1980 के अंत में धीरूभाई अंबानी चाहते थे कि उनका एक अखबार हो. 1986 में इंडिया एक्सप्रेस ने लेखों की एक श्रृंख्ला छापी थी. कई सारे आरोपों के बीच कहा गया था कि रिलायंस इंडस्ट्रीज ने अपने शेयरों की कीमत बढ़ा कर पेश की है, टैक्स चोरी की है और पॉलिएस्टर फीडस्टॉक के उत्पादन में इसे मिले लाइसेंस की शर्तों का उल्लंघन किया. दौरान या तो सरकारी अधिकारियों ने अपने आंखें मूंद लीं या ऐसे फैसले लिए जो कंपनी की जरूरत को फायदा पहुंचाने वाले थे. प्रतिक्रिया में सरकार ने जांच की और ऐसे कदम उठाए जिसने रिलायंस को झटका लगा और धीरूभाई को घाटे को सीमित करने के लिए संघर्ष करना पड़ा. राजनीतिक धारा में बदलाव और चालाकी से भरी तिकड़मबाजी उन्हें प्रधानमंत्री राजीव गांधी के करीब ले आई और सरकार उलटा इंडियन एक्सप्रेस को अपना जोर दिखाने लगी. लेकिन तब तक अन्य मीडिया संस्थान भी रिलायंस के बारे में ऐसे तथ्य छापने लगे थे जिससे कंपनी असहज हो उठी.
धीरूभाई अंबानी की जीवनी द पॉलिएस्टर प्रिंस के नाम से छपी है. इसमें पत्रकार हामिश मैक्डॉनल्ड लिखते हैं कि रिलायंस के मुखिया “प्रिंट में इंडियन एक्सप्रेस को चुनौती देना चाहते थे” और “और कुछ सालों तक उन्होंने मीडिया के धंधे में आने पर चर्चा की थी.” धीरूभाई ने “बाजार में आने वाले कई अखबारों पर नजर डाली” और शुरुआत में द पेट्रीयॉट में नियंत्रक हिस्सेदारी सुरक्षित की थी, “इसमें नुस्ली वाडिया पर तीखे हमले किए गए थे. ये हमले एक्सप्रेस द्वारा चलाए जा रहे अभियान के खिलाफ थे.” व्यापार में वाडिया, धीरूभाई के अहम प्रतिद्वंदी थे और इंडियन एक्सप्रेस के मालिक के करीबी थे. 1998 में धीरूभाई के दामाद ने कॉमर्स को खरीद लिया. बॉम्बे से चलने वाला ये साप्ताहिक आर्थिक तंगी से गुजर रहा था “लेकिन इसके पास एक व्यापार और आर्थिक रिसर्च से जुड़ा एक उपयोगी ब्यूरो था.” इसे इस उम्मीद से खरीदा गया कि इसे मुख्यधारा के दैनिक में बदला जाएगा.
कॉमर्स की कमना हाई-प्रोफाइल एडिटर प्रेम शंकर झा के हाथों में सौंपी गई और इसका नाम बदलकर ऑब्जर्वर ऑफ बिजनेस एंड पॉलिटिक्स कर दिया गया. दिसंबर 1989 में ये छपना शुरू हुआ. इसी समय राजीव गांधी की सरकार की जगह एक गठबंधन सरकार आई थी. सरकार के मुखिया वीपी सिंह रिलायंस विरोधी थे. धीरूभाई के लिए यह एक समस्या थी. कुछ साल पहले इंडिया टुडे के साथ एक साक्षात्कार में उनसे पूछा गया था, “आपकी सफलता का एक कारण बाहरी माहौल को व्यवस्थित करने की आपकी क्षमता है. आप ऐसा कैसे करते हैं?” धीरूभाई ने जवाब दिया, “सबसे अहम बाहरी माहौल भारत सरकार है. आपको अपने विचार सरकार को बेचने होते हैं. यही सबसे अहम चीज है.”
धीरूभाई की जरूरतों को झा पूरा नहीं कर सके. उनकी पहुंच दूर तक थी लेकिन धीरूभाई को उनकी निष्ठा में विश्वास नहीं था. झा ने कुछ ही महीनों में अखबार छोड़ दिया और वीपी सिंह से जुड़ गए. वह पीएम के मीडिया सलाहकार बन गए. झा की जगह धरूभाई ऐसे व्यक्ति को लेकर आए जिस पर वे भरोसा कर सकते थे. ये व्यक्ति द पेट्रीयॉट के एडिटर-इन-चीफ आर. के. मिश्रा थे.
वीसी सिंह की सरकार असफल रही और एक साल के भीतर इसे भंग कर दिया गया. ऑवजर्वर भी असफल रहा लेकिन इसकी असफलता में समय लगा. न तो इसे पढ़ने वाले मिले और ना ही लोगों का भरोसा. 10 साल बाद इसे औपचारिक तौर पर बंद कर दिया गया. धीरूभाई ने अखबार के सहारे “बाहरी माहौल” और रिलायंस के बारे में विचारों को बेचने की जो उम्मीद लगाई थी वह अधूरी रह गई. लेकिन उनके प्रयासों से ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन का जन्म हुआ. आज के समय में यह संभवत: देश का सबसे बड़ा थिंक टैंक है.
अपनी वेबसाइट पर ओआरएफ ने यह नहीं बताया कि इसका जन्म एक मरे हुए अखबार से हुआ है लेकिन यह बताया गया है कि संस्था ने “1990 में व्यवहारिकता से प्रेरित विचार के तौर पर अपने सफर की शुरुआत की.”
2002 में धीरूभाई के निधन और उसके कुछ सालों बाद 2009 में खुद के निधन तक मिश्रा ने ओआरएफ की पतवार संभाले रखी. धीरूभाई के जीवनकाल में ओआरएफ की पूरी फंडिंग रिलायंस ही करता रहा और इसके बाद भी इसे मिलने वाला अहम समर्थन रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड से ही आता था. यह धीरूभाई निगम का हिस्सा है. जब उनके दोनों बेटों के बीच कड़वाहट भरा बंटवारा हुआ तो यह बड़े भाई मुकेश अंबानी के हिस्से चला गया. आज के दौर में मुकेश भारत के सबसे अमीर आदमी हैं और विश्व के भी सबसे अमीर लोगों में शामिल हैं. उनकी कुल संपत्ति 40 बिलियन डॉलर के करीब है.
हाल के सालों में ओआरएफ को कई वित्तीय सहायकों का साथ मिला है जिसमें कई तो विदेशों से हैं और इसकी कुल फंडिंग में रिलायंस के शेयरों का भी हिस्सा है. 2017-18 वित्त वर्ष में ओआरएफ को कुल 35 करोड़ मिले. उस समय यह लगभग 5.5 मिलियन डॉलर के करीब था. इसका 60 प्रतिशत हिस्सा रिलायंस से आया था. इसका हवाला देकर ओआरएफ कहता है कि वह इसे सबसे ज्यादा पैसे देने वाले के लिए काम नहीं करता, जैसाकि इसके बारे में अक्सर माना जाता है. इसके साइट पर मौजूद साहित्य और इसके प्रतिनिधियों के सार्वजनिक बयानों में ओआरएफ इस बात पर जोर देता आया है कि यह एक स्वतंत्र संस्था है और इसी से इसके तीरकों और लक्ष्यों को राह मिलती है. इसके सबसे बड़ा कार्यालय दिल्ली के केंद्र में स्थित है. यह अपनी तरह का एक अनोखा अधुनिक कॉमप्लेक्स है. इसे रिलायंस द्वारा साल 2000 में बनाया गया था. इसे बनाने में अनोखी वास्तुकला का इस्तेमाल किया गया है जिसमें ग्लास और कंक्रीट की सधी हुई लकीरें हैं. हालांकि, इन सबमें कहीं भी रिलायंस का जिक्र नहीं है. इसका मुंबई में भी एक कार्यालय है और ओआरएफ के आंतरिक पदक्रम में दिल्ली यूनिट इस पर भारी है. यह ऑफिस भी देखने लायक है. यह शहर के प्रतिष्ठित नरीमन प्वाइंट इलाके के ऑफिस टावर में स्थित है. यह रिलायंस इंडस्ट्रीयल इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के साथ अपने ऑफिस की जगह साझा करता है. जब मैं पिछले महीने यहां गई तो ऑफिस में एक फ्रेम में धीरूभाई अंबानी की तस्वीर दीवार पर टंगी थी. वहीं, रिसेप्शन डेस्क पर मुकेश अंबानी की मोबाइल कंपनी रिलायंस जियो का एक ब्रांडेड कैलेंडर टंगा था.
1/ उद्देश्य
ओआरएफ ने रिलायंस के टैग को हटाने की पुरजोर कोशिश की है और इसे समझा भी जा सकता है. थिंक-टैंक की दुनिया में स्वतंत्र होने का दावा विश्वसनीयता के लिहाज से अहम होता है- वह भी तब जब ज्यादातर थिंक टैंक अपने काम और फंडिंग को लेकर पारदर्शी नहीं हैं. भारत के सबसे पुराने थिंक टैंक सरकारों से संबद्ध हैं और उदारीकरण के दौर के पहले के हैं. माना जाता है कि उनके भीतर निष्पक्षता और विलक्ष्णता की कमी है, वहीं उनके पास फंड की भी कमी है और उन्हें बहुत तवज्जो नहीं दी जाती. कई मामलों में हाल ही में आए निजी क्षेत्र के इनके प्रतिद्वंदियों ने इन्हें अहमियत और सम्मान के मामले में काफी पीछे छोड़ दिया है. इनमें अमेरिका के दो शक्तिशाली संस्थान ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन और कार्नेगी एंडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के स्थानीय खंड भी शामिल हैं. खुद सरकार ने आधिकारिक थिंक टैंकों के साथ विश्वास की कमी पैदा की है और गैर-सरकारी थिक-टैंकों को सम्मान की जगह दी है. वर्तमान सरकार में तो यह और जमकर हुआ है.
सरकार की प्रथामिकता में आए बदलाव से ओआरएफ को खासा फायदा हुआ है. 2016 से इसने रायसीना डायलॉग का संचालन किया है. यह, देश की राजधानी में भारत और विदेश के वीआईपी लोगों के लिए सालाना जलसा होता है. इसका नाम दिल्ली के रायसीना हिल के नाम पर पड़ा है. रायसीना हिल में देश के प्रशासनिक ताकतों के सबसे अहम हिस्से मौजूद हैं. विदेश मंत्रालय रायसीना डायलॉग का पार्टनर होता है जिसकी वजह से इस पर आधिकारिक मुहर लगती है और फंडिंग का भी एक छोटा हिस्सा मिल जाता है. कार्यक्रम के कर्ताधर्ता के तौर पर ओआरएफ रिलायंस के पैसों को इस्तेमाल करते हुए सरकार की छवि का दोहन करता है, वहीं ऐसा करते हुए वह भारत सरकार के साथ अपनी नजदीकियों को भी प्रदर्शित करता है. कुछ ही सालों में रायसीना डायलॉग भारत के अहम भूराजनैतिक मंच के रूप में उभर कर सामने आया है. भारत समेत वैश्विक रूप से ताकतवर लोगों के बीच इसने अपने साथ इसने ओआरएफ के सम्मान को भी ऊंचा उठाने का काम किया है.
यह ओआरएफ के वैश्विक थिंक-टैंक रैंकिंग में हुए उछाल में भी नजर आता है. यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया द ग्लोबल गो टू थिंक टैंक इंडेक्स का संचालन करती है. 2018 में इसने गैर-अमेरिकी थिंक-टैंकों में ओआरएफ को 25वें नंबर पर रखा है. इस लिस्ट में 2014 में यह 82वें स्थान पर था. पिछले साल ओआरएफ इस सूची में भारत से पहले नंबर का थिंक टैंक था. इसे टक्कर देने वालों में इकलौता नाम इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस का था जो रक्षा मंत्रालय से संबंद्ध है और यहीं से उसकी फंडिंग होती है.
थिंक टैंकों को मिलने वाले पैसे और उनके काम करने के तरीकों की भारत में अच्छे से जांच नहीं हुई है. वहीं, उनकी बढ़ती संख्या और प्रभाव भी अपेक्षाकृत नया है. हालांकि, अमेरिका में नीति और बहस की धारा तय करने में इनकी भूमिका दशकों से प्रभावशाली रही है, इसलिए वहां ये बड़े विवादों और बहसों का मुद्दा हैं. समाजशास्त्री थॉमस मेडवेट्ज अपनी किताब थिंक टैंक इन अमेरिका में लिखते हैं, “किसी ने अभी तक उस बेहद बुनियादी सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं दिया है कि: आख़िर थिंक टैंक क्या होता है?”
ग्लोबल गो टू थिंक टैंक इंडेक्स के शोधकर्ता जेम्स मैकगैन इसे हल्के लहज़े में परिभाषित करने की कोशिश करते हुए कहते हैं, “यह सार्वजनिक-नीति से जुड़े अनुसंधान विश्लेषण और कार्य संगठन होते हैं जो नीति आधिरत अनुसंधान और विश्लेषण करते हैं और घरेलू से लेकर अंतरराष्ट्रीय मामलों पर सलाह देते हैं, इससे नीति निर्मताओं और लोगों को सार्वजनिक नीति से जुड़े जानकारी आधारित फैसले लेने में मदद मिलती है.” लेकिन कई विद्वानों को लगता है कि सिर्फ यह काम करने के अलावा भी थिंक-टैंक बहुत सी चीजें और करते हैं.
फॉउडेंशंस ऑफ अमेरिकन सेंचुरी में विद्वान इंद्रजीत परमार अमेरिका की विदेश नीति पर फोर्ड, रॉकफेलर, कार्नेगी फॉउंडेशन के गहरी भूमिका का अध्ययन करते हैं-इनमें यह इन सबके द्वारा दुनिया भर में लोक नीति में दखल का अध्ययन करते हैं. परमार का निष्कर्ष है, शताब्दी के करीब तक इन फॉउंडेशनों के विदेश से जुड़े जिन कामों पर इनकी नजर रही, “नेटवर्क का विचार लगातार बना हुआ है. नेटवर्क की जानकारी ही फॉउंडेशनों का प्रमुख साधन और उपलब्धि है.” इन नेटवर्कों के बारे में बात करते हुए परमार कहते हैं, “जब उन्हें अच्छे पैसे मिलते हैं तो वे शानदार काम करते हैं और प्रतिभाशाली और सबसे अच्छा करने वालों के लिए आकर्षक बने रहते हैं. वे विद्वानों और चिकित्सकों को काम के अच्छे वातावरण में साथ लेकर आते हैं. वे अपने लोगों को सम्मान देते हैं और महत्वपूर्ण ज्ञान क्या होता है इसकी लकीर खींचते हैं. वे विचार और समझ के रखवालों के तौर पर काम करते हैं, कुछ को प्रमाणपत्र देते हैं और बाकियों को खारिज कर देते हैं. वे तय करते हैं कि कट्टरता क्या है.” इस हिसाब से नेटवर्क “ऐसे जानकारी उत्पन्न करते हैं जिसे सार्वजनिक नहीं किया जाता” और फॉउंडेशन के प्रभाव में वहीं “जारी और बरकरार रहते हैं”. नेटवर्क “अंत होते हैं, न कि अंत के लिए एक माध्यम.”
ओआरएफ के नतीजे कई क्षेत्रों और विचारों से जुड़े होते हैं. इनमें से कई का रिलायंस के हित से कोई लेना-देना नहीं होता, न तो इस थिंक टैंक को फंड देने वाले किसी और से ही. इसके हित से जुड़े कई क्षेत्र और बताई गई स्थित ऐसी है जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता. इनमें एनर्जी, साइबर सिक्योरिटी और इंटरनेट गवर्नेंस शामिल हैं जिनमें इसको प्राथमिक तौर पर फंड करने वाले रिलायंस का हित शामिल है.
मेडवेट्ज का मानना है कि थिंक टैंक “को समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इन्हें असल में असतत वर्ग वाली संस्था न मानें बल्कि संस्थाओं का एक उल्झा हुए नेटवर्क मानें.” वह लिखते हैं कि इनके जटिल मिशन में “उनके आम दर्शकों के बीच ज्ञान से जुड़ी उनकी स्वायत्ता दिखाने से लेकर उनके ऊपर किसी के होने की ओर इशारा करने के बीच समांजस्य बिठाना होता है-इसमें अपने ग्रहाकों की मांग के आगे अपने नतीजे के लिए झुक जाना भी शामिल होता है- यह बेहद सीमित स्तर में होता है.” इस विरोधाभास को हल करने के लिए थिंक टैंक शिक्षा, राजनीति, बाजार और मीडिया जैसे ‘प्रधान’ क्षेत्रों से संस्धानों के संयोजन को इकट्ठा करते हैं और उसे एक शानदार पैकेज में तब्दील कर देते हैं.
एक संस्था के तौर पर ओआरएफ खुद को मैकगेन जैसी वाकपटुता वाली भाषा में परिभाषित करता है, यानी एक संस्था जो “सुरक्षा, रणनीति, अर्थव्यवस्था, विकास, एनर्जी, संसाधन और वैश्विक शासन पर भेद-भाव से परे, स्वतंत्र विश्लेषण और तथ्य देती है ताकि (सरकारों, व्यापारिक समुदायों, शिक्षा जगत और नागरिक समाज द्वारा) फैसले लेने में विविधता बरती जा सके.” लेकिन ओआरएफ से जुड़े पूर्व और वर्तमान लोगों से कई महीनों तक हुई बातचीत और सरकार से लेकर गैर सरकारी थिंक टैंकों से जुड़े लोगों से हुई ऐसी ही बातचीत के बाद मुझे बार-बार यही बताया गया कि ओआरएफ को विशुद्ध तौर पर एक रिसर्च आधारित संस्था के तौर पर नहीं देखा जाता है.
1990 के दशक की शुरुआत में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में वित्त मंत्रालय के मुख्य सलाहकार रहे अर्थशास्त्री अशोक देसाई ने मुझे बताया, “ओआरएफ के स्टाफ पेशेवर शोधकर्ता नहीं हैं.” उन्होंने कहा कि ज्यादातर मामलों में, “ये रिटायर्ड नौकरशाह होते हैं जिनको कुछ करने की तलाश होती है.”
लंबे समय तक ओआरएफ के कर्मचारी रहे व्यक्ति ने मुझसे कहा कि यह थिंक टैंक “अब बड़े समारोहों को सफल बनाने में लग गया है. अपने शैक्षिक या शोध के काम को शायद ही गंभीरता से लेता है.” शोध में लगे कर्मचारियों को बड़े-समारोह करने को कहा जा रहा है और बेहद कम अनुभव वाले शोधकर्ताओं को विशेषज्ञ बताया जा रहा है.
