अगर सुशोभित करने वाले कपड़े, गंभीर चेहरे और मखमली कुर्सियां न होतीं तो डिजिटल इंडिया का शुभारंभ कार्यक्रम पॉप संगीत का दृश्य प्रस्तुत करता. जुलाई 2015 का पहला दिन था, प्रधानमंत्री के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम के प्रांगण में दाखिल होते ही भीड़ की ओर से जयकारे लगने लगे. उत्साह भरे प्रस्तुतिकरण से पहले बड़े परदे पर डिजिटल की जीवंतता के साथ-साथ प्रचंड इलेक्ट्रानिक संगीत बजने लगा. मंच कभी नीली, कभी पीली रोशनी से जगमगाता था. स्वंय मोदी चबूतरे पर बने मंच के बीच में बैठे, उनके दायें–बाएं वित्त मंत्री अरुण जेटली और इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रवि शंकर प्रसाद थे और आसपास अधिकारियों का हुजूम था.
मोदी के पीछे ठीक दायीं तरफ पिछली कतार में लगभग अदृश्य व्यापारियों के बीच मुकेश अंबानी बैठे थे. जब इन लोगों के बोलने की बारी आई तो रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के चैयरमेन और भारत के सबसे धनी व्यक्ति अंबानी सबसे पहले गए. समारोह की ओर संकेत करते हुए अंबानी ने इसे “आधुनिक भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना” बताया और भारत के नेता की प्रशंसा की. उन्होंने कहा, “भारत भाग्यशाली है कि उसके पास ऐसा प्रधानमंत्री है जो न केवल अत्यंत उत्तेजक और व्यापक नजरिया रखता है बल्कि उस नजरिए को वास्तविकता में ढालने का व्यक्तिगत नेतृत्व और ऊर्जा भी रखता है”. सफेद कलीदार जैकेट पहने हुए मोदी भावशून्य दृष्टि से आगे की तरफ नजर गड़ाए देखते रहे. अंबानी ने कहा “आमतौर पर उद्योग सरकार से तेज चलता है लेकिन डिजिटल इंडिया के साथ अब मामला भिन्न है. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सरकार की रफ्तार तेज रही है”.
फिर अंबानी ने अपनी कंपनी की महत्वकांक्षा की बात की और बताया कि किस तरह इसने खुद को डिजिटल इंडिया के साथ जोड़ लिया है. रिलायंस दूरसंचार की पूरक कंपनी रिलायंस जियो की शुरूआत अभी नहीं हुई थी. फिर भी अंबानी ने सरकार के साथ साझेदारी करने और इसकी परियोजनाओं में 250000 करोड़ रुपए अथवा 39.29 बिलियन डॉलर से अधिक निवेश करने का वादा किया. उन्होंने भारत के सभी राज्यों में अगली पीढ़ी के वायरलेस नेटवर्क बिछाने, 150000 खुदरा व्यापारियों को शामिल करते हुए राष्ट्रव्यापी कोशिकीय वितरण संजाल (सेल्यूलर डिस्ट्रीब्युशन नेटवर्क) का निर्माण करने, टेलीफोन निर्माताओं को देश में कारखाना स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करने और छोटा व्यापार शुरू करने वालों की सहायता करने का वचन दिया. उन्होंने कहा “मेरा अनुमान है कि रिलायंस का डिजिटल इंडिया निवेश 500000 से अधिक लोगों के लिए रोजगार पैदा करेगा”.
डिजिटल इंडिया कई परियोजनाओं का सम्मिश्रण है, जिसका उद्देश्य देश में संयोजन (कनेक्टिविटी) को बढ़ाना है. “डिजिटल सुविधा धारकों और वंचितों” के बीच के फर्क को समाप्त करने के प्रयास के तौर पर सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रोत्साहित यह पहलकदमी एक महत्वकांक्षी आधुनिकीकरण गतिविधि है.
डिजिटल इंडिया की वेबसाइट के अनुसार विवादास्पद आधार समेत इसकी विभिन्न परियोजनाएं त्रिखंडीय नजरिए पर आधारित हैं: प्रत्येक भारतीय को आधारभूत संरचना ऑनलाइन उपलब्ध कराना, मांग पर सरकारी सेवाएं उपलब्ध कराना और “नागरिकों का डिजिटल सशक्तिकरण”.
जब एक साल बाद औपचारिक रूप से जियो की शुरूआत हुई तो टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स के पहले पृष्ठ पर कंपनी के प्रचार में जियो के प्रतीक चिन्ह के नीचे नरेंद्र मोदी की बड़ी तस्वीर देखकर भारत के लोग चौंक गए. इसमें लिखा था “जियो 120 करोड़ भारतीयों के लिए प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया के सपने को साकार करने हेतु समर्पित है”. सोशल मीडिया के उपभोक्ताओं का मानना था कि बिना पूर्व अनुमति के प्रचार सामग्री में प्रधानमंत्री का नाम या फोटो गैरकानूनी है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया: “मोदी जी अंबानी की जेब में”. दिसम्बर 2016 में सूचना एंव प्रसारण मंत्री राज्यवर्धन राठौर ने एक लिखित उत्तर में संसद को बताया कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड द्वारा प्रधानमंत्री की तस्वीर का प्रयोग के मामले की सरकार को जानकारी थी लेकिन ऐसा करने के लिए इसने कंपनी को अनुमति नहीं दी थी. मार्च 2017 में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने अपने प्रचारों में प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाने के लिए माफी मांगी. द इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली पत्रिका ने अपने सम्पादकीय में कहा कि वैधानिकता से परे “सवाल यह है कि दोनों के लिए यह सुविधाजनक क्यों है– मोदी और रिलायंस को समान सपना साझा करते हुए देखे जाने के रिलायंस जियो के भविष्य के निहितार्थ क्या हैं”.
लगभग कंपनी के सभी सार्वजनिक बयानों में अंबानी ने डिजिटल इंडिया का हवाला देना जारी रखा है. देश में इंटरनेट के बढ़ते हुए प्रयोग के लिए श्रेय का दावा किया है और पहले से अधिक लाभ का वादा किया है. आरआईएल की वार्षिक आम सभा में अंबानी ने अपना भाषण मोदी और डिजिटल इंडिया के प्रति “समर्पण के साथ” शुरू किया. उसके अगले साल के अधिवेशन में उन्होंने कहा कि “विश्लेषकों का मानना था कि भारत कभी भी दुनिया में मोबाइल डाटा का सबसे बड़ा बाजार नहीं हो सकता” लेकिन जियो ने “उन्हें गलत साबित कर दिया”. 2018 में उत्तर प्रदेश में होने वाले निवेशक शिखर सम्मेलन में बोलते हुए अंबानी ने कहा कि जियो “राजधानी लखनऊ से लेकर सबसे छोटी ग्राम पंचायत तक प्रशासन की सहायता करेगा”. मोदी अगली कतार में बैठे हुए थे.
“भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण अथवा ट्राई” के अनुसार, वर्तमान में भारत में 1.17 बिलियन मोबाइल फोन ग्राहक हैं जो अगस्त 2016 की तुलना में, जिस महीने में जियो की शुरूआत हुई है, 140 मिलियन अधिक हैं. यह बढ़त खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में रही है, जहां अब 500 मिलियन से अधिक वायरलेस ग्राहक हैं, यह कंपनी का औपचारिक रूप से संचालन शुरू होने से पहले की तुलना में लगभग 80 मिलियन अधिक है. अधिक भारतीयों के फोन ग्राहक बनने के साथ ही ऑन लाइन होने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा 2017 में जारी एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि दिसंबर 2016 और दिसंबर 2017 के बीच लगभग 50 मिलियन भारतीयों की इंटरनेट तक पहुंच बनी है जिसकी वजह से उनमें से बहुत से लोगों ने पहली बार वेब पर इंटरनेट का प्रयोग किया, व्हाट्सऐप संदेश भेजे और पहली बार वीडियो प्रवाह किया.
अधिकतर धनार्जन अपने पिता द्वारा शुरू किए गए पेट्रोकेमिकल व्यापार से करने वाले और जियो के धमाकेदार प्रवेश से पहले दूर संचार मामले में सीमित अनुभव रखने वाले मुकेश अंबानी के लिए ग्राहकों की बढ़ोतरी से डाटा उपभोग तक सभी जियो की रूपांतरित करने की सामाजिक शक्ति के प्रमाण हैं. उन्होंने नवंबर 2018 में कहा “आज भारत पूरी दुनिया की सबसे तेजी अंकीकृत होने वाली (डिजिटाइजिंग) अर्थव्यवस्था है और जियो भारत के डिजिटल परिवर्तन में अग्रणी है”. अंबानी का तर्क है कि लगभग बिना लागत और पहली बार निःशुल्क सेवाएं प्रदान करके “जियो भारत में डिजिटल संस्कृत का लोकतंत्रीकरण करेगा”.
लेकिन चिन्हीकरण सिर्फ भारत के रूपांतरण के लिए नहीं है. अंबानी को “अत्यंत नवीन खोजकर्ता और व्यापारिक मामलों में भविष्य का खेल पलट देने में विश्वास रखने वाला” माना जाता है. वित्त वर्ष 2016-17 के लिए अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि विश्व की 500 बड़ी कंपनियों में जगह बनाने वाली (फॉर्च्यून 500) अब तक की सबसे बड़ी तीन निजी क्षेत्र की भारतीय कंपनियों में इसकी दूरसंचार शाखा आरआईएल "दुनिया की व्यापार शुरू करने वाली सबसे बड़ी कंपनी है." कंपनी का कहना है कि इसके ग्राहकों की संख्या अब 250 मिलियन से अधिक है.
मीडिया काफी हद तक इस खबर को पचा गया. सितंबर 2018 के वाल स्ट्रीट जर्नल के शीर्षक में कहा गया “दो साल पहले तक भारत में तीव्रगामी, सस्ते इंटरनेट का अभाव था– एक अरबपति ने सब कुछ बदल दिया”. फॉर्च्यून पत्रिका में कंपनियों की नई वार्षिक सूची में कहा गया कि “दुनिया की सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में मदद करने में” जियो नंबर एक स्थान पर थी. फिर भी जियो की सफलता की कहानी उतनी उज्जवल नहीं है, जितनी पहली नजर में प्रतीत होती है. ट्राई द्वारा अपने नियमों में संदेहास्पद समय पर किए गए परिवर्तनों की एक श्रंखला ने कंपनी को शिखर पर पहुंचने का मार्ग प्रशस्त किया. जिन कीमतों की पेशकश की गई उससे बहुत से विश्लेषकों का तर्क है कि इसने अपने प्रतियोगियों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाया बावजूद इसके कि प्रतियोगिता विरोधी गतिविधियों के निरीक्षण और नियंत्रण के लिए कानून हैं.
मुकेश अंबानी ने एक छोटी सी गुमनाम फर्म हासिल करके दूर संचार उद्योग में अपनी जगह स्थापित की. उन्होंने इसे राष्ट्रीय वायरलेस स्पेक्ट्रम के लिए होने वाली नीलामी से एक दिन पहले प्राप्त किया था. इस फर्म को प्राप्त करने के लिए इसकी बोली कीमत से करीब 100 गुणा अधिक लगाई. स्पेक्ट्रम लाइसेंस के अनुसार, इस फर्म को केवल इंटरनेट सेवा देने की अनुमति थी. लेकिन 3 साल बाद सरकार ने इस फर्म को, जिसका नाम अब जियो रखा दिया गया है, “पूर्ण गतिशीलता” लाइसेंस तक बढ़ा दिया और पूर्ण गतिशीलता लाइसेंस के एक अंश मात्र में हर तरह की सेल्युलर सेवा का प्रस्ताव दे दिया.
दूर संचार उद्योग के अन्य उद्यमियों की तरफ से आरआईएल को “परीक्षण” के लिए 253 दिनों का संयोजन देने के लिए ट्राई की तीव्र आलोचना की गई. यह छूट उस समय तक नियमों के हिसाब से कई गुणा अधिक थी. नियंत्रक ने भी इसकी परिभाषा से आंकड़े साझा करने के स्थापित मूल्य “महत्वपूर्ण बाजार शक्ति” को हटा देने के लिए नाराजगी जताई थी. जियो इसके कुछ समय बाद ही भारत का सबसे बड़ा डाटा प्रदाता बन गया. इस वजह से जियो ने प्रतियोगिता के नियमों को दरकिनार किया और कठोर नियामक जांच से बच निकला. ट्राई ने लिखा कि केवल वह कंपनियां जो महत्वपूर्ण बाजार शक्ति हैं वही एकाधिकार प्राप्त व्यवहार कर सकती हैं.
दूर संचार विशेषज्ञ और ऐम्बिट कैपिटल के पूर्व मुख्य प्रबंधक सौरभ मुखर्जी ने मुझे बताया “भारत में दूर संचार क्षेत्र में नियामकीय कब्जे का कई दशकों का इतिहास है. इस क्षेत्र में हर कोई जानता है कि नियामक कब्जा प्रतियोगीय लाभ का एक प्रमुख स्रोत हो सकता है". मुखर्जी ने कहा कि भारत में लगभग सभी विनियमित उद्योगों की सच्चाई यही है लेकिन दूरसंचार खासतौर से इस मामले में कुख्यात है, समय-समय पर सरकार द्वारा किए गए “अदभुत हस्तक्षेप” से भरा है, जिससे केवल कुछ चुनिंदा कंपनियों को लाभ होता है.
सरकार ने इस आरोप का खंडन किया है कि वह आरआईएल का पक्ष ले रही है . अप्रैल 2015 से अप्रैल 2018 तक ट्राई के संचालक सदस्यों में एक रहे अनिल कौशल ने कहा कि जियो फैलते हुए बाजार में अच्छा काम कर रही है. “वे कम कीमत पर नई सेवाएं उपलब्ध करवा रहे हैं. अब जियो के तर्ज पर सभी कम कीमतों का प्रस्ताव दे रहे हैं और उपभोक्ता को फायदा पहुंच रहा है”.
हो सकता है कि वास्तव में जियो भारत के डाटा बाजार का विस्तार कर रहा हो लेकिन कंपनी के शुभारम्भ ने इस उद्योग के लिए पहाड़ जैसी समस्या उत्पन्न कर दी है. रिलायंस की अत्यंत कम डाटा दर ने कंपनियों को अपनी शुल्क सूची में भारी कटौती करने पर विवश किया है. इसके नतीजे में कॉरपोरेट कर्ज तेजी से बढ़ा है जिसकी अदायगी मुश्किल होगी. मार्च 2018 तक भारत की दूरसंचार कंपनियों का संचयी ऋण 75 बिलियन डॉलर या लगभग 500000 करोड़ रुपए से अधिक है लेकिन राजस्व 27.6 बिलियन डॉलर या लगभग 180000 करोड़ रुपए है. इस स्तर पर दूरसंचार के अंदर के लोगों को चिंता है कि व्यापक अर्थव्यवस्था पर इसके निहितार्थ कठिनाइयों भरे होंगे. एक औद्योगिक समूह सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के डायरेक्टर जनरल राजन मैथ्यूज का कहना है कि “घरेलू बैंकों और उपकरण विक्रेताओं पर वित्तीय दबाव बहुत बढ़ गया है”. उनकी और अन्य लोगों की चिंता है कि कुल मिलाकर इससे देश के विकास की गति कम हो सकती है.
जियो के प्रवेश ने पहले ही विलय और अधिग्रहण की लहर को तेज कर दिया है जिसके नतीजे में इस उद्योग में नौकरियां कम हो गई हैं और प्रतियोगिता धराशायी है. 2015 के अंत में जब जियो का औपचारिक उद्घाटन हुआ था तब भारत में निजी क्षेत्र के 9 वायरलेस प्रदाता थे. जो अब प्रभावी रूप से भारतीय एयरटेल, वोडाफोन और जियो, 3 बचे हैं.
इकोनॉमिक टाइम्स के साथ अपने हालिया साक्षात्कार में दूरसंचार मंत्री मनोज सिन्हा ने इस भय को दूर करने का प्रयास किया कि किसी एक कंपनी का उद्योग पर वर्चस्व हो सकता है और इस तरह उसे भारतीयों की इंटरनेट तक पहुंच पर नियंत्रण देने जैसा है. उन्होंने कहा कि “दूरसंचार क्षेत्र में एकाधिकार प्राप्त स्थिति उत्पन्न होने का कोई सवाल ही नहीं है. हम नहीं समझते की संचालकों की संख्या अब और कम होगी”.
इससे सभी सहमत नहीं हैं. यहां तक कि लगता है अंबानी बंधु भी नहीं. इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार खुद का व्यापार साम्राज्य चलाने वाले मुकेश अंबानी के छोटे भाई अनिल अंबानी ने अपनी कंपनी की 2018 की वार्षिक आम सभा में कहा कि उच्च दर और आक्रामक शुल्क दरों ने एक “अल्पाधिकारी ढांचा बना दिया था जो अब तेजी से द्वयधिकार की तरफ जा रहा था और अंततः एकाधिकार बन सकता है”. अनिल ने स्वंय कर्ज से लदे अपने दूरसंचार नवोद्यम रिलायंस कम्युनिकेशन को मुकेश को बेचने के सौदे को तकरीबन कर लिया था. हालांकि जियो ने हठपूर्वक यह कहते हुए इस सौदे को रोक दिया कि रिलायंस के कर्जों के लिए उसे उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता. इसी बीच स्वीडन की दूरसंचार निर्माता कंपनी एरिक्सन ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की है कि जब तक अनिल उसके 550 करोड़ रुपए या 77 बिलियन डॉलर अदा नहीं करते उनको जेल भेजा जाए. रिलायंस संचार नेटवर्क के प्रबंधन और संचालन में मदद करने के लिए उन पर यह बकाया है.
रिलायंस कम्युनिकेशन का नाम पहले रिलायंस इनफोकॉम था और 2000 के मध्य में दोनों भाइयों के बीच लड़ाई और फिर अलग होने तक यह आरआईएल का हिस्सा थी. खासकर पारिवारिक झगड़ों में बृहत् अर्थशास्त्रीय उलझनें नहीं होती लेकिन बाजार के विघटन से बचने के लिए रिलायंस का भारत के बड़े उद्योगों में असंगत रूप से बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था.
