15 नवंबर 1949 की सुबह, फांसी लगने से पहले मोहनदास करमचंद गांधी का हत्यारा, हिंदू राष्ट्रवादी धर्मांध नाथूराम विनायक गोडसे एक प्रार्थना पढ़ रहा था :
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्.
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते.
(हे प्यार करने वाली मातृभूमि! मैं तुझे सदा नमन करता हूं.
तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है.
हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो.
मैं तुझे बारम्बार नमस्कार करता हूं.)
संस्कृत में इन चार वाक्यों के पहले तीन वाक्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की आधिकारिक प्रार्थना में इस्तेमाल होते हैं, जो आज तक संघ की शाखाओं में शारीरिक और वैचारिक प्रशिक्षण के दौरान पढ़ी जाती हैं.
गोडसे का इन्हीं पंक्तियों को चुनने का कारण कदाचित असमंजस में डालने वाला है. सामन्यत: यह धारणा रही है कि वह 1938 के आसपास आरएसएस को छोड़कर उस समय की सबसे बड़ी हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी, अखिल भारतीय हिंदू महासभा में शामिल हो गया था. लेकिन मराठी प्रार्थना की जगह आरएसएस ने इस संस्कृत प्रार्थना को अपनाया जिसे 1939 में लिखा गया था, जो आगे कई सालों बाद, शाखा स्वयंसेवकों के बीच प्रचलन में आई. जाहिर है कि अगर गोडसे इस प्रार्थना से अवगत था, तो इसका मतलब उसका संबंध संघ से 1939 के बाद भी बना रहा होगा.
गोडसे के जुर्म में उसके भागीदार रहे नारायण दत्तात्रेय आप्टे को भी उस सुबह अंबाला की सेंट्रल जेल में फांसी हुई थी. दोनों ने इस प्रार्थना को साथ मिलकर पढ़ा. नाथूराम के भाई गोपाल दास गोडसे ने अपने संस्मरण, “गांधी वध और पश्चात” में इसका विस्तार से उल्लेख किया है. गांधी की हत्या मामले में, गोपाल को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी. गोपाल ने जेल सुपरिटेंडेंट से फांसी दिए जाते समय वहां मौजूद रहने की इजाजत मांगी, लेकिन उसे अपने भाई और आप्टे के साथ, कालकोठरी में फांसी दिए जाने के आधा घंटा पहले, सुबह साढ़े-सात बजे तक मिलने की ही इजाजत मिल पाई.
शायद उस प्रार्थना को आप्टे ने अपने जीवन में पहली और आखिरी बार पढ़ा था. गोडसे की तरह, वह कभी भी संघ में औपचारिक तौर पर शामिल नहीं हुआ था. उसे संघ उतना पसंद नहीं था क्योंकि संघ उतना चरमपंथी नहीं था.
हालांकि, संघ से गोडसे के लगाव ने आप्टे का रवैया भी उसके प्रति काफी हद तक बदल दिया था. फांसी लगने के कुछ दिन पहले, आप्टे ने गोपाल से बातचीत के दौरान अपने अंदर आए इस कायापलट का ज़िक्र किया था.
“तुम अक्सर संघ की आलोचना करते रहे हो… लेकिन तुमने संघ कार्यकर्ताओं को भी पीछे छोड़ दिया!” मृत्युदंड की पुष्टि हो जाने के बाद गोपाल ने उन दोनों के साथ अपनी नियमित भेंट में आप्टे से कहा. “मुख पर मुस्कान फैला कर नाना ने कहा, ‘सच तो यह है कि पिछले चार सालों के अनुभव के चलते हम दोनों (गोडसे और आप्टे) एक तर्ज पर सोचने लगे हैं,’ जहाँ तक संघ का प्रश्न है तो पूरे संगठन में हम दोनों ही ऐसे कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने ‘पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते’ को हर रोज साक्षात जिया है.”
गांधी के हत्यारे को संघ कभी अपना मानने का साहस नहीं जुटा पाया. आधिकारिक तौर पर, संघ ने गोडसे से किसी भी समय में संबंध न होने की बात कही. 2 फरवरी 1948 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने लिखा, “राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संघचालक ने बंबई से एक वक्तव्य में कहा, महात्मा गाँधी के कथित हत्यारे का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से कभी कोई संबंध नहीं था.” दो दिन बाद, संघ को प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया गया. इसके कई नेताओं, जिनमें तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर भी शामिल थे, को गिरफ्तार कर लिया गया. हालांकि, संघ और उसके नेताओं को साक्ष्यों के अभाव में जल्द छोड़ देना पड़ा.
8 नवंबर 1948 को गोडसे ने मामले की सुनवाई कर रही विशेष अदालत के सामने बयान दिया, जो संघ के लिए खासा सुविधाजनक साबित हुआ. गोडसे ने कहा, “मैं महाराष्ट्र का एक ऐसा स्वयंसेवक हूं, जो संघ के साथ इसके शुरुआती दौर में जुड़ा था. मैंने कुछ सालों तक महाराष्ट्र प्रांत की इसकी बौद्धिक शाखा में काम किया. हिंदुओं के उत्थान के लिए काम करने के नाते, मैंने जरूरी समझा कि हिंदुओं को उनके जायज अधिकार दिलवाने के लिए, देश की राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लिया जाए. इसलिए मैं संघ छोड़कर, हिंदू महासभा में शामिल हो गया.”
गोडसे से सारे सबंधों को सिरे से नकारने के बाद अब संघ ने नई लाइन पकड़ ली. 1949 के पूरे साल, जब गोडसे और अन्य आरोपियों का मामला अदालत में लड़ा जा रहा था, संघ के ऊपर से पाबंदी हटाने को लेकर गोलवलकर नेटवर्किंग करते फिर रहे थे. संघ द्वारा यह दलील दी जाने लगी कि गोडसे असल में, 1930 की शुरुआत में संघ से जुड़ा जरूर था, लेकिन गांधी की हत्या से बहुत पहले ही उसने संघ से अपने संबंध तब खत्म कर लिए थे, जब वह हिन्दू महासभा में शामिल हुआ. उसी साल जुलाई के महीने में, संघ से प्रतिबंध हटा लिया गया. अब उसे संघ के पूर्व सदस्य के रूप में संबोधित किया जाने लगा. इस बात को लेकर भी संघ, कईयों को आश्वस्त करने में सफल रहा कि दोनों संगठनों के बीच किसी किस्म का तादात्मय नहीं है.
उसके बाद के इतिहास में, इस दावे को कि गोडसे ने अपनी संघ सदस्यता त्याग दी थी कभी कोई चुनौती नहीं मिली. मार्च 2014 में, जब कांग्रेसी नेता राहुल गांधी ने अपनी एक चुनावी रैली में कहा कि संघ का सदस्य गांधी हत्या के लिए जिम्मेवार था, तो विरोधस्वरूप राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उन पर मानहानि का दावा ठोंक दिया. सुप्रीम कोर्ट ने संघ को हत्या का जिम्मेवार ठहराने के लिए, राहुल गांधी को जुलाई 2016 में डपट लगाई और कहा कि अगर उन्होंने माफी नहीं मांगी तो उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है. राहुल ने माफी मांगने से साफ इंकार कर दिया. लिहाजा इस वक्त मामला कोर्ट में लंबित है. गोडसे की पृष्ठभूमि को लेकर सुप्रीम कोर्ट इतना आश्वस्त दिखा कि उसने साक्ष्यों की पड़ताल किए बिना ही राहुल को डपट दिया. इस मामले को लेकर कोर्ट ही नहीं, बल्कि उदारवादी या निष्पक्ष शोधकर्ता भी अकसर यह कहते-लिखते पाए जाते हैं कि गांधी हत्या के समय गोडसे संघ का सदस्य नहीं था. प्रबुद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा और अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन ‘न्यूयॉर्कर’ भी उसे संघ का एक भूतपूर्व सदस्य बताते हैं.
संघ द्वारा गोडसे से दूरी बनाए रखने की कोशिशों के बावजूद हिंदुत्व मतवालों की कल्पना में वह एक ऊंचा स्थान रखता है. भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख पदों पर आसीन पदाधिकारियों ने कई बार गोडसे का गुणगान किया है. संघ के पूर्व प्रचारक और 2014 से प्रधानमंत्री पद पर आसीन नरेन्द्र मोदी और अन्य नेताओं ने गोडसे को खुले आम गले लगाया है. बीजेपी के सांसद साक्षी महाराज और 2008 के मालेगांव विस्फोट में आरोपी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने भी कई बार गोडसे की तारीफ में कसीदे पढ़े हैं. उत्तर प्रदेश की बीजीपी सरकार मेरठ जिले का नाम बदलकर “पंडित नाथूराम गोडसे नगर” करने की पेशकश कर चुकी है.
भले ही गोडसे उपासना मुख्यधारा में शामिल होती नजर आ रही है, लेकिन संघ ने व्यावहारिक कारणों से राष्ट्रपिता माने जाने वाले शख्स की हत्या में फंसने के डर से अभी तक उससे दूरी बना रखी है.
पिछले आठ महीनों में, गोडसे पर किए अपने शोध के दौरान मैंने ऐसे कई ऐतिहासिक दस्तावेजों की छानबीन की, जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि उसने संघ की सदस्यता कभी भी नहीं छोड़ी थी. इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण गोडसे का वह बयान है, जो उसने विशेष अदालत में दिए गए अपने हलफनामे से छः महीने पहले मार्च 1948 में दिया था. इस बयान को अकादमिक विद्वानों तथा पत्रकारों द्वारा शायद इसलिए भी नजरंदाज किया जाता रहा क्योंकि यह पूर्णत: मराठी भाषा में है. इस बयान में, जो एक संक्षिप्त आत्मकथा भी है, कहीं भी गोडसे के संघ छोड़ने का जिक्र नहीं किया गया है. यह साबित करता है कि वह दोनों संगठनों में साथ-साथ सक्रिय था. इस दस्तावेज के पृष्ठ 18 और 19 में उसने अपने 1940 के दशक का विवरण दिया है. उसने लिखा, “मैंने फिर से हिंदू महासभा का काम करना शुरू कर दिया और साथ ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में भी अपनी सक्रियता जारी रखी.”
मैंने जिन दस्तावेजों को खंगाला वे भी इस बात की पुष्टि करते हैं. 11 मई 1940 का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का एक दस्तावेज, किसी “एनवी टेलर” का जिक्र करता है, जिसकी बैठक पूना के एक संघ संयोजक के साथ हुई थी. कई इतिहासकारों ने हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दो अलग-अलग संगठन होने पर सवाल उठाया है. रिकॉर्डों में यह साफ दर्ज है कि संघ के कई सदस्यों के पास संघ और महासभा की दोहरी सदस्यता थी और कि दोनों संगठन नजदीकी रूप से एक-दूसरे के साथ सहयोग किया करते थे. 1930 और 1940 के दशकों के दौरान, संघ के हिंदू महासभा के साथ संबंधों को लेकर इतिहास में दो धाराएँ हैं: हत्या के बाद की धारा, दोनों संगठनों को अलग-अलग बताती है; जबकि हत्या के पूर्व की धारा, दोनों के बीच प्रवाही रिश्ते का बखान करती नजर आती है, जिसमें देश के अलग-अलग कोनों से संघ के कार्यकर्ता दोनों संगठनों में सक्रिय पाए जाते हैं.
नवंबर 1948 के गोडसे के इस बयान कि उसने संघ छोड़ दिया था पर विश्वास न करने के कई कारण हैं. वकील के सिखाए-पढ़ाए जाने के बाद अब तक गोडसे, हत्या की सारी जिम्मेवारी अपने सर लेने के लिए तैयार हो चुका था. उसकी कोशिश थी कि हत्या में, यथासंभव कम लोगों का नाम सामने आए. अपने जिस 150 पैराग्राफ वाले बयान को अदालत के सामने रखने में उसे पांच घंटे लगे, उसे उसने पूरी तरह से खुुद तैयार नहीं किया था. हिंदू महासभा के साथ मिलकर बचाव पक्ष के वकीलों के गुट में से एक, पीएल नामदार नामक वकील ने इस तथ्य का उजागर किया. “नाथूराम मामले में मुख्यतः बंबई के बैरिस्टर-ऐट-लॉ जमनादास मेहता ने उसका हलफनामा तैयार किया था,” इनामदार ने लिखा. मेहता असल में विनायक दामोदर सावरकर के पुराने साथियों में से एक थे; और उस समय के हिंदुत्व संगठनों के प्रमुख मार्गदर्शक भी थे.
गोपाल समेत गोडसे के परिवार ने भी कभी यह नहीं कहा कि उसने संघ का साथ छोड़ दिया था. फ़्रंटलाइन पत्रिका को 1994 में दिए गए अपने साक्षात्कार में गोपाल ने कहा, “अदालत में दिए अपने बयान में उसने कहा था कि उसने संघ छोड़ दिया था. उसने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और संघ भारी मुसीबत में आ गए थे. लेकिन उसने हकीकत में कभी संघ नहीं छोड़ा था. हम सभी भाई संघ के साथ जुड़े हुए थे. नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं और गोविंद. आप कह सकते हैं कि हम घर से ज्यादा, संघ में पल कर बढ़े हुए थे. यह हमारे लिए एक परिवार की तरह था.” गोपाल ने अपने कार्यकर्ताओं को अपनाने से इंकार करने के लिए संघ को लताड़ा और इसकी तुलना हिंदू महासभा से की जिसने कभी भी अपने साथी का परित्याग नहीं किया.
