खानपान की आजादी

गोमांस के लिए संघर्ष एक जनवादी अधिकार

कलाकार चंद्रू की सिली-बुनी कामधेनु (2003) यह बताती है कि गाय, भले ही वर्तमान हिंदू धर्म में पूजी जाती है और जिसका बहुत सम्मान किया जाता है, वह एक जानवर ही है जो खाती है, गोबर करती है और अन्य जानवरों की तरह मर जाती है. जब गाय मर जाती है, तो उसकी लाश को ठिकाने लगाने का काम उन लोगों पर छोड़ दिया जाता है जिन्हें हिंदू जड़वादी सबसे ज्यादा कलंकित मानते हैं यानी दलित. चंद्रू / साभार एस आनंद
कलाकार चंद्रू की सिली-बुनी कामधेनु (2003) यह बताती है कि गाय, भले ही वर्तमान हिंदू धर्म में पूजी जाती है और जिसका बहुत सम्मान किया जाता है, वह एक जानवर ही है जो खाती है, गोबर करती है और अन्य जानवरों की तरह मर जाती है. जब गाय मर जाती है, तो उसकी लाश को ठिकाने लगाने का काम उन लोगों पर छोड़ दिया जाता है जिन्हें हिंदू जड़वादी सबसे ज्यादा कलंकित मानते हैं यानी दलित. चंद्रू / साभार एस आनंद

रोहित वेमुला ने 18 दिसंबर 2015 को अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा, “उपकुलपति ने अगर हमसे कहा होता कि हमारा निलंबन इसलिए किया जा रहा है क्योंकि हमने पिछले हफ्ते आंबेडकर जयंती, बाबरी मस्जिद विध्वंस दिवस और गोमांस उत्सव का आयोजन किया था, तो हमारे लिए यह बहुत फक्र की बात होती.” इससे एक दिन पहले, हैदराबाद यूनिवर्सिटी प्रशासन ने, जहां से रोहित अपनी पीएचडी कर रहे थे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के नेताओं के साथ मारपीट करने के इल्जाम में उनकी और चार अन्य छात्रों की बर्खास्तगी पर मोहर लगा दी थी. ये पांचों बर्खास्त किए गए छात्र दलित और आंबेडकर स्टूडेंट एसोशिएसन के सदस्य थे. 6 दिसंबर के दिन, जो बी.आर. आंबेडकर की बरसी और बाबरी मस्जिद ढहाए जाने का भी का दिन है, आंबेडकर स्टूडेंट एसोशिएसन ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया था, जिसमें सार्वजनिक तौर पर गोमांस परोसा गया. यह त्रिपक्षीय हमला, हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकारों को नागवार गुजरा: एक तो जाति-विरोध के सबसे महान प्रतीक को याद करना; दूसरा, हिंदू दक्षिणपंथियों द्वारा राजनीतिक हिंसा के सबसे बड़े प्रतीकात्मक कृत्य को गलीज हरकत के रूप में याद करना; और तीसरा, खुलेआम गोमांस परोसना. यही वह घटना थी, जिसने रोहित को जनवरी 2016 में अपना सबसे सशक्त राजनीतिक कदम उठाने के लिए बाध्य किया – यानि आत्मदाह. वे अपने पीछे एक नोट छोड़ गए, जिसका शीर्षक था: “मेरा जन्म एक जानलेवा हादसा था.” इस नोट में उन्होंने यूनिवर्सिटी प्राधिकारियों, तथा व्यापक स्तर पर, समूचे समाज को अपने साथ किए गए दुर्व्यवहार के लिए जिम्मेदार ठहराया.

हालांकि, हैदराबाद यूनिवर्सिटी में बीफ उत्सव का आयोजन करने वाला आंबेडकर स्टूडेंट एसोशिएसन पहला संगठन नहीं था. अपने पक्ष को दृढ़ता से पेश करने तथा विद्रोह के स्वरों को मुखर करने वाले ऐसे आयोजन पहले भी यहां किए जा चुके थे. अप्रैल 2011 में, हैदराबाद की इंग्लिश एंड फॉरेन लैंगुवेजिज की यूनिवर्सिटी ने भी दलित-आदिवासी-बहुजन अल्पसंख्यक एसोशिएसन एवं तेलंगाना स्टूडेंट एसोशिएसन द्वारा आंबेडकर का जन्म दिवस मनाने के लिए बीफ उत्सव का आयोजन किया था. इस उत्सव पर भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने हमला किया था. 2012 में, हैदराबाद में ही स्थित ओस्मानिया यूनिवर्सिटी भी आंबेडकर जन्मदिवस के अवसर पर बीफ उत्सव के दौरान हुई हिंसा की साक्षी रह चुकी थी. इस अवसर पर भी दलित, शूद्र, आदिवासी और मुसलमान छात्र मौजूद थे और यहां भी परिषद् के सदस्यों ने आयोजन स्थल पर हमला किया.

हैदराबाद यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र, सांबैया गुंडीमेदा ने कैंपस में बीफ स्टाल का इतिहास दिया:

. . . 2006 में सुकून उत्सव से कुछ महीने पहले दलित स्टूडेंट यूनियन ने दलील दी कि खाने के स्टालों में यूनिवर्सिटी समुदाय, जिसमें छात्र, प्रोफेसर और बाकी सदस्य शामिल हैं, की सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व नहीं होता है. दूसरे शब्दों में यह उत्सव उच्च जातियों और उनकी संस्कृति की ही नुमाईंदगी करता है. इसने आगे यह भी दलील दी कि एक सार्वजनिक संस्थान के रूप में यूनिवर्सिटी द्वारा अपनी जगह पर एक संस्कृति-विशेष को तरजीह नहीं दी जानी चाहिए. बल्कि इसे समान रूप से यूनिवर्सिटी समुदाय की सभी संस्कृतियों के साथ अपनी जगह को साझा करना चाहिए. संक्षेप में, यूनिवर्सिटी के सांस्कृतिक उत्सव में, भारतीय समाज की सभी संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए. प्रतिनिधित्व में समानता लाने के लिए दलित स्टूडेंट यूनियन ने मांग की कि उसे भी सुकून उत्सव में बीफ स्टाल लगाने की इजाजत दी जाए. इसके पक्ष में यह भी दलील दी गई कि बीफ, दलितों के मुख्य आहारों में से एक और दलित संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है. इसके अलावा, खानपान की यह संस्कृति,मुसलमानों और हिंदू पृष्ठभूमि की अन्य जातियों की संस्कृति से भी मेल खाती है. दलित स्टूडेंट यूनियन के एक नुमाइंदे के अनुसार, यूनिवर्सिटी प्रशासन की कार्यकारिणी के सदस्य इस मांग से चिढ़ गए और उन्होंने तत्काल ही यूनिवर्सिटी कैंपस में गोमांस परोसे जाने की इस मांग को यह कहकर खारिज कर दिया कि इससे कैंपस में सांप्रदायिक और जातिगत तनाव पैदा हो सकता है.

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ने भी पीछे न रहने की ठानी. द न्यू मटेरियालिस्ट नामक छात्र समूह ने कैंपस में “बीफ और पोर्क फेस्टिवल” आयोजित करने का फैसला किया. इसने दलील दी:

. . . जब हमने बीफ और पोर्क फेस्टिवल के बारे में अपने तथाकथित कॉमरेडों से पूछा तो उनका कहना था कि यह एक भड़काऊ मुद्दा है. उन्होंने हमें अपने कमरों में बीफ और पोर्क बनाने की सलाह दी और कहा कि वे भी खाने जरूर आएंगे. मतलब उनके लिए कमरों में इसे बनाने तक तो ठीक था, लेकिन जश्न के रूप में खुलेआम मनाने से दिक्कत थी. क्योंकि सार्वजनिक जगहें, केवल ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक आधिपत्य की ही इजाजत देती थीं. देश में सावर्जनिक जगहें, सही मायनों में आज तक सार्वजनिक नहीं हैं. हिन्दुओं को छोड़कर, मुसलमानों, बौद्धों, इसाईयों तथा अन्य समुदायों के लिए तो कम से कम नहीं ही. देश में सार्वजनिक स्थान, हिंदू ब्राह्मणवादियों की निजी बपौती है, इसलिए वहां किसी को आने-जाने की इजाजत नहीं. हैदराबाद समेत देश के कई शहरों में बीफ बेचने वाली दुकानों को भीतरी कोनो में धकेल दिया गया है. देश में लोकतांत्रिक जगहें लगातार सिकुड़ती जा रही हैं और जेएनयू भी इसमें अपवाद नहीं हैं.

यह आयोजन संपन्न नहीं हो पाया. विश्व हिंदू परिषद् के एक कार्यकर्ता ने इसे रोकने के लिए दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. दिल्ली एग्रीकल्चरल कैटल प्रिजर्वेशन एक्ट, 1994 के तहत अदालत ने इस आयोजन पर रोक लगा दी.

