरणों में किए गए रुपए के अवमूल्यन के बाद, सिंह लोक सभा में अपना पहला बजट पेश करने के लिए खड़े हुए. इसमें ढांचागत सुधारों एवं राजस्व संबंधी समाधानों की एक पूरी फेरहिस्त रखी गई, औद्योगिक लाइसेंस देने के नियमों में ढील दी गई, निर्यात सब्सिडी को हटा लिया गया, सार्वजनिक निकायों को ट्रान्सफर किए जाने वाले फण्ड तथा खाद एवं कल्याणकारी योजनाओं के लिए दिए जाने वाले पैसों में भारी कटौतियां कर दी गईं. उनके दो घंटे के भाषण के बाद, नौसिखिये नेता तो जैसे उल्लास में पागल हुए जा रहे थे. वे उनकी कही उन पंक्तियों को बार-बार दोहराने लगे, जो सिंह के बारे में 1991 के ब्रेकथ्रू के बाद लिखे जाने वाले लेखों में न जाने कितनी बार दोहराई गई होंगी.
“मैं इस लंबे और कष्टकारी सफर, जिस पर हमने कदम रखा है, उसमें आगे आने वाली दुश्वारियों को कम करके नहीं आंक रहा हूं. लेकिन जैसा कि विक्टर ह्यूगो ने एक बार कहा था, ‘पृथ्वी पर कोई भी ताकत उस विचार को आने से नहीं रोक सकती, जिसका समय आ चुका हो.’ मैं इस सदन को आगाह करना चाहता हूं कि एक ऐसा ही विचार यह भी है कि भारत का विश्व में एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनकर उभरने का समय आ चुका है और पूरा विश्व इसको कान खोलकर साफ-साफ सुन ले. भारत अब जाग चुका है. हम रहेंगे और कामयाब होंगे.”
सिंह द्वारा पेश बजट आने वाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था को बंधनों से मुक्त करने वाला सिंबल साबित होने वाला था, लेकिन कांग्रेस पार्टी के अंदर इसको लेकर हड़कंप मच गया. बजट भाषण के बाद, आर्थिक नीतियों पर चर्चा करने के लिए बुलाई गई बैठक में बहुत से सांसदों ने अपना रोष व्यक्त किया. उन्हें शायद इसका बहुत कम ही एहसास हो कि वृहत अर्थशास्त्र में इन बदलावों से उनके राजनीतिक जीवन पर क्या असर पड़ेगा, लेकिन वे इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि खाद सब्सिडी हटाने और सरकार के अन्य कदमों से चुनावों के वक्त बहुत बुरा असर पड़ने वाला था. “कांग्रेस के निचले तबकों में इसको लेकर काफी अफरा-तफरी मची हुई थी,” कांग्रेस वर्किंग कमिटी ओर पूर्व कैबिनेट मंत्री ने बताया. “कम से कम 63 सांसदों ने मनमोहन सिंह की जमकर आलोचना की. उस बैठक में राव को सिंह के बचाव में उतरना पड़ा.”
(चार)
अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत और अपने बजट भाषण के करीब सत्रह साल बाद, 22 जुलाई 2008 के दिन वे एक बार फिर लोक सभा में जीवन के खात्मे को टालने के लिए सिंह खुद और अपनी सरकार के बचाव में बोलने के लिए खड़े हुए. उस समय भारत-अमेरिका परमाणु संधि के चलते कुछ ही क्षणों बाद सदन के पटल पर उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा जाने वाला था.
जो भाषण सिंह ने तैयार किया था, जिसे वे विपक्ष के होहल्ले के चलते पूरा नहीं कर पाए, वह उनके ही जीवन के एक सांकेतिक प्रसंग से समाप्त हुआ.
“भारत का प्रधानमंत्री होने के हर दिन मैंने यह याद रखने की कोशिश की है कि मैंने अपने जीवन के पहले दस वर्ष एक ऐसे गांव में काटे हैं, जहां न पीने के पानी की व्यवस्था, न बिजली, न अस्पातल, न सड़कें थीं. वहां ऐसा कुछ नहीं था जिसे हम आज के आधुनिक जीवन से जोड़ कर देखते हैं. मुझे स्कूल जाने के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता था और केरोसीन लैंप की मद्धम रौशनी में पढ़ना होता था... जितने भी दिन मैंने इस ऊंची कुर्सी पर गुजारे हैं मेरी यह कोशिश रही है कि मैं दूरदराज के गांव में रहने वाले उस नौजावान का सपना पूरा कर सकूं.”
पाकिस्तान के एक छोटे से गांव से 7, रेस कोर्स रोड तक के सिंह के सफर के बारे में तो मोटा-मोटी सभी को पता है, लेकिन प्रधानमंत्री ने अपनी इस साधारण शुरुआत का कभी राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश नहीं की. जब मैंने उनके पूर्व मीडिया सलाहकार, संजय बारू से बराक ओबामा द्वारा अपनी जीवनी को बड़े शातिर तरीके से भुनाने का हवाला देकर इस मार्फत बात की तो जैसे उनकी सारी खीज निकलकर बाहर आ गई, “वे हमेशा इससे दूर भागते रहे,” बारू ने बताया, “उन्होंने मुझे हमेशा लोगों तक अपनी कहानी पहुंचाने से रोका. वे मुझसे कहते थे: ‘नहीं, नहीं, मुझे अपनी कोई छवि नहीं बनानी है. मैं यहां सिर्फ काम करने आया हूं.’ उन्हें एक राजनीतिक शख्सियत बनने से डर लगता है.”
“वास्तव में उनकी कहानी ओबामा से कहीं ज्यादा प्रेरणादायक है. जिस तरह की साधारण पृष्ठभूमि से वे आये हैं, जिस तरह के संघर्ष उन्होंने किए और जिन ऊंचाइयों को उन्होंने छुआ,” बारू ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “त्रासदी यह है कि उन्होंने किसी को इसके बारे में बताने की इजाजत नहीं दी. और अब मुझे लगता है कि बहुत देर हो चुकी है.”
सिंह का जन्म 1932 में, इस्लामाबाद से दक्षिण दिशा में करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर बसे, खत्री जाति से संबध रखने वाले पंजाबी व्यापारियों के परिवार में गाह नामक गांव में हुआ था. उनके पिता गुरमुख सिंह कोहली मेवों के एक छोटे व्यापारी हुआ करते थे, जो थोक में अफगानिस्तान से मेवे खरीदते और उन्हें पंजाब के छोटे शहरों और कस्बों में बेचा करते थे. सिंह की मां अमृत कौर की मौत तभी हो गई थी, जब वे पांच महीने के थे. उनका लालन-पालन उनकी दादी जमना देवी ने किया, जिन्हें वे दादी कहकर बुलाते थे. पिता अक्सर काम के सिलसिले में घर से दूर रहते लेकिन उनके धंधे के उसूलों का, जवान हो रहे सिंह पर बहुत असर पड़ा, जिसे अब तक सभी ‘मोहाना’ कहकर पुकारने लगे थे. इसी साल की शुरुआत में, मेरी मुलाकात अमृतसर में चायपत्ती का व्यापार करने वाले और बंटवारे के बाद भारत के भविष्य के प्रधानमंत्री के परिवार के पड़ोसी, प्रेम कुमार से हुई. “गुरमुख की छवि बेईमानी से कोसों दूर रहने की थी,” कुमार ने बताया. उनके अनुसार उनका मन्त्र था- ईमानदारी से कमाई हुई एक रोटी, बेईमानी से कमाई दो रोटियों से कहीं बेहतर है.”
सिंह ने दस साल की उम्र तक उर्दू माध्यम के प्राइमरी स्कूल में शिक्षा ग्रहण की. इसके बाद वे पेशावर स्थित उच्च प्राइमरी स्कूल में चले गए. इस दौरान, वे अव्वल नंबरों से उत्तीर्ण होते रहे. 1947 की गर्मियों की शुरुआत में, जब वे मैट्रिक की परीक्षा के लिए बैठे, उनका परिवार पेशावर से भाग कर अमृतसर चला आया. सिंह के पिता को बंटवारे के बाद हिंसा भड़कने की आशंका हो गई थी और इससे पहले कि खून-खराबा शुरू हो उन्होंने अपने परिवार को स्वर्णमंदिर के पीछे संकरी गलियों वाली एक मकान की ऊपरी मंजिल पर ठहरा दिया.
पुराने अमृतसर शहर की गलियां इतने सालों में बहुत ज्यादा नहीं बदली हैं. लेकिन वह इमारत, जिसमें कभी भविष्य के प्रधानमंत्री रहे थे, अब खंडहर बन चुकी है. अड़ोस-पड़ोस में ‘संत राम दा तबेला’ के नाम से मशहूर यह मकान अब काफी सालों से मकान मालिक और बैंक के बीच विवाद के चलते ताले में बंद पड़ा है, जिसे अब चूहों और कौओं ने अपना डेरा बना लिया है. इसे देखकर ऐसा लगता है जैसे इस तंग गली पर सूरज की रौशनी बिरले ही कभी पड़ती होगी. जब मैं इस मकान का मुआयना कर रहा था, मुझे यहां से बहुत तेज सड़ रहे अनाज की गंध आई, जो पास की मिठाइयों की दुकान से आती गंध में घुली हुई थी. “यहां की हवा में यह महक साठ साल पहले भी ऐसे ही उठती थी,” प्रेम कुमार ने बताया. इसे देखकर ऐसा लगता ही नहीं कि वहां कभी भावी प्रधानमंत्री “मनमोहन सीड़ियों पर बैठ कर सारा-सारा दिन पढ़ाई करते होंगे,” कुमार ने याद किया. “वे कभी-कभार ही बाहर गली में दिखते. किसी के साथ खेलते भी नहीं थे. वे ऐसे पढ़ाई करते जैसे हर दिन परीक्षा का दिन हो.”
राजनीतिक और आर्थिक उथल-पुथल के माहौल में अमृतसर आने के बाद सिंह ने अपने पिता की इस मांग का का पुरजोर विरोध किया कि वे उनके मेवे के व्यापार में उनका हाथ बटाएं. वे अपनी पढ़ाई जारी रख कर, डिग्री हासिल करना चाहते थे. उन्होंने बीच का रास्ता निकालते हुए अपने पिता से कहा कि छात्रवृत्ति लेकर वे अपनी पढ़ाई का खर्च उठा लेंगे और साथ-साथ उनके धंधे में भी उनके अकाउंटेंट के तौर पर हाथ बंटा दिया करेंगे. दादी के जोर देने पर उनके पिता ने उनकी बात मान ली और सिंह ने अमृतसर के हिन्दू कॉलेज में अर्थशास्त्र में डिग्री की खातिर अपनी पढ़ाई शुरू कर दी.
