पुनर्जागरण के दो सिपाही

केरल में धार्मिक कट्टरवाद के खिलाफ जारी मुहिम

समीर रायचूर/ कारवां
समीर रायचूर/ कारवां
12 June, 2019

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24 अक्टूबर 2018 एक चमकीली धूप की शाम कोच्चि में बैंकों और बीमा क्षेत्रों में काम करने वाले लगभग 200 पुरुष और महिलाएं ऑफिस के बाद एक भाषण सुनने इकट्ठा हुए. वे चित्तूर रोड पर यंग मेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन (वाईएमसीए) के विक्टोरिया हॉल में बने एक ऑडिटोरियम में उपस्थित थे. हॉल के एक छोर पर बने दो फुट के स्टेज पर एक दुबला-पतला आदमी सफेद मुंडु और फीके हरे रंग का हैंडलूम कुर्ता पहने खड़ा था. लकड़ी के पोडियम का सहारा लेकर वह अगले एक घंटे तक बोला. बीच-बीच में वह अपने जगमगते दांतों से मुस्कुराता रहता.

उसके पीछे एक हाथी दांत के रंग का पर्दा लटका हुआ था, जिस पर आयोजकों के नाम के साथ उस सार्वजनिक लेक्चर का नाम लिखा था- "सबरीमालाः द कोर्ट वर्डिक्ट एंड केरला रिनोसेंस." लगभग एक घंटे के इस भाषण की रिकॉर्डिंग हुई और यूट्यूब पर अपलोड कर दिया गया. अगले तीन महीनों में इस वीडियो को 15 लाख बार देखा गया. भाषण की छोटी-छोटी क्लिप फेसबुक और वॉट्सऐप पर अनगिनत बार शेयर की गई. पोडियम पर खड़े व्यक्ति का नाम सुनील पी इलाईडोम है. वह कलाड़ी की सरकारी श्री संकराचार्य यूनिवर्सिटी में मलयालम के प्रोफेसर हैं. पिछले कुछ समय में इलाईडोम दुनियाभर में रहने वाले मलयाली लोगों के बीच जाना-पहचाना नाम बन गए हैं.

इलाईडोम अपने भाषण में बार-बार पूछते हैं, "धर्म का विचार क्या है? क्या धर्म को संस्कारों का समुच्चय होना चाहिए या धर्म को मूल्यों के संग्रह के रूप में देखा जाना चाहिए?" उन्होंने हिंदुत्व द्वारा शोषित जातियों के अपमान का उल्लेख किया, जिन्हें बाहर आने की इजाजत नहीं थी और जिन्हें एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए झाड़ियों में छिपकर जाना होता था. वह कहते हैं, "यह सदियों पुरानी बात नहीं है. 20वीं सदी में भी ऐसा होता रहा है. लोगों को दिन में सिर उठाकर नहीं चलने दिया जाता था, उन्हें घुटनों से नीचे मुंडु पहनने की इजाजत नहीं थी, अगर वे किसी दुकान में जाकर नमक के लिए पूछ लेते तो भीड़ उनकी हत्या कर दी जाती थी." वह बताते हैं कि जो भी प्रगति हुई है वह किसी की उदारता का परिणाम नहीं है बल्कि यह भेदभाव वाली रीतियों के खिलाफ लगातार होने वाले संघर्षों की वजह से है. जिसका नाम था "नवोधनम"- पुनर्जागरण.

जब ऊंची जातियों के लोगों ने नारायण गुरू के मंदिर में अभिषेक करने पर सवाल किया तो उन्होंने कहा कि वह इझावा शिव का अभिषेक कर रहे हैं न कि ब्राह्मण शिव का.

इस तरह लोगों से बात करना इलाईडोम के लिए नया नहीं है. उन्हें इसका 30 साल से अधिक का अनुभव है. वह अपने कॉलेज के दिनों से ऐसा करते आए हैं. मध्य केरल के लहजे के साथ उनके भाषणों में कविता की लय होती है. जब वह आमतौर पर नहीं बोले जाने वाले शब्द इस्तेमाल करते हैं तो उन्हें समझाते भी हैं. उनका मजाक और गुस्सा जटिल है. वह एक असामान्य दयालुता के साथ मजाक और आलोचना करते हैं और उनकी मुस्कुराहट उनके भाषणों से पैदा होने वाले तनाव को कम करती है.

20 नवंबर की शाम, लगभग 80 किलोमीटर दूर त्रिशूर की केरल साहित्य अकादमी में लगभग 300 लोग प्लास्टिक की लाल कुर्सियों पर जमे थे. यह सब समाथव संगमम- लैंगिक समानता को मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे. उनको संबोधित कर रहा खिलाड़ियों-सी कद-काठी वाला 54 वर्षीय आदमी सन्नी एम. कपीकाड़ भी समकालीन केरल में जाना-पहचाना नाम बन चुका है. जीवन बीमा निगम में मैनेजर सन्नी केरल के अग्रणी दलित चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वह जमीन अधिकारों की मांग कर रहे शोषित समूहों के संगठन “भू अथिकारा संरक्षण समिति” के प्रमुख भी हैं.

जब वह राज्य के बहिष्कार और भेदभाव के इतिहास के बारे में बोल रहे थे तो उनका स्वर गजब का था. उनके शब्द बाण से लग रहे थे. इलाईडोम की तरह वह कोट्टायम के लहजे के साथ मलयालम बोलते हैं, जिसमें कई बार अंग्रेजी का भी इस्तेमाल कर लेते हैं.

उन्होंने कहा, "अगर यह आयोजन एक महीने पहले होता तो श्रोताओं में से कई लोग यह कहकर चले जाते कि केरल में ऐसा नहीं होता, लेकिन आज हम ऐसा नहीं कह सकते. हमने अपनी आंखों से देखा है कि कैसे भीड़ एक महिला के लिए 'उसे मारो!' चिल्ला सकती है. जब यह भीड़ हमारी गलियों पर राज कर रही है, हम केवल बैठकर यह नहीं कह सकते कि नहीं, केरल में ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि हम बहुत जागरूक हैं."

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत देने के सवाल भी हवा में तैर रहे हैं, वह कहते हैं कि पूरी चर्चा थंत्री (मुख्य पुजारी) के अधिकारों और शक्तियों पर केंद्रित हो गई है. उन्होंने कहा, "जब आप पूछते हैं कि महिलाओं के प्रवेश की इजाजत क्यों नहीं है, थंत्री की तरफ से जवाब आएगा- क्योंकि शंकर स्मृति में ऐसा कहा गया है. शंकर स्मृति के मुताबिक, माहवारी के दौरान औरत अपने दांत साफ नहीं कर सकती, स्नान नहीं कर सकती और अपनी आंखों में काजल नहीं लगा सकती. यह वह किताब है जिसे हम साथ लेकर चल रहे हैं. यह हमारा खुद से सवाल करने का समय है. केवल “नवोधनम, नवोधनम” चिल्लाने से हमारी कोई मदद नहीं होने वाली."

उन्होंने कहा कि सबरीमाला मुद्दे ने केरल समाज के उन दो मुद्दों को सामने ला दिया है जिन्हें लंबे समय से छिपाया जा रहा है. पहला है- जाति और इसका तथ्य यह है कि "मलयाली समाज, समाज में जरूरी लैंगिक न्याय के मूल स्तर पर भी नहीं पहुंचा है."

सबरीमाला आंदोलन, 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में हुए केरल पुनर्जागरण के बाद बने केरल के आधुनिक समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी. 28 सितंबर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंदिर में सभी औरतों को प्रवेश की अनुमति देने के बाद राज्यभर में प्रदर्शन शुरू हो गए थे. सबरीमाला मंदिर के देवता अयप्पा की महिला श्रद्धालुओं ने नाम जप यात्राएं निकालीं और कहा कि वह प्रतिबंध के समर्थन में हैं और मंदिर में दर्शन करने के लिए 50 साल की उम्र तक इंतजार कर लेंगी. कोर्ट के आदेश के विरोध ने लोगों का या कम से कम मीडिया और राज्य के राजनीतिक वर्ग का ध्यान तो खींच ही लिया था.

इलाईडोम और कपिकाड़ ने धार्मिक पुनरुत्थानवादियों का भरपूर विरोध किया. सोशल मीडिया पर शेयर होने वाले उनके भाषणों में उन्होंने केरल के जातिवाद वाले मध्यकालीन समाज से आधुनिक और ऊंचे पैमाने वाले शिक्षित समाज में बदलाव पर जोर दिया, जो तभी हो सकता है जब अंधविश्वास और परंपराओं को क्रांतिकारी कदमों से एक दायरे में रखा जाए.

लेखक केआर मीरा ने मुझे बताया, "उन्होंने हमें तार्किक दृष्टि से मामले को समझने में मदद की. हम दूसरी तरफ के सच और तथ्यों को समझने के अनिच्छुक थे. हम एक बहाव में बह रहे थे. हम यह भी नहीं पूछ रहे थे कि यह परंपरा कितनी पुरानी है. कई समझदार लोग, जिन्हें हम विद्वान मानते हैं, वह भी इस बारे में नहीं बोल रहे थे, जो काफी आश्चर्यजनक था. उन जैसे ही लोग थे जो आगे आकर सच को सामने लाए. एक बार सच पता चल जाए तो दूसरे झूठ बोलकर हमें बहका नहीं सकते."

