मार्च 2017 में 51 राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालयों के सैकड़ों शिक्षाविद और कुलपति दिल्ली विश्वविद्यालय में दो दिनों तक यह जानने के लिए एकत्र हुए कि शिक्षा जगत में “वास्तविक राष्ट्रवादी विवरण” कैसे लाया जाए. बंद दरवाजे के इस कार्यक्रम को “ज्ञान संगम” का नाम दिया गया. इसके मुख्य वक्ताओं में से एक थे भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक अभिभावक, राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के सर्वोच्च नेता सरसंघचालक मोहन भागवत. कथित रूप से चर्चा के विषय थे “शैक्षिक प्रणाली पर सांस्कृतिक हमले” बुद्धिजीवियों का “उपनिवेशीकरण” और शिक्षा जगत में राष्ट्रवाद का पुनरुत्थान.
इसकी वेबसाइट के अनुसार ज्ञान संगम “2016 में शुरू किया गया सकारात्मक राष्ट्रवादी शिक्षाविदों के लिए मंच बनाने की पहल है”. इसकी साइट विवेकानंद को उद्धृत करते हुए कहती है “सभी विज्ञानों की उत्पत्ति भारत में हुई”. ये कार्यशालाएं आरएसएस से जुड़े प्रज्ञा प्रवाह द्वारा आयोजित की गई हैं जो 25 साल पहले आरंभ की गई संघ की एक विशिष्ट परियोजना है. संगठन कहता है कि इसकी दृष्टि एक ऐसी “तर्कसंगत छतरी है जो लोगों को भारत की अंतर्निहित शक्ति को उस शैक्षिक शक्ति के साथ पहचानने के लिए प्रोत्साहित, प्रशिक्षित और समन्वित करती है जो भारतीय मस्तिष्क को यूरोप केंद्रित औपनिवेशिक प्रभाव को छोड़ने के लिए निर्दिष्ट करती है. ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी इच्छा भारत को बदलने तक सीमित नहीं है. “आत्मसाती और आत्म निर्वाहक होने के कारण हिंदुत्व में पश्चिम की तानाशाही नीतियों के माध्यम से एकत्रित शक्ति के अहंकार से दुनिया को मुक्त कराने की ताकत है.
जिस स्तर पर प्रज्ञा प्रवाह इस आयोजन को करने में सक्षम थी वह बताता है कि मोदी शासन के अंतर्गत कितनी बड़ी ताकत संगठन ने हासिल की है. उसी साल संघ में एक महत्वपूर्ण चेहरा और अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख जे नंदकुमार को प्रज्ञा प्रवाह का राष्ट्रीय संयोजक नियुक्त किया गया था. इसे अक्सर ‘आरएसएस की बौद्धिक शाखा’ कहा जाता है. इस संगठन का मकसद वामपंथ के सांस्कृतिक वर्चस्व से मुकाबला करना है चाहे वह जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में हो या पश्चिम बंगाल या केरल जैस राज्यों में.
ज्ञान संगम कार्यक्रम से एक महीना पहले “विरोध की संस्कृतियां: असहमति के प्रतिनिधित्व की खोज करता एक सम्मेलन” विषय पर रामजस कालेज द्वारा एक सम्मेल आयोजित किया गया था. आरएसएस की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों ने हिंसक तरीके से इसको बाधित किया था. एबीवीपी ने सेमिनार के आमंत्रित वक्ताओं में उमर खालिद को शामिल किए जाने पर आपत्ति की थी. उस समय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से डॉक्टोरेट कर रहे खालिद उन छात्रों में एक थे जो 2016 में जेएनयू में आए तूफान के केंद्र में थे. छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार व अन्य के साथ उन्हें देशद्रोह के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था. इन घटनाओं ने छात्रों पर कानूनी कार्यवाही और “जेएनयू राष्ट्र विरोधियों का अड्डा है” जैसे विचार पर केंद्रित प्राइम टाइम चर्चा को प्रोत्साहित किया था.
इस प्रचार ने बीजेपी की मदद की है. इसने मुख्यधारा में राष्ट्रवाद पर चर्चा के लिए एक निर्णायक मोड़ चिन्हित कर दिया. किसी भी प्रकार की असहमति या आरएसएस, बीजेपी या नरेन्द्र मोदी के नजरिए पर सवाल करने को अब राष्ट्रीय अखंडता को खतरे के दायरे में रखा जाता है. नतीजे के तौर पर राष्ट्र के विचार को एक राजनीतिक पार्टी या एक व्यक्ति की विचारधारा से जोड़ दिया गया है और इसके परिणाम भारत के शीर्ष विश्वविद्यालयों में महसूस किए जा रहे हैं.
पचपन साल पहले जेएनयू के विचार ने संसद में गर्मागरम बहस के बीच औपचारिक आकार लिया था. शिक्षा मंत्री एमसी छागला ने राज्य सभा में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय विधेयक पेश किया था. उन्होंने ऐसे शिक्षण संस्थान को कायम करने के लिए मजबूत तर्क दिए जो नेहरू की विरासत का साक्षी बने. मूलरूप से इसकी कल्पना दूसरे विश्वविद्यालय के रूप में की गई थी जो अत्याधिक बोझ से दबे दिल्ली विश्वविद्यालय को राहत देगा, लेकिन जल्द ही यह बहुत महत्वकांक्षी परियोजना बन गई.
नेहरू के नाम पर इसका नाम रखे जाने से सांसदों में कुछ लोग खुश नहीं थे, उनकी बहस इस बात पर थी कि राज्य का किरदार क्या होना चाहिए, किस तरह के शैक्षिक आदर्शों को इसे प्रोत्साहित करना चाहिए और नवीन स्वतंत्र और विकासशील देश की मांगों को इसे किस तरह पूरा करना चाहिए. यह तय किया गया कि विश्वविद्यालय ‘भारत की मिश्र संस्कृति को प्रोत्साहित करेगा’, “वैज्ञानिक चेतना” पैदा करेगा और “राष्ट्रीय अखंडता, सामाजिक न्याय, धर्मनिर्पेक्षता” के आदर्शों को बढ़ावा देगा.
जेएनयू का उद्घाटन 1969 में किया गया. प्रमुख शिक्षाविद और राजनयिक जी पार्थसारथी इसके पहले उप कुलपति बने. समय बीतने के साथ कैंपस प्रगतिशील छात्र राजनीति की संस्कृति और आलोचनात्मक विचारों के लिए प्रसिद्ध हो गया. वर्तमान उप कुलपति जगदीश कुमार ने विश्वविद्यालय के नियमों में निहित लम्बे समय से चली आ रही प्रथाओं का उल्लंघन किया है. उनकी नियुक्ति के पहले ही साल स्पष्ट हो गया था कि कुमार कैंपस में असहमति की ऐतिहासिक परंपरा और छात्रों की सार्वजनिक व्यस्तता से केवल असहज ही नहीं थे बल्कि उनकी पैंतरेबाजी किसी बड़े षडयंत्र का हिस्सा थी. वह विश्वविद्यालय के स्वभाव को ही बदल देना चाहते थे जिसमें नए प्रोफेसरों की भर्ती प्रक्रिया भी शामिल थी.
दिल्ली आईआईटी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग किए हुए प्रोफेसर कुमार ने देशद्रोह विवाद से एक महीना पहले जनवरी 2016 में कार्यभार संभाला था. उनकी नियुक्ति के समय इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि कुमार “स्वदेशी विज्ञान आनदोलन से जुड़ी हुई आरएसएस की एक शाखा विज्ञान भारती के वरिष्ठ पदाधिकारी थे”. कुमार ने किसी औपचारिक जुड़ाव से इनकार किया था लेकिन कहा था कि उन्होंने विज्ञान भारती द्वारा आयोजित एक समारोह में भाग लिया था क्योंकि वह विज्ञान से सम्बंधित था. लेकिन परिसर में उन्होंने जो कुछ भी किया वह केवल आरएसएस के विश्व दृष्टिकोण का पोषण करने वाला है खासकर नए संकाय के बीच जिनकी भरती में वे सहायक रहे थे.
