31 अक्टूबर 1984, बुधवार. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके दो सिख गार्डों ने हत्या कर दी. इसके बाद लगभग तीन दिनों तक दिल्ली में हुई हिंसा में 2733 सिख मारे गए. कानपुर, बोकारो, जबलपुर और राउरकेला सहित कई और भारतीय शहरों में भी सिखों पर हमला किया गया. ये स्वतंत्र भारत में सांप्रदायिक हिंसा के सबसे खूनी और क्रूर मामलों में से एक है.
अगले दो दशकों में नौ जांच आयोग बनाए गए. इनमें सात ने त्रासदी के विशिष्ट पहलुओं की जांच की. जैसे मृतकों की संख्या, जिसे आधिकारिक तौर पर 1987 में आहूजा समिति द्वारा स्थापित किया गया था. दो पैनल- रंगनाथ मिश्रा आयोग, जिसका गठन 1985 में हुआ और जस्टिस जीटी नानावती आयोग, जिसकी अंतिम रिपोर्ट 2005 में प्रकाशित हुई थी, इसे संपूर्णता में हिंसा को देखना का जिम्मा सौंपा गया था.
उन दो आयोगों की रिपोर्टों में अभी भी चौंकाने वाली बातें हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए. दोनों ने कई पीड़ितों और गवाहों की गवाही और कुछ आरोपियों के बयान भी लिए. इनमें पुलिस अधिकारी भी शामिल थे, जो बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों में ड्यूटी पर थे. फिर भी दर्ज की गई गवाहियां और निष्कर्ष न सिर्फ पूरी तरह बेमेल हैं, बल्कि आयोगों के अपने पर्यवेक्षण, उनके निष्कर्षों का खंडन करते हैं.
30 सालों से लगातार इन निष्कर्षों के आधार पर ये दावा किया गया है कि इन्दिरा गांधी की मौत के बाद हुई हिंसा सुनियोजित नहीं थी बल्कि लोगों का दुख हिंसा में तब्दील हो गया था. लेकिन इन आयोगों के रिकॉर्ड स्पष्ट रूप से एक बात स्थापित करते हैं जो इस तरह के निष्कर्षों को गलत बताते हैं. 31 अक्टूबर को शुरू हुई निंदनीय हिंसा पहले तो अपने आप शुरू हुई लेकिन बाद में एक सुनियोजित नरसंहार में तब्दील हो गई. जो 1 से 3 नवंबर तक जारी रही.
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