मायावती और उनका मिशन

पीटीआई
26 December, 2018

दिल्ली के रकाबगंज गुरुद्वारा स्थित अपने आवास के लिविंग रूम में मायावती टीवी के सामने बैठी हैं. लगता है जैसे घर में मातम है. बात 16 मई 2014 की दोपहर की है. सोलहवें लोकसभा चुनाव के परिणामों की गिनती चल रही है. बहुजन समाज पार्टी के लिए अच्छी खबर नहीं है. साफ है कि बीजेपी के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने बसपा को पटखनी दे दी है और बहुमत की ओर अग्रसर है.

मायावती जिस सोफे पर बैठी हैं उस पर पड़े तौलिए पर उन्हें दाग दिखाई देता है. वह नौकर को बुलाती हैं और लापरवाही के लिए डांट लगाती हैं. ‘‘वे सफाई के लिए पागल हैं’’, उस दिन वहां मौजूद बसपा के नेता ने मुझे बताया. ‘‘घर में रोजाना तीन बार पोंछा लगता है.’’

फिर मायावती शिकायत करती हैं कि कमरा गरम है और एसी का रिमोट ढूंढने लगती हैं. उस नेता ने मुझे बताया, ‘‘टीवी, एसी और तमाम सारे रिमोट सेन्टर टेबल पर करीने से रखे मिलने चाहिए.’’ उस दिन एसी का रिमोट वहां नहीं था. दूसरी बार नौकरों को डांट खानी पड़ी. रिमोट ढूंढ कर टेबल पर रख दिया गया. परिणाम आते जा रहे थे और पार्टी के साथी और स्टाफ मायावती को शिकायत का मौका नहीं देना चाहते थे.

शाम चार बजे तक नतीजे स्पष्ट हो गए थे. बसपा को देश भर में 4.2 प्रतिशत वोट मिला था. मत प्रतिशत में वह सिर्फ बीजेपी और कांग्रेस से पीछे थी. इस सम्माजनक प्रतिशत के बावजूद उसका खाता नहीं खुला था. मतों ने बसपा को न कार्यकारी शक्ति और न विधायकी ताकत दी. अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में पार्टी खाता नहीं खोल पाई. 80 में से 33 सीटों में वह दूसरे स्थान पर थी. 1989 में पहली बार चुनाव लड़ने से लेकर आज तक बसपा ने उत्तर प्रदेश में हुए हर चुनाव में थोड़ी बहुत सीटें जीती थी.

पिछले सालों में मायावती ने अपने आवास का चयन राजनीति में अपने प्रभाव के आधार पर किया था. जब तक बसपा की सरकार थी वह उत्तर प्रदेश में रहीं और बाद में दिल्ली आ गईं. 2003 में बीजेपी के समर्थन वापस लेने के बाद उनकी सरकार गिर गई थी और वह दिल्ली आ गईं थी जहां मायावती ने अपने बीमार गुरु कांशीराम की सेवा की. 2006 में कांशीराम के निधन के बाद वह लखनऊ लौट आईं और 2007 के विधान सभा चुनावों की तैयारी में लग गईं. उस चुनाव में बसपा की जीत हुई और अगले पांच साल मायावती उत्तर प्रदेश में रहीं. 2012 में चुनाव हारने के बाद वह राज्यसभा के सदस्य के रूप में वापस दिल्ली आ गईं. ‘‘वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष की नेता के रूप में कभी नहीं रहतीं’’, उनकी पार्टी के एक मुख्य रणनीतिकार ने मुझे बताया. ‘‘वह हमेशा राज्यसभा के सदस्य के रूप में दिल्ली आ जाती हैं. यदि उत्तर प्रदेश में शासन नहीं कर रही हैं तो वह राष्ट्रीय राजनीति में अपना समय लगाना चाहती हैं क्योंकि उनके गुरु कांशीराम इस मोर्चे को संभालने के लिए अब जिंदा नहीं हैं.

उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों मे बसपा की हार मायावती के राजनीतिक करियर के लिए तबाही साबित हो सकती है, लेकिन जीत भारतीय राजनीति को पूरी तरह से बदल देने का माद्दा रखती है. पीटीआई

2014 में पार्टी के प्रदर्शन ने मायावती को सोचने के लिए मजबूर कर दिया. मायावती जान गईं कि लोकसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद, यदि वह उत्तर प्रदेश पर ध्यान नहीं देंगी तो 2017 के विधानसभा चुनावों तक पार्टी के मतदाताओं के बीच पार्टी अधिक कमजोर हो जाएगी. निर्वाचन आयोग ने जैसे ही परिणामों की पुष्टि की वैसे ही मायावती सोफे से उठीं और बोलीं, ‘‘मैं लखनऊ जा रही हूं.’’

कुछ समय के लिए मायावती गयब सी हो गईं. मायावती के करीबी माने जाने वाले दिल्ली के एक वरिष्ठ प्रोफेसर याद करते हैं कि मायावती ने उनसे कहा था, ‘‘मैंने खुद को दो दिनों तक एक कमरे में बंद कर लिया और गंभीर हो कर विचार किया कि मत प्रतिशत अधिक होते हुए भी हमसे कहां चूक हुई.’’ विपश्यना से बाहर आकर 19 मई को मायावती लखनऊ पहुंची और दूसरे दिन पार्टी की सभी समितियों को भंग कर दिया. राज्य की सभी बूथ समितियां एवं राज्य भर की समितियां भंग कर दी गईं. इसके बाद मायावती ने उत्तर प्रदेश के सभी 75 जिलों के संयोजकों के साथ बैठकें की.

संयोजकों के साथ बूथ स्तरीय समीक्षा और निर्वाचन आयोग के आंकड़ों की समीक्षा करने के बाद मायावती को पता चला कि जाटव और गैर जाटव सहित पार्टी का बड़ा वोट बैंक बीजेपी के खेमे में चला गया है. अनुसूचित जाति जाटव (जिसे चमार भी कहा जाता है), मायावती स्वयं एक जाटव हैं, उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा दलित समूह है और लंबे समय तक बसपा का मुख्य आधार रहा था. पार्टी के मुख्य रणनीतिकार एक बैठक के बारे में याद करते हैं जिसमे बसपा के 10 वरिष्ठ सदस्य भी भाग ले रहे थे. वह बताते हैं, ‘‘मायावती ने कहा, ‘हार के दो कारण हैं. एक, एंटी-इंकम्बेंसी को मोदी लहर ने भुना लिया और दूसरा, यूपी के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद धार्मिक धुव्रीकरण”. सेन्टर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज की 2014 की रिपोर्ट, पार्टी के दलित वोट में आई कमी की पुष्टि करते हुए बताती है, ‘‘पार्टी के जाटव वोट मे 16 प्रतिशत और गैर जाटव वोटों में 35 प्रतिशत की कमी आई है.

इस बदलाव ने, खासकर जाटव समर्थन में आई कमी ने, बसपा पर गहरा प्रभाव डाला था. बीजेपी ने हिन्दू बहुसंख्यकवाद की अपनी छवि और दूसरे कारणों से सफलता हासिल की थी. अपने शुरुआती दिनों में बसपा ने हिन्दू धर्म को नकारा था और दलित मतदाताओं को यह कह कर इसे अस्वीकार करने को कहा था कि यह धर्म सदियों से दलितों पर होने वाले उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार है. इसका अर्थ था कि दलित वोटरों, खासकर जाटवों, को रिझाने में बीजेपी को मिली कामयाबी बसपा के उस आधार को ही कमजोर कर सकती थी जिस पर वह अपनी स्थापना के दिन से खड़ी थी. तीन दशकों की राजनीति में जिस आधार ने मायावती को चार बार मुख्यमंत्री पद तक पहुंचाया था उस समर्थन आधार को पुनः हासिल करने के काम में मयावती तुरंत लग गईं. उनकी नजर 2017 के विधानसभा चुनावों पर थी और बीजेपी से टक्कर लेने के लिए वो बसपा कार्यकर्ताओं को संगठित करने लगीं. दलित मतदाताओं में बीजेपी की घुसपैठ को लेकर मायावती किस हद तक बेचैन थीं यह पार्टी के जोनल संयोजको को दिए उनके निर्देश में देखा जा सकता हैः ‘‘उन दलितों को ढूंढों जो मंदिर जाने लगे हैं.’’

मायावती का अपने गुरु कांशीराम के साथ बेहद करीब रिश्ता था. फिर भी सफल नेता बनने के लिए मायावती को अपने गुरु के साथ संघर्ष करना पड़ा. रवि बत्रा/इंडियन एक्सप्रेस आर्काइव

2017 के विधानसभा चुनाव मायावती के लिए सबसे जरूरी थे. 2012 में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी से हारने और 2014 के आम चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद उनकी राजनीतिक चमक 2000 के दशक की तुलना में फीकी हो गई है. तब वह मुख्यमंत्री थीं और वह वक्त था जब उन्हें प्रधानमंत्री पद का मजबूत उम्मीदवार माना जाता था.

मायावती की वर्तमान रणनीति के केन्द्र में मुसलमान मतदाता हैं. कांशीराम का सपना दलित और मुसलमान के गठबंधन के दम पर सत्ता हासिल करना था. उत्तर प्रदेश में दोनों की अच्छा खासी आबादी है और इस कारण उत्तर प्रदेश इस विचार के प्रयोग की आदर्श प्रयोगशाला हो सकता था. अपने राजनीतिक करियर में मायावती को मुसलमानों को अच्छा खासा समर्थन मिला है. उन्होंने नियमित रूप से मुसलमान उम्मीदवार खड़े किए हैं और मंत्री पद दिए हैं. अबके चुनाव प्रचार में मायावती ने इस समुदाय को अपनी राजनीति में आगे और केन्द्र में रखा है.

बसपा ने 99 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिए हैं. यह संख्या पहले के किसी भी चुनाव से अधिक है. हाल में मायावती ने माफिया डॉन और नेता मुख्तार अंसारी को पार्टी में शामिल किया है. अंसारी के ऊपर दर्जनों आपराधिक मामले हैं. यह दिखता है कि मुस्लिम मतदातों को आकर्षित करने के लिए मायावती कितना बड़ा जुआ खेलने को तैयार हैं.

मुस्लिम और दलित समुदायों के बीच संबंध बनाने के लिए बसपा ने अपने प्रयासों को बहुत बढ़ाया है और मुसलमानों को धोखा देने का आरोप सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी पर लगाया है. बसपा का मुख्य संदेश यह है कि 2014 में बीजेपी की जीत के बाद दलित और मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है. सितंबर 2015 में उत्तर प्रदेश के बिसारा गांव में मोहम्मद अखलाक की यह कह कर हत्या कर दी गई कि उसके घर गोमांस मिला है. फिर 2016 में गुजरात के ऊना में चार दलितों को मरी गाय का चमड़ा निकालने पर बुरी तरह पीटा गया. बसपा का मुस्लिम-दलित उत्पीड़न के संदेश की पृष्ठभूमि में ये घटनाएं हैं.

2007 में मायावती ने ब्राह्मण और दलित वोटरों का तालमेल कर चुनाव जीता था. अपनी रणनीति का प्रचार करने के लिए उन्होंने सर्वजन-सभी के कल्याण- की बात की थी. यदि वह ब्राह्मण वोट का कुछ हिस्सा बचा सकीं- हांलाकि इस वर्ग का झुकाव अगड़ी जातियों के प्रभाव वाली बीजेपीऔर कांग्रेस के प्रति अधिक है- और अगर वह मुस्लिम वोटरों के बड़े हिस्से को अपने पक्ष में कर सकीं तो उनकी जीत सुनिश्चित है.

इस बीच बीजेपी लगातार बसपा के दलित आधार पर सेंध लगाने की कोशिश कर रही है. 2015 की अप्रैल में डॉक्टर बीआर अंबेडकर की 125वीं वर्षगांठ के अवसर पर बीजेपी ने अपना यह प्रयास तेज कर दिया है. पार्टी ने ढेरों सभाएं की जिनमें वक्ताओं ने दलित आंदोलनों के प्रतीकों- ज्योतिबा फुले और छत्रपति शाहूजी महाराज - पर चर्चा की और उन्हें हिन्दू बताते की कोशिश की. बीजेपी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा प्रकाशित दलित जाति के नायकों की पुस्तकों का वितरण भी किया.

ऐसी एक पुस्तक का नाम है बादशाह और राजा. यह पुस्तक 11वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के बहराइच में हुई लड़ाई पर आधारित है. यह लड़ाई मुस्लिम बादशाह गाजी सैयद सलर मसूद और सुहेलदेव के बीच हुई थी. लोगों का मानना है कि सुहेलदेव पासी थे. उत्तर प्रदेश में जाटवों के बाद पासी सबसे बड़ा दलित समुदाय है. पुस्तक का दावा है कि मसूद दूसरी सहस्र शताब्दी में भारत आया था और सुहेलदेव से सामना होने तक आक्रमक गति से आगे बढ़ रहा था. हिन्दू राजा के आक्रमण को बेअसर करने के लिए मसूद ने गायों का झुण्ड अपनी सेना के आगे रख लिया. उसे पता था कि हिन्दू राजा के लिए गाय पवित्र जानवर है. लेकिन सुहेलदेव और उनकी सेना ने रात के अंधेरे में चोरी छिपे गायों को खोल दिया और उनकी जान बचा ली. पुस्तक में लिखा है कि इसके बाद सुहेलदेव ने मसूद को मार डाला. हालांकि इस दावे को इतिहासकार सही नहीं मानते. इतिहासकार हरबंस मुखिया ने न्यूज वेबसाइट द वायर को बताया कि सुहेलदेव मसूद को नहीं रोक पाए थे और उन्हें पराजित कर वह उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ गया था.

किताब में सुहेलदेव की जय जयकार है और बहराइच दरगाह में हर साल मई में मसूद की दरगाह में मनाए जाने वाले उसके उर्स का विरोध करने को कहा गया है. मध्य उत्तर प्रदेश में एक बसपा कार्यकर्ता ने मुझे बताया कि, ‘‘ऐसे प्रयास मुस्लिम और दलितों को बांटने तक सीमित नहीं है. दलितों को भी जातीय स्तर पर बांटा जा रहा है. ‘‘बीजेपी सक्रीय रूप से यह बताने का प्रयास कर रही है कि मायावती केवल चमारों का हित देखती हैं क्योंकि वह स्वयं उसी समुदाय की हैं और पासी और अन्य दलित समुदायों की अनदेखी हो रही है.’’ बीजेपी का पितृ संगठन संघ, बहुत से संगठनों के माध्यम से गतिविधियों का आयोजन करता है. ऐसे ही दो संगठन हैं महाराजा सुहेलदेव सेवा समिति और श्रावस्ती नरेश राष्ट्रवीर सुहेलदेव धर्म रक्षा समिति.

25 अप्रैल 2015 को रात 3 बजे बसपा के एक संयोजक को मायावती ने फोन किया और पूछा कि क्या उसे पता है कि उसके जोन में पुस्तक बांटी गई है. जब संयोजक ने बताया कि उसे नहीं पता तो मायावती ने उसे फटकार लगाई.

