"आपने क्या लिया? क्या कॉफी ली?"
मुंबई के अंधेरी इलाके के ऑफिसों की बात ही अलग है. मैनलैंड चाइना रेस्तरां से एक इमारत दूर और उस विज्ञापन एजेंसी से एक गलियारा दूर जहां मैंने मुंबई आने के बाद कुछ हफ्तों तक काम किया था, स्लेटी इमारत मौजूद है. इस इमारत के कई दफ्तरों के बीच एक दफ्तर है जो यहां आने वालों को पूरी तरह से विचित्र लगेगा. यह एक रियाल्टार से लेकर बॉलपॉइंट-पेन रिफिल के थोक विक्रेता का ऑफिस भी हो सकता है. इस साल अप्रैल की एक उमस भरी दोपहर में दरवाजे की घंटी बजाने पर स्पीकर के उस पार से एक आवाज आई और पूछने लगी कि मैं कौन हूं. मैंने बताया कि "मैडम के साथ" सच में मेरी अपॉइंटमेंट है. इसके बाद मैं अपने दावे की जांच और दोबारा जांच किए जाने तक प्रतीक्षा करता रहा.
उस दफ्तर का स्वागत कक्ष छोटा था. फोन से घिरे एक डेस्क के पास एक आदमी के चारों तरफ कुछ कुर्सियां रखी हुई थीं. स्पष्ट रूप से एक समय में बहुत से लोग अंदर आ ही नहीं सकते थे. "दो मिनट," बोलने वाली यह आवाज इतनी व्यस्त थी कि उस पर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता था और मैं अतिरंजित स्थिति के बीच वापस बैठ गया. फिर मैंने अपनी बाईं ओर एक विशाल, जीवंत, आकर्षक और स्टाइलिश सिगना पेंटिंग देखी जिसे मेरा जैसा एक सामान्य व्यक्ति भी पहचान सकता है कि यह निश्चित रूप से उसी चित्रकार का दिया हुआ एक उपहार है जो एकमात्र आधुनिक कलाकार है जिसे वास्तव में भारत के हर घर में पहचाना जाता है, एक ऐसा व्यक्ति जो "मैडम" पर फिदा था और जिसने उनकी एक खास फिल्म को दर्जनों बार देखा था.
वास्तव में यह एक ऐसी फिल्म थी जिसे देश के अधिकांश लोगों ने बहुत अधिक बार देखा. भारत में वीडियो पायरेसी हम आपके हैं कौन फिल्म के साथ हिट हो गई और जब यह शुरू हो रही थी तब मैं इसका साक्षी था. यह वर्ष 1994 का पतझड़ का समय था, जिसमें दिल्ली अपनी सबसे अनुरागी रूप में थी. उस अगस्त में रिलीज के बाद सूरज बड़जात्या ने शहर के हर थिएटर पर एकाधिकार कर लिया था. वीडियो रेंटल लाइब्रेरी खचाखच भरी रहती थी और फिल्म की रिलीज के कुछ महीनों बाद वीएचएस कैसेट कुछ ही हफ्तों या थोड़े और समय के अंदर अलमारियों में आ जाते थे. लेकिन उच्च मांग के बावजूद बड़जात्या फिल्म को सिनेमाघरों में ही दिखाने की जिद पर अड़े रहे और लगभग दिवालिया हो चुके पूरे परिवारों को इसे नियम के अनुसार ही फिर से देखने के लिए हॉल तक जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. मैं तेरह साल का था जब एक करीबी दोस्त कक्षा के बाद मेरे पास आया और पूछा कि क्या मैं किसी को जानता हूं जो वीएचएस की एक प्रति खरीदना चाहता है. जब मैंने मां को इस बारे में बताया तो उनकी खुशी से भरी आवाज ने मुझे आश्वस्त कर दिया कि मैंने सोने की खान मार ली है.
इस तरह मेरे उद्यमी दोस्त कॉपी के बाद कॉपी तैयार करते और मैं कैसेट कवर की संख्या ध्यान मे रखने के लिए कार्डबोर्ड बॉक्स पर फिल्म पोस्टर की तस्वीरें चिपकाता. हमने इससे अपनी कई परिचित आंटियों को खुश कर दिया था. इसलिए, गीतों को काट कर वीएचएस पर उस अविश्वसनीय रूप से लंबी फिल्म को निचोड़ने के इस थोड़े अधिक अविश्वासपूर्ण कृतज्ञ के दो दशक बाद मुझे एक हॉल में ले जाया गया. जहां मैंने माधुरी दीक्षित को भीतर आते और अचरज के साथ मुझसे पूछते देखा कि क्या मेरे कप में कॉफी ही है.
चाहे भोली-भाली लड़की के रूप में या दीवार पर चिपका कर रखने वाली मोहक देवी के रूप में, माधुरी दीक्षित हमेशा ही देखने लायक रहीं. उन्होंने सुबकियों से, उपहास से और थिरककर फारमूला और गैर फारमूला दोनों तरह की फिल्मों के माध्यम से दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया है. संख्या के हिसाब से वह हिंदी सिनेमा की अब तक की सबसे सफल नायिका हैं: सबसे अधिक भुगतान पाने वाली अभिनेत्री और अपने साथी पुरुष कलाकारों के बराबर भुगतान पाने वाली एकमात्र अभिनेत्री. उन्होंने किसी भी तथाकथित प्रतिद्वंदी को पछाड़ दिया और गीतों से पहचाने जाने वाले इस उद्योग में हमें सबसे अविस्मरणीय नृत्य भी देखने मिला है.
पिछले तीन दशकों ने उन्हें प्रतिष्ठा हासिल करते, पूजते और सपने देखते और आगे बढ़ने की इच्छा रखते देखा है. 2001 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ आगरा समिट में, शारजाह क्रिकेट मैच में पाकिस्तानी प्रशंसकों द्वारा "माधुरी दे दो, कश्मीर ले लो" गाने वाली घटना को याद करते समय चिंतित दिखे.
महिला कलाकारों की सूची में शीर्ष पर रहने वाली एक अभिनेत्री रहते हुए उन्होंने जोखिम की परवाह किए बिना अक्सर अपनी स्क्रिप्ट, निर्देशकों और सह-कलाकारों के साथ संभावनाओं को तलाशा है. 1989 में उनकी पहली ब्लॉकबस्टर राम लखन के समय ही आपराधिक दुनिया पर आधारित परिंदा फिल्म आई; 1991 में उन्हें लॉरेंस डिसूजा की नाटकीय लव ट्रैंगल फिल्म साजन और नाना पाटेकर की फिल्म प्रहार दोनों में देखा गया; 1992 में उन्होंने बेटा फिल्म के प्रसिद्ध 'धक धक करने लगा’ गाने पर जलवा बिखेरा, साथ ही संगीत की दुनिया में बेहतरीन नर्तकी की भूमिका निभाई थी. 1997 में यश चोपड़ा की दिल तो पागल है फिल्म की सुर्खियों में रहते हुए, उन्होंने महिला उन्मुख चरित्र पर आधारित प्रकाश झा की शुरुआती फिल्मों में से एक, मृत्युदंड फिल्म पर भी दांव लगाया.