काबिलियत के आधार पर मिलने वाली छात्रवृत्ति का सहारा लेकर सिंह ने अकादमिक संसार में खूब तरक्की की. वे पहले अमृतसर से चंडीगढ़ आये, फिर वहां से कैंब्रिज और तत्पश्चात ऑक्सफोर्ड गए. कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड से अपनी पीएचडी हासिल करने के बाद वे चंडीगढ़ की पंजाब यूनिवर्सिटी में सबसे कम उम्र के प्रोफेसर भी बने. “वे बहुत ही संजीदा अध्यापक थे,” सिंह के छात्र रहे और आगे चलकर उसी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के पद पर काम करने वाले, एच.एस शेरगिल ने बताया. “वे हमेशा अपनी क्लास वक्त पर शुरू कर देते थे और परीक्षा के बाद उत्तरों की बहुत सख्ती से जांच किया करते.”
मनोहन सिंह की गुरशरण कौर से पहली मुलाकात चंडीगढ़ में हुई, जहां वे बीए की पढ़ाई कर रही थीं. गुरशरण ने कहीं कहा है कि उन दोनों की सगाई, एक-दूसरे को बिना देखे ही हो गई थी. लेकिन मनमोहन के छोटे भाई सुरजीत सिंह कोहली ने मुझे मुस्कुराते हुए बताया कि उन दोनों का प्रेमविवाह था. “उनकी बहुत प्यारी सी रोमांटिक जोड़ी थी. दोनों एक दूसरे के साथ बहुत खुश रहते थे,” पंजाब यूनिवर्सिटी में सिंह के साथी रहे आर.पी. बमबाह ने बताया. “मनमोहन के पास एक साइकिल हुआ करती थी और हर शुक्रवार दोनों ‘किरण सिनेमा’ जाया करते.” उस समय शहर में वह एकमात्र ऐसा सिनेमा हॉल था जहां अंग्रेजी फिल्में चला करती थीं. किरण सिनेमा, आज भी मौजूद है लेकिन मल्टीप्लेक्सों की होड़ में वह काफी पीछे छूट गया है. “हम उस तरह की सुविधाएं नहीं दे सकते जैसी किसी मॉल के सिनेमा हॉल में मिलती हैं,” मैनेजर ने मुझे बताया. “इसलिए हम आजकल ‘बी क्लास’ हो गए हैं, जहां सिर्फ ऑटो चालक ही फिल्में देखने आते हैं.” उन्हें इसका कुछ खास इल्म नहीं था कि जो शख्स कभी उनके सिनेमा हॉल में अपनी साइकिल पर आया करता था उसी ने भारत को मॉल और मल्टीप्लेक्सों के लिए खोला था.
विश्वविद्यालय के दिनों की सादगी, सिंह के साथ आज भी बरकरार है. “मनमोहन सिंह और गुरशरण, रत्ती भर भी नहीं बदले हैं,” बमबाह ने कहा. “गुरशरण को याद था कि मुझे राजमा पसंद है, इसलिए जब मैं हाल ही में उनसे मिलने गया तो उन्होंने खाने की टेबल पर राजमा परोस दिया. साठ साल बीत जाने के बाद भी ऐसा लगा हम वही खाना खा रहे हैं, जो कभी यूनिवर्सिटी के स्टाफ क्वार्टरस में खाया करते थे.”
उनकी दूसरी बेटी दमन सिंह ने मुझे बताया कि अपने पिता को लेकर उनकी सबसे पुरानी याद एक “काम के जुनूनी” बाप की है. “हम बच्चे यही सोचते थे कि सारे पिता ऐसे ही होते होंगे, वे बिलकुल नहीं बदले हैं.”
“हमारे सारे जन्मदिन के तोहफे, “किताबें” हुआ करतीं थीं,” दमन ने याद करते हुए बताया. “हममें से किसी का भी जन्मदिन हो, वे हमें क्नाट प्लेस में ‘न्यूबुक डिपो’ या ‘गलगोटिया’ जैसी किताबों की दुकानों पर ले जाते. हम वहां से कोई भी किताब उठा सकते थे और वे पैसे चुका देते. वही हमारा तोहफा होता. उन्होंने कभी हमसे यह नहीं कहा कि फलां किताब खरीदो या पढ़ो क्योंकि वह हमारे लिए जरूरी है.”
दमन ने बताया कि पिछले 40 सालों में उनके पिता ने सिर्फ एक बार छुट्टी ली थी जब वे परिवार के साथ तीन दिन के लिए दिल्ली से करीब पांच घंटे की दूरी पर स्थित हिल स्टेशन नैनीताल गए थे. अपने सात साल के प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान उन्होंने अब तक एक दिन भी छुट्टी नहीं ली है. संजय बारू ने कहा, सिंह को एक दिन के आराम के लिए भी मनाना बहुत दुश्कर काम था. “एक दिन हम पणजी में बिरला इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के उद्घाटन के लिए गोवा जा रहे थे. हमें सुबह की उड़ान भरनी थी और वहां पहुंचकर उद्घाटन कर शाम की फ्लाइट से दिल्ली वापस लौटना था. मैंने उनसे कहा, ‘सर, वीकेंड है. आप शनिवार की रात रुक क्यों नहीं जाते? अगले दिन सुबह समंदर के किनारे बिताने के बाद, शाम की फ्लाइट पकड़ कर वापस लौट जाइएगा.’ पता हैं उन्होंने मुझसे क्या कहा? ‘लेकिन मैं वहां करूंगा क्या?’ सिर्फ मनमोहन सिंह ही यह पूछ सकते थे कि वे गोवा में क्या करेंगे.”
(पांच)
अपने जीवन के हर बड़े अध्याय में, मनमोहन सिंह पहले-पहल अकादमिक दुनिया की अमूर्तता से, राजनीति की जोड़तोड़ और समझौतों वाली दुनिया तक मद्धम लेकिन दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ते रहे. अकादमिक दुनिया से बाहर आकर पहले वे नौकरशाही में गए जहां उन्होंने करीब 20 सालों तक छ: अलग-अलग सरकारों के साथ काम किया. अपनी प्रतिभा, संकल्प और राजनीतिक सूझबूझ के चलते,वे नीचे के पायदान से ऊपर की तरफ चढ़ते चले गए. बतौर अर्थशास्त्री सिंह के नाम के चर्चों ने वित्त मंत्रालय का ध्यान पचास के दशक में ही अपनी ओर खींच लिया था. तत्कालीन वित्तमंत्री टी.टी.कृष्णामचारी को उनके एक कैंब्रिज प्रोफेसर ने सिंह के नाम की सिफारिश की. उस वक्त पंजाब यूनिवर्सिटी के साथ उनके अनुबंध ने उन्हें सरकारी पद स्वीकार करने से रोक लिया था.
1965 में सिंह ने यूनिवर्सिटी से इस्तीफा दे दिया और संयुक्त राष्ट्र संघ की व्यापारिक इकाई, अंकटाड में काम करने न्यूयॉर्क चले गए. वहां से लौटने के बाद उन्होंने ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ ज्वाइन कर लिया, जहां वे इंदिरा गांधी के सचिव रहे पी.एन. हक्सर और पी.एन. धर जैसे ताकतवर नौकरशाहों के संपर्क में आये. 1971 में, उन्हें सिविल सर्विस में सीधी एंट्री मिल गई और वे विदेश व्यापार मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार बनकर आ गए. एक साल के भीतर ही, उन्हें वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार बना दिया गया, जहां उन्होंने लगातार बढ़ती मुद्रास्फिति पर काबू पाकर अपनी पहली सार्वजनिक प्रशंसा बटोरी. उनका पायदान पर ऊपर की तरफ चढ़ना जारी रहा. वे पहले वित्त सचिव नियुक्त किए गए, फिर योजना आयोग के मेम्बर सेक्रेटरी. फिर आरबीआई के गवर्नर और योजना आयोग के डिप्टी चेयरमैन बने.
प्रधानमंत्री के आलोचकों ने नौकरशाही में उनके कार्यकाल के दौरान उन पर खूब आक्रमण किए. इन आक्रमणों में साधारण आरोपों जैसे उन्होंने प्रतिकूल असर वाली आर्थिक नीतियों को लागू करवाने में मदद की, से लेकर अधिक घातक लेकिन वास्तविकता से दूर आरोप जैसे वे एक पक्के समाजवादी थे, जिनके उत्थान के पीछे पक्षपात ज्यादा था, काबलियत कम थी. लेकिन ऐसे वक्त में जब भारत सरकार के लिए काम करने की इच्छा रखने वाले ऑक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री वाले लाइन लगा कर खड़े हों बहुत कम मिलते थे, उस समय मनमोहन सिंह बेशक सबसे काबिल टेक्नोक्रेट रहे होंगे. उन्होंने भी तुरंत ही अपने से बड़े ओहदों वाले अफसरों को चुनौती दिए बगैर, अपनी छवि नतीजे लाकर देने वाले शख्स की बना ली. बदलती राजनीतिक हवा की दिशा समझने की उनकी क्षमता को 1991 के टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय ने बखूबी पकड़ा: “मनमोहन सिंह, श्रीमती गांधी के “गरीबी हटाओ” से भी खुश थे. फिर इमरजेंसी से भी खुश रहे. उसके बाद जनता पार्टी के आने से भी खुश रहे और फिर इंदिरा गांधी की वापसी से भी खुश. वे कैबिनेट रैंक के साथ चंद्रशेखर के सलाहकार भी रहे. वे सभी की पहुंच में रहते हैं. और यह किसी चमत्कार से कम नहीं.”
सिंह ने तमाम शक्तिशाली उस्तादों की छाया में उथल-पुथल भरे साल गुजारे. इंदिरा गांधी के निजी सचिव पी.एन. हक्सर, जिन्होंने उनकी व्यापार विभाग से वित्त मंत्रालय में तबादला करवाने में मदद की. फिर हक्सर, इमरजेंसी से पहले इंदिरा गांधी की बढ़ती तानाशाही प्रवृति की वजह से उनके खिलाफ हो गए, और सिंह ने पाला बदलकर पी.एन. धर से नजदीकी बढ़ा ली, जो अब श्रीमती गांधी के प्रमुख सचिव बन चुके थे. साथ ही, संजय गांधी के खासमखास, आर.के. धवन के साथ भी. जब इंदिरा गांधी को बेदखल कर दिया गया और जनता पार्टी की सरकार बनी तो सिंह ने एच.एम. पटेल के साथ भी नजदीकी के साथ काम किया, जिनका सोचना उनके पिछले उस्ताद धवन से बिलकुल उलट था. पर सिंह को किसी के साथ काम करने में कभी कोई दिक्कत पेश नहीं आई.
पाला बदलने की उनकी क्षमता के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लेना तो बहुत आसान होगा कि सिंह की महत्वकांक्षा अब अर्थशास्त्र से हटकर राजनीति की तरफ मुखातिब हो गई थी; हालांकि वह मौका अभी करीब एक दशक दूर था. उस समय, सिंह के भविष्य की पहचान की इत्तेलाएं तो मिलने लगीं थी. वे या तो बतौर अर्थशास्त्री, राजनेताओं के बीच में रहने वाले थे; या, अर्थशास्त्रियों के बीच बतौर राजनेता.
