एक
अगस्त के शुरुआत में एक सुबह अपर हिमालय के एक छोटे से गांव में रहने वाले कार्तिक राणा ने ऑल इंडिया रेडियो में मौसम का अनुमान सुना कि बहुत तेज बारिश होने वाली है. 80 साल के राणा ने अपनी पत्नी, बेटियों, बहुओं और पोते-पोतियों को आवाज दी कि भेड़ों को घर ले आओ कि बादल फटने वाले हैं.
मैं उसी दिन सुबह लता खारक पहुंचा था. उस दिन भारी वर्षा और हिमस्खलन के चलते, कुछ घंटे पहले ही खारक से उत्तर की ओर करीब 100 मील की दूरी में स्थित लेह में बादलों के फटने से 200 लोगों की मौत हो गई थी. इन पर्वतों में, चीन तक, हुए भूस्खलनों में 1000 लोगों की जान चली गई थी.
लता खारक में भयानक बिजली गिर रही थी. यह गांव समुद्र तल से 2370 मीटर की ऊंचाई पर है. बिजली ऐसी कौंध रही थी कि डर लग रहा था, और कुछ सैकेंडों में भेड़, बकरियां और नंगे-पुंगे बच्चे झाड़ियों से निकले और बचने के लिए जगह तलाशने लगे. लता खारक के लता और रैणी गांव मानव उपस्थित वाले सबसे ऊंचे स्थान हैं. इनके ऊपर मनुष्य या पालतू जानवरों की मौजूदगी नहीं है.
यहां से और ऊंचाई पर स्थित है नंदा देवी, जो भारत की दूसरी सबसे ऊंची पर्वत चोटी है. यह समुद्र तल से 7816 मीटर की ऊंचाई पर है. कार्तिक राणा पोपले मुंह वाले, छोटी कद-काठी के फुर्तीले इंसान हैं. इस उम्र में भी वह कुशाग्र हैं और उनमें जवान लड़को जैसा उत्साह है. वह तिब्बती मूल के बंजारा समुदाय जाड भोटिया से तालुल्ख रखते हैं.
एक सदी पहले जब ब्रिटिश सर्वेयर, एंथ्रोपॉलजिस्ट और पर्वतारोही इन चोटियों पर पहले-पहल आए तो कुली का काम करने के लिए जाड भोटिया समुदाय के लोगों से संपर्क किया. राणा आज रैणी के सबसे बुजुर्ग कुली हैं और उन्हें 45 साल पहले नंदा देवी में हुए उस पर्वतारोहण अभियान की याद है.
1 सितंबर 1965 में भारतीय गुप्तचर विभाग के दो जूनियर अधिकारी भारत-अमेरिकी गुप्तचर अभियान के लिए कुलियों की भर्ती करने लता आए थे. राणा ने बताया कि उनकी किस्मत अच्छी थी कि 1965 की गर्मियों की शुरुआत में उन्हें जापानियों ने त्रिशूल चोटी की चढ़ाई अभियान में शामिल कर लिया था इसलिए, राणा ने मुझे बताया, “जब इंडियन साहब लोग यहां आए तो मैं यहां नहीं था.”
इस मिशन का लक्ष्य नंदा देवी पर नाभिकीय ऊर्जा या कहें कि परमाणु ऊर्जा से चलने वाला स्थलीय संचार इंटरप्रेटर लगाना था. 1964 में चीन ने देश के पश्चिमी प्रांत शिंजियांग में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था. अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियां इस परीक्षण से हतप्रभ रह गई थीं क्योंकि उन्हें लग रहा था कि परमाणु शक्ति हासिल करने में चीन को अभी बहुत वक्त लगेगा. रिमोट सेंसिंग डिवाइस को नंदा देवी के ऊपर लगाने का उद्देश चीन द्वारा भविष्य में किए जा सकने वाले परमाणु परीक्षणों की जानकारी जुटाना था.
अमेरिका की केंद्रीय जांच एजेंसी यानी सीआईए और भारत के गुप्तचर ब्यूरो अथवा आईबी का यह पहला प्रमुख संयुक्त अभियान तनावपूर्ण भू-राजनीतिक बदलावों की पृष्ठभूमि में हो रहा था. ठीक तीन साल पहले भारत को चीन के हाथों अपमानजनक पराजय मिली थी जिसके बाद जवाहरलाल नेहरू का कम्युनिस्ट धड़े पर विश्वास डगमगा गया था. युद्ध से पहले तक हिंदी-चीनी भाई-भाई जैसे नारे उत्तर उपनिवेशवादी युग की पहचान बन गए थे और दूसरी तरफ, अमेरिका साम्यवाद के खिलाफ सैन्य और विचारधारा की लड़ाई लड़ रहा था. 1965 में वियतनाम युद्ध लड़ने के लिए 200000 अमरीकी सैनिक भेजे गए थे, जो अर्थहीन और महंगा साबित हो रहा था.
चीन का परमाणु सक्षम हो जाना अमेरिकियों के लिए गंभीर खतरा बन गया था और इसी के चलते इन लोगों ने चीन के परमाणु परीक्षणों पर नजर रखने के लिए हिमालय में जासूसी यंत्र लगाने की योजना बनाई थी. लेकिन अमेरिकियों को विश्वास था कि यह मिशन भारतीय पर्वतारोहियों और यहां की रक्षा और गुप्तचर एजेंसियों की मदद के बिना संभव नहीं हो सकता. 1965 की शुरुआत में अमेरिकी अधिकारियों ने भारतीय अधिकारियों को राजी करने के लिए जी तोड़ मेहनत की. जिस वक्त भारतीय गुप्तचर विभाग के अधिकारी लता पहुंचे थे, उस वक्त तक सबसे मुश्किल काम यानी भारतीय अधिकारियों को पाले में करना, पूरा हो चुका था. अब सिर्फ एक टीम को भर्ती कर प्रशिक्षित करना था ताकि वह टीम पेलोड को नंदा देवी तक पहुंचा दे.
लता और रैणी से 33 भोटियाओं को इस अभियान के लिए भर्ती किया गया. इसके साथ ही ग्लेशियरों पर चढ़ाई करने में सक्षम नौ शेरपाओं को सिक्किम से भर्ती किया गया. इस मिशन का नेतृत्व भारत के कुछ चिर-परिचित पर्वतारोही करने वाले थे जिनके पास एक साल पहले एवरेस्ट की सफल चाढ़ाई करने का तजुर्बा था.
इस अभियान का लीडर नौसेना कमांडर मनमोहन सिंह कोहली को बनाया गया जो तब इंडो-तिब्बतन बॉर्डर पुलिस में नियुक्त थे. उनके साथ आईबी के चार अधिकारी : हरीश रावत, सोनम वांग्याल, गुरुचरण सिंह भंगू और सोनाम ग्यात्सू जाने वाले थे. ये सभी लोग पहाड़ चढ़ने में प्रशिक्षित थे और इन सभी को खेलों के लिए दिया जाने वाला भारत का सर्वश्रेष्ठ सम्मान अर्जुन पुरस्कार प्राप्त था.
कोहली रेडियो के जरिए रामेश्वर नाथ काओ के साथ रोज संपर्क करते थे. बाद में काओ भारतीय गुप्तचर संस्था रॉ के संस्थापक निदेशक बने लेकिन उस वक्त काओ एविएशन रिसर्च सेंटर के निदेशक थे जो कि आईबी कि ही एक ब्रांच थी. काओ भारतीय गुप्तचर के पितामह कहलाने वाले भोलानाथ मलिक को रिपोर्ट करते थे. मलिक स्वतंत्र भारत के पहले आईबी निदेशक थे. मलिक और काओ भारत के दो सबसे महत्वपूर्ण गुप्तचर अधिकारी माने जाते हैं.
मलिक और उनके सीआईए समकक्षी वॉशिंगटन और नई दिल्ली से इस अभियान पर नजर रखे हुए थे और सीआईए के भारत में केस अधिकारी बिल मैक्निफ नंदा देवी के बेस कैंप पर तैनात थे. इस अभियान में सीआईए द्वारा हायर किए गए तीन अमेरिकी पर्वतारोही भारतीय दल के साथ जाने वाले थे.
भारत-अमेरिकी संयुक्त गुप्तचर पर्वतारोहण मिशन दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे लंबा मिशन था जिसमें कई कुली और शेरपाओं को लगाया गया था. पर्वतारोहियों की दो टीमें थीं जिनमें परमाणु विशेषज्ञ, गुप्तचर अधिकारी और सिग्नल विशेषज्ञ थे. लेकिन यह अभियान अंततः एक त्रासदी में बदल गया और अक्टूबर 1965 में खराब मौसम के कारण इस दल को अभियान बीच में ही छोड़ कर लौटना पड़ा. नंदा देवी पर लगाए जाने वाले सामान को रास्ते में बने एक कैंप में रख दिया गया ताकि अगले मौसम में दुबारा चढ़ाई की जा सके. लेकिन उस सर्दी में 17 किलोग्राम परमाणु सामग्री हिमस्खलन की चपेट में आ गई. जब 1966 में कोहली और उनका दल वापस उस जगह पहुंचा तो पता चला कि प्लूटोनियम 238 और 239, जिससे वह परमाणु यंत्र संचालित होना था, उसका पांच किलोग्राम गायब है. यह मात्रा जापान के नागासाकी में गिराए गए परमाणु बम “फैटमैन” में इस्तेमाल किए गए प्लूटोनियम की मात्रा से केवल एक किलोग्राम कम थी. यह प्लूटोनियम आज तक नहीं मिला है.
भारतीय और अमेरिकी गुप्तचर इतिहास में शायद यह सबसे बड़ी विफलता न भी हो लेकिन यह एक ऐसी असफलता है जिसके परिणाम दूरगामी हैं. तीन साल तक लगातार तलाश करने के बाद सीआईए और आईबी ने तय किया कि अब उन्हें परमाणु यंत्र नहीं मिल सकता. आज 45 साल बाद भी वह जनरेटर नंदा देवी की कोख में कहीं दफ्न है. अब तक यह पता नहीं लगाया जा सका है कि इसका खतरा कितना है. सबसे बुरा होगा की गंगा नदी में पानी पहुंचाने वाला नंदा देवी का ग्लेशियर इस परमाणु सामग्री को बहा कर गंगा के जलाशयों तक पहुंचा दे जिसके इर्द-गिर्द करोड़ों भारतीय रहते हैं. और यदि यह सामग्री किसी ऐसे व्यक्ति को मिल गई जिसको पता न हो कि क्या है और वह इसे लोहा-लंगड़ समझ कर तोड़फोड़ करने लगे, तो हो सकता है कि उससे निकलने वाले रेडिएशन या विकिरण के संपर्क में कई लोग आ जाएं.
