(एक)
जम्मू और कश्मीर विधानसभा अपने शरद कालीन सत्र के लिए 3 अक्टूबर 2015 को पहली बार बैठ रही थी. वह दिन कई जानी-मानी शख्सियतों, जिनमें अधिकतर सियासतदान थे, जैसे पूर्व मंत्री मीर गुलाम मोहम्मद पूंची, गुलाम रसूल कर, और अब्दुल गनी शाह वीरी, को श्रद्धांजलि देने में गुजर जाने वाला था. इस सूची में पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का नाम भी था.
सत्र के अंत में राज्य के मुख्यमंत्री और सभा के नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद बोलने के लिए खड़े हुए. अपनी बाज-सरीखी नाक, सफेद बर्फ-सरीखे बाल, आंखों के नीचे भारी थक्कों और संजीदा चेहरे के साथ, सईद किसी चिड़चिड़े प्रोफेसर जैसे दिखाई दे रहे थे.
सईद ने अपनी बात अपने साथी दिवंगत विधायकों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि देने से शुरू की. उन्होंने मक्का, सऊदी अरब में पिछले महीने हज करने गए हजारों तीर्थयात्रियों, जिनमे दो कश्मीरी भी शामिल थे, के भगदड़ में मारे जाने पर भी शोक व्यक्त किया. सईद ने हादसे की “विश्वसनीय जांच” की मांग रखी और अवाम को आरोपण-प्रत्यारोपण के खेल से दूर रहने का मशविरा दिया. इसके बाद कुरान की आयत पढ़ना शुरू किया.
हालांकि, बीच में ही उनकी याददाश्त जवाब दे गई और जुबान लड़खड़ाने लगी. आयत याद करने की जुगत में हवा में आयें बाएं अपने हाथ लहराए और मदद के लिए अपनी दाईं ओर बैठे साथी की तरफ देखा; लेकिन वहां पर उन्होंने पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के सदस्य की बजाय, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के निर्मल कुमार सिंह को बैठा पाया, जो उस वक्त मिलीजुली सरकार में उप मुख्यमंत्री थे. इस बात का एहसास किए बिना कि एक हिन्दू को भला कुरान की आयत कैसे याद होगी, सईद ने उनकी तरफ बड़ी उम्मीद भरी निगाहों से देखा. सिंह की नज़र में कठोरता थी. सदन में मुस्कुराहटें और दबी हुई हंसी के फुव्वारे बिखर गए. आखिरकार ट्रेज़री बेंचों पर बैठे साथी सदस्यों ने सईद को आयत याद दिलाकर शर्मसार होने से बचाया.
यह वैसे तो एक मुख़्तसर सी बात थी, लेकिन शायद ही कभी पहले घटी हो. भाजपा पहली बार 2015 में राज्य सरकार का हिस्सा तब बनी जब उसने दो महीने तक चले मोलभाव के बाद, सईद की पीडीपी के साथ गठबंधन किया. 2014 के अंत में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों के बाद, पीडीपी 28 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी; और बीजेपी 25 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर थी. दोनों पार्टियां स्पष्ट बहुमत से कोसों दूर थीं.
मुख्तलिफ विचारधाराओं वाली इन दोनों पार्टियों का एक साथ आकर सरकार बनाना हैरान करने वाला फैसला था. एक तरफ जहां पीडीपी वोटों के लिए कश्मीर घाटी के मुसलामानों पर निर्भर करती थी; वहीं दूसरी तरफ, बीजेपी का वोटर आधार जम्मू क्षेत्र के हिन्दू थे. दोनों ही तंजीमें बेहद बुनियादी से सवालों, जैसे, जम्मू और कश्मीर तथा भारतीय संघ के बीच कैसा रिश्ता हो, को लेकर भी एक-दूसरे से आंख नहीं मिलाती थीं. 1999 में वजूद में आने के बाद से ही पीडीपी, “नरम अलगाववाद” के नजरिए का समर्थन करती आई है. इसका मानना रहा है कि अलगाववादियों, मिलिटेंट और पाकिस्तान से बातचीत की जानी चाहिए. यह राज्य के लिए व्रह्तर स्वायत्तता की भी मांग उठती रही है. जबकि दूसरी तरफ, बीजेपी इस तरह के रवैये की खिलाफत करती आई है. वह अनुच्छेद 370 को संविधान के सफों से ही हटाने की मांग करती आई है, जो राज्य को दिए गए विशेषाधिकारों और कुछ हद तक स्वायत्तता दिए जाने के लिए जिम्मेवार रहा है.
दोनों तंजीमों के बीच इस खाई की परवाह किये बगैर, सईद ने गठबंधन को आगे बढ़ाया. इसके लिए वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने के किए फरवरी के अंत में दिल्ली भी आए. बातचीत के बाद दोनों नेताओं ने प्रतीक्षारत कैमरों के सामने गलबइयां भी डालीं. सईद ने पत्रकारों को भरोसा दिलाया कि "देश की जनता ने जो स्पष्ट जनादेश केंद्र सरकार को दिया है, उसके चलते यह एक ऐतिहासिक मौका है." चुनाव नतीजों ने यह दिखा दिया था कि "कश्मीर घाटी में जनता की पसंद पीडीपी थी और जम्मू में बीजेपी,” उन्होंने कहा, इसलिए दोनों तंजीमों ने “साथ मिलकर एक ऐसी सरकार बनाने का फैसला किया जो रियासत के सभी इलाकों में चहुमुखी विकास लेकर आएगी.”
हालांकि, ये गलबइयां ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाई. मार्च महीने के शुरू में ही नई सरकार बनने के बाद, प्रेस कांफ्रेंस के दौरान सईद ने अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस के साथ-साथ “पाकिस्तान और जंगी संगठनों के प्रति आभार व्यक्त किया जिन्होंने विधानसभा चुनावों का राज्य में होना मुमकिन बनाया.” यह एक भड़काऊ बयान था और जैसी कि उम्मीद की जा रही थी, इसने हंगामा खड़ा कर दिया. भड़काऊ टीवी एंकरों से इशारा पाते ही, ट्विटर पर भी जंग सी छिड़ गई और सबने मिलकर सईद को पकिस्तान प्रेमी मुख्यमंत्री घोषित कर दिया. मोदी को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा और उन्होंने संसद को भरोसा दिलाया कि “अगर कोई इस तरह की बयानबाजी करता है तो हम उसका समर्थन कत्तई नहीं कर सकते.”
तभी से दोनों पार्टियों ने, एक-दूसरे को नीचा दिखाने में खासा वक्त और ताकत लगाई है. वे आलगाववादी मसारत आलम भट्ट को जेल से छोड़ने के मसले से लेकर, अमरनाथ यात्रा के हेलिकॉप्टर पर प्रस्तावित टैक्स, गौ-ह्त्या पर पाबंदी के पुराने कानून को पुनर्जीवित करने और मेडिकल कॉलेज का निर्माण कहां हो के मसलों तक पर लड़ते-झगड़ते रहे. इनमें से कई असहमतियों के मुद्दों पर तो मजहबी जज्बात भारी पड़ते लगे और कुछ एक ने तो सड़कों पर हिंसा की वारदातों को भी जन्म दिया. सरकार के शुरूआती दिनों में तो सईद ने यहां तक दावा किया कि यह गठबंधन जम्मू और कश्मीर को एक दूसरे के करीब लाने का मौका है. लेकिन एक के बाद एक मुद्दे राज्य में तनाव को बढ़ाते चले गए. हकीकत में, सरकार दोनों सूबों के लोगों के बीच की दूरी को पाटने की बजाय और ज्यादा बढ़ाती चली गई. सईद इस पूरे दौरान असहाय लगे.
सईद के लिए खुद को इस बदकार पल में पाना निस्संदेह अरुचिकर रहा होगा. उनका अधिकांश राजनीतिक जीवन, भारत सरकार के साथ नजदीकी ताल्लुकातों में गुजरा है. वे जम्मू और कश्मीर में केंद्र के विश्वासपात्र रहे हैं, जो केंद्र सरकार के लिए राज्य पर अपना संपूर्ण नियंत्रण रखने में मददगार रहा है. हालांकि उनको भी अपने हिस्से की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता का सामना करना पड़ा है, खासकर, अब्दुल्लाह परिवार से, जो राज्य की राजनीति में एक लम्बे समय से हावी रहा है. लेकिन बंद कमरों में साजिशें रचना, सईद का खास अंदाज रहा है. वे खुले में दुश्मनी मोल लेने के कभी मुरीद नहीं रहे. आज उन्हें चारों तरफ से घिरा देखकर, यह सोच पाना मुश्किल होता है कि इस तरह का कुछ, एक ऐसे इंसान के साथ हो रहा है जिसने आधी सदी तक पेचीदा राजनीतिक चालबाजियों को मुमकिन बनाया हो वही शख्स आज अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती कर बैठा.
{दो}
एक अवकाशप्राप्त सरकारी मुलाजिम, जिनकी सईद के राजनीतिक जीवन पर शुरू से नजर रही है और जिनसे मेरी मुलाकात बीजबेहारा में हुई, ने बड़ी बेबाकी से कहा कि “हम कश्मीरी उन्हें चोइबाज कहते हैं – एक षड्यंत्रकारी या साजिशकर्ता.” सईद की शख्सियत और उनकी सियासत की इस कहानी को बयान करने के लिए मैंने करीब सौ लोगो से इंटरव्यू किया. इस सिलसिले में, मैंने सईद के पूर्व और वर्तमान साथियों; मुख्यधारा और अलगाववादी हलकों के सियासतदानों; परिवार के सदस्यों; उनके सबसे करीबी दोस्तों; उनको जानने वाले नौकरशाहों, पत्रकारों और सुरक्षाकर्मियों; और पूर्व उग्रवादियों समेत और भी कई लोगों से मुलाकात की.
हालांकि सरकारी मुलाजिम ने, सईद का जो खाका पेश किया था वो बाकि लोगों के खाके से मेल खाता था, लेकिन जिस किस्म के सियासतदान के रूप में वे उभर कर सामने आए वह किसी शून्य से नहीं जन्मा था. बल्कि इसका सन्दर्भ भारतीय राज्य की जम्मू और कश्मीर में जम्हूरियत और सियासत पर बाज-सरीखी पकड़ में खोजा जा सकता है. उन्होंने इस माहौल में प्रासंगिक बने रहने और फलने-फूलने का हुनर बखूबी सीख लिया था. जम्मू और कश्मीर में दशकों से खेली जा रही भारत सरकार की चालबाजियों, जिसने राज्य में लोकतंत्र को इस हद तक तोड़-मरोड़ कर रख छोड़ा है कि अब उसकी शिनाख्त करना भी संभव नहीं रह गया है, सईद को समझने के लिए जरूरी है.
सईद का जन्म 1936 में श्रीनगर से 40 किलोमीटर दूर अनंतनाग जिले के बीजबेहारा में हुआ. वे सूफी मजारों और मस्जिदों की निगरानी करने वाले रसूखदार पीरों के परिवार से ताल्लुक रखते थे. गैर कश्मीरी उन्हें अक्सर “कश्मीर के मुसलमान ब्राह्मण” भी कहकर पुकारते थे. सियासत में सईद की दिलचस्पी बचपन से ही जाहिर होने लगी थी, जब उन्हें उनकी स्कूल फेडेरशन का प्रेसिडेंट नियुक्त कर दिया गया. “एक बार हफ्तावार मीटिंग में जब टीचर ने हमारी महत्वकांक्षाओं के बारे में पूछा तो मैंने कहा मैं इंग्लिश का टीचर बनना चाहता हूं,” सईद के उस वक्त के साथी मकबूल अहमद नदीम ने बताया. “लेकिन मुफ्ती ने कहा उनकी ख्वाइश लीडर बनने की है.” सईद ने आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से अरबी और कानून की तालीम हासिल की और 1959 में अनंतनाग लौटने के बाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में वकालत शुरू कर दी.
लेकिन उनका जूनून तो कहीं और बसता था. सईद के जानने वालों में सतत्तर-वर्षीय अब्दुल मजीब खतीब, जिनसे मैं पिछले सितंबर अनंतनाग कोर्ट के परिसर में मिला, ने बताया वे “एक औसत दर्जे के वकील थे क्योंकि हमारी तरह ही उनका ध्यान सियासत की तरफ ज्यादा था.”
डेमोक्रेटिक नेशनल कांफ्रेंस (डीएनसी) के जिला संयोजक की हैसियत से सईद की पहली सियासती मुलाकात 1960 में हुई. वामपंथी विचारधारा वाले नेताओं ने नेशनल कांफ्रेंस से टूट कर, यह तंजीम विपक्ष के रूप में खड़ी की थी. कहने को तो यह एक विपक्षी दल था, लेकिन अधिकतर लोगों का मानना था कि डीएनसी को विपक्षी जामा पहनाकर खड़ा करने के पीछे केंद्र का हाथ था. केंद्रीय सरकार के साथ, इसके सभी नेताओं के आजीवन नजदीकी संबंध बने रहे.
उस समय के सक्रिय मजदूर यूनियन नेता और पार्टी से संबंध रखने वाले, संपथ प्रकाश कुंडू के मुताबिक, अपने गठन के दो साल बाद ही जवाहर लाल नेहरू के दबाव में डीएनसी बिखर कर टूट गई. सईद समेत इसके कई प्रमुख नेता, नेशनल कांफ्रेंस (एनसी) में शामिल हो गए. नेहरू ने एनसी के मूल नेता शेख अब्दुल्लाह को 1953 में कश्मीर की आजादी की पैरवी करने के जुर्म में जेल में डाल दिया (वे अगले दो दशकों तक, अधिकांश समय जेल में ही रहे). उनकी जगह नेहरू ने बख्शी गुलाम मोहम्मद को नेशनल कांफ्रेंस का मुखिया तथा जम्मू और कश्मीर का सदरे रियासत बना दिया. जिस एनसी में सईद शामिल हुए वह असल में कांग्रेस का ही खोल थी.
इस बात के मद्देनज़र कि कांग्रेस का राज्य के चुनावों पर पूरा नियंत्रण था, जब पार्टी ने 1962 में बीजबेहारा विधानसभा सीट के लिए सईद का नाम एनसी के प्रत्याशी के रूप में नामांकित किया तो उनकी जीत तयशुदा थी. दो साल बाद नेहरू ने इस स्वांग से भी छुटकारा पा लिया कि नेशनल कांफ्रेंस एक अलेहदा पार्टी है. तत्कालीन सदरे रियासत गुलाम मोहम्मद सादिक की मदद से नेशनल कांफ्रेंस का कांग्रेस में विलय कर दिया गया.
