(एक)
2018 की जुलाई में जब इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप ने सुप्रीम कोर्ट के उस समय के दूसरे वरिष्ठतम जज रंजन गोगोई को रामनाथ गोयनका मेमोरियल लेक्चर के लिए बतौर वक्ता चुना तो कुछ प्रगतिशील लोगों ने उनके इस चुनाव पर सवाल खड़ा कर दिया.
जल्दी ही भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले गोगोई का परिचय देते हुए इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक राजकमल झा ने उनकी तारीफ की झड़ी लगा दी. झा ने कहा कि पत्रकार और न्यायपालिका के सदस्य दोनों को “बगैर किसी डर या पक्षपात के” काम करना पड़ता है ताकि वे अपनी जिम्मेदारी बेहतर ढंग से निभा सकें और गोगोई ने उनकी निगाह में उसी तरह काम किया.
झा ने कहा कि इंडियन एक्सप्रेस के संस्थापक रामनाथ गोयनका को इससे ज्यादा उचित श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती. उन्होंने कहा, “न्यूज रूम की लाल स्याही की एक मोटी लकीर, जिसे हम अपने रिपोर्टर को बताते हैं, वह कभी किसी फैसले या जज के इरादे पर आरोप नहीं है... मैं वह लकीर खींचने जा रहा हूं और मैं यहां कुछ छूट लूंगा. जस्टिस गोगोई की कथनी और करनी इस भाव को, इस धारणा को और मजबूत करती है... कि न्याय की तलाश भय और पक्षपात के बगैर ही होती है. गुवाहाटी से लेकर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय हो या सुप्रीम कोर्ट से लेकर जनवरी की सर्दियों की सुबह की वह लॉन, जस्टिस गोगोई ने हमेशा उस फर्क को पाटने का काम किया है जिसे वह संवैधानिक आदर्शवाद और संवैधानिक यथार्थवाद के बीच का फर्क कहते हैं.”
झा उस लॉन का जिक्र कर रहे थे जहां उस वर्ष 12 जनवरी को गोगोई सहित उच्चतम न्यायालय के चार कार्यरत जजों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस किया था. सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार मीडिया को संबोधित करने के लिए चार कार्यरत जज एक साथ आए थे. उन्होंने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के तौर-तरीकों को लेकर सार्वजनिक तौर पर अपनी शिकायत का इजहार किया था. उन्होंने बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के पक्ष में दीपक मिश्रा के विवादास्पद फैसलों का जिक्र करते हुए आरोप लगाया था कि वह उन महत्वपूर्ण मामलों को, जिनमें सरकार शामिल है, उन जजों को सौंप रहे हैं जिनके बारे में लगता है कि वे सरकार का पक्ष लेंगे. इस प्रेस कॉन्फ्रेंस की व्यापक आलोचना हुई. जस्टिस दीपक मिश्रा के संभावित उत्तराधिकारी रंजन गोगोई के साहस की जमकर तारीफ हुई और लोगों ने अटकलें लगायीं कि ऐसा करके उन्होंने मुख्य न्यायाधीश बनने का अपना अवसर गंवा दिया. गोगोई हीरो बन गए और उन्होंने एक ऐसे प्रधान न्यायाधीश की उम्मीद पैदा कर दी जो संविधान के रक्षक के रूप में उच्चतम न्यायालय की साख को वापस स्थापित कर सकता है.
अनेक अकादमिक विषयांतरों के साथ अपने लंबे भाषण मेँ गोगोई ने ऐसी कई टिप्पणियां कीं जिसने उदारवादी प्रशंसकों को खुश कर दिया. उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख को उद्धृत किया जिसमें कहा गया था कि “स्वतंत्र न्यायाधीश और शोरगुल करने वाले पत्रकार ही लोकतंत्र की पहली रक्षा पंक्ति हैं.” इसके बाद गोगोई ने कहा, “मैं इसे मानता हूं, पर आज के संदर्भ में थोड़े फेरबदल के साथ- न केवल स्वतंत्र न्यायाधीश और शोरगुल करने वाले पत्रकार बल्कि यहां तक कि स्वतंत्र पत्रकार और कभी-कभार शोरगुल करने वाले न्यायाधीश भी.” अगले दिन गोगोई की यह टिप्पणी अखबारों की सुर्खियां बनी.
लेकिन अक्टूबर 2018 में मुख्य न्यायाधीश बनने के थोड़े समय बाद से ही गोगोई ने एकदम अलग कारणों से शोर मचाना शुरू कर दिया. नया पद ग्रहण करने के कुछ दिनों के अंदर ही उनके सामने एक ऐसा मामला आया जिसका दूरगामी दुष्परिणाम नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए हो सकता था: राफेल मामला, जिसका संबंध भारत सरकार द्वारा फ्रेंच कंपनी दसॉल्ट एविएशन से 36 लड़ाकू विमानों की खरीद से था. उनके नेतृत्व में तीन जजों की पीठ ने भारत और फ्रांस की सरकारों के बीच हुए समझौते से संबद्ध चार याचिकाएं सुनीं.
इस मामले में गोगोई की कार्रवाई समझ से परे है. प्रतिपक्ष का आरोप था कि अन्य बातों के अलावा सरकार ने कृत्रिम तौर पर विमानों की कीमत में इतनी वृद्धि की जिससे इस सौदे से संबद्ध निगमों को फायदा मिल सके. पारदर्शिता के सिद्धांत को धता बताते हुए गोगोई ने विमानों के मूल्य से संबंधित विवरण को सीलबंद लिफाफे में मंगाया और फिर वायु सेना के अफसरों के साथ एक अनौपचारिक “परस्पर बातचीत” की. अंततः इस वर्ष दिसंबर में अदालत ने याचिकाएं खारिज कर दीं. अंतिम फैसले में सीएजी की एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया जो न तो उस समय तक संसद में पेश की गई थी और न सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध थी.
गोगोई और अपनी ओर से याचिका पर बहुमत की राय देते हुए एस के कौल ने कहा कि - “हम इस बात से संतुष्ट हैं कि समूची प्रक्रिया में वास्तविक तौर पर संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं है और अगर कहीं छोटी-मोटी चूक है तो इसकी वजह से अनुबंध को रद्द करने या अदालत द्वारा विस्तृत छानबीन की जरूरत नहीं है.” तीसरे जज के एम जोसेफ ने मोटे तौर पर बहुमत की राय से सहमति व्यक्त करते हुए अलग से लिखा - “हमें इस बात की कोई वजह नहीं दिखाई देती कि भारत सरकार द्वारा 36 रक्षा विमानों की खरीद जैसे संवेदनशील मुद्दे में अदालत किसी तरह की दखलअंदाजी करें.”
अदालत ने ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला देते हुए अपनी इस कार्रवाई की व्याख्या की. फैसले में कहा गया - “इसलिए हमारे सामने जो चुनौती है उसकी छानबीन हमें राष्ट्रीय सुरक्षा के दायरे में करनी होगी क्योंकि इन विमानों को हासिल करने का मामला देश की संप्रभुता की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है.” यह कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि कैसे विमानों की कीमतों का ब्यौरा जाहिर करना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकता है. वस्तुतः तीन जजों की बेंच ने उन याचिकाओं को, जिनमें सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाते हुए जांच की मांग की गई थी, याचिका में उठाए गए प्रमुख मुद्दों की विस्तृत छानबीन किए बिना खारिज कर दी.
गोगोई से लोगों को जो उम्मीदें थी उस पर पानी फिर गया और लोगों ने अटकलें लगानी शुरू कीं कि गड़बड़ी कहां हुई. लेकिन जो लोग बारीकी से उनके कामकाज को देखते रहे हैं उन्होंने कभी यह उम्मीद नहीं की थी कि सुप्रीम कोर्ट में वह किसी बदलाव के वाहक बनेंगे. वरिष्ठ एडवोकेट संजय हेगडे ने मुझे बताया, “वह ऐसे व्यक्ति थे जो तेजी से काम करते थे, जो फिजूल की बातों में नहीं पड़ते थे और फटाफट फैसले लेते थे लेकिन इसके साथ किसी तरह का कोई महान न्यायिक दर्शन नहीं जुड़ा था. उनके मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद बहुत सारी उम्मीदें पैदा हो गई थीं क्योंकि उन्होंने दीपक मिश्रा के खिलाफ एक रुख अख्तियार किया था. लेकिन फिर यह स्पष्ट हो गया कि और बातों के मुकाबले कोई फैसला लेने और फिर उससे बंधे रहने की सहज प्रवृत्ति उन पर अपेक्षाकृत हावी रहती थी. और जब उनकी यह सहज वृत्ति सरकार के साथ कुछ ज्यादा ही जुड़ गई, लोग अपने ढंग से उनका आकलन करने लगे.” यहां तक कि पिछले वर्ष जब मैंने गोगोई के दोस्तों उनके परिवारजनों और उनके सहकर्मियों से बात की तो किसी ने भी न्याय के विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की बात नहीं की. एक प्रतिष्ठित परिवार में पैदा गोगोई की कानूनी और राजनीतिक दुनिया में संपर्कों की कोई कमी नहीं थी. सुविधासंपन्नता और महत्वाकांक्षा के संयोग के साथ कार्यक्षमता और दक्षता के प्रति उनके झुकाव ने उन्हें एक के बाद एक उच्च न्यायिक पदों पर असाधारण गति से पहुंचाया.
मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल के दौरान गोगोई के पास ऐसे अनेक मामले आए जिन पर उनके रुख को देख कर लोग हैरान होते थे कि क्या यह वही जज है जो दीपक मिश्रा के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करने वालों में से एक था. राफेल मामले के अलावा जिन अनेक मामलों की उन्होंने सुनवाई की उनमें सब कुछ वैसा ही होता रहा जो सरकार के लिए काफी सुकून पहुंचाने वाला था. इसमें अयोध्या मंदिर विवाद, जम्मू-कश्मीर मेँ अनुच्छेद 370 से संबद्ध मामला, सीबीआई के निदेशक पद से आलोक वर्मा के हटाए जाने का मामला और ऐसे कई मामले शामिल हैं. इस बीच गोगोई के प्रति रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ जैसे सरकार समर्थक टीवी चैनलों के रुख में तब्दीली नजर आई - जो चैनल प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए चारों जजों की आलोचना कर रहे थे वे उस समय गोगोई के घोर समर्थक नजर आने लगे जब मुख्य न्यायाधीश रहते हुए उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न का मामला उजागर हुआ.
कानूनविदों के खेमों में इस बात को लेकर अनेक सिद्धांत देखने में आए कि आखिर वह कौन सी वजह है जिसने उन्हें एक उदार विद्रोही व्यक्ति से सरकार की वाहवाही करने वाला, सरकार का चहेता मुख्य न्यायाधीश बना दिया. जनवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने गोगोई के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए जिससे अटकलों में और भी बातें जुड़ गईं. काटजू ने गोगोई को कहा कि वे खुद को ‘खरा साबित’ करें.
उन्होंने लिखा कि 2016 में जब टी एस ठाकुर मुख्य न्यायाधीश थे, कोलेजियम (सुप्रीम कोर्ट के पांच अत्यंत वरिष्ठ जजों की समिति) ने दिल्ली उच्च न्यायालय के एक तत्कालीन जज बाल्मीकि मेहता के तबादले की सिफारिश की थी क्योंकि उनके खिलाफ ‘कुछ अत्यंत गंभीर’ आरोप थे. मेहता के बेटे से गोगोई की बेटी ब्याही है. काटजू ने लिखा कि ‘मुझे सुनने में आया कि जस्टिस गोगोई ने, जो उस समय सुप्रीम कोर्ट में अवर न्यायाधीश थे, मोदी या उनके मंत्रिमंडल के किसी उच्चतर मंत्री से भेंट की और गिड़गिड़ाये कि उनके 'संबंधी' का तबादला न किया जाए.‘ काटजू ने आगे लिखा कि ‘अगर ऐसा है तो गोगोई ने निश्चय ही बीजेपी सरकार का एहसान लिया जिसे उन्हें लौटाना ही था.‘ कुछ लोगों से मेरी बात हुई जो यह अटकल लगा रहे थे कि अपने ऊपर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप की वजह से वह दबाव को झेलने में कमजोर हो गए थे और यही वजह थी कि अपने कार्यकाल के दौरान दिनोंदिन सरकार के प्रति ज्यादा मेहरबान होते गए.
कानून के विद्वान गौतम भाटिया ने मुझसे कहा, “इनमें से किसी का आपको कोई पुख्ता सबूत नहीं मिलेगा लेकिन ईमानदारी की बात यह है कि ऐसे तमाम काम जो उन्होंने किए हैं, उनके बारे में बता पाना मुश्किल है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. बहुत सारी चीजें हैं जिनका कुछ तुक नजर नहीं आता, बस सोचना पड़ता है कि वह किसी के निर्देशों का पालन कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट की बेतरतीबी और बेतुकेपन पर ध्यान दें तो बहुत सारी बातें समझ से परे हैं- तब यही ख्याल आता है कि कुछ तो कहीं गड़बड़ है.“
भारतीय जनता पार्टी को गोगोई का सबसे बेशकीमती तोहफा नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) का अपडेट है जिसने सरकार को राष्ट्रीय नीति का रोडमैप तैयार करने का अवसर दिया. अक्टूबर 2013 से अक्टूबर 2019 तक गोगोई ने एनआरसी से संबंधित कई मामलों की सुनवाई की थी. उनके जरिए उन्होंने एक खाका तैयार किया जिससे राज्य में “विदेशी” समझे जाने वालों की शिनाख्त हो सके और उन्हें वापस भेजा जा सके. इसके लिए उन्होंने जो तरीका सुझाया उसके मुताबिक बेरहम और जबरदस्त तकनीकी किस्म की मूल्यांकन प्रक्रिया से गुजरने के बाद, जिस में गड़बड़ी होना लाज़िमी था, लाखों लोगों की भारत की नागरिकता छीनना था.
इस दंडात्मक प्रक्रिया की काफी गंभीर कीमत चुकानी पड़ सकती थी जिसे दुरुस्त करने की भी कोई गुंजाइश नहीं थी लेकिन ऐसा लगता था कि गोगोई ने उनके प्रति थोड़ी भी चिंता नहीं दिखाई जो इसकी चपेट मेँ आ रहे थे. उल्टे उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच का नेतृत्व किया जिसने ऐसी परियोजना की निगरानी, निरीक्षण और प्रबंधन किया जो सरकार की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए थी.
लेकिन इस परियोजना की गोगोई के तहत देखरेख से अगर बीजेपी को कोई लाभ मिला होगा तो अनजाने मेँ भी हो सकता है. आज़ादी के बाद से ही असम की राजनीति का एक बहुत बड़ा अंश प्रवासियों के खिलाफ आंदोलन से संचालित होता रहा है जिसमें अवैध प्रवासियों की पहचान करने और उन्हें राज्य से बाहर खदेड़ने की कोशिश शामिल रही है. गोगोई अहोम समुदाय से हैं जो इस तरह के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले समुदायों मेँ से एक है. राज्य के अनेक प्रभुत्वकारी समुदायों के अंदर प्रवासी नागरिकों के खिलाफ कैसी भावनाएं हैं, इसकी झलक एनआरसी से संबद्ध मामले की गोगोई के समक्ष हुई सुनवाई मेँ मिल चुकी है. सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने राज्य के डिटेंशन सेंटर्स (एक ऐसी जेल जहां विदेशी करार दिए गए लोगों को रखा गया है) की अमानवीय जीवन स्थितियों के खिलाफ एक याचिका दायर की और हर्ष मंदर ने महसूस किया कि गोगोई ने उनकी याचिका का इस्तेमाल और भी कई बंदी गृहों के खोले जाने और विदेशी घोषित कर दिए गए लोगों को उनके देश वापस भेजने के कार्य में तेजी लाने के लिए किया. हर्ष मंदर ने फिर एक और आवेदन किया कि गोगोई को इस मामले की सुनवाई से अलग किया जाए और इसकी वजह उन्होंने बतायी कि सुनवाई के दौरान उनके ‘अवचेतन मेँ बसे पूर्वाग्रह’ प्रकट हुए. हर्ष मंदर की याचिका तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दी गई.
गोगोई ने जो मांगें और अंतिम तिथियां निर्धारित कीं वे केंद्र में और असम में बीजेपी सरकारों के काफी अनुकूल थीं. इस मामले ने और भी ज्यादा महत्वाकांक्षी और कपटपूर्ण योजना बनाने के लिए बीजेपी को एक रास्ता दियाः देशव्यापी एनआरसी. बीजेपी ने अब अपने मालखाने में और हथियार जमा करने शुरू किए. मोदी सरकार ने कुछ कार्यकारी आदेश पारित किए जिसमें भारत में प्रवेश के लिए जो नियम तैयार किए गए उसमें धार्मिक भेदभाव को भी जोड़ दिया गया. इसने नागरिकता (संशोधन) कानून पारित किया जिसमें इस बात का प्रावधान था कि गैर मुस्लिम समुदायों के अधिकांश लोगों के लिए, जिन्हें पहले अवैध रूप से आया माना जाता था, अब नागरिकता लेना आसान हो गया. इसके साथ ही सीएए और देशव्यापी एनआरसी का खतरा भारत के लगभग बीस करोड़ मुसलमानों की नागरिकता पर मंडराने लगा. सरकार ने पहले से ही नेशनल पापुलेशन रजिस्टर के लिए आंकड़े जुटाने शुरू कर दिए हैं जिसका इस्तेमाल एनआरसी के लिए किया जाएगा. बीजेपी के इन कदमों और भावी योजनाओं के खिलाफ देशभर में चल रहे विरोध प्रदर्शनों के साथ ही अब गोगोई के उत्तराधिकारी मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे उस पीठ की अध्यक्षता कर रहे हैं जिसमें सीएएए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है.
सुप्रीम कोर्ट के एक अधिवक्ता सुमित हजारिका ने मुझ से बताया, “गोगोई एक न्यायाधीश थे; उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अपने व्यक्तिगत हितों और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर विचार करेंगे. लेकिन मैं नहीं समझता कि एनआरसी के मामले में उन्होंने ऐसा किया. अगर एनआरसी के प्रति उनके अंदर कोई पूर्वाग्रह था और उससे वह खुद को अलग नहीं कर सकते थे तो उनके पास इसका पर्याप्त कारण था कि वह इस मामले को अपनी अदालत में नहीं लेते. वह चूंकि असम से आते हैं इसलिए ऐसा लगता है कि इसके साथ उनका खुद का एजेंडा जुड़ा था जिसे वह अदालत के जरिए और जज के रूप में अपनी हैसियत का इस्तेमाल करते हुए पूरा करना चाहते थे. मैं समझता हूं कि उन्हें किसी भी हालत में इस मामले की सुनवाई नहीं करनी चाहिए थी.”
वरिष्ठ अधिवक्ता चंदर उदय सिंह ने बताया, “सच्चाई यह है कि वह सबसे ज्यादा निराश करने वाले मुख्य न्यायाधीश थे - सबसे ज्यादा इसलिए क्योंकि हमने उनसे बहुत उम्मीदें पाल रखी थीं. जहां तक मेरी बात है, गोगोई के बारे में मैं जितना ही कम कहूं, उतना ही बेहतर होगा. वह भरपूर सर्वनाश थे, अब तक के सबसे बुरे मुख्य न्यायाधीश.”
(दो)
उत्तरी असम के डिब्रूगढ़ जिले में 18 नवंबर, 1954 को जन्मे रंजन गोगोई को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर काफी सुविधाएं हासिल थीं. ननिहाल के पक्ष से गोगोई के पूर्वज अहोम राजवंश से आते थे जिसने लगभग छह सौ वर्षों तक असम पर शासन किया था. अहोम लोग खुद भी किसी जमाने में बाहर से आकर यहां बसे थे. बताया जाता है कि प्रथम अहोम राजा सुकफा ने 1215 ई. में चीन के वर्तमान युननान प्रांत के मौलाङ से चल कर 13 वर्षों तक इधर-उधर भटकते रहने के बाद असम में आकर अपने राज्य की स्थापना की थी. 2018 में वैज्ञानिक अध्ययनों से अहोम लोगों तथा आज की थाई आबादी के बीच जैविक संबंधों का पता चला है.
गोगोई के नाना और नानी दोनों एक राजनीतिक के तौर पर कांग्रेस पार्टी से जुड़े थे. उनके नाना जोगेश चंद्र बोरगोहाईं आजादी से पहले असम विधानसभा के सदस्य थे. उनकी नानी पद्म कुमारी गोहाईं कांग्रेस की एमएलए थीं जो 1957, 1962 और 1967 में लगातार चुनी गई थीं. उन्हें असम की पहली महिला कैबिनेट मंत्री बनने का श्रेय है और वह 1970 के दशक के प्रारंभ में समाज कल्याण और कताई-बुनाई मंत्री के पद पर रह चुकी थीं.
गोगोई की मां शांति ने कभी राजनीति में रुचि नहीं दिखाई. वह असम की जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं. सन् 2000 में उन्होंने डिब्रूगढ़ में “सोशियो एजुकेशनल वेलफेयर एसोसिएशन” नाम से एक एनजीओ की स्थापना की जिसका मकसद असम में उन समुदायों को मदद पहुंचाना था जो हाशिए पर पड़े थे. 16 वर्ष की अल्पायु में शांति का विवाह केशब चंद्र गोगोई से हो गया.
केशब चंद्र गोगोई एक समृद्ध और सफल वकील थे जो डिब्रूगढ़ में वकालत करते थे. उनकी फौजदारी और आबकारी के मामलों में विशेषज्ञता थी. 1978 में उन्होंने राजनीति में भाग लिया था और डिब्रूगढ़ निर्वाचन क्षेत्र से जनता पार्टी के सदस्य की हैसियत से राज्य विधानसभा का चुनाव भी लड़ा था. इस चुनाव में उन्हें जीत मिली और असम आंदोलन के शुरू होने से कुछ ही पहले उन्होंने राजनीति में प्रवेश कर लिया था. अगले वर्ष असम आंदोलन शुरू हो गया. कुछ ही दिनों बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गए. 1982 में आंदोलन के बीच में ही केशब चंद्र गोगोई दो महीने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री पद पर भी रहे. इसके बाद राज्यपाल ने विधानसभा को भंग कर दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. असम आंदोलन शुरू होने के बाद से तीसरी बार राष्ट्रपति शासन लागू हुआ था.
1996 तक केशब चंद्र गोगोई डिब्रूगढ़ से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में लगातार चुनाव लड़ते रहे और जीतते रहे. 1996 में वह पार्टी से अलग हो गए और एक दूसरे गुट से उन्होंने चुनाव में हिस्सा लिया. जिसमें कांग्रेस उम्मीदवार से उन्हें पराजय मिली. इसके दो वर्ष बाद उनका निधन हो गया.
घर में राजनीति और कानून दोनों की जबर्दस्त मौजूदगी के बावजूद रंजन गोगोई की इन दोनों में से किसी में दिलचस्पी नहीं थी. अक्टूबर के शुरुआती दिनों में डिब्रूगढ़ के के.सी.गोगोई पथ (जो उनके पिता के नाम पर है) पर स्थित उनके पारिवारिक घर के बरामदे में मैं उनकी मां के साथ बैठा था और साथ में गोगोई की छोटी बहन नंदिता और उसके पति नलिन हजारिका भी थे. मां शांति अब 85 वर्ष की हैं और वह मुझ से असमिया में बात कर रही थीं जिसका अनुवाद साथ ही साथ नलिन कर रहे थे.
मां शांति गोगोई ने बताया, “बचपन में वह बहुत गंभीर था. उसके कुछ दोस्त तो थे लेकिन वह किसी से भी बहुत घनिष्ठ नहीं था. किसी भी बात को वह बिना लाग-लपेट बोल देता था और नियमों के बारे में बहुत सख्त था. अगर वह अपने भाई या किसी और के साथ कुछ खेल रहा होता और खेल में अगर कोई नियम तोड़ता तो वह इस पर बहुत कड़ा रुख अख्तियार करता था.”
गोगोई की शिक्षा डिब्रूगढ़ के डॉन बास्को स्कूल में हुई जो घर से बमुश्किल बीस मिनट की दूरी पर था. मां शांति ने बताया कि “वह बहुत अध्ययनशील था.” नंदिता ने एक घटना याद करते हुए बताया कि जिन दिनों रंजन गोगोई दसवीं कक्षा के छात्र थे, परीक्षा में उन्होंने जब अस्सी पृष्ठ लिख दिए तो निरीक्षक ने उनकी टेबल के पास जाकर जानना चाहा कि वह क्या लिख रहे थे. नंदिता ने बताया कि “स्कूल के दिनों में और साथ ही अपने कामकाज के दिनों में वह हमेशा बहुत गंभीर रहते थे.”
हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद गोगोई ने आगे की पढ़ाई के लिए गुवाहाटी के कार्टन कॉलेज में दाखिला लिया. वहां उनके इतिहास के अध्यापक उदयादित्य भराली के साथ उनके बहुत घनिष्ठ संबंध हो गए. भराली असम के एक जाने-माने इतिहासकार और बुद्धिजीवी थे और वह भी अहोम जनजाति से आते थे. भराली ने गोगोई का जिक्र आने पर बड़ी भावुकता के साथ कहा- “वह मेरे सबसे अच्छे छात्रों में से एक था.” गुवाहाटी के दक्षिण शरनिया बस्ती में अपने मकान में बात करते हुए भराली ने मुझे बताया- “वह बहुत दोस्ताना ढंग से और आदर के साथ मुझ से व्यवहार करता था.” उन्होंने याद किया कि पहले दिन कक्षा में आने के बाद गोगोई ने उनसे पूछा कि वह कुछ किताबों के नाम बताएं जिन्हें वह लेकर पढ़ सकें. “वह अकसर मुझ से मिल लेता था - कम से कम हर महीने. उसका व्यवहार अत्यंत मित्रवत था.”
वर्षों से गोगोई का समय-समय पर भराली से मिलना जारी रहा है और वह भराली को बेहद सम्मान देते हैं. 2003 में जब वह गौहाटी उच्च न्यायालय में एक जज थे, उन्होंने भराली को आमंत्रित किया ताकि वह उनकी मां की लिखी एक पुस्तक का लोकार्पण कर सकें. भराली ने मुझे बताया कि यद्यपि दोनों के बीच असम आंदोलन पर कभी कोई चर्चा नहीं हुई लेकिन मुमकिन है कि इस मुद्दे पर अपने अध्यापक के लेखों से गोगोई प्रभावित हुए हों. 1996 से 2001 के बीच असमिया के एक प्रमुख दैनिक पत्र असोमिया प्रतिदिन में भराली के 70 से भी अधिक लेख छप चुके थे. इन लेखों में एनआरसी को अपडेट करने की जरूरत पर जोर दिया गया था.
भराली ने कहा, “मैंने ही 1996 में असम में एक प्रक्रिया की शुरुआत की जिसमें मैंने बताया कि राज्य में विदेशी नागरिकों की समस्या का बस एक ही समाधान हैः असम समझौते के आधार पर असम में जो नागरिक हैं उनकी पूरी सूची तैयार की जाए. मेरे हर लेखों में एक ही मुद्दे पर जोर दिया जाता रहा - असम में विदेशी नागरिकों की समस्या का समाधान हो. मेरा कहना था कि आप विदेशी नागरिकों की बात भूल जाइए, आप बस अपने नागरिकों पर ध्यान केंद्रित करिए. आप 25 मार्च, 1971 को ‘कट आफ डेट’ मानते हुए एक रजिस्टर में सारे नागरिकों की सूची बनाइए और फिर जो बाकी बचेंगे वे अपने आप ही भारत के अन्य भागों से आए हुए लोग होंगे या विदेशी होंगे... आखिरकार रंजन ने यह काम कर ही दिया. मैं बहुत आभारी हूं.” भराली ने बताया कि गोगोई के प्रधान न्यायाधीश बनने के बाद उन्होंने एक “भावनात्मक लेख” लिखा और बताया कि कैसे उनके सबसे अच्छे छात्र ने आखिरकार एनआरसी को अपडेट किया.
गोगोई पर भराली का कितना प्रभाव था इसकी झलक इस तथ्य से मिलती है कि कॉटन कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद गोगोई ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ने के लिए इतिहास को अपना विषय चुना. नंदिता ने मुझे बताया कि, “वह हमेशा आर्ट्स के छात्र थे. उन्होंने कभी विषय के रूप में साइंस को नहीं पसंद किया और गणित से उन्हें बहुत चिढ़ थी. लेकिन उनकी याददाश्त बड़ी तेज थी. तारीखों, अंकों आदि को वह बखूबी याद रखते थे. मुझे लगता है कि उनके पास एक फोटोग्राफिक मेमोरी थी."
अरूणाचल प्रदेश के एडवोकेट जनरल और वरिष्ठ वकील निलय दत्ता सेंट स्टीफेंस में गोगोई के सीनियर छात्र थे. दत्ता का कहना है कि, “गोगोई हमेशा खरी-खरी बात करते रहे हैं. वह मिलनसार नहीं थे लेकिन बहुत ठोस इच्छा शक्ति के व्यक्ति थे.” उनके अनुसार गोगोई की न तो राजनीति में कोई रुचि थी और न कभी उन्होंने छात्र आंदोलन में ही हिस्सा लिया - इमरजेंसी के दिनों में भी नहीं. सेंट स्टीफेंस से स्नातक करने के बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में मास्टर्स की डिग्री ली.
नंदिता का कहना है कि गोगोई ने "कानून के प्रति कभी कोई झुकाव नहीं दिखाया.” एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह सिविल सर्विसेज की तैयारी करने लगे लेकिन मनपसंद सेवा में चयन न होने की वजह से उन्होंने वह इरादा छोड़ दिया. मां शांति का कहना है कि गोगाई हमेशा इस बात में यकीन करते हैं कि जो भी काम किया जाए, मन से किया जाए. यही वजह है कि प्रशासनिक सेवा में अपने पसंद का काम न पाने पर उन्होंने तय किया कि अब कभी इसके लिए कोशिश नहीं करेंगे.
गोगोई ने कानून की पढ़ाई करने की बात सोची और 1970 के दशक के मध्य में दिल्ली विश्वविद्यालय की लॉ फेकल्टी में दाखिला ले लिया. इसके बाद अपने मां-बाप को लिखे पहले पत्र में उन्होंने लिखा, “मुझे बिलकुल इस बात की जानकारी नहीं थी कि कानून की पढ़ाई इतनी दिलचस्प है.” उनकी मां ने याद किया कि इसी पत्र में उन्होंने लिखा था कि “अगर मुझे पहले से यह पता होता तो शुरू से ही मैं आपके साथ काम करता.” यहां वह डिब्रूगढ़ में अपने पिता के वकील के पेशे का जिक्र कर रहे थे. दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय में उनके आगे-पीछे पढ़ने वालों में अनेक भावी न्यायाधीश थे जिनमें मदन लोकुर, दीपक गुप्ता और रोहिंतन नारिमन के नाम शामिल हैं. लोकुर ने तो सेंट स्टीफेंस से इतिहास की पढ़ाई भी की थी हालांकि वह गोगोई से एक साल जूनियर थे.
1978 में कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद गोगोई ने गुवाहाटी में वहां के एक प्रमुख वरिष्ठ एडवोकेट जे.पी.भट्टाचार्जी के साथ काम शुरू किया. भट्टाचार्जी की विशेषज्ञता टैक्स, सर्विस और कंपनी से संबंधित मामलों में थी. भट्टाचार्जी नगालैंड के एडवोकेट जनरल भी थे और इसकी वजह से उनके पास असम के आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों के बहुत सारे मामले आते थे.
असम आंदोलन के दौरान गुवाहाटी में एक युवा वकील के रूप में काम करते रहने के बावजूद गोगोई ने आंदोलन से एक दूरी बना कर रखी. इसकी एक वजह यह बताई जा सकती है कि उनके पिता कांग्रेस से संबद्ध थे. नंदिता ने बताया कि घर में इस मुद्दे पर चर्चा न होने की वजह यह थी कि “पिता जी कांग्रेस में थे और समूचा आंदोलन कांग्रेस विरोधी था.” उसने बताया कि पिता केशब चंद्र बहुत कम बोलते थे. “जब वह मुख्यमंत्री थे, हर रोज घर लौटने के बाद रात में तकरीबन 9 बजे खाना खाते थे और फिर सोने चले जाते थे."
1980 के दशक से गोगोई को अच्छी तरह जानने वाले एक वकील ने अपना नाम न बताए जाने का अनुरोध करते हुए कहा कि आंदोलन में गोगोई की दिलचस्पी न होने की वजह उनका कैरियरिज्म था. उसने बताया, “किसी भी सामाजिक कार्य के प्रति उनका कभी कोई झुकाव नहीं था. कोर्ट में भी वह तब तक ही रुकते थे जब तक उनका कोई मुकदमा होता था और जैसे ही वह खतम होता, वह भी घर चले जाते... दरअसल किसी तरह की समाज सेवा या कोई सामाजिक कार्य करने के लिए आपके पास साहस का होना जरूरी है.”
मदन लोकुर गौहाटी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों जगह गोगोई के साथ काम कर चुके थे. उनका कहना है कि गोगोई के अंदर “सामाजिक न्याय को लेकर कोई जुनून नहीं था.” उन्होंने यह भी बताया कि 2014 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एच.एल.दत्तु ने लोकुर के नेतृत्व में दो जजों की “सोशल जस्टिस बेंच” का गठन किया. जब टी.एस.ठाकुर मुख्य न्यायाधीश बने तो उन्होंने इस बेंच को भंग कर दिया. ठाकुर के उत्तराधिकारी जे.एस. केहर ने एक बार फिर इसका गठन किया और इसे “सोशल जस्टिस एंड एनवॉयर्नमेंट बेंच” नाम दिया. लेकिन गोगोई ने मुख्य न्यायाधीश पद संभालते ही इस पीठ को फिर भंग कर दिया.
मैंने मुख्य न्यायाधीश के सरकारी निवास के पते से एक ई-मेल और गुवाहाटी स्थित उनके घर के पते पर एक पत्र भेजा लेकिन दोनों में से किसी का जवाब नहीं मिला. मुझे गोगोई का व्यक्तिगत ई-मेल आइडी और फोन नंबर नहीं मिला हालांकि मैंने इसके लिए कई प्रयास किए. उनके दो घनिष्ठ मित्रों प्रणव पाठक और एस.एन. सरमा ने, जो वरिष्ठ एडवोकेट भी हैं, बताया कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि वह आजकल किस ई-मेल का इस्तेमाल कर रहे हैं और उनका व्यक्तिगत नंबर देने से भी मना कर दिया. नंदिता ने बताया कि गोगोई अखबार वालों से बात नहीं करेंगे और कोई संपर्क सूत्र देने से भी मना किया. लोकुर ने भी बताया कि उनके पास गोगोई का न तो कोई फोन नंबर है और न ई-मेल आइडी. सुप्रीम कोर्ट और गौहाटी हाईकोर्ट के अधिकारियों ने बताया कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने अपना कोई संपर्क सूत्र यहां नहीं छोड़ा है.
1980 के दशक में भट्टाचार्जी के चेंबर में काम करते हुए गोगोई की महत्वाकांक्षा लगातार बढ़ती रही. 1991 में उन्होंने गौहाटी उच्च न्यायालय में स्वतंत्र रूप से प्रेक्टिस करना शुरू किया. असम में जितने वकीलों से मैंने बातचीत की उनमें से अधिकांश ने गोगोई की तारीफ की लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो उनकी प्रशंसा नहीं कर पाते थे. गुवाहाटी के ही एक वरिष्ठ वकील के.एन. चौधरी काफी शुरुआती दिनों से गोगोई को जानते थे और उन्होंने बताया कि इस भावी मुख्य न्यायाधीश की कोई खास प्रेक्टिस नहीं थी. "पदोन्नति पाने तक उनके पास बस आबकारी से संबंधित कुछ मामले थे."
चौधरी ने गोगोई पर आरोप लगाया कि उन्होंने अपने बचपन के मित्र और सहकर्मी अमिताभ राय की नियुक्ति में विलंब की ताकि यह सुनिश्चित हो जाए कि दोनों की पदोन्नतियां एक साथ न हो सकें. चौधरी ने बताया, “सन 2000 में दोनों के नामों की सिफारिश साथ-साथ हुई. गोगोई 2001 में जज बन गए और इसके 17 महीनों बाद 2002 में अमिताभ राय की नियुक्ति हुई. अगर फाइलों की प्रक्रिया साथ-साथ चली होती तो कुल मिला कर अमिताभ राय गोगोई से वरिष्ठ हो जाते और सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने का मौका उन्हें नहीं मिल पाता. ऐसी हालत में शायद अमिताभ राय भारत के मुख्य न्यायाधीश पद से और गोगोई गौहाटी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद से रिटायर होते.” हाईकोर्ट के एक पूर्व जज ने भी इस बात की पुष्टि की कि गोगोई की पदोन्नति से संबंधित जिन परिस्थितियों का जिक्र किया जा रहा है वे सही हैं. उन्होंने इसमें एक और बात जोड़ी कि तत्कालीन कानून मंत्री अरुण जेटली और गोगोई “अच्छे मित्र” थे और जेटली ने गोगोई को आश्वासन दिया था कि अमिताभ राय कभी भी गोगोई से वरिष्ठ नहीं होंगे.
चौधरी ने मुझे बताया कि “अगर कोई व्यक्ति किसी के भविष्य को लेकर इस सीमा तक जा सकता है तो आप कल्पना करिए कि वह कैसा व्यक्ति होगा. अपने बचपन के मित्र के साथ ऐसा सुलूक.इससे जाहिर होता है कि वह किस तरह के व्यक्ति हैं.
अपनी सख्त दिखने वाली भाव-भंगिमाओं और गुस्सैल मिजाज से हाईकोर्ट के जज के रूप में गोगोई ने एक योग्य न्यायकर्ता की अपनी छवि तैयार की.
एस.एन. सरमा ने याद किया कि अगर कोई वकील पूरी तैयारी के साथ अदालत में नहीं आता था तो वह सीनियर हो या जूनियर, गोगाई उस पर उबल पड़ते थे. वकीलों पर चीखना उनके लिए आम बात थी. सरमा ने यह भी बताया कि अदालत में उनके साथ भी कई बार ऐसी घटनाएं हुईं.
गोगाई को इस बात के लिए भी जाना जाता था कि आपा खोने के बाद वह फाइलें उठाकर फेंक देते थे. बातचीत में सरमा ने याद किया कि एक बार गोगोई की अदालत में वह एक मुकदमे में बहस कर रहे थे जिसमें एक पक्षकार की ओर से बहुत सारे दस्तावेज एक फाइल में रखकर पेश किए गए. सरमा और उनके साथियों को पता था कि इस फाइल को देखकर गोगोई खुश नहीं होंगे. सरमा और उनके एक मित्र निलय दत्त ने आपस में शर्त लगाई कि क्या इतनी भारी फाइल को गोगोई फेंक सकेंगे.
सुनवाई के दौरान जब गोगोई ने उन दस्तावेजों को देखा तो, जैसा कि सोचा जा रहा था, वह आगबबूला हो उठे और चीख पड़े- “तुम क्या सोचते हो कि यह निचली अदालत है?” फिर उन्होंने कहा - “जाओ और इस फाइल को लेबर कोर्ट में पेश करो.” सरमा ने अपने हाव-भाव से बताया कि कैसे गोगोई ने उस फाइल को उठाना चाहा लेकिन उठा नहीं सके. फिर उन्होंने पूरी ताकत लगाकर उसे अपनी मेज से नीचे ठेल दिया. यह देखकर दत्ता और सरमा हंसने लगे. बाद में जब शर्त वाली बात गोगोई को बताई गई तो वह भी हंसने लगे.
एक जज के रूप में कार्यक्षमता पर गोगोई ने शुरू से पूरा जोर दिया. सरमा का कहना था कि गौहाटी हाईकोर्ट में अपना उदाहरण पेश कर वह न्यायाधीशों के कामकाज के तौर-तरीकों में भारी बदलाव ला सके. उन दिनों जज लोग मुकदमे की फाइलों को अच्छी तरह नहीं पढ़ते थे जिसका नतीजा यह होता था कि मामले का पूरा इतिहास वकीलों को ही जजों को समझाना पड़ता था. हर मामले की सुनवाई के समय ऐसा ही होता था. लेकिन सरमा का कहा है कि गोगोई को “पूरे मामले की जानकारी होती थी. यही वजह है कि हर रोज वह 60 से 70 और कभी-कभी 80 मुकदमों को निबटाते थे जिसे दूसरे जजों ने महसूस किया और फिर वे भी अदालत में आने से पहले संबद्ध मामलों को पढ़कर आते थे.”
अनेक अन्य वकीलों से मुझे एक और कहानी सुनने को मिली जिससे काम के बारे में गोगोई की लगन का प्रमाण मिलता है. अक्टूबर 2008 में गुवाहाटी में कुछ सीरियल धमाके हुए थे. एक धमाका हाईकोर्ट से लगे जिला अदालत में भी हुआ था. जब एक वकील गोगोई की अदालत में उन्हें बम विस्फोट की जानकारी देने के लिए पहुंचा तो उन्होंने जवाब दिया, “कोई बात नहीं, काम जारी रहना चाहिए.” जिस वकील ने मुझे यह बताया था उसके अनुसार गोगोई की अदालत में कार्रवाई चलती रही और थोड़ी देर बाद जब उन्होंने महसूस किया कि अन्य सभी जज उठकर अपने अदालतों से जा रहे हैं क्योंकि मामला बहुत गंभीर हो चुका था, तब उन्होंने भी अपना काम बंद किया. उस वकील ने कहा कि “किस हद तक तमाम चीजों से वह उदासीन रहते हैं, यह इसका प्रमाण है."
सितंबर 2010 तक गोगोई गौहाटी हाईकोर्ट में बने रहे और इसके बाद उनका तबादला पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के लिए कर दिया गया जहां फरवरी 2011 से अगले एक साल तक वह रहे.
एक वकील के अनुसार, जो गोगोई को 1980 के दशक से ही जानता है, गौहाटी हाईकोर्ट में कुछ समय तक न्यायिक नियुक्तियों पर भी उनका प्रभाव था. भट्टाचार्जी के चेंबर में उनके साथ काम करने वाले ऋषिकेश राय को अक्टूबर 2006 में जज बना दिया गया.
मुख्य न्यायाधीश के रूप में भी गोगोई की देखरेख में अनेक विवादास्पद नियुक्तियां हुईं. हाल में ही सौमित्र सैकिया को गौहाटी हाईकोर्ट में अतिरिक्त न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया गया जो किसी जमाने में गोगोई के जूनियर थे. इसी तरह जज सूर्यकांत की नियुक्ति की गई जबकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार और टैक्स चोरी के आरोप थे. संजीव खन्ना की नियुक्ति की गई और यह नियुक्ति करते समय कोलेजियम के उस प्रस्ताव की अनदेखी की गई जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट में खन्ना के वरिष्ठ प्रदीप नंदराजोग को प्रोन्नति देने की बात कही गई थी. इसी प्रकार दिनेश माहेश्वरी को सुप्रीम कोर्ट में प्रवेश मिल गया जबकि उन पर आरोप थे कि वह कार्यपालिका के प्रभाव में काम करते हैं.
गोगोई को जहां उनकी कार्यक्षमता के लिए याद किया जाता है वहीं उनकी कुछ ऐसी खूबियां भी हैं जो किसी अच्छे जज की झलक नहीं देतीं. इनमें न्यायिक कामकाज में पारदर्शिता, जनकल्याण के प्रति सरोकार और बुनियादी करुणा जैसी बातें शामिल हैं. संजय हेगड़े ने मुझे बताया कि “व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ऐसा कोई बड़ा मामला देखने में नहीं आया जहां उन्होंने राज्य के खिलाफ किसी व्यक्ति का पक्ष लिया हो. ऐसा कोई भी मामला ढूंढ़ने के लिए दिमाग पर बहुत जोर लगाना पड़ेगा.”
सुप्रीम कोर्ट में गोगोई के समूचे कार्यकाल में- पहले एक जज के रूप में और फिर मुख्य न्यायाधीश के रूप में - जनवरी 2018 की प्रेस कॉन्फ्रेंस एक विचलन है जिसमें ऐसा महसूस होता है कि उन्होंने अपने कैरियर को दांव पर लगाते हुए कोई नैतिक रुख अख्तियार किया था.
प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करने का निर्णय एक हाई प्रोफाइल मामले से हुआ था जिसमें याचिकाकर्ताओं ने विशेष सीबीआई अदालत महाराष्ट्र के जज बी.एच. लोया की संदिग्ध मौत की जांच की मांग की थी. 2014 में अपनी मृत्यु के समय जस्टिस लोया उस मुकदमे की सुनवाई कर रहे थे जो सोहराबुद्दीन शेख नामक गैंगस्टर की गैर न्यायिक हत्या से संबंधित था और जिसमें मौजूदा गृहमंत्री अमित शाह मुख्य आरोपी थे.
जिन चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस किया था, उनमें से एक जस्ती चेलमेश्वर ने इस बात को रेखांकित किया कि पिछले कुछ महीनों से देखने में आ रहा है कि संवेदनशील मामलों को कुछ खास जजों को सौंपा जा रहा है. जिस दिन यह प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई उस दिन पहले इन जजों ने मुख्य न्यायाधीश से “अपने खास अनुरोध” के साथ मुलाकात की. लोया के मामले से संबंधित याचिकाएं अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली दो जजों की पीठ के समक्ष सुने जाने के लिए सूचीबद्ध हुईं थीं और ये दोनों जज उस समय वरिष्ठता क्रम में दसवें स्थान पर थे. प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब इन जजों से पूछा गया कि जिस “विशिष्ट मामले” के बारे में आपने मुख्य न्यायाधीश से भेंट की थी क्या उसका संबंध लोया मामले की याचिकाओं से था. जिन पर उस दिन लंच से पहले सुनवाई होनी थी तो गोगोई ने जवाब में कहा- “हां.”
नवंबर के उत्तरार्द्ध में मैंने मदन लोकुर से बातचीत की जो उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल थे. मैंने दिल्ली स्थित उनके कार्यालय में उनसे भेंट की. लोकुर दिसंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए. उन्होंने बताया, “हमें यह जानकारी मिली थी कि संवेदनशील मामलों को एक खास बेंच को ही सौंपा जा रहा है. हमने महसूस किया कि मुख्य न्यायाधीश मिश्रा उचित ढंग से अपने पद का निर्वहन नहीं कर रहे हैं. हमने यह बात उनके ध्यान में लाने की कोशिश की, उन्हें एक पत्र भेजा लेकिन हमें कोई जवाब नहीं मिला. उस सुबह जब इस मसले को लेकर हम उनसे मिले, उस समय भी उनका रवैया बहुत अड़ियल था. इसके बाद ही हमने फैसला किया कि अब प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की जरूरत है.” उस समय बेशक लोकुर ने गोगोई के साथ चर्चा में अपने को जोड़ लिया लेकिन इस पूर्व मुख्य न्यायाधीश के बारे में उनकी राय पूरी तरह बदल गई है. गोगोई के रिटायर होने के तीन दिन बाद लोकुर ने हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने गोगोई के उत्तराधिकारी से कहा था कि “वह उस संस्था की विश्वसनीयता और हैसियत को फिर से स्थापित करें जिसे गलती से दुनिया की सबसे सशक्त अदालत बयान किया जाता है.” लोकुर ने हालांकि गोगोई का नाम लेने से खुद को बचाए रखा लेकिन कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने आगे लिखा, “हाल के दिनों में कुछ न्यायिक फैसले और प्रशासनिक निर्णयों को देखने से ऐसा लगता है कि हमारे जजों को यह दिखाने की जरूरत है कि उनकी रीढ़ में भी हड्डी है.”
अपनी बातचीत में मैंने इस संबंध में उनसे पूछा. उनका जवाब था, “एक प्रेक्षक के रूप में मैंने गौर किया है कि गुजरे दो या तीन वर्षों में यह देखा गया कि कुछ मामलों को कुछ खास बेंचों को ही सौंपा जा रहा है. इसकी शुरुआत के लिए दीपक मिश्रा जिम्मेदार हैं लेकिन ऐसा लगता है कि इस तरीके में रंजन गोगोई के कार्यकाल में भी कोई तब्दीली नहीं आई.” उन्होंने जोर देकर कहा कि यह इसलिए चिंता की बात है क्योंकि अब यह एक “पैटर्न” बनता जा रहा है. लोकुर ने यह माना कि यह पैटर्न मिश्रा के अधीन किसी एक बेंच तक सीमित था लेकिन गोगोई के अधीन बहुत से ऐसे जज थे जिन्हें संवेदनशील मामले दिए जाते थे.
एक संस्था के रूप में सुप्रीम कोर्ट की और व्यक्ति विशेष के रूप में इसके जजों की विफलता के बारे में और भी ज्यादा तीव्रता से चीजें स्पष्ट होने लगीं जब मुख्य न्यायाधीश के रूप में गोगोई का अनुचित व्यवहार उस समय सामने आया जब सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व महिला कर्मचारी ने 19 अप्रैल, 2019 को एक हलफनामे के जरिए गोगोई पर यौन उत्पीड़न और यातना का आरोप लगाया. इस पूर्व महिला कर्मचारी ने उत्पीड़न के दो मामलों का जिक्र किया जो अक्टूबर 2018 में अर्थात मुख्य न्यायाधीश के रूप में गोगोई के शपथ लेने के कुछ दिनों बाद घटित हुए थे. उसने कहा कि गोगोई के यौन प्रस्तावों को न मानने के बाद उसके और उसके परिवार के सदस्यों को “निरंतर उत्पीड़न” झेलना पड़ा जिसमें उन्हें नौकरियों से हाथ धोना पड़ा, गिरफ्तार होना पड़ा और यहां तक कि पुलिस हिरासत में यातना भी झेलनी पड़ी. उसने लिखा - “मैं कहती हूं कि मुख्य न्यायाधीश ने अपने पद और हैसियत का दुरुपयोग किया और अपनी ताकत का गलत ढंग से इस्तेमाल करते हुए पुलिस को प्रभावित किया. मुख्य न्यायाधीश के अवांछनीय यौन संकेतों और प्रस्तावों का विरोध करने और इनकार करने की वजह से मुझे और मेरे पूरे परिवार को शिकार बनाया गया.”