अगले कुछ महीनों तक इन दोनों को टीएस श्याम कुमार, लक्ष्मी राजीव, दीपा निशांत, श्रीचित्रन एमजे और जे. देविका जैसे विद्वानों ने मंचों और टेलीविजन स्टूडियो के माध्यम से समर्थन दिया. उन्होंने ऐसी रोशनी फैलाई, जिसे राज्य सरकार ने भी अपनी स्वीकृति तब दी जब उन्होंने एक जनवरी को राज्यभर में 620 किलोमीटर लंबी महिला दीवार बनाई और केरल पुनर्जागरण के आदर्शों को अपनाया.

19वीं सदी के केरल में कई सामाजिक बुराईयां फैली थीं. 1890 में हिंदू सुधारवादी विवेकानंद ने इस इलाके में होने वाले जातीय भेदभाव की वजह से इसे 'मैडहाउस' यानी पागलखाना कहा था. ब्रिटिश राज के अधीन कोच्चि, त्रावणकोर और मालाबार साम्राज्य में कानूनी शासन भेदभावपूर्ण था, जहां ऊंची जातियों के लोग टैक्स नहीं देते थे और उनके लिए कठोर दंड के प्रावधान भी नहीं थे. रॉबिन जेफरी अपनी किताब द डिकलाइन ऑफ नायर डोमिनेंसः सोसायटी एंड पॉलिटिक्स इन त्रावणकोर, 1847-1908 में 1860 में समाज पर राज करने वाले एक चर्च मिशनरी की पत्नी के हवाले से छूआछूत के अलग-अलग रूपों के बारे में लिखते हैं -

...एक नायर नंबूदरी ब्राह्मण के पास आ सकता है, लेकिन उसे छू नहीं सकता. एक चौगान 36 कदम दूर और एक पूलायेन दास 96 कदम दूर होना चाहिए. चौगान को नायर से 12 कदम और पूलायेन को 66 कदम दूर रहना चाहिए, पूलायेन की दूरी इससे भी अधिक होनी चाहिए. एक सीरियाई ईसाई नायर को छू सकता है (हालांकि, देश के कई भागों में इसकी इजाजत नहीं है) लेकिन नायर उसके साथ या दोनों एक-दूसरे के साथ खाना नहीं खा सकते. पूलायेन और पेरियार, जो सबसे नीचे हैं वे बात कर सकते हैं, लेकिन छू नहीं सकते.

अय्यनकाली ने केरल के इतिहास में दलित छात्रों को स्कूलों में दाखिला दिलाने के लिए पहली किसानों की हड़ताल का नेतृत्व किया था.

औपनिवेशक अधिकारियों और इलाके के सुधारवादी सम्राटों ने आधुनिक समाज के लिए प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में कुछ सुधार शुरू किए, जिसमें 19वीं सदी की शुरुआत में सामंती संस्थाओं को खत्म करना शामिल था. हालांकि, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक क्रांति की लहर ही सामाजिक बदलाव ला सकी. पत्रकार बीआरपी भास्कर ने मुझे बताया, "केरल पुनर्जागरण आंदोलन निचली जातियों से शुरू होकर ऊंची जातियों तक पहुंचा. दलित समूहों ने पहली बार इस आंदोलन की शुरुआत की और फिर सवर्ण आंदोलन शुरू हो गया क्योंकि उन्हें भी लगा कि समाज सुधार की जरूरत है. जिसे आज हम पुनर्जागरण कहते हैं वह इन आंदोलनों की देन है."

"19वीं सदी के केरल में कई सामाजिक बुराईयां फैली थीं. 1890 में हिंदू सुधारवादी विवेकानंद ने इस इलाके में होने वाले जातीय भेदभाव की वजह से इसे 'मैडहाउस' कहा था."

हर समाज के पास उसके खुद के सुधारक थे. 1850 में कुरियाकोस चवारा ने दलितों के लिए आधुनिक स्कूल खोले और मिड-डे मील की शुरुआत की. उन्होंने चर्चों को इस बात पर मजबूर किया कि सबके लिए स्कूल स्थापित करें. साथ ही ईसाई समाज में फैले जातिगत भेदभाव के लिए काम किया. नारायण गुरु शोषित इझावा जाति से संबंध रखते थे. उन्होंने नायरों द्वारा व्यहार में लाई जाने वाली ब्राह्मणवादी रूढ़िवादिता का विरोध किया. नायर एक शूद्र समाज था, लेकिन उनकी पश्चिमी शिक्षा, सत्ता और धन तक पहुंच थी. गुरु ने मंदिर बनाने जैसे क्रांतिकारी कदम उठाए, जो मुख्यतः एझावा लोगों के लिए थे, लेकिन उससे नीची जाति के लोग भी इन मंदिरों में आ सकते थे. जब ऊंची जातियों के लोगों ने मंदिर में अभिषेक पर सवाल उठाए तो उन्होंने कहा कि वह इझावा शिव का अभिषेक कर रहे हैं न कि ब्राह्मण शिव का.

"केरल पुनर्जागरण का एक बड़ा बिंदु सभी के लिए मंदिर खोलना था. त्रावणकोर और कोच्चि के राजाओं द्वारा मंदिर में प्रवेश का ऐलान किसी प्रकार का उपहार नहीं बल्कि दशकों से चले आ रहे आंदोलनों का नतीजा था."

अय्यनकाली दलित पुलाया जाति के थे और उन्होंने केरल के इतिहास की पहली किसान हड़ताल का नेतृत्व किया था. सालों से वह स्कूलों में दलितों को दाखिला देने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे थे, लेकिन जब सरकार ने 1907 में इसे लेकर एक आदेश पास किया तो जमींदार वर्ग के प्रबंधन वाले कई स्कूलों ने यह आदेश मानने से इनकार कर दिया. इसके जवाब में अय्यन ने पुलायों से जमींदारों के खेत न जोतने का आह्वान किया. 1910 में जब सरकार ने आदेश को सार्वजनिक किया, तो नायरों की भीड़ ने पुलायों की संपत्तियों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया और स्कूल जाते दलित बच्चों का रास्ता रोका. उन्होंने इस भीड़ का सामना किया. अय्यनकाली को अहसास हुआ कि पुलाया को अपने स्कूल खोलने चाहिए. उसके बाद उन्होंने वेंगानूर में स्कूल खोला. ऊंची जातियों द्वारा पांच बार इसे नष्ट करने के बाद भी यह स्कूल चलता रहा.

वक्कोम मौलवी ने मुस्लिम समाज में पुनर्जागरण के मूल्यों को संजोया और आधुनिक शिक्षा लाकर समाज में फैली कुरीतियों से लड़ाई लड़ी. नारायण गुरु के साथ काम करते-करते छतांपी स्वामीकल ने नायरों को ब्राह्मण आधिपत्य से बाहर निकालने के साथ-साथ नायर समाज में फैली सामाजिक बुराईयों जैसे छूआछूत और उप-जाति के बंधन को खत्म किया. वीटी भटात्रीपाद और आगे चलकर राज्य के मुख्यमंत्री बनने वाले ईएमएस नंबूदरीपाद योगक्षमा सभा के जाने-पहचाने चेहरे थे, जिन्होंने अंग्रेजी को लोकप्रिय बनाया और नंबूदरी ब्राह्मण समाज में पर्दा प्रथा को समाप्त किया.

सबरीमाला में एक महानगरीय संस्कृति है. यह मंदिर पूरे दक्षिण भारत में हिंदुओं के लिए पवित्र है और सभी धर्मों के लोगों के लिए खुला है. अरुण शंकर/एएफपी/ गैटी इमेजिस

केरल पुनर्जागरण का एक बड़ा बिंदु मंदिरों को सभी के लिए खोलना था. 1924-25 का वायकोम सत्याग्रह और 1931-32 का गुरुवायूर सत्याग्रह का नाम दलितों को मंदिर में प्रवेश और उनके रास्तों पर जाने की इजाजत दिलाने के लिए प्रमुखता से लिया जाता है, लेकिन पिछले सैंकड़ों सालों में इझावा और दलित ऐसे कई आंदोलन कर चुके थे. 1806 में वायकोम मंदिर में पूजा करने की कोशिश करने वाले लगभग 200 इझावा लोगों को त्रावणकोर के दीवान ने सेना भेजकर मरवा दिया था. इनकी लाशें मंदिर के पास बने तालाब में फेंकी गई थीं. इस घटना को दलावाकुलम (दीवान का तालाब) जनसंहार के नाम से जाना जाता है. 1936 में त्रावणकोर, कोच्चि में 1947 और मद्रास मंदिर प्रवेश कानून, 1947, जो मालाबार के मंदिर में सभी को प्रवेश की इजाजत देता है, किसी उपहार के तौर पर नहीं आया है, यह सदियों से चले आंदोलनों का नतीजा है, जिनमें अकसर हिंसा होती थी.