पुस्तक की बात मायावती को एक दर्जी ने बताई थी. पार्टी में ही नहीं बल्कि हर निर्वाचन क्षेत्र में ऐसे लोग मायावती के गुप्तचर हैं. बहनजी नाम से मायावती की जीवनी लिखने वाले अजय बोस ने मुझे बताया, ‘‘बसपा कुछ कुछ भूमिगत पार्टी की तरह काम करती है. सभी दलित संयोजक इस सेना के कॉमरेड हैं. पार्टी के कामकाज को नियंत्रित करने के लिए विस्तारित और गूढ़ प्रक्रिया बनाई जाती है.’’

मायावती ने भाजपा के आक्रमण का जवाब देने का फैसला किया. उन्होंने अपने संयोजकों को यह पता लगाने का आदेश किया कि वे जागृती दस्तों के पूर्व सदस्यों का पता लगाएं. 1980 के दशक में कांशीराम ने पार्टी की सांस्कृतिक शाखा की शुरुआत की थी जो बाद में बंद हो गई थी. मायावती की कोशिश दस्तों के साथ रहे चर्चित लेखकों और बुद्धीजीवियों को बीजेपी के नैरेटिव के खिलाफ इस्तेमाल करना था.

जब यह योजना सफल न हो सकी तब मायावती की निगाह युवा सांस्कृतिक प्रतिभाओं पर पड़ी. बसपा के चुनाव अभियान के लिए नाट्यकर्मियों और लेखकों की पहचान करने के लिए व्यापक तलाश शुरू होने लगी. बसपा के एक वरिष्ठ नेता ने मुझे बताया, ‘‘हमारे अधिकांश दलित मतदात पढ़े-लिखे नहीं हैं इसलिए हमारे अभियान में गायक बहुत जरूरी हैं’’.

बीजेपी और आरएसएस से मुकाबला करने के लिए मायावती ने भीम जागरण आयोजित करने का फैसला किया. भीम जागरण रात में होते हैं. बसपा परंपरागत रूप से ऐसे आयोजन करती रही है. इन जागरणों में गीत-संगीत और हंसने-हंसाने के कार्यक्रम होते हैं. भीम जागरण उत्तर भारत में लोकप्रिय माता का जगराता, जिसमें हिन्दू देवियों की अराधना होती है, से मिलता जुलता है. बसपा की सांस्कृतिक मोर्चे के प्रमुख मनजीत मेहरा, जगरातों के लिए सुपरिचित नरेन्द्र चंचल की शैली में अपनी प्रस्तुति देते हैं और उनका पहनाव भी चंचल से मिलता-जुलता है. चंचल के जगरातों में मां दुर्गा और उनके अनेक रूपों की स्तुति होती है. 2014 और 2016 के बीच बसपा ने भीम जगारणों के आयोजन में अच्छा खासा खर्चा किया. पार्टी को इस काम में बैकवर्ड एंड माइनॉरिटीज एमप्लाइज कम्यूनिटीज फेडरेशन (बामसेफ) की मदद मिली. सरकारी कर्मचारियों के इस संगठन की स्थापना कांशीराम ने 1978 में सांस्कृति संगठन डीएस4 के साथ की थी. बाद में इस संगठन ने बसपा की स्थापना के लिए आधार तैयार किया. बामसेफ के एक सदस्य ने मुझे बताया, ‘‘दलितों को हिन्दू बनने के लिए उकसाने और गोरक्षक बनने के लिए प्रेरित करने के लिए सुहेलदेव से जुड़ी कहानियों को तोड़मरोड़ के पेश करने के खिलाफ हमने यह मोर्चा खोला था.’’ दलित और मुसलमान दोनों ही बीजेपी से तंग हैं. यह बात हम सभी को समझनी पड़ेगी.’’ (बामसेफ को गठित हुए लगभग चार दशक हो चुका है और अब यह अनेक गुटों में विभाजित है.) इसका सबसे बड़ा गुट बसपा के नजदीक है. बामसेफ गिने चुने लोगों के लिए मीटिंग आयोजित कर बसपा के पक्ष में समर्थन जुटाता है. ऐसी मीटिंग ऑटो मरम्मत, कपड़ा सिलाई और किराना दुकानों में होती हैं. बैठक के स्थानों में अंबेडकर, कांशीराम और मायावती की फोटों लगी होती हैं. बामसेफ के अधिकांश सदस्य पुरुष हैं जो खुल कर संगठन की बात नहीं करते हैं और सरकारी नौकरियों में अनुशासनात्मक कार्यवाही से बचाने के लिए अपनी पत्नियों के नाम से संगठन की सदस्यता लेते हैं.

मैंने शामली जिले के बनत गांव में अप्रैल 2015 में एक भीम जागरण में हिस्सा लिया जिसे अंबेडकर की 125वीं जन्म जयंती के अवसर पर आयोजित किया गया था. इसकी तैयारी एक साल पहले से शुरू हो गई थी. यह ऐसा समय था जब दलितों को आकर्षित करने के लिए राजनीतिक पार्टियों में होड़ लगी थी. आरएसएस सुहेलदेव पर पुस्तक बांट रहा था और समाजवादी पार्टी अंबेडकर की स्मृति में कार्यक्रम आयोजित कर रही थी.

मेहरा नीला रंग का रेशमी कुर्ता-पायजामा और सुनहली बंड़ी वाले भड़कीले कपड़े पहने हुए थे. उन्होंने बॉलीवुड गानों की झड़ी लगा दी. गानों के बोल को बदल दिया गया था जिससे ये गीत हिन्दू कहानियों और इतिहास में दलित सशक्तिकरण के संदेश दे रहे थे. मेहरा ने मुझे बताया, ‘‘अगड़ी जातियां रंगबिरंगे पोस्टर, रोशनी और मंच से हिन्दू देवताओं और देवियों के गलत कृत्यों का महिमामंडन करती हैं. वे लोग युवाओं को आकर्षित करने के लिए दरबार लगाते हैं. हम लोग भी वैसे ही दरबार अंबेडकर के संदेश को फैलाने और युवाओं को जागरुक करने के लिए लगाते हैं.’’ जागरण के आरंभ में मेहरा ने 1991 की फिल्म साथी का एक गीत गाया. गीत के शब्द अंबेडकर का संदेश देते थे - भाई, कोट-पैंट और वोट-नोट का जिसने हक दिलाया, हाय फिर भी भीम क्यों न याद आया.’’ जनता तालियां बजाती है.

मेहरा के साथ कीबोर्ड, ड्रम और एक खास तरह का वाध्ययंत्र बजाने वालों की टोली थी. साथ ही उनके प्रशिक्षु दलित युवा-युवती थे जो उनके गानों के मध्यांतर में अपनी प्रस्तुति देते थे. गाना गाने से पहले एक 18 साल के दलित गायक ने लोगों को ललकारते हुए कहा, ‘‘चुनाव से पहले तुम्हें हिन्दू कहा जाएगा और चुनाव के बाद तुम अछूत, नीच, आरक्षित श्रेणी के हो जाओगे. चुनाव के बाद यही लोग आरक्षण हटाने का अभियान चलाएंगे.’’

2014 के आम चुनाव में बसपा का अधिकांश वोटर बीजेपी के पास चला गया. बीजेपी ने बाद के दिनों में भी दलित मतदाताओं को रिझाने के लिए अंबेडकर स्मृति कार्यक्रमों का आयोजन किया है. सौरभ दास/एपी फोटो

अक्सर रात के 10 और एक बजे के बीच होने वाले इन जगरणों में, बसपा की राजनीतिक रैलियों की तरह, महिलाओं को भाग लेने के लिए उत्साहित किया जाता है. जगराता स्थलों में अच्छी खासी रोशनी होती है. महिलाओं और पुरुषों के लिए बैठने का अलग अलग बंदोबस्त होता है और उपस्थ्ति लोगों की सुरक्षा के लिए बहुजन स्वयंसेवक बल के प्रशिक्षित सदस्य नियुक्त होते हैं. मेहरा ने बताया कि मायावती ने कहा है कि महिलाओं पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है क्योंकि ‘‘ये ज्यादा पूजा पाठ करती हैं.’’ ’’उन्हें यह बताने की अधिक जरूरत है कि दलित हिन्दू नहीं हैं’’. चूंकी ऐसे जागरण रात में होते हैं इसलिए पार्टी सदस्यों को साफतौर पर बताया जाता है कि किसी भी तरह का गलत रवैया बर्दास्त नहीं किया जाएगा.

मेहरा जब हिन्दू गाथाओं का हवाला देते तो यह बताने से चूकते नहीं कि जो बाते वह कह रहे हैं वे उनके अपने विचार नहीं हैं और ‘‘ऐसा हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथों में ही लिखा है’’. एक गाने से पहले उन्होंने कहा, ‘‘जब भगवान राम वनवास गाए तो उन 14 सालों में उन्होंने किन्हें कत्ल किया? हमारे दलित शासकों को. ताड़का, मरीच, बाली-सुग्रीव, शंबुक. लेकिन फिर राम को भगवान कहा जाता है. कोई इसकी बात नहीं करता. यह स्वार्थ के लिए दलित इतिहास को खत्म करना है.’’

पार्टी ने दलित साहित्य वितरण की व्यापक योजना तैयार की. 150 नए दलित लेखकों को छोटी पुस्तकें लिखने को कहा गया ताकि इन किताबों को रैलियों, चाय की दुकानों और स्थानीय दुकानों में 2 रुपए से लेकर 50 रुपए में बेचा जा सके. इन किताबों में बसपा के मिशन और दलित पहचान को बढ़ाचढ़ा कर बताया गया है. इन किताबों में मायावती के इंटरव्यू, अंबेडकर के जीवन से जुड़ी कहानियां और ऐसे लेख हैं जो बीजेपी और सपा की आलोचना करते हैं. पार्टी के लिए किताब लिख रहे एक दलित स्वयंसेवक ने बताया, ‘‘किताबों का लक्ष्य दलितों और मुसलमानों के खिलाफ मनुवादी और कॉरपोरेट मीडिया में फैलाए जा रहे भ्रम को काउंटर करना है. इससे स्कूलों में पढ़ रहे युवा दलित पुरुषों और महिलाओं के लिए सांस्कृतिक पूंजी का निर्माण होगा.‘‘

दलित विद्यार्थियों की मदद से सोशल मीडिया में मायावती की तस्वीरें, उनके साक्षत्कारों और भाषणों के वीडियों साझा किए जाते हैं. इनमें से कई विद्यार्थी गोरखपुर और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी के छात्र हैं. ‘‘हमारा उद्देश्य जनता को यह संदेश देना है कि मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर केवल मायावती ही चुनौती दे रही हैं.’’

बसपा आसानी से चलाया जा सकने वाला व्हाट्सएप का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करती है. युवा लेखक ने मुझे बताया, ‘‘फेसबुक और ट्वीटर एलीट लोगों के लिए हैं. लेकिन व्हाट्सएप का इस्तेमाल ग्रमीण इलाकों के युवा भी करते हैं.’’ बामसेफ के एक युवा सदस्य ने मुझे बताया कि प्रत्येक चार गांव में पार्टी 10 व्हाट्सएप ग्रुप बनाती है. डिजायनरों के एक युवा समूह, जिसके अधिकांश सदस्य दिल्ली से काम करते हैं, को डिजिटल पोस्टर और छोटे प्रचार वीडियो बनाने का जिम्मा दिया गया है. साथ ही नौसिखिया गायक और कैलाश खेर जैसे पेशेवर गायकों के प्रचार गीत इन समूहों में बहुत प्रसिद्ध हैं.

मायावती की युवा राजनीति की विरोधी छवि का खंडन करने के लिए उन्होंने युवा मतदाताओं तक पहुंचने की कोशिश की है. 2007 में उत्तर प्रदेश में छात्र चुनावों को प्रतिबंधित करने के बाद उनकी ऐसी छवि बनी थी. बसपा के एक विधायक ने मुझे बताया कि मायावती ने एक बार उनसे कहा था कि युवा दलितों का मुख्य ध्यान खुद को आर्थिक रूप सशक्त बनाने में होना चाहिए. ‘‘उनको पहले नौकरी हासिल करनी चाहिए फिर दलित राजनीति करनी चाहिए.’’ अब मायावती को लगता है कि युवा मतदाता, जो शहरों में रहते हैं और पढ़े लिखे हैं, तेजी से बीजेपी की ओर आकर्षित हो रहे हैं. उत्तर प्रदेश के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने दलित और ओबीसी युवाओं को आकर्षित करने के कई प्रयास किए हैं. युवाओं के संगठन हिन्दू युवा वाहिनी की शाखाओं में इन्हें नेतृत्वदायी भूमिका दी है. बसपा के विधायक के अनुसार अधिकांश युवा मतदाता सोशल मोबिलिटी फैक्टर के कारण अपर-क्लास, अपर-कास्ट पार्टी से जुड़ना चाहता है. इसका मुकाबला करने के लिए बसपा और बामसेफ ने युवाओं के लिए कई संगठनों का निमार्ण किया है जैसे समता सैनिक दल, भारत मुक्ति मोर्चा, बहुजन मूल निवासी समाज और भीम सेना. युवा बामसेफ सदस्य का कहना है, ‘‘हिन्दू संगठनों से आपना सामना होने की हालत में हमारे युवाओं को अपनी ताकत का एहसास होना चाहिए.’’

जब बसपा अभियान गति पकड़ रहा था, मायावती ने संगठन में ऊपर से नीचे तक फेरबदल किए. उनका मानना था कि 2014 में पार्टी की हार की वजह संगठन का बड़ा और जटिल ढांचा और हजारौं पदाधिकारी हैं.

मायावती के पास सांगठनिक अनुभव और प्रशासनिक अनुभव था जिसकी बदौलत 1980 के दशक में वह पार्टी को बदल पाईं थी. उस वक्त अकेले अपने दम पर मायावती ने उत्तर प्रदेश में पार्टी को खड़ा कर दिया था. कांशीराम ने अपना राजनीतिक करियर पंजाब में लगाया था जहां किसी भी अन्य राज्य के मुकाबले दलितों का जनसंख्या अनुपात अधिक है. वह मध्य प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र पर ध्यान दे रहे थे और उत्तर प्रदेश का जिम्मा मायावती को दे दिया था. मायावती दिल्ली में पली बढ़ी थीं लेकिन गाजियाबाद के बादलपुर गांव में उनके परिवार की जड़ें थी. बसपा के एक संस्थापक सदस्य ने मुझे बताया, ‘‘उत्तर प्रदेश में पार्टी का कोई आधार नहीं था क्योंकि दलित और मुसलमान परंपरागत रूप से कांग्रेस को वोट देते थे.’’ वह आगे कहते हैं, ‘‘मायावती बहुत महत्वकांक्षी महिला थीं इसलिए बिना किसी बड़ी उम्मीद के कांशीराम ने मायावती की उर्जा को संयमित करने के लिए उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंप दी.’’

