(पहला)
वह कोई आम बृहस्पतिवार नहीं था. 9 जुलाई 2015 की सुबह मोहम्मद फहाद अपनी बहन शहला और एक दोस्त अब्दुल अनस के साथ स्कूल जा रहा था. उनके घर से क्ल्लीओट के सरकारी उच्च-माध्यमिक स्कूल तक जो पगडंडी जाती थी वह सालों से अच्छी बातचीत, पसंदीदा क्रिकेटरों और अदाकारों पर बहस, चॉकलेट के लिए छोटे-मोटे झगड़े और किताब से क्रिकेट की गपबाजी के लिए एक आदर्श जगह रही है. केरल के उत्तरी मालाबार का एक जिला है क्ल्लीओट.
फहाद की उम्र आठ और शहला की 11 साल थी. दोनों वामपंथी झुकाव वाले, मजदूर वर्ग के मुस्लिम परिवार में पले-बढ़े थे. बीते सालों में मालाबार में तेजी से बढ़ी साम्प्रदायिकता के बावजूद फहाद और शहला अपनी पहचान को लेकर जरा भी असुरक्षित महसूस नहीं करते थे. क्ल्लीओट के हिंदू-मुसलमानों में साम्प्रदायिक सौहार्द का इतिहास रहा है. फहाद का परिवार हमेशा वायानथ्थू कुलावम थेय्यम के आयोजन में हिस्सा लेता था. दक्षिणी मालाबार में उत्पीड़ित जाति के हिंदू हर साल इसे मनाते हैं.
1990 की शुरुआत में कासरगोड, इंडोसल्फान से जुड़े कोहराम का केंद्र था. इंडोसल्फान एक कीटनाशक है जिसे जिले की काजू की फसल पर अंधाधुंध तरीके से इस्तेमाल किया गया था. जब पता चला कि इसकी वजह से राज्य के 5000 लोगों को शारीरिक विकृति और स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या का सामना करना पड़ा है तब सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में इसके इस्तेमाल पर बैन लगा दिया. इन पीड़ितों में फहाद भी था. उसे जन्म से ही क्लब फुक (मुद्गरपाद) की बीमारी थी और , उसके दाहिना पैर बेकार था.
स्कूल के पास उनके पड़ोसी केके विजय कुमार जमीन की झाड़ियां साफ कर रहा था. नारियल तोड़ने का काम करने वाले कुमार के पास से जब दोनों बच्चे गुजरे तो वह अचानक उनकी ओर कूदा और झाड़ी काटने वाले धारदार हथियार को फहाद की गर्दन पर चला दिया. वह भाग नहीं सका और उसकी पीठ पर 6 बार हमला किया गया और मौके पर ही उसकी जान चली गई. शहला ने अपने भाई को बचाने की कोशिश की लेकिन अनस उसे खींचकर ले गया. शहला ने यह बात मुझे तब बताई थी जब मैं 2017 में उनके परिवार से मिलाने गया था. अनस को डर था कि विजय कुमार उन पर भी हमला कर देगा. जब विजय कुमार, फहाद पर हमला कर रहा था तो उसने चीख कर कहा, “मैंने चूहे को मार कर वहीं छोड़ दिया.”
मुझे उनके घर का रास्ता राजन केटी ने बताया था जो विजय कुमार का चचेरे भाई है. फहाद और शहला के पिता अब्बास की तरह वह भी गांव में ऑटो रिक्शा चलाता है. वह अपने भाई की करनी से शर्मिंदा था. राजन ने मुझे बताया कि इलाके के ज्यादातर हिंदू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा को सही नहीं मानते लेकिन विजय कुमार का दिमाग शशिकला का वीडियो देख कर भर गया था. शशिकला हिंदू ऐक्य वेदी की अध्यक्ष हैं. यह राज्य में आरएसएस की शाखा है. शशिकला अक्सर मुसलमानों के खिलाफ भड़काउ भाषण देने के लिए कुख्यात हैं. इसके लिए 2016 में उस पर धार्मिक सौहार्द बिगाड़ने का भी आरोप लगा था. राजन ने कहा, “विजयन का मानना था कि जिहाद के लिए मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं. उसके मुताबिक अब्बास के छह में से एक बच्चे को मारकर उसने पवित्र काम किया है.”
अब्बास क्ल्लीओट के मुस्लिम समुदाय के खिलाफ विजय कुमार उकसावे को याद करते हैं. जब कभी वह सुबह की अजान सुनता तो विजय कुमार नारियल के पेड़ पर चढ़ जाता और इसके लिए इकट्ठा हुए नमाजियों का मजाक उड़ाता. वह अक्सर हिंदुत्व के फायरब्रांडों और खासकर शशिकला की सीडी बांटा करता और आरएसएस के कार्यकर्ता अक्सर उसके घर आया करते थे. उसने यह तक आरोप लगाया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश से फहाद के परिवार को इंडोसल्फान के जहरीले प्रभाव के लिए जो क्षतिपूर्ति मिली थी वह “हिंदुओं का पैसा” था.
फिर भी, अब्बास को इस पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उसके पड़ोसी इस हद तक जाकर एक विकलांग बच्चे की हत्या कर सकता है. उन्होंने मुझसे कहा, “हम उनके परिवार के बेहद करीब थे. मैं उनकी मां को अम्मेटी बुलाता था.” यह शब्द मां की बड़ी बहन के इस्तेमाल होता है. “मेरे बेटे को जब उसने मारा उसके दो महीने पहले उसके परिवार के सदस्यों ने मेरी बड़ी बेटी की शादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था.”
खराद मशीन चलाने वाले एक स्थानीय व्यक्ति ने अब्बास को बताया कि हत्या के पहले विजय कुमार ने उससे एक देसी पिस्तौल बनाने को कहा था जिसके लिए उसने मना कर दिया. हालांकि, आरएसएस ने विजय कुमार का बचाव करने का निर्णय लिया और इसके लिए उसके पागलपन का हवाला दिया है और मेडिकल सर्टिफिकेट भी जुटाया है.
फहाद की मौत के छह महीने बाद अब्बास मावुनकल की एक दुकान पर गए. पास के इस गांव को आरएसएस के गढ़ के तौर पर जाना जाता है. उन्होंने मुझसे कहा, “भारतीय मजदूर संघ के दो मजदूर सर पर बोझ उठाए थे. उन्होंने मुझसे फहाद के बारे में पूछा. जब मैंने उनसे कहा कि मैं उसका पिता हूं तो उन्होंने मुझे धक्का दिया और धमकी दी कि अगर मैं मामले को आगे ले जाऊंगा तो अंजाम ठीक नहीं होगा.” भारतीय मजदूर संघ आरएसएस का मजदूर संगठन है. अब्बास ने हार नहीं मानी और जून 2018 में कासरगोड के एक अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने विजय कुमार को उम्र कैद की सजा दी.
25 सितंबर 2015 को कोझिकोड में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान पीएम मोदी ने “ आहुति: द अन्टोल्ड स्टोरीज ऑफ सैक्रिफाइज इन केरला” नाम की एक किताब का लोकार्पण किया. इसमें आरएसएस और बीजेपी के उन कार्यकर्ताओं का जिक्र है जो केरल की आंतरिक राजनीतिक हिंसा में पिछले 5 सालों में मारे गए हैं. मोदी ने कहा, “लोकतंत्र में हिंसा को स्वीकार नहीं किया जा सकता. हम पर किसी की विचारधारा स्वीकार नहीं करने के लिए हमला नहीं किया जाना चाहिए.” उन्होंने राज्य में पार्टी के नेतृत्व को भरोसा दिलाया कि उनकी शिकायतों को देश भर में सुना जाएगा.
हालांकि, मोदी ने हिंसा के लिए सीधे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का नाम नहीं लिया, लेकिन पार्टी के बाकी नेताओं ने खुलकर ऐसा कहा है. राज्य में तब के पार्टी के अध्यक्ष कुम्मानम राजशेखरन ने एक मुलाकात में कहा, “यह सब जानते हैं कि कम्युनिस्टों ने किसी लोकतांत्रिक विरोध को नहीं माना. वे सिर्फ हिंसा की भाषा जानते हैं और इसका इस्तेमाल करते हैं, तब तो और जब उनकी सरकार हो.”
जहां ज्यादातर हिंसा होती है, उस उत्तर केरल के एक पत्रकार के रूप में मुझे अक्सर दोस्तों के संदेश आते हैं. वह पूछते हैं कि कैसे यह राज्य जो अपनी उच्च शिक्षा दर और प्रगतिशील सामाजिक मूल्यों के लिए जाना जाता था, अब विवेकहीन राजनीतिक हिंसा के लिए जाना जाने लगा है. असल में केरल में राजनीतिक हिंसा अन्य राज्यों के मुकाबले कम है लेकिन यहां होने वाली राजनीतिक हिंसा अक्सर राष्ट्रीय सुर्खियों में तब्दील हो जाती है. हालांकि, 2016 में कुल हत्याओं के मामले में केरल 20वें नंबर पर था. लेकिन राजनीतिक हत्याओं के मामले में तीसरे नंबर पर था. इसके आगे सिर्फ यूपी और बिहार थे. केरल के लोगों पर हर हत्या का प्रभाव महीनों तक बना रहता है क्योंकि जिस पार्टी के व्यक्ति की हत्या होती है वह बंद का आह्वान करती है और अक्सर हत्या करके अपना बदला लेती है.
यहां सड़कों पर लड़ाई के साथ धारणाओं की लड़ाई भी चलती रहती है और दोनो पक्ष एक-दूसरे पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाते हैं. आरएसएस की बात को बीजेपी के नेता और राष्ट्रीय मीडिया में उसके वफादार बल देते हैं. इनके कार्यकर्ताओं को “अन्यायी” केरल के वामपंथियों और जेहादी गठजोड़ का असहाय पीड़ित बताया जाता है. हालांकि, आधिकारिक आंकड़ों पर सतही नजर फेरने से इस दावे की पोल खुल जाती है. स्टेट ब्यूरो ऑफ क्राइम रिकॉर्ड द्वारा जारी किए गए आंकड़े के मुताबिक केरल में 1970 से 2016 तक 969 राजनीतिक हत्याएं हुईं. मृतकों में आधे से ज्यादा यानी 527 सीपीआई(एम) के कार्यकर्ता थे जबकि एक तिहाई से भी कम यानी 214 आरएसएस से जुड़े थे.
पिछले दो सालों में मैंने केरल में राजनीतिक हिंसा पर गहन अध्ययन किया और इस मुद्दे पर पुराने साहित्य देखे. इसके साथ-साथ मैं 'किलिंग फील्ड' के नाम से कुख्यात इस इलाके में नेताओं, कार्यकर्ताओं, पुलिस अधिकारियों, वकीलों, सामाजिक-कार्यकर्ताओं, विद्वानों और पत्रकारों से मिला. इस विश्लेषण से पता चलता है कि यहां आरएसएस की कहानी आम धारणा के विपरित बनाई गई है. राजनीतिक हिंसा की इन घटनाओं को उस नजरिए से अलग नहीं किया जा सकता है जिसके तहत हिंदुत्व की विचारधारा से दूर रहे राज्य में आरएसएस अपने पैर पसारने की कोशिश में है. इससे पता चलता है कि आमतौर पर पीड़ित से ज्यादा आरएसएस ही राजनीतिक हिंसा को भड़काता और उसका दोषी है. फहाद के केस में आरएसएस कम्युनिस्ट सहानुभूति के साथ मुसलमानों को निशाना बनाकर दोहरा ध्रुवीकरण कर रहा है.
हिंसा की इन घटनाओं में सीपीआई (एम) की कार्रवाई बदले की रही है. इसके बावजूद पार्टी को किसी भी तरह से निर्दोष नहीं बताया जा सकता. दोनों में बड़ा अंतर यह है कि जहां आरएसएस हिंसा की लिए बारीकी से तैयारी करती है, वहीं कम्युनिस्ट आमतौर पर अपने अड़ियल कैडर की मदद से अचानक हमले करते हैं. आरएसएस के अलावा कम्युनिस्ट राज्य में कांग्रेस, समाजवादी और मुस्लिम पार्टियों के कैडर के साथ भी हिंसक संघर्ष करते हैं.
सीपीआई (एम) के कई ऐसे हमले भी थे, जिन्हें आत्मरक्षा में किए गया हमला नहीं कहा जा सकता. पार्टी छोड़ने वाले टीपी चंद्रशेखरन और थालासेरी इलाके के सचिव पुंजायिल नानु की हत्या कर दी गई. इस साल 17 फरवरी को कसारगोड जिले के कालियोड गांव में युवा कांग्रेस के दो कार्यकर्ताओं क्रिपेश और शरत लाल को मौत के घाट उतार दिया गया. इस मामले में सीपीआई (एम) की लोकल कमेटी के. ए. पीतांबरन को गिरफ्तार किया गया. पीतांबरन ने अपनी गिरफ्तारी के बाद अपना गुनाह कबूल कर लिया. इसके बाद उसे पार्टी से निकाल दिया गया. लेकिन स्थानीय मीडिया में ये खबरें थीं कि इस मामले में राज्य में 'कोटेशन गैंग्स' के नाम से पहचाने जाने वाली एक पेशेवर हिट स्क्वॉड की भूमिका थी और इस मामले में पार्टी के बड़े नेताओं के नाम आने से रोकने के लिए पीतांबरन का कबूलनामा करवाया गया था. क्राइम ब्रांच की प्रारंभिक रिपोर्ट में कहा गया है कि आपसी विवाद के कारण हुई इन हत्याओं के लिए पीतांबरन जिम्मेदार हैं.
ऐसा लग रहा है कि आरएसएस परसेप्शन की लड़ाई जीत रही है. इसका श्रेय पार्टी के अपने विचारों को राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय करने के लिए लगातार किए जा रहे प्रयासों को जाता है. आहूति को गुजराती, हिंदी, मलयालम और मराठी में अनुवादित किया गया है. आरएसएस की एक वेबसाइट के मुताबिक, बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव और दक्षिण कर्नाटक के आरएसएस अधिकारी बीएल संतोष तकनीकी विशेषज्ञों की एक टीम का नेतृत्व करते हैं. यह टीम किताबों से लेकर बहु-स्तरीय रणनीति पर काम करती है जो राज्य में कम्युनिस्ट हिंसा को हाईलाईट करती है. यह पूरा काम बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के विजन के आधार पर होता है.
मध्य केरल से बीजेपी के एक मध्य-स्तर के नेता ने नाम उजागर न करने की शर्त पर मुझे बताया कि संतोष ने इस मुद्दे पर कई बैठक बुलाई थीं कि कैसे आरएसएस को केरल में हो रही राजनीतिक हिंसाओं की 'मार्केटिंग' करनी चाहिए. उन्होंने कहा कि वह ऐसे काम कर रहा था जैसे कोई एंटरप्रेन्योर अपना बिल्कुल नया उत्पाद लॉन्च कर रहा हो.
