पिछले साल अगस्त में कडती सुक्का की दुनिया तबाह हो गई. उस समय बस्तर में भारी बारिश हो रही थी. एक मध्यम आयु वर्ग के आदिवासी किसान सुक्का की चिंता पुलिस के बार-बार गांव गोमपाड़ के चक्कर लगाने से बढ़ती ही जा रही थी. उसके 14 साल के बेटे अयाता को आश्रम के स्कूल की छठी क्लास में दाखिला नहीं मिला था इसलिए वह घर पर ही था. सुक्का ने मुझे बताया, “वे लोग जब भी आते हैं, लोगों को पीटते और परेशान करते हैं. खास तौर से वे युवाओं को टारगेट करते हैं और अगर वे मिल जाते हैं तो उन्हें उठा ले जाते हैं.”
5 अगस्त की शाम को खबर फैली कि पुलिस गांव के करीब चक्कर लगा रही है. अयाता और गांव के सरपंच सोयम चंद्र समेत लगभग 20 युवक गोमपाड़ से लगभग चार किलोमीटर दूर एक पड़ोसी गांव नुलकातोंग के खेतों की एक लाड़ी की ओर रात बिताने के लिए भागे. लाड़ी एक ढांचे जैसा होता है, जिसे गांव वाले मानसून में शरण लेने के लिए अपने खेतों के करीब बनाते हैं.
अपने बेटे की सुरक्षा के भय और रक्षा के लिए सुक्का ने नुलकातोंग तक उसका पीछा किया. उस रात लाड़ी में लगभग 40 लोग थे. दूसरे गांवों के युवाओं को भी पता चला था कि पुलिस आने वाली है. अगली सुबह वे गोलियों की आवाज से जागा. सुक्का याद करता है, “फोर्स ने अचनाक हमला कर दिया. सब भाग रहे थे तो मैं भी भाग गया.” सुक्का के पांव में गोली लगी लेकिन वो रुका नहीं. डर और भ्रम के माहौल में उसका और अयाता का साथ छूट गया.
अगले दिन बस्तर के स्थानीय अखबारों में हरे और पीले रंग की प्लास्टिक की रस्सियों से बंधे काले पॉलीथिन बैगों में लाशों की लंबी कतार की तस्वीरें छपीं. अखबार ने छापा कि सुरक्षा बलों को नुलकातोंग गांव में बड़ी सफलता मिली है, जिसमें 15 माओवादी मारे गए थे. राज्य के अधिकारियों ने इसे "छत्तीसगढ़ में नक्सल विरोधी अभियान की सबसे बड़ी सफलता" कह कर, ‘ऑपरेशन मानसून’ की महत्वपूर्ण उपलब्धि बताया. अयाता और चंद्रा भी मृतकों में शामिल थे.
मैं सुक्का से एक हफ्ते बाद उसके घर पर मिली. घर के गीले आंगन में पुराने टायर पर बैठे सुक्का की आंखें नजर नहीं आ रही थीं, उसने बताया कि अयाता की मौत किन वजहों से हुई. उसने बुदबुदाते हुए कहा, “काश कि मेरा बेटा उस दिन नहीं गया होता तो वह जिंदा होता.”
मृतकों के रिश्तेदारों में ज्यादातर महिलाएं थी, जिन्हें शवों को लेने के लिए कोंटा तक पैदल जाना पड़ा. एक बार वहां पहुंचने के बाद उन्हें पता चला कि लाशों को पोस्टमार्टम के लिए जिला मुख्यालय सुकमा ले जाया गया है. इसलिए अगले दो दिन तक वो अंतिम संस्कार के लिए शरीर को घर नहीं ले जा सके. पुलिस ने शवों को बांदा में छोड़ दिया और रिश्तेदारों को उन्हें 15 किलोमीटर दूर अपने गांव वापस पैदल ले जाना पड़ा.
एक असल मुठभेड़ का मतलब होता कि पुलिस ने जवाबी कार्रवाई में बल और गोली चलाने का बराबर अनुपात में इस्तेमाल किया होता. जबकि नुलकातोंग की घटना को असली मुठभेड़ के रंग में रंग दिया गया, करीब से देखने पर लगा कि ये एक फर्जी मुठभेड़ है. पुलिस ने जो आधिकारिक कहानियां बताईं सिर्फ उनमें ही विसंगतियां नहीं हैं, बल्कि सुबूतों को इकट्ठा करने में भी भारी अनियमितताएं हैं.
उस सुबह जो हुआ उससे जुड़ी कई कहानियां हैं. राज्य अधिकारियों ने दावा किया कि यह माओवादियों द्वारा घात लगाकर किया गया एक हमला था, जिसे सुरक्षा बलों ने सफलतापूर्वक असफल किया. माओवादियों ने दावा किया कि पुलिस ने निहत्थे ग्रामीणों को पकड़ा, उन्हें एक पहाड़ी पर ले गई और गोली मार दी. ज्यादातर मुख्याधारा की मीडिया ने सरकारी कहानी को पेश किया और बाकी की रिपोर्टों में दावा किया गया कि लाड़ी में उस रात ऐसा कोई नहीं था, जिसका माओवादियों से ताल्लुक हो.
इनमें से कई कहानियों से खुद गांव वालों की आवाजें गायब थीं. जैसा कि किसी और के साथ, गांव वाले भी छल कपट कर सकते हैं या फिर उनकी याददाश्त कमजोर हो सकती है. लेकिन नुलकातोंग एनकाउंटर में असल में क्या हुआ था, इस सच्चाई को करीब लाने में हमारे लिए सबसे मददगार आवाजें उनकी ही थीं.
नुलकातोंग, दक्षिणी छत्तीसगढ़ के एक जिले सुकमा के कोंटा ब्लॉक में एक छोटा सा इलाका है. जंगलों के घने भीतर होने की वजह से यहां पहुंचना मुश्किल है. एक निश्चित दूरी के बाद गाड़ी ले जाने लायक सड़कें नहीं हैं. सबसे पास का शहर लगभग 20 किलोमीटर दूर है. कोंटा, ब्लॉक मुख्यालय से सबसे सीधे रास्ते पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल का चेक पोस्ट है. सीआरपीएफ, यहां से आने-जाने वालों की विस्तृत जानकारी रजिस्टर में एंट्री करवाती है. जैसा कि मैंने पहले एक बार अनुभव किया था, बाकी मामलों में लोगों को वापस भेज सीआरपीएफ चेक पोस्ट और कोंटा पुलिस स्टेशन के बीच का चक्कर लगवाया जाता है. जहां अंदर जाने से जुड़ी विरोधाभासी चीजों की मांग की जाती है.
