पिछले साल अगस्त में कडती सुक्का की दुनिया तबाह हो गई. उस समय बस्तर में भारी बारिश हो रही थी. एक मध्यम आयु वर्ग के आदिवासी किसान सुक्का की चिंता पुलिस के बार-बार गांव गोमपाड़ के चक्कर लगाने से बढ़ती ही जा रही थी. उसके 14 साल के बेटे अयाता को आश्रम के स्कूल की छठी क्लास में दाखिला नहीं मिला था इसलिए वह घर पर ही था. सुक्का ने मुझे बताया, “वे लोग जब भी आते हैं, लोगों को पीटते और परेशान करते हैं. खास तौर से वे युवाओं को टारगेट करते हैं और अगर वे मिल जाते हैं तो उन्हें उठा ले जाते हैं.”
5 अगस्त की शाम को खबर फैली कि पुलिस गांव के करीब चक्कर लगा रही है. अयाता और गांव के सरपंच सोयम चंद्र समेत लगभग 20 युवक गोमपाड़ से लगभग चार किलोमीटर दूर एक पड़ोसी गांव नुलकातोंग के खेतों की एक लाड़ी की ओर रात बिताने के लिए भागे. लाड़ी एक ढांचे जैसा होता है, जिसे गांव वाले मानसून में शरण लेने के लिए अपने खेतों के करीब बनाते हैं.
अपने बेटे की सुरक्षा के भय और रक्षा के लिए सुक्का ने नुलकातोंग तक उसका पीछा किया. उस रात लाड़ी में लगभग 40 लोग थे. दूसरे गांवों के युवाओं को भी पता चला था कि पुलिस आने वाली है. अगली सुबह वे गोलियों की आवाज से जागा. सुक्का याद करता है, “फोर्स ने अचनाक हमला कर दिया. सब भाग रहे थे तो मैं भी भाग गया.” सुक्का के पांव में गोली लगी लेकिन वो रुका नहीं. डर और भ्रम के माहौल में उसका और अयाता का साथ छूट गया.
अगले दिन बस्तर के स्थानीय अखबारों में हरे और पीले रंग की प्लास्टिक की रस्सियों से बंधे काले पॉलीथिन बैगों में लाशों की लंबी कतार की तस्वीरें छपीं. अखबार ने छापा कि सुरक्षा बलों को नुलकातोंग गांव में बड़ी सफलता मिली है, जिसमें 15 माओवादी मारे गए थे. राज्य के अधिकारियों ने इसे "छत्तीसगढ़ में नक्सल विरोधी अभियान की सबसे बड़ी सफलता" कह कर, ‘ऑपरेशन मानसून’ की महत्वपूर्ण उपलब्धि बताया. अयाता और चंद्रा भी मृतकों में शामिल थे.
कमेंट