2014 में मोदी के सत्ता संभालने के बाद जिस तरह से आरएसएस की विचारधारा को जगह देने की नीयत से भारत के शिक्षण संस्थानों को विघटित करने के कई उपाय किए गए हैं यह उसका बेहतरीन उदाहरण है. रोमिला थापर जैसे प्रमुख इतिहासकारों का तर्क था कि संघ हिंदू अतीत के गौरवशाली दृष्टिकोण के साथ संशोधनवादी इतिहास को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है. आरएसएस से सम्बद्ध शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के अध्यक्ष दीनानाथ बतरा ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एंव प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) को इसकी पाठ्य पुस्तकों के उद्धरण भेजे थे जिसे वह चाहते थे कि (पाठ्यक्रम से) निकाल दिया जाए. अन्य चीजों के अलावा इसमें उर्दू और अंग्रेजी के कई शब्द, रविन्द्रनाथ टैगोर के विचार, मुगल शासकों के सकारात्मक संदर्भ और बीजेपी और हिंदुत्व के उत्थान को रामजन्म भूमि आन्दोलन से जोड़ने वाला एक वाक्यखंड शामिल थे. इस साल मार्च में एनसीईआरटी ने अपनी 9वीं कक्षा की किताब से तीन अध्याय निकाल दिए. जेएनयू में वैचारिक अधीनीकरण के प्रयासों के दर्शनीय संकेत मौजूद हैं: छात्रों और अध्यापकों द्वारा यह पूछे जाने के बाद भी कि इसके लिए फंड कहां से आया विवेकानंद की प्रतिमा उदघाटन के लिए बिल्कुल तैयार है.
इसी बीच, अल्पसंख्यकों के बहिष्कार पर आधारित आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दृष्टि जैसी इसकी विचारधारा के काले आधार को सार्वजनिक उपभोग के लिए सहज बना दिया गया है. पिछले कुछ वर्षों में इसके सदस्यों ने कठोर बयान बहुत कम दिए हैं. यहां तक कि संघ ने अलग राजनीतिक निर्देशन के साथ कांग्रेस और अन्य पार्टियों तक पहुंचने का प्रयास किया है. हालांकि हिंदुत्व को जीवंत रखने वाले मूल विचार में कोई बदलाव नहीं आया है. केवल इसकी प्रतिक्रिया बदल गई है. आरएसएस प्रमुख द्वारा हाल ही में राष्ट्रीय मंचों पर दिए गए भाषण इस बदलाव का चरमबिंदु हैं. उल्लेखनीय बदलाव के एहसास का दावा कर रहे टिप्पणीकार जल्दबाजी में एक दूसरे पर गिरे जा रहे थे. यह नए पैकेट में पुराने उत्पाद का एक सफल प्रचार अभियान था.
आरएसएस के लिए विश्वविद्यालय असहमति और वाम–उदारवादी विचार के सांकेतिक केंद्र है, यह पूरे देश में सामाजिक विज्ञान में नए प्रध्यापक भर्ती को सुविधाजनक बनाते हैं जो बाद में इसकी विश्वदृष्टि के अनैतिक विचारों की पहुंच को आगे बढ़ाने में सहायता करते हैं. संघ के प्रति सहानुभूति रखने वाले संदिग्घ योग्यता के लोगों की नियुक्ति इसका मुकाबला करने की एक रणनीति है. सुदर्शन राव के लिए भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद और गजेंद्र चौहान के लिए भारत के फिल्म और टेलीवीज़न संस्थान को इसी नजरिए से देखा जा सकता है. जेएनयू में भी उप कुलपति के पद पर कुमार की नियुक्ति संकेत करती है कि नई भर्तियां साफ तौर पर वैचारिक सम्बंध के आधार पर की जा रही हैं.
यह नवनियुक्त शिक्षाविद पहले ही उड़ान भरने में सबसे आगे हैं, लेकिन साफतौर पर जाहिर होता है कि यह सामाजिक विज्ञानों में समानांतर शैक्षिक ढांचा बनाने का प्रयास है. यह ढांचा विज्ञान से लेकर इतिहास और दर्शन तक सभी विषयों में “राष्ट्रवादी नजरिए” को स्थापित करना चाहता है. परियोजना न केवल यह सुनिश्चित करने की स्पष्ट मंशा रखती है कि आरएसएस की विचारधारा को परिभाषित करने वालों को शैक्षिक सम्मान दिया जाएगा बल्कि यह इस विचारधारा के आधार पर एक विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम स्थापित करना चाहता है जो जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों से निकलने वाले शोध छात्रों की आरंभिक शिक्षा की बुनियाद हो.
यह सुनिश्चित करना है कि आरएसएस के विचारों ने भारतीय बौद्धिक जीवन को आकार देने वाले संस्थानों पर अपनी पकड़ बढ़ाना शुरू कर दिया है और प्रक्रिया जारी है. शिक्षा जगत में संघ की विचारधारा के अधिपत्य को स्थापित करना स्पष्ट रूप से अंतिम उद्देश्य है लेकिन इसे अभी पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया गया है. यह ऐसी विचारधारा नहीं जो सत्ता के साथ नियंत्रित की गई है, न ही आरएसएस की स्थापना के बाद से इसमें आवश्यक रूप से कोई परिवर्तन किया गया है. यह बहिष्कारवादी रहा है जिसमें भारत के बहुत से अल्पसंख्यकों के लिए कोई स्थान नहीं है.
आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने 18 सितंबर 2018 को दिल्ली में अपने भाषण के आरंभ में कहा “इस सामाजिक सम्मेलन का आयोजन संघ के प्रति समझ को बढ़ावा देने के लिए किया गया है क्योंकि संघ अब देश में एक शक्ति के रूप में मौजूद है. कार्यक्रम भारत सरकार द्वारा आयोजित किए जाने वाले सम्मेलनों के लिए सुरक्षित स्थान विज्ञान भवन में किया गया था. निजी निकायों या गैर मुनाफे वाले संगठनों को आवंटन के लिए दिशानिर्देशों के अनुसार जगह के प्रयोग की अनुमति मिल सकती है शर्त यह है कि राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री समारोह में भाग लें. फिर भी प्रभारी केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने भागवत को राष्ट्रीय मंच उपलब्ध कराने के लिए अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग किया. उन्होंने इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया कि जब दिल्ली में दूसरे स्थानों की कोई कमी नहीं थी तो ऐसा क्यों किया गया.
“भारत का भविष्य: आरएसएस का दृष्टिकोण” विषय वाले तीन दिवसीय व्याख्यान श्रंखला के इस भाग के भाषण का जीवंत प्रसारण किया गया. इसकी प्रतीकात्मकता को भूल जाना मुशिकल है. हमने इस स्थान से केवल उन्हीं अवसरों पर जीवन्त प्रसारण देखा है जब सरकार के वरिष्ठतम नेताओं या विदेशी गणमान्य व्यक्तियों में कोई बोलता है. भागवत आसानी से उसी मंच को ग्रहण किए हुए थे और भारत के दृष्टिकोण को रेखांकित कर रहे थे. चार साल पहले जब 24 अक्तूबर 2014 को नागपुर में भागवत के दशहरा भाषण को दूर दर्शन पर जीवन्त प्रसारित किया गया था तो उसके नतीजे में राष्ट्रीय स्तर पर हंगामा हुआ था. प्रत्येक विपक्षी पार्टी ने इसके विरोध में बयान दिया था और राष्ट्रीय प्रसारक को इस आधार पर अपने फैसले का बचाव करना पड़ा था कि भाषण एक “समाचार कार्यक्रम” था. ठीक वैसा ही जैसा इस संगठन के साथ हुआ था, इस परिवर्तन को क्रमशः व्यवस्थित किया गया ताकि एक चीज जो कभी अस्वीकार्य थी आज सामान्य लगने लगे.
घंटा भर लम्बा भाषण विवरणों से भरा था. हालांकि अखबारों ने केवल उसी हिस्से को खबार बनाया जिसके बारे में वह सोचते थे कि उससे खबर बनेगी. मिसाल के लिए, इंडियन एक्सप्रेस ने एक खबर चलाई कि भागवत ने इस अवसर को बीजेपी की कांग्रेस–मुक्त भारत की स्थिति का खंडन करने के लिए चुना. ऐसी रिपोर्टिंग का तात्पर्य यह था कि भाषण के आंतरिक सामंजस्य और इसके मकसद को वास्तव में मीडिया द्वारा (पाठकों तक) नहीं पहुंचाया गया.
मोहन भागवत ने 1857 के युद्ध के बाद देश के जीवन में चार मुख्य धाराओं को रेखांकित किया. पहली धारा सशस्त्र संघर्ष की थी जिसने सुभाष चंद्र बोस जैसे लोगों को प्रभावित किया. दूसरी, लोगों में राजनीतिक जागरूकता लाने की कोशिश थी. कांग्रेस के नेतृत्व में इस धारा से आजादी का मूल उद्देश्य हासिल हुआ लेकिन उसके बाद यह विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बीच संघर्ष में विघटित हो गई. तीसरी धारा का उद्देश्य गांधीवादी आन्दोलन या सभ्य समाज की सक्रियता के रास्ते समाज में सुधार लाना था. यह ऐसा छोटा द्वीप बनाते हुए खत्म हो गया जो एक अपरिवर्तित बड़े समाज में जलमग्न रहा. चौथा, जिसके लिए उन्होंने आर्य समाज और विवेकानंद का उदाहरण पेश किया जो मौलिकता की ओर लौटना चाहता था.