2017 में केंद्र सरकार द्वारा देश भर में मवेशियों के कारोबार पर लगी पाबंदियों को और अधिक सख्त कर दिया गया. अब मवेशियों को बेचने के लिए हाटों में तभी ले जाया जा सकता है, जब ले जाने वाला घोषित करे कि उन्हें कृषि-संबंधी कामों के लिए बेचा जाएगा, न कि वध करने के लिए. इस नए कानून ने गौ-रक्षक गुंडों के लिए मवेशियों का कारोबार करने वालों को अपना शिकार बनाना आसान और किसानों के लिए बूढ़ी गायों को बेचकर जवान और दुधारू गायों को खरीदना असंभव बना दिया. फलस्वरूप, मवेशी पालने वाले समुदाय, जिनमें अधिकतर प्रताड़ित जातियां शामिल हैं और वे जिन्होंने हिंदू धर्म को अस्वीकार कर अन्य धर्म अपना लिया था, गाय के दुश्मन लगने लगे. बावजूद इसके कि सदियों से उन्होंने ही गायों को पाला-पोसा और मवेशी अर्थव्यवस्था को जिलाए रखा है. आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल के बैनर तले आईआईटी मद्रास के छात्रों ने बीफ फेस्टिवल को लेकर, जिसमें कुछ गैर-दलित छात्रों ने भी हिस्सा लिया था, सरकार के कदमों का विरोध किया. हालांकि, गौकशी पर तमिलनाडू में पाबंदी लागू नहीं है, फिर भी इस मुद्दे पर छात्र समूहों में आपस में भिड़ंत हो गई. पिछले साल के अंत में, इसी आईआईटी में शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों को अलग-अलग बिठाना शुरू कर दिया गया.

चंद्रू के ट्रिप्टिच (त्रिफलक) (2001) में गुफा चित्रों, मंदिर की मूर्तिकला और समकालीन कला में गाय के बारे में मानवीय विचारों में विकासक्रम दिखाई देता है. करीबी अध्ययन पर, तीनों पैनल एक लाल बिंदु और पीले रंग के क्षैतिज पट्टी से जुड़े हुए हैं -यह तिलक के घटक भाग होते हैं. चंद्रू / साभार एस आनंद

खानपान के अपने अधिकार एवं संस्कृति बचाने की खातिर, दलितों व हाशिए पर रहने वाले समुदायों द्वारा बीफ उत्सव का आयोजन, सफल या असफल, अखिल भारतीय आंदोलन बन गया. ऐसा करके वे कई बार अपनी जान तक खतरे में डाल रहे होते हैं. एक शूद्र बुद्धिजीवी होने के नाते मैंने भी कई बार ऐसे आयोजनों में हिस्सा लिया है. रोहित भी इसी आंदोलन का हिस्सा थे. वे उस नई पीढ़ी के कार्यकर्ताओं में शुमार थे, जो अपने से पिछली पीढ़ी के उलट जाति और जाति-विरोधी राजीनति के प्रति सजग थे. इसमें कोई शक नहीं कि देश में पहले भी वामपंथी और उग्र छात्र आंदोलन होते रहे हैं, लेकिन उनमें से किसी ने भी बीफ के सवाल पर कभी गौर नहीं किया, न ही इस सवाल पर कि उनकी थालियों में क्या परोसा जाता है और क्या नहीं. हालिया वर्षों में, बीफ खाने या रखने के शक, गौकशी, जानवर का चमड़ा निकालने या महज गाय को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के आरोप में दलितों और मुसलमानों पर होने वाले हमलों को वाजिब तौर पर खासी सुर्खियां मिली हैं. लेकिन बीफ खाने के अधिकार और परंपरा को लेकर किए गए तकादे उतनी सुर्खियां नहीं बटोर पाए.

इसी पृष्ठभूमि के बरक्स हमें बी.आर. आंबेडकर द्वारा 1948 में लिखित पुस्तक - अछूत: वे कौन थे और क्यों अछूत बने? – में गाय और गोमांस खाने को लेकर की गई ऐतिहासिक पड़ताल के संबंध में उनके कथन पर विमर्श करना होगा.

आंबेडकर की दलील उनसे पहले के इंडोलोजिस्ट से भी इत्तेफाक रखती प्रतीत होती है. उनका मानना था कि चौथी सदी के करीब, ब्राह्मणवाद का सामना बौद्ध धर्म के जनवादी और समतावादी सिद्धांतों से हुआ, खासकर, इसके अहिंसा के संदेश से. इन सिद्धांतों को अपनाने के क्रम में, गाय केंद्र में आ गई. जबकि अपनी पवित्रता के तमगे के चलते, गायों की बलि दी जाती थी. अब वही पवित्रता उनकी हिफाजत का बहाना बन गई. हालांकि, गांवों की परिधि से बाहर रहने वाले ‘ब्रोकन मैन’ (खण्डित व्यक्ति) के रूप में रहते थे जिनका कर्तव्य मृत गायों को एकत्रित करना और उनका मांस खाना था, वे भी घृणा के पात्र बन गए. उनकी अपमानित स्थिति और गरीबी ने उन्हें छोड़ा हुआ मांस खाने के लिए मजबूर किया, जिसने भेदभाव की नई किस्म “छुआछूत” को जन्म दिया. आंबेडकर के अनुसार, ये ब्रोकन मैन बौद्ध थे. ये भिक्षु नहीं बल्कि वे लोग थे जिनके स्थानीय आराध्यों को घुमंतू भिक्षुओं ने, बौद्ध देवालयों को जज्ब कर लिया था. हालांकि, अधिकतर जातियां मांस का खातीं थीं, लेकिन उपर्युक्त कारकों की वजह से मृत गायों का सेवन करना जारी रखने वाले ब्रोकन मैन का समाज से बहिष्कार हुआ. इस तरह उत्पीड़न की एक नई श्रेणी ने जन्म लिया.इससे यह आसानी से समझ में आता है कि सूअर, भेड़, बकरी, मुर्गी या पक्षी का सेवन करने वाली जातियां, उनके साथ क्यों किसी किस्म का समन्वय नहीं बिठा पाईं.

आंबेडकर का लेखन एक ऐसे समय प्रकाशित हुआ, जब गाय-संबंधित कोई भी बहस, केवल हिंदू-मुसलमान के बीच का मसला बन चुकी थी. आंबेडकर ने इसका फोकस बदलने का प्रयास किया और गोमांस आहार के जातिगत पहलू को लेकर अंग्रेज और इस्लाम पूर्व इतिहास की बात कर जोरदार तरीके से स्थापित किया. उन्होंने अपने अध्ययन का आधार ब्राह्मणों द्वारा लिखित प्राचीन साहित्य और उनके मुत्तालिक हुए अन्य शोधों को बनाया और गाय को लेकर होने वाली हर बहस में ब्राह्मणों को, उनके ही साहित्य का हवाला दिया.

मैं यहां अपना समय आंबेडकर की परिकल्पना को परखने में नहीं बिताना चाहता. आज गो-मांसाहार तथा अस्पर्श्यता के बीच संबंध ज्यादा स्पष्ट हो चुके हैं. इतिहास पर नजर और आंबेडकर की प्रस्थापना को ध्यान में रखते हुए, मेरा सरोकार आज के प्रकट होते वर्तमान से है और साथ ही इससे कि कैसे एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष राज्य द्वारा इस पर प्रतिबंध लगाना, देश के सबसे गरीब तबके की जीविका और खानपान पर सीधे प्रहार करता है और अपने ही नागरिकों के एक बड़े समूह को कैसे अपराधी बना डालता है. गोमांस खाने और मवेशी व्यापार पर लगे प्रतिबंध से यह साबित होता है कि इस देश में सरकारें, अदालतों के साथ मिलकर, अस्पर्श्यता के सबसे घिनौने स्वरुप को अंजाम दे रही हैं. गोमांस खाने वाले तमाम दलित, मुसलमान और आदिवासी समुदाय आज अपने ऊपर एक खतरा मंडराता देख रहे हैं. इसलिए भी इस चलन की तह में जाना जरूरी हो जाता है.

‘अछूत कौन और कैसे बने' किताब पर काम करते समय, आंबेडकर संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति में भी थे. लेकिन अफसोस कि यह दस्तावेज गाय के सवाल को लेकर, उनके सरोकारों का संबोधन करता नजर नहीं आता. जबकि आंबेडकर और नेहरू जैसे आधुनिकतावादी संविधान में गोकशी को लेकर धार्मिक आधार पर प्रतिबन्ध लगाने के पक्ष में नहीं थे, परंतु जाहिर तौर पर बंटवारे के बाद हुई हिंसक वारदातों के चलते उन पर हिंदू दक्षिणपंथियों का बेहद दबाव था.

तथाकथित स्वाधीनता आंदोलन से पहले के सालों में ही हिंदू दक्षिणपंथी और मोहनदास गांधी जैसी महत्वपूर्ण शख्सियतों ने, हिंदू परंपरा में गाय की विशेष महिमा पर बल देना शुरू कर दिया था. पत्रकार अक्षयमुकुल ने अपनी हालिया किताब ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया’ में दर्शाया है कि कैसे सुधारक संगठन, आर्य समाज (स्थापना 1875), हिंदू महासभा (स्थापना 1915) और गीता प्रेस (स्थापना 1923) ने खासकर मुसलमानों पर धौंस जमाने के लिए, ऊंची जाति के हिंदुओं को गाय को लेकर उन्माद को हवा दी. मुकुल ने मारवाड़ियों द्वारा गौ-रक्षा अभियान चलाए जाने को फंड करने के इतिहास को भी कुरेदा है.