1977 तक नंदा देवी का यह अभियान ऑफिशियल सीक्रेट था लेकिन उस साल अमेरिका की एडवेंचर पत्रिका आउटसाइड ने इसके बारे में एक रिपोर्ट की. भारतीय सांसदों ने इस मामले को संसद में उठाया, जिसके बाद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को इस मिशन का खुलासा करना पड़ा और उन्होंने संभावित कुपरिणामों के अध्ययन के लिए एक वैज्ञानिक जांच का आदेश दिया. भारत के छह जाने-माने वैज्ञानिकों को इस संबंध में एक विस्तृत तकनीकी रिपोर्ट देने के लिए कहा गया लेकिन उनकी सिफारिशों को इतने सालों बाद भी अनदेखा किया जा रहा है.
आईबी के रिकॉर्डों पर ताले लगे हैं और मलिक और काओ की मौत हो चुकी है. अमेरिकी इस मामले में अब तक चुप हैं. 2002 में कोहली ने इस मिशन के बारे में एक किताब लिखी थी जिसका शीर्षक था : स्पाइस इन दि हिमालयाज. इस किताब को हार्पर कोलिंस इंडिया और यूनिवर्सिटी ऑफ कंसास प्रेस ने प्रकाशित किया था. लेकिन कोहली ने इस संस्मरण में केवल पर्वतारोहण मिशन से जुड़ी राजनीति और इसके एडवेंचर के बारे में बताया है और किताब में इसके असर से जुड़े राजनीतिक और वैज्ञानिक सवाल नजरअंदाज किए गए हैं. राजनीतिक दृष्टिकोण से यह सवाल बना हुआ है कि कैसे चंद अधिकारियों ने संदिग्ध परिस्थितियों में इतने खतरनाक अभियान की स्वीकृति दी? क्या गुप्तचर अधिकारियों ने मई 1964 में नेहरू की मौत का फायदा उठा कर ऐसा किया? लेकिन इन सवालों के बीच वैज्ञानिक चिंता को बहुत सहजता से दबा दिया गया है. देसाई द्वारा गठित समिति ने निरंतर पर्यावरण की निगरानी करने का प्रस्ताव दिया था ताकि रेडियोएक्टिव दूषण की जांच होती रहे. यह बताने का कोई फायदा नहीं है कि नंदा देवी के आसपास गंगा में पहुंचते पानी और इसके आसपास की जगहों में रेडियोएक्टिव दूषण पर निगरानी का कोई प्रयास नहीं हो रहा है. इस गुप्तचर अभियान की विफलता के परिणाम आज भी हमारे सामने हैं लेकिन निर्वाचित सरकारें ऐसा दिखा रही हैं मानो कोई बात है ही नहीं.
दो
भारतीय पर्वतारोहण के लिए 1965 का साल विशेष महत्व का था. ब्रिटिश पर्वातारोही के माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के 12 साल बाद, और इस बीच एक अमेरिकी और एक स्विस दल द्वारा माउंट एवरेस्ट के सफल आरोहण के बाद, एमएस कोहली और उनकी टीम बहुत गंभीरता से आरोहण की तैयारी में लगी थी. लेकिन फरवरी में, नेपाल प्रस्थान से सिर्फ दो दिन पहले, दिल्ली में कोहली से मिलने एक शख्स आया. अचानक हुई इस मुलाकात ने ऐसे चक्र की शुरुआत की जिसकी वजह से नंदा देवी में वह त्रासदी हुई.
कोहली से मिलने 33 साल के अमेरिकी नागरिक बैरी बिशप आए थे जो 1963 में एवरेस्ट चढ़ने वाले अमेरिकी दल के सदस्य थे. वह नेशनल ज्योग्राफिक पत्रिका में फोटो एडिटर थे लेकिन कोहली के साथ उनका अचानक मिलना फोटोग्राफी से जुड़ा हुआ मामला नहीं था. बल्कि बिशप चाहते थे कि कोहली एवरेस्ट चढ़ने की अपनी तैयारी बीच में ही रोक दें और तुरंत कंचनजंगा-केटू ग्लेशियर पहुंचे. यह भारत की सबसे ऊंची चोटी है जो नेपाल और सिक्किम की सीमाओं के बीच स्थित है.
कोहली इस प्रस्ताव से हतप्रभ रह गए क्योंकि सबको पता था कि एवरेस्ट का अभियान कुछ ही दिनों में शुरू होने वाला है. उन्होंने मुझे बताया कि, “मैंने उनसे पूछा, ‘महोदय, आपका दिमाग खराब है क्या?’” लेकिन बिशप ने अपने प्रस्ताव पर अड़े रहे जिससे कोहली को और ज्यादा शक हुआ. बिशप के जाने के बाद कोहली ने मलिक को एक नोट भेजा क्योंकि आईटीबीपी आईबी के मातहत थी. उस नोट में लिखा था : “डियर मलिक, मेरी मुलाकात प्रसिद्ध अमेरिकी पर्वतारोही से हुई और मुझे बातचीत बड़ी संदिग्ध लगी. कृपया इस आदमी पर नजर रखें. एमएस कोहली.” दो दिन बाद कोहली नेपाल के लिए निकल गए.
बिशप का जन्म अमेरिकी राज्य ओहायो में हुआ था और उनके ही राज्य के जनरल कर्टिस लीमे से, जो अमेरिकी वायु सेना के प्रमुख थे, उनकी मुलाकात हुई. लीमे अमेरिकी सैन्य इतिहास में एक विवादास्पद अधिकारी हैं. लीमे ने विश्व युद्ध दो के दौरान 1945 में छह महीनों तक जापानी सर्वसाधारण नागरिकों पर बमबारी करवाई थी जिसमें 500000 नागरिक मारे गए थे. वह परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के कट्टर समर्थक थे और क्यूबा मिसाइल क्राइसिस के दौरान कई बार उनकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी से नोकझोंक हुई थी. ऐसी ही नोकझोंक उनकी वियतनाम युद्ध के समय में भी हुई थी. वह बार-बार कहते थे कि अमेरिका को अपने दुश्मनों पर इतने बम गिराने चाहिए कि वे पाषाण युग में पहुंच जाएं. लीमे ने तीसरा विश्व युद्ध शुरू करने सिफारिश भी की थी और कई सर्किलों उन्हें एक खतरनाक सनकी कहा जाता था.
एक प्रकार से एशिया लीमे की प्रयोगशाला थी. चूंकि अमेरिकी वायु सेना दुनिया भर में परमाणु परीक्षणों पर नजर रखने के लिए जिम्मेदार थी इसलिए शिंजियांग का परमाणु परीक्षण लीमे के एजेंडा के शीर्ष पर था. लीमे और बिशप की दोस्ती ने इस अभियान का आरंभ किया. चीन अपने परीक्षण उस क्षेत्र में कर रहा था जहां सेटेलाइट के जरिए अमेरिका नजर नहीं रख सकता था. वह तकनीक अभी विकसित हो ही रही थी. जब बिशप ने बताया कि हिमालय की चोटी से चीन पर अच्छी नजर रखी जा सकती है तो यह योजना बनाई गई. लेकिन वह सीआईए था, नाकि अमेरिकी वायु सेना, जो इस अभियान के लिए भारत का सहयोग हासिल कर सका.
1964 में अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियों ने भारत सरकार के साथ अपने रिश्ते बनाने शुरू किए. इस संबंध को चीन के हाथों भारत की हार की परिस्थिति से बल मिला. नेहरू ने सीआईए को देश के उस स्थान पर जाने दिया जहां आईटीबीपी की स्थापना की गई थी, जिसमें कोहली तब कार्यरत थे, जहां एआसी की स्थापना की गई थी जिसके निदेशक काओ थे जिन्होंने तिब्बती शरणार्थियों की कमांडो फोर्स खड़ी की थी. लेकिन काओ इस बात से सतर्क थे कि भारत पाकिस्तान की तर्ज पर अमेरिका का क्लाइंट देश न बन जाए जो अमेरिकी सुरक्षा संस्थापन के हाथों की कठपुतली की तरह काम करे. लेकिन नेहरू के गुप्तचर प्रमुख मलिक पश्चिम की तरफ झुकाव रखने वाले शख्स थे. सच तो यह है मलिक ने ही बिशप को सबसे पहले कोहली के पास भेजा था. इस बारे में विस्तृत जानकारी वॉशिंगटन और दिल्ली ने छिपा कर रखी है लेकिन अमेरिका का पर्वतारोही बिशप सीआईए के असाइनमेंट में यहां आया था और वह भी मलिक की मंजूरी से.
तीन
माउंट एवरेस्ट से जब कोहली अपने दल के साथ लौटे तो वह राष्ट्रीय हीरो बन चुके थे. फिर उनकी मुलाकात एक अन्य अप्रत्याशित व्यक्ति से हुई लेकिन इस बार कोहली न नहीं कह सके.
दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर इंडियन आर्मी डीसी-तीन अवतरित हुआ जिसमें एवरेस्ट पर फतह पाने वाले दल के सदस्य सवार थे. इस विमान से सबसे पहले कोहली बाहर आए और उनके पीछे आठ अन्य लोग. इस अभियान ने एक ऐसा रिकॉर्ड बनाया था जो कई सालों तक बना रहा. वह रिकॉर्ड था : एवरेस्ट की चोटी पर नौ लोगों के चढ़ने का. ये पर्वतारोही भारत के गणमान्य लोगों से मिले. उस वक्त भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री विदेश यात्रा पर गए हुए थे लेकिन गृहमंत्री और रक्षा मंत्री तथा भारतीय गुप्तचर विभाग के शीर्ष अधिकारी बड़ी शिद्दत से विमान के अवतरण का इंतजार कर रहे थे. उन्होंने पर्वतारोहियों को गेंदे के फूलों की माला पहनाई और उनके ऊपर तिरंगे की शॉलें डालीं.
अभी डीसी-तीन का इंजन बंद भी नहीं हुआ था कि गुप्तचर अधिकारी बलबीर सिंह कोहली को किनारे ले गए. वह मलिक के डिप्टी थे और इसके अलावा वह आईटीबीपी के इंस्पेक्टर जनरल भी थे. उन्हें कोहली की पर्वतारोहण क्षमता का पता था और इसीलिए कोहली को नौसेना से हटा कर बॉर्डर पुलिस में लाया गया था. सिंह ने कोहली के कानों में कहा, “विमान के पीछे श्री काओ आपका इंतजार कर रहे हैं, जाओ और जाकर उनसे मिल लो.” काओ, जो आने वाले दिनों में लगभग एक दशक तक रॉ के प्रमुख होने वाले थे, तब तक मलिक के डिप्टी थे और वह एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनका भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के विकास में ज्यादा प्रभाव है. आईबी में एआरसी के निदेशक के रूप में उनकी पहचान एक ऐसे व्यक्ति की थी जो बहुत सुसंस्कृत, बुद्धिमान और राजनीतिक सिस्टम का खिलाड़ी था. मलिक काओ को रॉ को लीड करने के लिए तैयार कर रहे थे. इस पद पर पहुंच कर काओ ने जबरदस्त विदेशी असाइनमेंटों को अंजाम दिया जिनमें बांग्लादेश की स्थापना और सिक्किम का भारत में विलय शामिल हैं. इसके बाद काओ इंदिरा गांधी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी बने.