‘कश्मीर का शेर’ कहलाने वाले शेख अब्दुल्लाह, जब-जब जेल से बाहर आए उन्होंने कांग्रेस पर जबरदस्त हमला बोलना जारी रखा. अपने सार्वजनिक भाषणों में उन्होंने पार्टी के प्रमुख नेताओं के खिलाफ खुलकर बोला और आवाम से उनका बहिष्कार करने की अपील की. सईद भी उनके गुस्से का शिकार बने. बीजबेहारा के पुराने बाशिंदे अहमदुल्लाह शाह ने याद करते हुए बताया, गांव की एक रैली में शेख, मुफ्ती की खिल्ली उड़ाते हुए कह रहे थे, “मैंने सुना है कोई मल्लाकोट (मुल्ला की औलाद) यहां कांग्रेस का लीडर बना फिरता है.” सईद उस वक्त विधायक हुआ करते थे. सईद एक बहुत लोकप्रिय नारे का भी शिकार बने, “मुफ्तियां कबर काशीर-ए-नेबर” (मुफ्ती की कब्र, कश्मीर के बाहर). यह नारा इस बात की ताकीद करता लगता था कि वे मादरे वतन में दफनाए जाने की गरिमा बक्शे जाने के लायक भी नहीं हैं. ये काफी तीखा कटाक्ष था.
1964 में नेहरू के मौत के बाद और इंदिरा गांधी द्वारा पार्टी की कमान संभालने के बाद भी कांग्रेस में सईद के सितारे धीरे-धीरे चमकने की राह पर चलते रहे. सईद ने प्रमुख लीडरान, जैसे इंदिरा गांधी के करीबी माने जाने वाले दक्षिण कश्मीरी नेता, माखनलाल फोतेदार के साथ अपना मजबूत ताल्लुक बनाए रखा. 1967 में, उस वक्त के मुख्यमंत्री सादिक (अब तक सदरे रियासत कहने का चलन समाप्त हो चुका था) ने अपने इस पुराने डीएनसी साथी को कृषि और सहकारी संस्था मंत्रालय में उपमंत्री नियुक्त कर लिया.
लेकिन सादिक के साथ ताल्लुकात ने सईद को उन्हें उखाड़ फेंकने की साजिश में हिस्सा लेने से नहीं रोका. सईद द्वारा आने वाले वर्षों में विभिन्न नेताओं के खिलाफ इस तरह की कई साजिशों की कड़ी में यह पहली थी. इस तख्तापलट की साजिश की अगुआई, सादिक के प्रतिद्वंद्वी पार्टी के राज्य समिति के अध्यक्ष सैय्यद मीर कासिम कर रहे थे. सईद के करीबी, वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी मीर लासजन ने बताया कि ये सईद ही थे जिन्होंने “साजिश रची.” उन्होंने याद किया कि कासिम के वफादार 32 विधायक, “जाकर हाई कमांड से मिले और उन्होने सादिक के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने की इजाजत चाही...डिप्टी मिनिस्टर के पद से इस्तीफा देने वालों में सबसे पहले मुफ्ती थे,” लासजन ने कहा. हालांकि, इंदिरा गांधी ने इस पूरी योजना पर यह कहकर पानी फेर दिया कि उनसे सुलह कर लो. कासिम को खुश रखने के लिए उन्होंने उन्हें पब्लिक वर्क्स का मंत्री बना दिया.
जम्मू और कश्मीर में शेख के प्रभुत्व को कम करना कांग्रेस का सबसे सबसे बड़ा ध्येय था. इसी ध्येय की प्राप्ति के लिए सईद, जिन्हें 1972 में राज्य की कैबिनेट में जगह दी गई थी, ने शेख के संभावित दुश्मनों को पालने की रणनीति बनाई. ट्रेड यूनियन लीडर कुंडू ने बताया कि सईद ने जानबूझकर ट्रेड यूनियन आंदोलन को पनपने दिया, “बावजूद इसके कि हम एक संवेदनशील राज्य में उत्साही हो रहे थे.” उनके अनुसार, सईद के दिमाग में नक्शा साफ था. उन्होंने “मीर कासिम को ट्रेड यूनियन आंदोलन को न कुचलने की सलाह दी क्योंकि हम बाद में जाकर शेख को चुनौती दे सकते थे.”
शेख की व्यापक लोकप्रियता को देखते हुए, इंदिरा को शायद पता था कि राज्य की दीर्घकालीन राजनीतिक योजना में उन्हें शामिल करना ही होगा. उनको लंबे समय तक जेल में रखने का शायद एक मकसद यह भी था कि उन्हें कुंद और कांग्रेस से सहयोग के लिए तैयार किया जा सके. फोतेदार ने बताया कि वे शेख का दांया हाथ माने जाने वाले मिर्जा मोहम्मद अफजल बेग के जरिए “शेख पर काम कर रहे थे” ताकि उन्हें कांग्रेस के साथ सहयोग करने के लिए मनाया जा सके. फोतेदार ने कहा, “बेग ने मुझे बताया ‘माहौल बनाओ और हम साथ आ जाएंगे.”
इन प्रयासों का नतीजा, 1975 में संपन्न हुआ इंदिरा-शेख करार था. इसके बाद शेख को दिल्ली में कैद से आजाद कर राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया गया. लेकिन वे अब कांग्रेस के मुख्यमंत्री कहलाए. कई अलगाववादियों ने शेख के इस कदम को गद्दारी माना. “शेर को गीदड़ बना दिया,” उस समय के वरिष्ठ अलगाववादी नेता अशरफ सहराई ने मुझे बताया.
कांग्रेस नेताओं ने बताया कि शेख राज्य में कांग्रेस पार्टी के नेता भी बनना चाह रहे थे, लेकिन इंदिरा ने उनका यह प्रस्ताव नहीं माना. यह जिम्मेदारी उन्होंने सईद को राज्य इकाई का अध्यक्ष और कांग्रेस विधायकों का नेता बनाकर सौंप दी. कुछ मायनों में सईद के लिए यह एक प्रतिकारी राजनीतिक चाल थी. कार्यकारी शक्तियां पार्टी के पदों में नहीं बल्कि मंत्रालयों में निहित होती हैं, जिन्हें कांग्रेस ने अपने वफादारों से भर दिया था. “उनसे कम अनुभवी भी मंत्री बन गए, लेकिन उन्हें महरूम रखा गया,” शेख की आत्मकथा पर काम करने वाले मोहम्मद युसूफ तैंग ने बताया. तैंग के मुताबिक, सईद ने इंदिरा से कहा कि अगर वे शेख के मातहत काम करते रहे तो वे अपनी खुद की राजनीतिक पहचान और ताकत खो बैठेंगे.
शेख के साथ कांग्रेस का समझौता ज्यादा दिन नहीं टिक पाया. उस समय के युवा कांग्रेसी नेता और वकील खतीब ने बताया, शेख बिना पार्टी से मशविरा किए फैसले ले लिया करते थे. इससे भी बुरा तो यह था कि “वे कांग्रेस को गालियां निकाला करते जबकि वे हमारे कंधों पर मुख्यमंत्री बने थे. हम युवाओं ने केंद्रीय कांग्रेस के खिलाफ बगावत कर दी.” कुछ समय तक तो इंदिरा ने स्थानीय नेताओं की शेख को निकाल-बाहर करने की मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया. लेकिन धीरे-धीरे, शेख का बढ़ता प्रभाव उन्हें भी असहज करने लगा.
वर्ष 1977 में भारतीय राजनीति की चूलें उस वक्त हिल गईं, जब कांग्रेस पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर ‘कहीं-की-ईंट-कहीं-का-रोड़ा, भानुमती-ने-कुनबा-जोड़ा’ की तर्ज पर जनता पार्टी की अगुआई में चुनाव हार गई. इसको कुल 271 सीटें प्राप्त हुईं और इसने केंद्र में अपनी सत्ता कायम कर ली. यह देखते हुए कि इंदिरा इस वक्त खुद को कमजोर और असुरक्षित महसूस कर रही हैं, राज्य के नेताओं ने उन्हें शेख को अपदस्थ करने के लिए मनाने का एक और मौका देखा.
सईद इस साजिश में प्रमुख खिलाड़ी थे. “स्थानीय नेताओं ने उत्तर में पार्टी के पुनुरुत्थान के लिए कश्मीर को अपनी रणभूमि चुना, जहां वह विधानसभा में पहले से ही बहुमत में थी,” पत्रकार और लेखक एम.जे. अकबर ने अपनी किताब कश्मीर: बिहाइंड द वेल में लिखा. “वह अब्दुल्लाह से अपना समर्थन हटा सकती थी, उसकी जगह अपनी सरकार बना सकती थी और इंदिरा गाँधी को राज्य से लोक सभा सीट दिलाकर उन्हें पुन: राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में ला सकती थी.” अकबर ने लिखा, इंदिरा खुद को लेकर आश्वस्त नहीं थीं और हार ने उन्हें मानसिक रूप से तोड़ कर रख दिया था. उन्होने आगे लिखा, “कांग्रेस नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद के इस ‘फ़ीनिक्स प्लान’” को उन्होंने रोका नहीं.
कांग्रेस विधायकों ने शेख से अपना समर्थन 16 मार्च 1977 को वापस ले लिया और सईद ने तत्कालीन गवर्नर एल.के. झा से गुजारिश की कि राज्य में सबसे बड़ी पार्टी का नेता होने के नाते उन्हें मुख्यमंत्री घोषित किया जाए और सरकार का बनाने का मौका दिया जाए. लेकिन चालाक शेख ने पलट वार करते हुए, गवर्नर से सदन को भंग करने और फिर से चुनाव करने की सिफारिश कर दी. चुनाव से पहले नेशनल कांफ्रेंस को नए सिरे से खड़ा करके वे एक बार फिर केंद्र से टक्कर लेने निकल पड़े.
केंद्र में जनता पार्टी के मातहत करवाया गया सतत्तर का चुनाव, व्यापक रूप से राज्य का पहला धांधलियों से मुक्त चुनाव माना जाता है. “ऐसा पहली बार हुआ कि नामांकन एकमुश्त खारिज नहीं किए गए, नामाकन पत्र गायब नहीं हुए, प्रत्याशियों पर नामांकन वापस लेने के लिए दबाव नहीं डाला गया, और चुनाव से पहले राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया,” इंडिया टुडे ने लिखा. शेख ने पिछली बार 1952 में राज्य का नेतृत्व किया था. उसके बाद सत्ता लगातार तीन बार कांग्रेस के हाथ में रही. इसके बावजूद शेख ने राज्य के तीनों क्षेत्रों में सीटें हासिल कीं, जो इससे पहले कोई पार्टी नहीं कर पाई थी. कश्मीर घाटी में नेशनल कांफ्रेंस ने 42 में से 39 सीटें; जम्मू में, 32 में से सात; और लद्दाख में, दो में से एक सीट पर जीत हासिल की. घाटी में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली, जबकि जम्मू में उसने दस सीटों पर विजय हासिल की और लद्दाख में एक पर. सईद अपनी घरेलू सीट बीजबेहारा भी हर गए. यह कांग्रेस, इंदिरा और सईद के लिए शर्मनाक हार थी.
सतत्तर के चुनावों ने साफ-साफ दिखा दिया कि कांग्रेस पार्टी का ढांचा राज्य में कितना ढुलमुल था और मजबूत कैडर बेस वाली शेख की नेशनल कांफ्रेंस कितनी लोकप्रिय. इस शर्मनाक हार के बाद, सईद ने भी अपनी आस्तीनें चढ़ाकर कांग्रेस का कैडर बेस जमीनी स्तर पर तैयार करना शुरू कर दिया.
मैंने कश्मीर के कई कांग्रेसी नेताओं का साक्षात्कार किया और उन सभी ने इस दौर में सईद के काम की तारीफ की. “कश्मीर में कांग्रेस को खड़ा करने वाले वही एक शख्स हैं,” गुलाम नबी मोंगा ने कहा, जो इस वक्त राज्य में कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं. वे पार्टी से 1975 से जुड़े हुए हैं और उन्होंने सईद के साथ भी काम किया है. “वे किसी को सांस नहीं लेने देते थे. आज जो आप देखते हैं उसका श्रेय उन्हीं को जाता है.”
अगस्त के आखिरी सप्ताह में, मैं श्रीनगर में कांग्रेस के दुमंजिले दफ्तर में गया. वहां सभी वरिष्ठ नेताओं ने सईद को “जुर्रतमंद और वर्कर-परस्त” बताते हुए बहुत स्नेह से याद किया. चरमराती सीड़ियों के ऊपर एक कमरा है, जिसकी दीवारें पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्षों की तस्वीएरों से पटी पड़ी हैं. सईद की तस्वीर भी उनमे से एक है.
“किसी में भी शेख से टक्कर लेने की हिम्मत नहीं थी,” वरिष्ठ कांग्रेस कार्यकर्ता नजीर भट्ट ने बताया. “सतत्तर के बाद हमारे पास न ताकत थी न सत्ता, लेकिन मुफ्ती अकले डटे रहे और निर्विवाद नेता बनकर उभरे. मुझे कई कांग्रेसी सदस्यों ने बताया सईद पार्टी में काम करने के इच्छुक लोगों की तलाश में गांव-गांव घूमते थे. “वे साउथ कश्मीर के हर गांव के प्रत्येक घर को जानते हैं,” शोपियां के पूर्व विधायक अब्दुल रजाक वागे ने बताया.
“शेख साब एक बड़े दरख्त की तरह थे, जिसके आस-पास कुछ नहीं पनपता, न पनपने की जुर्रत करता है,” विजय धर ने कहा. “कोई भी जो आधार को बचा कर रख पाए उसके लिए यह बड़ी सफलता थी.” केंद्र में इंदिरा के समर्थन के साथ, राज्य इकाई के अध्यक्ष के नाते सईद, कश्मीर में समानांतर सरकार चला रहे थे. “मिसाल के तौर पर, अगर केंद्र सरकार के हज कोटे के तहत राज्य के लिए 4000 कोटा तय होता, तो उसमे से 500 अकेले मुफ्ती को दिए जाते,” श्रीनगर के तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर ने बताया. “अगर सरकार को कुछ परमिट बांटने होते तो उसका 25 फीसदी मुफ्ती के खाते में आता. अगर शेख ने उन एनसी के सदस्यों को पेंशन दी, जिन्होंने सैंतालीस की जंग में हिस्सेदारी की थी, तो मुफ्ती को भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बांटने के लिए कुछ पेंशन दी जाती. हालांकि, किसी ने भी कांग्रेस की तरफ से इस जंग में हिस्सा नहीं लिया था.”
सईद ने शेख पर सीधा हमला भी बोला. उन्होंने लगातार हड़तालें कीं और उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की किताब भी निकाली, जिसे कांग्रेस “रेड बुक” कहती थी. “उन्होंने उन्हें अर्श से फर्श पर ला खड़ा किया,” कुंडू ने बताया. “अगर मुफ्ती न होते तो उन्हें देवता का दर्जा मिला होता.”
