12 जून 2010 की सुबह 40-साला खातून, रुबीना मट्टू, श्रीनगर के बीचों-बीच सैदा कदाल मोहल्ले में अपने दुमंजिले घर के बाहर खड़ी थीं. पूरा पड़ोस बिलखने के गगनभेदी कृन्दन में डूबा था. इस दुख में डूबे परिवारजनों, नाते-रिश्तेदारों और पड़ोसियों से आंगन खचाखच भरा था. तभी लकड़ी के एक ताबूत में मैय्यत को कांधा दिए लोगों का हजूम दाखिल होता है. उस ताबूत के अंदर, रुबीना का मरा हुआ बेटा है, जिसके गम में वे रात से ही मुसलसल रोए जा रहीं थीं; कभी अपनी छाती पीटतीं, कभी बाल नोचतीं, कभी अपने मरहूम बेटे की शान में कसीदे पढ़तीं. “वालो मैंने महाराजू (आजा मेरे दुल्हे राजा),” एक दर्दभरी रुदाद गले से पुकारती, “मैंज हीथ हा चेसई पयारान (मैं हिना लिए तुम्हारी मुंतजिर हूं).” एक दिन पहले 11 जून के दिन ग्यारवीं जमात का विद्यार्थी, 17-वर्षीय उनका बेटा तुफैल मट्टू, ट्यूशन से घर लौट रहा था, जब उसके सर में अचानक पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों को छितराने के लिए चलाया गया अश्रुगैस का खोल आकर लगा.
मट्टू की बालकनी में खातूनों का हजूम, तुफैल की एक झलक पाने के लिए अपनी गर्दने उचका-उचका कर देख रहा था. उनकी आंखों से लगातार आंसुओं की धारा बहे जा रही थी. आंगन के दूसरी तरफ, अपने कांधों पर ताबूत उठाए मर्दों ने नारा बुलंद किया: “हमें आजादी दो! कातिलों को सजा दो!” तुफैल के तमाम दोस्त शून्य में तकते एक तरफ उदास, चुपचाप खड़े थे; दूसरी तरफ, बाकि लोग मैय्यत तैयारियों पर टकटकी लगाए थे. रुबीना को यकीन ही नहीं हो रहा था कि उनका बेटा अब नहीं रहा. वे बार-बार यही दोहराती रहीं कि कुछ दिन पहले ही उनके बेटे ने कार पसंद की थी. तुफैल के वालिद, मुहम्मद अशरफ चौके में गुमसुम स्तब्ध बैठे अपने हाथों के नाखून चबा रहे थे. “मैं बम्बई में था, अशरफ ने कहा, “मुझे क्या मालूम था कि मैं अपने बेटे को दफनाने के लिए ही घर लौटकर आया हूं.”
कश्मीर, गुस्से की ज्वाला में उफन पड़ा. हजारों की तादाद में, इस कत्ल की खिलाफत में गुस्से में तमतमाए कदमों से लोग आजादी के नारे लगाते हुए सड़कों पर उतर आए. हिंदुस्तानी फौज और राज्य पुलिस ने जवाबी कार्रवाई में गोलियां दाग दीं. हर विरोध प्रदर्शन के बाद हत्या; और, हर ह्त्या के बाद विरोध प्रदर्शन का यह सिलसिला यूं ही चलता रहा. शहर पर कर्फ्यू थोप दिया जाता और लोग उसे तोड़कर फिर सड़कों पर एकत्रित हो जाते. तुफैल की मौत के बाद, दो महीनों में पुलिस और अर्धसैनिक बलों की गोलियों ने 60 युवा कश्मीरियों को लील लिया था. 19 अगस्त तक, मरने वालों में नौ साल का एक लड़का भी था, जो दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में हर्नाग नाम की जगह पर 10 अगस्त के दिन सुरक्षा बलों की गोलियों का शिकार बना था. डॉक्टरों ने पुष्टि की कि गोली उसकी खोपड़ी को भेद कर अंदर घुसी थी, जिससे उसके मस्तिष्क को क्षति पहुंची थी. इस विद्रोह से निपटने के लिए, जम्मू और कश्मीर सरकार ने और अधिक शक्ति का प्रदर्शन किया. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने सेना की मदद की गुहार लगाई, जो श्रीनगर की सड़कों पर मार्चपास्ट करने लगी. लेकिन असंतोष की लहर थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. कश्मीर की वादियां, आजादी! आजादी!! के नारों से गूंज उठीं. जवान लड़कों ने बेधड़क अपने हाथों में पत्थर लिए सड़कों पर उतरना जारी रखा.
सरकार को इस तनावपूर्ण स्थिति में, कट्टर अलगाववादी सैय्यद अली गिलानी के रूप में एक मसीहा मिल गया था. जब-तब इस इस्लामी मौलवी को हिरासत में ले लिया जाता या नजरबंद कर दिया जाता; और ज्यादातर मौकों पर जुम्मे के दिन पुलिस, कश्मीर की मस्जिदों के बाहर जमा आतुर हुजूम को संबोधित करने पर पाबंदी लगा देती. पुलिस ने उन्हें आखिरी बार, तुफैल की मौत के बाद गिरफ्तार किया था. इन गिरफ्तारियों के दौरान, दक्षिण कश्मीर में उनके घर के आने-जाने के रास्तों को पुलिस द्वारा सील कर दिया जाता और अहाते के चारों तरफ एक मानव जंजीर बना दी जाती. जब कभी भी हालात तनावपूर्ण होते और गिलानी द्वारा किसी रैली को संबोधित करने या सरकार की नीतियों पर हमला बोलने, या मौजूदा त्रासदी पर टिप्पणी उनके करनी की आशंका बढ़ती, पुलिस उनके दरवाजे पर आ धमकती. बुजुर्ग कट्टरपंथी अपने आप ही घर से बाहर निकल आते और उन्हें ले जाकर डल झील के किनारे पर बनी वीआईपी जेल में डाल दिया जाता.
4 अगस्त 2010 को, गिलानी को एक बार फिर जेल से आजाद कर दिया गया. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने, अपना एक सलाहकार गिलानी से मिलने जेल में भेजा और उनसे कश्मीर में उफनते गुस्से को शांत करवाने में मदद की गुहार लगाईं. जेल से छूटते ही गिलानी अपने घर के बाहर, टीवी कैमरों से घिरे खड़े थे. करीने से छंटी अपनी सुपैद दाढ़ी, दुबले-पतले छरहरे बदन वाले गिलानी ने कुर्ता-पाजामा डाला हुआ था और उनका सर हल्के भूरे रंग की कंदीली टोपी से ढंका था. उन्होंने अवाम से गुजारिश की कि वे पुलिस और सेना के नाकों पर पत्थरबाजी न करें. “मैं आज़ादी के लिए आपके जज्बात समझता हूं,” गिलानी ने कहा, “मैं भी आपकी मानिंद आजादी का दीवाना हूं, लेकिन हम यह जंग बिना खून खराबे के जारी रखेंगे. अगर पुलिस आपको रोकती है, आप बैठ जाएं और उनसे गोली चलाने को कहें.” जिसने एक लंबे समय तक आक्रमक रुख अपनाए जाने की तरफदारी की हो, एक ऐसे इंसान की शान्ति के लिए अपील ने, नई दिल्ली में बैठे हुक्म्मारानों को बहुत अचरज भरा लगा.