कोहली को नहीं पता था कि आगे क्या होने वाला है लेकिन काओ के साथ उनकी बातचीत के बाद अगले तीन साल के लिए एक गंभीर साझेदारी शुरू हो गई. विमान के पीछे काओ ने कोहली को बताया, “यह मामला गंभीर राष्ट्रीय महत्व का है और हम चाहते हैं कि आप और आपकी टीम तुरंत अमेरिका के लिए रवाना हो जाएं. हमने आपके पासपोर्ट बना दिए हैं.”
कोहली के पास तब तक पासपोर्ट नहीं था और उन्हें यह सुनते ही झटका लगा क्योंकि उन दिनों पासपोर्ट बनाने में बहुत समय लगता था. कोहली को तुरंत समझ आ गया कि मामला गंभीर है लेकिन एवरेस्ट फतह के बाद उनको जो वाहवाही मिल रही थी वह उसे छोड़ कर तुरंत नहीं जाना चाहते थे. उन्होंने काओ से कहा कि “हम इतनी जल्दी कैसे जा सकते हैं? हमें प्रधानमंत्री के विदेश दौरे से लौटने के बाद उनसे मिलना है और राष्ट्रपति से भी मिलना है और मुझे संसद में बोलने के लिए भी बुलाया गया है.” काओ ने कुछ देर सोचा और फिर कहा, “ठीक है तो फिर जैसे ही तुम ये सब काम खत्म कर लो, उसके बाद तुरंत निकल जाना. चलो ठीक है कल मेरे ऑफिस में आकर मुझसे मिलो.”
अगले दिन आरके पुरम स्थित एआरसी के कार्यालय में काओ ने कोहली को समझाया कि यह एक अमेरिका और भारत का संयुक्त मिशन होगा, कंचनजंगा में. यह वही चोटी थी जिसके बारे में बैरी बिशप ने कोहली से चर्चा की थी. काओ ने बताया कि चोटी पर कुछ छोड़ कर आना है. काओ ने कोहली से कहा कि उनको अभी कुछ नहीं पता कि “वह क्या चीज है लेकिन तुम्हें राष्ट्रहित में यह करना है. बाकी सब अमेरिकी तुम्हें बता देंगे.” कोहली ने और कुछ नहीं पूछा.
मुझे कोहली ने बताया, “वह चीज क्या थी हमने कभी पूछने की जहमत नहीं उठाई. हम लोग पर्वतारोही थे और देश के लिए कुछ भी कर सकते थे. मैं विस्तृत जानकारी नहीं चाहता था. मैंने सिर्फ आदेश का पालन किया.” भारत की टीम को एक विशेष विमान से अमेरिका पहुंचाया गया. उस विमान में हिंदी और पंजाबी बोलने वाले सीआईए एजेंट मौजूद थे. “हम लोगों को इमीग्रेशन से नहीं ले जाया गया और अमेरिका में हम 40 दिन रहे और इस दौरान सीआईए के लोगों ने हमें एक मिनट के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा.” एकाध बार वॉशिंगटन का सैर-सपाटा करके भारतीय पर्वतारोहियों को अलास्का स्थित ऑलमेंड ड्रॉप वायु सेना अड्डे में ले जाया गया जहां उनको मिशन के बारे में ब्रीफ किया गया और पर्वतारोहण का अभ्यास माउंट मैकिनले में किया गया जो अमेरिका का सबसे ऊंचा पर्वत है.
अलास्का में अमेरिकी दल के प्रमुख और कोई नहीं बल्कि बैरी बिशप थे. जब तक कोहली और उनका दल वहां पहुंचा तब तक चीन ने शिंजियांग में दूसरा परमाणु परीक्षण कर लिया था. इस बार चीनियों ने हवाई जहाज से बम गिराया था और अमेरिकियों को विश्वास था कि अगला परीक्षण मिसाइल से होगा. बिशप पर भारतीय टीम को जल्द से जल्द वापस भारत पहुंचाने का दबाव था. ऑलमेंड ड्रॉप वायु सेना अड्डे के ऑफिसर्स क्लब में भारतीय दल ने बिशप और उनकी टीम के लोगों से मुलाकात की. उनको बताया गया कि मिशन जटिल है. इसमें पर्वतारोहियों को कंचनजंगा के शिखर पर पांच किलो पेलोड पहुंचाना है जो दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची छोटी है. इसकी लंबाई 8579 मीटर है. इस पेलोड में कम्युनिकेशन संचार इंटरप्रेटर का सामान और एक जनरेटर था. दोनों को चोटी में लगाना था.
सीआईए के तकनीशियन ने, जिनका नाम गार्डन स्लीपर बताया गया, इंटरप्रेटर और जनरेटर कैसे काम करते हैं इसका प्रशिक्षण दिया. भारत में किसी जगह स्थापित बेस स्टेशन को सूचना भेजने के लिए इसके सेंसर में चार ट्रांस रिसीवर लगे थे. इसमें चीन के परीक्षण साइट से डेटा संकलित करने के लिए एक छह फीट लंबा एंटीना था. जनरेटर का नाम स्नैप 19सी या SNAP 19C (सिस्टम फॉर न्यूक्लियर एक्जिलेरी पावर) था, जो रेडियोएक्टिव हीट को बिजली में परिवर्तित करता था. स्नैप 19सी में पांच हिस्से थे : गर्म ईंधन ब्लॉक, कोर में लगे रेडियोएक्टिव फ्यूल कैप्सूल, थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटर (जो ऊपर जड़ा था), इंसुलेशन सामग्री और ब्लॉक का बाहरी खोल.
यह जानकारी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई द्वारा गठित वैज्ञानिक अध्ययन आयोग की 94 पेज की रिपोर्ट में मिलती है. उस रिपोर्ट के 9वें पेज में इस यंत्र की जानकारी इस प्रकार दी गई है :
इसका ईंधन, प्लूटोनियम (पीयू 238, पीयू 239) और स्ट्रोन्शियम (एसआर 90), के मिश्रण से बने सात कैप्सूल थे. हर कैप्सूल के 5.5 मिलिमीटर टैंटलम का कवर था. इसमें पर्याप्त खाली स्थान था ताकि रेडियोएक्टिव क्षय होने पर बनने वाली हिलियम गैस इकट्ठी हो सके. कैप्सूल पर चढ़ाया गया बाहरी खाका 2.5 मिलीमीटर हेंस का था जो कोबाल्ट, निकल, क्रोमियम और टंगस्टन से बना था और इसमें उच्च तापमान और घर्षण को सहने की प्रॉपर्टी थी. यह काफी मजबूत था. पांच कैप्सूलों को अष्टकोणीय आकार के ग्रेफाइट के ब्लॉक में थर्मोकैप्सूल, थर्मल इंसुलेशन सामग्री आदि के साथ रखा गया था.
वे परमाणु युग के आरंभिक दिन थे. 1960 के दशक की शुरुआत में रेडियोएक्टिव क्षय पर आधारित थर्मोइलेक्ट्रिक पावर जनरेटर विकसित हुए थे. इनको दुर्गम मेट्रोलॉजिकल केंद्रों में सुरक्षित वातावरण में इस्तेमाल किया जाता था. अमेरिकी टीम को हिमालय की बर्फ में परमाणु जनरेटर के गुम हो जाने के खतरे का अहसास बहुत बाद में हुआ.
स्नैप 19सी बम नहीं है. यह तभी फटेगा जब इसे ट्रिगर मिलेगा. इसमें ट्रिगर नहीं है. लेकिन यह रेडियोएक्टिविटी द्वारा संचालित है और संपर्क में आने वाले मनुष्य के लिए विषाक्त है. प्लूटोनियम हड्डियों को गला देता है. यहां तक कि यह पेड़-पौधों को भी रेडियोएक्टिव कर देता है.
स्लीपर के प्रैजनटेशन के बाद कोहली को खतरे का अहसास हुआ. लेकिन उन्हें खतरा न्यूक्लियर सामग्री के होने का नहीं लगा बल्कि इसके वजन ने उन्हें डरा दिया. “पांच पेलोड का मतलब था 125 पाउंड,” कोहली चौंके.
उन्होंने बाद में याद किया कि “पहली बात तो यह थी कि कंचनजंगा की चढ़ाई बहुत कठिन है. वहां चढ़ाई करते वक्त कैमरा तक बहुत भारी लगने लगता है. उसके ऊपर इतना सारा भार लेकर चलना और फिर इसे वहां लगाने के लिए घंटों रहना मुझे बेवकूफी का काम लग रहा था.” “मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ यह जानकर कि स्लीपर ने इस अभियान का सुझाव दिया था क्योंकि वह खुद अनुभवी पर्वतारोही थे.”
कोहली ने अपनी चिंता अमेरिकियों के सामने प्रकट नहीं की. उनके सामने वह एक आज्ञाकारी भारतीय अधिकारी बने रहे. उन्होंने वहां अपना काम खत्म किया और भारत वापस आने के बाद आईबी के सामने यह बात रखी. उन्होंने बताया, “मैंने सीधे काओ और मलिक से बात की.”
लेकिन मलिक एक ऐसे आदमी थे जो न नहीं सुन सकते थे. खासकर, अपने जूनीयर अधिकारियों की. उनके बारे में माना जाता था कि वह एक ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी भी काम को असंभव नहीं मानते. कोहली का ऐतराजी पत्र पढ़ने के बाद काओ को समझ आ गया कि मलिक आपा खो देंगे क्योंकि उस पत्र में कोहली ने लिखा था कि “भारत का प्रमुख पर्वतारोही होने के नाते मैं अगर इस मामले को आपके संज्ञान में नहीं लाऊंगा तो ऐसा कर मैं अपने काम के साथ न्याय नहीं करूंगा. कंचनजंगा के ऊपर सीआईएस का यंत्र लगाना असंभव और बेकार काम है और यह व्यवहारिक भी नहीं है.” काओ ने कोहली से पूछा, “तुम मलिक को कितने दिनों से जानते हो? अगर तुम उन्हें अच्छी तरह से जानते होते, तो ऐसा पत्र कभी नहीं लिखते.” काओ ने वह पत्र फाड़ दिया लेकिन काओ मलिक को समझाने स्वयं गए कि उस चोटी की जगह कोई और चोटी का चयन किया जाए. मलिक चोटी पर समझौता करने को राजी हो गए लेकिन नंदा देवी पर समझौता नहीं करना चाहते थे.
