कूड़े के ढेर में स्वच्छ भारत मिशन

02 March, 2019

2 अक्टूबर 2014 को अभी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने कुछ महीने ही हुए थे कि उन्होंने “स्वच्छ भारत मिशन” लॉन्च कर दिया. ये भारतीय इतिहास की सबसे महत्वकांक्षी सफाई मुहिम है. इसमें कोई संयोग की बात नहीं कि इसी दिन मोहनदास गांधी का जन्मदिवस भी है. इस दौरान मोदी बेहद नाटकीय अंदाज में दिल्ली के एक दलित आवासीय कॉलोनी में दर्जनों कैमरों के सामने वहां के एक पुलिस स्टेशन की आंगन में झाडू लगाते दिखे. उन्होंने कहा, “2019 में जब महात्मा गांधी की 150 जयंती मनाई जा रही होगी तो स्वच्छ भारत उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी.” इस दौरान उन्होंने इस समय तक देश की स्वच्छता और कचरा प्रबंधन की कायापलट कर देने का वादा भी किया.

इसके लॉन्च के समय से ही मोदी ने स्वच्छ भारत मिशन को अपने शासन काल का प्रमुख कार्यक्रम बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. उन्होंने इसके ऊपर अपने उन सालाना भाषणों में खूब बोला, जो वे स्वतंत्रता दिवस पर देते आए हैं. लाल किले की प्राचीर से दिए गए इन भाषणों का टीवी वाले सीधा प्रसारण दिखाते आए हैं. वहीं, उन्होंने चुनावी रैलियों में भी इसके बारे में जमकर बोला. उन्होंने भारत सरकार में हर स्तर पर मौजूद लोगों और संस्थानों को इसका हिस्सा बनाया. चाहे वो कैबिनेट हो, मंत्रालय या राज्य या जिला प्रशासन से लेकर निजी शहर प्राधिकारी वर्ग से लेकर गांव के पंचायत तक. यहां तक कि उन्होंने इसके लिए उन सभी सेवाओं पर जिन पर पहले से टैक्स लगता है 0.5 प्रतिशत सेस (एक तरह का टैक्स) लगा दिया ताकि इसके लिए पैसे इकट्ठा किए जा सकें. 2016 में मोदी ने नोटबंदी की, पूरे देश में बड़े नोटों के लिए लूट मार मच गई. नए नोटों के लिए लोग बदहवास लाइनों में खड़े थे. इन्हें देखने पर पता चला कि इन नए नोटों पर स्वच्छ भारत मिशन का लोगो है. गांधी का वो गोल वाला चश्मा जिसे गांधी द्वारा इस्तेमाल किए जाने की वजह से अलग ही पहचान मिली. ये एक ऐसा कदम था जिससे साफ था कि सरकार इस मुहिम को लेकर कोई कोर कसर नहीं छोड़ने वाली.

स्वच्छ भारत मिशन की दूसरी सालगिरह पर इसकी सबसे बड़ी सफलताओं में से एक की घोषणा हुई. गांधी की जयंती मनाने और 2016 में कैंपेन की नींव रखे जाने के उपलक्ष्य में, मोदी की भारतीय जनता पार्टी के कई दिग्गज नेता पोरबंदर पहुंचे. गांधी की ये जन्मस्थली गुजरात तट पर बसी है. वहां उन्होंने घोषणा की कि मोदी के गृह राज्य गुजरात के सभी शहरी क्षेत्रों को खुले में शौच से मुक्ति दिला दी गई है. शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू लाइव वीडियो में मुस्कुराते हुए नजर आए और गांधी को वो “अंतरिम उपहार” दिया, जो 2019 के “अंतिम उपहार” के लिए मंच तैयार करने वाला था.

2017 की जनवरी के एक दोपहर को मैंने बस में 40 मिनट का सफर किया. इस दौरान मैं मध्य अहमदाबाद से मणिनगर गया. ये वह इलाका है जहां के लोगों ने मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहने के दौरान उन्हें तीन बार विधायक चुना. मैं यहां मुख्य बाजार के समृद्ध दुकानों और ऑफिसों से होता हुआ एक ऐसी सड़क तक पहुंचा, जहां एक ओर गगनचुंबी इमारतें थीं और दूसरी तरफ झुग्गी झोपड़ियां. इसके 20 मिनट बाद मैं मिल्लत नगर पहुंचा. यह दलित और मुसलमानों की एक बस्ती है. इस इलाके की गलियां बेहद संकरी थी और किनारों पर कूड़ा पसरा था. इस बीच कुछ छोटी-मोदी दुकानें थीं. इनमें टीवी ठीक करने की दुकान, कसाई की दुकान, साधारण खाने पीने की दुकानों के अलावा झुंड में युवा नजर आ रहे थे, जो इधर-उधर आवारागर्दी कर रहे थे. मेरा गाइड शकील अहमद वहीं का रहने वाला एक सामाजिक कार्यकर्ता था. मैं उसी के पीछे-पीछे भीड़ में जगह बनाता हुआ एक खुले मैदान में पहुंचा, ये बस्ती से काफी दूर का हिस्सा था.

अब हमारे सामने ‘चंडोला झील’ नाम का एक बड़ा जलाशय था. इसके किनारों पर छोटी-छोटी झोपड़ियां दिखाई दे रहीं थीं. जहां हम खड़े थे वहां से लेकर लगभर 10 मीटर चौड़े किनारे पर पानी तक पूरी जमीन इंसानी मल से पटी पड़ी थी. चारों ओर मक्खियां भिनभिना रही थीं. वहीं, एक छोटा लड़का घुटनों के बल बैठ कर मलत्याग कर रहा था.

अहमद ने मुझे बताया कि झील के इस पार रह रहे ज्यादातर लोग मुस्लिम और दूसरी ओर रह रहे लोग दलित हैं. वहीं, उन्होंने ये भी बताया कि मिल्लत नगर में न तो सीवर यानी नाला है और न हीं नगरपालिका की पाइप वाला पानी. यहां के लोग भूजल पर आश्रित हैं और कुछ घरों में एक गडढे वाला लैट्रिन है. अहमद ने कहा कि अहमदाबाद में दलितों और मुसलमानों की बड़ी आबादी ऐसी ही बस्तियों और ऐसी ही परिस्थितियों में रहती है.

वहां एक छोटी मोबाइल लैट्रिन वैन जिसके पीछे दो केबिन लगे थे पास में ही खड़ी थी, इसके भी चरों ओर मल पसरा था. वहीं एक कमजोर सा आदमी था जिसने नीले रंग की ऐसी गंजी पहन रखी थी जिसकी धारियों से चमक आ रही थी, वह इसके बगल में खड़े होकर इसकी देख रेख कर रहा था. मैंने पूछा कि उसने बच्चे से मोबाइल लैट्रिन का इस्तेमाल करने को क्यों नहीं कहा? उसने कहा कि इसका कंटेनर फुल है और इसे खाली करने की जरूरत है लेकिन ऐसा करने के लिए उसे अपने बॉस का इंतजार करना पड़ेगा. उसका बॉस एक फील्ड सुपरवाइजर था, जिसे आकर इसकी अनुमति देनी थी.

इसके बाद अहमद और मैं, उसकी मोटरसाइकिल पर बैठ गए और पूरी झील का चक्कर लगाया. हमने वह रास्ते चुने जिनके सहारे हम झील के किनारे बने रहे. हम एक बस्ती से दूसरी बस्ती होते हुए गुजरे और चाहे झोपड़ी या पक्के मकान जहां से भी झील नजर आई मुझे इसके किनारों पर सिर्फ कचरा और मल फैला हुआ दिखाई दिया. दो मौकों पर मैंने बच्चों को खुले में शौच करते देखा. मिल्लत नगर के मोबाइल वैन लैट्रिन के अलावा हमें एक भी सार्वजनिक स्वच्छता सुविधा नहीं नजर आई, चाहे मोबाइल या रास्ते में बना कोई शौचालय.

मोबाइल लैट्रिन की देख रेख में लगे व्यक्ति ने अपना नाम पंकज कुमार बताया. उन्होंने कहा कि वह एक दलित है, और राज्य के पूरव के रहने वाले हैं. वह अहमदाबाद नगर निगम द्वारा ठेका हासिल करने वाली एक कंपनी के लिए काम करते हैं. लैट्रिन के रख रखाव के अलावा बताए गए इलाकों में इसे ले जाना, कुछ घंटों तक इसे ऐसे हर इलाके में खड़े रखना उनके 12 घंटे के रोजाना वाले काम का हिस्सा है. उन्हें कोई दस्ताना, मास्क या सफाई-सुरक्षा का कोई और सामान नहीं दिया गया था. लैट्रिन को साफ करने और इसे खाली करने के लिए उन्हें अपने खाली हाथों का इस्तेमाल करना पड़ता है.

साल 2011 में किए गए भारत के ताजा जनगणना के मुताबिक देश के 246.7 मिलियन घरों में यानी 53.1 प्रतिशत में लैट्रिन नहीं है. इनमें से एक छोटी आबादी पब्लिक लैट्रिन का इस्तेमाल करती है. लेकिन इसमें से एक बड़ी आबादी यानी देश की लगभग आधी जनसंख्या खुले में शौच करती है.

यूनाइटेड नेशंस ने भारत में पानी तक पहुंच और सफाई पर 2015 में एक रिपोर्ट जारी की थी. इसमें कहा गया था कि भारत में 564 मिलियन लोग अभी भी खुले में शौच करते हैं. इस रिपोर्ट में दी गई संख्या देश की आधी आबादी है और ये दुनिया की उस 1.1 खरब आबादी की आधी है जो खुले में शौच करती है. यूएन के अनुमान के मुताबिक खुले में पड़े या अनुपचारित मल का वजन 65000 टन है, ये एयरबस ए380 के 180 जहाजों के बराबर है. वहीं 65000 टन खुले में पड़ा या अनुपचारित मल का त्याग भारत में रोजाना किया जाता है.

स्वच्छ भारत मिशन ने भारत को खुले में शौच से मुक्ति दिलाने को अपना अहम लक्ष्य बनाया है. ये बहुत बड़ा लक्ष्य है जिसकी प्रशंसा भी की जानी चाहिए लेकिन ये लक्ष्य यहीं नहीं रुकता. इसे सफल बनाने के लिए 2019 तक की समय सीमा तय की गई है. लेकिन इसको सफल बनाने के लिए इसे भारत की साफ सफाई से जुड़े कुछ जड़ अपमानजनक प्रथाओं से निपटना पड़ेगा. इसके तहत सिर्फ खुले में शौच को समाप्त करने की बात नहीं की गई बल्कि ये भी कहा गया है कि देश भर में हर घर के दरवाजे से जाकर कूड़ा इकट्ठा किया जाएगा. सभी अजैवीय कूड़े का प्रसंस्करण किया जाएगा ताकि इससे ऊर्जा तैयार की जा सके. नालों के ट्रीटमेंट में भी बड़े कदम उठाए जाने की बात कही गई और जनमानस के जेहन में जो लोकप्रिय विश्वास और व्यवहार बैठे हुए हैं उन्हें बदलने की भी तैयारी है. मुहिम के तहत उस वादे को पूरा करने की भी बात कही गई है जिसे कई बार किया और तोड़ दिया गया. ये वादा “सर पर मैला ढोने” की बर्बरता को समाप्त करने का है. “मैन्युअल स्कैवेंजिंग” को व्यंजनात्मक तौर पर हाथ से मैला साफ करने और इसे सर पर ढोने जैसे घिनौने काम को परिष्कृत तरीके से कहने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. भारत में सदियों तक ये काम जाति व्यवस्था के पायदान पर सबसे निचले हिस्से के लोग करते आए हैं. हालांकि, भारतीय कानून के अनुसार, किसी से सर पर मैला ढोने का काम करवाना या ऐसे लैट्रिन का निर्माण जिसके लिए ऐसे लोगों की जरूरत पड़ सकती है, अपराध है.

स्वच्छ भारत मिशन पर वीभत्स जानकारी यह है कि समाज के दबे-कुचले तबके की लैट्रिन तक पहुंच नहीं होने दी जा रही है और उससे भी बड़ी बात यह कि सर पर मैला ढोने की अमानवीयता को समाप्त करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए जा रहे हैं नंदन देव/कारवां

मिशन अपने आखिरी वादे पर कितना खरा उतरता है, यह एक बड़ा पैमाना होगा कि यह अपने बाकी के लक्ष्यों की श्रृंखला पर कैसा काम करता है. खुले में शौच को समाप्त करने के लिए पहला कदम तो यह होगा कि सबसे पहले लोगों के पास लैट्रिन हो ताकि वे इसे इस्तेमाल कर सकें और इस मामले में ये मुहिम काफी अच्छा कर रही है. सर पर मैला ढोने का काम समाप्त करने के लिए ऐसे लैट्रिन बनाने होंगे जो ताजा मल का निबटारा खुद कर सकें. इसे डिजाइन के हिसाब से इस्तेमाल किया जाए. लेकिन जैसा कि मिल्लत नगर के चारों तरफ से मल से घिरे मोबाइल लैट्रिन को देख कर लगा, सिर्फ आधाभूत संचरना होना यानी लैट्रिन बना देना काफी नहीं होगा. स्वच्छता सुविधाओं को बनाए रखने के लिए ऐसे सिस्टम की भी दरकार होती है जो इससे जुड़ने वाले सीवेज की भी देख-रेख कर सके. इस मामले में स्वच्छ भारत मिशन को लेकर सवाल खड़े होते हैं जिनके पर्याप्त जवाब सरकार के पास नजर नहीं आते. भारत की विशाल आबादी द्वारा भारी मात्रा में मल त्याग और स्वच्छता के साथ इसका प्रसंस्करण करने की देश की क्षमता की खाई के बीच सर पर मैला ढोने का काम हो रहा है. अगर इस खाई को नहीं पाटा गया तो सर पर मैला ढोने का अमानवीय काम जारी रहेगा. इस अंतर को खत्म करना इसलिए अहम है क्योंकि सरकार ऐसे 50 करोड़ लोगों से लैट्रिन का इस्तेमाल करवाना चाहती है जिन्होंने पहले कभी ऐसा नहीं किया.

सभी परिवारों और समुदायों से लैट्रिन का इस्तेमाल करवाने और इन्हें साफ-सुथरा बनाए रखने की सामूहिक जिम्मेदारी के लिए एक और अहम कारक की और ध्यान देना होगा. देश में स्वच्छता की दयनीय स्थिति के लिए कई ऐसी बातें जिम्मेदार हैं, जिनकी जड़ें परंपरागत हैं. इन परंपरागत जड़ों में पवित्रता और स्वच्छता के अपना माने हैं. आम तौर पर ये वही धारणाएं हैं जिनकी वजह से दलितों के ऊपर इन कामों को थोपा जाता है. भारत में स्वच्छता की स्थिति को सामान्य करने के लिए लोगों की मान्यताओं में भारी बदलाव करना पड़ेगा. इस मामले में भी स्वच्छ भारत कुछ करता दिखाई नहीं देता है.

साल 2017 मई की पहली तारीख में जब इस लेख को छापा जा रहा था तब स्वच्छ भारत अभियान के करीब ढाई साल पूरे हो गए थे. इसी के साथ इसकी आधी समय सीमा भी समाप्त हो गई. इसके मील के पत्थर की संभावना में मैंने इस अभियान के बारे में अध्ययन करना शुरू किया. इस अध्ययन में मैंने इन बातों को ध्यान में रखा कि अभी तक इसने कैसा प्रदर्शन किया है और क्या ये अपने लक्ष्य को हासिल करने के रास्ते पर है. इसका मतलब ये था कि मुझे उन बड़ी होर्डिंग्स, बड़ी सरकारी घोषणाएं और इस अभियान से जुड़े सेलिब्रिटीज की तस्वीरों से परे देखना था. हालांकि, इन सब ने अभियान को लेकर एक माहौल तो तैयार कर दिया था, लेकिन मेरा काम इसके रचना, इसकी फंडिंग और इसके प्रदर्शन से जुड़े सवालों और उनके जवाबों को तलाशना था. मैंने इससे जुड़ी खबरें पढीं, विशेषज्ञों के साक्षात्कार पढ़े और सरकारी विभागों में आरटीआई यानी सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगे जाने की झड़ी लगा दी. मैं अहमदाबाद, वाराणसी और दिल्ली जैसे शहरों में जमीन पर भी गया. इस दौरान मैं नागेपुर और जयापुर जैसे गांवों में भी गया, ये दोनों गांव वाराणसी की सरहद पर हैं. इन सबके पीछे का प्रयास यह देखना था कि इस अभियान का जमीन पर क्या असर हुआ है.

पीएम मोदी ने जिस तरह से अपने भाषणों और सोशल मीडिया पोस्ट में स्वच्छ भारत मिशन का ढिंढोरा पीटा है उससे साफ है कि उन्होंने इस अभियान को खुद के साथ पूरी तरह से जोड़ लिया है. अभियान से जुड़ी प्रमोशन की ज्यादातर चीजों ने भी इस जुड़ाव की बात को और पुख्ता किया है. प्रमोशन की इन चीजों में गांधी की शास्त्रीय तस्वीर के साथ प्रधानमंत्री की तस्वीर को प्रथामिकता से लगाए जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है.

जिन जगहों पर मैं अपनी रिपोर्टिंग के लिए गया उन सबका मोदी से बेहद मजबूत संबंध है. अहमदाबाद, गुजरात का सबसे बड़ा और सबसे समृद्ध शहर है. गुजरात वह राज्य है जहां मोदी 13 सालों तक मुख्यमंत्री रहे और इस राज्य में अभी तक उनकी पार्टी का ही शासन है. दिल्ली में वर्तमान में उन्हीं की सरकार है और यहां की नगरपालिका पर बीजेपी ने 10 साल से ज्यादा तक अपना शासन चलाया है. वाराणसी पीएम मोदी का लोकसभा क्षेत्र है. वहीं, नागेपुर और जयापुर को उन्होंने सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गोद लिया है. ये योजना सांसद से उस गांव का विकास करने की अपील करती है जिसे उन्होंने चुना है. जाहिर सी बात है कि ये वे जगह हैं, जिन्हें किसी और जगह की तुलना में इस कैंपेन को सफल बनाए जाने की दरकार है क्योंकि इसमें सीधे तौर पर पीएम और उनकी सरकार का हित शामिल है. इन जगहों पर स्वच्छ भारत मिशन की स्थिति में एक संकेत छुपा है कि ये संकेत संभवत: एक सकारात्मक पक्षपात से भार संकेत है, जिसकी तुलना इस अभियान के बाकी जगहों की स्थिति से की जा सकती है.

आपको बता दूं की जो ज्यादातर बातें मैंने देखीं, सुनीं और पढ़ीं वो उत्साहजनक नहीं थीं. भारत तेजी से लैट्रिन निर्माण कार्यक्रम के बीच में है. अप्रैल के महीने में स्वच्छ भारत मिशन शहरी और ग्रामीण के इससे जुड़े आंकड़े मिले. इन आंकड़ों में कहा गया कि 42.6 मिलियन यानी 426 लाख शौचालयों का निर्माण अभी तक कराया जा चुका है. (स्वच्छ भारत मिशन से जुड़े तीन और तुलनात्मक तौर पर “छोटे मिशन” हैं: पहला तो ये कि देश के सभी पब्लिक स्कूलों में लैट्रिन होना चाहिए, दूसरा कि देश के सभी आंगनवाड़ी केंद्रों में लैट्रिन होना चाहिए और तीसरा कि सरकार की अन्य योजनाओं के तहत भी शौचालय निर्माण होना चाहिए, जैसे कि नरेगा और प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत ये निर्माण होने चाहिए). लेकिन ऐसी जानकारी सामने आई है कि वे लोग जिनके घरों में लैट्रिन है वे भी हमेशा या लगातार इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं, वहीं इससे भी वीभत्स जानकारी यह है कि समाज के दबे-कुचले तबके की लैट्रिन तक पहुंच नहीं होने दी जा रही है और उससे भी बड़ी बात यह कि सर पर मैला ढोने की अमानवीयता को समाप्त करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. इस बात की भी चिंता है कि इस योजना के तहत जारी की जाने वाली रकम के सही इस्तेमाल की जांच के लिए भी जो तरीके हैं वे पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं हैं. वहीं, जमीनी स्तर पर जो साक्ष्य मौजूद हैं वे भी सरकारी दावों पर बड़े सवाल खड़े करती हैं, ऐसी स्थिति में लगता है कि इससे जुड़ा प्राधिकारी वर्ग जबरदस्ती का डेटा जारी कर रहा है. सरकार ने विश्व बैंक से 1.5 बिलियन डॉयर (110212500000.00 रुपए) लोन लिया है. इस लोन के सहारे स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण को बल देने की योजना है. लेकिन ये फंड भी छह महीने से अटका पड़ा है. इसके पीछे की वजह ये है कि स्वतंत्र रूप से आधिकारिक डेटा और ग्रामीण भारत में सफाई की स्थिति की स्वतंत्र जांच के वादे पर खरा उतरने में भारत सरकार देर कर रही है.