अगले दिन कारवां तथा तीन अन्य प्रकाशनों द्वारा इस समाचार के छपने के कुछ घंटों बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक शनिवार को विशेष बैठक बुलाने का ऐलान किया और जिस विषय पर चर्चा की बात कही गई थी उसका बेहद नाटकीय शीर्षक दिया - “न्यायपालिका की स्वतंत्रता से जुड़ा अत्यंत सार्वजनिक महत्व का विषय.” इस पर विचार के लिए गोगोई ने एक बेंच का गठन किया जिसमें वह खुद तो थे ही, उनके साथ अरुण मिश्रा और संजीव खन्ना थे. यह न्याय के उस बुनियादी सिद्धांत का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन था जिसके अनुसार कोई जज अपने खुद के मामले में निर्णय नहीं कर सकता. कोर्ट से एक नोटिस जारी की गई जिसमें कहा गया था कि सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता के विशेष उल्लेख पर इस मामले को विचार के लिए स्वीकार किया गया है. इसके बाद पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने अपने को निर्दोष घोषित करते हुए दावा किया कि उनके खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं वे न्यायपालिका को अस्थिर करने की एक बड़ी साजिश के अंग हैं और साथ ही उन्होंने शिकायतकर्ता पर आपराधिक चरित्र का होने का आरोप लगाया. अपने खिलाफ लगाए गए आरोप के संदर्भ में गोगोई ने कहा- “मामला काफी आगे तक जा चुका है और इससे इनकार करने में वह बहुत नीचे तक नहीं जाएंगे.”
समूची कार्यवाही में जिस अनुचित व्यवहार का परिचय दिया गया वह दिमाग में झन्नाहट पैदा कर देता है. अपने खुद के मामले से संबद्ध पीठ की अध्यक्षता करने के अलावा ऐसा लगा कि गोगोई ने शिकायतकर्ता को अदालत के सामने अपनी बात कहने का मौका दिए बिना उसके आरोपों की सत्यता पर ही सवालिया निशान लगा दिया. अन्य जजों ने भी इस पर अपनी मौन सहमति दी. दिनभर की सुनवाई के बाद अपने आदेश में अदालत ने मीडिया के विवेक पर यह छोड़ दिया कि "वह संयम का परिचय दे, जिम्मेदार ढंग से काम करे जैसा कि उससे उम्मीद की जाती है और इसके अनुसार ही तय करे कि क्या प्रकाशित किया जाना चाहिए और क्या नहीं प्रकाशित किया जाना चाहिए क्योंकि इस तरह के सनसनी भरे आरोप न्यायपालिका की स्वतंत्रता का निषेध करते हैं और इसकी ख्याति को चोट पहुंचाते हैं.”
जारी आदेश में से इस मामले की सुनवाई करने वाले जजों की अध्यक्षता कर रहे मुख्य न्यायाधीश का नाम हटा दिया गया था- जाहिर सी बात है कि इस तथ्य को झुठलाना था कि गोगोई ने अपने खुद के मामले में जज की भूमिका अदा की. लोकुर ने मुझे बताया कि, “किसी आदेश में से जज का नाम हटाना गलत है. ऐसा करने के लिए उस जज ने विशेष निर्देश दिया होगा.”
इस अदालती कार्यवाही की व्यापक तौर पर निंदा हुई. सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-आन-रेकॉर्ड एसोसिएशन ने अदालत द्वारा इस मामले को निबटाए जाने के खिलाफ प्रस्ताव पारित किए और अदालत से मांग की कि आरोपों की पूर्ण अदालत जांच करे. वीमेन इन क्रिमिनल लॉ एसोसिएशन ने मांग की कि अदालत द्वारा इसकी “निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और उचित” जांच की जाए और इस पर जोर दिया कि इससे एक नजीर कायम होगी. इस सलाह पर ध्यान देने की बजाय अदालत ने जो रुख अख्तियार किया उसने एक बार फिर इस संस्था के सामने शर्मनाक स्थिति पैदा कर दी.
इस सुनवाई के तीन दिनों बाद सुप्रीम कोर्ट ने तीन जजों की एक कमेटी का गठन किया जिसमें एस.ए.बोबडे, एन.वी.रमन और इंदिरा बनर्जी को शामिल किया गया ताकि वे इन आरोपों की जांच कर सकें. शिकायतकर्ता ने समिति में रमन की मौजूदगी का यह कहते हुए विरोध किया कि वह गोगोई के नजदीकी समझे जाते हैं और फिर समिति में उनके स्थान पर इंदु मल्होत्रा को रखा गया. शुरू से ही समिति ने शिकायतकर्ता को यह जानकारी दी कि यह कार्यवाही न तो यौन उत्पीड़न की जांच का हिस्सा है, न विभागीय कार्यवाही है और न संस्थानिक कार्यवाही है.
शिकायतकर्ता के अनुसार उसे निर्देश दिया गया कि वह मीडिया से बात नहीं करेगी. उसे वकील लेने की अनुमति भी नहीं दी गई, उसे उसके बयान की प्रतिलिपि नहीं दी गई और कार्यवाही को रेकॉर्ड करने की भी अनुमति नहीं दी गई. 30 अप्रैल को शिकायतकर्ता ने एक बयान देकर कार्यवाही से खुद को अलग कर लिया. उसने अपने बयान में कहा- “मैंने महसूस किया है कि इस कमेटी से मुझे न्याय नहीं मिलेगा इसलिए मैं इस जांच में अब भाग नहीं लूंगी.” समिति में शामिल जजों ने उसके बगैर अपनी जांच जारी रखी. 6 मई को सुप्रीम कोर्ट ने अपनी वेबसाइट पर एक नोटिस डाली जिसमें कहा गया था कि समिति को “आरोपों में कोई तथ्य नहीं नजर आया.” शिकायतकर्ता को समिति की रिपोर्ट की प्रतिलिपि देने से इनकार कर दिया गया.
गोगोई के अधिकांश मित्रों और सहकर्मियों ने उनके खिलाफ लगे आरोपों को खारिज कर दिया लेकिन कुछ का मानना था कि जिस तरह से उन्होंने समूचे मामले को निबटाने की कोशिश की उससे आरोपों को बल मिलता है. गुवाहाटी बम विस्फोट से संबंधित घटना के बारे में जिस वकील ने बात की थी, उसने कहा, “यह बात ही काफी बुरी है कि उन्होंने विवाद की गुंजाइश छोड़ी. उन्होंने एक मूर्ख की तरह अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की.“ मैंने जब उस वकील से जानना चाहा कि क्या इन आरोपों पर वह यकीन करता है तो उसने जवाब दिया, “मुझे नहीं पता लेकिन इस मामले को जिस तरह निपटाया गया उससे लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है.“ इसी प्रकार की प्रतिक्रिया उस वकील की भी थी जो उन्हें 1980 के दशक से जानता था- “जिस तरीके से इस मामले को लिया गया वह न्यायपालिका के लिए अच्छा नहीं है. आप कैसे अपने ही मामले की सुनवाई कर सकते हैं? यह न्याय के किस सिद्धांत के अनुसार है? वह महिला कार्यगत संबंधी बेहतर सुरक्षा की अधिकारी थी.“
पूर्व महिला कर्मचारी की शिकायत को समिति द्वारा खारिज किए जाने के दो सप्ताह बाद लोकुर ने समूची कार्यवाही की आलोचना करते हुए इंडियन एक्सप्रेस में लिखा- “मेरे विचार में 20 अप्रैल की घटना को आप चाहे जिस तरीके से देखें संस्थागत पूर्वाग्रह का फंदा स्पष्ट नजर आता है.“ उनके लेख के अंत में एक गुहार थी- “क्या आंतरिक समिति का कोई सदस्य या सुप्रीम कोर्ट का कोई व्यक्ति मदद करेगा?”
मुझसे बातचीत में उन्होंने कहा, “मुझे यह उम्मीद तो थी ही कि उस कर्मचारी की कोई मदद करेगा.“ उन्होंने भी मामले को निपटाने की गोगोई के तरीके की आलोचना की, “जिस व्यक्ति के खिलाफ आरोप लगे हों उसे अलग रहना चाहिए था.“ मैंने जानना चाहा कि इस तरह के मामलों में क्या किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, “आदर्श स्थिति तो यह है कि इसके लिए कोई गाइडलाइन होनी चाहिए लेकिन ऐसा न होने की स्थिति में वरिष्ठताक्रम में जो दूसरे स्थान पर है उसे जांच समिति के लिए जजों का चयन करना चाहिए... सबसे अच्छा हो कि वरिष्ठताक्रम में दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर जो जज हैं, वे मामले को देखें.“ लोकुर ने कहा कि समूची कार्यवाही के पीछे बुनियादी सिद्धांत यह होना चाहिए कि "सब कुछ ऐसे किया जाए जिसमें शिकायतकर्ता सहज ढंग से अपनी बात कह सके."
अफसोस है कि सुप्रीम कोर्ट और गोगोई ने इस मामले को जिस तरह निपटाया उसमें इस मानक का पूरी तरह अभाव था. जिसने भी ध्यान दिया होगा, महसूस किया होगा कि अदालती कार्यवाही ऐसी नहीं हुई जो सच तक पहुंच सके. जून 2019 में दिल्ली पुलिस ने शिकायतकर्ता के पति और उसके बहनोई दोनों को फिर से सेवा में बहाल कर दिया. शिकायत के बाद से ही दोनों ने अपने नौकरी गंवा दी थी. दिसंबर में शिकायतकर्ता को भी सुप्रीम कोर्ट में उसकी नौकरी पर पूरी तनख्वाह के साथ बहाल कर दिया गया- उस तारीख से ही जिस तारीख से उसको निलंबित किया गया था. हिंदुस्तान टाइम्स ने खबर दी कि शिकायतकर्ता को पहले एक आश्वासन देना पड़ा कि वह आगे इस मामले को नहीं उठाएगी और एक “उच्च सरकारी अधिकारी” ने उसे आश्वस्त किया कि अगर उसने ऐसा किया तो “सारी चीजें दुरुस्त कर दी जाएंगी”. शिकायतकर्ता की वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा कि “वह महिला कर्मचारी सही साबित हुई. पिछले पूरे वेतन सहित उसको बहाल किया जाना इस बात की पुष्टि करता है कि उसका हलफनामा सच था, इस बात की पुष्टि करता है कि उसने यौन उत्पीड़न झेला और उसे योजनाबद्ध ढंग से शिकार बनाया गया.“
भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में गोगोई के कई फैसले बेहद विवादास्पद रहे.
5 अगस्त, 2019 को अमित शाह ने संसद में घोषणा की कि सरकार संविधान के अनुच्छेद 370 को कारगर ढंग से समाप्त कर रही है जिसने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया था. कश्मीर की जनता के विरोध की आशंका को देखते हुए सरकार ने समूचे राज्य को अनिश्चित काल के लिए “लॉक डाऊन” की स्थिति में डाल दिया, इंटरनेट सेवाओं को समाप्त कर दिया और राज्य में सशस्त्र सैनिक बलों की बड़े पैमाने पर तैनाती कर दी. इसके बाद से व्यापक तौर पर गिरफ्तारी और नजरबंदी का सिलसिला शुरू हुआ और घाटी से उत्पीड़न और यातना की भी भयानक खबरें आने लगीं.
उस महीने सुप्रीम कोर्ट में दो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर हुईं जिनमें मांग की गई थी कि कुछ लोगों को, जिन्हें गैर-कानूनी ढंग से भारत सरकार ने गिरफ्तार किया है उन्हें अदालत में पेश किया जाए. दोनों याचिकाओं पर जिस पीठ ने सुनवाई की उसकी अध्यक्षता गोगोई कर रहे थे और इन याचिकाओं पर उनकी जो प्रतिक्रिया थी उससे साफ पता चलता है कि इसमें न्यायिक उसूलों और जिम्मेदारियों को पूरी तरह खारिज कर दिया गया था. एक मामले में तो उन्होंने याचिका दायर किए जाने के बाद 18 दिनों तक सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया ही नहीं. जस्टिस लोकुर ने मुझे बताया, “बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को प्राथमिकता के तौर पर लिया जाना चाहिए और अगर ऐसा नहीं होता है तो इसे असामान्य बात मानी जानी चाहिए.”
इन दोनों मामलों को सूचीबद्ध करने के बाद गोगोई ने केंद्र को न तो कोई नोटिस भेजा और न यह जानने की कोशिश की कि संबद्ध व्यक्ति गैरकानूनी ढंग से हिरासत में रखे गए हैं या नहीं. इस पहलू पर भी लोकुर का कहना था, “अगर गैर कानूनी ढंग से हिरासत में रखे जाने का आरोप है तो अदालत को फौरन नोटिस जारी करनी चाहिए.” इन मामलों के संदर्भ में गोगोई ने अनेक वैधानिक तौर-तरीकों का उल्लंघन किया. उन्होंने याचिकाकर्ताओं को निर्देश दिया कि वे संबद्ध बंदियों से कश्मीर में जाकर मिलें. लोकुर का मानना है कि, “2013 के सुप्रीम कोर्ट रूल्स के अंतर्गत उन बंदियों को अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए था.” गोगोई ने याचिकाकर्ताओं को यह भी निर्देश दिया कि वापस लौटने पर वे अपनी वहां की यात्रा के बारे में एक हलफनामा यहां जमा करें. लोकुर का कहना है कि “मैं नहीं जानता कि किस प्रावधान के तहत ऐसा किया गया.”
कश्मीर से संबंधित केवल बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं ही नहीं थीं जिनके संदर्भ में गोगोई का संदिग्ध व्यवहार देखने को मिला. सितंबर के शुरुआती दिनों में जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि वह उन्हें अपनी मां से मिलने की इजाजत दे जिन्हें अनुच्छेद 370 हटाने के बाद से ही हिरासत में रखा गया है और श्रीनगर में घूमने-फिरने की भी इजाजत दे. गोगोई ने इस शर्त पर इजाजत दे दी कि स्थानीय सरकारी अधिकारियों को इसके लिए सहमत होना जरूरी है लेकिन साथ ही सुनवाई के दौरान अदालत में ही इल्तिजा मुफ्ती से सवाल किया, “तुम श्रीनगर में घूमना क्यों चाहती हो? आजकल वहां बहुत ठंड है.”
10 अगस्त को कश्मीर टाइम्स अखबार की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन ने एक याचिका दायर की जिसमें राज्य में खबरों पर लगाई गई पाबंदी को चुनौती दी गई थी. इसकी पहली सुनवाई के लिए लगभग एक महीने बाद का समय दिया गया. 5 अगस्त को पहली सुनवाई हुई और अगली सुनवाई के लिए 1 अक्टूबर का समय दिया गया. गोगोई ने इसे एन.वी. रमना, सुभाष रेड्डी और भूषण गवई की बेंच को भेज दिया. इस वर्ष जनवरी में याचिका दायर किए जाने के पांच महीने बाद अदालत ने जो फैसला दिया उसमें अनिश्चित काल तक के लिए कश्मीर में इंटरनेट पर रोक लगाने की भारत सरकार की आलोचना तो की गई लेकिन राज्य को कोई आदेश नहीं दिया गया कि वह इस रोक को हटाए.
एक अन्य अजीबोगरीब आदेश में गोगोई ने कांग्रेस के राजनीतिज्ञ गुलाम नबी आजाद को इस शर्त पर श्रीनगर जाने की अनुमति दी कि वह “अपनी यात्रा के दौरान न तो किसी राजनीतिक रैली में भाग लेंगे और न किसी राजनीतिक गतिविधि में.” इस आदेश में कहा गया था कि ऐसा वचन आजाद ने “अपनी खुद की मर्जी से” दिया हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया गया कि राजनीतिक गतिविधि से क्या अभिप्राय है और क्यों इस तरह का प्रतिबंध जरूरी है. आदेश में यह भी कहा गया था कि “इस यात्रा का एकमात्र सरोकार वहां के लोगों और दैनिक दिहाड़ी पर जीवन गुजारने वालों पर मौजूदा घटनाओं के प्रभाव का आकलन मात्र होना चाहिए.”
सितंबर में बाल अधिकारों की विशेषज्ञ इनाक्षी गांगुली ने जम्मू कश्मीर में नाबालिगों को हिरासत में रखने को चुनौती देने से संबंधित एक याचिका दायर की. इस याचिका पर फौरन सुनवाई करने की बजाय, जैसी कि याचिका की मांग थी, गोगोई के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने टाल-मटोल करने का रवैया अख्तियार किया. पहले तो गोगोई ने याचिकाकर्ता को निर्देश दिया कि वह जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय से संपर्क करे. जब याचिकाकर्ता के वकील ने बताया कि राज्य में जो स्थिति चल रही है उसमें उच्च न्यायालय तक पहुंचना कठिन है तो गोगोई ने जवाब में कहा, “अगर लोग उच्च न्यायालय तक नहीं पहुंच सकते हैं तो यह तो बेहद, सचमुच बेहद गंभीर बात है. मैं खुद श्रीनगर जाऊंगा.” उनकी इस टिप्पणी से यह भी सवाल पैदा होता है कि क्या इस याचिका के आने से पहले तक गोगोई को कश्मीर में चल रहे दमन की जानकारी नहीं थी कि इसने कितना गंभीर रूप ले लिया है. इसके बाद गोगोई ने जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को निर्देश दिया कि वह एक रिपोर्ट भेजें कि क्यों उनकी अदालत तक पहुंचना मुश्किल है. इसके बाद उन्होंने याचिकाकर्ता से कहा, “अगर जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से यह संकेत मिलता है कि आपने जो कहा वह गलत है तो इसके नतीजे भुगतने के लिए तैयार रहिए.”
यह स्पष्ट नहीं हो सका कि इस तरह के मामलों को प्राथमिकता के स्तर पर लेने की बजाय गोगोई ने याचिकाकर्ता को धमकी क्यों दी. मदन लोकुर का कहना है कि “अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में फरियाद करना मौलिक अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट को उन याचिकाओं को स्वीकार करना चाहिए. उसे याचिकाकर्ताओं को तब तक उच्च न्यायालय जाने का निर्देश नहीं देना चाहिए जब तक बहुत असामान्य परिस्थिति न पैदा हो गई हो.”
आखिरकार वह मामला उसी पीठ के सामने पेश हुआ जिसके सामने अनुराधा भसीन की याचिका पर सुनवाई हुई थी. दिसंबर में इनाक्षी गांगुली की याचिका खारिज कर दी गई और इसके लिए चार सदस्यीय समिति द्वारा पेश एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया जिसमें कहा गया था कि राज्य में बच्चों को अवैध हिरासत में रखने का कोई मामला नहीं मिला. अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि उसे मीडिया के जरिए कुछ बच्चों के हिरासत में रखे जाने की खबरें मिली हैं इसलिए “अगर अवैध ढंग से हिरासत में रखे जाने का किसी का मामला हो तो याचिकाकर्ता को इस बात की आजादी है कि वह अपनी शिकायत के निवारण के लिए उचित वैधानिक फोरम का इस्तेमाल करे.”
इस बीच कश्मीर में सरकार की कार्रवाई से जो संवैधानिक चुनौती पैदा हुई है उस पर अभी भी सुनवाई हो रही है. कश्मीर के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की जो प्रतिक्रिया रही है उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि या तो इसके अंदर उन सरोकारों के प्रति कोई चिंता नहीं है या स्थिति की गंभीरता को वह समझ नहीं सकी है. अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि यथास्थिति बनाए रखने में राज्य के साथ इसकी मिली भगत के संकेत का पता चलता है. जहां तक बीजेपी का सवाल है, अनुच्छेद 370 हटाना उसके लिए जबर्दस्त राजनीतिक जीत है और हिंदुत्व के एजेंडा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है. कश्मीर से संबंधित मामलों के प्रति सुप्रीम कोर्ट ने जो रवैया अपनाया है उससे मोदी सरकार को बगैर किसी कानूनी हस्तक्षेप के अपनी उपलब्धियों की महानता का गुणगान करने का शानदार अवसर मिला है.
अगस्त में गोगोई ने एक ऐसे मामले की रोजाना सुनवाई शुरू की जो आगे चलकर बीजेपी और संघ के लिए जश्न मनाने का एक और अवसर बन गया. यह मामला था : बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद. एक सुनवाई के समय गोगोई ने कश्मीर से संबंधित याचिकाओं को किसी दूसरे बेंच को सौंपते हुए कहा था कि वह बाबरी मस्जिद वाले मामले में बहुत ज्यादा व्यस्त हैं. लगभग तीन दशक पहले हिंदुत्ववादियों की भीड़ ने मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था और मांग की थी कि उस स्थान पर राम मंदिर बनाया जाना चाहिए. गोगोई के नेतृत्व वाली पीठ ने न्यायिक तौर पर मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ कर दिया.
एक रहस्यमय फैसले में, जिसके रचयिता का नाम उद्घाटित नहीं किया गया, कोर्ट ने बताया कि राम की मूर्तियों को अवैध ढंग से विवादित स्थल में रखा गया और बाबरी मस्जिद का ध्वस्त किया जाना भी अवैध था और इसके बाद भी वहां मंदिर बनाने का फैसला देकर सबको हैरानी में डाल दिया. मुस्लिम समुदाय के खिलाफ किए गए इन अवैध कृत्यों को स्वीकार किए जाने के बावजूद कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि इसके हरजाने के तौर पर सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को अयोध्या में किसी अन्य स्थान पर पांच एकड़ जमीन दी जाए. इसके बाद दि हिंदू में प्रकाशित एक लेख में अधिवक्ता सुहरित पार्थसारथी और गौतम भाटिया ने सवाल किया, “यह अंतिम राहत क्या है- मुस्लिम पक्ष को किसी अन्य स्थान पर थोड़ी जमीन देना ताकि वह मस्जिद के विध्वंस से हुए नुकसान को पूरा कर सके या उनको घुमा-फिराकर यह कहना कि ‘तुम बराबर हो लेकिन हम से अलग रहो?’”
(तीन)
असम का इतिहास निरंतर बाहर से आने वाले लोगों से भरा हुआ है. 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने देखा कि असम की मिट्टी बहुत ऊपजाऊ है और यहां बड़े पैमाने पर चाय का उत्पादन हो सकता है. उन्होंने जमीन के बहुत सारे हिस्सों को चाय बागानों में तब्दील कर दिया और इन बागानों के लिए मजदूरों की जरूरतें पूरी करने के मकसद से देश के विभिन्न हिस्सों से मजदूरों को लाकर असम में बसा दिया. इनमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और तमिलनाडु के मजदूर शामिल थे. बाहर से आए मजदूरों में से अधिकांश असम में ही बस गए. इस बीच, चाय बागानों के प्रबंधन के लिए अंग्रेजों ने भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता से बंगाली हिंदुओं को असम में बुलाया. दरअसल भारतीयों में औपनिवेशिक शिक्षा पाने वालों में बंगालियों का पहला स्थान था और यही वजह है कि प्रशासनिक कर्मचारियों के लिए अंग्रेजी बोलने वाले बंगाली हिंदुओं को असम लाया गया. इनकी वजह से उनके समुदाय के और लोग भी राज्य में आने लगे और बसने लगे. प्रशासन की भाषा बंगाली हो गई और इसी के साथ राज्य की असमी भाषा बोलने वाले लोगों में एक बंगाली विरोधी भावना विकसित होने लगी.
20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में रेल लाइनों के निर्माण ने जब राज्य के साथ पूर्वी बंगाल को जोड़ दिया तो अनेक बंगाली मुसलमान असम आकर बस गए. बंगाल से आए मध्यवर्गीय हिंदुओं के विपरीत पूर्वी बंगाल से आए ये मुसलमान भूमिहीन थे और खेतिहर जमीन की तलाश में थे. ये लोग असम की दलदली जमीन और ‘चार’(ब्रह्मपुत्र के किनारे की रेतीली भूमि) में बसे और अंग्रेजों ने इसे प्रोत्साहित किया ताकि इनकी मदद से अनाज उत्पादन में वृद्धि हो और टैक्स के रूप में ज्यादा राजस्व की प्राप्ति हो सके. 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक में बहुत बड़ी संख्या में जब बंगाली मुसलमानों ने आना शुरू किया तो स्थानीय लोगों के विरोध को देखते हुए 1916 में अंग्रेजों ने ‘लाइन सिस्टम’ की शुरुआत की. इसके अंतर्गत स्थानीय लोगों और बाहर से आए लोगों के इलाकों के बीच एक रेखा खींच दी जाती थी जिसकी वजह से उनमें से बहुत सारे 'चार' वाले इलाके में रहते थे. अब होता यह था कि ब्रह्मपुत्र की धारा बदलने के साथ जमीन लगातार खिसकती रहती थी जिससे नदी के किनारे रहने वाले अकसर भूमिहीन वाली अवस्था में पहुंच जाते थे.
