जंग के उस ओर

पहलगाम के बाद कश्मीर में सरकारी नज़रबंदी, हिरासती हत्याएं और तबाही के बीच जीने की मजबूरी

नियंत्रण रेखा के करीब बंगस घाटी के कब्रिस्तान में फातेहा पढ़ता एक परिवार. मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों को सुरक्षा बलों द्वारा अक्सर उनके घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर यहीं दफ़नाया जाता है. (कारवां के लिए शाहिद तांत्रे)
नियंत्रण रेखा के करीब बंगस घाटी के कब्रिस्तान में फातेहा पढ़ता एक परिवार. मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों को सुरक्षा बलों द्वारा अक्सर उनके घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर यहीं दफ़नाया जाता है. (कारवां के लिए शाहिद तांत्रे)

कश्मीर के बांदीपोरा के तालिब लाली को 12 साल पहले जांच एजेंसियों ने गिरफ़्तार किया था. एजेंसियों ने दावा किया था कि लाली आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन को फंड मुहैय्या कराता था. अब तक एक दशक से अधिक समय लाली दिल्ली की तिहाड़ जेल में बिता चुका है. मामला लंबा खिंच रहा है. केस के बारे में परिवार को बहुत कम जानकारी है. परिजन के लिए दिल्ली में आकर उससे मिलना आसान नहीं है. उनके लिए किराया-भाड़ा जुटाना तक भारी है. जब कभी रेड क्रॉस की गाड़ियां बांदीपोरा और श्रीनगर के बीच की धूल भरी सड़क से होकर राष्ट्रीय राजधानी की ओर जाती हैं, तब उन्हें लिफ्ट मिल जाती है.

लाली की हिरासत ने दो बच्चों से उनका वालिद छीन लिया. उसके भाई अल्ताफ़ पर अपने दो बच्चों सहित चार बच्चों को पालने की ज़िम्मेदारी आ गई. पत्नी दिलशादा पश्मीना शॉल पर कढ़ाई कर दो पैसे बड़ी मुश्किल से जुटा पाती है. 

देवर अल्ताफ़ अपने गांव अजास के गुज्जरों से भेड़ें खरीदने और बेचने का काम करता था. उनका गांव वुलर झील के किनारे कश्मीर घाटी के उत्तरी छोर पर पहाड़ों की गोद में स्थित है. घर में उसकी बहन अमीना अपने आठ बच्चों के साथ रहती है. 

संयुक्त परिवार की अपनी परेशानियां थीं. लाली के मामले के चलते, दिलशादा, अमीना और अल्ताफ़ को एक दशक से ज़्यादा वक़्त तक राज्य पुलिस ने उन्हें कथित तौर पर आतंकवादी संगठनों के ओवरग्राउंड वर्करों की लिस्ट में रखा था.