आमतौर पर कोई संप्रदाय या संगठन अपने संस्थापक की विचारधारा को ही आगे ले जाता है और संस्थापक के बाद वाली पीढ़ी के लिए संस्थापक से बेहतर कर पाना तो दूर उसकी तरह प्रभावशाली होना भी असंभव होता है. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) कोई आम संगठन है भी तो नहीं. और उपरोक्त मामले में भी वह दूसरे संगठनों से अलग है. संघ की स्थापना 1925 में डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने की लेकिन इस पर उनके उत्तराधिकारी माधव सदाशिव गोलवलकर की छाप ज्यादा है. संघ के भीतर हेडगेवार को डॉक्टर जी और गोलवलकर को गुरुजी पुकारा जाता है.
1940 में हेडगेवार की मृत्यु के बाद गोलवलकर 1973 तक, यानी मृत्युपर्यंत संघ के सरसंघचालक अथवा प्रमुख रहे. जब गोलवलकर सरसंघचालक बने उस वक्त संघ स्वयं को स्थापित कर रहा था और महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से बाहर इसका बहुत सीमित प्रभाव था. उनके नेतृत्व में संघ बड़े उथलपुथल के दौर से गुजरा. विभाजन की हिंसा में उसकी भूमिका सवालिया थी और मोहनदास गांधी की हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इसके बावजूद वह गोलवलकर का नेतृत्व ही था जिसमें आरएसएस ने अपना लिखित संविधान बनाया और अपनी शाखाओं या स्थानीय इकाइयों से बाहर विस्तार किया. उनके नेतृत्व में संघ के खुले संगठन, जैसे राजनीति के लिए जन संघ, छात्रों के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, हिंदू धर्म के लिए विश्व हिंदू परिषद और औद्योगिक मजदूरों के लिए भारतीय मजदूर संघ का गठन हुआ.
गोलवलकर के निधन तक संघ संपूर्ण भारत में विस्तार कर चुका था और उससे संबद्ध संगठनों या संघ परिवार का संजाल भारतीय समाज के सभी स्तरों पर पैठ बना चुका था. उनका वैचारिक प्रभाव उनकी मौत के साथ समाप्त नहीं हुआ. आज भी गोलवलकर के लेखों और भाषणों का संकलन बंच ऑफ थॉट्स संघ की भगवद् गीता है. 2004 में आरएसएस के प्रमुख विचारक एमजी वैद्य ने एक ऐसी बात की जिसे हम गोलवलकर के बारे में आरएसएस का आधिकारिक दृष्टिकोण मान सकते हैं. आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर के अनुसार वैद्य ने “श्री गुरुजी को 20वीं शताब्दी में हिंदू समाज के लिए सबसे बड़ा उपहार कह कर परिभाषित किया. वैद्य के अनुसार राष्ट्रीय राजनीति में जो संघ का महत्व आज है उसका श्रेय श्री गुरुजी को दिया जाना चाहिए जिनके अथक प्रयास के कारण संघ देश के कोने कोने में पहुंचा पाया.
जून के शुरू में नागपुर के उनके आवास में मैंने वैद्य से मुलाकात की. अपने लिविंग रूम में, जिसमें किताबों का अंबार लगा था, उन्होंने मुझसे तकरीबन एक घंटे तक बातचीत की. बातचीत के बीच-बीच में वे अक्सर खड़े हो जाते और अपनी बातों पर जोर देने को कोई किताब निकाल कर मुझसे पैराग्राफ पढ़वाते. वे 97 वर्ष के हैं लेकिन उनकी ऊर्जा से उनकी उम्र का पता नहीं चलता. जब हमारी बातचीत खत्म हुई तो वे एक मोटरसाइकिल पर सवार हो कर अस्पताल में भर्ती अपने एक मित्र को देखने निकल गए. बातचीत के दौरान वैद्य ने मुझे बताया, “1941 में जब मैं आरएसएस में भर्ती हुआ था तब मैंने भारत को स्वतंत्र कराने का प्रण लिया था.” आगे वैद्य बताते हैं कि 1947 में जब यह लक्ष्य पूरा हो गया तब, “हमारे सामने एक दुविधा आ खड़ी हुई. हम सोचने लगे कि अब हम लोग क्या करेंगे?” वैद्य बताते हैं कि गोलवलकर ने संघ को “नया उद्देश्य देकर प्रेरित किया. उन्होंने कहा हमें समाज के एक पक्ष को नहीं देखना चाहिए बल्कि सम्पूर्ण समाज को संगठित करने का यत्न करना चाहिए. जीवन में शिक्षा, उद्योग, कृषि, धर्म जैसे बहुत सारे क्षेत्र है. हमें इन सभी क्षेत्रों के लोगों को प्रेरित और संगठिन करना चाहिए.”
भारतीय जनता पार्टी के दो प्रधानमंत्रियों ने जिस प्रकार से गोलवलकर को सम्मान दिया है उसे देख कर गोलवलकर के अविकल प्रभाव का पता चलता है. 2006 में गोलवलकर की शतवार्षिकी के उपलक्ष्य में अटल बिहारी वाजपेयी ने 1940 में गोलवलकर से हुई अपनी पहली मुलाकात को याद किया. उस वक्त वे कक्षा 10 में पढ़ रहे थे. उस मुलाकात का उनका अनुभव ऑर्गनाइजर के 2006 के एक अंक में प्रकाशित हुआ जिसकी भाषा लगभग आध्यात्मिक है. वाजपेयी लिखते हैं, “गुरुजी ग्वालियर स्टेशन आए थे. हम लोग उनका स्वागत करने स्टेशन पहुंचे थे. जब मैं वहां पहुंचा तो उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे वे मुझे पहचानते हों. सच तो यह है कि मुझे पहचानने का कोई कारण नहीं था क्योंकि वह हमारी पहली मुलाकात थी. लेकिन उस मीटिंग का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा. उस दिन पहली बार मैंने निश्चय किया कि मुझे राष्ट्र के लिए काम करना है.”
2008 में नरेन्द्र मोदी ने ज्योतिपुंज नाम की किताब लिखी जिसमें आरएसएस के उन 16 व्यक्तियों की जीवनियां हैं जिनसे मोदी प्रभावित हैं. उस किताब में मोदी ने गोलवलकर के बारे में सबसे ज्यादा लिखा है. बाद में लेखक और पत्रकार आकार पटेल ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया. उस जीवनी में मोदी ने गोलवलकर की तुलना बुद्ध, मराठा योद्धा शिवाजी और स्वतंत्रा संग्राम के नेता बाल गंगाधर तिलक जैसों से की है. लेख के अंत में मोदी ने अपवाद स्वरूप कृतज्ञता भी प्रकट की है, “हम लोग गुरुजी को समझने और उनका विश्लेषण करने में असक्षम हैं. ये पंक्तियां उनके जीवन के सुंदर क्षणों का स्मरण करने का एक विनम्र प्रयास मात्र हैं.”
लेकिन गोलवलकर के आलोचक ऐसा नहीं मानते. लेखक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उन्हें “नफरत का गुरु” कहा है और राजनीतिकशास्त्री ज्योतिर्मय शर्मा ने गोलवलकर की विचारधारा पर आधारित अपनी किताब को टेरिफाईंग विजन नाम दिया. आज जब आरएसएस भारतीय समाज और राजनीति में शायद कांग्रेस के सबसे अच्छे दिनों के बराबर या उनसे अधिक प्रभाव रखता है तो जिस भारत की हम बात कर रहे हैं, गलत या सही, उसे गोलवलकर को समझे बिना नहीं जाना जा सकता.
गोलवलकर का जन्म 19 फरवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक शहर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वे 9 संतानों वाले इस परिवार की चौथी संतान थे और एकमात्र ऐसी संतान जो व्यस्क होने तक जीवत रह सकी. गोलवलकर के जन्म के कुछ समय बाद उनके पिता, आज के छत्तीसगढ़ के एक दुर्गम भाग में स्थित स्कूल के अध्यापक बन गए. गोलवलकर के पिता ने अपनी संतान की शिक्षा का जिम्मा लिया और सुनिश्चित किया कि वे आरंभ से ही अंग्रेजी और हिंदी भाषा में दक्ष हो जाएं.
हालांकि गोलवलकर उस उच्च वर्ण वाले माहौल में पले बढ़े जहां से बाद में आरएसएस अपना नेतृत्व और विचारधारा हासिल करने वाला था लेकिन उनकी आरंभिक शिक्षा और पेशा उन्हें सीधे संघ की ओर नहीं ले गया. विज्ञान के छात्र के रूप में उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा नागपुर में पूरी की और उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) आ गए, जहां से 1928 में जीवविज्ञान में एमएससी पूरी की.
आज गोलवलकर के जीवन की सही तस्वीर उतार पाना कठिन है क्योंकि संघ परिवार हेगिओग्राफिक फिल्टर या आंखों में भावपूर्ण चश्मा चढ़ा कर उन्हें देखता है और इसी रूप में हमें उनसे जुड़ी अधिकांश जानकारियां प्राप्त होती हैं. सी. पी. भिषीकर द्वारा मराठी में लिखी गोलवलकर की जीवनी श्री गुरुजी : नव युग के अगुवा ऐसी किताब है जिसे आरएसएस मान्यता देता है. बीएचयू में गोलवलकर द्वारा बिताए चार सालों के बारे में इस किताब में लिखा कि उन्होंने, “मेहनत के साथ पढ़ाई की किंतु आध्यात्मिक जीवन की ओर अधिक आकर्षित होते चले गए. उन दिनों गुरुजी से अधिक अन्य किसी छात्र ने पुस्तकालय का प्रयोग नहीं किया. उनका अध्ययन एकाग्रचित और विस्तृत था- वे संस्कृत, पश्चिमी दर्शन, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के प्रेरणादायी विचार, विभिन्न धर्म और मान्यताओं के ग्रंथ और विज्ञान विषयों की किताबें पढ़ते थे.” मद्रास एक्वेरियम (जलजीवशाला) में एक वर्ष तक शोध करने के बाद 1930 में, गोलवलकर ने बीएचयू में लेक्चरर का पद ग्रहण किया. इसी दौर में वे पहली बार आरएसएस के संपर्क में आए जिसकी स्थापना पांच साल पहले हो चुकी थी.
आरएसएस की स्थापना ने कई दशकों से तैयार हो रहीं विभिन्न बौद्धिक और ऐतिहासिक धाराओं को मिला दिया. उपनिवेशवाद के साथ आधुनिक प्रौद्योगिकी, सरकार तंत्र और शिक्षा ने प्रवेश किया. साथ ही इसने उपमहाद्वीप की जनता के सामने विदेशी शक्ति की परवशता के कारणों को समझने की जरूरत पैदा की. इसके लिए बहुतों ने अपने अपने तरीकों से इतिहास की व्याख्या की- अक्सर अनुभवसिद्ध तरीकों से गढ़े स्वंय के तर्कों से. अनुभवसिद्ध तर्क पद्धति स्वयं उवनिवेशवाद की देन थी.
ढेरों व्याख्या के बीच विवेकानंद से लेकर दयानंद सरस्वति जैसे व्यक्तियों का यह निष्कर्ष भी था कि गौरवशाली हिंदू अतीत से वर्तमान तक आते आते भारत का क्षय हुआ है. अपने अतीत को भुला देने से हिंदू आसानी से विदेशी- मुस्लिम या विलायती- आक्रमणकारियों के गुलाम बन गए. इतिहास की इस धारा में विश्वास करने वाले बहुतों का मानना था कि प्रा चीन इतिहास को पुनर्जीवित कर भारत के वर्तमान क्षय को ठीक किया जा सकता है. उपमहाद्वीप के मुस्लिमों ने भी इसी तरह के तर्क पेश किए जिसमें दावा किया गया कि उनके शासन की बर्बादी के पीछे इस्लाम की बुनियादी मान्यताओं से भटक जाना था. इस्लाम के मामले में उसके बुनियादी सिद्धांतों को कुरआन में खोजा जा सकता था लेकिन हिंदू अतीत को खोजने के लिए अतीत का निर्माण करने की विवशता थी.