केरल में आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्याओं को मुद्दा बनाने वालों में दक्षिण कन्नड़ से सांसद नलिन कुमार कटील और जे नंदकुमार प्रमुख हैं. कटील बीजेपी की केरल यूनिट देखते हैं और नंदाकुमार आरएसएस के पदाधिकारी हैं, जिन्होंने आहुति की प्रस्तावना लिखी थी. दोनों ने अगस्त 2016 में इस मुद्दे पर देशभर का ध्यान खींचने के लिए आंदोलन शुरू किया था. अक्टूबर 2017 में हुई जन रक्षा यात्रा के मुख्य आयोजक कटील थे. इस यात्रा का मकसद देश के लोगों का ध्यान केरल में कम्युनिस्ट निर्दयता की तरफ खींचना था. कन्नूर के पेयन्नूर से शुरू होकर राजधानी तिरूवनंतपुरम के पड़ोसी शहर श्रीकार्यम तक की दो सप्ताह की इस यात्रा में तीन मुख्यमंत्रियों समेत बीजेपी के कई बड़े नेताओं ने हिस्सा लिया.
बीजेपी को इन प्रयासों का फायदा भी मिला. जहां फहाद की मौत को कुछ अखबारों के भीतरी पन्नों पर भी मामूली कवरेज मिली, वहीं आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्याओं को देशभर में बड़ी कवरेज मिली. ऐसे भी मामले हुए जहां इनके राजनीतिक दृष्टिकोणों की बात भी नहीं की गई.
29 जुलाई, 2017 की रात 34 वर्षीय आरएसएस कार्यकर्ता एसएल राजेश की हत्या कर दी गई. इसके पीछे राजेश के पड़ोसी मनिकुट्टन का नाम सामने आया. मनिकुट्टन, केरल एंटी-सोशल एक्टिविटी (प्रिवेंशन) एक्ट के तहत दो बार जेल जा चुका था. उस समय शहर के पुलिस कमिश्नर जी. स्पर्जन कुमार ने कहा कि प्रथम दृष्टया इस घटना का हालिया राजनीतिक विवादों से कोई लेना-देना नहीं है.
इस साल मार्च में मैंने मिंट के पत्रकार निधीश एमके से बात की. उन्होंने स्थानीय गैंग पर अपनी रिसर्च के लिए इन हत्याओं का अध्ययन किया है. उन्होंने मुझे बताया, "राजेश की दुर्भाग्यपूर्ण मौत का सीपीएम-आरएसएस विरोध से कोई लेना-देना नहीं है, जैसा मैनस्ट्रीम मीडिया में बताया जा रहा है." "राजेश और मनिकुट्टन दोनों पड़ोसी थे और श्रमिक दलित परिवारों से संबंध रखते थे." उन्होंने कहा कि मनिकुट्टन एक कट्टर कांग्रेसी परिवार से आता था, जिसे राज्य के एक बड़े कांग्रेसी नेता ने एक विवाद सुलझाने के लिए इस्तेमाल किया. इसके बदले में उसे राजनीतिक सरंक्षण मिला. उन्होंने बताया कि कई ऐसे मामले भी हुए हैं जहां मनिकुट्टन गैंग के कुछ लोग, जिन्हें आरएसएस ने ट्रेनिंग दी है, उन्होंने कम्युनिस्टों पर हमले किए हैं. हालांकि, 2016 के विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में बदलती राजनीतिक हवा को देखते हए मनिकुट्टन ने सीपीआई (एम) का सरंक्षण पाने के लिए उनके कार्यक्रमों में शिरकत की.
पुलिस की रिमांड रिपोर्ट के मुताबिक, मनिकुट्टन गैंग ने जुलाई, 2017 में अपने पड़ोसी परिवार पर एक हमला किया था. निधीश ने मुझे बताया कि यह हमला एक कथित प्रेम-प्रसंग की अफवाह को लेकर किया गया था, जिसमें मनिकुट्टन को लगा कि यह परिवार अफवाह फैला रहा है. इस परिवार को स्थानीय आरएसएस नेताओं का समर्थन हासिल था. राजेश ने अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए मनिकुट्टन के खिलाफ मामला दर्ज करा दिया. पुलिस ने कहा कि मनिकुट्टन ने बदला लेने के लिए राजेश को मार दिया. निधीश ने कहा कि गैंग राजेश को मारना नहीं चाहती थी, लेकिन वे नशे में इतने चूर हो गए कि उन्हें पता ही नहीं चला.
स्थानीय स्तर पर हुए हमले के बावजूद बड़े नेता और पत्रकार तिरुवनंतपुरम पहुंच कर हत्या के लिए सीपीआई (एम) के कैडर को दोषी ठहराने लगे. 6 अगस्त को राजेश के परिवार से मुलाकात के बाद केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि केरल में कम्युनिस्टों का राज आते ही "हिंसाओं के मामले बढ़ जाते हैं. राजेश के परिवार को दिए जख्म इतने गहरे हैं कि इन्हें देखकर आतंकवादी भी शरमा जाएं." बीजेपी की राष्ट्रीय प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी ने संसद में बयान दिया कि सीपीआई (एम) द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों की अंधाधुध हत्याओं के कारण 'भगवान का अपना देश' अब 'सुनसान देश' बन गया है.
अपने चैनल रिपब्लिक पर प्राइम टाइम के दौरान अर्नब गोस्वामी ने आरोप लगाया कि केरल में लगभग रोजाना एक आरएसएस कार्यकर्ता की हत्या की जा रही है. उन्होंने मांग की "अवॉर्ड वापसी गैंग" को इस "राज्य-समर्थित हिंसा" की निंदा करनी चाहिए. "अवार्ड वापसी गैंग" उन लेखकों, कलाकारों और विद्वानों के लिए तिरस्कारपूर्ण इस्तेमाल किया जाने वाला टर्म है, जिन्होंने देश में बढ़ रही असहिष्णुता के विरोध में अपने पुरस्कार वापस किए थे.
हालांकि, एक पूर्व डीजीपी ने मुझे बताया, "यह कहना कि सत्ता में आने के बाद सीपीएम, आरएसएस के खिलाफ हिंसा भड़काती है, ऐतिहासिक रूप से गलत है. आमतौर पर आरएसएस हिंसा की शुरुआत करती है. उसका मकसद गृह मंत्रालय संभाल रही पार्टी के कैडर को उकसाना होता है." उन्होंने कहा कि मौजूदा पिनराई विजयन सरकार के समय भी "यह आरएसएस थी, जिसने हत्याओं की शुरुआत की थी."
(दो)
1940 में आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक और आरएसएस के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले एमएस गोलवलकर ने केरल में खास रूचि दिखाई थी. साथ ही वह केरल में आरएसएस फैलने को लेकर खासी दिलचस्पी ले रहे थे. आरएसएस की विचारधारा की मूल और अपनी किताब बंच ऑफ थॉट्स में गोलवलकर ने संगठन के आदर्श हिंदू राष्ट्र के लिए "आंतरिक खतरों" के लिए एक पूरा सेक्शन लिखा है. इसमें उन्होंने केरल को हिंदुत्व के तीन आंतरिक दुश्मनों- मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्टों का किला बताया है.
उनके विचार में, "देश में मौजूद विरोधी तत्व राष्ट्र सुरक्षा के लिए बाहरी आक्रमणकारियों से ज्यादा बड़ा खतरा हैं." 1921 के मोपला दंगों, जिसे मालाबार विद्रोह के रूप में भी जाना जाता है, का जिक्र करते हुए गोलवलकर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ फेरबदल करते हैं. मुसलमान किसानों की यह बगावत ब्रिटिश हुकूमत और उनका साथ दे रहे हिंदू जमींदारों के खिलाफ थी, लेकिन गोलवलकर ने इसे "हिंदूओं के खिलाफ जिहाद बताते हुए लिखा कि 'काफिर' मुस्लिम बर्बरता के के साथ हत्याएं, आगजनी, छेड़छाड़, लूटपाट और जबरन धर्मपरिवर्तन करा रहे हैं." मोपलाह को राष्ट्रभक्त बताते हुए उन्होंने लिखा, “यह दिखाता है कि एक लंबी आत्मघाती जड़ता ने राष्ट्र चेतना और सुरक्षा को बिल्कुल कुंद कर दिया है”.
ऐसे ही एक जगह उन्होंने ईसाइयों को “अंतरराष्ट्रीय साजिशकर्ताओं का एजेंट” बताया है. उन्होंने लिखा "ईसाई अंतरराष्ट्रीय साजिश के एजेंट हैं जो न सिर्फ हमारे जीवन के धार्मिक और सामाजिक तानेबाने को नष्ट करने बल्कि दुनिया में अलग-अलग जगह अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं." उनके अनुसार, “केरल के ईसाई दो स्तरों में भारत की आत्मा के अधिग्रहण के मोहरे हैं. पहले वे इस दक्षिणी राज्य को ईसाई-बहुल बनाएंगे फिर हिमालय क्षेत्र को”. उन्होंने मुसलमानों और ईसाइयों के बीच जमीन के बंटवारे के लिए काल्पनिक समझौते के बारे में भी लिखा है.
कम्युनिज्म के लिए यह "बढ़ता हुआ खतरा" और "लोकतांत्रिक प्रक्रिया का दुश्मन" था. यह उन्हें लगने वाला सबसे बड़ा आंतरिक खतरा था. कम्युनिस्टों और उनके ईश्वरविहिन तरीकों के लिए बंच ऑफ थॉट्स संदर्भों से भरी हुई थी. ईसाई और इस्लाम के विपरित कम्युनिस्ट पार्टियां ही आरएसएस के लिए कार्यकर्ताओं की भर्ती के लिए सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी थीं जो बड़ी संख्या में कामगारों और खेतिहर हिंदुओं को अपनी ओर आकर्षित कर रही थीं.
देसराज गोयल पत्रकार बनने से पहले संघ से जुड़े हुए थे. वह 1940 के दशक में युवावस्था में ही आरएसएस से जुड़ गए थे. उन्होंने 1979 में अपने संस्मरण में लिखा आरएसएस की विचारधारा में गोलवलकर का सबसे बड़ा योगदान, "कम्युनिस्ट-विरोधी, समाजवाद-विरोधी परंपरा को विकसित करने का रहा है." उन्होंने रिसर्चर जे. ए. करण के हवाले से लिखा कि अगर भारत में कम्युनिज्म शासन में आ गया तो आरएसएस "अतिवादी हिंदू राष्ट्रवादी मार्क्सवाद-विरोधियों के लिए नेतृत्वकारी बन जाएगा." जे. ए. करण अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा चलाए जा रहे थिंक टैंक में रिसर्चर थे.
1942 में गोलवलकर ने आरएसएस के दो युवा प्रचारकों दत्तोपंत ठेंगड़ी और मधुकर ओक को क्रमशः मालाबार और त्रावणकोर भेजा. उस समय “भारत छोड़ो आंदोलन” चल रहा था और केरल में साम्राज्यवाद विरोधी भावना और राजनीतिक गतिविधि उफान पर थी. राज्य का कांग्रेस नेतृत्व बाकी देश की तरह गिफ्तार हो चुका था, ऐसे में यहां राजनीतिक शून्यता पैदा हो गई थी. तब नई कम्यूनिस्ट पार्टी, जिसने आंदोलन का विरोध किया था, को लोकप्रियता मिल रही थी, लेकिन साथ ही उसे हिंदू राजाओं और जमींदारों के गुस्से का सामना भी करना पड़ रहा था.
आरएसएस के आने के लिए स्थिति पूरी तरह तैयार थी. स्वतंत्रता आंदोलन में आरएसएस की भूमिका का अध्ययन करने वाले इतिहासकार शम्सुल इस्लाम ने लिखा कि संगठन "साम्राज्यवादी शासकों की कठपुतली बन चुके हिंदू राजाओं का बचाव करते-करते बढ़ा." आरएसएस की पहली शाखा नागपुर के शाही परिवार द्वारा दी गई जमीन पर बनाई गई. वहीं कोल्हापुर की शाखा का नाम पहले सरसंघचालक के. बी. हेडगेवार के निर्देश पर स्थानीय राजा के नाम पर रखा गया.
शाही परिवारों के साथ समझौते का यह पैटर्न केरल में भी दोहराया गया. आरएसएस के कई दस्तावेजों के मुताबिक, जेमोरिन और नीलांबर जैसे मालाबार के पूर्ववर्ती शासकों और महात्मा गांधी के "मुस्लिम तुष्टिकरण" से नाराज कांग्रेस के प्रमुख जाति वाले सदस्यों ने ठेंगड़ी को काझीकोड और कन्नूर जिले में संगठन की पहली शाखा लगाने में मदद की. कुलीन हिंदू युवा ओं ने क्षेत्र में आरएसएस की सदस्यता ली. राज्य के दक्षिणी हिस्से त्रावणकोर में आरएसएस ने तेजी से बढ़ रहे व्यापारिक वर्ग को अपनी ओर आकर्षित किया. उदाहरण के लिए एक बड़ी काजू फैक्ट्री के मालिक और कांग्रेस नेता आर. शंकर के करीबी गोपालन मुथालाली कई सालों तक आरएसएस के कोलम जिला अध्यक्ष रहे. आर. शंकर केरल के तीसरे मुख्यमंत्री बने थे.
ठेंगड़ी ने गोलवलकर को बताया कि आरएसएस के विकास में कम्युनिस्ट आंदोलन सबसे बड़ी बाधा है. गोलवलकर ने आरएसएस कार्यकर्ताओं को कम्युनिस्ट आंदोलन को रोकने के लिए जरूरी सारे कदम उठाने को कहा.
आरएसएस का पहला 'निर्देश' ट्रेनिंग कैंप 1943 में कोझीकोड में आयोजित किया गया. गोलवलकर इस कैंप में उपस्थित थे. अपनी मौत के समय तक गोलवलकर हर साल केरल का दौरा करते थे. ठेंगड़ी ने गोलवलकर को बताया कि आरएसएस के विकास में कम्युनिस्ट आंदोलन सबसे बड़ी बाधा है. गोलवलकर ने आरएसएस कार्यकर्ताओं को कम्युनिस्ट आंदोलन को रोकने के लिए जरूरी सारे कदम उठाने को कहा.
संघ को राजनीति से दूर एक सांस्कृतिक संगठन बताया गया. इसकी सबसे पहली रणनीति मंदिरों में प्रवेश की थी. एक बार स्थापना होने के बाद संघ ने खुद को हिंदुत्व के रक्षक के रूप में स्थापित कर लिया.
इसके तुरंत बाद हिंसा शुरू हो गई. फरवरी, 1948 में गांधी की हत्या के बाद कुछ कम्युनिस्टों ने थालासेरी स्थित थिरुवांगड़ श्री रामास्वामी मंदिर में चल रही आरएसएस शाखा में छापेमारी की. यह मंदिर और इसके पड़ोस में रहने वाली हिंदू आबादी राज्य में आरएसएस का गढ़ बन गई थी. एनई बालाराम के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने आरोप लगाया कि संघ हथियारों की ट्रेनिंग दे रहा है. छापामारी करने वालों में शामिल पी कृष्णन की डायरी के मुताबिक, उन्होंने वहां से तलवार और भाले बरामद किए थे, जो उन्होंने मंदिर के तालाब में फेंक दिए थे.