ओआरएफ के नतीजे कई क्षेत्रों और विचारों से जुड़े होते हैं. इनमें से कई का रिलायंस के हित से कोई लेना-देना नहीं होता, न तो इस थिंक टैंक को फंड देने वाले किसी और से ही. इसके हित से जुड़े कई क्षेत्र और बताई गई स्थित ऐसी है जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता. इनमें एनर्जी, साइबर सिक्योरिटी और इंटरनेट गवर्नेंस शामिल हैं जिनमें इसको प्राथमिक तौर पर फंड करने वाले रिलायंस का हित शामिल है. अपने करियर की शुरुआत में धीरुभाई के लिए सबसे अहम संपदा पेट्रोकेमिकल का व्यापार था. अब यह मुकेश अंबानी के जिम्मे है. यह उनके व्यापार के केंद्र में है, इसमें अब जियो भी जुड़ गया है और यह टेलिकॉम के बाजार में कुछ ही सालों में अपना आधिपत्य जमा लेना चाहता है. रिलायंस ने ऐसा ही प्रेट्रोकेमिकल के क्षेत्र में किया है. हाल के सालों में फेसबुक, गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसे तकनीक के दिग्गजों ने भी ओआरएफ को फंडिंग दी है.
थिंक टैंक के प्रमुख नेतृत्वकर्ता, चाहे जो भी उनकी खासियत हो, उन्होंने प्रमुख शोध संस्थान के साथ खुद की प्रतिष्ठा को जोड़कर नहीं दिखाया है. ओआरएफ के चेयरमैन संजय जोशी ने इस थिंक टैंक से जुड़ने के लिए सरकारी नौकरशाह के अपनी ऊंची पद वाली नौकरशाह की नौकरी को छोड़ दिया था. उस समय वे पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय के प्रभारी थे. इसी दौरान मंत्रालय ने रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स बिजनेस को फायदा पहुंचाने वाले कई फैसले लिए थे. इस समय जोशी सार्वजनिक उपक्रम ऑयल इंडिया लिमिटेड और ऑयल एंड नैचुरल गैस कॉर्पोरेशन के बोर्ड के सदस्य थे. वे अभी भी कॉर्पोरेशन से बेहद करीब से जुड़े हैं. ओआरएफ के अध्यक्ष समीर सरण ओआरएफ में रिलायंस से आए. उन्होंने थिंक टैंक को अन्य जगहों से फंडिंग दिलाने का काम किया, वहीं हाल में मिली अंतरराष्ट्रीय सफलता में भी उन्हीं का हाथ रहा. यहां रहते हुए उन्होंने पत्रकारों और पब्लिक रिलेशन (प्रचार के कारोबार वालों) को संभालने में महारत हासिल कर ली और वे अभी उनकी सेवा में लगे हुए हैं,
सार्वजनिक दस्तावेजों से पता चलता है कि सरण का दीवान हाउसिंग फाइनेंस कॉर्पोरेशन से करीबी रिश्ता है. इसका कंट्रोल कपिल वाधवां के हाथों में है. ओआरएफ को फंड करने वालों में पहले डीएचएफएल एक बड़ा नाम था. हाल में इसका नाम भारी धोखाधड़ी में आया था जिसमें खरबों डॉलर की रकम शामिल थी.
ओआरएफ को बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज में कई ऐसे लोग हैं जिनके रिलायंस ने निर्विवाद संबंध है. कांग्रेस की एक पूर्व सांसद का नाम अनु टंडन है, वह रिलायंस के एक कार्यकारी की विधवा हैं और पहले कॉर्पेरेशन के स्वामित्व वाली एक सॉफ्टवेयर कंपनी चलाती थीं. भरत गोयनका टैली सॉल्यूशंस के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं, मुकेश अंबानी इसके निवेशक हैं. ललित भसीन रिलायंस कैपिटल और रिलायंस पेट्रोलियम के कार्यकारी निदेशक रहे हैं और बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया के वर्तमान अध्यक्ष भी हैं. बोर्ड के पहले के सदस्यों में रंजन लूथरा का नाम शामिल है जो कि वर्तमान में मुकेश अंबानी के ऑफिस में खास प्रोजेक्ट्स संभालते हैं और रिलायंस के रिफाइनरी बिजनेस देखने वाले राघवेंद्र का नाम भी इसमें शामिल है.
रिलायंस के साथ काम कर चुके एक व्यक्ति ने मुझसे कहा, “सरकारी नौकरी में रहते हुए जिन नौकरशाहों ने रिलायंस को फायदा पहुंचाया रिटायर होने के बाद उन्हें ओआरएफ में नौकरी दे दी गई, जो इनके लिए पिकनिक साबित हुआ.” अंतरराष्ट्रीय और रक्षा मामलों के विशेषज्ञ और द संडे गार्डियन के संपादकीय निदेशक माधव दास नलपत ने मुझसे कहा कि राजनीति में, “ओआरएफ रिलायंस इंडस्ट्रीज का बहुत अच्छे से सोचा समझा गया दूसरा प्लान है.” योजना के मुताबिक, “ओआरएफ विपक्ष को मजबूत करने पर काम करता है, ताकि जब सरकार बदले तो यह लोग ताकतवर हों.” थिंक टैंक से जुड़े लोगों में युवा और उम्रदराज दोनों तरह के पत्रकार होते हैं जो अनुभवी तो होते ही हैं साथ ही देश के सबसे प्रभावशाली और ज्यादातर मीडिया संस्थानों में इनकी पहुंच होती है. इसके कार्यक्रमों में अपने पेशे के शिखर पर बैठे पत्रकार, विद्वान, कार्यकर्ता और सरकारी अधिकारी शामिल होते हैं.
ओआरएफ के संरक्षण में हर क्षेत्र के लोग रिलायंस के भरोसेमंद लोगों से घुलते-मिलते हैं. दिल्ली के पूर्व लेफ्टीनेंट गवर्नर नजीब जंग ओआरएफ के निदेशक हुआ करते थे. इसके पहले वह पेट्रोलियम मंत्रालय के बड़े नौकरशाह थे. आरोप हैं कि इस पद पर रहते हुए उन्होंने रिलायंस को फायदा पहुंचाया. बाद में इस कॉर्पोरेशन से जुड़ गए. ओआरएफ के कोलकाता चैप्टर के अध्यक्ष अशोक धर पहले रिलायंस की सहायक कंपनी गल्फ अफ्रीका पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन के साथ काम कर चुके हैं. रिलायंस के अंतरराष्ट्रीय संचालन के अध्यक्ष अतुल चंद्रा थिंक टैंक के सलाहकारों में शामिल हैं. पिछले साल तक ओआरएफ के मुंबई ऑफिस के प्रमुख सुधींद्र कुलकर्णी मुकेश अंबानी के ऑफिस से जुड़ गए हैं. ओआरएफ के कार्यक्रमों में रिलायंस के कर्मचारी मुख्य भूमिका निभाते हैं.
देसाई कहते हैं, “हर बार आप मंत्री को बातकर कोई काम नहीं कर सकते. ऐसे में आपको एक पत्र लिखना होता है और इसे संबंधित मंत्रालय को भेज देना होता है.” थिंक टैंक “पेपर को बिना सार्वजनिक जानकारी के भी जमा कर सकता है जिससे इस बारे में दूसरों को न पता लगे.”
ओआरएफ से संबंद्ध एक पूर्व कर्मचारी ने मुझसे कहा, “रिलायंस और ओआरएफ एक नाड़ी से जुड़ें हैं और इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. सरकार ऐसी नीति जिसमें रिलायंस जैसे कॉर्पोरेशन के लिए भारी वित्तीय प्रभाव शामिल है पर जब कोई फैसले लेने के अंतिम पड़ाव पर होती है तब ओआरएफ की भूमिका नजर आती है. ओआरएफ आकर इसे एक सकारात्मक पहलू और अंतिम धक्का देने का काम करता है. यह बड़ी चालाकी और सुगमता से होता है.”
मेडवेट्ज लिखते हैं कि अमेरिका के “थिंक टैंकों ने व्यापार जगत में प्रभाव उत्पन्न किया है, इसके लिए उन्होंने ऐसी स्थिति पैदा की है जिसके सहारे कॉर्पोरेशन और अमीर लोग राजनीतिक चीजों में दखल दे सकें, यह अक्सर बिना नजर आए होता है जिससे राजनीतिक दखल को और धार मिलती है. ऐसे करके थिंक टैंकों ने अमेरिकी राजनीति में बाजार संबंध लोगों के रणनीतिक प्रदर्शनों की सूची का विस्तार किया है.” भारत में ओआरएफ इसी तरीके से काम करता है, “बाहरी तत्व” को संभालने वाले एक औजार के तौर पर. रिलायंस के हित साधने का यह एक और साधन है. ऐसा करने वालों में पैरवीकार, कई ऐसे मीडिया संस्थान जिनमें रिलायंस ने या तो निवेश किया है या खरीद लिया है और ओआरएफ के बाहर के नेताओं के साथ संबंध भी इसका हिस्सा हैं. थिंक टैंक की ताकत सिर्फ उसमें नहीं है जो यह कहता है बल्कि सही लोगों के सामने इस बात को सही समय पर रखने और इसे सुनने का कारण देने की इसकी क्षमता भी इसी से जुड़ी है.
2/ नीति
जुलाई 2018 में अपने कॉर्पोरेशन की सालाना आम सभा में मुकेश अंबानी ने घोषणा की, “रिलायंस एक रणनीतिक बदलाव के तहत एक तकनीकी प्लेटफॉर्म वाली कंपनी बनने जा रहा है.” उन्होंने शेखी बघारते हुए कहा कि “हमारे कनेक्टिविटी प्लेटफॉर्म ने पहले से ही जिओ को दुनिया का सबसे बड़ा मोबाइल डेटा नेटवर्क बना दिया है” और फिक्स्ट-लाइन ब्रॉडबैंड में विस्तार की योजना की भी घोषणा की. उन्होंने वादा किया कि तेज ब्रॉडबैंड निजी मनोरंजन और घरेलू जीवन को बदल देगा. इससे छोटा व्यापार बड़े व्यापार से प्रतिस्पर्धा कर सकेगा और भारतीयों को “चौथी औधोगिक क्रांति को ताकत देने वाले डिजिटल सामान और तकनीक की सहायता से वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा की क्षमता मिलेगी.” इससे बिना किसी शक के रिलायंस को भी फायदा हुआ. टेलिकम्युनिकेशन और साइबर तकनीक पर ताजा जोर के साथ शेयरहोल्डर्स को मुकेश ने बताया, “आपकी कंपनी ने खुद को सीधी रेखा में नहीं होने वाली शानदार विकास से जुड़े रोमांचक भविष्य के लिए खुद को तैयार किया है.”
2002 में मुकेश पहली बार दूरसंचार के क्षेत्र में आए. इसी दौरान रिलायंस टेलिकम्युनिकेशन का जन्म हुआ. यह उनके पिता के निधन के थोड़े दिन बाद और धीरूभाई के कॉर्पोरेशन के बंटवारे के पहले की बात है. जब बंटवारा हुआ तो रिलायंस कम्युनिकेशन छोटे भाई अनिल के पास चला गया और मुकेश के हिस्सा रिलायंस पेट्रोलियम व्यापार आया. भाइयों ने एक-दूसरे के व्यापार को नहीं छेड़ने पर सहमति जताई. ऐसे में मुकेश दूरसंचार से दूर हो गए. लेकिन 2010 में भाइयों के बीच एक-दूसरे को एक ही व्यापार में नहीं छेड़ने की सहमति समाप्त हो गई. इसी दौरान सरकार ने दूरसंचार स्पेक्ट्रम की बड़ी निलामी को अंजाम दिया.
इंफोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज नाम की कंपनी जिसका कोई महत्व नहीं था, लेकिन इसने पूंजी के आश्चर्यजनक भंडार को जन्म देकर पहले से स्थापित प्रतिस्पर्धियों को पीछे छोड़ दिया और देश भर में 4जी स्पेक्ट्रम हासिल कर लिया. बड़ी कंपनियों को यह लगता था कि इंफोटेल बड़ा खतरा नहीं है और उन्होंने निलामी में उतनी ताकत नहीं लगाई जितनी लगानी चाहिए थी. जैसे ही निलामी समाप्त हुई रिलायंस ने इंफोटेल को हासिल कर लिया और कुछ सालों बाद इसका नाम रिलायंस जियो इंफोकॉम रख दिया गया. सितंबर 2016 में जियो ने व्यावसायिक सेवा शुरू की. यह लंबे समय तक “परीक्षण” के तहत जोड़े गए लाखों उपभोक्ताओं को जोड़ने के बाद किया गया. 2018 के अंत तक इसके उपभोक्ताओं की संख्या तीन मिलियन हो गई थी. अपने कमजोर होते प्रतिस्पर्धियों से यह पैसे और उपभोक्ताओं, दोनों को ही तेजी से छीन रहा था.
सदी के पहले दशक में ओआरएफ के कार्यक्रमों और प्रकाशनों ने सूचना तकनीक पर शायद ही ग़ौर फरमाया था. इस दौरान भारत का दूरसंचार क्षेत्र काफी फैल चुका था. हाल के सालों में थिंक टैंक के लिए साइबर क्षेत्र ध्यान का मुख्य क्षेत्र हो गया है. अक्टूबर 2013 में ओआरएफ ने पहले “साइफाई” का आयोजन किया. दिल्ली में हुए इस आयोजन को “साइबर सुरक्षा और साइबर प्रशासन पर भारत का सम्मेलन” का नाम दिया गया. चार महीने पहले रिलायंस से सालाना आम मुलाकात में मुकेश वे शेयरधारकों के सामने पहली बार जियो को पेश किया था. साईफाई अब सालाना कार्यक्रम है जिसका संचालन ओआरएफ करता है और इसे अब ओआरएफ का प्रमुख मंच माना जाता है. गूगल, फेसबुक, ट्विटर, माइक्रोसॉफ्ट और आईकैन इसके साझेदारों में शामिल हैं. आईकैन एक गैर-लाभकारी संस्था है जो ऑनलाइन के डोमेन नेम का काम करती है.
ओआरएफ के प्रयासों के कई सार्वजनिक समारोह हुए, अखबरों और किताबों में बातें आईं, वहीं इसकी अपनी वेबसाइट से लेकर मीडिया में भी जानकारी सामने आई. इसके कर्मचारी, इससे जुड़े लोग और जिन्हें आमंत्रण दिया जाता है वह बदल सकते हैं और संगठन के नाम के तहत लिए गए पद अलग-अलग हो सकते हैं. इनमें से कुछ उन क्षेत्रों के बारे में बात करते हैं जिनसे रिलायंस का कोई लेना-देना नहीं-कम से कम अभी तो नहीं. कई मौकों पर वह एक दूसरे को विरोध भी करते हैं और कुछ विदुओं पर रिलायंस के हितों से टकराते भी हैं. इस कोलाहल से रिलायंस के प्रभाव से जुड़े शक को ढंकने में मदद मिलती है. लेकिन ओआरएफ और रिलायंस से जुड़ी बड़ी धार एक साथ बहती है. ओआरएफ उस चीज को बेहद करीब से देखता है जिसपर रिलायंस की नजर है और जहां रिलायंस को सबसे ज़्यादा जरूरत होती है वहां जमीन तैयार करने का काम करता है. ओआरएफ के बड़े अधिकारियों की सार्वजनिक भावानाएं इसके सबसे ज़्यादा दान देने वाले की चिंताओं के अक्सर मेल खाती हैं जिससे संस्थान के नजरिए को पता करना आसान है.
2018 के मुकेश के संबोधन में ओआरए को चौंकाने वाली कोई बात नहीं थी. सालों तक थिंक टैंक ने ठीक उसी की जमीन तैयार की है जो मुकेश ने रिलायंस के लिए पेश किया: हाईड्रोकार्बन से विस्तार क्योंकि जीवाश्म ईंधन की मौजूदगी और मांग घट रही हैं; और दूरसंचार और साइबरस्पेस में भारी निवेश, जिसमें पूरा जोर चौथी औधोयोगिक क्रांति पर हो.
न्यूज साइट रेडिफ को साल 2004 में मीडिया को दिए गए एक अनूठे साक्षात्कार में ऋषि कुमार मिश्रा ने ओआरएफ के जन्म के बारे में बताया. 1990 की शुरुआत में बैलेंस-ऑफ-पेमेंट के उस संकट के दौरान जिसकी वजह से आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई, मिश्रा ने कहा, “मैं भारत के प्रमुख अर्थशास्त्रियों के साथ रात का खाना खा रहा था. मैंने उनसे कहा कि आपने पहले भी भारतीय अर्थव्यवस्था का नेतृत्व किया है, हमें बताएं कि इस संकट से कैसे उबरना है.” मेहमानों में इंदिरा गांधी के पूर्व सेकेरेट्री पीएन धर और भारतीय रिजर्व बैंक के तीन पूर्व गवर्नर शामिल थे. मिश्रा ने बताया कि कैसे धर के नेतृत्व में आर्थशास्त्रियों ने “आर्थिक सुधार का एजेंडा नाम के एक दस्तावेज को जन्म दिया. सुधार से जुड़े यह पहला गैर-सरकारी दस्तावेज था.”
मिश्रा ने कहा कि ओआरएफ का गठन “इस पत्र पर आधारिक देशव्यापी बहस करने के लिए हुआ था. दिल्ली में हमारा एक सम्मेलन हुआ जिसमें भारतीय उद्योगपतियों के साथ मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम ने हिस्सा लिया.” सिंह तब वित्त मंत्री थे और चिदंबरम के पास वाणिज्य मंत्रालय के राज्य मंत्री का स्वतंत्र प्रभार था. मिश्रा ने कहा कि ओआरएफ ने कोलकाता में भी एक बैठक का आयोजन किया था जिसमें सिंह और पश्चिम बंगाल के वामपंथी मुख्यमंत्री ज्योति बसु शामिल हुए थे. मिश्रा लिखते हैं, “ओआरएफ राष्ट्रीय मुद्दों पर आम सहमति बनाने में विश्वास रखता है.”
मिश्रा ने जो भी आम सहमति बनाई वह सब पर्दे के पीछे का खेल था. एक व्यक्ति जो एक एसी संस्था का प्रमुख था जो सार्वजनिक उद्देश को समर्पित थी, बावजूद उसके वह सार्वजनिक जीवन में चमक-दमक से दूर रहते थे और शायद ही कभी मीडिया से ऑन-रिकॉर्ड बात की हो. उनके निधन के बाद उनके कई परिचित लोगों ने उनकी याद में बिना जाति वाले ब्राह्मण नाम के एक सम्मानजनक खंड में उनसे जुड़े लेख लिखे. इनमें पत्रकार चंदन मित्रा, एन राम और सईद नकवी जैसे लोग शामिल थे. दिग्गजों द्वारा लेख के बाद लेख लिखे जा रहे थे. लिखने वालों में पत्रकार चंदन मित्रा, एन राम और सईद नकवी शामिल थे, अंतर्राष्ट्रीय थिंक-टैंक दिग्गज स्ट्रोब टैलबोट, अनुसंधान और विश्लेषण विंग के पूर्व निदेशक विक्रम सूद, भारतीय जनता पार्टी के नेता रविशंकर प्रसाद और खुद मुकेश अंबानी भी लिखने वालों में शामिल थे. ओआरएफ के नीति अनुसंधान से जुड़े कुछ उल्लेख अभिभूत कर देने वाले हैं क्योंकि इनमें देश के सबसे ताकतवर लोगों के साथ मिश्रा के पर्दे के पीछे की खुशमिजाजी शामिल है. इसमें अपने सबसे ताकतवर दौर वाली इंदिरा गांधी संग काम करने से लेकर भारत के पहल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी के शासन को ढालने तक का काम शामिल है.
