नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के दो महीने बाद 26 जुलाई 2014 को सन्डे गार्डियन ने एक खबर में खुलासा किया कि मोदी कैबिनेट के मंत्री नितिन गडकरी के सरकारी आवास पर अत्याधुनिक श्रवण यंत्र पाए गए हैं. भारतीय जनता पार्टी से नजदीकी संबंध रखने वाले अखबार ने गुमनाम स्रोत के हवाले से यह दावा भी किया कि यंत्रों को वहां लगाने के पीछे अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी और बीजेपी के सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी और कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली सरकार का कथित रूप से हाथ है.
अगली सुबह गडकरी ने खुद ट्वीट करके सफाई दी और खबर को “अति काल्पनिक” करार दिया लेकिन साथ ही वे इस खबर को पूरी तरह नकारने से भी बचे रहे. विपक्ष ने संसद में इस विषय पर छानबीन तथा प्रधानमंत्री के वक्तव्य की मांग की, जिसके चलते अगले दो दिनों तक सदन की कार्यवाही अवरुद्ध रही. गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने खबर को सही मानने से इनकार कर दिया, लेकिन विपक्ष फिर भी नहीं माना. यह एक अजीबोगरीब स्थिति थी: एक तरफ विपक्ष सत्तारुढ़ पार्टी के मंत्री के खिलाफ जासूसी किए जाने के प्रति अपना विरोध जता रहा था; जबकि दूसरी तरफ उनकी पार्टी के सदस्य इस विषय पर बोलने से कतरा रहे थे.
माइक्रोफोन लगाए जाने की खबर इस अफवाह की पृष्ठभूमि में छपी थी कि प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा मंत्रियों पर नजर रखी जा रही है. इसी दौरान एक और खबर भी प्रसारित हुई कि पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेडकर जब जींस पहन कर विदेश यात्रा के सिलसिले में हवाई अड्डे जा रहे थे तभी उन्हें एक फोन आया कि वे कुछ ज्यादा ही अनौपचारिक कपड़े पहने हुए हैं. टीवी की बहसों में, सरकार या बीजेपी के भीतर के किसी आदमी द्वारा माइक्रोफोन लगाए जाने का मसला बार-बार आता रहा. कांग्रेस के नेताओं ने 2013 की तरफ इशारा किया, जब गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने बिना किसी वाजिब कानूनी कारण के एक महिला की जासूसी की थी. कांग्रेस नेता दिगविजय सिंह ने कहा कि मोदी और उनके दायें हाथ और गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री, अमित शाह का “ऐसा इतिहास रहा है.”
साफ तौर पर गडकरी ने खबर के छपने के दूसरे दिन ही उसे नकारा. करीब एक महीने बाद, आउटलुक पत्रिका के अनुसार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अध्यक्ष मोहन भागवत ने, जो गडकरी के करीबी माने जाते हैं, हस्तक्षेप कर कथित रूप से गडकरी को “जासूसी की खबर को सार्वजनिक तौर पर खारिज करने के लिए कहा था क्योंकि इससे बीजेपी और प्रधानमंत्री की छवि को नुकसान पहुंच सकता था.”
संघ के गढ़ नागपुर में, यह एक स्वीकृत सच है कि गडकरी संघ के चहेते बेटे हैं. इसकी पुष्टि 2009 में ही हो गई थी जब उन्हें बीजेपी का सबसे युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया, वह भी दिल्ली में बैठे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को नाखुश कर. और फिर 2012 में पार्टी के संविधान में संशोधन कर उन्हें एक और मौका दिया गया. हालांकि बतौर अध्यक्ष वे अपनी दूसरी पारी पूरी नहीं कर पाए. इस बात के बावजूद कि पहले कभी चुनावी सफलता प्राप्त नहीं हुई थी, उन्होंने 2014 के आम चुनावों में नागपुर से बीजेपी का प्रतिनिधित्व किया. वे लोक सभा के लिए चुन लिए गए. जब मोदी ने अपनी सरकार का गठन किया तो उन्हें दो मंत्रालय सौंपे गए: सड़क परिवहन और राजमार्ग तथा जहाजरानी मंत्रालय. इसमें सड़क परिवहन और राजमार्ग महत्वपूर्ण था क्योंकि एक तो इसमें भारी पूंजी वाली इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजानाएं होती हैं और दूसरा बनने वाली सड़कों से सरकार के कामों का बहुत प्रचार-प्रसार होता है. 2017 में उन्हें जल संसाधन, नदी विकास और गंगा जीर्णोद्धार मंत्रालय भी सौंप दिया गया. जबकि मोदी का अमूमन लगभग सभी मंत्रालयों पर अतिउत्साही नियंत्रण रहता है, गडकरी ने अपनी शक्तियां अपने पास बना कर रखी हैं और उनका इस्तेमाल दिख सकने वाले नतीजों को देने के लिया किया है. यह उन्हें मोदी मंत्रीमंडल में एक अपवाद बनाता है – एक ऐसे मंत्री के रूप में जो अच्छा काम कर रहा है और जिसके काम का नोटिस भी लिया जा रहा है तथा जिसे आसानी से दबाया भी नहीं जा सकता. “अधिकतर मंत्री इस बात से चिढ़े रहते हैं कि प्रधानमंत्री उन पर नजर रखे हुए हैं,” एक लॉबिस्ट ने मुझे बताया. “वे किसी से नहीं डरते क्योंकि उनके ऊपर आरएसएस का हाथ है. वे प्रधानमंत्री के प्रति श्रद्धा का भाव भले रखते हों, लेकिन डरते तो हरगिज नहीं हैं.”
राष्ट्रीय राजधानी में गडकरी का महत्व, जहां वे कभी-कभार ही बीजेपी और आरएसएस के बीच की कड़ी के रूप में दिखाई देते हैं, अभी पूरी तरह से प्रकट नहीं हुआ है. अपने गढ़ से दूर, कई क्षेत्रीय नेताओं की तरह वे भी अपना राजनीतिक आकर्षण खो रहे हैं. उनमे वह करिश्मा नहीं है जिससे दिल्ली के मीडिया का ध्यान उन तक जाए. उनकी चर्चा तभी होती है जब वे खाद बनाने के लिए इंसान का पेशाब एकत्रित करने जैसा कोई विवादित बयान देते हैं.
पर्दे के पीछे हालांकि कई लोग, खासकर नागपुर में, संघ के करीबी बड़े व्यवसाइयों से लेकर पूर्व नौकरशाहों तक, पत्रकार जो संघ पर लिखते आए हैं या उसके प्रकाशनों से जुड़े रहे हैं, और आरएसएस तथा बीजेपी नेताओं ने मुझे बताया कि अगर कभी संघ को किसी कारणवश प्रधानमंत्री के रूप में मोदी को बदलने की आवश्यकता आन पड़ी तो वह गडकरी को उनकी जगह चुनेगा. संघ की नजर में नागपुर का यह लाडला जनाधार ना होने के बावजूद भी कई और कसौटियों पर खरा उतरता है. एक तो वे मनमाफिक जाति के हैं और संघ के प्रति उनकी वफादारी पर भी कोई शकोशुबाह नहीं; मुंबई में अधिकतर व्यावसायिक घरानों से उनके मजबूत ताल्लुकात हैं और उसमें पैसों के प्रबंधन की भी सूझबूझ है; पार्टी के बाहर के नेताओं अच्छे संबंध हैं; मोदी की तरह उसकी छवि में सांप्रदायिक होने का दाग कम से कम उतना गहरा नहीं है, इसलिए उन्हें व्यापक वोटरों को बेचा जा सकता है; और सबसे महत्वपूर्ण बात कि सरकार में प्रवेश के बाद से ही काबिल प्रशासन देने का उनका दावा. मेरे साक्षात्कारों के दौरान, लोगों ने अक्सर उनकी तुलना महाराष्ट्र से आने वाले नेताओं जैसे प्रमोद महाजन, शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल – तीन ऐसे नेता जो अपनी पार्टी के बाहर भी दूसरी पार्टी के नेताओं से घनिष्ठता, व्यावसायिक घरानों से अच्छे संबंध, पार्टी के लिए फंड उगाह सकने, हमेशा वाजिब तरीकों से ना भी सही, का माद्दा रखने के लिए जाने जाते रहे हैं – से की.
हमेशा की तरह मोदी को यह कतई पसंद नहीं कि उनका कोई संभावित प्रतिद्वंद्वी उन्हें बेदखल करने के लिए दस्तक दे. इसका नतीजा यह निकला की वर्तमान सरकार के अंदर एक किस्म से भूमिगत प्रतिस्पर्धा जारी है. “यह होड़ आरएसएस और मोदी के बीच लगी है – दोनों एक दूसरे को पीछे धकेलना चाहते हैं,” राजनीतिक मामलों की पत्रकार सुजाता आनंदन, जो गडकरी को उनके जवानी के दिनों से जानती हैं, ने मुझे बताया. मोदी की लोकप्रियता और बढ़ती ताकत के आगे, “आरएसएस के पास अभी कोई और विकल्प भी नहीं है,” लेकिन “सरकार में इस वक्त एक मोदी खेमा है और एक आरएसएस खेमा.” आनंदन ने जोड़ा कि गुटबाजी तीव्र है और “नितिन गडकरी इस दूसरे खेमे को जीवित रखे हुए हैं. लेकिन बहुत गुपचुप तरीके से.”
(एक)
नितिन गडकरी का जन्म 1957 में हुआ. उनके माता-पिता का नाम भानुमती और जयराम गडकरी हैं. गडकरी परिवार साधारण देशस्थ ब्राह्मण परिवार से संबंध रखता था जिसके पास नागपुर के नजदीक धापेवाडा गांव में थोड़ी-बहुत खेती योग्य जमीन थी. वे महल नामक जगह पर पुराने नागपुर इलाके में रहते थे जो आरएसएस मुख्यालय के करीब था.
अपने भाषणों और साक्षात्कारों में गडकरी अक्सर अपनी मां को अपना प्रेरणास्रोत बताते रहे हैं. संघ के वरिष्ठ प्रभावशाली नेता एम.जी. वैद्य, जो साठ के दशक में नागपुर में बीजेपी के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ के सांगठनिक सचिव थे, ने मुझे बताया कि उन्हें गडकरी नाम का एक पांच साल का बच्चा याद आता है जो अपनी सदस्य मां के साथ पार्टी बैठकों में आया करता था. यह बच्चा तुलसीबाग में लगने वाली संघ की सबसे पुरानी शाखा में भी आया करता था. भूतपूर्व पत्रकार और गडकरी के बचपन के मित्र श्याम पंधारीपांडे ने मुझे बताया कि “पूरा परिवार ही संघ के रंग में डूबा हुआ था और उनका जन्म और पालन-पोषण ऐसे ही माहौल में हुआ.”
गडकरी न तो स्कूल और ना ही कॉलेज में मेधावी छात्र थे. वे कम उम्र में ही राजनीतिक रूप से सक्रिय हुए और संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में शामिल हो गए. नागपुर जी एस कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स से स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद उन्होंने नागपुर यूनिवर्सिटी में लॉ कॉलेज ज्वाइन कर लिया. पंधारीपांडे के अनुसार उन्होंने ऐसा शायद इसलिए किया क्योंकि एबीवीपी चाहता था कि वे राजनीति में अपनी सक्रियता बनाए रखें.
जहां पहले संघ खुले तौर पर राजनीतिक काम से परहेज करता था वहीं सत्तर के शुरुआती दौर में मधुकर दत्तात्रेय देवरस के नए नेतृत्व में उसने जयप्रकाश नारायण के इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन में स्वयं को पूरी तरह से झोंक दिया. गडकरी इसी दौरान परिपक्व हो रहे थे. संघ और उनकी राजनीतिक यात्रा लगभग एक साथ शुरू होती है. अन्य बीजेपी नेताओं की तरह गडकरी भी इमरजेंसी के दौरान अपनी भागीदारी के किस्से बड़े चाव से याद करते हैं. गडकरी के पुराने साथी अनिल सोले उनसे कॉलेज में दो साल पीछे भी थे बताते हैं कि 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद छात्र चुनाव दुबारा हुए, जिसमें गडकरी ने प्रेसिडेंट पद के लिए चुनाव लड़ा. बाद में गडकरी ने एक साक्षात्कार में कहा कि वे चुनाव मात्र छह वोटों से हार गए थे.
1980 में बीजेपी के गठन के बाद गडकरी ने इसका युवा मंच, भारतीय जनता युवा मोर्चा, ज्वाइन कर लिया और इसकी नागपुर शाखा के प्रेसिडेंट बन गए. उसके बाद उन्हें बीजेपी की नागपुर शाखा का सचिव भी नियुक्त किया गया. गडकरी अपने दोस्त के साथ मिलकर एक साधारण सी फर्नीचर की दुकान भी चलाते थे और फिर 1984 में उनकी शादी हुई.
वह कांग्रेस के एकछत्र राज का दौर था और बीजेपी को एक भट्ट जी और सेठ जी की मामूली पार्टी के रूप में ही देखा जाता था. 1985 में, गडकरी ने नागपुर वेस्ट से महाराष्ट्र विधान सभा के लिए चुनाव लड़ा, जो बीजेपी के लिए एक चुनावी कब्रगाह मानी जाती थी. इस चुनाव क्षेत्र में दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों का दबदबा था और जैसी उम्मीद थी, वे बहुत बुरी तरह से हार गए. उसके बाद उन्होंने फिर कभी विधान सभा चुनाव नहीं लड़ा.
इन शुरुआती सालों में, गडकरी की राजनीतिक दीक्षा भारतीय जनसंघ के नेता गंगाधर राव फडणवीस, महाराष्ट्र के वर्तमान मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के पिता की छत्रछाया में हुई. 1987 में विधान परिषद के सदस्य रहते हुए पिता फडणवीस का कैंसर की बीमारी से देहांत हो गया. पार्टी ने गडकरी को उस खाली सीट के लिए नागपुर डिवीजन की ग्रेजुएट निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनधि के रूप में चुनाव में उतारने का फैसला किया. उन्होंने यह सीट 31 साल की उम्र में 1989 में जीती और विधान परिषद के सबसे युवा सदस्य बने. उसके बाद से उन्होंने सुरक्षित खेलना ही उचित समझा और 2014 तक चार बार निर्वाचित होकर उसी सीट से चिपके रहे.
“साल भर में तीन विधान सभा सत्र होते थे लेकिन लोगों का ध्यान उन कभी नहीं जाता था,” पंधारीपांडे, जो उन दिनों पत्रकार हुआ करते थे, ने मुझे बताया. “इसके बावजूद गडकरी बहुत काम करते थे और अपने काम को लोगों की नजरों से गायब होने नहीं देते थे. वे पार्टी के अंदर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे,” पंधारीपांडे ने जोड़ा. वे शरद पवार से बहुत प्रभावित थे, जो उस वक्त युवा कांग्रेस नेता और मुख्यमंत्री भी थे. उन्होंने कोशिश की कि राजनीतिक जीवन में वे पवार का अनुसरण करें.
जब नरेंद्र मोदी ने लगभग सभी मंत्रालयों को अपने अधीन ले रखा है और उन्हें चला रहे हैं, गडकरी ही एक ऐसे शख्स हैं जिन्होंने बहुत हद तक अपनी स्वायत्तता बचा रखी है.
उन दिनों पारंपरिक राजनीतिक बुद्धिमता यह थी कि मराठी वोटर ब्राह्मण नेता के खिलाफ है. यह सोच, क्रूर मराठा साम्राज्य में ब्राह्मण पेशवाओं के शासन के दौर से ही चली आ रही थी. इस सोच को चुनौती देने के लिए कि बीजेपी ब्राह्मणों की पार्टी है, प्रमोद महाजन, जो उस वक्त पार्टी की राज्य शाखा चला रहे थे, ने अपने साले गोपीनाथ मुंडे को समर्थन देना शुरू किया, जो अन्य पिछड़े वर्ग के नेता थे. गडकरी को इससे नुकसान पहुंचा, हालांकि जल्द ही वे राज्य इकाई के महासचिव नियुक्त कर दिए गए. नागपुर और आसपास के विदर्भ क्षेत्र में गडकरी के प्रभाव पर महाजन के चुने आदमी अरविन्द शाहपुरकर का ग्रहण लग गया.