गोडसे के जीवन की कहानी, संघ के साथ उसके सतत और पेचीदा संबंध को उजागर करती है. गोडसे को बचपन से ही अतिवादी बनने की दीक्षा सावरकर से मिली थी. उसका पालन-पोषण एक ऐसे माहौल में हुआ जहां उसे एक खास किस्म की राजनीति की तरफ धकेला गया. कुछ टीकाकारों के अनुसार, मसीहा बनने की उसकी ललक ने उसे अपनी मर्दानगी दिखाने की तरफ धकेला और इसी सनक ने आखिकरकार उसके भाग्य का निर्धारण किया.
19 मई 1910 को जन्मे नाथूराम गोडसे का बचपन अनोखा था. मथुरा नामक पहली लड़की के जन्म के बाद, विनायक राव और लक्ष्मी के तीन बच्चों की शैशव काल में ही मृत्यु हो गई. उन्हें इस बात का पूरा यकीन हो चला था कि उनके परिवार में सिर्फ लड़कियाँ ही बची रह सकती हैं. इसलिए जब गोडसे का जन्म हुआ तो उन्होंने ‘नियति’ को छलने की सोची. अपने इस पुत्र का लालन-पालन उन्होंने एक पुत्री की तरह किया. उसकी नाक छेदकर उसे नथ पहना दी गई. उन्हें लगा इस तरह वे अपने कुल देवताओं को प्रसन्न करने में सफल हो जाएंगे. उसका नाम ‘नाथू’ रख दिया गया, जो बाद में चलकर नाथूराम बन गया. हालाँकि, असल में उसका नाम रामचंद्र रखा गया था. जुलाई में, गोडसे के परिवार वाले ने मुझे बताया कि बचपन में वह अपनी उम्र की लड़कियों के साथ खेलता था और उसके मात-पिता उसे लड़कियों के कपड़े पहनने के लिए प्रोत्साहित करते थे.
उसके माता-पिता को लगता था कि उनकी यह युक्ति काम कर गई. नाथूराम बच गया और कुछ सालों बाद ही उनके यहाँ एक और बेटा पैदा हुआ, जिसका नाम उन्होंने दत्तात्रेय रखा. कुछ समय बाद, लक्ष्मी ने एक और पुत्री को जन्म दिया, जिसे उन्होंने शांता नाम दिया. शांता के बाद गोपाल और गोविंद का जन्म हुआ. यह ऐसा था मानो नाथूराम ने परिवार को किसी श्राप से मुक्ति दिला दी हो. स्कूल जाना शुरू करने पर नाथूराम ने लड़कियों के वस्त्र पहनना बंद कर दिया. लेकिन वह अभी भी अंधविश्वासों के मकड़जाल में घिरा हुआ था. वह अपने कुल देवता हरेश्वर का परम भक्त बन गया. हरेश्वर को शिव का रूप माना जाता है, जिसकी संगिनी हैं योगेश्वरी. इसी वजह से शायद गोडसे अक्सर अवचेतन अवस्था में जाकर देववाणी का रूप धर लेता था. मराठी ब्राह्मण परिवार में उसकी इन ‘खूबियों’ को बड़े गर्व से बताया जाता. गोपाल के संस्मरणों के अनुसार, उनका परिवार उस समय भौंचक्का रह गया जब उसने अलौकिक शक्ति से अपनी बड़ी बहन मथुरा को एक लाइलाज बीमारी से निजात दिला दी. शुरुआती स्कूली दिनों से ही नाथूराम टोने-टोटके करने लगा था. उसके पिता विनायक राव, डाक विभाग में कार्यरत थे जो एक तबादले वाली नौकरी थी, जिसके चलते उनका तबादला गांवों या छोटे कस्बों में होता रहता था. “ऐसे ही कस्बों में, मैंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की,” उसने मार्च 1948 में अपने लिखित बयान में कहा, जिस पर बंबई के सीआईडी की स्पेशल ब्रांच के डिप्टी कमिश्नर जेडी नागरवाला के दस्तखत थे. “मेरा जन्म पूना जिले के बारामती गांव में हुआ, जहां मैंने मराठी माध्यम से तीसरी कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की. उसके बाद, मेरे पिता का तबादला पूना में ही खेड़ और लोनावाला में हो गया, जहां मैंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की.”
प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद उसे पूना के एक हाई स्कूल में भेज दिया गया, जहां वह अपनी बुआ के साथ रहा. घर के आराम और अपनी क्षमताओं के चलते परिवार से जो सत्कार मिलता था उसे वहां उसकी कमी खलती थी. वह एकांत पसंद हो गया और हमेशा किसी भी बहाने घर लौटने की तलाश में रहता.
“पूना में अंग्रेजी पढ़ने के लिए भेजे जाने के बाद भी जब भी वह छुट्टियों में घर आता पूजा जरूर करता था,” गोपाल ने लिखा. लेकिन गोपाल के अनुसार, उसकी पढ़ाई आगे बढ़ने के साथ-साथ, उसकी दिव्यवाणी जाती रही और 16 वर्ष की आयु तक उसकी यह क्षमता बिलकुल ही समाप्त हो गई.
रहस्यवाद से कदम पीछे हटाने के बाद, गोडसे ने पढ़ाई पर ध्यान लगाने की बजाय, अपना अधिकांश समय दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाने में बिताया. 1929 में उसको दसवीं की परीक्षा देनी थी, इसलिए वह एक किराए का कमरा लेकर रहने लगा, जहां वह अपना ज्यादातर समय दोस्तों के साथ बिताता. परीक्षा की तैयारी ठीक से न करने के कारण वह फेल हो गया.
जब करने को कुछ और नहीं बचा तो वह वापिस परिवार के पास लौट गया, जो उस समय पूना और बम्बई के बीच करजाट में रह रहा था. कुछ ही महीनों बाद तरक्की के साथ उसके पिता का तबादला रत्नागिरी में हो गया. बम्बई प्रांत के पश्चिमी घाट पर बसा रत्नागिरी वह आखिरी पड़ाव था, जहां विनायक राव की नौकरी उन्हें ले गई. यह तबादला गोडसे के भविष्य को भी निर्धारित करने वाला साबित हुआ.
जब गोडसे वयस्क हुआ, भारत उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1922 के असहयोग आंदोलन की विफलता से उबरना शुरू कर दिया था. 1928 में, स्वतंत्रता आंदोलन के निर्विवाद नेता के रूप में उभरे गांधी खुद पर थोपे गए राजनीतिक निर्वासन से बाहर आ चुके थे और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक और अहिंसक युद्ध की तैयारी में लगे थे. नौजवान संघर्ष में जत्थों में शामिल होने लगे थे. कांग्रेस के अंदर चलने वाली उठापटक भी कम होने लगी थी. मोतीलाल नेहरू के पुत्र जवाहरलाल कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन थे. वह गांधी के सबसे नजदीकी राजनीतिक सहयोगियों में से एक के रूप में उभर चुके थे. पिछले दो सालों से नेहरू पार्टी के सचिव के रूप में काम कर रहे थे और गांधी उनसे नौजवान पीढ़ी के बीच पुल बांधने की उम्मीद लगाए बैठे थे.
1929 में, गांधी ने आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत का एक लंबा दौरा किया. उन्होंने वहां लोगों से खादी को अपनाने तथा कांग्रेस में शामिल होकर स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में भाग लेने तथा औपनिवेशिक शासन को चुनौती देने की अपील करते हुए करीब ढाई महीने सार्वजनिक सभाएं करते हुए बिताए.
कांग्रेस ने दिसंबर 1929 के अपने लाहौर अधिवेशन में, पहले से भी उग्र असहयोग आंदोलन चलाने का फैसला लिया - नागरिक सविनय अवज्ञा आंदोलन. इसने पूर्ण स्वराज की मांग को अपना ध्येय घोषित किया. इस मुहिम की कमान गांधी को सौंपी गई.
गोडसे ने, जो उस समय अपनी उम्र के बीसवें साल में था, तेजी से बदलते राजनीतिक परिदृश्य में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था. “उस समय मैं इस सिलसिले में होने वाले प्रदर्शनों और बैठकों में हिस्सा लेना शुरू कर चुका था,” उसने मार्च 1948 के अपने बयान में कहा. “छात्रों से जब स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार करने का आह्वान किया गया तो मैंने भी अपनी दसवीं की परीक्षा न देने का निर्णय लिया.”
गोडसे ने सार्वजनिक भाषण देने का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया. “मुझे नहीं पता था मंच से कैसे बोला जाता है,” उसने याद करते हुए बताया. “लेकिन दो-चार भाषणों और लोगों की प्रतिक्रियाओं के बाद, मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा और मैंने भाषण देना सीख लिया. मैंने अपने मोहल्ले में कांग्रेस द्वारा आयोजित मीटिंगों में नियमित रूप से भाषण देना शुरू कर दिया था.” गोडसे को “एकाद मर्तबा” अन्य प्रदर्शनकारियों के साथ, पुलिस द्वारा पकड़ा भी गया लेकिन कुछ घंटों में ही उसे छोड़ दिया जाता था.
मार्च 1948 के इसी वक्तव्य में गोडसे ने हिंदुत्व के संस्थापक माने जाने वाले विनायक दामोदर सावरकर से अपनी निकटता को उजागर किया. रत्नागिरी के अपने घर में बैठकर, सावरकर 1920 और 1930 के दशक में अपने चेले-चपाटों को हिंदुओं को अंग्रेज नहीं, बल्कि मुसलमानों के खिलाफ एकजुट होने के निर्देश दिया करते थे.
गांधी और नेहरू की तरह ही सावरकर ने अपनी शिक्षा लंदन के इंन्स कोर्ट से पूरी की थी. 1910 में, उन्हें बंबई के नासिक जिले में कार्यरत एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या का हुक्म देने के जुर्म में लंदन में गिरफ्तार कर किया गया. उन्हें वापिस भारत लाया गया और उन पर मुकदमा चला और उन्हें सजा देकर, आजीवन कारावास के लिए अंडमान और निकोबार भेज दिया गया.
अगले 14 साल उन्होंने जेल में बिताए और अंतत: उन्हें जनवरी 1924 में माफी मांगे जाने पर छोड़ दिया गया. उन्होंने अंग्रेजों के प्रति वफादार रहने की कसम खाई और फर्माबरदारी और अच्छे आचरण का वादा किया. ऐसी ही एक अर्जी में उन्होंने लिखा :
“इसलिए अगर सरकार अपनी दरियादिली और रहमदिली के चलते मुझे आजाद करती है तो मैं वादा करता हूँ कि मैं अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार बना रहूँगा और उसके संवैधानिक विकास, जो किसी भी तरह की तरक्की के लिए जरूरी है, को हमेशा अपना समर्थन देता रहूंगा … इसके अलावा, संवैधानिक मार्ग पर वापिस लौटने के मेरे फैसले से मैं भारत में उन सब भटके हुए नौजवानों को वापिस लाने में मदद कर सकता हूँ. मैं किसी भी हैसियत से सरकार में काम करने लिए राजी हूं. जिस तरह से मेरा वापिस आना मेरी अंतरात्मा की आवाज है, मैं आशा करता हूं कि भविष्य में मेरा बर्ताव भी उसी के अनुसार होगा …जैसे केवल सक्षम ही रहमदिल हो सकता है और इसलिए उसकी संतानों के पास लौटकर वापिस आने के लिए, ‘सरकार माईबाप’ के अलावा किसका दरवाजा खटखटाने का चारा बचता है?”
अंग्रेज सरकार ने उन्हें माफ कर दिया. इस तरह नजरबंदी के साथ उन्हें रत्नागिरी जिले में अपनी पत्नी के साथ रहने की इजाजत मिल गई.
सावरकर के प्रशंसकों का दावा है कि उनकी क्षमा-याचना जेल से निकलने तथा साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में हिस्सा लेने के लिए महज एक चाल थी. हालांकि षड्यंत्रकारी धूर्तता सावरकर के व्यक्तित्व में पहले से थी, लेकिन जेल से रिहाई के बाद वह दूर-दूर तक भी स्वतंत्रता आंदोलन के करीब नहीं फटके. उल्टे वे खुले रूप से अंग्रेज हुकूमत को, न केवल एक वरदान बल्कि भारत को मुसलमान-मुक्त करने के सुनहरे मौके के रूप में देखने लगे.
1923 में जेल में रहते हुए सावरकर ने ‘हिंदुत्व : हिंदू कौन है?’ शीर्षक से एक निबंध लिखा. इस निबंध में दावा किया गया था कि पूरे भारत पर हिंदुओं का प्रथम अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे इस भूमि को पवित्र मानते हैं और क्योंकि वे ही यहां के अन्य बाशिंदो में सबसे पुराने हैं. “सभी हिंदुओं का दावा है कि उनकी धमनियों में, शक्तिशाली वैदिक पितरों (सिंधुओं) का रक्त प्रवाहित होता है,” उन्होंने लिखा. “हम एक हैं क्योंकि हम एक राष्ट्र हैं और समान संस्कृति के स्वामी हैं.”