सितंबर 1982 में शेख की हार्ट अटैक से मौत के बाद उनके बेटे फारूक ने नेशनल कांफ्रेंस की कमान संभाल ली, जो उस वक्त राज्य में स्वास्थ्य मंत्री भी थे. इंदिरा गांधी, जो उस वक्त तक केंद्र में वापस आ चुकीं थीं, की सहमति से फारूक जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री बना दिए गए. अगले कई सालों तक वे सईद की राजनीतिक नियति बने रहे.
इंदिरा गांधी ने शायद सोचा होगा कि बेटा अपने बाप से ज्यादा विनम्र राजनीतिज्ञ निकलेगा. उन दोनों के बीच बहुत स्नेह था और फारूक उन्हें प्यार से “मम्मी” कहकर बुलाते थे. लेकिन जल्दी ही इंदिरा को एहसास हो गया कि जब बात राजनीति की हो तो फारूक भी अपने वालिद की तरह अड़ियल निकले. 1983 के चुनावों से पहले जब उन्होंने गठबंधन की पेशकश की तो फारूक ने साफ इनकार कर दिया.
गुस्साई इंदिरा ने उनके खिलाफ केंद्र सरकार की सारी ताकत झोंक दी. सेना के हेलीकाप्टर से वे सईद के साथ मिलकर लगातार छह दिनों तक प्रचार अभियान में जुटी रहीं. इस पूरे अभियान में केवल सईद ही उनके साथ रहे, जो इस बात का सबूत था कि वे उन पर कितना भरोसा करतीं थीं. “आज इंदिरा के बाद वोट खींचने वाला सईद को माना जा रहा है,” इन्द्रजीत बधवार ने इंडिया टुडे में लिखा. “राज्य के सभी प्रमुख अखबारों में रोज एक चौथाई आकार के विज्ञापन छप रहे हैं...जिनमे केवल मुफ्ती की तस्वीर है.”
लेकिन इस घमासान युद्ध के बाद नेशनल कांफ्रेंस 76 में से 46 सीटें जीतकर विजेता होकर बाहर निकली. विधानसभा में फारूक को स्पष्ट बहुमत मिला था. सईद ने दो सीटों से चुनाव लड़ा था – बीजबेहारा और होम्शालीबाग़. वे दोनों सीटें हार गए.
जल्द ही इंदिरा, फारूक से बदला लेने की साजिश में जुट गईं. साल भर के अंदर ही उन्होंने फारूक पर पंजाब के खाड़कुओं को समर्थन देने का आरोप लगा दिया. सईद ने भी उन पर उग्रपंथी जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ़) के साथ संबंध रखने का आरोप लगाया. अपनी किताब, माय डिसमिसल में, फारूक ने लिखा उनको अलगाववादी घोषित करने के प्रयास के पीछे “देश भर में बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को भड़काना था ताकि मेरे खिलाफ लिए गए कदमों को न्यायोचित ठहराया जा सके और अपने लिए जन समर्थन जुटाया जा सके.”
अगले साल 1984 की गर्मियों में सईद ने खुद को एक बार फिर तख्तापलट की साजिश के केंद्र में पाया. इस बार इस साजिश की रचयिता इंदिरा थीं. फारूक ने किताब में लिखा इस प्लान का नाम “ऑपरेशन न्यू स्टार” रखा गया था. “मेरी सरकार को गिराने की साजिश को अंतिम रूप, दिल्ली में दिया गया...जब मुफ्ती सईद को वहां बुलाया गया,” फारूक ने लिखा. इस साजिश के तहत एनसी के विधायकों को पार्टी से दगा करने के लिए रिश्वत और फिर गवर्नर को फारूक को बर्खास्त करने की सिफारिश की जानी थी. लेकिन जब गवर्नर बी.के. नेहरू ने इनकार कर दिया तो उन्हें बदलकर जगमोहन को लाया गया. नए गवर्नर ने फारूक को तलब किया और उनसे कहा कि उनके 13 विधायक उनकी पार्टी से छिटक चुके हैं और उन्हें (फारूक को) बर्खास्त किया जाता है.
“नई सरकार को बनाने में बहुत पैसा खर्च हुआ था,” रॉ के पूर्व मुखिया ए.एस. दुल्लत ने अपनी किताब कश्मीर: द वाजपेयी इयर्स में लिखा. दुल्लत अस्सी के दशक से राज्य के कई सरकारी महकमों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे और उन्होंने राजनीतिक हलकों में चल रही गतिविधियों को नजदीक से देखा था. उनके मुताबिक, “पैसा आईबी के बैगों में भेजा गया और एक बड़े उद्योगपति, जो कांग्रेस का सांसद भी हुआ करता था, द्वारा बंटवाया गया.” यह यकीन करना मुश्किल था कि विधायकों को रिश्वत दी गई. सत्ता संभालने के बाद नए मुख्यमंत्री गुलाम मोहम्मद शाह ने सभी 13 विधायकों को कैबिनेट मंत्री बना दिया.
सईद 1985 में जम्मू के रणबीर सिंह पुरा से उप-चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचने में सफल हुए. लेकिन उनकी सबसे बड़ी हसरत उन्हें सालती रही. बी.के. नेहरू ने अपनी किताब में लिखा, “नेशनल कांफ्रेंस ने घाटी में 37 सीटें जीती थीं और कांग्रेस ने सिर्फ दो, लेकिन फिर भी इस सच्चाई ने सईद को जम्मू और कश्मीर का मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने से नहीं रोका.”
इस अनवरत मुहिम ने सईद को कुटिल चालें चलने के लिए प्रेरित किया होगा. 1986 में अयोध्या में जब बाबरी मस्जिद के ताले खोले गए तो देश के कुछ हिस्सों में दंगे हुए. अधितकतर कश्मीर शांत रहा लेकिन सईद के गढ़, अनंतनाग जिले में कुछ हिंसा की वारदातें घटित हुईं. यहां कई मंदिर तोड़े गए और पंडितों के घरों पर हमला किया गया.
अपनी रिपोर्टिंग के दौरान मुझे ऐसे आरोप भी सुनने में आए कि सईद ने ही इस हिंसा को उकसाया था. दंगों की रिपोर्टिंग करने वाले वरिष्ठ कश्मीरी पत्रकार युसूफ जमील ने बताया कि उन्होंने सुना था, “इन दंगों के पीछे कांग्रेस का हाथ है क्योंकि उसे शाह से दिक्कत है और पार्टी उससे छुटकारा पाना चाहती है.”
“कश्मीरी पंडितों के खिलाफ असुरक्षा का माहौल खड़ा किया गया,” चौरासी में जी.एम. शाह से विद्रोह करने और आगे चलकर पीडीपी की स्थापना करने वालों में से एक, गुलाम हसन ने बताया. “इसके पीछे मुफ्ती साहब का हाथ था,” उन्होंने जोड़ा. जिन पंडित नेताओं से मैं जम्मू में मिला उन्होंने भी इसके पीछे सईद का हाथ होने की बात दोहराई. “मुफ्ती ने दंगे करवाए,” निष्कासित कश्मीरी पंडितों के संगठन, पनून कश्मीर, के अध्यक्ष अजय कुमार चुरुन्गू ने बताया. उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस ने “एक समिति का गठन किया था, जिसमे मुफ्ती को दोषी पाया गया था, लेकिन उस रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया.” राज्य में फिलहाल के कांग्रेस उपाध्यक्ष, मोंगा के मुताबिक, “मुफ्ती मुख्यमंत्री बनना चाहते थे. उनकी गुल शाह के विधायकों से रजामंदी थी, जो उनको समर्थन देने के लिए तैयार थे. वे दबाव बना रहे थे. अगर केंद्रीय नेतृत्व तैयार हो जाता, तो वे मुख्यमंत्री बन जाते.”
लेकिन 1984 में अपनी मां की ह्त्या के बाद, कांग्रेस का दारोमादार अपने ऊपर लेने वाले राजीव गांधी के कुछ और ही मंसूबे थे. सईद को मुख्यमंत्री बनाने का साफ मतलब था, फारूक को नीचा दिखाना, जो उनके घनिष्ठ मित्रों में से एक थे. 7 मार्च 1986 को, राजीव ने शाह को निकाल बाहर किया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया. सईद को मुख्यमंत्री बनाने की बजाय उन्हें राज्य सभा का सदस्य बनाकर दिल्ली बुलवा लिया गया और केंद्र सरकार में पर्यटन मंत्रालय सौंप दिया गया. सईद को दिल्ली बुलाने का मतलब था फारूक को एक बार फिर से कश्मीर सौंपना. “राजीव और फारूक की दोस्ती, एक बार फिर से मुफ्ती साहब के अरमानों के बीच आ गई,” अनंतनाग से सईद के पुराने साथी और पीडीपी के सह-संस्थापक अब्दुल गफ्फार सोफी ने बताया.
(तीन)
नवंबर 1986 में राजीव और फारूक ने एक समझौते पर दस्तखत किए, जिसके बाद फारूक को राज्य का मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया. इस करारनामे में, केंद्र के सहयोग से राज्य में स्थिरता लाने का भी भी खाका दिया गया था. जब फारूक से पूछा गया कि स्पष्ट बहुमत होने के बावजूद उन्हें कांग्रेस के समर्थन की जरूरत क्यों पड़ी तो उनका जवाब था, “कांग्रेस केंद्र में सत्ताधारी पार्टी है. कश्मीर जैसे राज्य में अगर मुझे मुफलिसी और बीमारी से लड़ना है तो केंद्र के साथ आना ही पड़ेगा. यह एक कड़वी राजनीतिक सच्चाई है, जो मुझे स्वीकारनी होगी.”
सईद और अरुण नेहरू समेत राज्य में कई कांग्रेसी नेता इस करारनामे के पक्ष में नहीं थे. उन्हें डर था कि फारूक की वापसी राज्य में उनके प्रभाव को कम कर देगी. “मुफ्ती ने करारनामे की पुरजोर मुखालफत की.” सोफी ने कहा. “जो लोग नेशनल कांफ्रेंस से खफा होते थे वे कांग्रेस के पास आते थे और इसके ठीक उल्टा भी होता था. अब वे कहां जाएंगे?”
राजीव की पेशकश को मानने के पीछे शायद फारूक के दिमाग में बदले की भावना भी थी. बधवार ने इंडिया टुडे में लिखा कि उनका केंद्र को गले लगाने के पीछे एक कारण शायद नेशनल कांफ्रेंस के उन विधायकों की राजनीतिक मौत सुनिश्चित करना था, जो उसे 1984 में धोखा देकर छोड़ गए थे. दूसरा कारण, “सईद थे, जिन्होंने उनकी सरकार को गिराने की साजिश रची.”
फारूक ने सत्ता संभालते ही सईद के पुराने प्रतिद्वंद्वी, मीर लासजन मीर को अपनी कैबिनेट में जगह देकर सईद के प्रति विद्वेष को जाहिर कर दिया था. मीर ने हाल ही में, “मुफ्ती के भ्रष्टाचारों को लेकर एक लंबा गोपनीय खत प्रधानमंत्री को लिखा था,” बधवार ने लिखा. इस खत के मद्देनज़र, लासजन मीर को सिविल सप्लाईज और ट्रांसपोर्ट का महकमा दिया गया, “जो पारंपरिक रूप से मुफ्ती की सरपरस्ती का गढ़ रहा था और जहां उन्होंने सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार किया.” कड़वाहटों से भरे, सईद बीच में ही शपथ ग्रहण समारोह छोड़ कर चले गए.
हालांकि वे पार्टी से नाराज थे लेकिन राज्य में कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठतम नेता होने के नाते, सईद 1987 के चुनावों में प्रचार की जिम्मेवारी से बच नहीं सकते थे. उस वक्त मौके पर मौजूद एक वरिष्ठ सरकारी सुरक्षा अधिकारी ने बताया कि सईद ने अनंतनाग जिले के खनबल शहर में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) नाम की पार्टी का प्रचार किया जिसका चुनाव चिन्ह पेन और दवात था. यह एक नया गठबंधन था. हालांकि वे कांग्रेस का प्रचार करने का नाटक करते रहे. पार्टी के प्रचार अभियान पर नजर रखने के लिए, उस वक्त की कांग्रेस नेता नजमा हेपतुल्लाह भी उस रैली में मौजूद थीं. अधिकारी के मुताबिक, सईद ने मौजूद श्रोताओं से कहा, “मेरे कांग्रेसी साथियो, आपको यह बताने की जरूरत नहीं कि किसे वोट देना है.” उस अधिकारी ने बताया, इतना कहने के बाद, “उन्होंने अपनी जेब से पेन निकाला और उसे लेकर कभी एक हाथ तो कभी दूसरे हाथ से हवा में लहराते रहे...खाली हाथ से बीच-बीच में मुल्लाओं वाली काल्पनिक दाढ़ी सहलाने लगते...ये इशारा साफ तौर पर पेन और दवात तथा मुस्लिम फ्रंट के प्रत्याशियों की तरफ था.” मध्य प्रदेश की रहने वाली हेपतुल्लाह को कश्मीरी समझ नहीं आती थी इसलिए सईद का इशारा नहीं समझ पाईं.
हफ्तों चले इस प्रचार अभियान के बाद 23 मार्च 1987 को वोटिंग का दिन आया. अगले दिन ही गणना शुरू हो गई. जब पूरे राज्य से आने वाले जिलों के आंकड़े मिलाए गए तो पता चला कि एमयूएफ को वोटरों से भारी समर्थन मिला था. आज तक सही तौर पर यह नहीं पता चल पाया है कि आखिर एमयूएफ ने इन चुनावों में कितना बेहतर प्रदर्शन किया था. अधिकांश अनुमान इसके नाम 15 से 20 सीटें करते हैं, जो कि किसी भी नई तंजीम के लिए एक भारी सफलता मानी जाएगी. लेकिन इससे पहले कि अंतिम नतीजे सामने आते, सरकार ने राज्य में एक नई राजनीतिक ताकत के उभरने के डर से, इन चुनावों को निरस्त घोषित कर दिया.
“जैसे-जैसे नतीजे आते गए नई-नई विजेता सरकार राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के आरोप लगाकर एमयूएफ के नेताओं की गिरफ्तारियां करती चली गई,” चुनावों में धांधली के प्रत्यक्षदर्शी, बधवार ने लिखा. घाटी में कई जगह कर्फ्यू लगा था...जबकि कुछ सेंटरों पर वोट डाले जाने के पांच दिन बाद भी गणना जारी थी.” राजनीति शास्त्री सुमंत्रा बोस ने अपनी किताब, कश्मीर: रूट्स ऑफ कोंफ्लिक्ट, पाथ्स टू पीस में एमयूएफ के प्रत्याशी मोहम्मद युसूफ के बारे में लिखा. उनका विरोधी “चुनाव हारकर काउंटिंग सेंटर से निराश घर लौट गया था. लेकिन उसे चुनाव अधिकारी द्वारा वापस बुलाकर विजयी घोषित कर दिया गया.”