जिस नीतिगत काम के बारे में किताब में बात की गई है उसके केंद्र में क्षेत्रीय कूटनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा है. ओआरएफ ने चीन और श्रीलंका जैसे पड़ोसियों के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया. राष्ट्रीय सुरक्षा के केंद्र में पाकिस्तान और कश्मीर हैं. 2004 में हुए ओआरएफ बोर्ड के गठन में भी यह झलकता है. इसमें पूर्व विदेश सचिव एमके रसगोत्रा से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड का हिस्सा रहे सेवानिवृत्त वाइस-एडमिरल केके नय्यर और पूर्व सेना प्रमुख वेद प्रकाश मलिक तक को शामिल किया गया. किताब में उच्च रैंकिंग वाले पूर्व नौकरशाह आनंद बरोडिया लिखते हैं कि ओआरएफ का थोड़ा जोर “ऊर्जा सुरक्षा, हेल्थकेयर, शिक्षा, विज्ञान और तकनीक जैसी चीज़ों पर भी था.” किताब में ऊर्जा और पेट्रोकेमिकल से जुड़े एकमात्र उल्लेख है, यहां तक कि इसमें कई चैप्टर आधायात्मिक ऊर्जा में मिश्रा की रुचि को समर्पित किए गए हैं और वेद से जुड़ विचार पर जो किताब उन्होंने लिखे उस पर भी.
असल में ओआरएफ के लिए बहुत पहले से ही पेट्रोलियम रुचि का एक मजबूत बिंदु था. 1990 के दौर में धीरूभाई ने कॉर्पोरेशन की धारा को “ऊपर” की तरफ ले जाने का काम किया. इसके तहत गुजरात के जामनगर में सिंथेटिक फाइबर और उनके पेट्रोकेमिकल फीडस्टॉक्स के निर्माण कार्य को अपनी तेल रिफाइनरी स्थापित करने की ओर मोड़ना शामिल था. 1993 में अनुभवहीन रिलायंस पेट्रोलियम ने लोगों से पैसे इकट्ठा करने के लिए अपने पहले डिबेंचर (ऋणपत्र) जारी किए. सन् 2000 की शुरुआत में रिलायंस को मध्य एशिया से भारत में गैस लाने के लिए एक प्रस्तावित पाइपलाइन में फायदे की महक लगी. इस प्रोजेक्ट को पाकिस्तान के रास्ते होकर आना था. उस समय थिंक टैंक से जुड़े एक विद्वान ने मुझे बताया, साथ ही, “ओआरएफ ने ईरान-पाकिस्तान-भारत पाइपलाइन पर कई चर्चाओं का आयोजन किया. इसमें पाकिस्तान से आए प्रतिनिधिमंडल ने हिस्सा लिया और पाकिस्तान को ऊर्जा बेचे जाने पर कई चर्चाएं हुईं. पर्दे के पीछे होने वाली इस चर्चा में रिलायंस के लोग हिस्सा लेते थे.” यह काम “हालात को समझने” की लिहाज से किया जा रहा था ताकि देखा जा सके “कि भारत और पाकिस्तान की सरकारों की इसमें रुचि है या नहीं.”
ओआरएफ अनुसंधान की नजर मध्य एशिया पर भी थी. थिंक टैंक ने क्षेत्र की राजनीति और सुरक्षा और वहां पाइपलाइन लगाने से जुड़ी चुनौतियों पर जमकर लिखा. ओआरएफ ने पाकिस्तान पर भी करीबी निगाह बनाए रखी. मिश्रा और उनके बारे में राय रखने वाले बाकी लोगों के मुताबिक, वे भारत और इसके पश्चिम में स्थित पड़ोसी के साथ शांति के मुखर समर्थक थे. दोनों देशों के बीच दुश्मनी की समाप्ति में कई फायदे छुपे थे. इनमें भारत से जुड़ी संभावित पाइपलाइन की सुरक्षा और रिलायंस के लिए एक नए राष्ट्रीय बाजार की संभावनाएं शामिल थीं.
प्रेम शंकर झा ने मुझे बताया कि 1990 के दशक में मिश्रा ने पाकिस्तान जाना शुरू किया. उन्होंने कहा, “धीरूभाई को वहां एक बाजार नजर आता था और वे रिलायसं की जामनगर रिफाइनरी के लिए इस बाजार तक पहुंच चाहते थे.”
पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी ने अपने राजनयिक कार्यों के संस्मरण में लिखा कि 1999 में लाहौर में भारत और पाकिस्तान के बीच ऐतिहासिक परमाणु-नियंत्रण समझौता होने के बाद दोनों देशों के नेताओं ने एक बातचीत के लिए एक 'बैकचैनल' स्थापित किया था. यह सामान्य राजनयिक रिश्तों से हटकर था. इसके लिए वाजपेयी ने आरके मिश्रा को नियुक्त किया था. पाकिस्तान द्वारा करगिल में घुसपैठ के बाद हुए युद्ध के साथ-साथ उस 'बैकचैनल' के जरिए दोनों देशों के बीच सूचनाएं साझा हो रही थी. उस समय तक रिलायंस ने जामनगर में अपनी रिफाइनरी बना ली थी, जो आज दुनिया का सबसे बड़ा रिफाइनरी परिसर है. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी किताब 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' में लिखा है कि युद्ध के दौरान 'मिश्रा' ने रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन के सहायक के रूप में काम किया है. वे लगातार पाकिस्तान से यह भरोसा लेते रहे कि वह रिलायंस के जामनगर प्लांट पर बम नहीं गिराएगा.
पाइपलाइन की योजना क्षेत्रीय अशांति की भेंट चढ़ गई. साथ ही मध्य एशिया में ओआरएफ की दिलचस्पी भी शांत हो गई. हालांकि, इस दौरान उसका अफगानिस्तान में युद्ध के बीच भारत के रणनीतिक संबंधों और पाकिस्तान पर ध्यान बना रहा.
मिश्रा की वाजपेयी और अपने पुराने दोस्त ब्रजेश मिश्र तक पहुंच ने ओआरएफ के प्रभाव में बड़ा कदम साबित हुई. उस समय ब्रजेश मिश्र को वाजपेयी प्रशासन का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता था. 1990 के दशक के दौरान संगठन छोटा रहा. वाजपेयी के शासन और धीरूभाई की जगह मुकेश अंबानी द्वारा लेने के बाद ओआरएफ को नया ठिकाना मिला. यह दिल्ली का रिलायंस का ऑफिस था, जो अब इसका मुख्य कार्यालय है. 2004 में वाजपेयी की सरकार चली गई, लेकिन संगठन का विकास जारी रहा. वाजपेयी के स्टाफ के कई सदस्य ओआरएफ में शामिल हो गए.
पाकिस्तान ही एकमात्र ऐसा मुद्दा था जिस पर रिलायंस को मदद की जरूरत पड़ी. 2002 में रिलायंस को देश के पूर्वी तट पर कृष्णा गोदावरी बेसिन में बड़ा गैस रिजर्व हाथ लगा. उर्जा व्यापार में रिलांयस की प्रतिद्वंद्वी कंपनी सरकारी कंपनी ऑयल एंड नैचुरल गैस कॉर्पोरेशन निजी संगठन के बड़े लाभ के लिए धीरे-धीरे गिरावट में आती रही. रिलायंस पर खोज के लिए सरकारी खुफिया सूचनाओं को चुराने, ओएनजीसी को अलॉट किए गए गैस फील्ड से गैस निकालने और अपनी असल लागत को नियमों से ज्यादा बताने के आरोप लगे.
2000 के दशक की शुरुआत में ओआरएफ ने भारत समेत दुनिया भर की ऊर्जा से जुड़ी खबरों के लिए साप्ताहिक एनर्जी न्यूज मॉनिटर की शुरुआत की. साथ ही इसने भारत में पेट्रो इंडिया कॉन्फ्रेंस के आयोजन के लिए पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री ग्रुप इंडिया एनर्जी फोरम के साथ साझेदारी की. पिछले साल कॉन्फ्रेंस ने अपने 15वें संस्करण का आयोजन किया. रिलायंस और ओएनजीसी इसके स्पॉन्सर्स में शामिल थे.
2007 में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में मंत्रियों के शक्तिशाली समूह ने सरकारी अधिकारियों की सलाह के विपरित जाकर रिलायंस को गैस की आपूर्ति के लिए मिलने वाले दामों में इजाफा कर दिया. 2012 के अंत में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के प्रमुख सी. रंगराजन के नेतृत्व वाली समिति ने इन दामों में दोगुना बढ़ोतरी की सिफारिश की. इस समिति ने भारत में गैस के दामों को औसत वैश्विक दामों के आधार पर तय करने का फॉर्मूला दिया, वह भी बिना घरेलू बाजार की जरूरत के. सरकार ने भी इसे स्वीकार कर लिया.
2013 की शुरुआत में रंगराजन की सिफारिशों से एक घोटाला सामने आया. ऊर्जा और बिजली पर सरकार के पूर्व मुख्य सलाहकार सुर्या पी. सेठी ने सुझाए गए फॉर्मूले पर द हिंदू में एक लेख लिखा. उस वक्त ओआरएफ के निदेशक रहे संजॉय जोशी ने उसी अखबार में पलटवार किया. उन्होंने सेठी की बेसिक इकॉनोमिक्स की समझ पर सवाल उठाते हुए सरकार की खामियों से भरी गैस नीति के बारे में चर्चा की और 'अच्छे अर्थशास्त्री' रंगराजन के साथ सहानुभूति प्रकट की. मामले को उलझाते हुए जोशी ने अपने लेख के आखिर में लिखा कि सुझाया गया फॉर्मूला भारत में गैस के बाजार भावों को प्रदर्शित नहीं करता है. लेख के अंत में जोशी को केवल ओआरएफ का निदेशक बताया गया था, जिसकी वजह से इस लेख का किसी भी प्रकार से रिलायंस से सीधा संबंध होने के सबूत नहीं रहते, जबकि इस मामले में सबसे बड़ा हिस्सा रिलायंस का ही था.
जोशी ने इस लेख में गैस के दामों से नियंत्रण हटाने की मांग के साथ खत्म किया. कुछ महीनों बाद टाइम्स ऑफ इंडिया में उन्होंने पेट्रोकेमिकल खोजबीन से रेग्युलेशन हटाने की मांग करते हुए एक लेख लिखा. उन्होंने लिखा कि बिना खुली छूट की गारंटी मिले कंपनियों को नई खोज में मुश्किलें हो रही हैं. जोशी गैस और तेल की खोजबीन को डिरेगुलेट करने से कोशिश को खुद से बचाते रहे.
2010 में जोशी ने एक अखबार में खुदरा ईंधन (फ्यूल रिटेलिंग) में सुधार की मांग करने वाला लेख लिखा. इसमें सरकारी कंपनियों के लिए रिजर्व किए गए डीलर्स पर नियंत्रण हटाने की मांग की गई थी. कुछ साल बाद रिलायंस ने अपने बंद पड़े फ्यूल स्टेशनों को दोबारा चालू करना शुरू कर दिया. 2018 तक कंपनी ने ब्रिटेन की मल्टीनेशनल कंपनी बीपी के साथ मिलकर एक हजार स्टेशन शुरू कर लियह. कंपनी ऐसे दो हजार स्टेशन और खोलने की योजना बना रही है.
रिलायंस के पेट्रोकेमिकल के काम के साथ-साथ ओआरएफ गैस और तेल के क्षेत्र से जुड़े पूर्व नौकरशाहों का दूसरा घर बन गया. ओआरएफ के पूर्व फेलो और पत्रकार सईद नकवी ने मुझे बताया, “पेट्रोल मंत्रालय में संयुक्त सचिव से ऊपर के किसी भी व्यक्ति को ओआरएफ में नियुक्ति मिलती थी. यह सरकार और तेल से जुड़ा कोई भी व्यक्ति हो.”
2010 में ही रिलायंस ने 'गैर-पारंपरिक' गैस की दुनिया में कदम रखा. यह शेल और कोयले की सरंचना में छिपी गैस होती है जो दरारों से रिसती रहती है. इसके लिए कंपनी ने अमेरिका में संचालित हो रही तीन कंपनियों में हिस्सेदारी खरीद ली. तीन साल बाद भारत ने एक नीति बनाई जिसके तहत केवल सरकारी कंपनियों को ही गैर-पारंपरिक रिजर्व में खोजबीन का काम सौंपा जा सकता है.
इसी साल सरकार जमीन अधिग्रहण पर नया विधेयक लेकर आई. ओआरएफ के फेलो मनीष वैद ने 'कैन न्यू लैंड एक्विजिशन बिल फैसिलिटेट इंडिजाय शेल गैस प्रोग्रेस?' नाम से लेख लिखा. उन्होंने लिखा कि 'भारत में कुछ कंपनिया' 'प्रस्तावित विधेयक को लेकर आशंकित थी. उनका मानना था कि इससे उनके प्रोजेक्ट की लागत काफी बढ़ जाएगी और उनके लिए यह फायदे का सौदा नहीं रहेगा.'
2017 तक सरकार ने नियमों में बदलाव करते हुए निजी कंपनियों के प्रवेश की मंजूरी दे दी. वैद ने अखबारों में भारत के गैर-पारंपरिक रिजर्व के बारे में लेख लिखना जारी रखा. सरकार बदलने के साथ ही रिलायंस ने मध्य भारत में कई इस रिजर्व के अधिकार प्राप्त कर लिए.
2018 में सालाना आम बैठक को संबोधित करते हुए मुकेश ने शेयरधारकों को बताया कि रिलायंस कोल-बेड गैस के उत्पादन में बढो़तरी कर रही है. साथ ही कंपनी के भारत और अमेरिका में अपने संचालन को विलय करने का प्रस्ताव की जानकारी दी. 2017 में वैद ने देश की ऊर्जा सुरक्षा बढ़ाने के लिए रणनीतिक पेट्रोलियम रिजर्व की जरूरत बताते हुए लेख लिखा था.
बीते वर्ष सरकार ने दो अंडरग्राउंड फ्यूल डिपो बनाने को हरी झंडी दे दी है. इसके लिए रिलायंस समेत दो निजी निवेशकों से बातचीत जारी है.
रिलायंस के पेट्रोकेमिकल बिजनेस के साथ ओआरएफ धीरे-धीरे पूर्व तेल और गैस क्षेत्र से जुड़े नौकरशाहों का ठिकाना बन गया. मिश्रा के कार्यकाल में ओआरआफ में काम कर चुके पत्रकार सईद नकवी ने उनकी मौत के कुछ साल बाद मुझे बताया, “पेट्रोलियम मंत्रालय में संयुक्त सचिव से ऊपर के स्तर पर काम कर चुके हर व्यक्ति को ओआरएफ में नियुक्ति मिलती थी. तेल और सरकार से जुड़े हर व्यक्ति को.”
इनमें से संजॉय जोशी एक थे, जिनकी ओआरएफ में 2007 में नियुक्ति हुई. उस समय अंबानी बंधु अपनी विरासत के मामले को सुलझाने में लगे थे. तब दोनों भाई केजी डी 6 को लेकर एक निजी समझौते पर पहुंचे थे. मुकेश इस बात पर सहमत हुए थे कि गैस की आपूर्ति शुरू होने के बाद वे अनिल के कुछ पावर प्लांट को निश्चित कम दामों में गैस की आपूर्ति करेंगे. चूंकि प्राकृतिक संसाधनों पर मूलभूत अधिकार सरकार का होता है इसलिए इस समझौते के लिए आधिकारिक मंजूरी मिलनी अनिवार्य थी. जब इसका समय आया, सरकार ने नियम बनाया कि समझौते में तय किए गए दाम बहुत कम हैं. इसका मतलब यह हुआ कि अनिल को अब गैस के लिए ज्यादा पैसा देना होगा. जोशी उस वक्त पेट्रोलियम मंत्रालय में तेल की खोज के मामलों के संयुक्त सचिव के महत्वपूर्ण पद पर थे. आधिकारिक विचार-विमर्श के एक नोट. जो बाद में लीक हुआ था के मुताबिक, जोशी ने सरकारी कंपनी गेल के एक पत्र का हवाला दिया. इसमें लिखा था कि कंपनी ने मुकेश द्वारा अनिल को ऑफर किए गए कम दामों का विरोध किया है. जबकि उस वक्त गेल इस स्थिति में थी कि वह उससे ज्यादा दामों पर गैस बेच सकती थी.
नजीब जंग के अन्वेषण के संयुक्त सचिव रहते हुए निजी फर्मों को महाराष्ट्र तट के दो ऑयलफील्ड में साझेदारी दी गई. इससे पहले यह पूरी तरह से सरकारी कंपनी ओेएनजीसी के नियंत्रण में थी. इन निजी फर्मों में से एक रिलायंस थी. 2005 में जंग ओआरएफ के उर्जा शोध के निदेशक बन गए.
ओआरएफ के एक सलाहकार जेएम मौसकर पहले पेट्रोलियम मंत्रालय, वाणिज्य और पर्यावरण मंत्रालय में एक बड़े ओहदे वाले नौकरशाह थे. उन्होंने ओएनजीसी और ऑयल इंडिया लिमिटेड के बोर्ड में भी जिम्मेदारी निभाई थी. वे उस रंगराजन समिति का भी हिस्सा थे, जिन्होंने गैस के दाम तय करने वाला विवादित फॉर्मूला सुझाया था. राज्यभा सांसद एनके सिंह वाजपेयी के ओएसडी रहे थे. 2017 में वित्त आयोग का चेयरमैन बनायह जाने से पहले वे लगभग एक दशक तक ओआरएफ के सलाहकार रह चुके थे. सांसद रहते हुए उनका नाम राडिया टेप में सामने आया था. इसमें वे रिलायंस के लिए काम करने वाले एक बिचौलियह के साथ प्राकृतिक गैस पर टैक्स छूट की बात कर रहे थे.
ओआरएफ के एक और सलाहकार रह चुके अतुल चंद्रा रिलायंस के विदेशी मामलों को देखते थे. यहां आने से पहले वे ओएनजीसी के विदेश मामलों को देखा करते थे. रिलायंस रिफाइनरी के प्रमुख और ओआरएफ बोर्ड के सदस्य पी राघवेंद्रन पहले इंडियन ऑयल के शीर्ष अधिकारी और प्लानिंग कमीशन के पेट्रोलियम के मामलो के सलाहकार थे.
रिलायंस की पेट्रोकेमिकल में दिलचस्पी को देखने के साथ-साथ ओआरएफ ने गैस और तेल के अलावा भविष्य की दूसरी चीजों पर भी नजर रखी. 2011 में केजी डी 6 में उत्पादन के चरम पर पहुंचने के बाद पेट्रो इंडिया कॉन्फ्रेंस 2011 आयोजित की गई. इसकी थीम 'व्हाट आफ्टर केजी बेसिन एंड डी-6' रखी गई. बीते कुछ सालों में ओआरएफ के प्रकाशन और आयोजनों ने वैकल्पिक ऊर्जा और इलेक्ट्रिक परिवहन संरचना की तरफ देखना शुरू किया है. 2017 में रिलायंस सौर और पवन ऊर्जा के प्रोजेक्ट के पास एनर्जी स्टोर बनाने के लिए निवेश की संभावनाओं की तलाश में थी. कंपनी ने कम होते लाभ के कारण उस साल अमेरिकी कंपनियों में अपनी साझेदारी बेच दी. साथ ही 2018 में केजी डी6 से कम होते उत्पादन और मुनाफे में गिरावट की वजह से रिलायंस ने भारत में अपनी पाइपलाइन बेच दी. मनीष वैद ने अपने लेख में लिखा, “भारत में हाइड्रोकार्बन के प्रभुत्व वाली ऊर्जा की मौजूदा हालत खत्म होना शुरू हो गई है.” ऐसा पेरिस समझौते के आधार पर प्रदूषण कम करने की भारत सरकार की प्रतिबद्धताओं के चलते हुआ है.
