31 अक्टूबर 1984, बुधवार. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके दो सिख गार्डों ने हत्या कर दी. इसके बाद लगभग तीन दिनों तक दिल्ली में हुई हिंसा में 2733 सिख मारे गए. कानपुर, बोकारो, जबलपुर और राउरकेला सहित कई और भारतीय शहरों में भी सिखों पर हमला किया गया. ये स्वतंत्र भारत में सांप्रदायिक हिंसा के सबसे खूनी और क्रूर मामलों में से एक है.
अगले दो दशकों में नौ जांच आयोग बनाए गए. इनमें सात ने त्रासदी के विशिष्ट पहलुओं की जांच की. जैसे मृतकों की संख्या, जिसे आधिकारिक तौर पर 1987 में आहूजा समिति द्वारा स्थापित किया गया था. दो पैनल- रंगनाथ मिश्रा आयोग, जिसका गठन 1985 में हुआ और जस्टिस जीटी नानावती आयोग, जिसकी अंतिम रिपोर्ट 2005 में प्रकाशित हुई थी, इसे संपूर्णता में हिंसा को देखना का जिम्मा सौंपा गया था.
उन दो आयोगों की रिपोर्टों में अभी भी चौंकाने वाली बातें हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए. दोनों ने कई पीड़ितों और गवाहों की गवाही और कुछ आरोपियों के बयान भी लिए. इनमें पुलिस अधिकारी भी शामिल थे, जो बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों में ड्यूटी पर थे. फिर भी दर्ज की गई गवाहियां और निष्कर्ष न सिर्फ पूरी तरह बेमेल हैं, बल्कि आयोगों के अपने पर्यवेक्षण, उनके निष्कर्षों का खंडन करते हैं.
30 सालों से लगातार इन निष्कर्षों के आधार पर ये दावा किया गया है कि इन्दिरा गांधी की मौत के बाद हुई हिंसा सुनियोजित नहीं थी बल्कि लोगों का दुख हिंसा में तब्दील हो गया था. लेकिन इन आयोगों के रिकॉर्ड स्पष्ट रूप से एक बात स्थापित करते हैं जो इस तरह के निष्कर्षों को गलत बताते हैं. 31 अक्टूबर को शुरू हुई निंदनीय हिंसा पहले तो अपने आप शुरू हुई लेकिन बाद में एक सुनियोजित नरसंहार में तब्दील हो गई. जो 1 से 3 नवंबर तक जारी रही.
कई सालों तक पीड़ितों, गवाहों और पर्यवेक्षकों ने संदेह जताया है कि हिंसा कांग्रेस पार्टी के आलाकमान द्वारा कराई गई थी. कुछ कांग्रेस नेताओं, विशेष रूप से सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर के खिलाफ मामले सामने आए. लेकिन अभी तक किसी वरिष्ठ राजनेता या पुलिस अधिकारी को सजा नहीं हुई है.
इस लेख में शामिल किए गए ताजा सबूत बताते हैं कि हिंसा के आदेश इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी राजीव के चचेरे भाई और विश्वासपात्र सांसद अरुण नेहरू की ओर से आए थे. हालांकि, ये साक्ष्य अप्रत्यक्ष गवाही है, लेकिन मिश्रा और नानावटी कमिशन की रिपोर्टों में काफी मात्रा में परिस्थितिजन्य साक्ष्य उपलब्ध हैं जो इसे मजबूत करते हैं. इससे ये भी पता चलता है कि साजिश जो संगठित हिंसा और आयोगों के रिकॉर्ड और उनके निष्कर्षों के बीच की असमानता का कारण बनी, वो त्रासदी के दो अलग-अलग नहीं बल्कि एक-दूसरे से जुड़े पहलू हैं.
[ I ]
सुबह 9 बजे के बाद इंदिरा गांधी अपने घर 1 सफदरजंग रोड पर आसन्न बंगले में अपने ऑफिस की ओर बढ़ीं, जहां एक टेलीविजन पत्रकार पीटर उस्तीनोव अपने दल के साथ उनका इंटरव्यू करने के लिए इंतजार कर रहे थे. एक हेड कांस्टेबल उनकी खिदमत में हाजिर था जो गांधी की सूरज से रक्षा के लिए छतरी पकड़े हुए था. एक और पुलिस वाला, उनका निजी अटेंडेंट और निजी सचिव आरके धवन भी उनके साथ थे.
बंगलों को अलग करने वाले गेट की सुरक्षा में दो सिख जवान तैनात थे, जिन्होंने एक ही शिफ्ट में होने के लिए ताम-मेल बिठाया था. अपनी सर्विस रिवाल्वर से लैस बेअंत सिंह ने दूसरे पुलिस वाले के साथ अपनी ड्यूटी बदली थी. सतवंत सिंह के पास एक सेमी-ऑटोमेटिक कार्बाइन थी. उसे पता था कि गेट के पास एक शौचालय है. पेचिश का बहाना बनाकर उसने अपनी ड्यूटी यहां लगवाई थी.
एक हफ्ते पहले दोनों ने अमृत में हिस्सा लिया था, ये एक सिख समारोह होता है जिसमें आमतौर पर सबसे वफादार हिस्सा लेते हैं. उनका उत्साह ऑपरेशन ब्लूस्टार का सीधा परिणाम था. 1984 की पहली छमाही में सिख उग्रवाद ने, कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल के बीच बड़े पैमाने पर राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और जरनैल सिंह भिंडरावाले द्वारा निर्देशित होने की वजह से एक क्रूर मोड़ ले लिया था. 1 जनवरी से 3 जून के बीच पंजाब में लगभग 300 सिख और हिंदू मारे गए थे. गांधी ने तब सेना को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में अपने गढ़ से भिंडरावाले और उसके साथियों को बाहर निकालने के लिए ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ शुरू करने का निर्देश दिया. एक अनुमान के मुताबिक कम से कम 700 लोग मारे गए, इनमें लगभग 350 नागरिक थे, जो एक बुरे ऑपरेशन का अनजाने में शिकार हुए. हमले के अंत में 6 जून को सिखों के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक अकाल तख्त, धुएं के खंडहर में तब्दील हो गया. यहां तक कि वो सिख जो भिंडरावाले के आलोचक थे, सेना की कार्रवाई पर क्षुब्ध हो गए.
जैसे ही गांधी गेट के पास पहुंचीं, बेअंत और सतवंत ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं. बेअंत ने रिवाल्वर से पांच और सतवंत ने कार्बाइन से 25 गोलियां चलाईं. जैसे ही वो जमीन पर गिरीं दोनों ने अपने हथियार डाल दिए और उन्हें हिरासत में ले लिया गया. गांधी को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाया गया, जहां उन्हें उसी दिन मृत घोषित कर दिया गया.
दो निहत्थे और लड़ने की हिम्मत खो चुके जवानों को भारत-तिब्बत सीमा बल के कर्मियों ने एक गार्डरूम में हिरासत में ले लिया, जहां उन्हें जल्द ही बंदूक की गोली के गंभीर घाव का सामना करना पड़ा. एक तरफ जहां सतवंत बुरी तरह घायल था, वहीं बेअंत की मौत हो गई. (साढ़े चार साल बाद सतवंत को फांसी की सजा दी गई.)
शाम 4.30 बजे भारत के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह देश में वापस आ गए थे, जिन्हें उत्तर यमन की यात्रा से जल्दबाजी में दिल्ली लाया गया था. हवाई अड्डे से वे सीधे एम्स पहुंचे. एक कार में उनके प्रेस सचिव त्रिलोचन सिंह थे. कमल सिनेमा क्रॉसिंग के पास अस्पताल से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर त्रिलोचन ने लगभग 20 लोगों की भीड़ देखी. उन्होंने दिसंबर 2001 में नानावटी आयोग को बताया, "वो लाठियों और मशाल से लैस थे." उनके आगे की कारों को भीड़ ने बिना किसी घटना के जाने दिया लेकिन उनकी कार पर हमला किया गया. उन्होंने कहा, "उन्होंने मेरी कार के शीशे तोड़ दिए और उस पर मशालें फेंकना चाहते थे. मेरे निर्देश पर ड्राइवर ने कार को तेजी से वहां से निकाला और इस तरह मैं खुद को बचा सका."
त्रिलोचन के ड्राइवर ने रूट बदला और उसने राष्ट्रपति भवन का रुख किया. बाद में उस शाम राष्ट्रपति भवन पहुंचने के बाद त्रिलोचन ने कहा कि उन्हें "सुरक्षा अधिकारी ने बताया कि एम्स के पास मुख्य क्रॉसिंग के पास राष्ट्रपति की कार पर भी हमला किया गया था, लेकिन राष्ट्रपति की पुलिस एस्कॉर्ट, भीड़ को भगाने में सफल रही." उन्होंने आगे कहा कि रात 8 बजे तक राष्ट्रपति के कर्मचारियों को सिखों के फोन आने लगे जिसमें बताया गया, "शहर के विभिन्न हिस्सों में दंगे भड़क उठे हैं और सिखों पर हमला किया जा रहा है. तब हमने राष्ट्रपति से संपर्क कर मिली जानकारी से अवगत कराया. उन्होंने हमें बताया कि सिखों पर हमले के संबंध में उन्हें दो या तीन कॉलें आई हैं."
उस दिन की हिंसा के सारांश में नानावती आयोग ने लिखा है "इस तरह के सार्वजनिक आक्रोश का पहला मामला दिल्ली में नाराजगी के कारण हुआ". ये दोपहर 2.30 बजे के आसपास हुआ, जब जनता को संदेह हुआ कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने चोटों के कारण दम तोड़ दिया था और राहगीरों ने सिखों के साथ मारपीट शुरू कर दी थी. बाद की हिंसा शाम 5 बजे के आसपास दर्ज की गई, "जब राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के कारों के जत्थे पर एम्स में पथराव किया गया." शाम 6 बजे ऑल इंडिया रेडियो पर गांधी की मृत्यु की घोषणा की गई. इसके तुरंत बाद, राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली.
नानावती आयोग ने लिखा है कि लगभग उसी समय, "दिल्ली के कई हिस्सों में भीड़ हिंसक हो गई थी."
सिखों को पीटा गया और उनकी गाड़ियों को जला दिया. तब तक हमले उन व्यक्तियों द्वारा किए जा रहे थे जो सड़कों पर आ गए थे ताकि पता चल सके कि क्या हुआ था और क्या हो रहा था. ये छिट-पुट घटनाएं थीं और हमले बिल्कुल भी संगठित नहीं थे. तब तक हमलावर हथियारों या ज्वलनशील सामग्री से लैस नहीं थे. जो कुछ भी हाथ आया उससे उन्होंने सिखों को मार डाला और उनकी गाड़ियों को जला दिया. सिखों के घरों या दुकानों को नुकसान पहुंचाने की भयावह घटनाएं हुईं.