चार
नंदा देवी दो चोटियों वाला पर्वत है जो समानांतर ऊंचाई वाली दर्जनों चोटियों से गिरा है. पश्चिमी चोटी को नंदा देवी कहा जाता है और पूर्वी चोटी को, जो पश्चिमी चोटी से छोटी है, नंदा देवी पूर्व कहा जाता है. 19वीं सदी के शुरुआती दिनों में नंदा देवी को दुनिया का सबसे ऊंचा पहाड़ माना जाता था लेकिन आधुनिक सर्वे तकनीक के अस्तित्व में आने के बाद यह खिस कर दुनिया का 23वां सबसे ऊंचा पहाड़ हो गया है. लेकिन यह भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी है. सीआईए के लिए भारत की चोटी काफी थी. उसने नेपाल के एवरेस्ट और पाकिस्तान की चोटियों पर विचार नहीं किया, इस डर से कि इसकी जानकारी चीन को हो जाएगी.
लता गांव से नंदा देवी की चोटी की चढ़ाई 125 किलोमीटर लंबी है. दल ने इस दूरी को सात चरणों में पूरी करने की योजना बनाई. कोहली याद करके बताते हैं कि शेरपा और कुली जनरेटर को उठाने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे क्योंकि उससे गर्मी निकल रही थी और वे उसे बड़ी श्रद्धा से देख रहे थे. सीआईए के टेक्नीशियनों ने उन्हें बताया तो था कि जनरेटर सुरक्षित है लेकिन कोहली याद करते हैं कि “उन्होंने हम सभी की जैकेटों पर सफेद बैज लगा दिए थे और बताया था कि अगर विकरण होगा तो ये बैज अपना रंग बदल लेंगे.” पूरी चढ़ाई के दौरान बैज का रंग सफेद बना रहा.
कोहली चढ़ाई के इस अभियान का नेतृत्व करने के लिए सबसे सही व्यक्ति थे. वह बहुत अनुशासित, उत्साही और समझते थे कि उनके वरिष्ठ क्या चाहते हैं. इसके अलावा वह अपने नीचे काम करने वाले पर्वतारोहियों का भी ख्याल रखते थे. नंदा देवी बेस कैंप से कोहली रेडियो के जरिए मलिक और काओ से दिल्ली में संपर्क साधे हुए थे. चूंकि कोहली इस अभियान के नेता थे इसलिए अमेरिकी पर्वतारोहियों को भी उनके ही मातहत काम करना था.
मूल योजना के विपरीत केवल तीन ही अमेरिकी पर्वतारोही अभियान में शामिल हो सके जो थे लूट जेरस्टार्ड, टॉम फ्रॉस्ट और सैंडी बिल. बिशप इस खास अभियान में शामिल नहीं हो सके. सीआईए के केस अधिकारी बिल मैक्निफ बेस कैंप पर तैनात थे, जबकि गॉर्डन स्लीपर ने पास में ही एक रीले स्टेशन बनाया था जहां से वह प्राप्त जानकारी को सेंसर के जरिए नई दिल्ली और वॉशिंगटन भेज रहे थे.
पर्वतारोहियों ने 24 सितंबर से लेकर अक्टूबर के दूसरे हफ्ते तक अच्छी प्रगति की. अब क्लाइंबिंग का मौसम तेजी से खत्म हो रहा था. इस मौसम के ज्यादातर वक्त में कोहली और उनका दल एवरेस्ट की चढ़ाई कर रहे थे और फिर अलास्का में ट्रेनिंग ले रहे थे. जैसे ही सर्दियां शुरू हुई, उनकी और समय की मुठभेड़ शुरू हो गई. कोहली की योजना चौथे और अंतिम कैंप से शेरपाओं की एक टीम को चोटी पर भेजने की थी. ये शेरपा सामान को चोटी पर रख कर लौट आने वाले थे और इसके बाद दूसरी टीम, जिसमें दो भारतीय और दो अमेरिकी पर्वतारोही थे, चोटी पर चढ़ कर यंत्र को वहां फिट करने वाले थे. चोटी चौथे कैंप से 300 मीटर की ऊंचाई पर थी और साफ मौसम में सिर्फ पांच घंटे में यह चढ़ाई की जा सकती थी. लेकिन 16 अक्टूबर को बर्फ गिरने लगी और आसपास धुंध छा गई. साथ ही भूस्खलन का भी खतरा बढ़ गया. उनकी टीम के सदस्यों को थकान और सर दर्द होने लगा. कोहली ने जेरस्टार्ड से मश्वरा किया, जो 1963 में अमेरिकी एवरेस्ट दल के सदस्य थे, और दोनों इस बात पर सहमत हुए कि अब आदमियों को खतरा है और यहां से चढ़ाई करना असंभव है. कोहली ने रेडियो के जरिए दिल्ली में यह समाचार पहुंचा दिया. पर्वतारोहियों को चोटी से नीचे लेकर आने का मतलब था कि अगले साल मई तक इस अभियान को स्थगित करना. लेकिन फिर भी दिल्ली में अधिकारी ने उनकी बात को बेमन से स्वीकार कर लिया. इसके अलावा कोहली को इस बात की भी अनुमति दी गई कि वह जनरेटर और सेंसर को चौथे कैंप में सुरक्षित छोड़ देंगे. भंगू और छह शेरपा को पहाड़ी में एक गुफा मिल गई जहां वे सामान को रख सकते थे.
सर्दी भर आराम करने के बाद कोहली की टीम 1966 में नंदा देवी वापस लौटी. इस बीच चीन ने मिसाइल के जरिए अपना तीसरा परमाणु परीक्षण कर लिया था. इस बात से दिल्ली और अमेरिका में तनाव था. अबकी योजना थी कि कैंप चार में पहुंचेंगे और वहां रखे सामान को लेकर चोटी में लगा देंगे. लेकिन जब भंगू और शेरपा वहां पहुंचे तो उन्होंने पाया कि सामान गायब है. इसके अलावा जिस पत्थर के नीचे उन्होंने उसे छुपाया था वह भी वहां नहीं था. साफ था कि भूस्खलन में पत्थर खिसक गया है. जब यह खबर दिल्ली और वॉशिंगटन पहुंची तो हड़कंप मच गया. कोहली बताते हैं कि “जनरेटर को लेकर अमेरिकी बहुत दुखी थी. उन्होंने इसे कैसे तैयार किया था और कैप्सूलों को कैसे इसमें लगाया था, ये टॉप सीक्रेट बातें थीं और वे इसे खोना नहीं चाहते थे.” अमेरिकियों के पहली प्रतिक्रिया ने भारतीयों को चिंता में डाल दिया. उन्होंने मलिक से कहा कि अगर यह सामग्री गंगा में पहुंच गई तो करोड़ों लोग मारे जाएंगे. कोहली को लगता है कि अमेरिका ने यह बात बढ़ा-चढ़ा कर की थी ताकि “हम लोग खोज में तेजी लाएं.” लेकिन इसके बावजूद मलिक संभावित पारमाणु त्रासदी से चिंतित थे. इसके अगले दो सालों तक सीआईए और आईबी ने इस गुमशुदा यंत्र की खोज में टीमें भेजीं.
पांच
पिछले साल जुलाई में मैं कैप्टन एमएस कोहली से नागपुर में मिला जहां वह अपनी पत्नी पुष्पा के साथ दो मंजिले मकान में रहते हैं जो नेशनल हाईवे-सात से सटे एक पॉश इलाके में है. कोहली 79 साल के हैं लेकिन एकदम तंदुरुस्त हैं. हर दिन वह सुबह 4 बजे उठ जाते हैं और हाईवे पर वॉक करने निकलते हैं. इस हाईवे में उनका एक होटल है. इसके अलावा उनका एक होटल दक्षिण दिल्ली में लेडी श्री राम कॉलेज में के पास है और दूसरा होटल गोवा में बागा बीच के पास. उनके होटलों में नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के साथ उनके बड़े पोस्टर लगे हैं. उन्होंने बताया, “मेरे छोटे बेटे के ससुर नागपुर से हैं और उन्होंने कहा है कि नागपुर आने वाले समय में एक बड़ा शहर बनने वाला है इसलिए यहां निवेश करना सही होगा. इसलिए हमने हाईवे में कुछ जमीन खरीद ली.”
कोहली आईटीबीपी में नौ साल तक रहे. नौसेना में वह कप्तान की रैंक तक पहुंचे. 1972 में वह एयर इंडिया में बतौर मैनेजर डैप्यूटेशन में आए जहां पहले मुंबई में और बाद में सिडनी में नियुक्त हुए. उन्होंने बताया, “मैं तोड़ कर रख देने वाले पर्वतारोहण अभियानों से थक गया था और हिमालय से ऊब चुका हूं. इसलिए यहां रहता हूं.”
जैसे ही मैंने अपना रिकॉर्डर और नोटबुक बाहर निकाला, वह तपाक से बोले, “अच्छी बात है कि हमारी बातों को रिकॉर्ड कर रहे हो. यह एक ऐतिहासिक रिकॉर्डिंग होगी. आखिर मैं अपनी जिंदगी के अंतिम हिस्से में हूं और न जाने कब लंबी रिकॉर्डिंग करने फिर मौका मिले? मैंने कोहली से दो दिनों में चार चरणों में बातचीत की. कोहली ने मुझे उस अभियान के बारे में सब कुछ बताया. उन्होंने डायलॉग और सीन के साथ उस अभियान की कहानी सुनाई. लेकिन कोहली कहते हैं कि उनको जासूस कहना ठीक नहीं है.
“देखो हम लोग जासूस नहीं हैं. हम लोग एडवेंचर करने वाले लोग हैं. हमारे लिए वह पर्वतारोहण अभियान एक विशेष उद्देश्य से किया गया पर्वतारोहण ही था.”
मेरे हर सवाल का जवाब देने से पहले कोहली रुक कर उस सवाल पर विचार करते और फिर व्यवस्थित तरीके से एक पॉइंट के बाद दूसरा पॉइंट रखते, एकदम पर्वतारोहियों की तरह जो संभल-संभल कर खतरनाक चोटियों पर पैर धरते हैं.