हफ्तों की बेचैनी के बाद, आखिर घाटी शांत हुई. ऐसा लगा मानो प्रदर्शनकारियों ने गिलानी की बात मान ली हो. कश्मीर की अवाम, सरकार के सामने घुटने न टेकने के उनके जज्बे के लिए उनका एहतराम करती है. एक नारा अक्सर गिलानी की रैलियों में लगता रहा है: “न झुकने वाला गिलानी! न बिकने वाला गिलानी!” मैंने कुछ लोगों से पत्थरबाजी के मुत्तालिक गिलानी की अपील के बारे में पूछा. “इसे रोक पाना मुश्किल था,” फोन पर एक 20-वर्षीय पत्थरबाज ने कहा, “लेकिन हमें उनकी बात माननी होगी.”
गिलानी सिर्फ एक लफ्ज के कारण हरदिल अजीज हैं : मुखालफत. कश्मीर के नौजवान उन्हें “बाब जान” कहकर पुकारते हैं. उनके कट्टरपन ने उनकी छवि, आवाम के नुमाइंदे के रूप में पेश की है. कश्मीर के नरमपंथी अलगाववादियों की बनिस्पत, गिलानी नई दिल्ली से किसी भी किस्म की बातचीत की पैरोकारी नहीं करते. “उनके इस कठोर रवैये ने उन्हें विश्वसनीय बनाया है,” कश्मीर यूनिवर्सिटी में, कानून के प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर शेख शौकत हुसैन ने बताया. “क्योंकि कश्मीरियों ने अपने बड़े से बड़े नेता को हिंदुस्तान के सामने घुटने टेकते देखा है,” हुसैन, शेख अब्दुल्लाह की तरफ इशारा कर रहे थे, जिन्होंने करीब 20 सालों तक कई जेलों में रहने के बाद, कश्मीर की खुदमुख्तारी के सवालों से 1975 में इंदिरा गांधी के साथ समझौते के कागजों पर दस्तखत कर लिए थे. कश्मीर में एक कहानी को बार-बार दोहराया जाता है : लीबियाई गुरिल्ला नेता उमर मुख्तार और इटली के मुसोलिनी के बीच संघर्ष पर बनी फिल्म देखने के बाद, श्रीनगर में एक सिनेमा हॉल से बाहर निकलने पर नौजवानों ने शेख के तमाम पोस्टरों को फाड़ डाला था. मुख्तार ने तब तक हार नहीं कबूल की जब तक उनको फांसी पर नहीं लटका दिया गया. गिलानी उमर मुख्तार बनना चाहते हैं. पिछले बीस सालों में, उन्होंने कश्मीर विवाद को सुलझाने के लिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान सरकारों द्वारा हर पेशकश को ठुकराया है.
अंग्रेजों द्वारा उपमहाद्वीप को छोड़कर चले जाने के बाद हिंदुस्तान का बंटवारा हुआ और कश्मीर का मसला वजूद में आया. गिलानी उस वक्त 18 साल के थे. उन्होंने अपने सियासी जीवन की शुरुआत, कश्मीर में हिंदुस्तान-परस्त कैंप से की. लेकिन जल्दी ही उन्होंने अपना अलग रास्ता चुन लिया और खुद को इस्लामी तंजीम, जमात-ए-इस्लामी के फलसफे के प्रचार-प्रसार में झोंक दिया. जब 1989 में, आंदोलन ने उग्र रूप इख्तियार किया तो वे जमात के हथियारबंद, पाकिस्तान-परस्त, हिजबुल मुजाहिद्दीन के सदस्यों के लिए एक किस्म के रूहानी नेता बन गए. कश्मीर में, गिलानी के अलावा भी विरोध के स्वर हैं. एक तरफ वे लोग हैं जो आजादी चाहते हैं; तो दूसरी तरफ, ऐसे भी हैं, जो भारतीय संघ में ही स्वायत्तता की मांग करते हैं; और तीसरी तरफ, ऐसे लोग, जो सिर्फ मानव अधिकारों के हनन के मामलों में ही बोलते हैं. आज 81-वर्षीय गिलानी, कश्मीर के अलगाववादियों में सबसे दबंग आवाज है, जो खुलेआम ऐलान करते हैं कि अगर कभी संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव के मुताबिक रायशुमारी करवाई गई तो वे पाकिस्तान के साथ जाने की वकालत करेंगे. इसी एक वजह से हिंदुस्तान के हुक्मरान उनसे कतराते हैं. उनका इस कदर इस्लामी नजरिया, एक धर्म-निरपेक्ष, सूफी-प्रभावित कश्मीर में शायद उनको उतनी तरजीह न दिलाता हो, लेकिन कश्मीर के मामले में उनका सियासी नजरिया उन्हें सबसे प्रचलित नेता बनाता है. लेकिन सवाल यह है कि उनका इस हद तक कट्टरवादी रवैया, कश्मीर मसले को सुलझाने में कहां तक कारगर साबित होगा?
इस साल मई के आखिर में, एक इतवार की दोपहर मैं गिलानी से उनकी बैठक में मिला. कमरे में फर्श पर सुर्ख ऊनी गलीचा बिछा था, पांच लोगों के बैठने का एक सोफा और 14-इंची टीवी एक बारह इंची टेबल पर पड़ा था; टीवी टूटा हुआ लग रहा था और उससे कोई केबल कनेक्शन भी नहीं जुड़ा हुआ था. थोड़ी देर बाद मैंने दरवाजा खुलने की आवाज सुनी और देखा कि गिलानी कमरे में झांक रहे थे. “मुझे जरा वक्त दीजिए,” उन्होंने कहा. उन्हें अपने दस्तखत के मसले को उठाने में पांच मिनट लगे. “जुल्म करने वालों और जुल्म सहने वाले दोनों पक्षों को कुछ शर्तों पर तैयार होना होता है,” उन्होंने अपनी बात रखी, “हमारे मामले में जुल्म करने वाला, एक भी शर्त मानने को तैयार नहीं है. हमसे हमारे नजरिए को नरम करने के लिए कहा जा रहा है. उन्हें सबसे पहले कश्मीर को, एक विवादित क्षेत्र मानना होगा, जो वे मानने के लिए तैयार नहीं हैं,” वे बोलते रहे. “उन्हें इस पूरे इलाके से सेना हटानी होगी, काले कानूनों को वापस लेना होगा और सभी कैदियों को रिहा करना होगा.”
“और आपकी क्या पेशकश है?”
“हम उनसे कह रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ की रायशुमारी के प्रस्ताव के मुताबिक, हम आपकी इस मुद्दे का शांतिपूर्वक हल निकालने में मदद करेंगे.”
नौजवान कश्मीरियों के तसव्वुर में गिलानी के चरमपंथी विचार, हमेशा कश्मीर में हिंदुस्तान द्वारा किए गए मानव अधिकार उल्लंघनों की बेधड़क आलोचना से बराबर हो जाते हैं. लेकिन हमेशा से, उनकी इस तरह की सोच नहीं रही. वास्तव में अपनी आज की विचारधारा तक पहुंचने के सफर में गिलानी का हैरतंगेज़ ढंग से कायाकल्प हुआ है.