मुकेश और अनिल के पिता धीरूभाई अंबानी का गुजरात के जिस घर में जन्म हुआ था वह बहुत समृद्ध नहीं था. वह महाविद्यालय नहीं गए और किशोरावस्था में पेट्रोल पंप पर सेवक का काम करने के लिए यमन चले गए. बाद में दुनिया की बड़ी कंपनियों में से एक शेल के लिए संचालन प्रबंधक के बतौर काम किया. जब धीरूभाई 1958 में भारत लौटे तो उन्होंने धागे और मसाले की एक छोटी सी व्यापारिक दुकान स्थापित की और उसे भारत की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी ‘रिलायंस’ में परिवर्तित करने की धीमी मगर मजबूत प्रक्रिया शुरू की.
मुकेश का जन्म 1957 और अनिल का जन्म 1959 में हुआ और दोनों अपने पिता की आश्चर्यजनक उभार को देखते हुए बड़े हुए. पहले परिवार दक्षिण मुम्बई की एक चॉल में रहता था, लेकिन जब मुकेश की आयु 12 वर्ष हुई तो परिवार शहर के सबसे अच्छे इलाके अलटामाउंट रोड पर एक आरामदायक आवास में चला गया. धीरूभाई की सूझबूझ और साधन सम्पन्नता के सहारे और उससे भी अधिक विवादास्पद रूप से “किसी खास व्यवस्था से लाभ उठाने” की उनकी प्रवृत्ति (एक समकालीन के शब्दों में) के चलते कंपनी का तेजी से विस्तार हुआ. 1976 में रिलायंस भारत में निजी क्षेत्र के व्यापार में 67वें पयदान पर थी.
अगले साल धीरूभाई ने 20 वर्षीय मुकेश को कंपनी के निदेशक मंडल में नामित कर दिया. उस समय मुकेश, इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेकनॉलोजी मुम्बई में स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे और उसके बाद बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में स्नातकोत्तर उपाधि के लिए स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिर्टी चले गए. 1983 में 24 वर्ष के अनिल को रिलायंस का सह मुख्य कार्यकारी अधिकारी नामित किया गया. वह उस समय व्हार्टन से एमबीए करके आए थे.
धीरूभाई के नेतृत्व में रिलायंस विवादों से दूर नहीं थी. 1980 के दशक में इंडियन एक्सप्रेस ने ढूंढ निकाला था कि सीबीआई के तत्कालीन निदेशक मोहन कात्रे के बेटे को रिलायंस द्वारा गुपचुप तरीके से नियुक्त किया गया था. कात्रे के कार्यकाल में सीबीआई ने पत्रकार एस गुरूमूर्ती को, जिन्होंने रिलायंस की जांच करते हुए ख्याति प्राप्त की थी, औपनिवेशिक काल के अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार किया था. यह कानून ब्रिटिश राज को राष्ट्रवादी समालोचकों से बचाने के लिए बनाया गया था. पेट्रोकेमिकल उद्योग में रिलायंस की प्रमुख प्रतियोगी बाम्बे डाइंग प्रकरण में हठधर्मी के साथ पीछा करने के लिए भी कात्रे बहुत मशहूर हुए थे. एक बार कात्रे बाम्बे डाइंग के चेयरमैन के खिलाफ पासपोर्ट धोखाधड़ी मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट में भी बैठे थे. इस मामले में सीबीआई पक्षकार भी नहीं थी. इन विवादों और अन्य विवादों का रिलायंस के उत्थान पर कम ही प्रभाव पड़ा. बीसवीं शताब्दी के अंत तक पेट्रोकेमिकल बाजार में रिलायंस प्रमुख खिलाड़ी बन चुका था. 2012 में ब्रिटिश प्लास्टिक्स फेडरेशन का आंकलन था कि रिलायंस भारत की पोलीप्रोपिलीन का करीब 75 से 80 प्रतिशत उत्पादन करता था. यह एक बहुमुखी बहुलक (पोलीमर) है, जिसका प्रयोग हर चीज, बैग से लेकर कार बम्पर और कुर्सियों की नलिका तक में, किया जाता है.
इसके बावजूद धीरूभाई को जैसा कि पत्रकार और उनके अनाधिकारिक जीवनीकार हमीश मैकडोनाल्ड ने लिखा है कि “व्यापार की कम क्षमता वाले व्यक्ति के तौर पर देखा जाता था जो सरकार के लाल फीते और मुम्बई के थके हुए व्यापारिक प्रतिष्ठानों के पूर्वाग्रह के घेरे को तोड़ने का प्रयास कर रहा हो”. लेकिन धीरूभाई के लिए अच्छे रंग रूप और सम्बंध का मतलब अंत्तोगत्वा कारोबारी होता था. अपने बेटों के लिए जो चिरस्थाई विरासत उन्होंने छोड़ा उसका पाठ था- राजनीतिक पंक्तियों में मित्र बनाना और प्रतियोगियों के प्रति निर्दयी होना. उन्होंने मैकडोनाल्ड को बताया कि “कार्यक्षेत्र बदलता रहता है. कोई स्थाई दोस्त नहीं होता, कोई स्थाई शत्रु नहीं होता. हर व्यक्ति का अपना हित होता है”.
मुकेश को दूरसंचार मामले में आज बात करते हुए ऐसा लगता है कि सेल्युलर सेवा उनका और आरआईएल का बहुत पहले से प्रमुख उद्देश्य रहा है और ऐसा परोपकारिता के चलते रहा है. लेकिन 1990 के दशक में जब अविभाजित रिलायंस संचार के क्षेत्र में अभी शुरूआत कर रही थी मुकेश पेट्रोकेमिकल कारखाने की देखरेख में लीन थे और दूरसंचार क्षेत्र में उनकी रुचि बहुत सीमित थी. रिलायंस दूरसंचार शाखा के पहले चेयरमैन बिजेंद्र सिंघल ने मुझे बताया कि “दूरसंचार मामले का प्रमुख अनिल था. वही दूरसंचार को देख रहा था. वास्तविकता यह है कि मुकेश मुश्किल से ही दूरसंचार पर कोई ध्यान देता था”.
रिलायंस का कार्यभार संभालने से पहले सिंघल विदेश संचार निगम लिमिटेड के प्रबंध निदेशक थे जिसका देश के अंदर इंटरनेट सेवा प्रदान करने का सरकारी एकाधिकार का प्रभार था. सिंगल ने कहा कि गोलमाल करके दूर संचार के लाइसेंस के संग्रह से, जो रिलायंस ने दूरसंचार उदारवाद के बाद बिल्कुल निःशुल्क हासिल की थी, कुछ करने के प्रयास में अंबानी बंधुओं ने 1998 में उनकी और उनके सहायकों के एक छोटे समूह की सेवाएं प्राप्त कीं. उन लोगों ने अपने आपको दोनों भाई की तरफ से परस्पर दिलचस्पी न लेने के कारण बाधाओं में पाया. सिंघल ने कहा “मुकेश उस समय तक रिफाइनरी के काम में बहुत व्यस्त थे. इसलिए दूरसंचार में जो कुछ हो रहा था उस पर वह बहुत ध्यान नहीं देते थे. अनिल को भी कुछ दिनों तक रुचि रहती थी और कुछ दिनों तक नहीं”.
अंबानी परिवार का, निश्चित रूप से पेट्रोकेमिकल्स के काम के भार की वजह से, दूरसंचार पर ध्यान कम रहता था लेकिन दूरसंचार से कोई मुनाफा हो सकता है इसको लेकर भी उनके मन में अनिश्चतता थी. मुकेश अंबानी ने कहा है कि उनका दूरसंचार नवोद्यम “धीरूभाई अंबानी का सपना कि ग्राहक पोस्टकार्ड से भी कम कीमत पर सम्पर्क कर सकें” से प्रेरित है. लेकिन धीरूभाई की एक परिणाम नीति थी. सिंघल ने मुझे बताया “उन्होंने यह भी कहा कि जब तक दूरसंचार पोस्टकार्ड की कीमत जितना सस्ता न हो जाए, उसमें हाथ डालने जैसा नहीं है”. इस तर्क का विस्तार उनके बड़े बेटे तक हुआ. सिंघल ने मुकेश के बारे में कहा “जब तक वह प्रस्ताव को समझ नहीं लेते वह कोई निर्णय नहीं लेंगे, वह निवेश नहीं करेंगे”.
सिंघल और उनके सहकर्मियों ने उदासीनता से तंग आकर छोड़ देने की धमकी दी. सिंघल ने मुझे बताया “हमारा ग्रुप बहुत हताश हो रहा था. हमने अपने पत्र दे दिए, तब मुकेश ने हमें बुलाया”. उन्होंने कहा “श्री सिंघल कृपया हमें समझाइए कि दूरसंचार है क्या? क्योंकि हर दिन हम दूरसंचार के बारे में अलग अलग धुन सुनते हैं”. इस बातचीत से सिंघल, रिलायंस बोर्ड और वरिष्ठ नेतृत्व के बीच मुलाकातों का एक सिलसिला शुरू हो गया. इसका मकसद मुकेश को यह समझाना था कि कंपनी इस उद्योग में काफी मुनाफा कमा सकती है. जनवरी 2000 तक मुकेश राजी हो गए. सिंघल ने कहा “उन्होंने दूरसंचार में निवेश करने का निर्णय लिया और वहीं से इसका पूरा प्रभार संभाल लिया.
सिंघल ने कहा कि मुकेश के लिए काम करना अनिल के लिए काम करने से अलग अनुभव था जो अपेक्षाकृत उनकी टीम को कम महत्व देते थे और फैसलों में निष्क्रियता का रास्ता अपनाते थे. इसके विपरीत मुकेश अधिक अध्यनशील थे और उन्हें समझाने की जरूरत थी. लेकिन दोनों भाइयों में एक चीज समान थी और वह थी दोस्तों की मंडली जो कर्मचारी हो गए थे और जिनका अपना व्यवहार मुकेश और अनिल की दयालुता को झुठलाता था. सिंघल ने मुझे बताया “भाइयों ने मेरे साथ कभी खराब व्यवहार नहीं किया, कभी नहीं. लेकिन उनके आसपास रहने वाले लोग कष्टदायक थे”.
सिंघल यह जानने को उत्सुक थे कि भाइयों और मित्र मंडली के व्यवहार में विरोधाभास सोच समझकर था. उन्होंने कहा “मुझे नहीं मालूम कि अनाधिकारिक सहकारों को क्या निर्देश होते थे और हमारे लिए क्या निर्देश होते थे”. उन्होंने कहा “वे एक ही जैसे लोग थे या भिन्न थे, या उनका कहने का मतलब था कि ‘इन लोगों के लिए हम अच्छे बने रहेंगे लेकिन तुम टकराव पैदा करना’”. अच्छे अफसर– बुरे अफसर की दिनचर्या ने सिंघल के कर्मचारियों के दैनिक जीवन में कोलाहल भर दिया और इसने सिंघल को हारे हुए इंसान में बदल दिया. सिंघल ने मुझे बताया “बोर्ड की मीटिंग में घटनाएं बहुत सुखद नहीं थीं, कर्मचारियों का अपमान किया जाता था और उसे मैं अपने ऊपर ले लेता था.
मुकेश के दायें हाथ मनोज मोदी से झगड़े के बाद सिंघल ने त्यागपत्र दे दिया. इस निर्णय के लिए आधा आरोप वह स्वंय को देते हैं. उन्होंने समझा था कि उनके पिछले व्यापक दूरसंचार अनुभव ने उन्हें अंबानी बंधुओं के लिए अपरिहार्य बना दिया था. सिंगल ने कहा “लेकिन मैं अनाधिकारिक के कामकाज को समझ नहीं पाया. हो सकता है कि मैं उनको आत्मसात कर लेता, उनकी बात सुनता और स्वयं को उनके तरीके से काम करने के लिए ढाल लेता”.
वास्तव में, रिलायंस आगे बढ़ती गयी. 27 दिसम्बर को मुकेश ने औपचारिक रूप से रिलायंस इनफोकॉम का उदघाटन किया. रिलायंस के अधिकतर बड़े आयोजनों की तरह यह शुभारंभ समारोह भी भव्य था. इसमें भाग लेने वालों में तत्कालीन सूचना एंव प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन शामिल थे. उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी ने वीडियो कांफ्रेंस के द्वारा मूल कविता का एक खंड पढ़ा.
उल्लेखनीय अनुपस्थिति अनिल की थी जिनका बयान था कि बीमारी के कारण वह उपस्थित नहीं हो पाए. यह बहाना बहुत कमजोर था और इससे गंध आने लगी कि अंबानी के राज्य में कुछ सड़ांध थी. व्यापार पत्रकार सुचेता दलाल ने लिखा “कई महीने बाद तक अपुष्ट समाचार गश्त करता रहा कि दोनों भाइयों के बीच सब कुछ ठीक नहीं है”. दलाल ने कहा कि न दिखाई देकर अनिल ने “अवसर को अपने नाम कर लिया”.
जैसा भी हो, यह तनाव 2002 में उनके पिता की मृत्यु से पहले से था. सिंघल, जिनकी 3 साल की कार्यावधि जो धीरूभाई की मृत्यु से बहुत पहले नहीं समाप्त हुई थी, ने मुझे बताया कि मुकेश और अनिल के बीच घनिष्ठता पहले के मुकाबले कम हो गई थी. उन्होंने कहा “बहुत ठंडी’. जब मैंने पूछा कि भाइयों के आपसी सम्बंध कैसे थे तो उन्होंने कहा “हम आपस में बात किया करते थे कि सारी चीजें उतनी उज्जवल नहीं हैं जितनी दिखाई पड़ती हैं”. उनकी टीम आमतौर से दोनों को एक ही कांफ्रेंस में नहीं देखती थी. “तुम अनिल के पास जाओ (उससे कहो) मीटिंग शुरू हो रही है, वह कहते ‘हां, जारी रखो, जारी रखो, जारी रखो. मुकेश वहां है. वह संभाल सकता है”.
पिता की मौत की वजह से जनता के बीच भाई-बहन एकता प्रदर्शित करते थे. लेकिन रिलायंस इनफोकॉम के उदघाटन के बाद सम्बंधों के खुले तौर पर खराब होने में बहुत समय नहीं लगा. संचार अधिनस्थ कंपनियों के हिस्सों पर किसका नियंत्रण रहेगा यही 1 साल लम्बे विवाद का मुख्य अवयव बना. अपने जनक द्वारा 12000 करोड़ रुपए के निवेश से शुरू हुई रिलायंस इनफोकॉम का मूल्य 2004 तक 60000 करोड़ तक पहुंच गया था. वॉइस एंड डाटा पत्रिका द्वारा घोषित “टेलीकॉम मैन ऑफ द इयर” मुकेश इस अधीनस्थ कंपनी को अपने भाई को सौंपना नहीं चाहते थे, जो आरोप लगा रहे थे कि मुकेश ने भारी छूट की दर पर इसके शेयर अपने आपको बेच लिए हैं.
लेकिन जब कंपनी को दोनों के बीच बराबरी की बुनियाद पर बांटने का समय आया तो मुकेश के लिए रिलायंस का मुख्य भाग पेट्रोकेमिकल्स का व्यापार और इसकी दूर संचार शाखा दोनों को अपने पास रख पाना असम्भव था. 2005 में रिलायंस इनफोकॉम अनिल को मिल गई. कोकिलाबेन अंबानी जिन्होंने बंटवारे की निगरानी की थी, ने इस घोषणा पर कहा “अपने पति की गरिमापूर्ण विरासत को ध्यान में रखते हुए आज मैंने अपने बेटों मुकेश और अनिल के बीच के मसले का शान्तिपूर्वक समाधान कर दिया है”.
सिद्धान्त रूप में, कोकिला बेन की योजना में अपने बेटों के अंतः कंपनी झगड़ों को रोकना भी होना चाहिए था. मुकेश और अनिल ने किसी प्रतियोगिता में न पड़ने के समझौते पर हस्ताक्षर किए, दोनों ने वादा किया कि वे दूसरे के स्थापित हित वाले उद्योग में दखल नहीं देंगे. लेकिन कोई वास्तविक विराम संधि नहीं थी. अनिल के ग्रुप ने मुकेश की कंपनी की सेवाएं बाधित कर दीं. मुकेश के अधीन आरआईएल ने अनिल की कंपनी के साथ हुए गैस आपूर्ति के समझौते की शर्तो को निरर्थक बनाने का प्रयास किया. दोनों अरबपति, जिनके पिता मरते समय भारत के सबसे अमीर व्यक्तियों में थे, माली हैसियत में एक दूसरे को पीछे छोड़ देने की प्रतियोगिता में पड़ गए. 2008 में करीबी मामला था. 42 बिलियन डॉलर के साथ अनिल अंबानी भारत के तीसरे सबसे धनी व्यक्ति थे. लेकिन 43 बिलियन डॉलर के साथ मुकेश नम्बर दो पर थे.
अनिल अधिक धनी होते अगर उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की बड़ी दूरसंचार कंपनी एमटीएन प्राप्त कर ली होती जैसा कि उस साल जून में लगभग हो चुका था. लेकिन मुकेश के अधीन बदले हुए नाम के साथ रिलायंस दूरसंचार उस समय तक काफी आगे बढ़ चुकी थी और इसके पास 45 बिलियन ग्राहकों के साथ देश का दूसरा सबसे बड़ा सेल्युलर नेटवर्क था. अनिल और एमटीएन के चेयरमैन के बीच समझौते पर सहमति बन गई थी जिसके तहत दोनों का विलय हो जाता और काफी हद तक नियंत्रण अनिल की संस्था को हस्तानांतरित हो जाता जिससे उनको ऐसी कंपनी का प्रभार मिल जाता जिसकी दोनों उपमहाद्धीप में ग्राहकों की संख्या बढ़कर 100 मिलियन से अधिक हो जाती. लेकिन यह समझौता उस समय अधर में पड़ गया जब मुकेश ने अनिल और एमटीएन दोनों को यह दावा करते हुए लिखा कि विच्छेद की शर्तों के मुताबिक दोनों भाइयों को इस तरह के विलय को रोकने का अधिकार है. मुकेश ने धमकी दी कि अगर एमटीएन इस सौदे को आगे बढ़ाता है तो इसे अदालत में चुनौती देंगे. अनिल ने कहा कि अगर ऐसा होता है तो वह अपने भाई पर चेवरान के साथ होने वाले पेट्रोकेमिकल समझौते के खिलाफ मुकदमा करेंगे. लेकिन बहुत देर हो चुकी थी. एमटीएन सौदा रद हो गया.