स्वच्छ भारत मिशन पर पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर सरकार का रवैया परेशान कर देने वाली हद तक अवरोध पैदा करने वाला है. इस संभावना को इस बात से भी बल मिलता है कि मेरे कई आरटीआई अनुरोध को बेतुकी बातों पर खारिज कर दिया गया. नंदन देव/कारवां

स्वतंत्र जांच का अभिप्राय ये है कि इसके सहारे एक भरोसेमंद आधार तैयार किया जा सके जिसके सहारे स्वच्छ भारत मिशन- ग्रामीण का आकलन किया जा सके. स्वच्छ भारत शहरी-मिशन का विकास भी स्वतंत्र आंकलन के जरिए होना है, इस अभियान को इसी हिसाब से तैयार किया गया है. जैसा कि मुझे पता चले, ये उपाय उस तरह से काम नहीं कर रहे जिस तरह से इन्हें करना चाहिए. पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर सरकार का रवैया परेशान कर देने वाली हद तक अवरोध पैदा करने वाला है. इस संभावना को इस बात से भी बल मिलता है कि मेरे कई आरटीआई अनुरोध को बेतुकी बातों पर खारिज कर दिया गया. जैसे जैसे मेरी रिपोर्ट आगे बढ़ी, मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हो गया कि स्वच्छ भारत अभियान के सरकारी आंकड़ों को बिना संदेह के देखना मेरी भारी गलती होती. इसके लिए मुझे लगा कि इन्हें जब तक गैर सरकारी एजेंसियों से चेक नहीं कराया जाता, इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. इसके लिए तब तक इंतजार करना पड़ेगा जब तक ऐसी स्वतंत्र एजेंसियां अपनी पड़ताल को सार्वजनिक न कर दें.

भारत को स्वच्छता की समस्या का भारी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. यूएन के एक अनुमान के मुताबिक भारत में सिर्फ 2015 में डायरिया की वजह से 1-5 साल के 117000 बच्चों को अपनी जानें गंवानी पड़ी. डायरिया के पीछे सबसे बड़ी वजह संबंधित इलाके की साफ-सफाई होती है. इसका मतलब ये है कि पांच साल तक के बच्चों की कुल मौतों में से 10% इस बीमारी के कारण होती हैं. ये दुनिया भर के किसी हिस्से के इस तरह के अनुपात से बड़ा है. डायरिया और स्वच्छता से जुड़ी अन्य बीमारियों का लंबा दुष्प्रभाव हो सकता है. इनमें कुपोषण और विकास का अवरुद्ध होना यानी रुकना भी शामिल है. इसके दुष्प्रभाव में उत्पादकता में कमी आने, बीमारी का खर्च बढ़ने से लेकर समय से पहले मौत जैसी बातें भी शामिल हैं. साल 2015 में “खराब स्वच्छता की स्थिति से विश्व पर पड़ने वाला असर” नाम की एक रिपोर्ट आई. इसके लेखकों में दान कार्यों से जुड़ी एक संस्था वॉटरएड भी शामिल थी. रिपोर्ट में ये कहा गया कि स्वच्छता की बदतर स्थिति की वजह से भारत को हर साल 106 बिलियन डॉलर (7788350000000 रुपए) का नुकसान होता है, जो भारत की जीडीपी का 5 प्रतिशत है.

इसके मुकाबले 2.23 लाख करोड़ रुपए की वह रकम जो स्वच्छ भारत मिशन के लिए तय की गई है, अगर उसकी तुलना कैंपेन के शुरू होने के समय की पैसे के अदला-बदली के रेट के हिसाब से देखें, तो ये एक सयाना किस्म का निवेश नजर आता है. दिल्ली विश्वविद्यालय में समाज सेवा के विभाग प्रमुख मनोज कुमार झा ने मुझे बताया, “मोदी जी में महोत्सव करने की वह कला है, जिसे 24 घंटे चलने वाले सभी टीवी चैनलों पर दिखाया जा सके और स्वच्छ भारत मिशन इस मामले में फिट बैठता है जिससे शोर तो बहुत पैदा होता है लेकिन सार गायब है.” अगर झा सही हैं तो अभियान पर खर्च की जा रही रकम का बड़ा हिस्सा नाले में बह रहा है.

अहमदाबाद के केंद्र से साबरमती नदी के किनारे अगर आप गाड़ी चलाते हुए 20 मिनट की दूरी तय करेंगे तो आपको ‘चमनपुरा’ नाम की एक जगह मिलेगी. ये एक चौकोर खाली मैदान है. इसके साथ एक सड़क भी बनी है. वहीं, इसके साथ एक गली भी है जो एक बस्ती की ओर जाती है और एक छोटी सी दीवार है जो मैदान के बचे हिस्से को घेरे रखती है. ये दीवार मैदान को इसके साथ बनी बेतरतीब झोपड़ियों से अलग करती है. इसके एक किनारे पर हरे रंग का एक बड़ा कूड़ेदान पड़ा है. दीवार पर बनी कुछ आकृतियों में झाडू लिए एक व्यक्ति नजर आता है जो एक पेड़ और तिरंगा के साथ खड़ा है और उसके ऊपर “स्वच्छ भारत” लिखा है.

मैं एक दिन इस जगह सुबह 6 बजे पहुंचा. पुरुषोत्तम बघेला अपनी बाइक पर बिठाकर मुझे यहां लाए थे. वह एक दलित समाजसेवक हैं, जो ‘जनविकास’ नाम के एनजीओ के लिए काम करते हैं. जनविकास सर पर मैला ढोने वाले लोगों के लिए काम करता है. मैदान के बीच में एक व्यक्ति खड़ा था जो इस पर सफेद पाउडर छिड़क रहा था. वहीं, दो और लोग थे जो हरे कंटेनर से कूड़ा निकालकर एक ट्रैक्टर में भर रहे थे. जैसे ही मैं मैदान के बीच खड़े आदमी के पास जा रहा था, मेरा पैर किसी पिलपिले चीज़ पर पड़ा और मुझे महसूस हुआ कि ये मेरे जूते से चिपक गया है. जब मैंने देखा तो पाया कि ये सफेद पाउडर और ताजा मल का मिश्रण है.

मैदान में काम कर रहे व्यक्ति का नाम कैशिक कालूभाई सोलंकी था. देखने से ऐसा लग रहा था कि वह अपने जीवन के तीसरे दशक में होंगे. उन्होंने बताया कि वे एक दलित हैं और अहमदाबाद नगरपालिका के लिए फुल टाइम काम करते हैं. उन्होंने जानकारी दी कि ये जगह एक खुले शौचालय के तौर पर काम करती है और वे रोज सुबह यहां इसे साफ करने आते हैं. साल 2011 की जनगणना के अनुसार, अहमदाबाद नगर निगम के भीतर आने वाले 1.2 मिलियन यानी 12 लाख घरों में से 28000 घरों में स्वच्छता सुविधाएं नहीं थीं और इन घरों के लोग खुले में शौच करते हैं. जिन घरों में स्वच्छता सुविधाएं नहीं हैं, उनमें से 188 में सूखी लैट्रिन बनी हुई हैं जिन्हें हाथों से साफ करना पड़ता है और इनमें से 6000 के करीब में सिंगल पिट यानी एक गड्ढे वाली लैट्रिन हैं जिन्हें आम तौर पर लोगों द्वारा साफ कराया जाता है. वहीं 73500 ऐसी लैट्रिन हैं जो सेप्टिल टैंक से जुड़ी हैं और इन्हें भी लोगों द्वारा ही साफ कराया जाता है.

सोलंकी के पास लंबे हैंडल वाला सफाई का एक सामान था जो लकड़ी में लगे पोछे से मेल खा रहा था. लेकिन इसमें कपड़े की जगह क्रास पीस (वस्तु या औजार का टुकड़ा जो दूसरे पर आड़ा तिरछा लगा हो) लगा था जिससे इसके अंत में लोहे की कांटियां दिखाई दे रहे थीं. सोलंकी पहले तो मैदान से मल साफ करते फिर इन पर पाउडर छिड़कते. देखने पर पता चला की ये ब्लिचिंग पाउडर है, इससे इंफेक्शन नहीं फैलता है. सोलंकी जब मल साफ करके एक जगह इकट्ठा कर देते तो कूड़ेदान से ट्रैक्टर में कूड़ा डाल रहे लोग इसे भी ट्रैकटर में डाल देते जिसे बाद में कचरा डालने वाले इलाके में फेंका जाता.

सोलंकी के पास अपने काम के लिए पानी तक नहीं था और पूरे मैदान में कहीं कोई नल दिखाई नहीं दिया. उन्होंने हवाई चप्पल वाले अपना एक पैर के सोल को हवा में उठाया. इसमें भी वही मिश्रण लगा था जो मेरे पैरों में मैदान में घुसने के दौरान लगा था.

सोलंकी को काम के वक्त मिलना आसान नहीं था. वे जो करते हैं और उनके जैसे बाकी के लोग अहमदाबाद में जो वही काम करते हैं, उसके बारे में शहर की बड़ी आबादी को शायद ही पता है. इनमें वे लोग भी शामिल हैं जिनके लिए सोलंकी जैसे लोग सफाई का ये काम करते हैं. दरअसल, जो लोग खुले में शौच करते हैं वो सुबह की पहली किरण से पहले ये काम कर लेते हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि अंधेरे में उन्हें निजता का एहसास होता है. अहमदाबाद की तरह अन्य शहरों में भी ज्यादातर सफाई कर्मचारी अपना काम अहले सुबह शुरू करते हैं और जब तक बाकी का शहर अपना काम शुरू कर रहा होता है, इनका काम समाप्त हो चुका होता है. इसकी वजह से इनका ये काम मोटे तौर पर अदृश्य होता है. हालांकि, अगर कभी इनका काम थम जाए, तो इसके नतीजे जरूरत से ज्यादा देखने वाले होंगे.

मैंने अहमदाबाद में तीन दिन बिताए. इस दौरान मैं कई इलाकों में गया और मेरी मुलाकात कई कार्यकर्ताओं और समाजसेवियों से हुई. पहले दो दिन तो मैं शहर में सुबह के मध्य में पहुंचा. इस समय तक सफाई कर्मी उन इलकों को साफ कर चुके होते हैं, जहां खुले में शौच होता है. मैं सिटी सेंटर के आस-पास के इलाकों में घंटों तक ड्राइव करता रहता. इस दौरान मेरे साथ जनविकास के एक युवा कार्यकर्ता सोमिल फिडेलिस रहते थे. उन्हें ये जानकर सुखद अनुभूति हुई कि मैंने कही भी खुले में शौच का कोई निशान नहीं पाया और उन्होंने मुझे बताया कि इन इलाकों में हालात सुधर गए हैं. उन्होंने कहा, “ऐसा लगता है कि हमारी शिकायतों पर कुछ एक्शन लिया गया है.”

तीसरे दिन जब मैं सोलंकी से मिला, उस दिन मैं सुबह की पहली किरण फूटने के दो घंटे पहले जाग गया था. इसके बाद मैं बघेला के साथ बाइक पर बैठ कर ओंडो टेकरो, सरकीवाड और जूना वडज जैसे इलाकों के दौरे पर गया. ये वे बस्तियां हैं, जिनमें मुख्य तौर पर दलित और मुसलमान रहते हैं. अपने दौरे के दौरान इन सभी इलाकों में मुझे ये साफ दिखाई दिया कि यहां स्वच्छता की हालत बेहद खस्ता है, हालांकि इन इलाकों की हालत मिल्लत नगर से बेहतर है. कुछ इलाकों में पब्लिक लैट्रिन थे जो सीवर से जुड़े थे. लेकिन यहां भी सफाई कर्मचारियों की हालत खराब थी. इन लैट्रिनों को चलाने का जिम्मा ठेकेदारों के पास था. उन्हें ये ठेका नगर निगमों से मिला था. ठेकेदारों ने सफाई कर्मचारियों को सिर्फ झाडू और साधारण उपकरण दिए थे, वहीं सफाई कर्मचारियों को सुरक्षा से जुड़े कोई उपकरण मुहैया नहीं कराए गए थे.

शाहपुर इलाके में एक बस्ती है जिसका नाम सारकीवाड़ है. हम एक आठ केबिन वाले पब्लिक लैट्रिन के पास रुके. वघेला ने बताया कि ये लगभग 100 घरों के लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है. हमने देखा कि इसकी ओर कई लोग जा रहे थे और इन लोगों के हाथों में या तो पानी से भरी बोलत या लोटा था. हालांकि, हर केबिन के अंदर नल लगी थी लेकिन जब मैंने देखा तो पाया कि इनमें से किसी में भी पानी नहीं था.

जब मैं भीतर से जांच करके बाहर आया, मैंने एक छोटी से वैन देखी जिसके पीछे पानी की टंकी लगी हुई थी और इसे पास में ही खड़ा किया गया था. इस पर लिखा था कि ये नगर पालिका की ड्यूटी पर है. दो लोगों ने इसकी नली खोली जिसके बाद पानी बहने लगा. इसके बाद लैट्रिन की देख रेख करने वाला एक्शन में आया. पानी का इस्तेमाल करते हुए वो स्टॉल से मल को नाले में बहाने लगा. ये दिन का वह इकलौता समय था जब उसे खुद को भी साफ करने के लिए पानी मिलता था. जनविकास के एक और कार्यकर्ता जीतेंद्र राठौड़ ने बाद में मुझे बताया कि नगर पालिका के पास ऐसे आधा दर्जन से ज्यादा वाहन नहीं हैं, जो पूरे शहर की सेवा करने के लिए बेहद कम हैं.

चाहे चमनपुरा का इलाका हो या वाराणसी और दिल्ली का, सफाईकर्मियों के पास अपने काम के लिए कोई पुख्ता औजार नहीं था और ना ही उनके पास सुरक्षा उपकरण थे. ये सफाई कर्मचारी आम तौर पर दलित थे . नंदन देव/कारवां

मैंने जो सोलंकी में देखा था, अब मुझे सफाई कर्मियों द्वारा मल के सफाई का वैसा काम देखने के लिए इंतजार नहीं करना पड़ रहा था और अब ये सड़क किनारे और फुटपाथों पर भी दिखाई देने लगा. सेंट्रल अहमदाबाद में मैं एक फुटपाथ पर गायत्री बेन से मिला. वो अंधेरे में काम कर रही थी. भंगी जाति की इस दलित महिला ने कहा कि वह हर दिन सूरज निकलने के पहले घर छोड़ देती हैं और इधर-उधर भटकने लगती हैं. इसके पीछे मल तलाशने का उद्देश्य रहता है. इस काम के लिए उनके पास बस एक झाडू और मेटल का डस्टपैन (कचरा उठाने के काम में आने वाला पैन) होता है. उन्होंने कहा कि उन्हें एक ऐसी कंपनी ने नौकरी दी है जिसे नगर पालिका से ठेका मिला है. उन्होंने ये भी बताया कि इस काम के लिए उन्हें 6000 रुपए महीने की तनख्वाह दी जाती है. एक और सफाई कर्मचारी नरेंद्रभाई फकीरा भी दलित हैं, वे वहीं पर खड़े थे और उनके हाथ ब्लिचिंग पाउडर से रंगे थे. पहले तो उन्हें लगा कि मैं एक नगरपालिका इंस्पेक्टर हूं और जांच के काम पर निकला हूं, तो वे मुझे देखकर सकपका गए. जब मैंने उन्हें इस बात का भरोसा दिलाया कि उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है तो उन्होंने शिकायती लहजे में कहा कि उन्हें अपना काम करने के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिलता है. उनके पास एक बड़ी छड़ी थी जिसके अंत में एक लंबा ब्लेड लगा था, वे इसका इस्तेमाल खुरचने और बेलचे के तौर पर करते हैं.

जब मैं राथौड़ के साथ बात करने बैठा तो मुझे पता चला कि मैंने जो भी देखा है उसमें कोई भी बात अपवाद नहीं है. राथौड़ रोजाना सुबह की पहली किरण से पहले घर से निकलते हैं, इस दौरान उनके पास एक कैमरा भी होता है. इसके सहारे वे खुले में शौच से जुड़ी जानकारी इकट्ठा करते हैं. उन्होंने मुझे अपनी कुछ तस्वीरें और वीडियो भी दिखाईं. उनके पास एक पूरी वीडियो सीरीज थी जिसमें बच्चे खुले में शौच करते नजर आ रहे थे. ये पब्लिक लैट्रिन से जुड़ी थी. यह शहर के अलग-अलग हिस्सों से पिछले साल शूट करके इकट्ठा की गई थी. इनमें ऐसे फर्श हैं जो पूरी तरह मल से पटे पड़े हैं और सफाईकर्मी इन्हें सिर्फ झाडू जैसे सफाई के उपकरणों से साफ कर रहे हैं, कुछ में उनके पास चंद बाल्टी पानी भी है जिसे वो सफाई में इस्तेमाल कर रहे हैं. इन्हें देखना उन दृश्यों से ज्यादा बदतर था, जिन्हें मैंने शहर के पब्लिक लैट्रिन में देखा था और स्थिति ये थी कि इन्हें मैं छोटी सी स्क्रीन पर देख रहा था लेकिन इन्हें देखकर मुझे बेहद घिन्न आ रही थी. कई मौकों पर मेरी हालत ऐसी हो गई कि मैं इन्हें देख ही नहीं पा रहा था और मैंने राथौड़ से अनुरोध किया कि वो इन्हें रोक दें.

राथौड़ ने कहा कि वह और उनके साथी लगातार नगर पालिका के अधिकारियों को ये वीडियो और फोटो भेजते रहते हैं. उन्होंने पिछली साल सितंबर में ऐसी तस्वीरों और वीडियो की खेप इन अधिकारियों को भेजने का फैसला किया था. ये वह मौका था जब गुजरात इस बात की घोषणा करने वाला था कि इसे शहरी इलाकों में खुले में शौच से मुक्ति मिल गई है. इसे भेजे जाने के बाद भी सरकार अपनी इस घोषणा से पीछे नहीं हटी.

अप्रैल के मध्य में स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण की वेबसाइट पर जिलों से जुड़ी रैंकिंग मौजूद थी. ये आईएचएचएल+ओडीएफ की उपलब्धता पर आधारित थी- मतलब की किसी घर में बने लैट्रिन (आईएचएचएल) और खुल में शौच की समाप्ति (ओडीएफ)- इसमें अहमदाबाद को “100%” उपलब्धता के साथ देश में सबसे अच्छे शहर का स्थान प्राप्त था. पहले 14 नंबर पर सभी जिले गुजरात के थे.

स्वच्छ भारत अभियान के तहत हाथ से मैला साफ करने वालों की भर्ती रोकने, उनके पुनर्वास या उनके काम करने की स्थिति में सुधारे से जुड़े कदम शायद ही उठाए गए हैं. मैंने अहमदाबाद में जो देखा वह मैनुअल स्कैवेंजिंग के कानून का उल्लंघन था और ये उल्लंघन कोई और नहीं बल्कि सरकार कर रही है. सोलंकी ने जानकारी दी कि भर्तियां सीधे नगर पालिका द्वारा होती हैं- या ऐसी कंपनियों द्वारा जिनके पास नगर पालिका से मिला हुआ ठेका है- इन्होंने ही उन सभी सफाई कर्मियों की भर्ती की थी जिनसे मेरी शहर में मुलाकात हुई. सरकारी ठेकेदारों द्वारा ऐसी ही भर्तियों के बिल्कुल ऐसे ही मामले वाराणसी और दिल्ली में भी नजर आए. जब मैंने सरकारी अधिकारियों के सामने इस मामले पर चिंता जाहिर की तो सामने से बड़े पैमाने पर उदासीनता का भाव देखने को मिला.

इस उदासीनता का भारत भर में लंबा इतिहास रहा है. गुजरात में मुझे यह समझ आया कि ऐसी उदासीनता वहां लोगों के भीतर उतनी ही गहरी बैठी है जितना भारत के किसी और हिस्से में. मोदी ने कम से कम अपने भाषणों में तो स्वच्छ भारत के तहत मैनुअल स्कैवेंजिंग समाप्त करने की भरपूर वकालत की है. लेकिन जितने लंबे सयम तक वे गुजरात के मुख्यमंत्री रहे, उनकी सरकार ने इसके खिलाफ कुछ भी नहीं किया.