उनका अभिनय उनकी स्क्रीन उपस्थिति की तरह ही प्रभावशाली साबित हुआ; फिल्मों में स्टार अक्सर उन थके हुए पुराने टीन के डब्बों की तरह ही सुस्त दिखाई देते थे, जिनमें फिल्म की रीलें भरी होती थीं. दीक्षित की आंखें उत्सुकता से चमकती थीं जो सहजता से उनकी असफल फिल्मों में भी उनके प्रदर्शन में रंग भर देती थी; उनकी एक संक्रामक ऊर्जा उन्हें जबरदस्त प्रहसन और दर्दनाक मेलोड्रामा के सीनों में ऊपर उठा देती है. पीछे मुड़कर देखें तो आमिर खान के साथ 1990 में आई बेतुकी फिल्म दीवाना मुझ सा नहीं में दीक्षित ने एक बिल्कुल बेतुका किरदार निभाया था लेकिन उनका करिश्मा वहां भी कायम रहा. हर उस अभिनेता की तहर जिसे कैमरा पसंद करता है, दीक्षित के सबसे खराब प्रदर्शन भी मुस्कान ला देते हैं.
यह अंत में फल देने वाली क्षमता है. जबकि माधुरी दीक्षित ने यह सब किया है, अब वह कुछ समय के अंतराल के बाद स्वच्छंद भूमिकाओं और कुशल फिल्म निर्माता का चयन करते हुए फिल्मों में वापसी कर रही हैं. हमारा सिनेमा अपने पुराने तौर तरीकों से चिपका है, जहां यह सहायक भूमिका निभाने के दीक्षित का इनकार सुनने के लिए तैयार नहीं है. हो सकता है कि वह उस ऊंचाई तक न जा पाएं जहां वह एक समय हुआ करती थीं, अब शायद वह युवा दिलों की धड़कन नहीं हो सकतीं, लेकिन वह निर्विवाद रूप से और अकथनीय रूप से भी अभी भी एक सुपरस्टार है. वह जो करती हैं उससे फर्क पड़ता है और वह हिंदी सिनेमा की अभिनेत्रियों के साथ किए जाने वाले व्यवहार में बदलाव ला सकती हैं. दीक्षित की प्रायोगिक फिल्में कभी भी उनके उल्लेखनीय फिल्मोग्राफी के तेज के विपरीत नहीं दिखाई दीं, क्योंकि उनकी मुख्यधारा की हिट फिल्मों ने उन्हें हमेशा बौना बना दिया. लेकिन पर्दे पर पहली बार दिखाई देने के तीस साल बाद, दीक्षित यथास्थिति को हिला देने और एक बार फिर अपने लिए जगह बनाने के लिए पहले से कहीं अधिक उत्सुक दिखाई देती हैं.
अब माधुरी दीक्षित की फिल्में उनकी पहले की फिल्मों से अलग हैं. 2014 की अपनी दो रिलीजों में से एक में उन्होंने शायरी की शौकीन महारानी की भूमिका की जिसे अपनी सेविका से प्यार है. दूसरी फिल्म में वह पार्कौर से प्रशिक्षित अपराधी की भूमिका में थीं. हिंदी फिल्मी उद्योग के किसी मेगास्टार के लिए ये दोनों ही बड़ी जोखिम भरी भूमिकाएं थीं.
अंधेरी कॉन्फ्रेंस रूम में जहां हम मिले थे, दीक्षित ने नई फिल्मों के बारे में बात की. उन्होंने एक्शन फिल्म गुलाब गैंग के बारे में बात करते हुए कहा, "मैं अतीत में किसी भी फिल्म ढूंढ़ने की कोशिश करती हूं जहां महिलाएं की प्रमुख भूमिकाओं में रही हों. एक महिला नायक और प्रतिपक्षी होते हुए भी मसालों और डायलॉगबाजी से भी कोई फिल्म चल सकती है. सौमिक सेन की फिल्म उत्तर प्रदेश के विजिलांटे संपत पाल और गुलाबी साड़ी पहनने वाली महिलाओं की उनकी ब्रिगेड पर आधारित थी, जो पूरी तरह से एक कमर्शियल फिल्म थी, जिसे करने से अक्षय कुमार ने मना कर दिया था. दीक्षित ने कहा, "एक महिला का इस तरह की भूमिका निभाना आकर्षक था. मेरा मानना है कि यह नियमों को एक ही बार में बदल देता है. यह एक बॉल (बॉलिंग में) का पिनों को गिराते हुए देखने जैसा है."
अभिषेक चौबे की डेढ़ इश्किया ने बहुत ही अलग कहर बरपाया था. यह फिल्म निश्चित रूप से बच्चों के लिए नहीं बनी है, जो एक साहित्यिक झुकाव रखने वाले एक अत्याचारी समलैंगिक व्यक्ति के धोखे के बारे में है. यह गहराई से बनाई गई एक फिल्म है जिसमें दीक्षित एक अमीर बेगम का किरदार निभाते हुए अपने खर्चे पूरे करने के लिए अमीर आदमियों से प्रेम प्रसंग रचाती हैं. वह अपने चरित्र को विनम्रता और एक आत्म-जागरूकता के साथ निभाती है जिससे वह वर्तमान समय की हर दूसरी अभिनेत्री से काफी दूर दिखाई देती हैं. उन्होंने हिंदी सिनेमा की दुनिया के बारे में कहा, "पुरानी संस्कृति तेजी से लुप्त हो रही है. नवाबियत टुकड़ों में बिखर रही है. जैसे-जैसे चीजें नए जमाने के अनुसार ढल रही हैं, पुरानी दुनिया के आकर्षण वाले पात्रों के लिए कोई जगह नहीं बच रही और वे नई पीढ़ी में फिट होने के लिए सख्त कोशिश करते हैं.”
डेढ़ इश्किया भी एक ऐसी फिल्म है जहां हमारी सबसे मुख्यधारा की अभिनेत्री एक ऐसी महिला की भूमिका निभाती है जो महिला का साथ पसंद करती है. यह गुपचुप तरीके से होने वाला ऐसा बदलाव है जो निश्चित रूप से एक झटका है. दीक्षित ने मुझे बताया कि वह इसे लेकर कभी चिंतित नहीं थी. "मुझे ठीक-ठीक पता था कि हम क्या कर रहे हैं. इसमें काफी अस्पष्टता थी. हमने इसे दर्शकों पर छोड़ दिया है कि वे खुद इसकी व्याख्या करें: कि दो महिलाएं जो अपने जीवन में पुरुषों से तंग आ चुकी हैं और वे साथ ही रहना चाहती हैं या यह कुछ और. और मुझे यह थोड़ी अस्पष्टता पसंद है.”