दिल्ली में बिजली कटौती की समस्या खत्म करने के उद्देश्य से अनिल के मालिकाने वाले दादरी, उत्तर प्रदेश के विद्युत संयंत्र के प्रस्ताव को दोनों भाइयों के बीच गैस विवाद के तय होने तक रोक दिया गया. यूनाइटेड किंगडम स्थित एक बड़ी परामर्शदाता फर्म ने चेतावनी दी कि उनकी लड़ाई देश के ऊर्जा क्षेत्र को तबाह कर देगी. हर नई घटना के बाद पूंजी बाजार तेजी से बढ़ती और लुढ़कती थी. तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि दोनों का शान्त होना “राष्ट्रीय हित” का मामला है.
अंत में 2010 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के रूप में राहत मिली, जिसने दोनों भाइयों के बीच अत्यंत जटिल गैस मूल्य निर्धारण विवाद का समाधान मुकेश के पक्ष में कर दिया. दो सप्ताह बाद 24 मई को अंबानी बंधुओं ने प्रभावी रूप से प्रतियोगिता न करने के समझौते को तोड़ने की घोषणा कर दी. इसके तुरंत बाद मीडिया ने अंदाजा लगाना शुरू कर दिया कि मुकेश दूरसंचार क्षेत्र में फिर से प्रवेश करने की योजना बना रहे हैं.
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी विलियम ओ शॉघनेसी ने 1856 में 6400 किमी० लम्बी टेलीग्राफ व्यवस्था सम्पन्न की. जो कोलकाता, आगरा, मुम्बई, पेशावर और मद्रास को जोड़ती थी. यह व्यवस्था अपने युग की तकनीकी नवीनता थी जिसका मुख्य उद्देश्य साम्राज्य को सशक्त करना था. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान टेलीग्राम ने शीघ्रता के साथ ब्रिटिश सरकार को बढ़ते हुए विद्रोह के प्रति सजग कर दिया और उसे उखाड़ फेकने में ब्रिटिश राज की मदद की. एक पराजित भारतीय योद्धा ने फांसी के फंदे की ओर जाते हुए टेलीग्राफ लाइन की तरफ संकेत किया और कहा “इसी शापित डोर ने फांसी लगवाई”.
बेशक, ब्रिटेन ने इस नेटवर्क का विस्तार जारी रखा. 1883 तक ब्रिटिश राज ने टेलीग्राफ कार्यालयों पर धावक तैनात कर दिए जो ग्रामीण अंचलों की पोस्ट ऑफिसों तक आते जाते थे, इससे ब्रितानवी अफसरों को पूरे उपनिवेश की घटनाओं की सूचना मिलती थी. 1940 के दशक के आरंभ में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के कार्यकर्ताओं ने इस व्यवस्था को लक्ष्य बनाया और टेलीग्राफ व टेलीफोन के तार काट दिए. प्रत्यक्ष रूप से इसका बहुत प्रभाव पड़ा. 1942 में ब्रिटिश सेक्रेटरी का ऑफ स्टेट ने मोहनदास गांधी की गिरफ्तारी को न्यायसंगत बताते हुए सरकार की दूरसंचार सम्पत्ति की रक्षा पर बल दिया. द्धितीय विश्व युद्ध के चरम पर 1942 में सेक्रेटरी ने चेतावनी दी कि कांग्रेस के नेता विघटनकारी और विध्वंसकारी गतिविधियों की योजना बना रहे हैं जिसमें “टेलीग्राफ और टेलीफोन तार” काटना भी शामिल है. उन्होंने आगे कहा “यह केवल सामान्य प्रशासन को ही नहीं बल्कि पूरे युद्ध प्रयास को पंगु बना देगा”.
अंत में जब भारत आजाद हुआ तो सरकार ने तुरंत देश की दूरसंचार सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण कर दिया. औद्योगिक नीति प्रस्ताव 1956 में संसद ने परिभाषित किया “टेलीफोन और टेलीफोन केबल, टेलीग्राफ और वायरलेस उपकरण (रेडियों उपकरणों के अतरिक्त)” एक उद्योग के बतौर हैं, भविष्य में इसका विकास केवल सरकार का दायित्व है. इस निर्णय के लिए तर्क देते हुए विधायिका ने संवैधानिक दिशानिर्देश को उद्धृत किया “समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण सुनिश्चित करे कि इसका वितरण आमजन की भलाई के लिए उपयोगी हो”. इसमें आगे कहा गया कि दूरसंचार जैसी कंपनियों को “विभिन्न क्षेत्रों में कुछ व्यक्तियों के हाथों में निजी एकाधिकार और आर्थिक शक्ति के केंद्रीकरण को रोकने के लिए” सार्वजनिक क्षेत्र में रखना आवश्यक है.
उस समय दूरसंचार उद्योग की बात करना अटकलबाजी ही थी. 1947 में भारत में 350 मिलियन आबादी पर करीब 84 हजार टेलीफोन लाइनें थीं. लेकिन टेलीफोन घनत्व– किसी क्षेत्र में 100 व्यक्तियों पर टेलीफोन कनेक्शन– बढ़ा नहीं था, यह 1 प्रतिशत से भी कम था. इसको परखने और निर्धारित करने के लिए 1986 में सरकार ने दो सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों महानगर टेलीफोन निगम और विदेश संचार निगम लिमिटेड की स्थापना की. पहली कंपनी ने दिल्ली और मुम्बई में मूलभूत टेलीफोन सेवाओं का निरीक्षण किया, जबकि बाद वाली सिंघल के नेतृत्व में देश में इंटरनेट ले आई.
अब भी देश का टेलीफोन घनत्व बहुत कम था, फोन के लिए प्रतीक्षा सूची बहुत लम्बी हो गई थी और सरकार को तीव्रता के साथ जनता की मांग और अपनी आपूर्ति की जानकारी हुई. 1992 में सरकार ने पहली बार 4 महानगरों में निजी प्रतिष्ठानों को दूरसंचार क्षेत्र में बोली लगाने की अनुमति दी.
जल्द ही जाहिर हो गया कि लाइसेंस से सम्बंधित नियमों में गंभीर त्रुटियां हैं. यह ऐतिहासिक राष्ट्रीय दूरसंचार नीति 1994 का कारक बना जिसमें राज्य का अनुमान था कि इसे उपभोक्ता की मांगों को पूरा करने के लिए 23000 करोड़ रुपए या 7.3 बिलियन डॉलर की जरूरत होगी. एक अधिकारी ने लिखा, “स्पष्ट रूप से सरकारी निधिकरण और आंतरिक संसाधनों से पैसे जुटाना सरकार की क्षमता से बाहर था. संसाधन के इस अंतर को भरने के लिए निजी निवेश और निजी क्षेत्र के सहयोग की बड़े स्तर पर आवश्यकता थी”. राज्य ने अपना एकाधिकार समाप्त कर दिया, निजी कंपनियों ने लाइसेंस खरीदना आरंभ कर दिया और उद्योग में सैलाब आ गया.
दूरसंचार विभाग ने निजी खिलाड़ियों के लिए मानदंडों की सूची निर्धारित कर दी. देश को क्षेत्रों और मंडलों में बांट दिया जिसमें कंपनियां लाइसेंस के लिए आवेदन कर सकती थीं. नव प्रवेशकों को स्वतंत्र रूप से नियंत्रित करने के लिए 1997 में ट्राई का गठन किया गया. इसका दायित्व शुल्क दरें तय करना और स्वस्थ प्रतियोगी वातावरण बनाए रखने था, पहले यह काम केंद्र सरकार करती थी.
ये सुधार सफल रहे. जैसे-जैसे दूरसंचार कंपनियां बढ़ती गयीं वैसे ही टेलीफोन का घनत्व भी बढ़ा. 1994 में सरकार द्वारा उदार नीति अपनाने से ठीक पहले 1000 लोगों में केवल 8 के पास फोन लाइन थी. मार्च 2007 तक प्रति हजार 180 से अधिक हो गई. उस समय भारत में 12 कंपनियां सेल्युलर सेवा प्रदाता थी, यह संख्या तेजी से बढ़ गई.
फिर भी, उदारवाद के बाद से उद्योग विवादों से दागदार हो गया. इनमें बिल्कुल शुरूआत में रिलायंस इनफोकॉम भी शामिल थी और इसका सम्बंध अविभाजित अंबानी साम्राज्य से था. जब कंपनी 1990 के दशक में स्थापित हुई थी तो उसे सेल्युलर वृत्तांत प्रदान करने का लाइसेंस नहीं मिला था. 2001 में दूरसंचार विभाग ने व्यवस्था दी कि मूल लाइसेंस धारक सेल्युलर सेवाएं दे सकते हैं, इसे उन ग्राहकों के लिए “सीमित गतिशीलता” कहा गया जो अपने शहर या कस्बे की सीमा के अंदर से कॉल कर सकते थे.
रिलायंस इस अवसर का लाभ उठाने वाली पहली कंपनियों में से थी. मध्य आकार की एक अन्य कंपनी थी- हिमाचल फ्यूरिस्टिक कम्युनिकेशन लिमिटेड जो महेंद्र नहाटा द्वारा प्रोत्साहित थी. 1995 में भारत के शुरुआती निजी दूरसंचार लाइसेंस प्राप्त करने के लिए महेंद्र नहाटा की एचएफसीएल अपनी योग्यता से कई गुना अधिक की बोली लगाने के लिए कुख्यात हुई. जब यह स्पष्ट हो गया कि एचएफसीएल बकाया रकम के भुगतान में असमर्थ है तो दूरसंचार मंत्री सुखराम ने नहाटा को वित्तीय दंड से बचाने के लिए नीलामी के नियमों में बदलाव कर दिए. 1996 में सुखराम के घर पर सीबीआई ने छापा मारा जहां उसे 63 करोड़ रुपए से अधिक या एक मिलियन डॉलर रोकड़ और एक डायरी मिली, जिसमें नहाटा का नाम अंकित था. 6 दिन बाद सीबीआई ने नहाटा के घर पर भी छापा मारा लेकिन वहां कुछ नहीं मिला. राम को कई तरह के भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की सजा हुई. नहाटा पर गलत कार्य के लिए कभी अभियोग नहीं लगा, लेकिन स्वंय उसका व्यापार जल्द ही व्यवसायी केतन पारेख के विवाद के घेरे में फंस गया. केतन को 1999 से 2001 तक कंपनियों के स्टॉक को फर्जी तरीके से बढ़ाने के लिए दोषी पाया गया था. एचएफसीएल पारेख की ग्राहक थी और कथित रूप से जिनके स्टॉक उसने बढ़ाकर बताए थे उसमें यह भी शामिल थी.
रिलायंस ने सीमित गतिशीलता की बहुत उदार व्याख्या की. कंपनी ने ग्राहकों को कई टेलीफोन नम्बर दिए और केवल उस स्थान पर ही नहीं जहां वह ग्राहक थे बल्कि उन्हें देश भर में यात्रा के दौरान प्रयोग करने की अनुमति दी. यह सीमित गतिशीलता लाइसेंस की शर्तों के विपरीत प्रतीत होता था जिसमें अपेक्षा की जाती थी कि वायलेस सेवा तक ग्राहक की पहुंच “स्थानीय क्षेत्र तक सीमित” होगी, अर्थात छोटी दूरी का प्रभार क्षेत्र (एसडीसीए) जिसमें ग्राहक पंजीकृत है.
जो कंपनियां पूरी सेल्युलर सेवा प्रदान करने के लिए अधिकृत थीं, जिन्होंने अपने लाइसेंस के लिए रिलायंस के मुकाबले करीब 4 गुना अधिक भुगतान किया था, उन्होंने सरकार के खिलाफ इस तर्क के आधार पर मुकदमा कर दिया कि सीमित गतिशीलता छद्मवेश में नियमित सेल्युलर सेवा है. सिर्फ भ्रमणकारी सेवा ही नहीं थी जिससे उद्योग में नाराजगी थी. खासकर जब एक कंपनी का ग्राहक अन्य कंपनी के ग्राहक को फोन करता है, पहली कंपनी को अपनी आय का एक भाग दूसरी कंपनी को देना होता है. इस शुल्क को ‘अंतर्संबद्ध प्रयोग शुल्क’ कहा जाता है. इसकी रूपरेखा इस प्रकार तैयार की गई है कि जब आधारभूत संरचना का प्रयोग किया जाए तो प्रदाता की क्षतिपूर्ति सुनिश्चित हो. लेकिन चूंकि रिलायंस के पास केवल स्थिर लाइन लाइसेंस था और प्रचलित नियमों के अनुसार इसके आईयूसी अधिकतर विरोधियों से काफी हद तक कम थे.
सिंघल ने कहा कि सीमित गतिशीलता के मुद्दे पर टकराव अंततः उनके रिलायंस छोड़ने का कारण बना. सिंघल ने मुझे बताया कि रिलायंस इनफोकॉम के चेयरपर्सन के उनके कार्यकाल के दौरान वह दूरसंचार उद्योग के व्यापार संघ, एसोसिएशन ऑफ यूनिफाईड टेलीकॉम सर्विस प्रोवाइडर्स ऑफ इंडिया के अध्यक्ष के बतौर भी सेवा दे रहे थे. उन्होंने कहा कि रिलायंस ने उनसे अपने एयूएसपीआई पद का प्रयोग करके सरकार से कंपनी की सीमित गतिशीलता स्पेक्ट्रम को बढ़ाने की अनुमति प्रदान करने का प्रयास किया. सिंघल ने कहा “मुझे फोन पर फोन आ रहे थे कि अगर (अधिकारी) नहीं मानते हैं तो आप संघ के चेयरमैन या अध्यक्ष से यह कहते हुए पत्र लिखें कि बस यही किया जाना चाहिए”. लेकिन उन्हें लगता था कि एयूएसपीआई के अधिकतर सदस्य इसे अस्वीकार कर देंगे क्योंकि इससे उनके अपने लाइसेंस का महत्व कम हो जाएगा. “मैंने कहा, क्षमा करें, मैं पत्र नहीं लिखने जा रहा हूं क्योंकि कल 5 पत्र मेरे पत्र के विरोध में होंगे, इसलिए मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा”?
जाहिर है उनके जवाब ने मुकेश की टीम की ओर उनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न नहीं की. सिंघल ने मुझे बताया “मनोज मोदी का प्रत्युत्तर था ‘आप रिलायंस के कर्मचारी है, जो रिलायंस चाहती है आपको वह करना चाहिए’. मैंने कहा, क्षमा करें, भाग्यशाली रहें, मैं ऐसा नहीं करने जा रहा हूं”. कंपनी ने सिंघल से गंभीर दायित्व छीन लिए और 2001 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया. उन्होंने कहा कि विच्छेद मित्रतापूर्ण रहा. “मैने कहा, सुनिए, अगर मुझे यहां केवल अपने ऑफिस में बैठने आना है, अपना वेतन लेना है और कुछ नहीं करना है तो ऐसा करने के लिए मैं तैयार नहीं हूं क्योंकि अभी उम्र बाकी है”. सिंघल ने कहा “संभव है मैं गलत रहा हूं, हो सकता है मैं सही हूं. मुझे कोई पछतावा नहीं है क्योंकि मेरे लिए प्रतिष्ठा सर्वोपरि है”.
सरकार जानती थी कि रिलायंस वास्तविक सेल्युलर प्रदाता था. उसने 2003 में एक नया एकीकृत अभिगम लाइसेंस परिचित कराया. रिलायंस इनफोकॉम ने उसकी उपलब्धता के बाद एक दिन से कम में की उसे प्राप्त कर लिया. रिलायंस इनफोकॉम ने नए लाइसेंस की उन्नति करने के लिए 542.5 करोड़ रुपए या 340 मिलियन डॉलर का भुगतान किया जिसमें 526 करोड़ रुपए या 116 मिलियन डॉलर सीमित अभिगम गतिशीलता के अति उपयोग के दंड के रूप में था.
प्रदीप बैजल उस समय ट्राई के चेयरमैन थे जब एजेंसी ने एकीकृत अभिगम लाइसेंस को परिचित कराया था. उन पर बाद में वस्तु के रूप में रिश्वत या पक्ष लेने का आरोप लगा था. 2005 में आउटलुक ने मनोज मोदी के कथित ईमेल के टुकड़े जारी किए जिसमें मोदी ने कहा था कि उन्होंने “व्यक्तिगत रूप से नियंत्रक पीबी (प्रदीप बैजल) से आज बात की और उन्हें अपने लक्ष्य के लिए कायल कर लिया. हम भी सुनिश्चित कर रहे हैं कि आप ने अच्छी तरह ध्यान रखा है”. बैजल ने ईमेल को जालसाजी बताया. अधिवक्ता और सक्रियतावादी प्रशांत भूषण ने दूरसंचार विवादों पर सरकार के खिलाफ मुकदमा दायर किया है. उनका तर्क है कि व्यापारिक निगम राजनीति के गलियारों में असीम प्रभाव का प्रयोग करते हैं. भूषण ने मुझे बताया “अगर अफसरशाही उनके रास्ते पर नहीं चलती है तो वह सुनिश्चत करते हैं कि सरकार द्वारा उसको स्थानांतरित कर दिया जाए या उनका शोषण किया जाए. शासक–मंडल को वह अपनी जेब में रखते हैं, सरकार पर अपने प्रभावों का प्रयोग करके वह सुनिश्चित करते हैं कि अफसरशाही भी उनके सामने झुकी रहे”.