1995 में बीजेपी और शिवसेना के गठबंधन ने वो कर दिखाया, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा रही थी. उन्होने मिलकर कांग्रेस को हरा दिया और महाराष्ट्र में सत्ता हासिल कर ली. शिवसेना नेता बाल ठाकरे के साथ गठबंधन प्रमोद महाजन की वजह से ही संभव हुआ था और महाराष्ट्र में जीत के बाद तो महाराष्ट्र बीजेपी में महाजन का प्रभुत्व पूर्णत: कायम हो गया. हालांकि गडकरी विदर्भ क्षेत्र के सबसे गणमान्य नेताओं में से थे, फिर भी पार्टी कांग्रेस-प्रभुत्व वाले इस इलाके से केवल एक सीट निकाल पाई. इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें गठबंधन वाली सरकार में मंत्रियों की सूची में भी शामिल नहीं किया गया. “मनोहर जोशी, जिन्हें पहले ही मुख्यमंत्री चुन लिया गया था, एक ब्राह्मण थे और यह सोच थी कि एक और ब्राह्मण की कैबिनेट में जरूरत नहीं,” नागपुर के वरिष्ठ विचारक दिलीप देवधर ने मुझे बताया, “प्रमोद महाजन ने गडकरी को कहा था कि वे उन्हें मंत्री नहीं बनने देंगे.”
सुजाता आनंदन की किताब महाराष्ट्रा मैक्सिमस: द स्टेट, इट्स पीपल एंड पोलिटिक्स के अनुसार, “आरएसएस को न तो महाजन, न शिवसेना की परवाह थी...न ही उसे इस बात से मतलब था कि महाजन ने गठबंधन के संबंध में बीजेपी के क्या किया है. इसलिए आरएसएस ने नितिन गडकरी को ऊंचा उठाने के लिए महाजन के पर कतर डाले.”
शाहपुरकर, जो विदर्भ इलाके में बीजेपी में खासे प्रभावशाली थे, ने मुझे बताया कि आरएसएस ऐसा नहीं सोचती थी कि गडकरी को “अपनी जाति की वजह से पीछे रह जाना चाहिए और उसने गडकरी को मंत्री बनाए जाने का पूरा समर्थन किया. वे संघ की कसौटी पर खरे उतरते थे.” देवधर ने यह भी बताया कि संघ ने अपने आदमी के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया और बावजूद इसके कि महाजन और मुंडे दोनों उन्हें नहीं चाहते थे संघ उस समय के बीजेपी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी को मजबूर करने में सफल रहा कि वे गडकरी के दावे का समर्थन करें.
1996 में गडकरी को लोक निर्माणकार्य विभाग मंत्री नियुक्त किया गया और नागपुर का गार्डियन मंत्री भी बना दिया गया. पंधारीपांडे ने याद करते हुए कहा कि गडकरी असल में केवल ऊर्जा मंत्री बनना चाहते थे. निर्माणकार्य विभाग लो-प्रोफाइल मंत्रालय था और अयोग्यता और भ्रष्टाचार के लिए बदनाम था. गडकरी इस मौके को किसी बड़े काम को करने के लिए स्प्रिंगबोर्ड की तरह इस्तेमाल करना चाहते थे.
बीजेपी-शिवसेना गठबंधन अपनी साख को चमकाने के लिए मुंबई में 55 फ्लाईओवर और मुंबई और पुणे को जोड़ने वाला छह लेन का एक्सप्रेसवे, जो इन दो शहरों की दूरी तय करने में लगने वाले समय को काटकर आधा कर दे, बनाना चाहता था. एक्सप्रेसवे की परिकल्पना, शरद पवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने की थी. लेकिन जैसाकि आनंदन ने 1998 में आउटलुक पत्रिका में लिखा, कांग्रेस “इस परियोजना को हाथ में लेने से इसलिए हिचक रही थी क्योंकि इसके चलते रास्ते में पड़ने वाले लोगों को बेदखल करना पड़ता. जब तक इस योजना का कागज पर प्रारूप तैयार हो पाया नई सरकार आ चुकी थी. ...बतौर मंत्री एक्सप्रेसवे और फ्लाईओवर परियोजनाओं की देखरेख की जिम्मेवारी गडकरी को सौंप दी गई.”
गडकरी यह कहते हुए कभी नहीं थकते कि जब वे लोक निर्माणकार्य विभाग मंत्री थे उन्होंने चार सालों में यह असंभव सा दिखने वाला काम कर दिखाया. अपनी किताब इंडिया एस्पायर्स: रीडीफाईनिंग पोलिटिक्स ऑफ डेवलेपमेंट में उन्होंने अपने कसीदे कुछ इस तरह से पढ़े हैं, “इन परियोजनाओं ने समूचे देश के लिए एक मिसाल कायम की. इसमें देश के सभी नौकरशाहों के लिए साफ संदेश था कि ईमानदारी और इच्छाशक्ति हो तो, रास्ते की हर अड़चन को दूर की जा सकती है.” पूरी दुनिया में इसका ढिंढोरा पीटा गया कि उन्होंने यह कैसे मुमकिन किया.
सरकार को इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 4000 करोड़ रुपयों की जरूरत थी, जो उसके पास नहीं थे. 1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद निजी क्षेत्र पर से अंकुश तो हट गया था, लेकिन इस तरह के इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिए अधिकतर सरकार से अपेक्षा की जाती थी. भारत में, निर्माण करो-चलाओ-हस्तांतरित करो का, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल लाने का श्रेय गडकरी खुद को देते हैं. उन्हें यह विचार मलेशिया के अपने सरकारी दौरे के दौरान आया था, जहां यह चलन था कि किसी कंपनी को किसी योजना के निर्माण का काम सौंप दिया जाए और फिर उसकी लागत निकलने तक उसे उस योजना को चलाने में रियायत दे दी जाए.
गडकरी और उनके समर्थक यह बताते हुए नहीं थकते कि कैसे उन्होंने मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे के लिए धीरुभाई अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज का 3200 करोड़ रुपए का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. इसकी जगह उन्होंने इसे नवगठित सरकारी स्वामित्व वाली महाराष्ट्र स्टेट रोड डेवलपमेंट कारपरेशन को सौंप दिया, जिसने सरकार से कर्ज गारंटी के आधार पर बाजार से जरूरी पैसा जुटाया और बहुत कम कीमत पर इन परियोजनाओं को पूरा किया. “अंत में कैबिनेट मीटिंग में जब हम रिलायंस के प्रस्ताव पर चर्चा कर रहे थे, मैंने अपनी गर्दन आगे कर इसे स्वीकार करने से मना कर दिया,” गडकरी ने इंडिया एस्पायर्स में लिखा. “इतने बढ़ा- चढ़ाकर पेश किए गए टेंडर को स्वीकारने का मतलब होता शोषण के आगे घुटने टेकना.”
महाराष्ट्र के एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया कि इसके पीछे राजनीति थी. महाजन को अंबानियों के करीब माना जाता था और वे चाहते थे कि ठेका रिलायंस को मिले.
बाद में कांग्रेस नेताओं ने दावा किया कि एक्सप्रेसवे का चौथाई हिस्सा ही बीजेपी-सेना सरकार के दौरान पूरा हुआ था और बाकी का कम तो उसके बाद आने वाली कांग्रेस सरकार ने करवाया. लेकिन इस तरह के विरोधों को ज्यादा तरजीह नहीं दी गई. गडकरी ने अपनी किताब में,कुछ श्रेय अपने साथ काम करने वाले और सख्त समझे जाने वाले नौकरशाह रमेश चन्द्र सिन्हा को भी दिया है. लेकिन वैसे सारी तारीफें उन्होंने अपने लिए ही बचा कर रखीं.
“मुझे नितिन गडकरी और मनोहर जोशी का मेरे काम में रोड़े न अटकाने के लिए शुक्रिया अदा करना चाहिए,” सिन्हा ने बिजनेस पत्रकार सुचेता दलाल को 2009 के अपने साक्षात्कार में कहा. “ऐसा नहीं था कि हममे मतभेद नहीं थे, लेकिन हम उनको कमरे की चारदीवारी के अंदर ही सुलझा लिया करते थे. मैंने मत्री जी से कह दिया था कि अन्य लोग इसका फायदा उठाएंगे अगर उन्हें हमारे मतभेदों के बारे में पता चला.”
बाद के एक लेख में दलाल ने गडकरी को लाल फीताशाही से निपटने और जरूरी प्रक्रियाओं को सरल बनाने का श्रेय दिया. हालांकि दूसरों ने उनके प्रयासों को अलग रोशनी में देखा और उन पर आरोप लगाया कि एक्सप्रेसवे के लिए जमीन अधिग्रहण की समस्याओं और विरोधों में वे अपनी टांग अड़ा दिया करते थे.
“एक्सप्रेसवे के खुलने के कुछ ही समय बाद उस रास्ते पर डकैतियां होने लगीं, खासकर रात के अंधरे में,” आनंदन ने बताया. “हाईवे पर पुलिस गश्त को जल्द ही एहसास हो गया कि यह असंतुष्ट गांववालों का काम है. वे लूटमार तो करते ही थे, बल्कि कभी-कभी हत्या भी कर डालते थे. कांग्रेस वापस आई और उनके साथ बैठकर मसले का हल ढूंढा. गडकरी आज ढिंढोरा पीटते फिर रहे हैं कि ‘मैंने हाईवे बनवाया है.’
गडकरी अपनी किताब में लिखते हैं कि इस काम के लिए बाजार से पैसा उठाने के कारण ही, वे लोक निर्माणकार्य विभाग के बजट से 14000 गांवों में सड़कें बनवाने के काम को अंजाम दे सके. (2009 में बीजेपी द्वारा जारी गडकरी के प्रोफाइल में दावा किया गया कि उन्होंने नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलेपमेंट से इस काम के लिए सॉफ्ट लोन उठाया था).
लोक निर्माण मंत्री होने के नाते गडकरी ने नागपुर में भी फ्लाईओवेर्स और सड़कों का निर्माण करवाया. पंधारीपांडे ने बताया कि मंत्री बनने के पहले हफ्ते में ही उन्होंने शहर का दौरा किया और स्थानीय मुख्य अभियंताओं की मीटिंग बुलाई. “उस वक्त पांच या छह फ्लाईओवर परियोजनाएं चल रही थीं,” पंधारीपांडे ने याद करते हुए बताया. “उन्होंने पूछा, ‘इनमे से कौन-कौन सी चार साल से पहले समाप्त हो सकती हैं?’ और इसके लिए फिर वर्धा रोड फ्लाईओवर को चुना गया. वे इस तरह की व्यवहारिकता के साथ काम करते थे.” इस काम के लिए गडकरी ने शहर पर अपनी दीर्घकालीन छाप छोड़ दी थी. नागपुर में कई लोगों ने मुझे यह कहानी सुनाई कि कैसे बाल ठाकरे उन्हें रोडकारी या पुलकारी कह कर बुलाया करते थे.
दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार, जो कई दशकों से बीजेपी को कवर करते आ रहे हैं, ने बताया कि ऐसी कई कहानियां हैं कि गडकरी मंत्री रहते हुए संघ की उस वक्त मदद कर रहे थे, जब सत्ता में रहते हुए उसकी कोई परवाह नहीं करता था. मुंबई में संघ के करीबी एक वरिष्ठ बीजेपी नेता ने बताया, “संघ के सभी खर्चे गुरु पूर्णिमा के दिन मिलने वाली गुरुदक्षिणा से चलते हैं. संघ सिर्फ व्यक्तिगत दान स्वीकार करता है. इसका मुख्यालय भी ऐसे ही चंदे से बनकर तैयार हुआ है. कहते हैं कि लोक निर्माण मंत्री रहते हुए गडकरी ने हेडगेवार का घर खरीदने और संघ को उसे हस्तांतरित करने में मदद की,” के.बी. हेडगेवार संघ के संस्थापक थे, “और उनके घर को लेकर, कुछ कानूनी अड़चने थीं.”
गडकरी एक ठेठ मराठी राजनेता बनते जा रहे थे. उसी परंपरा में ढले हुए जहां राजनीति और व्यवसाय का मिश्रण है और अंतत: पार्टी हंसी मजाक भी. जैसाकि स्मृति कोप्पिकर ने बताया, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि राजनेता कौन सी पार्टी से संबंध रखता है. एक व्यवसायी प्रतिद्वंद्वी पार्टी के सदस्य का भी दोस्त हो सकता है. यह एक ऐसा इको-सिस्टम है, जहां का अनकहा कानून है कि तुम मेरी पीठ खुजाओ और मैं तुम्हारी खुजाऊंगा, और इस तरह सभी को खैरात मिलती रहेगी. गडकरी ने इस इको-सिस्टम में किसी तरह अपनी जगह बना ली है.”
इसने कभी-कभी गडकरी के लिए मुश्किलें भी खड़ी की हैं. 1998 के आम चुनावों में, वे जब मंत्री थे, बीजेपी ने उन्हें चुनाव प्रचार के लिए उनके घरेलू जिले नागपुर ना भेजकर, पड़ोस के वर्धा जिले में भेज दिया, जहां पार्टी के प्रत्याशी विजय मुडे, गडकरी के करीबी मित्र, कांग्रेस के दत्ता मेघे की टक्कर में खड़े थे.
इंडियन एक्सप्रेस ने उस समय खबर छापी, “बीजेपी नेतृत्व के एक खेमे में डर है कि गडकरी मेघे को अपना गुपचुप समर्थन देंगे और इस तरह बीजेपी के अपने प्रत्याशी, मुडे को कमजोर बनायेंगे. गडकरी के विरोधी, बीजेपी के एक खेमे को, पहले ही यह यकीन है कि गडकरी ने अपने पुराने दोस्त मेघे की, नागपुर से 1991 और रामटेक से 1996 के लोक सभा चुनावों में भी मदद की थी. इसलिए बीजेपी नेतृत्व ने चालाकी भरा फैसला लिया है कि उन्होंने गडकरी से कहा है कि वे सुनश्चित करें कि इस बार वर्धा संसदीय क्षेत्र से मुडे पुनर्निर्वाचित हो सकें.” मेघे ने, मुडे को भारी मतों के अंतर से पछाड़ दिया, हालांकि, केंद्र में बीजेपी, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनाने में कामयाब रही.
1999 में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन राज्य विधान सभा का चुनाव हार गया और सत्ता कांग्रेस और शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी के हाथों में चली गई.
विधान परिषद में गडकरी विपक्ष के नेता चुन लिए गए. “गडकरी प्रतिद्वंद्वी पार्टियों से खुले में लड़ाई करते थे, लेकिन पीठ पीछे उनसे हाथ मिलाते थे,” नागपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया. “एक बार उन्होंने विधान परिषद् में वित्तीय घोटाले का गंभीर आरोप लगाया. उनके पास इसका सबूत भी था. लेकिन जब मैं उनके पास सबूतों के कागज़ मांगने गया तो वे मुकर गए. उस खबर का कभी खुलासा नहीं हो पाया.”
गडकरी के साथ अपने लंबे संबंध को याद करते हुए, 2016 में आनंदन ने अपने कॉलम में लिखा, “मुझे उनसे कांग्रेस और बीजेपी के बीच चलने वाली कई साजिशों के बारे में पता चला. नागपुर हमेशा से कांग्रेस का गढ़ रहा है, लेकिन पार्टी के अंदर ही इतने सारे गुट हैं कि किसी विरोधी गुट को अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी को हरवाने के लिए गडकरी से हाथ मिलाने में कोई परहेज नहीं.” नागपुर में जिन दो पत्रकारों से मैंने बातचीत की उन्होंने बताया बहुत संभव है कि बीजेपी के अंदर ही बदला लेने की भावना से या अपने खिलाफ प्रतिस्पर्धा समाप्त करने हेतु गडकरी ने अन्य विरोधी दलों की भी मदद की हो.
पवार के नक्शेकदम पर चलते हुए घरेलू मैदान में अपनी ताकत का इजाफा करने की मंशा से गडकरी ने सहकारी बैंकों और सोसाइटीस में अपनी पहचान और प्रभाव को बढ़ाया. मिसाल के तौर पर, उनकी पत्नी कंचन और बेटे अनिल सोले, दोनों इस समय बड़े सहकारी बैंकों के अध्यक्ष हैं.