ऐसे में ये साफ था कि सिखों को सामूहिक रूप से निशाना बनाया जा रहा था और दिल्ली प्रशासन जिसके प्रमुख लेफ्टिनेंट गवर्नर पीजी थे, उनके द्वारा हिंसा को रोकने के लिए अतिरिक्त बलों को तैनात करना एक न्यायसंगत फैसला होता. राजधानी में और आसपास सेना ने आमतौर पर एक पैदल सेना ब्रिगेड और एक आर्टिलरी ब्रिगेड को बनाए रखा था. राजपूताना राइफल्स के रेजिमेंटल ट्रेनिंग सेंटर में जो कुछ भी सीमित मानवीय शक्ति उपलब्ध थी, उसे भी बुलाया जा सकता था. उस समय के सेनाध्यक्ष जनरल एएस वैद्य ने बाद में मिश्रा आयोग को बताया कि 31 अक्टूबर को सुबह 10.30 बजे मेरठ से दिल्ली जाने के लिए 1600 सैनिकों की एक अतिरिक्त ब्रिगेड का आदेश दिया गया था और ये आधी रात से पहले राजधानी पहुंच गई. दिल्ली क्षेत्र के कमांडिंग ऑफिसर, मेजर जनरल जेएस जामवाल ने आयोग को बताया कि सैनिकों की कुल संख्या 6100 थी. उन्होंने कहा, "आधे से कम फील्ड ड्यूटी के लिए उपलब्ध थे जबकि बाकी 3100 को या तो तीनमूर्ति भवन में हलचल को नियंत्रित करने के लिए लगाया गया था, जहां दिवंगत प्रधान मंत्री का शरीर था या शक्ति स्थल मार्ग पर पोस्ट किया गया था, जहां गांधी का अंतिम संस्कार किया जाना था." वैद्य ने कहा कि अगर कहा जाता तो वे जामवाल को दिल्ली प्रशासन को तुरंत सैन्य सहायता देने के लिए अपनी सहमति दे देते.
लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया. दिल्ली के पुलिस आयुक्त सुभाष टंडन ने मिश्रा आयोग को बताया कि दिल्ली में पर्याप्त फौज नहीं थी, लेकिन ये स्पष्ट रूप से गलत था, आयोग ने खुद पाया कि उनका बयान पूरी तरह से "निराधार" था. आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि अगर 1 नवंबर 1984 की सुबह फौज को बुलाया गया होता और "5000 सेना के जवानों को कॉलम में विभाजित कर सड़कों पर सही ढंग से सशस्त्र करके तैनात किया गया होता तो कम से कम 2000 लोगों की जान बच सकती थी." दूसरे शब्दों में कहें तो, कम से कम 2000 लोगों की जानें चली गईं क्योंकि दिल्ली प्रशासन ने सेना को तैनात करने का फैसला नहीं लिया.
नानावती आयोग ने पाया कि 1 नवंबर की सुबह से "हमलों की प्रकृति और तीव्रता बदल गई, लगभग 10 बजे के बाद 'खून का बदला खून से लेंगे’ जैसे नारे लगा रही भीड़ शहर में उत्पात मचाने लगी." अफवाहें फैलाई गईं, जिससे लोगों को सिखों के खिलाफ भड़काकर उन्हें बदला लेने के लिए उकसाया गया." इन अफवाहों में एक यह थी कि सिखों ने दिल्ली के पीने के पानी में जहर मिला दिया है, और एक यह कि पंजाब से आने वाली हर ट्रेन में गैर-सिखों के दर्जनों शव पड़े हैं. मिश्रा आयोग ने पाया, "ये सरासर झूठ था लेकिन इसका उद्देश्य सिखों के खिलाफ भीड़ को उकसाना, आतंक पैदा करना और लोगों में नफरत पैदा करना था."
भीड़ अच्छी तरह से व्यवस्थित थी. नानावती आयोग द्वारा स्वीकार किए गए सबूतों के अनुसार, "कुछ जगहों पर हिंसक हमलों में लिप्त होने वाले भीड़ डीटीसी बसों या राज्य परिवहन निगम से संबंधित अन्य वाहन में आई थी." हमलावर या तो हथियारों और ज्वलनशील सामग्री जैसे कि केरोसिन, पेट्रोल और कुछ सफेद पाउडर से लैस थे या उन्हें ऐसी चीजों से जल्द ही लैस किया गया जब उन्हें उन इलाकों में ले जाया गया, जहां सिखों पर हमला किया जाना था." (पाउडर सफेद फॉस्फोरस होने की संभावना थी. ज्यादातर घरों या साधारण दुकानों में इस वाष्पशील पदार्थ का स्टॉक नहीं किया जाता. इस पदार्थ की एक भारी मात्रा अचानक दिल्ली में भीड़ के लिए उपलब्ध हो गई थी. इसकी जांच नहीं की गई थी.)
आयोग ने सबूतों में स्वीकार किया कि पिछली शाम को, “ऐसे लोगों की बैठकें हुईं, जो हमलों का आयोजन कर सके या उनसे संपर्क किया गया जो सिखों को मारने और उनके घरों और दुकानों को लूटें. हमलों को एक व्यवस्थित तरीके से पुलिस के बिना डर के किया गया था. जिससे लगभग ऐसा लगा कि उन्हें आश्वासन दिया गया था कि उन कृत्यों को करते समय उन्हें न अब और न ही बाद में नुकसान होगा.”
हत्या का एक साधन शहर भर के इलाकों में आम था:
सिख समुदाय के पुरुष सदस्यों को उनके घरों से निकाल कर पहले उन्हें पीटा गया फिर बेरहमी से जिंदा जला दिया गया. कुछ मामलों में पुरुषों के गर्दन में टायर लगा उनके ऊपर मिट्टी का तेल या पेट्रोल डालकर आग लगा दी गई. कुछ मामलों में उन पर सफेद ज्वलनशील पाउडर फेंका गया, जिससे तुरंत आग लग गई. यह एक सामान्य प्रक्रिया थी जो आतंक मचाने वाली भीड़ ने कई इलाकों में अख्तियार की थी. इन इलाकों में सिखों के स्वामित्व वाली दुकानें “पहचान कर लूटीं और जला दी गईं. ये शुरुआत जो एक नाराजगी के रूप में शुरू हुई थी, जो एक संगठित नरसंहार में बदल गई."
इन बातों से यह साफ लगता है कि 31 अक्टूबर की रात दंगाइयों को यह निर्देश दिए गए थे कि सिखों को कैसे मारा जाए. साथ ही उन्हें यह आश्वासन भी दिया गया था कि पुलिस कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी. यह बात गले नहीं उतरती कि दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में दंगाइयों के अलग-अलग समूहों ने अचानक ही पीड़ितों को टायरों से बांध जिंदा जलाने का फैसला कर लिया. इसकी कहीं अधिक संभावना है कि इसका आदेश एक ही जगह से जारी किया गया हो जिसे बाद में पूरा किया गया.
इस साल मार्च में मैंने ऑपरेशन ब्लूस्टार पर रिपोर्टिंग के दौरान दिल्ली के सैनिक फार्म में पूर्व पेट्रोलियम सचिव अवतार सिंह गिल से उनके आवास पर मुलाकात की. बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि राजीव गांधी के करीबी विश्वासपात्र अरुण नेहरू ने ब्लूस्टार से महीनों पहले सेना द्वारा स्वर्ण मंदिर पर हमला करने की संभावना के बारे में उन्हें बताया था.
गिल ने कहा, “सरकार में कुछ वरिष्ठ लोगों में से एक के रूप में (भले ही मैं क्लीन-शेव था,) वह मेरे विचार जानना चाहता था. वो जानना चाहता था कि सिख समुदाय कैसी प्रतिक्रिया देगा. ये पहली बार नहीं था जब उन्होंने मुझसे पंजाब के बारे में बात की थी और उन्होंने अपने विचारों के बारे में कुछ छुपाने की कोशिश नहीं की. मुझे याद है कि वो एक बार मुझे गर्व के साथ कह रहे थे कि वो एक बाज हैं. मैंने उनसे कहा कि इस तरह की हरकत का गलत परिणाम होगा. सिखों के इतिहास को देखते हुए इसकी वजह से हत्याएं होगीं और मुझे याद है कि मैंने बहुवचन का उपयोग किया था.”
नेहरू के उल्लेख ने गिल को इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद के उनके व्यक्तिगत अनुभव की याद दिलाई. 1 नवंबर को वो अपने कार्यालय गए. “ललित होटल्स के ललित सूरी, जो अक्सर मेरे पास आते थे और मुझसे मिलते थे. वो राजीव गांधी के दूत थे और चूंकि उन्हें अक्सर किसी काम की जरूरत होती थी, इसलिए वह मेरे करीब थे. वो मंत्रालय में मेरे पास आये और कहा, 'अरुण नेहरू द्वारा दिल्ली में हत्याओं की मंजूरी दे दी गई है जिससे हत्याएं शुरू हो गई हैं. रणनीति के तहत सिख युवाओं को पकड़ना है, उनके सिर में एक टायर डालना है, उन्हें मिट्टी के तेल में भिगोना है और फिर आग लगा देनी है. इससे हिंदुओं का गुस्सा शांत होगा.''
सूरी, गिल ने कहा, "मुझे बताया गया कि मुझे सावधान रहना चाहिए, भले ही मेरा नाम दिल्ली गुरुद्वारा मतदाताओं की वोटर लिस्ट में नहीं है. उन्हें ये लिस्ट दी गई है. यह आज शुरू होकर तीसरे दिन समाप्त होगा.''
फिर गिल ने मुझे एक किस्सा सुनाया जो उस दिन के पागलपन से जुड़ा था. “तीसरे दिन, जो इंदिरा गांधी के दाह संस्कार का दिन था, जब लोग उनके शरीर को अंतिम सम्मान दे रहे थे, उस शाम ललित सूरी ने एक आदमी को पीएमओ से कार में मेरे पास भेजा. प्रधानमंत्री कार्यालय के आदमी ने मुझसे कहा, 'सूरी ने कहा है कि आप अभी भी वहां नहीं गए हैं, शाम हो गई है, आपको जाना चाहिए.' जब मैंने पूछा कि क्यों, तो आदमी ने कहा, यह सब टीवी कैमरों पर रिकॉर्ड किया जा रहा है, और सूरी साहब ने मुझे आपको लाने के लिए भेजा है. वो मुझे उस कार में ले गए, जहां श्रीमती गांधी मृत पड़ी थीं. जब मैं घर पहुंचा तो मेरी पत्नी ने बताया कि उसने मुझे टीवी पर बॉडी परिक्रमा करते हुए देखा है."