वह बताने लगे, “तुम्हें इस अभियान की सबसे अनोखी बातों पर लिखना चाहिए जो हैं, एक, नंदा देवी का संयुक्त अभियान दुनिया का सबसे बड़ा अभियान था क्योंकि उस टीम में बहुत सारे लोग थे. कुलियों और शेरपाओं के अलावा उसमें परमाणु विशेषज्ञ, गुप्तचर विभाग के अधिकारी, कम्युनिकेटर जैसे खास एजेंट थे जो आमतौर पर होने वाले पर्वतारोहण अभियान में नहीं होते. दूसरा, वह अभियान लंबा था क्योंकि आमतौर पर एक अभियान चार महीने चलता है, मतलब माउंट एवरेस्ट के अभियानों की भी यही अवधि होती है लेकिन वह अभियान चार साल तक चला. पर्वतारोहण के मौसम में आप पहाड़ में होते थे और जब मौसम नहीं होता था तो आप दिल्ली में अगले साल इसी अभियान की तैयारी कर रहे होते थे. और तीसरा, यह कि वह बहुत गोपनीय मिशन था. तुम खुद ही देखो यह कितने साल तक गुप्त बना रहा. और चौथी महत्वपूर्ण बात थी कि वह सबसे महंगा अभियान था. इसके लिए हेलीकॉप्टरों और संचार यंत्रों के अलावा अंतरिक्ष अभियानों में इस्तेमाल होने वाले कंबल तक हमें सीआईए ने दिए थे. वह बहुत फैंसी अभियान था.”
मैने पूछा, “आपके प्रयासों के लिए आपको कितना पैसा मिला था?”
“किसी भारतीय को एक धेला तक नहीं मिला. सारे भारतीय पर्वतारोही सरकारी कर्मचारी थे, तो हमें सिर्फ सरकार की तनख्वा मिलती थी.”
“और अमेरिकियों को?”
“अमेरिकी तो फोकट में सुई न उठाएं. उनको खूब पैसा दिया गया होगा. सीआईए ने सभी पेशेवर पर्वतारोहियों को नियुक्त किया था. लेकिन मुझे कोई आईडिया नहीं है कि उनको कितना पैसा दिया गया.”
“क्या आपको कभी इस बात का पछतावा हुआ है कि आप एक ऐसे अभियान से जुड़े थे जिसमें इतनी गड़बड़ियां हुईं?”
“मुझे किस बात का पछतावा? मैं तो वही कर रहा था जो मेरे वरिष्ठ काओ और मलिक ने मुझे करने को कहा था. हमें कहा गया था कि यह अमेरिका और भारत दोनों के राष्ट्रीय हितों से जुड़ा अभियान है.”
“जब आपको यह पता था कि जो आप ले जा रहे हैं वह परमाणु जनरेटर है और इसमें खतरा है, तो क्या आपने कभी इस मिशन के उद्देश्य पर शक किया?”
“मेरी भूमिका सीमित थी. मैं एक पर्वतारोही था और मैंने इसके भीतर की वैज्ञानिक जटिलताओं पर ध्यान नहीं दिया, न ही मैं ध्यान देना चाहता था.”
“क्या आप अपनी टीम के दूसरे सदस्यों के लिए भी यही कह सकते हैं?”
“मेरे साथी 1965 के माउंट एवरेस्ट अभियान के सदस्य थे और यह अभियान भी हमारे लिए हमारे अन्य अभियानों की तरह था. मेरे साथियों को नहीं पता था कि वह सिग्नल यंत्र चीनियों के परमाणु कार्यक्रम की जानकारी अमेरिकियों को कैसे देने सकेगा, और कैसे चीनियों के परमाणु ठिकाने की जानकारी होने से फायदा होगा? यह सब साइंस और तकनीक का मामला था जो हम नहीं समझते थे, और हमें इसकी चिंता भी नहीं थी.”
“इस मिशन को किस स्तर की राजनीतिक मंजूरी थी?”
“इसे उच्चतम स्तर की राजनीतिक मंजूरी थी-- नेहरू की मंजूरी थी.”
लेकिन कोहली का नेहरू की मंजूरी का दावा तारीखों से मेल नहीं खाता. चीन ने अपना पहला परीक्षण अक्टूबर 1964 में किया था और नेहरू की मृत्यु मई में हो चुकी थी. यह संभव है कि नेहरू ने इस अभियान की मंजूरी अपनी मौत से पहले दे दी हो लेकिन अगर यही बात है, तो यह अभियान 1964 में शुरू हो जाना था, न कि 1965 में क्योंकि अमेरिकी जल्दबाजी में थे और वह पर्वतारोहण अभियान का एक पूरा मौसम गवांना नहीं चाहेंगे. इसलिए यह निश्चित लगता है कि यह निर्णय अक्टूबर 1964 और मई 1965 के बीच लिया गया जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे. शास्त्री के बारे में माना जाता है कि वह बहुत कमजोर प्रधानमंत्री थे और यह संभव है कि मलिक ने यह निर्णय खुद ही ले लिया हो. लेकिन अमेरिकी और भारतीय पक्षों के बीच क्या बातचीत हुई यह सार्वजनिक नहीं हुई है और लगता है कि एक लंबे अरसे तक सार्वजनिक नहीं होंगी. इसलिए निश्चित तौर पर यह बता पाना कि इस कार्यक्रम को किसने मंजूरी दी, असंभव है.
छह
1977 में जब पहली बार आउटसाइड पत्रिका ने इस असफल अभियान की खबर प्रकाशित की, तब जा कर भारतीय सांसदों का ध्यान इस पर गया. सांसदों ने इस मुद्दे को संसद में उठाया जिससे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को इस मामले पर चुप्पी तोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. सबसे पहला सवाल कम्युनिस्ट नेता ज्योतिर्मोय बासु ने पूछा था जो देसाई की समाजवादी सरकार को समर्थन दे रहे थे. इसके बाद कांग्रेस पार्टी के कई सांसदों ने, जो तब विपक्ष में थे, बासु की जांच की मांग का समर्थन किया. संसद में हंगामा मच गया और 17 अप्रैल 1978 को संसद में नंदा देवी अभियान पर एक घंटे की बहस हुई.
देसाई ने संसद में समझाने की कोशिश की कि इस मामले की जांच के गंभीर प्रयास किए गए हैं. उन्होंने कहा, “जैसे ही यह मामला हमारे ध्यान में आया हमने अमेरिकी अधिकारियों के समक्ष इस बारे में अपनी चिंताएं रखीं और हम इस मामले को लेकर अमेरिका से संपर्क बनाए हुए हैं और पिछले दिनों में हमने अपनी ओर से भी पूरी जांच की है. जिस तरह की अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति उस समय थी और जिस तरह का वैज्ञानिक विकास उस वक्त हो रहा था उनके मद्देनजर भारत सरकार और अमेरिकी सरकार ने उच्च स्तर पर यह तय किया था कि नंदा देवी की सबसे ऊंची चोटी पर परमाणु संचालित यंत्र लगाया जाए जिसका उद्देश्य मिसाइल विकास की जानकारी जुटाना था.”
इस मामले में देसाई ने 30 मिनट तक लगातार बात रखी और सांसद उनका भाषण यूं सुन रहे थे गोया बच्चे परियों की कहानी सुनते हैं. अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा कि “वैज्ञानिक जांच की जाएगी ताकि हम और अधिक सुनिश्चित हो सकें.” फिर भी कई नेताओं को लगा कि निष्पक्ष और सही वैज्ञानिक अध्ययन असंभव है. कांग्रेस पार्टी के सांसद के लकप्पा ने कहा, “भारतीय विज्ञानियों में पश्चिमी के दबाव को सह सकने का दमखम नहीं है.” उन्होंने कहा कि “इस देश के वैज्ञानिक बाहरी दबाव में काम करते हैं. आज देश जानना चाहता है कि हमारी स्वतंत्र सोच है या नहीं.” कांग्रेस पार्टी के ही एक अन्य सांसद के. पी. उन्नीकृष्णन ने शक जाहिर किया कि सरकार पूरी कहानी नहीं बता रही है. उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री का व्यवहार हमें चीनी कथा के उन तीन बंदरों की याद दिला रहा है जो कहते हैं कि बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, और बुरा मत सुनो. और यह सब सीआईए को बचाने की खातिर हो रहा है. यह कोई चीज को खोजने के लिए किया गया छोटा-मोटा वैज्ञानिक अभियान नहीं था. सबसे जरूरी बात यह है कि सीआईए की मौजूदगी ही इस राष्ट्र के और अन्य विकासशील राष्ट्रों के राष्ट्रीय हितों के लिए खतरा है. राजनीतिक का यह पक्ष पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है.”
मोरारजी देसाई ने अपने संबोधन के अंत में कहा, “मैं नहीं जानता कि मेरे सम्मानित मित्रों को और कैसा आश्वासन चाहिए. हम सच में और सही तरीके से गुटनिरपेक्ष हैं और हम सभी से दोस्ती रखना चाहते हैं.”
एक पखवाड़े से भी कम समय में देसाई ने छह सदस्यीय वैज्ञानिक कमेटी का गठन कर दिया. इस समिति में प्रधानमंत्री के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार डॉक्टर आत्माराम; परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष होमी सेठना, जिनकी अगुवाई में भारत ने 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया था; रक्षा मंत्री और रक्षा अनुसंधान महानिदेशालय के सलाहकार एमजीके मैनन; भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के निदेशक डॉक्टर राजा रमन्ना, जिन्होंने भारत का परमाणु रिएक्टर डिजाइन किया था; और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डॉ रामानंद स्वामी और साहा इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स के डॉक्टर ए. के. साहा थे.
उस दौर में, ये भारतीय वैज्ञानिक परमाणु और जन स्वास्थ्य के क्षेत्रों के शीर्ष वैज्ञानिक माने जाते थे. इस टीम का अनुसंधान सीआईए द्वारा मुहैया कराए गए दस्तावेजों पर आधारित था क्योंकि 13 साल पहले हुए मामले में अनुसंधान करने के लिए और कुछ नहीं था. इस दल ने सरकार को जो पहली सिफारिश की वह थी कि नंदा देवी के आसपास की हवा, पानी और मिट्टी में रेडियोएक्टिव विकिरण की जांच समय-समय पर की जाए. दूसरी सिफारिश थी कि इस यंत्र को खोजने के लिए नई तकनीक विकसित की जाए. लेकिन इस कमेटी ने यह भी रेखांकित किया कि गुमशुदा यंत्र से दुर्घटना होने की संभावना कम है. फिर भी विज्ञानिकों ने यही कहा कि गुमशुदा यंत्र को ढूंढा जाना जरूरी है. आज उस कमेटी की रिपोर्ट के 30 साल बाद और उस अभियान के 45 साल बाद भी उस जनरेटर को खोजने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है.