यह शरद पवार और एनसीपी द्वारा पश्चिमी महाराष्ट्र में सफलतापूर्वक अपनाए गए मॉडल का ही अनुसरण था. पवार के सहयोगी, सहकारी बैंक चलाते हैं, जो इलाके के कारोबारियों को जरूरी कर्ज प्रदान कराते हैं, खासकर चीनी उत्पादकों को. इनमे से कई स्थानीय राजनीतिक नेता भी हैं. इस तरह एनसीपी, संरक्षक या सरपरस्त की भूमिका निभाती है. आनंदन ने महाराष्ट्रा मक्सिमस में लिखा, “इस तथ्य को कि पवार, मुख्यमंत्री न रहने के बाद भी महाराष्ट्र के बेताज बादशाह बने हुए हैं...को उनके परिवार की राज्य की सहकारी संस्थाओं पर मजबूत पकड़ में खोजा जा सकता है.”
बीजेपी के युवा मोर्चे के पूर्व नेता सूरज लोलगे ने नागपुर में मुझे बताया, “नितिन गडकरी एक ऐसा आदमी है, जो बिना पैसों के पैसे कमाना जानता है. उन्हें मालूम था कि वे राजनीति तभी कर सकते हैं, जब उनके पास ढेर सा पैसा हो...गडकरी को समझ आ गया कि सहकारी बैंकों को वे अपने फायदे के लिए कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं.”
लोक निर्माणकार्य मंत्री के रूप में काम करते हुए, गडकरी के रिकॉर्ड ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर मौक़ा प्रदान किया. जब वाजपेयी ने सन 2000 में गांवों तक सड़कें पहुंचाने की अपनी महत्वकांक्षी योजना प्रारंभ की तो उन्होंने गडकरी को राष्ट्रीय ग्रामीण सड़क विकास समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया. 2004 के, महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में एक बार फिर बुरे प्रदर्शन के बाद, राज्य इकाई के चोटी के नेतृत्व में बदलाव किए गए, जिस पर अभी भी महाजन का प्रभुत्व था.
आडवाणी को वाजपेयी के चहेते महाजन पसंद नहीं थे और उन्होंने महाजन की पसंद गोपीनाथ मुंडे की जगह गडकरी का साथ दिया. नागपुर के इस लाडले को पार्टी की राज्य इकाई का नेतृत्व करने के लिए चुन लिया गया. 2006 में वे पुन: दो साल की अवधि के लिए चुने गए.
(दो)
सन 2000 में, संघ के पहले गैर-ब्राह्मण सरसंघचालक, राजेन्द्र सिंह, ने संगठन का नेतृत्व के.एस. सुदर्शन को सौंपा. हालांकि वाजपेयी खुद भी संघ की पैदाइश थे, गठबंधन सरकार के चलते उनके द्वारा उठाए गए कुछ कदम संघ के गले नहीं उतरे. अद्मय सुदर्शन के नेतृत्व वाले संघ में, आलोचना अपने शिखर पर पहुंच गई और संघ ने बीजेपी पर लगाम कसने की ठान ली. जब तक वाजपेयी और उनके डिप्टी आडवाणी सत्ता में रहे सुदर्शन कुछ नहीं कर पाए. लेकिन जब 2004 के आम चुनावों में बीजेपी की हार हुई तो उनके हाथ मौका लग गया.
2005 में एक टीवी साक्षत्कार के दौरान सुदर्शन ने कहा कि वाजपेयी और आडवाणी “को अब हट जाना चाहिए और उदित होते नए नेतृत्व को मार्गदर्शन देने का काम करना चाहिए.” आडवाणी द्वारा पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को एक धर्मनिरपेक्ष शख्सियत बताने के बाद तो संघ ने ऐसा बखेड़ा खड़ा किया कि उन्हें बीजेपी के नेतृत्व से ही हाथ धोना पड़ा. संघ के वफादार दब्बू राजनाथ सिंह ने आडवाणी की जगह ली और संघ अब पार्टी की छोटी से छोटी चीज पर भी नजर रखने का काम करने लगी. कई और बातों के अलावा, बीजेपी ने अपने संविधान में संशोधन किया ताकि संघ प्रचारकों को पार्टी के हर स्तर पर तैनात किया जा सके.
2009 के आम चुनावों से ठीक दो महीने पहले, सुदर्शन के स्थान पर मराठी ब्राह्मण मोहन भागवत ने सरसंघचालक की कमान संभाली. यह एक युगांतरकारी बदलाव था. हालांकि बीजेपी अपनी पहले की कार्यनीति पर कायम रही. आडवाणी अब भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे और संघ के पार्टी में दखल ने, अंदरूनी झगड़ों को हवा देनी जारी रखी. पार्टी और इसकी जननी संस्था के बीच संबंध रूखे बने रहे.
चुनावों में बीजेपी 2004 की निराशाजनक संख्या से भी कम सीटें जीत कर ला सकी, और सत्ता एक बार फिर कांग्रेस के हाथों में आ गई. पार्टी के अंदर संकट और गहरा गया. संघ की नजरों में, बीजेपी अध्यक्ष के अलावा आडवाणी का शक्ति का वैकल्पिक केंद्र बने रहना, पार्टी के कामकाज में व्यवधान पहुंचा रहा था. उनके चेले अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू को, सामूहिक रूप से दिल्ली 4 कहे जाने वाले, समस्या के हिस्से के रूप में देखा जाने लगा.
बीजेपी अभी नए नेतृत्व की पशोपश में ही लगी थी कि अगस्त 2009 में, भागवत ने एक साक्षात्कार के दौरान, पार्टी में अंदरूनी लड़ाई और गुटबाजी के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की. भागवत का साक्षात्कार लेने वाले अर्नब गोस्वामी ने बातचीत का रुख पलटते हुए मामले को पार्टी के अगले नेता के चुनाव की तरफ मोड़ दिया. “ऐसी अटकलें हैं कि बीजेपी के पास चार विकल्प हैं – अरुण जेटली, वेंकैय्या नायडू, सुषमा स्वराज और नरेंद्र मोदी,” गोस्वामी ने कहा. “क्या इनके अलावा कोई पांचवा, छठा या सातवां विकल्प भी है?” यह पार्टी पर निर्भर है, भागवत ने कहा, “बीजेपी को इन चारों से परे भी देखना चाहिए.”
नवम्बर आते-आते गद्दी के लिए संघ की पसंद के रूप में गडकरी का नाम भी लिया जाने लगा. नागपुर के रहने वाले एक कारोबारी, दिलीप देवधर ने, जिनके संघ के नेताओं के साथ ताल्लुकात हैं और जो गडकरी के भी मित्र हैं, मुझे बताया कि तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी “पहली पसंद थे लेकिन वे अपने राज्य में 2012 के विधान सभा चुनावों से पहले केंद्र में नहीं आना चाहते थे.” तब बात, गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर और गडकरी, दोनों मराठी ब्राह्मण, तक आ पहुंची.
संघ के मुखपत्र, तरुण भारत के पूर्व संपादक, सुधीर पाठक ने बताया कि वे आडवाणी ही थे जिन्होंने गडकरी का नाम सुझाया था, जिसको संघ ने खुशी से कबूल कर लिया. देवधर ने बताया, “आडवाणी को लगा गडकरी उनके नियंत्रण में रहेंगे क्योंकि उन्होंने ही उसे राज्य की पार्टी का अध्यक्ष बनाया था.” दिसम्बर 2009 में गडकरी 52 साल की उम्र में बीजेपी के सबसे कम उम्र वाले अध्यक्ष बन गए.
कुछ सप्ताह बाद ही पार्टी ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के साथ मिलकर विभाजनकारी गठबंधन कर लिया. विधान सभा चुनावों ने जेएमएम, बीजेपी और कांग्रेस को ऐसे मुहाने पर छोड़ दिया था जहां तीनों ही मिलीजुली सरकार बनाने के लिए एक-दूसरे का साथ चाहते थे. जेएमएम और बीजेपी ने साथ आकर, राज्य को अपने नियंत्रण में सुरक्षित कर लिया था. लेकिन कई बीजेपीई नेताओं को लगा इससे पार्टी के नाम पर धब्बा लगा है क्योंकि जेएमएम के नेता, शिबू शोरेन, पर गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप थे. उस वक्त की मीडिया रिपोर्टों ने, इस फैसले का ठीकरा पूरी तरह से गडकरी के सिर फोड़ दिया, लेकिन यह उनके अकेले का कियाधरा नहीं था. जैसाकि बाद मेंकारवां ने छापा, संघ इस बात पर अड़ा हुआ था कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनने से हर हाल में रोकना है, क्योंकि उसे डर था कि इससे ईसाई धर्मांतरण को बढ़ावा मिलेगा. गडकरी ने तो सिर्फ सांगठनिक आदेश का पालन किया था, बावजूद इसके कि पार्टी के अंदर इस फैसले का विरोध था.
पाठक ने बताया कि गडकरी को लेकर कुछ शंकाएं थीं, खासकर उनकी चुनावी काबलियत और विपक्षी पार्टियों के साथ उनकी करीबी को लेकर. “लेकिन मोहन जी ने उन्हें काम करते देखा है,” उन्होंने जोड़ा, “वे बहुत खुले और साफगो इंसान हैं. वे सब के लिए मौजूद रहते हैं. वे यहां नागपुर में पले बढ़े हैं और संघ ने उन्हें करीब से देखा है. उनका अपना अलग अंदाज है. भिड़ जाता है, आगे पीछे नहीं देखता.” संघ के वरिष्ठ एम.जी वैद्य ने तरुण भारत में लिखा, “गडकरी सही पसंद हैं. उनमें संगठन बनाने की क्षमता है.” (वैद्य खुद एक मराठी ब्राह्मण हैं और उन्होंने ही सुदर्शन की सरसंघचालकी में, भागवत का नाम संघ के महासचिव के लिए सुझाया था. “तथ्य को स्वीकारने में संकोच है,” सुजाता आनंदन ने अपनी किताब में लिखा, “लेकिन संघ का शीर्षस्थ नेतृत्व, इस बात को लेकर परेशानी में है कि उत्तर भारतीयों और गैर-ब्राह्मणों द्वारा बीजेपी को हथिया लिया गया है.”)
बीजेपी ने अपने नए अध्यक्ष का प्रोफाइल जारी किया जिसमे उनकी छवि एक संयत व्यक्ति के रूप में दिखाई गई और उनकी कई उपलब्धियां गिनवाई. उन्हें “एक स्पष्ट संप्रेषक” बताया गया, “जो लाखों युवाओं को मंत्रमुग्ध” कर सकता था. जबकि साथ यह भी जोड़ा गया कि “उनके किसी भाषण या अपील में भावनाएं भड़काने वाली राजनीति का एक शब्द भी इस्तेमाल नहीं होता.” गडकरी दिखने में एक छोटे शहर के व्यापारी जैसे लगते हैं. उन्होंने वही बेपरवाह और बेफिक्र अंदाज अपनाया, जिस अंदाज को आमूमन बीजेपी के अध्यक्षों से जोड़ कर देखा नहीं जाता. उनकी अध्यक्षता की घोषणा वाली प्रेस कांफ्रेंस में वे खुश दिखे. वे चारों तरफ घूम-घूम कर पार्टी बुजुर्गों के पैर छू रहे थे और उन्हें गले लगा रहे थे. उन्होंने बहुत छोटा, नामार्के का भाषण दिया, जिसने दिल्ली की जुबान हिंदी में उनकी वाक् कला की तो पोल खोल कर रख दी. यह एक बुरा संकेत था. “मैंने पिछले पांच सालों में दिल्ली में रात नहीं गुजारी है,” खुद को बाहर से आया दिखाने के लिए उन्होंने कहा, “मैं सुबह आता था और शाम को लौट जाता था. मैं पहली बार आज यहां रात को रुकूंगा.” उन्होंने अपना भाषण पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ इस शपथ को लेकर समाप्त किया: “मैं वचन देता हूं कि मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा, जिससे आपका सिर शर्मिन्दगी से नीचा हो.”
पाठक ने बताया, “पतलून-कमीज पहनने वाले, वे पहले बीजेपी अध्यक्ष थे.” “एक आम आदमी यही परिधान पहनता है. वे उनके साथ घुलमिल जाना चाहते थे. पार्टी उस वक्त नव-अमीरों की तरफ मुखातिब हो रही थी.”
गडकरी का सांगठनिक अंदाज, बीजेपी के अधिवेशन के दौरान 2010 में इंदौर में नजर आया, जहां सभी नेताओं और प्रतिनिधियों को एक साथ टेंट में ठहराया गया था. पाठक ने इस बदलाव का महत्व समझाया, “जनसंघ के दिनों में नेता पार्टी दफ्तर या कार्यकर्ताओं के साथ रुकते थे,” उन्होंने कहा, “लेकिन इस पांच-सितारा संस्कृति ने उन्हें जनता से काट दिया था.” गडकरी ने एक गाने का दौर चलाने पर जोर दिया और जब उन्हें गाने के लिए कहा गया तो उन्होंने बड़े बेसुरे ढंग से एक पुराना हिंदी गाना सुनाया. “तब तक भारत में अधिकतर लोगों को नहीं पता था कि वे कौन हैं और कैसे दिखते हैं,” उस वक्त आउटलुक ने लिखा. “लेकिन उस गाने ने उनके लिए जादू का काम किया. वे छोटे शहर से आए हुए एक अहानिकारक साधारण इंसान जैसे दीखते थे, जिसमें कोई मिथ्याभिमान नहीं था.”
“आज पार्टी में समस्याएं, जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता की वजह से नहीं बल्कि उनकी वजह से है जिनको बहुत फायदा पहुंचा है,” गडकरी ने अपने भाषण में लोगों से कहा. उन्होंने चमचागिरी के खिलाफ भी बोला और कहा कि अगर वरिष्ठ नेता सम्मान हासिल करना चाहते हैं तो उन्हें यह सम्मान अर्जित करना होगा.
बाद में जब 2010 में, गडकरी ने नागपुर में अपने बड़े बेटे की शादी की तो उनके मिथ्याभिमानी न होने की छवि भी खंडित हो गई. बीजेपी और साथ ही संघ में भी लोगों की भवें तन गईं. शहर ने इस स्तर पर इतनी शानोशौकत पहले कभी नहीं देखी थी. शादी से पहले प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के हवाले से खबर छपी, “नागपुर के सभी 136 वार्डों के बीजेपी मुखियाओं को कहा गया है कि वे हर वार्ड में कम से कम 1,000 कार्ड बांटें. अकेले नागपुर में ही बंटने के लिए 1.36 लाख कार्ड लोगों तक पहुंचाए गए. बचे हुए 76000 कार्ड, नागपुर के बाहर के शहरों में भेजे गए.” (गडकरी ने अपने छोटे बेटे की भव्य शादी 2012 में करवाई; दिल्ली में आयोजित इस रिसेप्शन में कांग्रेस के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी शिरकत की; और फिर 2016 में भी उन्होंने अपनी बेटी की भव्य शादी की.)
अगस्त 2011 में, गडकरी ने एकत्रित उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेताओं को बताया कि वे संघ के सम्मानीय नेता, संजय जोशी को राज्य के विधान सभा चुनावों, जो अभी आठ महीने दूर थे, के लिए संयोजक नियुक्त कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी के कटु प्रतिद्वंद्वी, जोशी 2005 में निकाले जाने से पहले बीजेपी के प्रमुख सदस्य हुआ करते थे, जिन्हें अब पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य चुन लिया गया था. संघ की तरफ से गडकरी, दो नेताओं की आपसी रंजिश में गहरे तक उतर चुके थे. कथित तौर पर गडकरी ने, इस बात की जरूरत महसूस नहीं की कि मोदी को उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के लिए उतरना चाहिए. यह सार्वभौमिक रूप से प्रचलित फैसला नहीं था. बहुजन समाज पार्टी के व्यापक रूप से भ्रष्ट समझे जाने वाले चार नेताओं को पार्टी में शामिल किया जाना भी आम फैसला नहीं था.