दो दशकों तक प्रशासन की अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में रखने के हिमायती रहकर काम करने के बाद, सिंह के मुक्त बाजार के हिमायती में तब्दील हो जाने को आधार बनाना भी उतना ही मुश्किल काम है. जब इस साफ दिखते विरोधाभास से संबंधित सवाल उनसे जून 1991 में पहली बार पूछा गया तो बिना अपना बचाव किए हुए उनका जवाब था: “मैं स्वीकार करता हूं कि अर्थव्यवस्था को इस कीचड़ में पहुंचाने में मेरी भी भूमिका रही है, लेकिन मैं ही अब इसको इस कीचड़ से निकालने में भूमिका निभाना चाहता हूं.” कुछ हफ्तों बाद, अपना पहला बजट पेश करने से पहले, उन्होंने उसी सवाल का ज्यादा निश्चयात्मक जवाब दिया: “जो मैं इस वक्त कह रहा हूं, वह मैं तब से कह रहा हूं, जबसे मैं सरकार में आया. यह सही बात है कि मैं व्यवस्था की हदों में कैद रहा कि मैं व्यवस्था की सोच को पहले नहीं बदल पाया.”
यह ट्रैक रिकॉर्ड और ज्यादा पेचीदा हो जाता है. उस वक्त सिंह योजना आयोग के डिप्टी चेयरमैन हुआ करते थे. अपनी मां की हत्या के बाद, राजीव गांधी अभी-अभी भारी बहुमत से सत्ता में आये थे. उनमे उत्साह था और वे रात ही रात में भारत की कायापलट कर देने के लिए बेताब थे. 1985 के शुरू में एक बैठक में सिंह ने नए प्रधानमंत्री के सामने सातवीं पंचवर्षीय योजना का मसौदा पेश किया, जिसे सुनकर राजीव गांधी ने अपनी असहमति को छुपाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. “राजीव अपना आपा खो बैठे,” नटवर सिंह ने बताया, जो उस समय राज्यमंत्री थे. “उन्होंने कहा यह सब बकवास है.” सी.जी. सोमैय्या, जो उस समय योजना आयोग में सिंह के सचिव थे, ने अपनी आत्मकथा में लिखा, गांधी हमसे, “ऑटो वाहन, हवाई अड्डे, तेज रेलगाड़ियां, शॉपिंग मॉल, मनोरंजन के शानदार ठिकाने, आलीशान हाउसिंग कॉम्प्लेक्स, आधुनिक अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र बनवाने की योजनायें चाहते थे. हमने भौंचक्के होकर मौन धारण कर लिया.”
सोमैय्या के मुताबिक, सिंह ने योजना आयोग की बैठक बुलाई जिसके सदस्यों का मानना था कि राजीव गांधी का झुकाव शहर-केंद्रित है और गांवों में रहने वाली विशाल जनसंख्या से उनको कोई खास मतलब नहीं. राजीव के साथ अगली बैठक में, सिंह द्वारा “देश में व्याप्त नकारात्मक आर्थिक सूचकों पर विस्तृत रिपोर्ट पेश किए जाने के पश्चात प्रधानमंत्री ने कुछ “हानिकारक और अपमानजनक” टिपण्णी की. कुछ दिनों बाद पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने सिंह और उनके साथियों को “मसखरों का समूह” बताया.
छ: साल बाद, सिंह योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था से हटकर नए प्रयोग कर रहे थे. लेकिन अस्सी के दशक के मध्य तक वे “व्यवस्था के साथ ही नत्थी” हो चुके थे, जैसा कि उन्होंने बाद में खुद स्वीकार किया. राजीव द्वारा सार्वजनिक रूप से मजाक उड़ाए जाने के बाद उन्होंने नाखुश होकर अपने इस्तीफे की भी पेशकश की. लेकिन सोमैय्या ने उन्हें रुकने के लिए मना लिया. दो साल बाद वे साउथ कमीशन के सचिव बनकर जेनेवा चले गए. साउथ कमीशन गुटनिरपेक्ष आंदोलन से ही जन्मा था, जिसका उद्देश्य विकासशील देशों के लिए “उनकी विशिष्ट गरीबी, संसाधनों के अपर्याप्त विकास और विकसित देशों से उनके अनुचित व्यापारिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए एक वैकल्पिक विकास रणनीति का विकास करना था.” 1990 में प्रकाशित कमीशन की अंतिम रिपोर्ट में, व्यापार के उदारीकरण और आर्थिक सहयोग को लेकर सकारात्मक बातें कही गईं थीं. लेकिन साथ ही इसमें इस असमानता के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था और अंतर्राष्ट्रीय कर्ज देने वाली संस्थाओं की जमकर आलोचना भी की गई थी, जिनसे सिंह को जल्द ही सौदेबाजियां करनी थीं.
कांग्रेस पार्टी, जो आर्थिक उदारवाद की झंडाबरदार बनी और उसका श्रेय लेने से नहीं चूकती, आज भी पूंजीवाद से भारत की इस गुप्त भेंट को लेकर बेचैन बनी हुई है. आज भी पार्टी के अंदर के लोग, इसे नेहरु का समाजवाद से भटकाव और पार्टी के ग्रामीण वोटरों से कटाव का कारण मानते हैं. सिंह का अपनी आर्थिक नीतियों से संघर्ष 1991 से ही शुरू हो गया था, जो उन्हें अक्सर अपनी ही पार्टी के समक्ष कटघरे में ला खड़ा करता है.
1998 में, जब बीजेपी सत्ता में आई और सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभाली तो पार्टी के कद्दावर नेता मध्य प्रदेश के पहाड़ी इलाके पंचमढ़ी में इस बाबत पर विचार विमर्श के लिए एकत्रित हुए कि बैसाखियों के सहारे चलती लड़खड़ाती पार्टी को फिर से विजय की राह पर कैसे डाला जाए. सिंह, जो राज्य सभा में विपक्ष के नेता थे, आर्थिक मामलों पर गठित उप-समिति की सदारत कर रहे थे. आगे चलकर सिंह की कैबिनेट में मंत्री रहे मणिशंकर अय्यर, पार्टी के मुख्य ड्राफ्ट्समैन थे, जो पार्टी द्वारा पारित नीतिगत प्रस्तावों को आखिरी शक्ल देने के काम में लगे थे. “मेरे पास एक कागज आया, जिसमें एक शब्द “सुनियोजित” को काटकर, हाशिये पर उसकी जगह “संतुलित” लिखा हुआ था,” अय्यर ने मुझे बताया. “मैंने सोचा कि कांग्रेस के साथ “सुनियोजित विकास”, 1931 की कराची कांफ्रेंस से चला आ रहा है, इसलिए मैंने बड़ी मासूमियत से उसकी जगह “सुनियोजित और संतुलित अर्थव्यवस्था” डाल दिया.
जब अय्यर ने ड्राफ्ट वापस भेजा तो “मनमोहन सिंह भड़क गए. उन्होंने कहा, ‘मैंने सुनियोजित शब्द काट दिया था, आपने उसे दुबारा वहां क्यों डाला?’ मैंने विरोध में कहा कि सुनियोजित शब्द कराची कांफ्रेंस के समय से चलन में चला आ रहा है.” लेकिन सिंह टस से मस नहीं हुए. नटवर सिंह, जो कार्यकारिणी समिति के सदस्य भी थे, ने बीच-बचाव किया और अय्यर के कुर्ते के सिरे को चुपके से खींचते हुए कहा, “छोड़ भी दो.” अय्यर ने भी अपने से वरिष्ठ नेता की बात मान ली, “अगर आप कहते हैं तो छोड़ देता हूं और मैंने वापस जाकर शब्द को काट दिया,” ऐय्यर ने याद करते हुए बताया.
(छ:)
नब्बे के दशक के अंत में, सिंह की गिनती जब कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में होने लगी तो पार्टी ने उन्हें 1999 के लोकसभा चुनावों में दक्षिण दिल्ली संसदीय सीट से टिकट दिया. यहां अधिकतर मध्यम-वर्गीय वोटर रहते हैं जिनको अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का भरपूर लाभ मिला था. उनके मुकाबले में, बीजेपी के राज्य स्तर के नेता वी.के. मल्होत्रा खड़े थे. “डॉक्टर साहब की जीत बहुत आसान नजर आ रही थी और कांग्रेस भी इस सीट को पक्की समझे बैठी थी,” स्थानीय नेता और सिंह के कैंपेन मैनेजर हरचरण सिंह जोश ने बताया. “पिछले साल के राज्य के चुनावों में, 14 में से 10 विधान सभा सीटों पर कांग्रेस के विधायक विजयी घोषित हुए थे. इस चुनाव क्षेत्र में, मुसलामानों और सिखों की कुल जनसंख्या पचास फीसदी से भी ज्यादा थी. साउथ एक्सटेंशन मार्किट में एक खास तबके के सभी लोग विदेशी ब्रांड की चीजें खरीद रहे थे, जो भारत में डॉक्टर साहब की बदौलत आईं थीं. मल्होत्रा के जीतने के आसार शून्य के बराबर थे.
लेकिन अभियान की शुरुआत से ही दिक्कतें आनी शुरू हो गईं. सिंह पार्टी में अभी भी बाहरी व्यक्ति बने हुए थे, जिन्हें हद से हद एक प्रतिभाशाली नौकरशाह के रूप में देखा जाता था, जो वित्त मंत्रालय में अपनी सफलताओं के चलते राजनीति में घसीट लिया गया था, जिसके पास न तो चुनाव प्रचार का हुनर था और न ही जीतने की भूख. सोनिया गांधी ने खुद सिंह को टिकट दिया था. लेकिन इसके बावजूद उन्हें खुद-बा-खुद पार्टी कार्यकर्ताओं का समर्थन प्राप्त नहीं होने वाला था.
“एआईसीसी (ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी) ने हमें 20 लाख रुपए दिए, जो बाकि और प्रत्याशियों को दी जाने वाली राशि से ज्यादा ही थी,” जोश ने कहा. “लेकिन यह राशि विधायकों, नगरनिगम के काउंसलरों और पार्टी कार्यकर्ताओं को सक्रिय रखने के लिए पर्याप्त नहीं थी. वे इस कपट भरे खेल से अनजान थे. उनको लगता था कि अगर कांग्रेस पार्टी ने उन्हें टिकट दिया है तो विधायक और काउंसलर साथ मिलकर काम करेंगे.”
जोश ने बताया, “पहले दस दिन तक हमारे पास कोई फंड नहीं था और उद्योगपति हमारे पास कलकत्ता जैसे दूर-दराज के इलाकों से आ रहे थे. वे चंदा देने के लिए हमसे मिलने का समय मांगते. लेकिन सिंह किसी से मिलते तक नहीं थे.”