गांधी की हत्या से पहले गोलवलकर ने तिरुवनंतपुरम में एक रैली को संबोधित किया था. इसमें कम्युनिस्ट छात्र और कार्यकर्ताओं ने बाधा डाली थी. 2008 में अपने एक भाषण में आरएसएस विचारक पी. परमेश्वरन ने दावा किया कि यहीं से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और आरएसएस के बीच दुश्मनी शुरू हुई. उन्होंने कहा यह बिना किसी उकसावे के शुरु हुई थी.
हालांकि, दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास के सहायक प्रोफेसर पीके यासिर अराफात ने मुझे बताया कि गांधी की हत्या के बाद आरएसएस नेताओं ने तिरुवनंतपुरम और देश के बाकी हिस्सों में मिठाईयां बांटी थीं. अपने एक भाषण में गोलवलकर ने गांधी के अहिंसावाद और बंटवारे में उनकी भूमिका को लेकर निशाना साधा था.
जाने-माने मलयाली कवि ओ.एन.वी. कुरूप को 2011 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उन्होंने कॉलेज छात्रों के एक छोटे समूह में उस भाषण को सुना था. वह याद करते हैं कि भाषण के बाद लेखक मलयात्तूर रामाकृष्णन और कम्युनिस्ट नेता करुणागपाली जी कार्तिकेयन ने साप्ताहिक पत्रिका “कलाकौमुदी” में लेख लिखकर गोलवलकर से आजादी के आंदोलन में आरएसएस की भूमिका के बारे में कुछ सवाल किए थे. "शांति से इन प्रश्नों का उत्तर देने की बजाय वह गुस्सा हो गए और अपने कार्यकर्ताओं को लेखकों को पीटने का आदेश दे दिया. इनमें से अधिकतर कार्यकर्ता तिरुवनंतपुरम के तमिल ब्राह्मण समुदाय से संबंध रखते थे. लेखकों के साथ-साथ उन्होंने हमें भी पीटना शुरू कर दिया. फिर हमने उनके हाथ से छड़ी छीनकर उनकी पिटाई कर दी."
अराफात की रिसर्च के मुताबिक, आरएसएस ने "संचार के तौर पर हिंसा की शुरुआत 1952 में गोलवलकर की उस थ्योरी के बाद की थी, जिसमें उन्होंने हिंसा को जायज बताते हुए इसे हिंदू समाज की रक्षा और इलाज के लिए डॉक्टर के चाकू की तरह बताया था." इसी साल संघ ने देशभर में गोहत्या के खिलाफ एक अभियान शुरू किया, जिसने मालाबार क्षेत्र में मुस्लिमों के खिलाफ एक आक्रामक रूप ले लिया. इसके साथ आज के समय में "लव जिहाद" के नाम से जाने जाने वाले अभियान जैसा एक अभियान भी चल रहा था. आरएसएस के समर्थन वाले एक संगठन ने मुलसमानों के खिलाफ एक सांप्रदायिक अभियान चलाया, जिसमें उन्होंने हिंदू लड़कियों के जबरन धर्मांतरण का आरोप लगाया. इसके बाद कम्युनिस्टों ने इसमें दखल दिया और माहौल को बिगड़ने से बचा लिया. सीपीआई नेता ए. के. गोपालन, जो उस समय लोकसभा में विपक्ष के नेता थे, ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को चिट्ठी लिख कर राज्य में आरएसएस की गतिविधियों के बारे में बताया.
आरएसएस के अभिजात्य वर्ग से बाहर पैर पसारने के साथ ही ध्रुवीकरण के नतीजे दिखने शुरू हो गए. आरएसएस का पहला लक्ष्य उत्तरी मालाबार के मछुआरा समुदाय की पीड़ित जाति “अराया” बनी, इसकी मदद से संघ ने तटीय बेल्ट में अपने कई संगठन शुरू कर दिए. समुदाय पर आरएसएस की ताकत तब नजर आई, जब संघ ने क्षेत्र के उग्रवादी स्वयंसेवकों को विवेकानंद रॉक मेमोरियल बनाने के लिए कन्याकुमारी भेजा. वलायी बीच पर चलने वाली शाखा के प्रमुख पीबी लक्ष्मणन की टीम ने विवादित स्थल पर ईसाई मछुआरों द्वारा बनाए गए क्रॉस के निशान को तोड़ा था. 1970 में इस प्रोजेक्ट का निर्माण कार्य पूरा हुआ. यह आरएसएस द्वारा दक्षिण भारत में चलाया गया लोगों से जुड़ने का पहला बड़ा कार्यक्रम था.
इस मेमोरियल के निर्माण में एकनाथ रानाडे ने अहम भूमिका निभाई थी. उन्होंने बाद में बताया कि केरल के पहले कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री ई.एम.एस. नंबूदरीपाद एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने उन्हें मेमोरियल के लिए बिना सहायता दिए लौटा दिया था. यहां तक की हिंदुत्व की राजनीति के धुर विरोधी तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने भी इस मेमोरियल के लिए सहायता दी थी. आरएसएस के एक पूर्व सदस्य ने मुझे बताया कि नंबूदरीपाद के इनकार ने आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व में कम्युनिस्टों के प्रति एक बदले की भावना भर दी.
हालांकि, नंबूदरीपाद के प्रति संघ की शत्रुता नई नहीं थी. 1959 में आरएसएस और इसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जन संघ ने दुनिया की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार यानी नंबूदरीपाद सरकार के विरुद्ध हिंसक आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी. गोलवलकर ने मुसलमान और ईसाइयों को कम्युनिस्टों के उत्थान की वजह बताया था. गोलवलकर के ईसाइयों और मुसलमानों के प्रति इस तरह के विचारों के बावजूद संघ को दोनों समुदाय के कम्यूनिस्ट-विरोधी लोगों को अपने साथ लेने में कोई हिचक नहीं हुई. गोलवलकर ने अटल बिहारी वाजपेयी को कोट्टायम भेजा, जो आगे चलकर देश के प्रधानमंत्री बने. उन्होंने वहां भारी संख्या में इकट्ठे हुए लोगों को संबोधित किया, जिसने राज्य सरकार का विरोध कर रही ताकतों को एक साथ ला दिया. बढ़ते राजनीतिक दबाव के बीच प्रधानमंत्री नेहरू ने उस साल 31 जुलाई को नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया था. आरएसएस ने इस दिन को “विजय दिवस” के रूप में मनाया था.
आरएसएस की दोहरी रणनीति, हिंदू मजदूर वर्ग में अपनी पहुंच बढ़ाने के साथ-साथ कम्युनिस्ट-विरोधी संभ्रांत में अपनी पकड़ मजबूत करनी थी. जिसे 1960 के दशक में खास कर 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध के बाद अच्छी पहचान मिली. इस युद्ध के दौरान संघ ने कम्युनिस्टों को चीन के साथ समझौते का समर्थन करने की वजह से “गद्दार” घोषित किया था. फिर भी 1967 चुनाव में भारतीय जन संघ द्वारा अपनी सर्वाधिक सीट जीतने के बाद भी सीपीआई(एम) ने केंद्र और राज्य के चुनाव में सूपड़ा साफ कर दिया. भारतीय जन संघ, जो आगे चलकर बीजेपी बनी, ने सालों तक राज्य में बेशक अपना वोट शेयर बढ़ाया हो, लेकिन इसे विधानसभा की पहली सीट 2016 के चुनाव में मिली.
आरएसएस ने खुद को सिर्फ सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित नहीं रखा बल्कि यह राज्य में कम्युनिस्टों के विरुद्ध सबसे उग्र शक्ति के रूप में सामने आया. मैंगलोर गणेश बीड़ी कांड ने इस नई पहचान को सबके सामने रखा.
गोलवलकर की परवरिश राज्य के सबसे शक्तिशाली और संगठित पूंजीवादी कोंकणी भाषी गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों के यहां हुई, जो मैंगलोर गणेश बीड़ी चलाते थे. बीड़ी बनाने वाली यह एकमात्र ऐसी बड़ी कंपनी है जिसका गोलवलकर ने बंच ऑफ थॉट्स में जिक्र किया है. इसमें तमिलनाडु के ईदींराकराई के निवासी, जिन्हें "धोखे से ईसाई बनाया गया था" को वापस "पैतृक हिंदू" बनाने की एक घटना का जिक्र है. इसमें गोलवलकर ने गणेश बीड़ी के मालिकों की नए हिंदू बने लोगों को रोजगार देने के लिए गांव में बीड़ी बनाने की यूनिट लगाने के तारीफ की है.
जब उनके खुद के कर्मचारियों की बात आती थी, तो गणेश बीड़ी के संस्थापक रघुराम प्रभु और उनके जीजा बी माधन शिनॉय इतने शालीन नहीं थे. कंपनी खराब कार्य वातावरण और बेहद कम सैलरी देने के लिए कुख्यात थी.
कन्नूर में संगठित बीड़ी कामगार गणेश बीड़ी के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे थे. 1946 में उन्होंने कम्युनिस्टों के नेतृत्व में एक बड़ा उग्र आंदोलन शुरू किया, जिसकी वजह से कंपनी को राज्य में अपने संचालन का तरीका बदलना पड़ा. इसके बाद कंपनी ने बड़ी फैक्ट्रियों की बजाय घरों में उत्पादन करना शुरू कर दिया. कामगारों ने इस फैसले का विरोध चालू रखा. 1966 में गोपालन ने बीड़ी और सिगार (रोजगार की स्थिति) कानून को संसद में पास करवाने में अहम भूमिका निभाई. नए कानून ने काम के वातावरण के लिए न्यूनतम स्तर तय करने के साथ-साथ लाइसेंस और इंस्पेक्टर का दौर भी शुरू किया.
1967 में दूसरी बार चुने जाने पर नंबूदरीपाद सरकार ने कानून लागू करवाया. इसके जवाब में गणेश बीड़ी ने नुकसान होने की बात कहकर राज्य में अपने उत्पादन पर रोक लगा दी, जिससे केरल में 12 हजार बीड़ी कामगारों की नौकरी चली गई.
राज्य में संघ के "शर्मनाक अपराधिकरण और भ्रष्टाचार" को देखने के बाद संघ से अलग हुए पनूर के एक पूर्व प्रचारक ने इस बारे में मुझसे बात की. उन्होंने मुझे बताया, "संघ को लगा कि अगर इन कामगारों को संघ की व्यवस्था के तहत नौकरी दी जाती है तो इससे इनकी और इनके परिवार की राजनीतिक वफादारी हासिल की जा सकती है." उन्होंने कहा कि गोलवलकर ने गणेश बीड़ी के मालिकों से बात की और एक व्यवस्था बनाई गई. इसके तहत कंपनी कच्चा माल देगी और संघ घरों में उत्पादन का काम संभालेगा. उन्होंने कहा, "यह स्पष्ट सौदा था." "इस प्रोजेक्ट के लागू होने से इलाके में कम्युनिस्टों का प्रभाव दूर होगा और गणेश बीड़ी के मालिकों को बिना फैक्ट्री का वेतन दिए उच्च कौशल और जाने-माने बीड़ी कामगारों की सेवा मिलेगी."
कुछ कामगार संघ द्वारा चलाई जा रही तीन नई यूनिटों से जुड़ने को तैयार हो गये, लेकिन अधिकतर ने व्यवस्था के पुनर्गठन के लिए अपने संघर्ष को जारी रखने की बात कही. हालांकि, गणेश बीड़ी का प्रबंधन दोबारा विचार करने को तैयार नहीं था. गोपालन के नेतृत्व में नौकरियां गंवाने वाले कामगारों के मैंगलोर में कंपनी के हेडक्वार्टर पर मार्च के बाद भी कंपनी ने समझौते से इनकार कर दिया. नतीजतन, 1969 में कम्युनिस्ट सरकार ने केरल दिनेश बीड़ी कामगार को-ऑपरेटिव के गठन का समर्थन किया. यह बीड़ी कामगारों द्वारा बनाया और चलाया जा रहा कोऑपरेटिव था. कोऑपरेटिव में अभी लगभग 6 हजार लोग काम कर रहे हैं, इसमें परिधान बनाने, फूड प्रोसेसिंग और आईटी की ब्रांच भी चलाई जा रही है.
आरएसएस ने गणेश बीड़ी के साथ मिलकर किए गए इंतजामों की सुरक्षा के लिए लगातार हिंसा की. पत्रकार उल्लेख एनपी अपनी किताब कन्नूर: इनसाइड इंडियाज ब्लडियेस्ट रिवेंज पॉलिटिक्स में लिखते हैं, "यही समय था जब सीपीआई (एम) की थालासेरी यूनिट के सचिव आर राघवन को एक शाम उनके घर के रास्ते में रोककर संघ के रास्ते में न आने की चेतावनी दी गई थी." "चेट्टीपीडिका के पास से गुजरने वाले और मुकुंद टॉकीज में फिल्म देखने जाने वाले सीपीआई (एम) के कई दूसरे कार्यकर्ताओं को नियमित तौर पर परेशान किया जाता था." राज्य की राजनीतिक हिंसा में जान गंवाने वाले पहले संघी वेदिक्कल रामाकृष्णन उस गैंग के लीडर थे जो मुकुंद टॉकीज पर बीड़ी कामगारों पर हमला करती थी. उनकी 28 अप्रैल 1969 को हत्या कर दी गई. कहा जाता है यह हत्या संभवतः सीपीआई (एम) के मौजूदा प्रदेश सचिव कोडीयेरी बालाकृष्णन पर हुए हमले के बदले में की गई थी, जो उस समय 16 वर्षीय छात्र नेता थे.
रामाकृष्णन, असल में संघ और कम्युनिस्टों के बीच सघर्ष के पहले पीड़ित नहीं हैं. इससे एक साल पहले 29 अप्रैल 1968 को काझीकोड के मवूर स्थित बिड़ला की ग्वालियर रेयॉन (अब ग्रेसिम) फैक्ट्री के उग्र यूनियन नेता पीपी सुलेमान की घर लौटते समय हत्या कर दी गई थी. उनके हमलावरों ने उनके घर जाने वाले रास्ते पर घात लगाकर उनका कुल्हाड़ी से कत्ल कर दिया.
कन्नूर के श्री नारायणा कॉलेज के राजनीति शास्त्र के विभागाध्यक्ष और जिले में राजनीतिक हिंसा पर पीएचडी करने वाले टी शशिधरन ने मुझे बताया कि आरएसएस ने जल्द ही दिनेश बीड़ी फैक्ट्रियों पर हमले करने शुरू कर दिए. ये हमले पहले के बिना तैयारी के होने वाले संघर्षों के उलट योजनाबद्ध तरीके से सावधानीपूर्वक किए जाते थे. इन हमलों में घर में बने बम और घातक हथियारों का इस्तेमाल भी शुरू हो गया था.