मार्च 2012, में यह मनमुटाव और गहरा गया जब गडकरी ने बीजेपी के वरिष्ठ नेता एस.एस. अहलुवालिया की जगह, खाली राज्य सभा सीट के लिए लंदनवासी कारोबारी, अंशुमन मिश्रा के नाम की पेशकश की. मिश्रा, गडकरी के अभिन्न मित्रों में से थे, जो गडकरी की अध्यक्षता के दौरान पार्टी के वास्तविक खजांची का काम करते रहे थे. कई भाजपाइयों ने इस कदम का विरोध किया और अंत में पार्टी ने चुनावों में कथित खरीदारी की कोशिशों के चलते वोटिंग रद्द होने के बाद, अहलुवालिया को ही नामांकित किया. इसके बाद, आहत मिश्रा ने बीजेपी नेताओं पर खूब निशाना साधा. उनके बीच-बचाव में गडकरी को बीच में कूदना पड़ा और आखिरकार मिश्रा को माफी मांगनी पड़ी. उन्हें इस शर्मनाक असफलता की भारी कीमत भी चुकानी पड़ी. “अरुण जेटली और अन्य वरिष्ठ नेता इस बात से कतई खुश नहीं थे कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनकी राय नहीं ली जाती,” गडकरी के एक साथी ने मुझे बताया. “वहीं से गडकरी का पतन होना शुरू हो गया.”
उत्तर प्रदेश चुनाव अप्रैल-मई 2012 में संपन्न हुए और बीजेपी को इसमें करारी हार का सामना करना पड़ा. पार्टी के अंदर गडकरी की साख और गिर गई. मई के अंत में मोदी ने धमकी दी कि यदि संजय जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से नहीं हटाया गया तो मुंबई में होने वाली बीजेपी की राष्ट्रीय बैठक का बहिष्कार करेंगे. उस वक्त पत्रकार शीला भट्ट ने, इस टकराव के जाति आयामों की तरफ इशारा किया. “मोदी को इस मराठी ब्राह्मण जोशी में हमेशा एक षडयंत्रकारी नजर आता था; और, जोशी, मोदी को विशुद्ध तानाशाह मानते थे, एक ऐसा शख्स जो एक लोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी को चलाने के नाकाबिल है,” उन्होंने लिखा. “जोशी और गडकरी नागपुर से आते हैं और दोनों ब्राह्मण हैं. जैसाकि अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार पूर्व मंत्री हरेन पंडया का इस्तेमाल मोदी के खिलाफ किया था, मोदी गडकरी द्वारा इस्तेमाल में लाए जा रहे जोशी को उसी भूमिका में देखते हैं. ओबीसी मोदी, वाजपेयी-सरीखी ब्राह्मणवादी खूबियों वाले जोशी और यहां तक कि संघ नेतृत्व से भी संघर्ष कर रहे हैं”
गडकरी को घुटने टेकने पड़े और जोशी ने इस्तीफा दे दिया. दी टेलीग्राफ के मुताबिक, “गडकरी को मजबूर करके और इसके निहितार्थ संघ को अपने साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए मनवाकर, मोदी ने न केवल पार्टी के मुख्यमंत्रियों के बीच अपनी महत्ता साबित कर दी थी, बल्कि खुद के लिए ऊंचे पायदान पर अपनी जगह भी सुरक्षित कर ली थी.”
बाकि और मुद्दों के साथ मुंबई सम्मलेन में, जिन बातों पर विमर्श हुआ उनमे गडकरी की अध्यक्षता, जिस पर संघ जोर दे रहा था, को एक और अवधि के लिए बढ़ाने पर भी बातचीत हुई. सद्भाव के लिए मोदी ने प्रस्ताव मान लिया. सितम्बर 2012 में, बीजेपी के संविधान में संशोधन कर अध्यक्ष के दुबारा चुने जाने का प्रावधान जोड़ दिया गया.
संशोधन के वक्त तक, हालांकि, गडकरी के लिए संकट के द्वार खुल चुके थे. सितम्बर 2012 में, भ्रष्टाचार-विरोधी कार्यकर्ता, अंजलि दमानिया, ने दावा किया कि गडकरी ने उनसे कहा कि वे सिंचाई घोटाले मामले, जिसमे शरद पवार के भतीजे, एनसीपी नेता अजित पवार का नाम लिया जा रहा था, में कोई कार्यवाही नहीं करना चाहते, क्योंकि अजित और वे एक दूसरे के हितों का ख्याल रखते आये हैं. अगले ही महीने अरविंद केजरीवाल, जो उस समय भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ता थे, ने आरोप लगाया कि महारष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने 100 एकड़ कृषि योग्य जमीन, जो सरकार ने तथाकथित रूप से बाँध बनाने हेतु अधिगृहित की थी, गडकरी से संबंधित कारोबारों के हवाले कर दी गई. “गडकरी राजनीतिग्य नहीं हैं,” उन्होंने मीडिया को बताया. “वे बीजेपी का इस्तेमाल अपने व्यवसायिक हितों को पूरा करने के लिए कर रहे हैं. अब तो पार्टी ने उन्हें अध्यक्ष के पद पर बने रहने का एक और मौका देने हेतु अपना संविधान भी बदल लिया है.” बीजेपी अभी गडकरी के बचाव में ही खड़ी थी और जेटली तथा स्वराज आरोपों को ख़ारिज करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे की तभी पार्टी के नेता और जानेमाने वकील राम जेठमलानी ने गडकरी को गद्दी छोड़ने की नसीहत दे डाली (इस बात पर जेठमलानी को बीजेपी की सदस्यता से ही हाथ धोना पड़ा).
शक की सुई उस वक्त 55 मिलियन डॉलर या 300 करोड़ रुपए की पूंजी वाले व्यवसायिक समूह, पूर्ति ग्रुप के ऊपर जा टिकी. इसकी मुख्य संपत्ति, कपास और धान बहुल इलाके, विदर्भ में चीनी मिल थी. मिल का अपना पॉवर प्लांट था, एक भट्टी और एक एथेनॉल उत्पादन की इकाई भी थी, जिन सबका मूल्य दर्जनों करोड़ रुपयों में बैठता था. सन 2000 में, पूर्ति की स्थापना के लिए अधिकांश पूंजी बिचौलिया कंपनियों की मार्फत सहकारी बैंकों और अन्य संस्थागत निवेशकों से आई थी. ये बिचौलिया कंपनियां, समूह में मालिकाना हिस्सेदारी रखतीं थीं. आज ये सभी कंपनियां निष्क्रिय हैं और इनकी कोई कमाई नहीं है –फर्जी कंपनी का क्लासिक उदाहरण, अधिकतर फर्जी पतों के साथ. इनमे से पांच कंपनियों में तो गडकरी के ड्राईवर का नाम बतौर डायरेक्टर गया हुआ था. पूर्ति का मैनेजिंग डायरेक्टर, पूर्व नौकरशाह और गडकरी के मंत्री काल के दौरान, उनका निजी सचिव सुधीर डब्लू दिवे था, जो अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर, नेता जी के साथ हो लिया था.
मार्च 2010 में, दत्तात्रेय पांडुरंग म्हैसकर के स्वामित्व वाली ग्लोबल सेफ्टी विजन नामक कंपनी ने, जिसकी पेड-अप पूंजी मात्र 36000 रुपए थी, पूर्ति ग्रुप की सहायक कंपनी, पूर्ति शुगर एंड पॉवर लिमिटेड को, 164 करोड़ रुपए का कम ब्याज पर कर्जा दिया. महेस्कर, आइडियल रोड बिल्डर्स (आईआरबी) के प्रमोटर भी थे, जिसने निर्माण करो-चलाओ-हस्तांतरित करो के तहत कई योजनाओं को क्रियान्वित किया था, जब गडकरी लोक निर्माणकार्य मंत्री थे. मार्च 2011 तक, म्हैसकर की कंपनी में शरद पवार के एक हजार शेयर थे.
गडकरी ने टीवी पर सफाई देने की कोशिश की कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है और वे किसी भी प्रकार की जांच के लिए तैयार हैं. लेकिन नुकसान हो चुका था. सुचेता दलाल, जिन्होंने पहले गडकरी की उपलब्धियों की, बतौर लोक-निर्माण कार्य मंत्री तारीफ की थी, ने भी गडकरी के प्रतिद्वंद्वी दलों के साथ साठगांठ को लेकर तीखी आलोचना करते हुए लेख लिखा डाला. “बतौर विपक्षी दल के नेता के रूप में, जिसने महाराष्ट्र के इन्फ्रास्ट्रक्चर का कायाकल्प किया, उसे बहुत शक्तिशाली प्रहरी होना चाहिए,” उन्होंने लिखा. “जब कांग्रेस-एनसीपी की सरकार के तहत, शरद पवार ने मंत्रालय की कमान संभाली तो उन्होंने तुरंत ही मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे के टोल एकत्रीकरण एवं देखरेख के ठेके का निजीकरण कर डाला, जो म्हैसकर की आइडियल रोड बिल्डर्स को दे दिया गया. उन्होंने आगे लिखा, “गडकरी को चुप रखने के लिए जरूरी था उन्हें अपने साथ मिला लेना और वही आईआरबी ने किया, क्योंकि पहले ही मूल प्रोजेक्ट में भारी बदलाव कर दिए गए थे और अधिकतम मुनाफा कमाने की मंशा से टोल फीस में भी बढ़ौतरी कर दी गई थी. जल्द ही आईआरबी, पूरे महाराष्ट्र में टोल के ठेके हथियाने लगी. इसने तो बल्कि एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी को इक्विटी बेचने की भी योजना बना ली और 3000 करोड़ रुपए से अधिक की लागत वाली भारी भरकम योजना भी प्रस्तावित कर डाली.
दलाल ने लिखा वे कैसे एक दिन मुंबई में गडकरी से अचानक टकरा गईं और उन्होंने जब “उनसे उनकी चुप्पी और मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे की तबाही के बारे में पूछा. वे बड़े अचंभित दिखे, जब मैंने उन्हें आईआरबी के विनिवेश की योजनाओं के बारे में बताया. अजीब बात थी कि अगली ही सुबह आईआरबी के चेयरमैन महेस्कर फोन लाइन पर थे और मुझे चीजें समझाना चाह रहे थे. यह पहला संकेत था कि कितनी अच्छी तरह से मिस्टर गडकरी को अपने साथ मिला लिया गया था.”
संघ विचारक दिलीप देवधर ने मुझे बताया कि जब गडकरी बीजेपी के अध्यक्ष बनने वाले थे, शरद पवार ने उन्हें पूर्ति ग्रुप के साथ अपने सारे संबंध ख़त्म कर देने का मशविरा दिया था लेकिन गडकरी ने सलाह का पूरी तरह से पालन नहीं किया. पूर्ति की खबर का खुलासा करने वाले, पत्रकार गणेश कनाते ने बताया, “गडकरी पवार के मॉडल से बहुत प्रेरित थे, लेकिन जो जरूरी फर्क है वह यह कि पवार खुद को खुले रूप से किसी के साथ कभी नहीं जोड़ेंगे. आप उनको कभी, उनके व्यवसायों से जोड़ ही नहीं पाएंगे. उन्हें फासला रखना आता है लेकिन गडकरी को यह नहीं मालूम.”
इस तमाशे के बीच संघ ने एक वरिष्ठ और चार्टर्ड अकाउंटेंट, एस. गुरुमूर्ति को यह काम सौंपा कि वे पूर्ति के खातों की जांच करें. गुरुमूर्ति ने खातों में कुछ भी गड़बड़ न होने की घोषणा कर दी.
पूर्ति विवाद जब अपने शीर्ष पर था, एम.जी. वैद्य ने ब्लॉग पोस्ट पर मोदी को इसका जिम्मेदार बताया. “नितिन गडकरी के खिलाफ इस अभियान की जड़ों को गुजरात में ही खोजना होगा क्योंकि जब राम जेठमलानी ने गडकरी के इस्तीफे की मांग की थी, उन्होंने यह भी कहा था कि नरेंद्र मोदी को बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया जाना चाहिए,” वैद्य ने लिखा. नरेंद्र मोदी ने सोचा होगा कि बतौर बीजेपी अध्यक्ष प्रधानमंत्री बनने के उनके मंसूबों के आगे गडकरी रोड़ा बन सकता है. वे अपनी योजनाओं को पूरा करने के लिए जेठमलानी का इस्तेमाल कर रहे हैं.” गुजरात में तब चुनाव होने वाले थे, लेकिन मोदी ने, गडकरी को अब तक राज्य में आने से रोक रखा था. वैद्य की ब्लॉग पोस्ट के तुरंत बाद ही बीजेपी अध्यक्ष गुजरात रवाना हो गए.
गणेश कनाते, जो उस वक्त मुंबई में, चैनल न्यूज एक्स के साथ काम कर रहे थे, ने बताया कि “जिन तीन लोगों को पूर्ति ग्रुप से संबंधित कागज़ात मिले थे, उनमे से एक मैं था.” दिल्ली में, “मेरे सम्पादक जहांगीर पोचा और उनकी पत्नी रंजना जेटली, अरुण जेटली की भतीजी, और मैं, एक पांच-सितारा होटल में जेटली से मिले, जहां मुझे कागज़ात दिए गए. मैंने उनका अध्ययन किया. वे असली थे. फिर मैंने उस खबर का खुलासा किया.” नागपुर के रहने वाले कनाते, जो गडकरी को अपना दोस्त मानते हैं, ने सोचा “हमारा उस वक़्त इस्तेमाल किया गया था. उन आरोपों से कुछ निष्कर्ष नहीं निकलता था. इसे अब दुबारा तब तक नहीं उठाया जाएगा, जब तक उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी.”
बीजेपी और संघ के भीतर गडकरी के लिए समर्थन को इससे झटका लगा, हांलाकि, भागवत और वैद्य उनकी तरफदारी करते रहे. तब भी 22 जनवरी 2013 तक उन्हें, अध्यक्षता का दावेदार माना जाता रहा. उस दोपहर जब टैक्स अधिकारियों ने मुंबई में, पूर्ति के कई दफ्तरों पर छापे मारे तो, बीजेपी ने एक प्रेस विज्ञप्ती जारी की, जिसमे कहा गया था कि “आयकर विभाग द्वारा बीजेपी अध्यक्ष पर इन छापों से, वह भी उनके पुन: चुनाव की पूर्व संध्या पर, पार्टी के भीतर भ्रम पैदा करने के घिनौने इरादों की बू आती है.” लेकिन उसी दिन आडवाणी और संघ के महासचिव भैय्याजी जोशी, गडकरी से मुंबई में मिले और उनसे इस्तीफ़ा देने के लिए कहा. विज्ञप्ति के जारी किए जाने के, एक घंटे से भी कम समय में बीजेपी के वक्तव्य में सुधार किया गया और उसे दुबारा जारी किया गया. इसमें गडकरी के पुनर्चुनाव का हवाला नहीं दिया गया था. उस रात गडकरी ने इस्तीफा दे दिया, और संघ की मर्जी के अनुसार अपने उत्तराधिकारी के रूप में राजनाथ सिंह का नाम सुझाया.
बीजेपी के ऊपर अपनी मर्जी थोपने की गडकरी की कोशिशों ने, संघ और आडवाणी की अगुवाई में चलने वाले पार्टी नेतृत्व के शक्ति संतुलन को बिगाड़ दिया था. “संघ और आडवाणी के बीच घमासान चल रहा था,” देवधर ने बताया. “दिल्ली में सब आडवाणी के साथ थे. नतीजतन, उनकी सारी अध्यक्षता ही संकट बन गई थी.”
“पर्दे पर मोदी के आगमन ने संघ के गडकरी को पहले राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का नेता बनाने और अंतत: प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने के मंसूबों पर पानी फेर दिया था,” आनंदन ने महाराष्ट्रा मैक्सिमस में लिखा. ऐसे संकेत मिले जिनसे लगने लगा कि इस तरह की कोई स्कीम 2011 से थी, जब दी हिन्दू ने छापा, “गडकरी ने प्रधानमंत्री बनने की किसी तरह की अपनी आकांक्षा से इनकार किया है, लेकिन ऐसे बहुत से संकेत हैं कि वे विभाजित पार्टी में खुद को प्रत्याशी बनाने की तैयारी में लगे हैं. अन्य चीजों के अलावा, उन्होंने हाल ही में वजन कम करने के लिए अपनी सर्जरी भी करवाई थी, अब तस्वीरों में अच्छा दिखने के लिए वे पहले सा ज्यादा प्रयास करते थे और उन्होंने वर्धा और नागपुर की संभावित संसदीय सीटों को भी पोसना शुरू कर दिया था.”