इससे पहले किसी ने इतने निश्चयात्मक रूप से यह नहीं कहा था कि हिंदू एक पृथक राष्ट्र की संरचना करते हैं - एक परिकल्पना, जिसे 17 साल बाद मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना ने अंगीकार किया, जब 1940 में उन्होंने यह कहते हुए प्रस्ताव पारित किया कि हिंदू और मुसलमान दो अलहदा राष्ट्र हैं और इस आधार पर भारत विभाजन की मांग की. सावरकर और कई अन्य कट्टरपंथी हिंदू नेताओं के लेखन से प्रेरित होकर, केबी हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठन किया. इसका उद्देश्य, सांस्कृतिक एवं धर्मांतरण के जरिए हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना था.
जहां एक तरफ मुसलमानों के प्रति सावरकर की नफरत एक कड़वी सच्चाई थी, वहीं दूसरी तरफ इसका इस्तेमाल उन्होंने अंगे्रजों की अनुकंपा पाने के लिए भी किया. हिंदुओं को “भीतरी शत्रुओं” के खिलाफ एकजुट करने के उनके इस सिद्धांत ने, स्वतंत्रता आंदोलन से समधर्मियों को दूर रखने और अंग्रेजों को अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को कारगर बनाने में मदद की. रत्नागिरी में सावरकर ने हिंदुत्व का पाठ पढ़ाने और समस्त हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ एकजुट करने के लिए, छुआछूत की प्रथा से परहेज रखने का काम किया.
1930 के शुरू में, गोडसे जब पहली बार सावरकर से मिला तो वह अपनी राजनीतिक विचारधारा तलाश रहा था और जानने की कोशिश कर रहा था कि जीवन में उसे क्या करना है. हाल में स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने में उसे मजा आने लगा था और वह अपने आपको इसमें झोंक देना चाहता था.
“जब मैंने उन्हें स्कूल कॉलेजों के बहिष्कार के आह्वान के कारण अपनी दसवीं की परीक्षा को छोड़ देने का फैसला बताया तो वे भड़क गए,'' गोडसे ने अपने बयान में कहा. “दो या तीन बार उन्होंने मुझे अपना निर्णय बदलने के लिए समझाने की कोशिश की. उन्होंने मुझे समझाया कि मेरे लिए अपनी पढ़ाई जारी रखना कितना जरूरी है.” लेकिन गोडसे अपने फैसले पर डटा रहा. इस तरह गोडसे को अंग्रेज विरोधी खेमे से दूर रखने की, सावरकर की पहली कोशिश नाकाम रही.
लेकिन चितपावन ब्राह्मणों में सावरकर की अच्छी पैठ थी. यह समुदाय पेशवाओं के मराठा साम्राज्य से संबंध रखता था. समुदाय के कई सदस्यों को सावरकर और उनकी विचारधारा, पेशवाओं की विचारधारा के अनुकूल लगती थी. सावरकर ने अपने चेले चपाटों में अपनी साख बनाए रखने के लिए गौरव की इसी अनुभूति को जगाया. गोडसे भी एक चितपावन ब्राह्मण था और अपने समुदाय के प्रतीक के करीब होने में गौरवान्वित महसूस करता था. सावरकर के साथ जिस जातीय अनुबंधन को वह साझा करता था, उससे उसे दूसरे ब्राह्मणों के मुकाबले श्रेष्ठता का एहसास होता था. चितपावन ब्राह्मण एक ऐसा दुर्लभ समुदाय था, जो पुरोहितों द्वारा पारंपरिक विशेषाधिकारों का आनंद उठाने के साथ-साथ, रणभूमि में अपने पराक्रम के इतिहास का भी दावा ठोकता था.
भारत में पेशवाओं का मुसलमान शासकों के खिलाफ संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है. पेशवाओं ने पूना को अपना आधार बनाकर मराठा लड़ाके राजा शिवाजी भोंसले के मुगलों और पठानों के खिलाफ संघर्ष एवं 1818 तक अंग्रेजों के प्रतिरोध की विरासत को आगे बढ़ाने का काम जारी रखा. इसी इतिहास को चितपावन ब्राह्मणों की हिंदू राष्ट्रवादी कल्पना को पंख लगाने का काम करना था. वे खुद को मुसलमान कब्जे के खिलाफ, हिंदू प्रतिरोध के झंडाबरदार समझते आए हैं. गांधी द्वारा आंदोलन को अहिंसक रूप देने से पहले, पूना के चितपावन ब्राह्मणों ने भारतीय राष्ट्रवाद को बाल गंगाधर तिलक, चापेकर बंधु (दामोदर हरि, बालकृष्णा हरि और वासुदेव हरि) जैसे उग्रवादी नेता दिए हैं. ये चापेकर बंधु 1897 में, पूना के प्लेग कमिश्नर, डब्लूसी रैंड की हत्या में भी शामिल थे.
चितपावन ब्राह्मणों की इस ‘गौरवशाली’ परंपरा से गोडसे अनभिज्ञ नहीं था. हालांकि, वह एक निम्न-मध्यम परिवार से ताल्लुक रखता था. परंतु इस जाति से संबंध रखने के कारण उसके पूर्वजों ने अपनी शुरुआत, पूना के नजदीक उकसान गाँव में पुरोहित और सामाजिक कुलीनों के रूप में की थी. 2006 में, प्रकाश नार्हर गोडसे द्वारा प्रकाशित, ‘गोडसे कुल वृत्तांत’ में, जो गोडसे की वंशावली है, उसमें उसके पिता विनायक राव को उसके विदित पूर्वजों की आठवीं पीढ़ी बताया गया है, जिसकी शुरुआत रामचंद्र गोडसे से होती है, जो सत्रहवीं सदी के अंत में रहे थे. अपने पूर्वजों की भाँति, विनायक राव के किसान और पुरोहित पिता, वामन राव गोडसे अपने पैतृक गांव से बाहर पूना में बसने वाले पहले व्यक्ति थे. उन्होंने यह निर्णय अपने बेटे को आधुनिक शिक्षा दिलाने के मकसद से किया था, जिसके कारण ही विनायक राव को डाक विभाग में नौकरी मिली.
इसलिए सावरकर के गुट में, गोडसे की नियुक्ति एक चितपावन ब्राह्मण के नैसर्गिक चुनाव के रूप में देखी जा सकती है. कई सालों बाद, गोडसे ने स्वीकारा कि स्वतंत्रता आंदोलन से उसका दूर हटना उसके पिता की आशंका वश भी था, जो बतौर सरकारी नौकर यह नहीं चाहते थे कि उनके बेटे की वजह से उनके मालिक गुस्सा हो जाएं. “मेरे पिता को डर था कि मेरी गतिविधियों के कारण उनकी नौकरी जा सकती है, इसलिए उन्होंने मुझसे किसी भी ऐसे आंदोलन में हिस्सेदारी करने से बाज आने लिए कहा, जो कानून का उल्लंघन करती हो,” उसने लिखा.
सावरकर ने गोडसे को पढ़ने की आदत डाली, खासकर, जिस तरह का साहित्य वह उसे पढ़वाना चाहते थे. गोडसे नियमित रूप से सावरकर से किसी न किसी विषय पर विमर्श के लिए मिलने लगा था. विमर्श के बीच, वह सावरकर के लिखे लेख और किताबें पढ़ता और उन्हें अपनी हस्तलिपि में पन्नों पर उतारता. “एक बार वह घर पर सावरकर की लिखी '1857 का स्वतंत्रता युद्ध’ लेकर आया, जिसे वह रात के वक्त पढ़ा करता था,” गोपाल ने अपने संस्मरण में लिखा. “इस किताब को समझ सकने वाले उसके केवल तीन श्रोता थे: पिता, माँ और वह स्वयं. उसका छोटा भाई दत्ता भी श्रोता था, लेकिन उसकी अभी समझने-बूझने की उम्र नहीं हुई थी.”
6 अप्रैल 1930 को जब गांधी ने डांडी मार्च कर नमक कानून तोड़ा तो इसने पूरे देश का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित किया. इसके बाद, अगले कई महीनों तक देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह की अहिंसक अवज्ञा जारी रही और जल्द ही इसने अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ एक विशाल जन आंदोलन का रूप ले लिया. खासतौर पर, प्राकृतिक रूप से नमक के काम के लिए जाने जाने वाले पश्चिमी तट, कैंबे से लेकर रत्नागिरि तक, का इलाका इस नमक सत्याग्रह का केंद्र बन गया.
लेकिन तब तक गोडसे, सावरकर का भक्त बन चुका था. सावरकर और उसके अनुयाई गांधी के नेतृत्व वाले इस आंदोलन से दूरी बनाए रहे.
गोडसे की उग्रवादी दीक्षा में उस समय कुछ समय के लिए ठहराव आ गया, जब उसके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. 1933 में, परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य विनायक राव सेवामुक्त हो चुके थे. उन्हें मिलने वाली नाममात्र की सरकारी पेंशन परिवार का खर्च चलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी. इसलिए परिवार ने किसी सस्ती जगह पर जाने का निर्णय लिया. वे रत्नागिरि से करीब दो सौ किलोमीटर दूर सांगली नामक रजवाड़े में रहने चले आए.
गोडसे के लिए हिंदू राष्ट्र का सपना फिलहाल स्थगित हो गया था. उसके भाई-बहन अभी स्कूल में ही थे, इसलिए उसे अपने लिए नौकरी ढूँढना जरूरी था. उसने फल बेचने का कारोबार शुरू किया, लेकिन अपने तमाम प्रयासों के बाद भी वह उस काम को जमा नहीं पाया. वह फिर इटारसी चला गया, जहां वह अपनी बहन मथुरा और उनके पति के घर पर रहा और छोटी-मोटी नौकरियां करने लगा. लेकिन 1934 में, पिता के अस्वस्थ होने पर वह सांगली लौट आया. लौटने के बाद उसने सिलाई का काम सीखा और ‘चरितार्थ उद्योग’ नाम से एक दुकान खोल ली.
उस समय तक नागपुर के ब्राह्मणों द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ विस्तार करता हुआ सांगली पहुंच चुका था. इसके संस्थापकों - हेडगेवार, बीएस मुंजे, एलवी परांजपे, बीबी ठोलकर और जीडी सावरकर - की तरह, सांगली में इसके नेता काशीनाथ भास्कर लिमये भी एक ब्राह्मण थे. आरंभिक दौर में, इसके अधिकांश नेता ब्राह्मण थे. किसी संविधान के बिना, काम करते हुए यह हिंदु मर्दों की एक निजी सेना के रूप में उभर चुका था, जो सावरकर की तरह ही गांधी और उनके हिंदू-मुसलमान एकता के विचार से नफरत करता था तथा स्वतंत्रता आंदोलन से दूरी बनाकर रखता था. इसके नेताओं ने, इसके सदस्यों को मुसलमानों के खिलाफ, जिन्हें इसके प्रथम सरसंघचालक हेडगेवार, “सांप” कहकर बुलाते थे, अंतिम जंग लड़ने के लिए तैयार किया था.
सालों बाद गोडसे ने दावा किया कि जब वह सांगली लौटा, “महाराष्ट्र, बॉम्बे प्रांत के मराठी भाषी क्षेत्र के लिए संघ नया था, और कि वह, “इसलिए संघ में शामिल हुआ, क्योंकि संघ का उद्देश्य, हिंदू समाज को मुक्त कराना था.” संघ के उद्देश्य और हिंदुत्व को लेकर सावरकर द्वारा दी जाने वाली दीक्षा, एक-दूसरे से मेल खाते थे. गोडसे को जैसे ही संघ की सांगली शाखा के बारे में पता चला, वह पारिवारिक जरूरतों के बावजूद सरपट संघ की गोद में आ बैठा.
यहां के संघचालक, 1932 में संघ में शामिल होने वाले, लिमये अब गोडसे के नए उस्ताद बन गए. उस समय लिमये की उम्र 40 के आसपास थी और वे हेडगेवार और सावरकर के भी करीबी रह चुके थे. गोडसे के मार्च 1948 के बयान अनुसार, लिमये उस पर विश्वास करते थे. उन्हें लगता था वह संघ में नौजवानों को आकर्षित करने के लिए उपयुक्त रहेगा, क्योंकि उसका स्वतंत्रा आंदोलन या औरतों की तरफ कोई रुझान नहीं था.
गोडसे एक समर्पित स्वयंसेवक बन गया. वह रहता जरूर अपने माता-पिता के पास था, लेकिन अब संघ उसका नया ठिकाना बन गया था. कॉफी को छोड़कर वह आनंद देने वाले सारे व्यसनों से दूर था. माना जाता है कि वह सिगरेट-शराब भी नहीं पीता था. औरतों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसकी सारी ऊर्जा संघ को समर्पित थी.
इस बीच, लापरवाही के कारण उसका सिलाई का कारोबार प्रभावित होने लगा. परिवार को भी इसकी कचोट महसूस हुई. “एक दिन मेरे पिता ने मुझे सार्वजनिक जीवन से दूर रहने और पैसा कमाने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा. लेकिन तब तक सांगली में मेरा सार्वजनिक काम इतना फैल चुका था कि उसे पूरी तरह छोड़-छाड़कर, बिजनेस पर पूरा ध्यान लगाना मुमकिन नहीं लग रहा था. इसलिए मैंने सार्वजनिक गतिविधियों से दूर पूना चले जाने का निर्णय लिया, ताकि मैं पैसा कमाने पर अपना ध्यान केंद्रित कर पाऊं.”