वरिष्ठ कांग्रेस नेता ताज मोहियुद्दीन, जो शुरू में एमयूएफ का हिस्सा थे, ने बताया, “नेशनल कांफ्रेंस ने नहीं बल्कि भारत सरकार ने धांधली की थी.” फारूक ने शुरू में इनकार किया लेकिन बाद में माना कि वाकई में धांधली हुई थी. हालांकि, उन्होंने इससे अपना दामन बचा लिया. 1993 में जब कश्मीर उग्रवाद की चपेट में था, इंडिया टुडे की हरिंदर बावेजा ने उनसे सवाल किया, “क्या इस समस्या की शुरुआत आपके द्वारा चुनावों में धांधली से नहीं हुई?” फारूक ने जवाब दिया, “मैं चुनावों में धांधली से इनकार नहीं करता, लेकिन यह मैंने नहीं की.”
वर्ष 1987 में आवाम की आवाज को बेशर्मी से कुचले जाने को, जम्मू और कश्मीर के इतिहास में एक परिवर्तनकारी मोड़ के रूप में देखा जाता है. व्यापक तौर पर यह माना जाता है कि आने वाले वर्षों में इस दमन ने उग्रवाद की लहर को जन्म देने में अपनी भूमिका निभाई. दहशतगर्दी का रास्ता अपनाने वाले मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के कई समर्थकों ने इस दमन के खिलाफ आगे बढ़ने के लिए हथियारबंद बगावत को ही इकलौता रास्ता माना. मोहम्मद युसूफ शाह ने, सईद सलाहुद्दीन बनकर, हिजबुल मुजाहीद्दीन की सरदारी की. 1987 में उनके चुनाव प्रबंधक रहे, यासीन मलिक ने जेकेएलएफ की कमान संभाली.
अस्सी के दशक के अंत तक आते-आते, सईद कांग्रेस से नाराज होकर सियासी तौर पर खुद की अलग पहचान बनाने के मौके की तलाश में थे. जब मई 1987 में मेरठ में साम्प्रदायिक दंगे हुए तो उन्हें यह मौका मिल गया. उन्होंने राजीव गांधी के “असंवेदनशील” रवैये की भर्त्सना करते हुए केंद्रीय पर्यटन मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और कश्मीर लौट गए.
उसी साल बधवार को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने राजीव के नेतृत्व की कड़ी आलोचना की. मेरठ दंगों के बाद उन्हें लगा देश में “सांप्रदायिक दरार” बढ़ गई है, उन्होंने कहा. लेकिन उन्होंने पाया राजीव “भावात्मक प्रतिक्रया देने में अक्षम” थे. उन्होंने राजीव-फारूक के बीच करारनामे और कांग्रेस के पुराने वफादार साथियों की अनदेखी करने के लिए भी राजीव को लताड़ा. सईद ने कहा कि करारनामे पर “मेरी राय लेना उन्होंने जरूरी नहीं समझा”. उनके मुताबिक, प्रधानमंत्री ने वफादार कांग्रेस कार्यकर्ताओं का अपमान किया था. राजीव “अपनी मां की तरह नहीं हैं...वे हमसे और लोगों से हर मुद्दे पर सलाह-मशविरा किया करतीं थीं. हमारे बलिदानों के बावजूद हमें मक्खियों की तरह बाहर फेंक दिया गया, हमें बौना बनाकर रख छोड़ा दिया.”
उसी साक्षात्कार में बधवार ने उनसे पूछा कि क्या वे नई पार्टी की शुरुआत करेंगे. सईद ने जवाब दिया, “गेंद नेतृत्व के पाले में है. मैं तो जहां से चला था वहीं आ गया हूं.” उन्होंने कहा वे राष्ट्रीय मसलों पर अपना दखल बनाए रखेंगे. “मैं वी.पी. सिंह और विपक्ष के अन्य नेताओं का स्वागत करूंगा, अगर वे राज्य के मसलों में अपनी दिलचस्पी दिखाना चाहेंगें.”
वी.पी. सिंह की तरफ उनका यह इशारा कोई इत्तेफाक नहीं था. उसी साल जुलाई में, बोफोर्स घोटाले पर बोलने की वजह से, सिंह को राजीव की कैबिनेट में रक्षामंत्री के पद से हटा दिया गया था. वे राजीव विरोधी किसी भी मोर्चे के नेता के लिए सबसे उपयुक्त नेता बन गए थे. राजीव के खिलाफ बोलने से फायदा ही हुआ जब सिंह के जन मोर्चा आंदोलन ने अक्टूबर 1988 में जनता दल की शक्ल में एक राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया. सिंह ने सईद को इस नई पार्टी की ‘स्टीयरिंग कमिटी’ में शामिल कर लिया.
अगले आम चुनावों में (1989), सईद ने उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़ा. उन्होंने अपने जीवन में कोई भी ईमानदारी से करवाया गया चुनाव नहीं जीता था. उत्तर प्रदेश में, सिंह की लोकप्रियता की लहर के चलते चुनाव लड़ने के लिए कश्मीर में किस्मत आजमाने से बेहतर, उत्तर प्रदेश माकूल जगह थी. और वाकई, जनता दल को उत्तर प्रदेश में भारी सफलता हासिल हुई. कुल 85 सीटों में से, सईद 54 सीटों पर जीत हासिल करने वालों में से एक थे.
दिसंबर में, जनता दल के नेतृत्व में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के समागम से, जिसको वामपंथी दलों और बीजेपी का बाहर से समर्थन भी प्राप्त था, केंद्र में राष्ट्रीय फ्रंट की सरकार काबिज हो गई. वी.पी. सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. सरकार में दूसरे नंबर के ताकतवर समझे जाने वाले पद, यानी, गृहमंत्री के पद पर सईद को बिठा दिया गया. सईद इस मंत्रालय का कार्यभार संभालने वाले पहले मुसलमान थे. सिंह के नजदीकी साथी और अनौपचारिक सलाहकार मोहन गुरुस्वामी के मुताबिक सरकार को धर्मनिरपेक्ष दिखाने का यह सिंह का अपना तरीका था. गुरुस्वामी ने बताया, “वी.पी. सिंह यह भी संदेश देना चाहते थे कि उन्हें बीजेपी के बाहरी समर्थन की परवाह नहीं है”. सईद ने भी इस राजनीतिक दृष्टि के समर्थन में बोला. शपथ ग्रहण के बाद इंडिया टुडे को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “साम्प्रदायिकता और चरमपंथ से लड़ना मेरा पहला मकसद है.” “जबकि हमारा विशवास है कि ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे बातचीत से नहीं सुलझाया जा सकता, लेकिन हम देश को बांटने वालों के साथ किसी किस्म का समझौता नहीं करेंगे.”
अपने खुद के राज्य में कलह की वजह से भी, सईद के सामने भारी चुनौतियां थीं. तब तक जम्मू और कश्मीर अलगाववादी दहशतगर्दी की जद में पूरी तरह से आ चुका था. कई हथियारबंद संगठन जन्म ले चुके थे जिनके सदस्य बॉर्डर पार कर पाक-अधिकृत कश्मीर में जाने लगे थे. वे वहां से ट्रेनिंग लेने के बाद वापस आते और राज्य में हिंसा फैलाते. नई-नई बनी कमांडो यूनिट के डिप्टी सुपरिंटेनडेंट ने मई 1989 में इंडिया टुडे को बताया, “वे अपना डर गंवा चुके थे.” “वे सीधे आपकी बंदूक की नाल के आगे खड़े हो जाते हैं और आपको गोली चलाने के लिए ललकारते हैं. ऐसे लोगों से आप कैसे लड़ सकते हैं? पहले ज्यादा से ज्यादा वे पत्थरबाजी करते थे, या देसी बम आप पर फेंककर छिप जाते थे. यह बिलकुल नया बर्ताव है, जो बिलकुल कश्मीरियों जैसा नहीं है.”
होनी को कुछ और ही मंजूर था. भारत के गृहमंत्री के रूप में सईद का पहला संकट व्यक्तिगत भी था. शपथ ग्रहण करने के महज़ छह दिन बाद उनकी छोटी बेटी रूबैया, जो उस वक्त ‘मेडिकल इंटर्न’ थी, को श्रीनगर में जेकेएलएफ ने अगवा कर लिया. जेकेएलएफ ने उसकी सुरक्षित वापसी के लिए श्रीनगर में कैद पांच उग्रवादियों की रिहाई की मांग रखी. गुरुस्वामी, जो सईद से इस दौरान उनके 10 अकबर रोड स्थित निवास पर मिले, ने बताया वे बिलकुल चुप रहा करते थे "जबकि उनके इर्दगिर्द के लोग खूब बतियाते. उन्हें पता था कि लड़के, उनकी बेटी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और उसका अच्छा ख्याल रखेंगे."
फारूक ने बतौर मुख्यमंत्री अपहरणकर्ताओं के आगे किसी भी कीमत पर न झुकने का फैसला लिया. उन्होंने मीडिया को बयान दिया कि अगर उनकी अपनी बेटी को भी उठा लिया जाता तो भी वे उग्रवादियों को छोड़ने के लिए राजी नहीं होते. खैर, छह दिन बाद 13 दिसंबर 1989 को सभी पांच उग्रवादियों को रिहा कर दिया गया. पूरे श्रीनगर ने उनकी रिहाई का जश्न मनाया.
सईद ने हमेशा यही कहा कि उग्रवादियों को छोड़ने का फैसला राज्य सरकार का था. जनवरी 1990 में उन्होने इंडिया टुडे से कहा, “मेरा और केंद्र का, राज्य सरकार की कैबिनेट द्वारा लिए गए के इस फैसले में कोई दख्ल नहीं था.” लेकिन हाल ही में, दिल्ली में दुल्लत की किताब के विमोचन के मौके पर, फारूक ने इस घटना के मुताल्लिक एक अलग ही तस्वीर पेश की: उन्होंने कहा कि इस दौरान केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान और आई.के. गुजराल रिहाई का विरोध करने पर उन्हें सत्ता से बेदखल करने श्रीनगर आए थे. “मैंने उनसे कहा, यह फैसला भारत के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा,” फारूक ने खुलासा किया.
गुरुस्वामी ने कहा कि “बतौर गृहमंत्री उनके पास मौका था कि वे न कह सकते थे और एक लौह पुरुष की तरह उभर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.” कैदियों को छोड़ने के इस फैसले ने उग्रवादियों के हौसले बुलंद कर दिए. “ये एक निर्णायक मोड़ था,” वरिष्ठ पत्रकार युसूफ जमील ने मुझे बताया. “इसे भारत सरकार और इसके सुरक्षा बलों पर कश्मीरियों की फतह के रूप में देखा गया. इसका जबरदस्त असर हुआ.”
प्रधानमंत्री का मानना था कि इस संकट को फौजी कार्रवाई से हल नहीं किया जा सकता. वी.पी. सिंह ने इस संकट से निपटने के लिए रेलमंत्री जॉर्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में कश्मीर मामलों की समिति का गठन किया. इंडिया टुडे की रिपोर्टों के अनुसार, सईद ने इसका विरोध किया. संकट की इस पृष्ठभूमि के बावजूद भी वे अपनी सियासी बिसात को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे. यही वजह थी कि उन्होंने राज्य के मामलातों में दखल देना जारी रखा. “रेलमंत्री और गृहमंत्री के बीच मतभेदों की खाई बढ़ती चली गई. रेलमंत्री ने गृहमंत्री पर आरोप लगाया कि वे भ्रम फैलाकर, कश्मीर समस्या के अंत का प्रतिरोध कर रहे हैं,” सीमा मुस्तफा ने सिंह की राजनीतिक जीवनी, द लोनली प्रोफेट में लिखा. मुस्तफा ने लिखा कि फर्नांडीस उग्रवादियों से वार्ता के पक्ष में थे और कुछ से उन्होंने संपर्क भी साध लिया था, लेकिन सईद ने उन्हें आजादी से काम नहीं करने दिया.
जम्मू और कश्मीर की बगावत ने और भी अधिक भयानक मोड़ ले लिया जब उसे दबाने के लिए सरकार ने क्रूर दमन का सहारा लिया. दमन की इस प्रतिक्रिया को अपनाए जाने के पीछे, सईद की बहुत बड़ी भूमिका थी. मुस्तफा ने लिखा कि एक बिंदु पर जब राज्य में हिंसा काफी बढ़ गई तो सिंह ने जगमोहन को गवर्नर नियुक्त करने की सोची, क्योंकि उनकी छवि एक सख्त प्रशासक की थी जो मुश्किल हालातों को काबू में ला सकते थे. सिंह को तुरंत ही वामपंथी सांसदों से इस फैसले का विरोध झेलना पड़ा. मुस्तफा ने लिखा कि आरोप लगाया कि सिंह मुसलमान विरोधी हैं. यह सुनकर सिंह ने अपना मन बदल लिया. लेकिन सईद और अरुण नेहरू ने बीच में पड़कर यह सुनिश्चित किया कि सिंह के मूल प्लान को ही अमल में लाया जाए. जनवरी 1990 में जगमोहन को एक बार फिर गवर्नर बनाकर कश्मीर भेज दिया गया. फारूक, जिन्होंने इस कदम का विरोध किया था, ने इसमें राज्य छोड़ने का मौका देखा.
जगमोहन के अधीन जम्मू और कश्मीर ने बेलगाम दमन के दौर में प्रवेश किया. उनके आने के दो दिन बाद ही, घाटी ने बगावत के बाद अपना पहला कत्लेआम देखा. सीआरपीएफ की फायरिंग, जिसे आज गावकदल कत्लेआम के नाम से याद किया जाता है, में पचास प्रदर्शनकारी मार दिए गए. हवाल और बीजबेहारा में भी कत्लेआम हुए. उग्रवादियों ने कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया, जिसकी वजह से लाखों की तादाद में पंडितों को घाटी छोडना पड़ा.
बतौर गृहमंत्री सईद ने इस खूनखराबे के निजाम को अंजाम देने में अहम किरदार निभाया. उन्होंने जून 1990 में, इंडिया टुडे को दिए साक्षात्कार में, हत्याओं और कत्लेआम को नजरंदाज करते हुए जगमोहन को कश्मीर में नियुक्त किए जाने के फैसले का समर्थन किया. “जगमोहन को कश्मीर भेज कर हमें बहुत फायदा हुआ है,” उन्होंने कहा. “उन्होंने (जगमोहन ने) प्रशासनिक शून्य को भरने के लिए अधिकारियों का मरकज तैयार किया. और हमने वहां राज्यसत्ता को कायम किया.”
सईद ने 5 जुलाई 1990 को राज्य में ‘आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स’ क़ानून लागू कर दिया. इस काले क़ानून ने सुरक्षा बलों को बेलगाम शक्तियां प्रदान कर दीं. इसकी वजह से सालों तक घरों पर धावे, गिरफ्तारियां और यंत्रणाओं का दौर चला. मैंने कश्मीर टाइम्स के पूर्व संपादक और सईद के करीबी दोस्त वेद भसीन से पूछा कि इस कानून के प्रभावों को देखने के बाद क्या कभी सियासतदानों को अपने इस फैसले पर पछतावा हुआ. “वे इस क़ानून से बहुत खुश थे क्योंकि इसने उनकी ताकत को मजबूत किया था,” भसीन ने बताया.