29 अगस्त 1929 के दिन जन्मे गिलानी उत्तरी कश्मीर के बारामुला जिले के जूरी मुंज गांव में एक गरीब परिवार से आते हैं. उनके वालिद सैय्यद पीर शाह गिलानी, गांव के नदी नालों की देखरेख करने वाले मजदूर थे. अपने गांव से दस कोस दूर एक सरकारी स्कूल में गिलानी तालीम हासिल करने जाते थे. 1945 में, उन्होंने दसवीं पास की और कुरान की तालीम हासिल करने लाहौर चले गए. जब उनके वालिद बीमार पड़े तो एक साल बाद वे वापस गांव लौटे. फारसी अदब में अपनी तालीम हासिल के दौरान, वे नजदीक की एक मस्जिद में इमाम मुकर्रर हो गए.
1949 में, एक दिन शेख अब्दुल्लाह की पार्टी नैशनल कांफ्रेंस के महासचिव, मुहम्मद सैय्यद मसूदी ज़ूरी मुंज आए. गिलानी मस्जिद में जुम्मे की नमाज की तैयारी कर रहे थे. हालांकि गिलानी महज बीस वर्ष के थे लेकिन मसूदी, तकरीर करने के उनके लहजे से बेहद मुत्तासिर हुए. जल्द ही मसूदी, जो एक हिंदुस्तान-परस्त मुसलमान थे, गिलानी के वैचारिक गुरु बन गए. वे गिलानी को अपना सहायक बनाकर श्रीनगर ले आए और नेशनल कांफ्रेंस के हेडक्वार्टर, मुजाहिद मंजिल में उनके रहने के इन्तेजमात कर दिए. चार सालों तक मसूदी ने उन्हें धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाया. पैसा कमाने के लिए गिलानी एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने लगे. वे कश्मीर में इंडियन नेशनल कांग्रेस के मुखपत्र डेली खिदमत के लिए भी संपादकीय लिखने लगे. एक संपादकीय में उन्होंने हिंदुस्तान की धर्मनिरपेक्ष जम्हूरियत की तारीफ भी की. वे कश्मीर के कम्युनिस्टों से भी बहस-मुबाहिसा किया करते. वे तकरीर करते कि “कोई खुदा नहीं है” और गिलानी जवाब में कहते “लेकिन अल्लाह!”
“मुझे हर एक मजहबी जलसों में वक्त पर पहुंचते देखकर कम्युनिस्ट सोचते कि यह मैं उनको चिढ़ाने के लिए कर रहा हूं,” गिलानी ने एक लेख में लिखा, “लेकिन मैंने उनको कभी संजीदगी से नहीं लिया.”
1954 में, गिलानी की मुलाकात कारी सैफुद्दीन से हुई. सैफुद्दीन कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी के संस्थापकों में से एक थे और उन्होंने गिलानी का मौदूदी के काम से तारुफ्फ करवाया. धीरे-धीरे मदूदी के फलसफे ने गिलानी के भीतर मसूदी के धर्मनिरपेक्षता के पाठ की जगह ले ली. और जल्द ही गिलानी ने कश्मीर में जमात को मजबूत बनाने के लिए अपना सारा जीवन सौंप दिया. जमात का बुनियादी मकसद आलमगीर इस्लामी कानून को अमल में लाना था. लाहौर में अबुल अला मदूदी द्वारा 1941 स्थापित जमात, इस्लाम के दुश्मनों के खिलाफ जिहाद की पैरवी करती है. पचास और साठ के दशकों में जमात का तखय्युल या तसव्वुर पूरे उपमहाद्वीप पर तारीं था.
फिर जमात के सिपहसलार के रूप में, गिलानी वापिस उत्तरी कश्मीर में लौट कर आए. वे जुम्मे के दिन मुकामी मस्जिदों में नसीहतें तक्सीम करने, मदरसों में जाकर हिदायतें देने और मुकामी मिडिल स्कूल में बच्चों को फारसी पढ़ाने का काम करने लगे. सूफी रंग में रंगे कश्मीर में, उन दिनों जमात का पैरोकार होना आसान नहीं था. चूंकि कुलीन तबका ही सूफी इस्लाम का पैरोकार था, मदूदी ने इसे अमीरों और कुलीनों का फलसफा करार दिया. कश्मीर के देहाती जिलों में रहने वाले नौजवान, जो पूरी तरह से खेती-बाड़ी पर निर्भर थे और घाटी में मौजूद सामंतवाद से आजिज आ चुके थे, इस फलसफे से बहुत मुत्तासिर हुए. उन्होंने जमात की विचारधारा में पनाह ले ली.
1970 के दशक की शुरुआत में गिलानी ने, चुनावी राजनीति में हिस्सा लेने का फैसला लिया. यह एक जुआ था क्योंकि जमात शरियत कानून में यकीन करती थी. राज्य में सीट के लिए लड़ने का मतलब था, हिंदुस्तान के संविधान को मान्यता देना जो पारिभाषिक तौर पर धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर आधारित था. “यह फैसला जमात में सबकी रजामंदी से लिया गया था,” गिलानी ने कहा, “ताकि पार्टी को पहचान मिल सके.” 1972 में, गिलानी सोपोर से विधायक चुने गए. अस्सी हजार लोगों ने उन्हें वोट दिया था. वे इस विधान सभा चुनाव क्षेत्र से दो बार विधायक चुने गए.
उनका आत्मविश्वास हमेशा ऊंचा रहा,” नब्बे-वर्षीय कांग्रसी नेता गुलाम रसूल कर ने कहा, जिनको पहले चुनाव में गिलानी के हाथों शिकस्त का सामना करना पड़ा था. “वे हमेशा अपने कार्यकर्ताओं में यह कहकर जोश भरते रहते कि ‘हम आवाम के करीब आ गए हैं...हमने उनसे नाता जोड़ लिया है...और हम कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं. वे एक आशावादी थे और चीजें उनके मुताबिक होती गईं.” लेकिन गिलानी ने तकसीम की राजनीति भी खेलनी शुरू कर दी थी. “मुझे याद है कि प्रचार के दौरान, वे धर्मनिरपेक्षता को गैर इस्लामी बताते थे. इस तरह उन्होंने आवाम की धर्मनिरपेक्ष भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया,” उन्होंने कहा.
पिछले 40 सालों से, गिलानी जमात-ए-इस्लामी के साथ वफादार रहे हैं. श्रीनगर हवाई अड्डे के पास जमात ने उनके लिए एक अमीर इलाके में सादा, लेकिन बड़ा और तिमंजिला घर बना के दिया. पिछले 20 सालों से वे इसी घर में अपनी 65-वर्षीय बीवी के साथ रह रहे हैं. जमात ने दुनिया को लेकर उनका नजरिया बदला, लेकिन इस्लामी कानून को लागू करने का उनका सपना, सूफी रवायत वाले कश्मीर में मुमकिन होता नजर नहीं आता, जिसके बाशिंदों ने 1989 में हिंदुस्तान से लड़ने के लिए बंदूकें, मजहब की खातिर नहीं बल्कि कश्मीर की आजादी के तसव्वुर के लिए उठाई थीं.