केरल पुनर्जागरण के सुधार, लिंग के मामले मुद्दे पर ज्यादा समय तक नहीं चले और सबरीमाला आंदोलन ने समकालीन मलयाली समाज के पितृसत्तात्मक स्वरूप को उजागर कर दिया.

पेरियार टाइगर रिजर्व के घने जंगलों में स्थित सबरीमाला केरल के सबसे मशहूर मंदिरों में से एक है, जहां हर साल लगभग 5 करोड़ श्रद्धालु आते हैं. मंदिर आने से पहले भक्त 41 दिनों की एक तपस्या करते हैं और उस चोटी पर नंगे पैर चढ़ते हैं जहां मंदिर स्थित है. वह अपने साथ नारियल, घी, शहद और कपूर का चढ़ावा लाते हैं. एक औसत पवित्र मलयाली हिंदू के लिए सबरीमाला केरल के दो सबसे जरूरी मंदिरों में से एक है. दूसरा मंदिर गुरुवयुर का है. हालांकि, गुरुवयुर के विपरीत सबरीमाला में महानगरीय संस्कृति है. यह मंदिर पूरे दक्षिण भारत में हिंदुओं के लिए पवित्र और सभी धर्मों के लोगों के लिए खुला है.

मंदिर के देवता अयप्पा को ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में माना जाता है, हालांकि, पौराणिक कथाओं में इसे लेकर विवाद है. एक नजरिए के हिसाब से अयप्पा, पंडालम के राजा राजशेखर के दत्तक पुत्र हैं, जो जंगल में मिला था और जिसने अवतार लिया था. उन्होंने एक तपस्वी का जीवन जीने के लिए सिंहासन का त्याग किया था. अपने पिता के गुस्से को शांत करने के लिए वह राजशेखर को एक बार आने की इजाजत देता है और उससे एक मंदिर बनाने को कहता है जहां अय्यपा के भक्त आ सकें. हालांकि, केआर मीरा ने मुझे बताया कि जब कोटाराथिल संकुनि केरल की मिथकों का संकलन कर रहे थे, जिसे उन्होंने 1934 में अठियामाला के रूप में प्रकाशित किया था, तो उन्हें पंडालम शाही परिवार ने बताया कि अयप्पा को एक दत्तक पुत्र नहीं बल्कि सेना का कमांडर माना जाता है. उन्होंने कहा, "अयप्पा को एक दत्तक पुत्र मानने का यह मिथ 1970 में बनी एक फिल्म के बाद आया."

पूर्व थंत्री कंडरारू महेश्वरारू का दावा है कि उनका परिवार 100 ईसा पूर्व से सबरीमाला में पूजा कर रहा है, लेकिन मला अराया समुदाय और दूसरे कई इतिहासकार इस दावे को खारिज करते हैं. सौजन्य : मलयाला मनोरमा

स्थानीय मला अराया जनजाति के नजरिए से अयप्पा का जन्म नि:संतान आदिवासी दंपत्ति के घर हुआ था. दंपत्ति ने चोल साम्राज्य की ताकत का विरोध करने के लिए बेटे की चाह में 41 दिनों तक तपस्या की थी. दोनों नजरियों में मानव जीवन का अंत होने के बाद अयप्पा शाष्ठा भगवान में मिल जाते हैं.

हालांकि ताणमोन परिवार के कंडरारू महेश्वरारू दावा करते हैं कि उनका परिवार 100 ईसा पूर्व से सबरीमाला मंदिर में पूजा कर रहा है लेकिन मला अराया समुदाय और कई इतिहासकार इसका खंडन करते हैं. समुदाय का दावा है कि 19वीं सदी तक मला अराया समुदाय मंदिर का सरंक्षक था, उसके बाद त्रावणकोर के राजा ने सबरीमाला मंदिर समेत पंडालम राजाओं की संपत्तियों का अधिग्रहण कर उन्हें वहां से भगा दिया. थाझोमोन परिवार को 1902 में त्रावणकोर ने मंदिर के प्रबंधन के लिए नियुक्त किया था.

2 अक्तूबर, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के चार दिन बाद पंडालम में नाम जप यात्रा आयोजित की गई थी. सौजन्य : मलयाला मनोरमा

भीषण आग लगने के बाद मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया और इसके बाद 1950 में इसे त्रावणकोर देवस्वाम बोर्ड के अधीन लाया गया. 1955 में टीडीबी ने 10 से 55 साल की औरतों के मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. केरल हिंदू सार्वजनिक पूजा स्थल (प्रवेश का अधिकार) नियम, 1965, जिसे राज्य के मंदिरों को सभी हिंदुओं के लिए खोलने के लिए लाया गया था, जिसमें अपवाद के तौर पर ऐसी "महिलाओं को उस समय मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं होगी जब परंपरा ऐसा करने को कहेगी' को शामिल किया गया. इसके साथ गैर-हिंदू, ऐसे लोग, जो अपने परिवार में हाल ही में हुए जन्म या मौत से 'दूषित' हो, शराब पीएं या पागल व्यक्ति, 'घृणित या संक्रामक रोग' से पीड़ित व्यक्ति और भिखारियों पर मंदिर में प्रवेश पर रोक लगाई गई.

24 सितंबर 1990 को एस महेंद्रन ने केरल हाई कोर्ट में याचिका दायर की. इसमें शिकायत की गई कि जवान महिलाएं मंदिर में पूजा कर रही हैं जो प्रथा का उल्लंघन है. इसके जवाब में दिए गए शपथपत्र में टीडीबी ने दावा किया कि केवल मंडलम, मकराविलक्कु और विशु के दौरान मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है. इसके अलावा बाकी समय में सभी औरतें मंदिर में प्रवेश कर सकती हैं. शपथपत्र में कहा गया है कि मासिक पूजा के दौरान मंदिर में महिलाओं का आना आम बात है. (महेंद्रन ने अपनी शिकायत में सबरीमाला में टीडीबी कमिश्नर के नवजात पोते की चावल रस्म का जिक्र किया था, जिसमें उसकी मां भी मौजूद थी, जिनकी उम्र 10-50 साल के बीच थी, जिस उम्र की महिलाओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित था.) टीडीबी ने ऐसे मौके पर थंत्री के आदेशों के पालन करने की भी बात कही.

"हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका में कहा गया कि 1965 का महिलाओं को मंदिर में प्रवेश का अधिकार देने वाला, उसके अपवाद और 1955 का टीडीबी का नोटिफिकेशन असंवैधानिक है."

जब कोर्ट ने थंत्री से पूछताछ की तो उसने कहा कि 1950 से पहले भी मंदिर में माहवारी होने की उम्र वाली महिलाओं के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध था. ऐसा ही दावा पंडालम शाही परिवार के प्रतिनिधित्व और अयप्पा सेवा संगम के सचिव ने किया. उन्होंने कहा कि उन्होंने प्रतिबंध का उल्लंघन होने के कई मामलों की शिकायत दर्ज कराई है. 1991 में हाई कोर्ट ने "रजोनिवृत्ति से लेकर रजोनिवृत्ति तक" की सभी महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. यानी 10 साल से 50 साल की महिलाओं के सबरीमाला मंदिर में पूजा और मंदिर की चढाई पर रोक लग गई. कहा गया कि यह फैसला पुरानी परंपराओं और संविधान को ध्यान में रखकर किया गया है.

हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. 2006 में इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन और महिला वकीलों के एक समूह ने याचिका दायर की. हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका में कहा गया कि 1965 का महिलाओं को मंदिर में प्रवेश का अधिकार देने वाला, उसके अपवाद और 1955 का टीडीबी का नोटिफिकेशन असंवैधानिक है. उन्होंने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 26 धार्मिक संप्रदायों को अपने मामले संभालने की इजाजत देता है, लेकिन यह अयप्पा पर लागू नहीं होता. अयप्पा पंथ धार्मिक संप्रदाय के रूप में योग्य नहीं था, क्योंकि अनुच्छेद कहता है कि आजादी नैतिकता के अधीन है, महिलाओं को मंदिर में जाने से रोकना संवैधानिक दृष्टि से अनैतिक है.

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय बेंच इस बार पर सहमत हो गई. बेंच ने बहुमत से मंदिर-प्रवेश में बनाए गए अपवादों को खारिज कर दिया, जबकि डीवाई चंद्रचूड़ ने टीडीबी के नोटिफिकेशन को खारिज करने की राय दी. केवल इंदु मल्होत्रा ने बेंच से अलग अपनी राय रखी और कहा कि हिंदु धर्म के लिए प्रतिबंध जरूरी था, इसलिए यह कोर्ट के दायरे से बाहर था.

हिंदूवादी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एक अपमान की तरह लिया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के चार दिन बाद 2 अक्तूबर को पंडलाम में एक “नाम जप यात्रा” आयोजित की गई. इसमें ऊंची जातियों की हजारों महिलाओं, कंडरारू मोहनारू, महेश्वरारू ने थंत्री के तौर पर और उनके भतीजे और कांग्रेस विधायक पीसी जॉर्ज ने 1920 के दशक में वायकोम सत्याग्रह का समर्थन करने वाली नायर सेवा समिति के सदस्य के तौर पर हिस्सा लिया. मंदिर में तीर्थयात्रा शुरू होने के पहले दिन मंदिर के सामने भीड़ इकट्ठा हो गई और महिला पत्रकारों सहित उन महिलाओं को निशाना बनाया, जो उन्हें लगा कि प्रतिबंध को चुनौती दे रही हैं.