भागवत के अनुसार आरएसएस की अवधारणा इन विभिन्न धाराओं से केबी हेडगेवार का सामना होने के नतीजे में बनी थी. उनका दावा था कि देश के हर गांव में फैले लोगों को कैडर बनाने के लिए आरएसएस एक प्रणाली है जो उन मूल हिंदू मूल्यों को आत्मसात कर चुकी होगी जिसकी तरफ चौथी धारा लौटना चाहती थी. उन्होंने आगे कहा कि ऐसा करने के बाद समाज सुधार की आवश्यकता नहीं होगी जैसा कि तीसरी धारा चाहती थी क्योंकि यह कैडर मुख्य केंद्र बन जाएगा जिसके चारों ओर समाज स्वंय मजबूत और एकजुट हो जाएगा. भागवत का दावा था “हम हिंदू समुदाय को संगठित करेंगे. उन्होंने यह घोषण इसलिए नहीं की कि वह किसी का विरोध करना चाहते थे बल्कि वह लोगों को एकजुट करना चाहते थे”.
कुल मिलाकर इस भाषण का प्रभाव आरएसएस को नेक इरादों वाला एक सौम्य आन्दोलन बनाकर पेश करना था जिसने स्वतंत्रता के आन्दोलन से लेकर धार्मिक सुधार तक पूर्ववर्ती चीजों को गले लगाया और ग्रहण किया. भागवत ने लगभग वही कहा जिसका उन्होंने अपने भाषण के आरंभ में वादा किया था. उनके भाषण ने संघ के बारे में समझदारी नहीं प्रदान की लेकिन एक दृष्टि दी कि इस समय उसे कैसे देखा जाना चाहिए.
लेकिन आरएसएस के निर्माण के पीछे का उद्देश्य ठीक वही था जिसे भागवत ने अपने दावे में नकारने का प्रयास किया था. हेडगेवार का निर्णय मुसलमानों के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत पर आधारित था. हेडगेवार के अनुसार: युगांतकारी, बीवी देश पांडेय और एसआर रामास्वामी द्वारा लिखित और संघ के प्रमुख विचारक एचवी सेशादरी द्वारा संपादित जीवनी जो आरएसएस की वेबसाइट पर मौजूद है, आरएसएस की स्थापना की कोशिशों के दौरान हेडगेवार ने मुसलमानों की भर्त्सना करते हुए कहा था कि भारतीय मुसलमानों ने अपने आपको स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान “पहले मुस्लिम और बाद मे भारतीय” साबित किया था.
देश पांडेय और रामास्वामी लिखते हैं “हिंदू–मुस्लिम भाई-भाई की चीखें गूंजती रहीं, वास्तविकता में इसकी संभावना अधिक से अधिक दूर होती जा रही थी. डाक्टर जी कुछ बुनियादी सवालों के जवाब ढूंढने में तल्लीन हो गए: हमारी मित्र भावना के इन वर्षों में क्या मुसलमानों ने हमारी किसी सदभावना का सकारात्मक जवाब दिया? क्या उनमें हिंदू समाज के प्रति कोई गर्मजोशी पैदा हुई? क्या उन्होंने सहिष्णुता की हिंदू परंपरा “जियो और जीने दो” का आदान-प्रदान किया? क्या भारत माता को श्रद्धांजलि देने के लिए हमारे साथ शामिल होने की जरा भी इच्छा प्रदर्शित की? आरएसएस के एक अन्य वफादार सीपी भिशिकर द्वारा लिखित जीवनी में कहा गया कि हेडगेवार मुसलमानों को “यवन सांप” कहते थे. यह यूनानियों के लिए प्रयुक्त हिंदी शब्द है जो सामान्यतः सभी विदेशियों पर लागू होता है, उनका तर्क था कि वे (मुसलमान) “राष्ट्र विरोधी” थे.
भागवत के पूरे भाषण से ऐसे असुविधाजनक अंश निकाल दिए गए और यह सुनिश्चित करने के लिए सच्चाई को या तो बदल दिया गया या छोड़ दिया गया कि विज्ञान भवन से व्यक्त किए गए आरएसएस के सार्वजनिक दृष्टिकोण प्रमाणिक तथ्यों से कहीं अधिक सौम्य होंगे. आरएसएस के इतिहास के बारे में आम जनता की अज्ञान्ता क्षम्य है लेकिन जिस मीडिया ने इसे कवर किया उसके लिए कोई बहाना नहीं हो सकता. जिस चीज को भागवत गोलमोल करने में लगे हुए थे उसको दिखाने के बजाए उन्होंने आरएसएस के इतिहास की भागवत कथा की रिपोर्ट करने का चयन किया. इंडियन एक्सप्रेस “अगर मुसलमान अवांछित हैं तो वह हिंदुत्व नहीं है” शीर्षक के साथ उस दिन अग्रणी रहा.
दूसरी बात जिस पर मीडिया का ध्यान गया वह थी कि आरएसएस के अत्यंत प्रभावी चेहरा और मुसलमानों के बारे अपनी वाक्पटुता के कारण विवाद के बड़े स्रोत दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर के भाषणों का मुश्किल से ही कोई संदर्भ दिया गया. समाचार पत्रों में भागवत के इस दावे की उत्साही खबरें छपीं कि आरएसएस ने गोलवलकर के विचारों के अधिक भड़काऊ भाग से दूरी बना ली थी.
हालांकि भागवत ने गोलवलकर के विचारों को निकाल फेंकने का कोई दावा नहीं किया. जो कुछ उन्होंने कहा बस इतना था कि गोलवलकर की किताब बंच ऑफ थाट्स “एक खास संदर्भ में दिए गए भाषणों का संग्रह है और हमेशा के लिए मान्य नहीं हो सकती”. एक खबर में भागवत को कहते हुए उद्धृत किया गया “संघ बंच ऑफ थाट्स के केवल उन भागों को मान्यता देता है जो वर्तमान परिस्थितियों में प्रासंगिक हैं और एक घरेलू प्रकाशन में उसे ‘गुरुजी: वीजन एंड मिशन’ में एकत्र कर दिया गया है”. इस किताब का एक सामान्य परीक्षण आरएसएस के विश्व दृष्टिकोण में बदलाव के सवाल को आसानी से सुलझा देता. हालांकि किसी समकालीन या बाद की समाचार रिपोर्ट ने उक्त किताब को परीक्षित करने की तकलीफ नहीं उठाई.
यह बात खास तौर से परेशान करने वाली है क्योंकि भागवत ने साफ कर दिया था कि गुरुजी: वीजन एंड मिशन आरएसएस में मुसलमानों के प्रति प्रचलित वर्तमान दृष्टिकोण को निर्धारित करती है. वास्तव में उन्होंने उस समय किताब का बारीकी से प्रयोग किया. जब उनसे पूछा गया कि उनका वक्तव्य कि संघ मुसलमानों को “अवांछित” के रूप में नहीं देखता और बंच ऑफ थाट्स में दर्ज गोलवलकर के दृष्टिकोण में विरोधाभास है जिसमें स्पष्ट किया गया है कि ईसाइयों और वामपंथियों साथ ही यह समुदाय भी आंतरिक दुश्मन हैं.
गुरुजी में एक अध्यायय जिसका शीर्षक “हिंदू– मातृभूमि के सपूत” शिक्षाप्रद है:
दरअसल ‘भारती’ का पर्याय शब्द है ‘हिंदू’ लेकिन आज भारतीय के प्रयोग में बहुत अधिक भ्रम है. इस शब्द का प्रयोग अब ‘इंडियन’ के पर्याय के रूप में किया जाता है जिसके नतीजे में मुसलमान, ईसाई और पारसी जैसे अन्य समूह इस शब्दावली में शामिल हो जाते हैं. इसलिए जब हम केवल इस खास समुदाय के बारे में बात करना चाहते हैं तो यह शब्द ‘भारतीय’ हमें भ्रमित करता है. केवल शब्द ‘हिंदू’ उस भावना और अर्थ को व्यक्त कर सकता है, जिसे हम वास्तव में और पूर्ण रूप से व्यक्त करना चाहते हैं.