सात
उपमहाद्वीप की सबसे लंबी नदियों में से एक है गंगा. इसकी कई मुख्य धाराएं हैं. इनमें से एक है ऋषि गंगा जो नंदा देवी ग्लेशियर से निकलती है. यह रैणी गांव से ज्यादा दूर नहीं है. यहां पहुंचने पर ऋषि गंगा के पानी में नंदा देवी अभ्यारण में होने वाली बारिश का पानी और हिम के पिघलने से निकला पानी मिल जाता है.
रैणी पहुंचने के लिए मैंने राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर यात्रा की. मैंने ऋषिकेश और जोशीमठ के बीच कच्ची सड़क पर 250 किलोमीटर लंबी यात्रा मुख्यतः मॉनसून के महीनों में की. उस रात इस राजमार्ग में भूस्खलन लगातार हो रहा था. सड़क से कई मीटर नीचे गहरी खाई में गंगा तीव्रता से बहती है और भूस्खलन के चलते बड़ी मात्रा में पत्थर, मिट्टी, उखड़े पेड़ और यहां तक कि प्लास्टिक बैग सड़क पर आ जाते हैं. इस वजह से कई घंटों तक, कभी-कभी तो कई दिनों तक, यह सड़क बंद रहती है. यहां की चौकसी सेना का सीमा सड़क संगठन करता है. वह मलबे को सड़क से हटाता है. खाकी वर्दी में बीआरओ के जवान कैटरपिलर खोदक मशीनें चलाते हैं और बीआरओ के सबकॉन्ट्रैक्टरों के लिए काम करने वाले झारखंड के किशोर बेलचों और फड़वों से सड़क साफ करते हैं. गाड़ी सड़क से गुजरने लायक होते ही सड़क खोल दी जाती है. एक बार में एक तरफ से दस गाड़ियां पहले निकलती हैं, फिर दूसरी तरफ से दस गाड़ियों को जाने दिया जाता है. मिट्टी का पानी सड़क में भर जाता है और सड़क पर चलने वाली गाड़ियों के चक्के फिसलते हैं. एक गलती हुई कि आप पहाड़ी से 300 या 400 मीटर नीचे बह रही गंगा में समा गए. जब मूसलाधार बारिश होती है तो आप नीचे गंगा को देख नहीं सकते लेकिन उसके गुस्से को सुन सकते हैं. गैलनों पानी एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर टकराता है जिससे जबरदस्त ऊर्जा निकलती है. यदि प्लूटोनियम से भरा स्नैप 19सी नंदा देवी से बह कर गंगा नदी में आ जाए तो यह बहुत तीव्रता से नीचे की ओर बहेगा.
मैं ऋषि गंगा के मुहान के सबसे करीबी गांव रैणी पहुंचा. रैणी गांव जोशीमठ से 25 किलोमीटर दूर है. जोशीमठ हिंदुओं का पवित्र स्थल है. आठवीं शताब्दी में हिंदू धर्म प्रचारक शंकराचार्य ने जिन चार मठों की स्थापना की थी, उनमें से एक है जोशीमठ. लेकिन आज यहां 15000 से भी कम आबादी है और बड़ी संख्या में सेना और अर्धसैनिक बल के जवान तैनात हैं. यहां पर नाइंथ इन्फेंट्री ब्रिगेड, गढ़वाल स्काउट, इंजीनियरिंग कोर, सिग्नल कोर, सीमा सुरक्षा बल और इंडो तिब्बतन बॉर्डर पुलिस के जवान तैनात रहते हैं.
1962 में चीन के साथ हुए युद्ध के बाद तिब्बत से लगे इस गांव का महत्व भारत के लिए बढ़ गया है. शाम को हम देख सकते हैं कि भारतीय सिपाही अपने अधिकारियों के कुत्तों को हरि मारुति जिप्सी में घुमाने ले जाते हैं. जहां भी सड़क चौड़ी मिलती है, सिपाही जीप रोक कर कुत्तों को सुसु-पॉटी कराते हैं और आगे की सीट पर बैठे अधिकारी यह सब देख रहे होते हैं. तीन घंटे और कई भूस्खलनों को पार कर मैं जोशीमठ से रैणी पहुंचा. अल्पाइन वृक्षों के परे छोटे-छोटे घर नजर आ रहे थे. वहां रहने वाले लोगों और वहां के वृक्षों के सिरों से बादल चिप कर चलते हैं. शाम को सूरज की साफ रोशनी में रैणी गांव जगमग आ रहा था. रैणी में तकरीबन 800 लोग रहते हैं जो मुख्यता भोटिया जनजाति समाज के हैं. जानवरों को चराने के अलावा ये लोग खेती किसानी करते हैं. यहां पर दलहन, सेब और कुंहड़े उगाए जाते हैं. यहां के अधिकतर घर दो कमरों की झोपड़ियां होते हैं जिसमें स्लेट नुमा छत होती है. इस तरह छत बनाने से भारी बर्फबारी में घर नीचे बैठता नहीं है. इन घरों के कमरों में खिड़कियां नहीं होतीं लेकिन जैसे ही आप घर से बाहर निकलते हैं तो आप तितलियों और चिड्डों से घिर जाते हैं और पृथ्वी की सबसे स्वच्छ हवा आपके अंदर समा जाती है. जंगली फूलों की खुशबू आपको और जवान कर देती है.
1982 में नंदा देवी को राष्ट्रीय पार्क घोषित कर इसे पर्यटकों के लिए बंद कर दिया गया. यहां के सबसे सीनियर कुली 85 साल के इंदर राणा को लगा कि मैं देहरादून से आया कोई सैन्य अधिकारी हूं जो यह देखने आया है कि पार्क खोल सकते हैं या नहीं.
नंदा देवी अभ्यारण प्राकृतिक विविधता की दृष्टि से समृद्ध है. यहां 300 से अधिक दुर्लभ वनस्पति और लगभग 80 दुर्लभ जानवर हैं. इन वनस्पतियों में देवदार, संटी और जूनिपर हैं. यहां हिम चीता, हिमाली काला हिरण और हिमाली कस्तूरी मृग पाए जाते हैं. 1988 में यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत स्थल घोषित किया था. संपूर्ण अभ्यारण और इसकी चोटियां भोटिया सहित आम लोगों के लिए निषेधित क्षेत्र है और घुसपैठ करने वालों पर आपराधिक मामला दर्ज किया जाता है. लेकिन कभी कभार सेना अपने जवानों को क्लाइंबिंग के प्रशिक्षण के लिए जहां भेजती है. नंदा देवी पहुंचने के दो रास्ते हैं. आप ऋषि गंगा की गंगोत्री की ओर बढ़ सकते हैं या फिर आप बगल के लता गांव से होकर यहां पहुंच सकते हैं. लेकिन स्नैप 19सी यहां से उसी हालत में बाहर निकल सकता है जबकि ग्लेशियर पिघल जाए और बर्फ और पानी उसे बहा कर ऋषि गंगा में फेंक दें. रैणी गांव के लोग ऋषि गंगा से आगे कुछ किलोमीटर की ऊंचाई में रहते हैं लेकिन ऋषि गंगा का पानी ही उनके लिए पीने, खाना बनाने, नहाने, सिंचाई करने के काम आता है. राणा ने मुझे बताया कि सदियों से यही हो रहा है पर वे चाहते हैं कि आगे आने वाले वक्त में भी यह व्यवस्था बनी रहे.
वह कार्तिक के अलावा दूसरे वरिष्ठ कुली हैं जिनको तीन साल चले स्नैप खोजी अभियान की याद है. यहां से कई किलोमीटर दूर वह खो गया था. जहां वह बक्सा लापता हुआ था उसकी ऊंचाई समुद्र तल से 7500 मीटर ऊपर है लेकिन राणा और अन्य यह तो समझते हैं कि कोई महत्वपूर्ण चीज खो गई थी परंतु उनको यह नहीं पता कि वह क्या चीज थी. इसके साथ ही उनको इसके खतरे का अंदाजा भी नहीं है.
वैज्ञानिक समिति की पहली सिफारिश यह थी कि जलवायु, स्थानीय वन्य जंतु तथा मिट्टी और नदी के किनारे की बालू का अध्ययन हो. लेकिन अब भी विकिरण की निगरानी नहीं हो रही है. यहां सिर्फ रैणी को ही संभावित त्रासदी का खतरा नहीं है. ऋषि गंगा धौली गंगा से मिलती है जो चीन से आती है और फिर दोनों मिल कर विष्णुप्रयाग में अलकनंदा नदी से मिल जाते हैं. आगे चल कर ये दोनों नदियां भागीरथी से मिलती हैं जिससे गंगोत्री बनती है. इन नदियों के पानी में हजारों लोग आश्रित हैं और गंगा के पानी में तो करोड़ों. 1966 में सीआईए ने आईबी को जो आरंभिक चेतावनी दी थी उससे पता चलता है कि खतरा कितना बड़ा है. सीआईए ने कहा था कि कलकत्ता तक के लोग नष्ट हो जाएंगे. लेकिन अमेरिका ने वैज्ञानिक समिति को बाद में जो बताया कि स्थिति कम खतरनाक है. अमेरिका ने बताया कि जनरेटर से परमाणु त्रासदी होने की संभावना नहीं है, इससे केवल सीमित नुकसान हो सकता है उनको जो विकिरण के प्रत्यक्ष प्रभाव में आएंगे. वैज्ञानिक समिति को बताया गया कि सामग्री जब गंगा के जलाश्यों में पहुंचेगी तो उसका कॉन्संट्रेशन बहुत कम हो चुका होगा. लेकिन विकिरण का प्रभाव, खासकर अपने कम स्तरों में तुरंत दिखाई नहीं देता और इससे होने वाली धीमी मृत्यु पूरी तरह से बिना पहचान के भी रह सकती है. छोटे शहरों के चिकित्सा अधिकारियों के पास मौत के कारण के रूप में विकिरण का पता लगाने की क्षमता नहीं होगी क्योंकि आरंभिक एक्स्पोजर के बाद कम से कम मौत होने में साल नहीं तो महीनों तो लगेंगे ही.