इस समय तक रिलायंस ने टेलीकॉम्युनिकेशन और साइबरस्पेस की तरफ देखना शुरू कर दिया था और ओआरएफ इसके लिए पूरी तरह तैयार था.
2018 के दौरान कंपनी के शेयरधारकों के सामने रिलायंस के डिजिटल क्षेत्र में जाने की घोषणा से पहले ही मुकेश की महत्वकांक्षा झलकने लगी थी. रिलायंस की म्युजिक स्ट्रीमिंग सर्विस को प्रतिदवंद्वी कंपनी के साथ विलय किया गया. साथ ही रिलायंस ने आर्टिफिशियल-इंटेलीजेंस आधारित शिक्षा प्लेटफॉर्म का बड़ा हिस्सा अधिग्रहित कर लिया. इससे पता चल गया कि रिलायंस अपने नेटवर्क पर केवल डाटा नहीं बल्कि एक डिजिटल सर्विस का एक पूरा यूनिवर्स तैयार करना चाहती है. रिलायंस ने ई-कॉमर्स के क्षेत्र में जाने और देश के लाखों दुकानदारों को ऑनलाइन लाने की योजनाएं के बारे में भी बताया.
साल के अंत तक सरकार ने ई-कॉमर्स क्षेत्र में विदेशी निवेश से जुड़े नियमों में बदलाव कर दिए, जिससे अमेजन और फ्लिपकार्ट की कई सेवाएं प्रभावित हुईं. अमेरिकी सहयोग से चल रही दोनों कंपनिया इस क्षेत्र में अपना स्थान बना चुकी थी. नए नियमों से इन कंपनियों की एक्सक्लूसिव सेल्स, स्पेशल कस्टमर सर्विस समेत दूसरी सेवाओं पर असर पड़ा. इकॉनोमिक टाइम्स से एक अनाम अधिकारी ने बताया, “ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने अमेजन और फ्लिपकार्ट के बिजनेस मॉडल का अध्ययन किया है और इन दोनों को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का नियम बनाया है.” रिलायंस और पेटीएम नए नियम बनाने वाली आधिकारिक टास्कफोर्स में शामिल थी. इसमें विदेशी कंपनियों के सहयोग से चलने वाली अमेजन और फ्लिपकार्ट को शामिल नहीं किया गया.
रिलायंस ने डाटा इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने की इच्छा भी जताई थी. मुकेश अंबानी की फिक्स्ड-लाइन ब्रॉडबैंड सर्विस की घोषणा के साथ कंपनी ने देश के दो बड़े मेजर केबल प्रोवाइडर- हाथवे और डीईएन में साझेदारी खरीद ली. साथ ही रिलायंस दिल्ली, नवी मुंबई, कोलकाता और जामनगर समेत देशभर में डाटा सेंटर का नेटवर्क बनाने पर काम कर रही है. रिलायंस विदेशी कंपनी के साथ मिलकर महाराष्ट्र में देश का पहला डिजिटल इंडस्ट्रियल एरिया बनाएगी. आने वाले सालों में इस पर लगभग 10 बिलियन डॉलर का निवेश किया जाएगा.
ऊर्जा की तरह संचार और डाटा को लेकर भी ओआरएफ ने निजी क्षेत्र को बढ़ावा और बाजार में और प्राथमिकता देने की वकालत की है. 2014 में ओआरएफ के उप प्रमुख समीर सरन ने लिखा था कि इंटरनेट गवर्नेंस और साइबर सिक्योरिटी को लेकर भारत में निराशाजनक बहस रही है. उन्होंने लिखा कि किसी भी गवर्नेंस के फ्रेमवर्क में ग्राहकों के विचारों के साथ शेयरधारकों और निजी क्षेत्र की कंपनियों की बात भी शामिल की जानी चाहिए. 2016 में ओआरएफ के वैश्विक प्रशासन के प्रमुख विवेक सरन के साथ मिलकर लिखे गए लेख में उन्होंने लिखा कि भारत का टेलीकॉम क्षेत्र में किफायती डाटा देने के बैंडविड्थ की कमी है. इसलिए इसका समाधान करने की आवश्यकता है. उन्होंने लिखा कि इसकी एक वजह सरकारी कंपनी बीएसएनएल भी है. इस लेख में लिखा गया था कि नीति-निर्मता बीएसएनएल के भरोसे रहकर सुधारवादी कदम उठाने से बचते रहे और बीएसएनएल इस भरोसे पर खरी नहीं उतरी.
साइबर मुद्दों से जुड़े मामले में साईफाई कॉन्फ्रेंस की मदद से रिलायंस और ओआरएफ की दखल शुरू होती है. रिलायंस के अधिकारी इस कॉन्फ्रेंस में नियमित तौर पर आते हैं. रिलायंस के अलावा बाकी किसी कंपनी का यहां इतना प्रतिनिधित्व नहीं होता. यह आमतौर पर अंतरराष्ट्रीय इंटरनेट और टेक्नोलॉजी कंपनियों, विदेशी साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों और वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के साथ कॉन्फ्रेंस में भाग लेते हैं.
साल 2013 में पहली साईफाई कॉन्फ्रेंस को तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) मनीष तिवारी ने संबोधित किया था. तिवारी 2009-12 के बीच ओआरएफ के सलाहकार रह चुके हैं. 2016 कॉन्फ्रेंस के उद्घाटन समारोह में संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद के साथ सरन और जोशी ने भाग लिया था. प्रसाद कभी ओआरएफ से जुड़े नहीं रहे हैं लेकिन इसके फेलो ट्रेवलर रह चुके हैं.
2014 के आखिर में फाइनेंशियल टाइम्स के जेम्स क्रेबट्री ने दस्तावेजों के आधार पर बताया था कि तिवारी और प्रसाद दोनों को अपने वकील बने रहने के लिए मंत्री बनने से पहले रिलायंस ने दोनों को लाखों रुपए दिए थे. दोनों नेताओं और कंपनी ने कहा था कि ऐसा कर उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है.
पहली साईफाई कॉन्फ्रेंस से पहले इकॉनोमिक टाइम्स ने संजॉय जोशी से ऐसी कॉन्फ्रेंस की जरूरत के बारे में बात की थी. सुंजोय ने अखबार को बताया, “सरकार अपने स्तर पर यह इंतजाम नहीं कर सकती. देश के साइबर सिक्योरिटी कौशल को बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र से आगे जाकर दूसरे संगठन और व्यक्तियों से मिलना होता है.” अखबार ने जोशी के बयान के विवेचना करते हुए लिखा कि रिलायंस समेत निजी कंपनी इस क्षेत्र में संभावनाओं की तलाश करेगी. अखबार ने सूत्रों के हवाले से लिखा कि इस क्षेत्र में अंबानी के प्रवेश की वजह बहुत सरल है. उन्होंने बताया कि कंपनी पर साइबर हमलों की बहुत संभावना है. रिलायंस पहले खुद के बचाव के लिए साइबर सिक्योरिटी नेटवर्क बनाएगी और फिर इसे बाजार में बेचेगी.
इस समय तक रिलायंस की सालाना रिपोर्ट में साइबर सिक्योरिटी पर चिंता व्यक्त होनी शुरू हो गई थी. इस रिपोर्ट में बीते वर्षों में कम्युनिकेशन नेटवर्क और सेटेलाइट आदि क्षेत्र के डिजिटल एकीकरण पर जोर दिया जाने लगा था.
ओआरएफ साइबर मामलों पर नियमित तौर पर इवेंट आयोजित करता है और इसके फेलो इस मामले पर लगातार लिखते रहते हैं. इस मामले को लेकर सरण संगठन की सबसे मुखर आवाज है. सरण वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम के ग्लोबल फ्यूचर काउंसिल ऑन साइबर सिक्योरिटी और ग्लोबल कमीशन ऑन स्टैबलिटी ऑफ साइबरस्पेस (जीसीएससी) के सदस्य भी हैं. ओआरएफ के वैश्विक सलाहकार बोर्ड के सदस्य और स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री कार्ल बिल्डट जीसीएसी में विशेष प्रतिनिधि, मनमोहन सिंह के समय साइबर सिक्योरिटी पर वर्किंग ग्रुप की सदस्य और उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार वी लता रेड्डी अब ओआरआफ की विशिष्ट फेलो और जीसीएसी का हिस्सा है. इस वजह से वैश्विक स्तर पर साइबर गवर्नेंस के क्षेत्र में ओआरएफ को भारत की सबसे मुखर आवाज समझा जाता है.
इस वजह से भरतीय सिविल सोसाइटी समूहों में असंतुष्टि है. जीसीएससी और जीसीआईजी के आलोचक इन संगठनों को पश्चिमी निजी हितों की पैरवी करने वाला मानते हैं और राष्ट्र संघ की अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार यूनियन जैसी जैसी बहुस्तरीय संस्थाओं की प्रतिस्पर्धी के रूप में देखते हैं.
भारत में रिलायंस के जुड़ाव के बावजूद ओआरएफ ने साइबर मामलों में खुद को स्वतंत्र आवाज और कई बार दूसरी पार्टी के रूप में पेश किया है. 2017 में भारत को साइबर स्पेस पर ग्लोबल कॉन्फ्रेंस के आयोजन के लिए चुना गया. दो साल में एक बार होने वाली इस कॉन्फ्रेंस में दुनियाभर की कंपनियां, अकादमिक और सरकारों से जुड़े लोग साइबर गवर्नेंस और नियमों पर चर्चा करते हैं. यह कॉन्फ्रेंस रविशंकर प्रसाद के नेतृत्व वाले इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्रालय द्वारा आयोजित की गई थी और ओआरएफ इसका साझेदार था. भारत के कई इंटरनेट-पॉलिसी ग्रुप आधार को लोगों पर थोपे जाने का विरोध कर रहे थे. स्वतंत्र साइबर-पॉलिसी रिसर्चर श्रीनिवास कोडाली ने मुझे बताया कि ऐसे कई ग्रुप को कॉन्फ्रेंस में जाने से रोक दिया गया है. उन्होंने कहा, “सरकार नहीं चाहती कि उसके विरोध में वहां कोई आवाज उठे.” इंटरनेशनल डिजिटल-राइट्स ग्रुप एक्सेस नाउ ने कहा कि निजता पर काम कर रहे कई स्थानीय सिविल सोसायटी और ग्रुप्स को कॉन्फ्रेंस तक सीमित पहुंच दी गई और कईयों को बिल्कुल रोक दिया गया. इससे खुली बातचीत होने की बजाय यह समारोह केवल सरकार की योजनाओं का एक प्रदर्शन बनकर रह गया.
2015 में सरकार ने एक विवादित एनक्रिप्शन पॉलिसी का मसौदा जारी किया, हालांकि इसे तुरंत वापस ले लिया गया था. अगले साल ओआरएफ ने एक ईमेल भेजकर कहा कि सरकार ने शेयरधारकों से मदद मांगी है. इसमें कहा गया कि पॉलिसी के मसौदे पर राय देने के लिए ओआरएफ एनक्रिप्शन पर एक परामर्श समारोह आयोजित कर रहा है.
ओआरएफ ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर साइबर स्पेस को राष्ट्र सुरक्षा का एक मुद्दा बनाने का काम किया. साईफाई कॉन्फ्रेंस में ऐसे साइबर सिक्योरिटी एक्सपर्ट्स शामिल होने लगे जिन्होंने विभिन्न सरकारों जैसे, अमेरिका, इजरायल और ब्रिटेन के साथ काम किया है. ओआरएफ के विशिष्ट फेलो सीन कनुक ने अमेरिका के नेशनल इंटेलीजेंस, सीआईए और व्हाइट हाउस के लिए काम कर चुके हैं. 2017 में अमेरिकी थिंक-टैंक काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स और ओआरएफ ने वॉशिंगटन में साइबर मुद्दों पर एक चर्चा का आयोजन किया. इसकी अध्यक्षता भारत के राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा कोऑ-र्डिनेटर गुलशन राय ने की थी.
2013 में ओआरएफ के एक फेलो ने सरकार से 'सार्वजनिक और निजी डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर को राष्ट्रीय रणनीतिक संपत्ति' मानने की मांग की. अगले साल सरकार ने एक नोडल एजेंसी एनसीआईआईपीसी का गठन किया. इसका काम 'महत्वूर्ण सूचना इंफ्रास्ट्रक्चर' का बचाव करना था. इसमें बैंकिंग, टेलीकम्युनिकेशन, ट्रांसपोर्ट, पावर और ऊर्जा के क्षेत्र से जुड़ी निजी संपत्ति भी शामिल थी.
2013 इकॉनोमिक टाइम्स के एक लेख में जोशी के एक नोट के हवाले से लिखा गया था सरकार द्वारा साइबर अपराधों से लड़ने से के लिए प्रस्तावित 'पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल मे अग्रणी भूमिका निभानी चाहती है.' ओआरफ ने एक रिपोर्ट में लिखा कि 2013 की राष्ट्रीय साइबर सुरक्षआ नीति में साइबर सुरक्षा के लिए 5 लाख पेशेवरों को ट्रेनिंग देने की बात कही गई है, लेकिन इससे कुछ निकल कर नहीं आया है. थिंक टैंक ने जोधपुर में चल रही सरकारी सरदार पटेल पुलिस यूनिवर्सिटी के साथ समझौता किया है. इसके तहत यूनिवर्सिटी में पुलिस, अर्धसैनिक, सीबीआई और एनआईए अधिकारियों को साइबर सुरक्षा पर ट्रेनिंग दी जाती है. सरन यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर पीस एंड सिक्योरिटी के निदेशक हैं. सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक रह चुके महेंद्र कुमावत 2015 तक यूनिवर्सिटी के वाइस-चांसलर रहे थे। इससे पहले वे कई सालों तक ओआरएफ के विशिष्ट फेलो रहे और अब इसकी ट्रस्टी हैं.
ओआरएफ से जुड़े लोग टेलीकम्यूनिकेशन, साइबर गवर्नेंस और राष्ट्र सुरक्षा में इसकी दिलचस्पी का संकेत देते हैं. टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी के एक पूर्व सदस्य अब थिंक टैंक के सलाहकार हैं. लता रेड्डी के अलावा ओआरएफ के एक और विशिष्ट फेलो रघु रमन अब रिलायंस समूह के रिस्क एंड सिक्योरिटी के समूह प्रमुख हैं. इससे पहले वे नेशनल इंटेलीजेंस ग्रिड के मुख्य अधिकारी थे. नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के सहायक निदेशक राजेश्वरी पिल्लई राजागोपालन अब ओआरएफ में विशिष्ट फेलो हैं. राजागोपालन ओआरआफ के परमाणु और अंतरिक्ष नीतियों के मामलों के प्रमुख हैं. देश की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के पूर्व निदेशक विक्रम सूद कई सालों तक ओआरएफ के सलाहकार रहे थे.
सईद नकवी ने मुझे बताया, "रॉ के साथ काम कर चुके कई लोग ओआरएफ से जुड़े हैं. खुफिया एजेंसियों और इंडस्ट्री के बीच एक गठजोड़ है, जिसका लगातार इस्तेमाल किया जाता है."
इसके साथ-साथ ओआरएफ ने रिलायंस के चौथी औद्योगिक क्रांति में बढ़ती दिलचस्पी के बारे में भी संकेत दिए हैं. इसके तहत एडवांस्ड कंप्यूटिंग, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्स के जरिए आर्थिक परिवर्तन लाना है. पिछले दो सालों से थिंक टैंक के प्रकाशनों में इसका बार-बार जिक्र हो रहा है. इस बारे में सरन द्वारा साथ मिलकर लिखे गए भारतीय कर्मचारियों के भविष्य पर एक पेपर भी शामिल है, इसे साईफाई इवेंट में भी पेश किया गया था. 2018 में मुकेश अंबानी महाराष्ट्र में डिजिटल इंडस्ट्रियल एरिया बनाने का ऐलान किया था. तब उन्होंने राज्य को भारत में चौथी औद्योगिक क्रांति का जन्म स्थान बनाने की इच्छा जताई थी. दिल्ली कार्यालय की वजह से मुंबई कार्यालय में धीमा चल रहा संचालन एक दम से जोश में आ गया. सितंबर में इसने हर तीन महीने में होने वाला मुंबई टेक टॉक शुरू किया. इसका लॉन्च समारोह बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में आयोजित किया गया. सरन ने इस दौरान जोर देते हुए कहा कि मुंबई को भारत के तकनीकी विकास में अहम भूमिका निभानी चाहिए. नवंबर में ओआरएफ और नीति आयोग ने मुंबई में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर एक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया. रिलायंस के अधिकारियों ने इन सभी इवेंट में भाग लिया था.
नवंबर में हुई कॉन्फ्रेंस की एक साझेदार वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम थी. पिछले महीने महाराष्ट्र सरकार, वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम और रिलायंस ने मुंबई में सेंटर फॉर फोर्थ इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन बनाया है. मुकेश वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम के ट्रस्टी है वहीं सरन फोरम के दक्षिण एशिया बोर्ड के सलाहकार हैं.
साइबर गवर्नेंस के मामलों पर कई बार ओआरएफ की स्थिति का रिलायंस की स्थिति के साथ टकराव भी हुआ है. इसका एक बड़ा वाकया डाटा लोकलाइजेशन के मामले पर सामने आया था. इसका मतलब है कि यूजर्स का डाटा उनके देश में स्टोर किया जाना चाहिए.
अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसी इंटरनेट कंपनियों के लोकलाइजेशन एक अभिशाप की तरह है. इनका बिजनेस मॉडल देशों के बीच मुक्त डाटा प्रवाह पर आधारित है. भारतीय डाटा को भारतीय सर्वर पर रखने के नियम बनाने से विदेशी कंपनियों को नुकसान होगा और रिलायंस के लिए यह एक फायदे का सौदा होगा. 2017 में जब ट्राई ने डाटा सुरक्षा और उसके मालिकाना हक पर सार्वजनिक विचार-विमर्श शुरू किया तब जियो ने लोकलाइजेशन के पक्ष में मजबूती से तर्क रखे थे. मुकेश ने कई बार विदेश कंपनियों के प्रभाव वाले साइबर स्पेस में 'डाटा कोलोनाइजेशन' का डर व्यक्त किया था.
बीते वर्ष भारतीय रिजर्व बैंक ने पेमेंट कंपनियों को भारतीय यूजर्स का डाटा भारत में स्टोर करने को कहा था. डाटा-प्रोटेक्शन विधेयक के ताजा मसौदे में कहा गया है कि भारतीयों के 'जरूरी निजी डाटा' को केवल भारत में प्रोसेस किया जा सकता है. साथ ही भारतीय यूजर्स के डाटा की कॉपी को लोकल सर्वर पर रखना होगा. विधेयक में कहा गया है कि इससे कानूनी एजेंसियों और आपराधिक जांच-पड़ताल में मदद मिलेगी.