मैनुअल स्कैवेंजिंग से जुड़े प्रावधानों को भारतीय कानून का हिस्सा बनाना बहुत मुश्किल काम रहा. 1993 में संसद ने मैनुअल स्कैवेंजर्स को नौकरी देने और सूखे शौचालय के निर्माण (रोकथाम) कानून को पास किया. ये कानून 1997 में लागू किया गया और उसी समय ये सभी केंद्र शासित राज्यों में भी लागू हो गया. ये उन छह राज्यों- आंध्र प्रदेश, गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में भी लागू हो गया जिन्होंने इसे लागू किए जाने की मांग करते हुए प्रस्ताव पारित किया था. संविधान के तहत स्वच्छता राज्य के हिस्से आती है, इसलिए हर राज्य को अपने हिसाब का एक और कानून पास करना था जिसके तहत उसके राज्य में केंद्र द्वारा पास किया गया कानून लागू किया जा सके. कई राज्यों ने इस कानून को कभी जमीनी हकीकत बनने ही नहीं दिया यानी इन राज्यों ने कभी इस कानून को लागू ही नहीं किया. यहां तक कि जिन राज्यों में इस काननू को लागू किया गया, वहां भी कभी भी एक भी मामले में किसी को सजा नहीं हुई.

आने वाले सालों में इस कानून को ढुलमुल तरीके से लागू किए जाने के खिलाफ कई याचिकाएं दायर की गईं. जब मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने दबाव बनाया तो साल 2013 में संसद ने इस कानून को नए तरीके से पास किया. मैनुअल स्कैवेंजर्स को नौकरी देने और सूखे शौचालय का निर्माण रोकथाम कानून और उनका पुनर्वास कानून या एमएस एक्ट और इसे इस हिसाब से पास किया गया कि ये बिना किसी व्यवधान के पूरे देश में अपने आप लागू हो जाए.

अगले साल सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला दिया. इमसें कहा गया कि किसी मैनुअल स्कैवेंजर्स को बिना पर्याप्त सुरक्षा उपकरणों के नाले या सेप्टिक टैंक में भेजना दंडनीय अपराध होगा. कोर्ट ने ये भी कहा कि अगर 1993 से लेकर अब तक किसी भी मैनुअल स्कैवेंजर्स की मौत ऐसे काम के दौरान हुई होगी तो उसके परिवार को 10 लाख का मुआवजा दिया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने बातें स्वच्छ भारत मिशन के शुरू होने से 7 महीने पहले और उस याचिका के कोर्ट में दायर किए जाने के 11 साल बाद कहीं, जो सफाई कर्मचारी आंदोलन ने मामले में दायर की थी. ये मैनुअल स्कैवेंजर्स की भलाई से जुड़ी एक राष्ट्रीय संस्था है.

गुजरात में राठौड़ अपने साथियों और स्वयंसेवकों की सहायता से उन मौतों का आंकड़ा इकट्ठा करते रहे हैं जो मैन्युअल स्कैवेंजिंग के दौरान हुई है. इसके सहारे राठौड़ उन परिवारों को मुआवजा दिलवाने की कोशिश कर रहे हैं जिनके लिए सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था. राठौड़ ने मुझे बताया कि साल 1993 से अभी तक उन्होंने ऐसे कुल 146 मामलों का पता लगाया है.

राठौड़ ने जोर देकर कहा कि इस दौरान हुई मौतों की असली संख्या इससे कहीं ज्यादा है. उनके पास वही संख्या मौजूद है जिसकी खबरें मीडिया में छपी हैं या वे मौतें जिनमें संस्था मरने वाले का मृत्यु प्रमाण पत्र या एफआईआर हासिल करने में सफल रही है. इन दस्तावेजों के सहारे इस बात पर मुहर लगती है कि अगले की मौत ऐसा काम करने के दौरान हुई थी. राठौड़ ने कहा कि अक्सर ऐसे मामलों को पुलिस दुर्घटना में हुई मौत बताकर रफा-दफा कर देती है जिससे साफ पता नहीं चलता कि आखिर हुआ क्या था.

राठौड़ ने जिन मामलों से जुड़ी जानकारियां इकट्ठा की हैं वे शहरों और नगरों से हैं. उन्होंने कहा, “हमें इस बात का बिल्कुल भी पता नहीं है कि क्या मैनुअल स्कैंवेंजर गांवों के सेप्टिक टैंक में भी अपनी जानें गंवा रहे हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि गांवों की खबर पाना संभव नहीं है.”

साल 2014 में राठौड़ और उनके साथी सुप्रीम कोर्ट के साल 2013 वाले फैसले के तहत गुजरात सरकार से उन परिवारों के लिए मुआवजा लेने पहुंचे जिन्होंने अपनों को खोया था. दो सालों तक उन्होंने शहरी विकास के राज्य विभाग, ग्रामीण विकास और सामाजिक न्याय के अलावा कई नगर निगमों के दरवाजों पर दस्तक दी लेकिन हर जगह से उन्हें दुत्कार हासिल हुई. राठौड़ ने कहा, “अधिकारियों को इस बात का पता ही नहीं कि मुआवजा देना किसके हिस्सा का काम है.”

इसके बाद जन विकास के साथ काम करने वाली मैनुअल स्कैवेंजर्स से जुड़ी संस्था मानवा गरिमा गुजरात हाई कोर्ट पहुंची. हाई कोर्ट से इस बात की मांग की गई कि वह सरकार को मामले में एक्शन लेने का निर्देश दे. दिसंबर 2016 में तय किया गया कि सामाजिक न्याय विभाग से जुड़े अधिकारी के पास इससे जुड़े एप्लिकेशन और भुगतान का जिम्मा होगा. वहीं, शहरी क्षेत्रों में हुई मौतों का जिम्मा शहरी विकास विभाग का होगा और ग्रामीण क्षेत्रों में हुई मौतों का जिम्मा ग्रामीण विकास विभाग का होगा.

अभी तक तो मामला यहीं तक पहुंचा है और इसे लिखे जाने तक उन 146 परिवारों में से किसी को न्याय यानी मुआवजा नहीं मिला है जिनसे जुड़ी जानकारी राठौड़ ने इकट्ठा की है. मानवा गरिमा की याचिका पर हाई कोर्ट में मामले की सुनवाई होनी थी.

किसी के पास ऐसा भरोसेमंद आंकड़ा नहीं है जिससे साफ हो कि भारत में ऐसा काम करने के दौरान कितने लोगों की मौत हुई. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के पास साल 2014 के इससे जुड़े आंकड़ों के मुताबिक 780 लोग बुरी तरह से गडढों में गिरे और 195 लोग मेनहोल में गिरे-लेकिन इसमें इस बात की ओर इशारा नहीं है कि इनमें से कितने मैनुअल स्कैवेंजर्स थे. वहीं, सफाई कर्मचारी आंदोलन के मुताबिक 1993 से अब तक ऐसी 487 मौतें हुई हैं, जिनमें सफाई करने के काम के दौरान जानें चली गईं. लेकिन ये मौतें भी उन तथ्यों पर आधारित हैं जिनसे जुड़े दस्तावेज मौजूद हैं और ये सिर्फ 16 राज्यों के आंकड़े हैं. सफाई कर्मचारी आंदोलन की प्रवक्ता सना सुल्तान के मुताबिक संस्था के पास ऐसे संसाधन नहीं हैं जिसके सहारे देश भर में हो रही मौतों से जुड़े आंकड़े इकट्ठा किए जा सकें. लेकिन इनके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर अभी तक सिर्फ ऐसे 57 परिवारों को ही मुआवजा हासिल हुआ है.

जो एक बात साफ है वह ये कि इस काम में शामिल लोग अभी भी सीवर के भीतर खतरनाक स्थितियों में काम करने को मजबूर हैं और ऐसा करने के दौरान उनकी मौतें हो रही हैं. इस साल मार्च महीने में बेंगलुरु में 3 मैनुअल स्कैवेंजर्स की दम घुटने से मौत हो गई. इस दौरान ये लोग बिना किसी सुरक्षा उपकरण के एक ऐसे नाले को साफ करने की कोशिश कर रहे थे जो जाम हुआ पड़ा था. (ऐसे काम से जुड़े सुरक्षा उपकरणों में सांस लेने के यंत्र, शरीर को ठीक से ढंकने वाले कपड़े, सही मात्रा में रोशनी और मिथेन जैसी जहरीली गैस का पहले से पता लगाने वाले डिटेक्टर के अलावा ऐसे पाइप जो अपने भीतर खींचकर सफाई को अंजाम देती हो.) सभी तीनों मृतकों को उस कंपनी के काम पर रखा था जिसे स्थानीय पानी के बोर्ड ने ठेका दिया था. ये रामकी ग्रुप का हिस्सा था. यह हैदराबाद स्थित एक कंपनी है, जो रियल स्टेट और कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में काम करती है. (कंपनी को स्वच्छ भारत मिशन के तहत पानी को प्रोसेस करने के कई प्लांट बनाने का ठेका दिया गया है.) कर्नाटक सरकार ने ये घोषणा की थी कि वह मृतकों के परिवारों को मुआवजा देगी और ठेकेदार के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज की गई.

स्वच्छ भारत मिशन-शहरी के प्रमुख प्रशासक बॉडी के प्रमुख जगन शाह से मैंने पूछा कि मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने को लेकर क्या प्रयास किए गए हैं. उन्होंने कहा, “उसको ज्यादा तवज्जो नहीं दिया गया.”

काम के दौरान जान गंवाने वाले मृतकों के लिए मुआवजा हासिल करना महज इकलौता संघर्ष नहीं है. बेहद दुखद है कि इस मैनुअल स्कैवेंजर्स से जुड़े हर मामले में प्रगति इतनी धीमी रही है जो बेहद चिंताजनक है और स्वच्छ भारत मिशन के लॉन्च किए जाने के बाद भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है.

जनवरी 2007 में केंद्र सरकार ने मैनुअल स्कैवेंजर के पुनर्वास के लिए स्वरोजगार की स्कीम लॉन्च की. इसे समाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय को लागू करना था. 2013 के एमएस एक्ट (कानून) में हुए बदलाव के बाद इस स्कीम के तहत मैनुअल स्कैवेंजर्स की भलाई का फैसला लिया गया. इसके तहत वह हर परिवार जिसमें कोई मैनुअल स्कैवेंजर हो उसे 40000 रुपए का एक बार नकद भुगतान किया जाएगा. कौशल विकास के तहत दो साल की ट्रेनिंग भी इस स्कीम के तहत दी जानी है, जिसमें हर महीने वेतन भी दिया जाएगा और 10 लाख रुपए तक का लोन भी मिलेगा ताकि आय का कोई और श्रोत बनाया जा सके. इसे बढ़ाकर 15 लाख रुपए भी किया जा सकता है. “इस सफाई से जुड़े प्रोजेक्ट के लिए वैक्युम लोडर, गंदगी खींचने वाली गाड़ी वाली मशीन, कूड़ा निपटारा करने वाली गाड़ी या पैसे देकर इस्तेमाल करने वाले टॉयलेट के निर्माण में लगाया जा सकता है.”

मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकड़ों की मानी तो योजना का क्रियान्वयन काफी गड़बड़ रहा है. साल 2008-2009 के वित्त वर्ष में जब ये योजना अपने शिखर पर थी तब इसके तहत 100 करोड़ रुपए बांटे गए. लेकिन अगले चार सालों में योजना पर काले बादल छा गए. पहले तो अलगे दो सालों तक योजना पर कुछ भी खर्च नहीं हुआ, इसके पीछे इस बात का हवाला दिया गया कि इसके पहले योजना के लिए जारी की गई रकम को अभी तक इस्तेमाल नहीं किया गया है. साल 2013-2014 में केंदीय बजट के तहत इसके लिए 570 करोड़ देने की बात कही गई जिससे लगा कि सरकार इसे लेकर बेहद महत्वकांक्षी है. लेकिन असल में सिर्फ 35 करोड़ ही खर्च किए गए. महत्वकांक्षा का नतीजों के साथ मेल नहीं खाने का ये खेल तब से ही खुद को दोहराता आया है. स्वच्छ भारत मिशन भी इसमें ढेले भर का फर्क नहीं ला पाया. बावजूद इसके कि एक साल में इसके लिए केंद्र सरकार ने 400 करोड़ रुपए का बजट तय किया है, इसके बाद के आने वाले दो सालों में खर्च की गई रकम शून्य रुपए रही. अपनी वेबसाइट पर मंत्रालय ने इससे जुड़े आंकड़ों के लिए लिखा है “एनएसकेएफडीसी के लिए पर्याप्त पैसे मौजूद हैं”. राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त और विकास निगम के वित्तिय निकाय हैं, जो इस योजना से जुड़े पैसे जारी करती है. इस जानकारी से ये साफ है कि इसके तहत अभी तक 2013-2014 वित्त वर्ष के दौरान दी गई रकम को अभी तक खर्च नहीं किया गया है. मार्च 2016 में लोकसभा में एक सवाल के जवाब में समाजिक कल्याण और सशक्तिकरण मंत्रालय ने जानकारी दी कि 2013 से 2016 तक योजना के तहत इस पर असल में कुल खर्च 37.7 करोड़ हुआ. ये केंद्रीय बजट में जारी किए गए पैसों का महज 2.5 प्रतिशत है.

इस योजना के तहत भारत के मैनुअल स्कैवेंजर्स तक पहुंचने में सबसे बड़ा रोड़ा ये है कि भारत सरकार ने कभी भी ऐसा प्रयास नहीं किया जिसके तहत इन सभी को ऐसे तरीके से पहचाना और गिना जा सके, जो भरोसेमंद हो. 2011 के सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के मुताबिक 180000 ऐसे परिवार हैं जो मैनुअल स्कैवेंजिग के सहारे अपनी रोजी-रोटी हासिल कर रहे हैं. लेकिन इस दस्तावेज के डेटा से जुड़ी खामियां कई आलोचकों ने ढूंढ निकाली हैं और जैसा कि सरकार इन कमियों को दूर कर रही थी, इस दस्तावेज को जारी करने में काफी वक्त लिया गया.

एसकेए द्वारा दर्ज कराए गए मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 के फैसले में कहा था, “इस कोर्ट द्वारा लगातार बनाए जा रहे दबाव की वजह से मार्च 2013 में केंद्र सरकार ने मैनुअल स्कैवेंजर्स से जुड़े सर्वे की घोषणा की. हालांकि, ये सर्वे 3556 वैधानिक शहरों तक ही सीमित था और ग्रामीण इलाकों तक नहीं पहुंचा. यहां तक की इतने छोटे शासनादेश के बावजूद सर्वे से साफ है कि ध्यान से देखने पर पता चला है कि बेहद कम विकास हुआ है.”

इसे सर्वे की जिम्मेदारी भी समाजिक कल्याण मंत्रालय की ही है. सर्वे की आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड किए गए एक डाक्यूमेंट के मुताबिक, मंत्रालय का कहना है कि “मैनुअल स्कैवेंजर्स से जुड़ा कोई ऐसा डेटा मौजूद नहीं है जो उनकी सही संख्या बता सके. हालांकि, 2011 की जनगणना के मुताबिक अभी भी ऐसी 26 लाख लैट्रिन हैं जो अस्वास्थ्यकर हैं.” डॉक्यूमेंट की परिभाषा के अनुसार, वैसे “जिनमें लोगों और जानवरों द्वारा मल त्याग किया जाता है और वहां से मल को खुले नाले में बहा दिया जाता है.”

एक आरटीआई के जवाब में सामाजिक न्याय मंत्रालय ने मुझे जानकारी दी कि “शहरी और ग्रामीण इलाकों में मैनुअल स्कैवेंजर का सर्वे करना नगर निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी का काम है. इनकी जानकारी इकट्ठा हो जाने के बाद उसे अपलोड करने का जिम्मा राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के संबंधित प्रशासन का है.” 31 जनवरी 2017 को आए मंत्रालय के जवाब में कहा गया कि कुल 12725 मैनुअल स्कैवेंजर्स की गिनती की गई है. ये 13 राज्यों से मिली संख्या है जिसमें 10000 अकेले उत्तर प्रदेश में और बाकी के आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल से हैं. गुजरात वह राज्य है जो इस लिस्ट से गायब है.

भले ही ये आंकड़े मंत्रालय के हों लेकिन ये विश्वसनीय नहीं हैं. ये बात सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्री थावर चंद गहलोत ने पिछले साल जुलाई में अनुसूचित जाति के लिए राष्ट्रीय आयोग की एक मीटिंग के दौरान स्वीकार की थी. बैठक के मुताबिक गहलोत ने अधिकारियों को बताया कि जनगणना का डेटा कहता है कि देश भर में 20 लाख अस्वास्थ्यकर लैट्रिन हैं. वहीं, ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय स्तर पर 12000 मैन्युअल स्कैवेंजर्स की बात होना “वास्तविक नहीं है क्योंकि अस्वास्थ्यकर लैट्रिन खुद को ही साफ नहीं करेंगी.”

कैंपेन लॉन्च होने के दो महीने बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने “स्वच्छ भारत मिशन के लिए व्यापक कार्य योजना” को प्रस्तुत किए गया, सामाजिक न्याय मंत्रालय ने वादा किया कि “मैन्युअल स्कैवेंजिंग कानून 2013 को लागू किया जाएगा और 2015 तक अस्वास्थ्यकर लैट्रिन की पहचान कर इन्हें बदला या ध्वस्त किया जाएगा.” मैंने मंत्रालय से एक आरटीआई के तहत इस बात का जवाब मांगा की 2014 तक कितने अस्वास्थ्यकर लैट्रिन को बदला या ध्वस्त किया गया है?

मंत्रालय ने मेरा सवाल एनएसकेएफडीसी को भेज दिया, ये मंत्रालय के पर्यवेक्षण में आता है. (ये मानक प्रक्रिया है कि जब एक कार्यालय के पास जानकारी नहीं होती तो वह इसे ऐसे दूसरे कार्यालय के पास बढ़ा देता है जिसके बारे में इसे लगता है कि उसके पास ये जनकारी हो सकती है.) एनएसकेएफडीसी ने मेरे सवाल का जवाब देने से मना कर दिया और इस बात का हवाला दिया कि ये “तय समूहों को आर्थिक मदद मुहैया कराता है. ये मदद छूट के साथ मुहैया कराई जाती है और ये कौशल विकास ट्रेनिंग प्रोग्राम भी चलाता है. इसलिए जिस विषय में जानकारी मांगी गई है वो एनएसकेएफडीसी के क्षेत्र के तहत नहीं आता है.”

मंत्रालय के कार्य की योजना के तहत एक और काम है वो “एनएसकेएफडीसी की तीन स्वच्छता संबंधित स्कीमें हैं जिसके तहत पांच सालों में 821 ऐसे शौचालयों के निर्माण की योजना है जिनका इस्तेमाल पैसे देकर किया जा सके.” एनएसकेएफडीसी को भेजी गई एक आरटीआई में मैंने उन शौचालयों की संख्या जाननी चाही जिन्हें इस स्कीम के तहत बनाया गया है लेकिन इस जानकारी को भी ये कहते हुए देने से मना कर दिया गया, “इस मामले में कार्यालय के पास कोई जानकारी नहीं है.” हालांकि, जवाब में लिखा था कि एनएसकेएफडीसी ने जम्मू-कश्मीर, केरल, मध्य प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों को 4.36 करोड़ रुपए की रकम जारी की है. ये रकम पैसे देकर इस्तेमाल किए जा सकने वाले शौचालयों के निर्माण के लिए जारी की गई है. इनका निर्माण “लक्ष्य समूह” द्वारा किया जाना है. इसमें ये नहीं बताया गया कि जारी की गई रकम में से कितने का इस्तेमाल किया गया.

स्वच्छ भारत मिशन से सीधे तौर पर जुड़े दस्तावेजों ने भी ये सवाल खड़े किए कि ये मिशन मैन्युअल स्कैवेंजिंग को कितनी गंभीरता से ले रहा है. पेय जल एवं स्वच्छता मंत्रालय की देख रेख में चल रहे स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण से जुड़े दिशा-निर्देशों में लिखा है कि ग्रामीण क्षेंत्रों में अस्वास्थ्यकर लैट्रिन का निर्माण वर्जित है लेकिन इसमें कहीं भी साफ तौर पर ये नहीं लिखा कि मैन्युअल स्कैवेंजिंग को पूरी तरह से समाप्त करना है. खुले में शौच से मुक्त होने का दर्जा पाने के लक्ष्य को हासिल करने के बारे में बात करते हुए, शुरुआत में जब दिसंबर 2014 में पहली बार इन दिशा निर्देशों को जारी किया गया था तो इनमें ऐसा कोई मानदंड नहीं शामिल किया गया था जिसके तहत ये तय किया जा सके कि एक इलाका खुले में शौच मुक्त हो गया है. जून 2015 में पेय जल एवं स्वच्छता मंत्रालय ने अतिरिक्त दिशा निर्देश जारी किए जिसमें निम्नलिखित मानदंड शामिल किए गए: “जब गांव/इसके वातावरण में किसी तरह का मल कहीं दिखाई ना दे” और “हर घर के साथ-साथ सार्वजनिक और समुदायिक संस्थान भी मल के निष्पादन के लिए सुरक्षित तकनीक का इस्तेमाल करने लगें (इशारा: सुरक्षित तकनीक का मतलब सतही मिट्टी, भूमिगत पानी और सतह को कोई नुकसान नहीं पहुंचे, मल मक्खियों और जानवरों की पहुंच से दूर हो, ताजा मल को हटाने की जरूरत न हो और दुर्गंध के अलावा ऐसे दृश्य से भी छुटकारा मिले जिसे देखा नहीं जा सकता.)” दिसंबर 2016 में मंत्रालय ने अतिरिक्त “ओडीएफ स्थिरता दिशानिर्देश जारी किए” इसमें बताया गया कि एक बार खुले में शौच से मुक्त होने का दर्जा पा लेने के बाद कोई इलाका इस दर्जे को कैसे बनाए रख सकता है. इनमें ताजा शौच को यहां-वहां ले जाने की जरूरत नहीं पड़ने वाली बात गायब थी.