चौबे, जिनकी पहली "लेस्बियन स्क्रिप्ट" में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि स्क्रिप्ट में शुरुआत में अपनी नायिका डरी सहमी दिखाया. लेकिन बाद में स्क्रिप्ट पर काम करते समय उन्होंने महसूस किया कि स्पष्ट कामुकता कहानी के अंतिम खुलासे की सुंदरता को खत्म कर देगी, जो उर्दू लेखक इस्मत चुगताई की क्लासिक लघुकथा ‘लिहाफ’ पर आधारित दृष्टिकोण पर टिका था. विशाल भारद्वाज के साथ पटकथा लिखने वाले चौबे ने कहा, "उन्होंने मुझे अपने डर के बारे में बताया और मैंने इस पर ध्यान दिया : ठीक इस तरह मैंने इसे ठीक किया. यदि आप चौकस हैं तो आप इसे काफी आसानी से जीत जाएंगे. हालांकि, यदि आप ध्यान नहीं दे रहे हैं, तो आप ऐसा नहीं कर सकते. यह फिल्म के आपके आनंद को नुकसान नहीं पहुंचाता है.” और फिर वह पूरी तरह से तैयार थीं, हुमा से बिलकुल अलग. दीक्षित की प्रेमिका का किरदार निभाने वाली हुमा कुरैशी बहुत उत्साहित थीं और लगातार मुझसे इस बारे में बात कर रही थी कि 'मैं उन्हें कैसे छूऊं? मैं उन्हें कैसे देखूं?’ माधुरी ने कोई हड़बड़ी नहीं की, उन्होंने इस पर ज्यादा बात नहीं की. हालांकि, शूटिंग के दौरान उनमें बिल्कुल भी हिचकिचाहट नहीं थी. वह हर सीन के लिए तैयार थीं.
उनके इस कैरियर ने एक विज्ञापन के साथ उड़ान भरी थी. 1970 और 1980 के दशक में स्क्रीन इंडिया सबसे शक्तिशाली प्रकाशन उद्योग था; उस समय इसका तीसरे पृष्ठ का विज्ञापन हिंदी फिल्म प्रचार में सबसे गर्म मुद्दा हुआ करता था, जो बड़े पैमाने पर एक भव्य जश्न मनाने वाली फिल्मों के लिए भुगतान करके की गई घोषणाओं और भारी बजट वाली फिल्मों के पहले पोस्टर के लिए आरक्षित था. इसलिए पृष्ठ तीन से शुरू होने वाले एक नाटकीय छह-पृष्ठ के विज्ञापन में एक नायिका को लॉन्च करते हुए देखना चौंकाने वाला था, जो न केवल अनजान थी बल्कि उसकी पहली पांच फिल्में फ्लॉप हो गई थीं.
1984 में सत्रह साल की उम्र में माधुरी दीक्षित ने बंगाली अभिनेता तापस पाल के साथ अबोध नाम की एक छोटी फिल्म की जो बिना कोई छाप छोड़े डूब गई. यही हाल उनकी अगली चार फिल्मों का भी हुआ. दूसरी फ्लाप आवारा बाप की शूटिंग के दौरान वह सुभाष घई से मिलीं. एक बेहद सफल निर्देशक घई बॉक्स ऑफिस पर लगातार दो दशकों तक जमे रहे. 1980 की रिलीज कर्ज से लेकर 1999 की ताल तक के समय में उनकी खास चमक थी. उन्होंने बताया, "अपनी 1986 की मल्टी-स्टारर कर्मा के लिए शूटिंग की लोकेशन की खोज करके समय मैं उनसे पहली बार कश्मीर में मिला था. तब वह राजेश खन्ना की बेटी के रूप में कोई बहुत छोटी भूमिका निभा रही थीं. मेरे साथ कर्ज में काम करने वाली एक हेयर स्टाइलिस्ट, खातून मेरा अभिवादन करने आईं और कहा, 'एक छोटी लड़की है, साइड-रोल कर रही है' और उसने मेरा परिचय उस पतली सी लड़की से कराया.”
घई उस दुबली-पतली लड़की के चेहरे से प्रभावित थे, जिसे उन्होंने व्यक्तित्व, व्यवहार और मासूमियत के लिहाज से बिल्कुल फोटोजेनिक माना." उन्होंने कहा, "वह एक अभिनेत्री थी और मुझे विश्वास था कि मैं उसे एक स्टार बना सकता हूं. इसलिए मैंने उसे एक फिल्म में काम करने के लिए लिया. घई ने इस चरण को दीक्षित के करियर को "फिर से खड़ा करने" वाला बताया, क्योंकि उन्होंने उनकी फ्लॉप फिल्मों को देखने से भी इनकार कर दिया. "मैंने उनसे कहा, 'मैं कर्मा नाम की यह फिल्म बना रहा हूं और इस फिल्म को खत्म करने के बाद एक साल में मैं आपको लॉन्च करने के लिए ठीक से एक फिल्म बनाऊंगा.’ मैं उन्हें पांच साल के अनुबंध पर रखना चाहता था ताकि मैं उनको ठीक से तैयार कर सकूं और मैं केवल उनकी वफादारी चाहता था.”
घई ने दीक्षित के साथ जल्द ही एक शोरील की शूटिंग की और उसे आठ निर्माताओं और निर्देशकों को भेजा. “रमेश सिप्पी, इंद्र कुमार, शशि कपूर प्रोडक्शंस … सभी को मैं अच्छी तरह से जानता था. मैंने उनसे कहा कि 'अगर आपको लगता है कि यह चेहरा, यह वीडियो ठीक है, तो मुझसे संपर्क करें. मैं इस लड़की को साइन कर रहा हूं और अगर आप उसे साइन करना चाहते हैं, तो मुझे 5000 रुपए का चेक भेजें.” सप्ताह के अंत तक घई के पास आठ चेक थे, जिसके बाद उन्होंने अपना ऐतिहासिक विज्ञापन निकाला. घई ने इसे इस प्रकार संक्षेप में बताया कि: "यह लड़की जो कल तक फ्लॉप थी, आज उभर रही है और कल सुपरस्टार बनेगी."
व्यापार विश्लेषक आमोद मेहरा ने याद करते हुए कहा, "वह एक फ्लॉप हीरोइन बन गई थीं. लेकिन वह क्या लॉन्च था! स्क्रीन में लगातार छह पेजों पर होना? जब किसी ने उनके बारे में सुना भी नहीं था? इसने उनका करियर बनाया. घई का सबसे बड़ा दाव विज्ञापन के अंतिम पृष्ठ पर था, जहां उन आठ निर्माताओं के नाम छपे थे जिन्होंने पहले से ही अनुभवहीन अभिनेत्री को साइन कर लिया था. इस तरह घई की नायिका के रूप में कदम रखने से पहले दीक्षित एक सनसनी बन गईं.
फिर, एक बहुत हिलाए हुए फिजी ड्रिंक की तरह अंत में हिट फिल्मों की तेज धारा आ गई : दयावान, तेजाब (1988), त्रिदेव, परिंदा और घई का अपनी राम लखन (1989). इस पड़ाव के बाद से दीक्षित को कोई रोक नहीं पाया, जो हर फिल्म की सफलता के साथ मजबूत होती गईं. फिल्म उद्योग ने उसी तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त की जिसके लिए वह जाना जाता था: एक झुंड के रूप में. दीक्षित की 1989 में 9 और 1990 में 10 फिल्में रिलीज हुईं. हर कोई उनके साथ काम करन चाहता था.