जिन हिंदू समूहों ने इस सिद्धांत पर काम किया उनमें से प्रमुख था 1915 में स्थापित अखिल भारत हिंदू सभा. 1921 में इसका नाम बदल कर हिंदू महासभा कर दिया गया. 2002 में प्रकाशित प्रलय कानूनगो की किताब आरएसएस ट्रिस्ट विद पॉलिटिक्स में बताया गया है कि 1923 के हिंदू महासभा के बनारस सत्र ने “कांग्रेस नेताओं सहित हिंदू समूह के अलग अलग वर्गों को एक साथ ला दिया.” पार्टी के अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने अपने संबोधन में सुझाव दिया कि हिन्दुओं को स्वयं को मजबूत बनाने की जरूरत है ताकि मुस्लिमों का “गुंडा तबका” “हिंदुओं को बेखौफ होकर लूटने और बेइज्जत” करने की कभी सोच भी न सके. कानूनगो ने लिखा है कि मालवीय ने, “सभी लड़के-लड़कियों को शिक्षित करने, अखाड़े बनाने और हिंदू महासभा के निर्णय को मनवाने के लिए स्वयंसेवकों का दल बनाने का” सुझाव दिया.
उसी वर्ष वीडी सावरकर ने- जो पहले एक क्रांतिकारी थे और ढेरों दया याचिकाएं देने के बाद सशर्त जेल से रिहा हुए थे- विचारधारात्मक समस्या के उस अंतर को पाटा जिसमें यह तय नहीं हो पा रहा था कि हिंदू की परिभाषा क्या है. सावरकर की किताब हिंदुत्व: हिंदू कौन है? ने इस प्रश्न का जवाब देने का यत्न किया और वह किताब आने वाले दिनों में हिंदुओं को संगठित करने के प्रयासों का विचारधारात्मक आधार बनी.
इस बौद्धिक ऊहापोह के बीच हेडगेवार ने आरएसएस की परिकल्पना की. वे नागपुर के ब्राह्मण समुदाय से थे जो भोंसले राजाओं के शासन में फलाफूला था और मुगलों के खिलाफ लड़ा था. हालांकि यह समुदाय ब्रिटिश शासन को बाहरी मानता था लेकिन उपनिवेश कालीन शासकों की शिक्षा के अवसरों से लाभान्वित हुआ था. हेडगेवार ने सबसे पहले नागपुर के एक मिशनरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की फिर अपने मेंटर बीएस मोनजे के कहने पर कलकत्ता में पढ़ाई की. बीएस मोनजे कांग्रेस के नेता थे जिन्होंने बाद में महासभा में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की. कलकत्ता में रहते हुए हेडगेवार उस वक्त बंगाल में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ गए और अनुशीलन समिति नाम के संगठन में शामिल हो गए. उन पर बंकिमचंद्र चटर्जी की लिखाई का गहरा प्रभाव पड़ा.
चटर्जी का अधिकांश लेखन, खासतौर पर आनंदमठ, जिसका गीत वंदे मातरम राष्ट्रीय गीत है, उग्र रूप से मुस्लिम विरोधी है. इस बात पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि हेडगेवार को हिंदू प्रतीकों से जुड़े उन संस्कारकों के जरिए समिति में प्रवेश कराया गया जो प्रभावशाली तरीके से सुनिश्चित करती थीं कि मुस्लिम संगठन में प्रवेश न कर पाएं. बीवी देशपांडे और एसआर रामास्वामी द्वारा लिखित और एचवी शेषाद्रि द्वारा संपादित हेडगेवार की जीवनी युग निर्माता डॉ हेडगेवार के अनुसार, “प्रत्येक सदस्य को दस या 12 व्यक्तियों के सामने या काली मंदिर में अथवा श्मशान में शपथ लेनी होती थी.”
कलकत्ता से नागपुर आने के बाद हेडगेवार कांग्रेस और महासभा दोनों के सक्रिय सदस्य बन गए. उस वक्त तक दोनों संगठनों के बीच विभाजन दिखाई नहीं पड़ा था और मालवीय जो कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष रहे और महासभा के दो वार्षिक सत्रों की अध्यक्षता की और मोनजे (वरिष्ठ कांग्रेस नेता बाल गंगाधर तिलक के नजदीकी सहयोगी) दोनों ने ही महासभा को बौद्धिक और व्यवहारिक समर्थन दिया.
जब गांधी ने कांग्रेस पर अपना नियंत्रण बढ़ाना शुरू किया तो यह सहअस्तित्व असहज होने लगा. खिलाफत आंदोलन के वक्त जब गांधी ने मुस्लिम समुदाय के प्रति अपना ध्यान दिया तो हेडगेवार कांग्रेस से दूर हो गए. खिलाफत आंदोलन का मकसद कई देशों में खलीफत को बहाल करना था जिसका बहुत से हिंदुओं ने यह तर्क देते हुए विरोध किया कि भारत में इस आंदोलन में भाग लेने वालों ने अपनी मातृभूमि से अधिक अपने धर्म के प्रति वफादारी दिखाई है.
देशपांडे और रामास्वामी ने लिखा है कि हेडगेवार यह कह कर नाराज हुए थे कि भारतीय मुसलमानों ने इस आंदोलन के दौरान “खुद को पहले मुस्लिम और बाद में भारतीय होना दिखाया है.” दोनों ने लिखा है, “हिंदू-मुस्लिम भाई भाई का नारा आकाश में गूंज रहा था लेकिन हकीकत में इसकी संभावना कम से कमतर हो रही थी. डॉक्टरजी कुछ बुनियादी प्रश्नों के उत्तर खोजने में लग गए- इतने सालों के हमारे संरक्षण के बाद क्या मुसलमानों ने कभी सकारात्मक हो कर प्रतिक्रिया दी है? क्या उन लोगों ने हिंदुओं की सहिष्णुता की परंपरा का बदला दिया है. क्या भारत माता के प्रति हमारे सम्मान में वे लोग शामिल हुए हैं? भिषिकर की लिखी दूसरी जीवनी में बताया गया है कि हेडगेवार मुस्लिमों को यवन सर्प कहते थे. यह शब्द विदेशियों के लिए इस्तेमाल किया जाता था और तर्क दिया कि मुसलमान “राष्ट्र विरोधी” हैं.
कानूनगो ने लिखा है कि नागपुर में 1923 में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों के बाद हेडगेवार ने आरएसएस की स्थापना करने का निर्णय लिया. दंगों के कारणों में मुख्य था मस्जिद के सामने से हिंदुओं को धार्मिक झांकी ले जाने का अधिकार. 30 अक्टूबर 1923 को यह विवाद उस वक्त चरम पर पहुंच गया जब नागपुर के कलेक्टर ने हिंदुओं की झांकियों को प्रतिबंधित कर दिया. काननूगो लिखते हैं, “प्रभावशाली हिंदू नेताओं ने प्रतिबंध के खिलाफ जुलूस निकालने का आह्वान किया जिसमें 20 हजार हिंदुओं ने भाग लिया.” “हिंदुओं की संगठित परिचालन की संभावित शक्ति की हेडगेवार और अन्य हिंदू नेताओं ने तुरंत प्रशंसा की.”
कानूनगो बताते हैं, इसके बाद नागपुर में राष्ट्रीय महासभा की शाखा के रूप में हिंदू सभा की स्थापना हुई जिसके उपाध्यक्ष मोनजे और सचिव हेडगेवार बने. बाद में मुसलमानों के ऊपर जीत के उद्घोष की शुरुआत हुई. देशपांडे और रामास्वामी लिखते हैं, सार्वजनिक जगहों पर भजन गाने की परंपरा का प्रचार जोश के साथ किया गया.” “पूरे शहर में जय विट्ठल जय जय विट्ठल का मंत्र गूंज रहा था. लोगों के मूड को भांप कर सरकार ने हिंदुओं को नमाज के पांच वक्तों को छोड़कर किसी भी समय मस्जिद के करीब से गुजरते हुए भजन गाने की इजाजत दे दी.”
दोनों लेखकों के अनुसार, “इस हार के बाद मुसलमान नाराज हो गए थे” और हेडगेवार और मोनजे को धमकियों वाले पत्र मिले. “लेकिन लोगों की इच्छाशक्ति को बनाए रखने के लिए दोनों नेता शहर के सभी भागों में बेखौफ घूमते थे.” क्योंकि मुसलमानों से हिंदुओं के अंदर भय था इसलिए मस्जिद के सामने आते ही बैंड वाले धीमे बजाने लगते तब डॉक्टरजी स्वयं बाजा थाम लेते और हिंदुओं की मर्दानगी को ललकारते.”
इस आक्रमक परिचालन पर आधारित होकर 27 सितंबर 1925 को नागपुर में दशहरा के दिन आरएसएस की स्थापना की गई. उद्घाटन बैठक में पांच लोगों ने भाग लियाः हेडगेवार, मोनजे, वीडी सावरकर के भाई गणेश दामोदर सावरकर, एलवी परांजपे और बीबी थोलकर. हालांकि इन पांचों ने एक प्रकार से आरएसएस की स्थापना की थी और मोनजे और सावरकर ने इसकी स्थापना में अहम भूमिका निभाई थी तो भी संघ ने निरंतर इन लोगों की भूमिका को नजरअंदाज किया है और हेडगेवार की भूमिका पर जोर दिया है.
देशपांडे और रामास्वामी ने 4 सितंबर 1927 को “हजारों मुसलमानों” के जुलूस के जवाब में “संघ की पहली क्रांति” के बारे में विस्तार से लिखा है. उन्होंने लिखा, “जुलूस निकालने वाले लाठियों, तलवारों और दूसरे घातक हथियारों से पूरी तरह लैस थे.” “अल्लाह हो अकबर,” “दीन दीन” जैसे नारे हवा में गूंज रहे थे. “मुसलमानों का जंग की मुद्रा ने हिंदुओं के दिलों में डर व्याप्त कर दिया था. लेकिन एक सौ के आसपास संघ के योद्धा हिंदू समाज की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्पित थे.” “एक वक्त ऐसा आया” वे लिखते हैं, “मुस्लिम गुंडों ने हिंदुओं को गालियां देना और उन पर हमला करना शुरू कर दिया. हालांकि यह एक भयानक झटका था लेकिन सतर्क स्वयंसेवकों ने तुरंत हमलों का प्रतिकार किया. समूहों के बीच यह मुठभेड़ तीन दिनों तक जारी रही और अंत में हिंदुओं की जीत हुई.” सैकड़ों मुस्लिम गुंडों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और 10-15 की मौत हो गई. 4-5 हिंदू भी मारे गए जिनमें से एक स्वयंसेवक का नाम धुंधिराजा लेहगांवकर था.”
संघ ने इस घटना को अपने विकास के लिए महत्वपूर्ण माना है. सेना के आने के बाद शांति स्थापित हो गई”, लेखक लिखते हैं. “उस दिन के बाद इतिहास ने एक नया मोड़ ले लिया. हिंदुओं के पीछे हटने का वक्त गुजर चुका था.”