संघ की अब सारी योजनाएं चारों खाने चित्त पडीं थीं. गडकरी नागपुर लौट गए और लोक सभा में होने वाले शक्ति संतुलन में संभावित बदलाव की तैयारी करने लगे.
(तीन)
अपने इस्तीफे के तुरंत बाद नागपुर लौटने पर उन्होंने शहर के हवाई अड्डे के पास अपने समर्थकों को संबोधित किया. उन्होंने कहा वे उन अधिकारियों को जानते हैं, जो उनके खिलाफ छापा मारने की साजिश में शामिल थे. “कांग्रेस एक डूबता जहाज है,” उन्होंने चेतावनी दी. “जब हमारी सरकार की बारी आएगी, कोई चिदंबरम, कोई सोनिया गांधी (एक वित्त मंत्री दूसरा कांग्रेस अध्यक्ष) तुम्हारी मदद को नहीं आएंगे.” बतौर अध्यक्ष उन्होंने कहा, “मुझे कुछ अनुशासन में रहना होता था, लेकिन अब मैं आजाद हूं. मैं कांग्रेस पार्टी को चुनौती देता हूं कि वे मुझसे जितना चाहें लड़ सकते हैं.”
यह बहुत पहले ही तय हो चुका था कि गडकरी बीजेपी के लिए नागपुर से लोक सभा चुनाव लड़ने वाले हैं. यह एक मुश्किल चुनौती थी. गडकरी 29 साल बाद पहली बार चुनाव के मैदान में उतरने वाले थे. और बीजेपी ने उस सीट को पहले सिर्फ एक बार जीता था, वह भी तब जब कांग्रेस का प्रत्याशी पाला बदलकर बीजेपी में शामिल हो गया था. अब तक नागपुर के दलित, मुसलमान और ओबीसी वोटरों, जो यहां बहुतायत में थे, ने पारंपरिक रूप से कांग्रेस और अन्य पार्टियों का चुनाव किया था. यही विदर्भ पर भी लागू होता था.
लेकिन गडकरी भी अपने चुनावी दांव के लिए जमीन तैयार कर रहे थे. तरुण भारत के संपादक गजानन नामदेव ने मुझे बताया, “उन्होंने विदर्भ में सभी जिला अध्यक्षों को कार दिलवा दी,” कथित तौर पर स्थानीय स्तर पर पार्टी को मजबूत करने के लिए. “जिन ठेकेदारों को उनसे फायदा हुआ और जिनका काम उन्होंने किया था उन्ही को उन्होंने कारें दीं.” इस तरह के फायदे पहुंचाकर उन्होंने एक ऐसे चुनावी क्षेत्र में, जहां वोटर ऐतिहासिक रूप से बीजेपी से अभी तक कन्नी काटे हुए था, अपना वोट बैंक तैयार किया तथा बीजेपी के अंदर और बाहर अपने खिलाफ प्रतियोगिता को कम किया.
गडकरी की निर्ममता का, पार्टी को बहुत खामियाजा भुगतना पड़ा. नागपुर में एक राष्ट्रीय अखबार के पत्रकार ने बताया कि 2009 के लोक सभा चुनावों में, बीजेपी प्रत्याशी के नागपुर सीट जीतने की बहुत संभावना थी, लेकिन बनवारीलाल पुरोहित गडकरी के प्रतिद्वंद्वी निकले. “2009 में जब वे पार्टी अध्यक्ष बने तो एक प्रेस कांफ्रेंस में हमने उनसे पूछा कि इतने कम समय में वे यहां तक कैसे पहुंचे.” पत्रकार ने आगे कहा, “उन्होंने विडियो पत्रकारों को बाहर भेज दिया और हमें इसके दो कारण बताए: ‘पहला, अपने प्रतिद्वंद्वी को पनपने का कभी मौका मत दो; दूसरा, लोगों को भूल जाओ.’” लेकिन संभावित चुनौती देने वालों से निपटते हुए गडकरी ने प्रतिद्वन्दवी पार्टियों के नेताओं को अपने साथ मिलाकर, बीजेपी की भी मदद की है. “एक समय में विदर्भ के सभी जाने-माने परिवार, जो कांग्रेस और एनसीपी में हुआ करते थे, आज बीजेपी के साथ हैं,” गडकरी के विश्वासपात्र अनिल सोले ने बताया. दत्ता मेघे, जो पहले कांग्रेस और एनसीपी में थे, आज अपने बेटों के साथ बीजेपी में हैं, जिनमे से एक तो महाराष्ट्र विधान सभा सदस्य है. कांग्रेस नेता रंजीत देशमुख के बेटे, आशीष देशमुख भी राज्य विधान सभा में बीजेपी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.
“1999 के लोकसभा चुनावों में, मेरे पिता की हार के पीछे गडकरी का हाथ था,” पूर्व बीजेपी नेता विनोद गुदाधे पाटिल के बेटे प्रफुल्ल पाटिल ने बताया. 1990 में पाटिल ने बीजेपी को नागपुर से पहली विधान सभा सीट जिता के दी थी और 1995 में भी उन्होंने वो सीट अपने हाथ से जाने नहीं दी. बतौर एक ओबीसी नेता उन्होंने शहर में ओबीसी वोटरों का रुख बीजेपी की तरफ मोड़ने की शुरुआत की. प्रफुल्ल के अनुसार गडकरी की उनसे बिलकुल नहीं बनती थी. “पार्टी उनके घर की तरह थी और घर संघ का था,” उन्होंने कहा. “हम उसमे किरायदार की तरह थे. जब हमें लगा हम किराए के मकान में रह रहे हैं, हमने उसे खाली कर दिया.” विनोद पाटिल ने बीजेपी छोड़ दी और प्रफुल्ल कांग्रेस में शामिल हो गए. उन्होंने कहा, “गडकरी ने अपनी राजनीति संघ से सीखी है.”
प्रफुल्ल ने माना कि ओबीसी नेताओं को बीजेपी में टिकने नहीं दिया जाता. “उन्हें एक नेता के जरिए ओबीसी वोट मिले और अगले चुनाव में उस नेता को किनारे लगा दिया गया,” उन्होंने कहा. “फिर वे उसकी जगह अगला महत्वकांक्षी पकड़ लाए.” पाटिल की सीट एक ब्राह्मण, देवेन्द्र फडणवीस ने हथिया ली. “वे नेता बदलते गए, लेकिन वोट टिके रहे.”
2013 में, मुसलमानों के वोट अपने लिए सुरक्षित करने की योजना के तहत गडकरी ने जैतुनबाई अश्फाक पटेल का नागपुर की डिप्टी मेयर बनने में साथ दिया. आनंदन ने मुझे बताया, जब बीजेपी-समर्थित प्रधानमंत्री पद के दावेदार मोदी देश का भ्रमण कर रहे थे, “नितिन गडकरी ने उन्हें जानबूझकर दूर रखा. मोदी ने वर्धा, दक्षिणी नागपुर, अमरावती, उत्तरी नागपुर और नागपुर के पूर्व, भंडारा में प्रचार किया. लेकिन वे नागपुर नहीं आए.” गडकरी अपने आसपास उनकी ध्रुवीकरण करनी वाली मौजूदगी नहीं चाहते थे. और वे नागपुर में अपनी विजय का सेहरा मोदी के सिर नहीं बंधने देना चाहते थे.
गडकरी ने दलित नेताओं को भी लुभाना शुरू कर दिया था. रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के जाने माने अंबेडकरवादी, मिलिंद मने अब बीजेपी की तरफ से नागपुर के विधायक हैं. “नितिन गडकरी बीजेपी में बहुजनों को लेकर आए,” नामदेव ने बताया. पंधारीपाण्डे के अनुसार गडकरी ने “बीजेपी को एक शहरी ब्राह्मणवादी पार्टी से व्यापक जनआधार वाली पार्टी में तब्दील कर दिया,” लेकिन उनका मानना है, ओबीसी वोटरों को आकर्षित करने वाले “वे अकेले या पहले व्यक्ति नहीं हैं.”
इसी वोट बैंक में इजाफा करने के लिए गडकरी ने विदर्भ को अलग राज्य बनाने की मांग का समर्थन किया था, जिससे अब वे पीछे हट चुके हैं. जब चुनाव आए तो उनकी शानदार विजय हुई, जिसमें जीत का अंतर तीन लाख के करीब था.
इस जीत ने गडकरी पर अपने इलाके का शेर होने पर ठप्पा लगा दिया. सालों से नागपुर पर किसी और व्यक्ति का ऐसा प्रभाव नहीं देखा गया था जितना उनका देखा गया. यह इस बात का भी सबूत था कि इतने छोटे-बड़े विवादों में उलझने के बावजूद, उनके रुतबे में जरा भी आंच नहीं आई थी. नागपुर में, मैंने जिससे भी बात की वो इन्ही मुद्दों के इर्दगिर्द हुई. मुझे गडकरी की साख की वजह, उनका मिलनसार स्वभाव और खुला घर भी बताया गया. लोगों से बात करते हुए मुझे लगा कि गडकरी ने जो शहर के लिए हासिल किया उसमे अधिकतर लोग गर्व का अनुभव करते हैं. उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि उसे हासिल करने में उन्होंने क्या तरीके अपनाए. और जब उनके दुस्साहसिक कारनामों की बात आती है तो स्थानीय लोग मुट्ठियां तान लेते हैं.
महाराष्ट्र में अर्बन लैंड सीलिंग एक्ट के तहत 1990 से 2006 के बीच, अतिरिक्त जमीनों के आवंटन की जांच के लिए 2008 में बैठाए गए आयोग ने पाया कि विभिन्न पार्टियों के राजीतिज्ञों से सम्बंधित संस्थानों को प्लाट आवंटित करने में स्थापित नियमों को ताक पर रखा गया था. आयोग ने यह भी कहा, “अधिकतर, करीब 16 आवंटन, श्री नितिन गडकरी, विधायक/ मंत्री की सिफारिश पर किए गए.
नागपुर के कई बड़े कारोबारियों से गडकरी अपने नजदीकी संबंधों के लिए जाने जाते हैं. 2010 में, अजय संचेती का नाम झारखण्ड में जेएमएम-बीजेपी सरकार की चालबाजी के सिलसिले में उछला था. संचेती संघ के साथ ताल्लुकात रखने वाले उद्द्यमी हैं, जिनकी रूचि इन्फ्रास्ट्रक्चर में है. 2012 से वे बीजेपी की तरफ से राज्य सभा के सदस्य भी हैं. कोयला घोटाले के वक़्त भी उनका नाम उछला था, जिसमे सरकार ने कोयला ब्लॉकों को बिना बोली लगाए चंद चुनींदा कंपनियों को सौंप दिया था, जिससे सरकारी खजाने को बहुत भारी नुकसान झेलना पड़ा था. 2012 में जब घोटाला सामने आया तो छत्तीसगढ़ के सीएजी ने कहा, संचेती के स्वामित्व वाली एसएमएस इन्फ्रास्ट्रक्चर के कारण, राज्य सरकार को 1000 करोड़ रुपए का घाटा हुआ. संचेती और गडकरी के संबंधों की जब सार्वजानिक चर्चा होने लगी तो बीजेपी अपने बचाव में इतना ही कह पाई कि खदान समझौते पर दस्तखत होने तक, गडकरी पार्टी अध्यक्ष नहीं बने थे और ना ही तब तक संचेती, राज्य सभा सदस्य चुने गए थे. हालांकि, बीजेपी ने इस मसले पर कांग्रेस-नेतृत्व वाली सरकार पर निशाना साधे रखा.
2012 में ही अरुण लखानी नाम के एक और इन्फ्रास्ट्रक्चर में दिलचस्पी रखने वाले नागपुर के उद्द्यमी का नाम, पूर्ति ग्रुप के घोटाले के संबंध में लिया जाने लगा. यह तथ्य सामने आया कि लखानी ही समूह के संरक्षकों में से एक थे. 2012 में ऑरेंज सिटी वाटर (ओसीडब्लू) नामक कंपनी को बीजेपी नियंत्रित नागपुर नगर निगम से, शहर के पानी सप्लाई सिस्टम को हाथ में लेने का ठेका मिल गया. इसके बावजूद कि इसके पहले का निजीकरण का प्रयोग विफल रहा था और निगम के कर्मचारियों ने भी इसका विरोध किया था. ओसीडब्लू, लखानी के विश्वराज एनवायरनमेंट और फ्रेंच कंपनी वेओलिया का संयुक्त उद्दयम है. गडकरी ने इस निजीकरण का समर्थन किया था. इससे पहले संघ ने प्रस्ताव पास करके इसका विरोध किया था, लेकिन ठेका दिए जाने के बाद उसने इस पर चुप्पी साध ली.
पंधारीपांडे, जो अब ओसीडब्लू के सोशल कम्युनिकेशन कंसलटेंट हैं, ने बताया, “संघ ने कहा, ‘तुम क्या ईस्ट इंडिया कंपनी बनाने जा रहे हो? विदेशी कंपनी को क्यों ला रहे हो? तुम पानी का निजीकरण कर रहे हो? इसे एक उपभोग की वस्तु बना रहे हो?’” उन्होंने लापरवाहीपूर्वक माना कि अरुण लखानी “भी संघ का हिस्सा है,” और कि “उन्हें पहले से ही बता दिया गया था, जिसको भी टेंडर मिलेगा उसे उसके साथ जुड़ना होगा.”
निजीकरण के बाद से, ओसीडब्लू के खिलाफ बढ़ा-चढ़ाके बिल भेजने, सीमित और दूषित पानी की सप्लाई करने की शिकायते आती रही हैं. लेकिन नागपुर में अधिकारी और लगभग सभी विपक्षी पार्टियां, इस पर अपनी चुप्पी साधे हुए हैं. “कांग्रेस के जाने-माने नेता क्या गडकरी से मुकाबला कर सकते हैं,” प्रफुल पाटिल के अनुसार. “नहीं कर सकते. केवल नया नेतृत्व ऐसा कर सकता है.”
ट्रुथआउट नामक एक स्वतंत्र साईट की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार, “निजीकरण के पीछे जो सफाई दी गई थी, उनमे नगर निगम के घाटों में कमी लाना भी शामिल था; 2016 में नागपुर नगर निगम को 1.8 बिलियन रुपये अपनी जेब से देने पड़े थे. मीटरों में 2 बिलियन रुपए का घोटाला अलग से हुआ था. प्रधानमंत्री मोदी के ‘मेड इन इंडिया’ पर जोर दिए जाने के बावजूद भी ओसीडब्लू, यूरो-नॉर्म वाले मीटर विदेश से खरीद कर उसे दुगने दामों में नगर निगम को बेचती रही.”
मीडिया मुगल माने जाने वाले सुभाष चन्द्रा ने 2016 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा में लिखा, “इन्फ्रास्ट्रक्चर ऊद्यमी, अरुण लखानी से मुझे मेरे पुराने मित्र, नितिन गडकरी, जो इस समय केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री हैं, ने 2006 में मिलवाया. लखानी को महाराष्ट्र में पीपीपी मॉडल के तहत राजमार्गों के निर्माण में रियायत मिली थी...हमने भी लखानी की कंपनी में निवेश कर दिया. इस तरह इस प्रोजेक्ट के साथ, इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में हमारा सफ़र शुरू हुआ.”
नागपुर नगर निगम, शहर के कचरे को इकठ्ठा करने, बस सेवायें और ऊर्जा वितरण के काम को भी निजीकरण के दायरे में ले आया और उन्हें चलाने का काम, निजी कंपनियों को देना शुरू कर दिया. इन तीनों क्षेत्रों में भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के बड़े-बड़े आरोप लगे. 2015 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने कचरा एकत्रीकरण मामले में 10 करोड़ रुपए के घोटाले की खबर छापी; और 2017, में 25 करोड़ रुपए की. लेकिन घोटाले के लिए जिम्मेदार कनक रिसोर्सेज मैनेजमेंट कंपनी, पहले की तरह काम करती रही. यहां तक कि उसके ठेके की मियाद 2019 तक बढ़ा दी गई. वर्ष 2011 में, नागपुर शहर के सार्वजनिक परिवहन के लिए दिए जाने वाले ठेके और बसों की खरीदारी में, 40 करोड़ रुपए के घपले का आरोप लगा था. इसमें भी कोई कार्रवाई नहीं की गई. गडकरी के पुराने साथी, अनिल सोले की अध्यक्षता में इस मामले की जांच हुई थी. बस सेवाओं के लिए जिम्मेवार, वंश निमय इन्फ्रा प्रोजेक्ट्स नामक कंपनी का ठेका, 2017 में रद्द कर दिया गया. नगर निगम ने इस पर 132 करोड़ रुपए के गबन का आरोप लगाया.