उस समय निर्माता क्या महसूस कर रहे थे, यह बताने की कोशिश करते हुए मेहरा ने कहा, "यदि आप नाटकीयता चाहते थे तो माधुरी दीक्षित आपकी पहली पसंद होती थीं. बहुत जल्दी, 1990 के दशक में हर कोई उनकी तुलना मधुबाला से करने लगा, एक ऐसी सुंदरी के रूप में जो किसी को भी आकर्षित कर सकती थी. लेकिन माधुरी सिर्फ एक स्टार होने के अलावा एक अभिनेत्री के रूप में भी आगे बढ़ीं. मेहरा ने उस समय उनके किसी भी गंभीर प्रतियोगी के होने की बात को खारिज कर दिया. “श्रीदेवी एक महान हास्य अभिनेत्री थीं, लेकिन वह बस वही थीं. वह बहुत कमर्शियल हीरोइन थीं. बड़ी मसाला फिल्मों के लिए लोग श्रीदेवी को चाहते थे, लेकिन जब उनके पास ऐसी भूमिका थी जिसमें अभिनय की जरूरत थी, तो उन्हें माधुरी को लेना पड़ता. उनकी एक खासियत थी कि सभी को लगता था कि वह पूरी भारतीय महिला हैं.”
शाहरुख खान ने 2006 में फिल्मफेयर पत्रिका को बताया, "मैं इस उद्योग में माधुरी दीक्षित को सबसे मजबूत मर्द मानता हूं. हां, आपने सही सुना. वह वास्तव में एक मर्द हैं. वह विचारों, भावनाओं और आस्तिकता के मामले में सबसे मजबूत हैं. और हां, उनकी प्रतिभा निर्विवाद है. उनसे मैंने सबसे ज्यादा सीखा है.” जाहिर तौर पर उन अति सफल लोगों की तरह, जो मानते हैं कि एक महिला की एक पुरुष से तुलना करना उस महिला के लिए सबसे बड़ी प्रशंसा है, खान ने पत्रिका को बताया कि उन्होंने केवल दीक्षित की देखासीखी की है. एक प्रसिद्ध अहंकारी स्टार जो जानबूझ कर सार्वजनिक रूप से आत्ममूग्धा का प्रदर्शन करता है, की यह जोरदार प्रशंसा थी : "वह एकमात्र ऐसी है जिन्हें देख कर मुझे लगता है कि मैं उतना अच्छा नहीं हूं."
दीक्षित की पहली "हिट जोड़ी” अनिल कपूर के साथ बनी, जिनके साथ उन्होंने तेजाब जैसी हिट फिल्मों में काम किया. यह जोड़ी निर्माताओं के लिए एक सुनहरा टिकट बन गई और उन्होंने सोलह बार साथ काम किया और वर्ष 2000 में आई पुकार में दोनों साथ नजर आए. लेकिन तब भी सब ठीक नहीं था. साथ में उनकी सबसे बड़ी फिल्मों में से एक 1992 में आई बेटा फिल्म में कपूर को एक मंद बुद्धि पति की भूमिका में और दीक्षित को उनकी तेज तर्रार पत्नी के रूप में लिया गया था, जो अपने पति की मां को चुनौती देती थी. दीक्षित की आंखों में दिखने वाली चमक फिल्म की सबसे खास बात थी, विशेष रूप से गीत 'धक धक करने लगा' के दौरान. दीक्षित ने कहा, "लोग मुझे कहते थे कि बेटा फिल्म का नाम 'बेटी' होना चाहिए था.” यह कह कर वह मुझे देख कर हंसने लगीं. हालांकि, आमोद मेहरा ने कहा कि कपूर को यह बात पसंद नहीं आई कि दीक्षित सारी वाह-वाही लूट ले गईं.
कपूर अकेले नहीं थे जो इस उभरती कलाकार से घबराए हुए थे. मेहरा ने बताया, "उन्होंने दिल फिल्म की शूटिंग शुरू की क्योंकि अनिल के पास उस समय डेट नहीं थीं और आमिर खान कोई बड़ा चेहरा नहीं थे. 1990 में रिलीज हुई दिल को जबरदस्त सफलता मिली. जिसके बाद एक और हिट जोड़ी सामने आई. लेकिन एक बार जब वह सुपरस्टार बन गईं, सबसे बड़ी नायिका ... अनिल ने जुदाई जैसी फिल्मों में उर्मिला मातोंडकर और श्रीदेवी जैसी अभिनेत्रियों को आगे बढ़ाया जबकि आमिर मनीषा कोइराला जैसी अभिनेत्रियों को चुन रहे थे. "अब कोई भी माधुरी को नहीं लेना चाहता था."
भले ही ये अभिनेता खुद दीक्षित से डरे हुए न हों, लेकिन हो सकता था उनमें दीक्षित द्वारा निभाए गए किरदारों को लेकर डर था. उनके किरदार चतुर, स्वतंत्र, मेधावी छात्र या उत्साही पेशेवर लड़कियों के थे जिनको पुरुषों की मूर्खता झेलनी पड़ती थी. घई जैसे बड़े निर्देशक ने खलनायक जैसी फिल्म में भी हमेशा यह सुनिश्चित किया कि वह दीक्षित के लिए एक अर्थपूर्ण हिस्सा लिखें.
1990 के दशक के मध्य तक दीक्षित बॉलीबुड की रानी बन चुकी थीं. उनके पास फिल्में, भूमिकाएं और वे दर्शक थे जो वह चाहती थीं. एक बार जब निर्माताओं को यह मालूम हो गया कि उनका नाम बॉक्स-ऑफिस की सभी महत्वपूर्ण प्रोजैक्ट में शामिल है, तो उन्होंने अपने नायकों की उपस्थित को व्यर्थ साबित करना शुरू कर दिया. उदाहरण के लिए हम आपके हैं कौन के लिए फिल्म के लिए उन्होंने न केवल नायक सलमान खान की तुलना में अधिक फीस की मांग की, बल्कि इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख के अनुसार उन्हें फिल्म के लिए उस समय 2.7 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया था, जो उस समय लगभग किसी भी दूसरे नायका की फीस से कहीं ज्यादा था.
मेहरा ने बताया, "ऐसा तब होता है जब हीरोइन हीरो से बड़ी हो जाती है. कहानियां और फिल्में उनके कद के इर्द-गिर्द बनाई जानी चाहिए. इसलिए वे नायिका-उन्मुख फिल्में बन जाती हैं. जो तब बॉक्स ऑफिस पर ये फिल्में नहीं चली इसका मतलब यह नहीं था कि 1990 के दशक के दर्शकों ने स्वतंत्र, बुद्धिमान महिला पात्रों को अस्वीकार कर दिया गया था. इसके विपरीत काजोल और मनीषा कोइराला जैसी अभिनेत्रियों ने इस अवधि में अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में जोश और साहस दिखाया. लेकिन उस समय के चलन के अनुसार उनके द्वारा निभाए गए किरदार के साथ उनसे भी अधिक मजबूत पुरुष नायक की भूमिका निभा रहे थे. लिंग के आधार पर भेदभाव उस समय की तरह ही अब भी उद्योग में गहरा जमा है. आज तक भी पुरुष अपने साथ काम करने वाली अभिनेत्रियों को चुन सकते हैं.”