इस वजह से पुलिस जांच में उलझे बिना वहां पहुंचने के लिए मैंने इससे काफी लंबा रास्ता चुना. जिसके लिए मुझे राज्य की सीमा पार करनी पड़ी. सात नदियां पार कर और बीच के गांवों में रात गुजार मैं नुलकातोंग पहुंची. मुठभेड़ के बारे में स्थानीय मीडिया की रिपोर्ट पढ़ने के बाद मैं जांच के उद्देश्य से वहां ये जानने गई थी कि अखिर हुआ क्या था? जिनसे मैं रास्ते में मिली, उनसे घटना के बारे में काफी कुछ पता चला. सुकमा के पुलिस अधीक्षक अभिषेक मीणा ने मुझे बताया कि पुलिस ने हमेशा लोगों को सच्चाई जानने के लिए प्रोत्साहित किया है, लेकिन जैसा मुझे पता चला, जमीन पर स्थिति उनके दावे से कहीं मेल नहीं खाती. नुलकातोंग मामले में अभी तक दर्जनभर से अधिक स्वतंत्र जांचें हुईं हैं जिनमें सबको बाधाओं का सामना करना पड़ा है. सदी में पुलिसवालों ने काफी दूरी तक मेरा पीछा भी किया. पुलिस ने गोलीबारी के बाद मुठभेड़ की जगह पर गए मृतक परिवार के सदस्यों और महिलाओं के एक समूह को पीटा भी. एक स्वतंत्र पत्रकार लिंगाराम कोडोपी ने सोशल मीडिया पर उनकी चोटों की तस्वीरों को सार्वजिनक किया, जिनमें पैरों और पीठ पर गहरे चोट के निशान थे. जब मैंने मीणा से घटना के बारे में पूछा तो उन्होंने इसे धक्का-मुक्की करार दिया.
क्षेत्र में पुलिस की भारी तैनाती कोई बड़ी बात नहीं है. पिछले डेढ़ दशक से बस्तर, संघर्ष और युद्ध का पर्याय रहा है. यह क्षेत्र भारतीय सुरक्षा बल और माओवादियों के बीच सशस्त्र संघर्ष का एक केंद्रीय बिंदू रहा है. 1980 के दशक की शुरुआत में नक्सलियों ने पहली बार तेलंगाना के पास जंगली इलाकों में प्रवेश किया. जैसे-जैसे वो आगे बढ़ते गए, उन्हें आदिवासियों की गरीबी और गैर-आदिवासी व्यापारियों और ठेकेदारों द्वारा उनके शोषण के बारे में पता चला. उस समय राज्य के इन हिस्सों में राज्य के प्रतिनिधि के तौर पर फॉरेस्ट गार्ड और पुलिस वाले थे, जो अक्सर भ्रष्ट होते थे. माओवादियों ने स्थानीय मुद्दों को लेकर लोगों को संगठित करना शुरू किया और धीरे-धीरे इस इलाके में अपनी पैठ जमाई. जंगलों ने उन्हें आश्रय के साथ-साथ एक आधार दिया, जहां से वो गुरिल्ला गतिविधियों का संचालन कर सकें.
छत्तीसगढ़ खनिजों से भरे जंगलों का घर है. इसकी 32 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है. यहां कोयले और लौह अयस्क जैसे लगभग 30 तरह के खनिज पदार्थ पाये जाते हैं. 2003 में सरकार ने “खनिज अन्वेषण और राज्य में खनन गतिविधियों के विकास” को सक्षम बनाने के लिए ‘छत्तीसगढ़ खनिज विकास निधि अधिनियम’ पारित किया. तीन साल बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की कि माओवादी देश की "सबसे बड़ी आंतरिक सुरक्षा चुनौती" हैं. सिंह ने इसके समाधान के लिए राजनीति की जगह सैन्य बल की आवश्यकता पर जोर दिया. माओवादी विद्रोह को समाप्त करने के लिए सरकार ने सुरक्षा बलों पर बहुत अधिक भरोसा जताया. इसके लिए उन्हें शानदार हथियारों के साथ-साथ, इसे समाप्त करने के अभियान में किसी सजा से बचने का ‘अभयदान’ भी दिया गया.
साल 2005 में सरकार ने ‘सलवा जुडूम’ यानि ‘शुद्धिकरण शिकार को नक्सलियों के खिलाफ एक स्वत:स्फूर्त,’ को असंतोष से भरा शांतिपूर्ण आंदोलन करार दिया. हालांकि, जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि यह एक राज्य-प्रायोजित, रणनीतिक बाधा पैदा करने के लिए एक प्रकार से हिंसक अभ्यास था. जिसके तहत विद्रोहियों को उनके बेस एरिया के लोगों से दूर कर, स्थानीय लोगों को जबरदस्ती उनके गांवों से बाहर सरकारी कैंपों में ले जाया गया. भारत के अन्य हिस्सों जैसे नागालैंड और मिजोरम में भी इस तरह के अभियान चलाए गए हैं. इनमें भारी पैसा खर्च कर, भीड़ को हथियारबंद किया गया और आदिवासियों को वश में करने के लिए इनसे सैन्य बलों के अधीन काम कराया गया. साथ ही सरकार ने खुलेआम आंदोलन को कमजोर करने के लिए माओवादियों के व्यापक आधार को नष्ट करने के अपने इरादे की घोषणा की.
दोनों तरफ की गोलीबारी में नागरिक भी मारे गए हैं. पानी में मछली की तरह लोगों के बीच घूम रहे गुरिल्ला लड़ाकों के रूपक को अक्सर राज्य द्वारा अपने कर्मों का औचित्य साबित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. उन दिनों सैकड़ों गांव जला दिए गए, हजारों लोग विस्थापित हुए, जिन्हें या तो सरकारी शिविरों में शिफ्ट होना पड़ा या हिंसा से दूर होने के लिए जंगलों या राज्य की सीमाओं को पार कर पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा. माओवादियों से कनेक्शन के शक की वजह से सैकड़ों ग्रामीणों को चिन्हित कर मार डाला गया. दूसरों के साथ भी गलत समय पर गलत जगह पर होने की वजह से ऐसा ही हुआ. लगभग 100 महिलाओं से रेप किया गया, डराना और धमकियां देना तो आम था. जिससे भय का एक सामान्य वातावरण व्याप्त हो गया.