पनूर के पूर्व प्रचारक ने मुझे बताया कि केवल फैक्ट्रियां ही निशाने पर नहीं थी. इनमें से अधिकतर कामगार मलूर गांव से आते थे तो उनके दोस्तों और रिश्तेदारों को योजनाबद्ध तरीके से निशाना बनाया जाता था. उन्होंने कहा, "इसका मकसद उग्र कामगारों को हतोत्साहित करना था." शशिधरन ने कहा कि इन हमलों से लक्ष्य हासिल हुआ लेकिन बीड़ी कामगारों और कम्युनिस्ट कैडर ने आत्म-रक्षा में बदला लेना सीख लिया. "आखिरकार उन्होंने निशाना बनाकर की जाने वाले हिंसा की कला सीख ली."
केरल के मौजूदा मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन को 1967 में 23 साल की उम्र में थालासेरी इलाके का सीपीआई (एम) का सचिव नियुक्त किया गया था. पिनाराई के शहर में रहने वाले एक पूर्व दिनेश बीड़ी कामगार ने मुझे बताया, "विजयन ने 1960 और 70 के दशक में संघ द्वारा शुरू की गई व्यवस्थित हिंसा को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. वे निडर थे और आरएसएस की हिंसा उन्हें डरा नहीं सकी." विजयन का नाम रामाकृष्णन की हत्या में आया था, लेकिन बाद में मामले की सुनवाई कर रही अदालत ने उन्हें बरी कर दिया. फिर भी संघ उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद बार-बार इस केस में उनके शामिल होने की बात कहता है.
विजयन को यह बात पता चल गई थी कि संघ, दिनेश बीड़ी कामगारों को निशाना बना रहा है. 1969 में जब एक आरएसएस समूह ने मलूर में कॉपरेटिव की फैक्ट्रियों पर हमला किया तो दहशत में आए कामगारों ने इसके विरोध में बैठक की. दिनेश बीड़ी के पूर्व कामगारों ने मुझे बताया कि विजयन ने इस प्रदर्शन के दौरान भाषण दिया था. उन्होंने कहा था, "आरएसएस को इस हिंसा के लिए उनके बिल से निकाल कर भगा दिया जाएगा." इससे भीड़ में जोश आ गया. कुछ दिन बाद एक भीड़ ने थालासेरी स्टेडियम के पास हमला करने के लिए गोपाल बीड़ी और आरएसएस द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मार्शल आर्ट विशेषज्ञ गुरुक्कल कुमारन पर हमला किया. कामगारों ने मुझे बताया कि इस बदले की कार्रवाई ने इस व्यक्ति की असाधारण मार्शल योग्यता की अफवाह की हवा निकाल दी. उन्होंने कहा कि विजयन ने इस बात पर जोर दिया कि कम्युनिस्टों की बदले की कार्रवाई "फासीवादी-विरोधी सर्वहारा जन रक्षा" के लिए होनी चाहिए न कि खुद को ऊपर दिखाने के लिए.
6 अप्रैल, 1979 को संघ ने थोड़े अंतराल में 6 दिनेश बीड़ी फैक्ट्रियों पर बम फेंके, जिसमें दो कामगारों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए. निशाना बनाई गई एक फैक्ट्री कोटीयोडी में सीपीआई (एम) के गढ़ पट्टनम के करीब थी. ऐसे हमलों में भाग ले चुके एक पूर्व प्रचारक ने मुझे बताया कि पहले वेली बीच पर रहने वाले अरायज को एक समूह को निशाना बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, लेकिन बदले की कार्रवाई के डर से गैंग के नेता ने खुद को पीछे कर लिया. इसके बाद कोझीकोड के अटहोली के हरिदासन नामक जाने-माने स्ट्रीट-फाइटर के नेतृत्व में एक टीम बनाई गई. हरिदासन ने नागपुर में ऑफिसर्स ट्रेनिंग कोर्स किया था और वह बम, तलवार और कुल्हाड़ी चलाने में माहिर था.
योजना के मुताबिक, हमले की शुरुआत फैक्ट्री पर बम फेंकने के साथ हुई. कुछ बम फटे नहीं तो फैक्ट्री के मजदूरों ने पत्थर फेंकने शुरू कर दिए. अचानक से एक कुत्ते और फैक्ट्री के कामगारों ने हमलावरों का पीछा किया. गफलत में हमलावर नजदीकी गांव कोंकाची में जाकर छिप गए. एक पूर्व कैडर ने मुझे बताया कि हरिदासन रास्ता भूल गया. "एक बार जब उसके पास बम खत्म हुए तो उसने तलवारों से भीड़ को रोकने की कोशिश की, लेकिन भीड़ बड़ी होने के कारण हरिदासन कुछ नहीं कर सका और उसे पत्थरों से मार-मारकर मौत के घाट उतार दिया गया.
इन धमाकों की जांच करने वाले एक पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया कि हरिदासन संघ का आदमी था क्योंकि उसने धोती के नीचे खाकी शॉर्ट्स पहने हुए थे. कोझीकोड से उसका संबंध ढूंढने में कई दिन लग गए. पुलिस अधिकारी ने कहा, "जांच को प्रभावित करने के लिए पड़ोसी जिलों से कैडर भेजना और कई मामलों में कर्नाटक से लोगों को भेजना आरएसएस की चतुराई भरी तकनीक थी." "कम्युनिस्टों ने स्थानीय बीजेपी और आरएसएस कार्यकर्ताओं के नाम पुलिस शिकायत में दिए, लेकिन कुछ ही स्थानीय नेता इनकी योजना और इन्हें अंजाम देने के बारे में जानते थे."
(तीन)
सुदेश मिन्नी 1989 में पांच साल की उम्र में संघ से जुड़े थे. 11 साल के होते ही उन्हें स्थानीय शाखा का मुख्य शिक्षक बना दिया गया था. तब वे हाई स्कूल के 30 छात्रों को शारीरिक कसरत और गोलवलकर की किताब से वैचारिक भाव सिखाते थे. उनके बड़े भाई संतोष 17 साल से अधिक उम्र के युवकों के लिए रात को चलने वाली शाखा के मुख्य शिक्षक थे. सालों तक कई ट्रेनिंग कैंप, नागपुर में विशेष ट्रेनिंग के बाद मिन्नी प्रचारक बन गए. इसके बाद वे संघ के बौद्धिक विभाग का मुख्य हिस्सा बन गए.
हालांकि मिन्नी का कार्यक्षेत्र बच्चों की भर्ती और उन्हें समझाने तक ही सीमित था, लेकिन वह छोटी उम्र से ही आरएसएस की हिंसा में शामिल रहे. संघ में उनके दिनों के संस्मरण, जिसका इंग्लिश में सैलर्स ऑफ द इन्फर्नो: कन्वेंशन ऑफ एन आरएसएस प्रचारक में उन्होंने शाखा में हुई बैठक का जिक्र किया है. इस बैठक में 10 वर्षीय मिन्नी और उनके भाई शामिल हुए थे. इसमें दासन नामक शाखा कार्यवाहक को एक स्थानीय कम्युनिस्ट की हत्या में शामिल होने पर सम्मानित किया गया था. मिन्नी उन दिनों दासन को अपना रोल मॉडल मानते थे.
"मार्क्सवादी आतंकियों द्वारा दी गई चुनौती का मुकाबला" करने के मुद्दे पर दासन ने एक स्थानीय कृषि मजदूर यूनियन का जिक्र किया जो जमीन सुधार की बात और स्थानीय सामंतों के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही थी. उन्होंने प्रस्ताव दिया कि संघ को जमीन जब्त कर जमींदारों को लौटा देना चाहिए और केंद्रीय नेतृत्व पर उसे बचाने की बात कहते हुए हमला करना चाहिए. इसके जवाब में संघ स्थानीय समिति को सौंपे गए पूजास्थलों का नियंत्रण और शाखा के लिए जमीन पर नियंत्रण कर लेगा. मिन्नी और उसके साथियों को बम बनाने की ट्रेनिंग दी गई थी लेकिन नियुक्ति के दिन हमले हो गए. संघ ने पूजास्थल को कब्जे में ले लिया और मिन्नी ने नई जगह शाखा चलानी शुरू कर दी. हालांकि, अदालत ने जब्त की गई खेती की जमीन को वापस कृषि मजदूरों को लौटा दिया. यह पूरा मामला इस बात का सूचक है कि कैसे सीपीआई (एम) द्वारा संगठित कृषि मजदूरों और जमींदारों के बीच शुरू हुआ संघर्ष कम्युनिस्टों और संघ के बीच राजनीतिक हिंसा में तब्दील हो गया.
सुदेश मिन्नी ने मुझे संघ में शामिल होने वाले युवा रंगरूटों को दी गई पैरामिल्ट्री ट्रेनिंग के विस्तृत मैनुअल दिखाए, जिन्होंने राजनीतिक हिंसा को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई थी. संघ द्वारा अलग-अलग तरीकों से बच्चों को भर्ती करना, सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने की कोशिश, जातिवाद, महिलाओं के विरूद्ध अत्याचर और वित्तीय अनियमितताओं के चलते मिन्नी का संघ से मोहभंग हो गया. केरल के इंचार्ज प्रचारक पीआर शशिधरन को लिखे अपने इस्तीफे में मिन्नी ने लिखा, "एक समय था जब मैं जोश और उत्साह के साथ संघ की गतिविधियों में हिस्सा लेता था. अब मेरा मन ऊब गया है. अब मुझे लगता है कि यह सफर मुझे देवताओं की ओर नहीं ले जाएगा."
जब हम जून 2017 में मिले तो मिन्नी ने मुझे बताया, "संघ से इस्तीफा देने के बाद मुझे मारने देने की धमकियां मिली." अपनी जान को खतरा देखते हुए वह स्थानीय सीपीआई (एम) नेतृत्व के पास गए, जो उन्हें पार्टी के जिला सचिव पी जयराजन के पास ले गए. अब वह सीपीआई (एम) द्वारा आयोजित सार्वजनिक व्याख्यान देते हैं, जिसमें वे संघ के दस्तावेजों और संघ के शीर्ष नेतृत्व के साथ हुई भरोसेमंद सूत्रों की बातों के बारे में विस्तार से बताते हैं. वह केरल में आरएसएस की "छिपी राजनीति" के बारे में भी बताते हैं.
मिन्नी के साथ मेरी बातचीत से मुझे हिंदुत्व की भयावह राजनीति की जानकारी मिली. उन्होंने मुझे कई ऐसे मैन्युअल दिखाए जिनमें संघ के युवा रंगरूटों को दी गई पैरामिल्ट्री ट्रेनिंग के बारे में बताया गया था. ट्रेनिंग के साथ उनके वैचारिक स्वदेशीकरण ने राज्य में राजनीतिक हिंसा को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई.
मिन्नी ने मुझे बताया कि हत्या और दूसरे हिंसात्मक अपराधों के अपराधी संघ के अधिकतर कैडर “बालगोकुलम” में रहे हैं. पुलिस रिकॉर्ड भी इस बात की पुष्टि करते हैं. संघ ने 1975 में बालगोकुलम शुरू कर इसे 1981 में सांस्कृतिक संगठन के रूप में रजिस्टर करवाया गया था. संघ के साहित्य में बालगोकुलम को बच्चों के मन में राष्ट्रवाद और जीवन में हिंदू पद्धति को शामिल करना सिखाने वाले संगठन बताया जाता है. भारत में फैले हुए लगभग तीन हजार बालगोकुलम में से 80 फीसदी अकेले केरल में है.
पनूर के पूर्व प्रचारक के मुताबिक, बालगोकुलम अभियान की शुरुआत कम्युनिस्ट शासन में फैले तर्कवाद और निरीश्वरवाद को रोकने के लिए हुई थी. उन्होंने कहा संगीत, हिंदू साहित्यों से कहानियों और खेलों के माध्यम से युवा लड़कों को आकर्षित किया जाता था. उन्होंने मुझे बताया, "राज्य में गैर संघ और कम्युनिस्ट परिवारों से आने वाले हिंदू लड़कों पर खास ध्यान देने के आदेश दिए गए थे."
बच्चों का स्वदेशीकरण आरएसएस की नीति के अनुसार था. देसराज गोयल ने बताया कि महाराष्ट्र में हिंदू महासभा के नेता बीएस मूंजे ने हेडगेवार को स्कूलों के दिनों से ही वित्तीय सहायता देनी शुरू कर दी थी. 1925 में बलिष्ठ शरीर और स्ट्रीट फाइटिंग में कौशल दिखाने वाले हेडगेवार ने 12-15 साल के बच्चों को भर्ती करने पर जोर दिया.
नागपुर में पहली शाखा में शारीरिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से संघ की विचारधारा बच्चों को बताई जाती थी. हेडगेवार ने 1927 में उनके लिए दो महीने का ट्रेनिंग कैंप आयोजित किया. गोयल ने लिखा, "20 स्वयंसेवकों को लाठी, तलवार, भाला और छुरा चलाने की ट्रेनिंग दी गई थी." कैंप के तुरंत बाद, एक सांप्रदायिक दंगा करवाया गया जिसमें ट्रेनिंग पाए "हेडगेवार के बच्चों" मुस्लिमों को प्रताड़ित करने सबसे आगे थे.”
संघ में मैं जिन लोगों से मिलता हूं, वे गोलवलकर की एक पसंदीदा कहानी से खुद को जोड़ते हैं. गोलवलकर ने बंच ऑफ थॉट्स में एक कहानी लिखी है, जिसमें बच्चों पर खास ध्यान देने की बात को समझाया गया है. इस "मोर की कहानी" कहा है. एक अमीर आदमी के बगीचे में एक बार मोर आ गया. उसे रोजाना बुलाने के लिए उस आदमी ने उसे खाना खिलाना शुरू कर दिया. वह खाने में थोड़ी सी अफीम मिला देता था. समय के साथ मोर अफीम का आदी हो गया. अंत में गोलवलकर लिखते हैं कि "उस पक्षी को अफीम की इतनी आदत लग गई थी कि वह अफीम के बिना भी रोजाना आ जाता था."
बालगोकुलम और संघ की शाखाओं में खेल और कहानियां, बच्चों को रोजाना बुलाने के लिए अफीम का काम करती हैं. आरएसएस में अपने दिनों में मिन्नी भी भावी रंगरूटों को बुलाने के लिए अलग-अलग स्कूलों में वैदिक गणित की कार्यशाला का आयोजन करते थे. कहानियों के माध्यम से उनमें हिंदुत्व और अपने कथित दुश्मनों के प्रति नफरत भरी जाती थी. पैरामिल्ट्री ट्रेनिंग के लिए खेल एक जरूरी हिस्सा है.
गोलवलकर लिखते हैं कि कबड्डी "हमारी पूरी ट्रेनिंग होती है." 25 सालों से संघ के शारीरिक शिक्षा विभाग में कई पदों पर काम कर चुके दक्षिण केरल के एक संघ प्रचारक ने मुझे बताया कि कबड्डी अपने क्षेत्र की रक्षा करने और दूसरों पर धावा बोलने की कला सिखाती है. "यह किसी लड़ाई को जीतने के लिए जरूरी गुस्से और संयम के अलग-अलग स्तरों के बारे में सिखाती है." ऐसे ही खो-खो टीम भावना और तुरंत प्रतिक्रिया देना सिखाती है.