मार्च 1987 के चुनावों के बाद, जिसके बारे में यह व्यापक मान्यता थी कि उन चुनावों में बड़े स्तर पर गड़बड़ियां की गई, कश्मीर में विद्रोह की ज्वाला भड़की. एक मुकाबले में तो श्रीनगर के अमीरा कदल विधान सभा चुनावी क्षेत्र से मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के प्रत्याशी सैय्यद युसूफ शाह को विजयी घोषित कर दिया गया था और वे गणना स्थल पर चुनाव को सत्यापित करने के लिए दस्तखत भी कर चुके थे, लेकिन बाद में, रेडियो कश्मीर ने नेशनल कांफ्रेंस के प्रत्याशी, गुलाम मोहुद्दीन शाह को विजयी करार दिया. इस पर ऐतराज जताने के बाद सैय्यद युसूफ शाह और उनके साथियों को बिना किसी मुकदमे के जेल में डाल दिया गया. जेल से छूटने के बाद, शाह पाक-अधिकृत कश्मीर भाग गए, जहां कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद में बसने के बाद उन्होंने एक नया नाम अपना लिया: सलाहुद्दीन. अब वे 23 दहशतगर्द गुटों के सरगना हैं, वे आज भी आजाद घूम रहे हैं.
उन्ही चुनावों में गिलानी भी विधायक चुने गए थे. लेकिन उन्होंने 1989 विद्रोह के भड़कने के साथ ही नैतिक कारणों से इस्तीफा दे दिया.
हजारों कश्मीरी नौजवान सरहद पार कर पाकिस्तान पहुंचे और वहां से हिंदुस्तान से लड़ने के लिए एके-47 लेकर लौटे. हिंदुस्तान के फौजी तंत्र ने कश्मीरी आवाम पर कहर बरपा दिया, और पृथ्वी पर जन्नत कहे जाने वाले इस हिस्से को मिलिट्री के बूटों तले रौंध डाला. कश्मीर, दुनिया का सबसे अधिक सेन्याकृत इलाका बन गया, जहां हर दस कश्मीरियों के सर पर 1 सैनिक बैठा था. इसके मुकाबले इराक में, अमरीकी कब्जे के दौरान भी हर 186 इराकियों पर 1 सैनिक का अनुपात था.
जैसे-जैसे सैनिकों की तादाद बढ़ी, वैसे-वैसे मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में भी इजाफा हुआ. एमनेस्टी इंटरनैशनल ने, 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिख कर कश्मीर में कथित मानव अधिकारों के उल्लंघन का जिक्र किया और स्वतंत्र जांच की मांग रखी. एमनेस्टी ने दावा किया कि “राज्य में 1989 से सशस्त्र विद्रोह के सन्दर्भ में गैरकानूनी तरीके से मारे गए लोगों की कब्रों की खबरें, गायब कर दिए गए नौजवानों की फेरहिस्त, यंत्रणा और शक्ति के अन्य दुरुपयोगों के मामले सामने आते रहे हैं.
इस पृष्ठभूमि में, कश्मीर के अंदर हथियार उठाने वाले लड़के कई नौजवानों के लिए नायक बन बैठे. श्रीनगर के हर गली नुक्कड़ पर पहरा देते बंदूक उठाए इन नौजवानों के नजारे रोजमर्रा के जीवन में उतने ही आम हो गए जैसे मस्जिद, कसाई या किराने की दूकान.
गिलानी शुरूआत में उग्रवादियों को समर्थन देने में हिचकिताते थे. “लेकिन कुछ ही महीनों बाद उन्होंने जमात में जिरह की कि आजादी के लिए जंग छेड़ने वालों को हम अस्वीकार नहीं कर सकते,” जमात के मौजूदा सरदार ने कहा. जिन लोगों की तरफ गिलानी इशारा कर रहे थे वे जमात-ए-इस्लामी तुलबा के स्टूडेंट विंग के लोग थे. उनका झुकाव पाकिस्तान की तरफ था और वे हिज्ब नामक उग्रवादी संगठन की नुमाइंदगी करते थे. अपने मकसद के लिए जान पर खेल जाने वाले इन जांबाजों के लिए गिलानी एक ऐसे व्यक्ति थे जिनसे वे अपनी मौत का फातिहा पढ़वाना फक्र की बात समझते थे. वे अक्सर यह करते भी थे.
“वे हमेशा से हमारे महबूब रहे हैं,” हिज के पूर्व डिविजनल कमांडर, जाफर अकबर भट्ट ने बताया जब मैं उनसे उनके श्रीनगर के सनत नगर इलाके वाले घर में मिला. “जब वे भूमिगत थे, हम उनसे बहुत मिला करते थे और उनसे हमारी जीत के लिए दुआ करने को कहते.” जाफर 1988 में उग्रवादी बने थे और 12 साल तक जंग लड़ी. 2002 में, उन्होंने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया और नरमपंथी अलगाववादियों में शामिल हो गए.
गिलानी इसलिए भी हिंदुस्तान पर विश्वास नहीं करते क्योंकि उन्होंने बार-बार सरकार पर आरोप लगाया है कि वह उन्हें निशाना बनाने पर आमादा है. उनका कहना है कि पिछले 20 सालों से अब तक उन पर, एक दर्जन जानलेवा हमले हो चुके हैं.
उनको लगता हैं कि जब उनसे लुकेछिपे चलने वाली बातचीत असफल रही, तो सरकार ने उन्हें रास्ते से ही हटा देने में भलाई समझी. एक जगह उन्होंने लिखा कि 1 अक्टूबर 1996 को “हिंदुस्तानी फौज ने उनके घर की ऊपरी मंजिल पर दो राकेट लॉन्चर छोड़े.” गिलानी के दामाद अल्ताफ अहमद, जो इस हादसे के चश्मदीद गवाह थे, ने कहा “यह लॉन्चर सीमेंट की दीवार को भेदता हुआ, कमरे के अंदर आकर फटा. उस दिन, अल्लाह ही मेहरबान था.” अल्ताफ पर 2005 में अनजान लोगों द्वारा गोलिया चलाई गई. गोली उनकी गर्दन में जा धंसी लेकिन खुशकिस्मती से वे बच गए. “मैंने सिर्फ आवाज सुनी,” उन्होंने कहा.
इस तरह के हादसों ने गिलानी के इरादों को और मजबूत बनाया और उन्होंने कश्मीर पर हिंदुस्तान के गैरकानूनी कब्जे पर सवालिए निशान लगाना जारी रखा. अपने नजरिए को सही ठहराने के लिए वे इतिहास का हवाला देते हैं: 80,000 हलाक, कई हजार गायब, जेलें, जेलों में मौतें और सामूहिक कब्रें. “हमारा इतिहास खून से लथपथ है,” अल्ताफ ने कहा, “मैं सौ बार कुर्बान होने को तैयार हूं.”