गांधी, जिनके आश्रमों और आंदोलनों का पैसा अमीर मारवाड़ियों से आता था, ने इसे गो-सेवा कहकर बुलाना शुरू किया. 1941 में उन्होंने उद्योगपति जमनालाल बजाज की मदद से गो-सेवा एसोशिएसन की स्थापना की. हालांकि, गांधी ने गोकशी को लेकर कानूनी प्रतिबंध लगाने की वकालत नहीं की, लेकिन उन्होंने दलील दी कि मुसलमानों को खुद से बीफ खाना बंद कर देना चाहिए. एक बार उन्होंने लिखा, “मेरा धर्म मुझे सिखाता है कि मैं अपने आचार-व्यवहार से उन लोगों के दिलों में आत्मविश्वास जगाऊं, जो मुमकिन है मुझसे अलग विचार रखते हों. इसलिए किसी की इस आस्था के लिए कि गो-हत्या पाप है, इससे तौबा कर लिया जाना चाहिए.”

गांधी का मानना था कि शाकाहार नैतिक एवं पोषण के लिहाज से बेहतर है. उन्होंने यह भी ताकीद की कि “अछूत” जातियों को मांसाहार पूरी तरह से त्याग देना चाहिए. जबकि ब्राह्मणों और बनियों से उन्होंने कभी गायों को चराने या चमड़े के काम में हाथ आजमाने के लिए नहीं कहा. मवेशियों के साथ किया जाने वाला काम, आज भी अपमानित जातियों से लिया जाता है (गांधी ने इशारों-इशारों में यह भी कहा था कि मैला उठाने वाली जातियों को अपने काम पर गर्व करना चाहिए और बदले में कुछ अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए).

कानूनविद रोहित डे ने अपने लेख, “काओज एंड कंस्टीट्यूशन” में लिखा है कि गांधी ने 1947 में दिल्ली में अपनी प्रार्थना सभा के दौरान एकत्रित लोगों के सामने कहा कि कैसे “देश भर में गौकशी के खिलाफ कानून बनाने की भावात्मक लहर उठ रही है.” उन्होंने अपनी बात में आगे जोड़ते हुए यह भी कहा कि उन्हें नेहरू और पटेल को गौ-रक्षा कानून लाने हेतु मनाने के लिए रोजाना सैकड़ों टेलीग्राम प्राप्त होते हैं.

समाज विज्ञानियों की पीढ़ियां, गांधी से बेहद मुत्तासिर रही हैं. लेकिन दमित जातियों के विद्वान् अब इसे चुनौती देने लगे हैं. मिसाल के तौर पर क्रिस्टीना सथ्यमाला ने “स्ट्रकचरल वायलेंस ऑफ हिंदू वेजीटेरियनिज्म” के बारे में आलोचनात्मक लेख लिखा है:

हालांकि, गांधी हर प्रकार के मांसाहार को नापसंद करते थे, लेकिन उनकी उच्च-जातीय संवेदना, खासकर बीफ खाने वालों के खिलाफ ज्यादा झलकती थी. इसी वजह से उनके सुधारवादी ढिंढोरे का शिकार "अछूत" जाति समूह बने, जो खुले रूप से गोमांस सेवन करते थे. "अछूत" जाति में जन्मे आंबेडकर ने हिंदुओं की वर्चस्व खानपान की आदतों को दर्शाया और इस अन्यायपूर्ण जाति व्यवस्था के भौतिक आधार को उजागर किया.

संविधान सभा की बहसों के दौरान, सैयद मोहम्मद सादुल्ला, फ्रैंक एंथनी और अन्यों ने गाय के सवाल पर स्पष्टीकरण मांगा. लेकिन अचरज कि सभा की बहसों में न तो नेहरू और न ही आंबेडकर ने गौरक्षा के संबंध में कुछ भी महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया. इसके उलट, मारवाड़ी हितों के पक्षधर, सभा के अन्य सदस्यों ने इस मामले को लेकर ब्राह्मणों के सुर में सुर मिलाया. इनमें इस विषय पर बोलने वालों में सबसे मुखर स्वर थे: सेठ गोविंद दास, पंडित ठाकुर दास भार्गव, शिबन लाल सक्सेना, राम सहाय और रघु वीरा. ये सभी गोकशी के खिलाफ कानून लाने की मांग कर रहे थे और चाहते थे कि गाय के संरक्षण को मौलिक अधिकार बनाया जाए.ड्राफ्टिंग कमिटी के बतौर सदस्य, आंबेडकर ने यह कहते हुए कि मौलिक अधिकार इंसानों को लेकर तय किए जाएं, न कि जानवरों से की मांग को सिरे से खारिज कर दिया. उन्हीं की वजह से भारत, दुनिया में जानवरों को मौलिक अधिकार देने वाला इकलौता देश बनने से बच गया. हालांकि फिर भी गाय को लेकर सरोकारों ने, संविधान में अपनी जगह तलाश ही ली और इसे अस्पष्ट भाषा के साथ संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल कर लिया गया. संविधान के अनुच्छेद- 48 में “कृषि एवं पशुपालन संगठन” का टाइटल के साथ इसे संविधान में जगह मिली, जिसमें कहा गया, “राज्य कृषि एवं पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक बनाने की दिशा में प्रयासरत रहेगा, खासकर उनकी नस्ल को बचाने और सुधारने की दिशा में. राज्य गायों और उनके बछड़ों तथा अन्य दुधारू जानवरों की हत्या रोकने में प्रयासरत रहेगा.” आंबेडकर ने सुनिश्चित किया कि अनुच्छेद- 48 में धार्मिक भाषा का उल्लेख न आने पाए.

अगर यह मौलिक अधिकार होता तो गाय संरक्षण अनिवार्य तौर पर लागू किए जाने वाला कानून बन जाता. संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में इसके शामिल किए जाने के कारण इसे गैर-न्यायसंगत माना गया, अर्थात इसे कानूनी तौर पर अपराध नहीं माना गया. हालांकि, भारतीय संघ के अलग-अलग राज्य इस संबंध में कानून बनाने के लिए मुक्त रखे गए. यही कारण है कि आज भी केरल, तमिलनाडु या उत्तर-पूर्व के राज्यों में बीफ या गोमांस आसानी से उपलब्ध हो जाता है, जबकि दिल्ली, मध्य प्रदेश या गुजरात में यह मुशकिल है.

1950 में, संविधान के लागू होने के पश्चात बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सबसे पहले गोकशी पर पाबंदियां लगाई गईं. वह भी कथित तौर पर धर्मनिरपेक्ष कहने वाली कांग्रेस के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों द्वारा. उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के समय से ही कांग्रेस के अंदर हिंदू दक्षिणपंथियों को जगह मिलनी शुरू हो गई थी. भारतीय जनता पार्टी की गो-रक्षा को लेकर आसक्ति महज दक्षिणपंथ, जाति प्रेम, अछूत-घृणा, हिंदूवादी विचारधारा के प्रेम से पोषित है, जिसे कांग्रेस में गांधीवादियों से लेकर कम्युनिस्ट तथा ब्राह्मण समाजवादियों ने हवा दी है. 2018 में, मध्य प्रदेश में बीजेपी सरकार को अपदस्थ कर, सत्ता संभालने वाली कांग्रेस सरकार ने भी गोरक्षा करने और गौशालाएं बनाने की अपनी प्रतिबद्धता पर जोर दिया. गांधी की बरसी 30 जनवरी 2019 के दिन कांग्रेस के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने ऐलान किया कि उनकी सरकार, आने वाले महीनों में एक लाख आवारा गायों को शरण देने हेतु राज्य में एक हजार गौशालाओं का निर्माण करेगी. इस बात का आश्वासन देते हुए कि सरकार अपने वायदे पर कायम है, मार्च महीने तक उन्होंने विदिशा में 36 ऐसी गौशालाओं की आधारशिला रख दी.

आंबेडकर से पहले और बाद में भी, ब्राह्मण विद्वानों को यह बात दिन के उजाले की तरह साफ थी कि वैदिक ब्राह्मण गौहत्या और गोमांस का सेवन करते थे, लेकिन उन्हें अछूत नहीं माना गया. उपर्युक्त सत्य स्वतंत्रता से पूर्व पी.वी.काने तथा हाल के वर्षों में डी.एन. झा की लेखनी में भी झलकता है. मिथ ऑफ द होली काऊ में, झा लिखते हैं:

ऋग्वेद में इसका जिक्र बार-बार आता है कि ईश्वर, खासकर इंद्र देव, को चढ़ावे स्वरूप बैल की आहुति दी जाती थी ...एक जगह पर इंद्र देवता कहते हैं, “वे मेरे लिए पंद्रह जमा बीस बैलों का मांस पकाते हैं.” इंद्र के बाद दूसरे स्थान पर अग्नि देवता आते हैं ...उनका मुख्य भोजन घी है. ऋग्वेद के अनुसार, सभी मनुष्यों के रक्षक माने जाने वाले अग्नि देव का “मुख्य भोजन बैल और बांझ गाय है.”