“एक दिन मैंने उनसे कहा, ‘डॉक्टर साहब, हम चुनाव हार रहे हैं. हमारे पास पैसा नहीं है. सबने (पार्टी में) तो कहा था कि वे पैसा देंगे,” सिंह ने जवाब दिया. लेकिन जोश ने अफसोस के साथ उन्हें बताया कि सब वायदे खोखले साबित हुए. जोश ने सिंह से कहा कि प्रचार अभियान के लिए कम से कम एक करोड़ रुपए की जरूरत होगी. “काउंसलर कहता है मुझे पैसा दो, क्या करें? कम से कम दो लाख तो मांगते हैं. ऑफिस खोलना है, आने-जाने वालों को चाय पिलानी है, यहां-वहां जाने के लिए गाड़ी चाहिए, झंडे और बैनर भी लगेंगे. इन सब चीजों के लिए पैसों की जरूरत पड़ेगी,” जोश ने कहा.
“लेकिन वे अलग किस्म के इंसान थे. उन्होंने पैसों के साथ कभी नहीं खेला. इसलिए आखिरकार एक दिन मैं- डॉक्टर, उनकी पत्नी और बेटी दमन के साथ बैठा. उन्होंने कहा, ‘मैं किसी से नहीं मिलूंगा.’ मैंने कहा, डॉक्टर साहब पैसे के बिना तो हम चुनाव हार जायेंगे.”
प्रचार अभियान के प्रमुख प्रभारी के अनुसार, जो मनमोहन सिंह पहले “चट्टान की तरह” अड़े थे, उन्होंने आखिरकार भारतीय चुनावों की नैतिक रूप से भ्रष्ट कार्यप्रणाली के आगे घुटने टेक दिए. “यह तय हुआ कि जब लोग, डॉक्टर साहब से मिलने आयेंगे और कहेंगे, ‘सर कुछ सेवा बताइए मुझे’ तो डॉक्टर साहब उनसे कहेंगे कि उन्हें उनकी शुभकामनाओं के सिवा कुछ और नहीं चाहिए. फिर पैसा दूसरे कमरे में, मैडम गुरशरण को दे दिया जायेगा.” जोश ने बताया चुनावों के बाद जो करीब सात लाख रुपया बचा रह गया था वह सिंह ने एआईसीसी को लौटा दिया.
“पूरा कॉर्पोरेट सेक्टर उनके साथ था,” सिंह के प्रतिद्वंद्वी मल्होत्रा ने मुझे बताया. “खुशवंत सिंह और जावेद अख्तर जैसी शख्सियतों से सिंह के पक्ष में अपीलें जारी करवाईं गईं, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स औरस्टार टीवी समेत पूरा मीडिया उनका समर्थन कर रहा था.” लेकिन चुनाव विशिष्ट लोगों के मतों पर नहीं जीता जाता और सिंह में न तो वोटरों तक पहुंचने की काबलियत थी और न कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जोश भरने की. “कई वरिष्ठ पार्टी सदस्य डॉक्टर साहब के खिलाफ काम कर रहे थे और वे कौंसलर, जो उन वरिष्ठ नेताओं के करीब थे, ने डॉक्टर साहब के लिए काम नहीं किया,” जोश ने कहा.
सिंह 30000 वोटों से चुनाव हार गए. उनके समर्थकों और प्रशंसकों को इससे बहुत धक्का पहुंचा और उनकी छवि एक ऐसे इंसान की बन गई जो राजनीति कर ही नहीं सकता और करेगा तो एक कमजोर राजनेता साबित होगा. जो अनिर्वाचित राज्यसभा की आरामगाह में ही बैठने के लायक है. वोटरों का सामना करना उसके बस की बात नहीं. जब 2004 के चुनावों में पार्टी के कई नेताओं ने उनसे फिर से चुनाव लड़ने की गुजारिश की और किसी सुरक्षित सीट से उनकी जीत का भी आश्वासन दिया तब सिंह ने साफ इंकार कर दिया. निन्यानवे की हार का अपमान, उनके सर में अभी भी घूम रहा था.
बेटी दमन सिंह ने याद किया कि यह पराजय उनके पिता पर बहुत गहरा आघात छोड़ गई. “उसके बाद वे बहुत अकेला महसूस करने लगे,” उन्होंने कहा. “यह पूरे परिवार के लिए एक बहुत बड़ा झटका था, किसी भारी धक्के की तरह.”
चुनाव के बाद “वे बहुत दबे-दबे और उदास रहने लगे,” पूर्व कैबिनेट मंत्री ने बताया. “उन्हें इससे बाहर निकलने में लगभग पूरा एक साल लगा. उनका ग्राफ हमेशा ऊपर की ओर जाता रहा था और इसे अचानक नीचे की ओर जाता देख वे विचलित हो गए. त्रासदी यह थी कि खुद कांग्रेसियों ने उन्हें हराया था. उनके अनुसार, ‘यह कौन आदमी, बाहर से हमारे बीच आ गया है?’”
1999 में, अपनी हार के बाद, सिंह अपनी राज्य सभा की सीट पर बने रहे और सोनिया गांधी से अपनी नजदीकियां बढ़ाते रहे. उन्होंने सोनिया के विश्वासपात्र सलाहकारों के अंदरूनी खेमे में अपनी जगह बना ली थी. एक लिहाज से, उनमे किसी राजनीतिक महत्वकांक्षा का न होना उनके लिए वरदान साबित हुआ. जब सीपीपी (कांग्रेस पार्लियामेंट्री कमिटी) के सदस्य आम चुनावों में अपनी अप्रत्याशित जीत के बाद शनिवार 15 मई 2004 को एकत्रित हुए तो मनमोहन सिंह ने ही सोनिया गांधी के पक्ष में मिले जनादेश का ऐलान किया. अगले दिन भी जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद स्वीकार करने के मौके को ठुकराने की बात बताने के लिए, पार्टी नेताओं, जिनमे प्रणब मुखर्जी, नटवर सिंह और अहमद पटेल शामिल थे, की एक अनौपचारिक बैठक बुलाई तो उसमें सिंह को भी आमंत्रित किया गया. सोमवार को जब सोनिया इस बात की इत्तेला देने के लिए कि वे सरकार का नेतृत्व नहीं करेंगी राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मिलने गईं तो उनके साथ मनमोहन सिंह भी थे. उसी दिन बाद में सीपीपी बैठक में सोनिया ने अपनी अश्रुपूर्ण आंखों से मौजूदा सांसदों के शोरगुल और क्रंदन के बीच अपने फैसले की औपचारिक घोषणा की. कौन उनकी जगह लेगा इसकी घोषणा के बगैर यह सत्र समाप्त हुआ. लेकिन जब पार्टी के शीर्ष नेता अगले प्रधानमंत्री के नाम को लेकर कयास ही लगा रहे थे और कुछ महत्वकांक्षी कांग्रेसी उस पद पर नजरें गड़ाए थे, सोनिया अपने घर में मनमोहन सिंह को चुने जाने का प्रस्ताव लिख रहीं थीं, जो उस रात सभी कांग्रेस सांसदों तक प्रेषित कर दिया गया. अगले दिन जब सीपीसी तीसरी बार मिली, तो सिंह की नियुक्ति बस एक औपचारिकता भर ही रह गई थी.
यह देखा पाना मुश्किल नहीं था कि सोनिया गांधी ने कम से कम आधा दर्जन मंझे हुए और अधिक शक्तिशाली कांग्रेसियों में से मनमोहन सिंह को ही क्यों चुना. जवाब शायद उनकी वफादारी तथा ईमानदारी और 1991 के वास्तुकार के रूप में उनके अंतर्राष्ट्रीय रुबाब में था.
“उन्होंने अपने खाते में पैसे नहीं डाले. उनकी अपनी आदतें बहुत सहज और सरल थीं और उनके बच्चे भी बेलगाम नहीं निकले थे. इन सब खूबियों ने धीरे-धीरे राजनीति में उनकी एक सम्मानजनक छवि बनाने में मदद की,” वित्त मंत्रालय में उनके साथ नजदीकी से काम करने वाले एक वरिष्ठ सचिव ने मुझे बताया.
सिंह के घर उनको चाहने वालों का तांता लग गया. “मुझे याद है एक पिछवाड़े में एक टेंट लगा दिया गया था– एक बड़ा सा शामियाना, ताकि आने-जाने वाले मेहमानों को बाहर बगीचे में ठंडा और नाश्ता पेश किया जा सके,” दमन ने बताया. “इस सबका इन्तेजाम करने में थोड़ा वक्त लगा क्योंकि किसी को भी ऐसा कुछ होने की उम्मीद नहीं थी.”
संयोगवश वित्तमंत्री बनने वाले अब संयोगवश प्रधानमंत्री बन चुके थे. प्रधानमंत्री पद का यह सरप्राइज गिफ्ट, सोनिया गांधी द्वारा उन पर चस्पा कर दिया गया था. हालात, भारतीय राजनीति में एक चुपचाप रहने वाले शख्स के रूप में सिंह की छवि को भी पुख्ता करते थे और इसे भी कि वे इतने भले और शालीन हैं कि वे खुद से कभी ताज को छीनकर अपने सर पर रखने की कोशिश नहीं करेंगे. लेकिन सिंह की दृढ़ता और महत्वकांक्षा को हमेशा ही कम करके आंका गया है. एक गलतफहमी, जिसे उन्होंने भी कभी दूर करने की कोशिश नहीं की.
“वे असल में एक बाहरी व्यक्ति थे. प्रधानमंत्री बनाए जाने की उन्होंने उम्मीद नहीं की थी,” एक पूर्व कैबिनेट मंत्री ने कहा. “मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि उनमें महत्वकांक्षा नहीं थी. इस खेल में (राजनीति के) कोई ऐसा शरीफजादा नहीं, जो महत्वकांक्षी न रखता हो. आप चाहें तो इसे उनकी ओढ़ी हुई परिष्कृतता का नाम दे लें, या उनका शातिराना अंदाज कह लें.”
1996 में दिए एक साक्षात्कार में जब शीर्षतम पद के लिए उनकी महत्वकांक्षा के बारे में उनके मुंह पर सवाल किया गया तो अपनी फितरत के उलट उन्होंने दो टूक जवाब दिया: “कौन है ऐसा, जो प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहता?”
वास्तव में, दो साल बाद 1998 में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की पेशकश लेकर सिंह के साथ गुप्त रूप से संपर्क भी किया गया. कांग्रेस उस वक्त बिखरी हुई थी और गठबंधन की सरकारों का मौसम अभी-अभी शुरू हुआ था. एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता, जो नवगठित तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे, ने मुझे बताया कि उन्होंने और ममता ने 1998 के शुरू में सिंह पर फंदा कसने का एक प्लान बनाया था, जो उस वक्त कांग्रेस से नाखुश चल रहे थे. उन्होंने सोचा था कि वे सिंह को नार्थ-वेस्ट कलकत्ता की एक सुरक्षित सीट प्रस्तावित करेंगे. उन्हें पूरा यकीन था कि आने वाले चुनावों में,1996 की पुनरावृत्ति होगी, जिसमें किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं होगा. उन्हें लगता था कि वे किसी तरह जोड़-तोड़ से मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर सरकार बनाने में कामयाब हो जायेंगे.