कांशीराम और मायावती के बीच जबरदस्त रूप से पेचीदा और हैरतअंगेज संबंध थे जो बिरले ही देखने को मिलते हैं. कांशीराम विजनरी नेता थे और मानते थे कि उत्पीड़ित जातियां राजनीतिक शक्ति हासिल करके ही सशक्त हो सकती हैं. वह अक्सर अंबेडकर के प्रसिद्ध कथन का हवाला देते कि ‘‘राजनीतिक सत्ता एक ऐसी चाभी है जो सारे ताले खोल देती है.’’ 1970 में कांशीराम से मिलने से पहले, मायावती शिक्षिका थीं जिसने जन्म से ही जातीय और लैंगिक भेदभाव को झेला था. अपनी किताब ए ट्रैवलॉग ऑफ माई स्ट्रगल रिडन लाइफ एंड बीएसपी मूवमेंट (मेरी संघर्षमय जीवनयात्रा वृतांत और बसपा आंदोलन) में वह लिखती हैं, ‘‘बचपन में जब मैं अपनी माता के साथ बस में यात्रा कर रही होती तो लोग हमसे हमारी जाति पूछते और जब उन्हें पता चलता कि हम लोग चमार हैं तो अपनी सीट बदल लेते.’’ घर में मायावती के पिता, जो उन्हें प्रोत्साहित तो करते थे, भाइयों के प्रति पक्षपाती थे. मायावती लिखती हैं, ‘‘भाइयों का दाखिला अच्छे स्कूलों में किया गया और उन्हें प्राइवेट ट्यूशन दिलाई जाती, जबकि मुझे एक खराब सरकारी स्कूल में डाला दिया गया. जवानी में मायावती ने भीमराव अंबेडकर की किताबें पढ़ीं और इसने उन्हें दलित आंदोलन की ओर आकर्षित किया. उन्होंने तय किया कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में भर्ती होकर वह जाति उत्पीड़न के खिलाफ लड़ेंगी.

1977 में दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में जातिवादी व्यवस्था की बुराइयों पर आयोजित एक कार्यक्रम में 21 वर्षीय मायावती के जोरदार भाषण ने कांशीराम का ध्यान खींचा. उस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता जनता दल के नेता राज नारायण थे जिन्होंने आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी का गढ़ माने जाने वाले रायबरेली से इंदिरा गांधी को हराया था. कार्यक्रम में राज नारायण बार बार दलितों को हरिजन कह कर संबोधित कर रहे थे. यह शब्द मोहनदास गांधी का दिया हुआ है और दलित इस शब्द से बेहद नफरत करते हैं. जब मायावती की बारी आई तो उन्होंने माइक्रोफोन पकड़ा और राज नारायण पर आरोप लगाया कि उन्होंने पूरी दलित जाति का अपमान किया है. अपनी जीवनी में वह याद करती हैं, ‘‘क्या हरिजन जातिवाचक शब्द नहीं है?’’ मुझे लगता है जाति की रुकावटों को खत्म करने के लिए हो रहा यह सम्मेलन अनुसूचित जाति के लोगों को गुमराह कर रहा है.’’ उनकी किताब के अनुसार जब उनका भाषण खत्म हुआ तो लोग उनके समर्थन में नारे लगाने लगे. वह कह रहे थे, ‘‘राज नारायण मुर्दाबाद, जनता पार्टी मुर्दाबाद’’ और ‘‘डा. अंबेडकर जिंदाबाद’’.

जब मायावती के जोरदार भाषण की बात कांशीराम तक पहुंची तो वह बहुत चकित हो गए. अंबेडकरवादी समूहों में जब आज भी बहुत कम महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिका में हैं तो चार दशक पहले 21 साल की, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला, जो अपनी दलित पहचान के प्रति राजनीतिक रूप से जागरुक और आक्रमक है, किसी ने शायद ही पहले सुना और देखा था. इसके कुछ दिनों बाद कांशीराम एक दिन बिना बताए मायावती के घर पहुंच गए. बातचीत के दौरान उन्होंने मायावती से कहा कि यदि वह जातीय उत्पीड़न से लड़ना चाहती हैं तो प्रशासनिक सेवा से ज्यादा ताकत राजनीतिक सत्ता से मिलेगी. उन्होंने मायावती को इस बात के लिए मनाया कि यदि वह उनके मिशन से जुड़ जाती हैं तो उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने का उनका सपना पूरा हो सकता है. कांशीराम ‘‘मिशन’’ शब्द को अक्सर इस्तेमाल करते थे. आज भी बसपा कार्यकर्ता अपने काम को इसी शब्द से परिभाषित करते हैं.

अपनी बेटी की राजनीतिक संलग्नता और कांशीराम के साथ बढ़ती नजदीकी से चिंतित, पिता ने मायावती को यह कह कर चेतावनी दी कि उन्हें पार्टी या घर में से किसी एक को चुनना होगा. उनके पिता का कहना था कि वह एक अविवाहित महिला हैं इसलिए उनके पास पिता की बात मानने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है. बेखौफ मायावती ने स्कूल टीचर की नौकरी से बचाए पैसों के साथ पिता का घर छोड़ दिया और दिल्ली के करोलबाग में बामसेफ के दफ्तर के बगल में कांशीराम के एक कमरे वाले घर में रहने लगीं. बसपा के पुराने नेता और पत्रकार शाहिद सिद्दकी ने मुझे बताया, ‘‘यह एक बड़ा लेकिन दृढ़ कदम था. कौन सी पार्टी थी जो मायावती के इंतजार में बैठी थी. वह कोई इंदिरा गांधी नहीं थीं कि ताज लेकर लोग इंतजार कर रहे थे. वह जयललिता नहीं थी जिन्होंने एआइएडीएमके की स्थापना के 10 साल बाद पार्टी में प्रवेश किया था. वो ममता बनर्जी भी नहीं थी जो लंबे समय तक कांग्रेस कार्यकर्ता रहीं और बाद में दूसरे बागियों के साथ पार्टी से अलग हो कर तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की. सिद्दकी कहते हैं, ‘‘मायावती ने खतरा उठाया और पार्टी को खड़ा करने के लिए जी जान एक कर दिया.’’

मायावती-कांशीराम संबंध की कहानी गुरु-शिष्य संबंधों के साथ ही उन संबंधों की बेड़ियों को तोड़कर शिष्या का अपने गुरु से सफल राजनीतिज्ञ बनने की कथा भी है. मायावती जो कर सकीं उसके लिए उन्हें असंख्य चुनौतियों का सामना करना पड़ा. ये चुनौतियां कभी सीधी सामने आती, कभी उन पर पीछे से हमला होता. कई बार उन्हें कांशीराम से दबना पड़ता. एक पूर्व वरिष्ठ पार्टी नेता बताते हैं कि जब 1984 में वह हुमायूं रोड स्थित कांशीराम के बड़े आवास पर गए तो देखा कि मायावती को उत्तर प्रदेश के पार्टी के काम के लिए कमरा तक नहीं दिया गया है. जब कांशीराम अपने स्वागत कक्ष में ताकतवर और प्रभावशाली लोगों के साथ बैठकें कर रहे होते तो मायावती आंगन में दरी बिछा कर ग्रमीण इलाकों से आए दलित पुरुषों को पार्टी में शामिल कर रही होतीं. (उस नेता के अनुसार कांशीराम घर के फ्रिज में ताला लगा कर उसकी चाभी अपने पास रखते थे. उन्होंने मायावती और अन्य लोगों को कह रखा था कि जिन लोगों से वह स्वागत कक्ष में मिलते हैं उनके लिए ही कोल्ड ड्रिन्क लाई जाए.) जमीन पर बैठ कर मायावती रोजाना कम से कम पांच जिला संयोजकों से मिलतीं. धीरे धीरे उत्तर प्रदेश के हर जिले में उन्होंने अपनी पहुंच बना ली.

1984 में पंजाब और मध्य प्रदेश में कांशीराम की गतिविधियों को झटका लगा. पंजाब में ऑप्रेशन ब्लू स्टार और मध्य प्रदेश में भोपाल गैस त्रासदी के सामने उनकी गतिविधियां कमजोर पड़ गईं. इस बीच मायावती उत्तर प्रदेश में बिना थके काम करती रहीं. पार्टी के एक पूर्व वरिष्ठ नेता ने बताया कि उस वक्त तक मायावती कुर्सी में बैठ कर लोगों से मिलने लगी थीं. उनसे मिलने आए लोग जमीन पर बैठ कर उनसे बातचीत करते.

मायावती ने साबित कर दिया कि राजनीतिक काम को वोट में बदलने में वह कांशीराम से अधिक सक्षम हैं. 1984 में मायावती ने मुजफ्फरनगर जिले की कैराना लोक सभा सीट से चुनाव लड़ा. 1985 में उन्होंने बिजनौर उपचुनाव लड़ा और 1987 में हरिद्वार उपचुनाव लड़ा. इनमें से किसी भी चुनाव में मायावती को जीत नहीं मिली लेकिन मत संख्या में निरंतर बढ़ोतरी होती गई. कैरान में उन्हें 44 हजार वोट और हरिद्वार चुनाव में 125000 वोट प्राप्त हुए. 1989 में बिजनौर से वह पहली बार चुनाव जीतने में कामयाब हुईं जबकि कांशीराम ने 1996 में पंजाब के होशियारपुर से पहली बार चुनाव जीता.

इन वर्षों में मायावती उत्तर प्रदेश में पार्टी को खड़ा करने में कामयाब होती जा रही थीं लेकिन दूसरे राज्यों में कांशीराम के प्रयास विफल होते जा रहे थे. साथ ही विचारक कांशीराम के विपरीत मायावती ने खुद को व्यवहारिक नेता के रूप में स्थापित किया. सिद्दकी कहते हैं, ‘‘बसपा के लिए यदि कांशीराम कार्ल मार्क्स जैसे थे तो मायावती ‘कार्ल मार्क्स’ के दृष्टिकोण को लागू करने वाली व्लादमीर लेनिन.’’ मायावती की सफलता ने उन्हें राजनीति में ऊंचा रुतबा दिया और पूरी पार्टी में मजबूत पकड़.

2014 में चुनाव हारने के बाद मायावती ने अपने प्रशासनिक हुनर को इस्तेमाल किया. पार्टी की सभी समितियों को भंग करने के सात महीने बाद 2015 की जनवरी को इन्हें फिर से गठित कर दिया. इन रणनीतिकारों ने पार्टी के सांगठनिक ढांचे और 2017 के चुनाव अभियान के लिए मायावती की रणनीति के बारे में मुझे बताया.

बसपा के अंदर ऊपर से नीचे तक सात तरह की कमिटियां हैं: बूथ समिति, सेक्टर समिति, असेंबली समिति, जिला समिति, संभाग समिति और राज्य समिति. प्रत्येक जोन में 25 से 27 विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र होते हैं जिनको असेंबली समिति देखती है. प्रत्येक असेंबली समिति के अधीन 30 सेक्टर समितियां हैं और हर सेक्टर समिति के अंदर 10 बूथ समितियां हैं. जमीन में काम करने के लिए पार्टी प्रत्येक बूथ में 50 सदस्यों को नियुक्त करती है.

सभी समितियों में अध्यक्ष, महासचिव और कोषाध्यक्ष होते हैं. अध्यक्ष की जिम्मेदारी सेक्टर समिति इंजार्ज के साथ मिलकर बूथ समितियों का निर्माण करना है. आने वाले विधान सभा चुनावों के मद्देनजर प्रत्येक बूथ समिति के पांच पदाधिकारियों में से अध्यक्ष और सचिव के मुख्य पद दलित सदस्य को और एक पद इलाके के प्रभुत्वशाली जाति के सदस्य को दिए गए हैं. रणनीतिकार का कहना है, ‘‘इस तरह से कोई भी समिति जातिवादी नहीं है.’’

बूथ सचिवों को जन्मदिन, विवाह और मृत्यु जैसे महत्वपूर्ण अवसरों में जनता के घरों में जाने का निर्देश दिया गया है. इस तरह की अंतरक्रियाओं से पार्टी महसूसियत (अंग्रेजी में इम्पैथी) की भावना विकसित करना चाहती है. इस रणनीतिकार का अनुमान है कि बूथ के पांच पदाधिकारियों से हमें कम से कम 150 वोट प्रत्येक बूथ में मिलेंगे और ऐसा नहीं होगा कि हमें किसी भी बूथ में एक भी वोट न मिले.

मोबलाइजर के अनुसार 2015 और 2016 में जनवरी और मई के बीच पार्टी ने ऐसी ही समितियों का निर्माण किया. जून और अगस्त के बीच समितियों की समीक्षा की गई और निष्क्रिय सदस्यों की छंटनी की गई. दो सालों के अंतिम तीन महीनों में समितियों को अंतिम रूप दिया गया और मायावती की मंजूरी ली गई. पूर्वी उत्तर प्रदेश में बसपा के एक उम्मीदवार ने मुझे बताया, ‘‘पिछले दो सालों में सभी समितियों को दो बार भंग किया गया और बहनजी के मूल्यांकन के बाद फिर से बनाया गया.

इन दो सालों में बसपा ने छह बड़े आयोजन किए. मायावती, कांशीराम, अंबेडकर और साहूजी का जन्म दिन और कांशीराम और अंबेडकर की पुण्यतिथि. पार्टी ने इन आयोजनों का इस्तेमाल अपने आधार को मोबलाइज करने और अपनी ताकत का मूल्यांकन करने के लिए किया. जिन पार्टी नेताओं ने बड़ी और सफल रैलियां की उन्हें टिकट वितरण में ज्यादा वजन दिया गया.

बसपा ने जिस तरह से टिकट बांटे हैं उसको लेकर खासा विवाद हुआ है. पिछले सालों में कई पार्टी सदस्यों ने मायावती पर उम्मीदवारों को उनकी क्षमता के अनुसार नहीं बल्कि पैसों के लिए पार्टी टिकट बेचने का आरोप लगाया है. पिछले महीनों में बसपा के बागी नेताओं ने आरोप लगाया है कि पार्टी के टिकट दो करोड़ रुपए से लेकर 10 करोड़ रुपए में बेचे जा रहे हैं. बसपा से भाजपा गए ओबीसी नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने मुझे बताया, ‘‘मायावती कांशीराम के नाम को बेच रही हैं. वह दलाल हैं और पार्टी को व्यापार बना दिया है’’.

जिन बसपा नेताओं से मैंने मुलाकात की वे टिकट के बंटवारे में पैसों की भूमिका से इनकार नहीं करते हैं लेकिन यह भी बताते हैं कि मौर्य इसलिए नराज हैं क्योंकि पार्टी ने उनके परिवार को टिकट देने से मना कर दिया है. बसपा के एक कार्यकर्ता ने मुझे बताया, ‘‘मौर्य का आरोप हास्यास्पद है क्योंकि मौर्य वह व्यक्ति हैं बसपा के टिकटों की बिक्री में बिचैलिए का काम करते थे’’. जब मैंने यह सवाल मौर्य से किया तो उन्होंने इससे इनकार कर दिया. एक भूतपूर्व मुख्य सचिव ने मुझे बताया कि बसपा को उद्योग घरानों का बहुत कम समर्थन मिलता है. उत्तर प्रदेश के जेपी और वेव समूह समाजवादी पार्टी और बसपा के शासनकाल में दोनों के करीब रहे हैं लेकिन रिलायंस जैसे राष्ट्रीय स्तर के उद्योग घरानों ने बसपा का कभी समर्थन नहीं किया.