अरुण नेहरू की हिंसा में भूमिका थी ये बात लंबे समय से एक व्यापक अफवाह के रूप में फैली थी, लेकिन गिल के बयान के बाद पहली बार एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने ऑन रिकॉर्ड आरोप लगाए थे. उनकी कहानी दिल्ली में हिंसा की प्रकृति के लिए पहली सुसंगत व्याख्या प्रस्तुत करती है. शायद इसका सबसे करीब समानांतर गुजरात के गृह मंत्री हरेन पंड्या (जिनकी की हत्या कर दी गई) के द्वारा लगाए गए आरोप हैं. पांड्या ने दावा किया था कि 27 फरवरी 2002 को, जिस दिन गुजरात के गोधरा में हिंदू तीर्थयात्रियों से भरी ट्रेन को जलाया गया- नरेंद्र मोदी, जो राज्य के मुख्यमंत्री थे, ने अपने आधिकारिक बंगले पर एक बैठक की थी. जिसमें उन्होंने विशेष रूप से वरिष्ठ नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे लोगों को "उनका गुस्सा शांत करने" दें. पिछले एक दशक में पांड्या की गवाही को खारिज करने का एक बड़ा प्रयास किया गया है फिर भी अहमदाबाद में हुई व्यापक हिंसा के दौरान गुजरात पुलिस की निष्क्रियता को लेकर कोई और स्पष्टीकरण सामने नहीं आया है. इसी तरह से नवंबर 1984 की शुरुआत की घटनाओं के लिए कोई और अधिक अस्पष्ट, विश्वसनीय स्पष्टीकरण सामने नहीं आया है.
गिल की कहानी में विस्तार से भरी लंबी पहेली के एक टुकड़े को हल करने में मदद मिलती है. 1984 की हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने में वकील एचएस फुल्का सबसे आगे रहे हैं. जब मैंने उन्हें गिल के साथ अपनी बातचीत के बारे में बताया, तो उन्होंने तुरंत गुरुद्वारा की मतदाता सूचियों का उल्लेख किया, जिसमें दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनावों में वोट देने के योग्य लोगों के नाम शामिल थे. फुल्का ने कहा, "हमने हमेशा सोचा था कि सरकारी मतदाता सूची में किसी के अंतिम नाम के साथ लिखा ‘सिंह’, उसे सिख बताने के लिए काफी था. लेकिन, निश्चित रूप से जिस आसानी से सिख घरों की पहचान की गई, उससे समझ में आता है कि गुरुद्वारा की वोटर लिस्ट को मुहैया कराया गया था."
साधारण चुनावी रोल स्थानीय कांग्रेस नेताओं के लिए सुलभ या परिचित हो सकते हैं, लेकिन छोटे स्तर के नेताओं के पास डीएसजीएमसी लिस्टों की कॉपियां रखने का कोई कारण नहीं था, जो चुनाव अभियानों में भी किसी काम की नहीं होतीं. ये भी सोच से परे है कि हिंसा शुरू होने के बाद स्थानीय गुरुद्वारों से ये लिस्ट प्राप्त की गई थी. हालांकि, फुल्का के पास ये मानने के कारण थे कि लिस्ट शासन के उच्च रैंक के लोगों के पास उपलब्ध थीं. उन्होंने कहा, “जब हम मिश्रा आयोग के सामने पेश करने के लिए सबूत जुटा रहे थे, तो हमें कुछ खुफिया लोगों ने बताया कि ऑपरेशन ब्लूस्टार से कुछ समय पहले दिल्ली के सिखों की प्रतिक्रिया से डरकर सरकार द्वारा सिख समुदाय की विस्तृत जानकारी इकट्ठा की गई थी. लेकिन दुर्भाग्य से हमें इसका कोई स्वतंत्र सबूत नहीं मिला."
दिल्ली के सबसे खतरनाक इलाके त्रिलोकपुरी में हुए नरसंहार के रिकॉर्ड से पता चलता है कि दिल्ली पुलिस ने हमलों का जोरदार समर्थन किया था. यहां तीन दिनों के दौरान ब्लॉक 32 में लगभग 250 मीटर की दूरी पर 300 से अधिक लोगों की हत्या कर दी गई. त्रासदी की सबसे कम रिपोर्ट की गई घटनाओं में से एक इस घटना में कई महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. सभी आयोगों ने हिंसा के इस पहलू को बहुत लापरवाह तरीके से दर्ज किया.
मिश्रा आयोग के सामने रिकॉर्ड दर्ज कराने वाले 300 गवाहों के हलफनामों में से 30 से अधिक त्रिलोकपुरी के थे. इनमें अधिकांश का मूल्यांकन इस बात को प्रमाणित करता है कि हिंसा काफी हद तक व्यवस्थित थी. सबसे व्यापक रूप ब्लॉक 29 निवासी 37 साल के तेजिंदर सिंह का बयान था जिनके ऊपर नरसंहार के दौरान हमला किया गया था.
“1-11-84 को सुबह 10-11 बजे के करीब मुझे पता चला कि भीड़ ने ब्लॉक नंबर 6 में गुरुद्वारे पर हमला कर आग लगा दी है. उस समय गुरुद्वारे से बहुत धुआं निकल रहा था और बहुत शोर सुनाई दे रहा था. लगभग 11:30 बजे भीड़ हमारी ओर नारे लगाती आ रही थी, “इंदिरा तुम्हारा नाम हमेशा अमर रहेगा. सिखों को मार डालो, सिख गद्दार हैं, खून का बदला खून, सरदारों के घर जला दो.” जब भीड़ 32 ब्लॉक में गुरुद्वारे की ओर बढ़ी तो कुछ सिखों ने भीड़ को रोकने की कोशिश की. जिस पर भीड़ ने बोतलें और बम जैसी चीजें फेंकीं, जो एक बड़े धमाके के साथ फट गए. भीड़ बोतलें और बम फेंक रही थी और सरदारों पर पत्थर भी बरसा रही थी. दूसरी तरफ से सिर्फ पत्थर फेंके जा रहे थे, तब भी भीड़ सेक्टर-32 में गुरुद्वारे की ओर आगे बढ़ने का साहस नहीं जुटा सकी.”
तेजिंदर के अनुसार, दोपहर 3 बजे के बाद तक टकराव जारी रहा तब एक स्थानीय हवलदार राजबीर कुछ साथी पुलिसकर्मियों के साथ घटनास्थल पर पहुंचा.
मैं राजबीर को जानता हूं और उसे पहचान सकता हूं. राजबीर ने सरदारों को संकेत दिया कि वो अपने घरों को वापस चले जाएं. उसने कुछ राउंड फायर भी किए जिससे सरदारों के मन में डर पैदा हो गया. पुलिसकर्मियों ने जोर देकर कहा कि सरदार अपने कृपाण उनके हवाले कर दें क्योंकि उनके घरों में जाने के बाद पुलिस वाले उनकी रक्षा करेंगे.
जैसे ही सरदार अपने घरों में वापस गए, भीड़ आगे बढ़ी और पुलिस से वो कृपाण लेने लगी जिसे पुलिस ने सिखों से छीन लिया था. इसके बाद सरदारों पर हमला किया गया और लगभग 4:00 बजे सरदारों की हत्या शुरू हो गई. यदि पुलिस पार्टी ने उस मोड़ पर भीड़ की मदद नहीं की होती, तो सरदार भीड़ का सफलतापूर्वक विरोध कर खुद को बचा लेते.
अपने निष्कर्ष में मिश्रा आयोग ने आंशिक रूप से इस तरह की गवाही को स्वीकार किया है. इसमें कहा है, "ये बताने के लिए पर्याप्त सामग्री मौजूद है कि कई स्थानों पर पुलिस ने सरदारों के हथियार या अन्य चीजें छीन ली थीं जिससे वो खुद को भीड़ द्वारा किए गए हमलों से बचा रहे थे. पुलिस द्वारा सरदारों को घरों के अंदर जाने के लिए मनाए जाने के बाद उन्हें आश्वासन दिया गया था कि वो पूरी तरह से सुरक्षित रहेंगे लेकिन उन पर हमले शुरू हो गए. ये सब तब नहीं होता जब ये सिर्फ नाराज जनता की सहज प्रतिक्रिया मात्र होती."
आयोग ने जो टिप्पणी या जिसकी पर्याप्त रूप से जांच नहीं की, वह यह है कि ये इस बात की गवाही थी कि पुलिस ने हिंसा में सक्रिय रूप से सहयोग किया, जिससे भीड़ को पीड़ितों की ओर निर्देशित किया गया. 2 नवंबर की आधी रात के आसपास तेजिंदर का हलफनामा कहता है कि एक शराबी भीड़ ब्लॉक 29 में पहुंची- अधिकांश लोगों के हाथों में खंजर था. बदमाशों में से एक अपने खंजर से मुझ पर हमला करने वाला था, लेकिन निसार नाम के एक मुसलमान के हस्तक्षेप से मैं बच गया. भीड़ में अधिकांश लोग स्थानीय थे.
ये भीड़ रात भर अपने नापाक इरादों को अंजाम देती रही. ब्लॉक 29 में दुकानों के शटर तोड़ दिए. ये बाकी ब्लॉकों में भी गए और जिस किसी स्कूटर पर अपना हाथ रखते उसे चौक पर लाकर आग लगा देते. इस दौरान मैंने देखा कि पुलिस जीप कई बार इस क्षेत्र से गुजरी और लूटपाट, आगजनी और हत्या के काम में तेजी लाने के लिए भीड़ को उकसाया.
पुलिस ने कुछ सरदारों के बारे में भी इन बदमाशों को बताया जिन्होंने ब्लॉक 32 में कुछ घरों में खुद को छुपा लिया था. पुलिस से ये जानकारी मिलने के बाद भीड़ ब्लॉक 32 में गई और उन सरदारों की हत्या करके लौटी.