ओआरएफ ने डाटा लोकलाइजेशन को 'नियामकिय हथौड़ा' बताते हुए एक लेख प्रकाशित किया. इसमें कहा गया कि भारतीयों के डाटा की कॉपी लोकल सर्वर पर स्टोर करने का प्रावधान 'रहस्यों से लिपटा' हुआ है. संगठन के दो फेलो ने अपने लेख में लिखा कि लोकलाइजेशन कानूनी एजेंसियों की खास मदद नहीं कर पाएगा. इसकी बजाय उन्होंने क्लाउड एक्ट से लाभ लेने का सुझाव दिया. भारत में चल रही अधिकतर तकनीकी कंपनियों के मुख्यालय अमेरिका में है. क्लाउड एक्ट के तहत अमेरिका सरकार से इजाजत लेकर विदेशी सरकारें अमेरिकी कंपनियों द्वारा स्टोर किए गए डाटा को देख सकती है. हाल ही में ओआरएफ ने एक विशेष निबंध लिखकर कहा था कि भारत और अमेरिका को कानून के तहत डाटा साझा करना चाहिए.
सरण ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की. 2017 में उन्होंने भारत में डाटा इस्तेमाल में आए विशाल इजाफे को जियो के विघटनकारी हस्तक्षेप का नतीजा बताया था. इसमें उन्होंने मुकेश अंबानी के उस बयान का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर डाटा नई मुद्रा है तो इसका कंपनियों का लक्ष्य इसे भारत में रखना होना चाहिए. सरन ने लिखा कि डाटा लोकलाइजेशन के सुरक्षा अधिकारियों और नियामक के विचारों के विरूद्ध अंबानी ने इसे कारोबार प्रस्ताव बताते हुए कहा कि डाटा अविष्कार और मूल्य सृजन का आधार है. उसी साल उन्होंने एक लेख में लिखा कि दुनिया की मौजूदा बड़ी डिजिटल कंपनियां डाटा और एनालिटिक्स पर अपने प्रभुत्व बनाए रखने के लिए नियम बना रही है. 2018 में एक दूसरे लेखक के साथ मिलकर लिखे गए प्रस्तावित डाटा-प्रोटेक्शन फ्रेमवर्क पर एक बयान में उन्होंने कहा, “डाटा लोकलाइजेशन से क्रॉस बॉर्डर डाटा प्रवाह पर आधारित स्टार्टअप्स में अविष्कार प्रभावित हो सकते हैं.” हालांकि, उन्होंने यह भी माना कि विदेशी डाटा निगरानी की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए सरकारी कंपनियों द्वारा इकट्ठे किए गए डाटा जैसे बायोमेट्रिक आदि को भारत में स्टोरी किया जाना चाहिए.
ओआरएफ को फंड करने वाली अमेरिका स्थित टेक कंपनियां जैसे फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट और गूगल ने डाटा लोकलाइजेशन पर विरोध जताते हुए क्लाउड एक्ट को 'डाटा की क्रॉस बॉर्डर एक्सेस को नियंत्रित करने के लिए तार्किक समाधान' बताया था.
माना जा रहा कि साइबर-टेक्नोलॉजी में मुकेश अंबानी की महत्वाकांक्षाओं के चलते रिलायंस और ओआरएफ को सहायता देने वाली विदेशी टेक कंपनियों के बीच भविष्य में और टकराव हो सकते हैं. इससे ओआरएफ खुद को मुश्किलों में पा सकता है.
अब तक हुए चार रायसीना डायलॉग में से 2018 के संस्करण ने सबसे बड़ा भूराजनीतिक संकेत दिया. इसका उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके इजरायली समकक्ष बेंजामिन नेतन्याहू ने किया था. दिल्ली के एक बड़े होटल में हुए इस आयोजन में उनके साथ मंच पर भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, सरन और जोशी मौजूद थे. समारोह के आखिरी दिन की दोपहर में एक बेहद खास वाकया हुआ.
पूरी वर्दी में सजे चार नौसेना के अधिकारी डायस पर आए. इनमें भारत और ऑस्ट्रेलिया के नौसेना प्रमुख, अमेरिकी सेना के पैसिफिक कमांड के कमांडर और जापान नौसेना के शीर्ष अधिकारी साथ आए. एक साथ मिलकर उन्होंने 'क्वॉड' बनाया. यह ऐसा फॉर्मेशन था. यह उन चार देशों का फॉर्मेशन था जो इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के प्रभाव को रोकने के लिए एक साथ आए हैं.
विश्व मामलों पर भारतीय परिषद के पूर्व महानिदेशक राजीव भाटिया ने इसे 'इलेक्ट्रिक मोमेंट' बताया. उन्होंने कहा, "इससे यह संकेत गया है कि यह क्वाड अखबारों के लेखों में छपने वाली बातों से आगे निकलकर बना है. इसने दिखाया है कि चारों देश चीन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हैं." भाटिया ने मुझे यह भी बताया, 'रायसीना डायलॉग विद्वानों और छोटे अधिकारियों वाली नियमित बैठक नहीं है.'
कुछ दिन बाद चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के मुखपत्र द ग्लोबल टाइम्स ने एक लेख चलाया, जिसका शीर्षक "न्यू दिल्ली फोरम प्रॉप्स अप 'क्वॉड स्टैंस' रिफ्यूज टू लिसन टू चाइना वॉइस." इस लेख को लिखने वाले शंघाई के इंस्टिट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के सीनियर फेलो ने दावा किया कि चीन के विद्वानों को बोलने और यहां तक की सवाल पूछने का भी मौका नहीं दिया गया. लेख में लिखा गया, "रायसीना डायलॉग को बड़े प्रयास से इस तरह डिजाइन किया गया था कि अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश चीन और रूस के खिलाफ अपना कड़ा रूख दिखा सके" और भारत यूरेशिया और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के बीच एक संतुलन साधने की कोशिश करता दिखे. सरण ने इसके जवाब में ट्वीट करते हुए लिखा, "चीन को रायसीना डायलॉग पसंद नहीं है. कोई टिप्पणी नहीं." एक दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा, "चीन से लगभग 20 प्रतिभागी और दो वक्ता आए. चीन ने अधिकारियों को नहीं भेजा. उन पर जबरदस्ती नहीं की जा सकती."
लेकिन यह कॉन्फ्रेंस भारत के भूराजनीतिक झुकाव के अलावा भी काफी कुछ बता रही थी. वक्ताओं की सूची से लेकर, फाइव स्टार होटल और फिल्मों जैसे स्टेज लाइटिंग आदि हर चीज अपनी अलग छाप छोड़ रही थी. यह भारत की बढ़ती शक्ति की तरफ दुनिया का ध्यान आकर्षित करने की एक कोशिश थी और यह सब रिलायंस के मदद से ओआरएफ ने आयोजित किया.
मुंबई ओआरएफ के प्रमुख ने धवल देसाई ने कहा, "ऐसा आयोजन और कौन आयोजित कर सकता है. यहां तक की भारत सरकार भी अपने दम पर ऐसा नहीं कर सकती. उसे भी इसके लिए साझेदार की जरूरत होगी."
अपने शासनकाल के पहले साल में मोदी सरकार ने एस जयशंकर को नया विदेश सचिव नियुक्त किया. इसके कुछ दिन बाद विदेश मंत्रालय ने अपनी 2014-15 की सालाना रिपोर्ट में 'बड़े थिंक टैंक और अकादमिक संस्थानों के साथ मिलकर कॉन्फ्रेंस आयोजित' करने की इच्छा व्यक्त की. इस नीति के बाद न सिर्फ रायसीना डायलॉग बल्कि मंत्रालय ने मुंबई आधारित गेटवे हाउस और विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के इवेंट भी प्रायोजित किए. यह दोनों संगठन भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ से जुड़े हैं, लेकिन इनमें से कोई भी बजट और विशालता के मामले में रायसीना डायलॉग के पास नहीं पहुंच पाया. मंत्रालय ने रिपोर्ट में बताया कि उसने 2016 में रायसीना डायलॉग को 55 लाख और अगले साल 80 लाख रुपए की मदद दी. यह रायसीना डायलॉग की लागत का कुछ ही हिस्सा था. बाकी की लागत ओआरएफ और दूसरे साझेदारों से मिली.
इससे पहले भारत की सबसे बड़ी कूटनीतिक कॉन्फ्रेंस सरकार से जुड़े थिंक-टैंक द्वारा आयोजित की जाती थी. ऐसे में एक कॉर्पोरेट-प्रायोजित संस्था को भारत की विदेश नीति तय करने वाले कार्यक्रम की अग्रणी भूमिका क्यों दी गई, यह पूरी तरह से साफ नहीं है. संसद में जवाब देते हुए मंत्रालय ने कहा कि उन्होंने बाहरी प्रायोजक 'इन संस्थाओं द्वारा दिए गए प्रोजेक्ट प्रस्तावों के आधार पर चुने हैं. इसमें कॉन्फ्रेंस की महत्वता, वक्ताओं की सूची, प्रस्तावित बजट और दूसरे जरूरी इंतजाम आदि शामिल हैं.
पिछले साल रायसीना डायलॉग के कुछ महीने बाद सरकार ने एशियन सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस को रद्द कर दिया. इसका आयोजन रक्षा मंत्रालय से जुड़ा संस्थान डिफेंस स्टडीज और एनालिसिस करता था. उस साल के लिए इसका थीम “एशिया में भारत और चीन : एक नए संतुलन का निर्माण.” द न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने छापा कि आईडीएसए के विद्वानों को “शक था कि नई दिल्ली ने महत्वपूर्ण यात्राओं से पहले बीजिंग को नाराज नहीं करने की कथित आवश्यकता के कारण इस कार्यक्रम को रद्द किया गया”-यही करने की इजाजत रायसीना डायलॉग को दी गई. आगे लिखा था कि विद्वानों को “यह भी शक था एशिया सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस में देर और इसे रद्द किया जाना जानबूझकर चली गई चाल थी ताकि सरकारी थिंक टैंकों की कीमत पर निजी उपक्रमों से जुड़े थिंक टैंकों को आगे बढ़ाया जा सके.”
मुंबई ओआरएफ के प्रमुख धवल देसाई ने मुझसे कहा, “रायसीना डायलॉग का आयोजन और कौन कर सकता है. यहां तक की भारत सरकार भी अपने बूते ऐसे आयोजन को अंजाम नहीं दे सकती है.”
रायसीना डायलॉग की चीन पर सख्ती ओआरएफ के पश्चिम की ओर झुकाव से साथ तालमेल खाती है, खास तौर पर अमेरिका के मामले में. जब से सदी की शुरुआत से इस थिंक टैंक में फिर से जान डाली गई थी, इसने भारस सरकार की सुपर पावर अमेरिका के साथ बढ़ती नजदीकियों को अपनाया है. अमेरिकी थिंक-टैंकों से इसके तालमेल और ताकतवर अमेरिकी हस्तियों तक इसकी पहुंच में भी यह झलकता है. निकी हेली जब यूएन में अमेरिका की राजदूत थीं तो पिछले साल भारत आई थीं. इस दौरान ओआरएफ ने एक भाषण का आयोजन किया था. हेली ने इसमें द्विपक्षीय रिश्तों को आगे बढ़ाने की बात कही थी. ओआरएफ ने इसका भी ध्यान रखा है कि भारत का अहम सहयोगी रूस कहीं चिढ़ न जाए. 2018 के रायसीना डायलॉग के दौरान हुए इस देश से जुड़े किसी भ्रम को इस साल के कॉन्फ्रेंस में ठीक कर दिया गया था. ठीक करने की प्रक्रिया के तहत रूस के उप विदेश मंत्री को सम्मानीय अतिथि के तौर पर बुलाया गया था. क्रेमलिन के विचारक सर्गेई कुर्गिनयान ओआरएफ के बिजिटिंग फेलो लिस्ट का हिस्सा हैं.
ओआरएफ का बढ़ता अंतरराष्ट्रीय कद रिलायंस के अपनी वैश्विक महत्वकांक्षा से मेल खाता है. रिलायंस पहले से ही भारत का नंबर एक निर्यातकर्ता है और अभी भी बाहर मौके तलाश रहा है. अफ्रीका में कई जगहों पर दूरसंचार और साइबर मार्केट में बहुत संभावनाएं हैं, यह भविष्य से जुड़े आकर्षक लक्ष्य हो सकते हैं. ओआरएफ ने पिछले साल साईफाई का एक अमेरिकी संस्करण आयोजित किया था, मोरक्को की सरकार भी इसका हिस्सा थी. 2017 में सरण ने “आधार कूटनीती” को बढ़ावा देने के लिए एक लेख लिखा था. उन्होंने कहा कि पश्चिमी कार्पोरेशनों द्वारा डाटा हथियाए जाने से बचाव के लिए भारत को दूसरे देशों को आधार आधारित एक वैकल्पिक सिस्टम देना चाहिए ताकि “सरकारें डेटा के ऊपर अपना अधिकार क्षेत्र कायम कर सकें.” ओआरएफ के अन्य लोगों ने भी आधार के निर्यात की वकालत की है. जीयो के ग्रहाकों की संख्या में तेज़ी से हुआ विकास आधार आधारित पहचान सुनिश्चित करने के इस्तेमाल पर आधारित है. 2017 में मुकेश अंबानी ने लोगों से कहा, “आधार की वजह से हम एक दिन में एक मिलियन ग्रहाकों को जोड़ने में सफल रहे, ऐसे इस क्षेत्र में पहले कभी नहीं हुआ.”
साइबर क्षेत्र की तरह ओआरएफ ने सिविल सोसाइटी समूह पर विदेश नीति से जुड़ी चर्चा के मामले में भी दबाव डाला है. ब्रिक्स थिंक-टैंक काउंसिल में ओआरएफ इकलौता भारतीय सदस्य है. इस काउंसिल का काम सदस्य देशों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के बीच सहयोग बढ़ाना है. 2016 के मॉस्को ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान समारोह से साथ चले रहे एक सिविल सोसाइटी फोरम के लिए ओआरएफ एक आधिकारिक भारतीय प्रतनिधि था. जन स्वास्थ्य सामूहिक अभियान के एक नेता और इसमें उपस्थित लोगों में से एक अमित सेनगुप्ता ने पिछले साल मुझे बताया था, “बैठक के दौरान ओआरएफ के कर्मचारियों ने कुछ लोगों को बोलने से रोक दिया, उनका दावा था कि आधिकारिक प्रतिनिधि होने की वजह से सिर्फ वे ही बोल सकते हैं. हममें से बाकी आश्चर्यचकित थे कि सरकार ने ओआरएफ को आधिकारिक प्रतिनिधी के तौर पर क्यों चुना. बातचीत के दौरान ओआरएफ ने लगभग हर मामले में सरकार का साथ दिया.”
3/ स्टाफ
2004 के रेडिफ को दिए साक्षात्कार में आरके मिश्रा ने कहा, “मैं एक आम आदमी हूं. मैंने पत्रकार के तौर पर शुरुआत की थी. मैं अपने जीवन और पेशे में आवारा रहा हूं.”
सार्वजनिक जीवन में मिश्रा की छवि बिल्कुल नम्र और लगभग अदृश्य थी. यह एक आवरण था. बिना जाति का ब्राह्मण लिखा किताब में लिखने वाले हर लेखक ने मिश्रा को आम आदमी के तौर पर नहीं याद किया. अगर किताब पर विश्वास करें तो वह देश विदेश की राजनीति समझने में जबरदस्त चतुर थे, करिश्माई और प्रेरणादायक थे. ओआरएफ से शुरुआत में जुड़ने वाले कई लोगों ने मुझे बताया कि वह इससे इसलिए जुड़े थे क्योंकि उन्हें मिश्रा से प्रेरणा मिली थी. अगर वह “आवारा” थे तो यह आवार की खास किस्म रही होगा. मिश्रा के अनेकों दोस्त और हित थे, वह शहरों के बीच भी उसी आसानी से विचरण करते थे जिस आसानी से विचारधाराओं के बीच. किताब इसे उनकी असीम जिज्ञासा और ज्ञान के संकेत के रूप में पेश करती है. लेकिन यह इनके संकेत से काफी आगे की बात है.
अक्सर ऐसा होता है कि लोगों की श्रद्धा समय के साथ बदल जाती है, खास तौर पर लंबे और विविध जीवनकाल की वजह से. दूसरे भले ही नई चीजों संग तालमेल नहीं खाने वाली पुरानी चीजों से नाता तोड़ देते हों, मिश्रा शायद ही ऐसा करते थे. यह अवारा उन्हें संजोते थे, विरोधाभासों की परवाह किए बगैर, ताकि जरूरत पड़ने पर उनका इस्तेमाल किया जा सके. उन्होंने जो भी सीखा उसका उद्देश्य सिर्फ ज्ञान नहीं था. अपने करियर के शुरुआत से यानी तब से जब वह एक संपादक थे, मिश्रा को एक पत्रकार या बुद्धिजीवी से ज़्यादा एक राजनीतिक कार्यकारी के रूप में जाना जाता था. वह इन गुणों को अपने दुलारे थिंक-टैंक तक ले आए और तब से इन गुणों ने इन्हें कभी निराश नहीं किया है.
मिश्रा ने रेडिफ को बताया था, “मैंने 1946-47 में कोलकाता के हिंदी अखबार लोकमान्य में अपनी पहली नौकरी की थी. 27 साल की उम्र में मैं जयपुर के एक अखबार नवयुग का संपादक बन गया.”
जब मिश्रा जयपुर में काम कर रहे थे तो सईद नकवी वहां एक नए रिपोर्टर थे. उन्होंने किताब (ब्राह्मण) में लिखा है कि जब वह एक युवा पत्रकार के तौर पर कोलकाता में काम कर रहे थे तो मोहन लाल सुखाडिया के एक सहायक का ध्यान आकर्षित किया, सुखाड़िया राजस्थान से कांग्रेस के नेता थे. नकवी कहते हैं सुखाड़िया, “कांग्रेस के लिए जयपुर में अखबार शुरू करने को लेकर उत्सुक थे.” मिश्रा ने मौक भांप लिया. नकवी कहते हैं कि युना मिश्रा ने सुखाड़िया से कहा, “आप मुख्यमंत्री की शपथ लेने का मन बना लीजिए. मैं कल से नवयुग शुरू कर दूंगा.”
नवयुग की स्थापना 1954 में हुई थी. सुखड़िया उसी साल मुख्यमंत्री बने थे. प्रबंध संपाद हरि देव जोशी थे, जो भविष्य में मुख्यमंत्री बने. नकवी लिखते हैं कि “यह सबको पता था कि सुबह की पहली चाय सुखाड़िया” मिश्रा के साथ पीते थे. जयपुर में नौकरशाह टीएन चतुर्वेदी से मिश्रा की दोस्ती हुई और बाद में चतुर्वेदी नियंत्रक और महालेखा परीक्षक बन गए. चतुर्वेदी लिखते हैं, “नवयुग के संपादक के तौर पर मिश्राजी सुखाड़िया और उनके मंत्रियों के लिए बड़े मददगार साबित हुए.” सुखड़िया से उनके संबंध उन्हें इंदिरा गांधी के करीब ले आए.