गिलानी के इस सैद्धांतिक नजरिए ने उनके वैचारिक दुश्मन भी पैदा किए हैं. 26 अलगाववादी तंजीमों के मेल से बनी हुर्रियत कांफ्रेंस, जो कश्मीर में रायशुमारी करवाने के मकसद से वजूद में आई थी, के सदस्य के रूप में, वे हमेशा अपने मुख्तलिफ नजरिए के लिए जाने जाते हैं और उसके द्वारा लिए गए फैसलों से अपनी ना-इत्तेफाकी जाहिर करते रहे हैं. 2002 के चुनावों के दौरान, उन्होंने सज्जाद गनी लोन पर अपरोक्ष रूप से चुनावों में हिस्सा लेने का इल्जाम लगाया और उन्हें हुर्रियत से निकाले जाने की पैरवी की. इस मसले पर मतभेद इस कदर तीखे हो गए कि यह जमावड़ा दो हिस्सों में तकसीम हो गया. गिलानी एक धड़े के नेता बन गए जिसे वे हुर्रियत (जी) बुलाते थे और कश्मीर के इमाम मीरवाईज उमर फारूक ने हुर्रियत (एम) की कमान संभाली.
सज्जाद ने गिलानी के आरोप को सही साबित कर दिया जब उन्होंने 2009 का संसदीय चुनाव लड़ा. चुनाव में हिस्सेदारी करने से पहले उन्होंने गिलानी के खिलाफ खूब जहर उगला. उन्होंने नवंबर 2008 में एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान कहा, “जब तक गिलानी जिंदा हैं, कश्मीर को आजादी नहीं मिलेगी.”
गिलानी की ही तरह सज्जाद की गिनती भी कश्मीरी नेताओं में एक बेहतरीन वक्ता के रूप में होती है. 18 मई 2010 को मैंने सनत नगर में सज्जाद के घर पर उनसे मुलाकात की, “मुझे गिलानी से कोई गुरेज नहीं है, लेकिन मैं आपको बताता हूं कि अलगाववादियों की नाकामयाबी के लिए चाहे मेरे वालिद जिम्मेवार हों या गिलानी साहब उसकी कीमत उन्हें नहीं चुकानी पड़ती. इसकी कीमत आवाम चुकाती है.”
सज्जाद ने कहा, उनके वालिद, अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन, जिनकी हत्या कर दी गई थी, गिलानी के सबसे अच्छे दोस्तों में शुमार थे. “मेरे वालिद और गिलानी ने साथ मिल कर कश्मीर विधान सभा में स्वायत्तता प्रस्ताव रखा था,” सज्जाद ने कहा, “अगर वे बुजुर्गवार न होते तो वे दुबारा चुनावों में शिरकत करते...मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूं.”
सज्जाद एक विशाल कद-काठी के इंसान हैं. उन्होंने अपनी पढ़ाई, इंग्लैंड में की और उनके पास मनोविज्ञान में डिग्री है. दुबई में उनका अपना कारोबार भी है. उनका निकाह पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर में, जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता अमानुल्लाह खान की बेटी, अस्मा से हुआ है.
“मैं चाहता हूं कि इतिहास गिलानी को उनकी चंद कामयाबियों के साथ याद करे,” सज्जाद ने कहा. “कश्मीर की आवाम को कम से कम, सच्चाई से वाबस्ता होने का तो हक है. उन्हें आवाम को बताना चाहिए कि सच्चाई क्या थी और वे क्यों नाकामयाब रहे? किसने हमारी मदद की और किसने नहीं...और वे सब जानते हैं.” वे कश्मीर में पाकिस्तान की भूमिका पर बात कर रहे थे. उनका मानना है कि पाकिस्तान ने कश्मीरियों की आजादी की जंग को नुक्सान पहुंचाया है.
“वे सिर्फ एक शहीद की मौत मरना चाहते हैं,” सज्जाद ने अपनी बात खत्म करते हुए कहा.
लेकिन जब भी पाकिस्तान के नेताओं ने रायशुमारी से कमतर बात की है, गिलानी ने भी उसके प्रति सख्त रुख इख्तियार किया है. पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ, कश्मीर मसले को आपसी बातचीत के जरिए सुलझाना चाहते थे. 7 अप्रैल 2005 को दोनों मुल्कों की सरकारों ने हिंदुस्तान-अधिकृत श्रीनगर और पाकिस्तान-अधिकृत मुजफ्फराबाद के बीच बस मार्ग खोलने का फैसला किया. ऐसा 1947 के हमले बाद पहली बार किया जा रहा था. मीरवाइज उमर फारूक ने इस कदम का स्वागत किया. गिलानी ने इसकी भर्त्सना की. “ये कदम लीपापोती हैं,” उन्होंने प्रेस से कहा. नौ दिन बाद 16 अप्रैल को परवेज मुशर्रफ ने हिंदुस्तान का दौरा किया. दो दिन बाद वे नई दिल्ली स्थित पाकिस्तान हाउस में गिलानी से मिले. उस मीटिंग में मौजूद गिलानी के सहयोगी ने बताया, “गिलानी शुरू से ही कड़ा रुख इख्तियार किए हुए थे.”
उन्होंने इस बातचीत को कुछ यूं बयान किया :
“हालात बदल गए हैं, गिलानी साहब,” मुशर्रफ ने कहा.
“हाँ, हालात बदलते रहते हैं लेकिन स्टैंड नहीं बदलता,” गिलानी ने जवाब दिया.
“हम चाहते हैं कि आप अमन के लिए उठाए जाने वाले कदमों का हिसा बनें. आपके बिना हम कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे.”
“आपको क्या लगता है, इससे क्या हासिल होगा?” गिलानी ने पूछा.
“आम राय बनाने की जरूरत है.”
“हम बातचीत करने पर गौर कर सकते हैं अगर कश्मीर को हिंदुस्तान विवादित इलाका माने, अपनी फौजें वापिस बुलाए, सभी कैदियों को रिहा करे और सभी काले कानूनों को वापस ले. और हां, बातचीत तीन-पक्षीय होगी, जहां आप, मैं और वे (हिंदुस्तान) एक टेबुल पर साथ बैठेंगे.”
स्रोत के मुताबिक, कश्मीर के डोडा जिले से जमात के महासचिव मलिक नूर फयाज जब मुशर्रफ के खैरमकदम के लिए आए और उन्होंने उनसे हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया तो उनको नजरंदाज कर दिया गया.
“जनरल साहब, यह शख्स एक ग्रेजुएट है, कोई तालिबान नहीं,” गिलानी ने मुशर्रफ से कहा.
यह मीटिंग, बिना किसी वास्तविक नतीजे के खत्म हो गई. गिलानी ने मुशर्रफ की अमरीका परस्ती पर भी सवाल उठाए. इससे कथित तौर पर मुशर्रफ बहुत गुस्सा हुए. उन्होंने गिलानी से कहा कि उन्हें पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों के बारे में परेशान होने की जरूरत नहीं है. इसके बाद मुशर्रफ ने, गिलानी को दरकिनार कर मीरवाइज को तबज्जो देना शुरू कर दिया.
“इस मौके पर गिलानी ने कश्मीर आंदोलन को बचा लिया,” विश्लेषक शेख शौकत हुसैन ने कहा. “उन्होंने साबित कर दिया कि वे पाकिस्तान के पियादे नहीं हैं.”