तेजिंदर ने कहा, 2 नवंबर की आधी रात से सुबह 4 बजे के बीच, "पुलिस ने ब्लॉक 30 और 32 के सिखों के शवों को ट्रक में भरकर हटा दिया. मैंने ऐसे आठ ट्रकों को देखा था." उनकी गवाही में आगे कहा गया-
2-11-84 को पूरे दिन भीड़ लाठी और तलवार लेकर घूमती रही. लगभग 11 बजे मेरा जानने वाला एक मुस्लिम मेरे घर आया और मुझे चेतावनी दी कि अब उनके लिए मेरी रक्षा करना संभव नहीं है और मुझे अपनी रक्षा खुद करनी चाहिए. थोड़ी ही देर में भीड़ ने एक बार फिर मेरे घर हमला कर मुझे पकड़ लिया. वो मेरे लंबे बाल काट रहे थे तभी पुलिस जीप अचानक से आ गई और पुलिसकर्मियों ने भीड़ को चेतावनी दी कि उन्हें वहां से भाग जाना चाहिए क्योंकि सीआरपीएफ के जवान इलाके में आने वाले हैं. यह सुनकर बदमाश वहां से रफूचक्कर हो गए और मेरी जान बच गई. मेरे घर के एक हिस्से में छोटी सी दुकान चलती थी. कुछ सामान तो मैंने पहले बचा लिया था लेकिन कुछ भीड़ लूट कर ले गई.
3 नवंबर की सुबह आधी रात को आधे घंटे बाद केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल आखिरकार इलाके में पहुंची. तेजिंदर ने कहा, "उन्होंने भीड़ के कुछ लोगों को गिरफ्तार किया जो खंजर और तलवार लेकर घूम रहे थे. उन्होंने शवों को ले जाने के लिए कुछ ट्रकों को भी भेजा और ऐसे सरदार जो अभी तक जीवित थे और कुछ जगहों पर खुद को छुपा लिया था, उन्हें बचाकर राहत शिविरों में भेज दिया."
हवलदार राजबीर और उनके साथी कांस्टेबल संगठित हिंसा में शामिल अधिकारियों में सबसे जूनियर थे. 1985 के मानसून के दौरान एचएस फुल्का, कल्याण वीर सिंह के संपर्क में आए, जो कल्याणपुरी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी थे, त्रिलोकपुरी पहले इसके अधिकार क्षेत्र में ही था. ‘व्हेन ए ट्री शुक डेल्ही’ में 2007 में पत्रकार मनोज मित्ता के साथ सह-लेखक के तौर पर फुल्का लिखते हैं, “मुझे त्यागी से मिलना था क्योंकि जब मैं दंगा पीड़ितों से शपथ पत्र इकट्ठा कर रहा था, तो वह भी वही कर रहा था, सिवाय इसके कि वह पूरी तरह से अलग उद्देश्य के लिए कर रहा था- खुद को बचाने के लिए.” इलाके के उन पीड़ितों की मदद से जिन्होंने त्यागी से कहा कि वे पक्ष में गवाही देने के लिए तैयार थे, फुल्का ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया.
कल्याणपुरी के पीड़ितों का वकील होने का मेरा दिखावा काफी सफल रहा. त्यागी वास्तव में मुझे यह समझाने के लिए खुल गए कि उसे ‘बलि का बकरा’ बनाया गया है. सनसनीखेज खुलासे में उसने कहा कि ये हत्याकांड, भगत के घर में 31 अक्टूबर की शाम को रची गई साजिश का नतीजा था. त्यागी के अनुसार ये जाटव सहित पूर्वी दिल्ली के पुलिस अधिकारियों की एक गुप्त बैठक थी. ऊपर से नीचे तक के अधिकारियों को ये आदेश दिया गया था कि हत्याएं होने दी जाएं और फिर अपराध के सभी निशान मिटा दिए जाएं.
भगत एचकेएल भगत थे जो पूर्वी दिल्ली से संसद सदस्य थे. उस साल बाद में उन्हें राजीव गांधी ने सूचना एवं प्रसारण मंत्री बना दिया. जाटव हुकुम चंद जाटव थे, जो दिल्ली के उत्तर, मध्य और पूर्वी जिलों के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त थे.
फुल्का ने आगे कहा :
त्यागी ने अफसोस जताते हुए कहा, हालांकि कई पुलिस स्टेशनों के आधीन व्यापक हत्याएं हुईं लेकिन वो एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जो मुश्किल में पड़ गया और इसकी वजह एक बड़ी गलती थी कि वो लाशों को ठिकाने लगाने में नाकाम रहा. बाकी जगहों पर ज्यादातर लाशों को या तो राख में तब्दील कर दिया गया या कहीं और फेंक दिया गया. त्रिलोकपुरी के ब्लॉक-32 में शवों का ढेर लगे रहने देने को लेकर त्यागी का कहना था कि इलाके में बहुत सारे शव थे. जब जाटव ने उन्हें शवों का निपटारा करने के लिए कहा तो त्यागी ने कहा कि इलाके में जितना व्यापक नरसंहार हुआ है उसके कारण कुछ हत्याओं को दिखाना होगा. त्यागी के मुताबिक, उनके जवाब ने जाटव को नाराज कर दिया, जिन्होंने बाद में एसएचओ को निलंबित कर दिया.
फुल्का ने बताया कि उन्होंने इस बातचीत को रिकॉर्ड करने की कोशिश की थी, लेकिन टेप मशीन ने सिर्फ उनके शब्दों को रिकॉर्ड किया, जिसका उनके पास अब कैसेट नहीं है. उन्होंने कहा, "हमे यह कहां पता था कि ये सब होने के 30 साल बाद भी हमें मामलों को लड़ने के लिए अदालत में जाना पड़ेगा?" लेकिन त्यागी ने कथित तौर पर फुल्का को गिल के दावों के बारे में बताया. हिंसा के निर्देश प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से ऊपर से नीचे तक पहुंचाए गए लगते हैं.
आधिकारिक तौर पर दिल्ली के पुलिस आयुक्त सुभाष टंडन को 2 नवंबर को रात 8 बजे तक त्यागी की उपस्थिति में त्रिलोकपुरी में क्या हुआ था, इसका पता नहीं था. अप्रैल 1986 की शुरुआत में मिश्रा आयोग के सामने उन्होंने बताया कि शाम 6 बजे के आसपास पुलिस मुख्यालय में एक रिपोर्ट पहुंची कि "त्रिलोकपुरी में दंगा हुआ था और घटनास्थल पर शव पड़े थे." टंडन ने कहा कि उन्होंने एक सहयोगी को जांच करने का आदेश दिया. "वो लगभग दो घंटे बाद वापस आया और पुष्टि की कि त्रिलोकपुरी में सिखों का नरसंहार किया गया था."
जाहिर तौर पर टंडन को हिंसा के लिए सबसे पहले सचेत करने वाली रिपोर्ट त्यागी या पुलिस बल के किसी अन्य सदस्य की नहीं, बल्कि पत्रकारों के एक समूह की थी. 1 नवंबर को त्रिलोकपुरी निवासी मोहन सिंह जिनके दो भाईयों की हत्या कर दी गई थी, उन्होंने किसी से अपने बाल कटवाए और वहां से भागकर सबसे पास के पुलिस स्टेशन पहुंच गए. उन्होंने आयोग को बताया, "मैंने पुलिस से मदद की भीख मांगी. लेकिन उल्टे उन्होंने मुझे बेंत से पीटकर पुलिस स्टेशन से बाहर कर दिया." मोहन फिर पुलिस मुख्यालय गया, "लेकिन जब उन्हें पता चला कि मैं एक सिख हूं तो उन्होंने भी मुझे बाहर कर दिया." यही वो मौका था जब मोहन इंडियन एक्सप्रेस समूह के अखबार जनसत्ता के कार्यालय में गए और अंततः कई पत्रकारों के साथ बात की.
राहुल बेदी इन पत्रकारों में से एक थे. अगस्त 1985 में मिश्रा आयोग के सामने दिए बयान में मोहन की कहानी भी शामिल है. बेदी के अनुसार मोहन ने दावा किया कि "उसके ब्लॉक नंबर 32 में 300 से अधिक लोगों का भीड़ ने नरसंहार किया था." 2 नवंबर को सुबह 11.30 बजे बेदी ने जब ये सुना तो दोपहर 2 बजे तक उन्होंने अपने इंडियन एक्सप्रेस के सहयोगी जोसेफ मालीकान और जनसत्ता के रिपोर्टर आलोक तोमर के साथ मिलकर वहां का रुख किया. उन्होंने बताया, "ब्लॉक 32 से लगभग 300 गज की दूरी पर कई सौ लोगों की भारी भीड़ ने हमारा रास्ता रोक लिया."
इससे पहले कि हम उन तक पहुंच पाते, दो पुलिसकर्मी जिनमें एक हेड कांस्टेबल और एक कांस्टेबल था, मोटर साइकिल पर भीड़ को चीरते हुए ब्लॉक 32 की दिशा से हमारी ओर आ रहे थे. मैंने मोटर साइकिल को रुकने के लिए कहा और हेड कांस्टेबल से पूछा कि ब्लॉक- 32 में क्या कोई हत्या हुई है. पुलिसकर्मी ने कहा कि ब्लॉक- 32 में "शांति" है. आगे की पूछताछ के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि "केवल दो" लोग मारे गए थे, इससे ज्यादा नहीं.
तेजिंदर सिंह की गवाही के मुताबिक करीब 12 घंटे बाद आठ ट्रकों में भरकर पड़ोस से शवों को हटाया गया था.
बेदी, मालीकान और तोमर फिर कल्याणपुरी स्टेशन गए और ड्यूटी ऑफिसर से वही सवाल किया. ड्यूटी अधिकारी ने भी यही कहा कि "शांति" प्रबल रूप से कायम थी और कोई भी मौत नहीं हुई थी. तभी बाहर खड़े एक ट्रक ने पत्रकारों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया.
करीब से देखने पर हमने पाया कि गाड़ी के पीछे तीन शव लदे हुए थे, जो भयंकर जलने की वजह से पहचान से परे थे और एक अधजला मुश्किल से जिंदा सिख युवक उनके ऊपर फेंका हुआ था. अपनी बेहोशी की हालत में उस आदमी ने हमें बताया कि वो पंजाब से था और त्रिलोकपुरी में रिश्तेदारों से मिलने आया था. उसने कहा, सुबह के शुरुआती घंटों में उग्र भीड़ ने उसके मेजबानों को मार डाला और उसके शरीर पर मिट्टी का तेल डालने के बाद आग लगा दी. हमसे बात करने से करीब चार घंटे पहले उन्हें 11 बजे के आसपास पुलिस स्टेशन लाया गया था. वह तब से वहीं पड़ा था.