किताब में नकवी लिखते हैं कि मिश्रा “उन दिनों मार्क्सवादी विचारों की पकड़ में थे और ‘बचे हुए अत्याचारी जमीदारों’ के लिए उनके भीतर एक तरह की बौद्धिक घृणा थी”-राजस्थान की पुरानी राजशाही अभी भी ताकतवर थी, हालांकि यह कमजोर हो रही थी. राजीनित विज्ञानी और विदेश-नीति के विद्वान एसडी मुनी मिश्रा ने 1960 के अंत में जयपुर में मिले, इस दौरान वह राजस्थान यूनिवर्सिटी के छात्र थे. किताब में वह लिखते हैं कि मिश्रा यूनिवर्सिटी की राजनीति में सक्रिय थे और इस तथ्य का विरोध किया था कि एशिया फॉउंडेशन दक्षिण एशियाई अध्ययन के लिए विश्वविद्यालय के केंद्र का समर्थन कर रहा था, विरोध का कारण “एशिया फांउडेशन को सीआईए की फंडिंग मिलने का शक था.” लेकिन मिश्रा हमेशा इतने सख्त नहीं होते थे. नकवी लिखते हैं कि मिश्रा “सुखाड़िया की कैबिनेट सदस्य महामहिम झालावार के करीब थे. कभी-कभी झालावार आरके के घर ‘गुलाबी शराब’ लेकर पहुंच जाया करते थे, इसके लिए झलावार राजघराना और उदयपुर दोनों ही मशहूर थे. ऐसे में कोई ‘वंचितों’ से जुड़े उनके भावनात्मक भाषण को कैसे समझे?” यहां तक कि मिश्रा ने नकवी को “मार्क्सवादी शब्दजाल का ककहरा पढ़ाने की योजना भी बनाई थी. लेकिन झालावार की गुलाबी शराब ने उन पर कुछ और ही असर कर दिया.” अपनी शामें वह एक ऐसे स्वयंभू बाबा के पास गुजारते थे जिनको उन्होंने अपना गुरु मान लिया था.
1969 में कांग्रेस के ओल्ड गार्ड ने इंदिरा को निकाल बाहर किया, तब वह प्रधानमंत्री थीं, ओल्ड गार्ड उनकी नीतियों और सख्ती वाले तरीके से नाराज था. इंदिरा ने ओल्ड गार्ड को तोड़कर अपनी कांग्रेस बना ली और अपनी सरकार बचाने के लिए सहयोगियों की तलाश में निकल गईं. नकवी लिखते हैं कि मिश्रा “उस क्षण के लिए सबसे सही आदमी थे” और वह दिल्ली के द पैट्रियट के साथ काम करने लगे. अखबार के संस्थापक अरुणा आसिफ अली और एदताता नारायण थे, दोनों ही स्वतंत्रता सेनानी और घोर वामपंथी थे. मिश्रा “पार्टी के वामपंथी धड़े और व्यवहारिकता के बीच की सीढ़ी बन गए” वह “इंदिरा के राजपुरोहित बन गए और अरुणा आसिफ अली का साथ भी देने लगे.”
1974 में मिश्रा को राज्यसभा का सदस्य बनाया गया. अगले साल इंदिरा ने आपातकाल लगा दिया. उस समय द पैट्रियट के साथ रिपोर्टर रहे एक्टिविस्ट जॉन दयाल किताब में लिखते हैं, “जब तक वह सांसद रहे तब तक एक निष्पक्ष रिपोर्टर की उनकी स्थिति अस्थिर हो गई.” पेपर के संपादक नारायणन ने इंदिरा और उनके बेटे संजय के उनके अघोषित और ताकतवर सलाहकार होने का पुरजोर विरोध किया. जब सरकार प्रेस की कमर तोड़ रही थी, मिश्रा राज्यसभा में बने हुए थे. यह तथ्य किताब से गयाब है. दयाल याद करते हुए कहते हैं कि मिश्रा पेपर के कार्यालयों में आते रहे, “हालांकि, उन्होंने थोड़े दिनों के लिए खुद को द पैट्रियट से दूर कर लिया और जैसा था उस बारे में हमने अपने ‘सूत्रों’ से जाना.” पत्रकार सितांषु दास लिखते हैं कि मिश्रा “कांग्रेस अध्यक्ष देब कांत बरुआ के विशेष सहायक रह चुके थे.” इंदिरा के वफादार बरुआ को यह पद इंदिरा द्वारा सत्ता पर पूरा कब्जा करने के बाद दिया गया था. 1977 में इंमरजेंसी के अंत से 1980 के अपने कार्यकाल के अंत तक मिश्रा संसद में बने रहे.
1984 में इंदिरा की हत्या तक वह उनके करीब रहे. इंदिरा के विशेष सचिव रहे अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ना ने मिश्रा के निधन के बाद कि उनकी याद में रखी गई एक सभा में कहा, “इंदिरा जिस तरह से उनसे बात करती थीं वह आश्चर्यजनक था, दोनों के बीच जैसे संबंध थे वह बिल्कुल अलग थे.”
1980 के दशक के दूसरे हिस्से में पीएम राजीव गांधी और उनके रक्षा मंत्री वीपी सिंह के बीच एक रक्षा सौदे में घोटाले को लेकर युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई थी. मिश्रा पैट्रियट में लौट आए थे और पैसों की कमी से जूझ रहे थे, जबकि वह अभी भी पीएम के करीबी थे. जांच रोके जाने की वजह से सिंह वे विरोध में इस्तीफा दे दिया और 1989 में राजीव गांधी का तख्तापलट करने वाली सरकार का नेतृत्व करने निकल गए.
उस समय अखबार में पत्रकार रहे जे श्री रमन ने किताब में लिखा, “आरके मिश्रा के तहत पैट्रियट जैसा था अखबार उससे आग बढ़ गया. मिश्रा ने मुझसे एक बार कहा कि अखबार के लिए सबसे अच्छी संपादकीय नीति बुर्जुआ-उदारवादी रहेगी. उनके जिम्मे एक ऐसा अखबार आया था जिसके जन्म से उसकी नीति ऐसी नहीं थी.”
रमन लिखते हैं लेकिन, “पैट्रियट का तब अपने अतीत के साथ सबसे ज्यादा अलगाव हुआ जब मिश्रा के आधीन इसने एक ऐसे उद्योगपति का पक्ष लिया जिसे एक बड़ा अखबार निशाना बना रहा था.” एक बार एदताता नारायण के तहत और इसके पहले जब यह अधिग्रहण के तहत धीरूभाई अंबानी के कॉर्पोरेट नियंत्रण में आया था. इस दौरान द पैट्रियट ने दिग्गज उद्योगपतियों का टैक्स रिटर्न छाप दिया था. मिश्रा पेपर द्वारा धीरूभाई अंबानी को दिए जाने वाले समर्थन को “उस नीति के उल्लंघन के तौर पर नहीं देखते जिसका पालन पैट्रियट से करवाना चाहते थे”
मुकेश अंबानी लिखते हैं, “जैसे-जैसे साल बीतते गए, पापा से इतर मिश्रा अंकल से मेरा निजी लगाव बढ़ता गया. जैसे उन्होंने मेरे पिता की मदद की थी, उन्होंन रिलायंस को बनाने से जुड़े मेरे विचार को आकार देने में मेरी मदद की. तब रिलायंस का नया भार मेरे कंधो पर दिया गया था.”
नकवी लिखते हैं, “धीरूभाई और रामनाथ गोयनका के झगड़े का एक और पहलू है. इंडियन एक्सप्रेस के प्रकाशक रामनाथ गोयनका ने अपनी ताकत उसके पीछे लगाई थी जिसे आरके ‘सार्वजनिक विद्यालय’ के अभिजात वर्ग वाला कहते थे”-ख़ास तौर पर रिलायंस के प्रतिस्पर्धि बॉम्बे डाइंग के नुस्ली वाडिया. “आरके के ढांचे में अंबानी एक पुच्छले थे, जो स्थापित उद्योगपतियों के लिए खतरा थे. आरके की सहानुभूति पुच्छले के साथ थी.”
तब के पत्रकार और अब ओआरएफ के एक वरिष्ठ फेलो सतीश मिश्रा लिखते हैं कि उस समय के आसपास, “सोवियत संघ और चीन जैसी बड़ी साम्यवादी ताकतें मुश्किल के दौर से गुजर रही थीं. मिश्रा को हवा के रुख का पता चल रहा था और वह इससे खुश थे. संभवत: इसी वजह से पैट्रियट ने अपना लाल मास्ट हेड हटाकर इसके लिए साधारण काला रंग अपना लिया.”
मिश्रा के एक पुरान सहयोगी ने मुझसे कहा कि 1990 में ब्रुकिंग्स भारत में एक ऑफिस खोलना चाहता था और अंबानी से पैसे चाहता था. सहियोगी ने बताया, मिश्रा इसकी राह में खड़े थे, “दरअसल, ब्रूकिंग्स चाहते थे कि ओआरएफ उनके भारत के संगठन का हिस्सा हो.”
आरके मिश्रा ने रेडिफ से कहा, “मैं धीरूभाई को धीरूभाई अंबानी बनने के पहले से जानता था. हम एक-दूसरे के घर जाया करते थे और खूब बातें किया करते थे.” मुकेश अंबानी किताब में लिखाते हैं कि उनके पिता और मिश्रा एक दूसरे को 1970 से जानते थे. वह लिखते हैं, “मैं अक्सर उनकी बातचीत सुनना पसंद करता था, उनके बीच कभी मेरे पिता के ऑफिस मेकर चैंबर्स चार या हमारे घर के बैठकखाने में बातचीत होती थी और मैं कभी कभार इसका हिस्सा होता था. जो चीज उन्हें साथ लाती थी उनमें देश के लिए उनकी साझी चिंता और भारत उन चुनौतियों का सबसे अच्छा समाधान कैसे कर सकता था जो तब इसके सामने थीं.” धीरूभाई अक्सर यह तह दिल से कहते थे कि जो रिलायंस के लिए अच्छा है वही भारत के लिए भी अच्छा है और जो भारत के लिए अच्छा है वह रिलायंस के लिए अच्छा है.
मुकेश आगे कहते हैं, “जैसे जैसे साल बीतते गए, मिश्रा अंकल के साथ मेरा निजी रिश्ता पापा से इतर मजबूत होता गया, जिस तरह से उन्होंने मेरे पिता की मदद की थी, उसी तरह से उन्होंने रिलायंस को बनाने से जुड़ी मेरी सोच को आकार देने में मेरी मदद की-यह नया भार मेरे कंधों पर रखा गया था.” इस दौरान, ओआरएफ “सरकारी महकमों, राजनीतिक प्रतिष्ठानों, राजनयिक बिरादरी, शैक्षणिक पोर्टलों और बुद्धिजीवी वर्ग में सम्मान की नजर से देखा जाने लगा था.” चाचा की सफलता का राज राजनीतिक और अलग-अलग वैचारिक पृष्ठभूमि के लोगों के साथ घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध बनाए रखने की अद्भुत क्षमता में थी. कोई आश्चर्य नहीं है कि वह न सिर्फ हर प्रधानमंत्री के बल्कि लगभग हर पार्टी के नेताओं के साथ बातचीत के कुशल माध्यम बनाने और जारी में रखने में सफल थे.
हमिश मैकडॉनल्ड ने पॉलिएस्टर प्रिंस की अगली किताब अंबानी एंड संस लिखी है. इसमें वह लिखते हैं कि “मिश्रा रिलायंस समूह का बुद्धिजीवी चेहरा थे और दिल्ली के उस ब्राह्मण नेटवर्क के केंद्र थे जो अब अपनी सेवाएं धीरूभाई के बाद मुकेश को देने लगा था.”
पीवी नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान, ओआरएफ अपना पहला कदम उठा रहा था, इस दौरान भी मिश्रा प्रधानमंत्री के बेहद करीब थे. सतीश मिश्रा ब्राह्मण में लिखते हैं, 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद राव ने मिश्रा को “चार विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस पार्टी के मीडिया अभियान को तैयार करने का काम दिया.” 1994 में इंडिया टुडे ने छापा, “धीरूभाई अंबानी की हर समस्या हल करने वाले सबसे पहले राव के करीब तब पहुंचे जब हर्षद मेहता ने प्रधानमंत्री को पैसे देने का दावा किया था.” द पॉलिएस्टर प्रिंस कुख्यात आर्थिक तिकड़बाज मेहता को “रिलायंस के शेयर की कीमत से जुड़े काम करने वाला” बताती है और लिखा है कि जब मेहता जांच के घेरे में आए तो रिलायंस ने उनसे अपने रिश्तों की जानकारी को दफना दिया.
जब उस दशक के दूसरे हिस्से में कांग्रेस में गिरावट हुई और बीजेपी का उदय हुआ तो मिश्रा के इस उभरती पार्टी में भी कई दोस्त बन गए. यह सिर्फ वाजपेयी के प्रधान सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र तक सीमित नहीं था. इनके अलावा वाजपेयी के ऑफिस में आर्थिक सलाहकार एस नारायणन, भाषण लिखने वाले और सहायक सुधींद्र कुलकर्णी और विशेष कार्य अधिकारी एनके सिंह भी मौजूद थे. बाद में सब ओआरएफ से जुड़ गए.
आउटलुक में 2001 के एक लेख में लिखा है, “बीजेपी के भारत में पीएम के प्रधान सचिव ब्रजेश मिश्र और आर्थिक मामलों के विशेष कार्य अधिकारी एनके सिंह फैसले लेते हैं. कुछ व्यापारिक लॉबियों की वजह से अहम आर्थिक फैसले देश पर थोपे जा रहे हैं.”
रविशंकर प्रसाद किताब में लिखते हैं कि उन्हें मिश्रा से पहली बार उनकी टीवी पत्रकार बहन ने 1998 में मिलवाया. इसके एक साल बाद 1999 के आम चुनाव में बीजेपी ने नेतृत्व वाले गठबंधन में वाजपेयी पीएम बने और प्रसाद राज्यसभा सांसद के तौर पर दिल्ली आए. वह लिखते हैं कि लगभग हर महीने वह और मिश्रा “कम से कम एक से दो बार मिलकर लंबी बातचीत करते थे.” वह संसद में “सुधार जैसे विषयों पर भाषण देते थे जिससे जुड़े मार्गदर्शन के लिए वह मिश्राजी के पास आते थे.”
जब उन्हें कोयला और माइन का राज्यमंत्री नियुक्त किया गया तो प्रसाद ने “बड़े उत्साह से इन दोनों क्षेत्रों में सुधार शुरू किया, उन्हें लगा कि आधारभूत संरचना के लिए यह बेहद अहम है, खास तौर से ऊर्जा के लिए.” वह मानते हैं कि “मिश्राजी की अहम सलाह बहुत काम आई.” रिलायंस तब अपने हितों को उर्जा उत्पन्न और वितरण करने की ओर बढ़ा रहा था और 2002 में उसने बॉम्बे सबअर्बन इलेक्ट्रिक सप्लाई कॉर्पोरेशन को नियंत्रण में कर लिया था.
इसके बाद प्रसाद के सूचना एवं प्रसार राज्य मंत्री बनाया गया, इसी समय “मीडिया में विदेश निवेश एक बेहद अहम मुद्दा बन गया था.” वह कहते हैं कि मिश्रा से सलाह मांगने के बाद उन्होंने दिशानिर्देशों का मसौदा तैयार किया जिसे बाद में सरकार ने हरी झंडी दे दी. इसमें विदेश निवेशकों को भारतीय मीडिया में बहुमत वाला स्वामित्व और संपादकीय नियंत्रण देने पर मनाही थी.
पत्रकार मुकुंद पद्मनाभ ने मिश्रा की एक भतीजी से शादी की थी और वर्तमान में द हिंदू के संपादक हैं, वह किताब में लिखते हैं कि उन्होंने मिश्रा के घर पर एक रात्रिभोज में हिस्सा लिया था “जो पूरी तरह से एक नए समाचार चैनल को शुरू करने की बातचीत से जुड़ा था.” उन्हें बाद में महसूस हुआ कि यह “भारत के बाहर से चलने वाले एक वैश्विक चैनल से जुड़ा था ... इसे आप भारत के अल जजीरा से समझ सकते हैं.”
यह मिश्रा के जीवन के अंत के दौरान था और चैनल कभी साकार नहीं हो सका. ऐसे ही अमेरिका में ओआरएफ का ऑफिस भी नहीं खुल पाया-मिश्रा को लगता था कि ओआरएफ ऐसा लंबे समय से चाहता है.
2009 में मिश्रा के दाह संस्कार में बीजेपी का लाल कृष्ण आडवाणी, कांग्रेस के दिग्विजय सिंह और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के एबी वर्धन के अलावा मुकेश अंबानी भी शामिल हुए थे. तब के भारत के उप राष्ट्रपति और ओआरएफ के विशिष्ठ फेलो हामिद अंसारी भी इस दौरान मौजूद थे और अगले साल उन्होंने ए ब्राह्मण विदाउट कास्ट का विमोचन किया. विमोचन समारोह में तब के वित्त मंत्री और थिंक टैंक के कार्यक्रमों में हमेशा हिस्सा लेने वाले प्रणव मुखर्जी मुख्य अतिथि थे.
मिश्रा के निधन के बाद उनकी और ओआरएफ के भविष्य के निदेशक की जगह कौन लेगा का सवाल अहम बन गया. ओआरएफ के वर्तमान ट्रस्टी और मुकेश अंबानी के विश्वासपात्र भरत गोयनका ने थोड़े समय के लिए इसका नेतृत्व किया. इससे जुड़ी बातचीत से जुड़े एक व्यक्ति ने बताया कि उन्होंने मिश्रा की जगह लेने वाले की खोज तेज की. तब के ओआरएफ के ट्रस्टी ब्रजेश मिश्र को एक मजबूत उम्मीदवार बताया जा रहा था. संजॉय जोशी के चुने जाने की संभावना नहीं थी. उन्हें निदेशक का पद दिया गया था और अभियानों को चलाने की जिम्मेदारी भी.
गोयनका कई सालों तक अध्यक्ष पद पर बने रहे. वह अभी भी ऑब्जर्वर (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक हैं, ऑबजर्वर ऑफ बिजनेस एंड पॉलिटिक्स के मालिक भी, हालांकि जब से अखबार छपना बंद हुआ है तब से कंपनी का कामकाज सीमित हो गया है.
नेतृत्व में हुए बदलाव से कर्मचारियों से मंथन जुड़ा मंथन पैदा हुआ. सईद नकवी उन कई लोगों में से थे जिन्होंने ओआरएफ से संबंध तोड़ दिए. उन्होंने मुझसे कहा, मिश्रा के जाने के बाद, “एक आदमी के हाथों में बहुत ज्यादा ताकत दे दी गई.” पहले मिश्रा “मालिक और कर्मचारी के बीच बने रहते थे. उनके निधन के बाद यह पूरी तरह बदल गया.” ओआरएफ “समारोह-आयोजन और बौद्धिक पतन का अड्डा बन गया. वहां काम करने से आपके सीवी में कुछ नया नहीं जुड़ने वाला था, सिवाय असंगठित कूटनीतिक सर्कल के.”