इलाईडोम ने मुझे बताया, "सबरीमाला मामले में बहुत-सी महिलाएं सड़कों पर प्रदर्शन कर रही थीं. शायह वह अपनी जिंदगी में पहली बार ऐसा कर रही हैं और यह मुक्ति की बात लग सकती है, लेकिन इससे उन्हें क्या मिला? कुछ आदिम धारणाओं के लिए वह सड़कों पर थीं, उनमें कुछ अधेड़ उम्र की शिक्षित महिलाएं भी शामिल थीं."

हालांकि, राजनीतिक पार्टियां आंदोलन के शुरुआती दिनों से अपनी उपस्थिति को लेकर स्पष्ट थीं. जल्दी ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी, जो अभी तक महिलाओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध का विरोध कर रही थी, ने अपना रुख बदल लिया. उन्होंने कहा कि श्रद्धालुओं की भावनाओं का सम्मान होना चाहिए और प्रतिबंध हटाने के पक्ष में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार द्वारा दिए गए हलफनामे को लेकर उस पर निशाना साधा. आरएसएस ने अगले तीन महिनों में सात हड़तालें बुलाईं और राजनीतिक हिंसा में संलिप्त संघ के कैडर, मंदिर जा रही महिलाओं को रोकने वाली भीड़ में शामिल थे. प्रदेश कांग्रेस ने भी ऐलान किया कि वह श्रद्धालु्ओं के साथ है और कोर्ट के फैसले का विरोध किया. मुश्किलों में घिरी सरकार ने कहा कि वह फैसले के साथ खड़ी है और मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को सुनिश्चित करने के हरसंभव कदम उठाएगी.

इस परिस्थिति में केवल भीड़ से बचाकर महिलाओं को मंदिर में प्रवेश दिलवाना एक चुनौती नहीं थी बल्कि लोगों को यह भी समझाना था कि ऐसा किया जाना क्यों जरूरी है. इलाईडोम और कपिकाड़ इस काम पर लग चुके थे.

17 दिसंबर को मैंने कोचिन एयरपोर्ट से लगभग छह किलोमीटर दूर कलाडी में श्री शंकराचार्य यूनिवर्सिटी का दौरा किया. प्रवेश द्वार के पास बनी तीन मंजिला इमारत के बाहर हथियारबंद पुलिसवाले खड़े थे. तीसरी मंजिल पर इलाईडोम के दिवंगत साथी, दलित चिंतक और कार्यकर्ता प्रदीपन पंबीरिकुन्नु का स्मृति समारोह आयोजित हो रहा था. पुलिस की इतनी मौजूदगी समारोह के मुख्य वक्ता मैग्सेसे अवार्ड विजेता लेखक और संगीतकार टीएम कृष्णा के कारण थी, जिन्होंने उस शाम स्मृति भाषण दिया. नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना, ब्राह्मणों के अधिपत्य वाले कर्नाटक संगीत को प्रजातंत्रीय बनाने की चाह और ईसाई भजन गाने के कारण कृष्णा कट्टरपंथियों के निशाने पर थे. कपिकाड़ भी अपने दोस्त और कार्यकर्ता की स्मृति में भाषण देने वाले थे.

जब मैं अंदर गया तो इलाईडोम और कपिकाड़ दोनों स्टेज पर थे और उनके सिर कृष्षा के भाषण में मगन थे. कृष्णा ने कर्नाटक संगीत की खूबसूरती और बदसूरती पर लेक्चर दिया. कपिकाड़ पूरी तरह बंधे हुए बैठे थे, उनका चेहरा भाव-रहित था, जबकि इलाईडोम सिर हिला रहे थे और कई बार मुस्कुरा रहे थे.

"केरल के हर गांव में लाइब्रेरी और फिल्म क्लब है. अकसर सड़क किनारे भीड़ इकट्ठा होती है जहां वक्ता दिन के राजनीतिक मुद्दे पर बहस करते हैं. उत्तर केरल के बीड कॉर्पोरेटिव्स में एक श्रमिक रोजाना जोर-जोर से अखबार पढ़ता है."

समारोह के बाद कृष्णा पुलिस के साथ चले गए और इलाईडोम उन्हें छोड़ने गए. कपिकाड़ ने भीड़ से बातचीत करना शुरू कर दिया. जब भीड़ कम होने लगी तो मैंने उनसे इंटरव्यू की दरख्वास्त की. बिना किसी औपचारिकता के उन्होंने एक सिगरेट निकाली और हॉल के वरांडा की तरफ चल दिए. कश लगाते-लगाते वह बात करने लगे. जब मैं इलाईडोम से मिला तो वह काफी सौम्य थे, लेकिन उस कार्यक्रम के आयोजक होने के नाते होने वाले कामों के चलते उन्होंने इंटरव्यू नहीं दिया. जब समारोह खत्म हो गया, उन्होंने मेहमानों के जाने का इंतजार किया. इसके बाद सेमिनार हॉल को ताला लगाया और इसकी चाबी विभाग के ऑफिस में जमा कर दी. बाद में मैंने उन दोनों के घर उनका इंटरव्यू लिया.

केरल हमेशा से ऐसी जगह रही है जहां हमेशा बुद्धिजीवियों का सामाजिक रुतबा रहा है और राजनीतिक विचार-विमर्श राज्य की संस्कृति का हिस्सा है. लेखक मनु एस पिल्लई ने मुझे बताया, "आमतौर पर मलयालम-भाषी बुद्धिजीवी एलीट दायरे या सेमिनार के दायरे में बंधे नहीं हैं. वह लोगों से बात करते हैं." केरल के हर गांव में लाइब्रेरी और फिल्म क्लब है. अकसर सड़क किनारे भीड़ इकट्ठा होती है जहां वक्ता दिन के राजनीतिक मुद्दे पर बहस करते हैं. उत्तर केरल के बीड कॉर्पोरेटिव्स में एक श्रमिक अपने साथी श्रमिकों के लिए रोजाना जोर-जोर से अखबार पढ़ता है. कई बुद्धिजीवी जैसे शिक्षाविद सुकुमार अझिकोड, एमएन विजयन और एमएन करासेरी अपनी वाक-कला के लिए जाने जाते हैं. पिल्लई कहते हैं कि आम लोगों से कटे रहने वाले एंग्लोफोन बुद्धिजीवी के उलट केरल के बुद्धिजीवी "अभी भी प्रभावी और सक्रिय रूप से किसी बातचीत को प्रभावित कर सकते हैं. वह उस इकोसिस्टम का हिस्सा हैं जिसकी वह बात करते हैं."

कवि के सच्चिदानंदन ने मुझे बताया कि जैसे इलाईडोम और कपिकाड़ ने सबरीमाला बहस में दखल दिया था, अझिकोड ने "बाबरी मस्जिद कांड के समय ऐसे ही शक्तिशाली दखल दिया था. वह शायद अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने केरल के हर छोर की यात्रा की और लोगों को इस हमले के खतरों के बारे में बताया." पिल्लई करासेरी के भाषण के बारे में बताते हैं, "यह याद रहने वाला अनुभव है. उनकी भाषा की लय और विचारों की शक्ति कभी नहीं भूल सकता."

हालांकि, लेखक पॉल जकारिया को इस बात पर संदेह था कि क्या केरल के महान वक्ता सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्षम हैं. उन्होंने मुझे बताया, "बुद्धिजीवी और उनके विचार कभी भी राजनीतिक विचार को पछाड़ नहीं सकते. उन्हें केवल दिखावटी उद्देश्य के लिए सुना जाता था. अझीकोड पूरी तरह दिखावटी था. वह और एमएन विजयन अग्रणी बुद्धिजीवी माने जाते हैं, लेकिन वह समाज में स्थायी बदलाव नहीं ला सके." राज्य में राजनीतिक वर्ग पूरी तरह निर्बाध रहा. मीडिया को पुनर्जागरण, भविष्य, महिला और लोकतंत्र विरोधी कहते हुए वह कहते हैं कि मीडिया ने इन बुद्धिजीवियों को अपने लिए इस्तेमाल किया. "जब सुकुमार अझिकोड सुबह उठते थे तो वह अपने आप, अपने भाषण और फोटो को मातृभूमि और मनोरमा के फ्रंट पेज पर देखते थे और इस तरह उन्होंने सुकुमार को खत्म कर दिया. अब उन संदेशों को कौन याद करता है. अगर उन्होंने कोई किताबें लिखी होतीं तो वह उनके बाद भी रहती और लोग उन्हें लाइब्रेरी में पढ़ रहे होते."

इलाईडोम ने मुझे बताया, "अझिकोड समाज के शक्तिशाली वर्ग पर हावी हो सकते थे. उन्होंने सत्ता और अधिकार से टक्कर ली और धर्म को चुनौती दी. लोग इसीलिए उन्हें प्यार करते हैं." वह अपने भाषण में विजयन के स्टाइल की नकल करने के लिए भी जाने जाते हैं. लेकिन उन्होंने यह बात स्वीकार की कि केरल के सबसे ज्यादा चहते बुद्धिजीवी हमेशा औसत दर्जे के रहे.