बेदी ने आयोग को बताया कि उन्होंने शाम 6 बजे सूर वीर सिंह त्यागी को दो कांस्टेबल के साथ देखा, जो त्रिलोकपुरी पहुंचे थे. त्यागी ने दावा किया कि उसने नरसंहार के बारे में "अपने वरिष्ठ अधिकारी को रेडियो पर संदेश दिया" था. बेदी ने कहा, "ब्लॉक- 32 में सैकड़ों जले और छिन्न-भिन्न शरीर पड़े हुए थे. वीर सिंह ने मुझसे कहा, 'इसके लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं.' दंगा पीड़ितों को सुरक्षा से जुड़ी मदद करने के लिए ब्लॉक- 32 में एक घंटे तक कोई अन्य पुलिस बल नहीं पहुंचा.”
बेदी और मालीकान 3 नवंबर की सुबह त्रिलोकपुरी लौट आए. बेदी के अनुसार उन्हें कॉलोनी के प्रवेश द्वार के अंदर सुलगते हुए दो शव दिखे. 45 मिनट बाद ब्लॉक 32 से लौटकर आने के बाद उन्हें ढेर पर दो और शव पड़े मिले.
बेदी द्वारा लिखी गई कहानी बाद में इंडियन एक्सप्रेस में छपी, जो उन समाचार पत्रों में से एक था, जिसने नरसंहार को विश्वसनीय रूप से कवर किया था.
कई अन्य अखबरों में इससे पहले कि उनके रिपोर्टर अपना काम कर सकें, संपादकों ने हिंसा के बारे में उनके दिमाग में राय बना ली थी. खुशवंत सिंह ने नरसंहार की 20वीं वर्षगांठ पर आउटलुक में लिखा, "टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक गिरीलाल जैन ने हिंसा को तर्कसंगत करार दिया. उन्होंने लिखा, हिंदुओं का धैर्य पूरी तरह समाप्त हो गया. मेरी जगह हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बने एनसी मेनन ने लिखा कि कैसे सिखों ने ‘समृद्धि के लिए अपना रास्ता बनाया था' और अच्छी तरह से यह उनके पास आ रहा था."
एचएस फुल्का ने कहा कि इसके बाद का कवर-अप काफी आसान हो गया क्योंकि मीडिया, जैसे कि संपादकों के नेतृत्व ने हिंसा के दौरान और बाद में अपनी भूमिका को काफी हद तक तिलांजलि दे दी. ये 1984 की हत्याओं और 2002 में गुजरात में हिंसा के बीच अधिक महत्वपूर्ण अंतरों में से एक है. जबकि भारत की किसी भी संस्था ने अतीत से कोई सीख नहीं ली थी, मीडिया ने 2002 में बहुत अलग तरीके से प्रतिक्रिया दी. इस प्रतिक्रिया पर निजी समाचार चैनलों का प्रभाव विशेष रूप से स्पष्ट था.
1984 में देश के एकमात्र टेलीविजन दूरदर्शन द्वारा मामले की कवरेज की गई. यहां तक कि मिश्रा आयोग ने स्वीकार किया कि राज्य-नियंत्रित ब्रॉडकास्टर ने मामलों को बदतर बना दिया. 1 नवंबर को इंदिरा गांधी के शव को तीन मूर्ति भवन ले जाया गया, आयोग ने कहा, "मृत शरीर को कवर करने के लिए लाइव टेलीकास्ट की व्यवस्था की गई थी." उस सुबह, शरीर के साथ चलने वाले लोगों के एक समूह ने नारा उछाला- ‘खून का बदला खून से लेंगे’. चूंकि लाइव टेलीकास्ट की व्यवस्था तब काम कर रही थी, इसलिए चिल्लाने के साथ भीड़ टीवी पर आ गई और उनके चिल्लाने की आवाज सुनी गई.”
चैनल के महानिदेशक ने आयोग को बताया कि "दूरदर्शन के अधिकारियों ने इसकी कल्पना नहीं की थी कि दिवंगत नेता के प्रति सम्मान व्यक्त करने वाली भीड़ ऐसे नारे उछालेगी और लाइव कार्यक्रम के कारण ये टीवी पर चला जाएगा. लेकिन जैसे ही इसका पता चला लाइव टेलीकास्ट बंद कर दिया गया था." हालांकि जब आयोग ने प्रसारण की रिकॉर्डिंग चलाई तो पाया, “इस नारे को 18 बार दोहराया गया और 37 सेकेंड तक दिखाया गया था."
[ II ]
दिल्ली नरसंहार के 8 सप्ताह बाद भारत में चुनाव हुए, जिसमें देश के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा चुनावी जनादेश मिला.
कांग्रेस नेतृत्व महीनों से आम चुनाव की तैयारी कर रहा था. शुरू से ही सिख आतंकवाद पर नकेल कसना उनकी रणनीति का एक केंद्र बिंदु था. इंदिरा गांधी के निजी सचिव आरके धवन के अनुसार राजीव गांधी, अरुण नेहरू और अरुण सिंह (प्रधानमंत्री के एक अन्य सलाहकार) सभी सहमत थे कि जरनैल सिंह भिंडरावाले के खिलाफ एक सफल सेना ऑपरेशन उन्हें आसानी से वोट दिला देगा.
उस वर्ष मानसून के दौरान, कांग्रेस के एक विज्ञापन अभियान की कल्पना की गई थी, जिसे आज भी उसकी निंदनीय निर्दयीता के लिए याद किया जाता है. आउटलुक के एक विशेष संस्करण में 1984 की 25वीं बरसी के मौके पर विज्ञापन कार्यकारी अजीत बालाकृष्णन ने ये कहानी बताई कि कैंपेन को कैसे तैयार किया गया था. राजीव गांधी ने "अपने मित्रों अरुण सिंह और अरुण नेहरू को पार्टी में शामिल कर लिया था ताकि आसन्न लोकसभा चुनावों में पार्टी के तेजी से घटते अवसरों को सुधारने में मदद मिल सके." उन्होंने आगे कहा सिंह और नेहरू ने उन कंपनियों के लिए काम किया था, जिनके लिए बालाकृष्णन की फर्म, रेडिफ्यूजन, “अभी-अभी विज्ञापन अभियान चला रही थी. इसलिए जब हमारे ग्राहकों को दिल्ली बुलाया गया तो हमें भी बुलाया गया." बालकृष्णन ने कई प्रिंट विज्ञापनों की चर्चा की, जो बनाए गए.
पहले विज्ञापन में पूछा गया, "क्या आपकी भविष्य की किराने की सूची में एसिड बल्ब, लोहे की छड़, खंजर शामिल होंगे?" हमने तर्क दिया कि साधारण नागरिकों को खुद को आगे बढ़ाने की जरूरत तभी होती है जब सरकार कमजोर होती है. कांग्रेस को वोट दें.
दूसरे में उग्र अलगाववादी आंदोलनों का हवाला देते हुए पूछा गया, "क्या देश की सीमा आखिरकार आपके दरवाजे तक आ जाएगी?" क्या आप जल्द ही अपने पड़ोसी को लेकर असहज दिखेंगे, क्योंकि वो दूसरे समुदाय का है? कांग्रेस को वोट करें और एकता के लिए वोट करें, नहीं तो ये अलगाववाद के लिए एक वोट होगा.
मानसून के अंत तक विज्ञापनों को स्पष्ट रूप से अंतिम रूप दे दिया गया था, लेकिन अभी ये प्रकाशित नहीं हुए थे. फिर इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. बालाकृष्णन ने कहा, "अचानक जिन शब्दों को हमने तैयार किया था, कई महीने पहले भी उनके लिखे जाने की तुलना में अब वो बहुत अधिक सच लगने लगे थे."
इसके तुरंत बाद चुनाव हुए. विज्ञापन अभियान वही थे जिन्हें पहली बार कई महीने पहले बनाया गया था. घटनाओं के एक अद्भुत मोड़ का वास्तविकता ने आकर दामन थाम लिया और ये वास्तविकता हमारी कल्पना की तुलना में काफी गंभीर थी जिसने उन शब्दों और चित्रों की बारीकियों को और गहरा कर दिया जो हमने इस्तेमाल किया था. उन्हें इतना अहम बना दिया जितना हमने उन्हें बनाने के दौरान नहीं सोचा था.
उस वर्ष के मानसून के दौरान, कांग्रेस के एक विज्ञापन अभियान की कल्पना की गई थी, जिसे आज भी उसकी निंदनीय निर्दयता के लिए याद किया जाता है. कई लोग अभियान की अपील से भयभीत थे क्योंकि जो भी इसके इरादे थे वो एक पूरे समुदाय को टारगेट करते थे.
अधिकांश सिखों के लिए उकसावे भरे इस अभियान की भयावहता को स्वीकार करने में उनकी विफलता से मैं अचंभित हुआ. इस साल अगस्त में, मैंने अभी के रेडिफ.कॉम के प्रमुख और भारतीय प्रबंधन संस्थान कोलकाता के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के अध्यक्ष बालाकृष्णन से इस अभियान के बारे में पूछने के लिए संपर्क किया. मुझे उम्मीद थी कि ये उन लोगों की सोच में कुछ अंतर्दृष्टि पैदा कर सकता है, जिन्होंने 1984 में राजीव गांधी के आत्मविश्वास का आनंद लिया था. बालाकृष्णन ने अनुरोध किया कि मैं, उन्हें ईमेल पर अपने प्रश्न भेजूं. अन्य बातों के अलावा, मैंने पूछा-
ज्यादातर अभियान 1984 में सिखों के नरसंहार से पहले के लग रहे थे, क्या उन घटनाओं के बाद अभियान को ट्यून या फिर से बढ़ाया गया था? वास्तव में, नरसंहार के बाद अभियान को बढ़ाने पर कोई चर्चा हुई थी?
आउटलुक के आपके लेख में आपने उस विवादास्पद एड का उल्लेख नहीं किया, जिसमें सिलवटों में किसी सिख से नजर आ रहे टैक्सी ड्राइवर पर भरोसा करने को लेकर सवाल उठाया गया था. इसकी योजना कब बनी?
घटना के 25 साल बाद लिखा गया आपका लेख विज्ञापन अभियान को इस देश में चुनावों के मामले में मील का पत्थर बताता है लेकिन इसके समस्या वाले पहलुओं के बारे में शायद ही कुछ कहता है. मेरे जैसे कई (और मैं केवल 17 साल का था) लोग अभियान की अपील से भयभीत थे, इसका इरादा जो भी था, ये एक पूरे समुदाय को लक्षित करने के रूप में सामने आया था. क्या यह एक मूल्यांकन है, जिसे आप पूरी तरह से खारिज करते हैं?
जिस समय यह लेख छपने के लिए गया उसके पहले के जबाव से जुड़े कई अनुरोध असफल रहे.