2002 में एक रिपोर्टर ने रिलायंस इनफोकॉम के लगभग 10 मिलियन शेयर एक लेखाकार (अकाउंटेंट) को दिए जाने का पता लगाया जिसने राजनीतिज्ञ प्रमोद महाजन को एक वित्तीय दुर्दशा से बचाने में मदद की थी. दूरसंचार विभाग द्वारा सीमित गतिशीलता के परिचित कराए जाने के ठीक बाद प्रमोद महाजन दूरसंचार मंत्री बने और सरकार द्वारा रिलायंस को एकीकृत लाइसेंस प्रदान किए जाने से ठीक पहले मंत्रालय छोड़ दिया. उन्होंने किसी गलत कार्य से इनकार किया. महाजन के उत्तराधिकारी अरुण शूरी को कभी अनुचित व्यवहार के आरोप का सामना नहीं करना पड़ा लेकिन रिलायंस के प्रति उनका प्रेम जगजाहिर था. 2003 में धीरूभाई अंबानी की यादगार में एक मीटिंग में शूरी ने भाषण दिया जिसमें उन्होंने कॉरपोरेशन की भावपूर्ण प्रशंसा की. शूरी ने कहा “जहां प्रतिबंध उनकी जब्ती का अनुरोध करते उस सीमा को लांघ कर” रिलायंस जैसी कंपनियों ने नियमों को साफ–सुथरा करने की “स्थिति बनाने में सहायता की”.
अंत्तोगत्वा, बढ़ी हई सीमाओं ने अनिल की रिलायंस कम्युनिकेशन की सहायता करने के लिए कुछ नहीं किया जो बाजार में अग्रणी होते हुए भी एक दशक में किसी तरह चलने वाली कंपनी बन गई. कंपनियों की असफलता का कारण प्रतियोगिता का बढ़ता हुआ हमला भी था, जिसमें जियो की तरफ से हमला भी शामिल है. आरोप का बड़ा भाग खुद अनिल अंबानी पर है जो सिंघल के अनुसार उस व्यापक नेटवर्क का लाभ नहीं उठा पाए जो उन्हें प्राप्त था. लेकिन इसका कुछ हिस्सा मुकेश पर भी आता है जिन्होंने 2000 के दशक के आरंभ में ऐसी ब्रॉडबैंड तकनीक के प्रयोग का निर्णय लिया जो 2000 के दशक के बाद के वर्षों में उद्योग की पसंद नहीं रह गया. रिलायंस कम्युनिकेशन को व्यस्था बदलने के लिए भारी रकम खर्च करने के लिए विवश होना पड़ा.
भारत के ब्रॉडबैंड वायरलेस अनुगम स्पेक्ट्रम की नीलामी 24 मई 2010 को शुरू हुई, उसी दिन अनिल और मुकेश ने अपने प्रतियोगिता न करने के समझौते को तोड़ दिया. दूरसंचार विभाग को बोली लगाने वाले 11 लोगों के आवेदन प्राप्त हुए थे. उस माह, भारत की अधिकतर दूरसंचार ऊर्जा देश के 3जी नीलामी पर केंद्रित थी जिसने ध्वनि, अवतरण और डाटा के लिए स्पेक्ट्रम का प्रस्ताव किया था जो पांच दिन पहले समाप्त हुआ था. लेकिन बीडब्लूए नीलामी अपनी तरह की पहली नीलामी थी जिसने दूरसंचार उद्योग के एयरटेल और वोडाफोन जैसे दिग्गजों को भी आकर्षित किया था.
इसने एक गुमनाम सी जिज्ञासू कंपनी इनफोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड को भी आकर्षित किया. इसका उपार्जन केवल 14.78 लाख रूपए या 32743 डॉलर था और इसने अपने हालिया वार्षिक वित्तीय विवरण में 18 लाख रुपए या 35329 डॉलर रोकड़ भंडार की जानकारी दी थी. मार्च 2010 के आरंभ में इसकी हैसियत 2.4 करोड़ रुपए या 5.215 मिलियन डॉलर थी.
जब 19 मार्च को आईबीएसपीएल ने ऐक्सिस बैंक से 252.50 करोड़ रुपए या 55.5 मिलियन डॉलर गारंटी प्राप्त की तो सब कुछ बदल गया. वर्षों बाद नियंत्रक एंव महालेखापरीक्षक का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ, वह अपनी रिपोर्ट में इस नतीजे पर पहुंचे कि आईबीएसपीएल ने मसौदे की रपट जमानत राशि उपलब्ध कराए बिना प्राप्त किया था. 2014 में स्वंय बैंक गारंटी की प्रतियां लीक हो गयीं. “आवेदक का नाम और पता” शीर्षक के दायीं ओर की पंक्तियों के अलावा पूरा प्रलेख टाइप किया हुआ था. ऐसा लगता था कि वहां जो कुछ भी लिखा हुआ था उसे मिटाया गया था और उसके स्थान पर इनफोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज का नाम और पता हाथ से लिखा गया था.
जमानत पत्र और बहुत से दूसरे कागजात तत्कालीन संयुक्त सचिव दूरसंचार जेएस दीपक को भेजे गए थे जो उस समय स्पेक्ट्रम नीलामी तैयार कर रहे थे. बैंक गारंटी ने आईबीएसपीएल की पृष्ठिभमि के बारे में कुछ जाहिर नहीं किया लेकिन एक प्रलेख ने रहस्य खोल दिया. कंपनी के स्वामित्व के विवरण के मुताबिक आईएसबीपीएल का निदेशक एचएफसीएल के महेंद्र नहाटा का बेटा था.
दीपक के विभाग ने इनफोटेल की बोली की पात्रता की धनराशि के अंक को 252.5 करोड़ ऋण से पूरा करते हुए अधिकतम 350 अंक दिए. यूएस स्थित फार्चून 100 भीमकाय तकनीकी– क्वॉलकॉम के अपवाद के छोड़कर सभी दूसरी कंपनियां जिनको 350 पात्रता अंक प्राप्त हुए थे वह बड़ी भारतीय दूरसंचार कंपनियां थीं जिसके कम से कम 35 मिलियन वायरलेस ग्राहक थे. इसके विपरीत इनफोटेल का केवल एक इंटरनेट ग्राहक था.
आइबीएसपीएल ने भारत के सभी 22 दूरसंचार क्षेत्रों के लिए ‘केवल इंटरनेट’ लाइसेंस की पहले चक्र की सबसे बड़ी बोली लगाई. जैसे-जैसे इनफोटेल के प्रतियोगी अपनी बोली बढ़ाते गए आईबीएसपीएल भी बोली बढ़ाता रहा. नीलामी प्रक्रिया के दसवां भाग होते होते, बारहवें चक्र में आईएसबीपीएल ने सम्पूर्ण भारत के स्पेक्ट्रम के लिए 3000 करोड़ रुपए का प्रस्ताव किया. 60वें चक्र तक यह आंकड़ा लगभग 8000 करोड़ रुपए तक बढ़ गया. एक के बाद दूसरा चक्र और एक के बाद दूसरा दिन भारत का 150वां सबसे बड़ा इंटरनेट प्रदाता ब्रांडबैंड की कीमतें उच्च से उच्चतर स्तर तक बढ़ाता रहा जो सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनियों की वहन क्षमता से भी बाहर हो सकता था.
31 मई को नीलामी के बीच ही इकोनॉमिक टाइम्स ने एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें यह अनुमान लगाया गया था कि मुकेश फिर से दूरसंचार उद्योग में प्रवेश की राह तलाश कर रहे हैं. लेख ने आईडिया सेल्युलर को उद्धृत किया था और (लाइसेंस) प्राप्ति के संभावित लक्ष्य के लिए उसके पास 65.3 मिलियन ग्राहक थे. आईडिया सेल्युलर के स्वामी बिरला परिवार ने इसका कुछ भाग हाल ही में मलेशियाई कंपनी को बेच दिया था. शायद वह कुछ और देने के इच्छुक थे. एक विश्लेषक को कहते हुए उद्धृत किया गया कि एक अन्य वर्तमान प्रदाता डाटाकॉम इसे अपने अधिकार में लेने को बिल्कुल तैयार थी, इसकी सहायता वीडियोकोन ने की थी. इस कहानी में आईबीएसपीएल का उल्लेख नहीं था, न ही स्वंय नीलामी की चर्चा थी जहां कीमतें अब भी बढ़ती जा रही थीं. 100वें चक्र में इनफोटेल की बोली 11000 करोड़ रुपए या दो बिलियन डॉलर के पार और 110वें चक्र तक 12000 करोड़ के शिखर पर पहुंच गई.
उसके बाद 10 जून 2012 को इकोनॉमिक टाइम्स ने धमाका किया: रिलायंस इंडस्ट्रीज ब्राडबैंड स्पेक्ट्रम के अंतिम विजेता को हथियाने की योजना बना रही है. अगले दिन नीलामी समाप्त हो गई. एक तरह से आईबीएसपीएल विजयी रही. यह अकेली कंपनी थी, जिसने भारत के सभी 22 दूरसंचार क्षेत्रों के ब्राडबैंड स्पेक्ट्रम प्राप्त किए थे. लेकिन कुछ ही घंटों बाद इनफोटेल अपने 95% शेयर आरआईएल को बेचने पर सहमत हो गई. 22 जनवरी 2013 को रिलायंस ने कंपनी का नाम बदल कर रिलायंस जियो इनफोकॉम लिमिटेड रख दिया.
एक अन्य कंपनी के अनुभवी प्रबंधक ने रिलायंस द्वारा मुकदमा दायर किए जाने के भय से नाम न छापने की शर्त पर कहा “जिस गति से कंपनियों ने हाथ बदले हैं उससे जाहिर होता है कि वे मोर्चाबंदी कर रही हैं”. रिलायंस अपने आलोचकों के खिलाफ विधिक कार्यवाही करने के लिए कुख्यात है. नियंत्रक एंव महालेखापरीक्षक की मसौदा रिपोर्ट भी इसी नतीजे पर पहुंची थी और पाया था कि आरआईएल की 2010-11 की वार्षिक रिपोर्ट में ऐक्सिस बैंक के साथ कई महत्वपूर्ण लेनदेन दर्शाया गया था. इसमें 2250 करोड़ रुपए या 503.9 मिलियन डॉलर का निवेश दिखाया गया था. सीएजी रिपोर्ट में कहा गया “यह सब कुछ नीलामी प्रक्रिया की पवित्रता और पारदर्शिता” के विरुद्ध जाता था.
कई दूरसंचार प्रबंधकों ने मुझे बताया कि इनफोटेल की मोर्चाबंदी स्पेक्ट्रम की अंतिम कीमत करने में सहायक रही. एक अनुभवी प्रबंधक ने मुझे बताया “हमने सोचा था कि यह एचएफसीएल की तरह एक निष्प्रभावी, बेकार, निम्न वित्तपोषित कंपनी थी. यह स्वंय आपको इस धोखे में रखने वाली है कि सम्भवतः यह लोग अपने स्पेक्ट्रम का क्या कर सकते हैं”. कंपनियां कम बोली लगाती हैं जिसके नतीजे में सरकार कम धनराशि प्राप्त करती है. अनुभवी प्रबंधक ने कहा “भेड़ के भेष में उन्होंने इस कीमत पर इसे प्राप्त किया”. अगर उसकी कंपनी को पहले से जानकारी होती कि अंत में इस स्पेक्ट्रम का क्या होना है तो “निश्चित ही हम अधिक बड़ी बोली लगाते”.
स्पेक्ट्रम प्राप्त करने की बोली से स्पेक्ट्रम के वास्तविक मूल्य का आभास हो इसकी जमानत के लिए भारत सरकार अपेक्षा करती है कि नीलामी में भाग लेने वाले अपने बारे में अग्रिम जानकारी दें. 2010 में प्रत्येक बोली लगाने वाले को “प्रोत्साहकों/ भागीदारों/ कंपनी में शेयरधारकों के प्रमाणित विवरण” सरकार को उपलब्ध करवाना था. इसका मतलब यह नहीं कि बोली लगाने वालों का पहले से ही दूरसंचार का खिलाड़ी होना जरूरी था. सरकार की “आवेदन के लिए निमंत्रण की सूचना” बिना लाइसेंस वाली कंपनियों को लाइसेंस प्राप्त कंपनियों के सहयोग से औपचारिक रूप से बोली लगाने की अनुमति देती है जैसे आईबीएसपीएल. उन्हें बस इसकी घोषणा करनी थी.
लेकिन इनफोटेल ने अपने आवेदन प्रपत्र में ऐसी कोई जानकारी जाहिर नहीं की, नहीं रिलायंस ने नीलामी के भागीदारी प्रावधान में उपलब्ध कराया. फिर भी 11 जून को नहाटा ने रिपोर्टरों को बताया “बीडब्लूए के लिए नीलामी से पहले ही आरआईएल से बातचीत जारी थी”. आवेदन अधिसूचना कहती है कि सरकार किसी भी बोली लगाने वाले को अयोग्य घोषित कर सकती है जो “नीलामी में भाग लेने के लिए गलत जानकारी उपलब्ध कराता है”.
महेंद्र नहाटा रिलायंस जियो के निदेशक बन गए. 2017 में उनका बेटा कंपनी के 65753000 शेयर का मालिक था जो कुल शेयर का 15% है. 2012 में रिलायंस ने घोषणा की कि एचएफसीएल इसके 4जी नेटवर्क के निर्माण में सहायता करेगी इससे एचएफसीएल के स्टॉक की कीमतें आसमान पर पहुंच गयीं. 2010 के ब्राडबैंड नीलामी हेतु आवेदन आमंत्रित करने की सरकार की नोटिस के “प्रतियोगिता विरोधी सक्रियता” शीर्षक से एक खण्ड में स्पेक्ट्रम की बोली लगाने वालों को “उपकरण या साफ्टवेयर आपूर्तिकर्ता के साथ ऐसी कोई व्यवस्था न करने के लिए” निर्दिष्ट किया गया “जिससे नेटवर्क के लिए योजना बनाने, निर्माण या संचालन करने हेतु दूसरे बोली लगाने वालों को उपकरण या साफ्टवेयर की आपूर्ति करने की आपूर्तिकर्ता की क्षमता बाधित हो”. रिलायंस की एचएफसीएल के साथ समझौते की शर्तें अस्पष्ट हैं.
मैंने नहाटा और एचएफसीएल को नीलामी से घिरे विवादों को जानने के लिए विस्तृत प्रश्नावली भेजी लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. मैंने दीपक से फोन पर बात की लेकिन उन्होंने टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
कुछ विष्लेषकों से जब मैंने साक्षात्कार करते समय तर्क दिया कि जो कुछ 2010 में हुआ उसकी जिम्मेदारी रिलायंस के प्रतियोगियों की भी उतनी ही होती है जितनी मुकेश अंबानी की. टेलीकॉम कंसल्टेंसी कॉम फर्स्ट के निदेशक महेश उप्पल ने कहा “पदाधिकारी उलझन में फंस गए क्योंकि वे इसका आकलन करने में असफल रहे”. इन सब के बावजूद, कंपनियों को मालूम था कि आर्इबीएसपीएल के पात्रता अंक 350 हैं.
मैंने अनुभवी प्रबंधक से पूछा कि उद्योग ने आईबीएसपीएल को ज्यादा गंभीरता से क्यों नहीं लिया. उन्होंने जल्दी ही समाप्त हुए 3जी नीलामी, जो पहले की तुलना में बहुत मंहगी और प्रदाताओं के लिए महत्वपूर्ण थी, की ओर संकेत किया. आखिरकार, भारतीय दूरसंचार कंपनियां अब भी अपने 3जी नेटवर्क बिछाने का काम कर रही हैं. उन्होंने कहा “हम अपनी कंपनी को बचाने या कायम रखने के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि अगर हम कुछ निश्चित क्षेत्रों की नीलामी नहीं प्राप्त कर पाते हैं, हम स्पेक्ट्रम नहीं प्राप्त कर पाते हैं तो हमारे उपभोक्ताओं के विकास का मार्ग बंद होता है और यह व्यापार को क्षीण होने की तरफ ले जाता है. 3जी नीलामी का हवाला देते हुए कहते हैं “आप घटित होने वाली अन्य चीजों को पूरी तरह ढंक लेते हैं”.
इसके विपरीत इनफोटेल ने केवल देश की ब्राडबैंड वायरलेस नीलामी में भाग लिया जो इंटरनेट सेवा के लिए स्पेक्ट्रम का प्रस्ताव करता है. इस कंपनी को सेल्युलर सेवा प्रदान करने का भी अधिकार नहीं था. अनुभवी प्रबंधक ने कहा “स्पष्ट रूप से यह एचएफसीएल का तुलनापत्र (बैलेंसशीट) नहीं था. लेकिन लोगों को चिंता नहीं थी क्योंकि अगर आप इंटरनेट सेवाओं में कुछ करना चाहते हैं, आगे बढ़ें, वह मेरा काम नहीं है”.
लेकिन 2011 में इनफोटेल ने, जो अब मुकेश की आरआईएल का भाग थी, कंट्री कोड और नेटवर्क कोड के लिए आवेदन किया. यह पूर्ण विकसित दूरसंचार प्रदाता बनने के लिए आरम्भिक कदम है. अप्रैल 2012 में ट्राई ने ‘केवल इंटरनेट’ लाइसेंस वाली कंपनियों को (पूर्ण) लाइसेंस तक अपग्रेड करने की अनुमति की संस्तुति की. फरवरी 2013 में दूरसंचार विभाग ने कंपनियों को ऐसा करने की अनुमति देना शुरू कर दिया. आरआईएल 658 करोड़ रुपए स्थानांतरण शुल्क और 15 करोड़ रुपए प्रवेश शुल्क का भुगतान करके विभाग के निर्णय का लाभ उठाने वाली पहली प्रदाता थी.
इस निर्णय के खिलाफ आलोचना की बौछार हो गई. दूरसंचार कंपनियों का प्रतिनिधित्व करने वाली द सेल्युलर ऑपरेटर्स असोसिएशन ऑफ इंडिया ने (अब जियो भी इसमें शामिल है), महसूस किया कि रिलायंस प्रभावी ढंग से पंक्ति तोड़कर 4जी सेल्युलर तकनीक तक रिसाई पाने वाली पहली भारतीय दूरसंचार कंपनी बन गई है. सरकार के निर्णय ने 2010 की नीलामी के सम्बंध में और सवाल खड़े कर दिए. सिंघल ने मुझे बताया “अगर अन्यों को भी मालूम रहता कि इस स्पेक्ट्रम का प्रयोग आईएसपी के अलावा पूर्ण विकसित ध्वनि और डाटा सेवाओं में भी किया जाएगा तो हो सकता है कि दूसरे भी बोली लगाते. हो सकता है कि स्पेक्ट्रम की कीमत इससे अधिक होती. यह साफतौर पर पक्षपात है. स्पष्ट है कि यह पिछले दरवाजे से प्रवेश है”.