वाक कला के ऊपर एक निबंध में अझिकोड लिखते हैं, "जो हम बोलते हैं वह अगर शब्द है तो शब्द की सबसे सच्ची कला भाषण है, साहित्य नहीं. वक्ता का सबसे जरूरी काम अपने भाषण को श्रोताओं के दिल में उतारना है. इसके लिए वक्ता को सबसे पहले खुद को विषय में डुबाना पड़ेगा. पहले वह विषय खुद वक्ता में उतर चुका होना चाहिए. अगर विषय वक्ता के दिल में नहीं उतरा तो वह श्रोताओं के दिल में उतारना मुश्किल हो जाएगा." वह लिखते हैं, "वक्ता का सबसे जरूरी काम लोगों को खास कर युवाओं को जागरुक करना होता है."

2 जनवरी को 2 महिलाएं, कनकदुर्गा और बिंदु अम्मिनी सबरीमाला मंदिर में पहुंच गई. प्रदर्शनकारियों को चकमा देने के लिए पुलिस रात को उन्हें मंदिर लेकर गई. एएफपी/गैटी इमेजिस

इलाईडोम और कपिकाड़ ने सबरीमाला बहस के बीच में आकर वही किया. इलाईडोम ने मुझे बताया, "मेरे ख्याल से युवा इन विचारों के प्रति ज्यादा ग्रहणशील होते हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक सप्ताह बाद जब मैंने पहली बार सबरीमाला मामले पर बोलना शुरू किया तो लोगों को संदेह था. उन्हें डर था कि ये कहीं नियंत्रण से बाहर हो गया तो, लेकिन अब मेरा भाषण सुनकर उनमें उत्साह आता है. वह हर शब्द सुनते हैं. इसलिए मेरे शब्दों का विरोध भी कमजोर हो गया है." उन्होंने कहा कि उन्हें हर रोज भाषण देने के लिए बुलाया जाता है, लेकिन वह महीने में 10-15 बार ही भाषण देते हैं.

उनके भाषण सोशल मीडिया पर बहुत लोकप्रिय हैं. अगर भारत के किसी समकालीन बुद्धिजीवी के भाषण के यूट्यूब वीडियो से उनकी तुलना करें तो यह स्पष्ट हो जाता है. 2013 में अमर्त्य सेन द्वारा ब्राउन यूनिवर्सिटी में असमानता पर दिए गये भाषण के 55 हजार से थोड़े ज्यादा व्यूज हैं. 2010 में रामचंद्र गुहा और रोमिला थापर के इंटरनेशनल डेवलेपमेंट रिसर्च सेंटर के पब्लिक लेक्चर के क्रमशः 2.5 लाख और 75 हजार व्यूज हैं. दूसरी तरफ इलाईडोम के सबरीमाला मुद्दे से जुड़े पहले भाषण के 1.5 मिलियन व्यूज हैं. जबकि कपिकाड़ के इस मामले पर दिए गए भाषण, जो कुछ महीने पुराने हैं, के 20 से 50 हजार के बीच व्यूज हैं. इसमें वॉट्सऐप जैसे दूसरे प्लेटफॉर्म पर शेयर किए वीडियो के व्यूज शामिल नहीं हैं.

कपिकाड़ ने मुझे बताया कि सोशल मीडिया पर उनके भाषणों की लोकप्रियता ने उन्हें ज्यादा बड़े ऑडियंस तक पहुंचने में मदद की है. उन्होंने कहा, "मेरा भाषण सुनने के बाद दिल्ली, यूरोप, कनाडा से अब मुझे अनजान दोस्तों के फोन आते हैं, असल जिंदगी में मुझे उनसे अभी मिलना है. इस ध्यान ने मुझे दृश्यता दी है." उन्हें केरल के अलग-अलग स्थानों और पश्चिम एशिया के मलयाली डायस्पोरा में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया जाता है.

सच्चिदानंद ने मुझे बताया हालांकि, उन्हें लोकप्रियता सबरीमाला बहस के दौरान मिली है, लेकिन इलाईडोम और कपिकाड़ "हमेशा से केरल के सार्वजनिक बहस के मुद्दे में सारगर्भित हस्तक्षेप के लिए जाने जाते रहे हैं. ये लोग सामने आते हैं और नुक्कड़ों, सार्वजनिक बहसों और दूसरी जगहों पर जहां लोग इकट्ठा होते हैं, उन्हें संबोधित करते हैं." वह इस बात पर सहमत थे कि ये राजनीतिक सिद्धांतवादी एंटोनियो ग्राम्स्की की जैविक बुद्धिजीवी की परिभाषा पर खरा उतरे हैं. "उन दोनों ने जनमानस को जगाने के लिए जो किया है, वह मैं मानता हूं कि बहुत जरूरी गतिविधि है."

इलाईडोम और कपिकाड़ एर्नाकुलम महाराजा के कॉलेज में पढ़ते समय दोस्त बने थे. इलाईडोम उस वक्त सीपीआई (एम) के छात्र संगठन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के नेता थे और कॉलेज के छात्र संघ में चुने गए थे, जबकि उनके एक साल सीनियर कपिकाड़ वाम-विरोधी स्टूडेंट फोरम नामक समूह के हिस्सा थे.

कपिकाड़ ने कहा कि महिला दीवार ने अपनी वैधता उस समय खो दी, जब सीपीआई (एम) के राज्य सचिव ने कहा कि कहा कि यह सबरीमाला मुद्दे पर जनमत-संग्रह नहीं है. एएफपी/गैटी इमेजिस

इलाईडोम अभी तक अपने पैतृक निवास कोच्चि के परवूर में अपनी मां, पत्नी और बच्चों के साथ रहते हैं. वह काम के लिए बस से आते-जाते हैं. उन्होंने कहा, "मैं बस में सफर करते समय पढ़ता था, लेकिन अब मेरी आंखें मेरा साथ नहीं देतीं." भाषण देने के लिए वह बाइक या कार से जाते हैं. उन्होंने मुझे बताया, "जब मैं बाइक पर हेलमेट पहन कर कहीं भाषण देने जाता हूं तो लोग पहचान नहीं पाते हैं. उन्हें यह उम्मीद नहीं होती कि मैं बाइक से आऊंगा."

जब मैं उनके घर पहुंचा तो मुझे एक थुलासितारा- तुलसी के पौधे के साथ एक परंपरागत तख्त दिया गया. घर की हर दीवार किताबों से ढकी हुई थी. उन्होंने कहा, "अब किताबें मेरे लिए किफायती हो गई हैं, पहले नहीं थी." वह किताब-खरीद योजना के तहत कॉलेज के समय से किताबें इकट्ठी कर रहे हैं. "मेरे पास एक इन्वेंटरी है और मैं इसे कुछ महीनों बाद अपडेट करते रहता हूं." जब वह गर्व से अपनी लाइब्रेरी दिखा रहे थे, उनकी मां ने चुपके से एक कोने में बने पूजा घर का इवनिंग लैंप जला दिया.

अपने कॉलेज के दिनों तक भगवान को मानने वाले इलाईडोम ने कहा, "मैं भगवान में भरोसा नहीं करता. मुझे पता है कि यह एक आध्यात्मिक समझ है, लेकिन अगर आप मुझसे एक तर्कवादी के रूप में पूछें कि समाज को इस बारे में शिक्षित करना चाहिए तो शायद मैं आपसे असहमति रहूं. भगवान का विचार एक-आयामी घटना नहीं है, इसके नैतिक निहितार्थ है. ऐतिहासिक रूप से हम देख सकते हैं कि भगवान के विचार ने मुक्ति संबंधी बल के रूप में काम किया था. इसने दमनकारी भूमिका भी निभाई है."

उन्होंने कहा कि अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत में उन्होंने हिंदुत्व को "समाज के लिए एक बड़े खतरे के रूप में देखा." उन्होंने देखा कि हिंदुत्व की राजनीतिक अभिव्यक्ति में किसी प्रकार की आध्यत्मिकता नहीं थी. "मैंने हमेशा आध्यात्मिकता का सम्मान किया है और मेरा विश्वास है कि इसमें नैतिक आयाम हैं. एक मर्दाना बल है जो हिंदुत्व को आगे बढ़ा रहा है. मेरा इस प्रकार की जोर-जबरदस्ती से हमेशा विरोध रहा है."

इलाईडोम वामपंथी हैं लेकिन वह कई बार सीपीआई(एम) की नीतियों पर भी सवाल उठाते हैं. वह अपने महाभारत लेक्चर्स की वजह से लोकप्रिय हुए थे, जिसमें उन्होंने सालों में अपनी कई व्याख्याओं के माध्यम से महाकाव्य को देखा. उन्होंने नारायण गुरु पर भी एक लेक्चर सीरीज की थी. शोध विद्वान रफीक इब्राहिम के साथ बातचीत पर आधारित उनकी किताब अपरादे थोडुंबोल में वह महाभारत के साथ अपने जुड़ाव के बारे में कहते हैं कि "अगर आप किले के बाहर से शोर मचाते हैं तो यह बहुत बड़ी बात नहीं है. अगर इसे खत्म करना है तो अंदर जाकर लड़ाई लड़नी होगी. हालांकि, यह मुश्किल काम लग सकता है, लेकिन अगर आपके पास सारे जरूरी हथियार हैं तो आप किसी भी किले को आसानी से खत्म कर सकते हैं."