मीरवाइज ने मुशर्रफ के चार-स्तरीय फार्मुले को मान लिया. फार्मुले के मुताबिक कश्मीर में स्व-शासन होना चाहिए, दोनों मुल्कों को सरहदों को बेमानी बना देना चाहिए, कारोबार और कौमी मेलमिलाप को बढ़ावा देना चाहिए.
नौजवान नेताओं में, मीरवाइज सबसे जाना पहचाना नाम है. जून के पहले हफ्ते में, मैं मीरवाइज से उनके निगीन वाले घर में मिला, जो इसी नाम से प्रसिद्ध झील के पास बसे पुराने मोहल्ले में स्थित है. घर के मुख्य दरवाजे के ऊपर बनी चौकी पर एक हिंदुस्तानी अर्धसैनिक दल का सैनिक पहरा दे रहा था और अंदर अहाते में बगीचे की तरफ जाते रास्ते पर कुछ सिपाही सादे कपड़ों में इंतजार कर रहे थे. मीरवाइज आंगन में एक कुर्सी पर बैठे अपने समर्थकों से मुलाकात कर कर रहे थे. सर पर गोल टोपी पहने एक आदमी उनसे अपने गांव में उपदेश देने की गुजारिश कर रहा था. “हम वादा तो नहीं कर सकते, लेकिन कोशिश जरूर करेंगे,” उनके सचिव ने आदमी से कहा.
मीरवाइज कुछ कागजातों पर दस्तखत करने और उन्हें अपने सचिव को सौंपने के बाद मेरी तरफ मुखातिब हुए. “यह मेरी समझ से बाहर है कि नई दिल्ली के पास कश्मीर मसले को सुलझाने के लिए क्यों कोई नीति नहीं है?” मीरवाइज ने झुंझलाते हुए कहा. 2004 में, मीरवाइज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने नई दिल्ली गए. 1987 में सशत्र विद्रोह के बाद यह पहली बार था जब कश्मीरी अलगाववादियों और सरकार के बीच इतने बड़े स्तर पर मुलाकात हो रही थी. लेकिन इस बातचीत से भी कुछ खास निकल कर नहीं आ पाया. “गिलानी साहब ने जो पोजीशन ली थी जिससे वे पीछे नहीं हट सकते थे. नई दिल्ली को उन्हें गलत साबित करना चाहिए. अगर नई दिल्ली आगे नहीं बढ़ती है तो वे सही साबित होंगें और गिलानी का रूतबा दिनोंदिन बढ़ता चला जाएगा.”
मीरवाइज ने कई बार, गिलानी से नई दिल्ली के नेताओं से बात करने की गुजारिश की. उनके मुताबिक, 2008 के प्रतिरोध के दौरान ऐसा एक बार लगभग होने ही वाला था. “मैंने उनसे (गिलानी) कहा, चलो बात करते हैं. इस बार हम मजबूत स्थिति में हैं,” मीरवाइज ने कहा, “लेकिन उन्होंने कहा, ‘नहीं, हमें मुकम्मल आजादी चाहिए. हिंदुस्तान को यहां से जाना ही होगा.” गिलानी ने मीरवाइज पर रायशुमारी के मुद्दे को लेकर बिक जाने का भी आरोप लगाया है.
वह एक ऐसा समय था जब इस्लामाबाद (परवेज मुशर्रफ की सरदारी में) और नई दिल्ली, कश्मीर पर बातचीत करने के लिए तैयार हुए थे और दोनों मुल्कों के लिए, अलगाववादी कैंप से मीरवाइज उनकी पसंद थे. लेकिन गिलानी ने ऐसा होने नहीं दिया.
2008 की गर्मियों में, हजारों हजार कश्मीरी श्रीनगर की सड़कों पर उतर आए. अखबारों के मुताबिक टूरिस्ट रिसेप्शन सेंटर पर अलगाववादियों की इस संयुक्त रैली में करीब में पांच लाख लोगों का हुजूम था. बोलने वाले वक्ताओं में गिलानी के अलावा, मीरवाइज और अन्य नरम अलगाववादी भी शामिल थे. गिलानी दो टूक बोले और उन्होंने मीरवाइज तथा दूसरे नरमपंथियों को कश्मीर की अलगाववादी राजनीति में अप्रसांगिक साबित करने की कोशिश की. उन्होंने कहा, “मेरे पास आपके लिए एक खुशखबरी है.” भीड़ यह सुनकर सकते में आ गई. थोड़ा रुकने के बाद उन्होंने कहा, “परवेज मुशर्रफ को सदरे पाकिस्तान की कुर्सी से बेदखल कर दिया गया है.” लोग वहां यह सुनने के लिए इकठ्ठा नहीं हुए थे. कुछ ने तालियां बजाईं, कुछ खामोश रहे. मीरवाइज और अन्य नरमपंथी नेता को उनके इस बयान से बहुत शर्मिंदगी हुई. हालांकि, गिलानी अपनी जिद्द पर कायम थे और उन्होंने भीड़ से पूछा, “क्या आप मुझे अपना नेता कबूल करते हैं?” धीरे-धीरे मौजूद लोगों ने अपनी ऊंगली आकाश की तरफ उठानी शुरू की, जिसे इस्लाम में गवाही देने का संकेत माना जाता है.
गिलानी से गुपचुप बैठकें करने वाले राजनयिक, अशोक भान ने मुझे बताया कि मीरवाइज कश्मीर में “उग्र राजनीतिक विचार” को भाव न देने के लिए तैयार हो गए थे. इसका कथित तौर पर एक ही मतलब था : गिलानी को दरकिनार करना. मासूम चेहरे वाले कश्मीरी पंडित, भान ने दिल्ली स्थित जम्मू और कश्मीर हाउस में, 2002 में गिलानी से मुलाकात की. हुर्रियत उस वक्त टूटने के कगार पर थी. “हमने उनसे कहा पाकिस्तान के राष्ट्रीय चुनावों में जमात एक भी सीट नहीं जीत पाई है. हमने उनसे यह भी कहा, ‘एक रुढ़िवादी इंसान की तरह जन्नत मत जाइए, जाना ही है तो इतिहास में एक जिंदा मिसाल बनिए. हम आपको बातचीत के जरिए इस मसले को सुलझाने का मौका देते हैं.”
धर्मनिरपेक्ष-राष्ट्रवादी मुसलमानों की तरह, कश्मीर इमेजिज अखबार के संपादक बशीर मंजर का भी मानना है कि गिलानी सच्चाई से कोसों दूर हैं. 1998 से मंजर, गिलानी की कड़ी आलोचना करते आए हैं. “उनके साथ दिक्कत यह है कि उनमें अहम् कूट-कूट कर भरा है,” मंजर ने बताया, जब मैं उनसे उनके श्रीनगर वाले दफ्तर में मिला. 1989-90 के बीच मंजर उत्तरी कश्मीर के तंगमर्ग में आजादी-परस्त उग्रवादी संगठन, मुस्लिम जांबाज फोर्स के पब्लिसिटी चीफ हुआ करते थे. इस फोर्स से जुड़े रहने के कारण उन्होंने आठ महीने की जेल भी काटी. जेल से छूटने के बाद वे पत्रकार बन गए. “लुभावनी लफ्फाजियों से कोई नेता नहीं हो जाता. मुझे लगता है उससे भी जरूरी बात कि अब उम्र भी उनके साथ नहीं है वर्ना कोई नेता इतना अवास्तविक और कल्पना में इतना नीरस नहीं हो सकता कि वह यूएन की रायशुमारी की रट लगाना जारी रखे.