राजनीतिक कामों को वोटों में बदलने के मामले में मायावती गुरु कांशीराम से आगे रहीं. मायावती ने 1989 में अपना पहला चुनाव जीता और कांशीराम पहली बार 1996 में जीते. दिल्ली प्रेस आर्काइव

राज्य सरकार के साथ करीब से काम करने वाले लखनऊ के एक कार्यकर्ता ने मुझे बताया कि अक्सर बंद रहने वाले बसपा कार्यालय में एक नोट गिनने की मशीन है. एक दूसरे बागी नेता का आरोप है, ‘‘आप ऑफिस जाइए, नोट जमा कीजिए और एक रसीद लेकर वापस आ जाइए. कुछ दिनों बाद आपकी उम्मीदवारी की घोषणा हो जाएगी.’’

दूसरों ने मुझे समर्थकों से सीधे पैसा इकट्ठा करने के बसपा के प्रयासों के बारे में बताया. रणनीतिकार ने बताया कि बसपा ने हमेशा एक नोट एक वोट की नीति पर काम किया है. इसके तहत उसने समर्थकों से चुनाव और पैसों का सहयोग मांगती है. इसे समझाने के लिए उसने मायावती की किताब का एक हिस्सा पढ़ कर सुनाया, ‘‘बहुजन समाज को परांपरागत समाजिक ऑर्डर से बरक्स देने वाला बनना होगा. मांगने वाला नहीं.’’ उसने बाताया, ‘‘मायावती का लक्ष्य एक हजार करोड़ रुपए इकट्ठा करना है. वह ग्राउंड में एक हजार बसपा कायकर्ताओं की मदद करती हैं उसके लिए पैसा आएगा कहां से?’’ उत्तर प्रदेश के एक भूतपूर्व मुख्य सचिव के अनुसार फंड इकट्ठा करने का मायावती का प्रयास पार्टी के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए है. वह ऐसा इसलिए करती हैं क्योंकि हाल में ही पार्टी में दो विभाजन हुए हैं. ‘‘वह इस दौलत को पार्टी के लिए ‘सिक्योरिटी मनी’ के रूप में रखती हैं.

रणनीतिकार ने मुझे बताया कि उम्मीदवारों को टिकट उनकी विशेषताओं का अच्छी तरह आंकलन करने के बाद दिया जाता है. हां, उनकी अर्थिक ताकत महत्वपूर्ण है लेकिन सबसे ज्यादा पैसा देने वाले को ही टिकट दिया जाता है ऐसा नहीं है. ‘‘हमने जो कमिटियां बनाई हैं, बस दिखावे के लिए थोडे हैं.’’ वे बताते हैं, ‘‘प्रत्येक विधान सभा सीट के लिए जोनल संयोजक चार नाम जिला समिति को भेजता है.’’ जिला संयोजन और जिला समिति के दो पदाधिकारी इन नामों को नबंर देता हैं. ‘‘इसके बाद जोनल संयोजन इन चार उम्मीदवारों का इंटरव्यू लेता है. इंटरव्यू के बाद, ‘‘समर्थकों की संख्या, आर्थिक ताकत और जातीय गुणाभाग में उनकी पोजिशन‘‘ के आधार पर उम्मीदवारों को शॉर्टलिस्ट किया जाता है. ‘‘आखिर में मायावती के साथ इंटरव्यू होता है.’’

नवंबर में जब नरेन्द्र मोदी में नोटबंदी की घोषणा की, तब पार्टी की तैयारी, खासकर उसके पैसा इकट्ठा करने के प्रयासों को थोड़े समय के लिए झटका लगा. पार्टी के पास जो नकदी थी वह पूरी तरह से बेकार हो गई. लेकिन इस समस्या को सुलझाने के लिए पार्टी ने जल्दी से अपने व्यापक समर्थक आधार को सक्रीय किया. रणनीतिकार ने बताया कि पार्टी ने अपने चुनाव प्रचार के लिए 40 करोड़ रुपए संकलन करने का लक्ष्य बनाया. प्रत्येक विधान सभा सीट से 10 लाख रुपए. पुराने नोटों को बदलने के लिए पार्टी ने अपने समर्थकों की मदद ली. ये समर्थक अधिकांश दैनिक वेतनभोगी हैं. वह बताते हैं, ‘‘एक दिन में एक व्यक्ति को चार हजार रुपए बदलने का हक था-जो बाद में घटाकर दो हजार रुपए कर दिया गया. यदि पार्टी के पांच हजार कार्यकर्ता लाइन में लगते हैं तो हम लोग रोजाना दो करोड़ रुपए इकट्ठा कर सकते हैं. इसका मतलब है 50 दिन में 80 करोड़ रुपए जो हमारी जरूरत से दोगुना है.’’ वह आगे पूछते हैं, ‘‘भाजपा ने बिहार चुनाव में 135 करोड़ रुपए खर्च किए थे लेकिन उससे कोई नहीं पूछता कि उसे चंदा देने वाले कौन लोग हैं.’’

जनवरी के पहले सप्ताह में मायावती ने 403 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की. 87 टिकट अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों को, 97 टिकट मुस्लिम उम्मीदवारों को, ओबीसी उम्मीदवारों को 106, ब्राह्मणों को 66, ठाकुरों को 36 और अन्य को 11. मुख्तार अंसारी और उसके परिवार के लोगों को टिकट देने के बाद कुल मुस्लिम उम्मीदवार 99 हो गए. इतने सारे मुसलमानों को टिकट देने का सीधा मतलब था कि मायावती जीत के लिए मुस्लिम वोटरों को जरूरी समझती हैं. 2014 के चुनावों के बाद इतने मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का मतलब साफ तौर पर दलित-मुस्लिम एकता का प्रदर्शन करना था. 2014 के चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ था कि उत्तर प्रदेश से किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार ने लोक सभा चुनाव नहीं जीता था.

चुनाव रणनीति के लिहाज से दलित मुस्लिम फॉर्मूला भारत में कम ही सफल हुआ है. ऑल इंडिया मजलिस ए एतिहाद-उल मुसलमीन ने तेलंगाना में अपनी उपस्थिति बनाए रखने के लिए और महाराष्ट्र में अपना विस्तार करने के लिए इस फॉर्मूले का प्रयोग किया है. लेकिन इस फॉर्मूले के साथ किसी भी पार्टी ने राज्य का चुनाव नहीं जीता है. यदि बसपा ऐसा कर पाती है तो वह हमेशा के लिए देश में वंचितों की राजनीति को बदल देगी.

बसपा अपनी रैलियों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देती है. उसका बहुजन स्वयंसेवक दल आयोजनों को सुरक्षा प्रदान करता है. मुस्तफा कुरैशी/एपी फोटो

दलित-मुसलमान वोटिंग ब्लॉक का बनना भाजपा के लिए चिंता की बात है. ये दोनों समुदाय अंतरनिहित कारणों से पार्टी को समर्थन नहीं करते. 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 20.7 प्रतिशत है और मुलमानों की आबादी 18.5 प्रतिशत. दोनों को मिला दें तो इनकी कुल आबादी 39.1 प्रतिशत हो जाएगी. यदि यह जोड़ वोटों में बदल जाए तो चुनाव में बहुमत प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है.

इसका मुकाबला करने के लिए भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ता राज्य भर में दलित बस्तियों में छोटी मिटिंग करने लगे हैं. भाजपा यह संदेश देना चाहती थी कि अंबेडकर मुस्लिम विरोधी थे और इसलिए दलितों को भाजपा को वोट देना चाहिए न कि मायावती को जो मुसलमानों को खुश करने में लगी हैं. लखनऊ के एक बसपा कार्यकर्ता ने मुझे बताया कि आरएसएस द्वारा फैलाए जा रहे इस भ्रम को तोड़ने के लिए बसपा ने बंद कमरों में मीटिंग करनी शुरू की. इन मीटिंगों में बसपा कार्यकर्ता लोगों को बताते कि भाजपा की कहानी झूठी है और 1946 में पहली बार संविधान सभा में अंबेडकर की जीत मुस्लिम लीग के दलित नेता जोगिन्दर नाथ मण्डल के समर्थन से हुई थी. उस कार्यकर्ता ने कहा, ‘‘यदि मुस्लिमों ने अंबेडकर की मदद नहीं की होती तो न हमें आरक्षण मिलता और न ही भारतीय संविधान से मिला आत्मसम्मान.’’

दलित मुस्लिम वोटिंग ब्लॉक को तैयार करने का काम पार्टी के सबसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता नसीमुद्दीन सिद्दकी कर रहे हैं. मीडिया से दूर रहने वाले सिद्दकी दो बार विधान सभा चुनाव लड़ चुके हैं. 1991 में वह जीते थे और 1993 में भाजपा प्रत्याशी से हार गए थे. मायावती ने उन्हें तीन बार विधान परिषद का सदस्य बनाया और वह चार बार कैबिनेट मंत्री रहे. पार्टी के अंदर वह सबसे प्रमुख चुनाव प्रचारक माने जाते हैं. सिद्दकी मुस्लिम समुदायों में घर घर जाकर स्थानीय मुद्दों पर केन्द्रित प्रचार करने की अपनी शैली के लिए जाने जाते हैं.

अपनी सभाओं में बसपा जोर देकर कहती है कि मायावती के शासन में आमतौर पर मुसलमान सुरक्षित रहते हैं. पार्टी के मुस्लिम संयोजक ने 1995 का एक प्रसिद्ध वाकया सुनाया जब भाजपा के साथ मिलकर पार्टी सरकार चला रही थी. उस वक्त विश्व हिन्दू परिषद ने मथुरा में श्री कृष्ण जन्मभूमि मंदिर, जिसे कृष्ण भगवान का जन्म स्थान बताया जाता है के मुद्दे पर सामप्रदायिक माहौल बनाने का प्रयास किया था. मंदिर के बगल में एक मस्जिद है जिसे संगठन गिराना चाहता था. मायावती की इस बात के लिए सराहना की गई कि उन्होंने मामले को नियंत्रण से बाहर नहीं जाने दिया. 1992 में अपने कार्यकाल में मुलायम सिंह यादव बाबरी मस्जिद के ध्वंस को नहीं बचा पाए थे. संयोजक के बताया, ‘‘मायावती के पिछले शासन में जब राज जन्मभूमि विवाद से संबंधित लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट बाहर आई तब भी हिंसा की कोई घटना नहीं हुई’’. अखिलेश यादव के कार्यकाल में भी मुजफ्फरनगर में हिंसा की घटना हुई. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इसमें 60 लोगों की मौत हुई है और एक लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं. इनमें से अधिकांश मुसलमान हैं.

2014 के चुनावों में भाजपा की जीत के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिन्दुत्ववादी समूहों की संख्या में बढोतरी हुई है. नरेन्द्र मोदी सेना, जनेउ क्रांति सेना और हिन्दू बहू बेटी बचाओ संघर्ष समिति जैसे नए संगठन बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद और आरएसएस की स्थानीय शाखाओं के साथ मिल कर धार्मिक ध्रुवीकरण को बनाए रखते हैं. समाजवादी पार्टी के कोर वोटर माने जाने वाले मुस्लिम समुदाय के अंदर इसने गहरी चिंता पैदा की है.

मुस्लिमों को अपने पक्ष में करने के प्रयासों में बसपा के सामने सबसे बड़ी अड़चन उसकी अपनी छवि है. 1994 और 2002 में बसपा ने भाजपा के साथ दो बार सरकार बनाई है. इससे मुसलमानों के भीतर पार्टी के लिए स्थाई शक पैदा हो गया है. मुसलमानों के अंदर भाजपा के साथ अपने गठबंधन से जन्मे शक को दूर करने के लिए 14 अक्टूबर को पार्टी ने एक बुकलेट जारी कीः मुसलमान समाज का सच्चा हितैषी कौन है, फैसला आप करें. पार्टी ने यह बुकलेट मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में बांटी. भाजपा के साथ अपने गठबंधन के बारे में बुकलेट में 13 बातें थीं. उसमें लिखा है, ‘‘हमने विचारधारा और सिद्धांत के साथ समझौता नहीं किया और भाजपा-आरएसएस का एजेंडा लागू नहीं किया. अयोध्या, मथुरा और काशी में किसी भी नए बवाल को शुरू होने नहीं दिया.’’

बुकलेट में वर्तमान समाजवादी पार्टी सरकार पर गुप्त रूप से भाजपा का समर्थन करने का आरोप है. उसमें लिखा है, ‘‘जब जब सपा की सरकार बनी है भाजपा मजबूत हुई है. ‘‘2009 में जब बसपा की सरकार थी तो उत्तर प्रदेश में भाजपा मात्र नौ सीट जीत पाई थी.’’ (असल में भाजपा ने 10 सीटें जीती थी.) आज सपा की सरकार है और 2014 के चुनावों में भाजपा ने 73 सीटें जीती हैं. (भाजपा ने 71 सीट जीती है) समाजवादी पार्टी के अंदर कानाफूसी चल रही है कि केन्द्र सरकार ने मुलायम सिंह यादव को भरोसा दिलाया है कि प्रणव मुखर्जी के बाद उन्हें भारत का अगला राष्ट्रपति बनाया जाएगा. प्रणव मुखर्जी का कार्यकाल इस साल खत्म होने वाला है. बसपा के उपरोक्त दावे इन्हीं अफवाहों के इर्दगिर्द हैं.

मुस्लिम नेताओं को बसपा अपने साथ जोड़ रही है. पार्टी ने आधा दर्जन के करीब शीर्ष मुस्लिम मदरसों के प्रभावशाली मौलानाओं का समर्थन हासिल किया है. इनमें अल इमाम वेलफेयर ऐसोसिएशन के अध्यक्ष इमरान हसन सिद्दकी, बरेली के सुन्नी उलेमा काउंसल के मौलाना फरयाद हुसैन, लखनऊ के दारुल उलूम नदवातुल उलमा के सूचना एवं व्याख्यान डीन सलमान नकवी का नाम शामिल है. हाल के महिनों में चार जानेमाने मुस्लिम विधायकों ने बसपा में प्रवेश किया है. इनमें से तीन विधायक कांग्रेस पार्टी के और एक सपा के हैं. एक विधायक ने मुझे बताया, ‘‘हमें अपनी जमात, जान और पहचान को बचाना है. उत्तर प्रदेश में बसपा के सिवा कोई दूसरा इख्तियार नहीं है.’’ 1980 में बामसेफ से जुड़े रहे मोहम्मद इस्लाम जैसे ढेरों नेताओं को भी आगामी चुनावों में प्रचार और चुनाव लड़ने के लिए पार्टी में शामिल किया गया है.