बाद के वैदिक साहित्य में गो-बलि के अनुष्ठानों के बारे में विस्तार से बताया गया है. अकेले गोपथ ब्राह्मण ने तो इस संदर्भ में इक्कीस किस्म के यज्ञों का जिक्र किया है, हालांकि वे अनिवार्य तौर पर मवेशी बलि की बात नहीं करते. इंद्र देव को बैल, मारूती को चितकबरी और अश्विन को ताम्रवर्णी गाय की बलि दी जाती थी. गाय की बलि मित्र और वरुण देव को भी दी जाती थी ...तैत्रीय ब्राह्मण स्पष्ट रूप से गाय की बलि और उसके सेवन के बारे में लिखते हैं. वे सौ बैलों की बलि चढ़ाने वाले अगस्त्य ब्राह्मण की भी तारीफ करते हैं.

बलि चढ़ाए गए जानवर मनुष्य का भोजन बनते थे यह बात तैत्रीय संहिता से बिलकुल साफ हो जाती है, जो बताता है कि जिबह कैसा किया जाता था और जानवर के मांस को कैसे बांटा जाता था. अथर्ववेद में गोपथ ब्राह्मण, समित्र द्वारा गला घोंट कर मारे गए जानवर के छत्तीस हिस्से करने की बात कर इसे और स्पष्ट कर देते हैं.

इसके बावजूद, काने और झा जैसे विद्वानों ने भी आधुनिक युग की अस्पर्श्यता और बीफ खाने की परंपरा के जुड़ाव को वैसे नहीं खंगाला, जैसे आंबेडकर ने खंगाला था. चूंकि जाति को नैतिकता या झूठी बराबरी के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, इसलिए गोमांस खाने को छुआछूत से जोड़कर देखना घोर अतार्किक बात है. अगर गोमांस खाना छुआछूत का मानदंड है, तो फिर क्यों उसे छोड़ देने के बाद भी इस वजह से लगा कलंक नहीं जाता? दलितों में ऐसे कई हैं जो गोमांस नहीं खाते, इसके बावजूद वे छुआछूत का शिकार हैं.

पेरियार ने यह दलील 1926 में रखी थी:

वे तुममें खामियां निकालते हैं. उन्हें तुम्हारे बदन से बू आती है. तुम नहाते नहीं हो. अपने कपडे नहीं धोते, गोमांस खाते हो, शराब पीते हो. वे उपदेश देते हैं कि तुम्हें यह सब कुछ छोड़ देना चाहिए ...महज इतना भर कह देना ईमानदारी नहीं है कि गोमांस खाना और शराब पीना तुम्हारे अछूत होने का कारण है. असल में गोमांस खाने और शराब पीने वाले आज दुनिया पर राज कर रहे हैं. इसके अलावा, अगर तुम गोमांस खाते हो तो इसमें गलती तुम्हारी नहीं है. तुम्हें कभी कमाने नहीं दिया गया, अच्छा खाने नहीं दिया गया, रास्तों पर चलने नहीं दिया गया, स्वच्छंद घूमने और कमाने नहीं दिया गया, अपने सीमित साधनों के साथ तुम्हें अपना पेट भरने के लिए मजबूर किया गया ...मेरा निष्कर्ष है कि यह तुम्हें निचले दर्जे का बनाए रखने की एक बेईमान चाल है. मैं इस बात पर आपत्ति नहीं कर रहा कि गोमांस खाना और शराब पीना छोड़ दिया जाना चाहिए. लेकिन जब कुछ यह कहते हैं कि तुम ये आदतें छोड़ दो तो जाति के पायदान पर ऊपर हो जाओगे, मुझे ऐसी गैर-ईमानदारी पर आपत्ति होती है. मैं तुमसे जाति के इस पायदान पर महज थोड़ा और ऊंचा उठने की खातिर, गोमांस खाना या शराब छोड़ने के लिए नहीं कहूंगा. उसके लिए तुमको यह सब करने की जरूरत नहीं है ...ऐसी चीज त्यागने का, जिसे सभी खाते-पीते हों, ऊंची जाति का बनने से कोई लेना-देना नहीं है. इसलिए अगर कोई यह कहता है कि ऊंची जाति में आने के लिए गोमांस खाना और शराब पीना छोड़ दो, तो मैं कहूंगा यह कोरा झूठ है.

दलितीकरण में ही मुक्ति है. यह दार्शनिक और भौतिक तौर पर उससे उलट है जिसे एम.एन श्रीनिवास और आंद्रे बतेई और उनके जैसे सवर्ण समाजशास्त्री संस्कृतिकरण केहते हैं. जिसमें उच्च जातियों की नकल की आकांक्षा से जाति के पायदान पर ऊपर उठने की मंशा जताई जाती है, जिसके सबसे ऊपरी पायदान पर ब्राह्मण विराजमान हैं, भले ही वे सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अल्पसंख्यक हों. दलितीकरण महज गोमांस खाना नहीं है बल्कि सम्मान के प्रश्नों, खान-पान की संस्कृति और काम के प्रति नजरिया बदलने भी है. यह बराबरी की तरफ एक कदम है. दलितीकरण, पवित्रता-अपवित्रता तथा ऊंच-नीच के छद्म बंटवारे को नकारने और समाज को जनतांत्रिक दिशा में ले जाना है. किसी अन्य को गोमांस खाने के लिए मजबूर करना, दलितीकरण नहीं है. यह जरूर दलितों और मुसलमानों से उनके गोमांस एवं अन्य मनमर्जी का खाने के अधिकार को छीनने के खिलाफ है. दलितीकरण का मकसद शाकाहार के इर्द-गिर्द बुने गए झूठे और अप्राकर्तिक तर्क का विरोध करता है, जिसे हिंदू समाज पर जबरन और हिंसक रूप से थोप दिया गया है.

भारत में सावर्जनिक रूप से गोमांस या सूअर का मांस परोसना बिल्कुल वैसा ही है जैसे आंबेडकर ने अछूत जातियों को 1927 में महाड़ की चवदार ताल से पानी निकालने के लिए कहा था. इस अवसर पर आंबेडकर ने कहा, “हम चवदार में सिर्फ पानी पीने के लिए नहीं जा रहे हैं. हम वहां इसलिए भी जा रहे हैं ताकि यह जोर देकर कह सकें कि हम भी दूसरों की तरह इंसान हैं. यह साफ कर दिया जाना चाहिए कि यह बराबरी के लिए लिया जाने वाला कदम हैं.”

बीफ उत्सव का आयोजन करने वालों का कहना है कि गोमांस परोसकर वे सिर्फ अपनी भूख नहीं मिटा रहे होते हैं, बल्कि अपने इंसान होने की भी पुष्टि कर रहे होते हैं, और यह कि जो खाना वे खाते हैं वह भी इंसानों का खाना ही है. हर बीफ उत्सव बराबरी को कायम करने वाला स्थान है. उत्पीड़ित समुदायों के लिए गोमांस खाना छोड़ना न तो व्यवहारिक है और न ही आर्थिक रूप से वांछित. इसके अलावा, भारत का यह दावा है कि वह पृथ्वी पर सबसे बड़ी जनसंख्या वाला जनतांत्रिक देश है. अगर जनतंत्र की पहली सैद्धांतिक शर्त, बराबरी है तो बराबरी की शुरुआत भोजन तथा अपनी पसंद एवं जरूरत का खाना खाने के अधिकार से होनी चाहिए. कौन क्या खाता है इस पर तब तक कोई कानून नहीं बनना चाहिए जब तक यह बात विलुप्तप्राय: जानवरों को लेकर या अपनी ही प्रजाति का मांस खाने को लेकर न हो, जिसे वैसे भी असामान्य माना जाता है. जहां तक विलुप्तप्राय: जीवों का संबंध है, वेतो हमेशा अमीरों का शिकार बनते आए हैं. असलियत में भारतीयों में गोमांस खाने की परंपरा बहुत ज्यादा रही है. ब्राहमणवादी सोच वाले इसे माने या न मानें. हैदराबाद और अन्य शहरों में बीफ स्टालों पर सिर्फ दलितों और मुसलमानों की ही भीड़ नहीं होती बल्कि इनमें चुपके-चुपके अन्य समुदाय के लोग भी शामिल होते हैं. कई सारे गैर-दलित समुदायों के लोगों द्वारा, जिनमें शूद्र और उच्च जातियां भी शामिल हैं, बाखुशी गोमांस खाते पाए जाने की कहानियां अक्सर सुनने को मिलती रहती हैं. हालांकि उनमें से बहुत कम ही इसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करते दिखते हैं.