आज गिलानी के बहुत से आलोचक हैं: भारत सरकार, कश्मीरी पंडित, धर्मनिरपेक्ष-राष्ट्रवादी कश्मीरी मुसलमान, पाकिस्तानी धर्मनिरपेक्ष, नरमपंथी अलगाववादी, हिंदुस्तान-समर्थक कश्मीरी सियासतदान, और यहां तक कि जमात के मेम्बरान भी.
कायदे इंकलाब किताब के मुत्ताबिक, जमात ने सत्तर के दशक में गिलानी को चुनावी राजनीति में धकेला. जामत को उनसे उम्मीद थी कि वे इस बात का खंडन करेंगे. लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रया नहीं दी. जमात ने गिलानी को, अप्रैल 2010 में बर्खास्त कर दिया.
“उन्हें अच्छे से मालूम है कि जमात का संदेश, संदेशवाहक से ज्यादा अहम् है,” जमात के प्रवक्ता वकील जाहिद अली ने कहा, जब मैं उनसे बटमालू स्थित पार्टी हेडक्वार्टर में मिला. “किताब का लेखक गलत है. जमात में फैसले, सामूहिक रूप से लिए जाते हैं और वे इस बात को भलीभांति जानते हैं. उन्हें प्रेस को इस मुत्तालिक सफाई देनी चाहिए थी.”
लेकिन अली, आज भी उनका एहतराम करते हैं. जब गिलानी विधान सभा के सदस्य थे, अली उनके निजी सहायक हुआ करते थे. क्योंकि गिलानी को दिल की बीमारी थी, स्वतंत्र विधायक मीर मुस्तफा उनका अक्सर मजाक उड़ाते थे, “आप अपनी दवाई तो वक्त पर ले रहे हैं न?” गिलानी उनके इस कटाक्ष को नजरंदाज कर दिया करते. “उन्होंने लोगों के बारे में कभी अनाप-शनाप बकवास नहीं की,” अली ने कहा.
गिलानी के साथ थोड़ा वक्त गुजारने से ही साफ हो जाता है कि उन्हें अपने समर्पण की कितनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी है. जब वे 1962 में पहली बार जेल गए, उनकी बीवी फातिमा को दिल की बीमारी हो गई. उनकी छह बेटियों और दो बेटों की तालीम पर भी इसका असर पड़ा. जब गिलानी को जेल हुई तो उनकी सबसे बड़ी बेटी शफीका आठवीं जमात में थी और उसे अपनी बीमार वालिदा की मदद के लिए अपनी तालीम को बीच में ही छोड़ना पड़ा. जब मैं शफीका से सोपोर स्थित उनके घर पर मिला तो उन्होंने मुझे बताया, “मुझे कभी अपने वालिद को जानने का मौका ही नहीं मिला, लेकिन मैं उनके मकसद को जानती थी.” “जब भी हम उनसे मिलना चाहते, वे या तो जेल में होते, या जमात का काम देख रहे होते थे.” फरवरी 1970 में, फातिमा का इन्तेकाल हो गया. वे अपने पीछे, अपने 10 महीने के बेटे, नसीम को छोड़ गईं.
सोपोर के नजदीक बांदीपुरा में, एक बेऔलाद दंपत्ति ने नसीम को गोद ले लिया. वे आज 41 साल के हैं. वे दाढ़ी नहीं रखते और उनकी करीने से छंटी मूंछे हैं. वे अपने वालिद की तरह ही सुपैद कुर्ता-पाजामा और बंडी पहनते हैं. गिलानी की सियासत से उनका कोई लेना देना नहीं, न ही उनके नाम से.
गिलानी ने, नसीम को कभी नहीं बताया कि वे ही उनके असली वालिद हैं. एक दिन नसीम ने अपनी चची जान को पड़ोसियों से फुसफुसाते हुए सुन लिया कि वे गिलानी की औलाद हैं. तभी से वे उनसे रिश्ता कायम करने की कोशिश करने लगे. 1991 में, उन्होंने कश्मीर यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया और हफ्ते की छुट्टी वाले दिन उनसे मिलने जाने लगे. इस तरह, उन्होंने सौतेली मां वाले परिवार में अपने लिए जगह बनाने की कोशिश की. “उन्होंने (गिलानी) कभी भी मुझे छोड़ने की वजह नहीं बताई,” नसीम ने कहा.
नसीम अपने पिता से विमुख हो गए. 1989 में कश्मीर में उग्रवाद का दौर शुरू होते ही नसीम को बहुत सी दुश्वारियों का सामना करना पड़ा. अज्ञात बंदूकधारियों ने उन पर कई बार हमला किया. नौकरी के लिए भी उनके सामने बहुत सी मुश्किलातें सामने आईं. वे अपने वालिद की पहचान छुपाने में ही बेहतरी समझते हैं. वे अपने नाम के आगे भी ‘गिलानी’ की बजाय ‘जाफर’ लिखते हैं. एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में काम करने वाले नसीम, अपनी बीवी, बेटे और बेटी के साथ रहते हैं. दोनों बच्चे क्रिस्चियन मिशनरी स्कूल में पढ़ते हैं. नसीम का परिवार अपने वालिद से पांच किलोमीटर की दूरी पर रहता है.
मैंने नसीम से पूछा, क्या वे भी अपने वालिद की तरह कश्मीर को पाकिस्तान के साथ मिलाने की हिमायत करते हैं? “मैं सिर्फ अमन चाहता हूं,” उन्होंने कहा.
7 जून 2010 की अलसुबह, जिस दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कश्मीर आना था, मैं गिलानी से मिलने उनके घर पहुंचा. सुबह के चार बजे थे और गिलानी अपनी फज्र की नमाज शुरू करने ही वाले थे. सुपैद दाढ़ी वाले एक आदमी ने दरवाजा खोला और वह मुझे गिलानी के घर के अहाते में बनी मस्जिद में ले गया. अंदर दाढ़ी वाले नमाजियों का एक छोटा सा मजमा लगा था. उनमे कुछ जवान, कुछ बुजुर्गवार, गिलानी की आमद का इंतजार कर रहे थे. मैंने मस्जिद की जानिब आती कदमों की आहट सुनी. सामने से गिलानी खरामां-खरामां चलते हुए आ रहे थे. उनकी दाढ़ी बहुत करीने से बनी हुई थी. आमतौर पर कट्टरपंथियों से इस तरह की दाढ़ी रखने की उम्मीद नहीं की जाती. दाढ़ी उनके हावभाव और उनकी मूरत में इजाफा कर रही थी. जब उन्होंने अपनी नम हरी आंखों से मेरी तरफ देखा, वे बहुत ही तरोताजा नजर आ रहे थे.
गिलानी नमाज खत्म करने के बाद मुझे एक कमरे के अंदर ले गए. उन्होंने किताबों की अलमारी से कुरान निकाली, आलती-पालती मारकर बैठे और सुबह के सूरज की किरणों से सुपैद पर्दों के सराबोर हो जाने तक, आयतें पढ़ते रहे. वे धीरे-धीरे अपनी ऊंगली, आगे की आयतों को पहचानने के लिए चला रहे थे.