अपने नायकों के इशारों पर चलने से दशक के उत्तरार्ध में दीक्षित के आसन्न पतन का संकेत मिल जाना चाहिए था लेकिन उन्होंने वीरतापूर्ण ढंग से संकट को पार किया. उन्होंने छोटे सह-कलाकारों के साथ काम करना और अपनी फिल्मों की व्यावसायिक बागडोर संभालने जैसे वे काम करने शुरू कर दिए जो केवल नायक करते हैं.
दीक्षित ने 1997 की मोहब्बत फिल्म में युवा अक्षय खन्ना के साथ अभिनय करते हुए नया चलन स्थापित किया. नौ साल पहले उन्हें दयावान में खन्ना के पिता विनोद के साथ काम किया था. हिंदी सिनेमा उम्रदराज अभिनेत्रियों के लिए पूरी तरह से अनुचित जगह है, पहले उन्हें बहन और मां की भूमिकाएं करने पर मजबूर किया जाता है और अंततः उन्हें पूरी तरह से भूला दिया जाता है. (उदाहरण के लिए, राखी गुलजार ने 1981 में बरसात की एक रात फिल्म में अमिताभ बच्चन की प्रेमिका की भूमिका निभाई थी, इसके ठीक एक साल बाद शक्ति में उनकी मां के रूप में नजर आईं.) लेकिन दीक्षित इस चलन से आगे बढ़ गई थीं. जैसा कि निर्माता अनिवार्य रूप से उनकी बॉक्स-ऑफिस मांग के आगे झुक गए और सबसे अधिक वेतन पाने वाले पुरुषों के बराबर फीस बढ़ा दी और उन्होंने जो मांगा वह पाया.
दीक्षित ने मुझे बताया, "मुझे गर्व है कि मैंने ऐसा किया क्योंकि इसने दूसरों के लिए रास्ते खोल दिए और जब आप कुछ बड़ा करते हैं, तो हमेशा एक जोखिम होता है. लेकिन मुझे लगता है कि मेरे भीतर हमेशा स्पष्टता थी कि मैं क्या बनना चाहती हूं, मैं कहां जाना चाहती हूं और मैं सिनेमा में महिलाओं को कहां देखना चाहता हूं. इसलिए इन बातों की भूमिका हमेशा मेरी पसंद तय करने में रही है, चाहे वह मूल्यों की बात हो या फिल्मों के चयन की, मैं चाहती थी कि यह सबसे अच्छी हो और मुझे लगा कि मैं सर्वश्रेष्ठ की हकदार हूं.”
हालांकि, दीक्षित द्वारा राह के बाधाओं के तोड़ देने से अन्य महिलाओं के लिए मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ. आज भी दीपिका पादुकोण और करीना कपूर जैसी चर्चित अभिनेत्रियों को शाहिद कपूर या इमरान खान जैसे दूसरे दर्जे के हीरो के मुकाबले प्रति फिल्म आधे से भी कम भुगतान किया जाता है. यह मुकाम दीक्षित हासिल करने में कामयाब रहीं. इतने अविश्वसनीय रूप से लिंग आधारित इस उद्योग में उनकी विलक्षण चमक इस बात की साक्षी है.
एक तरह से दीक्षित उस समय शीर्ष पायदान से फिसलने से बचने में कामयाब रही जब युवा अभिनेत्रियां सुर्खियों में आने के लिए बेचैन रहती थीं जो अप्रत्याशित रूप से पीछे छूट रही थीं. 1999 में उन्होंने कोलोराडो के डेनवर में रहने वाले एक मृदुभाषी कार्डियोवास्कुलर सर्जन को शादी के लिए चुना. श्रीराम नेने से उनका विवाह काफी हद तक एक गैर-फिल्मी मामला था. पुकार और 2001 में आई लज्जा सहित कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों के आने बाद 2002 में संजय लीला भंसाली की देवदास आई जहां अपने शुरुआती दिनों के बाद पहली बार दीक्षित ने मुख्य भूमिका के बजाए सहायक भूमिका निभाई. जिसके बाद उन्होंने संयुक्त राज्य में बसने का फैसला किया.
पर्दे से पांच साल तक दूर रहने के बाद उनकी वापसी 2007 में आजा नचले नाम की एक फिल्म में हुई, जो एक प्रवासी भारतीय नर्तकी के बारे में थी जो अपने गांव में एक थिएटर को बचाने के लिए भारत लौटती है. यश राज स्टूडियोज द्वारा निर्मित इस फिल्म को इतने भव्य पैमाने पर बनाया गया था कि फिल्म की गंभीरता और कहानी दब कर रह गई और फिल्म फ्लोप रही. दीक्षित ने वापसी करने में आ रही मुश्किलों से इनकार किया. "यह साइकिल चलाने या तैरना जैसा है. और नाटक भी इसी तरह है. एक बार जब आप कैमरे के सामने होते हैं तो यह बहुत स्वाभाविक रूप से सामने आ जाता है.” स्पष्ट रूप से उन्होंने आजा नचले फिल्म को वापसी के लिए इसलिए चुना क्योंकि इसकी अवधारणा ने उनके दिल को छू लिया था. "मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी कि एक ऐसी महिला जो अपना देश छोड़ कर कहीं और चली जाती है और अपना जीवन संवारती है और फिर वह पाती है कि वह जिस चीज का जुनून उसके भीतर था वह पीछे छूट रही है और वापस आकर अपनी संस्कृति के लिए लड़ती है."
तो माधुरी दीक्षित हम सबको बचाने वापस आ गईं? "नहीं!" वह खिलखिला कर हंस पड़ी और कहा, "आप किसी को नहीं बचा सकते, यह संभव नहीं है. लेकिन कम से कम आप लोगों को जागरूक करने में योगदान दे सकते हैं, कम से कम लोगों को शिक्षित कर सकते हैं कि हम क्या खो रहे हैं. आज भी कत्थक, भरतनाट्यम, शास्त्रीय नृत्य में महारथ सभी लोग कहते हैं कि लोग इसे सीखना नहीं चाहते क्योंकि वे सभी रातोंरात डांसर बनना चाहते हैं. जो शास्त्रीय नृत्य सीखे बिनी संभव नहीं है. एक बार जब आप शास्त्रीय संगीत जान जाते हैं, तो आप दुनिया में किसी भी तरह के नृत्य में महारत हासिल कर सकते हैं.”
फिर उन्होंने मुझसे साइबोर्ग के बारे में बात की. "क्या आप स्टार ट्रेक देखते हैं?" एक उभरी हुई भौं के साथ उनकी मुस्कान यह बता रही थी कि उनके साथ बैठा व्यक्ति स्टार ट्रैक का बड़ा फैन नहीं है. "साइबोर्ग बस आते हैं और लोगों को अपनी तरह बनाने लगते हैं और उन्हें आधे आदमी आधे रोबोट में बदल देते हैं. वे सभी एक हो कर काम करते और सोचते हैं. लेकिन अगर आप वास्तव में समानता से भरी दुनिया में रहना चाहते हैं और आपकी एक अलग पहचान है, तो आपकी संस्कृति ऐसी चीज है जो आपको बाकि सब से अलग करती है. जिसे आप बरकरार रखते हैं क्योंकि इससे आपको पहचान मिलती है.”