गोडसे ने अपने इस निर्णय पर लिमये से विमर्श किया. उन्हें उसका यह फैसला पसंद आया और उन्होंने उसके पूना जाने की व्यवस्था कर दी. इस बात का कोई सबूत नहीं है कि वह असल में पूना कब पहुंचा. एक संभावित वर्ष 1937 हो सकता है. पूना आने पर उसे पता चला कि सावरकर को उनके रत्नागिरि के अपने निर्वासन से आजाद कर दिया गया है. तब तक गोडसे किसी विष्णुपंत अनागल का बिजनेस पार्टनर बन चुका था. अनागल एक स्थानीय संघी था, जो पूना में सिलाई की दुकान चला रहा था.
1930 से लेकर तब तक गोडसे, सावरकर से सिर्फ एक बार मिला था, जब वह 1935 में सांगली के कुछ नौजवानों को उनसे मिलवाने रत्नागिरि गया था.
लेकिन गोडसे पर सावरकर का प्रभाव जस का तस बना रहा. जब सावरकर पर से प्रतिबंध हटा लिया गया तो वह सभाओं को संबोधित करने कोल्हापुर, मिराज, सांगली, पूना और मुंबई लौटते हुए कई अन्य जगहों पर जाने लगे. इनमें से कुछ जगहों पर तो वह मौजूद था.
लेकिन इस बार गोडसे जल्दबाजी में सावरकर के रथ पर सवार नहीं हुआ. उसका कारोबार चलने लगा था और वह अब सांगली में अपने परिवार को हर महीने 70 रुपए तक भेज पा रहा था. हालांकि, यह रकम अभी भी कम थी लेकिन फिर भी परिवार की जरूरतों के लिए अहम थी.
दिसंबर 1937 में, सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष बन गए. तब तक गोडसे और अनागल की सिलाई की दुकान स्वयंसेवकों का पसंदीदा अड्डा बन चुका था, जहां वे अपने संघी पोशाक सिलवाने के लिए जाते थे. गोडसे ने पूना में संघ के साथ कामकाजी रिश्ते विकसित कर लिए थे, जबकि उसका ज्यादा रुझान अब हिंदू महासभा की तरफ था. उसका कारोबारी साथी संघ से ग्राहक लाता रहा, जबकि गोडसे अपने व्यस्त राजनीतिक भविष्य की तरफ कदम बढ़ा चुका था.
इस बात का कोई सबूत नहीं है, जैसा कि कईयों द्वारा माना जाता है कि गोडसे हिंदू महासभा में कब शामिल हुआ और उसने कब संघ छोड़ा. गांधी की हत्या के बाद उसके द्वारा दिए गए दो बयान इस संबंध में कोई रोशनी नहीं डालते. इस संबंध में पहला बयान उसने मुकदमा शुरू होने से पहले मराठी में दिया था और दूसरा मुकदमे के दौरान दिल्ली के लाल किला में. मुकदमा शुरू होने से पहले उसका बयान बताता है कि उसने संघ के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की और उससे संबंध तोड़े बिना वह हिंदू महासभा का काम करने लगा. दूसरा बयान कहता है कि वह संघ से नाता तोड़ने के बाद, हिंदू महासभा में शामिल हुआ. लेकिन यह नहीं बताता कि कब.
संघ समर्थक और अधिकांश अन्य लेखक यह मानते हैं कि गोडसे संघ छोड़कर, हिंदू महासभा में उस समय शामिल हुआ जब सावरकर इसके अध्यक्ष बने. अमरीकी शोधकर्ता जे.ऐ. करेन, जूनियर, जिन्हें सबसे पहले संघ पर अकादमिक अध्ययन करने के प्रयास का श्रेय जाता है, गोडसे द्वारा दिए गए इस घटनाक्रम से इत्तेफाक न रखने वाले एकमात्र व्यक्ति हैं. अपने शोधपत्र, जो उन्होंने न्यूयॉर्क स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ पेसिफिक रिलेशंस के लिए 1951 में प्रकाशित किया था, में उन्होंने लिखा, “गोडसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में, 1930 में शामिल हुआ और जल्द ही उसे एक वक्ता और संगठनकर्ता के रूम में ख्याति प्राप्त हो गई. 1934 में, उसने संघ छोड़ दिया क्योंकि हेडगेवार संघ को कथित तौर पर एक राजनीतिक संगठन नहीं बनाना चाहते थे.”
अपने शोधपत्र में करेन, सामान्यत: अपने दिए गए तथ्यों का उद्धरण देते हैं, लेकिन इस जानकारी का कोई सूत्र नहीं दिया गया है, जो गोडसे द्वारा दिए गए बयान तथा अन्य ऐतिहासिक अभिलेखों को खंडित करता है.
करेन अपने शोधपत्र की भूमिका में लिखते हैं, “इस अध्ययन का अधिकांश भाग संघ के साथ नियमित संपर्क पर आधारित है.” जब संघ गोडसे से फासला बनाए रखने का प्रयत्न कर रहा था, उस समय संघ से बाहर रहने वाले करेन ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिसको संगठन ने कहीं भी आने-जाने और किसी से भी मिलने-जुलने की पूरी छूट दे रखी थी. इसकी एक व्याख्या यह हो सकती है कि गोडसे के कलंक से छुटकारा पाने की चाह रखने वाले संघ के मुखबिरों ने जानबूझकर, इस ‘असत्य’ को उसके शोधपत्र में ‘पैबस्त’ किया हो, जिसकी पुष्टि ही न की जा सके.
महासभा के साथ गोडसे के रिश्ते का पहली बार जिक्र 1938 के अंत में आता है. उस साल हिंदू महासभा ने दिल्ली में अपने मुख्यालय और पंजाब में अपनी जड़ें फैलाए आर्य समाज के साथ मिलकर हैदराबाद के निजाम के खिलाफ हिंदुओं की मांगों को लेकर आंदोलन छेड़ दिया था. उनकी दलील थी कि मुसलमान शासक उनकी वैधानिक स्वतंत्रता और संस्कृति को कुचल रहा है. निजाम से रियायतें पाने के लिए हिंदुत्व संगठनों द्वारा सत्याग्रह बुलाए जाने वाला यह एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध आंदोलन था जो 1939 तक चला. इस आंदोलन में शामिल अधिकांश लोग, रजवाड़े में ब्रिटिश भारत के इलाकों से जत्थों में लाए गए थे. सावरकार की शब्दावली में, हर जत्थे के नेता को “डिक्टेटर” बुलाया जाता था, जिसे उन्होंने उस समय प्रचलित यूरोपीय शब्दकोश से उठाया था. हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का, नाजीवाद और फासीवाद से एक समान आकर्षण था.इस आंदोलन में गोडसे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. “मैंने शुरुआत से ही इस आंदोलन में हिस्सा लिया,” उसने बाद में बताया. “आंदोलन में हिस्सा लेने वाले पहले आठ-दस लोगों के जत्थे का डिक्टेटर मैं ही था.” जल्द ही उसे गिरफ्तार कर एक साल के लिए हैदराबाद जेल भेज दिया गया. आंदोलन वापिस लिए जाने पर उसे अन्य सत्याग्रहियों के साथ छोड़ दिया गया.
सत्याग्रह के दौरान हैदराबादियों पर कोई असर नहीं पड़ा, जबकि बाहरी लोगों द्वारा चलाए गए इस आंदोलन के बारे में उसके नेताओं की इससे बिलकुल उलट ही सोच थी. अपने शोधपत्र, ‘भारतीय रजवाड़े में साम्प्रदायिकता : हैदराबाद के मामले का अध्ययन’ में, इतिहासकार इयान कॉपलैंड लिखते हैं कि आंदोलनकारियों को निजाम द्वारा दी जाने वाली रियायत का औपनिवेशिक शासकों के शासन में सांप्रदायिक प्रभावों का डर ज्यादा दिखाई देता था, बनिस्पत आंदोलन के.
यह मान्यता बिलकुल निराधार है कि गोडसे ने हिंदू महासभा में शामिल होने से पहले संघ छोड़ दिया था. सच तो यह है कि वह दोनों संगठनों के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी था. उसने हैदराबाद सत्याग्रह से कुछ ही समय पहले बिना तारीख का एक खत सावरकर को लिखा था. इसमें उसने सावरकर को सलाह देते हुए लिखा कि हिंदुओं को संगठित करने के आंदोलन को कैसे संघ के कंधों का सहारा लेकर मजबूत किया जा सकता है. “इसके कार्यकर्ताओं में वाकई नेता बनने की क्षमता है,” उसने लिखा. “इस समय, उनके पास नौजवानों का समर्थन है. अगर भविष्य में किसी भी तरह का काम हाथ में लिया जाना है, तो उसे डॉक्टर हेडगेवार के साथ विमर्श के साथ लिया जा सकता है, जो आपकी ही क्षमता के कद्दावर नेता हैं और दस नेताओं के बराबर का काम अकेले करने की क्षमता रखते हैं.”
गोडसे की पोशाक भी स्वयंसेवक की भांति बनी रही. खाकी निक्कर, आधी बाजू वाली सफेद कमीज, सर पर संघी काली टोपी और पाँवों में महाराष्ट्रीय सैंडल. बाद के सालों वह धोती भी पहनने लगा था, लेकिन महासभा के लिए उसने संघ की टोपी पहना कभी बंद नहीं किया.
हैदराबाद जेल में गोडसे संघ की शाखाएं और नियमित कसरत करवाता था. यहां तक कि हिंदू महासभा के सत्याग्रहियों को भी वह संघ पुराण पढ़ाता था. हैदराबाद में दूसरा जत्था ले जाने और गिरफ्तार होकर जेल जाने वाले महासभा के महासचिव, वीजी देशपांडे ने एक साक्षातकार में याद करते हुए कहा कि जेल में गोडसे ने उन्हें संघ की शपथ दिलाई थी. इस साक्षात्कार को संघ के पूर्व प्रचारक, तपन घोष द्वारा लिखित, ‘गांधी हत्या मुकदमा’ में छापा गया है.
चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा की दोहरी सदस्यता रखने में कोई मनाही नहीं थी, इसलिए गोडसे ने अपनी दोनों सदस्यताएं बनाए रखीं. सच तो यह है कि दोनों संगठन मिलजुल कर काम करते प्रतीत होते थे. 5 जुलाई 1940 को, मराठी अखबार ‘केसरी’ ने एलवी परांजपे का लेख छापा. परांजपे संघ के पाँच संस्थापकों में से एक थे और 1930 के नागरिक सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लेने के चलते जब हेडगेवार जेल गए तो उस समय उन्होंने सरसंघचालक के रूप में संघ की कमान सम्भाली थी.
“पिछले साल, 1939 में, हिंदू महासभा की कार्यकारिणी ने राष्ट्रीय नागरिक सेना बनाने का फैसला किया,” परांजपे ने लिखा. “हिंदू महासभा के नेता डॉक्टर मुंजे की सलाह पर मैंने इस विषय पर डॉक्टर हेडगेवार से बात की. मैंने उनसे सेना के प्रशिक्षण हेतु, कुछ स्वयंसेवक देने की विनती की. वे इस उद्देश्य की पूर्ति स्वरूप कुछ प्रशिक्षित स्वयंसेवकों को भेजने के लिए सहर्ष तैयार हो गए.”
परांजपे ने यह भी लिखा कि हालांकि हेडगेवार संघ को हिंदू महासभा के अंग के रूप में नहीं देखना चाहते थे, लेकिन उन्हें इस बात से भी कोई आपत्ति नहीं थी कि स्वयंसेवक साथ-साथ दोनों संगठनों में काम करें. संघ को एक स्वतंत्र संगठन बनाए रखने की उनकी इसी नीति के कारण, इसका कार्यक्षेत्र इतना विस्तार पा पाया. वे खुद भी एक लंबे समय तक हिंदू महासभा के सचिव रहते आए थे और हाल ही में उसके उपाध्यक्ष भी रहे. (उनका मानना था) स्वयंसेवकों को अपना अधिकांश समय संघ को देना चाहिए लेकिन हिंदू महासभा के लिए काम करने के इच्छुकों पर कोई प्रतिबंध नहीं है. आखिर “संघ हिंदुत्व विचारधारा और हिंदुओं के लिए हिंदुस्तान के सपने के प्रति उदासीन नहीं बना रह सकता.”