बसपा को पढ़े लिखे मुस्लिम नौजवानों का समर्थन मिल रहा है. इनमें अलिगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया, नादवा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और अलिगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के ऑल्ड बोयज एसोसिएशन जैसे समूहों के सदस्य भी हैं. इन समर्थकों ने बहुजन कौमी एकता मुशायरों में भाग लिया. नसीमूद्दीन सिद्दकी के बेटे अफजल ने इन मुशायरों को आयोजन किया.

मुसलमानों को रिझाने के लिए बसपा की दूसरी चुनौती है कि उसने कभी भी खुद को धर्मनिरपेक्ष पार्टी नहीं कहा है. मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कांग्रेस और सपा इस लेबल का इस्तेमाल करते हैं. कांशीराम का वह कथन बहुत प्रसिद्ध है जिसमें वह कहते हैं, ‘‘हम ना तो सेक्यूलर है न समाजवादी हैं. हम लोग तो अवसरवादी हैं.’’ बामसेफ के एक संस्थापक सदस्य ने मुझे बताया कि कांशीराम मानते थे कि जाति बड़ी समस्या है और इससे निपटने के लिए घटकों की जरूरत है. वह बताते हैं कि शुरुआत में मुसलमानों के साथ बसपा के संबंध तानवपूर्ण थे क्योंकि इस समुदाय का एक हिस्सा दलितों के प्रति पूर्वाग्रह से भरा था. ‘‘एक वक्त सत्ता में रहे एलीट ऊंची जाति के मुसलमान दलित पार्टी के साथ खड़े होने को अपनी शान के खिलाफ मानते थे.’’

बसपा ने भी मुस्लिम समुदाय के दमित हिस्से की अनदेखी की है. एक पसमांदा मुस्लिम नेता ने बताया कि पसमांदा समुदाय जैसे समूहों की अनदेखी कर उच्च जाति के मुसलमानों पर ध्यान देना बसपा की रणनीति के लिए गलत साबित होगा. उनका कहना है, ‘‘मुसलमानों में भी जातियां हैं’’. बसपा की चुनावी रणनीति में पसमांदा मुद्दों को नजरअंदाज किया गया है.’’

कई मुस्लिम नेता कहते हैं कि मुस्लिम समुदाय में मर्दवादी मानसिकता से भी मायावती को जूझना होगा. एक पूर्व मुस्लिम नेता कहते हैं, ‘‘मर्दवादी सोच के मामले में मुस्लिम पीछे नहीं हैं. यह कौन नहीं जानता कि सहारनपुर में मौजूद हिन्दुस्तान का बड़ा मुस्लिम संगठन दारुल उलूम देवबंद अंग्रेज हुकुमत के खिलाफ 1857 के गदर में महज इसलिए शरीक हुआ था क्योंकि ये लोग एक औरत- मलका- को अपना हुकमरान नहीं मान सकते थे. मुसलमानों में मायावती की खिलाफत के पीछे मर्दवादी सोच है.’’ इस नेता ने बताया कि मायावती के खिलाफ जो पूर्वाग्रह है वह मुस्लिम समुदाय के साथ मायावती के जुड़ाव के रास्ते में रुकावट है. ‘‘वह औरत हैं इसलिए मुलायम सिंह की तरह कौम की हितैषी होने का दिखावा करने के लिए सर पर गोल टोपी पहन कर घूम नहीं सकतीं. न ही वह इबादत खानों में घुस सकती हैं.’’

पूर्व नेता आगे कहते हैं, ‘‘वैसे भी मायावती तक पहुंचना कठिन हो गया है’’. उन्होंने बताया कि बहुत से जानेमाने मुस्लिम शायर बसपा को समर्थन देना चाहते थे लेकिन किसी को यह नहीं पता था कि मायावती से संपर्क कैसे किया जाए. ‘‘वह एक अभेद्य किला हैं और अगर वह चुनाव जीतना चाहती हैं तो उन्हें अपनी इस कमजोरी को सुधारना होगा.‘‘

बसपा के एक मुसलमान नेता का तर्क है कि दमदार मुसलमान नेताओं को आगे लाने में पार्टी सफल नहीं हो सकी. ‘‘मायावाती रोज प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर रही हैं और बता रही हैं कि इन चुनावों में सपा को वोट देने से भाजपा को फायदा होगा. लेकिन ये सीधी साधी बातें मुस्लिम समुदायों को आकर्षित नहीं करतीं.’’ इस मुस्लिम नेता का विश्वास है कि समुदाय से भावुक अपील की जानी चाहिए. ‘‘पार्टी को दमदार भाषण करने वाले मुस्लिम नेताओं की जरूरत है. आजम खान को देखो. मुसलमानों के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया लेकिन अपने जोशीले भाषणों की वजह से टिके हुए हैं.’’ बीते दिनों में मसूद अहमद और इलियास आजमी जैसे लोकप्रिय नेता पार्टी से अलग हुए हैं और मुनकद अली जैसे अभी के नेताओं को प्रचार की जिम्मेदारी अब तक नहीं दी गई है.

मायावती के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव पर 1995 में उन पर हुए हमले का आरोप लगा. यह घटना भारतीय राजनीतिक इतिहास के भद्दे मर्दवादी अध्याय का हिस्सा है. रॉयटर्स

कई जानकारों का कहना है कि 2017 के चुनावों से पहले बसपा और कांग्रेस गठबंधन जीत दिला सकता है. इस दिशा में बातचीत हुई थी लेकिन आगे बढ़ने से पहले ही टूट गई. कांग्रेस पार्टी के एक विधायक का कहना है कि मायावती केवल 20 सीटें पार्टी को देना चाहती थीं. यह कांग्रेस की उम्मीद से बहुत कम सीटें हैं. बसपा के रणनीतिकार ने मुझे बताया कि 2016 में पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम के बाद मायावती को यह भरोसा नहीं रहा कि कांग्रेस पार्टी का वोट बसपा को मिलेगा. उस चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी हार गई थी. बाद में कांग्रेस पार्टी ने सपा से एक सौ सीटें मिलने का आश्वासन मिलने के बाद गठबंधन कर लिया.

यहां तक कि तेलंगाना और महाराष्ट्र में दलित मुस्लिम गठबंधन को एक हद तक सफलता के साथ लागू करने वाले ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी के नेता असदउद्दीन औवैसी ने जब गठबंधन के लिए मायावती से संपर्क किया तो उन्हें भी मना कर दिया गया. इस पार्टी के एक नेता ने मुझे बताया कि यदि मायावती हमें एक सीट भी देती तो हम उनसे गठबंधन कर लेते.’’ बसपा के संयोजक के अनुसार, मायावती को लगता है कि औवैसी के साथ गठबंधन करने से उनका ब्राह्मण वोटर नाराज हो जाएगा क्योंकि औवैसी को लोग कट्टर इस्लामिक नेता मानते हैं.

राज्य में मूर्तियां बनाने के लिए मायावती को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. उनके करीबी नौकरशाह के अनुसार दलितों के आत्मसम्मान और गर्व के प्रतिक के रूप में इनका निर्माण किया गया था. राजेश कुमार सिंह/एपी फोटो

चुनावी खींचतान के अलावा एक बात और भी है. मायावती को गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ने से परहेज है. यह इसलिए है कि तीन बार उनकी सरकार सपा और भाजपा के साथ पार्टी के गठबंधन में पैदा हो गए विवाद के चलते गिर गई थी. बसपा के मुस्लिम नेता कहते हैं, ‘‘कांशीराम हमेशा गठबंधन के पक्ष में थे जबकि मायावती हमेशा इसके खिलाफ रहीं.’’ दिल्ली के प्रोफेसर बताते हैं कि मायावती ने उन्हें एक बार बताया था कि ‘‘कांशीराम कहते थे कि वह राजनीतिक दलों को दिखाना चाहते हैं कि उनकी बस दौड़ सकती है इसलिए वह गठबंधन साझेदारों को सह यात्रियों के रूप में साथ रखना चाहते थे. अब जबकि बस लगातार दौड़ रही है तो हमें सवारियों से अधिक हम पर भरोसा करने वाले लोगों की जरूरत है.’’

बसपा के कई विचारक मानते हैं कि मुस्लिम-दलित गठबंधन बनाने में पार्टी की सफलता या विफलता आगामी चुनावों से बहुत आगे तक असर डालेगी. वरिष्ठ प्रोफेसर मानते हैं, ‘‘यह इस बात की अंतिम परीक्षा है कि भारत में ऐसा गठबंधन मुमकिन है कि नहीं. दलित इस गठबंधन को जरूर वोट देंगे पर सवाल है कि क्या मुस्लिम ऐसा करेंगे.’’ उनका तर्क है कि यदि मुसलमानों ने इस गठबंधन को खारिज कर दिया तो ‘‘दलित वोटर यह मान कर चलेगा कि बसपा के साथ राजनीतिक फायदा नहीं है.’’ ‘‘इसका अर्थ होगा कि धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति जारी रहेगी. यदि यह गठबंधन फेल हो गया तो दलितों के हिन्दूकरण की भाजपा की योजना को नई उर्जा मिलेगी.’’

यदि बसपा के लिए मुसलमान मतदाताओं को पाले में लेना बड़ी चुनौती है तो ब्राह्मणों को आकर्षित करना इससे कम आसान नहीं होगा. 2007 में मायावती की सफल राजनीतिक रणनीति में इस समुदाय की खासी भूमिका थी. लेकिन उनके कार्यकाल में ही समुदाय में दरार दिखाई पड़ने लगी थी. आज जब अन्य पार्टियां भी आक्रमक रूप से ब्राह्मणों को रिझाने में लगी हैं तब मायावती के सामने इस समर्थन को बचाए रखने की बड़ी चुनौती है.

2007 की मायावती की रणनीति में इस बात पर जोर था कि जाति संरचना में सबसे उपर होने के बावजूद आजादी के बाद से ब्राह्मणों को बहुत कम राजनीतिक लाभ मिला है. ब्राह्मणों को अपने साथ लाकर मायावती न केवल चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त संख्या पर नजर रख रही थीं बल्कि वह दलितों के बढ़ते प्रभाव को भी दिखाना चाहती थीं. उदाहरण के लिए मायावती को पता था कि यह संभावना बहुत कम है कि ब्राह्मण दलित उम्मीदवार को वोट देंगे लेकिन वह यह दिखाना चाहती थीं कि उनका कोर दलित वोट बैंक ट्रांस्फर हो सकता है चाहे उम्मीदवार किसी भी जाति क्यों न हो. मायावती ने अतरौलिया से ब्राह्मण उम्मीदवार को खड़ा किया ताकि यहां से जीतने के लिए आवश्यक वोट मिल जाएं. पार्टी के अनुमान से यहां 18 प्रतिशत दलित और 15 प्रतिशत ब्राह्मण रहते हैं.

मायावती की चुस्त तैयारी ने उस चुनाव में पार्टी को 30.4 प्रतिशत वोट दिलाया. यह अब तक का सबसे बड़ा वोट प्रतिशत था. चुनाव में पार्टी ने 403 में से 206 सीटें हासिल की. यह जबरदस्त समय था. 2007 में न्यूजवीक ने सफल महिलाओं की सूची में मायावती का नाम शामिल किया. इसके दो साल बाद, आम चुनावों से पहले, मायावती न्यूजवीक के कवर पर थीं. मैगजीन ने लिखा था, ‘‘स्थापित व्यवस्था के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति से भी बड़ा संभवित खतरा मायावती हैं.’’ वर्ष 2000 से ही कांशीराम बीमार चल रहे थे और विवेचकों का मानना था कि 2006 में उनकी मौत के बाद मायावती का करियर समाप्त हो जाएगा. लेकिन 2007 की जीत ने इन शंकाओं पर विराम लगा दिया और पार्टी के नेतृत्व में उन्हें मजबूती से खड़ा कर दिया. बहनजी किताब के लेखक अजय बोस कहते हैं, ‘‘चुनाव की जीत ने यह साबित कर दिया कि उनकी राजनीतिक समझ हमेशा कांशीराम से अधिक कुशल रही है. वह करके दिखाने वाली महिला हैं. वह एक छोर से दूसरे छोर तक सीधा रास्ता तलाशती हैं. ठीक है कि वह कांशीराम की तरह विजनरी नहीं हैं लेकिन निश्चित रूप से एक सफल रणनीतिज्ञ हैं.

लखनऊ में रहने वाले एक राजनीतिक विशलेषक ने, जिन्होंने मायावती और कांशीराम के साथ करीब से काम किया है, बताते हैं कि 2007 में चुनावी गठबंधन ने पार्टी के भीतर मायावती की पकड़ को मजबूत बना दिया. ‘‘बहुमत प्राप्त करने के लिए ब्राह्मणों के साथ समझौता जरूरी था लेकिन यह एक रणनीतिक कदम भी था यह साबित करने के लिए कि पार्टी में वही एकमात्र व्यक्ति होंगी जो निणर्य करेंगी और लंबी पारी खेलेंगी.’’

बसपा की जीत का नाटकीय असर दिखाई दिया. बसपा के एक दलित कार्यकर्ता ने मुझे बताया, ‘‘मैं आपको बढ़ा चढ़ा के नहीं बता रहा हूं पर यह सच है कि वे लोग जो पहले मुझे रमुवा कह कर बुलाते थे 2007 में बहनजी की जीत के बाद रामजी कहने लगे.’’

जीत के बाद भी पार्टी ने दलितों और ब्राह्मणों के बीच लींक बनाने के प्रयासों को जारी रखा. मायावती की इस योजना के अंजाम देने वाले सतीश मिश्रा ने, जो पार्टी के तीन शीर्ष नेताओं में से एक है, प्रत्येक विधान सभा सीट पर भाईचारा समिति का गठन किया. प्रत्येक सीट को 25 सेक्टर में बांटा गया जिसकी हर इकाई में 300 ब्राह्मण और 100 दलित सदस्य थे. गांवों के प्रभावशाली नेता इन बैठकों का हिस्सा थे और वे दलितों को भरोसा दिलाते थे कि चाहे कुछ भी हो जाए गांवों के संसाधनों में उन्हें बराबर हिस्सा मिलेगा. दलितों को प्रतीकात्मक कामों में हिस्सा लेने को कहा जाता. वह उच्च जातियों के लोगों के साथ बैठते और खाना खाते. दलितों की झिझक को खत्म करने के लिए समितियां आग्रह करतीं कि जब भी ब्राह्मणों के घरों में शादी जैसे कार्यक्रम हों तो वे पहला आमंत्रण दलितों को भेजे और ऐसा ही दलितों को करने को कहा जाता.

एक राजनीतिक जानकार ने उत्तर प्रदेश की एक कहावत दोहराते हुए बताया, ‘‘गांव में यदि एक भी घर ब्राह्मण का है तो उस घर में एक तहखाना जरूर होगा’’. वह ब्राह्मणों के साथ जुड़ी उस चालाकी के बारे में बता रहे थे जिसके चलते उन लोगों ने चुनावी गठबंधन कर लिया लेकिन वे असल समाजिक मेलमिलाप के लिए तैयार नहीं हैं. ब्राह्मणों को साथ रखना बसपा के लिए कठिन साबित हुआ. बामसेफ के एक युवा कार्यकर्ता ने बताया, ‘‘ब्राह्मणों के तुष्टिकरण ने सोशल इंजीनियरिंग के प्रोटेक्ट में दरार डाल दी. ‘‘यह प्रोजेक्ट बहुत दिनों तक टिक नहीं सकता था क्योंकि यह सत्ता में सांठगांठ के लिए वोट और दिखावे पर आधारित था. जमीन में बदलाव लाने के लिए यह बहुत गहरी पैठ नहीं बना पाया.’’