बाद वाले दशकों में भी बाहर से आने वालों का सिलसिला जारी रहा. इसका नतीजा यह हुआ कि जनगणना विभाग के ब्रिटिश सुपरींटेंडेंट सी.एस.मुल्लान ने एक मशहूर दावा किया जिसे आव्रजन विरोधी कार्यकर्ताओं और असम के राजनीतिज्ञों ने न जाने कितनी बार दोहराया है. मुल्लान ने 1931 की जनगणना की अपनी रिपोर्ट में लिखा - “पिछले 25 वर्षों के दौरान प्रांत की संभवतः सबसे महत्वपूर्ण घटना, जो शायद स्थायी तौर पर असमी संस्कृति और सभ्यता के ढांचे को पूरी तरह उलट दे, वह है बड़े-बड़े समूहों में जमीन के भूखे बंगाली प्रवासियों का आक्रमण और इनमें से ज्यादातर पूर्वी बंगाल के जिलों से आने वाले मुस्लिम बंगाली हैं.” यद्यपि पूर्वी बंगाल से आने वाले मुस्लिम प्रवासियों ने असमी संस्कृति को स्वीकार कर लिया और असमी भाषा को अपनी मातृभाषा के रूप में मान लिया लेकिन बंगाली विरोधी भावनाएं लगातार बढ़ती गईं जिसके नतीजे के तौर पर बंगालियों के खिलाफ जातीय हिंसा की छिटपुट घटनाएं होने लगी थीं. खासतौर पर राज्य के प्रभुत्वकारी समुदायों के बीच बंगाली मुसलमानों की ज्यादा फजीहत होती थी.
बंटवारे के बाद पूर्वी पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर बंगाली हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का पलायन शुरू हुआ और वे असम में प्रवेश करने लगे. अब यहां बंगाली विरोधी भावनाओं की अभिव्यक्ति “अप्रवासी विरोधी” भावना के रूप में होने लगी. बंगालियों को यह मानकर कि ये पूर्वी पाकिस्तान से आए होंगे संदेह की निगाह से देखा जाने लगा. धीरे-धीरे बंगाली विरोधी आंदोलन तैयार होने लगा और फिर गोपी नाथ बोरदोलोई के मुख्य मंत्रित्व में असम की कांग्रेस सरकार ने ‘अप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम, 1950’ पारित किया. इस कानून ने सरकार को यह अधिकार दिया कि वह किसी भी व्यक्ति को या लोगों के समूह को, जिन्हें भारतीय नागरिकों के लिए असुरक्षित मानती हो, बगैर किसी मुकदमे अथवा न्यायिक प्रक्रिया के राज्य से बाहर निष्कासित किए जाने का आदेश जारी कर सकती है. इसके बाद हजारों की संख्या में मुसलमानों को उनके घरों से निकाला गया और पूर्वी पाकिस्तान भेज दिया गया.
1960 के दशक में बंगाली मुसलमानों का उत्पीड़न जारी रहा. राज्य की कांग्रेस सरकार ने विमल प्रसाद चालिहा के मुख्यमंत्री काल में लाखों लोगों को अवैध अप्रवासी घोषित करते हुए निष्कासित किया.
1970 के दशक में एक बार फिर बड़े पैमाने पर प्रवासियों के असम में प्रवेश की लहर चल पड़ी जो 1971 के बांग्ला देश युद्ध की वजह से शुरू हुई थी. असम में छह वर्ष तक विदेशी विरोधी आंदोलन चल चुका था. 1979 में असम के मंगलदेई निर्वाचन क्षेत्र से हीरालाल पटवारी नामक एक सांसद की असामयिक मृत्यु से वहां उपचुनाव की घोषणा हुई. चुनाव से पूर्व यह खबर फैली कि मंगलदेई की मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर विदेशी नागरिकों को शामिल किया जा रहा है.
अब्दुल मन्नान की पुस्तक “इनफिल्ट्रेशनः जेनेसिस ऑफ असम मूवमेंट” के अनुसार पुलिस उपमहानिरीक्षक हिरण्य कुमार भट्टाचार्य और पुलिस अधीक्षक प्रेमकांत महंता ने “मिल कर असमियों के दिमाग में यह धारणा पैदा करनी शुरू की कि लाखों की संख्या में बांग्लादेशी असम के अंदर पहुंच चुके हैं और उनकी वजह से असमी राष्ट्रीयता के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया है.” मन्नान का मानना है कि “भट्टाचार्या ने यह विचार व्यक्त किया कि चूंकि अब काफी समय दिया जा चुका है इसलिए 1978 की सूची में से भी विदेशी नागरिकों के नामों को हटाया जा सकता है.” उनके प्रयासों के नतीजे के तौर पर सीमा पुलिस के पास 47,658 मतदाताओं की शिकायतें आई और उनमें से 36,780 की विदेशी के रूप में पहचान हुई. अपने संस्मरण में महंता ने लिखाः “मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि छह वर्षों तक चला असम आंदोलन नहीं संभव हो पाता अगर हम लोग इस मुद्दे पर एक साथ नहीं आए होते.”
इस संख्या के सार्वजनिक होने के बाद असम के लोगों की भावनाओं में एक नाटकीय मोड़ आया. ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) ने 12 घंटे के बंद का आयोजन किया और जो मांग की उसे ‘तीन डी’ वाली मांग के रूप में जाना जाता हैः डिटेंशन, डिलीशन और डिपोर्टेशन अर्थात अवैध नागरिकों की पहचान, असम की मतदाता सूची से उनका नाम निकाला जाना और देश से बाहर उनको भेजा जाना. नवंबर 1979 में गुवाहाटी में लगभग सात लाख लोगों और समूचे असम में अनुमानतः बीस लाख लोगों ने विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया और गिरफ्तारियां दीं. इसके अगले महीने प्रदर्शनकारियों ने आर्थिक नाकाबंदी की घोषणा की और असम से देश के विभिन्न हिस्सों में जाने वाले कच्चे तेल के बाहर जाने पर रोक लगाई. नतीजतन राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. उस वर्ष असम के 14 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में से 12 में चुनाव रद्द कर दिए गए.
आंदोलन की लोकप्रियता बढ़ने के साथ ही असम में रहने वाले बंगाली मूल के दोनों समुदायों हिंदुओं और मुसलमानों को एक बार फिर वहां के लोगों की शत्रुता और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. इसके कुछ ही समय बाद चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों के खिलाफ हिंसा की खबरें सामने आईं और चाय बागानों को बंद कराने का प्रयास शुरू हुआ. असम में अल्पमत समुदाय के लोगों के खिलाफ उत्पीड़न निरंतर बढ़ता जा रहा था और तब मार्च 1980 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबद्ध अनेक संगठनों ने मिलकर आल असम माइनारिटी स्टूडेंट्स यूनियन (आमसू) का गठन किया ताकि वे ‘आसू’ का मुकाबला कर सकें. ‘आमसू’ ने मांग की कि वे सभी प्रवासी, जो 1971 से पूर्व असम में आए हैं, उन्हें नागरिकता दी जाए. इस बीच नवंबर 1980 में कच्चे तेल के ले जाने पर जो रोक लगाई गई थी उसका मुकाबला करने के लिए राज्य में सेना को तैनात कर दिया गया.
अगले महीने लगभग एक वर्ष के राष्ट्रपति शासन के बाद कांग्रेस ने नए मुख्यमंत्री के रूप में अनवरा तैमूर को नियुक्त किया. तैमूर की सरकार छह महीने तक ही सत्ता में रही और इसके बाद एक बार फिर राष्ट्रपति शासन की घोषणा कर दी गई. जनवरी 1982 में केशब चंद्र गोगोई मुख्यमंत्री बने लेकिन उन्होंने महसूस किया कि विधानसभा में उनके पास बहुमत नहीं है लिहाजा उनकी सरकार बस दो महीने तक ही चल सकी. एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया.
केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और इसने राज्य में विरोध प्रदर्शनों को कुचलने की कोशिश की लेकिन इससे वह और भी ज्यादा भड़क उठा. पार्टी ने राज्य की नौकरशाही से उन लोगों को हटाना शुरू किया जिन पर शक था कि वे आंदोलन के समर्थक हैं. अगले वर्ष प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मतदाता सूची में संशोधन किए बगैर, जिसकी वजह से असम आंदोलन पैदा हुआ था, राज्य में चुनाव कराने का संकल्प व्यक्त किया.
इंदिरा गांधी की सरकार के इस फैसले ने एक ऐसी त्रासदी को जन्म दिया जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह इतना भीषण रूप लेगी. फरवरी 1983 में असम के नवगांव जिले के नेल्ली नामक गांव में हथियारबंद दंगाइयों ने भीषण नरसंहार किया जिसमें 3000 से ज्यादा लोग मारे गए. मरने वालों में मुख्य रूप से बंगाली मूल के मुसलमान थे. चुनाव के बाद हितेश्वर सैकिया के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. हितेश्वर सैकिया अहोम जनजातीय समूह से आते थे.
15 अगस्त, 1985 को लगभग एक वर्ष तक चली बातचीत के बाद भारत सरकार, असम आंदोलन के नेताओं और राज्य सरकार के बीच एक समझौता हुआ जिसका मकसद आंदोलन को समाप्त करना था और इसे हम ‘असम समझौता’ के रूप में जानते हैं. समझौते में यह वादा किया गया था कि राज्य में अवैध रूप से आने वालों की शिनाख्त की जाएगी, मतदाता सूची से उनका नाम हटाया जाएगा और उन्हें असम से बाहर भेज दिया जाएगा. इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए असम में रहने वालों को तीन श्रेणियों में बांटा गयाः वे, जो राज्य में 1966 से पहले से हैं; वे, जिन्होंने 1 जनवरी, 1966 और 24 मार्च, 1971 के बीच राज्य में प्रवेश किया है; और वे, जिन्होंने 1971 की ‘कट ऑफ डेट’ के बाद राज्य में प्रवेश किया है. पहली श्रेणी में आने वाले लोगों को ही असम का नियमित निवासी माना जाएगा. दूसरी श्रेणी में आने वाले लोगों का नाम दस साल के लिए मतदाता सूची से निकाल दिया जाएगा और जो तीसरी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं उनकी लगातार शिनाख्त की जाएगी और उन्हें राज्य से बाहर निष्कासित किया जाएगा.
उस वर्ष केंद्र सरकार ने नागरिकता कानून, 1955 में भी संशोधन किया और उसमें अनुच्छेद 6ए जोड़ा जिसमें समझौते को लागू करने का प्रावधान था. इस प्रावधान ने समझौते को वैधानिक प्रोत्साहन देने के लिए तीनों श्रेणियों को कानून का दर्जा दिया और असम के निवासियों को भारतीय नागरिकता के ढांचे के अंतर्गत लाने के लिए एक विशेष व्यवस्था की. विदेशियों की शिनाख्त करने और उन्हें बाहर निकालने के लिए जरूरी था कि असम के 1951 के एनआरसी का नवीनीकरण (अपडेशन) किया जाए. अभी तक असम में एक के बाद एक आने वाली सरकारों और केंद्र को इस कानून को लागू करने में असफलता मिली है.
असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद चुनाव आयोग ने राज्य की मतदाता सूची का बहुत बारीकी से संशोधन किया और इसके लिए 1971 की मतदाता सूची को आधार बनाया गया. मतदाताओं की इस संशोधित सूची के आधार पर उसी वर्ष असम में चुनाव कराए गए और आसू से निकले एक संगठन असम गण परिषद को चुनाव में सफलता मिली और वह सत्ता में आई जिसका नेतृत्व पूर्व छात्र नेता प्रफुल्ल कुमार महंता कर रहे थे. जिस संगठन ने असम आंदोलन का नेतृत्व किया था उसने ही समझौते को लागू नहीं किया. इसके विपरीत 1987 में इसने मांग की कि 1966 की मतदाता सूची का इस्तेमाल करते हुए एक बार फिर इसका कड़ाई के साथ संशोधन किया जाए. तद्नुसार इस प्रक्रिया को दोहराया गया और नई मतदाता सूची तैयार हुई.
असम गण परिषद (एजीपी) असम आंदोलन से पैदा एकमात्र संगठन नहीं था. इसी अवधि ने एक रेडिकल और जुझारू समूह को भी पैदा किया था जिसे युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उलफा) के रूप में जानते हैं. उलफा ने एक संप्रभु, समाजवादी असम की स्थापना का प्रयास किया. हालांकि इस संगठन की स्थापना 1979 में हुई थी और असम आंदोलन के साथ-साथ ही इसका विकास हुआ लेकिन लेखक संजीव बरुआ ने अपनी पुस्तक इंडिया अगेंस्ट इटसेल्फः असम ऐंड दि पॉलिटिक्स ऑफ नेशनलटी में कहा है कि उलफा ने खुद को प्रवासी नागरिकों के मुद्दे से अलग रखा. बरुआ ने लिखा है- “उलफा ने प्रायः सभी असोमवासी अर्थात केवल असमी लोग नहीं बल्कि असम में रहने वाले सभी लोगों से अपील की. इस शब्दावली का और भी ज्यादा संकीर्ण ढंग से अर्थ निकाला जा सकता है. उस समय असम की मुख्य धारा में उपराष्ट्रीयता पर जो विमर्श चल रहा था उसमें और उलफा के कथन में काफी विरोध था.” बरुआ ने आगे लिखा- “असम गण परिषद की लोकप्रियता घटने लगी क्योंकि विदेशियों के मामले को हल करने का वादा पूरा करने में वह असफल रहा और साथ ही इसके अनेक युवा मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे. जैसे-जैसे उसकी लोकप्रियता घटनी शुरू हुई उलफा का सितारा बुलंद होने लगा.”
एजीपी की सरकार से मोहभंग के बारे में सभी लोग जानते हैं. मई 1990 के इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में बताया गया कि प्रफुल्ल महंता और एजीपी के उनके सहकर्मियों को प्रारंभिक तौर पर “असम के वास्तविक हीरो” के रूप में सराहा गया लेकिन अब वे “खलनायक” के रूप में देखे जाते हैं जबकि “बंदूक लहराने वाले, खतरनाक भूमिगत आतंकवादियों के संगठन” उलफा को लोग असम के रक्षक के रूप में देखने लगे थे.
नवंबर 1990 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया और केंद्र ने उलफा के खिलाफ एक सैनिक अभियान चलाया. “आपरेशन बजरंग” नाम से चलाए गए इस सैनिक अभियान का मकसद विद्रोह को कुचलना था जो अगले वर्ष अप्रैल तक जारी रहा. इस सैनिक अभियान को उलफा के अनेक प्रशिक्षण शिविरों को नष्ट करने और इसके कार्यकर्ताओं को पकड़ने में सफलता तो मिली लेकिन उस सामाजिक वैधता को यह अभियान नष्ट नहीं कर सका जो जनता की निगाह में इसे प्राप्त हो चुकी थी. केंद्र, राज्य और उलफा के बीच त्रिपक्षीय समझौते को संपन्न होने में दो दशक से भी अधिक का समय लग गया. इस जुझारू संगठन के साथ बातचीत अभी भी जारी है.
जून 1991 में कांग्रेस और हितेश्वर सैकिया दोनों एक बार फिर असम में सत्ता में आए. इसके दो वर्ष बाद राज्य ने एक बार फिर मतदाता सूची का संशोधन किया. इसके बाद 1996 में प्रफुल्ल कुमार महंता दोबारा सत्ता में आए और इसके अगले वर्ष चुनाव आयोग ने एक बार फिर कड़ाई के साथ मतदाता सूची में संशोधन किया. राज्य और केंद्र में एक के बाद एक सरकारों के आने के बाद हर बार मतदाता सूची में होने वाले संशोधन से एक चीज साफ नजर आती है जिसे अनेक वकीलों और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने मुझसे कहाः असम में समझौते को लागू करने की किसी के भी अंदर इच्छा शक्ति नहीं थी.
1980 से ही असम की नौकरशाही में कार्यरत असम सरकार के एक पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव एम.जी.वी.के. भानु ने कहा- “विदेशियों का मुद्दा चुनावों को प्रभावित करने के लिए राजनीतिज्ञों के हाथ में एक उपकरण बन गया है. 1985 के बाद से असम के हर चुनाव में यही देखा जा रहा है.” भानु का मानना है कि अगर प्रशासनिक प्रयासों पर ध्यान केंद्रित किया जाता तो इस मसले को हल किया जा सकता था. “लेकिन इस खास मुद्दे से अच्छी तरह से निबटने में असफल होने की वजह से या हो सकता है वे इस मुद्दे को छूना ही न चाहते हों, सबने इसका लाभ उठाया है.”
राजनीतिक क्षेत्र में इस तरह की चर्चा आम है. आसू के मुख्य सलाहकार समुज्जल भट्टाचार्य ने मुझसे बताया कि, “वोट बैंक की वजह से एनआरसी को कभी अपडेट नहीं किया गया.” इसी प्रकार आमसू के मुख्य सलाहकार अजीजुर्रहमान ने कहा कि “राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे को खत्म करना नहीं चाहती.” रहमान ने आगे कहा, “कांग्रेस, एजीपी और बीजेपी सभी एक जैसी पार्टियां हैं. ये जब मुस्लिम बस्तियों में जाती हैं तो लोगों को आश्वासन देती हैं कि वे यह सुनिश्चित करेंगी कि किसी को तकलीफ दिए बगैर यह मसला हल कर दिया जाए और जब वे गैर-मुस्लिम इलाकों में जाती हैं तो कहती हैं - तुम हमें वोट दो क्योंकि यहां ढेर सारे घुसपैठिए आ चुके हैं और हम उन्हें बाहर निकाल फेकेंगे.”
आमसू के कानूनी सलाहकार मुस्तफा खादम हुसैन के अनुसार- “असम को भारत का सबसे तेजी से विकास करने वाला राज्य होना चाहिए था” लेकिन इसे कभी वह अवसर नहीं मिला क्योंकि राजनीतिक वर्ग ने हमेशा अपना ध्यान प्रवासी आगंतुकों के मुद्दे पर केंद्रित रखा. उन्होंने कहा कि “चावल उत्पादन के मामले में असम का दर्जा पंजाब के बाद है तो भी यहां की जमीन इतनी उपजाऊ है कि पंजाब में जमीन के एक हिस्से में जितना चावल पैदा होता है उतने ही हिस्से में असम में दुगुना पैदावार हो सकती है. लेकिन चावल पैदा करने वाली जमीन में खेती कौन करता है? पूर्व बंगाली मूल के मुसलमान. अगर उन्हें उस तरह के कृषि उपकरण दिए जाएं जैसे पंजाब के किसानों के पास हैं, उन्हें मशीन, पानी की सप्लाई, बिजली आदि की सुविधा दी जाए तो वे दिखा देंगे कि यहां कितनी पैदावार हो सकती है.” हुसैन का कहना था कि ऐसा करने की बजाय राज्य और केंद्र सरकारें असम के विकास की कीमत पर इस मुद्दे को जिंदा रखना चाहती हैं ताकि इसका राजनीतिक लाभ उन्हें मिल सके.
जो भी हो, 1997 में मतदाता सूची में जो संशोधन किया गया उसके साथ एक नई प्रक्रिया की शुरुआत हुई जिसने हजारों लाखों व्यक्तियों को प्रभावित किया और जो नागरिकता का दावा करने वाले लोगों के सामने अभी भी सवाल पैदा कर रही हैः “डी-वोटर्स” के रूप में पहचान. सघन रूप से सूची में संशोधन करने के दौरान चुनाव आयोग के अधिकारियों ने उन व्यक्तियों के नामों के आगे “डी” यानी डाउटफुल (संदिग्ध) लिखना शुरू किया जिनकी नागरिकता की पुष्टि नहीं की जा सकी. इसके बाद इस तरह के मामलों को स्थानीय पुलिस अधीक्षक के पास भेज दिया गया और यह अपेक्षा की गई कि वह इनकी पूरी छानबीन करने के बाद अगर जरूरी समझेंगे तो उन मामलों को फारेनर्स ट्रिब्यूनल्स को भेज देंगे. जब से किसी व्यक्ति को “डी-वोटर” के रूप में चिन्हित किया जाएगा उस समय से लेकर ट्रिब्यूनल द्वारा क्लीयरेंस मिलने तक उस व्यक्ति के वोट देने का अधिकार समाप्त कर दिया जाएगा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले सभी लाभों से उसे वंचित कर दिया जाएगा.
डी-वोटर पहचान प्रक्रिया के तहत राज्य की जनजाति केंद्रित स्थिति के अनुरूप बातों को ध्यान में रखते हुए मनमाने ढंग से कुछ ऐसा किया गया ताकि इस श्रेणी में आने वालों की संख्या में वृद्धि हो. इसमें निम्न स्तर के सरकारी कर्मचारियों को यह छूट दी गई कि वो कोई छानबीन किए बगैर या नागरिकता का प्रमाण पेश करने का अवसर दिए बगैर जिसे चाहें उसे डी-वोटर की श्रेणी में डाल दें. ऐसे बहुत सारे उदाहरण देखने को मिले जिनमें संदिग्ध बताए गए लोगों को फॉरेन ट्रिब्यूनल ने भारतीय नागरिक के रूप में क्लीयरेंस दे दिया. कइयों को इसके लिए 20 वर्ष से भी अधिक समय तक इंतजार करना पड़ा. अनेक लोगों को तो यह भी पता नहीं है कि उन्हें कब ‘डी-वोटर’ चिन्हित कर दिया गया जबकि पिछले चुनाव में उन्होंने बाकायदा वोट दिया था. कई मामले ऐसे भी सामने आए जिनमें परिवार के किसी एक सदस्य को बेहद बेतुके ढंग से अवैध प्रवासी बता दिया गया है.
चुनाव आयोग ने जब 1997 में संशोधित मतदाता सूची प्रकाशित की तो इसमें 37 लाख से भी अधिक लोगों को डी-वोटर के रूप में चिंहित किया गया था. लोकसभा में गृह मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत किए गए आंकड़े के अनुसार अक्टूबर 2019 तक असम में कुल 113,738 डी-वोटर थे जिनमें से 70,723 महिलाएं थीं. गृह मंत्रालय ने लोकसभा में यह भी बताया कि अक्टूबर 2019 तक कुल 468,905 मामले असम के फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स को सौंपे गए. इनमें से 114,225 लोगों को भारतीय नागरिक और 129,009 लोगों को विदेशी घोषित किया गया.
2001 में राज्य में कांग्रेस सरकार की वापसी हुई और तरुण गोगोई ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. यह उनके तीन कार्यकालों में से पहला था. 2005 में केंद्र और राज्य की कांग्रेस सरकारों ने असम समझौते को लागू करने के लिए आसू के साथ बातचीत शुरू की. 5 मई को एक त्रिपक्षीय बैठक में इन लोगों ने 1951 के एनआरसी को अपडेट करने का फैसला किया. इसके अनुसार 2009 में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने एक अधिसूचना के जरिए एनआरसी के नवीकरण के लिए नियमों की घोषणा की.
अगले वर्ष असम सरकार ने एनआरसी को अपडेट करने की कवायद के रूप में कामरूप जिले के चायगांव तहसील और बारपेटा जिले के बारपेटा तहसील में एक प्रायोगिक परियोजना चलाने का फैसला किया. यह काम बहुत जल्दबाजी में किया गया और इसे चलाने का या इसके तौर-तरीके का मानक क्या हो इस पर कोई फैसला नहीं हुआ. कुछ पता नहीं चला कि सूचनाएं कैसे इकट्ठा की जाएं और उनकी पुष्टि की जाए. असम आंदोलन की मुस्लिम विरोधी प्रकृति और एनआरसी के संभावित दुष्परिणामों की आशंका को देखते हुए आमसू ने इस प्रायोगिक परियोजना के खिलाफ बारपेटा में विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया. 21 जुलाई, 2010 को बारपेटा के जिला मजिस्ट्रेट के दफ्तर के बाहर हजारों की संख्या में लोग विरोध व्यक्त करने के लिए इकट्ठा हुए.
अजीजुर्रहमान ने, जो उस दिन विरोध प्रदर्शन के समय मौजूद थे, याद करते हुए बताया, “हमने अधिकारियों से कहा कि वे डी.एम. को बुलाएं ताकि हम उन्हें अपना ज्ञापन दे सकें और इसके बाद हम चले जाएंगे लेकिन डी.एम. नहीं आया. अचानक वहां पुलिस अधीक्षक पहुंच गए.” इसके कुछ ही देर बाद हिंसा भड़क उठी और किस कारण यह सब हुआ इसके बारे में अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग बातें बताईं. अजीजुर्रहमान के अनुसार पुलिस आमसू के चार नेताओं को लेकर अंदर गई और उसके बाद बगैर किसी उकसावे के उसने प्रदर्शनकारियों पर गोली चला दी. चार प्रदर्शनकारी मारे गए और 100 से ज्यादा घायल हो गए जिसकी वजह से वहां मौजूद भीड़ हिंसक हो उठी. दूसरी तरफ आसू के समुज्जल भट्टाचार्य का कहना था कि बारपेटा में “बांग्लादेश की लॉबी ने हिंसा फैलाई.” बांग्लादेश लॉबी से उनका तात्पर्य ‘आमसू’ से था.
मैंने तरुण गोगोई से गुवाहाटी के उनके आफिस में भेंट की और उन्होंने बताया, “देखिए, न तो भारत सरकार के पास कोई अनुभव था और न हमारे पास. हम कैसे काम शुरू करें इस बारे में भी हमारे पास कोई कार्य पद्धति नहीं थी. किसी को पता ही नहीं था कि कैसे सबकुछ किया जाए. यह जिम्मेदारी तो भारत सरकार और भारत के रजिस्ट्रार जनरल की थी लेकिन रजिस्ट्रार जनरल को भी कार्यप्रणाली की जानकारी नहीं थी.” पूर्व मुख्यमंत्री ने बताया कि बावजूद इसके राज्य और केंद्र सरकारों ने प्रायोगिक परियोजनाएं चलाने का फैसला लिया. “लेकिन जब इन परियोजनाओं को शुरू किया गया तो आमसू ने बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू कर दिया. पुलिस ने उनसे निबटने के लिए गोली चलाई और कुछ लोग मारे गए. इसके बाद हमने अपनी प्रायोगिक परियोजना रोक दी.”