“मैं उनके सफदरजंग स्थित निवास पर गया और उनके सामने तृणमूल में शामिल होने का प्रस्ताव रखा, वरिष्ठ नेता ने बताया. “मैंने कहा, ममता बनर्जी ने मुझे अधिकार दिया है कि मैं आपको नार्थ-वेस्ट कलकत्ता से टिकट ऑफर करूं. यह कुलीन बंगालियों – भद्रलोक –का चुनाव क्षेत्र है. आपको वहां से कोई नहीं हरा सकता. चुनावों के बाद प्रधानमंत्री का पद आपको थाल में सजा हुआ मिलेगा.”
“पता है आपको मनमोहन सिंह ने क्या कहा? उन्होंने कहा, ‘यह देश एक सिख प्रधानमंत्री को स्वीकार नहीं करेगा.’”
(सात)
उनकी नियुक्ति में कई विडंबनाओं में से एक यह भी है कि मनमोहन सिंह भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री बने वह भी एक ऐसी पार्टी के दम पर जो सिंख विरोधी दंगों के लिए जिम्मेवार थी. बीजीपी को उनके ही अभियान में पछाड़ने के बाद, जो भगवाधारी पार्टी के “इंडिया शाईनिंग” के नारे के इर्दगिर्द घूमता था और उदारवाद की लहर में पीछे छूट गए लाखों-लाख लोगों से अपील करता जान पड़ता था, कांग्रेस ने अपनी सरकार चलाने की सदारत उसी शख्स के हाथों में सौंपी जिसका नाम आर्थिक उदारवाद के साथ सबसे ज्यादा जोड़ा जाता है. पांच साल बाद, नेहरु के बाद, सिंह ऐसे पहले प्रधानमंत्री बने जिन्हें अपना पूरा कार्यकाल करने के बाद पुन: जनमत प्राप्त हुआ. बावजूद इसके कि सरकार की गरीबों के हक में दो प्रमुख योजनाओं का नाम मनमोहन सिंह से ज्यादा सोनिया गांधी से जुड़ा था– राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून, जिसने दो करोड़ गरीब परिवारों को रोजगार देने के काम किया; और, किसानों की कर्ज माफी, जिसने 6000 करोड़ के कर्ज माफ किए.
सोनिया गांधी के साए की वजह से कुछ लोगों ने सिंह को कठपुतली प्रधानमंत्री का दर्जा दिया, जो कार्टूनों में तो अच्छा लगता है परंतु सच्चाई से मेल नहीं खाता. उनके कार्यकाल की दो सबसे महत्वपूर्ण घटनाएं याद की जानी चाहियें: परमाणु संधि का उत्कर्ष और 2G घोटाले का अधोबिंदु – जो सिंह के खुद के निर्णायक फैसले थे: पहले में उनके दृढ़विश्वास का हठ और ताकत झलकती है और दूसरे में, उन दृढ़ विश्वासों की चयनात्मक प्रवृत्ति.
परमाणु संधि की कहानी 2005 में शुरू होती है जब सिंह और जॉर्ज डब्लू बुश ने असैनिक परमाणु संधि पर दस्तखत करने की अपनी मंशा जाहिर की. उस वक्त वामपंथी दलों, जो सिंह की सरकार का बाहर से समर्थन कर रहे थे, ने इस प्रस्तावित संधि को लेकर अपनी आपत्ति व्यक्त की, लेकिन वे ज्यादातर आर्थिक मसलों के साथ ही उलझे रहे, जैसे और अधिक सार्वजनिक क्षेत्रों निकायों के निजीकरण को रोकने में. 2007 तक बुश ने इस प्रस्तावित संधि का आधा रास्ता साफ कर दिया था. उन्होंने अमरीकी कांग्रेस में दो बिल इस संबंध में पारित करवा लिए थे और प्रणब मुखर्जी तथा अमरीकी विदेश सचिव कोंडोलीजा राइस के बीच हुए औपचारिक समझौते को अगस्त के शुरू में सार्वजनिक कर दिया गया था.
जवाब में वामियों का पारा और चढ़ गया, लेकिन सिंह ने भी धमकी दे डाली. एक सार्वजनिक मीटिंग में द टेलीग्राफ की दिल्ली संपादक मानिनी चटर्जी को सिंह ने जब देखा तो उन्होंने उनके सामने एक दुर्लभ विशेष साक्षात्कार की गाजर लटका दी, “उन्होंने कहा, ‘मानिनी, मुझे तुम से बात किए हुए अरसा हो गया. तुम कभी दफ्तर क्यों नहीं चली आतीं?” चटर्जी ने याद किया. जब उनकी मुलाकात हुई तो सिंह पूरी बातचीत के दौरान सिर्फ परमाणु संधि पर ही फोकस बनाए रहे और कम्युनिस्टों को उनके ही अखबार के जरिये चुनौती भरे लहजे में ललकारा: “यह एक सम्मानजनक संधि है. इसे कैबिनेट ने भी अपनी स्वीकृति दे दी है, यहां से अब हम वापिस नहीं लौट सकते... अगर वे समर्थन वापस लेना चाहते हैं तो बेशक ले सकते हैं.”
लेकिन वामपंथी दलों ने भी जल्द ही अपने तेवर बरकरार रखते हुए सिंह की इस चुनौती के जवाब में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के महासचिव, प्रकाश करात ने ऐलान किया कि वामपंथी दल “एक ऐसी सरकार का समर्थन नहीं करेंगे, जो देशहित को अमरीकियों के आगे गिरवी रख दे. सत्ताधारी पार्टी को परमाणु संधि या सरकार के स्थायित्व के बीच चुनाव करना होगा.”
यह सुनकर कांग्रेस पार्टी की “सर्वाइवल इंस्टिंक्ट” जाग उठी, जल्द चुनावों के पक्ष में कोई नहीं था. गठबंधन के तीन सबसे बड़े घटकों– शरद पवार, करुणानिधि और लालू प्रसाद यादव ने सोनिया गांधी से संपर्क साधा और गुजारिश की कि सिंह को अपनी इस परमाणु ख्वाइश को पूरा करने से रोकें. अक्टूबर आते-आते, सिंह भी बैकफुट पर खेलने लगे. उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट में कहा कि संधि का मुमकिन न हो पाना “जीवन का अंत नहीं.” उस दिन उसी कार्यक्रम में सोनिया गांधी ने बाद में कहा, “परमाणु संधि को लेकर वामपंथ का विरोध बेसबब नहीं था... पार्टी जल्द चुनाव के पक्ष में नहीं है.”
ऐसा प्रतीत होता था कि परमाणु संधि मृत हो चुकी थी लेकिन सरकार को इससे बाहर निकलने का कोई वाजिब बहाना गढ़ना था. अमरीकी कांग्रेस पहले ही भारत के साथ परमाणु सहयोग को संभव बनाने के लिए अपने कानूनों में दो संशोधन ला चुकी थी और वाशिंगटन 45-देशी न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप को संदेश भेज चुका था कि जल्द ही संधि की प्रक्रिया शुरू होने वाली है. सिंह को लगा यहां से वापस लौटना,न केवल उनके खुद, बल्कि राष्ट्र के लिए भी शर्मिंदगी का सबब बनेगा. कांग्रेस और वामपंथ ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सिंह की छवि बिगड़ने से बचाने के लिए एक गुप्त रणनीति तैयार की.
22 अक्टूबर के दिन यूपीए-वाम कमेटी, जिसे परमाणु संधि संबंधित समझौते पर पहुंचने का प्रयास करने के मकसद से गठित किया गया था, की अनौपचारिक बैठक में सरकार की तरफ से नियुक्त मुख्य वार्ताकार प्रणब मुखर्जी ने आत्मसमर्पण की शर्तें रखीं. “हमें आप बा-इज्जत संधि से बाहर निकलने का रास्ता सुझाइए और हम इस करार को आगे नहीं बढ़ायेंगे,” कमिटी के एक सदस्य ने बताया.
मुखर्जी और रक्षामंत्री ए.के. एंटनी ने कम्युनिस्ट नेताओं प्रकाश करात और ए.बी. वर्धन के सामने एक गुप्त समझौते का प्रस्ताव रखा: कांग्रेस ने वादा किया कि वे इस संधि को छोड़ देंगे. “लेकिन वामपंथ को, सरकार को इसे इंटरनेशनल एटोमिक एनेर्जी एजेंसी (आईएइए) के पटल तक ले जाने की इजाजत देनी होगी और वार्ता को कुछ राउंडस तक चलने देना होगा. फिर हम किसी वक्त आईएइए द्वारा प्रस्तावित किसी-ना-किसी अनुच्छेद से आपत्ति जताने का बहाना बनाकर,बिना अमेरिका को नाराज किए इससे बाहर निकल आयेंगे.” वामपंथी नेता इसके लिए मान गए. लेकिन उन्होंने शर्त रखी कि आईएइए में जाने से पहले, सरकार प्रस्तावित परमाणु संधि के मसौदे को संसद के पटल पर रखेगी.
कुछ सप्ताह बाद, 10 नवंबर को, प्रधानमंत्री निवास पर इस गुप्त समझौते को औपचारिक बनाने के लिए एक वर्किंग लंच का आयोजन किया गया. इसमें सिर्फ मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, मुखर्जी, करात और वर्धन शामिल थे और पांचों जन इस परमाणु संधि को बा-इज्जत दफनाने के लिए बैठे थे.
“मनमोहन सिंह सिर्फ वहां बैठे कुढ़ते रहे,” कमिटी के एक सदस्य ने बताया. “उन्होंने एक शब्द नहीं बोला.” सिंह की परमाणु संधि में वामपंथियों के अमेरिका विरोध के डोग्मा ने सेंध लगा दी थी. लेकिन सिंह भी अपनी कुछ साजिशें रचने लगे थे.
दो दिन बाद वे अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ परमाणु संधि पर एक घंटे की वार्ता के लिए निजी हैसियत से मिलने चले गए. आखिरकार, ये वाजपेयी ही थे जिन्होंने भारत की बुश के साथ नजदीकियां बढ़ाई थीं और सिंह को उम्मीद थी कि वे इस संधि को बचाने में मदद करेंगे. लेकिन अगले ही दिन विपक्ष के नेता लालकृष्ण अडवाणी ने सिंह को शर्मिंदा करने की मंशा से सब कुछ उगल दिया: अडवाणी ने सरकार की “मौकापरस्ती” की खिल्ली उड़ाई. “वे अब बातचीत करना चाहते हैं जब उनकी सरकार गिरने वाली है, उन्होंने रिपोर्टरों से कहा, “अब बहुत देर हो चुकी है.”
इस बीच, जब संसद में परमाणु संधि पर बहस हो चुकी तो सरकार ने आईएइए से संपर्क किया और वामपंथियों ने अपने वादे के मुताबिक सरकार को धमकी नहीं दी. अगले कई महीनों तक जब अभी आईएइए के साथ बातचीत जारी ही थी और वामपंथी चुप थे. सिंह को पता था कि अगर इस संधि को बचाने की कोई उम्मीद जारी रखनी है तो उन्हें जल्द ही कुछ करना पड़ेगा.