2013 की शुरुआत में, गडकरी ने कांग्रेस नेता नारायण राणे, जो उस समय महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री थे, के साथ मिलाकर एक कॉलोनी का उदघाटन किया, जहां उनके अनुसार देश, यहां तक कि पूरी दुनिया में, 400 रुपए प्रति वर्ग फुट की दर पर, सबसे सस्ते घर दिए जाने थे. इसके पीछे गडकरी का प्रमुख हाथ था. सबसे पहले उन्होंने संघ से जुड़े कुछ फैक्ट्री मजदूरों को मिलाकर एक सहकारी हाउसिंग सोसाइटी का गठन किया. फिर राणे के साथ मिलकर सोसाइटी को बहुत कम दामों में, करीब 20 एकड़ औद्योगिक जमीन आवंटित करवा दी. पिछली बार इस जमीन को हथियाने में विफलता हाथ लगी थी, जब इसे एक कंपनी, जिसमे गडकरी डायरेक्टर थे, को दिलवाने की कोशिश की गई थी. उन्होंने दो विधायकों और चार सांसदों – पियूष गोयल, अजय संचेती, प्रकाश जावेडकर और प्रकाश जाधव – को ढाई करोड़ रुपए के स्वाधीन विकास फंड, जिसे सार्वजनिक योजनाओं पर ही खर्च किया जा सकता है, देने के लिए मनवा लिया था. गडकरी ने अपने हिस्से का विकास फंड भी इसमें डाल दिया.
कॉलोनी का नाम हिंदुत्व के पैरोकार, वी.डी. सावरकर के नाम पर रखा गया. लेकिन जल्द ही इसके बाशिदों की तरफ से शिकायतों का पुलिन्दा लगा गया, जिन्हें वे अदालत तक भी ले गए.
हर घर की कीमत 230000 रुपए रखी गई और बाशिंदों को संघ-संचालित, नागपुर नागरिक सहकारी बैंक से कर्ज भी मुहैया करवाया गया. लेकिन शुरूआती घोषित कीमत, बढ़ते-बढ़ते 6,25,000 रुपए तक पहुंच गई. घरों का निर्माण भी घटिया ढंग का था. यह तथ्य भी सामने आया कि कई किस्म की सरकारी अनुमतियां नहीं ली गईं और टैक्स तथा सेवाओं के नाम पर इक्कठा किया गया पैसा भी जमा नहीं करवाया गया था.
“गडकरी ने हमेशा इसका सेहरा अपने सर बांधा और दावा किया कि उन्होंने गरीबों के लिए सस्ते घर मुहैया करवाए, लेकिन उन्होंने सिर्फ गरीब का शोषण किया,” कॉलोनी के बाशिंदे और याचिकाकर्ता, पंकज ठाकरे ने मुझे यह तब बताया जब मैं नागपुर के पास वीर सावरकर नगर में उनसे मिला. कॉलोनी का चक्कर लगाते हुए लोगों ने मुझे गिरती छतें और दीवारें दिखाईं. “कोई विरोध नहीं करता, अगर इतना पैसा लेने के बाद भी उन्होंने अच्छा काम करके दिया होता, ठाकरे ने बताया. “इसे बिना किसी योजना के खड़ा कर दिया गया है. बुनियादी सुविधाएं, जैसे पानी और निकास की व्यवस्था तक नहीं की गई है. ना पुलिस, ना कलेक्टर और ना मीडिया ने हमारी शिकायतों को गंभीरता से लिया.” गडकरी के निजी सहायक और अब सड़क मंत्रालय में स्पेशल ड्यूटी पर अफसर, सुधीर देउलगांवकर, उनके पास गए थे और समझौते की पेशकश की. लेकिन उन्होंने कोर्ट में केस लड़ने का फैसला किया.
ठाकरे ने बताया कि 2008 में, जब कॉलोनी के भावी बाशिंदे अपने प्लाट का एकमुश्त भुगतान कर रहे थे, वे और कुछ अन्य बेचैन प्रतिनिधि, गडकरी से मिलने गए और उनसे आश्वासन चाहा कि उनके साथ कोई धोखाधड़ी नहीं होगी. “उन्होंने कहा, उनका महीने का टर्नओवर आठ करोड़ रुपए का है. मैं इस छोटीमोटी सोसाइटी का क्या करूंगा? उस वक्त उनके ये शब्द हमें आश्वस्त करने वाले लगे.
गडकरी के सर के ऊपर, दो अजीबोगरीब ढंग से हुई मौतों का भी साया मंडराता है. पहली मौत, 2009 में हुई थी. एक सात साल की बच्ची, योगिता ठाकरे, की लाश नेता जी के नागपुर में गडकरी वाडा नाम से मशहूर घर में एक कार से उस वक़्त बरामद हुई जब वे शहर से बाहर दौरे पर गए हुए थे. बच्ची की मां, उस वक़्त पड़ोस में बाई का काम कर रही थी. योगिता की बड़ी बहन, किरण ने मुझे बताया कि पुलिस पहले पहल तो एफआईआर भी दर्ज नहीं कर रही थी. फिर बाद में उसने इसे दुर्घटनावश मौत बताना शुरू कर दिया. कहा गया कि योगिता की मौत, किसी बीमारीवश हुई है. परिवार ने कोर्ट में गुहार लगाईं. एक साल बाद, बॉम्बे हाई कोर्ट के इस नतीजे पर पहुंचने के बाद कि पुलिस ने जांच में कोताही बरती है, क्राइम इन्वेस्टीगेशन विभाग को इस मौत की पड़ताल के आदेश जारी किए ए. उसके एक साल बाद सीआईडी की रिपोर्ट ने भी इसे दुर्घटनावश मौत करार दिया. कोर्ट ने रिपोर्ट से असंतुष्टि जाहिर करते हुए जांच जारी रखने के लिए कहा. सीआईडी ने 2013 में, एक रिपोर्ट और दाखिल की, जिसे अनियमितताओं के आधार पर कोर्ट ने खारिज कर दिया. मामला अब भी कोर्ट में लंबित है और जांच वहीं अटकी पड़ी है.
“पहले दो हफ्तों तक तो हमारे घर, आधी-आधी रात को कई गुंडे आए और पैसा लेकर मामले को रफादफा करने के लिए दबाव डालते रहे,” किरण ने बताया. “मुझे अंजान नंबरों से धमकी भरे फोन आते थे...कोर्ट में सुनवाई से जरा पहले भी फोन आते थे.” जब परिवार ने पुलिस सुरक्षा की मांग की तो पुलिस ने कोर्ट को लिखित में दिया कि सभी पड़ोसी किसी धमकाने वाले आगंतुक के आने की बात से इनकार कर रहे हैं. किरण ने बताया, उसकी मां को काम से निकाल दिया गया और उसकी दिमागी हालत भी ठीक नहीं है; और उसके पिता शराबी हो गए. परिवार को उनके किराए के मकान से भी निकाल-बाहर कर दिया गया. किरण आज भी केस लड़ रही है. 2017 में उसने स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में नगर निगम का चुनाव भी लड़ा.
दूसरी मौत 2004 में हुई. गडकरी के निजी सहायक, प्रकाश देशपांडे की लाश उस वक्त रेलवे प्लेटफार्म पर पाई गई जब वे मुंबई से नागपुर लौट रहे थे. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक कयास लगाए जा रहे थे कि देशपांडे “बहुत सा पार्टी फंड लेकर लौट रहे थे.” इस मामले में अभी कुछ और अतिरिक्त जानकारी सामने नहीं आई है. जब मैंने देशपांडे के परिवार से संपर्क किया तो उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया.
गडकरी के दफ्तर ने भी साक्षात्कार के लिए दरख्वास्त पर कोई जवाब नहीं दिया.
2014 के आम चुनावों के चार महीने बाद, महाराष्ट्र में विधान सभा चुनाव हुए. शिवसेना से अपने 25 साल पुराने गठबंधन को तोड़ने के बावजूद भी बीजेपी सबसे प्रचलित पार्टी के रूप में उभरी और उसने वहां बनने वाली सरकार की अगुवाई की.
विदर्भ में, बीजेपी ने 62 में से 44 सीटें जीतीं, जो उसका वहां अब तक का सबसे अच्छा रिकॉर्ड था. इससे पहले कि मुख्यमंत्री चुना जाता, सुधीर मुंगनतिवार की अगुवाई में इलाके के 39 विधायकों ने गडकरी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की पेशकश कर दी. सुधीर को गडकरी का करीबी माना जाता है. “यह उनका मेरे प्रति प्यार है, जिसने उन्हें मेरे नाम का प्रस्ताव रखने के लिए प्रेरित किया,” गडकरी ने मीडिया को बताया. “लेकिन मैंने बार-बार कहा है कि राज्य में वापस लौटने का मेरा कोई इरादा नहीं है.” शरद पवार ने भी गडकरी के नाम का समर्थन किया और इस शर्त पर कि गडकरी को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा, बीजेपी को एनसीपी के समर्थन का आश्वासन दिया.
गडकरी को भी शायद यही अच्छा लगता कि वे मुख्यमंत्री बनते, तो खुदमुख्तार बनकर मौज करते, बनिस्पत मोदी मंत्रिमंडल में महज एक और मंत्री बने रहने के. गोपीनाथ मुंडे के चले जाने के बाद, गडकरी महाराष्ट्र बीजेपी के बेताज वरिष्ठतम कद्दावर नेता थे. मोदी सरकार में मंत्री बनने के तुरंत बाद ही, जून 2014 में, मुंडे की कार दुर्घटना में मौत हो गई थी. लेकिन जैसाकि कुमार केतकर ने लिखा, “मोदी, गडकरी को इसलिए भी नहीं नहीं चुन सकते थे क्योंकि उन्होंने खुद को प्रथम विकास पुरुष बताया था. मोदी नहीं चाहते होंगे कि कोई समानांतर शक्ति केंद्र बने. महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने का सीधा मतलब था मुंबई में होने के नाते खुद-बा-खुद कॉर्पोरेट दुनिया का हिस्सा हो जाना. गडकरी वैसे भी स्टॉक मार्किट और कारोबारियों के साथ अच्छा खेल लेता है. मोदी-शाह की जोड़ी ने इसे खतरे के रूप में देखा. क्योंकि उनकी भी यही मंशा थी कि वे खुद ही पूरे देश में शक्ति के केंद्रों पर अपना नियंत्रण रखें."
“मोदी को पता था कि कुछ ही महीनों में महाराष्ट्र गडकरी का होगा,” आनंदन ने बताया. “मोदी और शाह, महाराष्ट्र में कदम भी नहीं रख सकेंगे, बिना गडकरी की मेहरबानी भरी इजाजत के.” गडकरी के दिल्ली में रहने से, कम से कम वे उनके हर कदम पर नजर तो रख सकते थे. मुख्यमंत्री का पद, देवेन्द्र फडणवीस की झोली में चला गया.
“जब गडकरी, उनकी मर्जी के खिलाफ महाराष्ट्र बीजेपी के अध्यक्ष बन गए तो महाजन और मुंडे ने देवेन्द्र फडणवीस को खड़ा किया,” आनंदन ने बताया. “वे नागपुर के ब्राह्मण भी थे और संघ के वफादार भी. गडकरी और फडणवीस में फर्क करने जैसा तो कुछ भी नहीं था. लेकिन जब मुंडे और महाजन नहीं रहे, तो उसका फायदा गडकरी को नहीं, बल्कि फडणवीस और मोदी को हुआ.” महाजन की, उनके नाराज भाई ने 2006 में गोली मारकर हत्या कर दी थी.
(चार)
उनके कई साथियों ने बताया कि दिल्ली में गडकरी उम्मीद कर रहे थे वे नई सरकार में परिवहन के जार कहलाएंगे – रेलवे, सड़क परिवहन और जहाजरानी उनके कब्ज़े में होंगी. हालांकि, अपने मनमाफिक उन्हें रेलवे मंत्रालय नहीं मिला, लेकिन वे तुरंत ही अपने काम में जुट गए. महाराष्ट्र में लोक निर्माणकार्य का अनुभव होने के कारण उन्हें पता था कि भारत का सड़क निर्माण कैसे काम करता है.
इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनी में काम करने वाले एक पब्लिक रिलेशनस प्रबंधक ने बताया कि एक तरफ मोदी पिछली सरकार की विरासत को ही मिटा देना चाहते थे; तो वहीँ दूसरी तरफ, गडकरी ने अपने लिए अलग रास्ता चुना. “वे देखना चाहते थे कि चीज़ें कैसे काम करती हैं; और, फिर वे अपने हल लेकर सामने आते थे,” प्रबंधक ने बाताया. “पहले साल परिवहन मंत्रालय ने कुछ ज्यादा शोरशराबा नहीं किया.” गडकरी ने खुद को एक आधुनिकतावादी और अन्वेषक के रूप में प्रस्तुतु किया और बसों को एथेनॉल से चलाने जैसी बातें कीं.
“वे थोड़ा उपद्रवी किस्म के हैं,” दिल्ली के एक जाने-माने लॉबिस्ट ने बताया. “अगर वे कुछ करवाना चाहते हैं, तो वे अफसर को उसे किसी भी कीमत पर करने या निकल जाने के लिए के लिए कहते हैं. वो भद्दी भाषा का इस्तेमाल करेंगे लेकिन काम करवा कर ही छोड़ेंगे. दूसरे मंत्री समझते हैं, अफसरों का सीधे प्रधानमंत्री से संपर्क है इसलिए वे चुप रहते हैं. अगर आप सचिव हैं तो आप मंत्रालय में फन्नेखान हैं. लेकिन गडकरी के मामले में वे पीछे से लात मारते हैं.”
लॉबिस्ट ने जोड़ा, गडकरी या तो “अफसर की खुलकर तारीफ़ करते हैं या आलोचना. जब वे सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री थे तो अपने सचिव, संजय मित्रा की खुलकर तारीफ किया करते थे. उनका रक्षा मंत्रालय में तबादला हो गया.”
कई बड़ी कंपनियों के लिए काम करने वाले एक अन्य लॉबिस्ट ने, गडकरी की बिजनसमैन वाले रवैये की बहुत तारीफ की. “सीमेंट का प्रयोग एक अच्छा उदाहरण है,” उन्होंने कहा. “सीमेंट के दाम आसमान छू रहे थे और उन्हें कहीं से पता चल गया कि बड़े खिलाड़ी इसमें गंदा खेल रहे हैं. पहली ही 117 छोटी और मंझोली सीमेंट इकाइयां बंद हो चुकीं थीं.” मंत्रालय ने सीमेंट खरीदने के लिए अपने केंद्र खोल दिए. “कीमत और क्वालिटी को लेकर निर्देश दे दिए गए.” और सप्लायर को सूचना दे दी गई कि उनके उत्पाद का परीक्षण किया जाएगा. “कई बीमार इकाइयां, जीवंत हो उठीं. अचानक सीमेंट का उत्पादन बढ़ गया और इसमें बड़े खिलाड़ियों का कोई योगदान नहीं था. एक ऊद्द्यमी के शातिर दिमाग वाला ही यह कर सकता था.”
गडकरी ने ढेर सारी सब-कमेटियां बना रखी हैं, जिनमे संघ के लोगों को भरा हुआ है, जो सड़क परिवहन मंत्रालय के लिए नीतियां बनाने हेतु सुझाव देते हैं. ये सरकार और निजी क्षेत्र के बीच ‘इंटरफेस’ का काम करती हैं.