लेकिन सरकार ने इस विचार को छोड़ा नहीं. 2011 में राज्य सरकार ने परामर्श की प्रक्रिया शुरू की और आसू तथा आमसू सहित सभी संबद्ध पक्षों को आमंत्रित किया कि वे आएं और कामकाज का कोई मानक तौर-तरीका तैयार करें जिसके अनुसार एनआरसी को अपडेट किया जा सके. आपसी सहमति बनने के बाद जो तरीका तय हुआ उसे रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के सामने पेश किया गया. 5 दिसंबर, 2013 को रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय से तीन वर्षों के अंदर समूचे असम में एनआरसी को अपडेट करने के बारे में एक अधिसूचना जारी हुई.
अब तक गुवाहाटी में असमी लोगों के बीच बाहरी लोगों के प्रति, खासतौर से दिल्ली वालों के प्रति धैर्य समाप्त होने लगा था और वे एनआरसी की परियोजना को लेकर चिंता व्यक्त कर रहे थे. मोटेतौर पर कहें तो दोतरह के लोग थेः एक तो वे जो एनआरसी का इसलिए समर्थन कर रहे थे क्योंकि इससे राज्य में अवैध ढंग से आकर बसे लोगों की शिनाख्त हो सकेगी और दूसरे वे लोग इसका समर्थन कर रहे थे क्योंकि उनका मानना था कि इससे उनको जो आए दिन उत्पीड़न झेलना पड़ता है उससे मुक्ति मिल जाएगी. शायद ही ऐसा कोई रहा होगा जिसने एक विचार के रूप में इस परियोजना का पूरी तरह विरोध किया हो. पहली श्रेणी के जो लोग थे उनके अंदर आत्मविश्वास से भरी एक न्यायपरायणता का भाव था क्योंकि वे यह सोच रहे थे कि राज्य की आबादी को काफी बोझ झेलना पड़ रहा है. दूसरी श्रेणी के लोगों के स्वर में अपरिहार्य स्थिति को स्वीकार करने का भाव था लेकिन वे भी इस दृष्टि से आशावादी थे कि एनआरसी के बाद उन सारे सवालों पर अंतिम तौर पर विराम लग जाएगा जो उनकी नागरिकता को लेकर प्रायः उठाए जाते रहे हैं.
यही वह मोड़ था जब रंजन गोगोई के सामने एनआरसी से संबंधित दो याचिकाएं आईं: एक में कहा गया था कि एनआरसी को अपडेट किया जाए और दूसरे में नागरिकता कानून के अनुच्छेद 6ए की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी. गोगोई ने एनआरसी को अपडेट करने के अपने मिशन पर काम शुरू किया और महसूस किया कि जनमत उनके पक्ष में है. ऐसा करते समय उन्होंने न केवल न्याय शास्त्र के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का उल्लंघन किया बल्कि एक ऐसी राष्ट्रीय नीति की भी बुनियाद रखी जिसने भारतीय मुसलमानों की नागरिकता के सामने खतरा पैदा कर दिया.
मौजूदा बीजेपी सरकार को गोगोई का यह सबसे बड़ा उपहार है और निःसंदेह भारत के मुख्य न्यायाधीश की उनकी विरासत का एक उल्लेखनीय हिस्सा है. लेकिन जैसा कि अनेक लोगों ने मुझसे कहा कि इस बात की संभावना कम है कि एनआरसी के मामलों की सुनवाई करते समय गोगोई सरकार के दबाव में काम कर रहे थे. वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक रूप से सक्रिय प्रशांत भूषण ने मुझसे कहा- “वह स्वतंत्र रूप से काम कर रहे थे. दरअसल वह असम की अहोम जनजाति से हैं और इस समुदाय के अंदर विदेशियों के मुद्दे को लेकर जबर्दस्त क्षोभ है क्योंकि वे यह मानते हैं कि विदेशियों ने असम में आकर मूल असमी लोगों की जातीयता को कमजोर किया है.”
असम के एक गैर सरकारी संगठन असम पब्लिक वर्क्स ने अवैध प्रवासी नागरिकों की पहचान और उनके निर्वासन के लिए एक याचिका दायर की थी और यह याचिका छह बार सूचीबद्ध हुई लेकिन इस पर व्यापक सुनवाई नहीं हो सकी. इसके चार वर्ष बाद गोगोई ने उस बेंच की जिम्मेदारी ली. 2 अप्रैल, 2013 को एनआरसी के मामले पर गोगोई के समक्ष पहली सुनवाई हुई. यह जस्टिस एच.एल. गोखले के साथ दो जजों की बेंच थी. मामले की सुनवाई के बाद दूसरी तारीख अगले दिन की दी गई. इसके बाद इस बेंच ने राज्य और केंद्र सरकार के अधिवक्ताओं को आदेश दिया कि वे एक सप्ताह के बाद आएं और यह बताएं कि एनआरसी को अपडेट करने में कितना समय लगेगा.
एक वर्ष तक गोगोई ने एक जूनियर जज के रूप में इस मामले की सुनवाई की और फिर मार्च 2014 में गोखले रिटायर हो गए और उनके स्थान पर आर.एफ. नरीमन ने इस सुनवाई की जिम्मेदारी संभाली. समूची अवधि के दौरान अदालत ने लगातार सुनवाई की जिसका मकसद परियोजना के लिए तौर-तरीकों का निर्धारण करना था. हर स्तर पर अदालत ने इसके औचित्य पर जोर दिया और प्रायः शिकायत व्यक्त करती रही कि राज्य और केंद्र की सरकारें जरूरत से ज्यादा समय ले रही हैं. वरिष्ठ जज के रूप में अपनी दूसरी सुनवाई के समय 20 अगस्त, 2014 को गोगोई ने असम में एनआरसी के राज्य कोआर्डिनेटर प्रतीक हजेला को निर्देश दिया कि वह एक वचन पत्र दाखिल करें और उसके जरिए बताएं कि क्या दिसंबर 2016 तक एनआरसी को अपडेट किया जा सकता है.
अगली सुनवाई से पूर्व हजेला ने एनआरसी परियोजना की एक समय तालिका बताते हुए अपना हलफनामा प्रस्तुत किया. 23 सितंबर को गोगोई और नरीमन ने आदेश दिया- “इस समय तक अदालत बस इस बात पर ही ध्यान देगी कि राज्य कोआर्डिनेटर द्वारा प्रस्तुत किए गए हलफनामे में जो समय तालिका दी गई है उसको कम करने की कितनी गुंजाइश है... दरअसल अदालत का यह मानना है कि जैसा कि संकेत दिया गया है, प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को उपयुक्त ढंग से एक साथ मिलाया जा सकता है और इन कार्यों को साथ-साथ चलाया जा सकता है.” इसके बाद दोनों जजों की बेंच ने हजेला को निर्देश दिया कि वह एक संशोधित समय तालिका प्रस्तुत करें और यह लक्ष्य रखें कि परियोजना का काम 18 महीने के अंदर पूरा कर लिया जाए. दोनों जजों की बेंच ने कहा- “एनआरसी को अपग्रेड करने की प्रक्रिया में जिस तरह का काम शामिल है उसे देखते हुए हम राज्य कोआर्डिनेटर को निर्देश देते हैं कि वह सीलबंद लिफाफे में अदालत को एक रिपोर्ट दे जिसमें यह बताया गया हो कि इस सिलसिले में क्या उपाय अपनाने की जरूरत है और कौन से कदम उठाए जाने चाहिए.” इसमें आगे कहा गया थाः “राज्य कोआर्डिनेटर द्वारा उपरोक्त जानकारी किसी अधिकारी से परामर्श लिए बगैर और राज्य सरकार अथवा केंद्र सरकार के किसी अधिकारी के आदेश पर पलटे बगैर अदालत के सामने पेश की जाएगी.”
लगातार सुनवाई के दौरान अदालत ने सरकारी अधिकारियों पर असाधारण दबाव बनाए रखा और हर काम की बारीकी से निगरानी होती रही. समूची प्रक्रिया पूरी तरह अपारदर्शी थी और केंद्र तथा राज्य सरकारों से भी इसे गुप्त रखा गया. जैसा कि गौतम भाटिया ने दि हिंदू में लिखा, “इससे पता चलता है कि अदालत महज निगरानी रखने से संतुष्ट नहीं थी बल्कि वह तौर-तरीकों और कार्यान्वयन दोनों को निर्देशित कर रही थी.”
दिसंबर 2014 में अदालत ने अप्रवास से संबंधित मुद्दे के विभिन्न पहलुओं को शामिल करते हुए, जिनमें 11महीने के अंदर एनआरसी को अपडेट करने की बात भी थी, अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को विस्तृत निर्देश जारी किए.
परियोजना में अड़चन डालने के साथ-साथ गोगोई ने जनतांत्रिक राज्य के तीनों अंगों (विधायिका जो कानून का निर्माण करती है; कार्यपालिका जो कानून का कार्यान्वयन करती है; और न्यायापालिका जो संविधान की रोशनी में कानून की समीक्षा करती है) के बीच सत्ता के बंटवारे का भी कोई सम्मान नहीं किया. भारत के मुख्य न्यायाधीश बनते ही न्यायपालिका के रोस्टर और मुकदमों के सूचीबद्ध किए जाने पर गोगोई का पूरी तरह नियंत्रण हो गया और उनके पास इतनी शक्ति आ गई कि वह सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आने वाले एनआरसी से संबंधित सभी मामलों की दिशा तय कर सकें.
2014 में केंद्र में बीजेपी सरकार सत्ता में आई और 2016 में असम में भी बीजेपी की सरकार बनी. बीजेपी के सैद्धांतिक आधार और विदेशियों के मुद्दे पर असम के विभाजनकारी इतिहास को देखते हुए हिंदू राष्ट्रवादियों के सामने एनआरसी के रूप में एक ऐसा अवसर था जिसके जरिए वे अपने मुस्लिम विरोधी शब्दाडंबर को कार्य रूप में परिणत कर सकते थे. असम के नए मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने राज्य के पुलिस अधीक्षकों, जिला कलक्टरों और डिप्टी कमिश्नरों से कहा कि वे विदेशियों की शिनाख्त में और एनआरसी के तैयार करने की प्रक्रिया में तेजी लाएं. इस बीच, एक के बाद एक अलग राज्यों में गृहमंत्री अमित शाह ने अपने भाषणों में लगातार कहा कि वह पूरे देश में एनआरसी लागू करेंगे और सरकार सभी “घुसपैठियों” और “दीमकों” (विदेशियों के बारे में उनका वर्णन) को भारत से निकाल बाहर करेंगे.
बीजेपी ने परियोजना के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान किए जिसकी कुल लागत 1600 करोड़ रुपए थी और जिसमें 50000 से भी अधिक अधिकारी शामिल थे. दिसंबर 2014 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने असम सरकार को निर्देश दिया था कि वह सुनिश्चित करे कि 60 दिनों के अंदर अतिरिक्त फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स काम करने लगेंगे. मई 2019 में सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य निर्देश का पालन करते हुए राज्य सरकार ने एनआरसी के अंतिम तौर पर प्रकाशन से पूर्व 200 फॉरेनर्स ट्रिब्यूनलों की स्थापना का काम शुरू किया ताकि ऐसे ट्रिब्यूनलों की कुल संख्या 300 हो जाए और भविष्य के लिए अन्य 200 के निर्माण की स्वीकृति दे दी. अवैध नागरिक घोषित किए जाने वालों के लिए देश का पहला डिटेंशन सेंटर फिलहाल असम के ग्वालपाड़ा जिले में निर्माणाधीन है और राज्य सरकार ने ऐसे ही दस और केंद्रों के निर्माण का प्रस्ताव सामने रखा है.
गोगोई के न्यायिक निर्णय ने अदालत के कामकाज में बहुत अनुचित किस्म की अपारदर्शिता की शुरुआत की. एनआरसी से संबंधित मामलों की सुनवाई के दौरान, राजनीतिक महत्व के अन्य कई मामलों की पूर्व मुख्य न्यायाधीश द्वारा सुनवाई की ही तरह लगातार सीलबंद लिफाफों में रिपोर्ट मंगाने का सिलसिला चलता रहा. समय-समय पर गोगोई ने हजेला तथा संबद्ध पक्ष के अन्य लोगों से यही कहा कि वे अपनी रिपोर्ट और दस्तावेज सीलबंद लिफाफे में दें जिस पर केवल अदालत विचार कर सके और मुकदमे से संबंधित अन्य पक्ष, जिनमें सरकारें भी शामिल हैं जिन्हें परियोजना लागू करना है, उसे न देख सकें. गोगोई की विरासत के बारे में लिखते हुए भाटिया ने अपने लेख में कहा- “न्यायिक प्रणाली के बुनियादी सिद्धांतों में से खुलापन एक मुख्य सिद्धांत है और सीलबंद लिफाफे पूरी तरह खुली न्याय व्यवस्था के विपरीत होते हैं. अदालतों को अपने फैसलों का कारण देना होता है...और अगर उन साक्ष्यों को छिपा कर रखा गया जिसके आधार पर फैसला दिया जा रहा है तो इसकी किसी भी तरह की छानबीन अंधेरे में सीटी बजाने के सिवाय और कुछ नहीं है.”
गोगोई द्वारा सीलबंद लिफाफों में रिपोर्ट मंगाने के चलन पर मदन लोकुर ने कहा- “जाहिर सी बात है कि यह बिलकुल गलत है और मैं इसका समर्थन नहीं करता.” उन्होंने बताया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत यह राज्य का दायित्व है कि कुछ खास दस्तावेजों को सीलबंद लिफाफे में देने के लिए वह अदालत से अनुमति मांगे. “अदालत खुद-ब-खुद इसका इस्तेमाल नहीं कर सकती.”
फरवरी 2017 में गोगोई ने रहस्य के आवरण में ही एक और महत्वपूर्ण फैसला लिया. एनआरसी के अपडेट करने की प्रक्रिया ने अभी आधा सफर ही तय किया था कि हजेला ने बंद कमरे में गोगोई के सामने एक पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन के जरिए वंशवृक्ष द्वारा प्रमाण (फेमिली ट्री वेरिफिकेशन) की प्रक्रिया शुरू करने की बात की. जैसा कि जुलाई 2018 के दि कैरेवान में प्रकाशित हुआ, केवल चार लोगों को इस प्रेजेंटेशन को देखने की इजाजत दी गई और गोगोई ने न्यायिक तौर-तरीकों की परवाह किए बगैर फेमिली ट्री वेरिफिकेशन के इस्तेमाल को अपनी स्वीकृति दे दी. इस संशोधित प्रक्रिया में आवेदकों को अपने पूर्वजों की वंशावली प्रस्तुत करने का प्रावधान था और उस वंशावली की पुष्टि के लिए दस्तावेजों का साथ होना जरूरी था. उन दस्तावेजों को एक कंप्यूटरीकृत व्यवस्था के तहत अपलोड किया जाएगा जिससे एक डिजिटल फेमिली ट्री तैयार होगा जिसकी दोबारा जांच परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा जमा की गई सूचनाओं से की जाएगी. सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल बतीन खांडेकर ने मुझे बताया कि वंशवृक्ष से तस्दीक करने का मकसद संबंधों को स्थापित करना नहीं बल्कि बहिष्कार को प्रोत्साहित करना था.
हजेला के साथ गोगोई की बातचीत से न्यायिक अनुचित व्यवहार की ऐसी कई मिसालें सामने आती हैं. जारी किए गए आदेशों से स्पष्ट होता है कि हजेला लगातार इस संघर्ष में लगे थे कि गोगोई द्वारा निर्धारित की गई सीमा के अंदर कैसे परियोजना को पूरा किया जाए. दिसंबर 2014 के आदेश में अदालत ने हजेला को निर्देश दिया था कि 1 अक्टूबर 2015 तक अपडेट किए गए एनआरसी का मसौदा प्रकाशित कर दिया जाए और 1 जनवरी, 2016 तक इसे अंतिम रूप दे दिया जाए. इस समय- सीमा की अवधि बढ़ाए जाने के बाद जुलाई 2017 में अदालत ने हजेला को निर्देश दिया कि उस वर्ष दिसंबर के अंत तक एनआरसी के मसौदे को प्रकाशित कर दिया जाए. लेकिन 30 नवंबर को हजेला ने अदालत को बताया कि वर्ष के अंत तक केवल दो करोड़ आवेदनों की ही जांच किए जाने की संभावना है लिहाजा मसौदे को प्रकाशित करने के लिए उन्हें और समय दिया जाए. अदालत की बेंच ने इस अनुरोध को नामंजूर कर दिया और निर्देश दिया कि वह अधूरी सूची ही 31 दिसंबर तक प्रकाशित करें.
इसके बाद 20 फरवरी 2018 को अदालत ने एक आदेश दियाः “हमारे पास जो जानकारी है उससे हमें पता चला है कि एक अतिरिक्त स्टेट कोआर्डिनेटर को नियुक्त करने का प्रस्ताव है. हम रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया को निर्देश देते हैं कि वह ऐसे किसी भी प्रयास से बाज आए और हम यह स्पष्ट करते हैं कि अभी राज्य कोआर्डिनेटर के रूप में काम कर रहे श्री प्रतीक हजेला को एनआरसी का अंतिम ड्राफ्ट तैयार करने/अद्यतन बनाने के काम में लगा रहने दिया जाए और वह इस काम को तब तक जारी रखेंगे जब तक यह किसी तार्किक परिणति तक न पहुंच जाए.” गोगोई ने इस बात की कोई सफाई नहीं दी कि क्यों उन्होंने एडिशनल स्टेट कोआर्डिनेटर की नियुक्ति पर रोक लगाई.
30 जुलाई को हजेला ने एनआरसी का मसौदा प्रकाशित किया जिसमें असम में रहने वाले 40 लाख लोगों को उस सूची से अलग कर दिया गया था. बाद के दिनों में राज्य कोआर्डिनेटर और रजिस्ट्रार जनरल ने एनआरसी की प्रक्रिया के बारे में प्रेस को अपने बयान जारी किए और बताया कि शेष दावों और अगर किसी को कोई आपत्ति है तो उसके बारे में कैसे सुनवाई होगी. अदालत ने इससे अपनी असहमति जारी की. 7 अगस्त को गोगोई और नरीमन ने सुनवाई के लिए एक मामले को सूचीबद्ध किया और खुली अदालत में दोनों को फटकार लगाई. गोगोई ने स्टेट काआर्डिनेटर और रजिस्ट्रार जनरल को कहा, “हमें आप दोनों को अदालत की अवमानना का दोषी मानना चाहिए और जेल भेज देना चाहिए. यह सब कहने वाले आप लोग होते कौन हैं?” दोनों जजों की बेंच ने दोनों अधिकारियों को अदालत में बुला कर माफी मंगवाई. अदालत ने उन्हें यह भी निर्देश दिया कि एनआरसी के बारे में कोई भी बयान देने से पहले वे अदालत की अनुमति प्राप्त करें.
अनेक वकीलों और कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि हजेला की छवि एक ईमानदार और खरे नौकरशाह की रही है. गौतम भाटिया ने कहा कि “एक समय तो ऐसा हुआ कि लगता था हजेला अदालत के एजेंट हो गए हैं और बस अदालत के निर्देशों को ढो रहे हैं... उनकी भूमिका का यह कायाकल्प बहुत अजीब है. ऐसा लगता है कि वह अपने आजाद दिमाग से या अपने मन से कुछ भी नहीं कर रहे हैं.” खांडेकर के अनुसार परियोजना के प्रारंभिक दिनों में हजेला उनसे नियमित तौर पर मिलते थे और आश्वासन देते थे कि एनआरसी को अपडेट करने का काम बहुत प्रामाणिक तौर पर किया जाएगा और किसी भी नागरिक को बाहर नहीं निकाला जाएगा. लेकिन अगस्त की सुनवाई के बाद काफी कुछ बदल गया. खांडेकर ने मुझे बताया - “उस सुनवाई के बाद हजेला ने मुझसे मिलना भी बंद कर दिया.”
एनआरसी को लेकर गोगोई की सनक ऐसी थी कि उन्होंने राज्य के समूचे तंत्र पर कब्जा कर लिया और असम राज्य सरकार के लगभग हर क्षेत्र को वह प्रभावित करने लगे.
1दिसंबर, 2015 को गोगोई ने निर्देश दिया कि एनआरसी से संबद्ध काम में लगे राज्य के सभी कर्मचारियों को तब तक कोई और काम न दिया जाए जब तक इसे अपडेट करने का काम पूरा न हो जाए. अगले महीने उन्होंने अपने आदेश में सुधार करते हुए कहा कि एनआरसी से संबद्ध काम में लगे अधिकारी अन्य जिम्मेदारियां भी पूरी कर सकते हैं बशर्ते इससे एनआरसी परियोजना की ‘प्रमुखता और प्राथमिकता’ प्रभावित न हो रही हो. जनवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि आने वाले आम चुनावों और एनआरसी को समान महत्व दिया जाना चाहिए और दोनों को “एक दूसरे को प्रभावित किए बिना साथ-साथ” चलाया जाना चाहिए. एक बार फिर राज्य सरकार ने बार-बार अदालत का दरवाजा खटखटाया और तब इस आदेश के अगले महीने गोगोई ने अधिकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल को इस बात की इजाजत दी कि वे चुनावों की तैयारी में लग जाएं लेकिन यह भी आदेश दिया कि 3,457 लोगों को एनआरसी के काम के लिए मुक्त रखा जाए. उन्होंने चुनाव आयोग को भी निर्देश दिया कि वह चुनावों के लिए जिला मजिस्ट्रेटों अथवा अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेटों का तबादला न करे.
नौकरशाही पर गोगोई के नियंत्रण का सरकार की अन्य सभी योजनाओं और कार्यक्रमों पर विपरीत आनुशंगिक प्रभाव पड़ा और कई योजनाओं को रोकना पड़ा क्योंकि एनआरसी को अपडेट किया जा रहा था. मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार ऋषिकेश गोस्वामी ने मुझे बताया- “पिछले साढ़े तीन वर्षों से 55,000 कर्मचारी एनआरसी के काम में लगे हुए हैं इसलिए जाहिर सी बात है कि इससे राज्य का विकास प्रभावित हुआ है.” असम सचिवालय में अनेक नौकरशाहों ने विस्तार से बताया कि कैसे एनआरसी परियोजना ने सरकारी कार्यक्रमों तथा सरकार द्वारा ली जाने वाली अन्य कई योजनाओं को प्रभावित किया. यह बताते समय अधिकांश नौकरशाहों ने अनुरोध किया कि उनका नाम न जाहिर किया जाए.
असम सरकार के एक सचिव ने मुझे बताया कि राज्य में तकरीबन चार लाख सरकारी कर्मचारी हैं. उसने अनुमान लगाया कि सात फील्ड आफिसर्स वाले विभागों में से तकरीबन चार को एनआरसी के काम में लगा दिया गया है. उसने कहा कि “अभी जो अधिकारी उपलब्ध हैं उनमें काफी कमी आई है - फील्ड लेबल पर कमोबेश 75 प्रतिशत को इस काम में लगाया गया है.” उसने आगे कहा- “आप स्कूलों को देखिए. कुछ गांव में पिछले तीन वर्ष से केवल एक गणित का और विज्ञान का अध्यापक है क्योंकि अन्य सभी अध्यापकों को एनआरसी के काम में लगा दिया गया है.”
सरकार के एक अन्य सचिव ने बताया कि एनआरसी ने प्रशासन के काम की रफ्तार धीमी कर दी है. इसके विस्तार में जाते हुए उसने उदाहरण दिया कि असम के भूमिहीन निवासियों को जमीन देने के लिए भूमि सर्वेक्षण का काम कराया जाना है. “इसके लिए लोगों को गांव-गांव जाना होगा, देखना होगा कि सरकारी जमीन कौन सी है, भूमिहीन लोगों की सूची तैयार करनी होगी और उन्हें जमीन आवंटित करना होगा.” उसने अनुमान लगाते हुए बताया कि भूमि सर्वेक्षण का काम जितना पूरा होना चाहिए था उसका केवल 1/8 भाग ही पूरा हो सका है क्योंकि “यह एक लंबी प्रक्रिया है जिसमें 5-6 महीने लग सकते हैं. अब चूंकि सारे अधिकारी एनआरसी में व्यस्त हो गए हैं इसलिए इस प्रक्रिया में देर हो रही है.” उसने थोड़ा और विस्तार में जाते हुए बताया - “इस वित्त वर्ष में हम चाहते थे कि एक लाख भूमिहीनों को जमीन आवंटित कर दी जाए लेकिन अक्टूबर तक हमने केवल 35,000 लोगों को जमीन आवंटित की है. इन छह महीनों में हमें कम से कम 50,000 लोगों तक पहुंचना चाहिए था.”