अलग-अलग सूत्रों, जिनमें गठबंधन पार्टियों के दो शीर्ष के नेता हैं और एक सीडब्लूसी का सदस्य भी शामिल है, के अनुसार बीजेपी के इंकार के बाद ये मननोहन सिंह ही थे, न कि कांग्रेस पार्टी, जिन्होंने समाजवादी पार्टी के नेताओं मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह से संपर्क साधा. उत्तर प्रदेश में सत्ता खोने के बाद समाजवादी पार्टी के कई शीर्ष नेता, विजेता रही मायावती द्वारा आमदनी से अधिक जायदाद रखने के जुर्म में कई सीबीआई जांचों के चलते अपने वजूद को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे. सोनिया गांधी ने 2004 के चुनावों के दौरान यादव द्वारा खिल्ली उड़ाए जाने के बाद समाजवादी नेताओं को पीठ दिखा रखी थी. “अंदर सभी को मालूम था कि मनमोहन सिंह ने ही समाजवादी पार्टी से बातचीत के पहले द्वार खोले थे,” एक गठबंधन के नेता ने बताया. “कांग्रेस नेताओं को तो उस वक्त तक इसकी भनक भी नहीं लगी थी. उन्होंने बाद में हस्तक्षेप किया.”
एक बार जब समाजवादियों से बातचीत का सिलसिला चल निकला तो सिंह ने सोनिया गांधी से अपनी नजदीकी के चलते दबाव बनाया. सोनिया को पता था कि उन्हें या तो वामपंथियों से किए अपने वादे को निभाना था या अपनी सरकार गिरती देखना था. लेकिन सिंह अपनी जिद्द पर अड़े रहे. “उन्होंने चुपके से इस्तीफे की धमकी भी दे डाली,” प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत एक अफसर ने बताया. गठबंधन के नेता ने इसी बात को इतनी सज्जनता से नहीं बताया, “उन्होंने सोनिया को ब्लैकमेल किया. उन्होंने कहा अगर वे संधि नहीं होने देंगी तो वे अपने पद पर जारी रहना नहीं चाहेंगे.” सिंह ने सोनिया को सरकार गिरने से बचाने के लिए वांछित समर्थन जुटाने का आश्वासन दिया, “इसलिए सोनिया पीछे हट गईं और समाजवादियों का हाथ थाम लिया,” पूर्व अफसर ने कहा.
“भूलिए मत कि उन्होंने राजनीति के दाव पेंच नरसिम्हाराव से सीखे थे, जो एक चालाक लोमड़ी और राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी थे,” संजय बारू ने कहा. “मैं अक्सर लोगों को कहता रहता हूं कि मनमोहन सिंह को कम करके मत आंको.”
जैसा कि विकिलीक्स द्वारा जारी किए गए अमरीकी डिप्लोमेटिक केबल से जाहिर होता है कांग्रेस और समाजवादी नेताओं के बीच बातचीत जल्द ही शुरू हो गई. वामपंथी पार्टियां आग बबूला हो गईं और उन्होंने 8 जुलाई को प्रेस कांफ्रेंस करके सरकार से समर्थन वापस ले लिया. लेकिन अब तक बहुत देर हो चुकी थी. इससे पहले कि विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव ला पाता, सिंह ने सदन में विश्वासमत की प्रक्रिया प्रारंभ करवा दी. दो सप्ताह के बाद, लोक सभा में खरीद-फरोख्त के आरोपों के हंगामे के बीच, जिनके चलते हाल ही में अमर सिंह को जेल की हवा भी खानी पड़ी, सरकार तीन वोटों से विश्वास मत जीत गई.
उस रात मीडिया से बात करते हुए सिंह बेहद आत्मविश्वास से भरे दिखे और उन्होंने कहा कि इस जीत से “दुनिया को यह साफ संदेश मिलेगा कि भारत का दिल और दिमाग दुरुस्त अवस्था में है और भारत राष्ट्र मंडल में अपना जायज स्थान बनाने के लिए तैयार है.” फिलहाल के लिए पैसों से वोटों की खरीद-फरोख्त का आरोप आसानी से भुला दिया गया और मीडिया ने “जंगी राजा”के कसीदे गाना शुरू कर दिया है, जिसने आखिरकार अपने दब्बूपन से बाहर आकर अपनी ताकत का मुजाहिरा किया.
लेकिन पूर्व वरिष्ठ सचिव जिन्होंने वित्त मंत्रालय में सिंह के साथ काम किया था ने मुझे बताया कि सिंह की चालाकी से अचंभित होने की जरूरत नहीं है. “हममें से कुछ अर्थशास्त्री जो सिंह को काफी अरसे से जानते हैं हमेशा से कहते रहे हैं कि मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री के रूप में जरूरत से ज्यादा और एक राजनेता के रूप में जरूरत से कम आंके जाते रहे हैं.”
“परमाणु संधि ने साबित कर दिया कि जब किसी चीज में मनमोहन सिंह की राजनीतिक आस्था हो और जब वे कुछ करवाने की ठान लें तो उसे हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं,” कांग्रेस गठबंधन के एक नेता ने बताया. परमाणु मसले पर सिंह ने दिखा दिया कि वे सोनिया की भी अवमानना कर सकते हैं. ऊपर दिया गया वर्णन दर्शाता है कि वे उच्च-स्तरीय राजनीति करने में सक्षम हैं. लेकिन सिंह के दृढ़ निश्चय पर 2008 में एक और सवालिया निशान लग गया: उन्होंने कैसे 2G घोटाला अपनी नाक के नीचे होने दिया?
(आठ)
2008 में छल कपट से सेलुलर स्पेक्ट्रम के लाइसेंसों के आवंटन में हुई गड़बड़ी से दुर्लभ सार्वजनिक संसाधनों को भ्रष्ट और गैरकानूनी तरीकों के जरिये बाजार से कम दामों में बेचा गया और कुछ चुनिंदा टेलिकॉम कंपनियों की तरफदारी की गई. जो लगता था कि भारत के इतिहास में सबसे बड़ा घोटाला था. सरकार के अपने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने कहा कि स्पेक्ट्रम को 2008 की कीमतों की बजाय 2001 की कीमतों पर बेचा गया, जबकि उसी बीच सेल फोन इस्तेमाल करने वालों की संख्या चार करोड़ से बढ़कर 35 करोड़ हो गई. इससे सरकारी खजाने को 1.76 ट्रिलियन रुपए का नुकसान हुआ.
इस मामले में मुकदमा करने वाली सीबीआई के अनुसार यह संख्या 300 बिलियन के आसपास होगी. लेकिन अगर आप मौजूदा कम्युनिकेशन एंड इनफार्मेशन टेक्नोलोजी मंत्री, जिनके पूर्ववर्ती मंत्री आजकल जेल में हैं, की मानें तो वे कहेंगे “एक पैसे” का नुकसान नहीं हुआ.
अगर आपने सरकार की विश्वसनीयता की धज्जियां उड़ाने के लिए कोई घोटाला खड़ा करना की कोशिश की हो तो 2G से बेहतर कुछ हो नहीं सकता. अनुमानित नुकसान की जो रकम बताई जा रही थी वह बहुत बड़ी थी: जो इसके लिए जिम्मेवार थे वे बेशर्मी की हद तक बिकाऊ थे और सरकार खजाने लूटने वालों की तरफ नरम रुख इख्तेयार किए रही. सरकार के आलोचकों के सबसे बुरे आरोप सही साबित हो रहे थे.
पिछले दो सालों में जब से 2G घोटाला सामने आया है, मनमोहन सिंह सरकार इस संबंध में लगभग हर मोड़ पर और हर मुमकिन तरीके से इस मसले पर गलत बयानी करती आई है. मीडिया के सामने सरकार के प्रवक्ताओं ने अपुष्ट और परस्पर विरोधी बयान दिए हैं. कैबिनेट में भ्रष्ट मंत्रियों को महीनों बाद इस्तीफे देने के लिए मजबूर किया गया; और संसद में, सरकार ने तीन महीनों तक विपक्ष की संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच की मांग को टाले रखा, जिसमें एक पूरा सत्र बर्बाद हो गया और दो महीनों बाद सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर होना पड़ा.
लेकिन घोटाला सामने आने के बाद उसे ठीक से न संभाल पाना एक बुनियादी असफलता पर पर्दा डालता है. सरकार घोटाले को रोक पाने में असफल रही. मौजूदा साक्ष्यों के आधार पर यह साफ हो जाता है कि मनमोहन सिंह को राजस्व में संभावित घाटे के बारे में पता था. उन्हें पता था कि कुछ न कुछ गड़बड़ चल रही है और 2006 तथा 2008 के बीच अगर उनके हस्तक्षेपों का अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि कम से कम तीन मौकों पर वे स्पेक्ट्रम आवंटन को रोक सकते थे. लेकिन उन्होंने फिर भी कुछ नहीं किया. इन तीनों मामलों में सिंह का शक सही था लेकिन हर एक मौके पर उनके किसी एक या एक से ज्यादा मंत्रियों ने उनके शक को खारिज कर दिया. मनमोहन सिंह ने भी अपने अधिकारों का इस्तेमाल नहीं किया.
इन तीन में से पहला प्रसंग 2006 में घटित हुआ, जब सिंह ने सरकार के स्वामित्व वाले स्पेक्ट्रम के आवंटन पर निगरानी रखने के लिए छ:सदस्यीय ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स का गठन किया ताकि कीमत तय करने का फैसला एक मंत्री के हाथ में रहने से रोका जा सके. लेकिन जब तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मरान ने पिछली बीजेपी सरकार द्वारा लिए गए फैसले का हवाला देते हुए स्पेक्ट्रम की कीमतें तय करने में मंत्रालय से अधिकार को छीनने का विरोध किया तो सिंह ने बिना किसी आपत्ति के उनकी बात मान ली.
सिंह के दूसरे हस्तक्षेप तक, मारन के हाथों से दूरसंचार मंत्रालय निकलकर, राजा के हाथों में आ चुका था. उन्होंने भी अपने से पूर्व मंत्री द्वारा तय की गई नीति का फायदा उठाना जारी रखा. प्रधानमंत्री कार्यालय को टेलीकॉम कंपनियों से कई शिकायती चिट्ठियां मिलीं जिसमें स्पेक्ट्रम बिक्री में भाई-भतीजावाद और रिश्वत के आरोप भी लगाए गए थे. 2 नवंबर 2007 को सिंह ने राजा को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने 2G के आवंटन को लेकर पांच सरोकारों की तरफ इंगित किया. इनमे सबसे महत्वपूर्ण सरोकार, नीलामी से कीमतों को तय किए जाने के सुझाव के मुत्तालिक था. राजा ने प्रधानमंत्री के प्रत्येक सरोकारों से ध्यान भटकाने की नीयत से उसी दिन एक लंबा जवाब लिखा. उन्होंने बहुत चतुराई से दलील रखी, “स्पेक्ट्रम को नीलाम करने का फैसला नए आवेदकों के लिए बहुत ही “अनुचित, भेदभावपूर्ण, मनमाना और स्व्छाचारी” साबित होगा क्योंकि यह उन्हें वर्तमान लाइसेंस होल्डर के सामने खेलने के लिए समतल भूमि से वंचित रखता है.