जोशी 2007 में वरिष्ठ फेलो के तौर पर ओआरएफ से जुड़े, इसके पहले उन्होंने पेट्रोलियम मंत्रालय में अपना पद छोड़ा और पहले रिटायरमेंट ले लिया. रिलायंस से उनकी घनिष्ठता किसी सवाल से परे थी. एक कर्मचारी ने मुझे बताया कि मिश्रा के ओआरएफ वाले दिल्ली ऑफिस जाने के सिलसिले में एक बार जोशी के साथ पीएमएस प्रसाद भी थे जो कि पेट्रोलियम के मामले में रिलायंस के बेहद अहम व्यक्ति हैं.
लेकिन ओआरएफ जोशी का इकलौता प्रोजेक्ट नहीं था. वह अभी भी रिलायंस के पेट्रोलियम और गैस नीति पर काम कर रहे हैं और आज भी कंपनी को अपना समय देते हैं. कई कर्मचारियों ने कहा कि वह अक्सर रिलायंस के मुंबई मुख्यालय आते हैं, कई बार तो हर हफ्ते वहां आते हैं.
जोशी ताम-झाम से दूर रहे हैं, हालांकि कभी कभार उन्हें मीडिया में अपनी बात कहने की जरूरत महसूस हुई है-जैसे कि उन्होंने एक बार द हिंदू में रंगराजन कमिटी का बचाव किया था. 2014 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मांग की कि भ्रष्टाचार के आरोपों के लिए मुकेश अंबानी को दो मंत्रियों के साथ आपराधिक आरोपों का सामना करना चाहिए, जोशी एक टीवी पैनल में आए और इस विचार को सिरे से खारिज कर दिया.
अगले साल पेट्रोलियम मंत्रालय से जुड़ी खुफिया जानकारी साझा करने के मामले में कई संदिग्धों की गिरफ्तारी हुई, उन्होंने अपने विचारों वाले एक लेख में तर्क दिया कि समय की मांग सुरक्षा को और पुख्ता करना नहीं है, क्योंकि इसका वजह से खुफिया जानकारी की मांग बढ़ जाएगी, बल्कि समय की मांग पारदर्शिता है. उन्होंने लिखा, “न तो हमें देशी प्रतिभा को कम आंकना चाहिए न ही उस भूख को कम करके देखना चाहिए जिसमें खतरा उठाना और उस रास्ते से फायदा हासिल करना है जो उद्यमशीलता के मामले में कभी न नहीं कहने वाली भावना से जुड़ा है.”
साफ है कि जनसंपर्क जोशी के बस की बात नहीं है. ऐसे में ओआरएफ को बाहरी दुनिया के सामने पेश करने का भार मोटे तौर पर समीर सरण के कंधों पर आ गया है. सईद नकवी कहते हैं, “जोशी बॉम्बे और रिलायंस के साथ व्यस्त रहते हैं, जबकि समीर सरण दिल्ली संभालते हैं. वे एक दूसरे के काम में दख्ल नहीं देते-यह आपसी समझ है.”
सरण के पिता गुरु सरण हैं-जो कि भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी थे और केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के सदस्य भी थे. वे 1990 की शुरुआत में रिलायंस से जुड़े थे और 2008 में उपाध्यक्ष के तौर पर ओआरएफ का हिस्सा बने. 2018 में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया. तब तक जोशी को संस्था का प्रमुख बनाया जा चुका था.
सरण की रिलायंस वाली ओआरएफ प्रोफाइल के मुताबिक “उन्होंने इसके लिए फाइबर और पेट्रोकेमिकल्स, पावर, टेलीकॉम, रिटेल और मीडिया वर्टिकल्स में विभिन्न क्षमताओं में सेवा दी है.” वे इस दौरान थिंक टैंक को लेकर अनभिज्ञ नहीं थे. एक ओआरएफ कर्मचारी ने बताया कि शंकर अडावल एक बार मिश्रा से मिलने आए. अडावल रिलायंस के कॉर्पोरेट मामले के अध्यक्ष थे और मीडिया में उनकी अच्छी पैठ थी. कॉर्पोरेट मामलों के उपाध्यक्ष के तौर पर इस दौरान अडावल का सहयोग किया.
रिलायंस के एएन सेथुरमण और वी बालासुब्रमणियम जैसे कार्यकारियों के साथ अडावल पर 1998 में सरकारी गोपनीयता अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए थे. मामले खुफिया सरकारी दस्तावेज रखने का था और इसकी जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो ने की थी. 2015 में पेट्रोलियम मंत्रालय से अवैध रूप से हासिल किए गए दस्तावेजों के मामले में गिरफ्तारी के बाद अडावल से पुलिस ने पूछताछ की थी और उनके ऑफिस पर भी छापा मारा गया था.
2014 में मिलेनियम पोस्ट बेवसाइट पर एक लेख में लिखा गया था, “अभी जो ओआरएफ का उपाध्यक्ष है, वही कुछ साल पहले रिलायंस के कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट का प्रमुख था और गैस की कीमतों को सही ठहराते हुए कई अखबरों और टीवी चैनलों में खबर चलवाने का भी काम किया था.”
2007 में सरण रिलायंस से अलग हो गए और मीडिया स्टडीज में मास्टर डिग्री की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए. अगले साल जब वह वापस आए तो उन्हें ओआरएफ का हिस्सा बनाया गया. बाद में उन्होंने पर्यावरण अध्ययन में पीएचडी की.
रिलायंस की कॉर्पोरेट मामलों की टीम के लिए काम करने वाले एक व्यक्ति ने मुझे बताया, “हमें सिर्फ इतना बताया गया कि समीर अध्ययन करने के लिए गए हैं. हमें उनके जाने का सही कारण नहीं पता था. लेकिन यह हुआ तो अचानक से था.” व्यक्ति ने कहा कि कॉर्पोरेट अफेयर टीम को “मुख्य तौर से सरकार द्वारा दी जाने वाली वैधानिक मंजूरी से लेना-देना होता है” लेकिन सरण “खास तौर से मीडिया के साथ जुड़ने और गहन संबंध बनाने को लेकर आतुर थे. कॉर्पोरेट अफेयर उन्हें सीमित करने जैसा रहा होगा क्योंकि इसमें सख्त प्रोटोकॉल और विभाजन होते हैं.” जब वह ओआरएफ से जुड़े, “यह किसी आम घटनाक्रम की तरह लगा.”
सरण मीडिया से संबंध और नैटवर्किंग के मामले में ओआरएफ को धनी कर दिया. हर पार्टी के नेता के साथ उनकी दोस्ती है, इनमें कांग्रेस के सांसद शशि थरूर भी शामिल हैं-जिससे ओआरएफ को मजबूती मिलती है. अरुण मोहन सुकुमार ने सरण के साथ कई लेख लिखे हैं, हाल में उन्होंने घोषणा की कि वह आने वाले आम चुनाव में थरूर की टीम का हिस्सा बन रहे हैं. सुकुमार की ट्विटर प्रोफाइल पर लिखा है कि वह बिना तनख्वाह वाली छुट्टी लेकर विदेश से पीएचडी कर रहे हैं. थिंक टैंक की साइबर गवर्नेंस वाली लिस्ट के प्रमुखों में अभी भी उनका नाम शामिल है.
बिना किसी शक के शरण संस्था का सार्वजनिक चेहरा हैं और इसे पैसे देने वालों की बढ़ती संख्या और विविधता के लिए उन्हें सबसे ज्यादा श्रेय दिया गया है, ऐसा ही ओआरएफ के नए देशों और नए क्षेत्रों में फैलने के मामले में भी है. लेकिन एक ओआरएफ कर्मचारी ने मुझसे कहा कि जबकि “सरण ओआरएफ के मामले में ताकतवर नजर आते हैं, लेकिन बाकी के पैसे से जुड़े फैसले और अन्य बड़े फैसले जोशी लेते हैं.” थिंक टैंक के एक पूर्व फेलो ने कहा कि अंतत: “ओआरएफ में तमाम बड़ी नियुक्तियों को रिलायंस ग्रुप हरी झंडी देता है. अहम नियुक्तियों पास हों इसके पहले रणनीतिक समझ पर जोर दिया जाता है. और यह वे लोग होते हैं जो मुकेश अंबानी को सही लगते हैं और रिलायंस के भविष्य की महत्वकांक्षाओं के लिए सही होते हैं.”
दिसंबर 2017 में अपनी 40वीं सालगिरह मनाने के लिए रिलायंस ने शानदार उत्सव रखा था. सरण ने लिंक्डइन पर एक पोस्ट में लिखा “यह #रिलायंसपरिवार के लिए खास दिन है.” उन्होंने लिखा कि 24 सालों के शानदार सफर का हिस्सा बनकर गौरवान्वित महसूस करते हैं और अपने काम के बारे में लिखा- “संचालन, इंजीनियरिंग, खरीद, वित्तपोषण, विनियामक मामले और अब @orfonline पर काम कर रहे हैं.” इसमें उन्होंने रिलायंस के निदेशक निखिल मेसवानी, इसके अध्यक्ष श्रीनिवासन बी और कॉर्पोरेशन समूह के संचार प्रमुख रोहित बंसल को टैग किया.
ओआरएफ की वेबसाइट पर घरेलू फंडिंग से जुड़ी जो जानकारी है वह सिर्फ अप्रैल 2016 तक की है. 2015 में हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट में छपा था कि बीते दशक में ओआरएफ का सालाना बजट कई गुना बढ़ गया है और 25 करोड़ हो गया है. रिपोर्ट में कहा गया, “रिलायंस अभी भी ओआरएफ को समर्थन दे रहा है. अगर 2009 में ओआरएफ का 95 प्रतिशत बजट कंपनी से आता था, तो अब यह 65 प्रतिशत हो गया है क्योंकि संस्था अपने सूत्रों का विस्तार कर रही है जिसमें सरकार, निजी उद्योगपति, विदेश संस्थाएं और अन्य भी शामिल हैं.”
पहले रायसीना डायलॉग के दौरान ओआरएफ की विदेशी फंडिंग में भारी उछाल आया. 2010 तक इस थिंक टैंक को विदेशों से चंदा देने वालों से एक साल में एक करोड़ से ज़्यादा नहीं मिलता था. 2014-15 वित्त वर्ष में यह पांच करोड़ हो गया और 2015-16 में जब पहला रायसीना डायलॉग हुआ था तो यह संख्या लगभग दोगुनी हो गई. 2017-18 वित्त वर्ष में ओआरएफ को विदेश फंड के तौर पर आठ करोड़ रुपए मिले. पैसे देने वालों में राजनयिक मिशन, कई विदेशी संस्थान और फेसबुक और माइक्रोसॉफ्ट जैसे कॉर्पोरेशन भी शामिल थे. इन सबने मिलकर करीब 20 प्रतिशत चंदा दिया था. 2015-16 में यह हिस्सा कुल हिस्सा का 30 प्रतिशत हो गया.
घरेलू सूत्रों से ओआरएफ जो फंडिंग मिलती है, उसमें से हमेशा की तरह सबसे बड़ा हिस्सा रिलायंस का होता है. हाल के सालों में रिलायंस ने 20 करोड़ रुपए तक की फंडिंग दी है. 2016-17 में यह ओआरएफ की आधी फंडिंग के बराबर था. 2017-18 में रिलायंक का कुल हिस्सा 60 प्रतिशत के करीब था. वित्तीय खुलासे से जु़ड़ी रिलायंस की सालाना रिपोर्ट में ओआरएफ का नाम नहीं आता है. थिंक टैंक इस बात को स्वीकार करता है कि रिलायंस इसे फंड करता है लेकिन यह नहीं बताया कि किस खास हिस्से से यह पैसे आते हैं. संस्था की फंडिंग से जुड़ी 2015 वाली हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट में लिखा था कि “एक ट्रस्ट भी है जिसे ओआरएफ रिपोर्ट करता है, जो कम से कम पेपर पर रिलायंस से स्वतंत्र है.”
मुकेश और उनकी पत्नी नीता रिलायंस फाउंडेशन के निदेशक हैं, यह रिलायंस के लिए मानव कल्याण का काम करने वाली संस्था है और निजी कंपनी के तौर पर पंजीकृत है. कंपनी के मुख्य कार्यकारी जगन्नाथ कुमार ओआरएफ बोर्ड के एक ट्रस्टी हैं. रिलायंस फाउंडेशन की विनियामक फाइलिंग में ओआरएफ का कोई जिक्र नहीं है.
मैंने जोशी और सरण को ओआरएफ की फंडिंग ठिक कहां से आती है, इससे जुड़े सवाल भेजे. मैंने उनसे साक्षात्कार के लिए भी कहा और उन्हें ओआरएफ को अभियानों से जुड़े अन्य अवधारणाओं से जुड़े सवाल भी भेजे, साथ उनके खुद के पहले के काम और अभी के संपर्कों के बारे में भी पूछा. न तो जोशी ने जवाब दिया न ही सरण ने. रिलायंस के कार्यकारी तुषार पनिया ने भी ओआरएफ को दी जाने वाली रिलायंस की फंडिंग और थिंक टैंक से कंपनी के संबंधों से जुड़े सवालों का जवाब नहीं दिया.
ओआरएफ से बाहर जोशी और सरण के कई निजी कंपनियों में हित हैं. विवेक राय और अजय खंडेलवाल के अलावा जोशी सुलभ एनर्जी और ची एनर्जी के निदेशक हैं. सरकारी इंडियन ऑयल में राय स्वतंत्र निदेशक थे, पिछले साल उन्होंने इस्तीफा दे दिया. 2017 तक खंडेलवाल रिलायंस के खोज और उत्पादन के निदेशक थे, इसके बाद उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया और अब स्वतंत्र रूप से काम करते हैं. उन्होंने मुझसे फोन पर कहा कि सुलभ और ची दोनों ही अब काम नहीं कर रहे और अब उनका रिलायंस से कोई लेना-देना नहीं है. जोशी और सरण दोनों ही एक जीट्रेड कॉर्बन एक्स रेटिंग सर्विस के निदेशकों में शामिल हैं.
जोशी और सरण दीवान हाउसिंग फाइनेंस कॉर्पोरेशन और इसके अध्यक्ष कपिल वाधवां से भी जुड़े हैं. जोशी डीएचएफएल जनरल इंश्योरेंस और डीएचएफएल प्रिमैंरिका लाइफ इंश्योरेंस के स्वतंत्र निदेशक हैं, यहीं वाधवां निदेशक भी हैं. सरण वाधवां ग्लोबल कैपिटल के स्वतंत्र निदेशक हैं और वाधवां खुद प्रबंध-निदेशक. वाधवां ग्रुप रायसीना डायलॉग का हिस्सेदार है. 2017 की शुरुआत तक रिलायंस के बाद डीएचएफएल ओआरएफ को फंड करने के मामले में दूसरे नंबर पर था.
भारत के सबसे बड़े गैर-बैंकिंग कर्ज देने वालों में शामिल डीएचएफएल का मुख्य व्यापार गिरवी चीजों को बेचना है. डीएचएफएल पैसों का जुगाड़ बैंक से लोन लेकर करता है और निजी निवेश के तहत वित्तीय बाजार से भी तेजी से पैसे ले रहा है. इसे हजारों करोड़ रुपए का कर्ज देने वालों में सरकारी बैंक भी शामिल हैं.
पिछले महीने खोजी न्यूज वेबसाइट कोबरापोस्ट ने रिपोर्ट किया था कि डीएचएफएल ने बड़ा घोटाला किया है, इसने शेल कंपनियों को संदिग्ध लोन दिया है जिसके रास्ते वाधवां और उनके परिवार द्वारा चलाए जा रहे व्यापार तक पैसा पहुंचा है. दरअसल, इन्होंने सरकारी बैंकों और निजी निवेशकों से पैसा इकट्ठा करके कार्पोरेशन के प्रमोटरों को दे दिया. जांच में पता चला कि कुछ मामलों में वाधवां ने संदिग्ध बिचौलियों का इस्तेमाल करके पैसे विदेश में पहुंचाए और विदेशी संपत्ति खरीद ली. कोबरापोस्ट के हिसाब से डीएचएफ ने धोखेबाजी भरे तरीके से 31000 करोड़ रुपए पर हाथ साफ किया है. इस दौरान कई नागरिक और आपराधिक कानून तोड़े गए. कॉर्पोरेशन ने हाल के सालों में बीजेपी को भी 20 करोड़ रुपए का चंदा दिया है.
जोशी और सरण ने डीएचएफएल और वाधवां से उनके संबंधों से जुड़े सवालों का जवाब नहीं दिया. धोखाधड़ी पर भारतीय कानून कहता है कि कंपनी के निदेशकों पर जुर्माना लगाया जा सकता है या जेल भेजा जा सकता है.
जोशी और सरण ने मिश्रा की विविध लेकिन समझदार दोस्ती और भर्ती वाली विरासत को संभाल रखा है.
जिन दिग्गजों का नाम लिया जा चुका है उनके अलावा हाल के वर्षों में ओआरएफ से जुड़े पूर्व नौकरशाहों में खुफिया विभाग के प्रमुख के तौर पर सेवानिवृत्त हुए टीवी राजेश्वर और तलमीज अहमद, एचएचएस विश्वनाथ, पिनक रंजन चक्रवर्ती और राकेश सूद जैसे पूर्व नौकरशाह भी शामिल हैं. ऊंचे पर पर विराजमान नौकरशाहों को भी ओआरएफ आदतन नौकरी देता रहा है और उनमें कई अभी इसके कर्मचारी हैं.
बीजेपी के रविशंकर प्रसाद से लेकर कांग्रेस के शशि थरूर और मनीष तिवारी तक ओआरएफ ने अपनी आदत के अनुसार सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष दोनों ही जगहों पर अपने दोस्त बनाए रखे हैं. ओआरएफ के साथ काम करने वाले एक पत्रकार ने मुझसे कहा कि थिंक टैंक हमेशा विपक्ष के नेताओं को अपने कार्यक्रमों में बुलाता है, हालांकि यह सत्ताधारी ताकत को सम्मान देना नहीं भूलता.
2018 में सरण ने ओआरएफ की विदेशों में पहुंच के लिए वैश्विक सलाहकार बोर्ड के गठन की घोषणा की. कार्ल बैल्डिट के अलावा स्वीडन के प्रधानमंत्री कई साइबर-गवर्नेंस बॉडीज का हिस्सा हैं, इस समूह में कनाडा के पूर्व पीएम स्टीफेन हार्पर और कई जानी-मानी हस्तियां हैं. इसमें भी कपिल वाधवां शामिल हैं.
एक तरफ जहां धीरूभाई मुट्ठी भर अखबार मंगाया करते थे, वहीं मुकेश के पास अब रिलायंस के सहायकों के जटिल नेटवर्क और संबंधित कंपनियों के सहारे शानदार मीडियो होल्डिंग्स हैं, खास तौर से टीवी में.
और फिर ओआरएफ की पुरानी आदत है- इतनी पुरानी जितनी पुरानी यह संस्था है- पत्रकारों को बुलाने की. अपने शुरुआती दिनों में द ऑबजर्वर ऑफ बिजनेस एंड पॉलिटिक्स ने अपनी कवरेज में सिर्फ रिलायंस का पक्ष लेने का काम नहीं किया बल्कि रिलायंस पर होने वाले मीडिया के हमले का भी विरोध किया. ए ब्राह्मण विदाउड कास्ट में सईद नकवी लिखते हैं कि अखबार ने “पत्रकारों की तनख्वाह इस कदर बढ़ा दी कि नए रिपोर्टरों ने धीरूभाई की आलोचना का स्वर कमजोर कर लिया”- ताकि उनके भविष्य की नौकरी के दरवाज़े खुले रहें. प्रेम शंकर झा ने मुझे बताया कि उस समय अंबानी परिवार “पत्रकारों को घूस देता था और कई सारे पत्रकार उनकी तनख्वाह पर पल रहे थे. उन्होंने मीडिया के साथ कभी समानता का रिश्ता नहीं बनाया.”