अपने महाभारत लेक्चर्स के कारण उन्हें उदारवादी हलकों में आलोचना का सामना भी करना पड़ा. उन पर आरोप लगाए गए कि उन्होंने हिंदुत्व का एजेंडा ले लिया है. इलाईडोम ने मुझे बताया कि वह कपिकाड़ की आलोचना से समहत थे कि यह महाकाव्य उन्हें निगल सकता है. "लेकिन हमें इसकी बहुलता पर बहस करनी चाहिए." उन्होंने कहा, "गुप्ता काल से यह ब्राह्मणवादी काव्य बनना शुरू हुआ और इसके बाद यह मुख्यधारा में आया, लेकिन यह बात सही नहीं है कि यह महाभारत है. जब हम पाठ की ऐतिहासिकता भूलकर इसे केवल ब्राह्मणवादी ढांचे में सीमित कर देंगे तो हम इसे पूरी तरह हिंदुत्व के हवाले कर रहे हैं."

हिंदू महाकाव्य के अलावा कपिकाड़ के भाषणों और लेखों में अकसर संविधान और इसमें दी गई न्याय की अवधारणा का प्रमुखता से जिक्र होता है. उन्होंने 90 के दशक में सार्वजनिक भाषण देने शुरू किए थे और 1997 में मलयालम साहित्य में दलितों की मौजूदगी पर लिखे एक निबंध से उन्हें लोकप्रियता मिली. सालों से वह दलितों और आदिवासियों के कई संघर्षों में शामिल रहे हैं. नवंबर में केरल साहित्य अकादमी में भाषण देते हुए उन्होंने कहा, "जब हम जाति बता रहे होते हैं, तो हम दलित की नहीं भारत की बात कर रहे होते हैं. हम अनुसूचित लोगों की बात नहीं कर रहे होते, हम पूरे भारत की बात कर रहे होते हैं कि कैसे भारतीय समाज बना और इसके क्या मूल्य हैं."

बाद में दिसंबर में मैं वायकोम में एर्नाकुलम रोड स्थित कपिकाड़ के ऑफिस गया. उनका आधिकारिक नाम एस अनिलकुमार है, लेकिन उन्हें घर पर सनी कहा जाता है. जब उन्होंने भाषण देने शुरू किए तब उन्हें इसी नाम से जाना जाता था. उन्होंने कहा, "बाद में मुझे इसे ठीक करने का मौका ही नहीं मिला." उन्होंने बताया कि सबरीमाला बहस ने उनके ऑफिस रूटीन को बिगाड़ दिया है. उन्होंने स्वीकार किया है कि वह इस मुद्दे पर आयोजन कर इतने तल्लीन हो जाते हैं कि कई बार ऑफिस का काम करने का मन नहीं करता. भाषण देने जाने के कारण उनकी सारी छुट्टियां खत्म हो गई थीं और वह बिना वेतन की छुट्टियों पर अपनी राजनीतिक गतिविधियां कर रहे थे.

"इलाईडोम ने स्वीकार किया कि अगर लेफ्ट को प्रासंगिकता बनाए रखनी है तो इसे जाति के बारे में बात करनी होगी और मुझे लगता है कि लेफ्ट का अधिकतर बुद्धिजीवी वर्ग इस बात पर सहमत होगा, लेकिन इस समझ को राजनीतिक आंदोलन में कैसे शामिल करना है, इस बारे में लेफ्ट अभी तक जूझ रहा है."

कपिकाड़ ऑफिस से एक घंटे की दूरी पर कोट्टायम में रहते हैं और रोजाना बस से सफर करते हैं. उन्होंने मुझे बताया, "इस समय को मैं पत्रिकाएं और जर्नल पढ़कर बिताता हूं." दिन ढलने पर हम उनके घर के लिए रवाना हुए. एक मंजिला बिना चार दीवारी का किराये का घर सड़क के पास ही था. जैसे ही हम घर में घुसे, उन्होंने अपनी पोती को फर्श से उठाया और उसके साथ खेलने लग गए, इस दौरान उनकी बेटी चाय बनाकर ले आई. घर आते समय उन्होंने मुझे बताया कि वह घर के रोजमर्रा के काम नहीं करते हैं और घर का खर्च उनकी पत्नी चलाती है, जिनका घर के पास एक टेलरिंग सेंटर है. इससे उन्हें सार्वजनिक जीवन जीने में मदद मिलती है, जिसमें बहुत कम आर्थिक फायदा होता है.

उनके लिविंग रूम में अंबेडकर की दो बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगी हैं, जिसमें से एक पेंटिंग उन्हें रियास कोमू ने गिफ्ट की थी. उनका रीडिंग रूम किताबों से भरा है, हालांकि, उनके पास इलाईडोम से कम किताबें हैं. उन्होंने बताया, "जब मुझे किताबों की जरूरत होती है तो मैं यूनिवर्सिटी में अपने दोस्त के पास जाता हूं. मैं ज्यादा किताबें नहीं खरीदता."

कपिकाड़ देश की दक्षिण और वामपंथी राजनीति पर कड़े प्रहारों के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने एक बार वामपंथियों के लिए कहा था कि "ये लोग वेदों में क्रांति ढूंढ रहे हैं." अगस्त 2018 में फ्रीथिंक्रस मीट के दौरान उन्होंने वामपंथी नेता एसए डांगे का मजाक उड़ाया था, जिन्होंने लिखा था कि पुराने वैदिक समाज आदिम साम्यवाद के उदाहरण थे. यहां तक कि वह इलाईडोम को भी नहीं छोड़ते. इलाईडोम कहते हैं, "आपको कौन सा राम चाहिए." वह कहते हैं, "हमें कोई राम नहीं चाहिए, हम कब से यही कहने की कोशिश कर रहे हैं."

फिर भी, कपिकाड़, इलाईडोम के वाम और दलितों के बीच की खाई को भरने के लिए किए गए प्रयासों की सराहना करते हैं, जिसे भरने में वामपंथी ऐतिहासिक रूप से असफल हुए हैं. उन्होंने मुझे बताया, "पिछले कुछ समय में सुनील को सुनने पर लगता है कि उसका नजरिया विकसित हुआ है. वह अपने आप को विचारधारा के तौर पर खुद के नवीकरण की कोशिश कर रहे हैं. वह गांधी को अपने धर्मनिरपेक्ष हीरो मानते हुए अंबेडकर को और करीब से जानने लगे हैं." कपिकाड़ खुद गांधी को हीरो नहीं मानते और कहते हैं कि उनका पूरा दर्शन ही गलत था. उन्होंने कहा, "गांधी ने कभी ब्राह्मणवाद पर सवाल नहीं उठाए. उनकी विचारधारा उन्हें ऐसा करने से रोकती थी क्योंकि गांधी ने ब्राह्मणवाद को ऐसे देखा था कि हममें से ही किसी को मानवता के अंतिम रूप को प्राप्त करने का लक्ष्य रखना चाहिए."

इलाईडोम ने मेरे आगे स्वीकार किया, "अगर लेफ्ट को प्रासंगिकता बनाए रखनी है तो इसे जाति के बारे में बात करनी होगी और मुझे लगता है कि लेफ्ट का अधिकतर बुद्धिजीवी वर्ग इस बात पर सहमत होगा, लेकिन इस समझ को राजनीतिक आंदोलन में कैसे शामिल करना है, इस बारे में लेफ्ट अभी तक जूझ रहा है."

केरल में वाम आंदोलन को हमेशा से पुनर्जागरण लाने वाला माना जाता है, तब भी जब बीआरपी भास्कर दावा करते हैं कि वामपंथी "पुनर्जागरण लाने वाले नहीं बल्कि इससे फायदा पाने वालों में हैं." इलाईडोम ने मुझे बताया कि कि वाम "पुनर्जागरण के जरिए सामाजिक सरंचना और मूल्य व्यवस्था में आए बदलावों को समझाने में असफल रहा है जो आगे चलकर हमारे इतिहास में काला धब्बा बन गया."

कपिकाड़ के मुताबिक, सबरीमाला की बहस ने वाम के पुनर्जागरण के सरंक्षक होने के दावे को बुरी तरह तोड़ दिया. उन्होंने मुझे बताया, "नाम जप यात्रा की भीड़ ने यह साबित कर दिया कि हम आदिम युग से ज्यादा आगे नहीं आए हैं. चलिए, ऐसी भीड़ हो जाने दो, लेकिन इसका विरोध करने वाली भीड़ क्यों नहीं थी?" उन्होंने कहा कि दिसंबर के अंत तक उन्हें पुनर्जागरण के समतावादी मूल्यों के समर्थन में लोगों में कोई हलचल नहीं दिखी. "लोगों में अभी भी डर है और लोग इसका खुलेआम विरोध नहीं कर रहे हैं."