स्वच्छ भारत मिशन-शहरी है जो शहरी विकास मंत्रालय के तहत आता है. इसमें “मैन्युअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करे” को एक मुखर लक्ष्य के तौर पर पेश किया गया है. हालांकि, यहां ये साफ नहीं है कि मंत्रालय खुले में शौच मुक्ति के दर्ज को कैसे तय करता है.

मार्च महीने में मैंने राष्ट्रीय शहरी मामलों के संस्थान के निदेशक जगन शाह को फोन किया. राष्ट्रीय शहरी मामलों का संस्थान एक स्वायत्त संस्थान है. ये शहरी विकास मंत्रालय को ट्रेनिंग और रिसर्च से जुड़े काम में मदद करता है. इसके निदेशक के तौर पर शाह को राष्ट्रीय सलाहकार और समीक्षा समिति में एक सीट हासिल है. राष्ट्रीय सलाहकार और समीक्षा समिति स्वच्छ भारत मिशन की एक आला प्रशासनिक निकाय है. इसका काम अलग-अलग मंत्रालय के प्रतिनिधियों और शहरी विकास मंत्रालय के सचिव के नेतृत्व में सरकारी निकाय को साथ लाना है.

मैंने शाह से पूछा कि मैन्युअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि साल 2014 में उन्होंने ये सलाह दी थी कि सफाई कर्मचारियों को सफाई के नए उपकरण दिए जाएं और उनके लिए सालाना इनामों की भी व्यवस्था की जाए. उन्होंने आगे बताया कि लेकिन कमिटि ने इस विचार को यह कहते हुए खारिज कर दिया, “अरे वो तो ठेकेदार के लोग हैं.” उनके हिसाब से सरकार ने मैन्युअल स्कैवेंजिंग का मामला महज “व्यंजनात्मक अर्थ” में किया था. उन्होंने आगे कहा, “और उनको ज्यादा तवज्जो नहीं दिया गया.”

गांधीनगर का राज्य सचिवालय, गुजरात की राजधानी अहमदाबाद से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यहां मेरी मुलाकात पूनमचंद मरमार से हुई, वे शहरी विकास विभाग के अतिरिक्त प्रमुख सचिव हैं. उनके जिम्मे राज्य के शहरी क्षेत्रों में स्वच्छ भारत मिशन को लागू करने का काम है. 20 मिनट से ज्यादा की बातचीत में परमार ने मुझे अभियान से सही दिशा में सफल तरीके से जाने को लेकर कई तरह से आशान्वित किया. मैंने पूछा कि चंडोला झील की बस्तियों और शहर के कई अन्य इलकों में मूलभूल स्वच्छता सुविधाएं क्यों नहीं हैं. लेकिन इस सवाल से वह जरा भी नहीं डिगे. उन्होंने फोन पर अपने कर्मचारी से बात की और उनसे कहा कि वे किसी को चंडोला झील के इलाके में भेजें. इसके बाद उन्होंने गुजरात में स्वच्छता कार्यक्रम की सफलता का गुणगान जारी रखा.

कानून द्वारा प्रतिबंधित होने के बावजूद भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग जारी है. गांधी ने, 1936 में, अपने विश्वास के बारे में लिखा था कि हाथ से मैला ढोने वालों को "केवल एक पवित्र कर्तव्य के रूप में" काम करना चाहिए. मोदी, अपनी पुस्तक कर्मयोग में, जाति क्रम में उनकी निर्दिष्ट भूमिका का वर्णन करते हैं, "भगवान के रूप में उनके लिए सर्वोत्तम काम". एनरिको फेबरियन

अपनी बात के दौरान परमार बिना रुके मोदी की काम की तारीफ करते नहीं थके. परमार ने कहा, “मुख्यमंत्री के तौर पर अपने पहले ही दिन से नरेंद्र भाई सफाई को लेकर बहुत तत्पर थे. सफाई को लेकर उनकी मौलिक अवधारणा बहुत उच्च है.” फरवरी 2014 में मोदी ने गुजरात में महात्मा गांधी स्वच्छता मिशन से एक राज्यव्यापी अभियान लॉन्च किया. परमार ने जानकारी दी कि निर्मल भारत अभियान के तहत गुजरात पहले से शौचालय निर्माण कर रहा था- ये यूपीए सरकार का एक राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान था जिसे बाद में स्वच्छ भारत मिशन बनाकर पेश किया गया. परमार ने कहा कि महात्मा गांधी स्वच्छ मिशन के तहत राज्य के लोग इसे बेहद गंभीरता से लेने लगे कि वो शौचालयों का इस्तेमाल करें. परमार के मुताबिक यही वजह है जिसके चलते राज्य को खुले में शौच से मुक्ति का रास्ता मिला. उन्होंने कहा, “ये सिर्फ शौचालयों बना देने से नहीं हो रहा है.”

मैंने जो अहमदाबाद में देखा उससे तो यही लगा कि मोदी के शुरू से लेकर अभी तक के स्वच्छता से जुड़ी प्रतिबद्धता को लेकर परमार जो दावे कर रहे हैं वो झूठे हैं. ऐसे ही कैग की उस रिपोर्ट में देखने को मिला जो गुजरात की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में थी. कैग वह संवैधानिक संस्था है जिसके जिम्मे सभी सरकारी कामों की छानबीन का काम होता है. कैग की रिपोर्ट में ये बात सामने आई कि राज्य सरकार के अपशिष्ट के प्रबंधन से जुड़े बड़े दावों के बावजूद, गुजरात की 3 प्रतिशत से भी कम नगरपालिकाओं के पास ऐसी अलगाव प्रणाली है जो काम कर रही हो और इसके किसी नगरपालिका निगमों में 18 प्रतिशत से ज्यादा का अलगाव दर नहीं है. इसके आगे ये भी कहा गया कि राज्य की किसी नगरपालिका के पास काम कर रहे सीवेज-ट्रीटमेंट सुविधा नहीं है और सिर्फ एक के पास ऐसी व्यवस्था है जो कि व्यापक सीवर कवरेज के करीब हो.

मैन्युअल स्कैवेंजिंग के मामले में मोदी खुद के समाजसुधारक होने को लेकर जो उस पर भी उनके भूत की वजह से कई सवाल खड़े होते हैं.

टाइम्स ऑफ इंडिया

‘कर्मयोग’ नाम की एक किताब जो अभी रिलीज नहीं हुई है उसमें मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिरनी के छत्ते में ढेला मार दिया है. इसमें लिखा है कि वाल्मीकियों के लिए स्कैवेंजिंग ‘आध्यात्मिक अनुभव’ की तरह है. दलित जाति के इन लोगों को सदियों तक इस काम में झोंके रखा गया है. मोदी द्वारा लिखी गई इस किताब की पांच हजार कॉपियां अक्टूबर 2007 में गुजरात के राज्य जानकारी विभाग द्वारा छापी गई थीं. इन्हें चुनावी आचार संहिता की वजह से रिलीज नहीं किया जा सका और न ही पब्लिक में बांटा जा सका. इसे मोदी के पसंदीदा पीएसयू गुजरात स्टेट पेट्रोलियम ने प्रायोजित किया था. 101 पन्नों के इस बुकलेट से मोदी का ध्येय कर्मयोग का विचार लोगों तक पहुंचाना है. लेकिन उनके इस जबरदस्त जातिवाद ने दलित समूहों में गुस्सा पैदा किया है.

मैं शाह से मिला और पूछा कि उन्होंने बिना रिलीज के इसे कैसे खरीदा. उन्होंने बताया कि उस वक्त वह टाइम्स ऑफ इंडिया के राजनीतिक संवाददाता थे और अक्सर उनकी मुलाकात वरिष्ठ नौकरशाहों से हो जाती थी. उन्होंने कहा कि मोदी के प्रधान सचिव कुनियिल कैलाशनाथन के ऑफिस में उनके हाथ ये किताब अचानक से लग गई.

टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए 2012 में लिखे गए ब्लॉग पोस्ट में शाह ने कैलाशनाथन के साथ हुई इस मुलाकात के बारे में लिखा: अपनी रिपोर्ट में शाह ने किताब में लिखी बात को उद्धृत करते हुए लिखा:

शाह ने अपने ब्लॉग पोस्ट में लिखा कि कैसे वे कैलाशनाथन से अपने ब्लॉग पोस्ट लिखे जाने के कुछ दिन बाद फिर मिले. इस नौकरशाह ने उनसे शिकायती लहजे में कहा कि उन्होंने “तबाही” मचा दी और किताब वापस मांगी. शाह ने किताब वापस दे दी. उन्होंने लिखा, “बाद में मुझे बताया गया कि गुजरात सूचना विभाग ने मोदी के निर्देश पर किताब को वापस ले लिया.”

किताब को लौटाने से पहले शाह ने अपने रिकॉर्ड के लिए इसकी कॉपी बना ली थी. उन्होंने गुजराती में लिखी इस किताब की एक कॉपी मेरे साथ साझा की.

मोदी के ये विचार स्वच्छ भारत मिशन के शुभंकर बनाए गए मोहनदास गांधी के विचार अद्धुत तरीके से एक समान हैं. साल 1933 में छपे एक लेख में गांधी ने अपने हिंदी साप्ताहिक हरिजन सेवक में लिखा:

अंग्रेजी भाषा के हरिजन में 1936 में छपे एक और लेख में उन्होंने कहा कि “एक आदर्श भंगी भले ही अपने काम से अपनी आजीविका चला रहा होगा, लेकिन इसे करने के लिए वह एक पवित्र काम मानकर आएगा.”

मैन्युअल स्कैवेंजिंग पर गांधी के विचारों की खूब आलोचना हुई. मोदी के कर्मयोग वाले विचार भी इसी लायक हैं. लेकिन मोदी को ये क्यों नहीं लगा कि इस घिनौने काम से हासिल होने वाली आध्यात्मिकता कभी सवर्णों को भी नसीब हो. एनरिको फेबरियन

मैन्युअल स्कैवेंजिंग पर गांधी के विचारों की खूब आलोचना हुई है. मोदी के कर्मयोग वाले विचार भी इसी लायक हैं. साल की 2007 वाली रिपोर्ट में किताब से जुड़े एक सवाल के जवाब में कवि नीरज पटेल ने कहा, “मोदी को ये क्यों नहीं लगा कि इस घिनौने काम से हासिल होने वाली आध्यात्मिकता कभी सवर्णों को नसीब नहीं हुई?”

स्वच्छ भारत मिशन वह पहला मौका नहीं है जब भारत अपनी सफाई की समस्या को हल करने की कोशिश कर रहा है. साल 2015 में कैग ने निर्मल भारत अभियान की अपनी आखिरी रिपोर्ट जारी की. रिपोर्ट में लिखा गया कि “ग्रामीण भारत में स्वच्छता प्रोग्राम किसी न किसी रूप में सन् 1954 से मौजूद है.” इससे जुड़े प्रयासों को 1986 में पहली बार बल मिला, जब सरकार ने “केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता प्रोग्राम” लॉन्च किया. रिपोर्ट में इसे “आधारभूत संरचना उन्मुख कार्यक्रम बताया गया था, जिसके तहत शौचालय निर्माण के लिए भारी मात्रा में सब्सिडीज दी गई थीं.” फिर, 1999 में “सीआरएसपी के तहत सफाई की पहुंच से संतुष्ट नहीं होकर भारत सरकार ने पूर्ण स्वच्छता अभियान लॉन्च किया” इसे ही 2012 में “निर्मल भारत मिशन” का नया नाम दे दिया गया.

इन कार्यक्रमों से जुड़े सालों में भारत ने स्वच्छता के मामले में कुछ प्रगति जरूर की. यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक 1990 से 2015 तक भारत में 394 मिलियन लोगों ने खुले में शौच करना बंद कर दिया. लेकिन मोटे तौर पर मामला वही “ढाक के तीन पात” वाला रहा और सरकारी स्वच्छता कार्यक्रमों को लेकर आम सहमति यही है कि ये फेल रहे हैं. संपूर्ण स्वच्छता अभियान में ये लक्ष्य रखा गया था कि साल 2012 तक भारत के हर घर में लैट्रिन होना चाहिए और साल 2013 तक हर स्कूल और आंगनवाडी केंद्र में सामुदायिक शौचालय होना चाहिए. ये लक्ष्य कभी पूरा नहीं हुआ. कैग की रिपोर्ट में ये खुलासा हुआ कि 2009 से 2014 के बीच जो लक्ष्य तय किया गया था उसके आधे से भी कम शौचालयों का निर्माण हुआ. यूएन की साल 2015 की पानी और स्वच्छता संबंधित एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारत की 60% प्रतिशत आबादी को “बेहतर स्वच्छता हासिल” नहीं है. ये ऐसी सुविधा होती है जिसकी वजह से इंसान का वास्ता ताजा मल से नहीं पड़ता है.

ऑडिट रिपोर्ट में ऐसी कई और असफलताओं को दर्शाया गया था. जिन 53 जिलों का ऑडिटर्स ने टेस्ट केस के तौर पर अध्ययन किया था, उनमें एक तिहाई शौचालय इस्तेमाल से बाहर थे, “इनमें इनका खराब निर्माण, अधूरा निर्माण, बिल्कुल कोई रख-रखाव नहीं होने जैसी बातें शामिल थीं.” देश भर में, “आईईसी को तवज्जो नहीं दिए जाने की वजह से” -आईईसी से संबंधित इंफॉर्मेशन यानी जानकारी, एजुकेशन यानी शिक्षा और कम्युनिकेशन यानी संवाद- हालांकि ये सब “स्वच्छता से होने वाले फायदे को लेकर जागरुकता फैलाने को लेकर बहुत अहम हैं.” इन कामों के लिए जो पैसा जारी किया गया था उसका एक बेहद छोटा हिस्सा ही इसके लिए इस्तेमाल किया गया था. “ऐसा कोई सिस्टम नहीं था” जिसके तहत ग्राउंड पर मौजूद प्राधिकारियों द्वारा इनके लागू किए जाने से जुड़े दिए गए डेटा को सत्यापित किया जा सके और “भौतिक प्रगति के बारे में बढ़ा चढ़ाकर जानकारी पेश की गई.” अक्सर इससे जुड़े पैसों का राज्य द्वारा जारी कर दिए जाने के लंबे समय तक “इस्तेमाल नहीं हुआ” और एडवांस में दी गई रकम “विभिन्न कार्यान्वयन एजेंसियों में ​​बकाया थीं.”

अपने निष्कर्ष में रिपोर्ट में इस बात पर खेद जताया गया कि “इस लंबे सफर से मिले ज्ञान और प्रयोगों का देश की स्वच्छता की स्थिति पर कोई बड़ा प्रभाव नजर नहीं आया.” स्वच्छ भारत मिशन के मामले में भी ऐसा ही होने की आशंका है. कम से कम कागज पर इस अभियान ने कुछ ऐतिहासिक सीख का जवाब तो दिया है. लेकिन जमीन पर इसकी हालत उन्हीं कार्यक्रमों की तरह है जो इसके पहले आए थे.

साल 2014 में स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण से औपचारिक तौर पर जुड़ने से पहले विश्व बैंक ने एक “कॉन्सेप्ट स्टेज” रिपोर्ट जारी की. इसमें ग्रामीण अभियान की व्यवहार्यता पर बात की गई थी. इस प्रोग्राम के पहले के रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए विश्व बैंक ने इसकी सफलता में आने वाली बाधाओं को जिक्र किया. इसमें योजना और कार्यान्वयन को लेकर “सामाजिक समावेश सुनिश्चित करने के लिए नीतियों के कमजोर कार्यान्वयन, गरीब के पास निजी जमीन की गैर-उपलब्धता और शौचालयों के लिए कमजोर घर के अलावा महिलाओं और अन्य कम कमजोर वर्गों से जुड़ी कमजोर भागीदारी प्रक्रिया” पर चिंता जाहिर की गई थी. मैंने अपने सफर के दौरान अहमदाबाद और अन्य जगहों पर जो देखा उससे यही लगा कि स्वच्छ भारत मिशन ने इन चिंताओं को दूर करने के लिए कुछ ज्यादा नहीं किया है और सामाजिक तौर पर पिछले वर्ग को इस अभियान के लाभ से मोटे तौर पर वचिंत रखा गया है.

नवंबर 2015 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट आई. इसमें अभियान के संभव प्राकृतिक और सामाजिक प्रभाव पर बात की गई थी. इस दौरान कहा गया कि “पहले किए गए प्रयासों में सिर्फ शौचालय निर्माण पर जोर दिया गया ताकि इस तक पहुंच बनाई जा सके” और आगे कहा गया कि स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण “इसमें बदलाव करते हुए शौचालय इस्तेमाल को व्यवहार में बदलाव से जोड़ा है.” जैसा कि मैं नागेपुर और जयापुर में देखने वाला था, जमीनी स्तर पर ये शायद ही लागू किया जा रहा है. रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया गया कि खुले में शौच मुक्त से जुड़ी जो सरकारी परिभाषा है “उसके मुताबिक मल का सुरक्षित निष्पादन होना चाहिए” और “लागू किए जाने के दौरान इसका पूरी तरह से ख्याल रखा जाना चाहिए”, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं किया जा सका है.

कैग की रिपोर्ट में पहले ही इससे जुड़ी चेतावनी दी गई थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि बिना “व्यवहार परिवर्तन से जुड़े वास्तविक प्लान और बड़ी तौर पर जानकारी, शिक्षा और संवाद अभियान के” और जब तक “जमीनी स्तर पर सरकारी रवैया पूरी तरह नहीं बदलता तो सिर्फ योजना को मूलभूत तरीके से लागू करने पर ज्यादा बदलाव नहीं आएंगे.”“स्वच्छ भारत के तहत तय किए गए लक्ष्य को हासिल करने के लिए” दी गई अपनी सिफारिशों में कैग ने बताया कि “इसके स्वतंत्र मूल्यांकन के लिए प्रभावी तंत्र” की आवश्यकता है और “डेटा की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करना जो कि विश्वसनीय आवधिक स्थिति की जांच और समय पर उपचारात्मक उपाय प्रदान कर सकता है.” जैसा कि खुले में शौच मुक्त होने के गुजरात के झूठे दावे से साफ है, स्वच्छ भारत मिशन के क्रियानवन से जुड़े सरकारी डेटा की विश्वसनीयत काफी संदिग्ध है.

अभियान पर होने वाले खर्च से जुड़े सरकारी डेटा में भी पारदर्शिता की कमी है. अभी तक सार्वजनिक की गई जानकारी में ये बताया गया कि किसी राज्य विशेष को किसी योजना विशेष के लिए कितना फंड दिया गया लेकिन इससे जुड़े ऐसे कोई सबूत नहीं दिए गए जिसमें इसे कैसे खर्च किया गया या इसे थोड़ा भी खर्च किया गया या नहीं इस बात की जानकारी हो. जैसा कि ये ऐसी समस्या है जिसका सामना पहले भी हमेशा करना पड़ा है, स्वच्छ भारत मिशन के तहत ये साफ किया गया है कि राज्य को आगे का फंड तभी मिलेगा जब वे इस बात के सबूत दें कि पहले दिए गए फंड को इस्तेमाल कर लिया गया है. लेकिन जैसा कि 2015 में स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण से जुड़ी विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया,, “असल खर्च का जो ब्यौरा दिया गया है, वह राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर जारी की गई रकम पर आधारित है और इसी वजह से ये सही आर्थिक प्रदर्शन के लिए पर्याप्त आंकड़े नहीं देता.”

विश्व बैंक ने एक रिपोर्ट में जानकारी दी कि “1999-2013 के दौरान” भारत की केंद्र और राज्य सरकारों ने स्वच्छता अभियानों के नाम पर “150 खरब रुपए खर्च किए” हैं. इससे जुड़ी ज्यादातर जानकारियों के मुताबिक मोटे तौर पर ये पैसा बर्बाद हुआ है. वहीं, स्वच्छ भारत अभियान के तहत तो महज पांच सालों में 150 खरब का 15 गुना ज्यादा खर्च किए जाने की बात कही गई है.