19 नवंबर 1984 को राजीव गांधी ने अपनी मां की जयंती मनाने के लिए दिल्ली के इंडिया गेट के पास बोट क्लब में एक रैली को संबोधित किया. अपने भाषण के दौरान उन्होंने इंदिरा की हत्या के बारे में एक बयान दिया जो नरसंहार के बाद की राज्य की पूरी प्रतिक्रिया को चिह्नित करने के लिए पर्याप्त था, "जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो पूरी पृथ्वी हिल जाती है." एक महीने बाद कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में जीत हासिल की और राजीव प्रधानमंत्री के कार्यालय में विजयी होकर लौटे. इस बिंदु से, नरसंहार पीड़ितों को न्याय दिलाने की प्रक्रियाओं का इस्तेमाल इसे दबाने के लिए किया गया.
87 साल के एसएस जोग महाराष्ट्र के अमरावती में रहते हैं. नवंबर 1984 में एक साफ रिकॉर्ड वाले महाराष्ट्र कैडर के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी जोग को सुभाष टंडन की जगह दिल्ली पुलिस के आयुक्त के रूप में कमान संभालने के लिए बुलाया गया.
इस साल अगस्त में, अमरावती से जोग ने मुझसे फोन पर बात की. जोग ने मुझे बताया, "जब मैंने हत्या के बाद पदभार संभाला, तो बल-कानून-व्यवस्था की समस्याओं, परिचालन संबंधी समस्याओं के साथ कई समस्याएं थीं. मुझे पहले इन्हें ठीक करने की जरूरत थी." उन्होंने कहा कि उन्होंने प्रशासनिक और संचार समस्याओं को ठीक करना शुरू किया. हिंसा के दौरान प्रत्येक जिले में पुलिस नियंत्रण कक्ष को सूचना मिल रही थी, “लेकिन यह मुख्य नियंत्रण कक्ष को नहीं जा रही थीं. नतीजतन, 200 मौतें हुई, जिनकी मुख्य नियंत्रण कक्ष को कोई जानकारी नहीं थी.”
जोग ने कहा कि पुलिस के पास महत्वपूर्ण संसाधनों का भी अभाव है. “वायरलेस सिस्टम की कमी थी. हमने उसे ठीक किया. लोगों की कमी थी. ज्यादातर पुलिस वाले हरियाणा के थे, वे वहां रहते थे और दिन भर के लिए शहर आते थे. परिणामस्वरूप, जरूरत पड़ने पर हमारे पास कोई स्टैंड-बाय फोर्स नहीं थी.” इसके अलावा पुलिस ने छह साल पुरानी कमांड प्रणाली को नहीं अपनाया था. जोग ने कहा, "अभी भी किसी को एहसास नहीं था कि पुलिस वालों की शक्तियां उनके पास होती हैं. फोर्स अभी भी मजिस्ट्रेट के पहुंचने और गोली चलाने का आदेश देने का इंतजार करती थी. मैंने उनके रवैये में बदलाव लाने का काम किया और उन्हें बताया कि एक हेड कांस्टेबल भी गोली चलाने का आदेश दे सकता है, कुछ भी नहीं होगा, मैं हर तरह से उसका साथ दूंगा."
जोग ने हत्याकांड की जांच से पहले आयोग का गठन किया. जांच का नेतृत्व करने के लिए, उन्होंने अपने डिप्टी को चुना, जो वेद मारवाह नाम के दिल्ली पुलिस अधिकारी थे. जोग ने मुझे बताया, "वेद मारवाह मेरा नंबर दो था. वो लंबे समय से दिल्ली पुलिस में था और स्वाभाविक रूप से मैं उस पर निर्भर था. मैं दिल्ली में एक नया आदमी था और वह पुराना, इसलिए मैं उसकी सलाह पर निर्भर था."
जोग ने कहा, "मैंने 84 दंगों के दौरान जो कुछ हुआ, उसके बारे में एक प्रशासनिक जांच करने के लिए उसे प्रतिनियुक्त किया था." “दो तरह की जांच होती है. पहली प्रशासनिक -ये पता लगाने के लिए कि पुलिस और प्रशासन से क्या चूक हुई और दूसरी व्यक्तिगत जिम्मेदारी. किसी को ये करना था और इसे मारवाह को सौंपा गया, मैंने उसे इसका जिम्मा सौंपा.” जोग ने कहा कि जब तक जांच पूरी होती, तब तक वो दिल्ली छोड़ चुका था.
जबकि मारवाह का कुछ और ही कहना था. जब मैंने उस महीने की शुरुआत में उनसे बात की तो उन्होंने मुझे बताया कि जब जांच पूरी हो रही थी तो उन्हें इसे बंद करने का आदेश दिया गया था, और ये आदेश जोग ने दिए थे.
जब मैंने जोग से इस बात का जिक्र किया, तो उनका लहजा अचानक बदल गया, “क्या उन्होंने ऐसा कहा है? अब मुझे समझ नहीं आ रहा है, आप मुझसे 25 साल पहले हुई चीजों के बारे में क्यों पूछ रहे हैं? मुझे अब कुछ भी याद नहीं है.” और उन्होंने फोन रख दिया.
मई 1985 में मारवाह की पूछताछ को बंद करने का आधिकारिक कारण ये था कि एक बॉडी को जांच आयोग के कानून के तहत स्थापित किया गया था. उसी महीने गठित किए गए इस नए आयोग को, “दिवंगत प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुई संगठित हिंसा की घटनाओं के संबंध में आरोपों की जांच करने का काम दिया गया था." यह मिश्रा आयोग था, जिसकी रिपोर्ट अगस्त 1986 में सरकार को सौंपी गई और अगले फरवरी में इसे सार्वजनिक किया गया था.
शुरुआत से ही मिश्रा आयोग प्रक्रियात्मक रूप से पक्षपाती था. पुलिस अधिकारियों और प्रशासकों को कैमरे पर बयान देने की अनुमति दी गई, गवाहों की जांच को तो छोड़ ही दीजिए, पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों को भी उपस्थित होने से रोक दिया गया था. फुल्का के मुताबिक बड़े पैमाने पर न वकीलों और न ही मीडिया को इन गवाहों के बारे में कोई जानकारी मिली.
पुलिसकर्मियों के लिए अनुकूल गवाही के निर्माण का ठोस प्रयास भी किया गया. हलफनामे में, कल्याणपुरी निवासी पारस सिंह ने कहा कि उन्हें सूर वीर सिंह त्यागी के पुलिस स्टेशन में बुलाया गया.
त्यागी के साथ मेरे संबंध सौहार्दपूर्ण थे. उन्होंने मुझसे कहा, “मैंने कई बार तुम्हारी मदद की है और मेरे तुम्हारे साथ अच्छे संबंध हैं. नवंबर के दौरान जो भी हुआ उसके लिए मुझे बहुत खेद है लेकिन मैं निर्दोष हूं और तुम्हें मेरी मदद करनी चाहिए.” मैंने जवाब दिया कि "आप अच्छी तरह जानते हैं कि 1 नवंबर 1984 को जब भीड़ आई थी तब आपके लोगों ने हमारे लोगों से बंदूकें छीन ली थीं और जब भीड़ ने हम पर हमला किया और हमने उनके हमले को विफल करने की कोशिश की तो आपने हम पर गोली चलाई. आपने खुद मेरे सीने पर अपना रिवाल्वर तान मुझसे कहा कि यहां से चले जाओ, नहीं तो आप मुझे गोली मार दोगे, डर के मारे हम भाग गए. आपने लोगों को हमारे घरों को आग लगाने के लिए उकसाया और हमारी संपत्ति लूट ली. हम मुश्किल से अपनी जान बचा पाए, आपने हमें गिरफ्तार किया और झूठे मामलों में फंसा दिया. अब आप हमसे मदद करने के लिए कैसे कह सकते हैं?”
हलफनामा आगे कहता है, “त्यागी ने कहा कि उन्होंने अपने दम पर कुछ नहीं किया. उसके पास ऊपर से ऐसा करने के आदेश थे. जब मैंने उन्हें बताया कि वो मौके पर अधिकारी हैं और उन्होंने सब कुछ किया है तो उन्होंने जवाब दिया कि वो तब असहाय थे, उसके पास ऊपर के अधिकारी के आदेश थे, जाटव और डॉक्टर अशोक”. हुकुम चंद जाटव और अशोक गुप्ता एक कांग्रेसी राजनेता और कल्याणपुरी के नगरपालिका प्रतिनिधि थे जो “लगातार उन पर दबाव बना रहे थे. यहां तक कि केंद्र सरकार के मंत्री एचकेएल भगत भी उन पर दबाव बना रहे थे.” पारस सिंह ने कहा कि उन्हें सुनवाई से तीन या चार दिन पहले कल्याणपुरी पुलिस स्टेशन बुलाया गया था, अन्य गवाहों और पीड़ितों ने भी ऐसा ही कहा. इससे पता चलता है कि पुलिस अधिकारी आयोग से उन तारीखों के बारे में जानकारी प्राप्त कर रहे थे, जिन तारीखों पर उनके खिलाफ गवाही देने वाले पेश हो सकते हैं. लेकिन ऐसी धमकी भरे कृत्यों के बावजूद हलफनामे दायर किए गए.
हिंसा को निर्देशित करने में भगत की भूमिका एक हिंदू सब्जी विक्रेता सुखन सिंह सैनी के हलफनामे से प्रमाणित हुई. 31 अक्टूबर की रात लगभग 8 बजे सैनी ने देखा कि श्याम सिंह त्यागी नाम के एक व्यक्ति के घर के सामने भीड़ खड़ी थी.
“मैं उन सभी को पहचानता हूं. मैं एच.के.एल. भगत को बहुत अच्छी तरह से जानता हूं, मैं कई बार उनकी कोठी में गया हूं और वो एक मंत्री हैं. भगत जी को देखकर मैं वहीं रुक गया और देखा कि भगत जी अपनी जेब से नोटों के बंडल निकाल रहे थे और भूप सिंह त्यागी को भी यही दे रहे थे और कह रहे थे कि, “शराब के लिए ये 2000 रुपये रखो और जैसा मैंने तुमसे कहा है वैसा करो.” उन्होंने आगे कहा, आपको चिंता करने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है, मैं सब कुछ देख लूंगा.” मैं घर चला गया.