गोडसे संघ का सदस्य बना रहा इस बात की पुष्टि उस दस्तावेज से होती है जिसे गांधी हत्या के बाद नागपुर में संघ के मुख्यालय से बरामद किया गया था. इस दस्तावेज को अब दिल्ली के नेहरू स्मारक और लाइब्रेरी में देखा जा सकता है. यह दस्तावेज 1940 में बम्बई इकाई द्वारा आयोजित एक बैठक के सिलसिले में है, जिसके दो साल बाद गोडसे का महासभा में शामिल होना माना जाता है. इस दस्तावेज के पृष्ठ 8 पर बैठक में भाग लेने वाले लोगों में पूना के आयोजक एनवी गोडसे, टेलर का नाम दर्ज है (इस समय इसे आरएसएसएस के नाम से बुलाया जाता था). रिपोर्ट के अनुसार आयोजकों की बैठक 11 मई 1940 के दिन संपन्न हुई और इसमें शामिल होने वालों में तात्याराव सावरकर (सावरकर का अन्य नाम), बम्बई प्रांत के प्रांतीय आयोजक, काशीनाथ पंत लिमये, नागपुर के सरसंघचालक डॉक्टर हेडगेवार, नागपुर के माधव राव गोलवलकर, बेरार प्रांत के संघ प्रचारक बापू साहेब सोहोनी, वर्धा जिले के संघ प्रचारक अप्पा जी जोशी एवं नासिक, पूना, सतारा, रत्नागिरि, बम्बई और पूर्वी खंडेश के नाम थे. इस सूची में गोडसे का नाम ऊपर से तीसरे स्थान पर है.
गोडसे की संघ की सदस्यता के अलावा यह दस्तावेज सावरकर के नेतृत्व में संघ और हिंदू महासभा के नजदीकी संबंध को भी दर्शाता है. संघ समर्थक लेखकों का दावा है दोनों संगठनों में रिश्ते उस वक्त खराब होने शुरू हुए जब सावरकर महासभा के अध्यक्ष नियुक्त हुए. मामूली झगड़े विकराल रूप धारण करने लगे. मिसाल के तौर पर महीनों बाद जब संघ से प्रतिबंध हटाया गया तो 4 फरवरी 1950 के ‘इकोनोमिक वीकली’ में सावरकर और महासभा के संघ के साथ संबंध पर एक लेख छपा. इस लेख का शीर्षक था, ‘द आरएसएस’. लेख में विवरण दिया गया था कि कैसे हेडगेवार, सावरकर का सम्मान करते थे, लेकिन उन्हें यह कत्तई स्वीकार नहीं था कि संघ, महासभा के अधीन काम करे और कि कैसे इस वजह से आने वाले सालों में दोनों संगठनों के बीच दरार चौड़ी होती चली गई. हालाँकि, सच्चाई इससे कोसों दूर थी.
डीवी केलकर द्वारा लिखित यह लेख कहता है कि हेडगेवार संघ को महासभा की राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखने की जिद्द पर अड़े हुए थे, जिससे सावरकर बहुत बुरी तरह से चिढ़ गए. उन्होंने कहा, “संघ के स्वयंसेवक का जीवन में बस इतना ही ध्येय है कि वह पैदा होता है, संघ में शामिल होता है और अपने बिना कुछ किए धरे ही मर जाता है.”
सावरकर के इस कथन को बार-बार संघ और महासभा के बीच बिगड़ते संबंधों को दर्शाने के लिए उद्धृत किया जाता है. इसी लेख में केलकर ने स्वीकारा कि वे हेडगेवार के करीबी लोगों में थे. संघ-महासभा संबंधों तथा सावरकर के कथन के उनके सूत्र अनिश्चित हैं क्योंकि अपने दावों का वे कोई उद्धरण पेश नहीं करते हैं. फिर भी सावरकर के इस कथन और ऐतिहासिक अविष्कार को संघ समर्थक लेखकों तथा अन्य शोधकर्ताओं द्वारा बारंबार दोहराया गया है. हालांकि कुछ इतिहासकार ऐसे भी हैं जो इस झांसे में नहीं आए.
मार्जिया कासोलरी ने ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में छपे अपने जनवरी 2000 के लेख, ‘हिंदुत्वाज फॉरेन टाई-अप इन 1930’ में इस मिथक को उजागर किया है. “आम तौर पर स्वीकार्य मत के अनुसार, जिसे उग्र हिंदुत्व का भी समर्थन प्राप्त है, संघ और महासभा आपस में किसी भी समय करीब नहीं थे और सावरकर की अध्यक्षता के दौरान दोनों के संबंध पूरी तरह टूट गए,” उन्होंने लिखा. “हालांकि, कई ऐतिहासिक साक्ष्य दर्शाते हैं कि ऐसा विभाजन कभी हुआ ही नहीं, बल्कि दोनों के बीच करीबी संबंध थे.”
1940 का एक और दस्तावेज इस मिथक को पंचर करता है कि उसी साल 21 जून को हेडगेवार की मौत के उपरांत एवं गोलवलकर द्वारा संघ की कमान सम्भाले जाने के बाद दोनों संगठनों के संबंध और ज्यादा बिगड़ गए थे. संघ की गतिविधियों पर खुफिया विभाग की रिपोर्ट ने दर्ज किया कि गोलवलकर ने नवंबर 1940 में “बम्बई प्रांत में स्वयंसेवकों की एक बैठक में अखंड भारत के लिए हिंदू महासभा के नेतृत्व में अखिल भारतीय हिंदू सिद्धांत की बात की थी.” इस वक्त तक गोलवलकर को संघ की कमान सम्भाले पाँच महीने हो चुके थे.
हिंदुत्व विचारक के रूप में सावरकर 1930 और 1940 के दशक में अपरिहार्य बन चुके थे. इस दौरान उनके द्वारा दिए गए भाषण और लेखन, संघ स्वयंसेवकों के लिए एकमात्र बौद्धिक खुराक थी. 1938 से 1946 के बीच पूना में सक्रिय रहे स्वयंसेवक एसएच देशपांडे के अनुसार, “वह सावरकर पर किस तरह निर्भर थे, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस दिन पूना में उनका भाषण रद्द हो गया तो इस बारे में शहर की शाखाओं को सूचित किया गया और यह भी कि स्वयंसेवक अपने अपने घरों को वापिस लौट सकते हैं. हालांकि आधिकारिक रूप से इसका कहीं जिक्र नहीं किया गया है. किसी और मौके पर यह रियायत नहीं दी जाती थी.”
संघ कार्यकर्ताओं और सावरकर का रवैया इससे भी कम संदिग्ध है. स्वयंसेवकों में अपने प्रति सम्मान को लेकर सावरकर बहुत गौरव का अनुभव करते थे. वे बम्बई के बाहर उन्हें संबोधित करने के किसी भी मौके को हाथ से नहीं जाने देते थे. 1942 में छपी, दिसंबर 1937 से लेकर अक्टूबर 1941 तक की, सावरकर की डायरी, भाषणों, लेखों और टिप्पणियों के संकलन में कहा गया है कि संघ के कार्यकर्ताओं का संबोधन इस काल में उनकी यात्राओं के कार्यक्रमों का एक अहम हिस्सा होता था.
1940 के दशक के दौरान, अधिकांशत: संघ और महासभा के बीच खासे घनिष्ठ संबंध रहे. 30 जनवरी 1948 की घटना ने इस घनिष्ठता को छिन्न-भिन्न कर डाला. करेन ने लिखा, “प्रतिबंध हटने के बाद से, गोलवलकर ने इस धारणा को हतोत्साहित किया, जो 1947 से पूर्व तक आम थी; और कुछ हद तक आज भी जारी है. यह धारणा थी : संघ और महासभा के सदस्यों की दोहरी सदस्यता.”
हैदराबाद सत्याग्रह के वापिस लिए जाने और 1939 में गोडसे के जेल से बाहर आने के बाद उसकी पारिवारिक परेशानियाँ बढ़ गईं थीं. “वापिस लौटने पर मैंने देखा मेरे परिवार के लिए अपना निर्वाह करना भी दुश्वार हो गया था,” उसने अपने प्रश्नकर्ताओं को बताया. इसके चलते उसने कुछ समय के लिए सार्वजनिक जीवन से अवकाश ले लिया और अपने सिलाई के काम पर ध्यान देने लगा. जल्द ही वह हर महीने डेढ़ सौ रुपए घर भेजने लगा. उसका भाई दत्तात्रेय भी पूना आ चुका था. “उसने 75 रुपए की राशि से अपना इस्त्री करने का काम शुरू किया,” गोडसे ने बताया. “उसका कारोबार चल निकला और एक साल बाद उसने भी परिवार की मदद करना शुरू कर दिया.”
गोडसे एक बार फिर राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गया. “दत्तात्रेय द्वारा परिवार की मदद करने से, मुझे कुछ हद तक निजात मिल गई,” उसने याद करते हुए बताया. 1941 के आसपास तक परिवार के हालात कुछ सुधरे तो उसने अपनी राजनीतिक गतिविधियां दुबारा शुरू कर दीं. “मैं फिर से हिंदू महासभा के काम को हाथ में लेने लगा. इसके साथ-साथ मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सक्रिय बना रहा,” नवंबर में दिए गए अपने बयान से पलट जाने के बाद, मार्च 1948 के बयान में उसने कहा.
संघ उस समय कई तरह की बंदिशों के साथ काम कर रहा था. सरकार द्वितीय विश्वयुद्ध की तैयारी में लगी थी और उसने असैनिक व्यक्तियों पर सेना की ड्रिल करने पर पाबंदी लगा दी थी. इस पाबंदी ने संघ के विस्तार पर लगाम लगा दी. वर्दी और परेड के कारण संघ की तरफ बहुत से नौजवान आकर्षित होते थे. हालांकि, संघ वैसे तो प्रायः सरकार के आदेश की अवमानना नहीं करता था, लेकिन इसकी कुछ स्थानीय इकाइयों ने प्रतिबंध का उल्लंघन किया. पूना में सरकारी आदेश का पूर्णत: पालन किया गया और ड्रिल पूरी तरह से थम गईं. इस दौरान स्वयंसेवकों ने खुद को वैचारिक रूप से दृढ़ होने के काम में व्यस्त रखा.
प्रतिबंध के एक साल बाद, नए लोगों के शामिल न होने से कई सदस्यों को संघ के अस्तित्व पर खतरा मँडराता लगने लगा. उनको न केवल देश पर नियंत्रण का अपना सपना चकनाचूर होता दिख रहा था, बल्कि यह पूरा उद्यम विफलता की ओर अग्रसर नजर आ रहा था. चूंकि प्रतिबंध हटने की गुंजाइश नजर नहीं आ रही थी, इन लोगों ने संगठन की आगे की कार्यवाही पर विचार करना प्रारंभ किया. संघ की पूना इकाई में गोडसे ऐसी विचार गोष्ठियों का अहम हिस्सा हुआ करता था. “क्या संघ को अपने मूल उद्देश्य पर ही टिके रहना चाहिए या उसे राजनीति में उतर जाना चाहिए जैसे कुछ प्रश्नों पर संघ में नियमित रूप से चर्चा होती थी,” उसने अपने 1948 के बयान में कहा. “मेरा मत था कि अपने धर्म एवं हिंदू समुदाय को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से एक हिंदू राष्ट्र दल का गठन किया जाना चाहिए.”
यह साफ नहीं है कि गोडसे का यह प्रस्ताव उसके अपने दिमाग की उपज थी या यह विचार उसको हिंदू महासभा की बैठकों से आया, जिनमे वह अक्सर जाया करता था. ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदू राष्ट्र दल का विचार पहले महासभा की बैठकों से आया और इसे संघ सदस्यों में सावरकर समर्थकों के बीच खासा समर्थन मिला. खैर बात कुछ भी रही हो, नया संगठन 1942 में अस्तित्व में आ चुका था और इसे संघ और महासभा दोनों का समर्थन प्राप्त था. लेकिन खुले रूप से इस बात को कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं था. हालांकि, इसमें हिंदू महासभा और संघ के “विश्वासपात्र” लोग शामिल थे.
हिंदू राष्ट्र दल की स्थापना का एक मुख्य फायदा यह हुआ कि गोडसे की दोस्ती एक ऐसे आदमी से हो गई जो सात साल बाद उसके साथ फांसी चढ़ने वाला था. नारायण दत्तात्रेय आप्टे कभी भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सदस्य नहीं रहा और न ही वह गोडसे को जानता था. लेकिन गोडसे से मुलाकात के बाद, आप्टे उसका अंतरंग मित्र बन गया. 31-वर्षीय आप्टे, उम्र में गोडसे से एक साल छोटा था. वह अहमदनगर स्थित अमरीकन मिशन हाई स्कूल में अध्यापक के रूप में कार्यरत था और 1941 से पूना में रहकर अपना टीचर ट्रेनिंग कोर्स पूरा कर रहा था.
गोडसे की ही भांति आप्टे भी 1938 से सावरकर का फरमाबरदार मुरीद था. “जब से आप रत्नागिरि नजरबंदी से छूटे हैं, आपने उन गुटों के दिमाग में आलौकिक ज्योति जगा दी है जो यह मानते हैं कि हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है,” 28 फरवरी 1938 को आप्टे ने सावरकर को एक पत्र में लिखा. “जब से आपने हिंदू महासभा की अध्यक्षता स्वीकार की है, लोगों में विश्वास जगा है कि इस उम्मीद को हक़ीकत में बदला जा सकता है.”