भले ही सलवा जुडूम के दौर में कहर बरपा और शायद ही कुछ हासिल हुआ. लेकिन फिर भी 2009 में कुख्यात “ऑपरेशन ग्रीन हंट” सहित कुछ इसी तरह के ऑपरेशन किए गए. बस्तर से शुरू किया गया ये ऑपरेशन झारखंड और ओडिशा जैसे बड़े आदिवासी वाले अन्य क्षेत्रों में फैला. इन ऑपरेशनों की प्रकृति और तौर-तरीके पिछले कुछ वर्षों में बदल गए हैं. "कानून के शासन" के उल्लंघन पर मीडिया के विरोध, मजबूत सार्वजनिक सेंसर और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा हस्तक्षेप के बाद सलवा जुडूम को 2011 में असंवैधानिक घोषित किया गया था. इन ऑपरेशनों में न केवल माओवादी लड़ाकों या उन लोगों को निशाना बनाया गया, जिन्हें "पकड़" लिया गया था, बल्कि उन लोगों को भी निशाना बनाया गया, जो किसी भी तरह से माओवादियों का समर्थन करते हैं. इनमें वो आम आदिवासी भी शामिल हैं, जो माओवादी गढ़ों में रहते हैं. उदाहरण के लिए, 2009 से अब तक लगभग 50 घर वाले गोमपाड़ गांव में बच्चों सहित 14 लोग "मुठभेड़ आधारित हत्याओं" में मारे जा चुके हैं.
असली मुठभेड़ में ऐसा होता है कि पुलिस और विद्रोही दोनों पक्षों द्वारा गोलियां चलाई जाती हैं. नुलकातोंग की घटना को भी असली मुठभेड़ के रंग में रंगा गया. हालांकि, पास से देखने पर इसके फर्जी होने के कई पहलुओं का पता चलता है. पुलिस द्वारा बताई गई आधिकारिक कहानियों में न केवल विसंगतियां हैं, बल्कि सबूतों को इकट्ठा करने में भी संदिग्ध अनियमितताएं हैं. उदाहरण के लिए, मृतकों के रिश्तेदारों ने मुझे बताया कि पीड़ितों में चार के शरीर पर मिली नकली वर्दी के ऊपर कोई खून नहीं था.
पुलिस ने दावा किया कि मुठभेड़ में मरने वाला हर व्यक्ति माओवादी था. कुछ मीडिया रिपोर्टों ने बताया कि उस रात लाड़ी में केवल नागरिक थे. लेकिन कुछ ग्रामीणों के अनुसार जिनसे मैंने बात की, मारे गए 15 लोगों में से लगभग आधे लोग मिलिशिया के सदस्य थे. जन मिलिशिया में सबसे बेकार हथियारों से लैस आम ग्रामीण होते हैं, जो पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी या पीएलजीए-सीपीआई (माओवादी) के सशस्त्र विंग में सहायक भूमिका निभाते हैं. ये सदस्य अपने परिवारों के साथ गांव में रहते हैं. कई गांव वालों की तरह शादी के बंधन में बंधने के कारण पड़ोसी गांवों में उनके रिश्तेदार होते हैं.
जन मिलिशिया माओवादी सैन्य संरचना में "आधार बल" का गठन करता है. 2010 की एक प्रेस रिपोर्ट के मुताबिक पीएलजीए में 3000 और जन मिलिशिया में लगभग 30000 सदस्य थे. 2013 की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, दोनों में सदस्यता काफी मजबूती से बढ़ी है.
जन मिलिशिया के सदस्यों के पास खराब हथियार होते हैं, इसलिए सुरक्षा बलों के लिए ये आसान निशाना होते हैं. सुरक्षा बल इनके खिलाफ राज्य की पूरी ताकत का इस्तेमाल करते हैं. ये विद्रोहियों को मार गिराने के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर पुलिस पर पड़ने वाले "परिणाम दिखाने" के दबाव को पूरा करने में मदद करते हैं. माओवादियों के खिलाफ युद्ध को अक्सर "कितने शव बारामद किए" जैसे प्रश्नों में समेट दिया जाता है. यहां जो मारे गए वो माओवादी संगठन के सिर्फ प्यादे थे, जिससे कोई फर्क नहीं पड़ता.
लाड़ी में मौजूद लोगों की मानें तो वहां 30 से 40 लोग थे. जबकि पुलिस के मुताबिक लगभग 200 पुलिस वालों ने सुबह लाड़ी को घेर लिया था. इसका मतलब है कि एक व्यक्ति के खिलाफ छह पुलिस वाले थे. पुलिस वालों के पास हथियारों के साथ-साथ संख्या बल भी ज्यादा था. फिर बड़ा सवाल यह है कि पुलिस इन लोगों पर काबू पाने और गिरफ्तार करने में विफल क्यों रही?
उल्टे पुलिस ने लोगों पर गोलियां चलाईं, जिनमें ज्यादातर नागरिक थे. संभवतः पुलिस को यह पता चल गया होगा कि समूह में कितने जन मिलिशिया सदस्य मौजूद थे, क्योंकि उनकी टीम में पूर्व माओवादी शामिल थे, जो उनकी पहचान करने में सक्षम थे. दो स्थानीय निवासियों के अनुसार, गोलीबारी में लगभग छह जन मिलिशिया सदस्य और स्थानीय गुरिल्ला दस्ते का एक सदस्य मारा गया. वहां के निवासियों ने कहा कि पीड़ितों में दो के सिर भी कुचल दिए गए थे. एक मुठभेड़ के हिसाब से ये काफी असामान्य है, क्योंकि इसमें बंदूक की गोली से मौत होती है.
पुलिस अधिकारियों का कहना है कि गोलियां दोनों तरफ से चली थीं. पुलिस अधीक्षक मीणा ने मुझे बताया कि पुलिस को पता चला कि माओवादियों की बैठक चल रही है और इसमें पीएलजीए कैडर का कोई व्यक्ति मौजूद है. “इत्तेगट्टा का बामन सैन्य पलटन चार का सदस्य था, उसके पास 303 राइफल थी.” वह सादे कपड़ों में था जो मुठभेड़ में मारा गया.
पुलिस को यह भी पता होगा कि मिलिशिया सदस्य स्थानीय हथियारों जैसे धनुष -बाण और ज्यादा से ज्यादा एक पुराने भारमर से लैस हो सकते हैं. भारमर 19वीं सदी का एक पुरातन नली से लोड किया जाने वाला हथियार है. यह सुरक्षा बलों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले ऑटोमैटिक हथियारों से मुकाबला नहीं कर सकता. मीणा ने कहा, “जब दूसरी तरफ से फायरिंग हो रही हो तो आप नहीं जान सकते कि किस हथियार का इस्तेमाल किया जा रहा है.” उन्होंने यह तक स्वीकार किया, “हमारे पास एडवांस हथियार हैं. यहां तक कि एक पीएलजीए कंपनी के पास कम से कम पांच स्वचालित हथियार होते हैं.”
