गोलवलकर : जिसने देश को बांट दिया

इंडियन एक्सप्रेस आर्काइव
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आमतौर पर कोई संप्रदाय या संगठन अपने संस्थापक की विचारधारा को ही आगे ले जाता है और संस्थापक के बाद वाली पीढ़ी के लिए संस्थापक से बेहतर कर पाना तो दूर उसकी तरह प्रभावशाली होना भी असंभव होता है. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) कोई आम संगठन है भी तो नहीं. और उपरोक्त मामले में भी वह दूसरे संगठनों से अलग है. संघ की स्थापना 1925 में डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने की लेकिन इस पर उनके उत्तराधिकारी माधव सदाशिव गोलवलकर की छाप ज्यादा है. संघ के भीतर हेडगेवार को डॉक्टर जी और गोलवलकर को गुरुजी पुकारा जाता है.

1940 में हेडगेवार की मृत्यु के बाद गोलवलकर 1973 तक, यानी मृत्युपर्यंत संघ के सरसंघचालक अथवा प्रमुख रहे. जब गोलवलकर सरसंघचालक बने उस वक्त संघ स्वयं को स्थापित कर रहा था और महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से बाहर इसका बहुत सीमित प्रभाव था. उनके नेतृत्व में संघ बड़े उथलपुथल के दौर से गुजरा. विभाजन की हिंसा में उसकी भूमिका सवालिया थी और मोहनदास गांधी की हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इसके बावजूद वह गोलवलकर का नेतृत्व ही था जिसमें आरएसएस ने अपना लिखित संविधान बनाया और अपनी शाखाओं या स्थानीय इकाइयों से बाहर विस्तार किया. उनके नेतृत्व में संघ के खुले संगठन, जैसे राजनीति के लिए जन संघ, छात्रों के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, हिंदू धर्म के लिए विश्व हिंदू परिषद और औद्योगिक मजदूरों के लिए भारतीय मजदूर संघ का गठन हुआ.

गोलवलकर के निधन तक संघ संपूर्ण भारत में विस्तार कर चुका था और उससे संबद्ध संगठनों या संघ परिवार का संजाल भारतीय समाज के सभी स्तरों पर पैठ बना चुका था. उनका वैचारिक प्रभाव उनकी मौत के साथ समाप्त नहीं हुआ. आज भी गोलवलकर के लेखों और भाषणों का संकलन बंच ऑफ थॉट्स संघ की भगवद् गीता है. 2004 में आरएसएस के प्रमुख विचारक एमजी वैद्य ने एक ऐसी बात की जिसे हम गोलवलकर के बारे में आरएसएस का आधिकारिक दृष्टिकोण मान सकते हैं. आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर के अनुसार वैद्य ने “श्री गुरुजी को 20वीं शताब्दी में हिंदू समाज के लिए सबसे बड़ा उपहार कह कर परिभाषित किया. वैद्य के अनुसार राष्ट्रीय राजनीति में जो संघ का महत्व आज है उसका श्रेय श्री गुरुजी को दिया जाना चाहिए जिनके अथक प्रयास के कारण संघ देश के कोने कोने में पहुंचा पाया.

जून के शुरू में नागपुर के उनके आवास में मैंने वैद्य से मुलाकात की. अपने लिविंग रूम में, जिसमें किताबों का अंबार लगा था, उन्होंने मुझसे तकरीबन एक घंटे तक बातचीत की. बातचीत के बीच-बीच में वे अक्सर खड़े हो जाते और अपनी बातों पर जोर देने को कोई किताब निकाल कर मुझसे पैराग्राफ पढ़वाते. वे 97 वर्ष के हैं लेकिन उनकी ऊर्जा से उनकी उम्र का पता नहीं चलता. जब हमारी बातचीत खत्म हुई तो वे एक मोटरसाइकिल पर सवार हो कर अस्पताल में भर्ती अपने एक मित्र को देखने निकल गए. बातचीत के दौरान वैद्य ने मुझे बताया, “1941 में जब मैं आरएसएस में भर्ती हुआ था तब मैंने भारत को स्वतंत्र कराने का प्रण लिया था.” आगे वैद्य बताते हैं कि 1947 में जब यह लक्ष्य पूरा हो गया तब, “हमारे सामने एक दुविधा आ खड़ी हुई. हम सोचने लगे कि अब हम लोग क्या करेंगे?” वैद्य बताते हैं कि गोलवलकर ने संघ को “नया उद्देश्य देकर प्रेरित किया. उन्होंने कहा हमें समाज के एक पक्ष को नहीं देखना चाहिए बल्कि सम्पूर्ण समाज को संगठित करने का यत्न करना चाहिए. जीवन में शिक्षा, उद्योग, कृषि, धर्म जैसे बहुत सारे क्षेत्र है. हमें इन सभी क्षेत्रों के लोगों को प्रेरित और संगठिन करना चाहिए.”

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