“हर बार जब आप कुरान पढ़ते हैं, आपको नई बातें पता चलती हैं, नए मायने निकलते हैं, नई-नई प्रेरणाएं मिलती हैं,” गिलानी ने कहा. “यह मुकद्दस किताब आपको बताती है कि कैसे चलना चाहिए, कैसे अपने पड़ोसियों, दोस्तों, अपने मां-बापों, अपने भाई-बहनों से पेश आना चाहिए.”
“क्या कुरान ने आपको किसी जरूरी सियासी फैसला लेने में भी मदद की है?” मैंने पूछा.
“यकीनन, हर लिहाज से,” उन्होंने कहा. “कुरान में कहा गया है कि खुदमुख्तारी सिर्फ अल्लाह ताला के पास होती है. यह लोगों के लिए नहीं बनी है, न किसी मान-मर्यादा के लिए, न किसी परिवार के लिए. यह सिर्फ अल्लाह के पास है.”
एक पल के लिए ऐसा लगा मानो यह क्रोधित बुजुर्ग कोई फर्माबरदार तालिबे इल्म हो. फिर बातचीत, सियासत की तरफ मुड़ गई. अनका अंदाज, अब बदल चुका था. “अभी हाल ही में, मैंने सुना कि 12 साल पहले दो लोगों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में डाल दिया गया था,” गिलानी ने कहा, “अब उन्हें मासूम करार दिया गया है. क्या इसी को आप कानून कहते हैं? क्या यही आपका इंसाफ है? यह बहुत अफसोस की बात है कि इस्लाम को जिंदगी जीने का मुकम्मिल तरीका नहीं माना जाता,” वे शरिया कानून की वकालत कर रहे थे.
“आप तालिबान को किस तरह देखते हैं, जिनका दावा है कि वे भी इस्लाम के बताए रास्ते पर चल रहे हैं?” मैंने पूछा.
“नहीं, नहीं...बिलकुल नहीं,” गिलानी ने कहा. “तालिबान, इस्लाम की नुमाईंदगी नहीं करते. वे सब बदले की भावना से करते हैं,” उन्होंने गहरी सांस ली, “इस्लाम, मासूमों की जान लेने की इजाजत नहीं देता.”
उन्होंने ट्रांसिस्टर उठाने के लिए अपना हाथ दीवार की तरफ बढ़ाया. अब तक सुबह के 7.30 बज चुके थे और उन्होंने पाकिस्तानी समाचार सुनने के लिए ट्रांसिस्टर लगाया. वे सर झुकाकर बड़े ध्यान से समाचार सुनने लगे. रेडियो पर हिंदुस्तान की तरह ही वहां भी बिजली-पानी की कमी और बेरोजगारी, इत्यादि पर समाचार चल रहे थे. उन्होंने रेडियो बंद कर दिया.
वे नाश्ता करने के लिए थोड़ी देर के लिए रुके : दो उबले अंडे और दूध का कस्टर्ड. वे बहुत लंबे समय से बहुत सी गंभीर बीमारियों से घिरे रहे हैं: किडनी का कैंसर, दिल की बीमारी और ब्रोंकाइटीस. धूल से बचने के लिए वे मास्क लगाते हैं. उन्होंने अखबार पढ़ना शुरू कर दिया था, जब फिर से एक बार मैंने उनसे पूछा.
“मिलिटेंसी को लेकर आपका क्या मानना है?”
किताबों की तरह रुख कर अपने वातानुकूलित कमरे में बैठे हुए उन्होंने कहा, “हिंदुस्तान ने अपनी मिलिट्री ताकत का इस्तेमाल करते हुए कश्मीरियों को सेल्फ-डिटर्मिनेशन से महरूम रखा,” उन्होंने कहा, हमारी अमन की कोशिशों को नकार दिया गया. हमारे पास बंदूकों से लड़ने के अलावा और क्या चारा बचता है?”
मैंने उनसे कश्मीर में सक्रिय विदेशी उग्रवादियों के बारे में भी पूछा. उन्होंने बांग्लादेश की आजादी की जंग का हवाला देते हुए कहा: “आपको पता है, कभी कोई पूर्वी पाकिस्तान भी हुआ करता था. क्या आपको वह वक्त याद है? उन्होंने अपनी आजादी की आवाज पश्चिमी पाकिस्तान से उठाई और हिंदुस्तान ने उनकी मदद के लिए अपनी फौज के लोग भेजे. यह कहां तक सही था? जब हम यह करते हैं और पाकिस्तान इसमें हमारी मदद करता है, तो क्या वह गलत है?”
फिर बातचीत कश्मीर में पाकिस्तान की गुपचुप करतूतों और संयुक्त राष्ट्र संघ की रायशुमारी की अप्रासंगिकता की तरफ चली गई. “हमारे पास संयुक्त राष्ट्र संघ के वायदे के सिवा और क्या है?” उन्होंने पूछा, “और पाकिस्तान भी उस वायदे में शामिल है.” वे बहुत गुस्से में नजर आ रहे थे इसलिए मुझसे माफी मांग कर कमरे से बाहर चले गए. थोड़ी देर बाद वे फिर कमरे में दाखिल हुए : “वे लोग (जिन्होंने रायशुमारी की मांग करना बंद कर दिया है) थक चुके हैं. इसमें उनकी गलती नहीं है. आजादी की जंग में यह मुमकिन है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम अपने इतिहास में फेरबदल कर दें.”
कुछ नौजवान कमरे में दाखिल हुए. उन्होंने गिलानी से हाथ मिलाया. एक छोटी कद-काठी के आदमी ने बोलना शुरू किया, लेकिन गिलानी ने उसे बीच में ही टोक दिया. “पिछले जुम्मे आपने जमात में बदतमीजी की. आपने मेरी तकरीर के दौरान नारे लगाए. आपने असल में मेरी तकरीर में खलल डाला.” कुछ देर बाद ही गिलानी फिर से खुश नजर आने लगा, जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो. उनकी पीठ, दीवार से सटी थी. उनके पीछे एक कैलेंडर टंगा था, जिसमें हिंदुस्तान के पहले वजीरे आजम, पंडित जवाहर लाल नेहरु द्वारा कश्मीर के लोगो से रायशुमारी का वायदा किया गया था.
मैं कश्मीर से बदअमनी के एक और चक्र के बीच में लौट आया और दिल्ली से घटनाओं पर नजर रखने लगा. कश्मीरियों से पत्थरबाजी से दूर रहने की सलाह के दो दिन बाद, 6 अगस्त को, गृहमंत्री पी चिदंबरम ने गिलानी को बातचीत के लिए न्योता भेजा. 9 अगस्त को, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी वही किया. पिछले दो महीनों में नई दिल्ली से मिलने वाला यह उनको तीसरा न्योता था. हमेशा की तरह गिलानी ने, इन न्योतों को भी ठुकरा दिया.
(द कैरेवन के सितंबर 2010 अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का अनुवाद राजेन्द्र सिंह नेगी ने किया है. अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहा क्लिक करें.)