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मेरे जीवन के शुरुआती पंद्रह वर्षों तक हर गर्मियों में हमारा परिवार खानकोट स्थित अपने गांव जरूर लौटता था. अमृतसर के बाहरी हिस्से में नाशपाती के पेड़ों से घिरे हमारे गांव पर धीरे-धीरे शहर उग आया है. वहां से स्वर्ण मंदिर, जिसे श्रद्धालु अक्सर दरबार साहिब कहते हैं, बमुश्किल दस किलोमीटर दूर है. कभी घर पहुंचते ही हमारा वहां जाना तय होता था. स्मृति में दर्ज वे यादें अभी भी एक दुर्लभ सुकून का एहसास दिलाती हैं. हवा में उठता गुरबानी का स्वर धीरे-धीरे मंदिर के चारों ओर सरोवर पर पसर जाता था. यही वह जगह है जो अमृतसर को उसका नाम देती है- अमृत का सरोवर. हर सुबह जब सूरज की रोशनी पानी पर झिलमिलाने लगती है, तो श्रद्धालुओं के समूह परिक्रमा करते हुए तालाब के मुख्य मार्ग से मंदिर के बीचोंबीच बने सोने से अलंकृत हरमिंदर साहिब तक का सफर तय करते हैं. दरबार साहिब सिख धर्म का केंद्र है. सुबह और शाम की प्रार्थना के अंत के अलावा हर धार्मिक और सामाजिक अवसर और जन्म, विवाह और मृत्यु जैसे मौकौं पर पढ़ी जाने वाली सिख अरदास (ईश्वर से विनती) में शामिल कुछ पंक्तियां हैं :
सिक्खा नू सिक्खी दान
केश दान
रेहित दान
बिबेक दान
पुरोसा दान
नाम दान
श्री अमृतसर साहिब दे स्नान
(सिखों को सिख धर्म, लंबे केश, अच्छे आचरण, ज्ञान, अटूट विश्वास, आस्था, पावन नाम और अमृतसर के पावन कुंड में स्नान का वरदान दे.)
पंजाब में 1980 की शुरुआत से 1990 के मध्य तक चले उग्रवाद के उपरांत दरबार साहिब में आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ. यहां आने वालों की लंबी कतारें अब सामने के सेतुमार्ग को लांघ कर आगे बढ़ जाती हैं, लेकिन इससे यहां के शांत वातावरण पर कोई फर्क नहीं पड़ा है. यह शांति हालांकि यहां के इतिहास के बरअक्स खड़ी नजर आती है. भारत में किसी भी अन्य प्रमुख धर्म की आस्था के स्थल को शायद कभी ऐसी हिंसा से नहीं गुजरना पड़ा है, जैसे हरमिंदर साहिब को.
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