बड़ी-बड़ी घोषणाएं करना भी गडकरी के काम करने के अंदाज में शामिल है. उनका कार्यकाल, ना पूरे हो सकने वाले लक्ष्य और बड़ी-बड़ी घोषणाओं से भरा पड़ा है, खासकर सड़क निर्माण के बारे में. उनका कहना है कि यह उनका अफसरों को काम करने के लिए प्रेरित करने का ढंग है. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय अपने पास होने का एक फायदा यह है कि आपकी उपलब्धियों को मापा जा सकता है और नतीजे दिखाई देते हैं. 2015-16 के वित्त वर्ष के लिए, गडकरी ने कुल 15000 किलोमीटर सड़क बनाने हेतु, प्रत्येक दिन 41 किलोमीटर का लक्ष्य रखा (पिछली सरकार का 2004-09 में, प्रत्येक दिन का लक्ष्य 10 किलोमीटर से भी कम था). इसमें उनका मंत्रालय, उस वर्ष अपने लक्ष्य से करीब आधा ही पूरा कर पाया यानी कि उसने साल में कुल 8200 किलोमीटर ही सड़क बनाई.
अक्टूबर 2017 में, कैबिनेट ने 83000 किलोमीटर से ऊपर नई सड़कें बनाने के लिए करीब 7 लाख करोड़ रुपए का बजट पारित किया. इस संख्या तक पहुंचने के लिए उसने उन कामों को भी शामिल कर लिया, जो वर्तमान सरकार के कार्यकाल के बाद भी चलने वाले थे; और, साथ ही इसमें पहले से चल रहे कामों को भी जोड़ लिया गया. हिंदुस्तान टाइम्स ने खबर छापी, “2022 तक चलने वाले पहले चरण में, 34800 किलोमीटर सड़क का निर्माण किया जाना था. इसमें दो साल पहले घोषित की गई महत्वकांक्षी भारत माला योजना के तहत 24800 किलोमीटर सड़क भी शामिल थी. 34800 किलोमीटर में, पहले से चल रही 10000 किलोमीटर वाली, राष्ट्रीय राजमार्ग विकास योजना भी शामिल है, जिसे 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के शासन के दौरान शुरू किया गया था.”
हर छोटी से छोटी उपलब्धि का ढिंढोरा पीटने और यह दिखाने के लिए कि उनके मंत्रालय में काम हो रहा है, गडकरी कोई छोटा-मोटा उद्धाटन करते रहते हैं, एक पब्लिक-रिलेशनस प्रबंधक ने बताया. प्रधान मंत्री कार्यालय ‘तब उन आंकड़ों का इस्तेमाल कर अर्थव्यवस्था का वापिस पटरी पर लौटना दिखा सकता है.”
“लेकिन प्रधानमंत्री और सड़क परिवहन मंत्री के आपसी संबंधों में अक्सर तनाव बना रहा है. गडकरी की पहली तीन महत्वकांक्षी योजनाओं और उनकी दो प्रस्तावित विदेश यात्राओं पर मोदी ने अपनी सहमति की मोहर नहीं लगाई,” कनाते ने बताया. “जब चौथी फाइल भी ठुकरा दी गई तो गडकरी बहुत नाराज हुए.” उन्होंने मोहन भागवत से संपर्क किया और कहा, “मैं ऐसे काम नहीं कर सकता. इससे अच्छा है कि मैं वापिस लौट जाऊं और एक स्वयंसेवक बन कर रहूं,” कनाते ने बताया, “अगले दिन ही भागवत दिल्ली आए और देर रात मीटिंग रखवाई.” सिर्फ गडकरी और मोदी के साथ. संघ के सर्वेसर्वा ने, मोदी से पूछा “क्या गडकरी उनकी रास्ते में कभी रोड़े अटकाता है, या उनकी सरकार की छवि ख़राब करता है? मोदी का जवाब ना में था. अंतिम समझौता यह तय पाया गया: गडकरी कभी मोदी की, ना तो पार्टी के अंदर ना पार्टी से बाहर आलोचना करेंगे; गडकरी को अपना काम करने दिया जाए.” तब से, “गडकरी के मंत्रालय में ज्यादा विघ्न नहीं डाला गया है. आज मोदी की सबसे बड़ी योजनाओं पर असल काम गडकरी के मंत्रालय से ही हो रहा है.”
सरकार की 83000 किलोमीटर की सड़क निर्माण योजना पर कैबिनेट की मंजूरी की घोषणा अक्टूबर 2017 में, दिल्ली के बीचों-बीच, संसद से कुछ ही दूरी पर, स्थित नेशनल मीडिया सेंटर में प्रेस कांफ्रेंस के जरिए की गई. इस प्रेस कांफ्रेंस को अरुण जेटली, वित्त मंत्री की हैसियत से संबोधित कर रहे थे और इसका व्यापक प्रचार हुआ. गडकरी आश्चर्यजनक रूप से गायब थे.
“जब हमने उनसे पूछा वे इतने बड़े मौके पर क्यों मौजूद नहीं थे, तो उन्होंने कहा, उनसे कहा गया था कि वे अपनी प्रेस कांफ्रेंस अगले दिन करें,” सड़क परिवहन मंत्रालय देख रहे एक पत्रकार ने मुझे बताया. “जो कारण दिया गया था वो यह था कि प्रधानमंत्री को चौंका देने वाली ‘पब्लिसिटी’ चाहिए. लेकिन यह सब एक बहाना था. वे काफी परेशान और गुस्से में दिख रहे थे.”
गडकरी ने अगले दिन उसी जगह खुद से एक प्रेस कांफ्रेंस की. चूंकि मीडिया सभी जरूरी जानकारियां पहले ही छाप चुका था, उसने गडकरी की प्रेस कांफ्रेंस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.
दिल्ली में गडकरी का वक्त, उनकी बाकी पेशेवर जीवन यात्रा की तरह परेशान कर देने वाले विवादों के विरामों से भरा रहा है. उनके एथेनॉल से चलने वाली बसों को बढ़ावा देना तथा गाड़ी में डलने वाले इंधन में एथेनॉल की मात्रा बढ़ाने के प्रस्ताव पर, ‘कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ के सवाल उठे हैं. कैबिनेट में शामिल होने के तुरंत बाद ही, पूर्ति ग्रुप ने अपना एथेनॉल उत्पादन नाटकीय ढंग से बढ़ा दिया था. 2016 में समूह का विलय, मानस एग्रो इंडस्ट्रीज नामक कंपनी के साथ हो गया, जिसको आईडीबीआई द्वारा चालित, कंसोर्टियम ऑफ कोआपरेटिव एंड पब्लिक सेक्टर बैंक्स ने 1034 करोड़ रुपए का कर्ज दिया था. गडकरी का एक बेटा कंपनी का डायरेक्टर है तो दूसरा प्रमोटर.
ह्विसल ब्लोअर द्वारा एस्सार ग्रुप से 2015 में लीक किए गए दस्तावेजों से शक्ति के इन केंद्रों के बीच एक दूसरे को फायदा पहुंचाने वाली कोशिशों के बारे में काफी कुछ पता चलता था. इसी दस्तावेज के जरिये पता चला कि गडकरी और उनके परिवार ने एस्सार ग्रुप की लक्ज़री यॉट, फ्रेंच रिवेरा में दो रातें गुजारी थीं. “यह ट्रिप एक निजी मसला था. मेरे भी लोगों से व्यक्तिगत रिश्ते हैं, जो मेरे सार्वजनिक जीवन से स्वतंत्र हैं,” गडकरी ने मीडिया को बताया. उन्होंने कहा मुंबई में वे सालों से कारपोरेशन के मालिक, रुइयाओं, के पड़ोसी और दोस्त रहे हैं, “और मैंने उनके मामलों को किसी भी क्षमता में कभी नहीं देखा है या उन्हें कभी कोई फायदा पहुंचाया है. फिर कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट कहां है?” पूर्ति ग्रुप की एक कंपनी ने एस्सार के साथ मिलकर पेट्रोल पम्पों का जाल बिछाने के लिए 2013 में एक जॉइंट वेंचर शुरू किया था.
म्हैसकर परिवार की आईआरबी इन्फ्रास्ट्रक्चर को जोजिला पास पर, कश्मीर और लद्दाक को जोड़ने वाली सुरंग निकालने का 10050 करोड़ रुपए में ठेका मिला. गडकरी की म्हैसकर परिवार से आइडियल रोड बिल्डरस के दिनों से पुरानी दोस्ती रही है. विपक्ष द्वारा भ्रष्टाचार के सवाल उठाए जाने पर, इस ठेके को रद्द करना पड़ा. नई बोली के बाद, 2017 में, इसका नया ठेका, आईएल एंड एफएस ट्रांसपोरटेशन नामक कंपनी को दे दिया गया, जिसने आधे दाम में सुरंग खोदने का प्रस्ताव दिया था.
मई 2017 में, नेशनल हाईवेस अथॉरिटी ऑफ इंडिया के अधिकारियों पर आरोप लगा कि उन्होंने उत्तराखंड में राष्ट्रीय राजमार्ग 74 के लिए जमीन अधिग्रहण में 240 करोड़ रुपए का घोटाला किया है. गडकरी ने राज्य के मुख्यमंत्री को अपने सरोकार व्यक्त करने के लिए ख़त लिखा, “उत्तराखंड सरकार द्वारा उठाये जा रहे कदमों से निश्चित रूप से अफसरों के मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और योजनाओं का क्रियान्वन प्रभावित होगा.” उन्होंने पोशीदा धमकी भी दे डाली कि “मंत्रालय को राज्य में और ज्यादा योजनाएं लागू की जानी चाहिए या नहीं पर भी पुनर्विचार करना पड़ेगा.” राज्य सरकार ने मामला विशेष जांच दल को सौंप दिया है, जिसने अभी तक अपनी रिपोर्ट दाखिल नहीं की है.
उस साल बाद में, द हिन्दू ने खबर छापी कि गडकरी के निजी सचिव, वैभव डांगे की इंडियन फेडरेशन ऑफ ग्रीन एनर्जी सड़क परिवहन मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले विभागों और इकाइयों द्वारा आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों के लिए फंड एकत्रित कर रहा है. डांगे ने सफाई दी कि उन्होंने कंपनी छोड़ने के बाद मिनिस्ट्री ज्वाइन कर ली है. इसकी वेबसाइट के मुताबिक़, गडकरी आज भी कंपनी के पैट्रन हैं और सुरेश प्रभु, वर्तमान वाणिज्य और नागरिक विमानन मंत्री, इसके मानक अध्यक्ष.
गडकरी पर अब कोई भ्रष्टाचार का आरोप उछलने पर मोदी सरकार की भी बदनामी है इसलिए परिवहन मंत्री के खिलाफ आरोपों को ज्यादा मीडिया तबज्जो नहीं मिली है, जो पूर्ती ग्रुप घोटाले में मिली थी. असल में जब 2015 की सीएजी रिपोर्ट में, न्यू एंड रिन्यूएबल एनेर्जी मंत्रालय की रियायत योजना को लागू करने में कई सारी अनियमितताएं पाईं गईं तो अरुण जेटली, गडकरी के बचाव में निकले थे. विपक्ष ने मामला संसद में उठाया और गडकरी ने किसी भी प्रकार के गलत से इनकार किया. कांग्रेस के बड़े नेता ने मुझे बताया, “उसके बाद किसी ने जोर नहीं डाला. गडकरी को मोदी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जाता है, इसलिए वे हमारे मौन समर्थन के हकदार हैं.”
गडकरी के समर्थकों को इस सब से कुछ लेना-देना नहीं. “वे सब मामले अब कहां हैं?” गडकरी के नजदीकी, संघ के एक नेता ने मुझे बताया. “अमित शाह के बेटे के खिलाफ लगे आरोपों से ये कैसे अलग हैं?” (द वायर ने 2017 में खबर छापी कि मोदी सरकार के आने के एक साल के अंदर ही, जय अमित शाह के स्वामित्व वाली कंपनी का मूल्य 16000 गुना बढ़ गया था.) संघ नेता ने कहा कि पूर्ति ग्रुप घोटाला, मुख्यत: दो प्रसारकों का खेल था – टाइम्स ग्रुप और एनडीटीवी, जो उनके पीछे हाथ धो कर पड़ गए. ये सब एक साजिश थी.” उन्होंने आगे जोड़ा कि आयकर विभाग अधिकारी “जिन्होंने गडकरी के यहां छापा डाला था उन्हें पर्याप्त रूप से पुरुस्कृत किया गया.” (के.वी. चौधरी को जून 2015 में सेंट्रल विजिलेंस कमिश्नर बना दिया गया, जब वे अपने रिटायरमेंट से चार महीने ही दूर थे. वे आईएएस कैडर के बाहर से चुने जाने वाले पहले अफसर थे.)
मुंबई में गडकरी के नजदीकी साथी ने मुझे बताया कि गडकरी ने पूर्ति की असफलता से सबक सीख लिया था और अब वे खुद को भलीभांति सुरक्षित रखते हैं.
“गडकरी खुले तौर पर बिजनेस को प्रमोट करते हैं,” दिल्ली के एक लॉबिस्ट ने बताया, जबकि “सरकार बिजनेस को भाव नहीं देती. मोदी ने उद्योग जगत के लोगों के साथ आखिरी बैठक, 2015 के आखिर में की थी,” देवधर ने कहा, “गडकरी की सफलता के केंद्र में निजीकरण की अवधारणा है. अगर उन्हें कुछ अच्छा लगता है तो वे उस पर बिना ज्यादा सोचे घोषणा कर देते हैं. बिजनेसमेन उन्हें घेरे रहते हैं क्योंकि वे जानते हैं सरकार इस पर कुछ नहीं कर पाएगी.”
इन्फ्रास्ट्रक्चर में काम करने वाले पब्लिक रिलेशनस प्रबंधक ने बताया अगर गडकरी पिछली सरकार के वक़्त होते, तो वे महज एक अन्य मंत्री कहलाते.” लेकिन वर्तमान सरकार में टेलेंट की कमी है, इसलिए वे सबसे तेज चमकते हैं.”
प्रबंधक के मुताबिक, “परिवहन मंत्रालय उनके लिए विरासत का मुद्दा है, चाहे वह 2024 को मध्यनजर रखते हुए ही क्यों ना हो.” सितम्बर 2017 में मोदी सरकार मंत्रिमंडल में तीसरा बदलाव करने जा रही थी और सरकार को नए रक्षा मंत्री की तलाश थी, इंडियन एक्सप्रेस ने खबर छापी, “अटकलों के मुताबिक पूर्व बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी इस पद के प्रबल दावेदार हैं लेकिन साथ ही यह भी सुनने में आ रहा है कि गडकरी परिवन मंत्रालय नहीं छोड़ना चाहते.” गृहमंत्री राजनाथ सिंह के घर पर बुलाई गई बैठक में गडकरी भी शामिल थे, जहां उनके साथ विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और अंतरिम रक्षा मंत्री अरुण जेटली भी मौजूद थे. अटकल लग रही थी कि बैठक रक्षा मंत्री के पद को लेकर हो रही है. अगले दिन यह घोषणा कर दी गई देश की नई रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण होंगी.
“मोदी उनको रक्षा मंत्रालय में लाना चाहते थे,” आनंदन ने बताया. “उन्होंने गडकरी पर बहुत दबाव डाला लेकिन वे नहीं माने. निर्मला तो शायद चौथी पसंद थीं. गडकरी ने मध्यस्थता करने वाले से कहा, “सरकार के सिर्फ दो साल बचे हैं. तुम्हारे पास दिखाने के लिए कुछ नहीं होगा. मैं भी किसी नए मंत्रालय में, दो सालों में कुछ ख़ास करके नहीं दिखा पाऊंगा.”
“गडकरी नया मंत्रालय नहीं, वरीयता में सरकार के अंदर दूसरे नंबर का ओहदा चाहते थे,” कनाते ने कहा. ऐसा भी कहा जा रहा था कि उन्हें रेलवे दे दिया जाएगा, उनकी पुरानी चाहत का आदर करते हुए, लेकिन यह पेशकश भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंची. कनाते ने गडकरी से सहमति जाहिर करते हुए कहा” “इसे शुरू में ही हो जाना चाहिए था, अब नहीं. मैं भी दो साल के लिए इसे स्वीकार नहीं करूंगा, जो कुछ भी है, हम उसे बाद में भी कर सकते हैं.” कनाते ने यह भी बताया कि गडकरी ने जल संसाधन मंत्रालय भी इसलिए स्वीकार किया क्योंकि मोदी ने जोर दिया था.”