राजश्री गुडी की "लाल भाजी" (2019) महाराष्ट्र में कुछ दलित समुदायों द्वारा खाए जाने वाले इसी नाम के एक व्यंजन को दर्शाती है. लाल भाजी - शाब्दिक रूप से, "लाल सब्जी" - व्यापक रूप से साग के रूप में खाई जाती है, लेकिन दलित इसे बीफ के लिए एक कोड शब्द के रूप में प्रयोग करते हैं, ताकि दूसरों को यह पता न चले कि वे क्या खा रहे हैं. चीनी मिट्टी के टुकड़े गोमांस, पूरियों और हड्डियों को दर्शाते हैं जिन्हें हिंदू जाति कानूनों की आधार पुस्तक मनुस्मृति की लुगदी से बने लाल कागज पर रखा गया है और हड्डी के टुकड़ों को किताब के पन्नों से भरा गया है. गुडी ने उस शर्म को उभारने की कोशिश की है जो कई दलितों को इसलिए महसूस करनी पड़ती है कि उन्हें बीफ खाने वालों से जोड़ा जाता है उनका अपना परिवार शाकाहारी हो गया और अब बीफ खाने वालों को देखकर नांक-भौं सिकोड़ता है. वे बीफ खाने को शर्म के बजाए जातिगत विश्वास के प्रतिरोध से जोड़ने की कोशिश करती हैं. मनुस्मृति का अपनी लाल भाजी में एक जरूरी "मसाले" के रूप में उपयोग करना मुखरता और रक्षा का कार्य है. साभार/राजश्री गुडी

इसमें कोई शक नहीं कि भारत के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष-उदारवादी बुद्धिजीवी गोमांस को लेकर प्राय: बहुत नकचड़े होते हैं. अगर वे गोमांस का सेवन करते भी हैं, तो सुरक्षित पांच-सितारा होटलों या विदेश यात्राओं के समय ही करते हैं. किसी कांफ्रेंस या यूनिवर्सिटी कैंपस के प्रांगण में गोमांस परोसे जाने के पक्ष में वे विरले ही आवाज उठाते देखे जाते हैं. केरल ही एक ऐसा प्रदेश है जहां कुछ ब्राह्मणों को छोड़कर लगभग सभी को गोमांस से कोई परहेज नहीं. यहां तक कि अपने नेतृत्व में ब्राह्मण प्रभुत्व वाला भारतीय वामपंथ भी चैन्नई और हैदराबाद जैसी जगहों पर भी, जहां गोमांस बेचे जाने पर किसी किस्म की पाबंदी नहीं है, इसके खाने के अधिकार का सवाल नहीं उठाता.

2015 में, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता एवं कोलकाता के पूर्व मेयर विकाश रंजन भट्टाचार्य ने, मोहम्मद अखलाक की मौत के बाद, जिनकी गो-वध करने के झूठे आरोप के चलते हिंदू भीड़ ने हत्या कर दी थी, आयोजित एक बीफ पार्टी में हिस्सा लिया. इस बीफ पार्टी का आयोजन पश्चिम बंगाल, जो दशकों तक कम्युनिस्टों का गढ़ रहा है और जहां लगभग एक चौथाई मुसलमान और दलित बसते हैं, में किया गया गया था. इसके लिए भट्टाचार्य की करीब सभी वामपंथी दलों के नेताओं द्वारा कड़ी भर्त्सना हुई, द हिंदू ने लिखा:

मीटिंग के दौरान, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के राज्य सचिवालय के सदस्य स्वपन बनर्जी ने कहा कि भट्टाचार्य को इस आयोजन में हिस्सा नहीं लेना चाहिए था क्योंकि इससे समाज में एक गलत संदेश जाता है. उन्होने यह भी कहा कि भाकपा नेतृत्व आयोजकों द्वारा इस घटना को मीडिया में तूल दिए जाने पर भी अपनी नाराजगी जाहिर करता है. “बनर्जी ने आश्चर्य जताया कि भट्टाचार्य इस विरोध में शामिल होकर क्या साबित करना चाह रहे थे? उन्होंने कहा खानपान, किसी की व्यक्तिगत पसंद का मामला है. अगर उन्हें गोमांस खाना ही था तो वे अपने घर पर भी खा सकते थे,” फ्रंट के नेता ने कहा. फ्रंट के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, फॉरवर्ड ब्लॉक के वरिष्ठ नेता हाफिज आलम सैरानी ने भी भट्टाचार्य की निंदा की. “वाम मोर्चे के अध्यक्ष बिमान बासु ने भी माना कि बेहतर होता अगर भट्टाचार्य इस आयोजन में शिरकत न करते.”

1995 में, जब मैं वाम विचारधारा रखने वाली आन्ध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज का सदस्य था, मैंने इसके वार्षिक सम्मलेन में गोमांस परोसे जाने की मांग रखी. ऐसी मांग की पहले कोई मिसाल नहीं थी. इसके ब्राह्मण नेताओं ने इस मसले पर चुप्पी साध ली. गोमांस परोसे जाने का सालों से बहिष्कार किया जाता रहा है. बुर्रा रामुलू नामक एक शूद्र सदस्य ने गोमांस का इन्तजाम भी कर दिया था. मुझे याद है कि के. बालागोपाल के अलावा उसे किसी ब्राह्मण सदस्य ने नहीं खाया.

राजश्री गुडी की "लाल भाजी" साभार/राजश्री गुडी
राजश्री गुडी की "लाल भाजी" साभार/राजश्री गुडी

संस्कृतिकरण में ब्राह्मण की छवि एवं दुर्लभ, अस्पष्ट तथा अलगाववादी संस्कृत भाषा को हमेशा, आकांक्षाकारी आदर्श के रूप में दिखाया जाता है; जबकि दलितीकरण के लिए हमें गोमांस सेवन और मेहनतकश अछूत को जरूरी तौर पर अपनाना होगा. अगर धर्मनिरपेक्ष और प्रबुद्ध जन कहे जाने वाले लोग, गोमांस को केवल दलितों और मुसलमानों के खाने के रूप में देखना बंद कर दें तो इससे जाति ग्रस्त हिंदुत्ववादियों पर ऐसी चोट पड़ेगी, जो किसी उत्पीड़ित जाति के बौद्ध या अन्य किसी धर्म में परिवर्तित होने से भी ज्यादा घातक साबित होगी. इससे उत्पीड़ित जातियों पर खुद को बदलने का दबाव भी कम होगा, जिन्हें अक्सर ब्राह्मण समाज के कायदों के अनुसार खुद को ढालने के लिए कहा जाता है. अगर सदियों से शाकाहार के आदर्श को हमारे गलों में ठूंसा जाता रहा है तो यही वक्त है जब हमें गोमांस सेवन के अपने अधिकार को जोर-शोर से पेश करना चाहिए.

भैंसों और गायों के मामले में सबसे अधिक संख्या वाला देश होने के नाते, भारत बीफ का सबसे बड़ा निर्यातक है. 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, मूल्य की दृष्टि से बीफ ने निर्यात होने वाले कृषि उत्पादों में, बासमती को भी मात दे दी थी. इससे किसको फायदा पहुंचा? भारत में सबसे बड़ा कसाई खाना हैदराबाद की “अल कबीर एक्सपोर्टस” नामक कंपनी चलाती है. इस संयुक्त कंपनी पर मालिकाना हक किसी सतीश अग्रवाल का है, जो एक पंजाबी खत्री हैं और दूसरे मालिक गुलामुद्दीन शेख हैं. बड़े बीफ निर्यातकों में “अल नूर” नामक कंपनी भी है, जिसका मुख्यालय दिल्ली में है. इस पर भी मालिकाना हक किसी सूद पंजाबी खत्री का है (इन कंपनियों के नाम अरबी जुबान में इसलिए हैं क्योंकि वे अधिकांशत: अरब देशों में निर्यात करती हैं; गैर-अरबी मुल्कों को ये कंपनियां किसी अन्य नाम से सप्लाई करती हैं). गोमांस निर्यातकों में अन्य कई सारी कंपनियों के मालिक भी उच्च जातियों से संबंधित हिंदू हैं. इसके बावजूद, गौहत्या के लिये किसी उच्च जाति के हिंदू का उस तरह तिरस्कार नहीं किया जाता, जैसे मुसलमानों और दलितों का किया जाता है.

आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के अनुसार, जहां एक तरफ भारत दुनिया भर में बीफ निर्यातक है; वहीं दूसरी तरफ देश में प्रति व्यक्ति गोमांस और बछड़े के मांस का सेवन सबसे कम है. हर इथोपियाईके 2.6 किलो, वियतनामी के 9.3 किलो और अमरीकी के 26.1 किलो के मुकाबले, भारतीयों द्वारा सालाना तौर पर औसतन आधा किलो बीफ खाया जाता है. देश में 44 प्रतिशत, यानी 4.8 करोड़, बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. इनमे से 45 प्रतिशत अविकसित और 20 प्रतिशत दुबले-पतले हैं.

गोमांस प्रोटीन का अकूत भण्डार है. यह मुर्गे के मांस के मुकाबले ज्यादा सस्ता और स्वास्थ्यवर्धक भी होता है. कई अध्ययनों के अनुसार, ब्रायलर चिकन में भारी मात्रा में स्टेरॉयड और एंटीबायोटिक पाया गया है. 2010 में, हैदराबाद में गोमांस 80 रुपए किलो बिक रहा था. हिंदुत्वादी संगठनों की गोमांस के खिलाफ मुहिम के चलते, 2014 आते-आते यही मूल्य 140 रुपए किलो पर पहुंच गया. आज फुटकर में इसका भाव 200 रुपए किलो का आंकड़ा छू चुका है. आज जब भिंडी जैसी सब्जियां सौ रुपए किलो बिक रही हैं, गोमांस खासकर गरीबों के लिए पोषण का एक बेहतर विकल्प बन सकता है.