हिंदू महासभा ने अपना ध्यान राजनीतिक गतिविधियों पर केन्द्रित किया और आरएसएस को एक काडर वाले सामाजिक आंदोलन की तरह देखा गया जो हिंदू समाज के भीतर रह कर काम करेगा. यह विचार नया नहीं था. 20वीं सदी के पहले दशक में विवेकानंद की आयरिश शिष्य मार्गेट नोबल ने कांग्रेस पार्टी को बस “समझ में न आ सकने वाले बड़े लेकिन यकीनन कम संगठित पक्ष- राजनीतिक पक्ष” वाली पार्टी बताया था. उन्होंने जोर दिया कि राष्ट्रीय आंदोलन की गैर राजनीतिक शाखा भी होनी चाहिए.” नोबल ने मिशनरी की भूमिका निभाने के लिए छात्रों का आह्वान किया और जादुई लालटेन, पोस्टकार्ड, भारत का नक्शा और दिलों में कथाओं और गीतों को भर कर और भूगोल का विवरण लेकर यात्रा करने का आह्वान किया.” उनकी कल्पना थी कि ये मिशनरी, “भारत! भारत! भारत! की कहानियां, गीत और विवरण” पेश करेंगे. इनके जरिए यह संदेश जाएगा कि “हमारी मातृभूमि यही है और कोई नहीं. हम सब भारतीय हैं”. इस तरह के विचार ने शुरुआती स्वरूप 1920 में ही ले लिया था जब परांजपे और हेडगेवार ने वर्दीधारी 1000 कांग्रेस स्वयंसेवकों की सेना का गठन किया था जिसे भारत स्वयंसेवक मंडल कहा गया, जिसने पार्टी के नागपुर सत्र में आए 15000 प्रतिभागियों के रहने-खाने का इंतजाम किया.
इस सत्र के एक साल बाद हेडगेवार के हाथों एक किताब लगी जिसमें एक ऐसी विचारधारा पेश की गई थी जो उनके मुस्लिम विरोधी झुकाव को वैचारिक जामा प्रदान करती थी. देशपांडे और रामास्वामी ने लिखा, “वीर सावरकर की ऐतिहासिक किताब हिंदुत्व डॉक्टर जी के हाथ लग गई.” सावरकर ने इस किताब को अंडमान में लिखा था और बहुत मुश्किल और चतुराई से इसे बाहर भेजा था. हिंदुत्व के विचार को सावरकर ने जिस प्रेरणादायक और शानदार ढंग से पेश किया था उसमें तार्किकता और साफगोई थी, इस बात ने डॉक्टर जी के मन में जगह बना ली.” किताब में सावरकर के दावे मुस्लिमों के प्रति संदेह से भरे थे जिसे वे बाहरी मानते थे. उदाहरण के लिए, उनका तर्क था कि वे मुसलमान जो अपने धर्म में विश्वास करते हैं वे कभी हिंदुत्व की अवधारणा वाले राष्ट्रवाद का हिस्सा नहीं हो सकते. इस किताब ने हेडगेवर के पूर्वाग्रहों को विचाराधारत्मक आधार दिया.
संघ ने शुरुआती दौर में 12 से 15 वर्ष की आयु के स्कूली बच्चों की भर्ती की. जब उनके कॉलेज जाने का वक्त आया तो हेडगेवार ने उन्हें नागपुर के बाहर अध्ययन करने और आरएसएस की पहुंच का विस्तार करने के लिए प्रोत्साहित किया. युवा भर्ती शाखाओं में दिए जाने वाले प्रशिक्षण की जरूरत को प्रतिबिंबित करती है जिन्हें हेडगेवार ने पहली बार आकर्षित किया था लेकिन भर्ती की उम्र में वृद्धि के बावजूद बदलाव नहीं आया. हेडगेवार के जीवनी लेखक आरएसएस में भर्ती के लिए शुरुआती प्रशिक्षण का वर्णन करते हैं. जिसमें “शारीरिक प्रशिक्षण से संबंधित गतिविधियां” जैसे “ड्रिलिंग का प्रशिक्षण, मार्चिंग” और “राष्ट्रीय मामलों पर प्रवचन” शामिल हैं. हेडगेवार ने दैनिक गतिविधियों के शुरू में भगवा ध्वज को प्रणाम करने और अंत में प्रार्थना करने की परंपरा शुरू की.”
संगठन की संरचना बनने में कुछ वर्षों का समय लगा यहां तक कि संगठन का नाम भी गठन के एक साल बाद तय किया गया. देशपांडे और रामास्वामी के अनुसार, भारत स्वयंसेवक मंडल को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम “डॉक्टर जी ने लंबे और गहन विचार-विमर्श के बाद विकसित हुआ. विशेष रूप से, हिंदू को संगठित करने के लिए “राष्ट्रीय” शब्द का चुनाव इस तथ्य पर जोर देना था कि हिंदू ही भारत राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी हैं और हिंदुओं को संगठित करना सर्वोच्च राष्ट्रीय महत्व का कार्य है.” अगले वर्ष, एक प्रक्रिया शुरू की गई जिस के तहत संघ के स्वयंसेवकों ने इसे बनाए रखने के लिए “गुरु दक्षिणा” के रूप में दान देना आरंभ किया- यह अभ्यास आज भी जारी है.
संघ की शुरुआती भर्ती में एक व्यक्ति प्रभाकर दानी भी थे, जिन्होंने देश के शैक्षिक परिसरों में संघ की शाखाएं खोलने वाले हेडगेवार के विचार के अनुसार बीएचयू में स्नातक की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया. गोलवलकर इस समय विश्वविद्यालय में काम कर रहे थे. 1928 में दानी ने बीएचयू में विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय के आशीर्वाद से एक शाखा खोली. जबकि गोलवलकर प्राणीशास्त्र के लेक्चरार थे, उनके जीवनी लेखक भिषिकर के अनुसार, “वह अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित और दर्शनशास्त्र जैसे विषय भी अपने छात्रों और दोस्तों को पढ़ाने में सक्षम थे.” दानी ने जितना संभव हो सके श्री माधवराव गोलवलकर के शिक्षक के रूप में गुणों से लाभान्वित होने का प्रयास किया. इस कारण माधवराव गोलवलकर बीच-बीच में शाखा आने-जाने लगे. लड़कों ने माधवराव की मदद न केवल अध्ययन में ली बल्कि शाखा में उनके भाषणों का भी आयोजन किया.”
ऐसा लगता है कि शाखा कार्यकर्ताओं ने गोलवलकर की नेतृत्व क्षमताओं को तुरंत पहचान लिया था. भिषिकर लिखते हैं, “स्वयंसेवक माधवराव के साथ ऐसा व्यवहार करते थे जैसे कि वह विश्वविद्यालय शाखा के संरक्षक और प्रमुख हों.”
1932 में हेडगेवार ने संघ के विजया दशमी समारोहों के लिए गोलवलकर को नागपुर आमंत्रित किया. “इस प्रवास के दौरान अपने व्यक्तिगत संपर्क में, डॉक्टर जी ने श्री गुरुजी को संघ के काम की स्पष्ट जानकारी दी”, भिषिकर ने लिखा. “नतीजतन, श्री गुरुजी बनारस लौटने के बाद विश्वविद्यालय की शाखा में अधिक रुचि लेने लगे.”
1933 में गोलवलकर नागपुर लौट आए. हेडगेवार गोलवलकर को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपने के लिए तत्पर थेः उन्हें नागपुर शाखा का प्रभार दे दिया गया- जो हमेशा आरएसएस के काम के लिए केंद्रीय रहा है- और उन्हें मुंबई में संघ का विस्तार करने का काम सौंपा. हेडगेवार के लगभग सभी अन्य सहयोगियों के विपरीत, गोलवलकर का कांग्रेस या महासभा के साथ कोई संबंध नहीं था, जिसने हेडगेवार को शायद यह विश्वास दिलाया था कि वे आरएसएस के लिए पूरी तरह से समर्पित होंगे.
गोलवलकर ने इन जिम्मेदारियों को संभालना शुरू किया लेकिन साथ ही वे नागपुर के रामकृष्ण मिशन आश्रम में काफी समय बिताने लगे. ऐसा लगता है कि संघ के काम, स्पष्ट रूप से राष्ट्र को समर्पित और आश्रम की गतिविधियों के बीच चुनने में वे वास्तव में एक दुविधा का सामना कर रहे थे, संभवतः आध्यात्मिक आत्म-प्राप्ति के उद्देश्य से. 1936 में गोलवलकर ने पश्चिम बंगाल के सरगाची में रामकृष्ण मिशन आश्रम के लिए नागपुर छोड़ा दिया, जहां अखंडानंद द्वारा शुरू किए गए आध्यात्मिक मार्ग की यात्रा आरंभ की. अखंडानंद रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे. एक साल बाद, अखंडानंद की मृत्यु के बाद ही गोलवलकर संघ के साथ अपना काम फिर से शुरू करने के लिए नागपुर लौट आए.
गोलवलकर पर उनके निबंध में मोदी ने एक वाकया सुनाया है जहां गोलवलकर से उनके विभाजित विचारों के बारे में पूछने की बात है. “दैनिक तरुण भारत के संपादक भूसाहेब मदकहोल्कर ने श्रद्धेय गुरुजी से लंबी बात की थी. उस वक्त डॉक्टर जी भी उपस्थित थे. मोदी ने लिखा, “एक सवाल यह था “मैंने सुना है कि आप संघ को बीच में छोड़ कर बंगाल के रामकृष्ण आश्रम चले गए थे. वहां आपने स्वामी विवेकानंद के गुरुबंधू, या साथी शिष्य के अधीन दीक्षा ली. “तो फिर आप संघ में कैसे लौट आए?”
मोदी ने कहा, “गोलवलकर, इस सवाल से चकित हो गए. उन्होंने इस पर आधी खुली आंखों से विचार किया. थोड़ी देर के बाद उन्होंने धीरे-धीरे बात करना शुरू किया. उन्होंने कहा, “आपने एक अप्रत्याशित सवाल पूछा है. आश्रम और संघ की भूमिका के बीच कोई अंतर है या नहीं यह डॉक्टर जी अधिक आधिकारिक रूप से बता सकते हैं. मेरा झुकाव हमेशा राष्ट्र निर्माण के कार्य के साथ अध्यात्म के प्रति रहा है. यह काम मैं संघ के साथ अधिक अच्छे तरीके से कर सकता हूं यह बात मैंने बनारस, नागपुर और कलकत्ता की अपनी यात्राओं से जानी. और इसलिए मैंने स्वयं को संघ को समर्पित कर दिया है. मुझे लगता है कि यह स्वामी विवेकानंद के संदेश के अनुरूप है. मैं किसी और से अधिक उनसे प्रभावित हूं. मुझे लगता है कि मैं केवल संघ में उनके लक्ष्यों को आगे बढ़ा सकता हूं.”
बौद्धिक उत्पादन के मामले में हेडगेवार और गोलवलकर के बीच अंतर काफी हद तक था. हेडगेवार की जीवनी में, उनके आधारभूत मान्यताओं का सवाल एक पैराग्राफ में निपटा दिया गया है, जिसमें कहा गया था, “अविश्वसनीय तर्क और स्पष्टता के आधार पर सावरकर की “हिंदुत्व” की अवधारणा के प्रेरणादायक और शानदार प्रदर्शन ने डॉक्टर जी के दिल को छू लिया था.” पुस्तक में दावा किया गया है, “हेडगेवार भी अपनी स्पष्ट ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि और व्यावहारिक अनुभव से हिंदू राष्ट्रवाद की उसी सच्चाई पर पहुंचे थे.” इसके विपरीत, गोलवलकर के लेखन और भाषणों को उनकी मृत्यु के बाद 12-वॉल्यूम के सेट में छापा गया.
हिंदुत्व पर सावरकर की पुस्तक की केंद्रीयता के बावजूद, जब आम स्वयंसेवक विचारधारात्मक मुद्दों पर चर्चा करते हैं, तो उनकी अधिकांश प्रतिक्रियाएं बंच ऑफ थॉट्स में निहित होती हैं, जो 1966 में प्रकाशित हुई थीं. भले ही स्वयंसेवक ने व्यक्तिगत रूप से पुस्तक को पढ़ा न हो, बौद्धिकों के उपदेशों के माध्यम से- मोटे तौर पर, विचारधारात्मक प्रवचन- शाखा प्रशिक्षण के दौरान वह बार-बार इसमें जो कुछ भी शामिल होता है, उसे सुना होगा.