स्वच्छ भारत मिशन ने एक और ऐतिहासिक सबक से सीख नहीं ली है. ये सीख यह है कि स्वच्छता का पानी की उपलब्धता से सीधा नाता है. सरकार की 12वीं पंचवर्षीय योजना 2012 में प्रभाव में आई और इसमें इस बात पर गौर किया गया कि “एनजीपी में कई खामिया हैं”-ये निर्मल भारत अभियान से जुड़ी एक पहल है, जिसके तहत उन गांवों को पुरस्कृत किया जाता है जिन्होंने खुले में शौच को समाप्त कर दिया है. एनजीपी में कई खामियों में “पानी के गायब होने को बड़ी वजह बताया गया है.” विश्व बैंक की स्वच्छ भारत ग्रामीण के व्यवहार्यता पर आई रिपोर्ट में कहा गया कि अभियान में “शौचालय के इस्तेमाल के लिए पानी की जरूरत को पहचाना गया है” और “शौचालय से जुड़ी रकम में इसके लिए भी पैसे दिए गए हैं कि पानी मुहैया कराया जा सके.” आगे कहा गया, लेकिन, “दिशानिर्देशों को बदल देने भर से लक्ष्य के हासिल किए जाने और इसके बरकरार रहने को लेकर कोई बड़ा आश्वासन हासिल नहीं होता.”

नवंबर 2015 में जब स्वच्छ भारत मिशन को 1 साल पूरा हो गया था तो विश्व बैंक ने स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण को इसके द्वारा हासिल 1.5 बिलियन डॉलर (110212500000.00 रुपए) लोन की प्रस्तावित रकम पर एक मूल्यांकन रिपोर्ट जारी की. इसमें कहा गया कि “तकनीकी रूप” से ये अभियान काफी मजबूत नजर आता है लेकिन ये चेतावनी भी दी कि पहले के अनुभवों के आधार पर ये अभियान जो लक्ष्य हासिल करना चाहता है वह वास्तविक नहीं हैं. इसमें ये भी कहा गया, “अभियान को पूरा करने के लिए तय की समयसीमा (जो कि 2 अक्टूबर 2019 तक इसे पूरा किया जाना है) काफी चुनौतीपूर्ण है. इतने कम समय में जिस लक्ष्य की प्राप्ति की बात कही गई है वह इसके पहले किए गए कामों की तुलना में 5 गुना ज्यादा है. ऐसे में बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्य या ऐसे राज्य जिनमें खुले में शौच की ज्यादा समस्या है, उन्हें अभी भी ऐसा सांस्थानिक तंत्र को उनकी जगह पर रखना और इसके लिए रणनीति बनाना बाकी है ताकि वे यह लक्ष्य हासिल कर पाएं.” इसमें आगे कहा गया कि पीने का पानी और स्वच्छता मंत्रालय “में लोगों की काफी कमी है और वर्तमान में पर्याप्त सांस्थानिक क्षमता और कर्मचारी नहीं हैं जिससे एसबीएम लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए राज्य को पर्याप्त समर्थन मुहैया कराया जा सके. इसलिए, इस बात की पर्याप्त गुंजाईश है कि अभियान की प्रक्रिया और सांस्थानिक व्यवस्था में पर्याप्त सुधार किया जा सके.”

वाराणसी के मुख्य रेलवे स्टेशन से 25 किलोमीटर का सफर तय करने के लिए 40 मिनट का समय लगा तब जाकर मैं नागेपुर पहुंचा. यह वही गांव है, जो वाराणसी जिले में पड़ता है. इस छोटे से गांव में खेती होती है. जब मैं यहा फरवरी की शुरुआत में पहुंचा तो जिन गांव वालों से मेरी बात हुई उन्होंने यहां कि आबादी के बारे में कहा वह चंद हजार लोगों के करीब की होगी और उन्होंने इसे बिना देर किए जाति के आधार पर अलग करके बता दिया. उन्होंने कहा कि गांव की आधी आबादी राजभरों की है और पटेलों और मौर्यों- दोनों ही राजभरों की तरह ओबीसी यानी अन्य पिछड़ी जातियों से आते हैं- संभवत: गांव की बाकी की आधी आबादी का हिस्सा हैं. आगे कहा गया कि गांव की बाकी की आबादी दलितों की है.

हर समुदाय अपने-अपने टोले में रहता है जिसके वजह से गांव हरे खेतों के समुद्र में घरों के द्वीपसमूह के जैसा नजर आता है. जब मैं वहां घूम रहा था, गांव वालों ने मुझे घरों के हर समूह की पहचान करवाई: ये राजभर बस्ती है, ये पटेल बस्ती है, ये मौर्य बस्ती है. दलितों की बस्ती इन सबसे से थोड़ी अलग ही दूरी पर बसी हुई थी. गांव के ओबीसी जाति के लोग इसे “हरिजन बस्ती” बुलाते हैं. (“हरिजन” वो शब्द है जो जाति व्यवस्था में सबसे निचले पायदान के लोगों को संबोधित करने के लिए गांधी का प्रिय शब्द था, इसका माने “भगवान के बच्चों” से है. दलित जातियों से आने वाले ज्यादातर लोग इस शब्द को दंभपूर्ण या यूं कहें कि अपमानजनक मानते हैं.)

ओबीसी बस्तियों में मुझे लगभग हर घर के बाहर शौचालय नजर आया जिनमें से ज्यादातर बिल्कुल नए थे. ये नजारा भी आम था कि ऐसे कई घरों के बाहर एक से ज्यादा शौचालय थे. मौर्य बस्ती में मैंने देखा कि 20 फुट के दायरे में पांच शौचालय बने हैं. वहां के एक स्थानीय व्यक्ति ने मुझे बताया कि एक परिवार में पांच भाई हैं और पांचों शादीशुदा हैं. उस व्यक्ति ने बताया कि उन पांचों को ये 5 शौचालय सरकारी रकम पर मिले हैं. ये स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के दिशानिर्देशों का उल्लंघन है जिसके मुताबिक एक घर को एक ही सरकारी शौचालय दिए जाने की बात कही गई है.

वहीं, दलित बस्तियों में शायद ही कोई शौचालय बना हुआ था. गांव वालों ने मुझे बताया कि इस बस्ती में 150 में से महज 26 घर ऐसे हैं, जिनमें स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय का निर्माण किया गया. इनमें से चार-पांच घर ऐसे हैं जो गांव से लगने वाली सड़क के पास हैं, जिसकी वजह से एक भ्रामक स्थिति पैदा होती है. वहां की एक निवासी धर्मादेवी ने मुझे बताया कि वे पहले ही 5 बार गांव के सरपंच राजभर के पास जा चुकी हैं और शौचालय बनाने के लिए मदद की गुहार लगा चुकी हैं लेकिन उन्हें हर बार वापस भेज दिया गया.

नागेपुर की दलित बस्ति से थोड़ी दूर पर मैंने सिर्फ एक सार्वजनिक शौचालय पाया. मैंने जब इसके भीतर देखा तो ये बेहद गंदे थे और इनके नलों में पानी नहीं था.

इसके करीब जो शौचालय को ईंट की एक छोटी सी दीवार अलग कर रहा था वहां पर जाति-उन्मूलन के सबसे बड़े नेता भीमराव अंबेडकर की मूर्ति लगी थी. पास में तीन लोहे की बेंच लगी थीं. इस पर पीठ टिकाने वाले हिस्से में मोदी के सबसे प्यारे नारों में से एक, “सबका साथ, सबका विकास” लिखा था. इसके नीचे बड़े अक्षरों में प्रधानमंत्री का नाम भी लिखा था.

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक वाराणसी के 73 प्रतिशत ग्रामीण घरों में शौचालय नहीं है और इनमें से 71 प्रतिशत खुले में शौच करते हैं. इनमें से महज 1.8 प्रतिशत को सार्वजनिक शौचालय तक पहुंच हासिल है. वाराणसी में 1 भी गांव को खुले में शौच से मुक्त घोषित नहीं किया जा सका है.

ओबीसी टोला में मैंने जो ज्यादातर शौचालय देखे उन पर ताला लगा हुआ था. जिन लोगों के पास इनका मालिकाना हक था उनके पास ताला लगाने को लेकर अलग ही कहानी थी. एक गांव वाले ने मुझसे कहा कि लैट्रिन में जाने से उसे खुजली होती है इसकी वजह से वह खुले में ही जाता है. पटेल बस्ती के एक ने मुझसे कहा कि इसकी दीवारें ऐसी हैं जिनकी वजह से सर्दियों में भी अंदर काफी गर्मी हो जाती है और बैठना मुश्किल हो जाता है. कई गांव वालों ने कहा कि स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत में बनाए गए शौचालयों को लेकर उनकी भी बिल्कुल यही शिकायत है और जिन्होंने बाद में शौचालय बनवाया उन्होंने इसका ध्यान रखते हुए ईंट और सीमेंट की दीवारें बनाई जो तुल्नात्मक रूप से महंगी हैं.

स्वच्छ भारत मिशन के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए नागेपुर के ओबीसी इलाके में अक्सर एक घर में कई शौचालय होते हैं, जबकि गांव के दलित इलाके में मुश्किल से ही कोई शौचालय होता है. आनंद सिंह/कारवां

कई गंभीर शिकायतें भी थीं. मैंने नागेपुर में पानी के पाइप के कनेक्शन वाला 1 भी शौचालय नहीं देखा. मैंने कई गांवों वालों से बात कि और पाया कि उनके शौचालयों में पानी नहीं होने की वजह से वे गंदे और बदबूदार हो गए हैं.

स्वच्छ भारत मिशन के दिशानिर्देशों के मुताबिक कई तरह के शौचालयों का निर्माण किया जा सकता है. ऐसे शौचालय हैं जिन्हें सीवेज लाइन से जोड़ा जाना है लेकिन गांवों में सीवेज लाइन नहीं हैं. ऐसे भी शौचालय हैं जो सेप्टिक टैंक से जुड़े हैं लेकिन ये काफी महंगे हैं. इनके अलावा दो गड्ढ़ों वाले शौचालय हैं, इनमें ऐसा होता है कि एक के भर जाने के बाद दूसरे का इस्तेमाल होने लगता है. एक के भरने में सालों का समय लगता है. मल को इस गड्ढे में बंद कर दिया जाता है जो एक समय के बाद किसी तरह की हानि पहुंचाने की स्थिति में नहीं रहता और फिर बाद में इसे साफ किया जा सकता है. अन्य विकल्पों में बेहद उन्नद “जैव-पाचक” और “जैव-टैंक शौचालयों की बात है जिनमें जीवाणुओं का इस्तेमाल किया जाता है जिससे बाद में टैंक के भीतर कुछ बचता ही नहीं है.”

दो-गड्ढों वाला शौचालय इनमें सबसे सस्ता है. स्वच्छ भारत मिशन के मुताबिक इनमें से एक के निर्माण में 15 से 20 हजार तक का खर्च आता है. इसके बाद के किसी भी तरह के शौचालय के निर्माण में 20 हजार से अधिक का खर्च आता है. स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण के तहत शौचालय बनाने वाले हर घर को 12 हजार रुपए की सब्सिडी की रकम दी जाती है और इसकी वजह से हर घर के पास दो गड्ढे वाले शौचालय का विकल्प ही सबसे उत्तम विकल्प होता है.

पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के तहत बनाए गए नए शौचालयों से जुड़े श्रेणी-वार विश्लेषण नहीं जारी करता है. हालांकि, नागेपुर या ऐसी कोई भी जगह जहां मैं गया, मुझे एक भी जैव-पाचक या जैव-टैंक शौचालय नहीं नजर आया.

हालांकि, भारत के शहरों में भी खुले में शौच आम बात है, लेकिन इसके खिलाफ असली जंग तो गांव आधारित ही है. यूएन के अनुमान के मुताबिक भारत के गांवों की दो तिहाई आबादी खुले में शौच करती है, इसके मुकाबले शहरी इलाकों में ये काफी कम है. स्वच्छ भारत ने इसी के हिसाब से संसाधनों का आवंटन किया है और अभियान के तहत ग्रामीण इलाकों में 1.34 लाख करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं जो योजना की रकम का 60 प्रतिशत है. (इसके लिए विश्व बैंक रकम बदलने का एक तय रेट इस्तेमाल कर रहा है जिसके तहत 1 डॉलर के लिए 60 रुपए की रकम तय की हई. इस रेट पर 22 बिलियन डॉलर तक की रकम आती है.) इसके तहत 68 मिलियन घरों में शौचालय निर्माण का लक्ष्य रखा गया है. स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण की वेबसाइट के अनुसार, 2017 अप्रैल के अंत तक इनमें से 39 मिलियन का निर्माण किया जा चुका है -ये कुल लक्ष्य का 57 प्रतिशत है. पेयजल एंवम् स्वच्छता मंत्रालय ने लोकसभा को जानकारी दी कि शुरू होने से लेकर अब तक स्वच्छ भारत मिशन ने घरों में शौचालय निर्माण के लिए तय किए गए लक्ष्य से बढ़कर काम किया है और इनके निर्माण की गति बढ़ती ही जा रही है. मंत्रालय की संख्या के अनुसार 2015-16 में प्रति दिन 34500 शौचालयों का निर्माण किया गया और ये संख्या अगले साल बढ़कर 47000 हो गई.

शौचालयों की बढ़ती संख्या एकमात्र पैमाना है, जिस पर स्वच्छ भारत मिशन अब तक बड़ी सफलता का दावा कर सकता है. हालांकि निर्माण की संख्या में भारी इजाफे से जुड़े आंकड़े कई ऐसे मुद्दे को ढंक लेते हैं जिन्हें लेकर अभियान पर सवाल खड़े किए गए हैं- इनमें, जैसे कि मैंने नागेपुर में देखा, समाज के निम्न वर्ग की अनदेखी और व्यवहार में नहीं आने वाले बदलाव जैसी बातें शामिल हैं.

एक रिसर्च संस्थान ‘इंस्टीट्यूट फॉर कॉम्पैशनेट इकॉनमिक्स’ की रिसर्च डायरेक्टर संगीता व्यास ने ग्रामीण भारत में लोगों के व्यवहार का गहरा अध्ययन किया है. व्यास ने अपने अन्य साथियों के साथ ‘ग्रामीण भारत में खुले में शौच की समस्या: छूआछूत, प्रदूषण और शौचालय के गड्ढे’ नाम का पेपर लिखा, जो इसी साल छापा गया था. इसमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु के 3200 घरों का कई सालों तक किया गया सर्वेक्षण शामिल था. पेपर में कहा गया कि “खुले में शौच की समस्या इससे जुड़े संसाधनों और शिक्षा की कमी की वजह से नहीं है. बल्कि इसका लेना-देना विश्वास, आदर्श और शुद्धता से जुड़े चलन, प्रदूषण, जाति, छूआछूत जैसी समस्याओं से है. इनकी वजह से लोग शौचालय बनवाने की क्षमता के बाद भी ऐसा नहीं करते हैं.”

साल 2014 में संस्थान ने सर्वे आधारित एक रिपोर्ट बनाई. इसमें स्वच्छता की गुणवत्ता, इस्तेमाल, पहुंच और चलन जैसी बातें शामिल थीं. इसमें यह बात निकल कर सामने आई कि “40% प्रतिशत घर ऐसे हैं जिनके पास शौचालय तो है, लेकिन उनके घर का कम से कम 1 सदस्य खुले में शौच करता है”. सर्वे में शामिल कई लोगों का मानना था कि खुले में शौच के अपने फायदे हैं. इसमें कहा गया कि सिर्फ शौचालय निर्माण से खुले में शौच को लेकर जो मानसिकता है वह नहीं बदलने वाली. ये भी कहा गया कि “अगर बिना व्यवहार परिवर्तन के सरकार हर घर के लिए 1 शौचालय निर्माण करती है तो सर्वे में जिन राज्यों के लोगों ने हिस्सा लिया वे फिर भी खुले में शौच करेंगे.”

फोन पर हुई बातचीत में व्यास ने कहा कि भारत में कोई भी स्वच्छता अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक ये छुआछूत की समस्या का समाधान नहीं कर देता. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मनोज कुमार झा ने मुझे मेल पर दिए जवाब में लगभग यही बातें कहीं. उन्होंने कहा, “कोई भी ऐसा अभियान जो स्वच्छता से जुड़ा प्रभाव डालना चाहता है उसे प्रदूषण और शुद्धता से जुड़ी बातें करने होंगी, ये हिंदू जाति व्यवस्था का मुख्य अंग है. ब्राह्मणवादी मानसिकता से बाहर आने के लिए बेहद मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति की दरकार होगी.”

पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय की वेबसाइट पर ऐसे दर्जनों दस्तावेज पड़े हैं जो ट्रेनिंग और शिक्षा से जुड़े हैं, जिनमें स्वच्छ भारत मिशन से विशेष रूप से जुड़े सामान भी हैं. इनमें से किसी में जाति या मैन्युअल स्कैवेंजिंग का कोई जिक्र नहीं है.

अगर इसे भी दरकिनार कर दें तो भी सरकारी शौचालय निर्माण की जो रंगीन तस्वीर पेश करना चाह रही है उसे भी शक की निगाह से देखा जाना चाहिए. दिसंबर 2015 में दिल्ली स्थित एक थिंक टैंक “सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च” ने स्वच्छ भारत मिशन के लागू किए जाने से जुड़ा एक सर्वे किया. इस सर्वे में 5 राज्यों के 10 जिलों के 7500 घरों को शामिल किया गया- इनमें हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे राज्य भी शामिल थे. सर्वे से मिली जानकारी की तुलना सरकारी आंकड़ों से की गई. सरकारी दावों के अनुसार, जिन घरों में शौचालय होने का दावा किया गया था उनमें से 1/3 में शौचालय था ही नहीं. कई मामलों में सरकार की “उपलब्धियों की लिस्ट” को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए 1 ही व्यक्ति के नाम को कई जगहों पर लिख दिया गया था. इन इलाकों में बनाए गए शौचालयों में से 1/4 के लिए कोई सरकारी सहायता नहीं दी गई थी.

थिंक टैंक से जुड़ी एक वरिष्ठ सदस्य यामिनी अय्यर ने मुझे बताया कि “हमें अपने सर्वे से पता चला है कि सरकारी डेटा में खामियां हैं.” उन्होंने कहा कि सर्वे की टीम “को कई बार तो वे इलाके ही नहीं मिले” जिनका आधिकारिक आंकड़ों में जिक्र है. उन्होंने आगे जानकारी देते हुए कहा कि स्थानीय प्रशासन पर शौचालय निर्माण का लक्ष्य हासिल करने का भारी दबाव है. सर्वे ने अभियान के वित्तिय पहलू पर गौर नहीं किया था, लेकिन अय्यर ने कहा कि आम तरीका तो यही है कि सरकार एक योजना से जुड़ी सारी रकम जारी कर देती है. ये पहले दिए गए पैसों के खर्च नहीं होने की स्थिति में भी होता है.

अप्रैल के अंत में पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने 132 जिलों की लिस्ट बनाई. ये पूरे देश के जिलों का पांचवा हिस्सा है, जिसमें बताया गया कि इन्हें खुले में शौच से मुक्ति मिल गई है. स्वच्छ भारत-ग्रामीण के दिशानिर्देशों में इस बात का जिक्र है कि ऐसे दावों की स्वतंत्र जांच होगी, लेकिन अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. मंत्रालय ने एक रिपोर्ट में यह भी कहा है कि अप्रैल 2015 से दिसंबर 2016 तक 3226 शौचालयों का निर्माण हुआ है. इसे लेकर भी कोई स्वतंत्र जांच नहीं हुई है कि इनमें से कितने अभी तक काम कर रहे हैं.

मैंने पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के सचिव और स्वच्छ भारत-ग्रामीण के प्रमुख परमेश्वर अय्यर को कई बार फोन किया. मुझे फरवरी में उन्होंने समय देने की बात कही थी, लेकिन इसे अंतिम क्षण में रद्द कर दिया. हालांकि, मैंने इसके बाद एक बार फिर उनके ऑफिस से संपर्क साधा लेकिन मुझे उनका समय नहीं मिला.

जयापुर के प्रवेश द्वार पर यात्री प्रतीक्षालय बना है. इसकी छत धातु से बनी है और यहां 6 बेंच लगे हुए हैं, जिनमें से 1 उसका नकली संस्करण है जिसे मैंने नागेपुर में देखा था, वही जिसपर मोदी के नाम के साथ उनके पसंदीदा लाइनों में से एक लाइन लिखी थी. इसके पीछे मोदी की तस्वीर वाला एक बिलबोर्ड लगा है. इसके बाद एक खुले मैदान के पास स्थानीय पंचायत का ऑफिस है. मैं जब यहां शनिवार की सुबह पहुंचा तो ये बंद था.