रिलायंस के लिए यह पैसे का बचतकर्ता भी था. ‘केवल इंटरनेट’ नीलामी का प्रवेश शुल्क एकीकृत सेवा नीलामी की तुलना में काफी कम था और सरकार ने इसकी उन्नति करने के लिए जियो से तुलनात्मक रूप से मामूली रकम वसूल किया. जैसा कि नियंत्रक एंव महालेखापरीक्षक ने टिप्पणी की कि जियो ने 2003 की एकीकृत लाइसेंस की कीमत के आधार पर स्थानांतरण शुल्क का भुगतान किया था, व्यंगपूर्ण रूप से उसी साल मुकेश अंबानी के नेतृत्व वाली रिलायंस इनफोकॉम ने एकीकृत लाइसेंस को (विवादास्पद ढंग से) उन्नयन कराया था. मध्यवर्ती वर्षों में इस तरह के लाइसेंस का मूल्य काफी बढ़ चुका था. आरंभ में सीएजी का आंकलन था कि स्पेक्ट्रम का मूल्य 20653 करोड़ रुपए या 4.57 बिलियन डॉलर तक बढ़ चुका था. रिलायंस ने “वास्तविक” लागत के तीसवें भाग से कम में उन्नयन कराने की व्यवस्था कर ली थी और अब इसका प्रयोग डाटा से लेकर फोन कॉल तक कर सकता था. राष्ट्रीय राजकोष को इस प्रक्रिया में 20000 करोड़ या लगभग 4 बिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा था.
मैने संचार एंव सूचना तकनीक मंत्री कपिल सिब्बल को 2011 से 2014 तक लाइसेंस उन्नति करने के इस विवाद के बारे संदेश भेजा. उन्होंने उत्तर नहीं दिया और न ही ट्राई ने जवाब दिया.
जैसा भी हो, सीएजी की अंतिम रिपोर्ट ने नुकसान का आंकलन कम करके 3367 करोड़ रुपए या 525.7 मिलियन डॉलर कर दिया. 2016 में पत्रकार परनजॉय गुहा ठकुर्ता और आदिति रॉय घटक की रिपोर्ट प्रकाशित हुई कि सीएजी कार्यालय के एक सूत्र ने कहा कि दो वरिष्ठ नौकरशाहों ने रिपोर्ट को “मन्द” करने के लिए कहा था.
उप सीएजी सुमन सक्सेना से जब रिपोर्टरों ने दो आंकलनों के बीच भारी अंतर के बारे में पूछा तो उन्होंने अलग ही विवरण दिया. उन्होंने कहा, “मसौदा, मसौदा होता है”.
नीलामी की शर्तों के अनुसार ब्राडबैंड की बोली जीतने वाले के लिए तकरीबन सभी महानगरीय क्षेत्रों में और कम से कम आधे ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएं देने के लिए 5 साल का समय था. आरआईएल ने रिपोर्टरों को बताया था कि इनफोटेल को हासिल करने के दो साल के अंदर यह सेवाएं शुरू कर देगी. 2012 में मुकेश अंबानी का भाषण कहता है कि उनकी कंपनी “राष्ट्रव्यापी सेवाएं देने के लिए योजनाओं को अंतिम रूप दे रही” थी.
फिर भी, आरआईएल ने दूरसंचार सेवाएं 2012 में शुरू नहीं कीं और न ही अगले दो सालों में उसका उदघाटन किया. 2015 में जियो के काम आरंभ करने के समय को लेकर तीव्र अटकलबाजियों के बीच मुकेश ने शेयरधारकों को बताया कि जियो दिसम्बर के आसपास व्यापारिक संचालन शुरू करेगी. लेकिन इसने नहीं किया.
इस बीच एयरटेल और एयरसेल ने आईबीएसपीएल के साथ साथ अपने प्राप्त किए गए ब्राडबैंड का इस्तेमाल कुछ राज्यों में चौथी पीढ़ी की सेल्युलर सेवा के लिए शुरू कर दिया. लेकिन उनका आरंभिक 4जी चलन उन क्षेत्रों तक सीमित था जहां उनके पास ब्राडबैंड लाइसेंस थे. जियो का फायदा यह था कि यह अकेली कंपनी थी जिसने 2010 में पूरे भारत के लिए ब्राडबैंड अधिकार प्राप्त किए थे. कंपनी को व्यापारिक सेवाएं शुरू करने में 6 साल से अधिक लग गए इस तरह 5 सितंबर 2016 को इसकी शुरूआत हुई. समय पर उसकी पहुंच का प्रयास करने और उसे सुनिश्चित करने के सम्बंध में नीलामी आवेदन आमंत्रित करने वाली अधिसूचना में कहा गया था “अगर लाइसेंस धारक को सेवा उपलब्ध कराने के अपने दायित्वों को पूरा नहीं करता है तो उसके स्पेक्ट्रम वापस ले लिए जाएगे.
कई अधिकारियों से मैंने बात की, उनके अनुसार ब्राडबैंड स्पेक्ट्रम की सेवा उपलब्ध कराने में कुछ विलम्ब की अपेक्षा थी. 2012 से 2015 तक ट्राई के चेयरमैन रहे राहुल खुल्लर ने मुझसे कहा “यह नई तकनीक है. कुछ अतरिक्त समय की आवश्यकता थी. लेकिन यह अनिश्चित समय तक नहीं किया जा सकता”.
अंततः जब यह जीवंत हो गया तो जियो ने तीव्रता से ग्राहक बटोर लिए. अक्तूबर 2016 में कंपनी ने गर्व से कहा कि इसने एक महीने में 16 मिलियन ग्राहक बना लिए. मुकेश अंबानी ने कहा “जियो प्रत्येक भारतीय को डाटा की ताकत से सशक्त करने के लिए बनी है. हमें हर्ष है कि लोगों ने इसे पहचाना है और हमारी सेवाओं का पूरा उपयोग कर रहे हैं”.
विश्लेषक प्रभावित हुए. कंपनी की तीव्र बढ़त की ओर संकेत करते हुए सिंघल ने मुझे बताया “उन्होंने अविश्वसनीय काम किया है”.
लेकिन जिसका जिक्र अंबानी ने नहीं किया वह थी ‘कंपनी की शुरुआती बढ़त’. व्यापारिक सेवाएं शुरू करने से पहले अधिकतर दूरसंचार प्रतिष्ठानों को अनुमति होती है कि कर्मचारियों और अपने सहयोगियों को पहले ही निःशुल्क ग्राहक बनाकर नेटवर्क का परीक्षण करने के लिए आमंत्रित करें. लेकिन जियो के परीक्षण का विस्तार मित्रों और कंपनी कर्मचारियों के परिवार से काफी बाहर तक हो गया. उदाहरण के बतौर 2016 में जियो ने अपनी सेवाओं के परीक्षण के लिए हर उस किसी को आमंत्रित किया जिसने लिफ के स्मार्टफोन, शाओमी रेडमी नोट 3 या कई प्रकार के सैमसंग स्मार्टफोन खरीदे थे. औपचारिक उदघाटन से पहले 1.5 मिलियन लोग जियो के नेटवर्क का “परीक्षण” कर रहे थे. उदघाटन की तिथि तक कुछ अन्य आंकलन यह संख्या 3 मिलियन तक बताते हैं.
वर्तमान संचालक आगबबूला थे, केवल परीक्षकों की संख्या पर ही नहीं. दूरसंचार कंपनियों को उदघाटन से पहले अपने नेटवर्क के परीक्षण के लिए 90 दिनों की अनुमति होती है. लेकिन जियो के परीक्षण की अवधि 8 महीने से अधिक थी. दूसंचार विभाग को लिखे एक पत्र में सेल्युलर ऑपरेटर्स असोसिएशन ऑफ इंडिया के राजन मैथ्यूज ने लिखा कि रिलायंस का प्रस्ताव “परीक्षण के स्वांग में पूर्ण विकसित और भरपूर सेवाएं थीं जो नियमों उपेक्षा करती हैं और नीतिगत गुणों के साथ खिलवाड़ कर सकती हैं”. मैथ्यूज ने बताया चूंकि जियो अब तक औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुई थी, इसलिए इसके संचालकों को आईयूसी नहीं चुकाना था. जियो अभी प्रतियोगिता विरोधी और कीमतों के निर्धारण में लूटखसोट वाले आचरण से सम्बंधित ट्राई के नियमों के अधीन नहीं थी जिसके कारण बिना किसी सवाल के सैकड़ो हजार ग्राहक निःशुल्क बना सकती थी. जियो की प्रतिक्रिया थी कि उसे नेटवर्क के परीक्षण की आवश्यकता थी क्योंकि शीघ्र ही 10 मिलियन से अधिक ग्राहकों के साथ उसकी व्यापार शुरू करने की योजना थी.
इस विवाद के उत्तर में ट्राई ने दूरसंचार विभाग को पत्र लिखकर जानना चाहा कि परीक्षण अवधि कितनी लम्बी होनी चाहिए. जवाब में विभाग ने प्रश्न ट्राई को वापस भेज दिए और कहा कि नियामक संस्तुति भेजे. अंत में ट्राई ने निर्दिष्ट किया कि परीक्षण के लिए “90 दिनों की समय सीमा होनी चाहिए”. इसमें विस्तार की अनुमति परिस्थितियों के आधार पर होगी. लेकिन आगे पीछे करते हुए ट्राई के निष्कर्ष बहुत विलम्ब से रिलायंस जियो के औपचारिक रूप से सेवाएं शुरू करने के 8 महीने बाद, मई 2017 में आए.
इस दौरान जियो आगे बढता रहा. अंतर्राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी निर्माता और जियो के व्यापारिक साझीदार सिस्को सिस्टम ने 27 फरवरी 2017 को घोषित किया कि जियो का डाटा नेटवर्क इस्तेमाल करने वाले ग्राहकों की संख्या 100 मिलियन है. उन्होंने लिखा “प्रति महीना जियो नेटवर्क का उपभोग एक एक्साबाइट से अधिक है जो प्रमुख नेटवर्क के बतौर इसके नेतृत्व को स्थापित करता है”. ढाई सप्ताह बाद ट्राई ने दूरसंचार उद्योग के हिस्सेदारों से एजेंसी की नियामक नीतियों को नया रूप हेतु परामर्श आमंत्रित किया. ट्राई ने विस्तार से बताया “तकनीक और अन्य कारकों से प्रेरित ध्वनि से डाटा तक के सफर” का मतलब था कि यह नियमों के बारे में पुनर्विचार का समय है.
इस प्रक्रिया में करीब 1 साल लगा और इसमें टीका टिप्पणी का लम्बा समय, उद्योग के विशेषज्ञों द्वारा सेमिनार का आयोजन और दूरसंचार कंपनियों के मुख्य प्रबंधकों के साथ मीटिंग शमिल थी. अंत में, 16 फरवरी 2018 को ट्राई ने घोषणा की कि इसने “महत्वपूर्ण बाजार शक्ति” की परिभाषा बदल दी है. यह पदनाम है, जो कंपनियों को सूक्ष्म जांच और अधिक नियमों के अधीन लाने के अनुरूप बनाता है. इससे पहले, किसी दूरसंचार प्रदाता के पास अगर “किसी लाइसेंस प्राप्त दूरसंचार सेवा क्षेत्र में कुल सक्रियता का 30% भाग” हो तो वह महत्वपूर्ण शक्ति बाजार होता था. उसमें डाटा व्यापार की मात्रा शामिल थी.
ट्राई ने लिखा कि लेकिन अब “एसएमपी ग्राहक और सकल आय आधारित होगी, केवल यही दो मापदंड सुसंगत और सभी तकनीकों के लिए तुलनीय हैं. “उस समय तक रिलायंस जियो के नेटवर्क पर अपने प्रतियोगियों की तुलना में अधिक डाटा था लेकिन फरवरी के ट्राई के आंकड़े और मीडिया रिपोर्टों के अनुसार इसके पास ग्राहक बाजार का या देश के किसी भी दूरसंचार क्षेत्र में सकल आय का 30% से अधिक हिस्सा नहीं था. इसके विपरीत एयरटेल और वोडाफोन–आइडिया विलय के बाद प्रत्येक न्यूनतम दस क्षेत्रों में एसएमपी की दहलीज पर थे. अब इसकी संभावना बहुत कम थी कि जियो अपने प्रतियोगियों की तुलना में नियंत्रित हो.
जियो के प्रतियोगियों ने मुकदमा कर दिया. दिसम्बर 2018 में टेलीकॉम डिसप्यूट सेटिलमेंट एंड अपीलेट ट्रिब्युनल ने नियामक के खिलाफ व्यवस्था दी और इससे 6 महीने के अंदर नए नियम बनाने को कहा. नियामक ने संकेत दिए हैं कि इसकी योजना ट्रिब्युनल के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की है.
जियो समर्थकों का तर्क था कि खींचतान कर दावा किया जा सकता है कि नियमों को कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए बनाया गया है. अनिल कौशल का कहना है कि संयोग या स्वंय अपनी इच्छाशक्ति से कंपनी ट्राई के नियमों का लाभ क्यों नहीं उठा सकती जिनकी रूपरेखा यह सुनिश्चित करने के लिए तैयार की गई है कि उपभोक्ता को “उचित कीमत और अच्छी गुणवत्ता” मिले?
मैंने इसे ट्राई के पूर्व चेयरपर्सन राहुल खुल्लर के सामने रखा. उन्होंने इस विचार को रद्द कर दिया कि जियो के पक्ष में पक्षपात लगने जैसे सरकार के निर्णय भाग्यशाली संयोगों का सिलसिला हैं. खुल्लर का तर्क था “कोई लगातार भाग्यशाली नहीं हो सकता, जियो भी नहीं. और ऐसे विनियामक आदेश प्राप्त करना जिसे बाद में अदालत द्वारा खारिज कर दिया जाता है, आपको बताता है कि यह अंध भाग्य से अधिक कुछ है”.
एक अधिकारी से मैंने बात की तो उसने रविशंकर प्रसाद के इतिहास को सरकार के पक्षपात के सबूत के बतौर संकेत किया. आण्विक एंव सूचना तकनीक का वर्तमान पदभार संभालने से पहले प्रसाद ने संचार मंत्री के रूप में सेवा दी थी. दिसम्बर 2014 में फाइनांशियल टाइम्स और आउटलुक ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि प्रसाद को अप्रैल 2013 से मार्च 2014 तक बतौर अधिवक्ता बनाए रखा गया था और रिलायंस नियंत्रित कंपनी द्वारा भुगतान किया गया था. तत्कालीन संचार मंत्री ने एक बयान में कहा था कि मंत्री के बतौर उनका विधिक कार्य “पूरी तरह व्यवसायिक हैसियत से रहा है”. उनकी बहन अनुराधा प्रसाद के रिलायंस से करीबी सम्बंध हैं. अनुराधा प्रसाद (जिनका विवाह एक प्रमुख भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनेता राजीव शुक्ला से हुआ है) न्यूज 24 और ई 24 की स्वामी हैं, दोनों चैनलों को एमिनेंट नेटवर्क नामक कंपनी से 12.5 करोड़ रुपए या दो बिलियन डॉलर का ऋण प्राप्त हुआ, ऐसा ऋण जिसे इक्विटी (समता अंश) में बदला जा सकता था. जियो बोर्ड के सदस्य महेंद्र नहाटा एमिनेंट नेटवर्क के मालिक हैं.
मैंने कई अन्य लोगों से बात की उन्होंने 2010 में स्पेक्ट्रम नीलामी की निगरानी करने वाले अधिकारी जेएस दीपक के भाग्य का उल्लेख बतौर सबूत किया और कहा कि सरकार जब दूरसंचार के निर्णय लेती है तो उपभोक्ताओं के अलावा बहुत कुछ सोच रही होती है. नीलामी के साढ़े पांच साल बाद दीपक को भारत के दूरसंचार आयोग का प्रभार सौंपते हुए दूरसंचार विभाग का सचिव नियुक्त किया गया था. दीपक के नेतृत्व वाले आयोग ने आरआईएल के प्रति ट्राई के व्यवहार पर दुख व्यक्त किया. इसने जियो को इतने व्यापक स्तर पर नेटवर्क परीक्षण की अनुमति देने के लिए नियंत्रक की आलोचना की थी और जियो के प्रतियोगियों पर 3050 करोड़ रुपए या 455.9 मिलियन डॉलर का अर्थदंड लगाने का प्रयास करने पर फटकार लगाई थी. फरवरी 2017 में दीपक ने लिखा कि जियो की कम दर के प्रति नियामक की उदारता से सरकार को 685 करोड़ रुपए या 102.3 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ था. दीपक ने इसे “चिंताजनक अवनति” कहा था.
एक सप्ताह बाद दीपक को दूरसंचार सचिव पद से स्थानांतरण का आदेश प्राप्त हो गया. विदाई के नियत समय से 3 महीने पहले इस पर तत्काल प्रभाव से अमल हुआ. जब आदेश आया उस समय दीपक बार्सिलोना में मोबाइल वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
मैंने सिंघल से पूछा कि क्या दीपक का स्थानांतरण उनके द्वारा की गई आलोचनाओं का नतीजा था. सिंघल ने कहा “यह बिल्कुल सही है” उन्होंने मुझे बताया कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि कोई नौकरशाह इस तरह हटाया गया था. सिंघल ने कहा “मैं आपको एक अन्य के बारे में बता सकता हूं जिसे रात में ही हटा दिया गया था”. सिंघल ने मुझे बताया “डा० जीएस शर्मा को दूरसंचार विभाग ने निकाल दिया गया था क्योंकि वह सुनते नहीं थे. उन्हें मारन द्वारा टाटा समूह की पेच कसने को कहा गया था”.