लेकिन गोलवलकर की एक और किताब है जिससे संघ ने आधिकारिक तौर पर खुद को दूर कर लिया है. यह किताब है 1936 में प्रकाशित वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड. गोलवलकर के आरएसएस प्रमुख बनने से एक साल पहले लेकिन निर्विवाद रूप से संगठन के महत्वपूर्ण व्यक्ति बन जाने के बाद यह किताब आई थी.
उस दौर में, ऐसा लगता है, गोलवलकर की किताब और संघ के विकास में कोई मतभेद नहीं था. फरवरी 1939 में महाराष्ट्र के सिंदी में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की बैठक में शामिल होने वालों में गोलवलकर भी एक थे. उनकी जीवनी के अनुसार, बैठक का आयोजन “विभिन्न विषयों” पर चर्चा करने के लिए किया गया था, चर्चा में “शाखा की कार्यप्रणाली, उसमें इस्तेमाल किए जाने वाले कमांड, प्रार्थना आदि विषय शामिल थे.” हालांकि गोलवलकर को “नए सहयोगी” के रूप में आमंत्रित किया गया था. यह वर्णन बताता है कि इन बैठकों के दौरान ही हेडगेवार ने पहलेपहल गोलवलकर को अपने बाद सरसंघचालक बनाने का विचार बनाया था.
गोलवलकर की जीवनी में अप्पाजी जोशी द्वारा बैठक के एक विवरण के बारे में लिखा है. अप्पाजी को हेडगेवार का दाहिना हाथ माना जाता था जो स्वयं संघ का नेतृत्व करने वालों में संभावित उम्मीदवर थे. जोशी ने हेडगेवार को यह कहते हुए याद किया है, “श्री गुरुजी को भविष्य में सरसंघचालक के रूप में कैसे देखते हैं?” बैठक में चर्चा के दौरान मेरे अनुभव के आधार पर मैंने नि:संकोच होकर जवाब दिया, “बढ़िया रहेगा! सबसे उत्तम चुनाव,” किताब में जोशी को ऐसा कहते उद्धृत किया गया है. पुस्तक में यह भी कहा गया है कि हेडगेवार की मृत्यु के बाद, गोलवलकर के नेतृत्व के बारे में संघ के भीतर आशंका थी. जोशी के प्रशंसक एक वकील ने उन्हें बुलाया और कहा, “अप्पाजी, आप डॉक्टर जी के दाहिने हाथ थे. तो आपको संघ के काम की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए. श्री गुरुजी इसे संभालने में सक्षम नहीं होंगे.” इस बात पर जोशी ने जवाब दिया, “अगर मैं डॉक्टर जी का दाहिना हाथ था, तो गुरुजी उनका हृदय थे”.
सिंदी की बैठक के महीने बाद गोवलकर ने नेशनहुड प्रकाशित की. यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि यदि उन्हें यह एहसास रहा होता कि उनके द्वारा व्यक्त विचार और संघ की विचारधारा में अंतरविरोध है तो वे इसे प्रकाशित करने का शायद साहस नहीं कर पाते. दूसरी ओर, वे सरसंघचालक एक वर्ष बाद बने और यदि संघ को लगता कि उनके विचार संगठन से अलग है तो शायद वे सरसंघचालक नहीं बन पाते. तार्किक तौर पर यह माना जा सकता है कि हेडगेवार और संघ दोनों ने गोलवलकर के विचारों को सहजता से स्वीकार किया.
बाद में जाकर ही संघ को किताब से दूर होने की जरूरत महसूस हुई. 1948 में गांधी की हत्या के बाद जब भारत सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया तब कहीं संघ अपनी सार्वजनिक भाषा और छवि पर बहुत ध्यान देने लगा. लेकिन 1938 और 1939 में लिखते वक्त गोलवलकर को सावधानी बरतने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई.
नेशनहुड में गोलवलकर बेहिचक हिंदू संस्कृति को फैलाने के प्रोजेक्ट की तुलना जमर्नी के यहूदी विरोध के साथ करते हैं. वे लिखते हैं, “नस्ल और संस्कृति को शुद्ध बनाए रखने के लिए जमर्नी ने यहूदियों का सफाया कर दुनिया को चौंका दिया.” “सर्वोत्तम रूप में नस्लीय गौरव वहां प्रकट हुआ. जमर्नी ने यह भी दिखाया है कि भिन्न भिन्न जड़ों वाली नस्लों और संस्कृतियों का एक हो जाना असंभव है. यह हिंदुस्तान के लिए एक अच्छा सबक है.”
गोलवलकर इस विचार को अपने तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचा कर कहते हैं कि “हिंदुस्तान में विदेशी जाति को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को अपनाना, हिंदू धर्म का सम्मान करना और आदरपूर्ण स्थान देना सीखना होगा, हिंदू जाति और संस्कृति यानी हिंदू राष्ट्र का और हिंदू जाति, की महिमा के अलावा और किसी विचार को नहीं मानना होगा और अपने अलग अस्तित्व को भुलाकर हिंदू जाति में विलय हो जाना होगा या उन्हें वे लोग हिंदू राष्ट्र के अधीन होकर, किसी भी अधिकार का दावा किए बिना, बिना विशेषाधिकार के, यहां तक नागरिक के रूप में अधिकारों से वंचित होकर देश में रहना होगा.” आज, आरएसएस की बात ही क्या अन्य छोटे हिंदुत्व संगठन भी जो गोलवलकर को अपना आदर्श मानते हैं, ये विचार स्वीकार नहीं कर पाएंगे.
राजनीतिक वैज्ञानिक शमशुल इस्लाम ने नेशनहुड की अपनी शानदार आलोचना में, उस किताब में नेशनहुड का पूरा पाठ भी है, बताया है कि, संघ की इस तरह की जहरीली विचारधारा में अपनी उत्पत्ति से इनकार करने के प्रयासों के कारण इसके समर्थकों को अजीबोगरीब रूप धारण करने को मजबूर किया है. अपनी पुस्तक “श्री गुरुजी और भारतीय मुसलमान” में आरएसएस के विचारक राकेश सिन्हा ने राष्ट्रवाद पर आरएसएस की आधिकारिक स्थिति बताई है. उन्होंने लिखा गोलवलकर के विचारों को “चुनिंदा और संदर्भ से हटा कर उद्धरण करना भारतीय अकादमिक जगत में अभूतपूर्व है.” उन्होंने बड़े पैमाने पर एक ग्रंथ “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड को उद्धृत किया है, जिसे 1939 में प्रकाशित किया गया था. एक परेशान और छद्म घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति ने निश्चित रूप से पुस्तक की सामग्री को प्रभावित किया.” सिन्हा ने तर्क दिया कि “तथ्य यह है कि पुस्तक न तो गुरुजी और न ही आरएसएस के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है. उन्होंने स्वयं भी स्वीकार किया था कि पुस्तक में उनका विचार नहीं है बल्कि वह “जीडी सावरकर की किताब राष्ट्र मिमांसा का एक संक्षिप्त संस्करण” था.
पांच आरएसएस संस्थापकों में से एक वीडी सावरकर के बड़े भाई को अलग अलग नाम से जीडी सावरकर, बीएस सावरकर या बाबाराव सावरकर के रूप में जाना जाता है. गोलवलकर ने अपनी किताब नेशनहुड की प्रस्तावना में लिखा है, “इस काम के पूरा करने में मुझे कई लोगों से मदद मिली है जिनका उल्लेख करना भी संभव नहीं होगा. मैं उन सभी को दिल से धन्यवाद देता हूं. लेकिन मैं देशभक्त जीडी सावरकर को याद किए बिना और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त किए बिना नहीं रह सकता. मराठी में प्रकाशित उनकी पुस्तक राष्ट्र मीमांसा मेरे लिए प्रेरणा और सहायता के मुख्य स्रोतों में से एक रही है. उस किताब का अंग्रेजी अनुवाद जल्द ही प्रकाशित होने वाला है और इस अवसर पर मैं पाठकों को इस विषय के विस्तृत अध्ययन के लिए पुस्तक का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करता हूं.” जाहिर है कि गोलवलकर जीडी सावरकर की किताब के बारे में जानते थे और उसमें प्रस्तुत विचारों का समर्थन करते थे और यह भी स्पष्ट करते हैं कि उनकी किताब सावरकर की किताब का अनुवाद न हो कर मूल किताब है.
गोलवलकर ने प्रस्तावना में भी लिखा है, “मैं गहरी राहत के साथ यह किताब पाठकों के हाथों में सौंप रहा हूं. आगे के पन्नों में जो कुछ भी लिखा है उसके बाद मेरे लिए यहां कुछ लिखने को नहीं रह जाता है. तो भी मैं इस प्रस्तावना को इस काम की सीमाओं के बारे में पाठकों को बताने के अवसर की तरह लेता हूं.” उनके इस दावे से इस तथ्य के बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता कि वे ही पुस्तक के लेखक थे. वास्तव में गोलवलकर के उपरोक्त बयान के बाद सिन्हा का दावा एक प्रकार से यह निष्कर्ष पेश करता है कि गोलवलकर ने आरएसएस के संस्थापकों में से एक की किताब को अपने नाम से प्रकाशित कराया था. जिसका मतलब यही होगा कि वे इस किताब के एक-एक हर्फ से सहमत थे.
जब मैंने पुस्तक के बारे में एमजी वैद्य से बात की, तो उन्होंने कहा कि उन्होंने इसे कभी नहीं पढ़ा, और ये भी कहा कि, यदि वह किताब उनकी है भी तो वह उनके सरसंघचालक बनने से पहले लिखी गई किताब है. उन्होंने जोर देकर कहा कि बंच ऑफ थॉट्स आरएसएस के लिए केंद्रीय किताब है. लेकिन तथ्य यह है कि गोलवलकर ने नेशनहुड में सार्वजनिक रूप से जब ये विचार प्रकट किए थे तब वे आरएसएस के वरिष्ठ कार्यकर्ता थे.
संघ के भीतर, स्वयंसेवक के बीच, इस बारे में कोई भ्रम नहीं है कि पुस्तक किसने लिखी है. नागपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर रामटेक शहर में गोलवलकर के पैत्रक घर को पुनर्निर्मित कर उनका स्मारक बना दिया गया है और यह संघ का जिला मुख्यालय भी है. पितृ देवता का मंदिर प्रवेश द्वार पर बना हुआ है और भूतल की बैठक में छोटे मेज पर भारत का वह मानक चित्र है जिसमें भारत को भारतमाता के रूप में दिखाया जाता है. पीछे की दीवार पर हेडगेवार, गोलवलकर और गोलवलकर के माता-पिता की तस्वीरें लटका दी गई हैं. मुझे पहली मंजिल का दौरा कराने के बाद, जिसमें गोलवलकर की पुरानी तस्वीरें दीवार की शोभा बढ़ा रहीं थीं, स्वयंसेवक राहुल वांकहाडे ने बताया, “मैंने सुना है कि यही वह जगह है जहां वी लिखी गई थी. गुरुजी ने एक रात में, एक ही बैठक में उसे लिखा था.”
1940 में सरसंघचालक बन जाने के बाद गोलवलकर ने संगठनात्मक विस्तार जारी रखा, विशेष रूप से विदर्भ क्षेत्र और केंद्रीय प्रांतों में, जिसे अपने जीवन के अंतिम तीन साल तक हेडगेवार ने देखा था. हालांकि उनके नेतृत्व में संघ ने शक्तिशाली हो रहे स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भागीदारी के सवाल को अलग रूप में देखा.