जिन लोगों से मैंने बात की उनमें कुछ ने कहा कि कुछ मिलिशिया सदस्य सभा में मौजूद थे. लेकिन इस बात से इनकार किया कि वहां गोलीबारी हुई थी. उन सबने कहा कि पुलिस ने लाड़ी को घेर अचानक हमला कर दिया. पुलिस अधीक्षक को छोड़कर किसी और ने इसका जिक्र नहीं किया कि उस दिन लाड़ी में भारमर को छोड़कर कोई बेहतर हथियार था.
अंधाधुंध गोलीबारी को किसी भी आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता, कम से कम तब, जब ये सिर्फ इस धारणा पर आधारित हो कि दूसरे पक्ष के पास खतरनाक हथियार हो सकते हैं. युद्ध में सैनिकों के पास खुद को बचाने के तरीके होते हैं. जब मैं आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा से गुजर रही थी तो मैं कई लोगों से मिली, जिन्होंने मुझे मुठभेड़ से कुछ दिनों पहले पुलिस की उपस्थिति में अचानक वृद्धि के बारे में बताया.
4 अगस्त को देर शाम स्थानीय पुलिस से भरे दो ट्रक सीमावर्ती गांव मल्लेम्पेटा पहुंच गए थे. उन्हें उतारने के बाद गाड़ी वहां से चली गई. शुरुआती रिपोर्टों के मुताबिक ये डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड द्वारा किए गई एक संयुक्त तलाशी अभियान का हिस्सा था. आदिवासियों सहित स्थानीय रंगरूटों और आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों का एक विशेष बल. कोंटा और भज्जी पुलिस थानों से छत्तीसगढ़ पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स भी इसमें शामिल है. इस तरह के तलाशी अभियान और कांबिंग ऑपरेशन नियमित रूप से सुरक्षा बलों द्वारा क्षेत्र में वर्चस्व जमाने या विशेष क्षेत्र में माओवादी उपस्थिति के बारे में जानकारी मिलने के बाद किए जाते हैं. ऐसी कुछ फर्जी मुठभेड़ जिनकी मैंने पहले जांच की थी, पीड़ितों के रिश्तेदारों ने अक्सर उन माओवादियों को पहचान लिया था, जो बाद में डीआरजी में शामिल हो गए और जो कभी-कभी पीड़ितों की पहचान करने और उन्हें मारने में बढ़-चढ़कर भूमिका निभाते थे. चूंकि वे स्थानीय हैं ऐसे में अक्सर एक ही क्षेत्र या गांवों से होते हैं और अपने टारगेट को नाम से जानते हैं. साथ ही साथ ये भी कि माओवादियों के साथ उनकी भागीदारी किस हद तक है. ऐसे मौके आए हैं जब पीड़ितों के रिश्तेदारों ने पूर्व माओवादियों पर उन लोगों को निशाना बनाने का आरोप लगाया है, जिन्हें उन्होंने माओवादी संगठन में भर्ती किया था.
मीणा ने मुझे बताया कि यह दूसरा ऑपरेशन था जिसे पुलिस ने उस सप्ताह इलाके में शुरू किया था. तब उन्हें जानकारी मिली थी कि तीन गांवों के जन मिलिशिया ने मिलिशिया पलटन बनाने के लिए आपस में विलय कर लिया है. अगले दो दिनों में पुलिस ने तीन दिशाओं में खुद को फैला दिया. ये माओवादियों के “शहीद सप्ताह” के अंत में किया गया, जो हर साल 28 जुलाई से शुरू होता है. इसी दिन 1972 में नक्सली नेता चारु मजूमदार का निधन हुआ था. इस दौरान हर इलाके में सुरक्षा स्थिति के लिहाज से एक या कई जगहों पर स्मरणोत्सव आयोजित किए जाते हैं. पुलिस के हिसाब से इस दौरान या तुरंत बाद माओवादियों की सभाएं करने की संभावना अधिक हो जाती है.
मल्लेम्पेटा में मैं, नुलकातोंग के एक युवा से मिली जो लगभग 15 साल का था. वो साइकिल पर था और किराने की दुकान पर जाकर रुक गया. साफ-सुथरी पैंट शर्ट पहने वह कई रंगों की धारियों वाली एक पॉलीथीन का शॉपिंग बैग ले जा रहा था. उसकी साइकिल के फ्रेम में एक छाता टिका हुआ था. उसके अनुसार, सभा में जन मिलिशिया मौजूद थे लेकिन वो वहां बैठक के लिए इकट्ठा नहीं हुए थे. यह उन लोगों की मिली-जुली सभा थी, जिनका प्राथमिक मकसद सुरक्षा बलों से बचने के लिए भागना था. युवाओं ने कहा, "कुछ लोग वहां तब गए थे जब उन्होंने सुना कि पंचायत मुखिया भी वहां था. मिलिशिया के अलावा बाकी आम लोग थे." उनके अनुसार उस सुबह गोलियां नहीं चली थीं जैसा कि पुलिस ने बताया, ये एकतरफा था. हालांकि, उसने कहा, "मिलिशिया के कुछ लोगों के पास भारमर था." युवक ने कहा कि नुलकातोंग के छह लोगों में से एक मृतक मिलिशिया सदस्य था.
नुलकातोंग के पास गांव का वृद्ध व्यक्ति जो पास में खड़ा थे, उन्होंने समझाने के लिए हस्तक्षेप किया कि पुलिस शायद ही कभी नागरिकों और माओवादियों के बीच भेद करती है. उन्होंने कहा, "वो नक्सली, मिलिशिया या आम जनता के बीच अंतर नहीं करते, सबसे एक जैसा बर्ताव होता है. पुलिस जब आती है तो जिंदा काटती है. उस दिन भी उन्होंने सिर्फ भरमारों को देख गोलीबारी शुरू की होगी."
उन दोनों ने बताया कि मरने वालों में गोमपाड़, वेलपोचा, किंडरपाल और एटेगट्टा सहित अन्य गांव के मिलिशिया थे. बुजुर्ग आदमी ने कहा कि उसने सुना है कि किसी की पहचान "गुरुजी" के तौर पर की गई थी, जो एटेगट्टा से नुलकातोंग आया था. अगले दिन नुलकातोंग में जो हमारे लिए अनुवाद कर रहा था, उसने मुझे बताया कि गुरुजी डलाम में थे. ये एक स्थानीय गुरिल्ला दस्ता है, जिनका गांवों के एक समूह पर अधिकार होता है.