जल्द ही बतौर गृहमंत्री सईद की आलोचना होने लगी. “मुफ्ती वास्तव में अपने मंत्रालय में कभी ज़मीन से ऊपर उठ ही नहीं पाए,” जुलाई 1990 में इंडिया टुडे पत्रिका में सीमा मुस्तफा ने लिखा. “वे एक ऐसे गृहमंत्री के रूप में उभरे हैं जो कश्मीर के परे देख ही नहीं पाता.” उनके कार्यकाल में, एक बार संसद में उनके भाषण के दौरान तीखे सवाल-जवाब भी हुए. जनता दल के पचास सांसदों ने मिलकर उनको बर्खास्त किये जाने को लेकर मेमोरेंडम भी दिया.
इस दौर में सईद के सही-सलामत बने रहने के पीछे एक वजह यह थी कि सिंह को अब भी लगता था कि उनकी सरकार को धर्मनिरपेक्ष दिखाने के लिए मुसलमान मंत्री का होना बेहद जरूरी था. जैसा कि एक कैबिनेट मंत्री ने इंडिया टुडे से कहा, “देश की धर्मनिरपेक्षता इस बात पर टिकी है कि वह कश्मीर को साथ रखने में कामयाब रहे. और वी.पी. सिंह की धर्मनिरपेक्षता इस बात पर निर्भर है कि वे मुफ्ती को नार्थ ब्लॉक में रख पाते हैं या नहीं.” सिंह के साथ सईद की घनिष्टता ने भी इसमें उनकी मदद की. "वे वी.पी. सिंह के पास तरह- तरह के किस्से-कहानियां ले जाते थे," गुरुस्वामी ने बताया. “वे असली दरबारी हैं."
हालांकि, सिंह के राजनीतिक सितारे अब अपने ढलान पर थे. सईद अगले कुछ सालों तक जनता दल में ही बने रहे. 1996 में लालू के बुलावे पर सईद ने बिहार के कटिहार से लोक सभा चुनाव लड़ा. उस चुनाव में सईद तीसरे नंबर पर आए.
उसी साल उन्होंने जनता दल से अपना नाता तोड़कर वापस कांग्रेस ज्वाइन कर ली. वापस उसी पार्टी में लौट आने के साथ ही जहां से उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी, वे एक असाधारण प्रोजेक्ट में कूद पड़े. सालों की हिंसा के बाद, लहुलुहान जम्मू और कश्मीर में जम्हूरियत जिलाने की जरूरत थी. उन्हें राज्य में बोगस चुनावी प्रतिद्वंद्विता दिखाने के लिए जम्हूरियत का मुखौटा खड़ा करना था.
(चार)
नब्बे के दशक की शुरुआत में जम्मू और कश्मीर पर एक किस्म का कुहासा छाया हुआ था. उग्रवाद शहरों, कस्बों और गांवों तक फैल चुका था. सियासतदान राज्य छोड़कर जा चुके और सभी सियासी सरगर्मियां थम चुकीं थीं.
हर एक की तरह सईद का परिवार भी इस हिंसा से अछूता नहीं रहा था. उनके भाई मुफ्ती मोहम्मद अमीन ने बताया, 1990 में बीजबेहारा में उग्रवादियों ने उनके चाचा की ह्त्या कर दी थी. उसके बाद परिवार ने वो जगह ही छोड़ दी और आठ साल बाद लौटे.
“हम बस एक ही मुद्दे पर गहरे दोस्त थे,” श्रीनगर के पूर्व डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर, परदेसी ने उन दिनों सईद और अपने संबंधों के बारे में बताया. “उग्रवाद के दौरान डर के भाव ने हमारे बीच नजदीकियां बढ़ाई और हम यह जानने की कोशिश में कि हम जिंदा हैं या नहीं छुपकर फोन पर एक दूसरे से बातचीत किया करते थे. उस वक्त इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि आप किस पार्टी में हैं.”
परेशानियों से भरे इस दौर में, सईद 1996 के विधानसभा चुनावों के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आस्था जगाने की मुहिम पर निकले थे. उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए बहुतों को मनाया, कुछ को कैसे भी जिताने का भरोसा दिलाया, और कुछ अन्यों को राज्य के हित में हार जाने के लिए तैयार किया. इसमें संख्या का अंदाजा, प्लान की व्यापकता और सईद की इसमें भागीदारी की पुष्टि मुश्किल है. लेकिन कहे-सुने प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इन चुनावों में भारी धांधली की गई और इसकी योजना तैयार करने में सईद ने अहम भूमिका अदा की. जो सियासतदान इन चुनावों में शिरकत लेने वापस लौटे उनमे सईद के पुराने दुश्मन फारूक अब्दुल्लाह भी थे.
बेशक राज्य के चुनावों में बड़े दर्जे की हेराफेरी दशकों से चली आ रही थी. ऐसा माना जाता है कि इससे पहले छियानवे के लोक सभा चुनावों में भी भारी गड़बड़ियां की गईं थीं. ऐसा मानने और कहने वालों में फारूक भी शामिल थे. “लोक सभा चुनाव एक भारी ढकोसला थे,” उन्होंने आउटलुक पत्रिका को बताया. “उन्होंने मुझे बताया कि असली मत पेटियों को कभी खोला ही नहीं गया और उनकी जगह नए बक्सों से गिनती की गई.” जब तयशुदा जीत के वायदे ने उन्हें विधानसभा चुनावों के लिए ललचाया, तो फारूक ने इस गैरजनतांत्रिक तरीके को अपनाने में कोई परहेज नहीं किया. जहां तक सईद का सवाल था, तो उनका यह सोचना सही था कि अगर राज्य की सबसे बड़ी पार्टी चुनावों का बहिष्कार करती है तो उसे ‘फेयर इलेक्शन’ कहना वाजिब नहीं कहलाएगा.
अपनी ईगो के लिए मशहूर सईद ने अपनी पुरानी दुश्मनी को दरकिनार कर फारूक के प्रत्याशी बनने का समर्थन किया. दुल्लत ने अपनी किताब में लिखा, वी.पी. सिंह सरकार गिरने के बाद, “जब तक फारूक 1996 में मुख्यमंत्री पद के लिए दुबारा नहीं चुन लिए गए, मुफ्ती की एक यही रट रहती थी कि फारूक अब्दुल्लाह के अलावा कश्मीर समस्या का कोई दूजा हल नहीं है. मुझे याद है यह बात उन्होंने कम से कम छह बार तो दोहराई होगी और सभी मर्तबा मीडिया ने इसे छापा.”
परदेसी भी उनमें से एक थे जिन्हें सईद ने हारने वाले प्रत्याशियों के रूप में मनवा लिया था. “1996 के चुनावों में वे चाहते थे मैं नेशनल कांफ्रेंस के खिलाफ चुनाव लड़ूं,” परदेसी ने बताया. “मैंने कहा, ‘जनाब, आप क्या कह रहे हैं? हमें मूंह की खानी पड़ेगी.’ उन्होंने कहा, ‘मैं तुमसे इत्तेफाक रखता हूं लेकिन हमें इन चुनावों को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए चुनाव तो लड़ना पड़ेगा. हमें बतौर धर्मनिरपेक्ष सियासतदान कुर्बानी देनी होगी.’ इस तरह मैं कांग्रेस के टिकट पर सोनावर चुनाव क्षेत्र से नेशनल कांफ्रेंस के खिलाफ लड़ा.” वरिष्ठ पीडीपी नेता सरताज मदनी ने मुझे बताया, चूंकि चुनावों में हिस्सा लेने वाले लोगों को तलाशना आसान नहीं था, सईद ने अपनी बीवी गुलशन आरा, बेटी महबूबा मुफ्ती और अपने दो सालों को चुनाव लड़ने के लिए राजी कर लिया.
कांग्रेसी नेता गुलाम हसन मीर ने 1996 के चुनावों को “बंदोबस्ती चुनाव” कहा. उनके मुताबिक चुनावी माहौल चुनावों से बहुत पहले तैयार किया गया. उन्होंने कहा, राज्य में सियासी सरगर्मियों में पहले ही ठहराव आ चुका था, “सिर्फ मेरे चुनाव क्षेत्र को छोड़कर, जहां हम बहुत बड़ी-बड़ी रैलियां निकाल रहे थे. ये रैलियां चलती-फिरती जम्हूरियत का समां पैदा करतीं थीं. जब उन्हें देश और दुनिया को चुनावों की खबर देनी होती थी तो वे मेरी रैलियों की तस्वीरें दिखाते थे,” उन्होंने कहा.
वर्ष 1996 के इन चुनावों के दौरान एक अन्य दो साल पुराना हथियारबंद दल उभर कर सामने आया. भगौड़े उग्रवादियों का यह दल इख्वान-उल-मुस्लिमीन था, जिसे असली बागियों के खिलाफ लड़ने के लिए खड़ा किया गया था. इस दल को खड़ा करने का श्रेय, जम्मू और कश्मीर में उस वक्त के खुफिया विभाग के जॉइंट डायरेक्टर और फिलहाल के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित कुमार डोभाल को जाता है.
हालांकि इसे कथित तौर पर उग्रवादियों से लड़ने के लिए बनाया गया था, लेकिन इन इख्वानियों ने आम लोगों को बहुत परेशान किया. 1996 में, ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ की एक रिपोर्ट ने लिखा, भारतीय सुरक्षा एजंसियों के साथ-साथ, सरकार-समर्थित ये गुप्त और गैरकानूनी दल, जिनमें से कई मानव अधिकारों के हनन, जिनमे मौत की सजाएं देने, यंत्रणा देने, गैरकानूनी ढंग से बंदी बनाने और मतदाताओं को धमकाने जैसे अपराध शामिल हैं, के लिए जिम्मेवार पाया गया है.”
इख्वानियों ने 1996 के विधानसभा चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. “मैं उनमें से हूं जिसको जम्मू और कश्मीर में 1996 के चुनाव मुमकिन बनाने का श्रेय जाता है,” इख्वान के सरगना कुका पारे ने 2002 में रेडिफ नामक वेबसाइट को दिए साक्षात्कार में कहा. उग्रवादियों के हमले अभी भी आम थे. बेशक चुनाव दिखावा थे लेकिन सियासतदानों को फिर भी चुनाव प्रचार करते हुए दिखाया जाना जरूरी था, जिस दौरान बड़े नेताओं को निशाना बनाया जा सकता था. पारे ने कहा, “चुनाव प्रचार के दौरान हमारे बहुत से साथी मारे गए.” इख्वान के दक्षिणी कश्मीर के पूर्व कमांडर लियाकत अली खान ने मुझे बताया, “हमने 1995 में ही दहशतगर्दों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी थी. तब तक, उन्होंने आगे कहा, “दहशतगर्दों का पूरा नियंत्रण था.” लेकिन इख्वानियों की मदद, “घाटी से भागे हुए सभी सियासतदान वापस आ गए.” खान ने बताया, सभी पार्टियों के नेताओं ने इख्वानियों की मदद ली. इनमे पीडीपी के मिर्जा महबूब बेग, कांग्रेस के गुलाम रसूल कर और ताज मोहियुद्दीन, और खुद सईद, भी शामिल थे. “इनमे से कुछ तो चाहते थे कि हम उनकी पार्टियों में शामिल हो जाएं,” खान ने कहा, जबकि कुछ सियासतदान सुरक्षा की एवज में कुछ और किस्म के मोलभाव करने में दिलचस्पी रखते थे.
धोखाधड़ी से लबरेज इन चुनावों के बाद, नेशनल कांफ्रेंस 87 में से 57 सीटें जीतने वाली पार्टी के रूप में उभरी. फारूक के लिए सईद का मजबूत समर्थन जाया नहीं गया. “उन चुनावों में, मुफ्ती साहब को इनाम के तौर पर, बीजबेहारा से महबूबा मुफ्ती को जीतने दिया गया,” परदेसी ने बताया. महबूबा की वालिदा, गुलशन, हालांकि, पहलगाम से चुनाव हार गईं. पहली बार विधायक बनीं महबूबा को विधानसभा में कांग्रेस का नेता नियुक्त कर दिया गया.
शपथ लेते ही फारूक ने दहशतगर्दी को कुचलने के लिए जंग छेड़ दी. उनकी सरकार की छवि आक्रामक धावे बोलने वाली बन गई. आतंकवाद से लड़ने के लिए 1994 में गठित स्पेशल ऑप्रेशनस ग्रुप, मानव अधिकारों के हनन के लिए, खासतौर पर, बदनाम था. साथ-साथ फारूक ने, अपने राजनीतिक एजंडे को भी आगे बढ़ाने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया. उन्होंने राज्य की स्वायतत्ता के सवाल पर विमर्श करने के लिए एक समिति का गठन कर दिया. यह उनका चुनावी वादा भी था.
इस बीच सईद को भी अपनी किस्मत चमकती दिखी, जब वे अनंतनाग से 1998 में लोक सभा के लिए चुन लिए गए. अब चूंकि चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो चुके थे, उन्होंने फारूक से अपनी दुश्मनी का एक बार फिर से आगाज कर दिया. महबूबा और गुलाम हसन मीर के साथ मिलकर उन्होंने गवर्नर के.वी. कृष्णाराव को फारूक की, “गोली के बदले गोली” की पॉलिसी की आलोचना करते हुए खत लिखा.
वे सियासत की बिसात पर लंबी छलांग लगाने की तैयारी कर रहे थे. दशकों तक, अलगाववाद और दहशतगर्दों को लेकर उनकी और भारत सरकार की नीतियां मेल खाती थी. लेकिन अब, महबूबा मुफ्ती ने ज्यादा खुले तरीके से वकालत शुरू कर दी थी. वे “दहशतगर्दों से पहले हथियार डालने पर जोर डाले बिना, बातचीत के पक्ष में थीं.” उनका यह भी मानना था कि “अलग-थलग पड़े कश्मीरियों से बातचीत जरूरी है, और बातचीत की इस प्रक्रिया से ही कश्मीर समस्या का हल निकल सकता है.” सईद की बेटी और उनकी विरासत की हकदार होने के नाते, महबूबा के बयान और उनके द्वारा लिए गए फैसले हमेशा उनके पिता की सोच से मेल खाते रहे हैं. इसलिए उनके बयानों से यह इशारा मिलता था कि सईद के बाजूबंद में जरूर कोई चाल छिपी थी.