गृह और राजनीतिक विभाग से संबद्ध एक उपसचिव सी.पी. फूकन ने बताया कि इसी तरह अन्य कामों में भी विलंब हुआ है. उन्होंने बताया कि “उत्तरी असम में राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए भूमि अधिग्रहण का काम चल रहा है. जब जमीन किसी से अधिग्रहीत की जाती है तो उसे मुआवजे की राशि भी देनी होती है. इस राशि के भुगतान में विलंब हो रहा है. मुख्यमंत्री को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा. मैं यह नहीं बताऊंगा कि कितना विलंब हुआ लेकिन यह एक तथ्य है कि मुआवजे के भुगतान में विलंब हुआ.” उसने आगे बताया कि इस तरह के और बहुत से उदाहरण हैं - “पिछले तीन वर्षों से राज्य के समूचे विकास तंत्र को बंधक बनाकर रखा गया है. अगर हम पूछते हैं कि अमुक अधिकारी कहां हैं तो जवाब मिलता है कि वह एनआरसी के काम में लगा हुआ है.”
गोगोई के लिए एनआरसी किस हद तक व्यक्तिगत मामला बन गया है और इसे लेकर उनके अंदर कितना पूर्वाग्रह है, यह उस समय बहुत खुलकर सामने आ गया जब उन्होंने हर्ष मंदर द्वारा दायर की गई एक याचिका पर विचार किया. जनवरी 2018 में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए स्पेशल मॉनीटर के रूप में काम करते हुए उन्हें असम जाना पड़ा ताकि वह राज्य के छह डिटेंशन सेंटर्स की जांच कर सकें. इन डिटेंशन सेंटर्स या बंदी केंद्रों को जेलों में ही एक हिस्से को अलग करके बनाया गया है जहां उन लोगों को रखा गया है जो विदेशी घोषित किए गए हैं. हर्ष मंदर ने ग्वालपाड़ा और कोकराझार जिले के दो बंदी केंद्रों का दौरा किया. उनकी टीम ने वहां देखा कि बंदियों को अनिश्चित काल के लिए भीषण स्थितियों में रखा गया है, छोटे बच्चों सहित परिवार के अन्य सदस्यों को एक दूसरे से अलग कर दिया गया है और इन केंद्रों के संचालन में किसी भी तरह का कानून लागू नहीं है. उन्हें अन्य केंद्रों में जाने से रोक दिया गया और एनएचआरसी ने भी इस पर कोई कार्रवाई करने से इनकार किया और बाद की इनकी रिपोर्ट को भी आगे भेजने से इनकार किया. नतीजतन हर्ष मंदर ने जून में इस पद से इस्तीफा दे दिया और फिर अपने तईं एक रिपोर्ट जारी की. इसके साथ ही अगस्त में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की जिसमें मांग की गई थी कि बंदी केंद्रों में बंदियों के साथ मानवीय और विधिसम्मत व्यवहार किया जाए, उन्हें निःशुल्क कानूनी सहायता दी जाए और अदालत इस बात का निर्देश दे कि अंतिम उपाय के रूप में ही किसी को बंदी बनाया जाए.
मार्च 2019 में हर्ष मंदर ने अपनी याचिका में एक हलफनामा दायर किया जिसमें बताया था कि डी-वोटर्स और अवैध प्रवासियों की शिनाख्त की प्रक्रिया में तमाम तरह की गड़बड़ियां हुईं और दोषपूर्ण अधिनिर्णय लिया गया. उन्होंने बताया कि चुनाव आयोग और असम के सीमा पुलिस संगठन ने प्रायः वास्तविक नागरिकों के मामलों को “बगैर किसी छानबीन के” विदेशियों के लिए बने ट्रिब्यूनलों में भेज दिया. उनकी याचिका के अनुसार इन ट्रिब्यूनलों में बहुत सारे मामले उन प्रमाणीकरण फॉर्मों के साथ भेजे गए जिन्हें भरा ही नहीं गया था. (प्रमाणीकरण फॉर्म उस प्रक्रिया का हिस्सा है जिसमें कोई अधिकारी किसी व्यक्ति की नागरिकता को प्रमाणित करता है). हलफनामे में इन ट्रिब्यूनलों के कामकाज की खामियों को उजागर किया गया था. मिसाल के तौर पर इन अर्द्धन्यायिक निकायों के बारे में व्यापक तौर पर खबर मिली है कि छोटी-मोटी गड़बड़ियों के आधार पर मसलन नाम की स्पेलिंग में अगर गड़बड़ी है या उम्र और पते में अलग-अलग दस्तावेजों में थोड़ा बहुत अंतर है तो उन्हें विदेशी घोषित कर दिया जा रहा है जबकि उनके पास वे सारे कागजात हैं जो उनकी भारतीय नागरिकता को प्रमाणित करते हैं.
13 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने असम सरकार के मुख्य सचिव आलोक कुमार को निर्देश दिया कि वह एक हलफनामा दायर करें जिसमें बताएं कि कितने लोगों को विदेशी घोषित किया गया, कितने लोगों को बंदी बनाया गया और कितने लोगों को उनके देश वापस भेजा गया.
तदनुसार 25 मार्च को राज्य सरकार ने इन ब्यौरों के साथ एक हलफनामा दायर किया. मैंने उन दस्तावेजों को देखा और जो संख्या दी है उसे देखकर मैं हतप्रभ रह गया. हलफनामे में बताया गया है कि 1985 से 2018 तक 112,395 लोगों को विदेशी घोषित किया गया. इनमें से 46,898 अर्थात 41 प्रतिशत से अधिक लोगों को 2015 और 2018 के बीच विदेशी घोषित किया गया. हलफनामे में इस स्रोत के रूप में असम पुलिस की सीमा शाखा का उल्लेख था और बताया गया था कि 2015 में 4,072, 2016 में 5,096, 2017 में 15,545 और 2018 में 22,189 लोगों को विदेशी घोषित किया गया. राज्य में बीजेपी सरकार के सत्ता में आने से पहले और बाद के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि राज्य का तंत्र इस मामले में कितने जोश के साथ काम कर रहा था.
कुमार के हलफनामे में यह भी बताया गया था कि कुल 2,703 घोषित विदेशियों को बंदी केंद्रों की पहली बार स्थापना के बाद से अलग-अलग समयों पर बंदी बनाकर रखा गया और 17 मार्च 2019 तक राज्य के कुल छह बंदी केंद्रों में बंदी बनाकर रखे गए विदेशियों की संख्या 915 थी. (लोकसभा में गृह मंत्रालय की एक प्रस्तुति के अनुसार 25 जून तक यह संख्या बढ़कर 1,133 हो गई थीं.) इन 915 बंदियों में से 799 वे थे जिन्हें विदेशी घोषित किया गया था और 116 वे थे जिन्हें फॉरेनर्स ऐक्ट 1946 और पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम 1920 जैसे अलग-अलग कानूनों के तहत बंद किया गया था.
हलफनामे के अनुसार 1985 से 2018 तक असम पुलिस ने कुल 467,094 मामलों को विदेशियों के लिए बने ट्रिब्यूनलों में भेजा और 202,024 मामले उस समय तक लंबित पड़े थे. इसमें आगे बताया गया है कि 262,070 मामलों का इस अवधि में निस्तारण कर दिया गया और 105,102 मामलों का 2015 के बाद निस्तारण किया गया. कुमार के हलफनामे में यह भी कहा गया था कि मार्च 2013 से उस समय तक कुल 166 लोगों को देश से बाहर निकाला गया, केवल उनमें से चार को विदेशी घोषित किया गया जबकि शेष को विदेशी बताकर बंदी बनाया गया.
बाद की एक सुनवाई में 9 अप्रैल को गोगोई ने इन आंकड़ों के संदर्भ में मुख्य सचिव को चुनौती दी. उनका सरोकार इस बात से नहीं था कि 2015 के बाद से इन संख्याओं में जो वृद्धि हुई है उससे ट्रिब्यूनल के कामकाज का क्या संकेत मिलता है. इसकी बजाय लाइव लॉ वेबसाइट की एक रिपोर्ट के अनुसार गोगोई ने कुमार से कहा - “इस लंबी छलांग से आप क्या बहुत गर्व का अनुभव कर रहे हैं? यह आपकी आत्मप्रशंसा है- मामलों के निस्तारण में उल्लेखनीय विकास?” मुख्य न्यायाधीश ने अपनी बात आगे जारी रखते हुए कही, “2015 से आपने 46000 लोगों को विदेशी के रूप में चिन्हित किया लेकिन आपके बंदी केंद्रों में महज 2000 लोग हैं. फिर ये 44,000 लोग कहां गए?”
लाइव लॉ की रिपोर्ट में बताया गया है कि विदेश भेजने के मुद्दे पर भी गोगोई ने मुख्य सचिव को चेताते हुए कहा, “संविधान के अनुसार यह आपका कर्तव्य है कि अदालत अथवा किसी अर्द्ध न्यायिक निकाय द्वारा घोषित लोगों को आप उनके देश वापस भेजें. क्या आपकी सरकार संविधान के अनुसार चल रही है?”
आगे सवाल जवाब करने के बाद कुमार ने यह माना कि राज्य सरकार शेष “विदेशियों” को ढूंढ़ पाने में असमर्थ रही. गोगोई ने कुमार से कहा, “इस बात को आप अपने हलफनामे में एक बार स्वीकार कर लें फिर जैसी जरूरत होगी हम कार्रवाई करेंगे.”
मुख्य सचिव अभी गोगोई को कोई संतोषजनक जवाब देने की कोशिश में हकला रहा था कि तभी प्रशांत भूषण ने जो उस समय हर्ष मंदर के मामले की पैरवी कर रहे थे, अदालत को बताया कि विदेशी घोषित किए गए अधिकांश लोगों ने खुद को भारतीय बताया जिसकी वजह से और किसी को विदेश भेजना कठिन हो गया. इसके अलावा फॉरेनर्स ऐक्ट में बहुत स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि भारत में विदेशियों के प्रवेश, उनकी मौजूदगी और उन्हें बाहर भेजने का काम केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है और यह केंद्र सरकार की ही जिम्मेदारी है. इसके अलावा जिन्हें विदेशी घोषित किया गया है उन्हें लेने का किसी भी देश ने प्रस्ताव नहीं रखा- बांग्ला देश ने लगातार इस बात से इनकार किया है कि उसके नागरिक बड़ी संख्या में भारत जाकर बस गए. नतीजतन जिन्हें विदेशी घोषित किया गया है वे एक तरह से राज्य विहीन हो गए हैं. गोगोई ने वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव बनर्जी को इस मामले में एमिकस क्यूरी नियुक्त किया ताकि “वह जहां तक विदेशियों की शिनाख्त करने और उन्हें बाहर भेजने का मामला है, अदालत की मदद कर सकें.”
गोगोई के आदेशों का पालन करते हुए कुमार ने एक हलफनामा दायर किया जिसमें यह प्रस्ताव था कि जिन बंदियों ने बंदी केंद्रों में पांच वर्ष से अधिक का समय बिता लिया है उन्हें कुछ शर्तों के साथ रिहा कर दिया जाए. इन शर्तों में यह शामिल था कि वे एक-एक लाख के दो स्योरिटी बांड भरें, रिहा होने के बाद किसी ऐसे पते पर रहें जिसकी जांच की जा सके, अपनी पूर्ण बायोमेट्रिक सूचना दें, हफ्ते में एक बार स्थानीय पुलिस थाने में हाजिरी दें और अगर उनके पते में कोई तब्दीली होती है तो पुलिस को इसकी जानकारी दें. लेकिन इसे देखकर गोगोई का गुस्सा भड़क उठा. 25 अप्रैल को अगली सुनवाई में जब कुमार की ओर से सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस प्रस्ताव को पढ़ा तो गोगोई ने पलट कर जवाब दिया, “आप ऐसे किसी व्यक्ति को एक बांड भरने के बाद देश के अंदर बने रहने की अनुमति दे रहे हैं जिसे विदेशी मान लिया गया है? और आप चाहते हैं कि आपके इस गैरकानूनी आदेश के साथ सुप्रीम कोर्ट भी खड़ा हो जाए?”
अदालत में गोगोई के बयानों की छानबीन करते हुए गौतम भाटिया ने अपने एक लेख में दलील दी कि अनिश्चित काल तक किसी को हिरासत में रखना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है. इसके प्रावधान में कहा गया है कि, “कानून द्वारा स्थापित विधि के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन अथवा उसकी व्यक्तिगत आजादी से वंचित नहीं किया जाएगा.” जाहिर सी बात है कि कुछ मौलिक अधिकारों के विपरीत अनुच्छेद 21 सभी व्यक्तियों पर लागू होता है- केवल नागरिकों पर नहीं. भाटिया ने अपने लेख में लिखा, “रिहाई से इनकार करके अदालत अनुच्छेद 21 का जबर्दस्त उल्लंघन जारी रखने को स्वीकृति देता है.” इसी लेख में भाटिया ने आगे लिखा, “और इस बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती जिसमें एक बर्बर विडंबना निहित हैः सरकार तो बंदी केंद्रों से लोगों को रिहा करना चाहती है लेकिन अदालत इस पर रोक लगाना चाहती है. कौन राजनीतिक कार्यकारी है और कौन चौकसी करने वाला प्रहरी? कौन अधिकारों का संरक्षक है और कौन अधिकारों का उल्लंघन करने वाला? अब यह बताना असंभव हो गया है.”
गोगोई ने इस बात की कोई व्याख्या नहीं की कि क्यों बंदियों को रिहा करने का आदेश अवैधानिक होता लेकिन मुख्य सचिव को विभागीय जांच की धमकी दे दी. उन्होंने कुमार से कहा, “आपको अपने पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है. मुख्य सचिव, आप गंभीर संकट में हैं. हम आपके खिलाफ एक नोटिस जारी करने जा रहे हैं कि आपने कानून के विरूद्ध घातक बयान दिए.” उन्होंने राज्य सरकार के रुख को लेकर कुमार को फटकार सुनाई - “भारत सरकार और असम राज्य की सरकार का यह रुख होना चाहिए कि जिन लोगों को पकड़ा गया है उन्हें जितनी जल्दी संभव हो उनके देश वापस भेज दिया जाए. लेकिन मिस्टर चीफ सेक्रेटरी, हमें यह रुख दिखाई नहीं दे रहा है.” हालांकि बनर्जी ने दोनों जजों की बेंच को बताया कि विदेश भेजने के लिए जरूरी है कि उस देश की सरकार सहयोग करे लेकिन गोगोई इसी बात पर अड़े रहे कि सरकार अपना काम करने में विफल रही है. उन्होंने मेहता से कहा, “आप असम राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं क्या आप समझते हैं कि वह इस पद पर रहने के योग्य है?”
कुमार ने जजों की बेंच से क्षमायाचना की और आश्वासन दिया कि वह “कुछ अन्य उपायों” के साथ फिर पेश होंगे और तब सुनवाई समाप्त हुई. असम के बंदी केंद्रों में बंदियों की पीड़ा से संबंधित मामले में गोगोई ने इस बात के लिए मुख्य सचिव को फटकार सुनाई क्योंकि उसने उनकी रिहाई का प्रस्ताव रखा था और इसके साथ ही उन्होंने इस बात के लिए भी सरकार को चेताया कि वह और अधिक लोगों को न तो हिरासत में ले रही है और न बाहर भेज रही है. लिखित आदेश में बस अदालत के इस ऑब्जर्वेशन को दर्ज किया गया कि असम राज्य “एक अतिरिक्त हलफनामा दायर कर सकता है.”
1 मई को कुमार ने एक नया हलफनामा दायर किया जिसमें बंदियों की रिहाई के अपने पिछले प्रस्ताव से वह पूरी तरह पलट गए थे. बंदियों की रिहाई के सवाल पर इस हलफनामे में कहा गया था कि, “राज्य सरकार का रुख वैसा ही है जैसा पहले था अर्थात अगर किसी बंदी को रिहा किया जाता है तो इस बात की पूरी आशंका है कि फिर उसका सुराग न मिले जिससे उसे विदेशी नागरिक घोषित करने की सारी मेहनत ही विफल हो जाएगी.” इस हलफनामे ने उसे विदेश भेजने के राज्य सरकार की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया और कहा कि राज्य सरकार ने सभी जरूरी सूचना केंद्र सरकार को दे दी है. इस संदर्भ में कुमार ने अब यह बताया कि “केंद्र सरकार को भेजे गए 253 प्रस्तावों में से” चार लोगों को उनके देश वापस भेजने का काम पूरा हो चुका है.
यह महसूस करते हुए कि जिस मुद्दे को उठाया गया था उसे संबोधित नहीं किया गया, हर्ष मंदर ने सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री में एक आवेदन दाखिल किया जिसमें इस मामले से गोगोई को अलग करने की मांग की गई थी. रजिस्ट्री ने उनके आवेदन को स्वीकार करने से मना किया और निर्देश दिया कि वह खुद जाकर प्रधान न्यायाधीश के यहां इसे दें. 2 मई को प्रधान न्यायाधीश की अदालत में लंच के बाद हर्ष मंदर के आवेदन पर सुनवाई के लिए तीन जजों की एक बेंच बैठी. हर्ष मंदर ने खुद बहस की.
गोगोई ने बेहद सदाशयता दिखाते हुए कहा- “सामान्य तौर पर हम अदालत में आवेदनों को स्वीकार नहीं करते लेकिन आप एक सामान्य व्यक्ति हैं इसलिए हम इसे स्वीकार कर रहे हैं.” फिर उन्होंने थोड़ा रुकते हुए कहा, “कृपया आप खुले मन से, भयमुक्त होकर जो कहना चाहते हैं, कहें.”
हर्ष मंदर ने एक लिखित बयान पढ़ना शुरू किया- “न्यायपालिका में मेरी जबर्दस्त आस्था है...” उन्होंने अभी इतना ही कहा था कि गोगोई ने बीच में टोकते हुए उनसे कहा, “मिस्टर हर्ष मंदर, लिखा हुआ वक्तव्य मत पढ़िए. आपकी हैसियत वाले व्यक्ति से यह उम्मीद नहीं की जाती है. आप खुल कर अपने मन की बात करिए.”
हर्ष मंदर ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “योर लार्डशिप, न्याय के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान...” लेकिन गोगोई ने फिर उन्हें टोक दिया और कहा, “सम्मान शब्दों से नहीं बल्कि काम से दिखाया जाता है.” इसके बाद हर्ष मंदर जो भी बोलते रहे, बीच में गोगोई का कोड़ा उन पर चलता रहा.
हर्ष मंदर के संबोधन के दौरान लगातार टिप्पणियां करने के बाद गोगोई ने अपनी दोनों बांहें फैला कर थोड़ी उत्तेजित भाषा में पूरे अदालत को संबोधित करते हुए कहा, “अदालत में जब कोई बहस होती है तो जज बहुत सारी बातें हालात का जायजा लेने के मकसद से करता है. किसी स्वस्थ बहस में कही गई बात को आपने विचार की अभिव्यक्ति समझ लिया. दरअसल, विचार तो आदेश में होता है.” इसके बाद गोगोई ने हर्ष मंदर से कहा कि वह 25 अप्रैल की सुनवाई के बाद जारी आदेश पढ़ें जिसमें कहा गया था कि मुख्य सचिव एक अतिरिक्त हलफनामा दायर कर सकते हैं. हर्ष मंदर ने दलील दी कि उनकी चिंता मौखिक टिप्पणियों से हुई और उन्होंने कहा - “मैं अभी भी उस चिंता से ग्रस्त हूं.”
गोगोई ने फिर ऐसा जाहिर किया जैसे वह भी चिंता से ग्रस्त हैं लेकिन इसके साथ ही उनकी चिंता में हर्ष मंदर के इरादों को लेकर इलजाम शामिल था- “अगर हम यह मानें कि आपको असम राज्य ने इस याचिका को दायर करने के लिए तैयार किया है तो? मुख्य सचिव ने अनुशासनात्मक कार्यवाही से बचने के लिए आपको इसके लिए राजी कर लिया हो? इसके जवाब में आप क्या कहेंगे?” मुख्य न्यायाधीश ने इस सवाल पर जोर देते हुए कहा और आवाज में उनके भरपूर आत्मविश्वास था जिससे लगता था कि वह अंतिम तौर पर इसे मान बैठे हैं. हर्ष मंदर ने जवाब दिया, “मैं बस यही कहूंगा कि यह गलत है.” इसके जवाब में गोगोई ने कहा, “आपको पता है कि आपने इस संस्था का कितना नुकसान किया है?”
गोगोई ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा- “किसी मामले को हाथ में लेने की अक्षमता समझने का काम जज का है, वादी का नहीं. आप अपनी हद पार न करें.” एक मौके पर उन्होंने हर्ष मंदर से सवाल किया, “आप कैसे यह राय बना सकते हैं कि मुख्य न्यायाधीश ने किसी मामले में पहले से ही कोई निर्णय ले लिया है? क्या ऐसा सोचना देश के लिए उचित है?” गोगोई ने यह नहीं समझाया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के पूर्वाग्रह को लेकर चिंतित होना कैसे देश के लिए अनुचित हो जाता है.
यह सुनते ही सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता भी इस संवाद में शामिल हो गए और उन्होंने उस आवेदन पर हैरानी व्यक्त की जिसमें इस मामले की सुनवाई से गोगोई को अलग रखने की मांग की गई थी और कहा कि यह तो “घोर निंदनीय और तिरस्कारपूर्ण” है और हर्ष मंदर को “ऐसा नहीं कहना चाहिए था.” हर्ष मंदर के आवेदन के कुछ अंश को पढ़ने के बाद उन्होंने कहा, “यह कौन है जो आकर भाषण दे रहा है कि जजों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? आप जनसेवक नागरिक बनकर खड़े हो जाएं और किसी पर भी जहर उगलने लगें?”
जिस समय तुषार मेहता अपने गुस्से का इजहार कर रहे थे गोगोई आराम के साथ कुर्सी से पीठ टिका कर बैठ गए. फिर मेहता ने जैसे ही कहा कि इस आवेदन का वह विरोध करते हैं, गोगोई ने बीच में हस्तक्षेप किया- “किस बात का विरोध कर रहे हैं? आप क्या समझते हैं कि हम सुनवाई से अलग हो जाएंगे? गलती से भी मत सोचिएगा कि हम इससे अलग होंगे. इससे अलग होना इस संस्था का विध्वंस करना है.” मेहता ने तेजी के साथ सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, “बिलकुल, बिलकुल.”
गोगोई ने अपनी बात जारी रखी, “हम केवल यह विचार कर रहे हैं कि आगे हम और क्या करेंगे. हम किसी को इस बात की इजाजत नहीं देंगे कि वह इस संस्था पर धौंस जमाए.”
मेहता ने जवाब में कहा, “योर लार्डशिप, मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि इससे ज्यादा कुछ और किया जाए.”
अन्य जजों के साथ संक्षिप्त बातचीत के बाद गोगोई ने उस आवेदन को खारिज कर दिया जिसमें सुनवाई से उन्हें अलग रखने की मांग की गई थी और एक बार फिर अपने उस कथन को दोहराया कि किसी मामले की सुनवाई करने की अक्षमता या अयोग्यता जज द्वारा की जानी चाहिए न कि वादी द्वारा. इसके बाद गोगोई ने मामले के वादी की जगह से हर्ष मंदर का नाम काटकर वहां “सुप्रीम कोर्ट लीगल सर्विसेज कमेटी” रखा और इस मामले में प्रशांत भूषण का नाम एमिकस क्यूरी के रूप में जोड़ा. प्रशांत भूषण ने जब कहा कि एमिकस क्यूरी के रूप में बनर्जी पहले ही काम कर रहे हैं तो गोगोई ने जवाब दिया- उन्हें थोड़े व्यापक मुद्दे के साथ संबद्ध किया गया है और वह मुद्दा विदेशी नागरिकों को उनके देश भेजने का है. आपको बंदी केंद्रों वाले सीमित मुद्दे के लिए कहा जा रहा है.”
सुनवाई के बाद अदालत से बाहर मैंने हर्ष मंदर से भेंट की. वह पूरी तरह शांत और अविचलित दिखाई दे रहे थे. मैंने उनसे जानना चाहा कि क्या उन्होंने सोचा था कि ऐसा आदेश मिलेगा. उन्होंने जवाब दिया, “मुझे नहीं पता था कि अदालत की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी. यह और भी नकारात्मक हो सकती थी. मेरे साथ कितना भी बुरा क्यों न होता वह उन लोगों के साथ, जिनका मैं प्रतिनिधित्व कर रहा हूं, जितना बुरा हो रहा है उसका तो एक अंश भी नहीं होता.”
हर्ष मंदर के इस मामले को “सुप्रीम कोर्ट लीगल सर्विसेज कमेटी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया” शीर्षक के अंतर्गत देखा जा सकता है. यह भी एक विडंबना है कि 10 मई को गोगोई ने जो आदेश जारी किया उसमें उन सुझावों में से अधिकांश को उन्होंने स्वीकार कर लिया जिसे बंदियों की रिहाई के सिलसिले में मुख्य सचिव ने प्रस्तावित किया था. उस समय उन्होंने जो आक्रामक और अड़ियल रवैया दिखाया था कि कुमार सुप्रीम कोर्ट से “गैरकानूनी आदेश” पारित करने को कह रहे हैं, वह लगता है अब चिंता का विषय नहीं रह गया था. मैंने जब एनआरसी के मामले पर कुमार से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया.