यह साफ नहीं है कि आप्टे का उत्साह सच्चा था. 1938-39 के बीच आप्टे ने जो पत्र सावरकर को लिखे, वे चापलूसी और व्यक्तिगत फायदे पाने की मंशा से लिखे गए थे. वह महाराष्ट्र के अलग-अलग इलाकों में राइफल ट्रेनिंग क्लब खोलना चाहता था. एक चालाक सेल्समैन होने के नाते उसने सावरकर के साथ अच्छे व्यक्तिगत संबंध कायम कर लिए थे ताकि वे अपने मित्रों को, छात्रों को उसके क्लब में भेजने के लिए प्रोत्साहित करने तथा उसको इस काम के लिए लाईसेंस दिलवाने में मदद करें. 1939 तक वह अहमदनगर, पूना, सतारा और शोलापुर में इस तरह के क्लब खोल चुका था. इसके अलावा, उसने चालीसगांव, जलगांव और डोंबिवली में भी क्लब खोलने की शुरुआती तैयारी कर ली थी.
इस वक्त तक आप्टे हिंदू महासभा में शामिल चुका था और सावरकर का फरमाबरदार भक्त बन गया था. सावरकर के ये दोनों शिष्य, पूना में मई 1942 में गठित हिंदू राष्ट्र दल के स्थापना कैंप के मुख्य आयोजक थे. गोडसे के 1948 के बयान के मुताबिक, कुल 160 स्वयंसेवकों और समर्थकों ने इस कैंप में हिस्सेदारी की. “श्री काशीनाथ लिमये इसके प्रांत प्रमुख के रूप में कार्य करने लगे. इस दौरान लिमये संघ के महाराष्ट्र प्रांत के संघ चालक भी बने रहे, जो पद 1934 और 1965 के बीच उनके पास ही रहा.
यह दर्शाता है कि हिंदू राष्ट्र दल के गठन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सीधा हाथ था. इस दल का गठन उन गुप्त गतिविधियों के लिए किया गया था, जिन्हें संगठन खुले तौर पर नहीं कर सकता था. यह इस बात का सूचक भी था कि दल केवल हिंदू महासभा और सावरकर के भक्तों का का गुट नहीं था.
प्रतीत होता है कि संघ को हिंदू राष्ट्रीय दल से संबंध की असहजता का आभास था, लेकिन जब तक लिमये जीवित रहे उसके पास चुप रहने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था. हालाँकि, संघ द्वारा 1980 में लिमये की मृत्यु के पश्चात दो अमरीकी शोधकर्ताओं, वॉल्टर के ऐंडरसन और श्रीधर डी दामले के लिए, संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय के दरवाजे खोले जाना उतना ही सुप्रकट था जितना 1950 के दशक में करेन के लिए. जाहिर है, इस बार इसका मकसद लिमये के बारे में झूठी खबर फैलाना था. उन्होंने 1987 में प्रकाशित अपनी किताब ‘द ब्रदरहुड इन सैफरन : द राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एंड हिंदू रिवाईवलिस्म’ में बिना कोई संदर्भ दिए लिखा (कुछ किताब के मुख्य टेक्स्ट और कुछ फुटनोट्स के रूप में) कि गोलवलकर की वजह से मतभेद के कारण, लिमये ने 1943 में संघ से इस्तीफा दे दिया था और इसके चलते दो सालों तक वे संघ से दूर बने रहे और कि 1945 में, वे दोबारा संघ में शामिल हुए और अपना कार्यभार संभाला.
इस समय के अभिलेखीय दस्तावेज, गांधी हत्या से पहले लिमये और संघ के बीच किसी किस्म के मनमुटाव की प्रस्थापना को खारिज करते हैं. अपने संस्मरण, ‘संग्लीचे दिवस (1937-1945)’ में पूर्व संघ सदस्य नरहरि एन किरकिरे सांगली के शासक के साथ 1944 में हुई एक बैठक का जिक्र करते हैं. किरकिरे मानते हैं कि उनके स्वयंसेवक बनने में लिमिये का बहुत बड़ा योगदान था. अगर लिमिये संघ से 1943 से 1945 के बीच अलग रहते तो 1944 में वे संघ का नेतृत्व नहीं कर पाते.
रिकॉर्ड इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि हिंदू राष्ट्र दल की बैठकों में लिमिये और गोडसे ही संघ के एकमात्र सदस्य नहीं थे.
यहां तक कि एंडेरसन और दामले भी हिंदू राष्ट्र दल के गठन के समय, “कई स्वयंसेवकों की मौजूदगी” को स्वीकारते हैं. 1943 में अहमदनगर में आयोजित हिंदू राष्ट्र दल के द्वितीय वार्षिक कैंप के लिए संभावित भाग लेने वालों की निर्देशिका सूची में कहा गया, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत संघचालक कैंप में दो-तीन दिनों के लिए रहेंगे. इस दौरान आपको उनके अमूल्य विचारों को सुनने का अवसर प्राप्त होगा.” निर्देशिका सूची हिंदू महासभा के नेताओं गोडसे, आप्टे और जीएम नवलदे के नाम से जारी की गई थी. इनमें कम से कम दो - पी जी सहस्रबुद्धि और डीवी गोखले - पूना में संघ के प्रमुख सदस्य थे. जबकि सहस्रबुद्धि संघ की वैचारिक समिति से जुड़े हुए थे और गोखले एक प्रचारक थे.
सांगली में कार्यरत लिमये, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संघ के लिए बहुत उपयोगी थे. जब सरकार ने ब्रिटिश प्रांतों में वर्दी और ड्रिल पर पाबंदी लगा दी तो संघ हिंदू रजवाड़ों के इलाकों में अपनी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए व्यग्र होकर कोशिशें करने लगा. जून 1943 की गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट ने कहा, “अंग्रेज शासकों द्वारा अपने खिलाफ कार्रवाई को रोकने की चिंता में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदू रजवाड़ों में संगठन की ट्रेनिंग बेरोकटोक जारी रखने के मकसद से अपनी गतिविधियां तेज कर दीं.” यह प्रक्रिया, सितंबर 1944 के बाद और अधिक तेज हो गई, जब अंग्रेज सरकार ने परेडों और कैंपों पर नियंत्रण रखने के लिए अपने अधीन क्षेत्रों को अतिरिक्त शक्तियां प्रदान कर दीं. सांगली एक ऐसा ही रजवाड़ा था. 1940 में जब संघ की गतिविधियों पर सीमित प्रतिबंध लगाया गया तो लिमये के प्रयासों से पहले ही मजबूत आधार बनाया जा चुका था. यही कारण था कि सांगली और कोल्हापुर के शासकों ने गोलवलकर को 1943 में संघ अफसरों की ट्रेनिंग की इजाजत दे दी. पड़ोस के कोल्हापुर, इचालकरंजी, जाम-खण्डी, मिराज, कुरंडवाड, बुद्धगांव, औंध, फलटन, भोर और अक्कालकोट जैसे रंजवाड़ों में संघ गतिविधियों के विस्तार को सांगली से संचालित किया जाने लगा. यह काम तब तक चलता रहा जब तक सितंबर 1946 में, 1940 और 1944 के डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स के आदेशों को वापिस नहीं ले लिया गया.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में लिमिये के रुतबे को ध्यान में रखते हुए, संगठन से 1943 से 1945 के महत्वपूर्ण सालों में उनकी गैरहाजिरी, अगर यह सच है, गुप्त नहीं रह सकती थी. 1932 से सीधे हेडगेवार के निर्देश तले काम करने वाले इन्हीं लिमिये ने, आज के महाराष्ट्र में संघ की गतिविधियों को फैलाने की अगुवाई की थी. इसलिए ऐंडरसन और दामले के दावों को, करेन के दावों की तरह ही, शक की नजर से देखा जाना चाहिए.
हिंदू राष्ट्र दल के गठन ने पूना में हिंदुत्व के पैरोकारों के बीच, गोडसे का रुतबा कहीं ऊंचा कर दिया था. हिंदू महासभा में भी उसका कद ऊंचा हो गया था. महाराष्ट्र में महासभा की महत्वपूर्ण अंदरूनी बहसों को सुलझाने में उसके द्वारा निभाई गई भूमिका में भी यह रुतबा झलकता है.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब, ‘गांधी : द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड, 1914-1948 में लिखा, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति द्वारा भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित करने के बाद, जिसमें अंग्रेज शासन की तुरंत समाप्ति की मांग की गई थी, गांधी, नेहरू और अन्य कांग्रेसी नेताओं को 9 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिया गया. इस गिरफ्तारी से भारत भर में असंतोष फैल गया. बंगाल में तो विरोध इतने तीखे थे कि 14 अगस्त को हिंदू महासभा के नेता एनसी चटर्जी ने बीएस मुंजे को लिखा, “पूरे देश की जनता, गांधीजी और उनके आंदोलन के साथ है. अगर कोई इसका विरोध करता है तो सार्वजनिक जीवन में उसे बुरी तरह खदेड़ दिया जाएगा.”
31 अगस्त को हिंदू महासभा की कार्यकारिणी ने भारत की तुरंत आजादी एवं अस्थाई राष्ट्रीय सरकार बनाने की मांग रखते हुए एक प्रस्ताव पारित किया. प्रस्ताव में लिखा था, “अगर अंग्रेज सरकार भारत की राष्ट्रीय आकांक्षा के प्रति क्रूर उदासीनता की नीति बरकरार रखती है और भारत की स्वतंत्रता की मांग एवं अस्थाई राष्ट्रीय सरकार के गठन पर ध्यान नहीं देती तो हिंदू महासभा के पास अपने वर्तमान कार्यक्रम को बदलने के लिए मजबूर होने और ऐसे मुमकिन तरीकों, जिनसे ब्रिटेन और उसके सहयोगियों को यह एहसास दिलवाया जा सके कि भारत जैसे स्वाभिमानी राष्ट्र को अब और दबाकर रख पाना संभव नहीं, को अपनाने के अलावा कोई और चारा नहीं रहेगा.” कुछ दिनों बाद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जोर देकर कहा, अगर कार्रवाई के लिए मजबूर किया गया तो महासभा “सविनय अवज्ञा” और “सीधे ऐक्शन” की तरफ जाएगी.
हालांकि, शायद गोडसे संघ के साथ अपने सक्रिय संबंधों के कारण, अंग्रेज सरकार से सहयोग करने की पुरानी लाइन को छोड़ने के बंगाल इकाई के प्रयासों के सख्त खिलाफ था. महासभा की कार्यकारिणी में कुछ अन्य बम्बई आधारित सदस्यों के साथ मिलकर, उसने पार्टी को अपनी पुरानी रणनीति पर चलते रहने के लिए मजबूर किया. बजाए इसके कि अति उत्साह में आकर पार्टी “अथाह गहरे गड्ढे में कूद'' जाए. विदित रहे कि संघ, भारत छोड़ो आंदोलन को इसी नज़र से देखता था. गोलवलकर की जीवनी में बीएन भार्गव ने लिखा, “सरकार के साथ उलझने से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दूरी बनाकर रखता था क्योंकि उसे लगता था कि यह वक्त लोगों को संगठित और मजबूत करने का है न कि जेल जाकर सालों के लिए निष्क्रिय हो जाने का.” उसी साल दिल्ली में आयोजित एक बैठक में समिति ने एक और प्रस्ताव पारित किया, जिसमें गोडसे का मत झलकता था. इसने भारत छोड़ो आंदोलन के समर्थन में पारित किए गए अपने 31 अगस्त के प्रस्ताव को वापिस ले लिया.
गोडसे अब तक जबरदस्ती के भाषणों के जरिए अजीबोगरीब हमले करने वाला एक प्रतिबद्ध राजनीतिक नेता बन चुका था. “उसके द्वारा पेश किए गए तथ्य अक्सर गलत, विचार परस्पर अंतर्विरोधी एवं आक्रामक रूप से उपदेशात्मक होते और नजरिया नाटकीय होता,” 1939 से पूना में रहने वाले वरिष्ठ संघ सदस्य, 93 वर्षीय श्रीनिवास डी आचार्य ने मुझे बताया. 1940 के दशक में एक नौजवान स्वयंसेवक के बतौर, आचार्य ने गोडसे के कई भाषणों को सुन रखा था. “उसकी आवाज महीन थी और वह बोलते हुए बहुत नाटकीय ढंग से हाथ हिलाता था,” उन्होंने कहा. “सनक में अलग-अलग लहजे में एक ही राग अलापने और असंबद्ध वाक्यों को मिलाकर, वह भावनाएं भड़काने की कोशिश करता था.”
जल्द ही पूना में हिंदू राष्ट्र दल एक प्रभावशाली संगठन बन गया. 1943 के अंत तक, बम्बई, मिराज, शोलापुर, बार्शी, पंधरपुर और इंदौर में इसकी सक्रिय इकाइयां खुल चुकीं थीं. आप्टे की तरह गोडसे भी सावरकर को हिंदू राष्ट्र दल के डिक्टेटर के रूप में देखना चाहता था. सावरकर ने इंकार कर दिया, लेकिन वादा किया कि वे संगठन को अपना मार्गदर्शन प्रदान करते रहेंगे. हिंदू राष्ट्र दल का मकसद “सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिंदू राष्ट्रवाद का प्रचार करना था.”