हेडगेवार ने कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम का काफी हद तक समर्थन किया था. 1930 में, जब पार्टी ने संपूर्ण आजादी का आह्वान किया तो हेडगेवार ने इसका समर्थन किया और कहा कि “उस लक्ष्य के लिए काम कर रहे किसी भी संगठन के साथ सहयोग करना हमारा कर्तव्य था.” उसी वर्ष, जब गांधी ने नमक सत्याग्रह की घोषणा की तब हेडगेवार ने घोषणा की कि संगठन के रूप में संघ इस आंदोलन में भाग नहीं लेगा, “जो लोग अपनी व्यक्तिगत क्षमता में भाग लेना चाहते हैं वे अपने संघचालकों की अनुमति लेकर ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं.” उन्होंने “हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति की रक्षा करने के बारे में कोई विचार न देने के लिए कांग्रेस की आलोचना की लेकिन यह भी कहा कि संघ “स्वतंत्रता प्राप्त करने के प्रयासों में कांग्रेस के साथ तब तक सहयोग करेगा जब तक कि ये प्रयास हमारी राष्ट्रीय संस्कृति को संरक्षित करने के रास्ते में नहीं आते.” यह स्पष्ट है कि यह ईमानदार घोषणा थी क्योंकि उस साल स्वयं हेडगेवार ने सरसंघचालक के पद से इस्तीफा दे दिया और उस सत्याग्रह में शामिल हो गए जिसमें केंद्रीय प्रांतों में वन कानूनों का उल्लंघन करना था. उन्हें गिरफ्तार कर नौ महीने के लिए जेल भेजा गया.
इसके विपरीत, गोलवलकर का राजनीतिक गतिविधि के लगभग कोई प्रत्यक्ष संपर्क नहीं था. जब कांग्रेस ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा की, तो गोलवलकर ने कहा, “शुरुआत से ही, संघ ने कुछ मामलों में कुछ सीमाओं का पालन करने का फैसला किया है.” उन्होंने तर्क दिया कि “कांग्रेसी नेता पर्याप्त तैयारी के बिना आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं.” कांग्रेस की तैयारी की स्वतंत्रता आंदोलन से दूरी रखने का उनका तर्क था. उन्होंने कहा, “सावधानीपूर्वक विचार करने के पश्चात मुझे एहसास हुआ है कि भले ही हम अपनी सारी शक्ति के साथ इसमें हिस्सा लें हम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते.” उन्होंने आगे कहा, “ऐसी स्थिति में, मुझे लगता है कि आंदोलन में संघ की भागीदारी से किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी.”
हेडगेवार के विपरीत, गोलवलकर ने आंदोलन में भाग लेने के लिए कोई व्यक्तिगत झुकाव नहीं दिखाया. कुछ मायनों में, आरएसएस को इस फैसले से फायदा हुआ क्योंकि यह उन चंद संगठनों में से एक था जिनका नेतृत्व इन वर्षों में बरकरार रहा. राष्ट्रीय आंदोलन में भाग न लेने के फैसले के कारण उसके सदस्यों में वितृष्णा तो पैदा हुई लेकिन शायद इसी वजह से इसे विस्तार करने का महत्वपूर्ण अवसर मिला. एक पुस्तक में वाल्टर के एंडरसन और श्रीधर डी दामले ने आरएसएस के प्रारंभिक वर्षों के बारे में कहा है कि ब्रिटिश सरकार के गृह विभाग के अनुसार 76000 पुरुष नियमित रूप से ब्रिटिश भारत में संघ की शाखाओं में भाग लेते थे.
आरएसएस हमेशा इस बात पर गर्व करता है कि आजादी और विभाजन के बाद उत्पन्न संकट के वक्त उसके स्वयंसेवकों ने पीड़ित शरणार्थियों की मदद के काम में काफी योगदान दिया. हालांकि संघ इस बात को भी सावधानी से छिपाता है कि इस भीषण समय में गोलवलकर ने नेशनहुड में व्यक्त अपने उन जहरीले विचारों को, जिसका खामोशी से हेडगेवार ने भी समर्थन किया था, उजागर किया. दो उदाहरण विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं जिनका विस्तार के साथ दस्तावेजीकरण किया गया है. दोनों एक अपरिहार्य तथ्य को इंगित करते हैं- गोलवलकर ने बड़े स्तर पर सांप्रदायिक हिंसा की योजना बनाने और भड़काने की कोशिश की.
पहले उदाहरण को राजेश्वर दयाल ने रिकॉर्ड किया था. दयाल विभाजन के वक्त संयुक्त प्रांत के गृह सचिव थे. बाद में वे युगोस्लाविया में भारतीय राजदूत नियुक्त हुए और उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. अपनी आत्मकथा, ए लाइफ ऑफ आवर टाइम्स, में उन्होंने लिखा कि भारत के आजाद होने के कुछ ही समय बाद “जब सांप्रदायिक तनाव चरम पर था, पश्चिमी रेंज के अनुभवी और सक्षम पुलिस महानिरीक्षक बीबीएल जेटली बहुत गोपनीय रूप से मेरे घर आए. उनके साथ उनके दो अधिकारी दो बड़े स्टील के बक्से उठाए हुए थे. जब ट्रंक खोले गए तो उनमें प्रांत के पश्चिमी जिलों में सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के अकाट्य साक्ष्य मिले.
दयाल के अनुसार, ट्रंकों में उस क्षेत्र के हर शहर और गांव के सटीक ब्लूप्रिंट थे, मुस्लिम बस्तियों और उनके मार्गों को स्पष्ट रूप से चिह्नित किया गया था “और ऐसी अन्य चीजें थीं जो उन लोगों के भयानक षडयंत्र को उजागर करती थीं.” उन्होंने इस मामले के बारे में प्रांतीय प्रमुख, जो आज के मुख्यमंत्री के समान पद था, जीबी पंत को सूचित किया. दयाल ने लिखा है, “समय रहते आरएसएस परिसर में मारे गए छापे ने बड़ी साजिश का खुलासा किया.” “पूरी साजिश संगठन के सुप्रीमो के दिशानिर्देश और पर्यवेक्षण में बनाई गई थी. जेटली और मैंने मुख्य आरोपी श्री गोलवलकर की तत्काल गिरफ्तारी के लिए दबाव बनाया जो अभी भी क्षेत्र में थे.”
हालांकि, पंत ने मामले से बचते हुए इसे कैबिनेट के सामने रखा. दयाल ने बताया है कि यह राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामला था क्योंकि “आरएसएस की जड़ें राजनीति में गहरे तक जम चुकीं थी.” वे लिखते हैं आरएसएस के शुभचिंतक, “छिपे और जाहिरी तौर पर कांग्रेस पार्टी में और यहां तक कि मंत्रिमंडल में भी थे.” कैबिनेट ने केवल यह फैसला किया कि पंत गोलवलकर को पत्र लिख कर प्राप्त साक्ष्य के बारे में उनसे स्पष्टीकरण मांगे. दयाल लिखते हैं, “गोलवलकर को मुखबिरी कर दी गई थी और वे गायब हो गए.” उन्हें दक्षिण की ओर जाते देखा गया लेकिन जो लोग उनको खोजने गए थे उन्हें चकमा देने में वे सफल हो गए.”
दूसरी घटना का संबंध 1947 की दिसंबर में दिल्ली की घटनाओं से है. इन घटनाओं का विवरण नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय के अभिलेखागार के सेक्शन में पाया जा सकता है, जिसमें दिल्ली पुलिस के रिकॉर्ड के पीले रंग वाले पृष्ठ हैं जो स्वतंत्रता के वर्ष में राष्ट्रीय राजधानी में आरएसएस गतिविधियों के बारे में बताते हैं. इनमें से कुछ काम अपराध जांच विभाग के इंस्पेक्टर करतार सिंह का है जिन्होंने दाईं तरफ झुकी, साफ सुथरी हस्तलिपी में शुद्ध अंग्रेजी में संघ की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों को विस्तार से लिखा है. उनके नोट्स गोलवलकर के सार्वजनिक भाषणों और आरएसएस की गुप्त तैयारियों के भेद का पर्दाफाश करते हैं.
7 दिसंबर 1947 को करतार सिंह ने लिखा, “आरएसएस की दिल्ली शाखा का वार्षिक सम्मेलन आज दोपहर 3 बजे से शाम 5 बजकर 30 मिनट तक दिल्ली के रामलीला मैदान में मनाया गया.” सिंह ने रिपोर्ट दी, “कार्यक्रम में 50000 स्वयंसेवकों और उतनी ही संख्या में आम लोगों ने हिस्सा लिया.” एम एस गोलवलकर, संघ के ‘गुरु’ 3 बजने के कुछ देर बाद आए.” सिंह के अनुसार गोलवलकर ने 90 मिनट तक भाषण दिया जिसमें उन्होंने आरएसएस के विस्तार और उसकी आलोचना की चर्चा की. गोलवलकर ने दावा किया कि संघ, “राजनीतिक दल नहीं है और कई संगठनों के अनुरोध के बावजूद संघ ने उनके साथ विलय होने या सहयोग करने से इनकार किया है.” संघ की आलोचनाओं के बारे में गोलवलकर ने कहा, “इन बातों में कोई बुद्धिमानी नहीं है.” उन्होंने आगे कहा, “संघ को एक आतंकी संगठन कहा जा रहा है. यह बड़े खेद की बात है कि वर्तमान सरकार भी अंग्रेज नौकरशाही की तरह की अज्ञानता का प्रदर्शन कर रही है.” गोलवलकर ने इस बात का खंडन किया कि संघ हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए काम कर रहा है. सिंह ने गोलवलकर को यह कहते रिकॉर्ड किया है, “कई पक्षों में यह कहा जा रहा है कि संघ ‘हिंदू राज’ चाहता है. लेकिन हेडगेवार ने कभी ऐसी बात नहीं की और जहां तक उन्हें याद है संघ की आपसी बातचीत में भी उन्होंने इस तरह की बातें नहीं सुनी हैं.”
अगली शाम, करतार सिंह ने रोहतक रोड पर एक और बैठक के संबंध में रिपोर्ट दायर की. सिंह ने कहा, “इस बैठक में किसी भी बाहरी व्यक्ति को आने नहीं दिया गया था.” गोलवलकर ने इस कार्यक्रम में अपने संबोधन में एक बहुत ही अलग स्वर में बात की, जिसमें “लगभग 2500 स्वयंसेवकों” ने भाग लिया था. “हमें शिवाजी की लाइन और रणनीति के तहत गुरिल्ला युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए.” “संघ तब तक संतुष्ट नहीं होगा जब तक कि वह पाकिस्तान को खत्म नहीं कर देता. अगर कोई हमारे रास्ते में आएगा तो हमें उसे भी खत्म करना होगा चाहे वह नेहरू सरकार हो या और कोई सरकार. संघ को खरीदा नहीं जा सका. स्वयंसेवकों को अपना काम जारी रखना चाहिए.” मुस्लिमों के बारे में गोलवलकर के कथन को सिंह ने इस प्रकार दर्ज किया है, “दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें हिंदुस्तान में नहीं रख सकती. उन्हें इस देश से बाहर जाना ही होगा.” गोलवलकर ने आरोप लगाया कि गांधी “मुसलमानों को भारत में रखना चाहते हैं ताकि चुनाव के समय कांग्रेस को उनके वोट मिल सकें. लेकिन, उस वक्त के आने से पहले भारत में एक भी मुसलमान नहीं बचेगा. अगर उन्हें यहां रहने दिया गया तो उनके लिए सरकार जिम्मेदार होगी हिंदू समुदाय नहीं.” गोलवलकर ने कहा, “गांधी अब उन्हें गुमराह नहीं कर सकते.” फिर, उन्होंने एक अशुभ चेतावनी दी, “हमें पता है कि ऐसे लोगों को कैसे एक बार में शांत करना है लेकिन हमारी परंपरा है कि हिंदुओं को कुछ नहीं होना चाहिए. लेकिन यदि हमें मजबूर किया गया तो हम लोग वह भी कर सकते हैं.”