इस दावे के अभिप्राय से किसी को गुमराह नहीं होना चाहिए. हमारी “पहचान और राष्ट्रीयता” के शीर्षक से अलग अध्याय के अंत में गोलवलकर लिखते हैं “महान राष्ट्र के रूप में विकसित होने के लिए आवश्यक सभी तत्व हिंदू समाज में सम्पूर्णता के साथ मौजूद हैं. इसीलिए हम कहते हैं कि इस भारत राष्ट्र में हिंदू समाज के जीवंत सिद्धान्त इस राष्ट्र की जीवन प्रणाली हैं. संक्षिप्त में, ‘यह हिंदू राष्ट्र’ है”.
इस प्रकार गोलवलकर का भारत का विचार “हिंदू राष्ट्र” है जो मुसलमान, ईसाइयों और पारसियों से असम्बद्ध है. इसी का मोहन भागवत ने प्रभावी रूप से समर्थन किया. बहिष्कार का विचार, या कम से कम इस देश की आबादी के छठवें भाग के लिए दूसरे दर्जे की नागरिकता, आरएसएस के विश्व दृष्टिकोण में अंतरनिहित है और 1925 में इसकी स्थापना से बदली नहीं है.
इस किताब का आह्वान करते हुए भागवत एक तरह की हाथ की सफाई में लिप्त थे जो संघ का आदर्श रूप है.
‘गुरुजी: वीजन एंड मिशन’ दरअसल 2007 में पहली बार प्रकाशित किताब ‘गुरुजी: दृष्टि और दर्शन’ का अनुवाद है. यद्यपि किताब भागवत के सरसंघचालक पद पर असीन होने से पहले की है, इसकी हिंदी की विषय वस्तु ई-बुक के रूप में उपलब्ध है और अंग्रेजी अनुवाद की प्रतियां अब भी ऑनलाइन खरीदी जा सकती हैं. यह उस समय प्रकाशित हुई थी जब के० सुदर्शन आरएसएस प्रमुख थे. यह संघ के भीतर गुमनाम है. वास्तव में, भागवत के भाषण के तुरंत बाद आरएसएस के मुख्यालय झंडेवालान के इसके पुस्तक भंडार पर मुझे बताया गया कि वर्तमान में हिंदी और अंग्रेजी दोनों में किताब छपाई से बाहर है. भागवत को किताब के बारे में बताया गया था क्योंकि उन्होंने उसका परिचय लिखा था. लेकिन उनका अपना परिचय बंच ऑफ थाट्स को संदर्भित नहीं करता. इसमें बताया गया है कि किताब गोलवलकर के एकत्र किए गए कायों से ली गई है जो 12 खंडों में है. मोहन भागवत लिखते हैं “स्वभाविक रूप से, उसमें कई विषयों का समावेश है, उनमें से कुछ की प्रासंगिकता समकालीन और कुछ अन्य की सर्वकालीन है. समय कभी रुकता नहीं है और परिस्थितियां बदलती रहती हैं”. स्वंय अध्यायों पर तारीख नहीं है और संकेत नहीं करते कि गोलवलकर की किस किताब, भाषण या बातचीत से उन्हें लिया गया है.
स्पष्ट रूप से, गोलवलकर के बारे में भागवत का बहु प्रचारित दावा बाद का विचार है और उसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए.
प्रमुख व्यवसायी प्रकाशकों ने आरएसएस पर लिखी गई दो किताबों के माध्यम से भागवत द्वारा संघ के विचारों के सर्वत्र प्रसार का अनुमान लगाया था. पहली, संघ के अंदरूनी स्रोत वाल्टर एंडरसन और श्रीधर के० दामले द्वारा द आरएसएस: द व्यु इनसाइड, 2018 में पेंगुइन द्वारा प्रकाशित उनकी पहली किताब ब्रदरहुड ऑफ सैफरन की अगली कड़ी है. लेखकों ने अपने शोध के दौरान भागवत तक पहुंच को बंधनमुक्त किया था. इसमें वे बंच ऑफ थाट्स का संदर्भ देते हैं जो तीन प्रकाशित कामों में से एक है जिसे “हिंदुत्व की वैचारिक बुनियाद माना जाता है. दूसरी, आरएसएस पदाधिकारी रतन शारदा की आरएसएस 360: डीमिस्टीफाइंग राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ जो ब्लूम्सबरी द्वारा प्रकाशित की गई है और यह पहले लिखी गई एक गुमनाम किताब का नवीनीकृत संस्करण है. आज आरएसएस के बारे में पढ़ने के इच्छुक सामान्य पाठकों के लिए उपलब्ध यही प्रमुख किताबें हैं जो भागवत की आरएसएस की उत्पत्ति और विश्वास के परिशोधित संस्करण का स्पष्टीकरण या पुष्टि की आशा करते हैं.
अप्रत्याशित रूप से किताब का वस्तुनिष्ठा का बहुत दावा है. शारदा जिन्होंने गुरुजी: दृष्टि और दर्शन का अंग्रेजी में अनुवाद किया है असुविधाजनक दृष्टिकोण को समझाने के लिए बारी बारी से वामपंथी और धर्मनिर्पेक्ष शब्द का प्रयोग करते हैं. वह आरएसएस की स्थापना पर भागवत के आख्यान की प्रत्याशा करते हैं:
डाक्टर हेडगेवार ने ऐसे संगठन की कल्पना की थी जो तात्कालिक लाभ से परे होगा, जो गैर राजनीतिक होगा और इसका मात्र एक काम होगा- समाज के साधारण सदस्यों में से असाधारण इंसान पैदा करना. जो निःस्वार्थ भाव से राष्ट्र निर्माण और समाज सेवा के लिए समर्पित होंगे …ब्रिटिश शासनकाल के काले दिनों में पढ़े लिखे वर्ग के लिए अपने आपको हिंदू कहना शर्म की बात थी, डाक्टर हेडगेवार 1925 में उठे और कहा, “हां, मैं डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार घोषित करता हूं कि मैं हिंदू हूं और यह हिंदू राष्ट्र है”.
यह इतिहास नहीं है. यह संचरित्र लेखन है. मजे की बात यह है कि शारदा अपनी प्रस्तावना यह कहते हुए शुरू करते हैं, “किसी भी लेखक के लिए यह बड़े संतोष की बात है कि एक प्रतिष्ठित प्रकाशन घर किसी ऐसी किताब के नए संस्करण को प्रकाशित करने लिए तत्परता दिखाता है जो बाजार में पहले से मौजूद है. मुझे अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि उनकी सम्पादकीय टीम के उच्च सूक्ष्म मानकों के कारण मुझे वास्तव में कठिन परिश्रम करना पड़ा. इन उच्च सम्पादकीय मानकों को इस किताब में पता कर पाना कठिन है.
यह आरएसएस की उत्पत्ति में निहित तथ्यों का उल्लेख करना भूल जाती है कि बाल गंगाधर तिलक के करीबी सहयोगी हेडगेवार और मुंजे ने मुख्य रूप से कांग्रेस इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि खिलाफत आन्दोलन के माध्यम से गांधी मुसलमानों से करीब हो गए थे. प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात अपदस्थ खलीफा के प्रति समर्थन व्यक्त करने का यह भारतीय मुसलमानों का अभियान था. आरएसएस की स्थापना किसी भी तरह से हेडगेवार को अकेले का काम नहीं था. उदघाटन बैठक में 5 लोग उपस्थित थे: हेडगेवार, मुंजे, वीडी सावरकर के भाई गणेश दामोदर सावरकर, एलवी परान्जपे और बीबी ठोलकर. उसके बाद 1927 में मुंजे हिंदू महासभा के प्रमुख हो गए. महासभा और आरएसएस दोनों संगठनों में मतभेद हो जाने के बावजूद दोनों संगठन विभाजन तक निकटता से काम करते रहे. बाद में महात्मा गांधी की हत्या से महासभा के स्पष्ट रिश्ते की वजह से आरएसएस को इस हकीकत को दबाना पड़ा. नतीजे के तौर पर मुंजे की भूमिका को आरएसएस के इतिहास से निकाल दिया गया. एंडरसन और डैमले की किताब अधिक शोधपरक होने का दावा करती है. लेकिन जैसा कि पत्रकार धीरेंद्र के झा कारवां के लिए एक लेख में इंगित करते हैं कि डैमले आरएसएस की विदेश शाखा हिंदू स्वंयसेवक संघ के शिकागो के संघचालक हैं. झा यह टिप्पणी भी करते हैं कि किताब फरवरी 2019 में होने वाली घटना की दक्षिण पंथी विकृतियों के साथ प्रस्तुत करने का चयन करती है.