एक बार सत्ता में आ जाने के बाद मायावती ने राज्य को दलित सशक्तिकरण के प्रतीकों और दमित समुदाय के नायकों की मूर्तियों से रंग देने की योजना पेश की. अंबेडकर की स्मृति में मायावती कम से कम बीस बड़े पार्कों का निमार्ण कराया और राज्यभर में उत्पीड़ित समुदाय के अन्य नेताओं सहित स्वयं की, कांशीराम की और पार्टी के प्रतीक हाथी की छोटी और बड़ी मूर्तियां लगवाईं.

मायावती के इस कदम का राज्य और देश भर में व्यापक विरोध हुआ. मायावती के गठबंधन के उच्च जातियों के सदस्य ने बुरा लगने की बात कही. तमिल आईकन पेरियार की मूर्ति से वे लोग खासे नाराज थे क्योंकि उन्होंने हिन्दू जाति व्यवस्था के खिलाफ खुलेआम राम के चित्रों में आग लगाई थी.

बीजेपी नेता की पत्नी के खिलाफ बसपा के कार्यकर्ताओं की अभद्र टिप्पणी के विरोध में बीजेपी ने जुलाई में प्रदर्शन किया. दीपक गुप्ता/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

पार्क और मूर्तियों की योजना को बर्बादी और भ्रष्टाचार का पर्यायवाची माना गया. लेकिन राज्य के कुछ नौकरशाहों से जब मैंने बात की तो उन्होंने मुझे मायावती के इस विचार के दूसरे पहलुओं के बारे में बताया. मायावती के करीब रह कर काम करने वाले एक पूर्व मुख्य सचिव ने बताया कि ‘‘मायावती ने बड़ी परियोजनाओं की संस्कृति शुरू की जिसमें बहुत घूसखोरी होती और आज भी ठेकेदारों को ‘‘कमीशन का बड़ा हिस्सा घूस में देना पड़ता है.’’ इसके बावजूद भी, उनका कहना है, सपा के विपरीत, जो बड़े पार्क सिर्फ पैसा उगाही लिए ही बनवाती है, मायावती की परियोजनाओं के तहत बनने वाले स्मारक निसंदेह दलित प्रेरणा और स्वाभिमान की महान प्ररणा देने वाले थे.’’

एक अन्य पूर्व मुख्य सचिव ने बताया कि ‘‘सपा और बसपा में एक अंतर यह है कि सपा में कई द्वारों पर चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है और सरकारी परियोजनाओं में 65 प्रतिशत तक कमिशन देना पड़ता था. बसपा सरकार में आपको एक ही जगह कमिशन देना होता है. कमिशन की दर 10 प्रतिशत निर्धारित है. इस कमिशन का आधा पार्टी को और आधा सत्ता में बैठे लोगों को जाता है.’’

मायावती ने सरकारी ठेकों का इस्तेमाल अपने समर्थकों को खुश करने के लिए किया. ‘‘जैसे वर्तमान सरकार में सभी ठेके ‘वाय’ को मिलते हैं (अंग्रेजी के ‘वाय’ शब्द का अर्थ यहां यादव समुदाय से है), मायावती के शासन में एक अनकहा नियम यह था कि दस लाख रुपए से कम के सभी ठेके दलितों को दिए जाएंगे.’’

दलितों के पक्ष में मायावती ने जिन अन्य तरीकों को अपनाया वे थेः सरकारी जमीन को दलितों को बांटना और अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार रोकथाम कानून को आक्रमक तरीके से लागू करना. उच्च जातियों के जमीनदारों और अन्य को इन कामों ने नाराज किया. 2010 के आरंभ में जब मीडिया में यह खबरें आने लगीं कि सरकारी स्कूलों में छूआछूत की प्रथा चालू है तो मायावती ने आदेश दिया कि सभी सरकारी स्कूलों में ‘मीडडे मील’ पकाने के लिए दलित महिलाओं को रखा जाएगा. लेकिन जुलाई में रामाबाई नगर जिले के मैरखपुर गांव के एक प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले उच्च जातियों के बच्चों ने नए दलित कुक के हाथों से बनी चीजों को खाने से इनकार कर दिया. उसी महीने भीड़ ने स्कूल पर हमला किया और तोड़फोड़ की. इसके बाद अपुष्टि खबरें आईं कि राज्य भर उच्च की जातियों के 1500 बच्चों ने सरकारी स्कूलों से नाम कटा लिया है.

मायावती ने दोनों समुदायों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की. कम से कम ऐसा करने की कोशिश करने का दिखावा किया. हालांकि सरकार ने घोषणा की थी कि किसी भी दलित रसोइए को हटाया नहीं जाएगा लेकिन सरकारी ऑडिट के अनुसार इन रिक्त पदों में 17 प्रतिशत से अधिक नियुक्यिां कभी नहीं की गई.

ब्राह्मणों में गंभीर नाराजगी के बावजूद पार्टी यह नहीं मानती कि 2012 में मिली हार की वजह बड़ी संख्या में ब्राह्मणों का पार्टी से दूर हो जाना है. वह मानती है कि हार का कारण दलित वोटरों का पार्टी से दूर जाना है. बामसेफ के युवा सदस्या का कहना है, ‘‘मायावती का कोर समर्थक जावट, जो उनकी सर्वजन नीति से नाराज था, पार्टी से दूर खिसक गया.’’

इस परिप्रेक्ष्य में मायावती और पार्टी के सामने 2017 के चुनावों से पहले संतुलन बनाने की चुनौती है. पार्टी के रणनीतिकार का कहना है, ‘‘यह अघोषित समझदारी है कि ब्राह्मण एक दलित पार्टी के साथ खड़े हो रहे हैं. यह बिलकुल संभव नहीं है कि वे लोग पार्टी के संविधान को बदलेंगे या पार्टी के नेता बन जाएंगे. वे हमारे घटक हैं और हमने अपने दलित मतदाताओं को सभी संभव तरीकों इस बात को समझाया है.’’

उच्च जाति का वोटर नाखुश न हो यह सोच कर 2016 में भीम जागरणों को रोक दिया गया. ब्राह्मणों को पार्टी में शामिल करने के लिए ऐसा किया गया. यह एक तरह का कठोर निर्णय था जिसके लिए मायावती जानी जाती हैं. उनके कई पुराने पुरुष साथियों ने उनके ऐसे भटकावों को गलत बताया है. ये लोग उन्हें ‘‘अवसरवादी’’ और ‘‘भावना शून्य’’ महिला कहते हैं. लेकिन एक बसपा विधायक का कहना है कि ‘‘मायावती कहती हैं कि भावनाएं सोचने की क्षमता को मंद करती हैं. वह एक राजनीति वैज्ञानिक है और इसलिए कड़े निर्णय करती हैं.

20 जुलाई को उत्तर प्रदेश के भाजपा उपाध्यक्ष दया शंकर सिंह ने मऊ में एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स में कहा कि मायावती ‘‘वैश्य से भी नीचे हैं’’ और उन पर टिकट बेचने का आरोप भी लगाया. सभी राजनीतिक दलों ने सिंह के बयान का विरोध किया और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद पटल से इस टिप्पणी के लिए मायावती से माफी मांगी. भाजपा ने सिंह को पार्टी के सभी पदों से हटा दिया. बसपा ने सिंह के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज करवाई. ‘‘बसपा के एक चुनाव प्रत्याशी ने बताया कि इस घटनाक्रम ने चुनावी दौड़ में पीछे चल रही पार्टी के पक्ष में माहौल बना दिया. इस टिप्पणी ने न केवल लोगों के भीतर हमदर्दी पैदा की बल्कि भाजपा, जो उत्तर प्रदेश में बसपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है की जातिवादी और स्त्री विरोधी मानसिकता को भी खोल कर रख दिया.

आने वाले चुनावों के लिए बसपा के वरिष्ठ मुस्लिम नेता नसीमुद्दीन सिद्दकी को दलित—मुस्लिम गठबंधन की जिम्मेदारी दी गई है. पीटीआई

बसपा के राजनीतिक बहीखाते में जुड़ा यह लाभ जल्द ही घाटे में बदल गया जब मध्य लखनऊ में बसपा के कार्यकर्ता इकट्ठा हो कर ‘‘दया शंकर की बहन-बेटी को बाहर निकालो’’ जैसे नारे लगाने लगे. उम्मीदवार का मानना है कि इस घटना ने पार्टी को मिली सहानुभूति को खत्म कर दिया. भाजपा ने भी बसपा को पछाड़ने के उद्देश्य से दया शंकर की बीवी स्वाती सिंह को राज्य के महिला मोर्चे का प्रमुख बना दिया.

राजनीतिक उठापटक में यह बात गुम हो गई कि दया शंकर की टिप्पणी उस चलन का ही विस्तार है जिस तरह से नेता, नौकरशाह और मीडियाकर्मी मायावती को देखते और उनके बारे में बाते करते हैं. इन लोगों की भाषा में एक महिला जो समाज में तीन स्तरों में उत्पीड़ित है, उसके खिलाफ हिंसा होती है. मायावती महिला, दलित और राजनीति में बाहर से बिना किसी राजनीतिक संरक्षण से दाखिल हुईं हैं. अपनी जीवनी में मायावती ने ‘‘देश की उस मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ अपने संघर्ष के बारे में लिखती हैं जिस व्यवस्था में पुरुष सर्वोपरि है और महिलाओं को कमतर समझा जाता है, उन्हें अपमानित किया जाता है और उनके आगे बढ़ने के रास्तों में रुकावटें डाली जाती हैं.‘‘

इस तरह का उत्पीड़न शारीरिक हिंसा का रूप भी धारण कर कर लेता है. मायावती की तरह ही चमार जाति की 40 वर्षीय लता देवी ने बताया कि उनकी जाति की महिलाएं सामाजिक रूप से कितनी असुरक्षित हैं. भारत में चमारिन सामाजिक रूप बहुत निचले पायदान पर हैं. एक चमार को अपमानित किया जा सकता है, उसके साथ भेदभाव किया जा सकता है लेकिन एक चमारिन को अपमानित और बेइज्जत करने के साथ साथ औकात बताने के लिए उसका बलात्कार भी किया जा सकता है.’’

लता की बात को शोध प्रमाणित करते हैं. अलॉयसेस इरुदयम एसजे, जयश्री पी मंगू भाई और जॉयल जी ली ने 500 दलित महिलाओं पर विस्तृत शोध पर आधारित 2011 में प्रकाशित अपनी किताब दलित विमेन स्पीक आउट कास्ट, क्लास एंड जेंडर वायलेंस इन इंडिया में लिखा है, उत्पीड़न का शिकार दलित को कलंकित करने वाले, सम्मान और दोषारोपण के ब्राह्मणवादी पितृसत्तावादी भाष्य में उत्पीड़क से पैदा होने वाले डर और उस दंडाभाव में जिसमें यह हिंसा होती है, सब मिलकर उनकी प्रतिष्ठा और अत्मसम्मान की भावना को नष्ट कर देते हैं और उनके सामाजिक संबंधों और अंतरक्रिया को विखंडित कर देते हैं.’’

मायावती को केवल अपने विरोधियों की हिंसा का सामना नहीं करना पड़ा-यह एक ऐसा तथ्य है जो बताता है कि यह कितना आम है. दो पूर्व बामसेफ और दो पूर्व बसपा नेताओं ने-सभी पुरुष है- मुझे बताया कि संगठन को छोड़ने से पहले कैसे उन लोगों ने मायावती को थप्पड़ मारा था. पार्टी के अंदर और करीब के लोग बताते हैं कि हिंसा की छवि वाले कांशीराम भी कई बार मायावती के विरुद्ध शारीरिक हिंसा करते थे. कुछ वरिष्ठ नेताओं ने बताया कि पार्टी के शुरुआती दिनों में कई बार गुस्से में आकर कांशीराम ने मायावती को दिल्ली के अपने घर से निकाल दिया था और लोगों की मध्यस्थता के बाद ही वापस आने दिया.

यदि रिपोर्टों के हवाले से कहा जाए तो मायावती को जो सबसे दर्दनाक हिंसा का शिकार होना पड़ा वह 2 जून 1995 के दिन की हिंसा थी. देश में पहली बार कोई दलित महिला मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने वाली थी और उससे एक दिन पहले यह घटना हुई. (उस समय कांशीराम अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती थे.) हिंसा की इस घटना के एक दिन पहले मायावती ने समाजवादी पार्टी के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया था और भाजपा के सहयोग से सरकार गठन करने का दावा पेश किया था. तकरीबन शाम 4 बजे समाजवादी पार्टी के 200 विधायकों और समर्थकों की भीड़ ने लखनऊ के सरकारी गेस्ट हाउस में हमला बोल दिया जहां मायावती अपने पार्टी के साथियों के साथ रुकी हुईं थीं. कुछ आक्रमणकारियों ने गेस्ट हाउस के कमरा नंबर 1 और 2 में धावा बोल दिया जिसमें मायावती ने कई बसपा विधायकों के साथ खुद को बंद कर लिया था. दरवाजे को ठोकते हुए कुछ लोग चिल्ला रहे थे, ‘‘चमारिन को बिल से बाहर निकालो.’’

भीड़ ने गेस्ट हाउस में पानी और बिजली के कनेक्शन काट दिया और दरबाजे को तोड़ने की कोशिश करने लगे. हमला करने वाले मायावती को धमकी दे रहे थे और जातिवादी गालियां दे रहे थे और बता रहे थे कि जब उन्हें खींच कर बाहर लाएंगे तो उनके साथ क्या क्या करेंगे. सहमी हुईं मायावती और पार्टी के दूसरे विधायक आधी रात तक कमरे में बंद रहे और राज्यपाल कार्यालय और केन्द्र सरकार के दखल के बाद जब सुरक्ष बल घटनास्थल पहुंचे और स्थिति सामान्य हुई तब जाकर वह बाहर आईं. अगले दिन मायावती ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.

उन दिनों मायावती के साथ संपर्क में रहीं एक वरिष्ठ महिला पत्रकार ने मुझे बताया कि हिंसा से कहीं ज्यादा उनके अंदर राजनीतिक डर समाया था. ‘‘मायावती याद करती हैं कि उस दिन उनके पीरियड चल रहे थे. पुरुषों के साथ वह एक ही कमरे में बंद थी और पैड न होने के कारण उनके कपड़े खून में सन गए थे. वह कहती है कि उस दिन जैसा अपमान उन्हें सहना पड़ा वह इतना ज्यादा था कि वह उस घटना को कभी नहीं भूल पाएंगी.’’

गेस्ट हाउस कांड भारत के राजनीतिक इतिहास के सबसे घृणास्पद अध्यायों में एक है. लेकिन आने वाले दिनों में मायावती को डराने या उनके राजनीतिक इरादों को तोड़ने में यह घटना विफल रही.