1944 में, आप्टे के अहमदनगर से वापिस पूना लौटने पर गोडसे की उमंगे भी बढ़ने लगीं (आप्टे अपनी टीचर ट्रेनिंग खत्म करने के बाद 1942 में अहमदनगर चला गया था). अपनी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए कटिबद्ध, दोनों ने एक अखबार निकालने के लिए चंदा एकत्रित करना शुरू किया. युद्ध के दौरान अखबारी कागज की बहुत कमी हो गई थी, इसलिए अखबार निकालने में दिक्कतें थीं. चंदे में जमा रकम से, जिसका एक बड़ा हिस्सा सावरकर से आया था, उन्होंने बंद पड़े मराठी अखबार ‘अग्रणी’ को पुनर्जीवित किया.
अग्रणी का पहला अंक 25 मार्च 1944 को आया. गोडसे इसका संपादक था और आप्टे महाप्रबंधक. हालंकि, दोनों के बीच संबंध स्थापित करने के सबूत नहीं हैं, परंतु 1944 में संघ से जुड़े लोगों द्वारा दो और अखबार शुरू किए गए. सांगली में लिमये ने ‘विक्रम’ शुरू किया और नागपुर में नर-केसरी स्मारक मंडल ट्रस्ट ने ‘तरुण भारत’ की शुरुआत की. ये तीनों अखबार कांग्रेस के घोर विरोधी थे और गांधी के अहिंसा के दर्शन तथा मुसलमानों के प्रति सहिष्णुता एवं उनको बराबरी के अधिकार दिए जाने की वकालत को नापसंद करते थे.
“अखबार निकालना शुरू करने के बाद मैं और आप्टे इस काम में पूरी तरह डूब गए. हिंदू महासभा और हिंदू राष्ट्र दल के लिए समय निकालना मुश्किल हो गया था. इसलिए उस साल के अंत तक हमने हिंदू राष्ट्र दल के स्वयंसेवकों से कहा कि अखबार में अपनी व्यस्तता के कारण हम उनको समय नहीं दे पाएंगे, अत: वे अपनी-अपनी इकाइयों का संचालन स्वयं करें… हमने स्वयंसेवकों से कहा कि अखबार वित्तीय संकट में है और हम इस संकट से बाहर आने के बाद ही हिंदू राष्ट्र दल के लिए समय निकाल पाने की स्थिति में आ पाएंगे. जब हमारा ध्यान उधर से हट गया तो हिंदू राष्ट्र दल का विस्तार भी रुक गया,” गोडसे ने अपने 1948 के बयान में कहा.
अब गोडसे के एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में जीवन का ध्येय, अपने गुरुओं और उनकी विचारधारा पर आधारित हिंदू राष्ट्र स्थापित करने के मकसद पर केंद्रित हो चुका था. इस बीच उसने शायद अपने अंदर उत्कृष्ट काबीलियत होने के भाव को भी विकसित कर लिया था और वह खुद को इस झुंड का नेता मानने लगा था. गांधी को गरियाने और सांप्रदायिकता भड़काने वाले लेख अग्रणी में लगातार छपने लगे.
गोडसे ने सावरकर के सहायक के रूप में काम करना जारी रखा. जब 1945 की गर्मियों में सावरकर अपनी बेटी प्रभात के विवाह के सिलसिले में पूना आए, गोडसे उनका सबसे भरोसेमंद सहयोगी था. शहर में हिंदू महासभा की महत्वपूर्ण नेता शांताबाई गोखले ने उसे सावरकर के परिवार के इर्दगिर्द मंडराते देखा. शांतबाई, जो विवाह समारोह को सावरकर की इच्छा अनुसार सादा रखने और उनकी पत्नी यमुनाबाई की धूमधड़ाके वाली शादी की अभिलाषा के बीच संतुलन बिठाने की कोशिश कर रहीं थीं, ने सावरकर से कहा वे यह सब पांच सौ रुपए में निपटा देंगी. “तात्या ने तब नाथूराम को बुलाकर शांताबाई को पांच सौ रुपए देने के लिए कहा,” वसुधा परांजपे ने ‘एक झुंजार स्त्री’ में लिखा, “पैसे देते हुए नाथूराम से शांताबाई से पूछा कि उसे खर्च का ब्यौरा कब तक मिल जाएगा. पैसा लेने और कमरे से बाहर निकलने से पहले, उन्होंने जवाब दिया, आठ दिनों के अंदर.”
जैसे-जैसे गोडसे का आत्मविश्वास बढ़ता गया, तिलक स्मारक मंदिर में उसका आना-जाना भी बढ़ने लगा. यह मंदिर पूना के हिंदुत्व के पैरोकार नेताओं का गढ़ बन चुका था. बहसों में वह अपने अतिवादी और हिंसक मतों के लिए जाना जाता था, जिन्हें सुनकर लोग विचलित हो जाते थे. “उस अजीब नाथूराम गोडसे को मैं ज्यादा तरजीह नहीं देता था, लेकिन एक बात मुझे पता चल गई थी कि वह कहीं न कहीं तो जरूर पहुंचेगा,” आचार्य ने बताया.
अग्रणी की सरकार को खुली ललकार ने, 1946 के आसपास उसका ध्यान अपनी ओर खींचना शुरू किया, खासकर उसकी हिंसात्मक कार्रवाई की पैरोकारी ने. जल्द ही सरकार ने अखबार पर हमला बोल दिया और उससे अच्छे आचार की गारंटी के लिए भारी रकम जमा करने की मांग की. यह कहा गया कि भविष्य में अगर इसने कानून-व्यवस्था के उल्लंघन की कोशिश की तो जमा रकम जब्त कर ली जाएगी.
हिंदुत्व समर्थकों के समर्थन से अखबार जमानत राशि एकत्रित करने में सफल रहा. इसके लिए पैसा देने वालों में बिड़ला परिवार के जुगल किशोर बिड़ला भी शामिल थे. उन्होंने अक्टूबर 1946 में अग्रणी के लिए 1,000 रुपए राशि का भुगतान किया. 1947 की शुरुआत में बिड़ला परिवार हिंदू महासभा और संघ का महत्वपूर्ण हितैषी बन कर उभरा और उसने संघ के कार्यकर्ताओं के लिए बड़ी संख्या में स्टील हेल्मेट खरीदे.
अग्रणी पर प्रतिबंध लगाए जाने के कारण, गोडसे ने 1946 और 1947 के शुरुआती महीनों के बीच उस समय के बम्बई के ग्रहमंत्री मोरारजी देसाई के साथ कई चरणों में बैठकें कीं. मोरारजी देसाई ने अपने संस्मरण, ‘द स्टोरी ऑफ माई लाइफ’ में लिखा, “गोडसे का लेखन भड़काऊ लेखन से भरा पड़ा था. वह जब भी मुझसे मिलने आया मैंने उसकी गतिविधियों की भर्त्सना की. कई बार वह मुझसे मिलने अग्रणी में हिंसक और भड़काऊ लेखों के खिलाफ मेरे द्वारा पारित सुरक्षा आदेशों पर चर्चा के लिए भी आता था. मैंने उसकी जमानत राशि भी जब्त कर ली थी.”
यह दिलचस्प है कि देसाई का संस्मरण कहीं भी गोडसे को हिंदू महासभा का सदस्य नहीं कहता, बल्कि उसका जिक्र सिर्फ संघ के कार्यकर्ता के रूप में करता है. “वह पूना में राष्ट्रीय स्वयं सेवा संघ का कार्यकर्ता एवं एक अखबार का संपादक था,” उन्होंने लिखा.
धीरे-धीरे यह स्पष्ट हो गया कि भारी जुर्माने से भी गोडसे की सोच को नहीं बदला जा सकता था. हमेशा की तरह वह अपनी विचारधारा से समझौता करने के लिए तैयार नहीं था और उसने गांधी और मुसलमानों के खिलाफ अपनी नफरत की राजनीति जारी रखी. स्वतंत्रता से थोड़ा पहले सरकार ने अखबार से एक और राशि जमा करने के लिए कहा. गोडसे ने अग्रणी बंद कर दिया, लेकिन उसकी जगह ‘हिंदू राष्ट्र’ नाम से एक और अखबार शुरू किया. इस नए अखबार के संपादक और प्रबंधक पहले की तरह वह और आप्टे ही बने रहे. अपनी विषयवस्तु और तेवर में यह अखबार भी अपने पिछले अवतार की तरह ही था.
हालांकि यह स्पष्ट नहीं था कि गोडसे की पक्षधरता किस तरफ थी, परंतु उसके लेखों से उसकी खिलाफत साफ झलकती थी. हिंदू राष्ट्र में 6 सितंबर 1947 को छपे लेखे में गोडसे, पाकिस्तान के अलग-अलग इलाकों में हुए दंगों के खिलाफ हिंदुओं द्वारा उनका मूंहतोड़ जवाब देने की वकालत करता है. अगले ही दिन छपने वाले एक अन्य लेख में उसने कांग्रेसी नेताओं को “हमारे पराक्रम, साहस और पुरुषत्व पर हमला करने वाले” करार दिया और कहा कि “ऐसे नेता हमारे साहस के रास्ते में रोड़ा हैं.”
1947 में, पूरे साल भर गोडसे लगातार इस तरह के लेख लिखकर आश्वस्त रहा. लेकिन, बंटवारे से पंजाब और बंगाल में भड़की हिंसा के खिलाफ पूना के हिंदुओं को भड़का पाने में असफल रहने के बाद, वह इतना प्रभावित हुआ कि उसने स्वतंत्रता के जलसे में भी हिस्सा नहीं लिया. वह निराश रहने लगा. गोडसे के अखबार में नियमित लिखने वाले हिंदू महासभा के सदस्य एमएस दीक्षित ने अपनी किताब ‘मी मा श्री’ में लिखा, गोडसे ने एक बार उनसे पूछा 13वीं सदी के मराठी संत ज्ञानेश्वर, समय से पहले मृत्यु को क्यों प्राप्त हो गए? दीक्षित ने उससे कहा कि उन्हें नहीं पता.
“मैं बताता हूँ?” गोडसे ने कहा, “अपनी तमाम पीड़ा के साथ, ये महान संत, लोगों को कर्मयोग का पाठ पढ़ाते रहे लेकिन लोग तब भी निष्क्रिय बने रहे और एक दिन दुखी होकर उन्होंने समाधि ले ली. यह एक तरह से आत्महत्या थी. आप मानते हैं?”
“क्या यह एक विचारणीय मुद्दा है?” दीक्षित ने पूछा.
“छोड़ो फिर.”
गोडसे के निराशाजनक विचारों ने दीक्षित को हैरान किया होगा क्योंकि उन्होंने हमेशा उसे बड़े-बड़े दावे करते हुए ऊर्जा से लबरेज देखा था. यह बातचीत उस समय के गोडसे की मानसिक दशा पर प्रकाश डालती है : उसका निराशा के भवसागर में डूब जाना, खुद पर इतना अहंकार कि ज्ञानेश्वर से खुद की तुलना करना, इत्यादि.
इस बीच आप्टे ने गोडसे का परिचय पेरी मेसन की किताबों और हॉलीवुड की हिंसक और जोखिम भरी फिल्मों से करवाया. उसके अंदर इनके प्रति लगाव विकसित हो गया. वह पूना के कैपिटल थिएटर में इन फिल्मों को अक्सर देखने अकेला जाने लगा. वह वहां ‘स्कारफेस’ और ‘द चार्ज ऑफ द लाइट ब्रिगेड’ जैसी फिल्में देखता था.
1947 के अंत तक उसे अपने पत्रकारिता वाले काम से थकान महसूस होने लगी थी. अखबार में उसकी दिलचस्पी कम होने लगी. ऐसा क्यों हुआ यह तो साफ नहीं है लेकिन दिसंबर के अंत तक गोडसे आप्टे के साथ भविष्य में किए जाने वाले कामों को लेकर लंबे-लंबे विमर्श करने लगा था.
इन विमर्शों का एक निष्कर्ष यह निकला कि दोनों ने गांधी हत्या करने की ठान ली. लेकिन यह हत्या कौन करेगा यह स्पष्ट नहीं था. गोडसे अपने अंदर अब तक इस साहस को नहीं जुटा पाया था. 2 जनवरी 1948 को दोनों ने आप्टे के मित्र और डेक्कन गेस्ट हाउस नामक एक होटल चलाने वाले एवं सावरकर के अनुयाई तथा अहमदनगर में हिंदू महासभा के प्रमुख विष्णु रामकृष्ण करकरे से इस सिलसिले बातचीत की.
गेस्ट हाउस के एक कमरे में हुई इस बैठक के दौरान गोडसे ने भाषणों और अखबार में लिखते रहने की व्यर्थता और गांधी को मार डालने की जरूरत पर ज़ोर दिया. करकरे ने इस काम में पूरी मदद करने का वादा किया और इसे अंजाम देने के लिए एक पाकिस्तानी शरणार्थी की सेवाएं पेश कीं, “जो कोई भी साहसिक काम करने के लिए तैयार बैठा है.” फिर करकरे ने मदनलाल पाहवा नामक लड़के से मिलवाया.