जिस समय दयानिधि मारन दूरसंचार विभाग के मंत्री थे, जेएस शर्मा जून 2005 से जुलाई 2006 तक दूरसंचार सचिव थे. सिंगल के अनुसार, मारन टाटा कम्युनिकेशन के मुख्य सलाहकार को नापसंद करते थे और उन्होंने कंपनी को दंडित करने के लिए शर्मा से मदद मांगी थी. जब मारन ने बुलाया उस समय सिंगल शर्मा से मिल रहे थे “मैं उनके व्यवहार का पूर्णतः प्रत्यक्षदर्शी हूं क्योंकि मंत्री टाटा समूह के पेच कसना चाहते थे और (शर्मा) ने मंत्री से कह दिया कि आप मेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन आपका सुझाव बिल्कुल गलत है कि मैं टाटा समूह के पेच कसूं. मैं कानून के हिसाब से चलूंगा और उन्हें वहां से निकाल दिया गया”.
मैंने मारन को शर्मा के स्थानांतरण के बारे में पूछने के लिए संदेश भेजा. मारन ने कोई जवाब नहीं दिया.
सिंघल ने कहा “एक जैसी घटना हुई क्योंकि दीपक नहीं चाहते थे उनको रिलायंस की मदद के लिए घसीटा जाए”. जब मैंने जनवरी में फोन से दीपक से बात की और पूछा कि उनका स्थानांतरण क्यों किया गया था. उन्होंने टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
राम सेवक शर्मा ट्राई के वर्तमान चेयरमैन हैं और दूरसंचार आयोग की आलोचना निशाने पर हैं. 1978 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य शर्मा शायद व्यास्था में सुरक्षा का भरोसा जताने हेतु ट्वीटर पर अपनी आधार पहचान संख्या प्रकाशित करने के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं. कुछ घंटों में ही सोशल मीडिया के उपभोक्ताओं ने उनके फोन नम्बर, पता और कई तरह की दूसरी निजी जानकारियों तक हासिल करने का दावा किया. शर्मा ने जवाब दिया कि जो जानकारियां लोगों ने प्राप्त की हैं वह पहले से सार्वजनिक हैं.
हाल ही में, शर्मा के आलोचकों ने क्रमशः इंटरनेट प्रयोग के शुल्क को समाप्त करने के ट्राई के निर्णय पर ध्यान केंद्रित किया है. अक्तूबर 2017 में किसी दूरसंचार कंपनी का ग्राहक जब प्रतियोगी के नेटवर्क वाले किसी ग्राहक को फोन करता था तो उसे अपने प्रतियोगी को प्रति मिनट 14 पैसे देने पड़ते थे. लेकिन जियो ने विरोध किया कि इस भुगतान से इसके विरोधियों को अनुचित तरीके से लाभ पहुंचता है, उन सभी का ग्राहक आधार उससे बड़ा था और नेटकवर्क अधिक विकसित, नतीजे के तौर पर जियो की तुलना में फोन कॉल आने की सुविधा अधिक थी. एयरटेल और वोडाफोन जैसे पदस्थ संचालकों ने यह कहते हुए प्रतिकार किया कि आधारभून संरचना की देखरेख पर आने वाले व्यय के लिए शुल्क आवश्यक और उचित है.
ट्राई ने जियो का पक्ष लिया. 19 सितंबर को जारी एक रिपोर्ट में एजेंसी ने लिखा कि आईयूसी को बनाए रखना “दूरसंचार सेवा क्षेत्र के विकास के लिए हानिकारक” होगा. इसने तुरंत आईयूसी को 14 पैसे प्रति मिनट से कम करके 6 पैसे प्रति मिनट कर दिया. एजेंसी ने निर्णय लिया कि 2020 तक यह शुल्क को पूरी तरह समाप्त कर देगी.
संक्षेप में, आईयूसी समाप्त करना नवप्रवर्तन और प्रतियोगिता के लिए बेहतर हो सकता है. यह कंपनियों को मौजूदा लाइनों को दोहराने के बजाए नई लाइनें बिछाने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है. यह छोटे प्रतिष्ठानों को सामर्थ्य से अधिक शुल्क के कारण अस्तित्व से बाहर ढकेल दिए जाने के भय के बिना बड़ी कंपनियों की आधार संरचना का इस्तेमाल करना आसान बनाता है. लेकिन प्रभावी रूप से भारत में कोई छोटा दूरसंचार प्रदाता नहीं है और विश्लषकों का कहना है कि आईयूसी कम होने से जियो को सबसे अधिक लाभ मिलेगा. न्यूयॉर्क स्थित एक वैश्विक संपदा प्रबंधन फर्म अलायंस बर्नस्टीन का आंकलन है कि ट्राई शुल्क कटौती के निर्णय से जियो को 640 करोड़ रूपए का शुद्ध लाभ प्राप्त हुआ.
पूर्व ट्राई प्रमुख प्रदीप बैजल की ओर से इस निर्णय को साधुवाद मिला जिसने इकोनॉमिक टाइम्स के साथ साक्षात्कार में आरएस शर्मा की आईयूएस घटाने के “साहस” की प्रशंसा किया. शर्मा के रिकार्ड ने भी उनके राजनीतिक वरिष्ठों को खुश कर दिया. जब वह पदभार छोड़ने वाले थे उससे एक दिन पहले सरकार ने शर्मा के कार्यकाल को 2 साल के लिए बढ़ा दिया इस तरह वह ट्राई के पहले चेयरमैन बने जिन्हें उस पद के लिए पुनः नियुक्त किया गया. उनकी सेवानिवृत्त की नई तिथि सितंबर 2020 है. उससे मात्र 9 महीना पहले आईयूएस को समाप्त किया जाना नियत है.
शर्मा के निकटतम पूर्वाधिकारी खुल्लर ने मुझे बताया “यह चेयरमैन जो कर रहे हैं और जिस लिए कर रहे हैं, वह सभी जानते हैं”.
एक पूर्व वरिष्ठ सरकारी दूरसंचार अधिकारी से जब मैंने शर्मा के फैसले के पीछे तर्काधार के बारे में पूछा तो उन्होंने खुले शब्दों में कहा “मैं आपको चार विकल्प देता हूं. एक, रिलायंस उत्तरतिथिय मुनाफा का वादा कर रहा है. दो, प्रधानमंत्री कार्यालय या प्रधानमंत्री संकेत दे रहे हैं, अंबानी की मदद करो. तीन, दोनों का कोई संयोजन है. चार, अंबानी का पक्ष लो हम तुम्हें भविष्य में इनाम देंगे. हम तुम्हें कार्यकाल बढ़ाकर अभी पुरस्कार देंगे. हम तुम्हें बाद में पुरस्कार स्वरूप कुछ और भी महत्वपूर्ण देंगे.
मैं आरएस शर्मा और ट्राई के पास सवालों की विस्तृत सूची के साथ पहुंचा जिसमें प्रत्यक्ष रूप से प्रधानमंत्री कार्यालय और अंबानी के साथ गुप्त समझौते पर सवाल भी शामिल था. उन्होंने जवाब नहीं दिया.
शर्मा का बचाव करने वाले, उनकी “तकनीकी जानकारी” की उपलब्धियों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि चेयरमैन के पास कैलिफोर्निया, रिवरसाइड विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में मास्टर्स डिग्री है और डाटा की कीमतों में कमी में उनका योगदान है. कौशल ने कहा “उन्होंने उपभोक्ता की जरूरतों पर ध्यान दिया”. उनके आलोचक सहमत नहीं हैं. सिंगल ने कहा “वह एक कंपनी के साथ पंक्तिबद्ध हैं और कभी- कभी इसका खुला प्रदर्शन करते हैं. उन्होंने उ。द्योग को नुकसान पहुंचाया है. उन्होंने प्रतियोगिता को नुकसान पहुंचाया है. उन्होंने सरकार की आमदनी की भी हानि की है”.
फिर भी, विवाद केवल ट्राई और दूरसंचार विभाग से परे जाते हैं. यहां तक कि उनका विस्तार केंद्र सरकार से बाहर तक होता है. राजस्थान की हालिया निःशुल्क फोन योजना इसका उदाहरण है. कारवां की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान सूचना तकनीक और योजना विभाग के प्रधान सचिव ने जिलाधिकारियों को पात्र नागरिकों को रिलायंस जियो की योजना और फोन दोनों खरीदने का निर्देश देने की हिदायत की. कथित रूप से सरकार ने एनएफएसए लाभार्थियों की सूची के साथ जियो भी उपलब्ध कराया.
योजना विवादास्पद थी. राजस्थान सरकार ने राज्य के हालिया चुनाव करीब आने पर इस योजना को आरंभ किया था और कांग्रेस ने सत्ताधारी भाजपा पर वोटरों को रिश्वत देने का आरोप लगाया था. राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने डिजिटल इंडिया की भाषा का प्रयोग करते हुए शब्दों में बांधा था. डिजिटल इंडिया के मुख्य उद्देश्यों का गूंज (प्रत्येक नागरिक तक पहुंचाना)– उन्होंने कहा कि राज्य के निवासी “बटन की एक क्लिक से सरकार की योजनाओं को देख और पहुंच सकेंगे”.
मैंने राजस्थान के सूचना तकनीक एंव संचार विभाग को योजना के सम्बंध में प्रश्न भेजे. मुझे जवाब नहीं मिला.
सिंघल ने मुझे बताया “केवल नियामक नही, पूरी व्यवस्था है. सभी एक दूसरे से जुड़े हैं”.
जब राजन मैथ्यूज ने दूरसंचार विभाग से रिलायंस के परीक्षण चरण को समाप्त करने को कहा तो कंपनी ने तुरंत जवाबी हमला बढ़ा दिया. विभाग सचिव को लिखे एक पत्र में जियो ने सेल्युलर ऑपरेटर्स असोसिएशन ऑफ इंडिया पर दुर्भाग्यपूर्ण, बेबुनियाद और अंजान होने का” आरोप लगाने और “पदस्थ संचालकों के निहित स्वार्थ को प्रोत्साहित करने” का दोष मढ़ दिया. इसने लिखा कि सीओएएल “न केवल रियायंस जियो इनफोकॉम लिमिटेड बल्कि ट्राई के खिलाफ भी बेबुनियाद कलंक लगाने के अभियान में जानबूझ कर लिप्त है”.
अपना जवाब भेजने के थोड़े समय बाद ही जियो ने ट्राई में औपचारिक शिकायत दर्ज कराई, आरोप लगाया कि एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया उत्पादक संघ हैं जो जियो को परीक्षण से रोकने के लिए भीतरी लड़ाई लड़ रहे हैं कि किस तरह इसका नेटवर्क उनके नेटवर्क से जुड़ता है. ये प्रतियोगिता विरोधी व्यवहार में लिप्त हैं और उन्हें दंडित किया जाना चाहिए. ट्राई सहमत हुई और दूरसंचार विभाग ने तीनों खिलाड़ियों को संयुक्त रूप से 3050 करोड़ रुपए या 575 मिलियन डॉलर अर्थदंड देने को कहा. विभाग को अभी इस मामले में अंतिम निर्णय लेना है.
ट्राई को लिखी गई जियो की शिकायत कुशल कानूनी युद्ध की श्रंखला की पहली कड़ी थी जिसका प्रयोग आरआईएल ने अपने आलोचकों के खिलाफ किया था. मार्च 2017 में जियो ने एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड्स कौंसिल ऑफ इंडिया या एएससीआई में यह आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज की कि भारती एयरटेल ने दावा करके कि यह “अधिकारिक रूप से सबसे तेज नेटवर्क” है, जनता के साथ धोखा किया है. मुद्दा यह था कि क्या जिस अनुप्रयोग का इस्तेमाल एयरटेल ने गति परीक्षण का नाम देने के तर्क के बतौर किया उसके नतीजों को “अधिकारिक” कहना एयरटेल के लिए विधिसम्मत था. क्योंकि गति परीक्षण ट्राई या दूरसंचार विभाग द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं था. जियो का दावा था कि ऐसा (विधिसम्मत) नहीं था.
लेकिन आरआईएल ने और आगे बढ़कर स्वंय अनुप्रयोग विकासक को लक्ष्य बनाया. जियो प्रवक्ता ने गति परीक्षण का हवाला देते हुए कहा “हम ऊकला में भौतिक देाष से अवगत हैं. हमें आश्चर्य है कि इस दोष को स्वीकार करते हुए ऊकला ने भ्रामक नतीजे जारी किए. हमने उचित मंच पर उपयुक्त कार्रवाई शुरू की है”.
एएससीआई ने एयरटेल से प्रचार वापस लेने को कहा. लेकिन जियो को अपने प्रतियोगी और एप्लीकेशन दोनों पर मुकदमा दायर करने के लिए प्रेरित करते हुए जून में एयरटेल ने ऊकला के आंकड़े फिर प्रसारित करना शुरू कर दिया. मुम्बई की मजिस्ट्रेट कोर्ट में रिलायंस ने आरोप लगाया कि एयरटेल और गति परीक्षण ने कंपनी को वित्तीय और प्रतिष्ठा का इस हद तक नुकसान पहुंचाया है कि यह साजिश, मानहानि और विश्वास भंग के समान है.
पीठासीन जज केजी पालदेवर असहमत थे. उन्होंने लिखा “यह कुछ और नहीं बल्कि विपणन नीति है” और मुकदमा खारिज कर दिया.
आरआईएल ने सीओएएल को भी छांटकर अलग कर लिया. फरवरी 2018 में कंपनी ने इस व्यापारिक निकाय और उसके महानिदेशक मैथ्यूज को मानहानि का नोटिस भेजा. इसमें मांग की गई थी कि समूह यह दावा करने के लिए माफी मांगे कि ट्राई दूसरे संचालकों की तुलना में जियो का पक्ष लेती है. सीओएआई ने यह कहते हुए इनकार किया कि यह ट्राई की नीतियों पर आपत्ति करने के “अपने अधिकार क्षेत्र में” थी और यह “आरजेआईएल के खिलाफ द्धेशपूर्ण नीयत” नहीं रखता.
जब मैंने अप्रैल 2018 में मैथ्यूज से बात की और पूछा कि क्या उन्हें मुकदमा किए जाने पर चिंता है. उन्होंने कहा “बहुत खास नहीं”. पहले की एक बातचीत में मैथ्यूज ने दोहराया था कि सीओएआई का मत है कि “नियामक द्वारा पिछले दो संवेदनशील विभाजन बिंदुओं पर जो स्थिति बनाई गई उससे लगता है कि एक खास संचालक का पक्ष लिया गया”.
मई 2018 के अंत में रिलायंस ने अपने से सम्बद्ध संस्था सीओएआई पर मुकदमा कर दिया. दिल्ली हाईकोर्ट ने मुकदमा स्वीकार कर लिया और सीओएआई व मैथ्यूज से जियो के बारे में “निन्दात्मक और मानहानिकारक” शब्दों का प्रयोग बंद करने को कहा. मैथ्यूज ने कहा कि यह “निराशाजनक था कि उसके एक सदस्य ने संस्था के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का चयन किया” लेकिन आरोप “गुण रहित” है. संस्था कानूनी विकल्पों पर विचार कर रही है.
रिलायंस का सीओएआई के खिलाफ मुकदमे का मतलब यह नहीं कि व्यापार समूह पक्षपात रहित है. स्वभाव के एतबार से सीओएआई की सदस्यता में अधिकतर रिलायंस के प्रतियोगी हैं. इस बात में संदेह कम है कि एयरटेल और वोडाफोन–आईडिया के वक्तव्य और कार्रवाइयां वित्तीय आत्म हित के लिए हों. वे लाभ कमाने वाली बड़ी सार्वजनिक कारोबारी कंपनियां हैं.
लेकिन आरआईएल दोनों को बौना साबित करती है. उसकी आय एयरटेल की तिगुना और वोडाफोन–आईडिया की चारगुना है. 2017 में कंपनी ने अपने दोनों प्रतियोगियों के संयुक्त लाभ का दोगुना से अधिक मुनाफा कमाया. महेश उप्पल ने मुझसे कहा “जियो कोई छोटी और बाजार में नव आगंतुक नहीं है. जियो बड़े तुलनपत्र (बैलेंसशीट) वाली एक विशालकाय कंपनी है”. विशेषज्ञ कहते हैं तुलनपत्र भयानक मूल्य युद्ध में कंपनी को शक्ति देने में सहायक है.
फिर भी, रिलायंस कहती है कि इसकी दूरसंचार अधीनस्थ कंपनी वास्तव में बड़ा लाभ कमा रही है. उदाहरण स्वरूप, कंपनी ने 2018 की दूसरी चौथाई में 681 करोड़ रूपए या लगभग 100 मिलियन डॉलर मुनाफे की जानकारी दी. एक प्रेस विज्ञिप्ति में मुकेश अंबानी ने जियो के वित्तीय प्रदर्शन की सराहना की और कहा कि यह “स्तर, तकनीक और संचालन कौशल के फायदे” को प्रदर्शित करता है.
लेकिन सम्पत्ति प्रबंधन प्रतिष्ठान अलायंस बर्नस्टीन कहता है कि इससे कुछ और भी प्रदर्शित होता है. जियो के के कमाए गए लाभ को “कुछ ज्यादा ही अच्छा जिस पर भरोसा किया जाए” कहा, प्रतिष्ठान ने संकेत दिया कि कंपनी अपनी सम्पत्ति को मापने का “विचित्र तरीका” अपना रही है, ऐसा तरीका “जिसके नतीजे में “मूल्यह्रास और परिशोधन” (डी एंड ए) व्यय बहुत कम हो जाते हैं जो उद्योग में कहीं और नहीं देखा जाता”.
मूल्यह्रास और परिशोधन सामान्य लेखा तकनीक है, जिसमें कंपनियां सम्पत्ति की कुल लागत एक बार में जोड़ने के बजाए सम्पत्ति की प्रयोज्य जीवन अवधि में उसे बांट देते हैं. उदाहरण स्वरूप, मान लें कि कोई सेल्युलर कंपनी 2018 में 20 करोड़ में सेल्युलर टावर खरीदती है. यह टावर की पूरी लागत 2018 की वित्तीय रिपोर्ट में शामिल कर सकती है. लेकिन यह मानते हुए कि टावर की जीवन अवधि 20 साल है, कंपनी इसके बजाए टावर की लागत को 20 साल का विस्तार या “मूल्य में कमी कर” प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ रूपए कर सकती है. इस प्रकार कंपनी द्वारा 2018 का बताया गया मुनाफा उस तुलना में बहुत अधिक होगा जिसमें पूरी 20 करोड़ लागत एक साथ शामिल की गई हो. परिशोधन की भी वही पद्धति है जिसमें “अप्रत्यक्ष सम्पत्ति” शामिल नहीं होती.