शारीरिक शिक्षा विभाग ने संघ के रंगरूटों को बेहतर स्ट्रीट फाइटर बनाने के लिए कुछ विशेष खेल भी तैयार किए हैं. एक पूर्व शारीरिक इंस्ट्रक्टर ने मुझे बताया कि "इन खेलों को शारीरिक फिटनेस के लिए बनाया गया है, इन्हें रोजाना खेलने से फिटनेस तो बढेगी ही, साथ ही इससे शारीरिक हिंसा की स्थिति में संयमित तरीके से प्रतिक्रिया देने के लिए भी ट्रेनिंग मिलती है. इससे कम लोगों के साथ ज्यादा बेहतर तरीके से हिंसा का जवाब दिया जा सकता है."
जब मैं कोझीकोड जिले के मराड के अराया और संघ के दूसरे फिजिकल इंस्ट्रक्टर से उनके घर पर मिला तो उन्होंने इन खेलों के बारे में बताया. एक खेल को “राष्ट्र रक्षा परिक्रम” कहा जाता है. यह अचानक से हिंसा शुरू करने का अभ्यास है. खेल की शुरुआत में मुख्य इंस्ट्रक्टर वहां इकट्ठे हुए रंगरूटों को बताएगा कि हिंदुत्व के दुश्मन हमला करने के लिए तैयारी में है. इसके बाद वे इधर-उधर चले जाएंगे और जब इंस्ट्रक्टर सीटी बजाएगा तो सब पहले से निर्धारित स्थान पर हथियारों के साथ पहुंच जाएंगे. उन्होंने कहा, "यह खेल हमें पुलिस की क्विक रिस्पॉन्स टीम की तरह काम करने में मदद करता है. यह हमारे हथियार रखने के सरल तरीके विकसित करने और थोड़े नोटिस पर तैयार रहने में मदद करता है."
एक दूसरे खेल का नाम है "नेता को पहचानो". इसमें एक खिलाड़ी को अपनी जगह छोड़ने को कहा जाता है और दूसरों को अपने में से को एक नेता चुनने को कहा जाता है. इसके बाद उन्हें नेता द्वारा किए गए काम की नकल करने को कहा जाता है. जब असली खिलाड़ी लौटता है तो उन्हें उनमें से उनके नेता को पहचानना होता है. मराड के पूर्व प्रचारक ने कहा, "यह आपको बच्चों का खेल लग रहा होगा, लेकिन इस खेल से असल संघर्ष में दुश्मनों के नेता को पहचानने में मदद मिलती है. अगर नेता पर हमला होता है तो पूरे समूह की हिम्मत टूट जाती है."
अपनी मशहूर किताब द मेकिंग ऑफ ए नाजी हीरो में इतिहासकार डेनियल साइमंस नाजियों के असली पैरामिल्ट्री संगठन “स्टुर्माब्तेइलुंग” जिसे एसए के नाम से भी जाना था, के बारे में लिखते हैं. यह इसके रंगरूटों के लिए "सोशल नेटवर्क और दूसरा परिवार था, इसमें हिंसा का इस्तेमाल राजनीति अंत नहीं लेकिन समुदाय-निर्माण अभ्यास के लिए था." उन्होंने इसमें विस्तार से बताया है कि कैसे यहां के "अर्ध बैरकों की जिंदगी" ने रंगरूटों में हिंसा की संस्कृति को भर दिया था.
संघ की हिंसा के सिपाही केरल में एक समान अस्तित्व में रहते हैं. पूरे समाज से अलग, उन्होंने शाखाओं को अपना घर बना लिया है. उनकी पैरामिल्ट्री ट्रेनिंग को संभावित दुश्मनों के प्रति व्यक्तिगत स्वायत्तता और सहानुभूति को दबाने के लिए डिजाइन किया गया है, जो किसी की भी जान लेने के लिए मानव मन को शारीरिक और मानसिक तौर पर तैयार करने के लिए जरूरी है.
कन्नूर जिले के पयन्नूर के पूर्व संघ कार्यकर्ता 23 वर्षीय निधीश केवी ने बताया कि स्थानीय शाखा में ट्रेनिंग के दौरान बड़े नेता उससे कहते थे कि "किकिंग, पंचिंग और लाठी चलाने की प्रैक्टिस करते समय मैं कम्युनिस्ट और मुसलमानों के चेहरे याद करूं." उन्होंने मुझे बताया कि ऐसे अपने दुश्मनों की कल्पना करना मुझे और क्रूर बना देगा. उन्हें मार्शल आर्ट सिखाने का लालच देकर ग्यारहवीं क्लास से शाखा में भर्ती किया गया था. एक साल के अंदर ही वह इंस्ट्रक्टर ट्रेनिंग कोर्स के लिए चुन लिया गया.
उसे शारीरिक और हथियारों की ट्रेनिंग के लिए संघ के थालास्सेरी कार्यालय में भेज दिया गया. उन्होंने मुझे बताया, "एक रात हमें अंदरूनी इलाके में संघ द्वारा नियंत्रित एक इमारत में ले जाया गया. मुझे अलग-अलग तरह की तलवारों के बारे में बताया गया और अलग-अलग जगहों से पुतलों के टुकड़े करना सिखाया गया. वहां विस्तार से बताया गया था कि कैसे अपने दुश्मन को मारना है, जिससे खुद को कम चोट लगे. इसके अलावा बताया गया कि अगर जरूरत पड़े तो अपने दुश्मन को कैसे निर्दयी तरीके से मारा जा सकता है. हमें अंधेरे में अपने लक्ष्यों को मारने के बारे में भी सिखाया गया."
उनके बैच के ज्यादातर युवकों को बम बनाना सिखाया गया था. निधीश ने कहा कि उन्हें यह बात पसंद नहीं थी, लेकिन एक स्थानीय प्रचारक ने उन्हें इस बात के लिए तैयार कर लिया कि संघ के लिए काम करना एक हिंदू के लिए पुण्य का काम है. स्थानीय संघ प्रमुख अलक्कड़ बीजू को बंदूक के साथ देखने के बाद निधीश भी बंदूक का इस्तेमाल करना सीखने के लिए तैयार हो गया. संघ में काम करने वाले और पूर्व प्रचारकों के साथ बात करने से पता चला कि केरल में संघ पदाधिकारियों के बीच बिना लाइसेंस की रिवॉल्वर रखने का ट्रेंड बढ़ रहा है.
निधीश ने कई ऐसे सत्रों के बारे में बताया जो युवाओं के बीच हिंदुत्व की भावना को जागृत करने के लिए आयोजित किए गए थे. उन्होंने बताया, "कई युवक इस बात से हिंसक हो जाते थे जब उन्हें बताया जाता था कि मुसलमानों के लड़के हिंदू महिलाओं को झांसा देरहे हैं." "हमें बताया गया था कि हमें हमारी बहनों को झांसे देने वाले मुस्लिम कट्टरवादियों और उनका समर्थन करने वाले कम्युनिस्टों से लड़ना होगा. हमारी कई मीटिंग में प्रचारक और दूसरे बड़े लोग हमें बताते हैं कि इसके बदले में मुस्लिम महिलाओं को आकर्षित करना होगा." निधीश की मां कम्युनिस्ट समर्थक थीं और निधीश के संघ में काम करने के खिलाफ थीं. "लेकिन वह एक परायण हिंदू थी तो जब भी मुझे बम बनाने की या दूसरी विशेष शारीरिक ट्रेनिंग के लिए जाना होता तो मैं उनसे मंदिर में काम करने का झूठ बोलकर चला जाता."
मराड़ के पूर्व इंस्ट्रक्टर ने याद करते हुए बताया कि उन्होंने पहला ऑफिसर्स ट्रेनिंग कोर्स 1994 में किया था. चिरक्कल में हुए इस कैंप में संघ के फायरब्रांड नेता जैसे प्रवीण तोगड़िया और मदन दास देवी मौजूद थे. "भारतीय लोकतंत्र और नाजीवाद" नाम के सत्र में दार्शनिक तरीके से हिंसा को जायज ठहराया गया था. उन्होंने मुझे बताया, "हिटलर को हीरो के तौर पर पेश किया, जिसने देश के गौरव के खिलाफ काम कर रहे कम्युनिस्टों और यहूदियों का बेरहमी से सफाया कर दिया था, हमें बताया गया कि अपने पैरामिल्ट्री स्वयंसेवकों की वजह से हिटलर सफल हुआ था, जो अपने देश के लिए कुछ भी करने को तैयार थे." उन्होंने याद करते हुए कहा कि उन्हें बताया गया था कि वे नैतिक रूप से भारतीय सेना के पेशेवर सैनिकों से ऊपर हैं "क्योंकि बिना पैसे देश के लिए काम कर रहे हैं." प्रचारक ने भगवद् गीता में कृष्ण द्वारा अर्जुन के अपने रिश्तेदारों के खिलाफ लड़ने के उपदेश की बात करते हुए दूसरों हिंदू जो कम्युनिस्ट हैं, उनकी हत्या को जायज बताया.
कन्नूर में संघ की गतिविधियों के जानकार केरल पुलिस के खुफिया विभाग के एक मौजूदा अधिकारी ने मुझे बताया कि बालगोकुलम से भर्ती किए संघ के कैडर को दी जा रही गहन फिजिकल ट्रेनिंग और एक सशस्त्र नागरिक सेना का भाव इन्हें हिंसा के अकल्पनीय रूपों के लिए तैयार करता है. एक बार नाबालिग उम्र में आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने के बाद इनमें से कई पेशेवर अपराधी बनकर लूटपाट, कालेधन को ठिकाने लगाना और यौन हिंसा में लिप्त हो जाते हैं.
उन्होंने मुझे बंगाली वीथी सारथ की कहानी बताई जो थालासेरी में जन्माष्टमी के मौके पर बालकृष्ण की भूमिका करता था. "लोग हैरान थे जब यह "प्यारा" बच्चा सीपीआई (एम) के शाखा सचिव के. लथेश की हत्या के आरोप में पकड़ा गया. जुलाई 2014 में वह एक आदमी से पांच लाख रुपए की लूटपाट करते हुए भी रंगे हाथों पकड़ा गया था." उन्होंने कहा कि अधिकतर राजनीतिक पार्टियां ऐसे कैडर के बचाव में नहीं आती हैं जो आपराधिक गतिविधि करते हुए पकड़ा जाए. "लेकिन आरएसएस को अपनी राजनीतिक मशीनरी चलाने के लिए ऐसे कैडर की जरूरत है. यह जरूरत आरएसएस नेताओं को पुलिस अधिकारियों पर दबाव डालने को मजबूर करती है ताकि उनके कैडर पर सामाजिक तौर पर अस्वीकार अपराधों के मामले दर्ज न किए जाएं." कई मामलों में खास तौर पर जब कांग्रेस की सरकार थी तो वे ऐसा करने में कामयाब हो जाते थे. आपराधिक व्यवहार के लिए संघ के ऐसे समर्थन से उसके कैडर में संघ के लिए खास वफादारी बन गई है.
हालांकि, जब वफादारी की बात आती है तो इसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं. 17 वर्षीय अनांथु अशोकन अलापुझा जिले के वायलार गांव का स्कूली छात्र और स्थानीय शाखा का सदस्य था. उसका परिवार पीढ़ियों से बीजेपी समर्थक था. उसके दोस्त भी उसी स्कूल और शाखा में जाते थे. जब उनके दोस्तों ने अनांथु की महिला मित्र के साथ दुर्व्यवहार किया तो अनांथु ने उन्हें ऐसा करने से रोका. उनके दोस्तों ने अनांथु से खराब व्यवहार किया, जिसके बाद उसने खुद को उन दोस्तों और आएसएस से दूर कर लिया. उसने शाखा में जाना छोड़कर पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू कर दिया.
5 अप्रैल, 2017 को स्कूल से घर आते समय अनांथु को एक गैंग ने घेर लिया. हमले के दौरान सर में चोट लगने से उसकी मौत हो गई. चेरथला तालुका के सर्कल इंस्पेक्टर वीपी मोहन के मुताबिक, अनांथु के हत्या के सभी 17 आरोपी आरएसएस कार्यकर्ता हैं. इनमें 7 नाबालिग और दो अनांथु के क्लासमेट हैं.
मैं अनांथु के माता-पिता अशोकन और विमला से वायलार के पट्टनकड गांव में उनके घर पर मिला. अशोकन भारत संचार निगम लिमिटेड में काम करते हैं. उनके भाई बीजेपी पदाधिकारी हैं. उनका लिविंग रूम परिवार की धार्मिक आस्था के बारे में बताता है. दीवारों पर हिंदू देवताओं की तस्वीरें और मूर्तियां लगी हैं. अशोकन ने कहा, "हमारा परिवार परंपरागत रूप से संघ से जुड़ा हुआ है. मैं राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं हूं, लेकिन मेरा मन हमेशा उनकी राष्ट्रवादी राजनीति से जुड़ा रहा है. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा हिस्सा अनांथु उन्हीं के द्वारा मारा जाएगा."
अशोकन ने मुझे बताया कि वे परिवार पर आई विपदा के लिए भगवान पर गुस्सा थे. "मैंने सोचा था कि इस्लामिक स्टेट दुनिया में सबसे क्रूर और निर्दयी संगठन है. लेकिन अनांथु को मारने वाले आरएसएस से ट्रेनिंग पाए कैडर को देखकर मुझे पता चला कि इस्लामिक स्टेट आरएसएस जितना निर्दयी नहीं हो सकता. उन्होंने मेरे बेटे को घेर कर मारा, बुरी तरह से मारा. उन्होंने उसे ऐसे मारा जैसे वह गली का पागल कुत्ता हो."
विमला ने घटना को याद करते हुए बताया कि अनांथु की हत्या वाले दिन सुबह उन्होंने कुछ युवकों को मोटर साइकिल पर देखा था जो उस इलाके की रेकी कर रहे थे. पुलिस ने इस बात की पुष्टि की है कि ये युवक उस साजिश का हिस्सा थे. एक रिटायर्ड डीएसपी, जिन्हें आरएसएस की हिंसा की जांच का अनुभव है, ने मुझे बताया कि ऐसे रेकी संघ द्वारा किए जाने वाले राजनीतिक खूनों का अहम हिस्सा हैं. उन्होंने कहा, "इस काम के लिए विशेष तौर पर ट्रेनिंग पाए कैडर होते हैं और कई बार वे सैन्य पेशेवरों से भी बेहतर काम कर जाते हैं."
अशोकन के पड़ोसी मुझे उस जगह पर ले गए, जहां अनांथु की हत्या की गई थी. यह एकांत जगह थी जो अकसर स्थानीय गैंग द्वारा इस्तेमाल की जाती है. जिले के वरिष्ठ कांग्रेस नेता एए शुकूर ने मुझे बताया कि कैसे आरएसएस का कैडर एकांत वाली जगहों पर कब्जा कर उसे अपनी गैर-कानूनी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करता है. मलयालम साप्ताहिक की रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें से कई कार्यकर्ता किराए पर दूसरा गैंग चलाने वाली पार्टी के पास जाते हैं. इस रिपोर्ट में आरएसएस के लीक हुए दस्तावेज का हवाला दिया गया था. इसमें वरिष्ठ प्रचारक और पूर्व बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष के रमन पिल्लई के हवाले से लिखा गया था कि आरएसएस के कुछ नेताओं ने वित्तीय फायदे के लिए छोटी-मोटी झड़पों को बड़ी राजनीतिक हिंसा में तब्दील किया था.