कपिकाड़ कहते हैं कि सबरीमाला आंदोलन ने वाम-उदार राजनीतिक व्यवस्था को गहरा सदमा दिया है. उन्होंने कहा, "यहां एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था जो इस घटना का विरोध कर सके. दलित और पिछडी जाति आंदोलनों ने उन्हें ऐसी स्थिति से बाहर लाने में बडी भूमिका निभाई है." कपिकाड़ याद करते हुए बताते हैं कि केरल पुलयार महासभा के सचिव पुन्नला श्रीकुमार ने सबसे पहले सामने आकर कहा था कि इस फैसले का स्वागत होना चाहिए. उनके बाद इझावा का प्रतिनिधित्व करने वाली श्री नारायण धर्म परिपालना योगम के सचिव वेल्लापेल्ली नटेसन सामने आए. कपिकाड़ ने कहा, "सभी धर्मनिरपेक्ष लोग बाद में आए."

भास्कर ने मुझे बताया, "सनी कपिकाड़ ने इस मामले में समाज के एक भाग में स्फूर्ति लाने में बड़ी भूमिका निभाई, लेकिन पिनाराई विजयन ने बड़ी चालाकी से लोगों के समर्थन से इस नारे को अपना लिया, जिनकी मूल्यों के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है. उन्होंने ऐसी छवि गढ़ी कि दूसरा पुनर्जागरण आ रहा है और लोगों ने उन्हें दूसरे पुनर्जागरण नेता के रूप में देखना शुरू कर दिया. इसलिए मुझे इस दौर से कोई बहुत बड़ी चीज निकलती नहीं दिखी."

कपिकाड़ ने मुझे बताया, "केरल के मुख्यमंत्री को यह भी पता था कि यह स्थिति दंगों की तरफ जा रही थी तब भी वह संकेत दे रहे थे कि नायर सर्विस सोसाइटी समस्या का हिस्सा नहीं थी." कपिकाड़ एक जनवरी को सरकार द्वारा आयोजित की जाने वाली महिला दीवाम में एनएसएस को शामिल करने के विजयन के प्रयासों की तरफ इशारा कर रहे थे. कपिकाड़ ने सबरीमाला आंदोलन में एनएसएस के शामिल होने को एक "शुद्र लहाला", ब्राह्मणवादी सर्वोच्चता को बचने के लिए आया उभार कहा. उन्होंने कहा, "यह एनएसएस थी, जिसने संघ परिवार के गुंडों को मानव रूप दिया." उन्होंने कहा कि एनएसएस को अपने मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर अपना स्टैंड बदलना होगा, "क्योंकि वह केरल को एक खतरनाक जगह बनाने पर तुले हैं."

उन्होंने कहा, "वनीता माथिल- महिला दीवार ने अपनी वैधता उस समय खो दी जब सीपीआई (एम) के राज्य सचिव कोडियेरी बालाकृष्णन ने कहा कि यह सबरीमाला मामले पर जनमत संग्रह नहीं है. वनिता माथिल को बड़े स्तर पर आयोजित करने की योजना थी, लेकिन इसके आयोजकों के हाथों इसकी राजनीतिक महत्वता खो गई." उन्होंने कहा, "हम इसकी राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक ऊर्जा को आगे ले जाने में असफल हुए. ऐसे सामाजिक आंदोलनों के साथ एक चीज हमेशा रहती है कि हमारे पास उन्हें संभालने के लिए पर्याप्त साधन नहीं होते. उनको संभालने के लिए हमारे पास कोई अनुभव नहीं होता. अगर कोई राजनीतिक रैली हमारा रास्ता रोक रही हो तो हम प्रदर्शन कर सकते हैं, लेकिन अगर यह एक धार्मिक यात्रा हो तो हमारे दिमाग में यह भी नहीं आएगा कि किसी वजह से हमें असुविधा हो रही है." वह कहते हैं कि ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि 'लोकतांत्रिक आंदोलन' हमारे घरों से शुरू होते हैं, इस वजह से हमारे लिए विरोध करना मुश्किल होता है.

सनी कपिकाड कहते हैं कि सबरीमाला आंदोलन ने वाम-उदार राजनीतिक व्यवस्था को गहरा सदमा दिया है. समीर रायचूर/ कारवां

सबरीमाला मुद्दे को जाति के मुद्दे में बदलने के आरोप पर जवाब देते हुए इलाईडोम ने मुझे बताया, "पहले जब मैं सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद के खिलाफ बोलता था तो मुझे कभी ऐसी समस्याएं नहीं आईं. क्योंकि साम्राज्यवाद आपके घर में नहीं है, लेकिन अगर आप जाति को छूते हैं तो यह आपके घर में है. आप कह सकते हैं कि आपके घर में सर्वव्यापी जातिवाद के विपरीत सांप्रदायिकता के लिए कोई जगह नहीं है. यह हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से बहुत नजदीक से जुड़ी है." उन्होंने तर्क दिया कि एनएसएस अपने सुधारवादी अतीत की उपेक्षा कर रहा है, क्योंकि यह पुनर्जागरण का असर है कि नायर ब्राह्मणों के प्रति अपनी अधीनता को समाप्त कर पाए और नायर बच्चों को उनके ब्राह्मण पिताओं ने अपनाया.

कपिकाड़ ने मुझे बताया, "सबरीमाला ऐसी जगह नहीं है जहां नायरों का कोई औपचारिक या पारंपरिक स्थान है, जबकि आदिवासी लोगों के कई औपचारिक स्थान हैं, लेकिन क्या हुआ कि सबरीमाला फैसले के जरिए सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर को सार्वजनिक संपत्ति के रूप में परिभाषित किया. इसलिए अगर कल कोई थंत्र पढ़ा हुआ व्यक्ति यह कह दे कि वह पूजा करेगा, तो उन्हें इस बात से डर लगता है. ऊंची जातियों की बड़ी संख्या अपनी रोजी-रोटी के लिए मंदिर पर निर्भर है. यह फैसला नायरों की आधिपत्य वाली स्थिति पर विपरीत असर डालेगा, इसीलिए वह विरोध कर रहे हैं. साथ ही नायरवाद का गर्व केवल ब्राह्मण पुजारियों के समाज तक रह जाएगा."

दिसंबर में शिक्षाविद रविशंकर एस नायर ने इलाईडोम पर उनकी 2014 में आई किताब अनुभूथिकलुड चेरित्रा जीवीथम में लिखे निबंध के लिए भारतनाट्यम पर लिखी कई किताबों की नकल करने का आरोप लगाया. इसके तुरंत बाद, सच्चिदानंद और केएन पनिक्कर समेत 16 जाने-माने लेखक और शिक्षाविदों ने बयान जारी किया. इलाईडोम ने इसके लिए संदर्भ दिया है लेकिन इनकी मौलिकता का दावा नहीं किया है.

हालंकि, लेखिका और इतिहासकार जे देविका ने दावा किया कि इलाईडोम के काम को लेकर उनकी भी वही चिंताएं हैं जो नायरों की हैं और उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात पर भी शक है कि इलाईडोम का समर्थन करने वाले लोगों ने उनकी किताब पढ़ी भी है. उन्होंने मुझे बताया, "हो सकता है यह उनकी तरफ से गलती हो गई हो. उन्हें सामने आकर माफी मांगनी चाहिए थी और अगले संस्करण में इसे सुधार देना चाहिए था, लेकिन उन्होंने इस पूरे विवाद के दौरान चुप रहना ज्यादा बेहतर समझा. ये लोग शक्ति और प्रभाव वाले हैं, जिनके पास बड़ी संख्या में प्रशंसक, उनके काम में सहायता करने के लिए छात्र और घर चलाने के लिए महिलाएं हैं."

जब मैंने इलाईडोम से इस विवाद के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि उनके समर्थन में आए बयान से ज्यादा उनके पास कुछ कहने को नहीं है. "अगर लोग इतने बड़े लेखकों पर भरोसा नहीं कर रहे हैं तो मुझ पर भी नहीं करेंगे." उन्होंने कहा कि वह बड़े बुद्धिजीवी होने का दावा नहीं करते. उन्हें केवल नुक्कड़ पर बोलने वाले के रूप में पहचाना जाना चाहिए. उनकी किताब का एक ही मकसद था, जो वह इसकी प्रस्तावना में लिखते हैं कि इस विषय पर अलग-अलग विद्वानों के अध्ययनों का एक संकलन स्थानीय भाषा में उपलब्ध कराया जा सके.

देविका ने हादिया केस पर कपिकाड़ के दोषपूर्ण रुख के कारण उनकी भी आलोचना की. हादिया केस में राष्ट्रीय जांच एजेंसी को बुलाकर जांच कराई गई थी कि क्यों हादिया ने मुसलमान बनकर एक मुस्लिम लड़के से शादी की थी. जब यह बात सामने आई कि हादिया के घर वालों ने उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे घर में बंद कर रखा है तो कपिकाड उसके घर गए, लेकिन हादिया से नहीं मिल सके. फिर भी कहा जाता है कि उन्होंने हादिया के पिता केएम अशोकन का यह कहते हुए समर्थन किया था कि "लोकतांत्रिक समाज को एक पिता की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए और हादिया के मामले को दूसरा रूप देकर बात करने की जरूरत नहीं है." देविका ने कहा कि उन्होंने "ऐसे विचार व्यक्त किए जो पितृसत्ता को मजबूत करते हैं."