युवक ने मुझे बताया कि नुलकातोंग का जो मिलिशिया सदस्य मारा गया था उसे मदकम लकमा और टिंकू के नाम से जाना जाता था. लकमा 30 साल का अविवाहित था, उसे कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी. वृद्ध व्यक्ति ने कहा, “हमने उसका शरीर देखा. उसका सिर जैसे एक संबल से कुचल दिया गया था”. संबल, नुकीले सिरे वाला लोहे का एक छड़ होता है जिसका उपयोग खेती में होता है. “जो लोग घायल या जीवित थे, उन्हें राइफल के संबल से मार दिया गया होगा.”
मैंने उन्हें व्हाट्सएप पर मिली कुछ तस्वीरें दिखाईं, जो कोंटा पुलिस स्टेशन में ली गई थीं. उनमें कुछ शव, कुछ बंदूकें और बैग थे. जो पुलिस के मुताबिक लाड़ी से जब्त किए गए थे. कुछ तस्वीरों में भारतीय सेना और सेना के लोगों के साथ टी-शर्ट पहने युवकों के निर्जीव शरीर दिख रहे थे.
मैं तब आसानी से लोगों के चेहरे पर भाव नहीं पढ़ पा रही थी जब वे मृतकों की तस्वीरों को देख रहे थे. वो जानते थे, जैसा कि मैं जानती थी, वो बहुत आसानी से उनमें से एक हो सकते थे जो उस दिन मारे गए थे. उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, "पुलिस ने बाद में ड्रेस डाला."
युवक ने एक युवक की तस्वीरों की ओर इशारा करते हुए कहा, "मैं उसे जानता हूं", उसकी आंखें अभी भी आश्चर्य में खुली हुई थीं और वह हरे रंग की चेक शर्ट पहने हुए था. युवक ने कहा, “वे गोमपाड़ से था, वो मिलिशिया नहीं था.” वो दो अन्य लोगों को नहीं पहचान सका, लेकिन सोड़ी परभु की ओर इशारा किया, जिसके गले में नीले मोतियों की एक माला थी. इनमें एक अच्छी नाक और साफ मूंछों वाला उंगा था जिसे देख ऐसा लग रहा था जैसे वो शांति से सो रहा हो. लाल और काले रंग की धारीदार शर्ट में हिडमा था, तीनों नुलकातोंग के थे. मारे गए नागरिकों में से कई नाबालिग थे. जिन युवाओं से मैं बात कर रही थी कुछ तो उनसे भी उम्र में छोटे थे. इन युवाओं ने कहा, "सुरक्षाबलों ने संगाम (ग्राम की समिति) के दो सदस्यों को भी उस दिन हिरासत में ले लिया."
जब्त की गई चीजों की फोटो को बारीकी से देखने के बाद उनमें से एक ने कहा, "झोले तो मिलिशिया के हैं, बोरियां नहीं." उन्होंने नीले रंग के एक बैक पैक को पहचान लिया जो किसी ऐसे व्यक्ति का था जो उस दिन भागने में सफल रहा. “उस दिन वहां रस्सी नहीं थी.” नजर आ रही ज्यादातर बंदूकें (पुलिस के दावे के अनुसार 16) राइफलें थीं और कुछ भरमार थीं. उन्होंने कहा, “उन्हें (बंदूकों को) वहां पुलिस द्वारा रखा गया है. दो टिफिन कहां से आए?” इस बारे में उन्होंने तेज आश्चर्य प्रकट किया. टिफिन को अक्सर आईडी (इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस) के कंटेनर के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.
नुलकातोंग नरसंहार ने जीवितों को सदमे से भर दिया. बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा कि गोमपाड़ और नुलकातोंग के सभी लोग, यहां तक कि जो लोग घटना स्थल पर नहीं थे, वो भी उस दिन अपनी रक्षा के लिए पड़ोस के गांव दुरमा में भाग गए. उन्हें डर था कि अगर वो भी सुरक्षा बलों के हत्थे चढ़ गए तो वे उन्हें भी मार डालेंगे. उन्होंने कहा, "जब भी पुलिस किसी गांव में जाती है, तो लोगों को प्रताड़ित और परेशान करती है. पैसे चोरी करते हैं, दारू पीते हैं, हत्या करते हैं, लोगों को पीटते हैं और कभी-कभी उन्हें ले जाते हैं. जो लोग उस दिन नुलकातोंग के खेतों में भागे थे, वो खुद को बचाने की उम्मीद के साथ गए थे."
मैं उस रात बुजुर्ग व्यक्ति के एक रिश्तेदार के साथ रही, जो उस शाम बाद में लौटे और अगले दिन मेरे साथ गोमपाड़ गए.
उन्होंने कहा, "वो नक्सली, मिलिशिया या आम-जनता के बीच अंतर नहीं करते हैं. सभी से एक ही तरह का व्यवहार किया जाता है. पुलिस जब आती है तो यही करती है. जिंदा काटती है.”
गोमपाड़ 300 से कम आबादी वाला गोंड आदिवासियों का एक छोटा सा गांव है. जंगलों के घने भीतर होने की वजह से यहां राज्य आधारित हिंसा रिकॉर्ड स्तर पर हुई है. मैंने पहली बार 2009 में इस गांव के बारे में सुना था, जब ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ पूरे जोरों पर था और वहां एक "मुठभेड़" में नौ लोग मारे गए थे. तब से 2016 तक एक युवती के बलात्कार, यातना और हत्या सहित हिंसा के कई मामले हुए हैं और अब गांव को अपने छह और लोगों को खोना पड़ा है.इस क्षेत्र में माओवादी आंदोलन कम से कम दो दशक पुराना है. गांव में बने शहीद-स्मारक स्तंभ एक कहानी बताते हैं.
एक बार मैं गोमपाड़ में अंबेडकरवादी पार्टी ऑफ इंडिया के तीन पत्रकारों और दो सदस्यों से मिला, जो इस घटना की जांच करने के लिए वहां मौजूद थे. हम सोयम सीता और सोयम चंद्रा के परिवार के सदस्यों से भी मिले, जो उस भयावह सुबह मारे गए थे.
सीता के भाई संतोष ने बताया कि उसके भाई की उम्र 20 साल से अधिक थी और चंद्रा कुछ साल छोटा था. चंद्रा की युवा पत्नी ने अपनी एक साल की बेटी को पकड़ रखा था और हमें बताया कि जब उन्होंने सुना कि चारों ओर पुलिस फैली हुई है तो चंद्रा और सीता अन्य लोगों के साथ नुलकातोंग की ओर भागे थे. अपने पिता की तरह चंद्रा भी गांव का सरपंच था. उनका छोटा भाई मल्लेश जो कोंटा में एक छात्र है, हमें मारगथ यानि दफनाने की जगह ले गया और सीता और चंद्रा की कब्रों के साथ-साथ चार अन्य लोगों की कब्र भी दिखाई. रिमझिम बारिश के बीच हमने मृतक की अन्य निजी चीजों के साथ कब्रों पर छह खाटें देखीं जो उल्ट कर रखी हुई थीं. एक बैकपैक और जूते पास के पेड़ की एक टहनी से लटकाए गए थे. मल्लेश ने कहा, "वे सीता के हैं."