झा स्क्रोल के लिए एक लेख में लिखते हैं, “किताब फिर मार्च 2016 के जेएनयू प्रशासनिक समिति के निष्कर्ष का हवाला देती है कि बिना अनुमति के जलूस निकाला गया था और उसमें शामिल लोग देश विरोधी नारे लगा रहे थे. जबकि किताब दिल्ली सरकार द्वारा गठित मजिस्ट्रेटी जांच की रिपोर्ट के बारे में कुछ नहीं कहती है. इस रिपोट में, जो जेएनयू प्रशासन की जांच के नतीजों की घोषण से एक सप्ताह से अधिक पहले आई, कहा गया कि उसमें कन्हैया कुमार के भारत विरोधी नारे लगाने के कोई सबूत नहीं मिले. इस किताब के मुख्य पाठ में कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है कि वीडियो से छेड़छाड़ की गई थी. केवल पृष्ठ 331 पर एक फुटनोट में, जिसे हो सकता है कि बहुत से पाठक पढ़ने की तकलीफ न उठाएं, लेखक स्वीकार करते हैं कि “कम से कम घटना की कुछ वीडियो की स्पष्ट छेड़छाड़ से मुद्दा बहुत जटिल हो गया है”.
किताब में यह अकेला उदाहरण नहीं है जहां लेखकों ने घटना के ऐसे विवरण प्रस्तुत करने के लिए तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की है जो आरएसएस के दृष्टिकोण के पक्ष में जाते हों. लेकिन यह तथ्य कि मात्र कैम्पस विरोध के रूप में शुरू मामले पर ऐसा करने की आवश्यकता संकेत करती है कि आरएसएस की योजना में जेएनयू को कितनी अहमियत हासिल है.
जेएनयू की अकादमिक परिषद की 26 दिसम्बर 2016 को 142वीं बैठक के दौरान अकादमिक और कार्यकारी परिषदों की पिछली बैठकों के लिखित ब्योरों की पुष्टि करते हुए उपकुलपति ने प्राध्यापक नियुक्ति प्रक्रिया में भाग लेने वाले पैनल के विशेषज्ञों के नाम को अंतिम रूप देने के अधिकार को अनाधिकारिक तरीके से अपने पास ले लिया. जेएनयू अधिनियम 1966 के अनुसार विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों द्वारा नामित और अकादमिक और कार्यकारी परिषद द्वारा अनुमोदित पैनल से वीसी केवल बाहरी विशेषज्ञों को नामित कर सकता है, इसी प्रक्रिया का पालन 1978 से होता रहा है. हालांकि संकल्प और उसके बाद प्राध्यापक भर्ती को नियंत्रित करने वाले नियमों में संशोधन ने वीसी को विशेषज्ञों के अनुमोदित पैनल से बाहर के सदस्यों को नामित करने का अधिकार दे दिया.
यद्यपि संकल्प को चुनौती देने वाली एक याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने लम्बित है क्योंकि यह जेएनयू अधिनियम का उल्लंघन करता है, वीसी ने इस नए प्रावधान का उपयोग जारी रखा है. जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन के अनुसार 2016 में जब से विशेषज्ञों का नया डाटाबेस बना है तीस से अधिक चयन समितियों में से अधिकांश में उन्होंने तीन में से कम से कम दो विशेषज्ञों को अनुमोदित पैनल के बाहर से नामित किया है.
इनमें से कुछ नियुक्तियों को न्यायालय में चुनौती दी गई है और उपलब्ध विवरण बताते है कि किस तरह प्राध्यापक नियुक्तियों में विषय विशेषज्ञों को नजरअंदाज किया गया है. इनमें से एक सेंटर पर हिस्टोरिकल स्टडीज में प्राचीन इतिहास के असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर बीरेंद्र नाथ प्रसाद की नियुक्ति का मामला है.
अपनी चयन समिति के लिए कुमार द्वारा नामित तीन विशेषज्ञों में केवल एक आध्या सिंहा अनुमोदित पैनल से थीं लेकिन वह भी प्राचीन इतिहास के बजाए मध्ययुग की विशेषज्ञ थीं. अन्य दो “विशेषज्ञ” बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की अरूणा सिंहा जो अपनी विशेषज्ञता मॉडर्न एंड कनटेम्परेरी हिस्ट्री के रूप में दर्ज करती हैं और इंदिरा गांधी नेशनल ओपेन यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ टूरिज्म एंड हॉसपिटैलिटी मैनेजमेंट के निदेशक और इतिहास संकाय के अध्यक्ष कपिल कुमार जो अपनी विशेषज्ञता को मॉडर्न इंडियन हिस्ट्री एंड टूरिज्म स्टडीज एंड मैनेजमेंट के रूप में सूचीबद्ध करते हैं.
स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के कार्यकारी अध्यक्ष कुनाल चक्रवर्ती और सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज के पूर्व अध्यक्ष रणबीर चक्रवर्ती 28 सितंबर 2017 को होने वाले साक्षात्कार का हिस्सा थे और चयन से असहमति जताई थी. कार्यकारिणी परिषद को लिखे गए एक पत्र में उन्होंने साक्षात्कार में अपनाई गई प्रक्रिया का वर्णन किया:
दो विशेषज्ञों की विशेषज्ञता मॉडर्न इंडियन हिस्ट्री में है और तीसरे की हिस्ट्री ऑफ मेडिवल इंडिया में. वास्तव में दो अधोहस्ताक्षरी ही विषय विशेषज्ञ थे क्योंकि दोनों प्राचीन इतिहास विभाग के प्रोफेसर हैं …यह स्वभाविक है कि नियम, ‘विशेषज्ञों’ के नामकरण की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से दोषपूर्ण रही है, नतीजा सामने है. दिन भर की साक्षात्कार प्रक्रिया के दौरान एक खास ‘विशेषज्ञ’ को कम से कम चार बार झपकी लेते हुए पकड़ा गया. एक अन्य विशेषज्ञ ने एक परीक्षार्थी से उसके द्वारा 18वीं शताब्दी की पाठ्य पुस्तक का उपयोग न करने के बारे में पूछा जबकि परीक्षार्थी का शोध पहली तीन शताब्दियों के बौद्ध पाठों पर आधारित सामाजिक इतिहास का अध्ययन था. तीसरा विशेषज्ञ भी कुछ अलग नहीं था जिसने ‘प्राचीन बंगाल में दैनिक जीवन’ पर पीएचडी के एक परीक्षार्थी से पूछा कि राष्ट्रीय अखंडता को समझने में यह विषय कैसे और क्या सहायता करेगा.
दरअसल दानों अधिहस्ताक्षरियों को अध्यक्ष द्वारा बताया गया कि उनको प्रत्येक परीक्षार्थी से केवल एक संक्षिप्त प्रश्न करने की अनुमति दी जाएगी. अदालत जाने वाले मामले के दूसरे उदाहरण का सम्बंध 2017 में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम के लिए असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति से है. आवेदकों के लिए मानदंड में सोशियोलोजी या सोशल एंथ्रोपोलोजी में स्नातकोत्तर उपाधि शामिल थी. चयनित परीक्षार्थी पीसी साहू के पास भूगोल में स्नातक और स्नातकोत्तर की उपाधि थी. साक्षात्कार में बैठने वाले सभी तीन विशेषज्ञों का चयन वीसी द्वारा किया गया था और उनका नाम विशेषज्ञों के अनुमोदित पैनल में मौजूद नहीं था.
यह मामले इस बात के अच्छे उदाहरण हैं कि प्रभार संभालने के बाद से ही प्राध्यापक नियुक्तियों में कुमार को खुली छूट थी. इस तरह से की गई बहुत सी नियुक्तियों में शैक्षिक योग्यताएं संदिग्ध हैं और उनमें से पांच पर साहित्यिक चोरी के आरोप हैं. ऐसे आरोप छात्र यूनियन द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को की गई शिकायत के कारण हैं. इनमें से कोई मामले एक या दो वाक्य उठा लेने के नहीं हैं. इनमें से प्रत्येक में पाठ के एक बड़े भाग को सरकारी रिपोर्टों या विदेशी प्रकाशनों से शब्दशः कॉपी पेस्ट किया गया है.