कपिकाड ने मुझे बताया कि वह हादिया मामले में आज भी अपने रुख पर कायम हैं. उन्होंने कहा, "एक लोकतांत्रिक समाज को अशोकन की कहानी भी सुननी चाहिए. उन्हें दोषी ठहरा देना या उन्हें केवल सामाजिक वस्तु के तौर पर देखना हम में से किसी के लिए ठीक नहीं है. उनके बारे में कहा गया है कि वह हिंदू आतंकवादी हैं और उनकी बात नहीं सुनी गई, जबकि पिता ने शुरुआत में उसकी शादी का विरोध नहीं किया था." उन्होंने जोर दिया कि वह हादिया के धर्म परिवर्तन के अधिकार और मुसलमान से शादी करने के अधिकार के साथ खड़े हैं, लेकिन "उसके अधिकार उसके पिता को मारकर हासिल नहीं किये जाएं. मैं यही कहना चाहूंगा कि यह सब बातचीत के जरिए भी सुलझाया जा सकता था."

देविका ने यह भी आरोप लगाया कि इलाईडोम की पुनर्जागरण की बातें अधिकतर वामपंथी उदारवादियों की तरह हैं जिसमें बीसवीं सदी के नारीवादी और दलित इतिहास की पूरी अवहेलना होती है. इलाईडोम इस आलोचना को स्वीकार करते और कहते हैं कि वह ऐसा करने के लिए सच्चे प्रयास करते हैं. लोगों को अकसर लगता है कि वह अपने भाषणों में उन विषयों को महत्व नहीं देते, जिनको महत्व दिया जाना चाहिए. देविका कहती हैं कि इलाईडोम और कपिकाड़ एक-दूसरे के विरोध में बातें कहते हैं, "लेकिन उनके लिए इन अंतर्विरोधों को सामने नहीं लाना बेहद सुविधाजनक है." देविका ने इस पर दुख प्रकट किया कि वामपंथ में अंबेडकर आंदोलनों में कई सक्षम महिला वक्ता हैं, लेकिन उन्हें खुद को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त मंच नहीं मिलते.

इस बारे में सबरीमाला मामले में लिंग का सवाल उठाते हुए इलाईडोम और कपिकाड़ अकसर कहते हैं कि उन्हें अकेले इस मुद्दे पर नहीं बोलना चाहिए था, और महिलाओं को ऐसा करना चाहिए थे. इलाईडोम कहते हैं, "समस्या यह है कि मैं अगर लैंगिक समस्या को उठाउंगा तो कई लोग मुझसे सहमत होंगे, लेकिन अगर एक महिला ऐसे मुद्दे को उठाएगी तो वह उसे गाली देंगे." ऐसा हुआ भी है. जब जनवरी 2018 में मलयालम एक्ट्रेस रीमा कालिंगल ने टेडएक्स इवेंट में केरल के समाज में पितृसत्ता और राज्य की फिल्म इंडस्ट्री में लैंगिक भेदभाव पर शानदार भाषण दिया तो उन्हें सोशल मीडिया पर गालियां दी गईं. इलाईडोम ने बाद में पत्रकारों को बताया, "रीमा ने एकदम सही राजनीतिक विश्लेषण किया था." इलाईडोम ने कहा कि वह भी समस्या का हिस्सा हो सकते हैं और सामाजिक बातचीत से उन्हें लैंगिक राजनीति समझने में मदद मिली है.

सबरीमाला आंदोलन में पुनर्जागरण के मूल्यों के लिए खड़े होने पर इलाईडोम और कपिका़ड को कई दक्षिणपंथी तत्वों से कई धमकियां मिल चुकी हैं. फेसबुक पर एक यूजर द्वारा उन्हें पत्थर मारने की बात कहने के कुछ दिन बाद 15 नवंबर 2018 को इलाईडोम के यूनिवर्सिटी ऑफिस में तोड़फोड़ की गई. उनकी नामप्लेट को चुरा लिया गया और उनके दरवाजे पर तीन केसरी क्रॉस पेंट कर दिए गए. उन्होंने हिंदू को बताया, "उनका संदेश साफ है. वह मुझे वैसे ही हटाना चाहते हैं जैसे उन्होंने बोर्ड को हटाया है." हालांकि, उन्होंने कहा कि वह अपनी बात पर कायम हैं.

कपिकाड़ को भी धमकी भरे फोन कॉल्स आते हैं. वह उन पर हंसते हैं. उन्होंने कहा, "इन धमकियों से मुझे यह समझ आता है कि अगर आरएसएस मुझे मरवाना चाहता है तो वह ऐसा कर देगा. ऐसा कोई रास्ता नहीं है, जिससे मैं संघ से खुद को बचा सकूं. अगर मार्क्सवादी पार्टी मुझे मारना चाहती है तो वह भी ऐसा कर सकती है. इसलिए अगर जो इतना निश्चित है तो उसके बारे में चिंता करने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा."

सुनील इलाईडोम माने हुए वामपंथी है. हालांकि वह अकसर सीपीआई (एम) की नीतियों पर निशाना साधते हैं. समीर रायचूर/ कारवां

उन्होंने कहा कि वह नहीं मानते कि ये धमकियां किसी राज्य समिति या आधिकारिक संस्था से आ रही हैं. "यहां जो व्यक्ति कह रहा है कि ये धमकी अपनी मर्जी से जारी कर रहा है. उदाहरण के लिए अगर अब कुछ लोग आकर मुझे पहचान लें और यह निश्चित कर लें कि चलो इसका काम करते हैं, यह वहीं से शुरू हो जाता है. अगर वह मंत्री पर हमला करना चाहते हैं तो उन्हें पहले से योजना बनानी होगी. मेरे जैसे आदमी को खत्म करने के लिए उन्हें किसी योजना की जरूरत नहीं है."

इलाईडोम ने मुझे बताया, "मैं बहादुर नहीं, एक आम आदमी हूं, लेकिन जो मैं कहता हूं वह पूरी तरह सच है. मैं न्याय के लिए बोलता हूं और यही मेरी ताकत है. इसलिए मैं मानता हूं कि मुझे इन धमकियों के आगे नहीं झुकना चाहिए." वह कहते हैं कि 70 वर्षीय सच्चिदानंद जैसे कुछ पुराने लेखकों को छोड़कर अधिकतर विवादों का रिस्क लेने से डरते थे. "वह सुरक्षित रहना चाहते थे, जो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. एक तरह से उन्हें हमलों से डर लगता था और हमले बहुत बुरे होते हैं, लेकिन मैं हमलों की परवाह नहीं करता."

5 दिसंबर को कपिकाड़ के कुछ दोस्तों ने इन धमकियों के विरोध में कोट्टयम में एक एकजुटता बैठक बुलाई. इलाईडोम इस बैठक के मुख्य वक्ता थे. कपिकाड़ ने बताया, "मेरे करीबी लोगों ने कहा कि मुझे बस से सफर नहीं करना चाहिए, लेकिन अगर मैं कलाडी से टैक्सी पकड़कर यहां आता हूं तो मुझे कम से कम 2000 रुपये खर्च करने पड़ेंगे. मेरे पास इतना पैसा नहीं है. मैं अभी बिना वेतन छुट्टी पर हूं."

हालांकि, वह यह मानते हैं कि वह किसी ज्यादा सुरक्षित जगह पर अपना घर बदलने की सोच रहे हैं. दोनों ने अभी तक धमकियों के लिए पुलिस की शरण नहीं ली है. हालांकि, इलाईडोम के दोस्त ने उनके ऑफिस में तोड़फोड़ के बाद पुलिस में शिकायत की थी. कुछ सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें पुलिस की सुरक्षा रहती है, लेकिन इलाईडोम और कपिकाड़ ने पर्सनल सुरक्षा लेने से मना कर दिया. इलाईडोम मजाकिया अंदाज में कहते हैं, "अपने साथ पुलिसवालों को लेकर चलने से अच्छा है कि आप आरएसएस के लोगों से मार खा लो."

इलाईडोम ने कहा कि वह मुख्यधारा की राजनीति से बचकर रहना चाहते हैं तो कपिकाड़ ने कहा कि वह इस पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं. उन्होंने मुझे बताया, "बदलाव लाने के लिए राजनीतिक शक्ति बहुत जरूरी है." उन्होंने कहा कि वह केरल में एक नया डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाने की योजना बना रहे हैं. उन्होंने कहा, "जब छूआछूत को गैर-कानूनी घोषित किया गया तभी इस पर रोक लगी इसीलिए राजनीतिक शक्ति जरूरी है. हम कोशिश कर रहे हैं कि नई लोकतांत्रिक भावना के साथ आंदोलन खड़ा किया जाए."

(द कैरवैन के मई 2019 अंक में प्रकाशित इस रिपोर्ट का अनुवाद तरुण कृष्ण ने किया है. अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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Leena Gita Reghunath is a former editorial manager at The Caravan. She received the Mumbai Press Club’s Red Ink Award for her reporting in 2015 and 2018, and Population First’s Laadli Media Award for Gender Sensitivity in 2018.