अगले दिन, सैनी ने श्याम सिंह त्यागी, भूप सिंह त्यागी और सभा के कई अन्य सदस्यों को दरियागंज सब्जी बाजार भीड़ में "सरदारों की पिटाई करते और जलाते हुए" देखा,
पीड़ितों और गवाहों के हलफनामों का रिकॉर्ड रखते हुए, मिश्रा आयोग ने भगत और उसके करीबी लोगों द्वारा डराने और हिंसा करने के लिए दिए गए आदेश को अनदेखा करना ठीक समझा. आयोग का निष्कर्ष नोट करता है कि गवाहों से संपर्क करने का प्रयास किया गया, लेकिन इस बिंदु पर कोई और टिप्पणी या सिफारिश नहीं की गई.
दिल्ली के पूर्व मेयर भगत साफ तौर से किसी भी आयोग के सामने हिंसा में भूमिका के लिए आरोपी कांग्रेस नेताओं में सबसे शक्तिशाली थे. कुछ लोग जिनमें ज्यादातर गैर-सिख थे, उन्होंने उनके समर्थन में हलफनामा दिया और इन आयोगों ने "इनका इस्तेमाल किया." ऐसा शपथ पत्र प्रस्तुत करने वाले पुरुषों में बलविंदर सिंह भी थे. 1989 में सिंह ने एक समारोह आयोजित किया जिसमें भगत को “सरोपा”, सिख से जुड़ा एक सम्मान दिया गया. सिंह के बेटे अरविंदर सिंह लवली आज दिल्ली कांग्रेस के प्रमुख हैं.
कमिशन ने भगत के खिलाफ आरोपों को खारिज कर दिया. आयोग ने लिखा, “कई शपथपत्रों में आरोप लगाया गया कि एच.के.एल. भगत इंदिरा गांधी कैबिनेट के मंत्री थे और बाद में राजीव गांधी की कैबिनेट में भी थे. उन्होंने गैर-सिखों को सिखों से बदला लेने के लिए उकसाया क्योंकि दो सिखों ने श्रीमती गांधी की हत्या कर दी थी." विशिष्ट आरोपों के 16 उदाहरणों का हवाला देते हुए, यह तर्क दिया गया,
“मुट्ठी भर हलफनामों को छोड़कर जहां यह आरोप लगाया गया है कि श्री भगत ने 31 अक्टूबर की रात या 1 नवंबर की सुबह कुछ अन्य स्थानीय कांग्रेस (आई) नेताओं के साथ मुलाकात की थी. और कुछ हलफनामों में दंगों को बढ़ावा देने के लिए उनके द्वारा पैसे बांटे जाने की बात के अलावा आरोप बहुत सकारात्मक या विशिष्ट नहीं हैं.”
बैठक में क्या चर्चा हुई यह साफ नहीं है.
अगर इतने बड़े सबूतों के बावजूद भी भगत का कुछ नहीं हुआ, तो इस बात की बहुत कम संभावना थी कि कांग्रेस में किसी अन्य वरिष्ठ व्यक्ति पर आरोप लगाया जाएगा. हत्या के बाद प्रारंभिक हिंसा को सही ठहराने की मांग करते हुए, मिश्रा आयोग ने इसे "प्राकृतिक" करार दिया. मिश्रा ने लिखा, "भारतीय परंपरा के अनुसार एक महिला को नहीं मारा जा सकता है और उसे अवध्या कहा जाता है."
सिख अपनी वीरता और पराक्रम के लिए जाने जाते हैं. दो सिख गार्डों को पुलिस दिवंगत प्रधानमंत्री को सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से लाया गया लेकिन उन्होंने उन पर गोलियां चलाई जिससे उनकी मौत हो गई, ऐसे में चौतरफा गुस्से की भावना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी. इसलिए आयोग इसके आगे पेश की गई ऐसी बातों को स्वीकार करता है कि 31 अक्टूबर 1984 को सिखों के खिलाफ हुई हिंसा, हत्या के खिलाफ स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में शुरु हुई. उस समय सिखों के खिलाफ हिंसा फैलाने या करने का कोई संगठित प्रयास नहीं किया गया था.
मित्तल की रिपोर्ट में 72 पुलिस अधिकारियों को शामिल किया गया है, जिनमें छह IPS अधिकारी शामिल हैं. उन्हें विभागीय पूछताछ के प्रति आगाह किया था, जिसके "किसी भी तरह के परिणाम की संभावना नहीं थी." इस स्पष्ट सिफारिश के बावजूद, केवल इस तरह की पूछताछ शुरू की गई थी.
मिश्रा ने इसके बाद हुए नरसंहार पर विचार किया-
01.11.1984 से सिखों पर हमलों का कारण एक समान नहीं रहा. जनता के गुस्से का फायदा उठाते हुए, अन्य ताकतें मौके का फायदा उठाने के लिए कूद पड़ीं. बड़ी संख्या में हलफनामों से संकेत मिलता है कि स्थानीय कांग्रेस (आई) के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने सिखों पर हमला करने को भीड़ को उकसाया या उनकी मदद की थी.
लेकिन प्रभावशाली और साधन संपन्न व्यक्तियों के लिए, सिखों की हत्या इतनी तेजी और इतने व्यापक रूप से नहीं हो सकती थी.ऐसी बातें और ठोस सबूत होने के बावजूद कि हिंसा बेहद संगठित और व्यवस्थित थी, आयोग ने वरिष्ठ कांग्रेसियों को छोड़ने और स्थानीय नेताओं पर दोष मढ़ने का विकल्प चुना.
यह निष्कर्ष जांच पर खरा नहीं उतरता है. यह सही नहीं है कि स्वतंत्र रूप से काम करने वाले स्थानीय नेता इस स्तर की हिंसा को अंजाम दे सकते थे. आयोग ने इस बात के लिए कोई साफ स्पष्टीकरण नहीं दिया कि शहर भर की भीड़ टायर और पर्याप्त केरोसिन से लैस होकर सिख घरों तक कैसे पहुंची और सिखों को मारने और उनके शरीर को जलाने के बिल्कुल एक समान तरीकों को कैसे अपनाया गया था. इस बात को लेकर भी कोई सफाई नहीं दी गई कि बोकारो और कानपुर जैसे शहरों में भी हिंसा तो हुई लेकिन वहां की हिंसा अलग क्यों थी.
आयोग ने यह तर्क दिया कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नरसंहार को आयोजित नहीं कर सकते थे क्योंकि अगर वो होते तो हिंसा और भी गंभीर होती.
अगर सत्ताधारी पार्टी या मंत्री व्यक्तिगत रूप से दंगों का मास्टरमाइंड होता या संगठित करने वाला होता, तो परिणाम इससे भी गंभीर होता. ये आयोग के सामने सभी पक्षों का मामला है कि किसी निश्चित क्षेत्र में कोई भी ध्यान देने लायक कोई परेशानी नहीं थी और ऐसी स्थिति के दो कारण पेश किए गए हैं-(i) स्थानीय पुलिस की प्रभावशीलता और (ii) स्थानीय निवासियों की संयुक्त रक्षा को बढ़ाना. अगर कांग्रेस (आई) पार्टी या पार्टी में कोई शक्तिशाली ताकत ने कोई भूमिका निभाई होती तो इन दोनों बातों में से कोई भी उस तरीके से काम नहीं करता, जैसा कि उनमें से प्रत्येक के बारे बताया गया है.
आयोग का अंतिम निष्कर्ष यह था कि "संगठित दंगों के लिए सहज प्रतिक्रिया से पैटर्न में बदलाव असामाजिक तत्वों द्वारा स्थिति की कमान संभालने का परिणाम था."
ऐसा कहा जाता है कि शैतान के पास भी एक प्रक्रिया है और शैतानी गतिविधियों के लिए असामाजिक तत्वों को उनकी संगठित प्रक्रिया में ले जाया जाता है. यह इसी तरह से है. इस अर्थ में कि दिल्ली में हिंसा वास्तव में संगठित थी, लेकिन ऐसा संगठन किसी भी राजनीतिक दल या लोगों के एक निश्चित समूह द्वारा नहीं किया गया था बल्कि ये असामाजिक तत्वों द्वारा किया गया था जो इस रिपोर्ट के एक अन्य भाग में दिखाया जाएगा. जो भारतीय राजधानी में काफी शक्तिशाली है. लेकिन ये स्पष्ट नहीं था कि ये असामाजिक तत्व कौन थे?
आयोग की कमान संभालने के बाद, रंगनाथ मिश्रा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने. 1993 में, उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, उन्हें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का पहला प्रमुख नियुक्त किया गया. पांच साल बाद विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा के लिए नामित किया.
1986 में जब मिश्रा कमिशन ने अपना काम समाप्त किया, तो इसने सिफारिश की कि तीन अन्य आयोगों की स्थापना की जाए. जो मौतों का अंतिम आंकड़ा पता लगाने, पुलिस की लापरवाही के आरोपों को देखने और उन मामलों की फिर से जांच करने के लिए जिन्हें रजिस्टर नहीं किया गया था या जिनकी ठीक से जांच नहीं की गई थी का कार्य कर सके. इनमें सबसे कम विवादास्पद दिल्ली के गृह सचिव आरके आहूजा के नेतृत्व में आए आंकड़े थे, जो मोटे तौर पर 2,733 मृतकों का था और जिसका कोई विरोध नहीं था.
दो अन्य आयोगों के मामले उनकी स्थापना के समय से ही काफी जटिल थे. दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दलीप कपूर और कुसुम लता मित्तल की दो सदस्यीय समिति, केंद्र सरकार के एक सेवानिवृत्त सचिव, का गठन व्यक्तिगत पुलिस अधिकारियों की भूमिकाओं की जांच के लिए फरवरी 1987 में किया गया था. इस आदेश के बावजूद सरकार ने कमेटी को अधिकारियों को बुलाने और जांच करने का अधिकार नहीं दिया. इन परिस्थितियों में कपूर को लगा कि वो किसी को भी आरोपी नहीं बना सकते. हालांकि, मित्तल ने 1990 में मिश्रा आयोग द्वारा एकत्र किए गए हलफनामे और अन्य सामग्री के आधार पर एक अलग रिपोर्ट प्रस्तुत की थी.
मित्तल की रिपोर्ट में 72 पुलिस अधिकारियों को शामिल किया गया है, जिनमें छह आईपीएस अधिकारी शामिल हैं. मित्तल ने लिखा, "अगर मामले में दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की जाती है, तो यह एक बाहरी एजेंसी द्वारा होनी चाहिए." इस स्पष्ट अनुशंसा के बावजूद, केवल इस तरह की पूछताछ शुरू की गई थी.