वर्ष 1999 की मई और जुलाई के बीच भारत और पाकिस्तान ने, दोनों देशों की नियंत्रण रेखा की ऊंचाइयों पर कारगिल युद्ध लड़ा. जुलाई के अंत में और युद्ध समाप्ति के दो दिन बाद, सईद ने धमाकेदार ऐलान किया. ताउम्र राष्ट्रीय पार्टियों से जुड़े रहने के बाद, वे अब अपनी एक नई क्षेत्रीय पार्टी बनाने जा रहे थे ताकि “भारत सरकार को कश्मीरियों के साथ, कश्मीर समस्या का हल खोजने हेतु बिना शर्त बातचीत के लिए मनाया जा सके.” उन्होंने कहा, “नेशनल कांफ्रेंस कश्मीरियों के घावों पर मरहम लगाने में नाकायाब रही है.” राज्य को एक नई क्षेत्रीय पार्टी की आवश्यकता थी, उन्होंने कहा, और उसी साल होने वाले चुनावों में उनकी जम्मू और कश्मीर पीपलस डेमोक्रेटिक पार्टी सभी छ: सीटों से अपने प्रत्याशी खड़े करेगी.
(पांच)
शुरू में सईद और उनके साथियों ने अपनी नई पार्टी का नाम डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट पार्टी रखने की सोची थी. “लेकिन चूंकि “सोशलिस्ट” शब्द का बहुत गलत इस्तेमाल हो चुका था इसलिए हमने पीपलस डेमोक्रेटिक पार्टी नाम चुना,” वेद भसीन ने कहा, जिनसे उस दौर में सईद खूब मशविरा किया करते थे. भसीन की मौत पिछले साल नवंबर में हुई. हालांकि भसीन की तबियत नासाज चल रही थी, वे फिर भी मुझे साक्षात्कार देने के लिए राज़ी हो गए. वे पंद्रह मिनट बाद ही आराम करने चले गए और मैं उनकी बेटी अनुराधा भसीन जामवाल और उनके पति तथा वर्तमान कश्मीर टाइम्स के संपादक प्रबोध जमाल, से बतियाता रहा. वे दोनों, पार्टी गठन को लेकर सईद के साथ हुई शुरूआती बातचीत के वक्त भी मौजूद थे.
मेहमानों के कमरे में चाय के साथ बातचीत के दौरान, प्रबोध ने बताया, “जनवरी 1998 में पीडीपी के गठन का फैसला इसी कमरे में लिया गया था. उस समय चंद नजदीकी दोस्त कमरे में मौजूद थे.” यह शायद सईद के नेतृत्व का स्टाइल था कि अन्य सह-संस्थापकों – श्रीनगर में शेख गुलाम कादिर परदेसी और अनंतनाग में अब्दुल गफ्फार सोफी – ने भी इसी किस्म के दावे पेश किए. जब मैं उनसे उनके घरों में मिला, उन्होंने भी यही कहा कि पीडीपी की शुरुआत उनके घरों से हुई थी. ऐसा लगता है सईद सभी को यह एहसास दिलाना चाहते थे कि वे पार्टी की स्थापना के केंद्र में हैं जबकि पार्टी उनके पूरे नियंत्रण में थी.
सईद की छवि, एक अच्छे श्रोता और लोगों को अपने मत रखने देने तथा उन्हें यह एहसास दिलवाने कि वे उनके मतों को एहमियत दे रहे हैं, की रही है. “वे ज्यादा नहीं बोलते. वे सब के विचार सुनते हैं लेकिन खुद कुछ नहीं कहते,” अनुराधा ने बताया.
सह-संस्थापकों के साथ शुरूआती बातचीत में उन्होंने कहा कि वे नई पार्टी इसलिए बनाना चाहते हैं क्योंकि कांग्रेस ने उनकी कद्र नहीं की. ताज मोहम्मद ने बताया कि जब सईद अनंतनाग से लोक सभा चुनाव जीते तो उन्होंने कहा, “कांग्रेस हमारी नहीं सुनती,” और कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी राज्य की सियासत में जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी करते हैं.
परदेसी ने बताया कि वे पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष न चुने जाने से भी खफा थे. “हम सब उनके पीछे थे. हम सीताराम केसरी से मिलने दिल्ली भी गए,” परदेसी ने कहा. परदेसी के मुताबिक कांग्रेस हाई कमांड ने सईद के सामने विकल्प रखे: या तो उनकी बेटी महबूबा पार्टी विधायकों की नेता बनी रह सकती हैं, या, वे खुद राज्य इकाई के अध्यक्ष बन सकते हैं. लेकिन सईद को दोनों पद चाहिए थे.
मोहियुद्दीन ने सईद को नई पार्टी ना बनाने की सलाह दी क्योंकि उनके पास पर्याप्त संसाधन नहीं थे. सईद की छवि एक साफ सुथरे नेता की थी और वे गैरकानूनी ढंग से फंड चुराने के लिए नहीं जाने जाते थे. “मैंने कहा, अभी पार्टी शुरू मत करो. आपके पास पैसे नहीं हैं.” मोहियुद्दीन ने कहा कि उन्होंने सोनिया गांधी से बात करने की भी पेशकश की, जो कांग्रेस में प्रभावशाली रूप से सबसे शक्तिशाली थीं. उन्होंने बताया कि उस बातचीत में वे सईद की “किसी भी किस्म की गलतफहमी को दूर करने” के लिए राजी हो गईं. “मैंने दिल्ली से रात में मुफ्ती से बात की और उन्हें बताया कि पार्टी मुख्य सचिव अहमद पटेल कल उनके साथ दोपहर का भोजन करेंगे,” मोहियुद्दीन ने कहा. सईद मान गए. “लेकिन सुबह आठ बजे उन्होंने नई पार्टी का एलान कर दिया. मेरी किरकिरी हो गई,” उन्होंने कहा.
पार्टी निशान के लिए सईद का चुनाव यह दर्शाता था कि वे अपनी नई पार्टी को लोगों के बीच कैसे पेश करना चाहते थे. उन्होंने एक दशक पहले, कांग्रेस के चुनाव प्रचार के दौरान मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के चुनाव चिन्ह को हाथ के इशारे से बताकर उनके लिए अपना समर्थन जताया था. वही चिन्ह उन्होंने अपनी पार्टी के लिए भी चुना. परदेसी ने कहा, “यह चिन्ह सोच समझकर चुना गया था क्योंकि एमयूएफ ने इसे पहले ही अवाम के बीच प्रचारित कर दिया था. और हमें इसको समझाने की जरूरत नहीं बची थी,” परदेसी ने बताया.
पीडीपी के गठन की शुरुआत को जानने के दौरान, मुझे पार्टी के बनने की कई अलग-अलग तरह की कहानियां सुनने में आईं. कुछ लोगों ने मुझे सईद से विमर्श और पार्टी को लेकर उनकी सोच के बारे में बताया. लेकिन मैंने ऐसी कहानियां भी सुनीं जो कहीं रहस्यमयी शुरुआत की तरफ इशारा करते जान पडतीं थीं.
उनमे से एक कहानी यह थी कि पीडीपी को अलगाववादियों और उग्रवादियों का समर्थन मिल रहा था. पीडीपी के गठन के तुरंत बाद, फारूक के बेटे, उमर अब्दुल्लाह ने, जो श्रीनगर लोक सभा क्षेत्र से 1999 में चुनाव लड़ रहे थे, सईद और महबूबा के बारे में एक साक्षात्कार में कहा, “वे उग्रवादियों के घरों में जाकर उनको हीरो बनाने पर तुले हैं, उनके परिवारों में पैसे बाँट रहे हैं और उनसे बिना शर्त बातचीत की गुहार लगा रहे हैं.” उमर ने यह भी कहा कि सईद ने अलगाववादी समूह, हुर्रियत और जमात के साथ सांठगांठ बिठा ली है और अनंतनाग का लोक सभा चुनाव उन्होंने उनकी मदद से जीता था. यह एक गंभीर आरोप था: अलगाववादी दो दशकों से भी ज्यादा समय से चुनावों का बहिष्कार करते आ रहे थे. यह खबर कि उन्होंने मुख्यधारा के सियासतदानों को समर्थन दिया था, उनकी विश्वसनीयता पर गंभीर सवालिया निशान लगाता था.
लेकिन यह सच था कि पार्टी के बनने के कुछ साल पहले से ही महबूबा अलगाववादियों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहीं थीं. 1996 के बाद से ही वे सुरक्षा बलों द्वारा मारे गए लोगों के परिवारों के घरों में आना-जाना कर रहीं थीं. कभी-कभी उन्हें उग्रवादियों के जनाजों में शामिल होते हुए भी पाया गया. यह उस दौर में, जबकि बगावत अभी भी अपने उफान पर थी, मुख्यधारा के राजनीतिज्ञों के लिए ख़ासा इंकलाबी कदम था. ऐसे मौकों पर शोकाकुल औरतों के प्रति वे काफी संवेदना जतातीं थीं. कई मर्तबा वे उनके साथ रोया भी करतीं थीं. बतौर राजनीतिक रणनीति, इसे विपक्ष की जगह हथियाने के रूप में लिया गया. “हुर्रियत ने इस रणनीति से थोड़ा घबराते हुए उन्हें ‘रुदाली’ का नाम दिया,” अनुराधा ने बताया. “तब तक किसी राजनीतिज्ञ ने पीड़ितों तक पहुंचने की कोशिश नहीं की थी.”
अब्दुल हमीद के जनाजे में शामिल होना महबूबा के सबसे प्रतीकात्मक कदमों में से एक था. हमीद एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का छात्र था, जिसे सुरक्षा बलों ने बीजबेहारा के नजदीक एक गाँव सिर्गुफ़वारा के पास मार गिराया था. हमीद की जिंदगी दो सियासी धाराओं के चौराहे के बीच खड़ी थी. आमिर खान के नाम से मशहूर, उसके वालिद, गुलाम नबी खान, हिजबुल मुजाहिद्दीन के उग्रवादी थे, जो अब संगठन में सलाहुद्दीन के बाद दूसरे सबसे बड़े नेता हैं. हमीद के नाना, गुलाम मोहियुद्दीन गनाई, पुराने कांग्रेसी समर्थक थे, जो सईद की पीडीपी में शामिल हो गए थे. अनंतनाग में कुछ लोगों का मानना था कि गनाई के जरिए सईद ने पीडीपी के लिए आमिर खान का समर्थन जुटाया था.
अक्टूबर में, मैं एक स्थानीय पत्रकार के साथ, सिर्गुफवार के पूर्व में, कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित लीवर गांव, हमीद के दादा गुलाम रसूल खान से मिलने गया. उनके घर पर पहुंचते ही हमारी मुलाक़ात, औरतों के समूह से हुई. वे हमें घर के अंदर ले गईं, जहां हमारी मुलाकात एक लंबे-चौड़े, त्योरियां चढ़ाए हुए, चमकती आंखों और करीने से छंटी दाढ़ी वाले खान साहब से हुई. जैसे ही मैंने उनसे अपना ताअर्रुफ करवाया, उन्होंने मेरे संभाषी से उर्दू में पूछा, “ये जनाब कौन सी एजेंसी से ताल्लुक रखते हैं?” उन्हें यह समझने में थोडा वक्त लगा कि मैं किसी खुफिया एजेंसी का आदमी नहीं, बल्कि एक पत्रकार हूं.
खान ने मुझे बताया वे जमात के सदस्य हुआ करते थे और सईद के साथ उनके ताल्लुकात एक अरसे से रहे हैं. “जब मुफ्ती साहब ने सियासत में कदम रखा, मैं उस वक्त स्कूल में पढ़ता था,” उन्होंने कहा. “यहाँ गांव में, मैं उनके पीछे पीछे घूमता था. वे हमारे घर आते थे और उन्होंने यहां दो-तीन रातें भी गुजारी हैं.” खान ने कहा जब सईद पहली बार विधायक बने, उन्होंने उन्हें कांग्रेस में शामिल होने की दावत दी. “लेकिन मैंने कहा, ‘मैं एक जमाती हूं और दो मुख्तलिफ सोचें एक साथ नहीं चल सकतीं.’” मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने चुनाव में सईद का समर्थन किया था. “हां, पिछली बार भी...और इस बार भी,” उन्होंने कहा. “हमने अवाम से कहा कि वे पीडीपी का समर्थन करें क्योंकि वे नेशनल कांफ्रेंस से बेहतर है.” फिर खान ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “लेकिन मुफ्ती ने मुझे उनको समर्थन देने के लिए कभी नहीं कहा.” जब मैंने उनसे पूछा कि क्या हिजबुल ने भी सईद का समर्थन किया था, तो उन्होंने इससे इनकार किया और कहा, “नहीं, सिर्फ जमात ने.” मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टी के लिए समर्थन की बात जमात के नेता द्वारा कबूला जाना महत्वपूर्ण था. एक ऐसी तंजीम जो 1987 से चुनावों का बहिष्कार करती आ रही थी.
कथित तौर पर फारूक का केंद्र के लिए मुसीबत बन जाना इसका कारण रहा. नब्बे के दशक के अंत तक आते-आते, फारूक राज्य के लिए व्रह्तर स्वायत्तता की मांग उठाने लगे थे. सत्ता में आने के बाद, एनसी सरकार ने एक ‘स्टेट ऑटोनोमी कौंसिल’ या एसएसी रिपोर्ट विधानसभा में पेश की, जिसने केंद्र सरकार के साथ 1952 के करारनामे, जिसके अनुसार केंद्र सरकार का सुरक्षा, विदेशी मामले और संचार के सिवाय, राज्य में किन्ही और मामलों में दखल नहीं रहना था. 1953 में, शेख सरकार के बाद किसी और सरकार ने इस तरह की मांग नहीं उठाई थी. अपनी किताब में अडवाणी ने लिखा कि बीजेपी ने फारूक को सलाह दी कि वे “एसएसी रिपोर्ट को लागू करने के लिए जिद्द न करें. वास्तव में अटल जी ने डॉ अब्दुल्लाह से कहा कि वे खुद फैसला करें कि उन्हें केंद्रीय कैबिनेट द्वारा राज्य विधानसभा के स्वायत्तता प्रस्ताव को खारिज किए जाने के बाद एनडीए में रहना है या नहीं. इसके बाद, डॉ अब्दुलाह ने भी मामले को रफादफा हो जाने दिया.”
कई समीक्षकों का मानना था कि एसएसी की रिपोर्ट से केंद्र सरकार इस कदर व्यग्र हो गई थी कि इस तरह के कदम भविष्य में न उठाए जा सकें यही सोचकर केंद्र ने एक नई विपक्षी पार्टी खड़ा करने का फैसला किया. 2008 में वरिष्ठ पत्रकार परवेज बुखारी ने इसी मुत्ताल्लिक इशारा करते हुए मेल टुडे में एक लेख लिखा. “पीडीपी की बुनियाद तब रखी गई जब केंद्र द्वारा कश्मीर के ऊपर वापस अपना नियंत्रण कायम कर लिया गया, जो उसके हाथ से उग्रवाद के चलते खिसकता जान पड़ रहा था और राज्य का राजनीतिक शक्ति का ढांचा चरमरा रहा था, जो एनसी की शक्ल में वहां मौजूद था,” बुखारी ने लिखा. “1996 के चुनावों से पूर्व, पहले सात सालों तक चुनावी राजनीति एनसी पर निर्भर रही थी. ऐसी सूरत में, केंद्र ने पाया कि एनसी के हौंसले बहुत ज्यादा बढ़ गए थे और 1952 की याद दिलाते थे, जब शेख अब्दुलाह ने भारतीय संघ के साथ राज्य के विलय पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए थे.” बुखारी के मुताबिक, पीडीपी ने उनकी रिपोर्ट पर कोई ऐतराज नहीं जताया. डीएनसी के डी.पी. धर के बेटे, विजय धर ने भी पीडीपी की शुरुआत को लेकर कुछ इसी तरह की कड़ियों को जोड़ा. “पीडीपी, डेमोक्रेटिक नेशनल कांफ्रेंस का ही विस्तार है, जो उस वक्त एक भारत-समर्थक पार्टी की जरूरत का नतीजा थी.”