गौशालाएं बनाने की तत्परता के मुकाबले, भारत सरकार द्वारा देश के बच्चों को कुपोषण से बचाने हेतु उठाए जाने वाले कदमों की तुलना करें. औपनिवेशिक शासन के दौरान मद्रास प्रेसिडेंसी में शुरू हुई “मिड डे मील स्कीम” को 1982 में तमिलनाडु में तत्कालीन मुख्यमंत्री एम.जी. रामचंद्रन द्वारा दुबारा प्रारंभ किया गया. नब्बे के दशक में, संयुक्त राष्ट्र संघ की बच्चों के अधिकार संबंधी संधि में हस्ताक्षर करने के चलते, देश के 12 अन्य राज्यों ने भी इस योजना को अपने यहां शुरू किया. 2001 में, सुप्रीम कोर्ट ने इसे पूरे देश में लागू करने का आदेश पारित किया. आज मिड डे मील स्कीम को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा, 2013 के तहत ला दिया गया है. इसका मकसद देश के 12 करोड़ स्कूली बच्चों की पोषण आवश्यकताओं को पूरा करना है. अंडे और दूध को बच्चों आहार में इसलिए शामिल किया गया था ताकि उनके कुपोषण की समस्या से निबटा जा सके. 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद, बीजेपी या इसकी गठबंधन पार्टी शाषित 19 राज्यों में से केवल पांच में ही स्कूली छात्रों को अंडे परोसे जा रहे हैं. 2015 में, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने घोषणा की कि स्कूलों में मिड डे मील स्कीम या ग्रामीण इलाकों के आंगनवाड़ी केंद्रों में अंडे दिए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता. “हम लोगों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हैं,” राजे ने कहा. “हम अंडे या ऐसी कोई सामग्री नहीं वितरित करेंगे, जिनसे किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती हो.” अगर हिंदू अंडों को लेकर भी इतने नकचड़े हो सकते हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि गोमांस को मेज पर परोसने की डगर, कितनी लंबी और कठिन होने वाली है.

मांसाहार को लेकर दो नैतिक मसले हैं: पर्यावरणीय सरोकार और जानवरों की हत्या संबंधी नैतिकता का प्रश्न. चलिए पहले पर्यावरणीय सरोकार से निपट लेते हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, यह एक स्थापित वैज्ञानिक सत्य है कि मवेशी, दुनिया भर में 14.5 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं. लेकिन यूरोप, उत्तरी एवं लैटिन अमरीका के विपरीत, भारत में मवेशियों को फैक्ट्री फार्मों में नहीं पाला जाता. मुर्गी पालन बेशक एक अलग मसला है. पर्यावरणविद सुनीता नारायण की दलील के अनुसार भारत में पर्यावरणवाद का अर्थ जरूरी तौर पर शाकाहार का पक्षधर होना नहीं है:

भारतीय किसान छोटे स्तर पर गाय-बैल-बकरी जैसे मवेशी पालते हैं. असल में, इस अर्थव्यवस्था के बचे रहने का एक बड़ा कारण यह भी है कि यह छोटे किसानों के हाथ में है. मवेशी उनके लिए बीमा पोलिसी के समान हैं, बुरे वक्त में काम आने वाली सुरक्षा, जो जलवायु परिवर्तन के चलते मौसमों में बदलावों के कारण दिन-प्रतिदिन बद से बदतर होता जा रहा है ...ऊपर से, गौ-रक्षा अभियान ने गरीब की इस अर्थव्यवस्था को छिन्न भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. मवेशियों को आवारा भटकने के लिए छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा है, जिसका एक नतीजा यह निकल कर सामने आया कि ये आवारा पशु खेतों में फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. देश का किसान प्राय: अपने खेतों के चारों तरफ बाड़ नहीं लगाता. वह इस काम पर आने वाली लागत को वहन नहीं कर सकता. असल में खुले खेत खेतों की उर्वरता बनाए रखने में ज्यादा सहायक साबित होते हैं. यह सिलसिला ज्यादा दिन नहीं चल पाएगा.

पशुवध के सवाल को लेकर इसके कई पहलुओं पर विचार करने की आवश्यकता है. गायों की औसत उम्र 30 वर्ष होती है, लेकिन गायों की उत्पादकता तीन वर्ष की आयु से लेकर हद से हद 12 वर्ष तक रहती है. इसके बाद वे किसान के लिए बोझ बन जाती हैं. अब सवाल है कि उम्रदराज गायों को कैसे ठिकाने लगाया जाए. हम सड़कों या कूड़ेदानों पर कूड़ा खाते गायों को इसलिए देखते हैं क्योंकि उनके अनुपयोगी हो जाने पर उनके पालकों ने उन्हें कसाईखाने न भेजकर, सड़कों पर आवारा भटकने के लिए छोड़ दिया है. इन आवारा जानवरों में भैंस आपको विरले ही देखने को मिलेंगी. क्योंकि लोगों को काली भैंस में कुछ भी दैविक नजर नहीं आता. इसलिए उसे काम निकल जाने के बाद बाखुशी कसाईखाने भेजा जा सकता है और इस प्रक्रिया में कुछ पैसा भी कमाया जा सकता है. कुछ गायों को गौशाला ले जाया जाता है, लेकिन यह भी मानवीय विकल्प नहीं है. उत्तर प्रदेश समेत, जहां के मुख्यमंत्री गेरुआ वस्त्रधारी आदित्यनाथ है, अन्य जगहों से भी मीडिया में गौशालाओं के अंदर भुखमरी से बड़ी संख्या में गायों के मरने की खबरें अक्सर आती रहती हैं. जो चारा बचता है वह यह है कि या तो पशु को भूखा मरने के लिए आवारा छोड़ दिया जाए, या, कसाईखाने भेज दिया जाए. ऐसे में मवेशी अर्थव्यवस्था एवं लाखों लाख लोगों की जीविका बचाने की खातिर कसाईखाने वाला विकल्प ही बेहतर नजर आता है.

इन तथ्यों के बावजूद, देश के उच्चतम न्यायालयों ने गोकशी पर हमेशा भावात्मक और धार्मिक रवैया अपनाया है. विद्वान् सम्बैया गुंदीमेदा और वी.एस. अश्विन के अपने लेख “भारत में गो-रक्षा: धर्मनिर्पेक्षिकरण से कानूनीकरण तक” में दो महत्वपूर्ण फैसलों की पड़ताल की गई है. इनमें दर्शाया गया है कि कैसे सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू-बहुल भावनाओं को तरजीह दी और गाय उपासकों का पक्ष लिया. ये फैसले हैं: मोहम्मद हनीफ कुरैशी और अन्य बनाम बिहार सरकार, 1958 तथा मिर्जापुर मोती कुरैशी कसाब जमात और अन्य बनाम गुजरात सरकार, 2005. इन दोनों मामलों में मुसलमान कसाइयों ने मौलिक अधिकारों के अंतर्गत, गोकशी पर पूर्ण पाबंदी का विरोध किया था. उन्होंने अपनी याचिका में संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार); अनुच्छेद 19(1)(जी) (अपनी मर्जी का व्यवसाय चुनने की आजादी) और अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार) का हवाला दिया. उन्होंने दलील दी कि बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ने गोकशी पर पूर्ण पाबंदी लगाकर मौलिक अधिकारों पर संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत आने वाले अनुच्छेद 48 को प्राथमिकता दी है. गुंदीमेदा और अश्विन ने लिखा:

गुजरात विधान सभा ने बॉम्बे एनिमल प्रेजेर्वेशन (गुजरात एमेंडमेंट) एक्ट, 1994 लागू कर, 16 साल से कम के सांडों और बैलों के साथ-साथ, गायों और उनकी संतानों के वध पर भी संपूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था. चूंकि गुजरात के इस कानून से सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले की अवहेलना होती है, इसलिए इसकी संवैधानिक वैधता को गुजरात हाई कोर्ट में चुनौती दी गई और हाई कोर्ट ने भी तत्परता से इस कानून को यह दलील देते हुए रद्द कर दिया कि 1994 के कानून में मौलिक अधिकारों पर अनुचित पाबंदियां लगाई गई हैं, जो संविधान के अनुकूल नहीं हैं. यह शायद एक रणनीतिक असम्मति थी, जिसने गुजरात सरकार को स्पेशल लीव पिटीशन के जरिए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाने के लिए उकसाया. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश लाहोटी की अगुआई में सात न्यायमूर्तियों की पीठ ने मामले की सुनवाई की और केवल एक की असहमति के साथ, रद्द किए गए गए संशोधन को वैध ठहराया.

कोर्ट ने इस तरह न केवल स्थापित संवैधानिक व्याख्या से परहेज किया बल्कि मवेशी वध को लेकर हनीफ कुरैशी मामले में अपने ही फैसले को नकार दिया. इसमें कोई शक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पूरी तरह से हिंदुत्व के पक्ष; तथा दलित/ओबीसी, आदिवासी, मुसलामान और ईसाई अल्पसंख्यकों के विरुद्ध था. जयसिंह और अन्यों (2016) के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश आर.सी. लाहोटी ने अपने फैसले में मौलिक अधिकारों पर संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों को प्राथमिकता दी थी. जयसिंह ने अपनी दलील में कहा, “इस कपट और खतरे से संविधान निर्माता बचना चाहते थे.”