मैं जब उन कुलियों की खोज कर रहा था जिनको कोहली और उनकी टीम ने काम पर लगाया था तो मुझे पता चला कि वे सभी मर चुके हैं. सीनियर कुली कार्तिक राणा और इंदर राणा ने मुझे बताया कि इन कुलियों की मौत 30 या 40 की उम्र में ही हो गई थी, हालांकि जो लोग 1965 के इस अभियान में शामिल नहीं हुए वे लोग 80 साल तक जीए. लेकिन इतने बरसों के बाद यह साबित कर पाना नामुमकिन है कि कुलियों की असामयिक मौत का कारण जनरेटर से हुआ विकिरण था. आज भी यह तय कर पाना मुश्किल है कि गुमशुदा जनरेटर का खतरा कितना बड़ा है. अमेरिका ने 1978 में वैज्ञानिक समिति को जो जानकारी दी थी उसके अलावा कोई और अध्ययन नहीं हुआ है. अगर वैज्ञानिक समिति की सिफारिशों के अनुसार अध्ययन किया जाता तो शायद हमें पता होता कि इस गुमशुदा यंत्र का खतरा बड़ा है कि छोटा.
आठ
भारत में कई सरकारी संस्थान हैं जो परमाणु सामग्री के खतरे का अध्ययन कर सकते हैं. भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार, परमाणु ऊर्जा आयोग, परमाणु ऊर्जा विभाग, भाभा परमाणु शोध केंद्र, परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन ऐसा अध्ययन कर सकते हैं. एक तरह से देखें तो भारत में परमाणु नौकरशाही बहुत बड़ी है. उपरोक्तों में से कम से कम चार संस्थान के प्रमुख परमाणु वैज्ञानिक हैं. पूरे महीने भर मैं इन संस्थाओं के प्रमुखों से मिलने की कोशिश करता रहा. दो संस्थाओं ने यह कह कर मिलने से इनकार कर दिया कि मैं क्यों इस खबर को कर रहा हूं. एक सचिव ने कहा कि यह एक पुरानी खबर है और कोई भी अधिकारी 45 साल पुराने संवेदनशील मामले पर टिप्पणी करना नहीं चाहेगा. कई प्रयासों के बाद एक प्रमुख संस्थान के प्रमुख ने मुझसे मिलने की हामी भरी लेकिन यह शर्त रखी कि मैं उनका या उनकी संस्था के नामों का उल्लेख रिपोर्ट में नहीं करूंगा.
गांधी जयंती कि सुबह मैं उस कार्यालय में पहुंचा. वहां जो अधिकारी मुझसे मुखातिब हुए वह भारत के परमाणु और रक्षा कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. इन प्रमुख ने मुझे यह समझाने की कोशिश की कि मैं इस खोए हुए यंत्र के बारे में रिपोर्ट न करूं. उन्होंने कहा, “जहां तक सरकार का सवाल है यह चैप्टर बंद हो चुका है.”
मैंने उनसे पूछा कि वैज्ञानिक समिति की सिफारिशों को लागू नहीं करने की क्या वजह है, तो उन्होंने कहा यह पुरानी घटना है और “इसके बारे में मुझसे कुछ मत पूछिए और इसमें ज्यादा घुसने की जरूरत भी नहीं है.” एक घंटे लंबी मुलाकात में उन्होंने मुझे इस कहानी के अलावा दूसरी कहानियों के बारे में समझाया जो उनके अनुसार इससे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.
इस 45 साल पुरानी परमाणु कहानी की समस्या यह है कि एक या दो पीढ़ियों के वैज्ञानिकों ने इस स्थिति पर नजर दौड़ाई और आगे बढ़ गए. फाइल बंद कर दी गई और कोई उम्मीद नहीं है कि इस मामले में दुबारा जांच शुरू होगी. उस वैज्ञानिक ने मुझसे कहा कि “मैं आपको सिर्फ इतना बता सकता हूं कि वह परमाणु यंत्र नंदा देवी की धरती के नीचे है.” “1974 और 1998 में हमने परमाणु परीक्षण किया था, वे भी जमीन के अंदर किए गए थे. इसलिए कुछ नहीं होगा.”
मैंने उनसे कहा कि भारत ने परमाणु परीक्षण राजस्थान की रेत में किया था जबकि नंदा देवी में वह यंत्र बर्फ के अंदर दबा है और ग्लेशियर खिसकते हैं. यदि ऐसा होता है तो एक दिन वह बाहर आ जाएगा. मेरे सवाल के बाद वह कुछ देर तक खामोश रहे फिर कहा कि मुझे जो कहना था मैंने कह दिया और इससे अधिक मुझसे न पूछिए.
जहां तक परमाणु वैज्ञानिकों की बात है तो उनके लिए उस जनरेटर का मामला खत्म हो चुका है. लेकिन ग्लेशियर वैज्ञानिक इस विचार को ठीक नहीं मानते. उनके अनुसार राजस्थान के रेगिस्तान के विपरीत हिमालय के ग्लेशियर स्थिर नहीं हैं. और नंदा देवी ग्लेशियर तो हर साल कुछ सेंटीमीटर खिसकता है. डॉक्टर मिलाप चंद शर्मा, जिन्होंने ग्लेशियर का अध्ययन किया है, कहते हैं कि हमें इस ग्लेशियर के अचानक खिसकने से डरना चाहिए. भारत में ग्लेशियर विज्ञान शिशु अवस्था में है और यहां बहुत कम इसके विशेषज्ञ हैं. जब मैं नंदा देवी ग्लेशियर के विशेषज्ञों की तलाश कर रहा था तो मुझे डॉक्टर शर्मा से मिलने को कहा गया जो दिल्ली के जवाहरलाल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने हाल ही में नंदा देवी का ध्यान शुरू किया है.
दूसरी बात, राजस्थान के रेगिस्तान और हिमालय के ग्लेशियरों के सीस्मिक पॉइंट भी नाटकीय स्तर तक भिन्न है. ग्लेशियर न सिर्फ खिसकते हैं बल्कि वे ऐसी जगह हैं जहां भूकंप और झटके आते रहते हैं.
सीस्मोलॉजिस्ट हिमालय को सीस्मिक हजार्ड वाला क्षेत्र मानते हैं जहां भारतीय प्लेट एशियन प्लेट को टक्कर मारती रहती है और गंगा के मैदारी क्षेत्रों में झटके आना अवश्यंभावी है. यह बात विज्ञान पत्रिका साइंस में 2001 में प्रकाशित एक शोध पत्र में कही गई है. लेकिन आज यह जटिलताएं भारत के परमाणु टेक्नोक्रेट्स के लिए मन खट्टा करने वाला समाचार है. उनका दृष्टिकोण एकतरफा है और वे सीस्मोलॉजिस्टों और ग्लेशियोलॉजिस्टों के विचारों को समझने में दिलचस्पी नहीं रखते. वे यही मानने को राजी नहीं है कि न्यूक्लियर यंत्र गायब है और यह भी कि वह कभी भी बाहर आ सकता है.
नौ
मोरारजी देसाई की 1978 की वैज्ञानिक समिति के छह वैज्ञानिकों में से एक एमजीके मेनन एकमात्र ऐसे वैज्ञानिक हैं जो अभी जीवित हैं और भारतीय वैज्ञानिक बिरादरी में उनका कद बहुत बड़ा है. ब्रिटेन में पार्टिकल फिजिक्स में पीएचडी करने के बाद वह भारत के स्वतंत्र होने के बाद स्वदेश लौटे थे. इसके बाद कई दशकों तक उन्होंने भारत की वैज्ञानिक संस्थाओं को आकार देने में प्रमुख भूमिका निभाई. इसके साथ ही वह परमाणु इमल्शन तकनीक और पराकिरणों पर अपना शोध भी जारी रखे हुए थे. विज्ञान में उनके योगदान के लिए मार्स और जूपिटर के बीच एक छोटे उल्कापिंड को उनका नाम दिया गया है. वह भारतीय अंतरिक्ष शोध संगठन के अध्यक्ष भी थे. वह राजीव गांधी के वैज्ञानिक सलाहकार थे और वीपी सिंह की सरकार में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री थे. आज वह 82 साल के हैं. वह अब ज्यादातर वक्त घर और दक्षिण दिल्ली स्थित अपने ऑफिस में होते हैं.
सितंबर में मैं उनसे मिलने उनके ऑफिस गया. उनकी दाढ़ी और बाल सफेद हो चुके हैं और वह नीले रंग का कॉटन का कुर्ता पहने हुए थे और बहुत ही शांत भाव से बोल रहे थे. एक बड़ी मेज के उस तरफ वह बैठे थे और इस तरफ मैं. हम दोनों के बीच एक लैंप जल रही थी. हमारी बातचीत के दौरान पूरा समय वह मेरी आंखों में झांकते रहे. मैंने उनसे पूछा कि उनका नंदा देवी अभियान और वैज्ञानिक समिति की रिपोर्ट के बारे में क्या ख्याल है? सवाल सुनकर वह मुझे घूरने लगे और फिर उन्होंने कहा कि वह बहुत पुरानी बात है. “एक यंत्र था, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता लेकिन उसकी डिटेल को याद करना मेरे लिए बहुत कठिन है.” मैंने 1979 की रिपोर्ट अपने बैग से निकाल कर उनके हाथों में दी तो एक जिज्ञासु छात्र की तरह वह रिपोर्ट के पेज पलटने लगे. फिर उन्होंने कहा, “यह तो एक गोपनीय दस्तावेज है. यह तुम्हें कहां से मिला?” फिर इसके बाद कई मिनटों तक वह उस रिपोर्ट के पेज पलटते रहे. फिर बोले, “ये सभी लोग आज जीवित नहीं है. आत्माराम, सेठना, रमन्ना, रामलिंगा स्वामी और साहा. बस मैं ही जिंदा हूं.”
इसके बाद वह इत्मिनान के साथ रिपोर्ट के पन्ने पलटने लगे. उन्होंने कहा, “वह बम नहीं है इसलिए घबराने की कोई बात नहीं है. वह प्लूटोनियम से चलने वाला यंत्र है इसलिए विकिरण का खतरा हो सकता है. इतना तो कर ही सकते हैं कि समय-समय पर जांच की जाए और तकनीक की मदद से उसका पता लगाने की कोशिश की जाए.” जब मैंने बताया रिपोर्ट में की गईं सिफारिशों को नजरंदाज किया गया है तो उनका जवाब था, “सरकार में किसी को इस पर गौर करना चाहिए.”
मैंने उनसे वैज्ञानिक समिति को अमेरिका द्वारा उपलब्ध कराई जानकारी के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा, “हमने उन्हीं बातों पर भरोसा किया जो दस्तावेज में थीं. हमारी समिति का मैंडेट बहुत सीमित था. एक जनरेटर था जिससे किसी यंत्र को चलाना था. हमें बस उसी के बारे में शोध करना था. हमने यह नहीं पूछा कि वह यंत्र क्या था या उसमें परमाणु सामग्री थी कि नहीं.”