मैं आरएसएस के कब्जे वाली कई ऐसी जगहों पर गया. 2017 में रमजान के दौरान मैं थालास्सेरी के नजदीक पोन्नियम और सेरांबी गांव में गया, जहां मैंने देखा की आरएसएस गैंग की मौजूदगी की वजह से मुस्लिम असुरक्षित महसूस कर रहे थे. अपने घर आए एक व्यक्ति ने मुझे बताया, "हमारे कई जवान लोग खाड़ी देशों में काम करते हैं, जो अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च कर एक अच्छा घर बनाते हैं. जब भी कोई मुसलमान अपना घर बनाता है, तो आरएसएस का युवा कैडर रात में आकर यहां कब्जा जमा लेता है और इसे अपनी आपराधिक गतिविधियों का अड्डा बना लेता है."
उन्होंने कहा कि यह गैंग रोजाना मुस्लिमों के साथ अनाचार कर उन्हें भड़काना चाहता है. वे गांव के रास्तों पर चेक पोस्ट बनाते हैं और मस्जिद या काम से लौट रहे पुरुषों पर हमला करते हैं. इस व्यक्ति की एक रिश्तेदार ने बताया, "उन्हें बुर्का पहनकर कार चलाने वाली मुस्लिम महिलाओं से काफी चिढ़ है. जब भी कोई महिला कार ड्राइव कर रही होती है तो ये कोशिश करते हैं कि उसका छोटा एक्सीडेंट कर दिया जाए."
मुस्लिम बुजुर्गों ने अपने युवकों को इस उकसावे से बचकर रहने को कहा है. एक दुकानदार ने मुझे बताया, "पुलिस से शिकायत करना बेकार है. ये आरएसएस के मुखबिर हैं, जो लोग पुलिस में शिकायत करते हैं ये उसकी जानकारी निकाल लेते हैं. ऐसे कई मामले हुए हैं जब शिकायतकर्ता के वाहन या घर पर हमला किया गया है." दूसरे मुस्लिम व्यापारियों ने शिकायत की कि किसी हिंदू त्यौहार या आयोजन के समय आरएसएस का कैडर बड़ी मात्रा में चंदे के नाम पर उगाही करता है.
उनके पास डर के कई कारण हैं. जिले के सांप्रदायीकरण की यात्रा में 28 दिसंबर 1971 को हुए थालास्सेरी दंगे अहम पड़ाव हैं. आरएसएस ने इलाके में ध्रुवीकरण के लिए मुस्लिमों के सामने कामकाजी वर्ग इझावा को खड़ा करने के लिए सालों काम किया था. हिंसा की शुरुआत तब हुई जब एक मंदिर के जुलूस में जा रहे हिंदुओं ने मुस्लिमों के होटल पर धावा बोल दिया. दंगे के दौरान मुस्लिमों के घरों और कारोबार को योजना बनाकर निशाना बनाया गया. पूर्व बीजेपी नेता ओके वासु ने मुझे बताया कि छोटा-पाकिस्तान और मोपला क्रांति के प्रोपेगेंडा के अलावा "गरीब हिंदुओं को यह लालच देकर बहकाया गया कि अगर अमीर मुसलमान थालास्सेरी छोड़कर पाकिस्तान जाते हैं तो उनकी संपत्ति पर हिंदुओं का हक होगा."
पूर्व दिनेश बीड़ी वर्कर पनिक्कन राजन ने मुझे बताया कि पिनाराई विजयन ने कॉर्पोरेटिव के कामगारों के साथ मिलकर दंगों के दौरान मुसलमानों को बचाया था. उन्होंने बताया "आरएसएस ने कम्युनिस्ट मप्पिलाकुंदयाथ को मुस्लिम पिता और हिंदू की मां कहकर बदनाम करने की कोशिश की."
दंगों की जांच के लिए नियुक्त किए हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज जोसेफ विथायाथिल ने हिंसा को बढ़ावा देने और इलाके का सांप्रदायिकरण करने के लिए आरएसएस और मुसलमानों पर हमला करने के लिए पुलिस को दोषी पाया. संयोग की बात यह है कि देश के मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल उस समय थालास्सेरी के एएसपी थे.
(चार)
अगस्त 2017 में मैं केरल पुलिस के पूर्व डीजीपी का इंटरव्यू करने गया. उन्होंने अपनी नौकरी के कई साल उत्तरी मालाबार में बिताए हैं. जब मैंने उनसे केरल के किलिंग फील्ड के मीडिया नैरेटिव के बारे में पूछा तो वह मुस्कुरा दिए. उन्होंने कहा, "राष्ट्रीय मीडिया या तो इसे नजरअंदाज करती है या केरल की राजनीतिक हिंसा को रिपोर्ट करते समय मूलभूत तथ्यों को बिगाड़ देती है."
पूर्व डीजीपी ने अपने दोस्त और मुंबई हमलों में शहीद होने वाले महाराष्ट्र एंटी-टेरर स्कवॉड प्रमुख हेमत करकरे के साथ हुई बातचीत के बारे में बताया. उन्होंने कहा, "आमतौर पर यह धारणा है कि केरल इस्लामिक आतंकवाद का सुरक्षित ठिकाना है. मैं इस बात से इनकार नहीं करुंगा कि विभिन्न सामाजिक कारणों के चलते केरल के मुस्लिमों का एक छोटा हिस्सा इस्लामिक आतंकवाद की तरफ आकर्षित है. लेकिन बिना बताई और दिखाई गई बात, केरल का आरएसएस के हिंसक और गैर-कानूनी संचालन के साथ लगाव है. अगर करकरे आज जिंदा होते तो वह हिंदुत्व आतंक के नेटवर्क का केरल से कोई लिंक जरूर खोज निकालते, जिसकी वह जांच कर रहे थे."
उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे केरल में हिंसा आएसएस की राजनीतिक रणनीति का केंद्र थी. "शारीरिक आक्रमकता दिखाकर सीपीआई (एम) को उकसाना ही आरएसएस की महत्वपूर्ण रणनीति थी." उन्होंने कहा कि विचारधारा से बंधा बड़ा कैडर होने के बाद भी कम्युनिस्ट, आरएसएस के राष्ट्रीय संगठन, इसकी पैरामिल्ट्री मजबूती, ट्रेनिंग और संस्थाओं में इसकी घुसपैठ का मुकाबला नहीं कर पाए.
पूर्व डीजीपी ने मुझे बताया कि आरएसएस के पास यह दुर्लभ पेशेवर कुशलता है कि वह बेहद कम समय में कम लोगों को साथ लेकर राजनीतिक हिंसा की शुरुआत कर सकता है. "पुलिस और फॉरेंसिक रिपोर्ट से पता चलेगा कि आरएसएस के हमलावर पूरी तरह पेशेवर होते हैं और अपने लक्ष्य को कम से कम लेकिन घातक घाव दे सकते हैं. कई बार डर फैलाने के लिए वे शरीर को अपंग बना लेते हैं." उन्होंने कहा, "दूसरी तरफ कम्युनिस्ट मोटे तौर पर गैर-पेशेवर हैं." उनका बड़ा आधार आमतौर पर उनके खिलाफ काम करता है. आरएसएस के पेशेवर हमले के जवाब में भावुक सीपीआई का बड़ा कैडर उनके साथ शामिल हो जाता है. आमतौर पर आरएसएस एक सीपीआई (एम) कार्यकर्ता को मारने के लिए तीन या चार कुशल कैडर की मदद लेता है, वहीं सीपीआई (एम) का कैडर बदला लेने के लिए भीड़ की तरह काम करता है.
एक पूर्व डीएसपी ने मुझे बताया कि आरएसएस की इस कार्यनीति के तीन खास फायदे हैं. "पहला तो यह कि कम्युनिस्टों द्वारा बदले की कार्रवाई को मीडिया का कवरेज मिलेगा. दूसरा, अधिकतर मामलों में भावुक भीड़ बदला लेने के लिए हमला करती है. इसमें बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट शामिल होते हैं. ज्यादा लोगों के भाग लेने से संगठन पर अतिरिक्त वित्तीय भार पड़ता है. पीड़ित के परिवार की वित्तीय जरूरतों का ध्यान रखना होता है. इससे पार्टी सदस्यों और समर्थकों पर ज्यादा टैक्स लगता है. तीसरा, यह कि कम्युनिस्ट गांव पर अचानक हुए हमले पर कुछ नाराज लोगों का भी ध्यान जाएगा, खासकर उस युवा वर्ग का जो कम्युनिस्टों के कुछ नैतिक आचरणों जैसे, खुले में शराब पीने पर रोक से खफा हैं."
पूर्व डीजीपी ने बताया कि 1980 के दशक के दौरान आरएसएस लोगों को मारने के लिए बाहर से शूटर्स बुलाता था. इसकी सफलता को देखते हुए संघ ने भर्तियां शुरू की, जिसमें राज्य के लोगों को भर्ती किया जाने लगा. अभी भी "यह अलिखित नियम है कि कभी भी हत्या करने के लिए जिले का हत्यारा मत बुलाओ. बड़े अभियानों के लिए कम से कम दो जिले दूर से हत्यारे को बुलाने की परंपरा रही है."
उल्लेखित किताब के मुताबिक, पर्याप्त रूप से ऐसे मामलों में जांच करने में अयोग्य पुलिस पीड़ित पक्ष द्वारा दी गई अपराधियों की सूची को स्वीकार कर लेती है. कन्नूर के डीएसपी के हवाले से उल्लेख लिखते है, "पुलिस पीड़ितों द्वारा दी गई सूची को स्वीकार कर लेती है, जिसमें अपने मामले को मजबूत बनाने के लिए बड़े नेताओं का नाम लिखा होता है."
आरएसएस की पैरामिल्ट्री मशीन युवा कार्यकर्ता की भर्ती के लिए प्रचारकों की निभाई गई भूमिका पर आश्रित है. हेडगेवार द्वारा शुरू किया गया प्रचारक संघ का नर्व सिस्टम है. आरएसएस विचारक, दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर और 2018 में राज्यसभा के सांसद चुने गए राकेश सिन्हा हेडगेवार की जीवनी में लिखते है, "संघ का संगठन दो स्तरों पर काम करता है. औपचारिक और अनौपचारिक. संगठन को औपचारिक स्तर पर चलाया जाता है जिसमें मुख्य शिक्षक से सरसंघचालक तक एक पूरी चैन है. वहीं अनौपचारिक तौर पर प्रचारक होते हैं जो औपचारिक व्यवस्था से बाहर रह कर संघ की गतिविधियों और विकास में जरूरी भूमिका निभाते हैं." वह लिखते हैं कि यह "सकारात्मक द्ंवद्व" संघ के बीच शक्ति के स्रोत को अपरिभाषित और अदृश्य बनाता है.
संघ में काम करने वाले लोग बताते हैं कि कई ऐसे मामले हुए हैं जब प्रचारकों ने आरएसएस और बीजेपी के नेतृत्व से पूछे बिना हड़ताल करने का आदेश दिया है. 2014 में पार्टी से बगावत करने वाले पूर्व बीजेपी जिला सचिव ए. अशोकन ने मुझे बताया, "जब भी कन्नूर में शांति होती है, प्रचारक हिंसा भड़का देते हैं. प्रचारक ऐसा आरएसएस कैडर रखते हैं जो कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है. कई मामलों में हम बीजेपी नेतृत्व को हत्या के बाद पता चलता था. इससे हमें काफी समस्या होने लगी है." पनूर के पूर्व प्रचारक ने कहा, "जब भी बीजेपी नेताओं के बीच शांति की भावना होती है, प्रचारक कम्युनिस्टों के खिलाफ हमला या किसी हाई-प्रोफाइल हत्या को अंजाम दे देते हैं. इसके बाद बदले की कार्रवाई और हिंसा शुरू हो जाती."
उदाहण देते हुए उन्होंने 12 दिसंबर, 1995 को हुए ममन वासु हत्याकांड का जिक्र किया. वासु एक उग्र ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और चोकली गांव का लोकप्रिय कम्युनिस्ट था. वासु पहले आरएसएस का सशस्त्र कार्यकर्ता था. उसे थालासेरी के पूर्व विधायक और शक्तिशाली सीपीआई (एम) नेता एमवी राजागोपाल को मारने का काम दिया गया था. राजागोपाल ने वासु को कम्युनिस्टों की तरफ होने जाने के लिए राजी कर लिया. पूर्व प्रचारक ने मुझे बताया, "वासु आरएसएस प्रचारक की मोड्स ऑपरेंडी को विस्तार से जानता था. आरएसएस से संबंध तोड़कर कम्युनिस्टों के साथ जुड़ने से वह ऐसा कार्यकर्ता बन गया था जो मुश्किलें खड़ी कर सकता था. उसकी असाधारण मार्शल आर्ट योग्यता और समाज सेवा में उसके लगाव से वह कम्युनिस्टों में हीरो बन गया था. उसने आरएसएस के प्रति सहानुभूति रखने वाले कुछ युवाओं को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया." कन्नूर में राजनीतिक हिंसा पर स्टडी करने वाली रुचि चतुर्वेदी ने आरएसएस कार्यकर्ता के हवाले से कहा कि संगठन ने 14 सालों में वासु को मारने के लिए 7 बार प्रयास किया था.
इनमें से हर प्रयास असफल रहा. इसके बाद तब जिले में प्रचारक का काम कर रहे और अब दक्षिण भारत में शारीरिक-ट्रेनिंग गतिविधियों के प्रमुख ओके मोहनन को यह काम सौंपा गया. मोहनन एक लो-प्रोफाइल प्रचारक थे. एझावा होने के बावजूद उनका निकनेम कुरिचन मोहन रखा गया था. यह नाम वायनाड में रहने वाली कुरिचिया ट्राइब द्वारा विकसित की गई गुरिल्ला युद्धनीति में उसकी रूचि देखते हुए रखा गया था. कुरिचिया की इलाके के हिंदू राजाओं के लिए आतंकवादियों की तरह लड़ने की लंबी परंपरा रही है.
पनूर के एक सरकारी कर्मचारी और सालों तक संघ में काम करने के दौरान मोहनन के करीबी ने मुझे बताया, "मोहनजी हिम्मत वाले और शानदार व्यक्तित्व वाले थे. उनकी जिंदगी आरएसएस थी. वह मानते थे कि कम्युनिस्टों को डराने के लिए गुरिल्ला हमलों की जरूरत है. उन्होंने हमेशा शक्तिशाली दुश्मन का सामना करने वाली सेना के जनरल की तरह व्यवहार किया." सरकारी कर्मचारी ने बताया कि मोहनन का अलिखित नियम था कि छोटे झगड़ों को बड़ी हिंसा में विकसित किया जाना चाहिए. वह कहा करते थे कि जमींदारों और साम्राज्यवादी पुलिस के खिलाफ लड़ने वाले कन्नूर के कम्युनिस्टों में अगर डर पैदा हो गया तो यह केरल में कम्युनिस्ट पार्टी को असंगठित कर देगा.