1947 में दो दिनों के दौरान गोलवलकर ने सार्वजनिक तौर पर दावा किया कि आरएसएस आतंकी संगठन नहीं है और स्वयंसेवकों को गुरिल्ला युद्ध के लिए तैयार रहने का आह्वान भी किया, यह दावा भी किया कि आरएसएस ने कभी हिंदू राज की बात नहीं की और धमकी दी कि भारत में एक भी मुसलमान को नहीं रहने दिया जाएगा. बंद दरवाजे की बैठक में, लेकिन सार्वजनिक रूप से कभी नहीं, गोलवलकर, विशेष रूप से गांधी का नाम लिया और धमकी दी कि जो भी व्यक्ति आरएसएस के सामने आएगा उसे शांत कर दिया जाएगा.
एक महीने बाद, 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में नाथूराम गोडसे ने गांधी को गोली मार दी थी.
हत्या के चार दिन बाद 3 फरवरी को गोलवलकर को गिरफ्तार कर लिया गया. एक दिन बाद, आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. सरकार ने इस प्रतिबंध को न्यायसंगत ठहराते हुए कहा था “संघ के सदस्यों द्वारा अवांछित और यहां तक कि खतरनाक गतिविधियां भी की गई हैं.” विवरण भयावह थे. नोटिस में कहा गया है, यह पाया गया है कि देश के कई हिस्सों में आरएसएस के अलग-अलग सदस्यों ने आग लगने, चोरी, डकैती और हत्या से जुड़ी हिंसा के कृत्यों में भाग लिया हैं और अवैध हथियारों और गोला बारूद जमा किया हैं.” “उन लोगों ने सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करने, पुलिस और सेना को अपने पक्ष में करने, हथियार इकट्ठा करने, आतंकवादी तरीकों का सहारा लेने जैसे कृत्यों के लिए पर्चे बांटे.”
सरकार की कार्रवाई से आरएसएस के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया लेकिन अगले एक साल में गोलवलकर ने आरएसएस को संकट से बाहर निकाल लिया. ऐसा करने के लिए गोलवलकर ने खुला और छिपा परिचालन किया, सार्वजनिक वक्तव्य और बहस और राजनीतिक लॉबिंग का सहारा लिया. उप प्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने इस संगठन के बचे रहने में मुख्य भूमिका निभाई.
आरंभ में, प्रतिबंध के एक दिन बाद, गोलवलकर ने सतर्क शब्दों में लगभग कूटनीतिक वक्तव्य जारी किया. “आरएसएस की नीति हमेशा से ही कानून का पालन करने की रही है और उसने कानून के दायरे में रह कर काम किया है.” “और चूंकि सरकार ने आरएसएस को गैरकानूनी संस्था घोषित किया है इसलिए यह उचित होगा कि जब तक उस पर प्रतिबंध लगा रहता है उसे भंग कर दिया जाए साथ ही संघ सभी आरोपों को खंडन करता है.”
एंडरसन और दामले के अनुसार, “प्रतिबंध और उपरोक्त निर्देशों के बावजूद बड़ी संख्या में स्वयंसेवक नियमित रूप से आपस में मिलते रहे.” किताब में लिखा है कि संगठन के हर स्तर के आरएसएस पदाधिकारियों की गिरफ्तारी के बावजूद “संगठन के युवा कार्यकताओं ने गोपनीय ढांचा तैयार किया और इसे बनाए रखा.”
आने वाले दिनों में यह स्पष्ट हो गया कि हत्या और हत्या का षडयंत्र हिंदू महासभा के एक हिस्से ने बनाया था लेकिन ऐसा वतावरण बनाने में जिसमें यह अपराध हुआ आरएसएस की मुख्य भूमिका थी. 18 जुलाई 1948 को हिंदू महासभा के पूर्व अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गृहमंत्री रहे वल्लभ भाई पटेल ने गांधी की हत्या में आरएसएस और हिंदू महासभा की भूमिका पर पत्र में लिखा, “इन दो संगठनों की गतिविधियों के परिणाम स्वरूप, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के कारण, देश में ऐसा माहौल बना जिसमें यह त्रासदी हो सकी. मेरे दिमाग में इस बात की कोई शंका नहीं है कि हिंदू महासभा का उग्र हिस्सा इस षडयंत्र में शामिल था. आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए स्पष्ट तौर पर खतरा हैं. हमारी रिपोर्टों के मुताबिक प्रतिबंध के बावजूद ये गतिविधियों बंद नहीं हुई हैं.” हिंसा भड़काने के लिए आरएसएस की भूमिका को मानते हुए भी सरकार गांधी हत्या पर उसके खिलाफ प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं जुटा पाई जिसके कारण अधिकांश कार्यकर्ता रिहा हो गए.
अगस्त में गोलवलकर को भी रिहा कर दिया गया लेकिन कुछ शर्तों के साथ. उन्हें सार्वजनिक सभा न करने और कुछ भी प्रकाशित करने से पहले सरकार की अनुमति लेने को कहा गया. उसी वर्ष पटेल ने आरएसएस की गतिविधियों पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए गोलवलकर को पत्र लिखा. हिंदुओं को एक करना और उनकी मदद करना एक बात है और उनकी तकलीफों के लिए निर्दोष और बेबस आदमियों, औरतों और बच्चों से बदला लेना दूसरी बात है.” पटेल ने कांग्रेस पार्टी के प्रति आरएसएस के विरोध पर कहा, “वह भी जहरीली जिसमें व्यक्तित्व की शिष्ठता और मर्यादा तक का ख्याल नहीं रखा जाता” की निंदा की और तर्क किया कि, “इसने लोगों के अंदर एक प्रकार की अशांति उत्पन्न की है.”
पटेल ने जोड़ा कि संघ के नेताओं के “भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे हैं. हिंदुओं को संगठित करने और उनमें उत्साह भरने के लिए जहर फैलाने की आवश्यकता नहीं है. उस जहर के अंतिम परिणाम के रूप में देश को गांधीजी के अमूल्य जीवन की आहुति देनी पड़ी.” पटेल ने जोर दिया कि सरकार और जनता अब आरएसएस का विरोध करते हैं. उन्होंने लिखा, “यह विरोध तब और बड़ा हो गया जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी मौत का जश्न मनाया और मिठाईयां बांटी.” “ऐसी परिस्थितियों में सरकार के लिए यह जरूरी हो गया था कि वह आरएसएस पर प्रतिबंध लगाए.” और सरकार को यह आशा थी कि आरएसएस अपने तौर तरीकों को बदलेगा लेकिन छह महीने बाद की रिपोर्टों में यह दिखता है कि अपनी पुरानी गतिविधियों को नया जीवन देना का प्रयास जारी है.”
अक्टूबर में गोलवलकर के ऊपर से यात्रा प्रतिबंध को हटा लिया गया. उन्होंने सरकार से बातचीत करने के लिए दिल्ली की यात्रा की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. गोलवलकर को फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और वे नागपुर लौट आए.
इस अनिश्चिता और भ्रम के माहौल में गोलवलकर ने संघ के भविष्य की रूपरेखा तैयार की. आरएसएस के भीतर से उठ रही मांगों के जवाब में गोलवलकर ने घोषणा की “एक और सुझाव दिया गया है कि आरएसएस को स्वयं को राजनीतिक दल बना लेना चाहिए- इसका अर्थ होगा कि राजनीति के अतिरिक्त बाकी के कामों को- संस्कृतिक कार्य जैसे पवित्र काम को भी अस्तित्व में रहने का कोई अधिकार नहीं होगा. यह कथन असोचनीय है और जो लोग यह कह रहे हैं उनको भी अच्छी छवि में नहीं रखता.” उन्होंने तर्क दिया, सांस्कृतिक काम सत्ता के लिए किए जाने वाले राजनीतिक कार्यों से अलग रहना चाहिए और इसका जिम्मा किसी राजनीतिक दल को नहीं दिया जाना चाहिए. इसलिए मुझे यह कहना पड़ रहा है कि उनके सुझाव जनता के सर्वोत्तम हितों के विपरीत हैं.”
गोलवलकर ने सत्याग्रह कर आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को चुनौती देने का प्रयास किया. यह सत्याग्रह दिल्ली में 9 दिसंबर को आरंभ हुआ. जिस वक्त यह सत्याग्रह आरंभ हुआ उस समय गोलवलकर अभी भी कैद में थे लेकिन इसके बावजूद आरएसएस के सूत्रों के मुताबिक 60000 लोगों ने हिस्सा लिया.
कुछ लोगों के अनुसार, आरएसएस के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करने के बावजूद भी पटेल संगठन के साथ करीब से रिश्ता रखने के पक्ष में थे. एडंरसन और दामले ने लिखा है, “आरएसएस की केन्द्रीय कार्यकारणी के सदस्य एकनाथ रानाडे जो सरकार के साथ गुप्त सौदेबाजी कर रहे थे ने उन्हें बताया कि पटेल ने आरएसएस के कार्यकर्ताओं को कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर पार्टी का संगठानिक आधार बनाने को कहा था.” लेखक द्वय का कहना है कि सौदेबाजी के करीब रहे आरएसएस नेताओं का कहना था कि पटेल आरएसएस के काडर का प्रयोग नेहरू की कुछ नीतियों की मुखालफत करने के लिए करना चाहते थे.”
इन आरोपों में कुछ सच्चाई हो सकती है. गोलवलकर ने पटेल को बार-बार पत्र लिखा और उनके आरएसएस के विरूद्ध बयानों को साक्ष्यों द्वारा प्रमाणित करने का आग्रह किया. उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री होने के नाते पटेल को उन साक्ष्यों का पता होगा ही जो जेटली ने पंत को दिए थे और दिल्ली पुलिस रिकॉर्ड में उपलब्ध जानकारी का भी पता होगा. यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्यों पटेल ने ये साक्ष्य गोलवलकर को नहीं दिखाए या सार्वजनिक नहीं किए.
उस वर्ष आरएसएस पर प्रतिबंध हटने के बाद पटेल का आरएसएस के प्रति झुकाव स्पष्ट हो गया. जब नेहरू देश से बाहर गए हुए थे तो कांग्रेस ने आरएसएस के सदस्यों को कांग्रेस की सदस्यता लेने को मंजूरी दे दी. नेहरू के लौटने पर इस निर्णय को जिसका पटेल के समर्थक समर्थन कर रहे थे और नेहरू के समर्थक विरोध संशोधित कर दिया गया. संशोधन के मुताबिक आरएसएस के वे सदस्य ही कांग्रेस में शामिल हो सकते थे जो संघ की सदस्यता छोड़ देते हैं.
आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए सरकार की शर्तों में से एक का पालन करते हुए गोलवलकर ने संघ का संविधान तैयार करने की बात मान ली. इस संविधान में सरकार के प्रति समर्थन का भाव था. इसकी एक मुख्य धारा में लिखा है, “संघ राजनीति से दूर है और वह मात्र सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों के लिए समर्पित है.” ''वाबजूद इस बात के संघ के स्वयंसेवक निजी तौर पर राजनीति अथवा अन्य प्रकार की किसी भी पार्टी, संस्थान या मोर्चे में शामिल हाने के लिए स्वतंत्र हैं. वे ऐसी किसी भी पार्टी, संस्थान या मोर्चों में शामिल नहीं हो सकते जिनकी वफादारी या विश्वास राष्ट्र से इतर है. वे हिंसा और संदिग्ध गतिविधियों द्वारा लक्ष्य प्राप्ति पर विश्वास करने वाले दलों और मोर्चों से भी नहीं जुड़ सकते और उनसे भी नहीं जो अन्य समुदायों या पंथों अथवा धार्मिक समूह के प्रति बैर या शत्रुता को प्रोत्साहन देने का प्रयास करते हैं.'' गोलवलकर ने जोर दिया कि ''उपरोक्त खंडित बातों या तरीकों से संबंध रखने वालों के लिए संघ में कोई जगह नहीं है.''