मैं थोड़ा सोच में पड़ गया कि 'चोली के पीछे' गाने पर नाचने वाली नायका भी विज्ञान आधारित कथाओं में रुचि रखती है. जैसे ही जॉनर सिनेमा और एनिमेटेड फिल्मों की बात हुई, उन्होंने बताया कि सुपरहीरो से जुड़ी फिल्में कितनी भावनात्मक हो सकती है. उन्होंने बताया, "जैसे माता-पिता या अंकल को मारा जा रहा हो और खलनायक उस पर हसं रहा हो." मैंने उनसे पूछा कि क्या वह एक सुपरहीरो वाली कोई फिल्म करने पर विचार करेगी. "ओह हां, बिल्कुल. बहुत मजा आएगा. स्पाइडर-मैन से लेकर कैटवूमन तक इसका अपना आकर्षण है. इन पात्रों में कुछ रोमांचकता बनी रहती है. और वे सभी हास्य पुस्तकों से उठाए गए हैं. जो बस … अद्भुत है.”
दीक्षित वर्तमान में स्टारडम के हॉलीवुड मॉडल से प्रभावित हैं. लेखकों और निर्देशकों को उनके लिए विशेष रूप से सामग्री विकसित करने के लिए कहा गया है, बजाए हिंदी फिल्म उद्योग में पारंपरिक रूप से काम करने के तरीके के, जिसमें स्क्रिप्ट के नाम पर भटकाया जाता है. यदि दीक्षित उस तरह की फिल्में कर सकती हैं जिन्हें वह देखना पसंद करती हैं, तो आने वाला समय हमारे लिए दिलचस्प हो सकता है, लेकिन मेरे लिए अभी यह साफ नहीं हुआ था कि क्या वह आज क्रिश जैसे बजट की फिल्म हासिल कर सकती हैं. यदि नहीं, फिल्म उद्योग के निर्माताओं और वितरकों की अस्थिरता को देखते हुए और उनके द्वारा सुरक्षित दांव माने जाने वाले गिनती के आठ अभिनेताओं की हमेशा बदलती सूची को देखें तो नई और छोटी तरह की माधुरी दीक्षित फिल्म कोई बुरी बात साबित नहीं हो सकती.
उनके भविष्य का सुराग उनके सबसे अच्छे और सबसे लीक से हट कर पिछले प्रदर्शनों में छिपा हो सकता है. भारत के सबसे प्रतिष्ठित समकालीन कलाकार और अपने शुरुआती दिनों में फिल्मों के पोस्टर बनाने वाले चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन ने दीक्षित की हम आपके है कौन फिल्म देखने के बाद पूरी तरह से उन पर फिदा हो गए. उन्होंने उनके चित्रों की एक श्रृंखला भी बनाई, जिस पर उन्होंने "फिदा" नाम से हस्ताक्षर किए. जब फिल्म आई तो वह उनहत्तर और दीक्षित छब्बीस साल की थीं. लेकिन उन्होंने एक पक्की दोस्ती कायम की और वर्ष 2000 में हुसेन ने गज गामिनी नामक उनके लिए एक फिल्म बनाई. जिसके शीर्षक का अर्थ "हाथी जैसी चाल वाली" है, जिसमें दीक्षित तीन या शायद अधिक किरदारो में थीं. वाग्देवी, एक महिला जो दा विंची की मोना लिसा और कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम को प्रेरित करती है और एक युवा फोटोग्राफर के लिए एक बेहतरीन मॉडल.
फिल्म नम्र, अक्षम्य रूप से नाटकीय लेकिन यह बिना किसी संदेह के एक दृश्य लीला भी थी. दीक्षित ने मुझे बताया, "वह एक सीमित स्क्रिप्ट थी, एक पूरा स्टोरीबोर्ड था. लेकिन बात डायलॉग की नहीं थी, न कि हम एक-दूसरे से क्या कह रहे है इसकी बात थी, लेकिन वह इसे कैसे फिल्माने जा रहे थे और प्रत्येक दृश्य कैसा दिखने वाला था, बात वह थी. वह कहते थे कि वह चलती-फिरती तस्वीरें बनाना चाहते हैं, जहां अगर आप रील से किसी भी फ्रेम को काट कर निकालें, तो यह एक पेंटिंग की तरह दिखना चाहिए. और उन्होंने ठीक वही किया.
फोटोग्राफर की भूमिका दीक्षित की दिल तो पागल है फिल्म के साथी कलाकार शाहरुख खान ने की थी, जिन्हें ठीक से समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है. "मुझे याद है कि हुसेन-जी आते थे और कहते थे अभी ऐसे बोलना है, अभी ऐसे बोलना है, बोलने से पहले वह हंसी और कहा, ‘शाहरूख आश्चर्य से पूछते कि इसका क्या मतलब है?' और मैंने समझाया कि हमें यह नहीं पूछना चाहिए कि इसका क्या मतलब है सिर्फ वह जो कहते हैं वही करना है.”
मेरे पूछने पर कि यह एक अभिनेत्री के लिए कठिन समय रहा होगा. "वह था! फिल्म के साथ हुसेन-जी जो करने की कोशिश कर रहे थे, उनका उद्देश्य यह बताना था कि एक महिला कितनी रहस्यमयी होती है. कवि अपनी कविता के साथ उनका वर्णन करने की कोशिश कर रहा है, चित्रकार उस जादुई पल, उस मुस्कान पर कब्जा करने की कोशिश कर रहा है और फिर भी वह इतनी रहस्यमयी है कि कोई भी वास्तव में उसका वर्णन नहीं कर सकता और न ही परिभाषित कर सकता है क्योंकि वह इतनी सारी भूमिकाएं निभाती है.
यह सब विचित्र था, "लेकिन बहुत ही मासुमियत भरा और विचित्र भी. और यह एक तरह से आजादी से भरा था क्योंकि मैं इसे अपनी व्याख्या दे सकती थी. वह अभिनय या इससे जुड़ी अन्य चीजों की बारीकियों को नहीं जानते थे इसलिए मुझे बहुत स्वतंत्रता थी. लेकिन हमने कुछ ऐसा बनाया जो बहुत अलग था.”
उन्होंने हुसेन और उनकी भावना के बारे में सप्रेम बात की. जब वह डेनवर में उनसे मिलने आए तो उन्होंने एक कैनवास के लिए इधर-उधर देखा और विश्वास दिलाया कि वह अपने खुद के पेंट लाए हैं. "और मैंने कहा, 'आप आराम क्यों नहीं करते? वापस बैठिए, मैं एक कप चाय लाती हूं, अपने पैर ऊपर रखिए और पेंट मत करिए. और उन्होंने कहा, 'तुम मुझे सजा दे रही हो!' और वह बात मेरे आंखें खोलने वाली थी, जैसे उनके लिए और कुछ भी मायने नहीं रखता था और वह सिर्फ पेंट करना चाहते थे.”