ऑफिस के साथ मुझे दो अर्धनिर्मित शौचालय मिले. ये फाइबर प्रचलित प्लास्टिक से बने थे और स्थानीय लोग इसे “फाइबर” कहते हैं. दोनों पर स्वच्छ भारत मिशन के लोगो अलंकृत थे. एक महिलाओं के लिए था जिसके दरवाजों में छेद कर दिया गया था. अंदर, लैट्रिन की सीट टूटी हुई थी और बदबू आ रही थी. मर्दों के लिए साथ वाले शौचालय का दरवाजा नेस्तनाबूद कर दिया गया था और इसकी भी सीट भीतर से तोड़ दी गई थी.

वाराणसी से जयापुर के लिए कोई सीधा साधन नहीं है. वहां जाने के लिए मैं शहर के पश्चिम में 20 किलोमीटर बस से सफर करने के बाद राजतालाब पहुंचा और वहां से एक शेयर ऑटो पकड़ा जो गांव की तरफ जा रहा था.

दोपहर के बाद हम वहां से गुजर रहे थे और रास्ते में मैंने देखा की बच्चे स्कूल से लौट रहे हैं. उनमें से लड़का-लड़की सबने स्कूल की खाकी वर्दी पहन रखी थी. मुझे इसे देख कर जिज्ञासा हुई क्योंकि खाकी स्कूल ड्रेस का आम रंग नहीं है. जयापुर के सरपंच के घर पर मुझे बताया गया कि यहां चीजें अलग हैं. सरपंच वहां मौजूद नहीं थे लेकिन उनके युवा भतीजे अभय सिंह ने मुझे खुशी-खुशी वहां के बारे में बताया. उन्होंने मुझ से कहा कि मोदी के गोद लेने से बहुत पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने यहां अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा दी थी. ये संस्था बीजेपी और अन्य हिंदूवादी संगठनों की जनक है और ये वही संस्था है, जो मोदी को राजनीति में लेकर आई. (बाद में मैंने मीडिया की ऐसी रिपोर्ट्स देखीं जिनमें कहा गया था कि आरएसएस ने इस गांव को 2006 में ही गोद ले लिया था.) खाकी कपड़े में आरएसएस की खासी दिलचस्पी रही है. सिंह ने मुझे बताया कि इलाके के लगभग सभी लड़के संघ की शाखा के सदस्य हैं. शाखा संघ की स्थनीय इकाई होती है. 20 साल के सिंह खुद बचपन से शाखा के सदस्य रहे हैं.

सिंह ने मुझे बताया कि जयापुरा के 2/3 लोग भूमिहार या पटेल हैं. ये पारम्परिक तौर पर एक प्रभावशाली जाति रही है. बाकी आबादी दलितों की है, जिन्हें गांव की गैर दलित अबादी ‘हरिजन’ बुलाती है, यही मामला नागेपुरा में भी देखने को मिला था.

नागेपुरा की तरह यहां भी हर समुदाय टोलों में बंटकर रहता है. गांव में प्रवेश करने के पास जो इलाके हैं, वहां पटेल और भूमिहार रहते हैं और ईंट-सीमेंट से बनीं उनकी दो मंजिला इमारतें उनकी समृद्धि के बारे में काफी कुछ कहती हैं, वे भी तब जब इनकी तुलना नागेपुरा गांव की जर्जर इमारतों से की जाए तो. इन सभी घरों में शौचालय थे और कइयों में तो एक से ज्यादा थे. पटेल कॉलोनी के एक व्यक्ति ने मुझे एक शौचालय दिखाया जो इतना साफ था कि देख कर लगता था कि इसका कभी इस्तेमाल ही नहीं किया गया है. उसने मुझे बताया कि उसके यहां एक और शौचालय भी है, उसे इस्तेमाल कर वह इसमें ताला लगा देता है. उसने कहा कि दोनों शौचालयों का निर्माण स्वच्छ भारत मिशन के तहत हुआ है.

एक ही व्यक्ति के घर में कई शौचालयों का होना इकलौती बात नहीं थी जो जयापुर और नागेपुरा के कई घरों में समान थी. बल्कि, यहां के लोगों में भी शौचालय बन जाने की वजह से उनकी प्रवृति में बदलाव नहीं आया था.

मैंने जितने भी शौचालय देखे, उनमें से ज्यादातर पर ताला लगा था. उनमें से कुछ को मैंने उनके मालिकों द्वारा खुलवाकर देखा और उन्हें उनकी पुरानी हालत में पाया. हालांकि, इनमें से किसी को देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि इनका इस्तेमाल हुआ है. इनके मालिकों का कहना था कि वह इन्हें इस्तेमाल करते हैं. हालांकि, कई गांव वालों की शिकायत थी कि उनके पड़ोसी शौचालय का इस्तेमाल कभी नहीं करते और खुले में शौच करते हैं. एक घर के पास मैंने देखा कि एक शौचालय को खुला छोड़ा गया है. जब मैंने इसके भीतर देखा तो पता चला कि इसे सामान रखने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

नागेपुर और यहां के मामले में एक और बात एक जैसी थी. दरअसल, यहां भी दलित और गैर दलित आबादी के जीवन के स्तर में भारी अंतर था. जयापुर के दलित टोले में जाने के लिए मुझे बाकी के गांव से 1 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ा. वहां की सड़क पर बजरी बिछी थी और तारकोल डाला जाने का इंतजार था. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होना था और वहां काम कर रहे मजदूरों का दावा था कि मोदी के आदेश पर सड़क का पुनर्निर्माण किया जा रहा था. इस सड़क का काम दलित टोले के पास जाकर अचानक से रुक गया था. उस टोले के एक निवासी ने मुझसे कहा कि उससे ठेकेदार ने कहा था कि सड़क सिर्फ यहीं तक बनाए जाने का आदेश है.

टोले के सभी घर छोटे थे और उनमें से कई मिट्टी के थे, कुछ ही घरों में शौचालय था. यहां पानी का मुख्य श्रोत कुआं था.

दलित टोले के ठीक बाहर मैंने दो अर्धनिर्मित शौचालय देखे, वैसे ही जैसे मैंने पंचायत कार्यालय के बाहर देखे थे. वहां मौजूद एक दुकानदार ने मुझसे कहा कि महिलाओं ने उनके लिए बने शौचालय का इस्तेमाल करना शुरू किया था जिसे बाद में बंद कर दिया. इसके पीछे की वजह ये रही कि इस्तेमाल के बाद सफाई के लिए पानी नदारद था. उसने कहा कि जब शौचालय गंदा हो गया और इसके इस्तेमाल बंद हो गया तो किसी ने इसका दरवाजा तोड़ दिया. पुरुषों का शौचालय भी बदबूदार हो गया है और उस पर भी ताला मार दिया गया है. दुकानदार को ताला मारने वाले के बारे में कुछ पता नहीं था.

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की महज़ एक तिहाई (1/3) आबादी के पास पाइप से आने वाला पानी है. शहरी इलाकों में ये आबादी दो तिहाई (2/3) है. राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत आता है. 2016 से इसके तहत ये प्रयास किया जा रहा है कि 2017 के अंत तक कम से कम आधे ग्रामीण घरों तक पानी का कनेक्शन पहुंचाया जा सके.

बाद में मेरी बात गांव के सरपंच नारायण पटेल से हुई. उन्होंने गांव में बने कई शौचालयों की गुणवत्ता को लेकर शिकायत की. मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत जयापुर को गोद लिया और गुजरात के सांसद चंद्रकांत रघुनाथा पाटिल को इसके विकास कार्य के देख-रेख की जिम्मेदारी दी. पटेल ने मुझे बताया कि पाटिल की देख रेख में 400 “फाइबर” शौचालयों का निर्माण हुआ. इसमें बहुत मेहनत नहीं लगती क्योंकि सिर्फ गडढों का निर्माण करना होता है. पटेल ने कहा कि उन्होंने इसके लिए “हां” नहीं कहा था, क्योंकि इनकी गुणवत्ता काफी खराब है.

जब मैंने जयापुर में बने शौचालयों की स्थिति जानने के लिए पाटिल को फोन किया तो उन्होंने कहा, “हमने तो बहुत बढिया बनाकर दिया था, अब कोई जानबूझ कर तोड़ देगा तो क्या करेंगे?” जब मैंने उन्हें सरपंच की शिकायत से अवगत कराया तो उन्होंने उस पर ध्यान नहीं दिया और मुझसे पूछा कि क्या मैंने गांव जाकर खुद देखा है. मैंने “हां” में जवाब दिया. जिसके जवाब में उन्होंने कहा, “हमने तो ब्लॉक वाला बनवाया था, फाइबर का तो दिया ही नहीं.” पाटिला ने कहा कि इस काम के दो साल बीत जाने की वजह से उन्हें याद नहीं है कि उन्होंने जयापुर में कितने शौचालय बनवाए थे.

जयापुर में सांप्रदायिक शौचालय का निर्माण किया गया था, लेकिन वे भी प्रयोग के लायक नहीं हैं. आनंद सिंह/कारवां

फरवरी की शुरुआत में मैंने वाराणसी के आस-पास 5 दिन बिताए. जब मैं नागेपुरा या जयापुर में नहीं होता तो शहर भ्रमण कर रहा होता था. शहर काफी गंदा था. मैंने देखा कि सीवेज से भारी मात्रा में लीक होकर चीजें बह रही हैं, सड़कों पर कूड़ा पसरा है, नाले खुले हुए हैं और शाम होने पर मर्द खुले में मूत्र त्याग कर रहे हैं. इसमें शहर के जाने माने घाटों को भी नहीं बख्शा जा रहा है.

इक्का-दुक्का सार्वजनिक शौचालय भी थे और ऐसा एक भी नहीं था जिसकी स्थिति अच्छी हो. दशाश्वमेध घाट पर मुझे कुछ यहां से वहां ले जाने लायक कुछ शौलाचय नजर आए. इनके फर्श पेशाब से भरी हुई थी, शौचालय की सीट पर मल लगा था और कुछ टूटे हुए थे. मैं वहां तीन दिन रुका और इस दौरान शाम में घाटों पर शानदार गंगा आरती होती. आरती के समय इन शौचालयों पर ताला लगा दिया जाता.

देखने के लिहाज से जो सबसे साफ सार्वजनिक शौचालय नजर आया, वह मलदहिया क्रॉसिंग का एक मूत्रालय था जो रेलवे स्टेशन के पास था. अंदर से भी इसे साफ कहा जा सकता था, हालांकि इसमें भी पानी नहीं था और इससे जोरदार बदबू आ रही थी.

मैं वाराणसी नगरपालिका के कार्यालय गया. ये शहर में स्वच्छ भारत का प्रशासनिक प्राधिकरण है. मैंने यहां लोगों के लिए बना शौचालय देखा. इससे बदतर शायद ही कुछ हो सकता था. कोई इसे इस्तेमाल नहीं कर रहा था और मेरी भी हिम्मत नहीं हुई.

शहर के जिस इकलौते हिस्से को साफ कहा जा सकता था, वह था बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का प्रांगण, ये दक्षिणी कोने पर स्थित है. हालांकि, यह पास शहर के सबसे गंदे इलाकों में से एक इलाका था. अपने इस काम के दौरान मैंने शायद ही ऐसा कुछ देखा था. इसके मशहूर विश्वनाथ मंदिर के दरवाजे से 10 मिनट पैदल चलने पर रविंद्रपुर नाम की एक आवासीय कॉलोनी थी. इसके बीच में एक गली थी जो इतनी संकरी थी कि इसमें दो लोग एक साथ नहीं गुजर सकते थे. यहां पर कई झोपड़ियां बनी थीं. इनकी लंबाई इतनी कम थी कि कोई व्यक्ति इसमें शायद ही सीधे खड़ा हो पाए. इस हिस्से को लंबी दीवारों ने चारों तरफ से घेर रखा था जिसकी वजह से यहां रोशनी की कमी थी. पास की सड़क से तो ये देखना असंभव है कि ऐसी कोई गली जो इस बस्ती में जाती है. मुझे इस जगह का पता विश्वविद्यालय के कुछ दलित और ओबीसी छात्रों से चला.

इन झोपड़ियों में रहने वाले मुसहर जाति के लोग हैं, ये जाति व्यवस्था की सबसे निचली जातियों में आती है. उन्होंने मुझे बताया कि हाल के वर्षों में उनके पड़ोस के लोगों ने अपनी दीवारें लगातार ऊंची की हैं. यहां पानी का कोई श्रोत नहीं है और किसी झोपड़ी में शौचालय भी नहीं है. जिनसे मैंने बात कि उन्होंने बताया कि वे यहां से विश्वविद्याल परिसर जाकर वहां का सार्वजनिक शौचालय इस्तेमाल करते हैं और यहीं से पानी भी लेते हैं. उन्होंने इस बात की भी शिकायत की कि पुलिस वाले हमेशा उन्हें परिसर से भगाते रहते हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक वाराणसी शहर में 26000 घर हैं, इनमें 11 प्रतिशत में शौचालय नहीं हैं. इनमें से 8 में से 1 को ही सार्वजनिक शौचालय तक पहुंच हासिल है, बाकी खुले मैं शौच करते हैं.

अहमदाबाद की तर्ज पर वाराणासी में भी स्वच्छ भारत से हुए लाभ की पहुंच हाशिए के लोगों तक नहीं दिखी और यहां भी सफाई कर्मचारियों की वही दुर्गती है जैसी अहमदाबाद में थी.

अहमदाबाद की तुलना में वाराणसी में सड़कों पर कम सफाई कर्मचारी नजर आए. उनकी तलाश में मैं जवाहरनगर पहुंचा. ये जगह घाटों से कुछ दूरी पर बसी है. यहां 100 के करीब जर्जर घर थे जिनमें डोम जाति के लोग रहते थे. जाति व्यवस्था के हिसाब से इनका काम साफ-सफाई करना है. यहां चंद शौचालय थे लेकिन साफ पानी का कोई जरिया नहीं था. इसके एक तरफ एक बड़ा सा खुला हुआ नाला बह रहा था, जो खुले शौचालय की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था. वहां के लोगो ने बताया कि पीने का पानी तो वो टैंकर वाले ट्रक से लेते हैं लेकिन बाकी के कामों के लिए उनके पास नाले के पानी के सिवा कोई विकल्प नहीं है.

मैं मर्दों और युवा लड़कों के एक समूह से मिला जो ठेकेदारों के लिए सफाई कर्मचारी का काम करते थे. उन्होंने कहा कि उनकी जिम्मे शहर के सामुदायिक शौचालयों को अहले सुबह साफ करने का काम है. वहीं, उन्हें सड़क से लोगों और जानवरों का मल भी साफ करना पड़ता है. शहर में जब किसी गाय या कुत्ते की मौत होती है तो इन्हें ही उनके शरीर को ठिकाने लगाना पड़ता है. वे भी इन कामों के लिए उसी तरह के चीजों का इस्तेमाल करते थे जैसा अहमदाबाद के सफाई कर्मचारी करते थे.

अति तो ये है कि इनसे गोता लगाकर जाम हुए नालों को खुलवाने का भी काम किया जाता है. इस काम को करने वालों में शामिल श्यामहरी चौधरी ने बताया कि इससे शरीर की सुरक्षा के लिए उनके पास इकलौता विकल्प ये होता है कि वे अपने शरीर पर सरसों का तेल लगाएं. इससे नाले की गंदगी उनके ऊपर नहीं चिपकती. उन्होंने कहा कि सफाई का साधन मांगने पर, “ठेकेदार हमें गाली देता है और नौकरी से निकाल देता है.”

स्वच्छ भारत से हुए बदलाव के बारे में चौधरी कहते हैं कि उनके इलाके में मलेरिया और डेंगू के मामले बढ़े हैं क्योंकि अभियान को लॉन्च होने के बाद इस इलाके में कूड़ा प्रसंस्करण प्रोजेक्ट पर काम हुआ. एक आदमी मुझे कूड़ा प्रसंस्करण वाली जगह ले जाने को तैयार हुआ और उनके साथ एक लड़का भी चल पड़ा.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पास मुसहर बस्ती में कोई शौचालय नहीं है और न ही पानी का कोई स्रोत है. आनंद सिंह/कारवां

स्वच्छ भारत मिशन के तहत 500 घरों की बस्ती को केंद्र सरकार से ठोस अवशेष के प्रसंस्करण के लिए 20 लाख तक मिल सकता है. ठोस अवशेष में पौधे तक आते हैं जिनको रीफ्यूज करने पर बिजली पैदा हो सकती है. बड़े शहरों के लिए सरकार इस काम के लिए कुल रकम का 35% देती है.

ये प्लांट डोम बस्ती के किनारे बना था. हमें यहां पहुंचने के लिए एक बड़ा अहाता पार करना पड़ा, जिसके एक ओर सूखा कूड़ा पड़ा था और दूसरे ओर कीचड़ पसरा था. इसके बीच का रास्ता एक ऐसी मशीन की ओर जाता था, जो कई डबल डेकर बसों की साइज की थी. वहां कुर्सी पर एक आदमी बैठा था और दूसरा कंप्यूटर पर काम कर रहा था. सब खुले आसमान के नीचे हो रहा था.

मैं बैठे हुए लोगों में से एक के पास पहुंचा और पूछा कि यहां का प्रभारी कौन है. उसने मुझसे उसके साथ चलने को कहा और भी मेरे साथ आए लोगों को सख्ती से कहा कि वे जहां खड़े हैं, वहीं खड़े रहें.

मैं मशीन की दूसरी तरफ जाकर यहां के प्रभारी से मिला. उन्होंने अपना नाम बताने से इनकार कर दिया लेकिन प्लांट के बारे में बताने के लिए राजी हो गए. बताया गया कि प्लांट में हर दिन 10 टन अपृथक्कृत कूड़ा आता है. फिर इसे अलग किया जाता है, जो जैविक होता है उसे मशीन में डाला जाता है और मशीन इससे बायोगैस उत्पन्न करती है. इस बायोगैस का इस्तेमाल बिजली बनाने में किया जाता है. प्रभारी ने कहा कि इस प्लांट से 45 किलोवॉट बिजली उत्पन्न होती है जिसे शहर को दिया जाता है. उन्होंने कहा कि अजैविक कूड़ा उपयोगी नहीं होता इसलिए वापस गिराने के लिए भेज दिया जाता है.

जनवरी 2016 में केंद्र सरकार ने सभी बिजली कंपनियों के लिए ये जरूरी कर दिया कि वे ऐसी सुविधाओं से पैदा होने वाली सारी बिजली खरीद लें. सरकार ने इसके लिए एक खास कीमत तय की है. इस साल फरवरी में एक सम्मेलन हुआ था. इसमें रमकी समूह के कूड़ा प्रबंधन कंपनी के प्रमुख गौतम रेड्डी ने इस फैसले का स्वागत किया. लेकिन साथ ही ये भी कहा कि ऐसे कई कारखानों से पैदा होने वाली बिजली की खरीद के लिए कीमत तय होनी है- इसके लिए उन्होंने "व्युत्पन्न ईंधन की सहायता नहीं लेने वाले" कारखानों का उदाहरण दिया जहां ईंधन की जगह दहनशील अपशिष्ट का इस्तेमाल किया जाता है, और अप्शिष्ट से बिजली वाले कारखाने अभी भी व्यावसायिक रूप से सही नहीं हैं. उनके मुताबिक भारत में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन सुविधाएं संघर्ष कर रही हैं और इस क्षेत्र को ज्यादा निवेश और नई तकनीक की दरकार है.

मार्च में शहरी विकास मंत्रालय ने ट्वीट किया कि “स्वच्छ भारत मिशन के तहत 23 राज्यों में कूड़े से बिजली बनाने वाले 60 कारखाने बन रहे हैं.” स्वच्छ भारत मिशन-शहरी की वेबसाइट पर ऐसा कोई डेटा नहीं है कि ऐसे कितने कारखाने बने हैं या बन रहे हैं या भारत में कूड़े से कितनी बिजली पैदा होती है. मैंने शहरी विकास मंत्रालय से आरटीआई लगाकर इसकी जानकारी मांगी लेकिन इसके लिए मना कर दिया गया. उन्होंने कहा, “आपने स्वच्छ भारत मिशन से जुड़े कई मुद्दों पर विस्तृत जानकारी मांगी है, जिसे सूत्रों से इकट्ठा करना पड़ेगा जिसमें एसबीएम के राज्य अभियानों के निदेशक और देश भर की नगरपालिकाएं भी शामिल हैं. ये आरटीआई के तहत नहीं हो सकता है.” केंद्रीय सूचना आयोग के मुताबिक जो कहा गया को आरटीआई के तहत जानकारी नहीं देने का आधार नहीं हो सकता है.