इन नियुक्त व्यक्तियों में पवन कुमार और अनुजा शामिल हैं, दोनों सेंटर फॉर सोशल एक्सक्लूजन एंड इनक्लूसिव पॉलिसी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं; सेंटर फॉर कम्पेरेटिव पॉलिटिक्स एंड पोलिटिकल थ्योरी में एक असिस्टेंट प्रोफेसर प्रवेश कुमार; सेंटर फॉर इंडो–पैसिफिक स्टडीज में असिस्टेंट प्रोफेसर जैखलांग बसुमत्री; और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम में असिस्टेंट प्रोफेसर मनोज कुमार शामिल हैं. इनमें से सभी की नियुक्ति 2017 में की गई थी. जेएनयू प्राधिकरण ने यह दावा करने का प्रयास किया कि यह शिकायतें दलित विरोधी हैं क्योंकि यह मुख्य रूप से अनुसूचित जाति और जनजाति के नियुक्त व्यक्तियों की ओर निर्दिष्ट हैं, लेकिन तथ्य यह है कि इन अभ्यर्थियों को आवश्यक योग्यता रखने वाले दूसरे एसी⁄एसटी अभ्यर्थियों के स्थान पर नियुक्त किया था.
ऐसे चयन किसी भी अन्य चीज से अधिक उस तथ्य को परिलक्षित करते हैं कि स्पष्टः उनकी विचाराधारा को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने वाले किसी भी व्यक्ति को प्राप्त व्यवसायिक लाभ के बावजूद आरएसएस और उसके सहयोगी ऐसे व्यक्तियों का समुच्चय पैदा करने में असमर्थ रहे हैं जिनके पास उन रिक्तियों को भरने की क्षमता बौद्धिक क्षमता हो. जो उदारवादी, वाम या प्रगतिशील विचारधारा के लोगों को किनारे लगाने या हटाने के प्रयत्न के नतीजे में उत्पन्न होंगी.
छात्र संघ के अध्यक्ष एन साईं बालाजी की दलील थी कि इस प्रकार चयनित फैकल्टी सदस्य, यहां तक कि यदि उनका आरएसएस से प्रत्यक्ष सम्बंध न भी हो तो वीसी के दबाव में कमजोर पड़ जाते हैं. अनुजा को पहले ही अनुशासनात्क प्रक्रिया का जिम्मेदार, प्रॉक्टर बना दिया गया है, परिसर में वीसी के एक अन्य निकटतम सहयोगी सिस्टम्स साइंसेज एंड कम्प्यूटर में असिस्टेंट प्रोफेसर बुद्धा सिंह पर साहित्यिक चोरी के आरोप हैं. वह छात्रों का एसोसिएट डीन और वार्डेन है और आरएसएस से निकट से जुड़ा हुआ है.
यहां तक कि प्रशासनिक नियंत्रण उनकी तरफ लगातार बढ़ रहा है जो आरएसएस के मददगार हैं और बौद्धिक उत्पाद पैदा करने की समस्या अभी बनी हुई जबकि संघ की मान्यताओं को अकादमिक वैधता उसी से प्राप्त हो सकती है. इस दिशा में किए गए प्रयास ने बहुत समय ले लिया है और उसकी गति काफी धीमी है लेकिन अब उसे औकात में रखा जा रहा है.
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्री प्रकाश सिंह के अंतर्गत 2016 में ज्ञान संगम ने किताबों की श्रंखला तैयार करने की एक परियोजना शुरू की जो विश्वविद्यालयों में अध्ययन सामग्री के रूप में प्रयोग की जाएगी और “राष्ट्रवादी संदर्भ के दायरे” को प्रतिबिम्बित करेगी. तीन साल बाद इन किताबों की पहली खेप का उदघाटन नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में मानव संसाधन विकास मंत्री सत्यपाल सिंह, लाइब्रेरी के निदेशक शक्ति सिंह और जे नंदकुमार की मौजूदगी में किया गया. किताब का शीर्षक था “पॉलिटिक्स फार ए न्यू इंडिया: ए नेशनलिस्टिक पर्सपेक्टिव”.
लोकार्पण पर रिपोर्ट करते हुए आरएसएस के मुख पत्र ऑर्गनाइजर ने लिखा “किताब निबंधों का एक संग्रह है जो राष्ट्रवादी और धार्मिक संदर्भ के दायरे के साथ–साथ भारतीय राजनीति के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करती है. यह समाजशास्त्र में प्राच्यविद और औपनिवेशक विवरणों को चुनौती देती है …भारतीय मस्तकों को मुक्त करने की नई पहलकदमी है और किताब यूरोप केंद्रित अवधारणा की प्रधानता का वैकल्पिक विवरण प्रस्तुत करती है”. इस किताब के बहुसंख्य योगदानकर्ता जेएनयू या दिल्ली विश्वविद्यालय के फैकल्टी सदस्य हैं. इसमें जेएनयू में तुलनात्मक राजनीति और राजनीति सिद्धान्त केंद्र में असिस्टेंट प्रोफेसर वंदना मिश्रा शामिल हैं. उक्त पद के लिए उनका चयन इस तथ्य के बावजूद हुआ था कि साक्षात्कार पैनल में मौजूद सेंटर के अध्यक्ष पीके दत्ता ने इस पर असहमति व्यक्त की थी. प्रणव कुमार के साथ जिन पांच नवनियुक्त लोगों पर साहित्यिक चोरी के आरोप लगे थे उन शोधकर्ताओं के चुनिंदा समूह में से एक वंदना मिश्रा का अकादमिक परियोजनाओं में प्रकाश सिंह द्वारा मार्गदर्शन किया जा रहा है. श्री प्रकाश को भी वर्तमान शासन के अंतर्गत उनके अकादमिक करियर में भारी बढ़ावा मिला है. जेएनयू के एक वरिष्ठ शिक्षाविद जिन्होंने उनके साथ काम किया है ने मुझे बताया, “श्री प्रकाश एक निम्न श्रेणी के शिक्षाविद थे जिनकी इस प्रशासन में तेजी से तरक्की हुई है. वह आरएसएस के नेटवर्क में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं. वह विचारों के प्रति गंभीर नहीं हैं. उनकी शक्ति सांगठनिक मामलों में निहित है”.
जब मैंने श्री प्रकाश से बात की तो उन्होंने मुझे बताया कि यह उस श्रंखला की पहली किताब है और निबंधों के ऐसे ही संग्रह कानून, दर्शन और अर्थशास्त्र पहले से तैयारी के दौर में हैं. उन्होंने मुझे बताया कि यह विचार शैक्षिक उपदेश को “सही परिपेक्ष्य” में प्रस्तुत करने का था. उन्होंने मुझे बताया कि अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों में शिक्षाविद मान्यताओं के अनुसार अपने दृष्टिकोण को बदल देते हैं. उन्होंने डीयू और जेएनयू के “दक्षिणपंथी दृष्टिकोण वाले” युवा शोधकर्ताओं के एक समूह को एकत्र किया था. वे अपनी विद्वता का इस्तेमाल बेहतरीन शैक्षिक कार्य के लिए प्रचलित “उन्हीं तकनीकी औजारों, उसी प्रणाली और उसी विद्वता” के उपयोग से बदले हुए दृष्टिकोण का विकल्प प्रदान करने के लिए करेंगे जो अब शिक्षा जगत में उपलब्ध हैं. उन्होंने आगे कहा कि उक्त काम विश्वविद्यालय के छात्रों के पाठन के लिए पाठ्यक्रम उपलब्ध कराने का पहला वास्तविक प्रयास है जो आज के समय में प्रचलित गैर आयामीय प्रस्तावों को चुनौती देगा.
श्री प्रकाश का दावा था, “अगर आप स्वतंत्र तरीके से जांच करें और उन पाठन सामग्रियों को देखें जो डीयू, जेएनयू, जामिया, अम्बेडकर विश्वविद्यालय में आज उपलब्ध कराई जा रही हैं, तो पाठ्यक्रम के लिए किताबों में जिस तरह अध्याय निर्धारित किए गए हैं उनमें अधिकांश विभाजनकारी हैं. मैं नाम नहीं बताऊंगा, लेकिन जिस तरह का परिवेश वे उपलब्ध करा रहे हैं उस पर बड़ा सवालिया निशान है. उनके विपरीत हमारा दृष्टिकोण इस विश्वास में है कि अंग्रेजों और मुगलों से पहले भारत की शानदार परंपरा, साहित्य और राष्ट्रीय संस्कृति रही है, केवल अंग्रेजी नहीं थी. इसका मतलब यह नहीं है कि साहित्य नहीं था. हम प्राचीन भारत की इस समृद्धि में आंख बंद करके भरोसा नहीं करते बल्कि शोध के माध्यम से उस तक पहुंचना चाहते हैं”.