1970 और 1980 के दशक की मसालेदार फिल्मों ने परंपरागत रूप से नायक के "प्रवेश शॉट" को एक असाधारण बात बना दिया था, पहली बार कैमरा हीरो को दिखाता है तो वह अक्सर उसके जूते से उसके चेहरे तक एक नाटकीय ढ़ग से चलता है (इस बिंदु पर कैमरा एक अति आत्मविश्वास वाले स्टैंड-अप कॉमिक की तरह रूक जाता है और तालियों और सीटियों का बरसात होती है). हुसेन भी अपनी दो घंटे की फिल्म में दीक्षित के चेहरे को पहले आधे घंटे के लिए छिपाए रखते हैं; वह नाचती हुई दिखती हैं, लेकिन उनका चेहरा रणनीतिक रूप से उभरी हुई मुद्राओं से ढका रहता है. हम पहली बार दीक्षित के चेहरे को खूबसूरती से मुस्कुराते हुए देखते हैं, एक अंधी महिला की तरह जिसे संगीत ने लुभाया हो. अचानक, वह एक आलाप में आती है और ऊर्जा के एक नाटकीय उछाल के साथ अपनी साड़ी की तरह सफेद रंग में रंगे विशाल वाद्य यंत्रों के बगल में नृत्य करती है. यह एक बेढंगा सेट-अप है लेकिन दीक्षित की विद्युत ऊर्जा इसे जीवंत बनाती है : तरल लावण्यता के साथ उनका उपकरणों को छूना, उनके झटके और उनका हांफना. फिर इसके एक मिनट बाद वह नीचे बैठीं आम सी बाते कर रही होती हैं. अपने आस-पास के अभिनेताओं के विपरीत, जो अपनी पंक्तियों को नाटकीय अंदाज में प्रस्तुत करते हैं, दीक्षित चीजों को कुरकुरा और स्पष्ट बनाए रखती हैं, जो मंच के बजाए सिर्फ कैमरे के लिए होता है. यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके पास एक महारत और अटूट आत्मविश्वास है, चाहे यह एक पेचीदा नृत्य पर बातचीत करना हो या सिर्फ बातचीत करना.
गज गामिनी एक उलझी हुई लेकिन महत्वाकांक्षी परियोजना थी और दीक्षित ने इसमें चकाचौंध भर दी, एक ऐसे प्रदर्शन में बदल दिया जिसका कोई पिछला सिनेमाई संदर्भ बिंदु नहीं था. उनके इतनी बेरोकटोक चमकने का एक कारण यह हो सकता है कि गज गामिनी एक विशुद्ध रूप से कलात्मक प्रयास था, जिसे बॉक्स-ऑफिस पर ध्यान दिए बिना बनाया गया था. यही वह रणनीति है जो इस समय दीक्षित को अधिक शोहरत दिला सकती है.
दीक्षित के करियर के वर्तमान समय का अधिकांश जोखिम इसलिए हो सकता है कि वह एक बार शीर्ष पर रहते हुए लाइम लाइट से बाहर निकल चुकी हैं : अब उनके पास साबित करने के लिए कुछ भी नहीं बचा है. उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने स्टूडियो से दूर रहने का वास्तव में आनंद लिया. वह डेनवर में एक सुपरमार्केट में टहल सकती हैं. "जो एक गोरे लोगों के रहने की जगह है और वहां भारतीय बेहद कम होते हैं, जो अपनी कंपनियों के काम के लिए तीन या चार साल के लिए वहां आते हैं." कभी-कभी एक या दो भारतीय और जिम के कपड़ों में और बिना मेकअप के अपने दिन की शुरुआत से पहले हैलो जरूर बोलते हैं. भीड़ और मीडिया के आसपास होने के कारण उन्हें घर से बाहर निकलने से रोकने वाला कोई नहीं होता. उन्होंने बताया, “एक परिवार, एक पति, एक घर, बच्चे होना हमेशा मेरे सपने का एक बड़ा हिस्सा था. काम करने की इतनी आदत होने के बावजूद मैं उस सपने को जी रही थी जो मैंने अपने लिए बनाया था. मैं इसे पूरी तरह से जी रही थी, वास्तव में," वह हंसी, फिर उन्होंने जल्दी से कहा, "यह एक भूमिका की तरह नहीं था, यह सिर्फ नाटक-अभिनय नहीं था. मैं चार बच्चों वाले परिवार से हूं और मेरे लिए परिवार बहुत महत्वपूर्ण है."
लेकिन एक बार जब वह वापस लौटीं, तो यह स्पष्ट हो गया कि कुछ चीजें नहीं बदली हैं. उनके सेटों से निकलने वाली कहानियां उसी तरह घूमती थीं जैसे पहले घूमा करती थीं, उनके काम की नैतिकता से जुड़ी हुई. गुलाब गैंग के निर्देशक सौमिक सेन ने याद करते हुए कहा, "हम एक गाने की शूटिंग कर रहे थे और लंच के समय उन्होंने मुझे अपनी वैन में बुलाया. और पहली बात उन्होंने मुझसे पूछा, 'क्या आपके पास इस लोकेशन की इजाजत अगले दिन के लिए भी है?’ मैं हैरान था लेकिन मैंने हां कहा. 'क्या आपके पास दूसरे कलाकार हैं?' हां. फिर उन्होंने बताया कि वह सुबह से माइग्रेन के दर्द के रहते हुए नाच रही है. अब, यह बहुत अधिक हो रहा था, उन्होंने दो गोलियां ली थीं लेकिन उससे कोई सुधार नहीं हुआ. अगर वह ठीक महसूस करती हैं, तो वह शूटिंग फिर से शुरू कर देंगी, अन्यथा न कर सकने के लिए उन्होंने मुझसे माफी मांगी. किसी बड़े कलाकार के लिए आपसे यह सवाल पहले पूछना अविश्वसनीय है.”
अभिषेक चौबे ने कहा कि वह डेढ़ इश्किया के दृश्य की शूटिंग के पहले दिन हैरान रह गए थे, जब दीक्षित ने उनसे बहुत ही बच्चों वाले अंदाज से पूछा, “क्या मैंने अच्छा किया?" यह एक बहुत ही संवेदनशील क्षण था, जहां वह स्वीकार कर रही थीं कि, “मैं गड़बड़ कर सकती थी, क्या मैंने बुरा टेक दिया?” यह ऐसी घबराहट थी जैसे कोई अठारह साल का अभिनेता पहली बार कैमरे के सामने आने पर दिखाता है.
दीक्षित के करियर के नए चरण में यह सवाल उठता है कि क्या पिछले एक दशक में अमिताभ बच्चन की तरह महत्वपूर्ण बने रहने के लिए उन्हें अप्रत्याशित चीजों को चुनने के लिए मजबूर किया गया है. क्या वह सलमान खान के साथ काम नहीं करना चाहती हैं, या क्या वह उन्हें दिया ही नहीं जाएगा? या क्या उनके पास वह करने के लिए पर्याप्त धैर्य है जो उन्हें पसंद है?
बच्चन का उदाहरण यहां बहुत कुछ बयां करता है. 1990 के दशक के उत्तरार्ध में बच्चन ने लाल बादशाह और सूर्यवंशम जैसी दुर्भाग्यपूर्ण फिल्मों में अभिनय करते हुए अपने आप ही आसानी से वृद्ध हो गए. वर्ष 2000 में टेलीविजन पर एक हिट शो कौन बनेगा करोड़पति की मेजबानी करने के असामान्य निर्णय के साथ खुद को पुन: तराशने के बाद, वह बॉलिवुड में वापस आने में सक्षम रहे. अब अग्रणी नायक नहीं रहते हुए भी उन्होंने आला फिल्म निर्माताओं को पास आने के लिए मजबूर किया. एक नायक के पिता की भूमिका निभाते हुए भी बच्चन अपनी भूमिका के लिए एक बुनावट और वजन की मांग कर सकते हैं जो कोई और नहीं कर सकता है. इस वजह से अन्य वरिष्ठ अभिनेताओं, जैसे कि ऋषि कपूर, अपनी युवा अवस्था की तुलना में अब ताजा और अधिक चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं पा रहे हैं.