मित्तल ने सूर वीर सिंह त्यागी के मामले को भी संबोधित किया. ऐसा समझा जाता है कि इंस्पेक्टर शूरवीर सिंह त्यागी के खिलाफ कुछ विभागीय कार्यवाही शुरू की गई है. गवाहों को तोड़-मरोड़ कर अपने पक्ष में हलफनामा हासिल करने में उनके प्रयास काफी हद तक सफल रहे, ये बताता है कि किसी भी गवाह के पास आने और उसके खिलाफ सबूत देने की हिम्मत नहीं रही होगी. उनके निलंबन के बाद भी यह देखा गया है कि कल्याणपुरी के पुलिस कर्मचारी विशेष रूप से सब इंस्पेक्टर मनफूल सिंह, शूरवीर सिंह त्यागी के पक्ष में बोलने के लिए लोगों पर दबाव डालकर शूरवीर सिंह त्यागी की मदद कर रहे हैं. हालांकि, ये एसएचओ किसी भी पुलिस संगठन के लिए एक बेहद शर्म का विषय है और सार्वजनिक हित में उससे छुटकारा पाने का सबसे अच्छा तरीका संविधान के अनुच्छेद 311(2)(बी) के तहत कार्रवाई करना होगा. जो शायद जनता के मन में कुछ विश्वास बहाल करेगा.
अनुच्छेद 311(2)(बी) लोक सेवकों को जांच के बिना कार्यालय से बर्खास्त करने की अनुमति देता है, जब ऐसी प्रक्रिया व्यवहार्य नहीं होती हो. लेकिन त्यागी के खिलाफ आगे कोई कार्रवाई नहीं की गई और वो अतिरिक्त पुलिस आयुक्त के पद से रिटायर हुए.
फरवरी 1987 में शुरू की गई तीसरी जांच जैन-बनर्जी समिति की अध्यक्षता में हुई. ये कमिटी नेताओं के खिलाफ मामलों के रजिस्टर करने के विचार के लिए बनी थी. उस सितंबर इसने पुलिस को संसद के पूर्व कांग्रेस सदस्य सज्जन कुमार के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करने का निर्देश दिया. लेकिन इसी मामले में आरोपी एक और व्यक्ति ब्रह्मानंद गुप्ता ने दिल्ली होई कोर्ट से समिति की सिफारिशों के खिलाफ स्टे ऑर्डर ले लिया. अक्टूबर 1989 में हाई कोर्ट ने गुप्ता की याचिका को कायम रखा और समिति को प्रभावी रूप से भंग कर दिया.
जैन-बनर्जी कमिटी के काम को पूरा करने के लिए अधिसूचना की विभिन्न शर्तों के तहत पांच महीने बाद दिल्ली प्रशासन ने एक नई बॉडी को नियुक्त किया. ये बॉडी यानि पोटी-रोशा समिति ने 30 या इतने ही हलफनामों पर कार्रवाई की सिफारिश की, जिसमें कुमार के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था.
दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी “कार्नेज 84” नाम की एक वेबसाइट चलाती है, जिसका रख रखाव एचएस फुल्का करते हैं. साइट के मुताबिक, जब केंद्रीय जांच ब्यूरो की टीम ने कुमार को गिरफ्तार करने की कोशिश की तो, "सीबीआई वालों को ही, कुमार के वकील आरके आनंद के हाई कोर्ट से 'अग्रिम जमानत' लेने के पहले तक कुमार के घर में बंद कर दिया गया." समिति के अध्यक्षों ने बाद में जांच स्थगित कर पद छोड़ दिया. इसी उद्देश्य के साथ एक तीसरी समिति गठित की गई और सज्जन कुमार के खिलाफ आगे के मामले दर्ज किए गए. अंत में एचकेएल भगत को भी दोषी ठहराया गया.
सज्जन कुमार और उनके कांग्रेसी साथी जगदीश टाइटलर के मामले अभी भी चल रहे हैं. उनके मामलों की सुनवाई अब सुप्रीम कोर्ट में हो रही है.
एचकेएल भगत को कभी दोषी नहीं ठहराया गया, 2003 में उन्हें अल्जाइमर होने के बाद कहा गया कि वो ट्रायल के लायक नहीं है. 2009 में उनकी मृत्यु हो गई. 2004 से 2009 के बीच संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के वाणिज्य मंत्री कमलनाथ सहित अन्य वरिष्ठ कांग्रेसियों ने कभी जांच का सामना नहीं किया. मिश्रा आयोग द्वारा दर्ज की गई गवाही के मुताबिक, नाथ ने संसद भवन के भीतर गुरुद्वारा रकाबगंज में एक भीड़ का नेतृत्व किया, जहां दो सिखों को जला दिया गया था.
मई 2000 में नवनिर्वाचित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार द्वारा जीटी नानावटी आयोग को नियुक्त किए जाने पर सच्चाई सामने आने का अंतिम मौका था. संदर्भ का पहला विषय यह था कि ये “सिख समुदाय के सदस्यों को लक्षित करने वाली आपराधिक हिंसा और दंगों के कारणों और कार्यप्रणाली की जांच करे, जो 31 अक्टूबर, 1984 और उसके बाद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और देश के अन्य भागों में हुए.”
जब केंद्रीय जांच ब्यूरो की टीम ने कुमार को गिरफ्तार करने की कोशिश की, "सीबीआई वालों को ही कुमार के वकील आरके आनंद के हाई कोर्ट से 'अग्रिम जमानत' लेने के पहले तक कुमार के घर में बंद कर दिया गया." समिति के अध्यक्षों ने बाद में जांच स्थगित कर दी और पद छोड़ दिया.
जीटी नानावती, आयोग का प्रमुख बनने के लिए एक सही विकल्प नहीं थे. 1998 में वे सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ का हिस्सा थे जिसने दोषी हत्यारे किशोरी लाल की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया. लाल को अक्सर 1984 की हत्याओं में उनकी भूमिका के लिए "त्रिलोकपुरी का कसाई" कहा जाता है. फैसले में नानावती और उनके सहयोगी ने लिखा,
“हमारा मानना है कि भीड़ को जिन कृत्यों का जिम्मेदार ठहराया गया, जिसका अपीलकर्ता उस समय एक सदस्य था, नरसंहार के लिए अग्रणी किसी भी व्यवस्थित गतिविधि का परिणाम नहीं कहा जा सकता है. शायद हम कल्पना कर सकते हैं कि एक हद तक भीड़ गैरकानूनी तरीके से जुटी थी और इस हद तक कि भीड़ सिखों को एक कड़ा सबक सिखाना चाहती थी, लेकिन इस तरीके में भी उन्होंने इस बात पर विचार नहीं किया कि महिलाओं और बच्चों को भी पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाना चाहिए, जो एक पाप से मुक्त करने वाली विशेषता है.”
सुप्रीम कोर्ट के तर्क को समझना मुश्किल है कि परिवार के केवल पुरुष सदस्यों की हत्या करना हत्यारों के अपराध को कम करता है. निर्णय से पता चलता है कि नानावती ने 1984 की घटनाओं के बारे में आयोग के गठन से पहले ही अपना मन बना लिया था. अगर वो पहले ही यह निष्कर्ष निकाल चुके थे कि त्रिलोकपुरी में हिंसा पूर्व नियोजित नहीं थी, तो दिल्ली के बाकी पड़ोस से और अधिक सबूतों से उनके मन के बदलने की संभावना नहीं थी.
2005 की अपनी रिपोर्ट में नानावती आयोग ने 20 साल पहले मिश्रा आयोग द्वारा उठाए गए कदमों को प्रभावी ढंग से वापस लिया और उसी तर्क का पालन किया. पिछली बॉडी की तरह नानावती आयोग ने अपने निष्कर्षों में उसके सामने रखे गए साक्ष्यों का खंडन किया.
आयोग के समक्ष दायर कुछ हलफनामों में आमतौर पर कहा गया है कि इन दंगों के पीछे कांग्रेस के नेता/कार्यकर्ता थे. इस रिपोर्ट के भाग- III में आयोग ने कुछ घटनाओं का उल्लेख किया है जिसमें कुछ कांग्रेस (आई) के नेताओं/कार्यकर्ताओं ने भाग लिया था. असामाजिक तत्वों के अलावा किसी अन्य व्यक्ति या संगठन पर इस हद तक इन घटनाओं में हिस्सा लेने का आरोप नहीं है. श्रीमती इंदिरा गांधी कांग्रेस (आई) की नेता थीं. दंगों के दौरान जो नारे लगाए गए थे वो भी इस ओर इशारा करते हैं कि भीड़ का गठन करने वाले कुछ लोग कांग्रेस (आई) के कार्यकर्ता या हमदर्द थे.
आयोग के मुताबिक, इस बात का कोई सबूत नहीं था कि “श्री राजीव गांधी या किसी अन्य उच्च श्रेणी के कांग्रेस (आई) नेता ने सिखों पर हमले के सुझाव दिए थे. जो कुछ भी किया गया वो स्थानीय कांग्रेस (आई) नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया और वो अपने व्यक्तिगत राजनीतिक कारणों से ऐसा करते दिखाई दिए.”
न तो आयोग ने हिंसा के मामले में अपना हिसाब लगाने में विरोधाभासों को छुपाया और न ही इसके निष्कर्षों के खिलाफ जाने वाले साक्ष्य पर उचित ध्यान दिया. दोनों आयोगों की रिपोर्ट में पाया गया कि नरसंहार पुलिस सहयोग और दिल्ली में हत्या की एक समान विधि तय करने वाली बैठकों के माध्यम से आयोजित किया गया था. ये स्थानीय कांग्रेसी कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए अनैतिक कृत्यों का परिणाम था.
1984 का नरसंहार एक राजनीतिक दल द्वारा चुनावी लाभ के लिए एक समुदाय के खिलाफ आयोजित हिंसा का एक स्पष्ट मामला है. लेकिन तथ्यों को कभी भी एक ईमानदार और स्वतंत्र जांच के अधीन नहीं परखा गया है. मिश्रा और नानावटी आयोग ने एक बड़ी साजिश के सवाल को दरकिनार कर दिया. अगर साजिश की सही तरीके से जांच की गई थी तो ये संभावना है कि अवतार गिल के अरुण नेहरू से जुड़े बयान के बारे में गवाही बहुत पहले ही सामने आ गई होती.
30 साल और 9 आयोगों के बाद इन जांचों की विफलता इस ओर इशारा करती है कि सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए भारत संस्थागत रूप से तैयार नहीं है. अगर 1984 के पीड़ितों के लिए न्याय असंभव है, जब हिंसा राष्ट्रीय राजधानी में हुई थी और जहां सबूत इस मात्रा में हैं तो ऐसा लगता है कि देश में कहीं भी इस तरह के पीड़ितों की बड़ी आबादी के साथ अन्याय जारी रहेगा.