10 मई के आदेश में राज्य सरकार को यह भी निर्देश दिया गया था कि वह गौहाटी हाईकोर्ट से परामर्श करे ताकि “एक विस्तृत योजना तैयार हो जिसका सरोकार सदस्यों, कर्मचारियों आदि की नियुक्ति सहित विदेशी ट्रिब्यूनलों के गठन से हो.” इस प्रकार बंदियों की रिहाई के सिलसिले में व्यापक शर्तें निर्धारित करने के साथ ही गोगोई ने अपने उसी आदेश में कुछ और बंदी केंद्रों की स्थापना का संस्थानिक ढांचा तैयार करने का भी प्रयास किया.
इस आदेश की रोशनी में मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें 200 अतिरिक्त फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के लिए सदस्यों के चयन की बात की और 30 मई को गोगोई के नेतृत्व में एक अवकाश पीठ (वेकेशन बेंच) ने आदेश दिया कि 200 और ट्रिब्यूनलों की स्थापना की जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि वे 1 सितंबर तक काम करने की स्थिति में हो जाएं.
इसी दिन अमित शाह के नेतृत्व में गृह मंत्रालय ने फॉरेनर्स (ट्रिब्यूनल्स) आर्डर 1964 में संशोधन किया. उस समय तक विदेशियों के लिए ट्रिब्यूनल की परंपरा असम तक सीमित थी लेकिन इस नए संशोधन ने राज्य सरकारों, केंद्र शासित प्रदेशों और जिला मजिस्ट्रेटों को इस बात की अनुमति दी कि वे देश के किसी भी हिस्से में इस तरह के ट्रिब्यूनल बनाने के लिए अधिकृत हैं. इन नए नियमों ने हर्ष मंदर को एक और मौका दिया और उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक लेख में चेतावनी दी कि फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के अधिकार क्षेत्र का विस्तार “एक ऐसे उथल-पुथल को जन्म देगा जो विभाजन के दिनों की याद दिला दे.”
एनआरसी से संबद्ध मामलों के प्रति गोगोई के दृष्टिकोण ने असम के विभिन्न समुदायों के बीच उन्हें काफी लोकप्रिय बना दिया- सिवाय असम के अंधराष्ट्रवादियों के जो यह मानते थे कि एनआरसी की प्रक्रिया में जिनकी पहचान की गई है उनके अलावा और भी बहुत सारे अवैध निवासी लाखों की संख्या में असम के अंदर हैं; और हिंदू राष्ट्रवादियों के जिन्हें यह उम्मीद थी कि और भी ज्यादा संख्या में मुसलमानों को यहां से निकाला जा सकेगा. आमसू के कानूनी सलाहकार हुसैन के अनुसार गोगोई ने इस मामले में अद्भुत उत्साह दिखाया क्योंकि वह असम में विकास के प्रति उत्सुक थे और उन्हें पता था कि एनआरसी को अपडेट तभी किया जा सकता है जब यह सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो. हुसैन ने कहा कि “लोगों को परेशान होना पड़ा, लगातार सुनवाई में जाना पड़ा लेकिन हम यह सब बर्दाश्त करने के लिए तैयार थे क्योंकि हम अंतिम आंकड़ा देखना चाहते थे.”
अन्य अनेक लोगों ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए. इनफिल्ट्रेशन के लेखक अब्दुल मन्नान ने मुझसे कहा- “मेरे लिहाज से एनआरसी बहुत अच्छा काम था. यहां भारी संख्या में अल्पसंख्यकों को मुसीबतें झेलनी पड़ती थीं. उन्हें शारीरिक, मानसिक और आर्थिक उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता था. लेकिन आखिरकार राज्य के पास अब एक दस्तावेज है. अब अगर कोई मुझसे यह कहेगा कि वोटर लिस्ट में मेरा नाम होना गलत है तो उसे साबित करना पड़ेगा कि क्यों गलत है.”
उसने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “यह एक बहुत ही बड़ा काम था और इसमें बहुत सारी खामियां थीं लेकिन यह वैधानिक तौर पर किया गया और यह इसीलिए संभव हो सका क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में संपन्न हुआ.” मन्नान का मानना है कि गोगोई द्वारा जितना दबाव डाला गया वह जरूरी था- “अगर सुप्रीम कोर्ट का दबाव नहीं होता तो यह पूरा ही नहीं हो पाता.” इस काम में जबर्दस्त राजनीतिक दबाव पड़ते और अगर अदालत का दखल नहीं होता तो एनआरसी के अधिकारी स्वतंत्र रूप से काम ही नहीं कर पाते.” मन्नान ने दलील दी कि इस अपडेट को पूरा होने के लिए गोगोई का होना जरूरी था. उन्होंने कहा कि “खुशकिस्मती से वह अदालत में थे और ठीक ही सोचा कि अगर एनआरसी तैयार हो गया तो यह समस्या हमेशा के लिए सुलझा ली जाएगी.”
अब्दुल बतीन खांडेकर उन कुछ लोगों में थे जो इसके आलोचक थे. खांडेकर ने कहा कि गोगोई असमिया उग्र राष्ट्रवाद से प्रेरित थे जो यहां के बहुसंख्यक हिंदुओं में देखी जाती है और इसकी झलक उनके आदेशों में भी दिखाई देती है. मिसाल के तौर पर दिसंबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने नियम बनाया कि गांव पंचायतों द्वारा जारी किए गए प्रमाण पत्र का इस्तेमाल किसी व्यक्ति के उसके पूर्वजों के साथ संबंध को स्थापित कर देगा - उस व्यक्ति के भी जो मार्च 1971 की ‘कट-आफ डेट’ से पहले से है. इन प्रमाण पत्रों का मक़सद विवाहित औरतों की आवासीय स्थिति भी स्थापित करने के लिए थी जो शादी के बाद अपने मूल घरों से चली जाती हैं. लेकिन गोगोई का यह आदेश थोड़ा इसलिए गड़बड़ साबित हो रहा है क्योंकि इसमें एक अतिरिक्त मांग की गई है- यह कि प्रमाण पत्र जारी करने वाले अधिकारी को भी उसकी प्रामाणिकता साबित करने के लिए खुद पेश होना पड़ेगा.
खांडेकर का कहना है कि इसके नतीजे के तौर पर लगभग तीन लाख विवाहित महिलाओं को उन व्यक्तियों के साथ, जिन्होंने प्रमाण पत्र जारी किए, लंबी दूरी तय कर ट्रिब्यूनलों तक जाना पड़ा ताकि वे अपने पूर्वजों से संबंध को साबित कर सकें. खांडेकर का कहना था कि “अगर उस व्यक्ति को खुद गवाही देने के लिए आना पड़ रहा है तो उसके सर्टिफिकेट जारी करने का क्या मतलब हुआ. इसके अलावा अगर लोगों के पास कुछ अन्य दस्तावेज हैं तो क्यों पंचायत के सर्टिफिकेट पर भरोसा किया जा रहा है?”
2003 के नियमों में एनआरसी की निर्धारित आवेदन प्रक्रिया के अनुसार ऐसे व्यक्तियों को जो “मूल रूप से असम राज्य के निवासी हैं और उनके बच्चों तथा वंशजों को” अपना नाम शामिल कराने के लिए समूची प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत नहीं है बशर्ते “ऐसे व्यक्ति की नागरिकता पंजीकरण करने वाले अधिकारी की दृष्टि में संदेह से परे और उसे संतुष्टि देने वाली हो.” इस प्रकार मूल निवासियों को 1971 से पहले के वंशज होने का प्रमाण देने की जरूरत नहीं है और उनका नाम स्थानीय अधिकारी के विवेक पर शामिल किया जा सकता है. इन नियमों में मूल निवासी को परिभाषित नहीं किया गया है अथवा यह नहीं बताया गया है कि कैसे किसी एनआरसी अधिकारी से अपेक्षा की जाती है कि वह उसकी पहचान कर लेगा.
मूल निवासियों की पहचान के लिए कोई दिशा निर्देश हो इसकी मांग करते हुए बहुत सारी याचिकाओं के बारे में विचार के बाद गोगोई का जो फैसला आया वह उतना ही अस्पष्ट था जितना अस्पष्ट खुद प्रावधान है. इस प्रावधान को उद्धृत करने के बाद उन्होंने अपने फैसले में कहा – “जहां तक असम राज्य के मूल निवासियों को एनआरसी में शामिल करने के बारे में उनके दावों को हल करने की बात है, धारा 3 (3) कम कठोर और कठिन प्रक्रिया पर विचार करता है.“ उन्होंने आगे कहा, “जो मूलतः इस राज्य के निवासी नहीं हैं, उनके विपरीत असम राज्य के मूल निवासियों को एनआरसी में शामिल किए जाने की कोई पात्रता तय नहीं है-उन्हें बस अपनी नागरिकता का प्रमाण दिखाना होगा.“ बेशक यही बात एनआरसी की समूची प्रक्रिया के संदर्भ में कही जा सकती है कि शामिल करने का काम नागरिकता के प्रमाण पर आधारित है लेकिन गोगोई बहुत सुविधाजनक ढंग से इस पर विचार करने से बच गए हैं कि मूल निवासियों की पहचान का वह कौन सा तरीका होगा जो “कम कड़ा और कठिन” नहीं होगा.
गोगोई ने अपने आदेश में लिखा था कि “वे नागरिक जो मूलतः असम राज्य के वासी/निवासी हैं और वे जो इसमें शामिल करने योग्य नहीं हैं, इस तथ्य की रोशनी में हमें ऐसा कोई कारण नहीं दिखाई देता कि ‘असम राज्य के मूल निवासी’ शब्दावली का अर्थ बताते हुए हम कोई दिशा अथवा स्पष्टीकरण जारी करें.” खांडेकर के अनुसार एनआरसी की प्रक्रिया के जरिए लगभग एक करोड़ तीस लाख लोगों को मूल निवासी के रूप में एनआरसी में शामिल किया गया. “असम में अहोम समुदाय का इतिहास का पता करें तो यह सन् 1228 से शुरू होता है जबकि इसी राज्य में मुस्लिम समुदाय का इतिहास 1206 से है. लेकिन किसी भी मुसलमान को मूल निवासी मानने की सुविधा नहीं दी गई.”
खांडेकर ने मुझे बताया कि एक अन्य आदेश में गोगोई ने नागरिकता कानून के उन प्रावधानों का उल्लंघन किया जिसमें कहा गया है कि 1 जुलाई, 1987 के पहले पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति भारतीय नागरिक है. सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल था कि क्या असम में 1987 से पूर्व कोई व्यक्ति पैदा हुआ हो लेकिन उसके पूर्वज नागरिकता के अयोग्य हों तो क्या उन्हें भी नागरिक बनाया जा सकता है. अदालत द्वारा स्वीकृत पद्धति में अनिवार्य आदेश है कि कोई भी व्यक्ति जो एनआरसी में अपना नाम शामिल करने का दावा करता है वह अगर ऐसे पूर्वज की संतान है जो संदिग्ध वोटर या घोषित विदेशी है या जिसका मामला ट्रिब्यूनल के समक्ष विचाराधीन है उसे अवैध प्रवासी माना जाएगा.
23 जुलाई को कोर्ट ने कामकाज की मानक पद्धति और नागरिकता कानून की धारा 3 के बीच विवाद से संबंधित अनेक आपत्तियों को संज्ञान में लिया. गोगोई के नेतृत्व वाली बेंच ने हजेला को निर्देश दिया कि सभी संबद्ध पक्षों को “सार्वजनिक नोटिस जारी की जाए” और उनसे कहा जाए कि वे अदालत में आएं और अपनी बात रखें. लेकिन अगली सुनवाई में अर्थात 8 अगस्त को जब वरिष्ठ अधिवक्ता चंदर उदय सिंह “सिटिजंस फार जस्टिस ऐंड पीस” नामक एनजीओ का प्रतिनिधित्व करते हुए अदालत को संबोधित करने के लिए खड़े हुए तो गोगोई ने फौरन उनको खारिज कर दिया.
गोगोई ने कहा, “आपने पक्षकार बनने के लिए आवेदन दिया है. आप मुझसे कोई निर्देश नहीं चाहते हैं क्योंकि आपका आवेदन केवल पक्षकार बनने की मांग कर रहा है. ऐसे में हम आपको क्यों सुनें?”
सिंह ने जवाब दिया- “योर लार्डशिप ने पिछले आदेश में सभी संबद्ध पक्षों को आमंत्रित किया था.”
लेकिन गोगोई इससे संतुष्ट नहीं हुए. उनका हाव-भाव बिलकुल वैसा ही था जैसा उस दिन देखा गया था जब उन्होंने हर्ष मंदर को उस समय चुनौती दी थी जब सुनवाई से उन्हें अलग होने की बात कही गई थी. गोगोई ने सवाल किया - “आप क्या चाहते हैं कि हम आपको आमंत्रित करें और उस आदेश का लाभ आपको मुहैया कराएं जिसके लिए आपने मांग भी नहीं की है? आपकी मानवीय समस्याएं हल कर दी जाएंगी बशर्ते आप इसके लिए अपील करें. अपने को दुरुस्त रखें (क्लीन योर ओन हैंड्स) . भला हम कैसे इसमें हस्तक्षेप कर सकते हैं?” ऐसा लगा जैसे तुषार मेहता को भी कोई संकेत मिल गया हो और उन्होंने हर्ष मंदर वाले मामले की ही तरह गोगोई के सुर में सुर मिलाते हुए कहा, “ये लोग असम के मामले में यहां कैसे शामिल हो सकते हैं. यह तो मुंबई आधारित एनजीओ है. इनका इस मसले से कुछ भी लेना देना नहीं है.” चंदर उदय सिंह को अपनी बात कहने की इजाजत नहीं दी गई.
सिंह के अनुसार अदालत ने 8 अगस्त की सुनवाई के दौरान उस दलील को स्वीकार कर लिया था कि कानून की धारा 3 की अवहेलना नहीं की जा सकती. उन्होंने कहा कि, “जस्टिस नरीमन ने साफतौर पर हजेला से कहा था कि आप 1987 से पहले की कोई कट-ऑफ डेट नहीं तय कर सकते क्योंकि यह धारा इसी तारीख को तय कर चुकी है. गोगोई ने भी इस पर अपनी सहमति दी थी. लेकिन वह इससे मुकर गए और उन्होंने जो आदेश लिखा उसमें इसे पूरी तरह गायब कर दिया.” इस आदेश ने नागरिकता कानून के प्रावधानों को छोड़ने को न्यायोचित ठहराने की कोशिश कीः “एनआरसी की सारी कवायद उपरोक्त आधार पर की गई और अब कुछ अन्य मापदंडों के आधार पर नई कवायद शुरू करने का आदेश नहीं दिया जा सकता.”
जुलाई के अंत तक एनआरसी को मिल रहे समर्थन में असम के प्रभुत्वकारी समुदायों के बीच समर्थन कम होने लगा क्योंकि कुछ अनाधिकारिक सूत्रों से यह खबर फैली कि जिन मुसलमानों को इस सूची से अलग किया गया है उनकी संख्या हिंदुओं के मुकाबले कम है. 1अगस्त को असम की बीजेपी सरकार ने राज्य विधानसभा में अलग-अलग जेलों के गुप्त आंकड़ों को प्रकट किया. इन आंकड़ों से पता चला कि हिंदू बहुल इलाकों में मुस्लिम बहुल सीमावर्ती इलाकों के मुकाबले सूची से बाहर किए गए लोगों की संख्या ज्यादा है. अब सरकार ने अंतिम एनआरसी तैयार करने के लिए फिर से प्रमाणीकरण की बात कही और राज्य के अधिकारियों पर आरोप लगाया कि उन लोगों ने समूची प्रक्रिया के साथ कुछ गड़बड़ी की है. अचानक हजेला, जिसे एक साल पहले एक हीरो के रूप में सम्मानित किया गया था जब लगभग 40 लाख लोगों के नाम मसौदा सूची से निकाले गए थे, अब आरोपों से घिर गया था और उसके बारे में कहा गया कि उसने कुछ हेराफेरी की है. 31 अगस्त को अंतिम तौर पर एनआरसी का प्रकाशन हुआ और पता चला कि निष्कासित लोगों की सूची में 19 लाख नाम हैं. इन नामों में तकरीबन चार लाख नाम ही मुसलमानों के थे.
इसके बाद से बीजेपी और आसू दोनों ने हल्ला मचाना शुरू किया कि एनआरसी के साथ कुछ गड़बड़ हुआ है और बीजेपी ने तो नए सिरे से अपडेट तैयार करने की मांग भी कर दी. इस दौरान मैंने आमसू के जिन नेताओं से बातचीत की उन्होंने मुस्लिम समुदाय के लोगों के नामों की संख्या कम होने का कारण बताया. उनका कहना था कि पहली बात तो यह है कि राज्य में गैरकानूनी मुस्लिमों के प्रवास की संख्या बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बताई जाती रही है. दूसरे अपने अतीत के अनुभवों के आधार पर मुसलमानों ने सारे दस्तावेज तैयार रखे और नागरिक समाज के समूहों ने जमीनी स्तर पर इनके बीच काम किया ताकि वे अपने कागजात ठीक कर लें.
मुख्य सलाहकार रहमान और कानूनी सलाहकार हुसैन दोनों ने बताया कि आमसू तथा अन्य समूहों ने 2010 में ही, जब एनआरसी के तैयार करने की खबर फैली और प्रायोगिक परियोजनाएं शुरू की जाने लगीं, अपने समुदाय के लोगों के बीच जागरूकता पैदा की. मन्नान ने बताया कि राज्य में अपने पुराने इतिहास को देखते हुए मुस्लिम समुदाय पूरी तरह तैयार था. उसने मुझसे बताया कि “लोग यह कह रहे हैं कि मुसलमानों ने फर्जी दस्तावेज तैयार कराए जो कि बिलकुल गलत है. दरअसल उन्हें आजादी के बाद से ही शिकार बनाया जा रहा है.” इसके बाद मन्नान ने भेदभाव और राज्य से निर्वासन का पूरा इतिहास बताया. उसने यह भी कहा कि मुसलमानों ने असम आकर बसना बंद कर दिया है. “जहां इतने खतरनाक कानून हों कोई क्यों आकर बसना चाहेगा? एनआरसी ने इसे साबित भी कर दिया है.”
एनआरसी के प्रकाशन के बाद इस परियोजना की बहुत धीमी प्रगति रही. कानूनी प्रावधानों के अनुसार अगर किसी को लगता है कि उन्हें गलत ढंग से निकाला गया है या शामिल किया गया है तो कोई भी व्यक्ति 120 दिनों के अंदर फॉरेनर ट्रिब्यूनल के सामने अपील कर सकता है. इस 120 दिन की गिनती रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा आधिकारिक तौर पर एनआरसी के प्रकाशन के बाद से शुरू होगी. लेकिन अंतिम सूची प्रकाशित होने के बावजूद राज्य कोआर्डिनेटर के कार्यालय से वह नोटिस नहीं जारी हुई जिसके आधार पर सूची से निष्कासित व्यक्ति अपील कर सकता था. इस दौरान अंतिम सूची प्रकाशित होने के बाद एनआरसी की जांच से संबंधित गोगोई की अध्यक्षता में जो एकमात्र सुनवाई हुई उसमें उन्होंने आदेश दिया कि हजेला का तबादला वापस मध्य प्रदेश कर दिया जाए जहां के वह कैडर थे.
9 नवंबर को असम सिविल सर्विस के 1986 बैच के अधिकारी हितेश देव सरमा को राज्य के नए कोआर्डिनेटर के रूप में नियुक्त किया गया. अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो सका था कि सूची में से निकाले जाने वालों को कब नोटिस जारी की जाएगी ताकि वे अपील की प्रक्रिया शुरू कर सकें. आसू ने हितेश देव सरमा की नियुक्ति को चुनौती दी और इसके लिए सोशल मीडिया में उनकी अतीत की टिप्पणियों को पेश किया जिनसे असम के अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति उनके पूर्वाग्रह का पता चलता है. रहमान ने मुझे बताया कि बहुत उम्मीद है कि फरवरी के पहले सप्ताह में अदालत आसू की याचिका को सूचीबद्ध करे. सुप्रीम कोर्ट द्वारा एनआरसी प्रक्रिया की मॉनीटरिंग शुरू किए जाने के बाद छह वर्ष से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद ऐसा लगता है कि परियोजना अनिश्चय की स्थिति में पड़ी हुई है.
अब इन कार्यवाहियों में गोगोई शामिल नहीं थे लेकिन उन्होंने ऐसा कोई अवसर नहीं छोड़ा जब वे परियोजना पर अपनी अंतिम राय न दें. 3 नवंबर को दिल्ली में एक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में गोगोई ने एनआरसी के सिलसिले में हो रहे कामों का बचाव किया. उन्होंने उन्हीं वक्तव्यों को दोहराया जिन्हें मैं अनेक बार असम में सुन चुका था - “असम की जनता ने एनआरसी की तैयारी के मकसद से समय-समय पर घोषित की गई कट-ऑफ तारीखों को स्वीकार करने में एक सदाशयता और खुले दिल का परिचय दिया. लेकिन अभी भी वे उस क्षण से काफी दूर हैं और इसका इंतजार उन्हें तब से है जब बाहर से लाकर जबरन बसाए गए लोगों की वजह से उन्हें या उनके पूर्वजों को प्रताड़ित होना पड़ा था.”
गोगोई ने उन लोगों को भी खरी-खोटी सुनाई जो उनकी आलोचना करते रहे हैं. उन्होंने कहा, “हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे राष्ट्रीय विमर्श ने कुछ आरामतलब टिप्पणीकारों को उभरते हुए देखा है जो न केवल जमीनी यथार्थ से काफी दूर हैं बल्कि अत्यंत विकृत तस्वीर पेश करना चाहते हैं. ये लोग आधारहीन और गलत इरादों से संचालित होकर जनतांत्रिक तत्वों तथा संस्थाओं के खिलाफ विषवमन करते हैं, उन्हें चोट पहुंचाना चाहते हैं और किसी उचित प्रक्रिया को रोकना चाहते हैं. ऐसे टिप्पणीकारों और नापाक इरादों का अस्तित्व उन्हीं स्थितियों में बना रह पाता है जब तथ्यों को नागरिकों के व्यापक समूह से दूर रखा जाए और अफवाहों का बाजार गर्म हो जाए.” पूर्व मुख्य न्यायाधीश अब स्वतंत्र पत्राकारों के खिलाफ शोर मचाने लगे थे.
(चार)
“आप क्रोनोलॉजी समझ लीजिए” - अमित शाह का यह मशहूर वाक्य पश्चिम बंगाल के एक संवाददाता सम्मेलन का है. यह उस वीडियो में मिल जाएगा जो अप्रैल 2019 में बीजेपी के यूट्यूब पेज पर है. इसमें अमित शाह ने कहा था - “सबसे पहले नागरिकता (संशोधन) बिल आएगा, सभी शरणार्थियों को नागरिकता दी जाएगी और इसके बाद एनआरसी तैयार किया जाएगा. शरणार्थियों को बिलकुल चिंता करने की जरूरत नहीं है और घुसपैठियों को सचमुच चिंता करने की जरूरत है. आप क्रोनोलाजी समझ लीजिए. एनआरसी केवल बंगाल के लिए नहीं होगा, यह पूरे राष्ट्र के लिए होगा. घुसपैठियों का मामला समूचे राष्ट्र का मामला है.”
दिसंबर 2019 में संसद के दोनों सदनों ने नागरिकता (संशोधन) विधेयक पारित कर उसे कानून का रूप दे दिया. नागरिकता (संशोधन) अधिनियम ने भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के लिए धर्म आधारित मानदंडों की शुरुआत की. इसमें कहा गया कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई और पारसी समुदाय के जिन लोगों ने भी 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश किया है उन्हें अवैध आव्रजक नहीं समझा जाएगा. इन लोगों को भारत की सहज नागरिकता प्राप्त करने के लिए जरूरी नहीं कि वे 11 वर्ष से यहां रह रहे हों- अब इस अवधि को कम करके पांच वर्ष कर दिया गया है. इसके अनुसार इन देशों से आए केवल मुस्लिम समुदाय के लोगों को ही अवैध प्रवासी माना जाएगा और इस संशोधन के अनुसार उन्हें किसी तरह की छूट नहीं मिलेगी.
इस कानून के बनते ही चारों तरफ विरोध होने लगा और जब भारतीय राज्य ने विरोध प्रकट करने वालों के खिलाफ बर्बर हिंसा का इस्तेमाल किया तो सीएए के खिलाफ पूरे देश में एक आंदोलन विकसित हो गया. विरोध करने वालों ने इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी और कहा कि कानून के अनुसार धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता. इसके साथ ही उन लोगों ने सीएए और पूरे देश में लागू किए जाने वाले एनआरसी के मिले-जुले प्रभाव के खतरे के प्रति लोगों को आगाह किया. विरोध की तीव्रता को देखते हुए बीजेपी ने सीएए को एनआरसी से अलग दिखाने की कोशिश की और यह दावा किया कि सीएए तो महज उत्पीड़ित शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए है. इसने देशव्यापी एनआरसी के मुद्दे पर बातचीत करने से परहेज किया और यह दलील दी कि अभी तक इसकी आधिकारिक तौर पर कोई घोषणा नहीं हुई है. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2003 को पारित कर देशभर में एनआरसी लागू करने का एक वैधानिक ढांचा पहले ही तैयार किया जा चुका है.