उन्होंने कहा कि जो समूह उन्होंने बनाया था वह स्वैच्छिक प्रयास था. “व्यक्तिगत लेखन में समय बहुत लगता है और दृष्टिकोण गुम हो जाता है. हम प्रत्येक मुद्दे पर बात करते हैं, कागजात प्रस्तुत करते हैं, समीक्षा के लिए सहकर्मी रखते हैं, अंध समीक्षा और अंत में लेख को फैकल्टी के पास भेज दिया जाता है जो योगदानकर्ता को नहीं जानते”. उन्होंने आगे कहा चूंकि यह पहला प्रयास था इसलिए इस किताब के मामले में समीक्षा प्रक्रिया को उन्होंने स्वंय संभाला था.
जब मैंने उनसे आभारोक्ति में आरएसएस सरकार्यवाहक गोपाल कृष्ण को “गहरी कृतज्ञता” के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि यह “योगदानकर्ताओं की पूरी टीम पर गहन विश्वास दिखाने और लगातार निर्देश और उत्साह बढ़ाने” के लिए आभार प्रकट करना था. उन्होंने बताया कि यह एक तरह से इस तथ्य के लिए आभार प्रकट करना था कि “उन्होंने हमें सम्बोधित और प्रोत्साहित किया था”. इस किताब में नंदकुमार के योगदान को भी स्वीकार किया गया है.
इस किताब की और अधिक सूक्ष्म परीक्षण की जरूरत है क्योंकि यह आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व की स्पष्ट इच्छा का परिणाम है जिसके माध्यम से, अगर बीजेपी सत्ता में बनी रहती है, तो वह शिक्षा जगत में अपने लिए रास्ता बनाना चाहते हैं. श्री प्रकाश के अनुसार लॉ पर किताब नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के अनुपम गोपाल की निगरानी में; अर्थशास्त्र पर किताब डीयू के वोकेशनल स्टडीज कालेज के आनंद कुमार की निगरानी में; और दर्शन पर किताब डीयू में दर्शन के असिस्टेंट प्रोफेसर आदित्य गुप्ता के मार्गदर्शन में तैयार की जा रही है.
श्री प्रकाश ने किताब की तैयारी में अपनाई गई अपनी पद्धति में सावधानी और प्रणाली के बारे में मुझे विश्वास दिलाने की बार बार कोशिश की. इससे साफ होता है कि फुटनोट से लेकर टिप्पणी और अन्य ग्रंथों के उद्धरण तक इस किताब को प्राकृतिक रूप और शोध का आभास देने का प्रयास है. वह इसे किताब की प्रस्तावना में स्पष्ट कर देते हैं:
…काम अध्ययन के भारतीय तौर तरीकों के परिचय का एक विनम्र प्रयास है. इसे सावधानी से भारतीय राजनीतिक अध्ययन के स्वदेशीकरण के उस रूप में देखा जा सकता है जिसमें उच्चतम स्तर की वस्तुनिष्ठता और विचारधारा और पश्चिमी वर्चस्व से आजादी हो. इसमें विश्वदृष्टिकोण के विश्लेषण पर स्वंय अपनी बौद्धिक परंपरा से निकाले गए निष्कर्ष और साथ ही सत्ता विद्या, सत्य ज्ञानाध्यन और नैतिक मान्यताओं सम्बंधी मूलभूत राजनीतिक मुद्दों पर निर्भरता का भाव हो.
लेकिन किताब के केंद्र में वही मानसिक प्रवृत्ति है जो संघ द्वारा अपनी स्थापना से व्यक्त की जाती रही है और वह विज्ञान भवन में भागवत व्याख्यान से बहुत स्पष्ट हो जाती है.
वंदना मिश्रा “आरएसएस विचारधारा और कार्यप्रणाली: सामाजिक सौहार्द का संदर्भ” विषय पर अपने निबंध में आरएसएस की उत्पत्ति के बारे में लिखती हैं “1920 के दशक के पूर्वार्ध में पूरे भारत में व्यापक साम्प्रदायिक दंगों ने न केवल गांधीवादी तकनीकों की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था बल्कि इसकी जगह साम्प्रदायिकता के खतरे से निपटने के लिए सुधारकों को भी नए प्रस्ताव और रणनीति अपनाने के लिए कायल किया.
फिर उन्होंने लाजपत राय का आह्वान किया “1925 में हिंदू महासभा के 8वें अधिवेशन में अपने सम्बोधन में लाला लाजपत राय ने प्रस्ताव दिया कि अहिंसा और असहयोग हिंदू एकजुटता को गंभीर नुकसान पहुंचा सकते थे और इस प्रकार स्वतंत्रता संघर्ष पर विपरीत प्रभाव डाल सकते थे. हम इतने कमजोर और मूर्ख नहीं हो सकते कि अपने को कुचलने के लिए दूसरों को प्रोत्साहित करें और न अपने लिए संकट मोल लेकर अहिंसा के झूठे विचारों में इस हद तक डूब सकते हैं.”
उनका निष्कर्ष स्पष्ट है:-
1920 के दंगों को भी गहन सामाजिक संकट अर्थात हिंदुओं के बीच बिखराव के संकेत के रूप में देखा गया. अगर भारत को आजादी हासिल करनी है और स्वतंत्रता पश्चात एकजुट और एकीकृत राष्ट्र के बतौर उभरना है तो इसे सम्बोधित किया जाना आवश्यक है. राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक सामंजस्य की भावना को पुनर्जागृति करने के लिए आंतरिक परिवर्तन की आवश्यकता 27 अप्रैल 1925 को आरएसएस की स्थापना का आरंभिक बिंदु है.
आरएसएस को एक संस्था के रूप में, जो हिंदुओं के बीच बिखराव के खिलाफ काम करने की इच्छुक है, मान्य बनाने के प्रयास में वह आरएसएस के मूल विचार को स्वीकारते हुए अपनी बात खत्म करती हैं कि आरएसएस की योजना मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं को एकजुट करने की है. कुछ निष्कपट वाक्यों में वह उस अवधारणा के मूल को नष्ट कर देती हैं जो भागवत अपने व्याख्यान में बनाना चाहते थे.
“आतंकवाद का महिमामंडन: चुनौतियां, प्रतिक्रियाएं और रास्ते” विषय पर अपने निबंध में पवन कुमार और उनकी सह लेखिका नमिता कुमारी आतंक पर संस्थागत प्रतिक्रिया के भेष में छुपते हुए घूमकर अपने उसी राष्ट्रविरोधी धुन और शरण में वापस आ जाते हैं जो उन्होंने जेएनयू में पाया था. “आतंक के समर्थक अक्सर अपनी गतिविधि को अहानिकारक और कभी-कभी लोकतंत्र के लिए लाभकारी के रूप में पेश करते हैं. वे अभिव्यक्ति की आजादी, अकादमिक आजादी, विश्वविद्यालय संस्कृति और मीडिया के दायित्व की आड़ लेते हैं. वे अभिव्यक्ति की आजादी के तर्क को यह दावा करते हुए कि लोकतंत्र में सभी तरह के विचारों को सुना जाना चाहिए, सीमा के अंतिम छोर तक ले जाते हैं”.
इस सामान्य दावे से होते हुए जेएनयू में विरोध प्रदर्शन में शामिल लोगों के खिलाफ निश्चित आरोपों तक की दौड़ बिना किसी सबूत के है: “उनके अनुसार विचारों में हिंसा का समर्थन करने वाले विचार और स्वंय लोकतंत्र को उखाड़ फेकने के लिए उकसाने वाले विचार शामिल हैं. जब जेएनयू में ‘राष्ट्र विरोधी’ और ‘आतंकी समर्थक’ नारे लगाए गए तो बहुत से लोगों ने दावा किया था कि परिसर राष्ट्र–राज्य से ऊपर है. इसलिए उन्हें अकादमिक आजादी को आगे बढ़ाने और ऐसी गतिविधियों और आन्दोलनों में लिप्त रहने की अनुमति होनी चाहिए.
एक खास उदाहरण काकभगौड़ा बनाकर जो उनके मामले के अनुरूप है भी नहीं, उन्होंने निष्कर्ष निकाला, “इस परिस्थिति में आतंक समर्थकों द्वारा आतंकियों और आतंकवाद के महिमामंडन के प्रभाव को समझना महत्वपूर्ण है. दुर्भाग्य से भारतीय लेखकों द्वारा कोई निश्चित अध्ययन नहीं किया गया”. इसी बीच, पश्चिमी वर्चस्व से मुक्त राष्ट्रीय परिपेक्ष्य बनाने का दावा कर खुद पश्चिमी अध्ययनों पर भरोसा करके हास्यास्पद रूप से लेखकों ने अपने को गुम कर लिया.