जब हम नुलकातोंग पहुंचे, तो आधा दिन बीत चुका था. हमने घटना के बारे में लोगों की गवाही सुनने में कई घंटे बिताए. वही कहानी बार-बार सामने आई, “लोगों ने 5 अगस्त की रात को लाड़ी में शरण ली थी और अगली सुबह सुरक्षा बलों ने उन पर गोलियां चला दीं.”
मुचकी सुकड़ी से जब मैं मिली तो वो हल्की आग के पास अपने घर के मिट्टी के पलस्तर वाले बरामदे में बैठी थी. बरामदे के साइड फ्रेम पर एक साइकिल लटक रही थी. उन्होंने बताया, "वह मुका की साइकिल थी." उनका बेटा मुका जो लगभग 13 साल का था, गोलीबारी में मारे गए लोगों में से एक था. उन्होंने हमें उसकी तस्वीर दिखाई.
ये दूसरा मौका था जब सुकड़ी के परिवार का कोई सदस्य पुलिस के हाथों मारा गया. उन्होंने हमें बताया कि 2009 में सलवा जुडूम के सदस्यों और सुरक्षा बलों ने उनके पति को मार डाला था. “वो किसी भी स्तर पर माओवादी संगठन का हिस्सा नहीं था. जब उसे नोच-नोच कर मारा गया तो वह दारू बनाने के लिए आग में लकड़ी डाल रहा था." उनका सबसे छोटा बेटा अब कोंटा में सातवीं कक्षा में पढ़ रहा है लेकिन अब ये अनिश्चित है कि वो पढ़ाई जारी रख पाएगा.
नुलकातोंग घटना में एक अन्य मृतक का नाम उंगा है, जो 20 साल से कम उम्र का था. वो अपनी पत्नी लक्के और एक बेटी को पीछे छोड़ गया, उंगा की बेटी 7 साल की है. उसके भाई ने मुझे बताया कि बचने के लिए शेल्टर में भागने का कोई मतलब नहीं है. “अगर घर में रहते हैं तो भी मरते हैं.” लक्का की मां जब ये बता रही थीं कि वो कैसे अपने ख्यालों के भार में दबी जा रही है तो वह अपने आँसुओं को नहीं रोक पा रही थी.
गांव का एक बुजुर्ग जो सभा का हिस्सा था, एक बार गवाही पूरी होने के बाद हमारे पास आया. तार-तार हुई खाकी शर्ट की जेब में हाथ डालकर उन्होंने छह इस्तेमाल किए गए कारतूस निकाले. उन्होंने बिना कुछ कहे काम में घिसे हाथों की हथेली में खोखों को झुलाते हुए हमें दिखाया.
9 अगस्त को भाकपा (माओवादी) की दक्षिण बस्तर डिवीजन कमेटी ने दो पेज का बयान जारी कर 13 अगस्त को नुलकातोंग में हुई फर्जी मुठभेड़ की निंदा कर सुकमा बंद का आह्वान किया. इस घटना के बारे में पार्टी की कहानी उससे बिल्कुल अलग है, जो मैंने ग्रामीणों से सुनी है,
“एक विशेष ऑपरेशन के तहत 5 अगस्त को कोंटा, भेज्जी और गोलापल्ली शिविरों से 200 से अधिक पुलिस वालों ने नुलकातोंग, वेल्पोचा, गोमपाड़, किंडेमपाड़ और कन्नाइपाड़ गांवों को घेर लिया और 50 से अधिक व्यक्तियों को बंदी बनाकर अपने साथ ले गए. अगले दिन सुबह 6 बजे उन्हें नुलकातोंग पहाड़ी के पास ले जाया गया और 15 निहत्थे ग्रामीणों के हाथ-पैर बांध, अंधाधुंध गोलीबारी कर उन्हें निर्दयता से मार डाला गया. उनमें से कुछ अभी भी पुलिस की कैद में और कई लापता और घायल हैं.”
इस कहानी में ग्रामीण खुद से नुलकातोंग नहीं आए थे बल्कि उन्हें उनके गांवों से घेरकर वहां लाया गया था. वो सभी नागरिक थे, कोई जन मिलिशिया नहीं था. ये एक माओवादी बैठक नहीं थी. बयान में, मारे गए लोगों की एक लिस्ट भी शामिल थी और ये लिस्ट मैंने जो सुनी उससे अलग थी. उदाहरण के लिए, केवल एक पीड़ित को नाबालिग दिखाया गया था.
पुलिस के पास घटनाओं का एक बेहद विरोधाभासी पहलू था. हालांकि, पुलिस से अलग तरह की एक कहानी की उम्मीद थी, लेकिन उनके पास तीन तरह की कहानियां होने की वजह से मैं हैरान थी.
मीणा के मुताबिक, पुलिस को माओवादियों के ठिकाने के बारे में बिल्कुल भी पता नहीं था. उन्होंने कहा, "पुलिस ने पहाड़ी के दूसरी ओर डेरा डाला था. उन्हें कोई अंदाजा नहीं था कि केवल डेढ़ किलोमीटर के जंगल और अंधेरे ने उन्हें अपने टारगेट से अलग कर दिया है." जब उन्होंने लाड़ी में सभा को देखा, तो वे उसी दिशा में जाने लगे. उन्होंने कहा, "नक्सल संतरी दक्षिण की ओर खड़ा था. संतरी ने पुलिस वालों को आते देखा गोली चला दी. इसके बाद मुठभेड़ शुरू हुई. उनके पास हथियार थे और वो गोली चलाने लगे."
पुलिस ने अपनी आत्म-प्रशंसा में मीडिया को बताया कि उन्होंने नुलकातोंग में दो वांछित नक्सलियों को पकड़ लिया था, इनमें मड़कम देवा नाम का एक आदमी और दुधी बुदहरी नाम की एक महिला शामिल थे. देव के बारे उन्होंने कहा कि वो, "एक वांछित नक्सली" था, जिसके सिर पर 5 लाख का इनाम था. जब मैं देवा की पत्नी इडमे से मिला, तो उसने मुझे बताया कि पुलिस ने गलती की है. उसने कहा, "वो नक्सलियों के साथ करीब एक साल तक था. मुझे नहीं पता कि उसने नक्सलियों के लिए क्या काम किया. लेकिन उसे कुछ स्वास्थ्य समस्याएं हुईं और वो लौट आया, इसके बाद वो घर पर ही रहता था. उस रात डर के मारे उसने भी लाड़ी में शरण ली थी."