अलायंस बर्नस्टीन ने बताया कि रिलायंस की अपनी मूल्यह्रास प्रक्रिया उसके समकक्षों से बहुत भिन्न है. इसने लिखा “यह देखते हुए कि उनके नेटवर्क मोटे तौर पर समान हैं आमतौर से हम देखने की आशा करते हैं कि स्थिर सम्पत्ति और अप्रत्यक्ष सम्पत्ति (स्पेक्ट्रम) को डी एंड ए प्रतिशत के रूप में समान होना चाहिए”. लेकिन ऐसा नहीं है. जियो का मूल्यह्रास स्थिर सम्पत्ति की लागत का 3.3% है. औसतन बड़े अंतर्राष्ट्रीय प्रदाताओं का 8.6% है जिसमें वेरीजोन, चाइना टेलीकॉम और एअी एंड टी शामिल हैं. इसका अर्थ होगा कि जियो का भौतिक आधारभूत संरचना सिद्धान्त कम से कम दूसरे बड़े खिलाड़ियों के समान है लेकिन जीवन अवधि दोगुनी से अधिक है.
दूसरी अनियमितताएं भी हैं. मिसाल के तौर पर, जियो ने 2017 की दूसरी चौथाई के आंकड़े जारी न करने का चयन किया. इसके बजाए इसने जुलाई से सितंबर की रिपोर्ट में अप्रैल से जून की आय को शामिल किया अर्थात प्रभावी रूप से 6 महीने के विक्रय को साल की तीसरी चौथाई में पैक कर दिया. एक लेख में ब्लूमबर्ग का आंकलन था कि शायद यह निर्णय जियो के लिए 1 बिलियन डॉलर या 6621 करोड़ रुपए का नुकसान बताने से बचने में मददगार हुआ हो.
चतुर लेखांकन आरआईएल के लिए नई चीज नहीं है. 1987 में रोकड़ के प्रवाह में कमी और निर्माण संयन्त्र में विलंब से कंपनी की वित्तीय स्थिति तंग हो गई थी. सरकार आयात प्रणाली में कई बदलाव कर तेजी से धीरूभाई की मदद को आगे आई, जिससे रिलायंस के लिए कच्चा माल प्राप्त करना आसान हो गया लेकिन कंपनी को उस साल नुकसान से बचाने के लिए यह पर्याप्त नहीं था. आरआईएल ने घोषणा की कि पंचांग वर्ष पर हमेशा की तरह अपनी वित्तीय रिपोर्ट देने के बजाए उसे बदलकर अप्रैल से मार्च कर रही है जैसा कि सरकार करती है. इससे उसका 1987 का वित्तीय वर्ष 12 महीने से बढ़कर 15 महीने हो गया. उस समय भी जब नुकसान बताने से बचना संभव नहीं हुआ तो रिलायंस ने अपने वित्तीय वर्ष को तीन महीना और आगे बढ़ा दिया. पूरी प्रक्रिया के दौरान रिलायंस ने नए तरीके से अपनी दो प्रयोगशालाओं की कीमत को नए तरीके से घटा कर (मूल्यह्रास कर) कम कर दिया इस तरह कंपनी की चेकबुक में लगभग 24.5 करोड़ रुपए या 18 मिलियन डालर के मुनाफे के साथ वापसी हुई. 18 महीने के बाद इसने मुनाफा दिखा दिया.
जियो ने भारत डाटा उपभोग में बढ़ोतरी को प्रात्साहित किया है. जब से कंपनी आरंभ हुई भारत में इंटरनेट तक पहु्ंच अधिक वहन योग्य हो गई है और परिणाम स्वरूप इसका अधिक विस्तार हुआ है. उप्पल ने मुझे बताया “फायदे बहुत हैं. जियो को धन्यवाद, जिसने बड़ी मात्रा में डाटा की कीमत घटा दी, निश्चित रूप से हमने डाटा के प्रयोग में तेजी से बढ़ोतरी देखी”. भारतीय दूरसंचार विशेषज्ञों में इस प्रकार के विश्लेषण सामान्य हैं जो इस क्षेत्र में विवादों के हुजूम से थके दिखाई देते हैं. एम्बिट के पूर्व मुख्य प्रबंधक सौरभ मुखर्जी ने मुझे बताया “पृष्ठभूमि में कुछ घटिया चीजें चलती रहती है, इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि भारत में अब कुछ कॉल दर सबसे कम हैं. सभी कठिनाइयों और हर तरह के खेल तमाशे के विपरीत स्वतंत्र बाजार दे रहा है”.
लेकिन सरकार के लिए यह खेल बहुत महंगे साबित हुए. सीएजी द्वारा अंतिम रूप दी गई रिपोर्ट के अनुसार 1994 से आज तक प्रत्येक दूरसंचार घोटालों के नतीजे में होने वाली संचयी हानि 200000 करोड़ या 28 बिलियन डॉलर है. इसलिए घोटाले एक मात्र रिलायंस के लिए नहीं है. 2015 की सीएजी रिपोर्ट का मसौदा दावा करता है कि 2000 के अंतिम दौर में भारती एयरटेल ने अवैध लेखांकन कटौती की जबकि दूरसंचार विभाग उससे इतर देखता था. एयरटेल असंगत रूप से बड़ी मात्रा में स्पेक्ट्रम प्राप्त कर रहा था. उदाहरण स्वरूप, सीएजी ने आरोप लगाया कि दिसम्बर 1996 से अगस्त 2000 तक दूरसंचार विभाग से प्राप्त अनुमति से 1.8 मेगाहर्ट्ज अधिक हासिल किया. सीएजी का आंकलन था कि यह और ऐसे अन्य अपराधों से सार्वजनिक राजकोष को कम से कम दसियों हजार करोड़ रुपए की क्षति हुई है. एक लेख जिसमें रिपोर्ट के निष्कर्षों का संक्षेप प्रस्तुत किया गया है, आदिति रॉय घटक और परनजॉय गुहा ठकुर्ता ने लिखा जबकि एयरटेल “कारपोरेट इंडिया की विशिष्ट सफलताओं में से एक है” लेकिन वजह मौजूद है कि “पंक्तियों के बीच पढ़ा जाए और सूक्ष्म अक्षरों की बारीकी से जांच की जाए और सवाल किया जाए कि क्या यह शानदार विकास लेखांकन के तिकड़म और सरकार की विलासिता के कारण है”.
मेरे सवालों के जवाब में एयरटेल के प्रवक्ता ने कहा कि कंपनी “ने हमेशा लागू नियमों का पूरी तरह पालन किया है”. उन्होंने आगे कहा कि इसके राजस्व पर विवाद से “पूरा उद्योग घेरे में आता है क्योकि यही चुनौती सभी दूरसंचार संचालकों ने विभिन्न अदालतों मे दी है जहां मामला विचाराधीन और स्थगित है. प्रवक्ता ने कहा कि एयरटेल को आवंटित किए गए सभी स्पेक्ट्रम “सरकार की घोषित नीतियों के कड़े अनुपालन” में है.
दूरसंचार क्षेत्र के सबसे काले क्षण 2008 में आए. 10 जनवरी को दूरसंचार विभाग ने इस बात की चिंता किए बिना कि कंपनियां कितना भुगतान करना चाहती है, अचानक घोषणा कर दी कि यह दूसरी पीढ़ी के स्पेक्ट्रम लाइसेंस “पहले आओ, पहले सेवा करो” के आधार पर जारी करेगा. इसके बाद इसने इच्छुक व्यापारियों को विभाग में जाने और उसी दिन 3:30 बजे से 4:30 बजे शाम तक आवेदन करने के निर्देश दिए. कुछ कंपनियां पूरे कागजात के साथ पहुंच गयीं. अन्य किसी तरह अपने आवेदन दुरुस्त करने में संघर्ष करने लगीं और तेजी से विभाग पहुंचीं जहां दरवाजे से उन्हें बाउंसरों ने खदेड़ दिया. विभाग पर महीनों तक बेधड़क भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे और अंत में सीबीआई ने दूरसंचार मंत्री अंदीमुथू राजा को गिरफ्तार कर लिया और रिश्वत लेने का आरोप लगाया. अन्य सभी की तरह, जो 2जी घोटाले के समय गिरफ्तार हुए थे, अंत में वह भी बरी हो गए. लेकिन बाजार भाव से कम पर लाइसेंस दिए जाने के कारण सीएजी का आंकलन है कि सरकार को करीब 176000 करोड़ रुपए या 24 बिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा.
2जी मामले को लेकर आयोजित प्रेस वार्ता में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राजस्व के नुकसान के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा कि देश को सोचना चाहिए कि सस्ती लाइसेंस कीमतें एक प्रकार से विकासशील उद्योग के लिए अनुदान है. उन्होंने कहा “राजस्व के नुकसान के सम्बंध में बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आपका आरंभिक बिंदु क्या है. हम खाद पर अनुदान देते हैं जिस पर प्रत्येक वर्ष 60000 करोड़ रुपए लागत आती है. लोग कह सकते हैं कि इन खादों की कीमत बाजार भाव पर होनी चाहिए. क्या तब आप कहेंगे कि खादों की बिक्री पर 60000 करोड़ रुपए राजस्व का नुकसान है”?
सीएजी रिपोर्ट ने कम से कम एक कंपनी का निर्धारण कर लिया था जो अधिक भुगतान करने की इच्छुक थी. इसने यह टिप्पणी भी की कि 2जी स्पेक्ट्रम प्राप्त करने वालों में अधिकतर समय पर अपनी सेवाएं देने में बुरी तरह नाकाम रहे. लेखापरीक्षक ने लिखा यह कंपनियां भारत के सेल्युलर स्पेक्ट्रम की “जमाखोरी” कर रही थीं, उन संचालकों को पहुंच से बाहर रख रही थीं जो जल्दी सेवा देने की क्षमता रखते थे, सेवा में “अत्यधिक विलम्ब” का कारण थीं, भारतीयों को तकनीक तक पहुंच से वंचत कर रही थीं और इसके अलावा सरकार की आधार रेखा को चोट पहुंचा रही थीं.
यह जान पाना मुश्किल है कि अगर जियो के एकीकृत लाइसेंस के लिए अधिक शुल्क लिया जाता या और सख्ती से इसे नियंत्रित किया गया होता तो भारत का दूरसंचार और डाटा बाजार कैसा दिखाई देता. इस बात के प्रमाण हैं कि इसने डाटा के प्रयोग की लहर को प्रेरित किया है लेकिन कुल मिलाकर जियो सामाजिक प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है. मिसाल के तौर पर रिलायंस की 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट का दावा था कि “जियो के माध्यम से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष 50 लाख लोगों से अधिक के लिए रोजगार के अवसर निर्मित हुए हैं”. रिपोर्ट ने अलग से स्पष्ट किया कि यह आंकड़ा “चालू वर्ष का निष्कर्ष” था. इस बात पर संदेह करने के कारण नहीं हैं कि डाटा तक पहुंच में वृद्धि रोजगार निर्माण में सहायक होती है लेकिन जियो के आंकड़ों पर संदेह करने के कारण हैं. मानव संसाधन कंपनी टीम लीज और टेलीकॉम सेक्टर स्किल कौंसिल का आंकलन था कि भारत का दूरसंचार क्षेत्र प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पूर्ण रूप से 2017 में 2 मिलियन रोजगार के अवसर पैदा करेगा. जियो और टीम लीज दोनों के आंकड़े सही होते अगर जियो ने अकेले 2016 में तीन मिलियन रोजगार पैदा किए होते. मगर यह ऐसा वर्ष था जब सेवाएं व्यापारिक रूप से सितंबर के अंत तक उपलब्ध नहीं थीं.
आरआईएल के विवरण स्वंय इसके कुल वेतन भुगतान के आकार के सम्बंध में सवाल उठाते हैं. कंपनी के मुख्य मानव संसाधन अधिकारी ने संवाददाताओं को बताया कि रिलायंस जियो के स्टाफ में अप्रैल 2018 को कुल कर्मचारियों की संख्या 157000 थी. यह आरआईएल की 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट में सूचीबद्ध 140483 कर्मचारियों से अधिक और 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट में सूचीबद्ध 187729 कर्मचारियों से थोड़ा कम है. बाद के दोनों आंकड़े पूरी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड की रोजगार के हैं जिसमें खुदरा, पेट्रोकेमिकल्स उत्पादन, शोधक कारखाना, मनोरंजन और निर्माण खंड शामिल हैं. इसके विपरीत भारती एयरटेल दक्षिण एशिया में 17263 और विश्व भर में 20793 व्यक्तियों को रोजगार देता है. एयरटेल के ग्राहकों की संख्या जियो के मुकाबले में लगभग 100 मिलियन अधिक है.
मैंने रिलायंस को प्रश्नावली भेजी और पूछा कि कंपनी इन आंकलनों तक कैसे पहुंची. मुझे कोई जवाब नहीं मिला.
उसी अप्रैल की प्रेस कांफ्रेंस में जियो के मानव संसाधन निदेशक ने संवाददाताओं को बताया कि कंपनी आने वाले महीने में दसियों हजार अधिक कर्मचारियों की सेवाएं लेने की योजना बना रही है. डिजिटल इंडिया के शुभारंभ के अवसर पर अपने भाषण में अंबानी का आंकलन था कि इस योजना के अंतर्गत उनकी कंपनी की पहलकदमी “500000 से अधिक लोगों के लिए रोजगार पैदा करेगी”. लेकिन जियो का अलग से जो भी प्रभाव हो सामान्यतः दूरसंचार क्षेत्र नौकरी देने के लिए संघर्ष कर रहा है. लाखों भारतीयों के सेल फोन हासिल कर लेने के बावजूद भारत का दूरसंचार उद्योग कीमत की जंग में पैसे बचाने के लिए दसियों हजार नौकरियां खत्म कर रहा है.
नवम्बर 2018 के अंत में सरकारी स्वामित्व वाले भारत संचार निगम लिमिटेड की यूनियनों ने जाहिरी तौर से जियो के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार के खिलाफ हड़ताल पर जाने की धमकी दी. यूनियन ने आरोप लगाया कि सरकार ने मुकेश अंबानी को बीएसएनएल की प्रतियोगिता से बचाने के लिए इसे 4जी स्पेक्ट्रम नहीं दिया था. उन्होंने भय जाहिर किया कि उनकी नौकरियां खत्म हो जाएंगी. यूनियनों ने एक साझा वक्तव्य में लिखा “जियो का पूरा खेल प्रतियोगियों का सफाया करना है जिसमें राज्य के स्वामित्व वाली बीएसएनएल भी शामिल है”. उनका तर्क था कि रिलायंस “तेजी से शुल्क बढ़ाकर जनता को लूटेगी”. यूनियन को अभी संकेत देना बाकी है कि वह वास्तव में हड़ताल करेगी.
लेकिन केवल रोजगार का मामला नहीं है. जियो की दुकान खुलने के बाद डाटा के प्रयोग की गति बढ़ी है जबकि सेल्युलर ग्राहकों की संख्या नहीं. उदाहरण स्वरूप मार्च से सितंबर 2017 तक ग्रामीण दूरसंचार घनत्व और शहरी दूरसंचार घनत्व प्रभावी रूप से गतिहीन रहा, दूसरे शब्दों में प्रति व्यक्ति टेलीफोन कनेक्शनों की औसत संख्या में बदलाव नहीं आया. वस्तुतः ग्रामीण दूरसंचार घनत्व नीचे गया.
साफ बात है कि इंटरनेट या सेल्युलर पहुंच वालों की माप के लिए आधुनिक युग में दूरसंचार घनत्व सबसे अच्छा पैमाना नहीं है. डिजिटल जुड़ाव वाले भारतीयों के पास अकसर कई सिम कार्ड होते हैं जो कृत्रिम रूप से सेवा धारकों का माप बढ़ा देता है. फिर भी, भारत की डिजिटल संयोजकता पर “जियो के प्रभाव” के बारे में सभी लेख पहली बार इंटरनेट चलाने वाले भारतीयों की सुखद कहानियों से भरे हैं, आश्चर्यजनक रूप से भारत की संयोजकता पर जियो के व्यापक प्रभाव के आंकड़े बहुत कम हैं.
अस्तित्वविहीन आंकड़े मिश्रित संदेश देते हैं. एक प्रमुख इंटरनेट विशेषज्ञ और उद्यम पूंजीपति मैरी मीकर की 2017 की रिपोर्ट ने पाया कि भारतीय ब्राडबैंड ग्राहकों की संख्या जियो के शुभारंभ के महीनों बाद तक बढ़ी थी. लेकिन क्रियाशील वायरलेस अंशदान पर ट्राई का नूतन आंकड़ा, जिसमें उन सिम कार्ड को निकाल दिया गया है जो प्रयोग में नहीं हैं, असामान्य बदलाव का संकेत नहीं देता. सितंबर 2016 से जब जियो ने सेवाएं प्रस्तुत करना शुरू किया सितंबर 2017 तक क्रियाशील वायरलेस अंशदान में लगभग 69 मिलियन का इजाफा हुआ. यह उससे पहले वाले साल से उसी अवधि में 56 मिलियन की बढ़त से अधिक लेकिन सितंबर 2014 से सितंबर 2015 की 81.62 मिलियन बढ़त से कम था. सितंबर 2017 से सितंबर 2018 तक क्रियाशील वायरलेस ग्राहकों की संख्या थोड़ी कम हुई है.