अपने मुकदमे से पहले के बयान में गोडसे ने कहा था कि उसने हत्या इसलिए की “क्योंकि गांधी लगातार पाकिस्तान की मदद कर रहे थे.” मुकदमे के दौरान उसने एक अलग बयान दिया. उसका यह बयान कि गांधी को मारने के विचार की शुरुआत कैसे हुई के बारे में उसके दिए पहले के बयान के बिलकुल विपरीत था. उसने कहा कि यह फैसला उसने 13 जनवरी 1948 को लिया, जब गांधी ने दिल्ली में सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने के लिए अपनी अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की. उसके अनुसार गांधी का यह कदम भारत सरकार को पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने के लिए मजबूर करना था, जैसा कि बंटवारे के समय तय हुआ था और जिसे सरकार नहीं देना चाहती थी. आप्टे और करकरे ने भी गाँधी की मुसलमान और पाकिस्तान परस्ती को अपने बयान में उन्हें निशाना बनाए जाने का कारण बताया.
हालांकि, पाहवा का बयान हत्या के मकसद का एक बिलकुल अलग कारण बताता प्रतीत होता है. पाहवा के बयान के अनुसार, करकरे ने उसे “गांधी की जान लेने की गुप्त योजना” के बारे में 5 जनवरी को बताया. “उन्होंने कहा था गांधी जी ही हिंदू राष्ट्र कायम करने के रास्ते में एकमात्र रोड़ा हैं.” कारण जो भी हो, बावजूद इसके कि गोडसे को यकीनन यह लगता था वह ही हिंदुओं का मुक्तिदाता है, फिर भी वह अभी तक अपने हाथों से इस जुर्म को अंजाम देने के लिए तैयार नहीं था.
पाहवा को बलि का बकरा बनाने के लिए चुना गया. पाकिस्तान के पंजाब सूबे के मोंटेगोमेरी जिले का यह 20-वर्षीय युवा, बाकी शरणार्थियों की तरह अपनी पीड़ा से जन्मे गुस्से की आग में सुलग रहा था, जिसके लिए वह व्यक्तिगत तौर पर गांधी को जिम्मेवार मानता था. अक्टूबर 1947 में बम्बई पहुंचने के बाद दो महीनों तक वह रोजगार की तलाश में भटकता रहा. इस दौरान उसने किताबें, पटाखे और फल बेचने जैसी कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं. दिसंबर महीने में उसने अहमदनगर जाने का फैसला किया. अहमदनगर में उसके उस्ताद करकरे ने सबसे पहले उसे शहर के नजदीक विलासपुर में बसे शरणार्थियों को लामबंद करने का काम सौंपा. उसके बाद वह उससे मुसलमान फेरी वालों और दुकानदारों को परेशान करने का काम लेने लगे. वह उससे कभी उनकी बस्तियों में बम फिंकवाने तो कभी हिंदू महासभा के बर्खिलाफ नेताओं की बैठकों में खलल डालने का काम करवाने लगे.
समय का चक्र तब तेजी से घूमने लगा जब पूना के हिंदू राष्ट्र दल के दफ्तर में 9 जनवरी को गोडसे और आप्टे, करकरे की मौजूदगी में दुबारा मिले. पाहवा को अभी तक नहीं बताया गया था कि पिस्तौल का घोड़ा उसी को दबाना है. करकरे ने अपने बयान में कहा, “जब हम चाय पी रहे थे, आप्टे ने मुझे चुपके से बताया कि कुछ हथियार दिल्ली पहुंचाने होंगे और कि वह चाहता है उन्हें पहले पहल मैं देखूं. उसने यह भी कहा कि पांच-छः दिनों में गांधी को मारने का इरादा है और मुझसे पूछा कि क्या मदन लाल तैयार है. मैंने उससे कहा, वह कोई भी काम करने को सदैव तैयार है और मेरे साथ जाएगा. मदन लाल हमसे थोड़ा दूरी पर बैठा था.” आधे घंटे में आप्टे ने करकरे की मुलाकात दिगंबर रामचंद्र बादगे से तय कर दी, जो हथियारों का एक स्थानीय व्यापारी था और जिसका व्यवसाय मुख्यतः हिंदू सांप्रदायिक दलों पर निर्भर रहता था. बादगे ने इस काम के लिए हथगोले, एक रिवाल्वर और गनकॉटन की पट्टी (नाइट्रोसेल्यूलोज से बना विस्फोटक) का इंतेजाम किया.
एक सप्ताह बाद बादगे, उसके नौकर शंकर किस्तया और गोपाल गोडसे समेत, दल के सभी सदस्य दिल्ली के लिए रवाना हुए. दिल्ली तक की अपनी यात्रा को जारी रखने की बम्बई में तैयारी करते वक्त, पाहवा को मालूम था कि वे लोग “गांधी या अन्य किसी बड़े नेता की हत्या के उद्देश्य से जा रहे हैं.” लेकिन उसे यह बात अभी तक नहीं पता थी कि गोडसे और आप्टे या गुट के किसी अन्य सदस्य को नहीं, बल्कि उसे ही इस काम को अंजाम देना होगा.
बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभा के दौरान गांधी पर हमले से एक दिन पहले 19 जनवरी को करकरे ने पहले खबर दी. करकरे, गोडसे और आप्टे के साथ संयुक्त रूप से प्लान लागू कर रहे थे. दिल्ली स्थित हिंदू महासभा भवन में पाहवा करकरे के कमरे में ठहरा था. पाहवा जब सोने की कोशिश कर रहा था तो आप्टे कमरे में आया और करकरे को अपने साथ बाहर ले गया. “इससे पहले कि मुझे उस हिंदू महासभा भवन में नींद आ पाती, करकरे पांच-सात मिनट बाद कमरे में लौटे और मेरे कान में फुसफुसाया कि क्या मैं गांधी जी को मार सकता हूं,” पाहवा ने बाद में बताया. “मैंने कहा मैं हरगिज यह काम नहीं कर पाउंगा.”
जैसे ही पाहवा ने हाथ खड़े किए, गड़बड़ें होना शुरू हो गईं. अगले दिन गोडसे, आप्टे और करकरे ने स्थिति संभालने की कोशिश करना शुरू कर दिया. एक नई योजना बनाई गई और बादगे को गांधी पर गोली चलाने का काम सौंपा गया. गांधी के स्थान से काफी दूर, लगभग प्रार्थना सभा के मैदान से बाहर, पाहवा को गनकॉटन पट्टी को सुलगाने का काम सौंपा गया. इस विस्फोट को करने की मंशा किसी को घायल करना नहीं बल्कि मौजूद लोगों का ध्यान भटकाना था. इसके बाद गुट के अन्य लोगों को हथगोले फेंकने थे. इससे मची भगदड़ में, बादगे को गांधी पर गोली चलानी थी.
गांधी की प्रार्थना सभा 20 जनवरी की दोपहर को बिड़ला हाउस के प्रांगण में शुरू हुई. प्रार्थना सभा से थोड़ी दूर पर पाहवा ने निर्देशानुसार विस्फोट कर डाला. विस्फोट करने के बाद उसने उस कार को तलाशा जिसमें उसे, आप्टे और बादगे को गोडसे के साथ भागना था, लेकिन कार नदारद थी. पाहवा को विस्फोट करते हुए देखने वाली महिला ने उसकी तरफ इशारा करते हुए चिल्ला कर कहा कि उसी ने विस्फोट किया है और पुलिस ने उसको तुरंत धर दबोचा. “मुझे लगा मेरे साथ धोखा हुआ है,” पाहवा ने बाद में बताया.
शाम ढलने पर, गोडसे और आप्टे रात की ट्रेन पकड़कर कानपुर चले आए. अगला पूरा दिन उन्होंने वहीं रेलवे स्टेशन पर गुजारा और अगले दिन बम्बई जाने वाली ट्रेन में बैठ गए. बम्बई पहुंचने के बाद 23 जनवरी तक वे भूमिगत बने रहे. इस दौरान गोपाल और करकरे ही उनसे संपर्क कर सकते थे. उन्होंने एक नया प्लान रचा.
उन्होंने एक नया फैसला लिया : गांधी को गोली मारने के लिए उन्हें “तीसरे आदमी” की तलाश बंद करनी होगी. “गांधी को मारना हमें जरूरी लगा,” गोडसे ने अपने मार्च 1948 के बयान में कहा. “तीसरे आदमी की तलाश छोड़कर मैंने खुद गांधी के सामने जाकर उनके सीने में गोलियां दागने का निर्णय लिया. हमने यह भी फैसला किया कि आप्टे और करकरे सिर्फ मुझे ढाढस बंधाने के लिए साथ आएंगे.”
यह रहस्य ही बना रहा कि गोडसे कब से खुद अपने हाथों से गांधी के कत्ल का खयाल अपने मन में पाल रहा था. अपनी किताब, ‘ऐट द एज ऑफ साईकोलोजी : एसेज इन पोलिटिक्स एंड कल्चर’ में समाजविज्ञानी आशीष नंदी ने तर्क दिया कि गोडसे ने गांधी हत्या को अपनी मर्दानगी वापिस पाने के रूप में देखा, जिस मर्दानगी के बारे में वह बचपन से ही अनिश्चित था. संभवत: हत्या का पहला प्रयास विफल होने से पूर्व भी उसने इस पर विचार किया हो. जबकि गोडसे की इस कुत्सित हरकत और उसके सार्वजनिक बयानों पर अटकलों की कई व्याख्याएं हो सकती हैं, लेकिन उसने स्वयं से सिर्फ अपने इस कृत्य के लिए राजनीतिक लफ्फाजियों वाली सफाइयां ही पेश की हैं.
गोडसे का इस विषय पर हृदय परिवर्तन, हत्या के विफल प्रयास के बाद कानपुर रेलवे स्टेशन पर उसके द्वारा बिताए गए दिन के अनुभव से प्रभावित हुआ लगता है. “उस रोज हमने गांधी की हत्या के विफल प्रयास से कई लोगों को निराशा जाहिर करते हुए सुना,” गोडसे ने अपने प्रश्नकर्ताओं को बताया. “वे पाकिस्तान में, हिंदुओं के कत्लेआम के लिए गांधी को जिम्मेवार मान रहे थे और बम धमाके में गांधी की मौत की कामना कर रहे थे. लोगों की इस प्रतिक्रिया ने मुझे यकीन दिलाया कि हम सही रास्ते पर थे.”
हालांकि, यह खुदकुशी के मिशन पर जाने जैसा था, लेकिन गोडसे को लगा उसे जनता की वाहवाही मिलेगी, खासकर हिंदुओं और सिखों से. उसने खतरा मोल लेने का फैसला किया.
आप्टे के साथ गोडसे हवाई जहाज से 27 जनवरी को दिल्ली आया और रात की ट्रेन पकड़कर ग्वालियर चला गया, जहां उसने हिंदू महासभा के अपने पुराने विश्वासपात्र मित्र, दत्तात्रेय सदाशिव परचूरे की मदद से एक भरोसेमंद पिस्तौल का इंतेजाम किया. 29 जनवरी को दोनों दिल्ली लौटे. अगले दिन करीब पाँच बजे बिड़ला हाउस के मैदान में गांधी एक प्रार्थना सभा को संबोधित कर रहे थे. जैसे ही वे मंच की तरफ बढ़े, गोडसे उनके सामने आ गया और उनके सीने में तीन गोलियां दाग दीं.
हत्या ने लोगों की राय बदल कर रख दी, लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह गोडसे ने अपेक्षा की थी. गोडसे की जयजयकार होने की बजाय, गांधी पहले से भी बड़ी शख्सियत बन गए. शुरुआती सदमे के बाद, जनता और सरकार की तरफ से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के खिलाफ बड़ी और हिंसक कार्यवाहियां की गईं.
जब कुछ महीने बाद लाल किला में मुकदमा शुरू हुआ, गोडसे को एक और बड़ा झटका मिला. इस घटना का लाल किले मुकदमे और बाद में शिमला हाई कोर्ट में परचूरे की वकालत करने वाले, पीएल इनामदार ने विस्तार से वर्णन किया है. मुकदमा शुरू होने के बाद, इनामदार और गोडसे परस्पर करीब आ गए. इनामदार ने अपने संस्मरण में लिखा कि पूरे मुकदमे के दौरान उन्होंने कभी भी सावरकर को गोडसे से बात करना तो दूर, उसकी तरफ देखते हुए भी नहीं देखा. जबकि कोर्ट में वे दोनों अगल-बगल में ही बैठते थे. “मुझे लगा उन्होंने (सावरकर), इस हत्या में अपने बचाव की ठान ली थी, इसलिए वे नाथूराम या अन्य किसी आरोपी के साथ किसी किस्म का संबंध होने का आभास नहीं देना चाहते थे.” उन्होंने आगे कहा :
“मुझसे मुलाकातों में नाथूराम ने मुझे बताया कि तात्याराव ने पहले कोर्ट और बाद में लाल किला जेल के अंदर पूरे मुकदमे के दौरान जिस तरह उससे बेगानों सा व्यवहार किया उससे वह बहुत आहत महसूस कर रहा था. नाथूराम जेल में तात्याराव के स्पर्श, उनकी सहानुभूति और अनुकंपा के लिए तरसता था! नाथूराम ने अपने इस दुःख का इजहार मुझसे आखिरी बार शिमला हाई कोर्ट में किया था!”
कोई नहीं जान पाया कि 15 नवंबर 1949 को जब गोडसे को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया तो सावरकर, जिनका वह सच्चा अनुयाई था या संघ जिसका वह स्वयंसेवक था, ने उसके ‘बलिदान’ का शोक मनाया या नहीं.
अनुवाद : राजेंद्र सिंह नेगी