मेनन ने बताया कि उन्होंने तब कोई सबूत नहीं देखा था जो कहता हो कि 1965 में इस अभियान का आदेश देते वक्त सरकार में रिस्क असेसमेंट किया था. हालांकि इस तरह की असेसमेंट अनिवार्य होते हैं. फिर उन्होंने कहा, “देखो, अब सब कुछ याद करना मेरे बस में नहीं है. बस मैं यही अपनी बात पूरी करता हूं.”
मेनन बहुत सतर्क होकर बोल रहे थे. फिर दोबारा रिपोर्ट के पन्ने पलटने लगे. “देखो, खतरा तभी है जब वह यंत्र लीक कर जाए और प्लूटोनियम को पानी में छोड़ने लगे. इससे लोगों की मौत हो सकती है. प्लूटोनियम ऐसी चीज नहीं है कि आप इसे मानव उपस्थिति के बीच रखना चाहेंगे. वह जहरीला होता है और उससे विकिरण होता है, और यदि वह आपके शरीर में प्रवेश कर जाता है तो आपकी हड्डियों तक पहुंच जाता है.”
मैंने पूछा कि सरकार को क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा कि सरकार को उसे ढूंढ निकालना चाहिए. वह कहते हैं, “उस इलाके का नक्शा तो बनाया जा सकता है. उस जगह की मोटी जानकारी हमारे पास है और यह काम कुछ सालों में पूरा हो सकता है.”
“लेकिन यह बहुत खर्चीला होगा”, मैंने कहा.
उन्होंने जवाब में कहा, “यदि आपकी कोई खतरनाक चीज गुमी हई है तो आपको उसे ढूंढना होगा, नहीं तो कम से कम उस इलाके पर नजर रखनी चाहिए ताकि आप लोगों के प्रति जवाबदेहिता की भावना से काम करें.”
वह एकमात्र व्यक्ति नहीं है जो सोचते हैं कि सरकार को नंदा देवी के आसपास परमाणु विकिरण की जांच करानी चाहिए. दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में नंदा देवी का मामला कभी कबार चर्चा में आ जाता है और जिन लोगों ने इस घटना के बारे में नहीं सुना होता है उनके लिए यह चौंकाने वाला होता है. जब गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज को इस यंत्र के खोने के बारे में पता चला तो उन्होंने तुरंत ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस बाबत पत्र लिखा. सिंह का जवाब औपचारिक था जिसमें उन्होंने कहा था कि “मुझे आपका 26 अगस्त 2009 का पत्र मिला जिसमें नंदा देवी में एक परमाणु डिवाइस के गुम हो जाने की बात है. धन्यवाद, आपका मनमोहन सिंह”.
इसके बाद और कुछ नहीं किया गया. जब मैं महाराज से मिला, जो तब संसद की सुरक्षा मामलों की स्थायी समिति के सदस्य भी थे, तो उन्होंने कहा है कि सरकार को इस पर खर्च करना चाहिए. उनका कहना था, “वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी लोग इस घटना के बारे में शर्मिंदा हो सकते हैं और इसलिए वे इसके बारे में कुछ नहीं करना चाहेंगे, लेकिन हम जनता की आवाज हैं. यह मामला गंभीर चिंता का विषय है और इसलिए मैं इस मामले को उठा रहा हूं.”
मैंने उनसे पूछा कि उनकी क्या मांग है? उन्होंने कहा, “मेरी पहली मांग तो यही है कि इस यंत्र को खोजा जाए और यदि यह संभव नहीं है तो कम से कम नदी की जांच होती रहे. यह किया जा सकता है और इसे किया जाना चाहिए.”
इस यंत्र को खोजने का आखरी प्रयास 1966 और 1968 में हुआ था. उस वक्त जो तकनीक भारतीयों और अमेरिकियों ने अपनाई थी वह थी मेटल डिटेक्टर और न्यूट्रॉन सेंसर का इस्तेमाल करना जो उस वक्त की सबसे उन्नत तकनीक थी. लेकिन आज, दशकों बाद, इससे भी बेहतर तकनीक दुनिया के पास है. आज जमीन भेदी रडार और हाइपर्सपेक्ट्रेल इमेजिंग का इस्तेमाल हो सकता है जो पत्थर और हिम के नीचे गहरे तक देख सकते हैं. मुझे एक परमाणु वैज्ञानिक ने कहा था कि तकनीकी तौर पर यह मुमकिन है. उनका कहना था, “सैद्धांतिक रूप से यह संभव है लेकिन सरकार के लिए इस खर्च को जस्टिफाई करना मुश्किल होगा.”
अमेरिकियों से भी इस खोज के लिए धन की मांग की जा सकती है लेकिन चूंकि अमेरिकी ऐसे किसी अभियान की बात से ही इनकार करते हैं यानी कि 1978 में मोरारजी देसाई की संसद में स्वीकारोक्ति के बावजूद वे नहीं मानते कि ऐसा कोई अभियान हुआ था, इसलिए यह सोचना कि अमेरिका इस अभियान के लिए धन देगा बचकाना लगता है.
यह अभियान भारतीय और अमेरिकी पक्ष के लिए राजनीतिक रूप से बहुत शर्मिंदगी वाली बात है और कोई भी पक्ष जासूसी अभियान की विफलता का क्रेडिट लेना नहीं चाहता.
दस
अगर सरकारी वैज्ञानिकों की बात सही भी है कि गुमशुदा परमाणु यंत्र के ग्लेशियर द्वारा बहा कर गंगा में ले आने की संभावना नहीं है तो भी ऐसी कई परिस्थितियां हैं जिनमें वह बाहर आ सकता है और जिसे वह मिलेगा वह इसे मनुष्यों के बीच ला सकता है. मान लो कि वह किसी रद्दी वाले के हाथ लगता है तो हो सकता है कि इससे रेडिएशन का खतरा कई गुना बढ़ जाए.
ऐसा ही एक हादसा दिल्ली में हो चुका है जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय के कबाड़ में निकले सामान से रेडियोएक्टिव विकिरण हुआ था जिससे एक व्यक्ति की जान चली गई थी और दो लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे. 1968 में दिल्ली विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र संकाय ने अपनी लैब के लिए कनाडा की कंपनी से परमाणु पावर पैक खरीदा था और उसमें कोबाल्ट-60 मुख्य परमाणु मटेरियल था. कुछ साल बाद उसे विश्वविद्यालय के परिसर में छोड़ कर भुला दिया गया और वह यूं ही खुले में पड़ा रहा. पिछले साल विश्वविद्यालय ने एक कबाड़ी को कबाड़ बेच दिया. उस कबाड़ी को पता नहीं था कि वह सामग्री क्या है. उसने उसे गलाने के लिए जला दिया जिससे पूरे रद्दी बाजार में विकिरण फैल गया. यहां तक की परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड तक को खबर नहीं थी कि सिविलियन के हाथों में परमाणु पहुंच गया है. एक वरिष्ठ न्यूक्लियर वैज्ञानिक ने, जो सरकारी संस्था में काम करते हैं, मुझे बताया, “यह हमारी गलती थी. यह नियामक संस्था की गलती थी.”
मायापुरी रद्दी बाजार में जिस कामगार ने उस सामग्री को फोड़ा था वह तेज विकिरण की चपेट में आकर मारा गया. उस दुकान का मालिक और मालिक का दोस्त, जिन्होंने चमकीली वस्तु समझ कर परमाणु सामग्री को अपने पर्स में रख लिया था, वे किस्मत से बच गए क्योंकि उनके जलने के कारण को तुरंत पहचान लिया गया कि वह रेडिएशन के चलते है. स्थानीय अखबारों ने इस घटना को पहले पन्ने की खबर बनाई और दबाव के चलते सरकार के मंत्रिमंडल ने सिफारिश की कि कबाड़ के लिए कड़े मानक बनाए जाएंगे.
लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या देश के अन्य स्थानों में रेडिएशन का इतनी ही तेजी से पता चल सकता जैसा कि दिल्ली में हो सका. खासकर, नंदा देवी के गांवों में क्या दिल्ली की तरह पता लगाया जा सकेगा कि परमाणु विकिरण के चलते लोग बीमार पड़ रहे हैं? मैंने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के सदस्य मेजर जनरल डॉक्टर जे.के. बंसल से बात की जिन्होंने मायापुरी के पीड़ितों का इलाज किया था. उन्होंने बताया, “रेडिएशन के संपर्क में आने वालों को विशेषज्ञों द्वारा इलाज किए जाने की जरूरत होती है. दूसरे शब्दों में अगर परमाणु हादसा भारत में कहीं होता है तो इसकी मेडिकल प्रतिक्रिया बहुत धीमी और अपर्याप्त होगी.” डॉक्टर बंसल ने मायापुरी के पीड़ितों की भयावह तस्वीरें मुझे दिखाईं जो सार्वजनिक नहीं की गई थीं. उनके चेहरे में गहरे काले धब्बे बन गए थे और एक के नितंब में नारंगी कलर के छाले पड़ गए थे मानो कोई ज्वालामुखी फटा हो. इन दोनों ने परमाणु सामग्री को पैंट की जेब में रख लिया था और रात को जब सोने गए तो तकिए के नीचे दबा लिया जिससे रेडिएशन के प्रत्यक्ष संपर्क में आ गए.
ऋषि गंगा में आज भी स्थानीय लोगों को पूर्व में किए गए पर्वातारोहण अभियानों में छोड़ी गई चीजें मिलती रहती हैं. यहां नदी अपने साथ बड़ी दिलचस्प चीजें बहा कर लाती है. नदी अपने साथ चिकने, अलग-अलग रंग और आकार के पत्थर बहा कर लाती है जिनका वैसा रूप हजारों-करोड़ों सालों में बना है. इनके अलावा नदी ऐसे पेड़ों की जड़ों और लकड़ियों को बहा कर लाती है जो हमने पहले कभी नहीं देखे होंगे. इसके साथ ऋषि गंगा अपने साथ बाहर कर लाती है पूर्व के अभियानों का कचरा, आज का नहीं क्योंकि नंदा देवी पार्क बाहरी लोगों के लिए कबका बंद कर दिया गया है. ये कचरा पार्क बंद होने से पहले यहां हुए अभियानों का होता है. इसमें टीन के डिब्बे, चमड़े के जूते, गैस सिलेंडर, टॉर्च, प्रेशर कुकर, कुल्हाड़ी, प्लास्टिक बैग और थर्मस आदि होते हैं. गोपाल राणा ने मुझे बताया, “हमारे बच्चे बड़ी अजीब-अजीब चीजें पाते हैं और घर ले आते हैं. मेरे घर में जो प्रेशर कुकर है वह भी इसी तरह बह कर आया था.”
(कारवां अंग्रेजी के दिसंबर 2010 के अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का अनुवाद विष्णु शर्मा ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)