ऐसा पैकेज बिना पितृसत्ता, जो संघ के दृष्टिकोण के केंद्र में है, के समर्थन बिना मुश्किल से ही पूरा हो सकता है. “21वीं शताब्दी में नारीवादी विधिशास्त्र और समकालीन संसार में वेदों की प्रासंगिकता” पर अपने निबंध में डीयू में लॉ की असिस्टेंट प्रोफेसर सीमा सिंह तर्क प्रस्तुत करती हैं “केवल पश्चिमी दर्शन के वर्चस्व को साबित करने के लिए वास्तविक वेदिक मानकों और आध्यात्मिक ज्ञान की न केवल अनदेखी की गई बल्कि उसे रद्द करने के लिए उसकी गलत व्याख्या की गई. किसी भी समाज में जहां महिलाओं को सम्मान नहीं दिया जाता उसके सामंजस्य और संतुलन को देखें. आध्यात्मिक क्षेत्र में पुरूष और महिला समान हैसियत रखते हैं. पुरूष और महिला लिंग के आधार पर भिन्न हैं लेकिन दोनों उसी ईश्वर की संतान हैं. पुरूषों को कभी नहीं चाहिए कि महिलाओं को ताकत से नियंत्रित करें और न ही महिलाओं को चाहिए कि पुरूष की स्थिति को रद्द करें.
चूंकि यह शिक्षाविद देश भर में विश्वविद्यालयों में लागू करने के लिए पाठ्यक्रम तैयार करने का काम करते हैं, वे अवगत हैं कि उसे लागू करने की कुंजी आरएसएस की सत्ता तक पहुंच में निहित है जिसके लिए नरेन्द्र मोदी के पुनर्चुनाव की जरूरत है. इसी मार्च के आरंभ में उन शिक्षाविदों ने एक साथ मिलकर अकेडिमिक्स फॉर नमो के नाम से एक समूह का गठन कर लिया जिनकी प्रज्ञा प्रवाह की ज्ञान संगम परियोजना की केंद्रीय भूमिका थी. उस समूह पर एक समाचार रिपोर्ट में कहा गया कि “जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कई प्रोफेसर जिसमें रजिस्ट्रार प्रो० प्रमोद कुमार, सेंटर फॉर इंडियन लैंगुएजेज के प्रो० सुधीर प्रताप सिंह, सेंटर पर कम्पेरेटिव पॉलिटिक्स एंड पोलिटिकल थ्योरी की डा० वंदना मिश्रा दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों में प्रो० प्रकाश, प्रो० तरून कुमार गर्ग, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिस्ट्रेशन दिल्ली के प्रो० मनन द्धिवेदी और कुआलालमपुर स्थित यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी के डा० शंतेश सिंह उस अभियान का भाग हैं”.
श्री प्रकाश सिंह के साथ तीन किताबों के सह लेखक और डीयू में राजनीतिक शास्त्र के प्रो० स्वदेश सिंह उस अभियान के पीछे समूह के प्रमुख सदस्यों में से एक हैं. उन्होंने मुझे बताया कि अकेडेमिक्स फॉर नमो उन सभी को एक साथ लाना चाहता है जिनकी इच्छा है कि नरेन्द्र मोदी फिर से चुने जाएं. “विचार किसी विचारधारा या पार्टी को समर्थन देने का नहीं बल्कि वैयक्तितव का है. हो सकता है कुछ लोग हों जो मोदी के किसी काम से सहमत न हों लेकिन सवाल यह है कि क्या कोई बेहतर विकल्प है”. वह अच्छी तरह जानते हैं कि विचारधारा, पार्टी और मोदी के बीच विशाल भेद है. लेकिन समूह की वेबसाइट तक पहुंचने वाले किसी व्यक्ति या ट्वीटर हैंडिल का अनुकरण करने वाले के लिए इसके आरएसएस से मजबूत जुड़ाव के कोई संकेत नहीं हैं. समाचार रिपोर्ट स्वंय संघ का उल्लेख किए बिना केवल जेएनयू और डीयू के प्रोफेसरों का हवाला देती है और सामान्य पाठक के लिए परियोजना पर वैधता प्रदान करते हुए समाप्त हो जाती है”.
समाचार रिपोर्ट में जिन शिक्षाविदों के नाम छपे हैं स्वदेश ने अकेडेमिक फॉर नमो की पहली बैठक में उनकी उपस्थिति की पुष्टि की है. उन्होंने मुझे बताया “दिल्ली में 300 प्रतिनिधियों की शुरूआती बैठक के तुरंत बाद हम पूरे देश में फैलेंगे”. जब मैंने उनसे श्री प्रकाश सिंह के बारे में पूछा तो उन्होंने मुझे बताया कि वह भी 2017 में प्रज्ञा प्रवाह सम्मेलन में ज्ञान संगम पहलकदमी का भाग थे.
वह अपने सम्बंध को बेहतर बनाने को लेकर सावधान थे. मुझे यह बताते हुए कि वह एनडीटीवी के पत्रकार रह चुके हैं और जेएनयू में पढ़ाई की है, उन्होंने आगे कहा, “मैं नहीं समझता कि विश्वविद्यालय राष्ट्र विरोधियों का अड्डा है. यह मेरे जैसे कई अलग दृष्टिकोण रखने वालों को जगह देता है. यहां तक कि मैंने 2016 में उदित राज के साथ इसी बिंदु को स्पष्ट करने के लिए वहां ऐसे समय प्रेस कांफ्रेंस की थी जब कन्हैया की घटना पर बयानबाजी अपने चरम पर थी.
2017 में हफिंगटन पोस्ट में प्रताप भानू मेहता की ज्ञान संगम की आलोचना के जवाब में स्वदेश ने लिखा. “हां, भारतीयता लाओ” शीर्षक से एक लेख में मेहता ने कहा था “आशा है कि प्रचीन संस्कृति का कोई भी प्रदर्शन अशिष्ट बौद्धिकता विरोधी राष्ट्रवादियों का इलाज करेगा, विचारों के खिलाफ क्रोध …इसलिए इंडिक विचार लाइए, इंडिक विचार में आत्मजागरूकता की आवश्यकता होगी. इस चीज को लेकर हम विश्वस्त नहीं हैं कि शिक्षा में राष्ट्रवाद के वर्तमान संरक्षक इसकी सच्चाई को संभाल सकते हैं”.
स्वदेशी ने मुझे बताया कि उनकी प्रतिक्रिया उनके उस विचार का हिस्सा थी कि उन जैसे लोगों को अपने आलोचकों से जुड़ने की जरूरत है, खासकर प्रताप भानू मेहता जैसे लोगों से जो “इंडिक परंपराओं के प्रति सहानुभूति रखते हैं”. मेहता को उनका जवाब, “प्रिय प्रताप भानू मेहता, अगर आरएसएस इंडिक ज्ञान परंपरा का नेतृत्व नहीं कर सकती तो कौन करेगा?” साथ ही उनका जवाब आरएसएस की तरफ से लिखे गए सबसे निम्न कोटि के कुतर्क, अशोधित बयान से उसी तरह जुड़ता है जैसे भागवत के सावधानीपूर्वक गढ़े हुए भाषण गोलवलकर के भड़काऊ शब्दों के साथ खड़े होते हैं. लेकिन अंत में भिन्नता सतही होती है, सार तत्व समान होता है.
शिक्षा जगत में प्रकाश सिंह और उनके स्वदेश जैसे सहयोगी पहले ही बौद्धिक मुद्दों से निपटने के लिए आरएसएस की बढ़ती व्यवहारिक कुशलता का संकेत है. उपदेश में अब भी झांककर देखना आसान है, इसकी विभाजनकारिता के सम्बंध में खुली आलोचना के लिए भेद्य है. लेकिन भागवत के भाषण पर मीडिया की जैसी प्रतिक्रिया रही है उससे पहले ही लगता है कि संघ के ऊपर से अच्छी तरह साफ किए गए दृष्टिकोणों को स्वीकार करने वालों की संख्या बढ़ी है.
स्वदेश मेहता को दिए गए जवाब का अंत एक जोरदार टिप्पणी के साथ करते हैं “एक बात निश्चित है, अगर आप उनके बौद्धिक प्रयासों का कचरा भी कर दें तो भी आप जमीन पर आरएसएस की गतिविधियों की अनदेखी नहीं कर सकते. इस देश में आज वे वैकल्पिक डिस्कोर्स नहीं मुख्य डिस्कोर्स हैं. उनसे निपटो”. यह ऐसी टिप्पणी है जिसकी उपेक्षा हम केवल अपने जोखिम की कीमत पर करेंगे.
अनुवाद: मसीउद्दीन संजरी
(द कैरवैन के अप्रैल अंक में प्रकाशित लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)