सिंह ने मामले पर जोर नहीं डाला लेकिन अगले ही महीने इंटरनेशनल टेलिकॉम ट्रेड कांफ्रेंस में उन्होंने सार्वजानिक रूप से स्पेक्ट्रम की नीलामी की वकालत की. उन्होंने कहा, “दुनिया भर में सरकारें स्पेक्ट्रम आवंटन से बहुत राजस्व बटोर रही हैं.” राजा उनसे फिर भी अपनी नाइत्तेफाकी बनाए रहे और उन्होंने प्रधानमंत्री को 26 दिसंबर को अपनी नीतियों के पक्ष में एक और पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने सिंह के मुक्त बाजार के झुकाव से अपील की. “इस क्षेत्र में,” उन्होंने लिखा, “मेरे प्रयास उपभोक्ता को कम दाम देने की दिशा में हैं, ताकि देश की टेली डेंसिटी में बढ़ोतरी लाई जा सके.” सिंह ने उसके बाद, इस पत्राचार को जारी नहीं रखा.
सिंह के तीसरे मौके पर वरिष्ठ कांग्रेस साथी पी. चिदंबरम भी शामिल थे, जिन्हें बतौर वित्त मंत्री दूरसंचार मंत्रालय द्वारा तय की गई कीमतों पर मोहर लगानी थी. 15 जनवरी 2008 को चिदंबरम ने सिंह के मत का पक्ष लेते हुए एक पत्र में दलील दी, “स्पेक्ट्रम की कीमत उसकी दुर्लभता और इस्तेमाल की कार्यकुशलता के आधार पर की जानी चाहिए. स्पेक्ट्रम आवंटन का सबसे पारदर्शी तरीका नीलामी रहेगा.” लेकिन लगता है 4 जुलाई 2008 तक चिदंबरम अपना दिमाग बदल चुके थे: प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में, राजा और चिदंबरम ने सिंह को बताया कि स्पेक्ट्रम की कीमत को लेकर उनके बीच मतभेद सुलझा लिए गए हैं, जिसमें न तो नीलामी शामिल है और न ही अभी तक इस्तेमाल 2001 की दर की कीमत में कोई इजाफा. एक बार फिर सिंह ने अपनी घोषित पसंद के बावजूद, दूसरों के फैसले को तरजीह दी. एक ऐसी पसंद, जिसका उन्होंने बाद में यह कहकर बचाव किया कि उन्हें लगा नीलामी करवाने पर “जोर डालना” उनके अधिकार में नहीं है.
ये तीनों प्रसंग प्रधानमंत्री को एक ऐसे शख्स के रूप में दिखाते हैं जिसमें गड़बड़ी भांपने की शालीनता भी है और दिमाग भी, लेकिन जो इसे दुरुस्त करने का माद्दा नहीं रखता. वे ऐसे भी नहीं हैं कि गलत होता देख मुंह फेर लें, लेकिन अगर उनके शुरुआती प्रयास विफल हो जाएं तो आसानी से हार भी मान बैठते हैं. “वे सख्त मिजाज व्यक्ति नहीं हैं,” पूर्व कैबिनेट मंत्री ने बताया. “स्वभाव से वे बहुत ही सदाचारी व्यक्ति हैं. मुझे लगता है उन्हें सख्त कदम उठाकर लोगों को भुगतते देखने से चोट पहुंचती है.”
चौथा वाकिया इस तस्वीर को बिना चाशनी के पूरा कर देता है: रजा को रोकने के लिए सिंह द्वारा अपनाए गए निहायत सरसरी प्रयासों को छोड़ने के पश्चात, स्पेक्ट्रम आवंटन को लेकर उनके दफ्तर में 23 जनवरी 2008 को एक और फाइल आई. इस दस्तावेज से, जिसका खुलासा संसदीय लेखा समिति द्वारा किया गया था, सिंह के निजी सचिव द्वारा लिखे गए नोट से यह संकेत मिलता था कि वे इस मामले से अपना पिंड छुड़ाना चाहते थे; इसमें लिखा था, प्रधानमंत्री “औपचारिक खतो-खताबत नहीं चाहते. वे चाहते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय इस मामले से दूरी बनाये रखे.” (जुलाई में प्रधानमंत्री कार्यालय ने असामन्य रूप से प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इस नोट के मुत्तालिक “बेबुनियाद निष्कर्ष” निकाले जाने को चुनौती दी.)
“मनमोहन सिंह धन-संबंधी मामले में ईमानदार आदमी हो सकते हैं, लेकिन उच्च राजनीतिक-नैतिक मामलों में नहीं. वे शासन में बेईमान लोगों या गलत दस्तूरों को ठीक करने में दिलचस्पी नहीं रखते. ये उनका चरित्र नहीं है,” वित्त मंत्रालय में उनके साथ काम करने वाले और उन्हें चार दशकों से भी ज्यादा समय से जानने वाले पूर्व वरिष्ठ सचिव ने कहा. “आप 2G पर उनकी प्रतिक्रियाओं को देखें: वे कहते हैं, ‘मुझे पता नहीं था’ या ‘किसी ने मुझे बताया नहीं.’ सरकार में उनके साथ नजदीक से काम करते हुए मैंने देखा है, वे हमेशा यही कहते हैं.”
घोटाला सामने आने के बाद प्रधानमंत्री और अन्य वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों द्वारा तरह-तरह के बहानों और अपने इस कदम को जायज ठहराए जाने की तमाम कोशिशों के बाद, पूर्व सचिव के आकलन को नकारने की कोई मुनासिब वजह नहीं बचती. सीएजी के खुलासे के बाद कि घोटाले की अनुमानित राशि एक लाख छियत्तर हजार करोड़ रुपए है, राजा को इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया गया. मंत्रालय में उनका स्थान लेने आये कपिल सिब्बल ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर सीएजी पर आक्रमण बोलते हुए कहा, राजा के उठाये कदमो से राजस्व को “एक नए धेले” का नुकसान नहीं हुआ है. इस वक्तव्य की खूब खिल्ली उड़ी लेकिन इसने चाहे अनचाहे राजा के बचाव को मजबूत किया कि वे तो सिर्फ पिछली सरकार द्वारा तय की गई नीति का पूर्णत: अनुपालन कर रहे थे और यह कि उनके वरिष्ठ साथियों, प्रधानमंत्री तथा वित्तमंत्री तक को उनके उठाये गए कदमों की संपूर्ण जानकारी थी.
कानूनी औचित्य और बहस के मुद्दे, जो कैबिनेट की तरफ से पेश किए जाते रहे वे जनता के लगातार बढ़ते गुस्से को और भड़काते रहे लेकिन इस मसले पर सलाहकारों की प्रधानमंत्री और उनकी कोर टीम, जिसमें सिब्बल, चिदंबरम और सिंह के पारिवारिक नजदीकी विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में काम कर चुके ऑक्सफोर्ड परिशिक्षित अर्थशास्त्री तथा वर्तमान में योजना आयोग के डिप्टी चेयरमैन दोस्त मोंटेक सिंह अहलुवालिया भी शामिल थे.
भ्रष्टाचार के खिलाफ विपक्ष द्वारा लगातार विरोध प्रदर्शनों और भूख हड़तालों तथा उसके बाद बिठाई गई जांच और गिरफ्तारियों के बाद आज यह भूलना आसान हो सकता है कि महीनों तक सिंह कैबिनेट के शीर्ष मंत्रियों ने इस घोटाले को फर्जी साबित करने की नाकाम कोशिश की थी. अहलुवालिया ने तो राजा के बचाव में यहां तक कहा और दलील दी कि 2G लाइसेंस के नाटकीय रूप से कम दाम “स्पेक्ट्रम में दी जाने वाली सब्सिडी” की वजह से थे. ठीक वैसे ही जैसे फूड सब्सिडी दी जाती है. सीएजी की रिपोर्ट आने एवं अनुमानित घाटे की इतनी बड़ी रकम बताये जाने के बाद भी, अहलुवालिया ने राजा की नीतियों का एक टीवी साक्षात्कार के दौरान समर्थन किया और सीएजी पर हमला बोला, “हम राजस्व में इजाफे की नहीं सोच रहे हैं. सरकार की यह लगातार कोशिश रही है कि राजस्व में इजाफा सरकार का एकमात्र मकसद न रहे,” उन्होंने दलील पेश की; दूसरे शब्दों में, उन्होंने सुझाया कि निजी कंपनियों (जिनमें से कई, देश की सबसे बड़ी कंपनियां हैं) के बीच रियायती दरों पर स्पेक्ट्रम का वितरण कोई संयोग नहीं था बल्कि एक सोची-समझी नीति के तहत लिया गया फैसला था. यह तयशुदा बात है कि राजा ने अपने संरक्षकों को फायदा पहुंचाने के लिए नीति का दुरूपयोग किया. लेकिन प्रधानमंत्री और कैबिनेट में उनके अधिकतर वरिष्ठ साथियों ने ऐसा करने के लिए उन्हें पूरी छूट दी. इसने यह साबित कर दिया कि न केवल वे भ्रष्टाचारियों पर शिकंजा कसने में नाकामयाब रहे, बल्कि इसके कारणों और उत्पत्ति के प्रति भी उदासीन बने रहे.
(नौ)
सितंबर के मध्य में मेरी मुलाकात दो बेहद वरिष्ठ पूर्व अधिकारियों से हुई जो वर्तमान सरकार में काम कर चुके थे और 2G मामले के साथ बहुत नजदीकी से जुड़े रहे. हालांकि दोनों ने ही प्रधानमंत्री पर किसी किस्म की गड़बड़ी का आरोप नहीं लगाया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि वे इसकी वजह से कानूनी शिकंजे में फंस सकते हैं और अदालत उन्हें गवाही देने या उन पर मुकदमा चलाने के लिए तलब कर सकती है. “मैं उम्मीद करता हूं कि ऐसा नहीं होगा,” पहले अधिकारी ने बताया. “लेकिन अदालत वास्तव में व्यापार के नियमों के उल्लंघन के लिए प्रधानमंत्री पर मुकदमा चला सकती है.”
“प्रधानमंत्री बहुत बुरे फंसे हैं और जब तक 2G मामले को देखने के लिए कोई विश्वसनीय वकील नहीं मिलता, सरकार मुसीबत में रहेगी,” दूसरे अधिकारी ने तब बताया, जब मैं उनसे 17 सितंबर को मिला. “प्रधानमंत्री खुद को और चिदंबरम को लेकर बहुत चिंतित हैं. आज सुबह ही उन्होंने 2G मामले को लेकर एक बैठक की है.” गृहमंत्री पर राजा के साथ स्पेक्ट्रम कीमतों में अपनी सहमति जताने के लिए सुप्रीम कोर्ट और सीबीआई में याचिका दायर की गई है. चिदंबरम ने प्राइवेट तौर पर किसी भी न्यायालय द्वारा उनके खिलाफ कार्यवाही करने के आदेश की सूरत में अपना त्यागपत्र देने की पेशकश की है. दूसरे अधिकारी ने कहा, “चिदंबरम जायेंगे, उन्होंने खुद मुझसे कहा, ‘अगर कुछ हुआ तो मुझे जाना होगा.’”