ओआरएफ के कई कर्मचारियों से मेरी बात हुई जिनमें पत्रकार भी शामिल थे, उन्होंने मुझे बताया कि ओआरएफ उनका काम नहीं तय करता और संस्था कभी अपने हिसाब से उनके विचार को प्रभावित नहीं करती. कई ने कहा कि ओआरएफ ने उन्हें उनकी रुचियों और परियोजनाओं को साकार करने का वह मौका दिया जो उनके उद्योगों ने नहीं दिया. थिंक टैंक से संबद्ध कुछ लोगों के लिए यह सच हो सकता लेकिन सबके लिए नहीं.
गौतम चिकरमाने के मामले को लीजिए. वह द हिंदुस्तान टाइम्स, द इंडियन एक्सप्रेस और आउटलुक मनी जैसी संस्थाओं में उच्च संपादकीय पदों में रहने के बाद 2014 में न्यू मीडिय निदेशक के रूप में रिलायंस से जुड़े. चार साल बाद, सरण के पद छोड़ने के बाद वह ओआरएफ के उपाध्यक्ष बन गए.
चिकरमाने रिलायंस में जाना ठीक तब हुआ जब उनके द्वारा सह-लिखित किताब को रिलीज किया गया. द डिसरपटर: अरविंद केजरीवाल एंड का ऑडैशियश राइज ऑफ द आम आदमी पार्टी मोटे तौर पर दिल्ली के नेता और उनकी पार्टी का प्रशांसनीय स्केच था. जब चिकरमाने और उनके साथ किताब लिखने वाले का साक्षात्कार किया गया, साक्षात्कार करने वाले ने इन्हें बताया कि “केजरीवाल ने रिलायंस इंडस्ट्रीज पर घोर पूंजीवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगाया है और कंपनी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाया है. यह देखना दिलचस्प है कि अब चिकरमाने रिलायंस के लिए न्यू मीडिया के निदेशक के तौर पर काम करते हैं, क्योंकि आप दोनों ही पूरी किताब में केजरीवाल के लिए सहानुभूतिक सोच रखते हैं.” चिकरमाने ने जवाब दिया, “मैं इस पर कुछ नहीं बोलूंगा.” 2018 में छपे एक लेख में जिसका शीर्षक “केजरीवाल के आरोपों वाली राजनीति का पतन” चिकरमाने ने लिखा कि “केजरीवाल के आरोप कुछ नहीं बल्कि उल्झन पैदा करने की राजनीतिक साजिश है.”
रिलायंस के संचार समूह के प्रमुख रोहित बंसल पहले द टाइम्स ऑफ इंडिया और द फाइनेंशियल एक्सप्रेस के साथ काम कर चुके हैं और ओआरएफ के लगभग एक दशक पुराने विशिष्ट फेलो हैं. वह इंडिया टीवी में वरिष्ठ पद पर रह चुके हैं और इस दौरान उन्होंने चैनल के एंकर और मीडिया टाइकून रजत शर्मा के साथ काम किया और जी न्यूज में भी वह सुभाष चंद्रा के साथ काम कर चुके हैं. बसंल ने मुझे बताया, “मैं रिलायंस इंडस्ट्रीज के लिए काम करता हूं. थिंक टैंक के साथ मेरे संबंध का उससे कोई लेना-देना नहीं जहां मैं काम करता हूं.” 2014 में मीडिया की निगरानी करने वाले द हूट में एक लेख छपा था. इसमें लिखा था कि ट्विटर पर बंसल और चिकरमाने की एक-दूसरे और पत्रकार बीवी राव को रीट्वीट करने की आदत थी. राव तब रिलायंस के समाचार और संचार के निदेशक थे. उनके ट्वीट-रीट्वीट मुकेश की पत्नी नीता अंबानी की उपलब्धियों से जुड़े विषयों से संबंधित होते थे.
थिंक टैंक की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक इंडियन एक्सप्रेस, आउटलुक और हिंदुस्तान टाइम्स के साथ काम कर चुके पत्रकार सैकत दत्ता 2014 से ओआरएफ के विजिटिंग फेलो रहे हैं. फरवरी के मध्य तक उनकी लिंक्डइन प्रोफाइल की जानकारी में लिखा था कि वह मार्च 2015 में जोखिम कम करने वाली रणनीति के प्रमुख के तौर पर रिलायंस से जुड़े और उस पद पर नवंबर 2016 तक बने रहे. इसमें यह भी लिखा है कि मई 2016 से उन्होंने वेबसाइट स्क्रॉल के परामर्शदाता संपादक के तौर पर काम किया-रिलायंस छोड़ने के छह महीने पहले-सितंबर 2017 तक. दत्ता अभी हॉन्ग-कॉन्ग स्थित एशिया टाइम्स ऑनलाइन के संपादक हैं.
मैंने सैकत दत्ता को उनके पेशे के ढर्रे और ओआरएफ से रिश्ते से जुड़ी एक प्रश्नावली भेजी. उन्होंने जवाब में लिखा, “मुझे याद नहीं कि मैं कब से ओआरएफ से जुड़ा रहा हूं या मैं ओआरएफ से जुड़ा भी रहा हूं. कई साल पहले ओआरएफ ने मुझे ‘विजिटिंग फेलो’ का पद दिया था. मुझे इसका मतलब नहीं पता, क्योंकि मुझे इस पद की वजह कभी कोई लाभ नहीं मिला.” उन्होंने कहा कि “किसी संस्थानिक संबंध में बुलाए जाने से जुड़ी कोई बात उन्हें याद नहीं, सिवाय स्थापना दिवस भोज के जो कि एक सालाना कार्यक्रम है.”
वहीं रिलायंस के लिए उन्होंने लिखा, “मैं कभी इस कंपनी का कर्मचारी नहीं रहा. मैं रिलायंस ग्लोबल कॉर्पोरेट सिक्योरिटी (आरजीएसएस) का कर्मचारी था जो रिलायंस इंडस्ट्रीड की एक सहायक कंपनी है ...मेरा काम मुख्यत: आतंक रोधी और साइबर सिक्योरिटी से के मामलों से जुड़ा रहता था.” दत्ता ने यह नहीं बताया कि उन्होंने अपनी लिंक्डइन प्रोफाइल पर खुद को “रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड का खतरा कम करने वाली रणनीति का वीपी और प्रमुख” क्यों लिख रखा है. 2015 में जब वह साइफाइ के एक पैनल में शामिल हुए थे तो इस आयोजन में उनके बारे में लिखा गया था “सैकत दत्ता – रिलायंस इंस्ट्रीज.”
2017 से ओआरएफ के एक वरिष्ठ फेलो सुशांत सरीन 2000 के दौर में ओआरएफ के पाकिस्तान सेंटर के माननीय निदेशक थे. उन्होंने तहलका से डेक्कन हेराल्ड जैसी मैगजीनों और अखबरों के लिए लिखा है और उन्होंने जिहाद फैक्ट्री: पाकिस्तान्स इस्लामिक रेवॉल्यूशन इन मेकिंग नाम की एक किताब भी लिखी है. उन्होंने वरिष्ठ फेलो के तौर पर विवेकानंद फाउंडेशन में भी सात साल बिताए हैं. 2009 में अजीत डोभाल द्वारा इसे शुरू किए जाने के बाद वह इससे जुड़े थे. डोभाल अभी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं.
पिछले महीने कश्मीर के पुलवामा जिले में जिस आत्मघाती हमले में सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स के 40 लोग मारे गए, कार्यकर्ता गुरमेहर कौर ने पाकिस्तान के खिलाफ हमले की तेज होती मांग के विरोध में ट्वीट किया, उनका तर्क था कि इससे कभी न रुकने वाली सिर्फ हिंसा को बढ़ावा मिलेगा. कौर एक आर्मी कैप्टन की बेटी हैं जिन्हें कश्मीर में ड्यूटी के दौरान मार दिया गया था. सरीन ने जवाब में लिखा, “मुझे लगता है कि जिहादी कैंप में सेक्स गुलामी मिलेनियलों की नई कल्पना है, एक ऐसी चीज जिसके लिए यह बत्दिमाग लोग तरसते हैं.” लोगों द्वारा लताड़े जाने के बाद उन्होंने ट्वीट डिलीट करके माफी मांग ली. ओआरएफ ने कहा कि इस घटना को संस्थान ने यौन उत्पीड़न पर आंतरिक शिकायत समिति के सामने पेश किया है.
ओआरएफ के पहले और वर्तनान के बाकी मीडिया सहयोगी जिनमें थिंक टैंक के मुंबई परिचालन के पूर्व प्रमुख और ब्लिट्ज के कार्यकारी संपादक से वाजपेयी के सहायक रहे सुधींद्र कुलकर्णी भी शामिल हैं. उन्होंने अखबार के धुर वमापंथी पक्ष को हिंदू दक्षिणपंथ की ओर मोड़ने का काम किया. 2014 में पार्टी छोड़ने तक कुलकर्णी ने बीजेपी सदस्य के तौर पर कई साल बिताए. 2011 में उन्हें पहले हुए वोट के बदले नोट घोटाला मामले में गिरफ्तार किया गया था लेकिन बाद में छोड़ दिया गया था.
टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व अनुभवी स्तंभकार और तहलका के अलावा द पायनियर के पूर्व परामर्श संपादक अशोक मलिक ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को प्रेस सचिव नियुक्त किए जाने से पहले ओआरएफ में समय बिताया. इंडो-एशियन न्यूज सर्विस के प्रधान संपादक संदीप बज़्मी संस्था के पूर्व विजिटिंग फेलो रहे हैं. ओआएरफ में वह तब थे जब उन्होंने 2015 में मेल टूडे के संपादक के पद से इस्तीफा दिया था. इस्तीफा उनके दस्तावेजों के लीक होने के बाद सामने आया था जिनमें इस पर एस्सार समूह से फायद लेने के आरोप लगे थे.
ओआरएफ के एक सलाहकार एचके दुआ द ट्रिब्यून, हिंदुस्तान टाइम्स, और द इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे और वाजपेयी के अलावा एचडी देवगौड़ा के मीडिया सलाहकार के तौर पर भी काम किया. विशिष्ठ फेलो मनोज जोशी टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक थे और द हिंदू और फाइनेंशियल एक्सप्रेस के संवाददाता थे.
कांग्रेस अलाकामन के बीच गहरी पैठ वाले पत्रकार रशिद किदवई भी इसके विजिटिंग फेलो हैं. उन्होंने सोनिया गांधी की जीवनी और बड़े कांग्रेस नेताओं का इतिहास लिखा है. ओआरएफ के साइबर गवर्नेंस के प्रमुख अरुण मेनन सुकुमार जो कि अभी शशि थरूर के पुनर्चुनाव अभियान टीम का हिस्सा हैं, पहले द हिंदू के संपादक थे.
एनडीटीवी के साथ कई सालों तक टीवी पत्रकार रही माया मीरचंदानी अभी न्यूज वेबसाइट द वायर के लिए एक शो करती हैं. वह भी संस्था की वरिष्ठ फेलो हैं. (2016 के पहले रायसीना डायलॉग के लिए द वायर पार्टनर था.) यही मामला ब्लूमबर्ग और बिजनेस स्टैंडर्ड के लिए सक्रिय स्तंभकार का है और इसमें एनडीटीवी की एंकर नगमा सहर जैसे नाम भी शामिल है. सहर अभी संजॉय जोशी के साथ बातचीत की एक वीडियो सीरीज करती हैं, जिसे ओआरएफ के सोशल मीडिया पेज पर पोस्ट किया जाता है.
थिंक टैंक के सहयोगी टीवी पैनल, संपादकीय विचार पेज और न्यूज वेबसाइटों पर साफ नजर आते हैं. उनके बीच ऐसे मीडिया हाउस होते हैं जो पृष्ठभूमि और राजनीतिक झुकाव के एक विस्तृत समूह से लाखों पाठकों और दर्शकों तक उनके विचारों को पहुंचाते हैं. ओआरएफ के कई पत्रकार फेलो ऐसे हैं जिसकी मीडिया में गहरी पैठ है, ऐसे मीडिया हाउसों में जहां इनके फेलो को जगह दी जाती है.
एक तरफ जहां धीरूभाई अपने लिए मुट्ठी भर अखबार मंगाते थे, रिलायंस के जटिल सहायकों के नेटवर्क और सहायक कंपनियों के जरिए मुकेश के पास भारी मीडिया होल्डिंग्स हैं. 2007 में रिलायंस ने इंडिया टीवी में हिस्सेदारी खरीदी. यह भारत के सबसे मशहूर चैनलों में शामिल है. कॉर्पोरेशन ने 2009 में एनडीटीवी को भी लोन दिया था जिसे बाद में इक्विटी में बदल लिया गया और अब इस चैनल पर इनका प्रभावी नियंत्रण है. रिलायंस का न्यूज नेशन में खासा हिस्सा है और न्यूज 24 को भी बड़ा लोन दिया है.
सबसे बड़ा इनाम 2014 में हाथ लगा जब रिलायंस ने नेटवर्क 18 समूह को अपना बना लिया जो कि कई भाषाओं में अपने चैनल चलाता है. नेटवर्क 18 ने रायसीना डायलॉग की विस्तृत और आकर्षक कवरेज की है, यही हाल इसकी कई वेबसाइटों में से एक फर्स्टपोस्ट का भी रहा है. कंपनी 2016 रायसीना डायलॉग में पार्टनर थी.
फर्स्टपोस्ट के संपादक बीवी राव रिलायंस के समाचार और संचार के पूर्व निदेशक थे. वेबसाइट पर अक्सर ओआरएफ के फेलो लोगों की समीक्षा छापी जाती है. फर्स्टपोस्ट ने हाल ही में अखबार छापना भी शुरू किया है.
ईटीवी नेटवर्क पर भी नेटवर्क 18 का ही नियंत्रण है. रिलायंस का इंडिया टीवी, न्यूज 24 और न्यूज नेशन जैसी बड़ी मीडिया होल्डिंग वाली कंपनियों के साथ भी संबंध रहा है.
2014 में द हूट पर एक लेख छपा था. इसमें लिखा था कि नेटवर्क 18 “मीडिया के लोगों के लिए रोजगार के बढ़ते अवसर के मामले में संभवत: इकलौती जगह हैं क्योंकि बाकी जगहों पर छंटाई हो रही है. इसके अलावा ओआरएफ में भी बहुत से वरिष्ठ पत्रकार हैं और फेलो हैं.”
इनमें से कई से मैंने इस कहानी से जुड़े साक्षात्कार के लिए पूछा, इनमें कई ऐसे थे जिनका ओआरएफ से कोई औपचारिक नाता नहीं था लेकिन वह इस पर या मीडिया पर इसके प्रभाव के बारे में बात करने को राजी नहीं थे. एक बड़े पत्रकार जो कि इस थिंक टैंक के कई कार्यक्रमों में मध्यस्थ के तौर पर आए हैं, उन्होंने मुझसे कहा कि ओआरएफ के बारे में बात करना हितों का टकराव होगा. असल में यह किन हितों से टकराएगा यह नहीं बताया गया.
नकवी गौर करते हैं, “वह लोग कितने ताकतवर होंगे की लोग बात करने से भी डरते हैं. या ताकत के केंद्र में विराजमान चंद लोगों पर कितने सारे लोग आश्रित हैं.”
2014 में मिलेनियन पोस्ट में छपे लेख में सरण को “अलग-अलग चैनलों और अखबारों में खबरें परोसने” वाले के तौर पर चिन्हित किया गया है. इसे सुजीत नाथ नाम के रिपोर्टर ने लिखा था और इसका शीर्षक था, “कैसे अंबानी के रिलायंस ने व्यवस्था को भ्रष्ट बना दिया.” नाथ अभी न्यूज 18 में काम करते हैं जिसे नेटवर्क 18 चलाता है. जब मैंने नाथ से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि उन्हें लेख के बारे में याद नहीं है. जब मैंने उन्हें लेख का लिंक भेजा तो उन्होंने कहा कि उन्होंने यह सब कभी नहीं लिखा और मिलेनियम पोस्ट के संपादकीय डेस्क से कोई ग़लती हुई है. वेबसाइट के प्रकाशक औऱ संपादक दरबार गांगुली ने बाद में मुझे पुख्ता जानकारी दी कि नाथ ने मिलेनियम पोस्ट के लिए काम किया था और उन्होंने ही यह लेख लिखा था.
अगर रेज्यूमे देखें तो सरण के पास बाकियों की तुलना में यह समझने का बेहतर मौक था की भारतीय मीडिया कैसे काम करती है. कई साल पहले जब वह ओआरएफ के उपाध्यक्ष थे, उन्होंने इंडिया टूडे में एक लेख छापा जिसका शीषर्क है “मुझे संपादक बनना पसंद है.” यह एक व्यंग्यात्म लेखा था-इसी की तर्ज पर पहले लिखे गए एक लेख का शीषर्क “मुझे भारतीय बनना पसंद है” था जिसमें जाहिर तौर पर राष्ट्रवादी मध्यम वर्ग के तरीकों का माखौल बनाया गया था- लेकिन बाकी के तमाम व्यंगों की तरह वास्तविकता में थोड़ी नींव के बगैर इसकी भी इसके अपेक्षित निशाने पर चोट करने की उम्मीद बेकार थी.
सरण ने लिखा था, “खबर पूरी तरह से धारणाओं के बारे में हैं और मैं जादूगरों का बादशाह हूं. मुझे आपकी कल्पना को भड़काने में मजा आता है और मुझे संपादक बनने में भी मजा आता है.” इन आखिरी पांच शब्दों को बचाव के तौर पर इस्तेमाल किया गया था.
मंत्रियों के लिए मेरी सिफारिशें, संवैधानिक पदों के लिए, हर उस चीज के लिए जिसका भारतीय धरती पर कोई मतलब है, उसके बहुत मायने हैं. मुझे धुरी होने से प्यार है, मुझे संपादक होने से प्यार है.
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प्रकटीकरण: लेखक ने अपनी मास्टर्स की डिग्री पूरी करने के बाद ओआरएफ में रिसर्च असिस्टेंट के पद के लिए आवेदन दिया था.
अपडेट: इस कहानी के छपने के बाद स्क्रॉल के संपादक ने जवाब दिया कि जहां तक उनकी जानकारी है, सैकत दत्ता ने स्क्रॉल में परामर्श संपादक का पद संभालने के पहले अपनी पिछली नौकरी छोड़ दी थी. यह भी कहा गया कि दत्ता के लिंक्डइन प्रोफाइल पर मौजूद तारीखें गलत हो सकती हैं. दत्ता ने कारवां को दिए गए जवाब में तारीखों को गलत नहीं बताया है. दत्ता ने उसके बाद से अपनी प्रोफाइल पर तारीखें बदल दी हैं ताकि दिखा सकें कि उन्होंने अक्टूबर 2016 में रिलायंस छोड़ दिया और अगले महीने स्क्रॉल से जुड़ गए.
(द कैरवैन के मार्च 2019 अंक में प्रकाशित. अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)