मोदी की इच्छाओं के प्रति इतना अनादर का भाव रखने के कारण, गडकरी ने अपने लिए “अनिच्छुक आदर” कमाया है, यहां तक कि जेटली का भी. तत्कालीन ऊर्जा मंत्री पियूष गोयल ने 2016 में एक सार्वजनिक जलसे में कहा था कैबिनेट बैठकों में गडकरी सबसे ज्यादा बोलते हैं. गडकरी ने भी मौक़ा मिलने पर बड़ी सावधानीपूर्वक जता दिया कि मोदी सारा खेल अपने दम पर ही ना चलाने पाएं और कि वे प्रधानमंत्री को अपने दिल की बात बताने से नहीं हिचकते.
दिल्ली के एक लॉबिस्ट ने मुझे एक कहानी सुनाई जो उन्होंने एक मंत्री से सुनी थी. 8 नवम्बर 2016 को, जब मोदी बड़े करेंसी नोटों पर प्रतिबन्ध लगाने के अपने हैरतंगेज फैसले की घोषणा करने की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने अपने सभी मंत्रियों को एकत्रित किया. सभी के हाथों में एक कोरा कागज थमाकर उन्होंने पूछा कि वे अपनी राय दें कि उन्हें एक हजार के नोट बंद कर देने चाहिए या पांच सौ के या दोनों. “जेटली ने वित्त मंत्री होने के नाते कहा, ‘हम हजार के नोट बंद कर सकते हैं, लेकिन पांच सौ के नहीं. उन्हें बंद करने से एक बड़ा झटका लगेगा.’ जिस पर मोदी ने व्यंग में चुटकी ली और कहा, ‘क्या आप यह इसलिए तो नहीं कह रहे हैं क्योंकि वकील लोग अपना पैसा 500 रुपयों के नोटों में दबा कर रखते हैं?’ राजनाथ ने कहा, ‘पहले ही कर देना चाहिए था, मैं इसका पूरा समर्थन करता हूँ.’” कैबिनेट मंत्री वेंकैय्या नायडू ने भी अपनी सहमति जताई. फिर गडकरी की बारी थी. “उन्होंने कहा, ‘यह काले धन की समस्या हमेशा के लिए ख़त्म कर देनी चाहिए. हजार से लेकर सौ रुपए तक सब बंद कर दीजिए. कोई भी पचास रुपए की गड्डी नहीं रखता.’ मोदी अचंभित थे.” जब किसी साथी ने गडकरी से इसके बारे में पूछा, “तो उन्होंने कहा, ‘वे अपना मन पहले से बना चुके थे. कोरे कागज का खेल हमें फंसाने के लिए खेला जा रहा था. मैंने उनसे एक कदम आगे जाने की कोशिश की.”
कई कंपनियों के साथ लॉबी करने वाले एक शख्स ने कहा, गडकरी “एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो मोदी को लेकर खुले में लतीफे सुना सकते हैं.” उन्होंने एक और मशहूर कहानी सुनाई. ऐसी कहानियां इतनी दूभर हैं कि दिल्ली के ताकतवरों की मंडली में व्यापक तौर पर सहेज कर रखी जाती हैं कि कैसे एक बार जब बीजेपी नेता शाहनवाज हुसैन 2015 की गर्मियों के अंत में गडकरी के पास गए और कहा, ‘आप कैसी सरकार चला रहे हैं? मुसलमान होने के बावजूद मैंने इस पार्टी के लिए अपना सारा जीवन झोंक दिया. हर हफ्ते मैं प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांगता हूं लेकिन सब व्यर्थ जाता है.’ गडकरी ने जवाब दिया, ‘शाहनवाज, तुम यह मुझसे क्यों पूछ रहे हो? यह वह आदमी है जो अपनी मां से ही दो साल के बाद मिला.’”
“पहले बीजेपी एक राजनीतिक पार्टी हुआ करती थी, एक नेता जो गडकरी के समय में पार्टी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करते थे, ने बताया. लेकिन जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं और अमित शाह ने अध्यक्ष का कर्याभार संभाला है, इसका ढांचा आधा कॉर्पोरेट हो गया है जिसका अपना एक चेयरमैन है, जो एक कार्यकारी चेयरमैन भी है और सीईओ भी, और जो एक पूर्णकालिक सीईओ भी. लेकिन अगर पार्टी मोदी काल में अपना वोट बैंक सिकुड़ता हुआ पाती है तो स्थिति वापिस 2012 में लौट सकती है.”
इसी साल जब इंडिया टुडे मीडिया समूह के कार्यक्रम में जहां तमाम गणमान्य लोग मौजूद थे, न्यूज एंकर राजदीप सरदेसाई ने अगले चुनावों में बीजेपी द्वारा पूर्ण बहुमत ना ला पाने की संभावना का मसला उठाया. राजदीप ने कहा कि अगर ऐसा हुआ तो मोदी प्रधानमंत्री नहीं रह पाएगे क्योंकि उनकी अन्य पार्टियों के साथ उतनी अच्छी नहीं बनती कि वे गठबंधन चला सकें; लेकिन गडकरी जैसा कोई, सभी को स्वीकार्य हो सकता है. गडकरी ने इस सुझाव को हंस कर टाल दिया. “मैं प्रधानमंत्री बनने के सपने नहीं देखता,” उन्होंने कहा. “मुझे उम्मीद से कहीं ज्यादा पहले ही मिल चुका है...पार्टी ने मोदी को चुना है और उनके ही नेतृत्व में हम 2019 के चुनावों में पूर्ण बहुमत लेंगे और मोदी ही देश के प्रधानमंत्री होंगे.”
“नितिन एक अच्छे इंसान हैं...वे नौकरशाह बन गए हैं, वे अपने काम से चिपके रहते हैं,” उनके एक करीबी दोस्त ने बताया. “वे किसी के मुकाबले में खडा होने के मूड में नहीं हैं. सभी खुश हैं.” लेकिन वे पर्दे के पीछे होने वाली झडपों के ब्यौरे देते रहते हैं. गडकरी के आदमियों को, जैसे अंशुमन मिश्रा, जिनका समर्थन गडकरी ने उन्हें राज्य सभा में लाने के लिए 2012 चुनाव में किया था और जिन्हें संघ का भी समर्थन प्राप्त है, को पार्टी में वापिस नहीं आने दिया जाता.” इसके अलावा, सुधीर मंगंतीवार, एकनाथ खडसे और आशीष शेलर, सभी महाराष्ट्र में बीजेपी नेता और पदाधिकारी हैं और गडकरी के नजदीकी. लेकिन इन सभी को दरकिनार कर दिया गया है, उन्होंने आगे कहा, “इसका एकमात्र मकसद यह था कि गडकरी को मजबूत नहीं होने देना है.”
गडकरी के कार्यकाल के दौरान जिम्मेदारी वाला पद संभालने वाले, एक नेता ने तब-और-अब में अंतर वाला फर्क बताया. “पहले संघ को बहुत कुछ कहना होता था,” उन्होंने कहा. अब इसकी भूमिका को एक मानव संसाधन प्रबंधक के रूप में सिकोड़ दिया गया है. वे अपने लोगों का सुझाव देते हैं, लेकिन सीईओ अपनी मनमर्जी से ही फैसला लेता है. साथ ही, संघ का इससे अच्छा वक्त पहले कभी नहीं था. लोग अचानक संघ में दिलचस्पी लेने लगे हैं. वे भी जैसे अंग्रेजी कहावत मानते हुए, ‘सेबों के ठेले को अस्तव्यस्त’ नहीं करना चाहते.”
“गुजरात में मोदी की ताकत उनके अपने कर्मो से हासिल हुई है और उन्होंने प्रशासन ऐसे चलाया मानो वह कोई कक्षा हो और वे उस कक्षा के हेडमास्टर,” दिल्ली के एक लॉबिस्ट ने बताया. “उनके लिए संघ अप्रासंगिक हो गया है. वे खुद में आश्वस्त हैं कि उन्हें संघ की जरूरत नहीं क्योंकि उन्हें लगता है ‘लोग उनके साथ हैं’. वे बीजेपी या संघ से बड़े बन चुके हैं. संघ को यह पसंद नहीं.” उन्होंने आगे कहा “मोदी की संघ से दाल नहीं गलती,” गडकरी की खूब गलती है.
जब अप्रैल 2017 में मोदी ने नागपुर का दौरा किया तो उन्होंने अग्रिम संदेश भिजवाया कि वे चाहते हैं मोहन भागवत उनसे मिलने वहां आएं जहां वे ठहरे हुए हैं. “यहां तक कि वाजपेयी भी संघ मुख्यालय में ही जाया करते थे” जब कभी भी उनका शहर का दौरा हुआ करता था, नागपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया. “यह तो नियमों का उल्लंघन होगा,” संघ ने सोचा. उस दिन भागवत और सभी अन्य नेता दौरे पर निकल गए.” गडकरी “कभी ऐसी ओछी हरकत नहीं करते. वे सीधा मुख्यालय आते. यही फर्क है दोनों में. मोदी लोगों की हदों को परखते हैं. पत्रकार के मुताबिक़, इस वक़्त संघ परिवार में मोदी-शाह को लेकर बहुत व्यग्रता है. वे राजनाथ और गडकरी जैसों के साथ ज्यादा सहज महसूस करते हैं.”
इस तरह के कई और कारक, गडकरी के पक्ष में जाते हैं. उनकी दूसरी खूबी यह है कि वे कॉर्पोरेट मदद ला सकते हैं. “उन्होंने अडानी को मोदी के लिए छोड़ दिया है, लेकिन वे मुकेश भाई और अन्यों के खासे नजदीक हैं,” गडकरी के एक करीबी ने बताया. “रतन टाटा या मुकेश भाई, उनसे नागपुर मिलने क्यों जाते हैं? वे सभी इस आदमी में उम्मीद की किरण देखते हैं.” सभी बड़े घराने इस वक्त मोदी के पीछे खड़े हैं, “लेकिन जब वक्त आएगा, संघ को सिर्फ इशारा भर करना होगा और ये घराने अपना रुख बदल लेंगे.” इसके साथ पार्टी के लिए पैसा उगाहना भी आसान होना चाहिए. लॉबिस्ट के अनुसार, “गडकरी अब पार्टी के फंड कलेक्टर नहीं रहे.”. “पियूष भी मुंबई कारोबारियों को अच्छे से जानते हैं. चुनाव के लिए सारा फंड एकत्रित करने का काम अब वही देखते हैं.” लेकिन “निसंदेह, गडकरी की बात ही कुछ और है.”
“संघ के प्रति वफादार ब्राह्मण के रूप में पहचाने जाने से गडकरी खुश थे. यह परिसीमित करने वाला हो सकता है लेकिन अपनी इस छवि को जीवंत रख कर ही वे बिजनेस-सैवी, तकनीकी रूप से सक्षम और नई उम्र के राजनेता बने,” सुमृति कोप्पिकर ने कहा. “मुंबई के बड़े कारोबारियों ने उन्हें सकारात्मक रौशनी में देखा, ना कि नागपुर के एक और आरएसएस वाले संघी की तरह. मुंबई के बोर्डरूमों में जब-जब वे उन जेकेटों में घुसते थे, उन्होंने कभी अपनी खाकी नेकर नहीं दिखने दी. जब वे नागपुर में होते हैं, वे अपनी खाकी नेकर पहन लेते हैं और उसी में घुलमिल जाते हैं.” दिलीप देवधर ने कहा, “ब्राह्मण होते हुए भी, गडकरी के काम करने का अंदाज ब्राह्मणों जैसा नहीं है.”
कनाते ने जोर देकर बताया, “गडकरी ने कभी भी सांप्रदायिक अभिप्राय वाला भाषण नहीं दिया.” उन्होंने कहा, “यह मोदी हैं, जो साम्प्रदायिक रवैये का प्रतिनिधित्व करते हैं,” जबकि गडकरी का विश्वास सांप्रदायिक राजनीति में नहीं है.” जब मैंने इसका जिक्र गडकरी के नजदीकी साथी से किया, उनका कहना था. “मुझे पता है दिल्ली के उदारवादियों को यह आईडिया बहुत अच्छा लगता है कि अगर बीजेपी को सत्ता में रहना ही है तो कम से कम इतना कर दो कि मोदी की जगह गडकरी दे दो. लेकिन, यह ‘दिल-बहलाने-को-ग़ालिब-ख्याल-अच्छा है’ से ज्यादा कुछ नहीं.”
नागपुर 2017 में अपने साठवें जन्म दिन के भव्य आयोजन के अवसर पर, गडकरी ने पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को ऊधृत किया, “आदमी तब ख़त्म नहीं होता जब वह हारता है,” उन्होंने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा, “बल्कि तब हारता है जब वह कोशिश करना छोड़ देता है.” उन्होंने अपने जीवन के सिद्धांत को भी साझा किया, “नियम मत तोड़ो, नियमों को मोड़ो.” गडकरी ने आगे जोड़ा कि “हर राज्य का मुख्यमंत्री समझता है कि मैं उसके राज्य की तरफदारी ज्यादा करता हूं, और मैं इस बात से खुश हूं. उसी आयोजन में शरद पवार ने कहा, “गडकरी ऐसे पहले बीजेपी नेता हैं, जो अपने संघ की पृष्ठभूमि होने के बावजूद भी, अपनी विचारधारा से बाहर आए और उसके बाहर भी राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं से देश भर में अच्छे मैत्रीपूर्ण रिश्ते कायम किए.”
पिछले महीन संघ की शीर्ष कार्यकारिणी ने प्रचलित रूप से “भैय्याजी” नाम से जाने जाने वाले, सुरेश राव को लागातार चौथी बार तीन साल के लिए संघ का महासचिव नियुक्त किया. जबकि अटकलें यह लगाईं जा रही थीं कि उनकी जगह दत्तात्रेय होसबोले लेंगे, जो इस वक्त सहायक महासचिव हैं. यह मोदी के लिए एक धक्का था और इस बात का घोतक कि संघ उनका विरोध करता है. होसबोले प्रधानमंत्री की प्राथमिकता थे. एम.जी वैद्य के पुत्र, मनमोहन वैद्य को भी होसबोले के बराबर लाकर बिठा दिया गया, जैसेकि कृष्ण गोपाल को.
वैद्य परिवार ने लगातार गडकरी का पक्ष लिया है और मोदी का विरोध किया है (जब मोदी वहां के मुख्यमंत्री थे, मनमोहन को गुजरात से निकाल दिया गया था) और गोपाल का गडकरी के साथ लंबा कामकाजी रिश्ता रहा है,” गडकरी के एक करीबी ने बताया.
“अगर मोदी 2024 तक रहते हैं तो फिर बात फडणवीस तक उतर आएगी, जिन्हें मोदी और गडकरी दोनों समर्थन देंगे, उनके एक साथी ने बताया. “प्रधानमंत्री प्रत्याशी के नाम की घोषणा मोदी करेंगे. संघ और उद्योग जगत के लोगों की भी अपनी मर्जी होगी. मोदी जी, शायद फडणवीस को चुनें और संघ को उससे कोई दिक्कत नहीं होगी. गडकरी को फडणवीस से इस प्रतिस्पर्धा का अंदाजा है.”
गडकरी और नागपुर बीजेपी इकाई ने 2019 में शहर की सीट पर अपना कब्जा कायम रखने के लिए अभी से प्रचार शुरू कर दिया है. उनका लक्ष्य जीत के फर्क को सात लाख वोटों तक ले जाना है.
कनाते को यकीन है कि 2019 के आम चुनावों के बाद “अगर मोदी पांच और साल रह भी जाते हैं तब भी गडकरी गिनती में रहेंगे. वे उस वक्त तक इंतजार करेंगे जब मोदी का विकल्प ढूंढा जाएगा. वे शांति से उस वक्त का इंतजार कर रहे हैं. इस सरकार की सबसे बड़ी समस्या अनुभव की कमी है. संघ चाहता है गडकरी को केन्द्रीय मंत्री का अनुभव हो जाए और वे तैयार रहें.”
कनाते कहते हैं गडकरी “इस बात को समझते हैं कि मोदी की लहर चली जाएगी. ये प्याज से लाया हुआ बुखार है जो उतर जाएगा.”
(द कैरवैन के अप्रैल 2018 में प्रकाशित इस प्रोफाइल का अनुवाद राजेन्द्र सिंह नेगी ने किया है.)