इसके बाद भी मायावती को लगातार अपने प्रतिद्वंद्वियों और अन्य लोगों की गालियों और तानों का शिकार होना पड़ा है. 1997 में, हमले के दो साल बाद, मुलायम सिंह यादव पर घटना के संबंध में मामला दर्ज किया गया. (आज बीस साल बाद भी यह मामला सर्वोच्च अदालत में लंबित है) ऐसा लगता कि उनको इस केस की कोई चिंता नहीं है. उस साल मैनपुरी शहर में एक राजनीतिक रैली को संबोधित करते हुए मुलायम ने कहा था, ‘‘क्या मायावती इतनी सुंदर है कि कोई उनका रेप करना चाहेगा?’’

ऐसा नहीं है कि केवल पुरुषों ने ही मायावती पर नारी विरोधी टिप्पणियां की है. 2009 में रीता बहुगुणा जोशी ने, भाजपा में आने से पहले उच्च जाति की बहुगुणा कांग्रेस की नेता थीं, मायावती द्वारा राज्य में दुष्कर्म की शिकार महिलाओं को मुआवजा देने के संदर्भ में कहा था, ‘‘कोई करे मायावती का बलात्कार तब मैं मायावती को एक करोड़ रुपए मुआवजा दूंगी.’’

मायावती की इस बात पर भी आलोचना की गई कि ममता बनर्जी और जयललिता जैसी अविवाहित महिला नेताओं की तरह उन्होंने भी अपनी छवि बिना परिवार वाली और किसी के साथ भी जुड़ाव न रखने वाली नेता के रूप में तैयार की है. एक वरिष्ठ महिला संपादक और लेखक के अनुसार अपने बालों को छोटा रख कर और साड़ी की जगह सलवार-कुर्ता पहन कर मायावती अपनी इस छवि को मजबूत बनाना चाहती हैं और यह संदेश देना चाहती हैं कि वह हर वक्त राजनीति के बारे में ही सोचती हैं. अभी अभी 2014 में भाजपा प्रवक्ता और फैशन डिजायनर सायना एनसी ने कहा था कि वह कन्फ्यूज थीं कि मायावती ‘‘औरत’’ हैं या ‘‘मर्द’’. इसका मतलब यह है कि चूंकि मायावती हैन्डलूम साड़ी पर लिपटी पारंपरिक महिला नेता की छवि को तोड़ती हैं इसलिए वह ‘कमतर’ महिला हैं.

लोकसभा में जिस तरह से सांसदों ने मायावती के प्रवेश को लिया, वह भी दिखता है कि मायावती को किस तरह से जाति, वर्ग और जेंडर उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है. अजय बोस ने अपनी किताब में लिखा है, ‘‘सदन में उनके देसी और सीध-सादे अंदाज को देखकर लोगों की त्योरी चढा ली. यथास्थितिवादियों ने यह कह कर उनकी आलोचना की कि उनके जैसे लोगों के आने से संसदीय बहसों का स्तर गिर रहा है.’’ कहा जाता है कि ‘‘तेल लगे और काढ़े हुए बाल और साधारण कपड़ों में मायावती को देख कर ‘कुलीन’ महिला सदस्य मुंह बनातीं या मजाक उड़ातीं. ये कुलीन महिलाएं राजसी या खानदानी घरानों से आईं थीं. उन लोगों की शिकायत होती कि मायावती को पसीना बहुत आता है और एक वरिष्ठ सांसद से कहा कि वह मायावती से जाकर कहे कि वे तेज खुशबू वाला इत्र लगाया करें.’’ इस तरह की प्रतिक्रयाओं के परिप्रेक्षय में ही वर्तमान स्वरूप में महिला आरक्षण बिल पर मायावती के विरोध को समझा जा सकता है. वह प्रस्तावित 33 प्रतिशत आरक्षण में समाज के सभी वर्गों के लिए सामानुपतिक कोटे की मांग कर रही हैं.

मायावती ने अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति का बखूबी प्रदर्शन किया है. इस प्रक्रिया में उन्होंने दुश्मनी भी मोल ली है. प्रतापगढ़ के सामंत और पूर्व विधायक तथा कई बार मंत्री रह चुके रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया पर मायावती ने अंकुश लगाया. विशाल श्रीवास्तव/इंडियन एक्सप्रेस आर्काइव

मायावती के करीबी कई लोग बताते हैं कि लगातार उनकी जाति का स्मरण कराने और ‘दलित गंदे होते हैं’, जैसे भद्दे स्टीरियोटाइप ने मायावती पर गहरा असर किया है. इस साल भाजपा में शामिल हुए बसपा के पूर्व सांसद जुगल किशोर बताते हैं कि मायावती के ऑफिस में आने वालों को अपने जूते बाहर उतारने पड़ते हैं. किशोर ने बताया, ‘‘मायावती कहती हैं कि जूतों की गंदगी से संक्रमण फैलेगा.’’ ‘‘एक दलित औरत को इसकी चिंता क्यों है?’’ दूसरे नेता ने मुझे बताया, ‘‘वह अपने साथ मोबाइल टॉयलेट लेकर चलती हैं और सिर्फ उसी का इस्तेमाल करती हैं.’’

यहां तक की मीडिया जिसका काम नेताओं के बारे में निष्पक्षता से लिखना होता है उसने भी मायावती के लिए बहुत पूर्वाग्रही बर्ताव किया है. इनमें से अधिकांश बातें समाचारपत्रों और मैगजीन में नहीं बल्कि प्राईवेट में कही जाती हैं तो भी यह उनके प्रति के नजरिए और प्रकाशनों और चैनलों में उनकी छवि पर असर डाल सकता है. एक उच्च जाति के पुरुष पत्रकार ने, बिना इस बात को समझे कि वह खुद क्या हैं, मुझसे कहा, ‘‘मायावती एक अच्छी प्रशासक हैं लेकिन वह जातिवादी हैं.’’ लखनऊ के कुछ पत्रकार भाषाई गौरव से भरे पड़े हैं. लखनऊ, कानपुर और आसपास के इलाकों में, जो अवध क्षेत्र में आते हैं, हिन्दुस्तानी बोली जाती है. मायावती की बोली में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली की छाप है. ये पत्रकार हिन्दुस्तानी को उनकी बोली से ऊंचा मानते हैं. एक वरिष्ठ संपादक का कहना है, ‘‘उन्हें लोगों से बात करने की तमीज नहीं है. वह सब के साथ तू-तड़ाका करती हैं.’’

शायद यहीं वे कारण हैं जिनकी वजह से मायावती मीडिया से दूर होती गईं हैं. लेकिन मीडिया के साथ संबंध को खराब न करने को लेकर वह सतर्क हैं. उनकी अधिकांश प्रेस कॉन्फ्रेन्स एक तरफा होती हैं जहां वह आती हैं और अपनी बात रख कर चली जाती हैं. हालांकि अभी हाल में एक समाचारपत्र ने लिखा था कि आजकल वह उदार हुईं हैं. एक पत्रकार ने बताया, ‘‘हम जब सवाल करते हैं तो वह कहती हैं, खाना तैयार है खा लीजिए.’’ (बहुत से पत्रकार उनकी प्रेस कॉन्फ्रेन्स का इंतजार करते हैं क्योंकि मटन-चिकन खाने को मिलता है. समाजवादी पार्टी शाकाहारी भोजन कराती है. एक सवर्ण पत्रकार का कहना है, ‘‘मंगल के दिन भी मांसाहारी भोजन परोसा जाता है.’’ उत्तर भारतीय हिन्दू मंगलवार को मांस का सेवन करने से बचते हैं).

मीडिया के हमलों से बचने के प्रयास के रूप में मायावती अपने भाषणों को पढ़ने लगीं हैं. पार्टी के रणनीतिकार ने बताया कि मायावती ने उनसे एक बार कहा थी कि ‘‘जब मीडिया मेरे भाषणों को तोड़मरोड़ का पेश करता है तो या तो मैं अपना समय जवाब देने में लगा दूं या पार्टी को बनाने में और तो और अब तो कांशीराम साहब भी नहीं हैं. आप सब को पता ही होगा कि जबसे मैंने अपना भाषण पढ़ना शुरू किया है मीडिया ने एक बार भी मेरे कहे को गलत तरीके से नहीं छापा.’’

लेकिन जैसे जैसे वह पीछे हटने लगीं, वह जनता और पार्टी के सदस्यों से दूर होती चली गईं. एक वरिष्ठ बामसेफ नेता कहते हैं, ‘‘यह विश्वास करना मुश्किल है कि ये वही मायावती हैं जो गांव गांव जाकर साइकल रैलियां करती थीं.’’ ‘‘अब तो वह अपने पार्टी सदस्यों से भी आसानी से नहीं मिलतीं.’’ किशोर ने बताया कि मायावती ने पार्टी कार्यकर्ताओं के परिवारों में होने वाली शादियों में भी जाना बंद कर दिया है. हाल में वह सिर्फ पार्टी के नजदीकी सहयोगी एससी मिश्रा की तीन बेटियों की शादी में शामिल हुईं हैं.’’ बसपा के तीन पूर्व सदस्यों ने भी मुझसे यही शिकायत की.

मायावती की इस दूरी के बारे में बहुत अफवाह और मिथ फैलाए गए हैं. ‘‘मायावती को चिड़ियों की आवाज पसंद नहीं है’’, लखनऊ के एक पुरुष संपादक ने मुझ से कहा. लखनऊ के एक बुजुर्ग संपादक ने गुपचुप तरीके से मायावती के अपने घर में रात्रिकालीन वस्त्र में अधिकारियों से मिलने और फाइल साइन करने वाली बात बताते हैं. यह आदात संभवतः बहुत अधिक काम करने की उनकी आदत के चलते है. ‘‘मायावती को किसी ने बताया कि महारानी विक्टोरिया केवल गाउन पहनती थीं इसलिए वह घर में केवल गाउन पहनती हैं.’’ (मुलायम सिंह यादव ने सार्वजनिक मंच से मायावती को ‘‘महारानी’’ कहा था.)

कई लोग मायावती के खिलाफ गंदी अफवाहें उड़ाते हैं. एक हाई प्रोफाइल लखनवी ने मुझसे कहा, ‘‘मायावती को केवल गोर, जवान ब्राह्मण पसंद हैं.’’ इसके बाद उन्होंने जातिवादी अफवाहों की ऐसी बौछार लगा दी जो भारत में महिला नेता के लिए आमतौर पर कही जाती हैं.

बांदा जिले में मुझे एक सामाजिक कार्यकर्ता मिलीं जो ऐसी अफवाह फैलाने वालों को धिक्कराते हैं. वह कहती हैं, ‘‘मुलायम सिंह को दो-दो बीवियां रखने के लिए कोई कुछ नहीं कहता. लेकिन हर किसी को यह जानने की बड़ी पड़ी रहती है कि मायावती कांशीराम और दूसरे नेताओं के साथ क्या करती हैं.’’

बावजूद इसके कि उन्हें आसपास रहने वालों के पूर्वाग्रहों का समाना करना पड़ता है, मायावती ने मुख्यमंत्री के रूप में सख्ती से शासन चलाना तो सीख ही लिया है. जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और बसपा के नेता बताते हैं, ‘‘मायावती 365 दिन चैबीसों घंटे मीटिंग करने के लिए जानी जाती हैं.’’ मायावती के एक करीबी सहयोगी और ब्यूरोक्रेट का कहना है, ‘‘कई बार हम लोग अगले दिन का कामकाज तय करने के लिए विधायकों को रात के तीन बजे फोन लगा देते थे. अक्सर मुख्यमंत्री कार्यालय आधी रात में खोल कर बहनजी के ऑडर्र को तत्काल लागू करने के लिए जिला मजिस्ट्रेट को फेक्स करना होता है. बहनजी चार या पांच घंटे ही सोती हैं. वह पागलों की तरह काम करती हैं.’’ आरंभ में पार्टी की पहचान भाई-भतिजावाद की बनी लेकिन मध्य यूपी के एक बसपा कार्यकता का कहना है कि इसके लिए बहनजी से ज्यादा कांशीराम जिम्मेदार हैं. कांशीराम के बीमार हो जाने के बाद मायावती के कामकाज के स्टाइल में सुधार आया.

जयललिता और ममता बनर्जी की तरह मायावती भी अपने विश्वसनीय ब्यूरोक्रेटों के साथ काम करती हैं न कि पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ. दिल्ली में रहने वालीं महिला अधिकार कार्यकर्ता ने मुझे बताया कि ‘ऐसा इसलिए है ‘‘महिला होने के कारण पार्टी के भीतर लगातार उन पर नजर रखी जाती है. उससे बचने के लिए वह ऐसा करती हैं.’’

इन नौकरशाहों को अपने कोर समर्थन आधार के प्रति मायावती की गहरी प्रतिबद्धता का पता है और नए-नए तरीके अपना कर काम करने के उनके मिजाज को भी ये लोग जानते हैं. मायावती के साथ करीब से काम करने वाले पूर्व मुख्य सचिव ने मुझे बताया कि जनवरी 2008 में प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई का प्रस्ताव लेकर वे मायावती के पास गए. उस समय छठी से ही अंग्रजी की पढ़ाई शुरू होती थी. पहले तो मायावती ने एकदम ही मना कर दिया. वह बताते हैं ‘‘उत्तर प्रदेश में अलग अलग नेताओं से डील करने का तरीका नौकरशाह सीख जाते हैं. मायावती के मामले में ऐसा है कि आप प्रस्तावों को बहुत पुश नहीं कर सकते क्योंकि इससे वह शक करने लगती हैं कि कहीं यह आदमी अपने फायदे की तो नहीं सोच रहा.’’ मायावती को मनाने के लिए इस पूर्व मुख्य सचिव ने 2001 के जनगणना रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि राज्य में दलितों की साक्षरता दर 43 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय साक्षरता दर 57.7 प्रतिशत से बहुत कम है. फिर उन्होंने मुख्यमंत्री को समझाया कि अधिकांश दलित बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं और इस योजना से वे ही सबसे अधिक लाभांवित होंगे. मायावती ने उसी दिन उस योजना का पास कर दिया. ‘‘वह हमेशा वही करती हैं जो उनके वोट आधार के अपील करता है. चाहे यह बात हो या कानून और व्यवस्था में कड़ाई करने की बात.

दूसरे दूरगामी उपाय के तहत मायावती ने तकरीबन 400 गांवों में सड़कों का सुधार किया. उच्च जाति वाले लोग दलितों को अक्सर मुख्य सड़क पर चलने नहीं देते. उन लोगों को मलीन बस्ती के अंदर की सड़कों तक सीमित किया जाता है. मलीन बस्तियां अक्सर बसावट के दक्षिण में होती हैं. बामसेफ के पूर्व नेता पीसी कुरील कहते हैं, ‘‘ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह माना जाता था कि हवा उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है. उच्च जाति के लोग उस हवा में सांस नहीं लेना चाहते जो दलितों को छू कर उन तक पहुंचती है.’’ मुख्य सड़क तक पहुंच न होने से दलितों के लिए गांवों से बाहर सफर करना कठिन होता है. इस समस्या का समाधान करने के लिए मायावती ने अलग से ऐसी सड़कों के निर्माण का आदेश दिया जो सीधे गांव के बाहर जुड़ती हों.

