दिल्ली के रकाबगंज गुरुद्वारा स्थित अपने आवास के लिविंग रूम में मायावती टीवी के सामने बैठी हैं. लगता है जैसे घर में मातम है. बात 16 मई 2014 की दोपहर की है. सोलहवें लोकसभा चुनाव के परिणामों की गिनती चल रही है. बहुजन समाज पार्टी के लिए अच्छी खबर नहीं है. साफ है कि बीजेपी के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने बसपा को पटखनी दे दी है और बहुमत की ओर अग्रसर है.
मायावती जिस सोफे पर बैठी हैं उस पर पड़े तौलिए पर उन्हें दाग दिखाई देता है. वह नौकर को बुलाती हैं और लापरवाही के लिए डांट लगाती हैं. ‘‘वे सफाई के लिए पागल हैं’’, उस दिन वहां मौजूद बसपा के नेता ने मुझे बताया. ‘‘घर में रोजाना तीन बार पोंछा लगता है.’’
फिर मायावती शिकायत करती हैं कि कमरा गरम है और एसी का रिमोट ढूंढने लगती हैं. उस नेता ने मुझे बताया, ‘‘टीवी, एसी और तमाम सारे रिमोट सेन्टर टेबल पर करीने से रखे मिलने चाहिए.’’ उस दिन एसी का रिमोट वहां नहीं था. दूसरी बार नौकरों को डांट खानी पड़ी. रिमोट ढूंढ कर टेबल पर रख दिया गया. परिणाम आते जा रहे थे और पार्टी के साथी और स्टाफ मायावती को शिकायत का मौका नहीं देना चाहते थे.
शाम चार बजे तक नतीजे स्पष्ट हो गए थे. बसपा को देश भर में 4.2 प्रतिशत वोट मिला था. मत प्रतिशत में वह सिर्फ बीजेपी और कांग्रेस से पीछे थी. इस सम्माजनक प्रतिशत के बावजूद उसका खाता नहीं खुला था. मतों ने बसपा को न कार्यकारी शक्ति और न विधायकी ताकत दी. अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में पार्टी खाता नहीं खोल पाई. 80 में से 33 सीटों में वह दूसरे स्थान पर थी. 1989 में पहली बार चुनाव लड़ने से लेकर आज तक बसपा ने उत्तर प्रदेश में हुए हर चुनाव में थोड़ी बहुत सीटें जीती थी.
पिछले सालों में मायावती ने अपने आवास का चयन राजनीति में अपने प्रभाव के आधार पर किया था. जब तक बसपा की सरकार थी वह उत्तर प्रदेश में रहीं और बाद में दिल्ली आ गईं. 2003 में बीजेपी के समर्थन वापस लेने के बाद उनकी सरकार गिर गई थी और वह दिल्ली आ गईं थी जहां मायावती ने अपने बीमार गुरु कांशीराम की सेवा की. 2006 में कांशीराम के निधन के बाद वह लखनऊ लौट आईं और 2007 के विधान सभा चुनावों की तैयारी में लग गईं. उस चुनाव में बसपा की जीत हुई और अगले पांच साल मायावती उत्तर प्रदेश में रहीं. 2012 में चुनाव हारने के बाद वह राज्यसभा के सदस्य के रूप में वापस दिल्ली आ गईं. ‘‘वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष की नेता के रूप में कभी नहीं रहतीं’’, उनकी पार्टी के एक मुख्य रणनीतिकार ने मुझे बताया. ‘‘वह हमेशा राज्यसभा के सदस्य के रूप में दिल्ली आ जाती हैं. यदि उत्तर प्रदेश में शासन नहीं कर रही हैं तो वह राष्ट्रीय राजनीति में अपना समय लगाना चाहती हैं क्योंकि उनके गुरु कांशीराम इस मोर्चे को संभालने के लिए अब जिंदा नहीं हैं.
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