1999 में कारगिल संघर्ष के बाद वाजपेयी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने एक समिति का गठन किया जिसे आमतौर पर कारगिल रिव्यू कमेटी के नाम से जानते हैं. इसका मकसद उन घटनाओं और परिस्थितियों की छानबीन करना था जिनकी वजह से यह संघर्ष शुरू हुआ. समिति ने दिसंबर 1999 में अपनी रिपोर्ट दे दी जिसके बाद सरकार ने मंत्रियों के एक समूह (जीओएम) का गठन किया जिसे रिपोर्ट का मूल्यांकन करना था और इसको लागू करने के लिए प्रस्ताव तैयार करने थे. फरवरी 2001 में जीओएम ने अपनी एक रिपोर्ट तैयार की जिसका शीर्षक था “राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली में सुधार”. अन्य बातों के अलावा इस रिपोर्ट में कहा गया था- “गैर कानूनी प्रवास ने काफी गंभीर रूप ले लिया है. जरूरी है कि भारत में रहने वाले नागरिकों और गैर-नागरिकों के पंजीकरण को अनिवार्य कर दिया जाए. इससे नेशनल रजिस्टर ऑफर सिटिजन यानी एनआरसी का तैयार करना सहज हो जाएगा. सभी नागरिकों को मल्टी परपज नेशनल आइडेंटिटी कार्ड (एमएनआइसी) दिया जाना चाहिए और गैर नागरिकों को अलग रंग और डिजाइन का पहचान पत्र जारी किया जाना चाहिए.”
2003 में एनडीए सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन किया और इसमें “अवैध प्रवासी” की अवधारणा को जोड़ दिया जिसे परिभाषित करते हुए बताया कि ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने बगैर किसी वैध यात्रा दस्तावेजों के देश में प्रवेश किया हो या जो देश के अंदर उस अवधि को पार करने के बाद भी रह रहा हो जिस अवधि तक रहने की उसे अनुमति दी गई थी. ऐसा करते समय सरकार ने भारतीय नागरिकता को संचालित करने वाले कानून में अवैध प्रवासियों को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया. मिसाल के तौर पर मूल कानून में कहा गया था कि अगर कोई व्यक्ति 1986 के बाद पैदा हुआ है और उसके जन्म के समय उसके मां-बाप में से कोई भी भारत का नागरिक है तो उसे स्वतः ही भारतीय नागरिक मान लिया जाएगा. 2003 के संशोधन के बाद कोई भी व्यक्ति जो 2004 के बाद भारत में पैदा हुआ है उसे तभी नागरिक माना जाएगा अगर उसके मां-बाप में से कोई एक भारतीय नागरिक हो और दूसरा अवैध प्रवासी न हो. इस संशोधन ने देशीकरण (नेचुरलाइजेशन) के जरिए भारतीय नागरिकता प्राप्त करने का अवैध प्रवासियों का अवसर भी छीन लिया.
रिपोर्ट की सिफारिशों के अनुरूप सरकार ने नागरिकता कानून में अनुच्छेद 14 ए भी जोड़ा जो केंद्र सरकार को निर्देश देता है कि वह “अनिवार्य रूप से भारत के हर नागरिक का पंजीकरण करे और उसे एक राष्ट्रीय पहचान पत्र दे.” इसके साथ ही सरकार ने 2003 के नागरिकता कानून की अधिसूचना जारी की जिसने नेशनल पापुलेशन रजिस्टर और अखिल भारत स्तर पर एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ इंडियन सिटिजंस (एनआरआइसी) के लिए एक वैधानिक ढांचा तैयार किया. एनआरआइसी को परिभाषित करते हुए इन नियमों में बताया गया कि यह ऐसा “रजिस्टर होगा जिसमें भारत में और भारत से बाहर रहने वाले भारतीय नागरिकों का ब्यौरा दर्ज किया जाएगा” और एनपीआर को परिभाषित करते हुए कहा गया कि यह ऐसा रजिस्टर होगा जो “आमतौर पर भारत में रहने वालों का ब्यौरा तैयार करेगा.” इन नियमों के तहत स्थानीय और जिला रजिस्ट्रार के स्तर पर इस रजिस्टर को तैयार करने के लिए नौकरशाही के एक तंत्र की स्थापना की भी बात कही गई है.
नियमों के अनुरूप तैयार होने वाले ढांचे में स्थानीय सरकारी अधिकारी घर-घर गणना करके एनपीआर तैयार करेंगे. पहली बार 2010 में एनपीआर तैयार किया गया था और बीजेपी सरकार ने प्रस्तावित किया था कि इसे 2020 में अपडेट किया जाएगा जिसमें आधार कार्ड के ब्यौरों, मोबाइल नंबरों, पासपोर्ट नंबर, ड्राइविंग लाइसेंस नंबर और मां-बाप के जन्म स्थान जैसी अतिरिक्त सूचनाएं भी शामिल की जाएंगी. इन अतिरिक्त विवरणों और खासतौर पर मां-बाप के जन्म स्थान को शामिल किए जाने की बात ने यह संकेत दिया कि इस आंकड़े का इस्तेमाल एनआरआइसी में लोगों को शामिल करने के लिए किया जा सकता है. 2003 के नियमों में यह भी कहा गया था कि नागरिकों के प्रमाणीकरण के स्थानीय रजिस्ट्रार एनपीआर की जांच का काम करेंगे ताकि वे अलग-अलग व्यक्तियों को एनआरआइसी में शामिल करने के लिए प्रमाणित कर सकें. प्रमाणीकरण की इस प्रक्रिया के दौरान स्थानीय रजिस्ट्रार को इस बात का अधिकार होगा कि वह किसी भी व्यक्ति को “संदिग्ध नागरिकता” वाली श्रेणी में डाल दे.
2020 के एनपीआर के लिए बनी सरकारी नियमावली में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति की नागरिकता स्वघोषित है और गणना करने वाले किसी व्यक्ति के नागरिक होने के दावे को चुनौती नहीं दे सकते. लेकिन, 2003 के नियमों में इस तरह का कोई दिशा निर्देश नहीं है जिससे स्थानीय रजिस्ट्रार किसी व्यक्ति की नागरिकता को संदिग्ध मान सके. अगर किसी व्यक्ति या परिवार की नागरिकता को संदिग्ध माना गया हो तो उसे अपनी बात कहने का अवसर मिलना चाहिए और उसके बाद ही “नेशनल रजिस्टर ऑफ इंडियन सिटिजंस में उसका नाम शामिल किया जाए या न किया जाए इस बारे में अंतिम फैसला लिया जा सकता है.” इसका अर्थ यह हुआ कि एनपीआर ही एनआरआइसी का आधार दस्तावेज है.
2010 के संस्करण से तुलना करें तो 2020 के एनपीआर में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलते हैं. 2020 के एनपीआर में मां-बाप के जन्म स्थान को शामिल करना एक मुख्य बात है क्योंकि इसका संबंध 2003 के सीएए में परिभाषित नागरिकता के मानदंड से है. दूसरा परिवर्तन यह है कि अब गणना करने वालों के लिए जरूरी नहीं कि वे उत्तरदाताओं को कोई पावती परची दें. 2010 के एनपीआर की नियमावली में स्पष्ट तौर पर गणना करने वालों को निर्देश दिया गया था कि घर-घर में गणना करने के बाद वे उन लोगों को एक पावती परची देंगे. इसमें लोगों से यह भी कहा गया था कि वे इस परची को लेकर सरकार के स्थानीय कार्यालय जाएंगे जहां उनके फोटोग्राफ और उंगलियों के निशान लिए जाएंगे. लेकिन 2015 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के कुछ ही समय बाद आधार के विवरणों को एनपीआर में शामिल कर लिया गया. संभव है कि 2020 की एनपीआर प्रक्रिया से पावती परचियों को अलग करने की बात इसलिए कही गई हो क्योंकि 2015 में जो अपडेट किया गया उसमें पहले से ही बॉयोमेट्रिक सूचनाएं शामिल कर ली गई हैं.
लेकिन पावती परचियों से एक महत्वपूर्ण मकसद पूरा होता है -इससे वे रजिस्ट्रार के दफ्तर में बता सकते हैं कि उनसे पूछताछ की गई है और अगर उनका नाम शामिल नहीं है तो इस परची के आधार पर ही वे उसे चुनौती दे सकते हैं. अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि अगर किसी व्यक्ति का नाम एनपीआर में शामिल नहीं किया गया तो वह क्या उपाय अपनाए क्योंकि 2003 के नियमों में केवल एनआरआइसी से निष्कासित लोगों द्वारा चुनौती दिए जाने के तरीकों की ही बात है.
2003 के नियमों और संशोधन से वाजपेयी सरकार ने मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार के लिए वह आधार तैयार कर दिया था जहां से सीएए के मार्फत पार्टी के हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडा को आगे ले जाया जा सके. बीजेपी ने 2014 के अपने घोषणा पत्र में कहा था- “उत्पीड़ित हिंदुओं के लिए भारत उनका सहज गृह प्रदेश होगा और वे अगर यहां शरण लेते हैं तो उनका स्वागत किया जाएगा.” सत्ता में आने के बाद पार्टी ने इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर अनेक कदम उठाए हैं जिनमें सीएए सबसे ताजा कदम है.
2014 में मोदी सरकार ने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के छह धार्मिक समूहों के लिए ऑनलाइन आवेदन की शुरुआत की जिसके माध्यम से उन देशों में रहने वाले भारतीय लंबी अवधि का वीजा प्राप्त कर सकते हैं. ऑनलाइन फार्म में आवेदनकर्ता को बस एक हलफनामा देना होता है कि वे इन तीनों देशों में से किसी में रहने वाले छह समुदायों में से एक के सदस्य हैं और इसके साथ ही उन्हें यह बताना होता है कि कब उन्होंने भारत में प्रवेश किया और उनके पास वैध यात्रा दस्तावेज थे या नहीं. जून 2015 में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने खबर दी कि मोदी सरकार जब से सत्ता में आई, इसने मध्य प्रदेश में लगभग 19000 शरणार्थियों को, राजस्थान में 11000 को और गुजरात में 4000 शरणार्थियों को लंबी अवधि का वीजा दिया. रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि एक साल के अंदर मोदी सरकार ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए 4000 से अधिक शरणार्थियों को नागरिकता दी. 31 दिसंबर 2018 तक पाकिस्तान के 41331 और अफगानिस्तान के 4193 नागरिक भारत में लंबी अवधि के वीजा
सितंबर 2015 में सरकार ने पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) नियम, 1950 और फॉरेनर्स ऑर्डर 1948 में नागरिकता कानून में किए गए संशोधन के तर्ज पर संशोधन किया. संशोधित नियमों ने “बांग्लादेश और पाकिस्तान के अल्पसंख्यक समुदायों यानी हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों और ईसाइयों के लिए, जो धार्मिक उत्पीड़न अथवा धार्मिक उत्पीड़न के भय से 31 दिसंबर 2014 को या इससे पहले भारत में प्रवेश किए हैं” इस बात की छूट दी जाती है कि अगर उनके पास वैध यात्रा दस्तावेज नहीं हैं तो इन कानूनों के तहत जो प्रावधान हैं वे उन पर लागू नहीं होंगे और उन्हें दंडित नहीं किया जाएगा.
इन संशोधनों और 2019 के सीएए में एक महत्पूर्ण फर्क यह है कि 2019 का सीएए अब इस पर जोर नहीं देता कि इन सभी छह समुदायों के सदस्यों को उत्पीड़न अथवा उत्पीड़न का भय होना चाहिए. जैसा कि कई लोगों ने ध्यान दिलाया है, पाकिस्तान में अहमदिया जैसे मुस्लिम समुदाय भी हैं जो उत्पीड़न के शिकार हैं क्योंकि पाकिस्तान सरकार ने 1974 के एक संवैधानिक संशोधन के जरिए उन्हें गैर मुस्लिम घोषित कर रखा है. इसी प्रकार अगर धार्मिक उत्पीड़न को ही नागरिकता देने का मानदंड बनाया जाता है तो सीएए के लाभ से रोहिंग्या मुसलमानों को वंचित करने के पीछे क्या औचित्य है जबकि म्यांमार में उनके उत्पीड़न की लोमहर्षक घटनाएं सामने आ चुकी हैं.
मुख्य न्यायाधीश का पद संभालने के कुछ ही दिनों के अंदर रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रति भारतीय राज्य के दृष्टिकोण से संबंधित सवाल गोगोई के सामने आ चुका है. अगस्त 2017 में गृह मंत्रालय ने कहा कि सरकार भारत में रह रहे तकरीबन 40000 रोहिंग्या शरणार्थियों को उनके देश वापस भेजेगी. इसके अगले महीने ही म्यांमार के दो रोहिंग्या प्रवासियों ने सरकार के इस कदम को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें बताया कि यह सभी नागरिकों को प्राप्त संवैधानिक सुरक्षा का उल्लंघन है. याचिकाकर्ताओं ने यह भी दलील दी कि सरकार का यह फैसला अवापसी (नॉन-रीफ़ाउलमेंट) से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है जिसमें यह प्रावधान है कि कोई देश शरण चाहने वाले व्यक्ति को उसके देश वापस नहीं भेज सकता जहां उसे उत्पीड़न का खतरा है. मार्च 2018 में गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामे के जरिए बताया कि चूंकि भारत ने शरणार्थियों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किया है इसलिए वह अवापसी के सिद्धांत का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है. हलफनामे में यह भी कहा गया था कि निर्वासन वापस लेने का फैसला “राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में नहीं है.”
4 अक्टूबर 2018 को मुख्य न्यायाधीश के पद पर काम शुरू करने के दूसरे दिन गोगोई ने सात रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार भेजे जाने की इजाजत दे दी बावजूद इसके कि उनके एडवोकेट ने अदालत को बताया था कि उन्हें उनकी सहमति के बिना स्वदेश भेजा जा रहा है. इस मामले की मुख्य याचिका अभी भी अदालत में विचाराधीन है. मुख्य न्यायाधीश के रूप में 13 महीने से भी अधिक समय तक के अपने कार्यकाल में गोगोई ने उस घटना के बाद से इस मामले को केवल दो बार सूचीबद्ध किया और इस पर बस एक बार सुनवाई हुई.
नागरिकता कानून में संशोधन से संबंधित विधेयक को पहली बार जुलाई 2016 में लोकसभा में पेश किया गया. अगले महीने इसे संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेजा गया जिसने अपनी रिपोर्ट जनवरी 2019 में दी. जेपीसी ने टिप्पणी की कि ‘संवैधानिक विशेषज्ञ’ ने समिति को बताया कि ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है और सीएए में इसका इस्तेमाल महज धार्मिक अल्पसंख्यकों के संदर्भ में ही नहीं बल्कि व्यापक अर्थ में होना चाहिए. विशेषज्ञ ने संशोधन की शब्दावली बदलने का प्रस्ताव किया ताकि इसके आसान प्रावधानों को “पड़ोसी देशों के सभी उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों पर” लागू किया जा सके. जेपीसी की रिपोर्ट के अनुसार जब इस प्रस्ताव को विधि मंत्रालय को भेजा गया, इसके विधान-संबंधी विभाग ने जवाब दियाः “ इसके मौजूदा रूप की बजाय पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यक समुदाय का इस्तेमाल विधेयक के उद्देश्यों को नकार सकता है. चूंकि इसकी व्यापक व्याख्या की संभावना है, इसका अर्थ अन्य समुदायों (धार्मिक या अन्य) को शामिल करने से लगाया जा सकता है.” जुलाई में गृह मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी की जिसमें कहा गया था कि एनपीआर को तैयार और अपडेट करने का काम, जिसमें घर-घर जा कर गणना का काम भी शामिल है, 1 अप्रैल और 30 सितंबर 2020 के बीच शुरू कर दिया जाएगा.
कानून बनने के बाद व्यापक तौर पर विरोध तुरत नहीं शुरू हुआ, लेकिन जैसे ही सीएए का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों के खिलाफ केन्द्र और बीजेपी शासित राज्यों ने बड़े पैमाने पर पुलिस बल की तैनाती और बर्बरता के साथ बल प्रयोग किया, आंदोलन तेज होता गया और पूरे देश में फैल गया. जवाब में राज्य ने इतने बड़े पैमाने पर हिंसात्मक दमन, इंटरनेट पर रोक और कर्फ्यू का सहारा लिया जैसा केवल विद्रोह से ग्रस्त इलाकों में देखा जाता रहा है. इसमें पच्चीस से ज्यादा लोग मारे गये और ढेर सारे लोग घायल हुए.
तो भी, विरोध और प्रदर्शनों में कोई कमी नहीं आयी. “आजादी” के नारों की गूंज और सीएए को रद करने की मांग देश भर में सुनायी देने लगी, और कई राज्यों ने एनपीआर और एनआरसी के बॉयकाट की घोषणा की. बारह राज्यों ने एलान किया कि वे अपने राज्यों में एनपीआर का विरोध करेंगे और चार राज्यों ने सीएए के विरोध में प्रस्ताव पारित किए. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने केन्द्र सरकार से एनपीआर प्रक्रिया पर रोक की मांग की. उन्होंने कहा कि “रूप और अंतर्वस्तु में एनपीआर 2020 के एनआरसी का छद्म रूप है.”
वैसे तो मोदी और शाह दोनों ने दावा किया कि एनआरसी, एनपीआर और सीएए में कोई संबंध नहीं है, लेकिन अतीत के सरकारी बयान इसके एकदम उलट हैं. तमाम खबरों और रपटों ने अनेक बार बताया है कि अतीत में सरकार ने सार्वजनिक तौर पर एनपीआर और एनआरसी के बीच संबंध की बात की है और इंडियन एक्सप्रेस ने तो एक रिपोर्ट में बताया कि गृह मंत्री ने दस बार ऐसा किया है. इनमें अमित शाह का वह संबोधन नहीं शामिल है जिसमें उन्होंने उस क्रोनालॉजी को समझाया है कि कैसे पहले सीएबी आएगा और उसके बाद एनआरसी लागू किया जाएगा.
शाह ‘रक्त और मिट्टी’ के संबंध वाली उन्हीं भावनाओं को फिर उभारने में लगे हैं जो असम आंदोलन के समय चारो तरफ महसूस की जा रही थी. गृह मंत्री ने बार-बार “घुसपैठिया” शब्द का इस्तेमाल किया है जिससे जनता को अपने पक्ष में करने की शाह की रणनीति का पता चलता हैः किसी अचिन्हित, अपरिभाषित और डरावने दुश्मन के खिलाफ भय पैदा करना और फिर बड़ी चतुराई से वह भय लोगों के मन में बैठाना. इस बीच शाह ने प्रवासियों को बार बार “दीमक” कह कर जिस तरह उनका अमानवीयकरण किया उससे रवाण्डा में नरसंहार से पहले तुत्सी जनजाति के लोगों के लिए इस्तेमाल किए गए शब्द “तिलचट्टे” की याद आ जाती है. इस नरसंहार में तकरीबन आठ लाख लोग मारे गए थे.
अभी तक गृह मंत्री देश में अवैध प्रवासियों की कोई संख्या नहीं बता सके हैं. पिछले वर्ष इस संख्या के बारे में संसद में पूछे गए अनेक सवालों के जवाब में गृह मंत्रालय का बस यही जवाब था कि प्रवासियों का देश में आना “लुक-छिप कर और गुप्त रूप से” होता है इसलिए उनकी सही सही संख्या उपलब्ध नहीं है. इसकी बजाय सरकार समय-समय पर संसद को आश्वस्त करती रही है कि अवैध प्रवासियों के “पता लगाने, उन्हें बंद करने और उनके निर्वासन की प्रक्रिया” लगातार जारी है.
ऐसा लगता है कि संसद में जो एकमात्र सांख्यिकीय आंकड़ा प्रस्तुत किया गया, वह कर्नाटक का था. उसे देखने से ऐसा नहीं लगता कि ‘घुसपैठ’ इतना व्यापक है जितना शाह बताते हैं. जुलाई 2019 में लोकसभा में दिए गए एक बयान के अनुसार राज्य में गैरकानूनी ढंग से रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों के खिलाफ 143 मामले दर्ज किए गए और 114 लोगों को उनके देश भेजा गया. राज्यसभा में पेश किए गए आंकड़े से पता चलता है कि 2018 में देश भर से कुल 1,731 विदेशियों को उनके देशों को भेजा गया.
व्यापक विरोध और नागरिक समाज के विद्रोह के बावजूद बीजेपी सरकार ने एनपीआर, एनआरसी या सीएए पर पीछे हटने से इनकार किया है. 24 दिसम्बर को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एनपीआर के लिए 3941 करोड़ रुपए के बजट को स्वीकृति दी है. फिर दो सप्ताह से थोड़ा अधिक समय गुजरने के बाद इसने एक अधिसूचना के जरिए ऐलान किया कि 10 जनवरी से सीएएए लागू हो जाएगा.
इस कानून के पारित होने के थोड़े ही समय बाद इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. लेकिन जैसा कि गोगोई ने कश्मीर मसले पर सुनवाई के साथ किया था, नए मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे भी समय खींच रहे हैं. इस बीच केंद्र ने एक याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि देश की विभिन्न अदालतों में सीएए को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर वह अपनी अदालत में सुनवाई करे. 22 जनवरी को देश भर से 144 ऐसी याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने सूचीबद्ध किया. जस्टिस बोबडे के नेतृत्व में तीन जजों की पीठ ने सभी मामलों में केंद्र को नोटिस जारी किया और जवाब के लिए चार हफ्ते का समय दिया.
असम के एनआरसी पर गोगोई का काम, जिसे नागरिक स्वतंत्रता के प्रति नाममात्र के सम्मान के साथ चलाया गया, वह उस समय महत्वपूर्ण नजीर का काम करेगा जब यह सरकार एनआरआईसी की तैयारी शुरू करेगी. गोगोई जैसे मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल में एक संस्था के रूप में सुप्रीम कोर्ट का जो ह्रास हुआ है, उससे ऐसा नहीं लगता कि अब न्यायपालिका संविधान की संरक्षक बनी रहेगी.
तीसरे रामनाथ गोयनका व्याख्यान में गोगोई ने अमेरिका के पहले ट्रेजरी सेक्रेट्री और अमेरिका की संवैधानिक व्यवस्था के एक निर्माता एलेग्जेंडर हैमिल्टन के एक उद्धरण को याद किया. हैमिल्टन का कहना था कि सरकार के तीनों अंगों में न्यायपालिका “सबसे कम खतरनाक” है. “लेकिन अगर आज वह होते और ऐसा ही सोचते तो मुझे हैरानी होती”, गोगोई ने कहा. गोगोई की टिप्पणी उस समय आई जब पहली बार किसी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग चलाने का खतरा दीपक मिश्रा के सामने मौजूद था. लेकिन गोगोई के पास यह बताने के लिए बहुत कुछ नहीं था कि आखिर इस व्यवस्था को कमजोर कैसे किया गया और गड़बड़ी कहां हुई. इसकी बजाय उन्होंने अपना नजरिया पेश किया कि सुप्रीम कोर्ट की भूमिका क्या होनी चाहिए.
उन्होंने बताया कि 1970 के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की बुनियादी संरचना को प्रतिपादित किया और 1980 के दशक में इसने अनुच्छेद 21 के दायरे का, जो जीवन और स्वतंत्रता की गारंटी देता है, विस्तार किया. उन्होंने कहा कि “1990 के दशक में इसने कार्यपालिका और विधायिका की निष्क्रियता के फलस्वरूप पैदा कमियों को संबोधित करने के लिए संवैधानिक प्रावधानों की अभिनव व्याख्या की और एक हद तक सुशासन वाली अदालत का रूप ले लिया.” उन्होंने आगे कहा कि “फैसलों की प्रभावकारिता दिखाने के लिए, न्याय देने वाली प्रणाली को और अधिक परिणामोन्मुख बनाना होगा, या यों कहा जाए कि इसे लागू करने पर और ध्यान देना होगा.”
गोगोई ने कहा कि न्यायपालिका को और भी ज्यादा सक्रिय और आगे बढ़कर काम करने वाला होना होगा. “बेशक”, उन्होंने कहा, “न्यायपालिका का कामकाज संवैधानिक नैतिकता की शर्त के तहत यानी अधिकारों के पृथक्करण में होना चाहिए.” विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच अधिकारों के विभाजन का यह उल्लेख तब लगभग अर्थहीन लगता है जब इसे गोगोई के मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल के साथ रख कर देखा जाता है जिन्होंने कार्यपालिका और न्यायपालिका की निष्क्रियता के फलस्वरूप पैदा कमियों को संबोधित करने के लिए न्यायपालिका की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया.
अपने भाषण के अंत में ऐसा लगा जैसे गोगोई ने आने वाले दिनों को लेकर कोई चेतावनी दी हो. एक बार फिर हैमिल्टन को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा, “वैसे तो नागरिक स्वतंत्रता को अकेले कभी भी न्यायपालिका से डरने की जरूरत नहीं है लेकिन अगर न्यायपालिका अन्य दोनों अंगो में से किसी के साथ जुड़ जाती है तो डरने की भरपूर वजह है.”
अनुवाद : आनंद स्वरूप वर्मा