पूर्व सहयोगी और ब्यूरोक्रेट 2008 की एक घटना को याद करते हैं. मथुरा में दो महीने पहले बने एक नाले का जायजा लेने के लिए मायावती हेलीकॉप्टर से पहुंची. हालांकि यह उनके प्रसिद्ध सरप्राइज चेक में से एक था लेकिन मथुरा के कलेक्टर को इसकी खबर लग गई थी. उसने आनन फानन में नाले का निर्माण करवा दिया. मायावती के साथ गए यह ब्यूरोक्रेट बताते हैं कि मायावती ने नाले को एक लात मारी और पता कर लिया कि इसे तुरंत ही बनाया गया है. गांव वाले देख रहे थे. हेलीकॉप्टर पर चढ़ने से पहले मायावती ने कलेक्टर से कहा, ‘‘तू तो गया.’’ शाम को ही कलेक्टर का ट्रांसफर हो गया. गांव वाले खुशी से झूम उठे. ‘‘अपने कोर वोट आधार के साथ महसूसियत बनाने का यह उनका तरीका है.’’

‘‘केवीबीएल फार्मूला’’ जैसे उपायों से कानून पर नियंत्रण रखने के मायावती के प्रयासों की बहुत सराहना की गई. ‘‘केवीबीएल’’ का मतलब है करम वीर और ब्रिज लाल. मुख्यमंत्री के रूप में मायावती के अंतिम कार्यकाल में यह दोनों दलित पुलिस अधिकारी पुलिस महानिदेशक थे. इस नीति के तहत यह सुनिश्चित करने के लिए कि पुलिस बल निष्पक्षता से काम कर रहा है, इन अधिकरियों ने सभी स्टेशन हाउस अफसरों की तैनाती उनके गृह जिलों से बाहर की. एसएचओं को कह दिया गया कि उनके इलाके में किसी भी सांप्रदायिक हिंसा की जिम्मेदारी उन पर होगी. कई मौजूदा और पुराने अफसर बताते हैं कि उन लोगों को यह अशुभ चेतावनी भी दी गई कि अगर शांति बनाए रखने में वे विफल हुए तो उन लोगों की निजी जायदाद को जब्त कर लिया जाएगा. इन कदमों ने पुलिस बल के अंदर जवाबदेहिता की जबरदस्त भावना पैदा की और यह बात सुनिश्चित हो सकी कि मायावती के शासन में एक भी दंगा नहीं हुआ.

एक कुशल प्रशासक होने के साथ साथ मायावती ने अपनी ताकत का शानदार प्रदर्शन किया. ऐसा करते वक्त उन्होंने कई ऐसे लोगों से दुश्मनी ली जिनके सामने दूसरे नेता दुम दबा लेते हैं. इनमें सबसे ज्यादा कुख्यात नाम था रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया का. सामंती परिवार के राजा भैया का प्रतापगढ़ इलाके में कहर है. उनके ऊपर अवैध रूप से हथियार रखने, हत्या और अपहरण जैसे 48 के अधिक आपराधिक मामले दर्ज हैं. लोग कहते हैं कि वह अपनी कोठी में बने तलाब में मगरमच्छ पालते थे और अपने दुश्मनों को इस तलाब में फेंक देते थे.

भाजपा के नेता राजनाथ सिंह और कई नामी नेताओं के आशीर्वाद से राजा भैया 20 साल तक राज्य की राजनीति में बने रहे. वह कई बार कैबिनेट मंत्री बने. हाल ही में वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने राजा भैया को खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री बनाया है.

2002 में जब मायावती सत्ता में आईं तो उन्होंने खतरनाक कानून आतंकवाद रोकथाम कानून के तहत राजा भैया को गिरफ्तार करने का आदेश दिया. इस अकल्पनीय कदम ने दूसरी पार्टियों को सकते में डाल दिया. तब तक इस कानून को केवल मुस्लिम आतातायिओं के खिलाफ ही इस्तेमाल किया गया था. राजा भैया को लगभग एक साल तक जेल में रहना पड़ा और 2003 में जब मुलायम सिंह यादव की सरकार बनी तब जाकर वह जेल से छूटे. राजा भैया के करीबी ठाकुर नेताओं का कहना है कि वह अक्सर दावा करते हैं कि वह ‘‘चमारिन को सबक सिखा के रहेंगे.’’ भाजपा के एक बड़े नेता ने मुझे बताया कि मायावती का यह कदम अक्ष्मय अपराध था क्योंकि ‘‘चमारिन ने ठाकुर को गिरफ्तार कर अपमानित किया था, सामाजिक तानेबाने को उल्टा पुल्टा करके रख दिया था.’’

8 अक्टूबर को शाम के शाम 4 बजे, कांशीराम की पुण्यतिथी के एक दिन पहले ट्रकों और टेम्पुओं ने लखनऊ की मुख्य सड़क को ब्लॉक कर दिया है. 20 साल के आस पास की औरत उत्तर प्रदेश में प्रचलित सीधे पल्ले की साड़ी पहने टैम्पू के पिछले हिस्से में लोगों के साथ खड़ी है. वह मंद-मंद चल रही हवा का लुतफ उठा रही है. फिर हवा का झोंका उसके सर से पल्ला उड़ा देता है. हिन्दी फिल्मों के किसी सीन की तरह का नजारा है.

बीते सालों में मायावती मीडिया, जनता और अपनी ही पार्टी के सदस्यों से दूर होती गईं. प्रशासनिक कामों में पार्टी सहयोगियों की जगह विश्वासपात्र नौकरशाहों पर अधिक निर्भर रहने लगीं. दीपक गुप्ता/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

जैसे ही गाड़ी ट्रैफिक लाइट के पास पहुंचती है वह प्लेकार्ड उठा लेती है. प्लेकार्ड पर लिखा है, ‘‘चढ़ गुंडों की छाती पे, मुहर लगेगा हाथी पे’’. आलीशन गोमती नगर इलाके के अंबेडकर स्मृति पार्क में टेम्पो रुकता है.

इस समूह में 25 लोग है. ये सभी मिर्जापुर जिले के लालगंज से आए हैं. लाइन लगाकर ये लोग पार्क में प्रवेश करते हैं. इस पार्क में अंबेडकर की मूर्ति, संग्रहालय, गैलरी है और एक 80 फीट ऊंचा पिरामिड जैसा भवन है जिसे दृश्य स्थल कहते हैं.

नारे लगाने वाली महिला का नाम पद्मावती है. उसके साथ प्रभावती, कलावती, दुर्गावती और प्रेमवती हैं. पद्मावती बताती हैं, ‘‘हमारे गावं की अधिकांश औरतों का नाम मायावती है.’’ इन औरतों ने कपड़े, कागज और टिफिन में रखा खाना निकाला और आराम से लॉन में बैठ कर खाने लगीं.

‘‘तुम्हें यह जगह पसंद है?’’ मैंने पदमावती से जानना चाहा.

‘‘यह जगह हमारे लिए तीर्थस्थल है. आपने देखा नहीं कि किसी ने भी हमें अंदर आने से नहीं रोका’’, पद्मावती के कहा.

‘‘आप लोगों को लखनऊ की किन जगहों पर रोका जाता है?’’

‘‘लोग कहते हैं कि हम लोग लखनऊ घूमने आते हैं. बहनजी की रैली में नहीं जाते. लेकिन कौन हमें मॉल में घुसने देते हैं?’’ कहते हुए पद्मावती ने पार्क के बाहर स्थित मॉल की तरफ इशारा किया. ‘‘इससे पहले हम लोगों को मंदिर में नहीं जाने दिया जाता था क्योंकि हम लोग अछूत हैं. लेकिन अब हम लोग कुछ मंदिरों में जा सकते है लेकिन मॉल में नहीं जा सकते क्योंकि हम लोग गरीब हैं ‘‘कहते हुए वह एक कृत्रिम झरने के पास चली गई. यह भीम गंगा है जो पिरामिड के ऊपर से निकल कर पार्क में बहती है.

पद्मावती के पास बहुत सारी खाली प्लास्टिक की बोतलें हैं और वह इसमें झरने का पानी भर लेती है. पार्क में आने वाले कई लोग भीम गंगा के पानी को घर ले जाते हैं. ऐसा लगता है कि भीम गंगा जल इन लोगों के भीतर उसी तरह की पवित्र भावना पैदा करता है जैसी भावना गंगा जल हिन्दुओं के अंदर पैदा करती है. धार्मिक कामों के लिए हिन्दू गंगा जल को घरों में रखते हैं. ‘‘यह हमारा तीर्थ है और बजनजी जितनी बार बुलाएंगी हम उतनी बार आएंगे. यहां हमें कोई नहीं रोक सकता.’’

आज के भारत में होने वाली राजनीतिक रैलियों में आने वाले लोगों को पैसा और खाना दिया जाता है. गांवो और छोटे शहरों के लोगों को कई बार यह लालच भी दिया जाता है कि उन्हें बड़ा शहर घूमने को मिलेगा. भाग लेने वालों को काम छूटने के दिनों की दिहाड़ी भी दी जाती है. बसपा तीस सालों से सक्रीय है. दूसरी पार्टियों की तरह ही धन और भ्रष्टाचार इसके अस्तित्व के लिए आवश्यक हो गया है. तब भी आज उसके पास ढेरों ऐसे कार्यकर्ता हैं जो मायावती को सुनने के लिए रेल का टिकट खरीद कर आते हैं और अपना खाना साथ लेकर आते हैं. उस दिन रैली में आए कई लोगों ने मुझसे कहा, ‘‘यह खरीदी हुई भीड़ नहीं है.’’

मैंने पद्मावती से पूछा, ‘‘बहनजी ने बहुत कमाई की है. उनके ढेरों घर हैं. हीरा पहनती हैं और जन्मदिन में बड़ी बड़ी पार्टियां करती हैं. तुम्हारे लिए उन्होंने क्या किया है?’’

मेरे सवाल से पद्मावती भड़क गई. वह बोली, ‘‘जब नेताजी-मुलायम सिंह- इस साल अपने जन्म दिन के अवसर में रामपुर में रथ पर सवार हुए और दावत दी तो किसी ने कुछ नहीं कहा.’’

‘‘लेकिन लोग कहते हैं कि बहनजी से कोई मिल नहीं सकता?’’

‘‘तो आपको क्या लगता है कि हम जैसे गांव-देहात के लोग अखिलेश, राहुल गांधी, नेताजी और मोदी से मिल सकते हैं? सारे बड़े नेता केवल रैलियों में ही मिलते हैं. बहनजी भी यहीं मिलती हैं. देखो, वह गांव गांव जाकर लड्डू पूरी तो नहीं बांट सकती ना.’’ मैं उस दिन जिन भी महिलाओं से मिली वह सभी पद्मावती की तरह तार्किक और बोलने में तेज थीं. इससे पहले ऐसी औरतें केवल वाम दलों की रैलियों में ही देखी थीं मैंने.

अब पद्मावती को मुझ पर शक होने लगा था. उसने पूछा, ‘‘कौन जाति की हो?’’

‘‘ब्राह्मण हूं’’, मैंने जवाब दिया.

‘‘इसीलिए तो’’, उसने तपाक से कह दिया.

जिस दिन मैं पद्मावती से मिली थी उस दिन, पार्टी के अनुमानुसार, कांशीराम की दसवीं पुण्यतिथी समारोह में भाग लेने उनके नाम पर बने इको पार्क में 15 लाख लोग जमा हुए थे. गार्डन के बाहर दलित साहित्य, प्रचार सामग्री, खाने-पीने का सामन, पानी और आइसक्रीम की छोटी दुकानें सजी थीं. ऐसा लग रहा था कि मेला लगा है.

मायावती तय समय से दो घंटे बाद पहुंची. अपने भाषण के शुरू में ‘‘छोटे छोटे संसाधन जुटा कर वहां आने के लिए’’ उन्होंने लोगों को धन्यवाद दिया. दर्शकों ने ताली बजा कर उनका स्वागत किया.

पूर्व की सफलताओं और रैडिकल रणनीति के बावजूद अक्सर मायावती की लोग यह कह कर आलोचना करते हैं कि उन्होंने अपनी राजनीति में जरूरी बदलाव नहीं किए. इस बात के सबूत के तौर पर लोग उनकी पार्टी में नेताओं की कमी की ओर इशारा करते हैं. पार्टी के रणनीतिकार कहते हैं, ‘‘मायावती को पता है कि पार्टी के सांसद, एमएलए अपने आप में कुछ नहीं हैं. पार्टी के बिना उनकी कोई हैसियत नहीं है. वह लोगों को राज्यसभा भेजती हैं और अपने गुणाभाग के अनुसार इस्तीफा दिलवाती हैं. ऐसा इसलिए नहीं कि उन लोगों में नेतृत्व कौशल नहीं है.’’

2012 में अखिलेश, नि:शुल्क लैपटॉप बांटने की घोषणा कर सत्ता में आए. अबकी बार जीतने पर वह नि:शुल्क स्मार्ट फोन देने की बात कर रहे हैं. मायावती ने कभी भी वैश्विक जनकल्याण योजनाओं की घोषणा नहीं की. बसपा चुनावों से पहले घोषणापत्र जारी नहीं करती. इस बारे में एक रणनीतिकार कहना है, ‘‘हम झूठे वादे नहीं करते. हम सिर्फ अपने संसाधनों के हिसाब से काम कर सकते हैं. बाबासहेब अंबेडकर का लिखा संविधान हमारा घोषणापत्र है और अपनी विकास नीतियों में उसी का अनुसरण करते हैं.’’

‘मायावती निरंकुश और पहुंच से बाहर हो गईं हैं’ जैसी आलोचना के बारे में पार्टी के एक पूर्व वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘‘भारत सिर्फ चुनावों के समय ही लोकतांत्रिक होता है. किस पार्टी में अंतर-पार्टी लोकतंत्र है-कांग्रेस में, आप में, सीपीएम? बसपा इन सबों सेअलग पार्टी नहीं है.’’

जब यह बात मैंने पद्मावती से पूछी तो उसने भी अपनी नेता का बचाव किया. उसने कहा, ‘‘तो क्या हुआ कि हम मायावती तक नहीं पहुंच सकते? हम पुलिस में जा सकते हैं, सरकार तक जा सकते हैं. क्या यह कम है? गार्डन में जब रैली समाप्त हो गई और पद्मावती अपने साथी गांव वालों के साथ लौटने लगी तो उसने मुझसे कहा, ‘‘यदि बहनजी वहां तक पहुंच गईं हैं तो कम से कम हम लोग सपने में वहां तक पहुंच सकते हैं. उन्होंने हमे सपना देखना और अपने आप पर भरोसा करना सिखाया है. उनके आने से पहले दलित औरतों के लिए यह असंभव बात थी.’’

(द कैरवैन के फरवरी 2017 अंक में प्रकाशित)