ऐसा लगता है कि पुलिस देवा नाम के दो लोगों के बीच भ्रमित हो गई. एक नुलकातोंग से और दूसरा गोमपाड़ से. देव की गिरफ्तारी को लेकर मीणा ने स्वीकार किया, "हमने उसे गोमपाड़ का देवा समझ लिया था जो क्रांतिकारी जन परिषद का अधीक्षक है."
बुधरी की मां जब मिली तो वे कुछ भी कहने को लकेर बहुत ज्यादा डरी हुई थीं. जब बुधरी को ले जाया गया था तब से अब तक आठ दिन बीत चुके थे. कैस ने कहा, “ये सुनकर कि पाइक (पुलिस) आ रहे हैं, बुधरी कुछ और लड़कियों के साथ सोने के लिए खेत में चली गई. पुलिस उसे ले गई और मुझे नहीं पता कि वह कहां और कैसे है?" नामांकन पर्ची के आधार पर, जिसे सरपंच और साची द्वारा प्रमाणित किया गया है, बुधरी 19 साल की है.
मीणा ने मुझसे कहा, "जब हमारी पार्टी ने बुधरी को पकड़ा, उसने बताया कि उसे एक गोली लगी थी." लेकिन खून का कोई निशान नहीं था. “उसे उस शाम सुकमा के अस्पताल ले जाया गया, जहां एक महिला डॉक्टर ने उसकी जांच की और कहा कि उसके कूल्हे की हड्डी खिसक गई है. उसे 7 अगस्त को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और गिरफ्तार होने से पहले मजिस्ट्रेट के आदेश पर उसका इलाज किया जा रहा है.” मीणा ने मुझे ये भी बताया कि बुधरी तीन साल पहले ही मिलिशिया में शामिल हुई थी और छह महीने पहले संगठन छोड़ा था, "लेकिन कुछ महीनों बाद घटना में मरने वाले 15 लोगों में से एक सोयम सीता उसके घर आया और जबरन उसे ले गया. साथ नहीं चलने पर उसे जान से मारने की धमकी दी. वो पिछले तीन महीनों से फिर मिलिशिया पार्टी के साथ घूम रही थी. वो अभियोजन पक्ष की गवाह होगी.”
देवा और बुधरी के अलावा पुलिस ने दो युवकों सोड़ी हांडा और मदवी लकमा को भी लाड़ी से गिरफ्तार किया. वे दोनों नुलकातोंग से थे और उन युवा और वृद्ध व्यक्तियों के अनुसार, जिनसे मैं मल्लेम्पेटा में मिली थी, वो संगम के सदस्य थे. पुलिस उन्हें कोंटा पुलिस स्टेशन ले गई, जहां उन्हें आठ दिन तक रखा गया. जिस दिन वो रिहा हुए, मैं उनसे मिली थी. उन्होंने कहा कि जब गोलीबारी शुरू हुई तो उन्होंने भागने की कोशिश की लेकिन वो बहुत थके हुए थे इसलिए पकड़े गए.
हालांकि, बाद में मीणा ने मुझसे कहा कि "लकमा उस रात लाड़ी में नहीं था. वो अहले सुबह अपने खेतों से गांव जा रहा था. जब गोलीबारी शुरू हुई, तो वह जहां था, वहीं बैठ गया और उसे मौके पर ही पकड़ लिया गया.'' मीणा ने कहा कि लकमा ने माओवादियों को भोजन उपलब्ध कराकर उनका समर्थन किया था.
अधीक्षक के मुताबिक चारों लोग- देवा, बुधरी, हांडा और लकमा 6 अगस्त की घटना के प्राथमिक गवाह हैं. बुधरी की तरह बाकी तीनों का भी अभियोजन पक्ष के गवाहों के रूप में पुलिस के इस्तेमाल किए जाने की संभावना है. माओवादियों के साथ उनके पहले संबंध चाहे जैसे और कितने ही छोटे रहे हों, उन्हें दोनों ओर से ब्लैकमेल किए जाने को मजबूर बनाते हैं.
मीणा ने मुझसे पूछा, "अगर ये एक वास्तविक मुठभेड़ नहीं होती, तो वहां प्रत्यक्षदर्शी क्यों होते? हम लोगों को गांवों में जाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. उन्हें भी सच्चाई जाननी चाहिए.”
सुकमा पुलिस द्वारा जारी शुरुआती प्रेस नोट में घटनाओं का ब्यौरा अधीक्षक के ब्यौरे से अलग है. नोट में घात लगाए जाने जैसी घटना के बारे में बताया गया है, जहां हथियारबंद माओवादियों ने पुलिस पर हमला करने का प्रयास किया था और पुलिस ने जवाबी कार्रवाई की थी. बयान के मुताबिक वहां 40-50 माओवादी थे, उन्हें जब ये पता लगा कि पुलिस मजबूत है तो वे भाग गए.
7 अगस्त को ‘नई दुनिया’ अखबार में पुलिस की तीसरी कहानी छपी. इसे डीएम अवस्थी के हवाले से छपवाया गया जो उस समय नक्सल विरोधी अभियानों के विशेष पुलिस महानिदेशक थे. इस कहानी के मुताबिक जब पुलिस खुफिया सूचना के आधार पर मौके पर पहुंची तो माओवादी अपने शिविरों में सो रहे थे. पुलिस ने शिविर पर हमला किया और माओवादियों ने "जवाबी कार्रवाई करने की कोशिश की."
सार ये है कि पुलिस का घटना संस्करण न केवल ग्रामीणों और माओवादियों से बिल्कुल उल्टा है, बल्कि एक दूसरे से भी उल्टा है. पुलिस ने परिवार के सदस्यों द्वारा पहचान के आधार पर मृतकों की सूची तैयार की. सूची में गोमपाड़ से मारे गए तीन लोगों के नाम गायब थे- सोयम चंद्रा, मादावी देवा और मादावी नंदा.
फिलहाल बुधरी और देवा जगदलपुर सेंट्रल जेल में हैं. जब मैं सितंबर में उनसे मिली तो पता चला कि उन्हें कोई कानूनी सहायता नहीं दी गई. मैंने वकील के रूप में अपनी सेवा पेश की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया.