चाहे भारत में ऐसे कितने ही कारखाने हों, लेकिन ऐसा कहने में कोई हर्ज नहीं है कि अभी ऐसी क्षमता नहीं है कि देश भर में उत्पन्न होने वाले कूड़े का निष्पादन किया जा सके. पर्यावरण मंत्रालय के डेटा के मुताबिक 2014-15 में भारत के नगरों और शहरों में हर दिन 141064 टन कूड़ा पैदा होता था जिसमें से 90% के इकट्ठा किए जाने की बात कही जाती है. इसमें से सिर्फ एक चौथाई (1/4) का ही प्रसंस्करण हो पाता है. मैंने मंत्रालय से जानकारी मांगी कि किस तरह के कूड़े को किस तरह से निष्पादित किया जाता है और कितने से गड्ढे भरे जाते हैं. लेकिन जवाब आया कि “ऐसी जानकारी नहीं इकट्ठा की जाती जिसे आरटीआई के तहत बताया जा सके.”

देश में कूड़े के निष्पादन की अक्षमता के परिणामों की सबसे बड़ी बानगी अहमदाबाद में देखने को मिली. शहर के बाहरी हिस्से में दक्षिण की तरफ जा रही एक सड़क के करीब पिराना नाम की जगह है जहां शहर का कूड़ा फेंका जाता है. यहां कूड़े का ऐसा अंबार है जो एक किलोमीटर दूर से आसमान में जाता दिखाई देता है और इसकी सिलवटें और विस्तार की वजह से ये किसी पहाड़ सा लगता है. गुजरात हाई कोर्ट को दी गई जानकारी के मुताबिक ये 84 हेक्टेयर से ज्यादा में फैला हुआ है जिसमें 65 हेक्टेयर पहले से कूड़े से ढंका हुआ है. इसे समझने के लिए आप अपने दिमाग में करीब 100 फुटबॉल के मैदानों की तस्वीर बना सकते हैं. 2011 के अधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अहमादबाद के लोग हर रोज 2300 टन कूड़ा पैदा करते हैं जिसमें से महज 400 टन इकट्ठा करके उपयोग में लाया जाता है.

कूड़े के इस पहाड़ के ठीक नीचे बॉम्बे होटल नाम की एक मुसलमानों की बस्ती है. इसी बस्ती में सिटिजन नगर भी शामिल है. यहां वह लोग रहते हैं जो 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम विरोधी नरसंहार में पूरी तरह से विस्थापित हो गए थे. कागजी तौर पर तो ये इलाका मौजूद ही नहीं है. राज्य सरकार नरसंहार में बच गए लोगों से जुड़े इलाकों को पहचानने से इंकार करती है और इस बात के दावे करते ही कि इनमें से ज्यादातर अपने घरों को लौट गए हैं.

बॉम्बे होटल की स्वच्छता की आधारभूत संरचना का हाल भी मिल्लत नगर जैसा था. यहां पानी नहीं है और निवासियों को टैंकर से पानी लेना पड़ता है. नाले भी नहीं और चंद शौचालय बने हैं.

सिटिजन नगर के 40 घरों में से एक कमरे वाले एक घर में मैं मोहम्मद निजामुद्दीन नाम के एक बुजुर्ग से मिला. कमरे में इतनी ही जगह थी कि यहां एक बिस्तर और एक बेंच लग सके. निजामुद्दीन इसमें अपनी बीबी, दो बच्चों, एक बहू और उनके दो बच्चों के साथ रहते थे. घर में शौचालय नहीं था. निजामुद्दीन ने बताया कि परिवार खुले में शौच करता है. यहां की हवा में कूड़े की सड़न की बदबू घुली हुई थी. पास में कई बड़े कारखाने थे जिनमें से कईयों से केमिकल निकल रहा था. हवा में जहरीला धुआं तैर रहा था. निजामुद्दीन की सात साल की पोती निखत बानों ने मुझे दिखाया कि उसके चेहरे पर लाल खरास पड़ा है और मुझे बताया कि उनके माता-पिता को भी ऐसा ही दाग हैं. निजामुद्दीन ने कहा कि उन्हें डॉक्टर ने कहा था कि ये केमिकल से होने वाले प्रदूषण का नतीजा है. उन्होंने कहा कि काश वे इस जगह को छोड़ पाते तो कब का यहां से चले गए होते लेकिन उनके पास जाने की कोई जगह नहीं थी.

जब मैंने स्वच्छ भारत मिशन-शहरी के गुजरात प्रमुख पूनमचंद परमार से बॉम्बे होटल का हाल बयां किया तो उन्होंने मुझसे कहा कि राज्य सरकार ठोस अपशिष्ट उपचार संयंत्र बनाने की योजना बना रही है जिससे स्थिति में सुधार आएगा. उनके कर्मचारी ने बाद में मुझे एक डेटा शीट दी, जिसके मुताबिक गुजरात के नगरों और शहरों में रोज 10500 टन कूड़ा उत्पन्न होता है. वहीं इसमें यह भी लिखा था कि सिर्फ 7 नगर या शहर ही अपने कूड़े को सैनिटरी डंप साइटों में गिराते हैं. इसके मुताबिक कूड़े से बिजली बनाने के 7 बड़े प्रोजेक्ट अलग-अलग स्तर पर जारी थे. इसी के मुताबिक अभी गुजरात में ऐसा 1 भी कारखाना नहीं है.

वाराणसी में ऐसे कारखाने के मेरे छोटे से दौरे के दौरान वापसी में मुझे मेरे डोम साथी इसके प्रांगण में नहीं मिले. मुझे वे वहीं दिखाई दिए जहां हम पहली बार मिले थे और मैं उनका शुक्रिया अदा करने गया. मेरे बोलने से पहले रामानी ने कहा, “आपने देखा वहां क्या हुआ! लोग हमें अछूत समझते हैं. ये हमारा घर है, हमारी बस्ती है लेकिन हम उस गेट में नहीं घुस सकते हैं.” जो लड़का हमारे साथ था उसने कहा कि उससे कहा गया, “तुम लोग यहां मत आना.”

वाराणसी में जो जिस एक बात पर मैंने सबसे ज्यादा गौर किया वो ये थी कि शहर में जब मैं घूम रहा था तो मुझे कोई बड़ा मलप्रवाह वाला नाला नहीं दिखा. न तो वाराणसी में न ही कहीं और मुझे इस बार में न तो सुनने और न ही देखने को मिला की सीवेज लाइन बिछाई जा रही हैं.

जहां तक स्वच्छ भारत मिशन शहरी की बात है, इस बात पर किसी का ध्यान नहीं है. अभियान से जुड़े दिशानिर्देशों में सीवेज से चीजें इकट्ठा करने या इन्हें प्रोससे करने से जुड़ी कोई बात ही नहीं है. पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2015 तक भारत में मौजूद सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट देश के शहरों और नगरों से उत्पन्न होने वाले महज 37 प्रतिशत को संसाधित करने में सक्षम है.

मार्च में लोकसभा की एक बैठक के दौरान पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के राज्य मंत्री रमेश चंदप्पा जिगाजीनागी से एक सांसद ने सवाल किया कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत क्या केंद्र सरकार के पास कोई राष्ट्रीय योजना है, जिसके तहत “मानव जनित मल और शौचालयों के निकलने वाले पानी का निष्पादन किया जा सके.” जवाब में राज्यमंत्री ने मल जनित कीचड़ और सेप्टेज प्रबंधन की राष्ट्रीय नीति की ओर ध्यान आकर्षित कराया. शहरी विकास मंत्रालय ने इसी साल फरवरी में इसका उद्घाटन किया था. ये स्वच्छ भारत मिशन के उद्घाटन के दो साल बाद हुआ. हालांकि, इसके अपने शब्दों में ये सिर्फ नीति दास्तावेज नहीं है और इसका काम “राज्यों और शहरों के लिए संदर्भ, प्राथमिकता और दिशा तय करना है.” ये कोई लक्ष्य या समयसीमा नहीं तय करता और ये भी नहीं बताता कि काम के लिए मद कहां से मिलेगा. हां, इसमें स्वच्छ भारत मिशन के सीवेज मैनेजमेंट प्लांट के मामले में हाथ तंग होने को लेकर चेतावनी जरूर है.

सिटिजन नगर में वे लोग रहते हैं, जो 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम विरोधी नरसंहार में पूरी तरह से विस्थापित हो गए थे. कागजी तौर पर तो ये इलाका मौजूद ही नहीं है और राज्य सरकार नरसंहार में बच गए लोगों से जुड़े इलाकों को पहचानने से इंकार करती है. सैम पंथकी/एएफपी/गैटी इमेजिस

इसमें लिखा है: अगर सरकार का असली अनुमान सही साबित होता है, तो स्वच्छ भारत मिशन-शहरी पर 62000 करोड़ का खर्च आएगा. ये स्वच्छ भारत मिशन पर खर्च की जाने वाली कुल राशि का 28% है. केंद्र सरकार ने अपने बजट से 14600 करोड़ और राज्यों ने अतिरिक्त 4900 करोड़ रुपए देने का वादा किया है. कैंपेन के दिशानिर्देशों के मुताबिक बाकी का फंड अन्य श्रोतों से जारी किया जाना है जिनमें कैंपेन से लाभ पाने वालों द्वारा निवेश, निजी कंपनियों के साथ भागीदारी, निजी व्यक्ति और व्यापार संघों द्वारा चंदा, खुले बाजार से उधारी और अन्य अभियानों से इकट्ठा किए गए पैसे के अलावा अंतरराष्ट्रीय विकास बैंक जैसे बहुपक्षीय संस्थाओं से सहायता भी शामिल है.

उदाहरण के लिए शहरी इलाकों में शौचालय के लिए हर घर को 4000 का मद मिलेगा और बाकी का खर्च इसे खुद करना पड़ेगा. समुदायों द्वारा बनाए जाने वाले शौचालयों के लिए कुल सरकारी मद 40% के करीब है. सार्वजिनक शौचालयों के लिए पूरी तरह से कॉर्पोरेट दान, पैसे देकर इस्तेमाल करने का मॉडल और “जमीन देने” का इस्तेमाल किया जाना है. उदाहरण के लिए, प्रचार के लिए जगहें देना. दिशानिर्देशों में पिछले साल हुए बदलावों के अनुसार, सरकार अब सार्वजनिक शाचौलयों के निर्माण में भी 40% योगदान करती है.

स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण का भी बजट केंद्र और राज्य सरकार के बीच जटिल तालमेल, फायदा पाने वालों के हिस्से और निजी सहयोगियों के अलावा आम लोगों और संस्थाओं द्वारा चंदे और अंतरराष्ट्रीय मदद पर आधारित है.

केंद्र सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन के लिए पैसे से जुड़े कई औपचारिक प्रावधान बनाए हैं. चंदा लेने के लिए “स्वच्छ भारत कोष” बनाया गया है. ये स्वायत्त शासकीय परिषद के तहत आता है जिसके प्रमुख व्यय विभाग के सचिव होते हैं, ये वित्त मंत्रालय के तहत आता है. भारतीय कानून के मुताबिक देश के उद्योगपतियों को अपनी आमदनी का 2 प्रतिशत दान में देना होता है. इसे “उद्योगपतियों का सामाजिक दायित्व” या सीएसआर कहते हैं. हालांकि, सरकार इस पैसे पर भी टैक्स लगाती है लेकिन फरवरी 2015 को जारी किए गए नए नियमों के तहत स्वच्छ भारत कोष के तहत जमा की गई राशि को टैक्स से छूट है. इसके अतिरिक्त, नवंबर 2015 से भारत सरकार ने देश भर में स्वच्छ भारत सेस (एक तरह का टैक्स) लगाया है जो सभी तरह की सेवाओं पर लगने वाले टैक्स का 0.5% है.

एक आरटीआई के जवाब में व्यय विभाग ने मुझे जानकारी दी कि फरवरी के मध्य तक स्वच्छ भारत कोष को 471.5 करोड़ रुपए हासिल हुए. इसका बड़ा हिस्सा प्राइवेट कंपनियों और पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग से आया था. पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिग सरकारी उपक्रम होती हैं, लेकिन इनमें निजी निवेश भी होता है. फंड के दिशानिर्देशों के मुताबिक, इन पैसों का इस्तेमाल नए शौचालय निर्माण, बंद पड़े शौचालयों को ठीक करने, बने हुए शौचालयों में पानी का कनेक्शन लगाने और कूड़े से जुड़े प्रोजेक्ट और सीवेज की देख-रेख के लिए होना है. विभाग ने कहा कि जनवरी के अंत तक स्वच्छ भारत कोष ने 66.3 करोड़ रुपए खर्च किए थे, ये इसे मिले कुल मद का महज 14% था. आरटीआई के जवाब से पता चला कि ये सारा पैसे शौचालय निर्माण में लगा था और बाकी के बताए गए किसी काम के लिए अभी तक कोई पैसा खर्च नहीं किया गया.

अहमदाबाद शहर के बाहरी हिस्से में पिराना नाम की जगह है जहां शहर का कूड़ा फेंका जाता है. यहां कूड़े का ऐसा अंबार है जो एक किलोमीटर दूर से आसमान में जाता दिखाई देता है. गुजरात हाई कोर्ट को दी गई जानकारी के मुताबिक ये 84 हेक्टेयर से ज्यादा में फैला हुआ है. अरुण विजय मथावन

पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने संसद को जानकारी दी थी कि इस जनवरी तक स्वच्छ भारत सेस से 13000 करोड़ जुटाए गए हैं. मेरे आरटीआई के जवाब में मंत्रालय ने कहा कि 2016-17 वित्त वर्ष में 10000 करोड़ रुपए आवंटित किए गए और इसके पिछले साल 2400 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे. इसमें आगे कहा गया कि इतने ही पैसे राज्यों को भी जारी किए गए हैं. लेकिन जैसा कि ये मद स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के आम बजट के तहत जारी किए गए हैं, इसकी वजह से ऐसा कोई डेटा नहीं है कि खास तौर पर ये पैसे किन चीजों पर खर्च हुए.

स्वच्छ भारत मिशन शहरी और ग्रामीण से जुड़े फंडिंग और इसके खर्च को इस तरह से तैयार किया गया है कि जमीनी स्तर पर इसकी जांच में कोई बाधा ना आए. जैसा कि चीजें अभी हैं, ये उस तरह से काम नहीं कर रहीं जैसी इनसे उम्मीद की गई थी.

स्वच्छ भारत मिशन-शहरी के दिशानिर्देशों के तहत पूरी फंडिंग का 60% प्रोजेक्ट पर खर्च करने के लिए है. इनमें शौचालय और कूड़ा प्रबंधन कारखाने शामिल है. अतिरिक्त 20% को जागरुकता अभियान पर खर्च किया जाना है. बाकी के 20% का इस्तेमाल इनाम की रकम दिए जाने के लिए किया जाना है. इन्हें उन नगरपालिकाओं को दिया जाना है जिन्होंने पहले दिए गए पैसे से अच्छा काम किया है. दिशानिर्देश इस बात का वादा करते हैं कि इन पैसों को तीसरी पार्टी द्वारा परिणाम की जांच पर जारी किया जाएगा. ये स्वतंत्र परियोजना समीक्षा और निगरानी एजेंसियां द्वारा किया जाएगा.

ये साफ नहीं है कि कौन सी एजेंसियां अभी इस तरह की समीक्षा कर रही हैं. मैंने शहरी विकास मंत्रालय से आरटीआई में पूछा कि इस काम में कौन सी स्वतंत्र एजेंसियां लगी हैं, उनके काम की क्या स्थिति है और उन पर कितना खर्च किया गया है? मार्च महीने में मंत्रालय का जवाब आया कि उनके पास ऐसी कोई जानकारी नहीं है.

शहरी विकास मंत्रालय का प्रोटोकॉल कहता है कि एक बार कोई शहरी प्राधिकरण किसी इलाके को खुले में शौच से मुक्त घोषित करता है, “तो किसी तीसरे से इसकी जांच करवा कर अंतिम ओडीएफ सर्टिफिकेशन (स्वच्छ सर्टिफिकेशन) लेना जरूरी है. एक तय अंतराल (हर छह महीने) के बाद ऐसे ही ओडीएफ सर्टिफिकेशन किए जाने हैं जिसके पीछे की मंशा ये है कि ओडीएफ दर्जा बरकरार रहे.” शहरी विकास मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने फरवरी महीने में संसद को जानकारी दी कि देश भर में 564 वैधानिक शहरों ने खुद को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया है और इनमें से 481 को तीसरी पार्टी द्वारा प्रमाणपत्र भी हासिल है. इनमें गुजरात के तो सभी शहर और नगर शामिल हैं, जिनमें जाहिर सी बात है कि अहमदाबाद भी शामिल है. ये तथ्य कि मंत्रालय के सत्यापन तंत्र ने इस बात की पुष्टि कि शहरों में खुले में शौच से जुड़ी जिस बात की घोषणा की गई वह असामयिक थी और इससे ये सवाल खड़े होते हैं कि क्या इससे जुड़े तंत्र पर्याप्त रूप से मजबूत हैं.

साल 2016 में भारत की गुणवत्ता परिषद ने देश के शहरों में स्वच्छता और सफाई का मूल्यांकन किया. भारत सरकार द्वारा स्थापित की गई इस स्वायत्त संस्था ने स्वच्छ सर्वेक्षण 2016 के नाम से अपनी ये रिपोर्ट जारी की जिसे इसे “शहरी विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए सर्वे का नाम दिया- स्वच्छ भारत मिशन के लिए ये अपनी तरह का पहला सर्वे था.” क्या ये संस्था एक स्वतंत्र संस्था के पैमानों पर खरी उतरती है, ये बहस का विषय है. इस संस्था के ज्यादातर सदस्य सरकारी नौकरशाह होते हैं और जैसा कि इसकी वेबसाइट से साफ है कि इसका प्रमुख प्रधानमंत्री द्वारा तय किया जाता है. सर्व सुरक्षा अभियान सालाना किया जाता है. 2016 में 73 शहरों को इसका हिस्सा बनाया गया था. इस साल इसने 500 शहरों को इसका हिस्सा बनाए जाने का वादा किया है.

वहीं, स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण से जुड़े दिशानिर्देशों में ऐसी कोई बात नहीं है कि इससे जुड़े पैसे परिणाम-आधारित होंगे. हालांकि, इसे मार्च 2016 में बदल दिया गया, ये तब हुआ जब सरकार ने विश्व बैंक के साथ एक सहमति पर दस्तखत किए और स्वच्छ भारत मिशन समर्थन अभियान बनाने पर राजी हुई. (स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के प्रमुख परमेश्वर अय्यर ने विश्व बैंक के लिए काम किया है और इससे जुड़ी बातचीत का हिस्सा थे.) इसके तहत विश्व बैंक ने 1.5 बिलियन डॉलर का ऋण देने को तैयार हुई है. इस रकम को ग्रामीण क्षेत्रों में इनाम के तौर पर बांटा जाना है. इनाम उन्हें दिया जाएगा जो सफाई की स्थिति को कायम रखते हैं. लोन में 25 मिलियन डॉलर की रकम को इस बात के लिए रखा गया है कि सरकार परियोजना प्रबंधन इकाई का गठन करे जो पैसे की देख-रेख का काम करे. वहीं, 147.5 मिलियन डॉलर को एक स्वतंत्र एजेंसी के लिए तय किया गया है. इसका काम राष्ट्रीय वार्षिक ग्रामीण स्वच्छता सर्वेक्षण करना होगा, जिससे जमीनी स्थिति का आंकलन किया जा सके.

इस समझौते के तहत ऐसा पहला सर्वे जो आगे के सर्वे के लिए उदाहरण के तौर पर काम आया 2016 के जून तक किया जाना था. इसे 20 हफ्तों में पूरा किया जाना था और लोन की पहले खेप जुलाई से सितंबर के बीच जारी की जानी थी- विश्व बैंक ने ये सालाना समय तय किया था.

एक साल बाद दूसरे सर्वे के लिए और पैसे दिए जाने थे, जिसमें ग्रामीण इलाकों के लिए इनाम भी शामिल था. इनाम उनके लिए था जिन्होंने पिछले सर्वे से बेहतर किया है. इसे हर साल दोहराया जाना था.

आज की तारीख तक सरकार ने इस काम के लिए किसी स्वतंत्र एंजेसी को नहीं चुना है. मई 2016 में पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने ऐसी एजेंसियों को उन तक पहुंचने को कहा था और इनमें से 6 का चयन भी किया गया लेकिन ये काम यहीं अटक गया. विश्व बैंक ने लोन से जुड़ा एक ढेला भी नहीं दिया है.

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के लिए देश भर में स्वच्छता के कार्य का सर्वे करता है. हालांकि, ये सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत आता है जिसकी वजह से ये स्वतंत्र मूल्यांकनकर्ता नहीं हुआ.