अब यह तो पक्का लग रहा है कि 2G घोटाला इस सरकार के रहने तक उसकी नाक में दम करना जारी रखेगा. मनमोहन सिंह के सामने जो महत्वपूर्ण सवाल हैं वह यह कि क्या यह मसला भविष्य में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी या उनकी विरासत पर कोई असर डालेगा. ईमानदारी की उनकी छवि पर शायद कोई असर न पड़े. लेकिन इस और अन्य घोटालों, जो उनकी नाक के नीचे हुए, की दिशा से प्रतीत होता है कि ऐसे संकटों की घड़ी में ईमानदारी, बचाव के लिए काफी साबित नहीं होती. खासकर, जब नेताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे व्यक्तिगत निष्ठा से ऊपर उठकर कदम उठाएंगे. इसे मनमोहन सिंह की बदकिस्मती ही कहा जायेगा कि उन्होंने एक ऐसे वक्त में देश की कमान संभाली जब भ्रष्टाचार का बोलबाला था, जिसने उसे रोकने या उसका सामना करने की उनकी खुद की असमर्थता को उजागर किया.
कुछ समय के लिए मनमोहन सिंह के राजनीतिक जीवन के पहले घोटाले पर लौटना शायद उपयोगी होगा. यह मामला 2G घोटाले से कहीं कम महत्वपूर्ण था लेकिन शायद उन रुझानों की ओर इशारा करता था, जिनकी वजह से उनके शानदार करियर पर दाग लगने जा रहे थे.
अप्रैल 1992 में, जब सिंह को वित्तमंत्री बने अभी दस महीने हुए थे, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी गिरावट देखी. एक ही दिन में इसमें 13 प्रतिशत की गिरावट आई. इस गिरावट की वजह हर्षद मेहता नामक एक दलाल था. मेहता ने सार्वजानिक क्षेत्रों के बैंकों, जो वित्त मंत्रालय के अधीन आते थे, के वरिष्ठ अधिकारीयों के साथ सांठगांठ कर बैंकों के पैसे को स्टॉक मार्किट में झोंक दिया था, जो घोटाला खुलने पर डूब गए. पी.वी. नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री कार्यालय के एक अधिकारी के अनुसार, जब मार्च 1992 में घोटाले की खुफिया रिपोर्ट पहली बार वित्त मंत्रालय में पहुंची तो चिंताग्रस्त सिंह ने कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा, वित्त सचिव मोंटेक सिंह अहलुवालिया और आर्थिक सलाहकार अशोक देसाई को स्थिति पर विचार करने के लिए आपातकालीन बैठक के लिए तलब किया.
प्रधानमंत्री कार्यालय के पूर्व अधिकारी ने याद किया कि सिंह की प्रतिक्रिया रक्षात्मक थी. “यह एक व्यवस्थागत नाकामी है,” सिंह ने कहा. “एक गलती दूसरी गलती का सबब बनती गई.” जब उनमे से एक ने सिंह से कहा कि कोई इस दलील पर विश्वास नहीं करेगा और कि मेहता की जांच होनी चाहिए और उसे अपने हिस्से के शेयर छोड़ने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए तो सिंह ने संकोची अंदाज में कहा, “फिर तो बहुत हल्ला-गुल्ला मचेगा,” वे बोले. “लोग इसके बारे में लिखेंगे, सबको पता चल जाएगा.” वैसे भी कुछ हफ्तों बाद, इस घोटाले की खबर लीक हो गई. अगस्त 1992 में इस घोटाले की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन हुआ.
आज की तरह तब भी, सिंह के विरोधियों ने उन पर इस घोटाले के लिए ऊंगली नहीं उठाई. लेकिन इस घोटाले को न पकड़ पाने और इसको अंजाम देने वालों के प्रति ढुलमुल रवैये अपनाने के लिए वित्त मंत्रालय को घोर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. उनकी वर्तमान की परेशानियों की एक अन्य अनुगूंज तब सुनाई पड़ी जब उन्हें घोटाले की पहली खबर मिली और वे बिलकुल भी विचलित नहीं दिखे. संसद में विपक्ष के हमलों के बीच उन्होंने कहा कि वे “एक दिन स्टॉक मार्किट के चढ़ने और, दूसरे दिन उसके गिरने पर अपनी नींद नहीं गंवाते.”
संयुक्त संसदीय समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में घोटाले की जिम्मेवारी से सिंह को तो बरी कर दिया; लेकिन समिति ने उनकी प्रतिक्रिया और प्रत्यक्ष उदासीनता को आड़े हाथों लिया: “यह अच्छी बात है कि हमारे वित्तमंत्री अपनी नींद हराम नहीं करते, लेकिन उनसे यह उम्मीद की जाती है कि जब चारों तरफ तबाही का आलम हो तो उनकी ऊंघ में कुछ तो खलल पड़े.”
वे तबाही मचाने वाले बदलाव जिन्हें मनमोहन सिंह ने होने दिया, आज दो दशक पुराने हो चुके हैं. इस साल किसी समय भारत की अर्थव्यवस्था के दो ट्रिलियन डॉलर को पार करने की उम्मीद है. भारत की अर्थव्यवस्था पूरे विश्व में दूसरी सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था है. पिछले दशक में प्रति व्यक्ति आय में तीन गुना इजाफा हुआ है और भारत अब विश्व स्तर पर अरबपतियों के मामले में चौथे स्थान पर है. लेकिन इस विस्फोटक वृद्धि ने आमदनी के मामले में असमानताओं में अप्रत्याशित वृद्धि तथा मुकामी भ्रष्टाचार को भी जन्म दिया है. यह भ्रष्टाचार उन रहस्यमयी चौराहों से उत्पन्न होता है जिन चौराहों पर राज्य और पूंजी का मिलाप होता है.
एशियन डेवलपमेंट बैंक के 2009 के एक अध्ययन ने आगाह किया था कि अगर “राजनेताओं, राज्य और निजी क्षेत्र के बीच शक्ति संबंधों को लेकर वांछित कदम न उठाये गए तो “भारत कुलीन पूंजीवाद की स्थितियों की तरफ बढ़ेगा.” इसी तर्ज पर प्रभावशाली राजनीतिक विश्लेषक प्रताप भानु मेहता, जिन्हें किसी भी मापदंड से वामपंथी नहीं कहा जा सकता, ने इसी साल एक स्तंभ में लिखा कि “हाल में घटित घोटालों ने, निजी पूंजी को भी शर्मसार कर डाला है.”
संपदा उगाने वालों पर अब सार्वजनिक संपदा हड़पने का ठप्पा लग रहा है और यह बात सिर्फ धंधे में नए-नए आए खानें खोदने वाले बेल्लारी भाइयों पर आकर नहीं टिकती. जो बात असहज करती है वह यह बोध कि इसने अब असाधारण टाटा और रिलायंस जैसी कंपनियों को भी अपने साए में ले लिया है. यह बोध व्यापक और वास्तविक है और इससे सीधे-सीधे निपटने की जरूरत है.
यह सही है कि उदारवाद के चलते मनमोहन सिंह को उसके साथ आने वाली हर बुराई के लिए अकेले जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन दो दशकों बाद भी, वे बतौर प्रधानमंत्री इस द्वंद्व को सुलझाने के लिए अनिच्छुक नजर आते हैं कि राज्य और बाजार के बीच सही संतुलन कैसे बिठाया जाए.
इराक आयल फॉर फूड कार्यक्रम में घपले को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की जांच रिपोर्ट निकलने के दो महीने बाद, कांग्रेस से जुड़े एक पार्टी नेता ने दिसंबर 2005 में हुई एक बैठक का मुझे विवरण सुनाया. रिपोर्ट में तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह को लाभ का दोषी पाया गया था, इसके चलते उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. लेकिन रिपोर्ट में रिलायंस पेट्रोलियम लिमिटेड को भी दोषी पाया गया. पार्टी नेता ने कहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री के सामने इस मसले को उठाया. “सर, रिपोर्ट में सिर्फ नटवर का नाम नहीं बल्कि रिलायंस का नाम भी साफ-साफ लिया गया है. आप रिलायंस के खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं करते?”
“एक गहरी सांस लेकर मनमोहन सिंह ने हमसे कहा, ‘आखिर, मैं कर भी क्या सकता हूं. वह भारत की सबसे बड़ी कंपनी है,” पार्टी नेता ने बताया.
पिछले बीस वर्षों में मनमोहन सिंह दो बड़ी ऐतिहासिक महत्व की सार्वजनिक बहसों के केंद्र में रहे हैं. पहली, समाजवादी योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था से मुक्त बाजार की तरफ शिफ्ट, और दूसरा, गुटनिरपेक्ष विदेश नीति से मुंह मोड़कर अमेरिका से संबंधों को मजबूती तथा गहराई प्रदान करना. अपने राजनीतिक जीवन के ढलते सालों में, वे अब एक और तीसरी युगांतरकारी बहस के केंद्र में हैं: “भ्रष्टाचार का कारण और उसका निवारण.”
मनमोहन सिंह वैसे तो अपने नाम से जुड़े उदारवाद और अमेरिकीकरण की तरह खुद कभी भ्रष्टाचार के प्रतीक नहीं रहे. इसके बावजूद कई लोग उनके नेतृत्व वाली सरकार को देश की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार मानते हैं. लेकिन भ्रष्टाचार पर बहस वास्तव में महज घोटालों, रिश्वतों और सरकार के बाहर और भीतर अनैतिक लोगों की धूर्त योजनाओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह बहस तो व्यवस्था के टूटने-बिखरने पर उस बढ़ते हुए डर को लेकर तथा उसकी मरम्मत करने वालों की उदासीनता के मुत्तालिक है.
अंततः मनमोहन सिंह की विरासत उनके हाथ से निकल चुकी है. देश को हैरान परेशान करने वाला अगर यह ढांचागत संकट किसी तरह सुलझ भी जाता है तो भी उनका स्थान इतिहास में महज “फुटनोट” से कहीं ज्यादा होगा. लेकिन अगर केंद्र, खुद को संभाल नहीं पाता तो मनमोहन सिंह को एक ऐसे शख्स के रूप में याद किया जाएगा, जिसने तूफान तो खड़ा किया, लेकिन उसे काबू में नहीं रख सका, जिसने बबूल के बीज बोए और आम की उम्मीद की.
(द कैरवैन के अक्टूबर 2011 में प्रकाशित इस प्रोफाइल का अनुवाद राजेन्द्र सिंह नेगी ने किया है. अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)