बुधरी ने मुझे बताया कि अस्पताल में दो सप्ताह बिताने के बाद उसे केवल एक बार अदालत में ले जाया गया. “अदालत में मुझे ये कहने को मजबूर किया गया कि 15 लोग मारे गए हैं और मैं एक नक्सली हूं. मुझसे कागज पर अंगूठे का निशान लगवाया गया.” मीणा जिसके बारे में बात कर रही थी वो शायद "इकबालिया बयान" था. बुधरी और देवा पर मारपीट, हत्या की कोशिश और आपराधिक साजिश रचने का आरोप लगाया गया है. उन धाराओं के तहत भी मामला दर्ज किया गया है जो हथियारों और सदस्यता के साथ-साथ आतंकवादी संगठनों के समर्थन पर प्रतिबंध लगाते हैं. ये सभी गंभीर अपराध हैं, जिनमें कई साल जेल की सजा (यूएपीए अपराधों के मामले में दस साल तक) का प्रावधान है.
निष्कर्ष ये है कि नुलकातोंग की घटना एक मुठभेड़ नहीं बल्कि एक नरसंहार है, क्योंकि कई और तथ्य भी इस बात को बल देते हैं. पहले, उनकी अपनी कहानी के मुताबिक एक से डेढ़ घंटे गोलीबारी होने के बाद भी कोई पुलिसवाला घायल नहीं हुआ. दूसरा, पीड़ितों के शवों को जल्दी से बॉडी बैग में डाल दिया गया, जबकि आमतौर पर एक मुठभेड़ के बाद शवों को पुलिस स्टेशन में लाया जाता है और वो जिस हाल में हैं, उन्हें वैसे ही प्रदर्शित किया जाता है. इसका कारण यह है कि पुलिस नहीं चाहती कि कोई भी ये देखे कि पीड़ितों में कई, नाबालिग थे जिनमें अयाता और मुका भी शामिल थे. पुलिस के दावे के मुताबिक उन्होंने माओवादियों की वर्दी नहीं पहनी थी. 24 दिसंबर को मीणा ने मुझे बताया कि वहां सबसे छोटा व्यक्ति 18 या 19 साल का था. वहीं, कुछ पीड़ितों द्वारा कथित रूप से पहनी हुई वर्दी पर भारतीय सेना का लोगो था.
13 अगस्त को जब मेरी जांच जारी थी तब कोंटा में एक रैली हुई जहां पूर्व सलवा जुडूम के नेताओं द्वारा जुटाई गई भीड़ ने मेरे और आदिवासी स्कूल शिक्षक से नेता बनी सोनी सोरी के खिलाफ नारे लगाए. ये उसी दिन हुआ जब माओवादियों ने फर्जी मुठभेड़ का विरोध करने के लिए बंद बुलाया था. मैं तब पहले से ही नुलकातोंग में थी. पत्रकारों का एक समूह 18 अगस्त और अगले दिन भी सोरी के साथ था. उनके रास्ते में रोड़ा डाला गया और उनका नुलकातोंग तक पहुंचना मुश्किल हो गया. वहां पहुंचने पर उन्हें एक खाली गांव मिला. बाद में उन्हें पता चला कि पुलिस ने नुलकातोंग के लोगों को उस क्षेत्र में माओवादी उपस्थिति के कारण उस रात (संभव गोलीबारी के बहाने) वो जगह छोड़ने और दुरमा जाने का निर्देश दिया था. उन्हें जोर देकर बाहरी लोगों से दूर रहने को भी कहा गया था.
सोशल मीडिया पर गालियां और धमकियां भी दी गईं. उदाहरण के लिए, 19 अगस्त को व्हाट्सएप ग्रुप "युवा संघ छत्तीसगढ़" पर, जिसे नेशनल इंटीग्रिटी के लिए, एक्शन ग्रुप के एक प्रमुख सदस्य द्वारा चलाया जाता है. ये एक माओवादी विरोधी ग्रुप है- कुछ लोगों ने सोनी सोरी, और पत्रकार लिंगाराम कोडोपी और प्रभात सिंह पर बेतुके आरोप लगाए. उन्होंने सुझाव दिया कि तीनों ने माओवादियों से उनके पक्ष में बोलने के बदले पैसे लिए हैं. उनमें से एक ने सिंह को मौत की धमकी भी दी. उसी ग्रुप में किसी ने मुझे गाली देते हुए लिखा- "सुअर की बच्ची, मुर्दाबाद."
सुकमा के एक प्रमुख माओवादी विरोधी नेता ने 20 अगस्त को एक नोट प्रसारित किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि नुलकातोंग के कुछ ग्रामीणों ने सोरी और मुझ पर पुलिस के खिलाफ झूठी गवाही देने के लिए गांव के लोगों पर दबाव बनाने को लेकर पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई है. कुछ दिनों बाद सोनी को कोंटा पुलिस स्टेशन से एक नोटिस मिला, जिसका उन्होंने लिखित में और एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जवाब दिया. सोरी ने कहा, "ये मुझे झूठे मामले में फंसाने की पुलिस की साजिश है."
डराने-धमकाने की इन हरकतों के बावजूद पत्रकारों के साथ-साथ मानवाधिकार समूहों ने भी इसकी जांच की. सुप्रीम कोर्ट में सिविल लिबर्टीज कमेटी तेलंगाना द्वारा एक जनहित याचिका भी दायर की गई, जिसमें आरोप लगाया गया था कि मुठभेड़ फर्जी थी और इसमें नागरिकों को मारा गया था. इस मामले की अब तक केवल एक बार ही सुनवाई हुई है.
नुलकातोंग घटना माओवादी पार्टी की जिम्मेदारी के बारे में एक परेशान करने वाला सवाल भी खड़ा करती है, जो इसके आधार बल के साथ-साथ उन गांवों के लोगों से भी जुड़ा है जहां पार्टी की मजबूत उपस्थिति है. आम लोगों की तो बात ही छोड़ दें, मिलिशिया के सदस्य भी उच्च स्तरीय पीएलजीए कैडर के उल्टे इस तरह की स्थिति में खुद का बचाव करने लायक नहीं होते. पीएलजीए कैडर के पास बेहतर मौके हैं क्योंकि उनके पास सैन्य प्रशिक्षण और आधुनिक हथियार होते हैं. मिलिशिया सदस्य सुरक्षा कर्मियों के लिए आसान टारगेट होते हैं.
हालांकि, नुलकातोंग नरसंहार के असली जिम्मेदार सुरक्षा बल हैं. घटना से एक बार फिर बस्तर में आतंकवाद विरोधी अभियानों की नाजायज प्रकृति के बारे में पता चलता है. इस तरह के कई कृत्यों को अदालतों में चुनौती दी गई है, लेकिन उनमें कोई प्रगति नहीं हुई है. कोई भी सरकार जो आपराधिक रणनीति का सहारा लेती है. क्योंकि अगर अंत में ऐसा होता है तो ऐसे में प्रताड़ित जगह के लिए नीति आधारित शांति या न्याय की उम्मीद शायद ही बचती है.