अगर पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय को मई में स्वतंत्र मूल्यांकनकर्ता के बारे में तय करना था, तो पहला 20 हफ्तों वाला सर्वे जिसके लिए विश्व बैंक से सहमति बनी थी सितंबर में पूरा हो जाता. इसके बाद लोन की पहली खेप उसी महीने मिल जाती. ग्रामीण इलाकों से जुड़ी इनाम राशि जुलाई से सितंबर के बीच हासिल हो जाती. इससे स्वच्छ भारत मिशन की अक्टूबर 2019 की समय सीमा से पहले इनके इस्तेमाल के लिए एक साल का समय मिलता. हालांकि, मंत्रालय द्वारा किसी तरह की देरी की वजह से पैसे जारी किए जाने में एक और साल की देरी हो सकती है, इसका मतलब ये होगा कि इनाम की पहली राशि गांवों में तब पहुंचेगी तब इस अभियान के समाप्त होने में महज एक महीने का समय बचेगा.

मैंने विश्व बैंक को स्वच्छ भारत मिशन सपोर्ट अभियान की स्थिति से जुड़े अपने सवाल भेजे. अप्रैल के मध्य में विश्व बैंक के एक प्रवक्ता ने मुझे एक संदेश भेजा, जिसमें कहा गया कि एक बार स्वतंत्र रूप से किए गए सर्वे के नतीजे हासिल हो जाए, “फिर विश्व बैंक तेजी से लोन की पहली किश्त जारी करने की ओर बढ़ेगा.”

वहीं, समझौते में इस बात पर जोर दिया गया है कि भारत सरकार को “प्रतिबद्धता शुल्क” के तौर पर हर साल लोन के नहीं इस्तेमाल किए गए हिस्से पर 0.25 प्रतिशत देना पड़ेगा. “ये लोन समझौते के 60 दिनों बाद लागू हो जाएगा और उस दिन तक लागू रहेगा जिस दिन पैसे निकाले गए हैं.” जैसा कि ये समझौता मार्च महीने में किया गया था, इसका मतलब ये है कि भारत सरकार को अभी तक विश्व बैंक को 3.75 मिलियन डॉलर देने हैं जो मोटा मोटी 24 करोड़ रुपए के करीब है. वह भी इसलिए क्योंकि लोन के पैसे का इस्तेमाल ही नहीं किया गया.

विश्व बैंक के एक प्रवक्ता ने मुझे बताया कि अभी तक भारत सरकार ने ये रकम अदा नहीं की है. इससे जुड़े एक आरटीआई में मैंने पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय से पूछा कि क्या भारत सरकार ने अभी तक इससे जुड़ी रकम अदा की है जिसके जवाब में मुझे लोन से जुड़ी शर्तें भेज दी गईं लेकिन और कुछ पता नहीं चला.

फरवरी में जारी किए गए “स्वच्छ भारत मिशन समर्थन अभियान” के एक स्टेटस रिपोर्ट में विश्व बैंक ने पूरे कार्यक्रम के “समग्र कार्यान्वयन प्रगति” को “मोटे तौर पर असंतोषजनक” करार दिया.

ये इकलौता मामला नहीं है जहां विश्व बैंक का प्रयास असफल होता नजर आया. नवंबर 2015 में संस्था ने स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के संभावित पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव के बारे में एक रिपोर्ट जारी की जिसमें कहा गया कि अभियान “सैद्धांतिंक रूप में सामाजिक बहिष्कार के जोखिम को संबोधित करता है”. कैंपेन के दिशा-निर्देश एक समय अंतराल पर “सामाजिक लेखा परीक्षा” का वादा करते हैं, लेकिन मजबूत निगरानी प्रणाली के मांग से “समावेश को भी परखा जाना है.” जब पर्यावरण पर पड़ने वाले संभावित प्रयास की बात आई तो रिपोर्ट ने वही कहा कि अभियान सैद्धांतिक रूप से मजबूत है. लेकिन ये भी कहा कि “पर्यावरण से जुड़ी नीतियों को लागू करना चुनौती है.” पर्यावरण आकलन से जुड़ी मेरी आरटीआई के जवाब में पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने जवाब दिया, “मंत्रालय द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का कोई अध्ययन नहीं करवाया गया है.” समाज पर पड़ने वाले असर के बारे में कहा गया, “मंत्रालय ने राष्ट्रीय वार्षिक ग्रामीण स्वच्छता सर्वे का प्रस्ताव दिया है जिसे साल 2017 में किया जाना है.”

स्वच्छ भारत मिशन-शहरी से समाज और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों से जुड़े सवालों की एक आरटीआई के जवाब में शहरी विकास मंत्रालय ने कहा इसने भी कोई सामाजिक और पार्यवरण पर पड़ने वाले प्रभाव से जुड़ा कोई अध्ययन नहीं किया है.

“स्वच्छ भारत मिशन” लॉन्च के दौरान मोदी बेहद नाटकीय अंदाज में दिल्ली के एक दलित आवासीय कॉलोनी में दर्जनों कैमरों के सामने वहां के एक पुलिस स्टेशन की आंगन में झाडू लगाते दिखे अतुल यादव/पीटीआई
अतुल अग्रवाल/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

अप्रैल के अंत तक स्वच्छ भारत ग्रामीण ने 3 राज्यों को लिस्ट किया- हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और केरल- इन्हें खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया. स्वच्छ भारत मिशन-शहरी ने गुजरात और आंध्र प्रदेश को सभी शहरी इलकों में खुले में शौच से मुक्त घोषित किया. स्वच्छ भारत मिशन के अन्य सह-मिशन का हिस्सा होने के नाते, शिक्षा मंत्रालय इस बात का दावा किया कि इसके जिम्मे भारत के हर स्कूल में सार्वजनिक शौचालय बनाने के काम है. महिला एवम् बाल विकास मंत्रालय ने फरवरी महीने में संसद में आंकड़े पेश किए और दावा किया कि देश की दो तिहाई (2/3) आंगनवाड़ियों में शौचालय हैं. एक आरटीआई के जवाब में पेयजल एवम् स्वच्छता मंत्रालय ने ये दावा किया कि मार्च के मध्य तक 20 लाख घरों में शौचालय बनाया जा चुका है. इन शौचालयों को कैंपेन की शुरुआत से अब तक प्रधानमंत्री आवास योजना और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के तहत बनाया गया है.

स्वच्छ भारत मिशन-शहरी और स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण की तरह बाकी से भी सह-मिशनों ने अपने दावों के स्वतंत्र जांच की रिपोर्ट को नहीं छापा है.

वहीं, नए रिपोर्टों में सरकार के कई दावों पर लगातार सवाल उठते रहते हैं. अप्रैल महीने में हिंदुस्तान टाइम्स ने खुले में शौच, सूखे शौचालय और मैन्युअल स्कैवेंजिंग की स्थिति पर रिपोर्ट छापी. रिपोर्ट उत्तराखंड के कई इलाकों पर आधारित थी. स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण का दावा है कि इन इलाकों में 100 प्रतिशत स्वच्छ शौचालय हैं. इसे लिखने वाली पत्रकार ने जब अपनी आंखों देखी सरकारी अधिकारियों से साझा की तो उनमें से कई ने दावे किए कि ऐसी चीजें अब हैं ही नहीं.

सभी सार्वजनिक शौचालयों में मैंने जिन्हें देखा, उनमें सबसे अच्छा भीकाजी कामा प्लेस था. ये दक्षिणी दिल्ली के व्यस्त व्यवसायिक इलाके में स्थित था. इसमें “नामा” केबिन की श्रृंखला थी-खास तौर पर डिजाइन की गई पूर्वनिर्मित इकाई जिसमें पानी बचाने के फीचर थे और सोलर पावर लाइट थी- ये एक टैक्स स्टैंड के पास एक-दूसरे के साथ खड़े थे. इनके ऊपर लगाई गई बड़ी सी टंकी इनके पानी का श्रोत थी और सभी केबिनों में पानी चालू था. यहां कोई बदबू भी नहीं थी. इसकी एक दीवार पर मुख्यता से स्वच्छ भारत मिशन का लोगो लगा हुआ था जिसके साथ लिखा था कि इसका निर्माण एनबीसीसी (इंडिया) लिमिटेड द्वारा किया गया है, ये राज्य के स्वामित्व वाला एक बड़ा उपक्रम है.

लेकिन यहां भी, जहां ये साफ था कि लैट्रिन बनाने में काफी प्लान और पैसे खर्च हुए हैं, सफाई कर्मचारियों की हालत दयनीय थी. 65 साल के छोटे कद वाले शांत कृष्ण चंद ने मुझे बताया कि उन्हें इस जगह की सफाई के लिए 7500 रुपए हर महीने मिलते हैं. उन्हें ये काम ओपी जिंदल समूह ने दिया था. ये काम सीएसआर के तहत दिया गया था और इसके लिए उन्हें फूलों के प्रिंट वाला कपड़ा पहनना पड़ता था जिस पर कंपनी का लोगो लगा था. पहली बार मैं शौचालय देखने सितंबर में गया और फिर मार्च में और दोनों ही बार देखा कि चंद बिना दास्तानों, मास्क और सुरक्षा यंत्रों के काम कर रहे हैं. सफाई के लिए उनके पास सिर्फ झाडू और ब्रश थे. उन्होंने कहा कि इस काम के लिए उन्हें न तो डिटर्जेंट मिलता है और न ही कीटाणुनाशक.

उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें हर बार किसी के इस्तेमाल करने के बाद भारतीय शैली वाले शौचालय को घुटनों पर बैठकर साफ करना पड़ता है. इनमें फ्लश नहीं है, सिर्फ नल और प्लास्टिक का मग है. चंद ने कहा कि ज्यादातर लोग मल नहीं बहाते हैं. उन्होंने कहा, “कुछ करते हैं लेकिन वैसे नहीं जैसे वह अपने घर में करेंगे.”

ये शौचालय दिल्ली नगरनिगम के अधीन है, जो राष्ट्रीय राजधानी के 11 में से 8 जिलों की देख-रेख करता है. इसकी नीतियों के तहत सार्वजनिक शौचालयों की देख रेख का काम ठेकेदार को दिया जाता है. भीकाजी कामा प्लेस के शौचालय के मामले में ये नीति कारगर दिखी, हालांकि इसके तहत सफाई कर्मचारियों को न तो सुरक्षा और न ही सम्मान मिलता नजर आया. बाकी जगहों पर ये पूरी तरह से असफल दिखा.

अक्टूबर में मैं, राजधानी के दो और नम्मा केबिनों को देखने गया. एक शास्त्री भवन में, ये इलाका सरकारी कार्यलाओं से पटा पड़ा है और संसद से कुछ ही दूरी पर है और दूसरा प्रीत विहार- ये पूर्वी दिल्ली में एक आवासीय इलाका है. दोनों की हालता खस्ता थी. यहां भारी गंदगी थी. टॉयलेट की सीटों पर मल और मूत्र चारों ओर फैला हुआ था. केबिन के भीतर लगे नलों और लाइटों को नोंच फेंका गया था. यहां मुझे कोई सफाई कर्मचारी भी नजर नहीं आया.

इनके अलावा सिंतबर से मार्च तक मैं शहर के 20 और शौचालय देखने गया. ये सब अलग-अलग तरह से बनाए गए थे. इनकी दीवार सीमेंट की थी जिसने इन्हें चारों और से घेर रखा था और इनके बाहर इस्तेहार लगे हुए थे. अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन के पास बने एक शौचालय के अलावा बाकी के सारे ऐसी स्थिति में थे, जिनका इस्तेमाल किया जा सके. यहां भी सफाई कर्मचारियों की हालत खस्ता थी.

एम्स के पास सार्वजनिक शौचालय में एक सफाई कर्मचारी ने मुझे बताया कि इसका पानी का कनेक्शन महीनों से खराब पड़ा है. यहां काफी भीड़ आती है. इसकी शिकायत इसके ठेकेदार से भी की गई थी. लेकिन इसे ठीक करने का कोई प्रयास नहीं किया गया. इसे साफ रखने के लिए सफाई कर्मचारी को लगातार आस-पास की जगहों से पानी लाना पड़ता था.

भीकाजी कामा प्लेस के पास एक और सार्वजनिक शौचालय जो नम्मा केबिन से दूर नहीं था, वहां एक सफाई कर्मचारी ने मुझे बताया कि बारिश में इसकी छत से पानी टपकता है और इसमें बिजली का कनेक्शन नहीं है. इस बात की शिकायत को भी ठेकेदार ने अनदेखा कर दिया था.

अक्षरधाम के जिस शौचालय में मैं दिसंबर में गया था, वहां पानी नहीं था, इसकी सीट गंदी थी और यहां कोई सफाई कर्मचारी नहीं था. बदबू तो ऐसी आ रही थी कि जान चली जाए.

जनवरी में स्वराज इंडिया पार्टी ने दिल्ली नगर निगम पर आरोप लगाए और कहा कि स्वच्छ भारत मिशन-शहरी के तहत इसे मिले पैसे में से इसने सिर्फ 1 प्रतिशत का इस्तेमाल किया है. नगरपालिका अधिकारियों ने आरोपों को खारिज कर दिया.

दिल्ली में जो शौचालय सबसे साफ नजर आए (जो देश के किसी अन्य हिस्से के मुकाबले भी बेहद साफ थे) इनमें मुझे किसी सफाई कर्मचारी के पास मूलभूत सफाई के साधन के अलावा कुछ नजर नहीं आया. इसकी वजह से अक्सर उन्हें शौचालयों की सफाई के लिए अपने नंगे हाथों का इस्तेमाल करना पड़ता था, यही वे सदियों से करते आए हैं. इस मामले में स्वच्छ भारत मिशन कोई सुधार नहीं कर पाया है. हालांकि, नेताओं ने, जिनमें मोदी भी शामिल हैं इस कैंपेन के मिशन को मैन्युअल स्कैवेंजिंग के अंत के बारे में बनाया है. लेकिन इससे जुड़े दस्तावेजों में कहीं भी उन खतरों का जिक्र नहीं है जिसका सामना सफाई कर्मचारी करते हैं. उन्हें इस काम के लिए पड़ने वाले उपकरणों की जरूरत की भी कोई बात नहीं या ऐसी भी कोई बात नहीं है शौचालय की सफाई के लिए इन कर्मचारियों को मशीन आधारित उपकरणों से लैस किया जा सके.

जिन 10 सफाई कर्मचारियों का दिल्ली में मैंने साक्षात्कार लिया उनमें से 9 दलित थे और 1 ओबीसी.

दलित इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के सलाहकार और दलित कार्यकर्ता चंद्र भानू प्रसाद ने मुझसे अप्रैल महीने में फोन पर हुई बातचीत में इस ओर इशारा किया. साल 2014 में अभी मोदी ने स्वच्छ भारत मिशन का उद्घाटन किया ही था कि इस दौरान राज्यसभा टीवी की एक बहस में आए प्रसाद ने इसकी प्रस्तुतीकरण और प्रतीकविद्या की आलोचना की. प्रसाद का कहना था कि मल के निष्पादन की विधि को प्रमोट किए जाने की जगह मोदी ने एक झाडू उठा लिया और इसे ही स्वच्छ भारत मिशन की स्वच्छता का अंतिम प्रतीक बना दिया. फोन पर प्रसाद ने कहा कि मोदी को मॉडर्न उपकरण का इस्तेमाल करना चाहिए था- जैसे की सक्शन पंप और हाई प्रेशर होस. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री “भारत को पुरातन सभ्यता की ओर ले जा रहे हैं. वे भविष्य की ओर देखने के बजाय भूत पर निर्भर रहने वालों में से हैं.”

प्रसाद ने उस जगह की भी आलोचना की जिसे मोदी ने अभियान को लॉन्च करने के लिए चुना. प्रसाद के मुताबिक इसे दलित बस्ती में शुरू करके मोदी ने चाहे-अनचाहे ये बात फिर से स्थापित कर दी कि दलित गंदे होते हैं. उन्होंने कहा, “अच्छी नीयत वाले व्यक्ति को इसे किसी प्रभावशाली और सवर्ण जाति के इलाके में शुरू करना चाहिए था. वह हमेशा गंदगी पैदा करते हैं, लेकिन कभी साफ नहीं करते.”

रेमन मैग्सेसे पुरस्कार जीतने वाले बेजवाड़ा विल्सन को ये अवॉर्ड सफाई कर्मचारी आंदोलन के लिए किए गए उनके कार्यों के लिए दिया गया था. उन्होंने भी स्वच्छ भारत मिशन की आलोचना की. उन्होंने सफाई कर्मचरियों की अनदेखी का सवाल भी उठाया. उन्होंने पूछा, “ये सरकार और मोदी, सफाई करने की तकनीक पर पैसे क्यों नहीं खर्च करते?” उन्होंने कहा कि ऐसे कैंपेन के बावजूद मैन्युअल स्कैवेंजरों को सक्शन पंप जैसी तकनीक नहीं दी जा रही. उन्होंने इसके प्रमोशन के तरीके पर भी सवाल उठाए. इसमें कई नेताओं-अभिनेताओं ने झाडू के साथ तस्वीर पोस्ट की है जिसे लेकर उन्होंने कहा कि इनमें से कोई शौचालय साफ करता नजर नहीं आया. उन्होंने कहा कि अगर अभियान ऐसे ही आगे बढ़ता रहा तो उन्हें डर है कि इसकी वजह से और अस्वच्छ शौचालयों का निर्माण होगा जिनकी सफाई के लिए और मैन्युअल स्कैवेंजरों की दरकार पड़ेगी.

पिछले साल के अंत में, दिल्ली नगर निगम ने अपने कुछ सार्वजनिक शौचालयों के रखरखाव के लिए नए निविदाओं को आमंत्रित करना शुरू किया. शाहिद तांत्रे/कारवां

पिछले साल के अंत में दिल्ली नगरपालिका ने नए ठेके मांगवाना शुरू किया. ये सार्वजनिक शौचालयों की देख-रेख से जुड़े थे. उत्तर दिल्ली नगर निगम के एक टेंडर ऑफर के मुताबिक बोली लगाने वाला शौचालय के एक बार के इस्तेमाल के लिए 5 रुपए ले सकेगा और प्रचार के लिए दीवार देकर किराया वसूल सकेगा. इसमें शौचालयों को रोज निस्संक्रामक से धोया जाने के अलावा कई और बातें भी कही गई थीं. हालांकि इसमें सफाई कर्मचारियों से जुड़ी कोई बात नहीं कही गई थी. उल्टे ये कहा गया था कि “अगर कंपनी किसी को काम पर रखती है तो वह उसी का कर्मचारी होगा. उनके लिए एनडीएमसी किसी स्थिति में जिम्मेदार नहीं होगी.”

जिन सफाई कर्मचारियों से मैं दिल्ली में मिला वे सब 7000 से 12000 के बीच की रकम हर महीने कमाते थे. उनकी कमाई उनके काम के घंटों और वे किस ठेकेदार के लिए काम करते हैं जैसी बातों से निर्धारित होती थी. कईयों ने बताया कि वे रात की पाली भी करते हैं ताकि थोड़े ज्यादा पैसे कमा सकें. भीकाजी कामा प्लेस वाले चंद ने मुझे बताया कि शुरुआत में उनके मालिक उन्हें 7 दिनों तक 8 घंटे काम के लिए 8500 रुपए देते थे लेकिन काम के कुछ महीनों के बाद अचानक से ये रकम घटाकर 7500 कर दी गई. उन्होंने कहा, “जब मैंने विरोध किया तो उन्होंने कहा कि मैं काम छोड़कर जा सकता हूं.”

मैंने उनसे पूछा कि वह इस उम्र में ऐसी जघन्य परिस्थितियों में इतने कम पैसों के लिए क्यों काम करते हैं. उन्होंने कहा, “भंगी है साहब, और क्या करेंगे.”

फरवरी में मैंने संदीप मिश्रा को फोन किया. वे दिल्ली के शहरी विकास विभाग के विशेष सचिव और शहर में स्वच्छ भारत मिशन-शहरी के अभियान निदेशक भी हैं. मैंने उनकी निगरानी में मिशन के तहत हुए विकास से जुड़े सवाल किए और पूछा कि हम साक्षात्कार के लिए मिल सकते हैं. मिश्रा ने कहा कि वे लगातार व्यस्त चल रहे हैं और मुझे समय नहीं दिया. मैंने पूछा कि क्या हम बाद में मिल सकते हैं. मिश्रा ने जवाब दिया, “कुछ खास हो नहीं रहा है दिल्ली में, बहुत उत्साहवर्धक नहीं है.” थोड़ी देर ठहर कर उन्होंने कहा, “तो उसमें कुछ बुलाने का भी फायदा नहीं है.”

(द कैरवैन के मई 2017 अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहा क्लिक करें.)


Sagar is a staff writer at The Caravan.