आरएसएस के सदस्यों को कांग्रेस पार्टी की सदस्यता न देने के फैसले ने संघ के भीतर हडकंप मचा दिया, इसके बहुत से नेता राजनीतिक महत्वकांक्षा रखते थे. एडरसंन और दामले के अनुसार इस फैसले ने संघ के भीतर ही विभाजनकारी बहसों को जन्म दिया जिसमें रणनीति और लक्ष्य के सवाल शामिल थे.” अंतत: परिणाम यह हुआ कि संघ गोलवलकर की मूल सोच से कहीं अधिक राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गया. इस बहस का एक और परिणाम यह निकला कि संघ ने संबद्ध संगठनों की स्थापना को मंजूर कर लिया.”
इन संबद्ध संस्थाओं में सबसे पुरानी संस्था है- अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद या एबीवीपी. एंडरसन और दामले के अनुसार जुलाई 1948 में ऐसे बहुत से छात्र संगठन दिल्ली में मिले जो संघ पर प्रतिबंध लगने के बाद स्वायत्त रूप से काम कर रहे थे. ये छात्र अखिल भारत स्तर के संगठन का संविधान बनाने के उद्देश्य से मिले थे. इस संस्था को जल्द ही कानूनी रूप से पंजिकृत करा लिया गया.
संबद्ध संस्थाओं के लिए गोलवलकर का दृष्टिकोण एकदम स्पष्ट था. उनकी जीवनी लेखक ने लिखा है, “इन सभी संगठनों को अपने निर्धारित काम के अतिरिक्त विचारधारात्मक रूप से संघ के कार्यकर्ता भर्ती करने के केन्द्र के रूप में काम करना होगा.” “उदाहरण के लिए विद्यार्थी परिषद में काम करने वालों को सुनिश्चित करना होगा कि अन्य विद्यार्थी भी प्रतिबद्ध स्वयंसेवक बने.” हालांकि ये संगठन दूसरे कामों पर जोर देते थे लेकिन गोलवलकर का मानना था कि “इनके सदस्यों को अन्य क्षेत्रों में वैचारिक पकड़ बनाते हुए इनसे प्रभावित होने से बचना चाहिए.”
पहले गोलवलकर ने राजनीति में आरएसएस के प्रवेश की खिलाफत की थी लेकिन संगठन पर लगा प्रतिबंध हट जाने के बाद ऑर्गनाइजर में ऐसे लेखों की एक श्रृंख्ला प्रकाशित हुई जो इसका पक्ष लेते थे और यह नामुमकिन है कि गोलवलकर की इजाजत के बिना ये लेख छपे थे. तो भी आगे चल कर जो पार्टी आरएसएस की राजनीतिक शाखा बनने वाली थी उसकी स्थापना आरएसएस के सदस्य ने नहीं बल्कि नेहरू कैबिनेट के मंत्री और हिंदू महासभा के पूर्व सदस्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की.
एबीवीपी के गठन में मुख्य भूमिका निभाने वाले पंजाब के आरएसएस प्रचारक बलराज मधोक 2008 में प्रकाशित एक लेख में लिखते हैं कि नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा देने के पश्चात मुखर्जी ने “हिंदू समुदाय के सभी पक्षों, खासकर आर्य समाज और आरएसएस से, अपनी प्रस्तावित पार्टी के लिए समर्थन मांगा.” मधोक आगे बताते हैं, “नई पार्टी के प्रति आर्य समाज का समर्थन उत्साहवर्धक था लेकिन आरएसएस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई.” तो भी मुखर्जी ने अपनी योजना को अमली जामा पहनाते हुए इंडियन पीपुल्स पार्टी नाम से नई पार्टी की घोषणा कर दी.
मधोक याद करते हैं कि संघ प्रतिक्रिया देने के बारे में अभी विचार कर ही रहा था कि “नई पार्टी की घोषणा ने आारएसएस के अंदर खलबली मचा दी. गांधी की हत्या के बाद उस पर लगे प्रतिबंध के परिप्रेक्ष्य में संघ का नेतृत्व राजनीतिक समर्थन की जरूरत महसूस कर रहा था. इसलिए संघ ने मुझसे कहा कि मैं डॉ मुखर्जी को जाकर कहूं कि आरएसएस इंडियन पीपुल्स पार्टी को समर्थन देने का इच्छुक है.”
तुरंत ही आरएसएस इस नई पार्टी के प्रमुख पक्षों पर अपनी हकदारी जमाने लगा. मधोक ने लिखा कि “आरएसएस के नेताओं ने नई पार्टी के लिए केसरी ध्वज और हिंदी नाम का सुझाव दिया.” संघ ने भारतीय लोक संघ और भारतीय जन संघ का सुझाव दिया. मुखर्जी ने भारतीय जन संघ का चयन किया क्योंकि “लोक का अर्थ भीड़ होता था जबकि जन का अर्थ जनता और इस शब्द का मातृभूमि के साथ अधिक नजदीकी संबंध था.” यहीं से एक राष्ट्रीय दल के रूप में भारतीय जन संघ की शुरुआत हुई.
मुखर्जी के साथ अपनी बातचीत के बारे में गोलवलकर के कथन से लगता है कि दोनों पार्टी और आरएसएस के संबंध को लेकर सतर्क थे लेकिन अंततः मुखर्जी इस बात के लिए तैयार हो गए कि पार्टी संघ की विचारधारा पर चलेगी. गोलवलकर बताते हैं, “संघ से डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अपेक्षाओं को देखते हुए मुझे लगा कि उन्हें सतर्क करा दूं.” मैंने उनसे कहा कि आरएसएस को राजनीति में नहीं खींचा जा सकता. संघ किसी पार्टी के नीचे काम नहीं कर सकता क्योंकि कोई भी संगठन किसी राजनीति दल के नीचे रह कर राष्ट्रीय जागरण का कार्य नहीं कर सकता.” गोलवलकर कहते हैं, “मुखर्जी ने उनकी बात मान ली.” गोलवलकर बताते हैं कि फिर दोनों इस बात पर सहमत हो गए कि, “यदि नई पार्टी संघ से सहयोग की अपेक्षा रखती है तो उसे संघ के विचारों को मानना होगा.”
ये एकदम साफ है कि आरंभ से ही जन संघ और उसके बाद बनने वाली बीजेपी की विचारधारा संघ की विचारधारा ही थी. व्यवहार में भी आरएसएस का पार्टी का नियंत्रण अटूट बना रहा. एंडरसन और दामले के अनुसार “नई पार्टी का सांगठनिक स्वरूप आरएसएस से बहुत कुछ मिलता जुलता था.” प्रांतीय इकाई में किसी गैर आरएसएस पृष्ठिभूमि के स्थानीय चिरपरिचित व्यक्ति को अध्यक्ष चुना जाता. इसके सचिव स्वयंसेवक प्रचारकों को बनाया जाता. इन सचिवों के जिम्मे जिला, नगर और वार्ड इकाइयों की स्थापना और विधानसभा और संसदीय चुनावों के उम्मीदवारों के लिए प्रचार अभियान चलाना होता.” मधोक लिखते हैं, “साथ ही पार्टी का संगठन उन स्थानों में आकार ग्रहण करने लगा जहां आरएसएस की शाखाएं थीं.”
1966 में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना करना गोलवलकर का अंतिम प्रमुख संस्थागत काम था. इस वक्त तक संघ का श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ बन चुका था और संघ को एक प्रकार का सम्मान हासिल हो चुका था जिसकी कल्पना वह 1948 में नहीं कर सकता था. चीन के साथ युद्ध के वक्त आरएसएस ने जिस प्रकार की भूमिका नागरिक प्रशासन में निभाई थी उसके कारण नेहरू भी एक हद तक नरम पड़ चुके थे और उसकी एक टुकड़ी को 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने दिया गया. 1965 में भारत पाक युद्ध के समय गोलवलकर उन चंद लोगों में से थे जिनसे तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शस्त्री ने परामर्श किया था.
एबीवीपी, जन संघ और बीएमएस की स्थापना के बाद गोलवलकर ने अपना ध्यान अपने सबसे चहेते उद्देश्य की ओर किया यानी एक ऐसे संगठन की स्थापना जो हिंदू धर्म गुरुओं के समर्थन से हिंदू धर्म से जुड़े मामलों पर प्रत्यक्ष हस्तक्षेप कर सकता था. भिषिकर की लिखी जीवनी के अनुसार इस संस्था का औपचारिक गठन 1966 में इलाहाबाद के कुंभ मेले में हुआ. उस अवसर पर गोलवलकर का भाषण और उसके बाद के उनके भाषण उन चिंताओं से भरे हैं जो आगे आने वाले दशकों में वीएचपी के कार्य को निर्देशित करने वाली थीं- आदिवासियों को हिंदू धर्म के भीतर लाना, मुसमानों की जनसंख्या वृद्धि का डर और प्रवासी हिंदुओं तक पहुंचने की आवश्यकता. यही वह महत्वपूर्ण चिंताएं हैं जो जनसंघ के उत्तराधिकारी संगठन बीजेपी के विकास में जरूरी भूमिका निभाने वाली थीं.
गोलवलकर की 1973 में मृत्यु तक उस संघ परिवार ने आकार ले लिया था जिस रूप में आज हम इसे देखते हैं. संघ से संबद्ध संगठन द्वारा आम जन को शामिल करने से संघ तीव्रता से फैल पाया. यदि वह सदस्यों को सीधा संघ में भर्ती करता तो ऐसा विस्तार संभव नहीं होता.
इस तरह संघ की विचारधारा, सिद्धांत और अनुशासन सहज रूप से इन संगठनों को संप्रेषित हो जाती है. संघ की विचारधारा का स्रोत सावरकर के काम में है लेकिन उन सिद्धांतों को विस्तार गोलवलकर ने दिया और संघ को इससे रंग दिया. इन सिद्धांतों की जांच करने से हमें संघ के उस विश्वदृष्टिकोण का पता चलता है जिसे वह मानता है और समाज में प्रचारित करता है.
संघ के संस्थापकों ने जिस प्रश्न पर सबसे अधिक विचार किया वह था- हिंदू कौन है? इस प्रश्न को वे लोगों के बहिष्कार के सिद्धांत पर हल करते हैं. सावरकर हिंदुत्व में लिखते हैं कि हिंदू “वह है जो सिन्धू नदी से सिन्धू (समुद्र) प्रांत में फैले इस देश को अपनी पितृ-भू मानता है, जो रक्त संबंध से उस जाति का वंशधर है जिसका प्रथम उद्गम वैदिक सप्त-सिन्धुओं में हुआ है और जो पीछे से बराबर आगे बढ़ती अन्तर्भूत को पचाती और उसे महनीय रूप देती हिंदू जाति के नाम से विख्यात हुई, जो उत्तराधिकार संबंध से उसी जाति की उस संस्कृति को अपनी संस्कृति मानता है जो संस्कृति संस्कृत भाषा में संचित और जाति के इतिहास, साहित्य कला, धर्मशास्त्र, व्यवहारशास्त्र, रीति नीति, विधि, संस्कार, पर्व और त्योहार को मानता हो.” यह परिभाषा गोलमटोल है. सावरकर हिंदू सभ्यता की बात तो करते हैं लेकिन हिंदू वही है जो हिंदू है से अधिक और कुछ कह नहीं पाते.