कश्मीर रीडर के संपादक हिलाल मीर ने मुझे आश्वस्त किया कि बुखारी की कहानी सच थी. “पीडीपी के तमाम संस्थापक सदस्यों पर एक नजर डालिए और आप पाएंगे कि वे सभी केंद्रीय सत्ता के करीबी हैं,” उन्होंने कहा. गुलाम हसन मीर प्रमुख संस्थापकों में से एक हैं. ये वही शख्स हैं जिन्होंने 1984 में फारूक अब्दुल्लाह का तख्तापलट किया था. हिलाल मीर के मुताबिक, “गुलाम हसन मीर उनमे सबसे प्रमुख हैं और वे एजेंसी के आदमी हैं.”
अगस्त के अंत में, मैं हसन मीर से उनके श्रीनगर वाले घर में मिला. मैं उनसे पीडीपी की स्थापना के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन हमारी बातचीत का रुख राज्य में जम्हूरियत की बिगड़ती शक्ल की तरफ मुड़ गया. उन्होंने मुझे खुल कर बताया कि कैसे केंद्र सरकार ने कई बार उन्हें विधानसभा चुनाव जिताए. हसन मीर ने अपने से संबंधित, 2014 के विवाद के बारे में भी बताया. इंडियन एक्सप्रेस ने एक रिपोर्ट छापी थी कि तत्कालीन सेना अध्यक्ष, वी.के. सिंह, जो अब बीजेपी सरकार में राज्य विदेशमंत्री हैं, ने उन्हें 1.19 करोड़ रुपए उमर अब्दुल्लाह की सरकार को गिराने के लिए दिए थे. हसन मीर ने कहा, उस प्रसंग के बाद, सईद ने तत्कालीन खुफिया एजेंसी के डायरेक्टर आसिफ इब्राहीम से कहा कि “गुलाम हसन मीर अब एक दागी इंसान है.” जब 2014 के चुनाव हुए, “उन्होंने इस बार मेरी हार को सुनिश्चित किया. मैं नहीं जीतूंगा, यह बात पहले से ही हवा में थी. चुनाव से पहले ही एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया गया, जिसमें जनता को इसके बारे में चर्चा करते हुए दिखाया गया.” उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि वे समझते हैं, उनकी हार क्यों जरूरी थी, “वे मुझसे दगा नहीं कर रहे थे. चुनावों को निष्पक्ष दिखाने के लिए यह एक सोची समझी योजना के तहत किया गया था. जो कुछ भी देश के दूसरे हिस्सों में घटित होता है, वह यहाँ से एकदम अलग है. अदालतें चाहे जो कहें, टीवी चैनल चाहे जो बकवास करें, यहां की सियासत अलग है. ऐसा करना जरूरी था.”
फिर हम पीडीपी की शुरुआत के मसले पर वापस लौटे. मैंने हसन मीर से पूछा कि क्या पार्टी केंद्र द्वारा खड़ी की गई थी? “शायद खुफिया एजेंसियों ने मुफ्ती का समर्थन किया हो लेकिन यह बात नीचे के नेताओं और कार्यकर्ताओं को नहीं पता थी,” उन्होंने अफवाहों की पुष्टि नहीं की, लेकिन इस तरह के अनुमानों से आश्चर्यचकित भी नहीं हुए. “किसी खुफिया एजेंट ने कभी मुझसे कुछ करने के लिए नहीं कहा, हालांकि, मैं हमेशा से केंद्र के नजदीक रहा हूं. शायद मुफ्ती को उनसे कोई मदद मिली हो. लेकिन मुझे इसकी कोई खबर नहीं.
सितंबर के अंत में, मैं 46-वर्षीय इख्वान के पूर्व कमांडर लियाकत अली खान से अनंतनाग के नजदीक खानाबल शहर की पुलिस कॉलोनी में उनके घर पर मिला. पीडीपी के गठन से एक साल पहले, खान और उसके इख्वानी साथियों ने बीजेपी ज्वाइन कर ली थी. उन्होंने मुझे लाल कृष्ण अडवाणी के साथ इसी दौरान हुई मुलाकात के बारे में बताया. खान और उनके साथी 1994 से उग्रवादियों पर लगाम कसने के काम में लगे थे और अब वे सियासतदान बनकर फारिग होना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने अडवाणी से मदद चाही. अडवाणी के साथ बातचीत के दौरान सईद का नाम भी आया.
“जब हम अडवाणी से मिलने दिल्ली गए, उन्होंने हमसे पूछा, ‘यह मुफ्ती किस तरफ है?’” मुझे याद है मैंने कहा था, “वे दहशतगर्दों के साथ हैं.” खान ने सोचा दहशतगर्दों से मुफ्ती के संबंधों के बारे में जानने के बाद बीजेपी उनका समर्थन नहीं करेगी. लेकिन अब उन्हें लगता है कि उन्होंने उस वक्त बातचीत के गलत मतलब निकाल लिए थे. असल में बीजेपी की मुफ्ती में दिलचस्पी उनके उग्रवादियों से संबंधों के कारण ही थी. खान ने मुझे बताया कि तब उन्हें एहसास नहीं हुआ था कि “जो मुफ्ती उन्हें पहले ही बेच चुके थे, हम उसी का अनुमोदन कर रहे थे. हमें और चालाक होना चाहिए था. मुफ्ती ने बीजेपी और संघ को आश्वासन दिया था कि वे हिजबुल, हुर्रियत और अन्य अलगाववादियों को बातचीत के लिए एक टेबल पर लेकर आएंगे.” उन्हें समर्थन नहीं मिला, जबकि बीजेपी का पूरा समर्थन मुफ्ती को मिल गया.
“अजीत डोभाल उस वक्त यहां पर खुफिया एजेंसी के जॉइंट डायरेक्टर थे,” खान ने कहा. “जब यह सब हुआ उस वक्त हम जवान थे. हमें खेल ही समझ नहीं आया. भारत सरकार की सभी एजेंसियों जैसे रॉ, आईबी, इत्यादि को नई पार्टी को समर्थन देने के लिए कहा गया था.” यह समर्थन 2002 के चुनावों तक चला. खान के मुताबिक सेना को ऐसी जानकारियां एकत्रित करने के लिए कहा गया था, जिससे पार्टी के प्रत्याशियों को फायदा पहुंच सके. “सेना ने सभी कंपनी कमांडरों को गांवों से जानकारियां इकठ्ठा करने के लिए कहा गया. उन्होंने ही ऐसे मुद्दे बताए, जिनको चुनाव के दौरान उठाकर समर्थन पाया जा सकता था.”
अपने बयान में खान ने मुझे एक ऐसी बात भी बताई, जो हैरत में डालने वाली थी. उनके अनुसार, “फारूक को पीडीपी के गठन को लेकर विश्वास में ले लिया गया था.” अब यह देखा जाना बाकि रह गया है कि कैसे यह दावा राज्य, केंद्र, राजनीतिक पार्टियों, अलगाववादियों और उग्रपंथियों के पहले से ही भूलभुलैय्या वाले पेचीदा आपसी संबंधों में फिट बैठता है.
सितंबर की एक शाम, मैं अनंतनाग में 2000 और 2005 के बीच रह रहे एक पुलिस अफसर से मिला. उस अफसर ने मुझे बताया कि सेना ने महबूबा के चुनाव प्रचार के दौरान उनकी भरपूर मदद की थी. खासकर उन इलाकों में जहां हिंसा की आशंका ज्यादा थीं. “उन दिनों महबूबा मुफ्ती दक्षिण कश्मीर में बहुत आया जाया करतीं थीं. वे अकेली ऐसी इंसान थीं जो ऐशमुकाम के अधिकार क्षेत्र में पड़ने वाले हपत्नर इलाके में जाया करतीं, जहां सेना भी गश्त लगाने से डरती थी. कभी-कभी तो दिन में दो-दो बार. वहां लैंड माइंस बिछी होती थीं, लेकिन उन्हें कभी कुछ नहीं हुआ. सेना उनके चारों तरफ घेरा बनाकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करती थी.”
उक्त अफसर महबूबा की इन चुनाव रैलियों में दी गई तकरीरों के दौरान खुद मौजूद थे. उनके अनुसार, महबूबा अपनी सियासी तकरीरें मौजूद अवाम के हिसाब से दिया करती थीं. “हर गांव में वे अलग तकरीर देतीं थीं.” कुछ जगहों पर “वे कहतीं अब्दुल्लाह श्रीनगर के खासमखास खानदान से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन उनकी ताकत गांवों से आती है. इसलिए हमें वोट डालें क्योंकि मेरे वालिद गांवों के ही रहने वाले हैं.” लेकिन “गांवों में जहां आज़ादी का जज्बा सबसे ज्यादा तेज होता था,” महबूबा की तकरीर ज्यादा इंकलाबी हो जाया करती. कभी-कभी वे पीडीपी और सत्तासी में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के चुनाव चिन्ह की तरफ भी इशारा करतीं. “वे यहां तक कहतीं कि यह निशान मुझे मेरे भाई सलाहुद्दीन ने खुद मुख्यधारा की सियासत से लड़ने के लिया दिया है.”
अफसर ने बताया कि वे एक और तरकीब अपनातीं: पीडीपी के मेम्बरान को शफात करने वालों के रूप में पेश करतीं. “वे पहले सेना द्वारा लोगों को उठवा लेते और फिर कोई लोकल पीडीपी कार्यकर्ता उन्हें छुड़वा लाता. फिर वे उसकी एक गांव से दूसरे गांव में नुमाईश करते फिरते. चुनाव से पहले और बाद में यही उनका तरीका हुआ करता.”
अफसर ने यह भी कहा कि चुनाव के दौरान, “मैंने देखा कि पीडीपी को फायदा पहुंचाने के लिए सेना के लोग, लोगों को चुन चुनकर उठा लेते थे. किसी बवाल की आशंका से राज्य के कई हिस्सों में वोटर अपने घरों से तभी बाहर निकलते थे जब सेना उन्हें बाहर निकलने के लिए कहती. गाँवों में एनसी समर्थक, सेना के आने का इन्तेजार किया करते और वोट डालने के बहाने तभी बाहर निकलते जब उनको सेना का आश्वासन मिलता. लेकिन सेना उनके पास कभी नहीं गई. कई बार उग्रवादी भी महबूबा के जलसों में शामिल होते, जो लोगों के लिए उन्हें वोट देने का संकेत होता.”
पीडीपी और कांग्रेस ने साथ आकर अपनी सरकार बना ली. इसमें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी), जम्मू और कश्मीर नेशनल पेंथर्स पार्टी और जम्मू और कश्मीर डेमोक्रेटिक फ्रीडम पार्टी ने भी उनका साथ दिया. इस सवाल पर कि कौन अगला मुख्यमंत्री होगा, सईद का सभी सियासी हलकों में क़ाबलियत का असर चुनावों के बाद देखने में आया. सईद के मुकाबले में, गुलाम नबी आज़ाद भी दावा ठोंकने वालों में थे. इसको लेकर पीडीपी और कांग्रेस के बीच पूरे एक पखवाड़े तक घमासान चलता रहा. लेकिन ताज मोहिय्युद्दीन के मुताबिक, सईद ने आज़ाद का पत्ता काटने के लिए वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं से संपर्क साधा. “पहले हाई कमांड ने फैसला किया कि मुख्यमंत्री कांग्रेस से होगा,” मोहिय्युद्दीन ने कहा. “आजाद अपना दावा पेश करने गवर्नर के पास जा ही रहे थे कि मुफ्ती ने कहा, ‘ठहरिए जनाब, इतनी जल्दी भी क्या है?’ फिर ऊपर से आदेश आए कि मुफ्ती ही मुख्यमंत्री होंगे.”
खुद मोहिय्युद्दीन का मानना था कि कांग्रेस अन्य विधायकों को अपने साथ मिलाकर यह जंग जीत लेगी. “मैंने मुख्यमंत्री पद के लिए मुफ्ती के नाम की मुखालफ़त की थी, क्योंकि सभी आजाद विधायक कांग्रेस की तरफ थे. लेकिन मुझे चुप करा दिया गया.”
(छह)
बतौर मुख्यमंत्री सईद का पहला दौर बहुत हद तक, मुताफिका तरीके से रियासत में अमन और चैन का दौर था. अधिकतर लोग, जिनसे मैंने बात की, ने मुझे बताया कि अवाम की हिफाज़त के लिहाज से माहौल में आया सुधार, साफ-साफ देखा और महसूस किया जा सकता था. दक्षिण कश्मीर में कुलगाम के एक रिहाईशी ने मुझे यह भी बताया कि इस दौरान उनका उनका घर वापस आना-जाना, पहले की बनिस्पत दो महीने में एकाध बार से, अब हर पंद्रह दिनों में एक बार हो गया था, क्योंकि “अब उन्हें इस बारे में बहुत सोचने या फ़िक्र करने की जरूरत नहीं रह गई थी कि उन इलाकों से बचकर निकलना है, जहाँ फ़ौज के लोग धरपकड़ कर रहे हों.”
लेकिन अनुराधा भसीन ने बताया कि अमन और चैन का यह दौर, अटल बिहारी वाजपेयी और परवेज़ मुशर्रफ द्वारा भारत और पाकिस्तान के बीच शुरू किए गए शांति के प्रयासों की वजह से था, जिसने विवादित राज्य में फौरी सुकून ला दिया था. श्रीनगर में एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया, “यह सब परवेज़ मुशर्रफ की कोशिशों का नतीजा था. उन्होंने दहशतगर्दों को रोका. इस बदलाव को आम आदमी ने भी महसूस किया.” यह सिलसिला 2004 तक चलता रहा, जब कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन सत्ता में आया. एक साल बाद ही, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने श्रीनगर और पाकिस्तान के कब्जे वाले मुजफ्फराबाद के बीच एक बस सेवा शुरू की. बस के सामने खड़े हुए सईद का पोस्टर आज भी पीडीपी के श्रीनगर दफ्तर की दीवारों पर लगा देखा जा सकता है.