उन्होंने वासु की हत्या की योजना बनाते समय अपनी कुशलता का बखूबी इस्तेमाल किया. उन्होंने वासु के आने-जाने और आदतों पर ध्यान रखना शुरू किया. तय सुबह को मोहनन की टीम ने सबरीमाला मंदिर जाने वाले श्रद्धालुओं की पारंपरिक पोशाक पहनी और अपनी जीप उस सड़क पर खड़ी कर दी, जहां से वासु को जाना था. जब उन्होंने वासु को देखा तो ऐसे किया जैसे उनकी जीप खराब हो गई है और उसे ठीक करने के लिए वासु से मदद मांगी. वासु मदद करने के लिए तैयार हो गया और मिनटों के भीतर उस पर पीछे से हमला कर मार दिया गया. जीप के म्यूजिक सिस्टम पर कुत्तों के भौंकने की आवाज वाली रिकॉर्डेड साउंड चल रही था ताकि हमले की आवाज लोगों तक न पहुंचे.
पूर्व प्रचारक के पुलिस में मौजूद सूत्रों ने बताया कि शुरुआत में सीपीआई (एम) नेतृत्व प्रतिकार करने से पीछे हट रहा था. लेकिन पार्टी में वासु की लोकप्रियता देखते हुए कैडर पार्टी के नेताओं की ज्यादा नरमी के लिए आलोचना करने लगा. "हतोत्साहित कैडर के पार्टी छोड़ जाने के डर से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने बदला लेने को हरी झंडी दिखा दी."
इसके बाद ऐसी खूनी लड़ाई शुरू हुई, जिसमें अगले कई सालों तक हत्या और हत्या के बदले हत्याएं होती रहीं. यह मामला 25 अगस्त, 1999 को तब शीर्ष पर पहुंच गया जब ओणम के त्यौहार के दौरान, सीपीआई (एम) के कन्नूर जिला सचिव पी. जयराजन कीझाके कथिरूर स्थित अपने घर पर आराम कर रहे थे. इस दौरान हथियार लिए भीड़ उनके घर में घुस गई और बम फेंकने शुरु कर दिए. इस दौरान जयराजन पर कुल्हाड़ियों से हमला किया गया. उल्लेख ने लिखा, "जयराजन ने प्लास्टिक की कुर्सी हाथ में लेकर बचने की कोशिश की, लेकिन यह कामयाब नहीं हो पाई. इसके बाद वह अंदर के कमरे और बाद में टॉयलेट में घुस गए. उन्हें रीढ़ की हड्डी और छाती में चोट लगी और उनका दायां हाथ कट गया." जयराजन ने उल्लेख को बताया कि वह इस भीड़ में शामिल कई आरएसएस कार्यकर्ताओं को पहचानते हैं. 2007 में दो आरएसएस कार्यकर्ताओं समेत छह लोगों को इस मामले में दोषी पाया गया. संगठन ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है.
उस साल नवंबर में आरएसएस पदाधिकारी पीपी सुरेश बाबू एक जानलेवा हमले में बाल-बाल बच गए, लेकिन भारतीय जनता युवा मोर्चा के राज्य उपाध्यक्ष केटी जयकृष्णन इतने भाग्यशाली नहीं थे.
जयकृष्ण को व्यक्तिगत तौर पर जानने वाले एक रिटायर्ड डीएसपी ने मुझे बताया, "जयकृष्णन कन्नूर जिले के मोकरी गांव के अपर-प्राइमरी स्कूल में अध्यापक और राजनीतिक हिंसा की योजना बनाने वाला मुख्य रणनीतिकार था. वह बेहद करिश्माई और कुछ भी करने के लिए तैयार युवक था." डीएसपी ने बताया कि कृष्णन द्वारा भर्ती किए रंगरूटों ने कई सीपीआई (एम) नेताओं की हत्या की.
उल्लेख ने लिखा कि राजनीतिक गलियारों में जयराजन पर हुए हमले के पीछे जयकृष्णन का नाम चल रहा था. मोकरी के एक कम्युनिस्ट ने मुझे बताया, "जयकृष्णन समझदार था और उसे पता था कि हम उसे टारगेट करेंगे. आरएसएस ने यह सुनिश्चित किया कि जब भी वह सफर करे उसके साथ संघ का सर्वश्रेष्ठ कैडर भी रहे. वह चाय के लिए भी अकेला स्कूल से बाहर नहीं निकलता था. अगर वह पास के घर में चाय पीने जाता तो भी महिला अध्यापक उसके साथ होती. वह खुद को निशाना बनाए जाने से बचने के लिए अपनी जीप में स्कूली बच्चों को लिफ्ट देता था." पुलिस ने भी जयराजन पर हमले के बाद उसे एक बॉडीगार्ड मुहैया कराया था.
उल्लेख लिखते है, "1 दिसंबर 1999 को सुबह लगभग 10 बजकर 35 मिनट पर जब जयकृष्णन मास्टर क्लास ले रहे थे, तब बॉडीगार्ड टॉयलेट ब्रेक पर गया था. (आरएसएस के सूत्रों के मुताबिक, बॉडीगार्ड जानबूझकर कुछ देर के लिए गायब हुआ था. इतनी देर में हत्यारों की भीड़ क्लासरूम में घुस आई और चाकू मार-मारकर उसे निर्दयी तरीके से मौत के घाट उतार दिया. इस दौरान क्लास में मौजूद 11 साल तक की उम्र के 42 बच्चे यह खौफनाक दृश्य देख रहे थे.
(पांच)
ममन वासु की हत्या के बाद आरएसएस द्वारा उकसाई गई राजनीतिक हिंसा ने कम्युनिस्टों को एक अवांछनीय स्थिति में डाल दिया. कई कम्युनिस्ट नेताओं ने मुझसे बात करते हुए स्वीकार किया कि इसके परिणामस्वरूप पार्टी गंभीर संकट में थी. कन्नूर के एक नेता ने मुझे बताया, "केरल की सबसे बड़े जनाधार वाली पार्टी होने के कारण हमारे अपने तरीके से जवाब देने की कुछ सीमाएं थी. हमारी बदले की हिंसा सिविल सोसायटी और मीडिया द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जाती और अगर हम हमारे कैडर की सुरक्षा नहीं कर पाते तो इससे पैदा हुआ डर सीपीआई (एम) को खत्म कर देता." उन्होंने कहा, जब भी नेतृत्व ने अपने कैडर को जवाबी कार्रवाई करने से रोका, डरा हुआ कैडर और पार्टी से सहानुभूति रखने वाले लोग खुद को पार्टी से अलग कर लेते और हिंदुत्ववादी ताकतें इसका फायदा उठातीं.
राजनीतिक हिंसा का जवाब देना कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए हमेशा से संकट की स्थिति रही है. मालाबार में शुरुआत में कम्युनिस्ट पार्टी ने मोपला क्रांति के दौरान ब्रिटिश सरकार की मालाबार स्पेशल पुलिस और कांग्रेस का समर्थन करने वाले जमींदारों की उग्रवादी गैंग के दबाव का सामना किया. यहां तक की जेपी नारायण की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (जिसका केरल में पीआर कुरुप नेतृत्व कर रहे थे) भी राज्य में कम्युनिस्ट-विरोधी हिंसा के लिए कुख्यात थी. उल्लेख लिखते हैं कि पीएसपी के कई समर्थक कांग्रेस और कम्युनिस्ट, दोनों का विरोध करते थे.
1950 के दशक में एके गोपालन के तहत राज्य के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने श्रमिकों और किसानों के प्रतिरोध को अनुशासित कर निशाना बनाकर की जा रही हिंसा का जवाब देना शुरु कर दिया. स्वंयसेवकों को चुनकर उन्हें आमने-सामने की हाथापाई की प्रारंभिक ट्रेनिंग और देशी हथियार चलाना सिखाया जाता. सेना और नेवी से आने वाले समर्थक सैनिकों और मार्शल आर्ट में स्थानीय विशेषज्ञों जैसे कलारिपयट्टू को स्वंयसेवकों को ट्रेनिंग देने का काम सौंपा गया. लाल कपड़ों की वजह से आत्म-रक्षा के लिए बनाए इन समूहों को "लाल स्वयंसेवक" कहा गया, जबकि उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें अपमानजनक तरीके से “गोपाला सेना” कहते थे.
पहले के सालों में कम्युनिस्ट-विरोधी हमलों से आरएसएस की हिंसा काफी अलग थी. पहले की सामंती सतर्कता को अब पैरामिल्ट्री हिंसा में बदल दिया था, जिसमें खासतौर पर योजना बनाकर काम को अंजाम दिया जाता था. सीपीआई (एम) के एक वरिष्ठ नेता ने मुझे बताया, "हम समझ गए कि हम केवल सैन्यवादी प्रतिशोध द्वारा उनका विरोध नहीं कर सकते. हम अपना सामाजिक आधार बढ़ाने में लग गए. शुरुआती सालों में हमारे आत्म-रक्षा स्वयंसेवक मोटे तौर पर राजनीतिक कम्युनिस्ट उग्रवादी थे. उनकी कामगार वर्ग उग्रवाद और पूरी तरह विकसित राजनीतिक चेतना ने यह सुनिश्चित किया कि वे निजी लाभ के लिए कभी काम नहीं करेंगे. हमारे स्वयंसेवक यह बात जानते थे कि आरएसएस की तरह हम एक सशस्त्र संघर्ष नहीं कर सकते."
1990 के दशक में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने राज्य में औद्योगिक ठहराव को और ज्यादा गहरा कर दिया और पिछले दो दशकों में नकदी फसलों पर निर्भरता बढ़ गई, साथ ही राज्य में केंद्र से आने वाला फंड भी कम हो गया. बढ़ती बेरोजगारी से असंतुष्ट युवाओं की तादाद बढ़ी है, जिन्हें राजनीतिक हिंसा के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. कई कम्युनिस्ट नेताओं ने मुझसे बात करते हुए माना कि इस वजह से आत्म-रक्षा समूहों के स्वंयसेवकों की गुणवत्ता कम हुई है. हालांकि, इनमें से ज्यादातर आरएसएस के साथ जुड़ गए, वहीं इनमें से कईयों को कम्युनिस्ट इस्तेमाल करने लगे. इनमें से अधिकतर ऐसे हैं जिनके परिवार का लेफ्ट के साथ जुड़ाव रहा है.
जुलाई, 2018 में मैं कासरगोड सीमा के पास कन्नूर के गांव में एक दोस्त के घर स्थानीय आत्म-रक्षा समूह के स्वयंसेवक से मिला. यह आरएसएस के उस व्यक्ति से अलग था, जिससे मैंने बात की थी. यह पोस्टर लगाने वाले कम्युनिस्ट के तौर पर राजनीति में सक्रिय था. 40 साल की उम्र का यह व्यक्ति प्लंबर और मैकेनिक का काम करता था. उसके बिना जमीन वाले किसान परिवार को कम्युनिस्टों द्वारा शुरू किए भूमि सुधार से फायदा मिला था.
उसने बताया कि आत्म-रक्षा समूह चलाने वाले कम्युनिस्ट नेता उस कैडर की पहचान करते हैं और उनके संपर्क में रहते हैं जो शारीरिक हिंसा के लिए तैयार रहता है. उन्होंने कहा, "हमें साफ तौर पर बताया जाता है कि आरएसएस शारीरिक हिंसा की मार्केटिंग करके लाभ लेता है इसलिए हमें कहा गया है, हमें तभी आक्रमकता दिखानी है जब कोई और रास्ता न हो."
आरएसएस के कुख्यात हत्यारे की हत्या के मामले में मुकदमा झेल रहे आत्मरक्षा समूह के एक सक्रिय सदस्य ने मुझे बताया, "मैंने सुना है कि आरएसएस कैडर केरल में राजनीतिक हिंसा को धर्मयुद्ध के तौर पर देखता है. जैसा उनके हमलावरों को संस्था से समर्थन मिलता है वह शानदार है. ईमानदारी से कहा जाए तो हमारे पास ऐसा कोई समर्थन नहीं है." वह अपने गांव में लोकप्रिय युवा नेता था. एक दूसरे मशहूर कम्युनिस्ट नेता की 2006 में हत्या के बाद उसके नजदीकी कॉमरेड एक्शन में आ गए.
एक बार फिर सीपीआई (एम) का नेतृत्व जवाबी कार्रवाई करने से बच रहा था. उन्हें लगा कि ऐसा करने से नई चुनी गई पिनाराई विजयन सरकार पर नकारात्मक असर पड़ेगा. एक कम्युनिस्ट उग्रवादी ने कहा, "जब आरएसएस ने हमारे कॉमरेड को मारा तो हमारी पार्टी ब्रांच उस सर्कुलर पर बात कर रही थी जिसमें पार्टी के सदस्यों को आरएसएस द्वारा किए जा रहे उकसावे से बचने को कहा गया था. हमें बताया गया था कि आरएसएस राज्य हिंसा शुरू कर कानून-व्यवस्था की स्थिति खराब करना चाहता है."
बदले की कार्रवाई नहीं करने का फैसला जमीन पर काम करने वाले कैडर को पसंद नहीं आया. उन्होंने मुझे बताया, "कम्युनिस्टों की सेल्फ-डिफेंस रद्दी है. आरएसएस के मुकाबले यह ज्यादा मजबूत नहीं है. हमारे यहां रोजाना नियमित फिजिकल ट्रेनिंग नहीं होती. एक सक्रिय आत्म-रक्षा स्वयंसेवक को साल में केवल 15-20 ट्रेनिंग मिलती हैं. आमतौर पर स्वयंसेवकों को डिफेंसिव तकनीक की ट्रेनिंग दी जाती है जिससे होने वाले किसी हमले से बचा जा सके. हमें हमला करने की ट्रेनिंग नहीं दी जाती है. साफ तौर पर कहूं तो हमें नहीं बताया जाता कि हमारे विरोधी को क्लिनिकली कैसे मारना है." उन्होंने इन क्लासों की तुलना आरएसएस की ट्रेनिंग से की. "उनके नियमित तौर पर कैंप और रोजाना फिजिकल ट्रेनिंग होती है. उन्हें विचारधारा और शारीरिक स्तर पर आक्रमक रहना बताया जाता है."
उन्होंने बताया कि कम्युनिस्ट कैडर द्वारा की गई अधिकतर प्रतिशोधी हत्याओं को पार्टी की तरफ से आधिकारिक अनुमति नहीं मिली थी. "पार्टी में एक ऐसा वर्ग भी है जो प्रतिशोधी हत्याओं के विरोध में है. जब लेफ्ट सत्ता में होती है तो प्रतिशोधी हत्या की अनुमति लेना बड़ी चुनौती होती है. इसलिए अधिकतर मामलो में उग्र पार्टी कैडर पार्टी से सहानुभूति रखने वाले की मदद से यह काम करता है. "समझने वाले" स्थानीय नेताओं को इस बारे में सूचित कर दिया जाता है."