कुछ पुरानी अभिनेत्रियों ने भी इसी तरह दिलचस्प जगह बनाई है. उदाहरण के लिए, शबाना आजमी ने अपनी उम्र के बावजूद एक डायन, डॉन, प्यारी मां और चालाकी करने वाले राजनेता की विविध भूमिकाओं के साथ चमकना जारी रखा है. लेकिन एक कला मंच की अभिनेत्री के रूप में आजमी के पास निर्माताओं और लेखकों के भूमिकाएं लिखने के तरीके को बदलने के लिए आवश्यक व्यावसायिक खिंचाव नहीं है.
वहीं दीक्षित जब छोटी फिल्म करती हैं तो वह छोटी नहीं रह जाती. एक ही वर्ष में एक समलैंगिक और एक डाकू की भूमिका निभा कर दीक्षित ने धारणा और संभावना के मायनों को बदल दिया है. उन्हें और श्रीदेवी को इसके लिए धन्यवाद देना चाहिए. श्रीदेवी की 2013 में आई फिल्म इंग्लिश विंग्लिश एक जबरदस्त हिट थी. अब हिंदी सिनेमा एक ऐसी जगह बनाने के लिए तैयार है जो पहले व्यावसायिक रूप से नायिकाओं के लिए वास्तव में मौजूद नहीं थी. अब अभिनेत्रियों के लिए पारंपरिक नियमों जैसे उनकी आयु, वैवाहिक स्थिति या लुक के बावजूद प्रासंगिक बने रहना संभव प्रतीत होता है. और, यह सब करने के लिए दीक्षित को शायद डांस करने की जरूरत भी नहीं पड़े.
1990 के दशक में अपने करियर की ऊंचाई के दौरान दीक्षित और जूलिया रॉबर्ट्स के बीच समानताएं निकालना आसान था. वह एक प्रतिष्ठित मुस्कान और लड़कों जितना बड़ा वेतन वाली, आश्चर्यजनक रूप से सफल सितारा हैं, लेकिन अब चीजें बदल गई हैं. डेढ़ इश्किया में दीक्षित के प्रदर्शन से पता चलता है कि उन्होंने नायिका से अभिनेत्री तक कितनी दूरी तय की है. कहीं न कहीं 1990 के दशक के मध्य में बेटा और 1994 की अंजाम के बीच वह अपनी भावात्मक गुंजाइश को पहचाना और झूठी चर्चाओं से दूर रहने लगी. अब, जोखिम उठाने की बढ़ी हुई क्षमता के साथ वह अधिक जटिल चरित्रों और परिपक्व प्रदर्शनों को गढ़ने में सक्षम हैं. हॉलीवुड में भी हम दीक्षित के समानांतर मेरिल स्ट्रीप को पाते हैं, जो अपने अभिनय के लिए सम्मानित और अभी भी एक अग्रणी महिला हैं. मेरिल स्ट्रीप की फिल्म भी कभी छोटी फिल्म नहीं रहती है.
दीक्षित स्ट्रीप का जिक्र सुनकर चिल्ला पड़ीं. "हालांकि, वह मेरे लिए एक बड़ी बात है. मैं बस कुछ अलग करना चाहती हूं. मैं अपनी अगली हर फिल्म के साथ कुछ अलग करना चाहती हूं." जब हमने उनके चहेते हॉलीवुड कलाकारों के बारे में बात की तो स्ट्रीप पहला नाम है जो उन्होंने लिया, लेकिन उनकी दूसरी पसंद ने मुझे ज्यादा प्रभावित किया. "नई लड़की, जेनिफर लॉरेंस. वह जो भी भूमिका निभाती है, उसमें बस जाती है और वह बहुत छोटी है और यह बहुत अलग बात है.”
उन्होंने एक तेईस साल की अदाकारा को अपना रोल मॉडल बताया यह दर्शाता है कि दीक्षित मां या बड़ी उम्र की भूमिकाओं से बचने के बारे में कितनी गंभीर हैं. शायद उन्हें ऐसा नहीं करना पड़े. दीक्षित ने एक ऐसे समय में सिनेमा में कदम रखा था जब "नायिका-उन्मुख फिल्म" बॉक्स-ऑफिस पर फेल होने के लिए बदनाम थीं. लेकिन सिनेमा में हाल के रुझान, जिसमें 2012 में आई फिल्म कहानी में विद्या बालन और 2014 की क्वीन में कंगना रनौत जैसी अभिनेत्रियों की सफलता शामिल है, ने आशा जगाई है कि ऐसी फिल्मों के पक्ष में महौल विकसित हुआ है.
दीक्षित ने यह भी कहा कि महिलाओं को अब अधिक तरह-तरह के रोल मिल रहे हैं. “वह अब एक किरदार निभाती है. नायिका-उन्मुख फिल्में अब यह सिर्फ अन्याय, बदला लेने वाली या पीड़िता पर आधारित नहीं रही हैं.” वह इस बात से भी सबसे ज्यादा संतुष्ट थीं कि महिला कलाकारों को उनकी सभी महत्वाकांक्षाओं को लेकर सफाई देने की जरूरत नहीं है. “पहले आपको लगता था कि अभी ऐसा दिखाएंगे तो दर्शकों को यह पसंद नहीं आएगा. एक बीमार भाई है, उसके लिए कुछ करना है इसीलिए वह एक कैबरे डांसर है.”
सिनेमा में आए हाल के बदलावों में एक बदलाव यह भी हुआ है कि कलाकारों पर हिट और फ्लॉप का असर पहले की तरह नहीं पड़ता है. अब एक अभिनेत्री फिल्म समीक्षा में खरी उतरी फ्लॉप फिल्म में होने के बावजूद आलोचकों की प्रशंसा के बूते अगली फिल्म पा सकती है. यह आसान नहीं है, लेकिन प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों के सफल होने के लिए अब अधिक और बेहतर संभावनाएं मौजूद हैं. समाचार पत्र और पत्रिकाएं अब प्रशंसा को मापते समय चमकदार कलाकारों से परे भी देखते हैं. इरफान खान, राजकुमार राव और नवाजुद्दीन सिद्दीकी में हम अपरंपरागत मुख्य कलाकारों के उदय को देख रहे हैं. हिंदी सिनेमा में अभी तक कोई मेरिल स्ट्रीप जैसी भूमिकाएं नहीं आई हैं लेकिन अगर दीक्षित अपने रास्ते में सफल होती हैं, तो हमें आखिरकार वह सुपरहीरोइन मिल सकती है जिसके लिए हम हमेशा से तरसते रहे हैं.
(अंग्रेजी कारवां के जून 2014 में प्रकाशित इस प्रोफाइल को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)