लाहोटी की अगुआई वाली खंडपीठ ने कुछ चौंकाने वाले वक्तव्य भी दिए:

गोबर का मूल्य प्रसिद्ध “कोहिनूर” से भी अधिक है. एक बूढ़ा बैल एक वर्ष में पांच टन गोबर और 343 पाउंड मूत्र करता है जिससे 20 छकड़े (एक छकड़ा करीब तीन क्विंटल) खाद बन सकती है. यह खाद चार एकड़ खेतों के लिए पर्याप्त है. जीवन का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और इसकी रक्षा पर्याप्त भोजन और पोषण के जरिए की जा सकती है, जिसमें खाद सहायक होती है. इसलिए मौलिक अधिकार के संबंध में मवेशी का गोबर सबसे अधिक मौलिक है.

गुंदीमेदा और अश्विन हमें बताते हैं कि कैसे मुख्य न्यायाधीश ने उक्त सूक्ति सीधे दक्षिणपंथियों की गो-भक्ति संबंधित पर्चों और साहित्य से उठाई.

दुनिया भर में, भोजन लोगों को एक-दूसरे के करीब लाने और अन्य असमानताओं के बावजूद समान सांस्कृतिक जमीन स्थापित करने में मदद करता है. लेकिन भारत में ऐसा नहीं है. यहां खान-पान पर कई किस्म की वर्जनाओं, पवित्रता एवं अपवित्रता की अवधारणाओं, का साया है. लेकिन किसी भी अन्य स्थान पर, संगठित तथा आदिवासी धर्मों की विभिन्नता, अस्पर्श्यता या लिंचिंग खुद को अभिव्यक्त नहीं करती. अगर आईआईटी, मद्रास जैसा कुलीन शैक्षणिक संस्थान शाकाहारियों और मांसाहारियों के बैठने की अलग-अलग व्यवस्था कर सकता है तो कल्पना की जा सकती है कि भारत के ग्रामीण इलाकों में किस तरह का नर्क अस्तित्वमें है.

इस देश में खान-पान तथा गायों के कारोबार के नाम पर जिस तरह की हिंसा और हत्याएं हुई हैं उसे अंतर्राष्ट्रीय मसला बन जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. इसका एक कारण है कि कई भारतीय बुद्धिजीवियों और विद्वानों ने इस तरह की हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने को अपना दायित्व नहीं समझा. उनका मानना रहा है कि छूआछूत समेत, भेदभावपूर्ण खान-पान की आदतें, हिंदू “संस्कृति” और “परंपरा” का हिस्सा हैं. सांस्कृतिक विविधता और हिंदू भावनाओं के आदर का बहाना बनाकर वे एक बहुसंख्यक तबके के खान-पान के मौलिक अधिकार की अवहेलना करने से भी नहीं चूकते. एक तरफ हाल के वर्षों में दलितों और मुसलमानों पर हिंदुत्ववादी हिंसा से व्यथित देश के तथाकथित उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने विरोध में अपने पुरस्कार लौटाए और “नॉट इन माय नेम” जैसे अभियान चलाए, लेकिन उनमें से लगभग किसी ने भी उत्पीड़ित जातियों से संबंधित विचारकों और कार्यकर्ताओं द्वारा आयोजित बीफ फेस्टिवलों में न तो शिरकत की, और न ही उनके साथ अपना समर्थन जताया. इसलिए धर्निर्पेक्षिकरण; तथा हमारी सार्वजनिक और राजनीतिक संस्कृति को बदलने की पहल के रूप में, बीफ खाने और परोसे जाने की जिम्मेदारी अब गैर-दलितों पर है.

यह निबंध कांचा इलैया शेपर्ड की नवान्या प्रकाशन से हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘बीफ, बाह्मण एंड ब्रोकन मैन’ की प्रस्तावना से लिया गया है-

बी आर आंबेडकर की किताब ‘अछूत कौन थे और कहां से आए थे’ का अंश

ब्राह्मण साहित्य का खुलासा करने में ब्राह्मण विद्वान की असहिष्णुता खिन्न करने वाली है. इसमें, वह जहां जरूरी है वहां भी कभी रूढ़िगत विचारों का विरोध नहीं करता; और न ही किसी गैर-ब्राह्मण को ऐसा करते देख सकता है. अगर कोई गैर-ब्राह्मण ऐसा प्रयास करता है या वह उसके काम पर चुप्पी साध लेता है, या उसकी उपेक्षा करने लगता है, या उसके काम को अनर्गल साबित करने में लग जाता है. ब्राह्मणवादी साहित्य को उजागर करते हुए, बतौर लेखक मैं खुद इन चालों का जीता जागता सबूत रहा हूं.

ब्राह्मण विद्वानों के रवैये के बावजूद, मुझे अपना सत्य पाने की खोज जारी रखनी होगी. अपराधी जनजातियों, या, मूल जनजातियों एवं अछूतों की उत्पत्ति एक ऐसा विषय है, जिसकी पड़ताल होनी अभी बाकी है. यह किताब समाज के इन्ही बदकिस्मत वर्गों, खासकर अछूतों के बारे में है. अछूतों की संख्या इन तीनों में सबसे अधिक है. उनका अस्तित्व भी सबसे अप्राकृतिक है. फिर भी इसकी उत्पत्ति की पड़ताल नहीं हुई है. हिंदुओं को ऐसी किसी पड़ताल में हिस्सा नहीं लेना चाहिए था, यह बात भी पूरी तरह से समझ में आने योग्य है. रूढ़िवादी हिंदू को कतई नहीं लगता कि छूआछूत को मानने में कुछ भी बुरा है. उसके लिए यह बिल्कुल सामान्य और नैसर्गिक है. उसके अनुसार इसके लिए न तो प्रायश्चित और न ही किसी किस्म की सफाई देने की आवश्यकता है. आधुनिक हिंदू इस गलती को समझता है. लेकिन इस बारे में सार्वजनिक रूप से चर्चा करने या विदेशियों को हिंदू सभ्यता की इस प्रथा के बारे में पता लगने के डर से वह शर्मिंदा महसूस करता है. लेकिन जो बात सबसे अजीब है वह यह कि अस्पर्श्यता, सामजिक व्यवस्था का अध्ययन करने वाले यूरोपीय छात्रों का ध्यान भी अपनी तरफ आकर्षित नहीं करती. इसे समझना वाकई जरा मुश्किल है. तथ्य हालांकि अपनी जगह हैं.

इसलिए इस किताब को पूरी तरह से उपेक्षित विषय पर, पथ प्रदर्शक के रूप में लिया जा सकता है. यह पुस्तक न केवल पड़ताल के मुख्य प्रश्न यानी अस्पर्श्यता की उत्पत्ति, को खंगालती है बल्कि इससे जुड़े लगभग सभी सवालों के जवाब भी तलाशती है. इसमें कुछ ऐसे प्रश्न भी उठाए गए हैं जिनसे बहुत कम लोग ही अवगत हैं; और जो अवगत हैं उन्हें भी नहीं पता कि उन प्रश्नों का कैसे जवाब दिया जाए. मिसाल के तौर पर वे प्रश्न हैं: अछूत समुदाय गांव के बाहर क्यों रहते हैं? गोमांस सेवन ने क्यों छूआछूत को जन्म दिया? क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस का सेवन नहीं किया? गैर-ब्राह्मणों ने गोमांस खाना क्यों छोड़ा? ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बनें? इत्यादि, इस पुस्तक में ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया गया है. यह मुमकिन है कि इन सवालों के सभी जवाब संतोषजनक न हों. इसके बावजूद यह पुस्तक पुराने सवालों को नए नजरिए से देखने की तरफ इशारा करती है.

मैंने इसका जिक्र इसलिए किया क्योंकि अपनी पड़ताल के दौरान मैंने पाया कि छूआछूत की उत्पत्ति और अन्य संबंधित समस्याओं को लेकर कई कड़ियां गायब थीं. यह सही है कि इन गायब कड़ियों का सामना करने वाला मैं अकेला शख्स नहीं हूं. प्राचीन इतिहास के सभी छात्रों का इनसे सामना हुआ है. जैसा कि माउंट स्टुअर्ट एल्फिन्स्टन ने भारतीय इतिहास को लेकर अपनी टिप्पणी में कहा, “सिकंदर के आक्रमण से पहले, किसी भी सार्वजानिक घटना की तारीख तय नहीं की जा सकती और “मोहम्डन” आक्रमण तक किसी भी वास्तविक कारोबार का निश्चित संबंध स्थापित करने का प्रयास भी नहीं किया जा सकता.” इसे एक किस्म से बहुत ही निराशाजनक टिप्पणी माना जा सकता है, लेकिन इससे फिर भी मदद नहीं मिलती. सवाल यह है कि: “इतिहास का छात्र ऐसे में क्या करे? क्या कड़ी मिलने तक इंतजार करे?” मेरा मानना है कि ऐसी किसी स्थिति में शोधकर्ता एवं लेखक को अपनी कल्पनाशक्ति तथा सहज बोध के अनुसार, गायब कड़ियों को जोड़ने की छूट होनी चाहिए और अपनी परिकल्पना के आधार पर ज्ञात तथ्यों से गायब कड़ियों को जोड़ने का यत्न करे. मैंने अपने रास्ते में आने वाली इस किस्म की अड़चनों से पार पाने के लिए यह रास्ता चुना.