1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस ने केरल में सांप्रदायिक हिंसा की एक नई लहर शुरू की. मराड से आरएसएस के पूर्व फिजिकल ट्रेनर ने मुझे बताया कि विध्वंस के बाद उत्तर भारत से प्रचारकों को केरल भेजा गया. इन्हें सावरकर के उस विचार को फैलाने को कहा गया था जिसमें उन्होंने कहा था कि आंतरिक खतरों से बचने के लिए हिंदुओं का सैन्यकरण करना जरूरी है. साथ ही उन्हें मालाबार में कम्युनिस्टों और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने का काम दिया गया.
उन्होंने कहा, "मस्जिद गिराने से महीनों पहले ही आरएसएस ने हमें यह बता दिया था कि मस्जिद गिरने के बाद मुसलमान हिंदुओं पर हमला करेंगे. नेतृत्व ने हमें बताया कि मुसलमानों को कुचलने के लिए हमें उन्हें वित्तीय तौर पर कुचलना होगा. उन्होंने हमसे कोझिकोड में मुसलमानों की इमारतों का सर्वे करने को कहा. "आने वाले दिनों में होने वाली हिंसा के लिए अलग-अलग स्थानों पर तलवार, कुल्हाड़ी और बम इकट्ठा किए गए.”
6 दिसंबर, 1992 यानी बाबरी विध्वंस के दिन आरएसएस ने शहर में कई समूहों को भेजा हुआ था. कोझीकोड में मवूर रोड पर भेजी टीम का नेतृत्व करने वाले पूर्व फिजिकल ट्रेनर को मुसलमानों के इलाकों में जाकर उन्हें भिड़ंत के लिए उकसाना था. उन्होंने मुझे बताया, "हमारे प्रयासों के बाद भी वे नहीं भड़के. एक जगह पर एक मुस्लिम संगठन ने काला झंडा फहराया था, जिसके साथ विध्वंस के बारे में छोटा नोटिस लगा हुआ था. हमने एक नया नोटिस लगा दिया जिसमें लिखा था कि काला झंडा लोकप्रिय मलयाली एक्ट्रेस मोनिषा की याद में फहराया गया है, जिनकी एक दिन पहले कार हादसे में मौत हुई थी."
दूसरी स्कवॉड ज्यादा सफल हुई और जल्द ही राजनीतिक हिंसा का एक चक्र शुरू हो गया. 12 जनवरी, 1993 को कोझीकोड के बेयपोर के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता पेरोथ राजीवन की हत्या कर दी गई. राजीवन ने आरएसएस कार्यकर्ताओं को मुस्लिमों के कारोबार बंद करने से रोका था. पूर्व फिजिकल ट्रेनर ने कहा इसमें आरएसएस के दो कुख्यात हत्यारे शामिल थे. दोनों अराया समुदाय से थे.
स्थानीय आत्म-रक्षा समूह ने दोनों को मारने का निर्णय लिया. दोनों हत्यारे कन्नूर के पूथापारा गांव में छिपे थे. पुलिस अफसरों का भेष बना कर टीम ने गांव में छापा मारा, लेकिन गलत खुफिया सूचना के कारण एक हत्यारे को निर्दोष समझकर छोड़ दिया.
पूर्व फिजिकल ट्रेनर ने दूसरे हत्यारे की मौत की दर्दनाक कहानी को याद किया. उन्होंने कहा टीम की योजना उससे जानकारी लेकर उसे मारने की थी, लेकिन उन्हें पता चला कि असली पुलिस की टीम उनका पीछा कर रही है. "उन्होंने उसे इतनी बुरी तरह मारा कि उसने कपड़ों में ही मल त्याग दिया. जब उन्हें लगा कि पुलिस उनके नजदीक पहुंच रही है तो उन्होंने चाकू से काटकर उसे नदी में फेंक दिया."
हालांकि, उन्होंने हत्यारे के हाथ-पैर बांध कर जीप की बैक सीट के नीचे रखा था, लेकिन उसने अपने हाथ खोल लिए. जीप जैसे ही पुल पर पहुंची, वह नदी में कूद गया. वह किनारे तक तैर कर गया और खुद को झाड़ियों में छिपा लिया. रात की टीम उसकी तलाश करने आई, लेकिन वह नहीं मिला.
जैसे ही सुबह हुई, वह एक गांव में आया और कपड़े बदलने की मांग की. उसके बाद वह गांव में ड्रेनेज में छिप गया. इसी दौरान उसने देखा कि एक आदमी आरएसएस द्वारा चलाई जा रही मलयाली साप्ताहिक “जन्मभूमि” की कॉपी लेकर जा रहा है. उसने उस आदमी को बताया कि कम्युनिस्ट उसके पीछे लगे हुए हैं. उस आदमी ने यह बात स्थानीय आरएसएस नेताओं तक पहुंचाई, जिन्होंने तेजी से कार्रवाई करते हुए उसे अस्पताल पहुंचाया. उसके बाद उसे वायनाड में संघ द्वारा चलाए जा रहे अस्पताल में ले जाया गया. जब कम्युनिस्टों को उसके छिपने की जगह का पता चला तो उसे काझीकोड में मेडिकल प्रोफेसर के घर भेज दिया गया. कुछ समय बाद उसे राजीवन हत्याकांड से बरी कर दिया और आज वह सामान्य जीवन-यापन कर रहा है और फिलहाल पतंजलि के उत्पाद बेचने के साथ-साथ योग का प्रचार कर रहा है.
(छह)
कमीशन से बाहर जाने वाले हर हत्यारे की जगह एक नए हत्यारे को तैयार किया जाता है. हत्या के बाद हत्या और धारणाओं की लड़ाई जारी है, इसलिए भगवा घेराबंदी भी जारी है. घेराबंदी का उद्देश्य गोलवलकर की पहली यात्रा के आठ दशक बाद भी नहीं बदला है. यह उद्देश्य राज्य में आरएसएस के विस्तार के लिए जमीन तैयार करना और कम्युनिस्टों की जगह बीजेपी को सत्ता में लाना है.
आजादी के पहले से ही केरल में राजनीति का, वर्ग और जातीय आधार पर ध्रुवीकरण रहा है. कांग्रेस के नेतृत्व वाले कई राजनीतिक प्रयोग सामंतो के हितों पर आधारित रहे हैं. लेफ्ट फ्रंट की राजनीति श्रमिकों और दबे-कुचले किसानों खास कर एझावा और दलितों पर केंद्रित रही है. बीजेपी को उम्मीद है कि वह कम्युनिस्ट विरोधी कामों से कांग्रेस के सामाजिक आधार को अपनी तरफ ले लेगी और कम्युनिस्ट ध्रुवीकरण से कामकाजी हिंदू वर्ग को अपनी तरफ आकर्षित कर लेगी. सबरीमाला मंदिर पर चल रहे विवाद ने उस रणनीति के लिए एक जरूरी पड़ाव के तौर पर काम किया है.
सबरीमाला श्री धर्म संस्था मंदिर पथनमथिट्टा जिले के पेरियार टाइगर रिजर्व में स्थित है. यहां पर 41 दिनों तक चलने वाले सालाना कार्यक्रम में 10 से 50 साल की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध है. हालांकि, इतने सालों में इसके कई अपवाद भी देखने को मिले. 1991 में केरल हाई कोर्ट ने इस प्रतिबंध को औपचारिक रूप दे दिया.
आरएसएस ने प्रतिबंध का विरोध किया. 2006 में जब यंग लॉयर्स एसोसिएशन और महिला वकीलों के समूह ने केरल हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो आरएसएस ने इस याचिका का समर्थन किया. 2016 में जब राज्य की कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वह प्रतिबंध के पक्ष में है तो आरएसएस के सरकार्यवाहक सुरेश "भैयाजी" जोशी ने संघ की राष्ट्रीय नेतृत्व कॉन्फ्रेंस में एक रिपोर्ट पेश की. इसमें इस परंपरा को "गलत" बताते हुए कहा गया कि "विस्तृत बातचीत से मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत है." आरएसएस से जुड़ी हुई केरल की दो धार्मिक संस्थाओं ने रिट याचिका का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया.
इस दौरान, सीपीआई (एम) इस मामले को लेकर अधिक सतर्क थी. 2006 में जब मंदिर के मुख्य ज्योतिषी ने दावा किया कि एक महिला ने मंदिर के पवित्र हिस्से में प्रवेश किया है तब केरल में महिला और बाल विभाग की मंत्री और कन्नड़ अभिनेत्री जयमाला ने स्वीकार किया कि 1986 में 27 साल की उम्र में उन्होंने भी मंदिर में प्रवेश किया था. हालांकि, मंदिर के मुख्य पुजारी ने इस बात से इनकार किया और कहा कि यह ज्योतिषी की साजिश है. इसके बाद जयमाला की गिरफ्तारी की मांग को लेकर प्रदर्शन होने लगे. सामाजिक कार्यकर्ता कविता कृष्णन ने एक लेख लिखा, जिसमें कहा गया कि कम्युनिस्ट सरकार मंदिर के सजा देने के अधिकार की वकालत कर रही है. कविता ने लिखा, "यह विडंबना है कि कर्नाटक विधानसभा ने सबरीमाला मंदिर द्वारा लैंगिक भेदभाव की निंदा की है, लेकिन सीपीआई (एम) के विधायकों ने ऐसा नहीं किया." उन्होंने तब के मंदिर विकास मंत्री जी सुधाकरण के हवाले से लिखा कि यह मंदिर बोर्ड का फैसला है अगर वह अपनी परंपराएं बनाए रखना चाहते हैं.
28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने इस प्रतिबंध को हटा दिया. इसके बाद आरएसएस ने अपनी बात बदल ली. इसने राज्य में कोर्ट के आदेश को लागू किए जाने के खिलाफ बड़े स्तर पर हिंसक आंदोलन किया. आरएसएस ने राज्य की कम्युनिस्ट सरकार पर आरोप लगाया कि अपने हिंदू-विरोधी रवैये के कारण सरकार इस फैसले को लागू करने में जल्दबाजी दिखा रही है. इस हमले ने केरल कांग्रेस को राष्ट्रीय कांग्रेस के स्टैंड के विरुद्ध जाकर आरएसएस के समर्थन में बोलने पर मजबूर कर दिया. इसी दौरान पिनाराई विजयन के नेतृत्व में कम्युनिस्ट आरएसएस के खिलाफ खड़े हुए.
विजयन ने राज्य का दौरा किया. इस दौरान उन्होंने राज्य के पुनर्जागरण और जाति-विरोधी इतिहास की बात की. उन्होंने मलयालियों को एकजुट होकर आरएसएस के ब्राह्मणवादी नजरिए को हराने की मांग की. उन्होंने कहा कि आरएसएस अपने छिपे एजेंडे के तहत राज्य में सांप्रदायिक और राजनीतिक हिंसा फैलाना चाहता है. उन्होंने पुलिस से कई हिंदूवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने को कहा.
इस विवाद ने केरल की राजनीतिक हिंसा के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू किया. आरएसएस और बीजेपी के बड़े नेताओं ने खुलेआम हिंदुओं से मंदिर में जाने वाली महिलाओं को रोकने की बात कही. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तीन महीनों के अंदर आरएसएस ने 7 बार हड़ताल का ऐलान किया. इसमें चार राज्यव्यापी और तीन जिलाव्यापी हड़तालें थीं. इसमें भीड़ ने सरकारी संपत्ति के साथ-साथ मुसलमानों और कम्युनिस्टों की संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया. संघ ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश रोकने के लिए कई महिलाओं को भी भेजा.
मध्य केरल के आरएसएस में काम करने वाले कार्यकर्ता के मुताबिक, "सेव सबरीमाला" के बैनर तले आरएसएस ने लोगों को एकजुट होने के लिए प्रोत्साहित किया. संघ ने आंदोलन की देखरेख करने के लिए कई हत्याओं के आरोपी अपने उग्र और वरिष्ठ पदाधिकारी वालसान थिलेंकरी को भेजा. मलयालम मीडिया में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, राजनीतिक हत्याओं में मुकदमे का सामना कर रहे आरएसएस कैडर जैसे अलाथियूर रतीश जो कोडिन्ही फैजल की हत्या में आरोपी है, हिंसा का नेतृत्व कर रहा था.
राज्य सरकार ने आरोप लगाया कि आरएसएस हिंसा को भड़काकर पुलिस को उकसा रही थी. कई नेताओं ने सरकार को आंदोलनकारियों पर गोली चलाने की चुनौती दी. रिपोर्ट के मुताबिक, हड़ताल में हुई हिंसा के 92 प्रतिशत आरोपी आरएसएस के सक्रिय कैडर से हैं. आरएसएस की प्रोपेगेंडा मशीनरी ने नकली वीडियो, फोटो और मैसेज वायरल किए, जिनमें दिखाया गया कि कम्युनिस्ट मंदिर और मूर्तियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं.
आरएसएस ने केरल पुलिस को सांप्रदायिक करने की भी कोशिश की. मौजूदा अतिरिक्त महानिदेशक मनोज अब्राहम, जो आंदोलन के शुरुआती दिनों में पुलिस अभियान की देखरेख कर रहे थे, को उनकी ईसाई पहचान के लिए निशाना बनाया गया. आरएसएस नेताओं ने खुलेआम हिंदू पुलिस अधिकारियों को "हिंदू-विरोधी" सरकार को नुकसान पहुंचाने को कहा. अपनी ड्यूटी कर रहे पुलिस अधिकारियों को धमकियां दी गईं.
जब मैं यह लिख रहा हूं तो ऐसा लगता है कि आरएसएस केरल में हिंदुत्व का एजेंडा फैलाने के लिए सबरीमाला विवाद का फायदा उठाने में सफल रहा है. इस बात के मजबूत संकेत हैं कि दबदबे वाली जातियों के कम्युनिस्ट विरोधी मतदाता कांग्रेस से बीजेपी की तरफ जा रहे हैं. आरएसएस की योजना सबरीमाला मामले को जितना लंबा हो सके उतना खींचने और इसके आसपास ध्रुवीकरण करने की है.
24 फरवरी को केरल पुनर्जागरण पर एक सेमिनार में शामिल होते हुए राज्य में बीजेपी के एकमात्र विधायक ओ. राजागोपाल ने सबरीमाला मुद्दे की तुलना राम जन्मभूमि आंदोलन से करते हुए कहा कि लोगों की नजर में यह बीजेपी को एक राजनीति लाभ दे सकता है. इससे लगभग तीन सप्ताह पहले उन्होंने विधानभा में कहा था कि उनकी पार्टी राज्य में सत्ता नहीं पा सकती.
इतिहासकार केएन पनिक्कर ने मुझे बताया, "आरएसएस हिंदुओं को हिंदू समर्थित और हिंदू विरोधी हिंदुओं में बांटने में सफल रहा है. इस ध्रुवीकरण का उसे आगे जाकर फायदा मिल सकता है. इसे केवल लेफ्ट द्वारा जन आंदोलन के जरिए रोका जा सकता है."
(द कैरवैन के अप्रैल 2019 अंक में प्रकाशित इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)