आखिरकार सावरकर ‘हिंदू कौन नहीं है’ बता कर हिंदू को परिभाषित करने लगते हैं. उन्होंने लिखा, “हमारे मुस्लिम और इसाई देशवासी हिंदू नहीं है और वो हिंदू नहीं हो सकते. उन्होंने तर्क दिया कि “भारत उनके लिए पुण्यभूमि नहीं है” क्योंकि उनकी “पुण्य भूमि अरब या फिलिस्तीन में है.” उनके पुराण और उनके देवता, विचार और नायक इस भूमि की संतान नहीं हैं. परिणाम स्वरूप उनके नाम और वेषभूसा विदेशी उत्पत्ति दर्शाते हैं. सावरकर ने तर्क दिया कि गैर हिंदुओें की मान्यताएं स्वाभाविक रूप से इस राष्ट्र के प्रति वफादार होने से उन्हें रोकती हैं. उन्होंने लिखा, “उनके पास इस बात के सिवा कोई और विकल्प नहीं हो सकता कि वह अपनी पुण्यभूमि को अपने पितृ भूमि से ऊपर रखें. ये एकदम नैसर्गिक बात है. हम उनकी निंदा नहीं करते और न ही इसका रोना रोते हैं. हम मात्र तथ्य बता रहे हैं.”
गोलवलकर इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि हिंदू को परिभाषित करना एक चुनौती है. बंच ऑफ थॉट्स में गोलवलकर ने लिखा है, “सभी पंथ, विभिन्न जातियों को परिभाषित किया जा सकता है लेकिन हिंदू शब्द को नहीं क्योंकि यह सर्वग्राही है.” इसके बाद वह शब्द को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं. गोलवलकर ने अपनी परिभाषा को एक विचार में संकुचित कर दिया. “असंख्य मानवता में मात्र हिंदू ही हैं जो अंतिम सत्य से एकाकार के लिए पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानता है और वह मानव आत्मा के लिए महान आशा है.” सच तो यह है कि यह पूरी तरह से अपर्याप्त परिभाषा है क्योंकि यह चार्वाक जैसे भारतीय दर्शनशास्त्र की भौतिकवादी परंपरा और विज्ञान की समझ रखने वाले आधुनिक भारतीय को हिंदू धर्म से बाहर कर देता है.
क्रमशः गोलवलकर भी बहिष्कार आधारित परिभाषा में ही सीमित हो जाते हैं. उनका कहना है कि भारतीय शब्द पुराने समय से हमसे जुड़ा हुआ है और यह हिंदू समाज के लिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि इसे आमतौर पर अंग्रेजी शब्द इंडियन के अनुवाद के रूप में प्रयोग किया जाता है जिसमें मुस्लिम, ईसाई, पारसी और अन्य समुदाय भी शामिल हैं. “इसलिए यह शब्द हमारे खास समाज को बताते वक्त हमें भ्रमित कर सकता है.” उन्होंने तर्क दिया कि “मात्र हिंदू ही वह शब्द है जो हमारे विचार को संपूर्णता में दर्शता है.
अपने लेखों में, गोलवलकर ने पुराने हिंदू ग्रंथों से उभरे संस्कृति के कई पहलुओं का बचाव किया है, जिसमें जाति व्यवस्था की असमानता या आधुनिक भारत में महिलाओं की पराधीनता शामिल है. संघ आज भी गोलवलकर की पूजा करते हुए उनकी इन टिप्पणियों का खंडन नहीं करता है.
हालांकि गोलवलकर ने अस्पृश्यता के खिलाफ बात की है लेकिन वे इस बात को स्वीकार नहीं करते कि यह जारी है. वर्ण व्यवस्था का बचाव करते हुए उन्होंने कहा है कि इसने भारतीय समाज को विदेशी प्रभावों का विरोध करने के लिए एक अंतर्निहित ताकत दी है. हालांकि, उन्होंने जाति के आधार पर वोट मांगने की निंदा भी की है. उन्होंने लिखा, “इन जाति आधारित विभाजन को बल देने में राज्य का गलत तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है. अलगाववादी चेतना भयंकर रूप से बढ़ रही है और हमारे लोगों को हरिजन, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य नाम देकर द्वंद् को बढ़ावा दिया जा रहा है और उन्हें विशेष प्रकार की रियायत देकर गुलाम बनाने के लिए पैसों का लालच दिया जा रहा है.”
इसके खिलाफ उनके पास एक समाधान था जिसे आरएसएस अब भी सही मानता है लेकिन चुनावी कारणों से मौन रहता है. गोलवलकर ने लिखा है, “जाति के आधार पर विशेषाधिकार, अलग अलग जातियों में बंटे रहने के निहित स्वार्थों को बल देता है.” “इससे समाज के बाकी हिस्सों के साथ उनके एकीकरण को क्षति होती है.” यह तर्क देते हुए कि “प्रत्येक जाति में जरूरतमंद और गरीब लोग हैं” उन्होंने सुझाव दिया कि “विशेषाधिकार आर्थिक स्थिति के आधार पर दिया जाना.” इस प्रकार के समाधान से अन्य लोगों के भीतर व्याप्त जलन कम होगी और मामले सहज होंगे और वे लोग यह नहीं समझेंगे कि तथाकथित हरिजन लोग विशेषाधिकारों का आनंद ले रहे हैं.
गोलवलकर का जाति अत्याचारों का विश्लेषण आजकल के सोशल मीडिया के दक्षिणपंथी कमांडो के तर्कों से अलग नहीं हैं. उनका मानना था कि इस मुद्दे को बहुत अतिरंजित किया जा रहा है. उन्होंने लिखा, “पिछले कुछ सालों में अचानक, हिंदुओं द्वारा हरिजनों पर हमलों की रिपोर्ट समाचारपत्रों में दिखाई देने लगी हैं. “मुझे पक्का विश्वास है कि इस प्रकार की रिपोर्टिंग का उद्देश्य कुछ और ही है. कई बार तो खबर ही गलत होती है.” उन्होंने आगे कहा, “मुझे संदेह है कि यह कोई बाहरी साजिश है अन्यथा ऐसा कोई कारण नहीं है कि इस तरह के समाचारों को इतनी प्रमुखता से प्रकाशित किया जाए.”
महिलाओं के बारे में उनका विचार था कि वे आधुनिकता के कारण गुमराह हो रही हैं. एक श्लोक का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि “एक पवित्र महिला अपने देह को ढांकती है.” उन्होंने इस बात पर दुख व्यक्त किया कि “आधुनिक” महिलाएं मानती हैं कि “ज्यादा से ज्यादा लोगों के आगे अंगप्रदर्शन करना आधुनिकता है. कितनी गिरी हुई बात है.” (उन्होंने एक विचित्र तर्क भी दिया. उन्होंने आधुनिक भारतीयों का पश्चिम की नकल करते हुए मां को मम्मी कहने का मजाक उड़ाते हुआ कहा, “क्या लोगों को इतना भी पता नहीं कि मम्मी शब्द के क्या मायने हैं. मिस्र में बड़ी बड़ी कब्रे हैं जिनमें मुर्दा राजाओं को रखा जाता है. उन कब्रों को पिरामिड कहते हैं. पिरामिड में रखी लाशों को ‘मम्मी’ कहा जाता है. और यहां हम अपनी जिंदा, प्रेम स्वरूपी माओं को मम्मी कह रहे हैं.”)
उन्होंने “शिक्षित माताओं” को “फैशनेबल क्लबों की गपशप में” समय बर्बाद करने के लिए फटकार लगाई. उन्होंने ऐसी माओं के बारे में कहा, “मैं उनको एक जरूरी जंतर देता हूं. उनके पड़ोस में रहने वाले छोटे बच्चे जो स्कूल नहीं जाते उन्हें अपने घरों या अन्य सुविधाजनक स्थानों पर इक्ट्ठा कर खेल, कहानियां और गीत इत्यादि में लगा सकती हैं.”
समानता की मांग उन्हें मजाकिया लगती थी. वे लिखते हैं, “अब महिलाओं के लिए समानता” और “पुरुष से स्वतंत्रता” का हल्ला मचाया जा रहा है.” अलग-अलग पदों पर लैंगिक आधार पर आरक्षण का दावा किया जा रहा है और इस प्रकार जातिवाद, सांप्रदायवाद, भाषावाद की सूची में एक और शब्द जुड़ गया है ‘सेक्सवाद’.”
भारत में रहने वाले गैर-हिंदुओं के सवाल पर, गोलवलकर ने सावरकर के उन विचारों को प्रभावी रूप से दोहराया कि उनके धर्मों ने उन्हें राष्ट्र के प्रति वफादारी से रोके रखा है. उन्होंने जोर देकर कहा कि “महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या उन्हें याद है कि वे इस मिट्टी के बच्चे हैं. केवल हमारे याद रखने का क्या फायदा? उन्हें भी इस भावना की सराहना करनी चाहिए. हम इतने भी बुरे नहीं हैं कि यह कहने लगे कि पूजापाठ के तरीकों के भेद से आदमी यहां का नहीं रह जाता. हमें ईश्वर को किसी भी नाम से पुकारने से क्या परहेज है.” उन्होंने मांग की कि “जिन लोगों ने इस्लाम या ईसाईयत अपना ली है उनका विचार क्या है? वे लोग इस धरती पर पैदा हुए हैं इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन क्या वे लोग यहां के नमक के प्रति वफादार हैं? क्या उन्हें एहसास है कि इस धरती ने उन्हें पालापोसा है? क्या वे स्वयं को इस भूमि और संस्कृति की संतान मानते हैं और यह कि इसकी सेवा करना महा भाग्य है? क्या इसकी सेवा करने को अपना फर्ज मानते हैं? नहीं! धर्म परिवर्तन करते ही राष्ट्र के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना का भी लोप हो जाता है.”
गैर हिंदुओं की देश के प्रति वफादारी पर सवाल उठाना उन्हें गद्दार बताने की दिशा में पहला कदम था. गोलवलकर ने दावा किया कि “देश के अंदर इतने सारे मुस्लिम अड्डे हैं यानी इनते सारे छोटे पाकिस्तान हैं जहां देश के कानूनों को संशोधन कर लागू किया जाता है और उपद्रवियों को मनमानी करने की छूट होती है.” बिना साक्ष्य उन्होंने दावा किया, “ऐसे मुस्लिम पॉकेट देश के भीतर पाकिस्तान समर्थक तत्वों का संजाल बन गए हैं.”
उन्होंने 1963 में महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए एक दंगे का हवाला दिया. गोलवलकर ने दावा किया कि यह घटना रात करीब 9 बजे हुई थी और “अगली सुबह पाकिस्तान रेडियो ने प्रसारित किया कि ‘उस विशेष शहर में’ मुसलमानों का बड़ा नरसंहार हुआ है!” इतने कम समय में पाकिस्तान को इस घटना का पता कैसे चल गया? वहां कोई पाकिस्तान समर्थक महानुभव रहा होगा जो ट्रांसमीटर के साथ पाकिस्तान के साथ लगातार संपर्क में रहा होगा.” यह विचित्र तर्क जिसे वे “एकमात्र संभावना मानते थे”, से वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ”वास्तव में हर जगह ऐसे मुस्लिम हैं जो ट्रांसमीटर पर पाकिस्तान के साथ लगातार संपर्क में हैं, ये न केवल एक नागरिकों के अधिकार भोगते हैं बल्कि ‘अल्पसंख्यक’ के रूप में कुछ अतिरिक्त विशेषाधिकारों का आनंद भी लेते हैं”.
ये उस व्यक्ति का तर्क और विश्लेषण था जिसने हेडगेवार की संगठनात्मक संरचना का निर्माण और उसे परिष्कृत किया. संघ के भीतर गोलवलकर को जिस प्रकार के आभामंडल में रखा जाता है उसे भेद कर देखने से उनके ये वक्तव्य बीसवीं शताब्दी के शुरू में ऊपरी-मध्य-वर्ग के मराठी ब्राह्मण मर्द के टुच्चे पूर्वाग्रहों और कट्टरपंथी विचार लगते हैं. गोलवलकर ने अपने इन पूर्वाग्रहों को राष्ट्रवाद और फासीवाद की भाषाई चाशनी में लपेट कर पेश किया. डरावनी बात है कि हास्यास्पद से लगने वाले ये विचार आज भारतीय राजनीति और संस्कृति के शीर्ष पर विराजमान हैं.
(द कैरवैन के जुलाई 2017 अंक में प्रकाशित)