डाटा की कीमत में कमी अभी बनी हुई है. 13 जनवरी 2019 को जियो की पूर्व भुगतान योजना की लागत लगभग 1.5 जीजाबाइट डाटा के बदले पांच रुपया प्रति दिन है. लेकिन कम कीमतें एक तरह की भयंकर प्रतिस्पर्धा की पैदावार हैं जो वास्तव में कोई नहीं समझता कि अनिश्चित काल तक चल सकती हैं. आरआईएल की दया से जियो अन्य व्यापारों की तुलना में भली भांति वित्तपोषित है लेकिन इस पर अब भी 30 मिलियन से अधिक का कर्ज है. आखिरकार, समूह रिलायंस के निवेश पर बड़ा मुनाफा देखना चाहेगा. उसका मतलब होगा शुल्क का और बढ़ना कोई सवाल नहीं है, लेकिन कब.
अनुभवी प्रबंधक का तर्क था कि कंपनी थोड़े और समय तक बहुत कम पर सौदे का प्रस्ताव करेगी लेकिन उपभोक्ता के फायदे के लिए नहीं. उन्होंने मुझे बताया “वे जानते हैं कि भारती, आईडिया और वोडाफोन अपने शेयरधारकों के दबाव में हैं. वे नुकसान उठा रहे है, नुकसान हर महीना, सप्ताह बढ़ता जा रहा है. यह समय नहीं है कि उन्हें सांस लेने का मौका दिया जाए और कीमत बढ़ाकर दबाव कम किया जाए. यह समय उनका काम समाप्त कर देने का है. अगर आप ने कंपनियों को सांस लेने का समय दे दिया तो वे नुकासान की भरपाई कर लेंगी, वे अपनी लाभप्रदता बढ़ा लेंगी, वे फिर से काबू पा लेंगी. और उसके बाद वे फिर जवाब देंगी”.
कुछ विशेषज्ञों का कहना है यहां तक कि अगर उद्योग स्थिर नहीं होता है जैसा कि अभी है तब भी दरें काफी हद तक बढ़ेंगी. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिन क्षेत्रों में दूरसंचार प्रदाता की संख्या कम है वहां शुल्क दरें अधिक हैं. ऋण का उच्च स्तर और जानमारू कीमतों को देखते हुए, अभी यह साफ नहीं है कि इसे आसानी से कैसे तय किया जा सकता है. पूर्व दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने मुझे बताया “अब हम रास्ते से काफी दूर जा चुके हैं, आप खिलाड़ियों को वापस नहीं ला सकते. अगर भारत एक और कंपनी खो देता है तो स्थिति भयानक हो सकती है”. सिंघल ने कहा “एक सेकंड के लिए मान लीजिए कि वह स्थिति उत्पन्न हो गई है”. ऐसी दुनिया की कल्पना करते हुए जिसमें वोडाफांन–आईडिया का पतन हो जाता है. “क्या होगा? आप एयरटेल और रिलायंस जियो की दया पर रहेंगे. बीएसएनएल प्रतियोगिता में नहीं है और वह लोग उपभोक्ता को धोखा देंगे”.
सिंघल ने अपना सिर हिलाया. उन्होंने कहा “आप ऐसी स्थिति नहीं सहन कर सकते जहां आप दो या तीन निजी खिलाड़ियों की दया पर रहें. यह समय कुछ करने या हस्तक्षेप करने का है”.
13 फरवरी 2014 को यूनाइटेड स्टेट्स के सबसे बड़े इंटरनेट प्रदाता कॉमकास्ट कारपोरेशन ने घोषणा की कि उनकी मंशा देश की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी टाइम वार्नर केबल को प्राप्त करने की हैं. कॉमकास्ट के चेयरपर्सन और मुख्य प्रबंधक ब्रायन रॉबर्ट्स ने इशारा दिया कि यह सौदा “उपभोक्ता के हित में, प्रतियोगिता पक्षधर और पूरी तरह जनहित में” है. रॉबर्ट्स 2001 में अपने पिता राल्फ रॉबर्ट्स के उत्तराधिकारी के बतौर कॉमकास्ट के सीईओ बने थे जिन्होंने 1960 के दशक में कंपनी की स्थापना की थी. सौदे की घोषणा के तुरंत बाद एक साक्षात्कार में छोटे रॉबर्ट्स ने बड़े रॉबर्ट्स को प्रेरणा स्रोत बताया. ब्रॉयन ने कहा “जब भी मेरे पिता से पूछा जाता है कि क्या कभी उन्होंने सोचा था कि कॉमकास्ट बढ़कर इस आकार की होगी, वह कहना पसंद करते हैं कि उनकी सदैव कल्पना थी कि ऐसा संभव था”. सचमुच वह मजाक करते है, लेकिन ऐसा हुआ. सिर्फ अमरीका में”.
सक्रियतावादी तुरंत प्रस्तावित विलय को समाप्त करने के लिए दबाव बनाने लगे. एक लाभनिर्पेक्ष अमरीकी संस्था पब्लिक नॉलेज, जो मुक्त इंटरनेट की वकालत करती है, ने कहा कि सौदे का मतलब होगा कि कॉमकास्ट इंटरनेट पर “अभूतपूर्व चौकीदार की ताकत का प्रयोग करेगी और स्कूल प्रांगण की गुंडा” बन जाएगी. जिस दिन विलय की घोषणा हुई उसी दिन न्यूयॉर्क के स्तम्भकार जॉन कैसिडी ने कहा कि नई कॉमकास्ट “आत्म सेवा योजना” थी, जिसकी रूपरेखा पहले से धनी एकाधिकारी को और धनी बनाने के लिए तैयार की गई थी. हावर्ड लॉ प्रोफेसर और दूरसंचार विशेषज्ञ सुसान क्राफोर्ड ने कहा कि अधीनीकरण के लिए ध्वनिपटि्टका “अपशगुन आधार वाली संगीत” थी.
भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के सलाहकार क्राफोर्ड ने 2013 में बीबीसी से कहा “हमने तेज गति के इंटरनेट को 10 साल पहले नियंत्रणमुक्त किया और तब से हमने “एकाधिकारों का असाधारण एकीकरण” देखा है. “अपनी स्वंय की मशीन और उपकरणों साथ बची यह कंपनियां जो इंटरनेट तक पहुंच के लिए आपूर्ति की अधिक कीमत वसूल करेंगी क्योंकि उन्हें किसी प्रतियोगिता या नियंत्रण का सामना नहीं करना होगा”.
शुरुआत में सक्रियतावादी अधीनीकरण को रोकने के अवसरों के बारे में निराशावादी थे. ओबामा प्रशासन ने कॉमकास्ट को 3 साल पहले एनबीसी यूनिवर्ससल को प्राप्त करने की अनुमति दे दी थी. यह ऐसी प्राप्ति थी जिसने कॉमकास्ट को दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी बना दिया था. ट्राई के अमरीकी समकक्ष संघीय संचार आयोग के तत्कालीन चेयरमैन कॉमकास्ट के पूर्व कर्मचारी थे. कॉमकास्ट नेतृत्व भी राष्ट्रपति का करीबी माना जाता था. मिसाल के तौर पर, रॉबर्ट पूर्व राष्ट्रपति ओबामा के बड़े दाता थे, उनके साथ गोल्फ खेलते थे और उनके रोजगार परिषद में सेवा देते थे. रॉबर्ट्स का दायां बाजू डेविड कोहेन, डेमोक्रेटिक पार्टी में पहले सक्रिय था जिसने ओबामा के पुनर्निर्वाचन अभियान में 1.14 मिलियन डॉलर दान जुटाया था.
लेकिन प्रस्तावित अभिग्रहण अमरीकी प्रगतिशीलों के लिए प्रेरित करने का कारण बन गया जिसमें वह कई सौदों को सरकार की साख परीक्षण के बतौर देखने लगे कि क्या वह इंटरनेट की खुली पहुंच को सुरक्षित रखने का समर्थन करती है. कई राजनेताओं ने सौदे के खिलाफ आवाज उठाई. एफसीसी में आक्रोश भरी टिप्पणियों की बाढ़ आ गई. नेटफिलिक्स जैसी बड़ी ऑनलाइन इच्छुक कंपनियों ने भी सौदे की आलोचना की जिसमें चिंता थी कि परिणामी कंपनी इतनी बड़ी हो जाएगी कि यह उन्हें अपने विषय वस्तु के प्रवाह के लिए अधिक लाभांश देने पर बाध्य कर सकती है या उसकी गति कम कर सकती है. लॉ प्रोफेसर टिम वू, जिन्होंने “नेट तटस्थता” की शब्दावली गढ़ी थी, का “तर्क था कि कॉमकास्ट की ऐसा करने की प्रेरणा बड़े भुगतान से बहुत आगे की थी. कॉमकास्ट के एनबीसी का स्वामी बनने का अर्थ था कि वह इसके टेलीवीजन कार्यक्रमों का स्वामी हो गया. नेटफिलिक्स और कॉमकास्ट प्रत्यक्ष प्रतियोगिता में थे”.
अप्रैल 2015 के मध्य में एफसीसी के प्रबंधकों ने अधीनीकरण के जनहित में होने के प्रति संदेह के संकेत दिए. अविश्वास के मुकदमों को देखने वाले यूनाइटेड स्टेट्स न्याय विभाग ने भी उसी तरह की चिंता जताई. सोमवार, 24 अप्रैल को रॉबर्ट्स अंतिम विक्रय वार्ता के लिए एफसीसी के चेयरमैन के पास तेजी से वाशिंगटन पहुंचे लेकिन अंत में इनकार हो गया और बुधवार तक सौदा रद हो गया. वू ने लिखा कि एक बार न्याय विभाग और एफसीसी के “अधिवक्ताओं और अर्थशास्त्रीयों ने समस्या का सावधानी से अध्ययन किया, स्पष्ट हो गया कि उससे प्रतियोगिता को गंभीर हानि है और किसी तरह का राजनीतिक समाधान उस पर काबू नहीं पा सकता”.
सम्भव है कि नियामक जियो को नियंत्रित कर सकते या राजनीति कंपनी को हानि कर सकती है. नरेंद्र मोदी इस साल आम चुनाव हार सकते हैं और राहुल गांधी ने भाजपा पर रिलायंस का पक्ष लेने का आरोप लगाया है. लेकिन अंबानी परिवार के पास कठिन समय में भी अस्तित्व बचाए रखने और फलने फूलने का रास्ता है. राहुल के पिता राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत रिलायंस के आलोचक के रूप में की और समापन रिलायंस के मित्र के तौर पर. प्रशांत भूषण ने मुझसे कहा, “वे बिल्कुल रणनीतिक खिलाड़ी हैं, कम से कम मुकेश. उन्हें पता है कि भविष्य आईटी और दूरसंचार में है और आने वाले समय में यही उद्योग विकसित होंगे”
मुकेश स्वंय चिन्तित नहीं लगते. जियो झूमकर चल रही है. कंपनी अब 1500 रुपए की जमा राशि पर उपभोक्ताओं को स्वंय अपने फोन का प्रस्ताव करती है जो पूरी तरह प्रत्यर्पणीय है. रिलायंस के पास स्वंय अपना टेलीवीजन, मूवी और संगीत विनियोग हैं जिसमें से कुछ मौलिक विषय वस्तु प्रदर्शित करते हैं. हाल ही में, रिलायंस ने डिजिटल भुगतान सेवा ऐप जियोमनी और संदेश भेजने का ऐप जियोचैट शुरू किया है. वाल स्ट्रीट जर्नल के साथ साक्षात्कार में जियो के एक पूर्व प्रबंधक ने कहा कि कंपनी की “पूरी प्रबंधन टीम को यह स्पष्ट है कि जियो एयरटेल नहीं बल्कि गूगल और नेटफिलिक्स की प्रतियोगी है”.
मोबाइल इंडिया कांग्रेस के उदघाटन अवसर पर बोलते हुए मुकेश ने घोषणा की कि “डाटा नया तेल है और भारत को इसका आयात करने की जरूरत नहीं है”. ऐसे व्यापार के अगुआ के बतौर जिसने पेट्रोलियम को उत्पाद में बदल दिया मुकेश जानते हैं कि अंत में तेल का महत्व इसे लोगों तक पहुंचाने में है. उनका सपना केवल डाटा से भरे भारत का नहीं है. ऐसा भारत जिसमें रिलायंस भरा हो, भारतीय अपने जियो फोन से जियो सेवाओं पर कॉल करेंगे और वेब अंतर्जाल का प्रयोग करेंगे. वे एक दूसरे को जियोमनी पर भुगतान करेंगे. वे रिलायंस खुदरा दुकान से सामान खरीदेंगे और मांग करेंगे. रिलायंस ईंट और गारे की अधीनसथ कंपनी का विस्तार कर रही है. वे भारत के तीसरे सबसे बड़े प्रसारक और एक अन्य जियो अधीनस्थ कंपनी नेटवर्क 18 द्वारा बनाए गए कार्यक्रम देखेंगे. वे जियो सिनेमा पर रिलायंस पोषित प्रस्तुतीकरण कंपनी द्वारा बनाई गई फिल्म देखेंगे. और रिलायंस निर्मित प्लास्टिक से बने उत्पादों को खरीदते रहेंगे.
उद्योग के भीतर के एक व्यक्ति ने मुझसे कहा “अंबानी वैश्विक मंच पर एक व्यापारी के बतौर दिखना चाहते हैं जो बिल गेट्स या किसी भी बड़े नाम से स्पर्धा कर सके. वह राजनेता बनना चाहते हैं”.
अंतिम विश्लेषण यह है कि अंबानी के सपने की परिधि और पैमाना सरकार के पक्षपात को खतरनाक बना देता है. भूषण ने मुझसे कहा “लोकतंत्र गिरवी हो जाता है. यह इन बड़े और बहुत शक्तिशाली कारपोरेशनों को पैदा करता है जो इतने ताकतवर हो जाते हैं कि हर तरह की जवाबदेही से बाहर हो जाते हैं, वे कानून से परे हैं. वे स्वंय कानून हैं”.
गत दिसम्बर में अंबानी परिवार ने मुकेश अंबानी की बेटी ईशा अंबानी की विवाह पूर्व पार्टी के आयोजन के लिए राजस्थान की यात्रा की थी. परिवार ने हजारों मेहमानों का स्वागत करते हुए सप्ताहांत मरु शहर उदयपुर में बिताया. पूरे उदयपुर में होटलों की पूर्ण रूप से नाकाबंदी कर दी गई थी. स्थानीय एयरपोर्ट अधिकृत उड़ानें व उपस्थिति सेवाकारों के नियमित अंदर बाहर आने से अवरूद्ध हो गया था.
मुकेश के अनुसार ईशा ने उन्हें जियो के निर्माण के प्रति प्रेरित किया था. लंदन स्थित फाइनांशियल टाइम्स द्वारा दिए गए एक पुरस्कार को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा “जियो का विचार पहले उनकी बेटी ईशा के दिमाग में 2011 में अंकुरित हुआ. “वह येल में छात्रा थी और छुटि्टयों में घर आई हुई थी. वह कोई पाठ्यक्रम जमा करना चाहती थी और उसने कहा ‘पिता जी, हमारे घर का इंटरनेट चूसता है’”. रिलायंस इंडस्ट्रीज के आईबीएसपीएल प्राप्त करने के बाद वाला साल था और उसी वर्ष अंबानी परिवार 170 मीटर ऊंचे निजी घर में गया था जिसकी लागत कम से कम एक बिलियन आंकी जाती है. ईशा और उसके जुड़वां भाई दोनों को 23 साल की आयु में 2014 में जियो बोर्ड का निदेशक नियुक्त किया गया था.
इस शादी ने विश्व स्तर पर सनसनी पैदा कर दी थी जिसके खर्च का आंकलन ब्लूमबर्ग न्यूज ने 100 मिलियन डॉलर या 700 करोड़ रुपए से अधिक किया था. इसमें बियोनसी द्वारा निजी संगीत समारोह प्रस्तुत किया गया जिसका आयोजन ओबेरॉय उदयविलास होटल के शिखर पर हुआ था. एक अन्य समारोह उदयपुर सिटी पैलेस में आयोजित हुआ था. उत्सव को योजनाबद्ध करने के लिए अतिथियों को एक फोन एप्लीकेशन तक हासिल थी.
जैसा सुर्खियों में रहने वाली भारतीय शादियों में होता है ईशा के स्वागत समारोह में भारत के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति दिखाई पड़े. लेकिन आरआईएल की अधीनस्थ कंपनियों का एक बड़ा वैश्विक नेटवर्क है और स्वागत समारोह में असामान्य रूप से बड़ी संख्या में शक्तिशाली विदेशी मेहमान उपस्थित थे. हिलेरी क्लिंटन और जॉन केरी ओाबमा के शासनकाल के दो सबसे बड़े विदेश नीति अधिकारी उत्सव में मौजूद थे. क्लिंटन और उनके पति पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन अंबानी परिवार को 18 साल से जानते हैं. राष्ट्रपति के रूप में बिल क्लिंटन मुकेश के पिता से मिल भी चुके थे.
मैं हिलरी क्लिंटन और जॉन केरी से सम्बद्ध संगठनों तक पहुंच गया और शादी के सम्बंध में चर्चा करने के लिए साक्षात्कार का अनुरोध किया. बाद में इन समूहों से उनकी उपस्थिति के लिए किए गए व्यय के बारे में जानकारी मांगी. मुझे कभी जवाब नहीं मिला.
दोनों राजनीतिज्ञों के वीडियो लीक होने में बहुत समय नहीं लगा. इसमें केरी और क्लिंटन मंच पर नाचती हुई भीड़ के बीच खड़े हैं और अटपटे ढंग से पैर घसीटते हुए स्थान बदलते रहते हैं. लाइटें चमक रही हैं और बॉलीवुड संगीत बज रही है. क्लिंटन के बाजू में खड़े फिल्म सुपर स्टार शाहरुख खान उन्हें नाचने पर आमदा करने का प्रयास करते हैं लेकिन झिड़क दिए जाते हैं. अंत में मुकेश की पत्नी नीता अंबानी, क्लिंटन के पास जाती है, उनका हाथ पकड़ती हैं और झटके के साथ आगे पीछे खींचना शुरू कर देती हैं. मुकेश मुस्कुराते हुए मंच की तरफ डांस करते चले जाते हैं.
(द कैरवैन के फरवरी 2019 अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का अनुवाद मसीउद्दीन संजरी ने किया है. अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. )