इतिहास शोध के स्थापित नियम का उल्लंघन करने और मेरी थीसिस को खारिज करने के लिए, आलोचक शायद मेरे इस प्रयास की भर्त्सना करें. आलोचकों का यही रवैया है तो मैं याद दिलाना चाहूंगा कि अगर सीधे प्रमाणों के आधार पर ऐतिहासिक नतीजों और थीसिस को तोलने का कोई नियम है तो यह एक सरासर गलत नियम है. सीधे साक्ष्य बनाम अनुमानिक साक्ष्य और अनुमानिक साक्ष्य बनाम परिकाल्पनिक साक्ष्य के झंझट में पड़ने की बजाए आलोचकों को (एक) इस बात पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि क्या उक्त थीसिस शुद्ध अटकलबाजी पर आधारित है; (दो), या क्या उक्त थीसिस संभव तो है, और तथ्यों के साथ उनका मेल भी हो रहा हैया नहीं?

पहले मसले पर मैं कह सकता था कि थीसिस सिर्फ इस आधार पर अस्वीकार्य नहीं की जानी चाहिए क्योंकि उसके कुछ हिस्से अनुमान पर आधारित हैं. आलोचकों को यह याद रखना चाहिए कि हम एक ऐसी संस्था की उत्पत्ति के बारे में बात कर रहे हैं जो पुरातनता के अंधेरों में खो गई है. इसलिए अस्पर्श्यता की उत्पत्ति के बारे में लिखने के वर्तमान प्रयास वैसे नहीं होंगे जो प्रमाणिकता के साथ लिखे जाने वाले इतिहास के साथ होते हैं. यह मसला ऐसे इतिहास को पुनर्निर्मित करने का है जिसके बारे में कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है, और अगर है भी तो उसका इसके साथ कोई सीधा रिश्ता नहीं है. ऐसी स्थिति में अगर कोई कुछ कर सकता है तो इतना भर कि वह उपलब्ध साहित्य के पीछे छिपे संकेतों को सत्य पा लेने की परवाह किए बगैर उन्हें विश्लेषित करने का प्रयास करे. ऐसी सूरत में इतना ही किया जा सकता है कि अतीत के अवशेषों को एकत्रित कर, उनको उनके जन्म की कहानी कहने दिया जाए. यह काम किसी पुरातत्ववेत्ता के काम से मिलता-जुलता है, जो बिखरे पत्थरों से एक शहर की कल्पना करता है; या, किसी जीवाश्म वैज्ञानिक से, जो विलुप्त जीव के रूप और आकार का अंदाजा क्षत-विक्षत हड्डियों और दांतों से करता है; या किसी पेंटर से, जो क्षितिज की रेखाओं और पहाड़ की ढलानों को देखकर चित्र बनाता है. इस लिहाज से यह पुस्तक इतिहास की बजाय कलात्मक ज्यादाकहलाएगी. अस्प्रश्यता की उत्पत्ति एक ऐसे मृत अतीत में दफ्न है, जिसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता. इसे जीवित करना इतिहास पर पुनः दावा करने के प्रयास के सामान है, ठीक वैसे ही जैसे सदियों से मृत शहर को उसके पुराने मूल रूप में निर्मित करना. इस तरह के काम में कल्पनाशीलता और अनुमान अहम् भूमिका निभाएंगे ही. अत: यह थीसिस महज इसी आधार पर खारिज नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रशिक्षित कल्पनाशीलता ही विज्ञान की भी अंतरात्मा है.

क्या हिंदू कालांतर में कभी गोमांस का सेवन करते थे के सवाल पर प्रत्येक स्पर्शनीय हिंदू, ब्राह्मण या गैर-ब्राहमण, का मानना है कि “कभी नहीं”. एक लिहाज से वह अपने इस यकीन में सही भी हैं. इतिहास में कई बरसों से किसी हिंदू ने गोमांस सेवन नहीं किया है. अगर अपने जवाब से स्पर्शनीय हिंदू यही सत्य प्रेषित करना चाहता है तो इस पर झगड़ा करने का कोई लाभ नहीं. लेकिन जब विद्वान् ब्राहमण यह दलील देता है कि हिंदुओं ने कभी गोमांस सेवन नहीं किया या गाय को हमेशा पवित्र मानकर उसकी हत्या का विरोध किया है, तो उसकी इस राय से सहमति असंभव है.

इस प्रस्थापना कि हिंदुओं ने गोमांस सेवन नहीं किया, या, हमेशा गोवध का विरोध किया के पक्ष में क्या साक्ष्य मौजूद हैं?

ऋग्वेद में दो सन्दर्भों की श्रृंखलाएं दी गई हैं जिन पर यह विश्वासटिका है. इनमे से एक में गाय को अघन्य बताया गया है. अघन्य का अर्थ है “जो मारे जानेका पात्र नहीं है.” इससे यह दलील निकलती है कि यह गाय वध के खिलाफ है और चूंकि वेदोंका, धर्म पर अंतिम अख्तियार है इसलिए मान लिया गया कि आर्यों द्वारा गोमांस सेवन और गौवध नामुमकिन है. संदर्भों की दूसरी श्रृंखला में गाय को पवित्र बताया गया है. इन श्लोकों में गाय को रूद्र की माता, वसुओं की बेटी, आदित्यों की बहन और अमृत के केंद्र के रूप में संबोधित किया गया...

ब्राह्मणों में भी इस विशवास की पुष्टि होती है...

सत्पथ ब्राहमण में दो अंश, पशु बलि और गोमांस सेवन से संबंधित हैं:

वह (अध्वर्यु) फिर उसे भवन में आने देता है. उसे गाय या बैल का मांस मत खाने देना क्योंकि पृथ्वी पर गाय और बैल हर चीज़ के लिए जिम्मेदार हैं: आइए गाय और बैल को ताकत के लिए हर वो चीज़ पेश करें, जो दूसरे पशुओं को दी जाती हैं (...) इसलिए गायें और बैल सबसे ज्यादा खाते हैं. अगर कोई गाय या बैल के मांस का सेवन करता है तो वह भी उन सभी चीजों का भोग लगाता है; और, न करने पर, खुद भी नष्ट हो जाता है. इसलिए उसे गाय या बैल का मांस न परोसा जाए.

दूसरा अंश...पशु बलि और नैतिक प्रश्न पर बात करता है...इस तकरार पर ऐसा साक्ष्य है कि हिंदू कभी गोमांस नहीं खाते थे. इस साक्ष्य से क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है? जहां तक ऋग्वेद के साक्ष्य का संबंध है तो यह सूत्रों को सही प्रकार से न समझ पाने के कारण है. जिस गाय को ऋग्वेद में अघन्य बताया गया है वह एक दुधारू गाय है, इसलिए उसका वध वर्जित बताया गया है. ऋग्वेद में गाय को उपासना योग्य बताया गया है, जो सही भी है. लेकिन गाय का उपासना योग्य होना इंडो-आर्य समुदाय के लिए स्वाभाविक था, क्योंकि वह कृषि प्रधान समाज था. लेकिन उसके इस इस्तेमाल के बावजूद भी आर्य गाय का वध, भोजन के लिए किया करते थे. गौवध इसलिए भी किया जाता था क्योंकि गाय को पवित्र माना जाता था. इंडोलोजिस्ट (पांडुरंग वामन) काने के अनुसार, “ऐसा नहीं था कि वैदिक काल में, गाय पवित्र नहीं थी; बल्कि उसकी पवित्रता की वजह से ही यह नियत किया गया था कि गोमांस का सेवन किया जाना चाहिए.”

ऋग्वेद काल के आर्य खाने के मकसद से गौवध करते थे यह बात ऋग्वेद से ही साफ हो जाती है. ऋग्वेद में इन्द्र कहते हैं: “वे 15 जमा 20 बैल पकाते थे.” ऋग्वेद(X.91.14) 21आगे कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, अनुर्वरक गाय और भेड़ की बलि दी जाती थी. ऋग्वेद में जो लिखा है उससे ऐसा प्रतीत होता कि गौवध तलवार या कुल्हाड़ी से किया जाता था. सत्पथ ब्राह्मण के कथन अनुसार क्या इसे निश्चयात्मक माना जा सकता है? जाहिर तौर पर नहीं. अन्य ब्राह्मणों में अलग किस्म के मत दिए गए हैं.

इसका एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है. काम्यष्टि में (कुछ विशेष दुआ के लिए छोटी बलि) तैत्रिया ब्राह्मण में न केवल बैलों और गायों की बलि के बारे में बताया गया है बल्कि यह भी बताया गया है कि देवता को किस तरह के बैलों और गायों की बलि चढ़ानी चाहिए. इस तरह एक छोटे कद के बैल को विष्णु के लिए चुना जाता था; एक लटकते हुए सींघों एवं माथे पर सफेद निशान वाला बैलवृत्र नाश हेतु, इंद्र के लिए; काली गाय, पूषण के लिए; लाल गाय, रूद्र के लिए, इत्यादि. तैत्रिया ब्राह्मणपंचसार्धिया सेवा बलि का भी जिक्र करता है. इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू था 17, पांच- वर्षीय, बिना कूबढ़ के छोटे बैलों और बछियाओं की बलि.

यह अंश अछूत कौन थे और कहां से आए थे? (बाबा साहब आंबेडकर लेख और भाषण खंंड 7, महाराष्ट्र सरकार 1990) से लिया गया है.

अनुवाद : राजेंद्र सिंह नेगी