मुझे बताया गया कि इस कामयाबी का सेहरा, सईद अपने सर बांध पाए, इसकी एक वजह यह भी थी कि उन्होंने इस बीच मीडिया को अच्छे से पाला पोसा था. “कांग्रेस की तरह, एनसी को भी शेख की विरासत का गुमान था,” सियासी मामलों पर लिखने वाले, शेख शौकत हुसैन ने मुझसे कहा. “लेकिन पीडीपी को तो अपनी साख बढ़ानी थी और मीडिया को पालना था. पार्टी के पास मीडिया को पोसने वाले अपने तजुर्बेकार खिलाड़ी हैं.” हसन मीर ने, सईद को “मीडिया की उपज” बताया. एक वरिष्ठ पीडीपी नेता ने बताया, मीडिया में पीर समुदाय के पत्रकारों ने उनका खूब साथ दिया.
कांग्रेस के साथ हुए करार के मुताबिक तीन साल बाद सईद को मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी, गुलाम नबी आजाद के लिए खाली करनी थी. हालांकि इस पर सहमति 2002 में ही बन गई थी, लेकिन 2005 तक आते-आते सईद को अपनी कुर्सी छोड़ना भा नहीं रहा था. एक वरिष्ठ पीडीपी मंत्री ने मुझे बताया, “गठबंधन हमारी वजह से ज्यादा डांवाडोल हो रहा था. आजाद को मुख्यमंत्री बनाए जाने को, तौहीन की तरह लिया गया.”
ओपन पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में सईद ने दावा किया, उनकी निराशा जायज थी. उन्होंने कहा, कांग्रेस मुख्यमंत्री के पद में “फेरबदल तब चाहती थी जब मेरी पार्टी उसके साथ गठबंधन में थी. मुझे मशविरे के लिए दिल्ली तलब किया गया.” उन्होंने आगे कहा, “उस मीटिंग में,” तत्कालीन रक्षामंत्री प्रणब मुख़र्जी ने “मुझे बताया कि सरकार और पार्टी, दोनों ही, बीच में इस बदलाव के इच्छुक नहीं हैं. जब मैं दोपहर को सोनिया गांधी से मिला, उन्होंने भी वही बात दोहराई...लेकिन बाद में शाम को 10 जनपथ से महबूबा को फोन आया और तब तक सोनिया गांधी अपनी लाइन बदल चुकीं थीं. वे चाहती थीं कि मैं अपनी कुर्सी खाली कर दूं.” खैर, सईद बतौर विधायक सरकार में बने रहे.
तीन साल बाद, जून 2008 में राज्य में उस वक्त हिंसा भड़क उठी, जब सरकार ने जंगल की सौ एकड़ जमीन पहलगाम के करीब अमरनाथ मंदिर संभालने वाले बोर्ड के हवाले कर दी. पूरे राज्य में इसका विरोध हुआ और हिंसा में साठ लोग मारे गए. 1987 में शुरू हुए उग्रवाद के बाद, यह राज्य में सबसे अस्थिर समय था. अमरनाथ मुद्दे का हवाला देते हुए, मुफ्ती ने सरकार से अपना समर्थन हटा लिया. उसी साल हुए चुनावों में पीडीपी ने विधानसभा में अपनी सीटों का आंकड़ा 16 से 21 कर लिया. कांग्रेस जिसने 17 सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की, 28 सीटें जीतने वाली एनसी से जा मिली. सईद के नजदीकी एक सरकारी अधिकारी ने बताया कि पीडीपी के कांग्रेस से नाता तोड़ने के फैसले ने एनसी के लिए उसके करीब आने का मौक़ा पैदा कर दिया. “उनकी सबसे बुरी बात यह है कि वे बड़ी नाक वाले हैं और आसानी से चीजों को माफ़ नहीं करते,” उन्होंने कहा. “उन्होंने बाद में सोनिया गांधी से सुलह करने की कोशिश भी की, लेकिन बात नहीं बनी.” एक दशक बाद सईद उस कुर्सी पर फिर से बैठने वाले थे.
जो पैंतालीस दिन मैंने कश्मीर में गुजारे, मैंने सईद के प्रेस अफसरों और पार्टी नेताओं के जरिये उन तक पहुँचने की बहुत कोशिश की लेकिन मेरी तमाम कोशिशों के बाद भी मुझे वक्त नहीं दिया गया. अक्टूबर की शुरुआत में मैंने सुना वे पहलगाम में एक क्लब का उद्घाटन करने जाने वाले हैं और कि पत्रकारों को उसमे शरीक होने का खुला न्योता है. राज्य अभी-अभी गौह्त्या पर पाबंदी से पैदा हुई उथल-पुथल से गुजरा था और माहौल में अब भी तनाव था. मैं यह सोचकर कि अगर मैं उनसे व्यक्तिगत तौर पर नहीं भी मिल पाया, तो भी मुझे इसका कुछ अंदाजा तो लग ही जाएगा कि वे आज राज्य और उसमे अपनी भूमिका को अब कैसे देखते हैं.
सईद गहरे नीले रंग का सूट और पीली टाई पहने हुए आये. वे हाल में बीमार चल रहे थे लेकिन उस दोपहर वे सहजता से मुस्कुराते हुए नज़र आये. उस दिन उनके कदमों में जैसे अलग ही उछाल था. मंच पर स्थान ग्रहण करते ही उन्होंने प्रधानमंत्री की तारीफ करना शुरू कर दिया. उन्होंने कहा, “कुछ लोग कहते हैं मोदी ने मुफ्ती को क्या दिया? कायापलट, बदलाव, विकास में रफ़्तार. यह विलक्षण और बेमिसाल है.”
फिर वे कुछ शिकायतों की तरफ इशारा करते दिखे. “कई कारणों की वजह से, और मैं किसी पर इल्जाम लगाने नहीं जा रहा हूं, यह एक रिमोट कंट्रोल जैसा बन गया है,” उन्होंने कहा. “जो भी दिल्ली चाहती है, वही होगा. जो वे चाहते हैं, वही होकर रहेगा,” उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा.
जैसा कि मैंने सोचा था कि वे अपनी सरकार और तकलीफदेह गठबंधन के बारे में कुछ तो रौशनी डालेंगें, लेकिन सईद ने घिसीपिटी बातों और अतिश्योक्तियों का सहारा लिया. कश्मीरी पत्रकारों ने मुझे पहले ही उनकी इस आदत के बारे चेता दिया था. उनका कहना था कि जब वे बोलते हैं उनको भी उन्हें समझ पाने में दिक्कत होती है. कुछों ने कहा कि वे जानबूझकर एक विषय पर घिरने से बचने के लिए इस तरह आंय बांय शांय बोलते रहते हैं. विरोध उठने से पहले के दिनों, सईद एक दिन इस तरह के वक्तव्य देते, जैसे: “मैं कश्मीर को संसार की फलों की घाटी बनाना चाहता हूं,” तो दूसरे दिन वे कहते पाए जाते, “मैं जम्मू और कश्मीर को गोल्फ की जन्नत बना दूंगा.”
“भारत 1.2 बिलियन लोगों का देश है,” उन्होंने कहा. “जम्मू और कश्मीर उस संघ का हिस्सा है. यह एक गुलदस्ते की तरह है. यह भारत का एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य है. यह भारतीय संघात्मक ढांचे और धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक बन चुका है, विविधता का प्रतीक. अगर हमारे देश में कोई आधुनिक राज्य है तो वह जम्मू और कश्मीर है.” उन्होंने बीफ बैन के सवाल पर राज्य में संकट का कोई जिक्र नहीं किया.
सईद की स्थिति आज सैद्धांतिक रूप से कहीं ज्यादा मजबूत है, बनिस्पत उस समय के जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, क्योंकि बीजेपी के साथ उनका करार उन्हें पूरे छह साल प्रदान करता है. लेकिन फिर भी वे अपनी भूमिका को लेकर जर्जर और असहज नज़र आते हैं. जब मैंने सईद के दोस्तों और साथियों से उनकी वर्तमान स्थिति के बारे में समझना चाहा तो जो तस्वीर उभर कर सामने आई वह एक माहिर सियासतदान की थी, जो अपने राजनीतिक जीवन के ढलान पर था और अपनी विरासत को लेकर भी आश्वस्त नहीं था, जिसे नहीं पता था कि इस नई ऊर्जा से संचारित राज्य से कैसे पेश आया जाए.
सरकार बदलने के कारण, केंद्र के साथ उनके संबंध अब पहले की तरह मजबूत नहीं रह गए थे. “कायदे से विकास दिखना चाहिए था और दिल्ली से पैसों की नदियां बह आनी चाहिए थीं. लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हो रहा था,” सईद के करीबी एक नौकरशाह ने मुझसे कहा. “कांग्रेस में उनके बहुत से जानने वाले थे. एक बार मैं मुफ्ती साब के साथ अमरीका जा रहा था. प्रणब मुखर्जी ने उन्हें वीआईपी लाउंज में बैठा देखा तो वे आए और उनके पैर छुए.” वर्तमान सरकार में, हालांकि, “वो बात नहीं. वे मोदी और अमित शाह को नहीं जानते. राजनाथ सिंह के साथ उनके अच्छे संबंध है, लेकिन यह रिश्ता सिर्फ व्यावसायिक है. इस बार वो ‘पर्सनल टच’ नहीं है.”
सईद की उम्र भी पीडीपी में उत्तराधिकार का प्रश्न उठाती है. “मुफ्ती दिन में दो-तीन घंटों से ज्यादा काम नहीं कर पाते,” नौकरशाह ने बताया. “यही वक्त है जब महबूबा को कमान संभाल लेनी चाहिए.” लेकिन यह बदलाव अमल में लाना आसान नहीं होगा, खासकर मौजूदा गठबंधन के मध्यनजर. एक वरिष्ठ पीडीपी नेता ने मुझे बताया, “मोदी का बार-बार खानदानी राज का विरोध करना, महबूबा के रास्ते की अड़चन बन सकता है. वैसे भी पीडीपी का ‘पापा डॉटर पार्टी’ कहकर मजाक उड़ाया जाता रहा है. “चुनावों के दौरान मोदी पहले उन्हें ही बाप-बेटी की सरकार कह चुके हैं. लेकिन उनके साथ गठबंधन कर वे पहले ही समझौता भी कर चुके,” नेता ने कहा. एक अन्य पीडीपी नेता ने बताया उत्तराधिकार के मुद्दे पर, “दिल्ली ने मुफ्ती से पूछा कि क्या इसे लेकर पार्टी में सहमति है.” नेता के मुताबिक, “यह पूछना भर ही मुफ्ती के लिए संदेश था कि पार्टी में सब कुछ सही नहीं चल रहा है.”
जम्मू और कश्मीर की अवाम के लिए एक और बुरी खबर यह है कि नौजावानों में उग्रवाद को लेकर फिर से दिलचस्पी के संकेत मिल रहे हैं. इनमे से कुछ नौजवान उग्रवादी, 2010 के बाद हथियार उठाने के लिए प्रेरित हुए, जब सरकार ने तुफैल मट्टू की मौत का विरोध करने वाले लोगों पर लोगों पर कहर बर्पाया. इस हिंसा में 120 से ज्यादा जाने गईं. पार्टी की सियासती मामलों की कमेटी के एक वरिष्ठ पीडीपी नेता ने बताया कि पीडीपी के दो मंत्रियों, अल्ताफ बुखारी और इमरान रज़ा अंसारी, ने उन्हें बताया था कि उन्होंने 2010 के विरोधों को उन्होंने अपने इलाकों में पैसे से मदद कर हवा दी थी.” बुखारी सरकार में इस वक्त सड़क और इमारत मंत्री हैं और अंसारी, इनफार्मेशन टेक्नोलोजी, तकनीकी ज्ञान, खेलकूद और युवा सेवाओं के मंत्री हैं.
युसूफ जमील ने कहा, “1989 में सभी उग्रवाद में शामिल हो रहे थे. कुछ तो केवल उत्सुकतावश.” लेकिन अब, “लोग सोच समझकर शामिल होते हैं. 2008 और 2010 के विरोधों में शामिल होने वाले नौजवान, उग्रवादियों में शामिल हो चुके हैं. उग्रवाद का चरित्र बदल गया है.”
यहां तक कि पूर्व खुफिया अफसर, ए.एस. दुल्लत भी इस नए उग्रवाद को लेकर आश्चर्य में हैं. “इनमे से कई लड़के, अच्छे परिवारों से ताल्लुक रखते हैं. वे उच्च माध्यम वर्ग से आते हैं और उनमे कई इंजिनियरस हैं,” उन्होंने पिछले साल जुलाई में कहा. “तो वे क्यों इसकी तरफ मुखातिब हैं? यह चिंता का विषय है.”
जिस उग्रवादी ने अपनी तरफ सबसे ज्यादा ध्यान खींचा, वह 21-वर्षीय सोशल मीडिया में दिलचस्पी रखने वाला, खूबसूरत नौजवान और साउथ कश्मीर का हिजबुल मुजाहिद्दीन कमांडर, बुरहान मजफ्फर वानी है. अगस्त में, मैं श्रीनगर से एक घंटे की दूरी पर स्थित तराल नामक नगर में, बुरहान के वालिद मुजफ्फर अहमद वानी से मिलने गया. वे काली-सफेद लंबी दाढ़ी वाले एक खुशमिजाज़ किस्म के इंसान हैं. वानी ने बताया उन्हें उनके बेटे द्वारा चुने गए रास्ते का कोई अफसोस नहीं है. “मुझे उस पर नाज़ है. वह अब अल्लाह का बंदा है. अवाम उसके साथ है. वे दहशतगर्दी को पसंद करते हैं. श्रीनगर में लोग उसकी तस्वीरें लिए घूमते हैं.”
बुरहान के वालिद एक अवकाशप्राप्त सरकारी मुलाजिम हैं, जिन्होंने 1970 के दशक में कांग्रेस का समर्थन किया था. उन्होंने बताया, वे वर्तमान सरकार से बेहद नाखुश हैं. “मुफ्ती बीफ बैन जैसे कदम कभी नहीं उठाते, लेकिन उनके हाथ में अब कुछ नहीं है.” सईद की नाकामयाबी को लेकर उनका फैसला साफ था : “उन्होंने सत्ता के लालच में बीजेपी से हाथ मिलाया. महबूबा उनको कब्र से उठा कर लाईं थीं और अब वे अपनी कब्र खुद खोद रहे हैं.”
जम्मू और कश्मीर में, मैंने जिन लोगों से बात की उनमे इस बात पर सहमति दिखी कि बीजेपी के साथ हाथ मिलाने से मुफ्ती की छवि बहुत धूमिल हुई है. उन्होंने आधी सदी सियासत में गुजार दी. सत्ता पाने के लिए हर किस्म के खेल खेले. हर किस्म के विपक्ष के लोगों से हाथ मिलाया. लेकिन लोगों को उनका यह कदम रास नहीं आया. सईद के करीबी नौकरशाह ने बताया, “मुफ्ती को इस बार मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहिए था.” उन्होंने आगे कहा, लोगों को उनका पिछला वक्त याद था. उनके लिए बेहतर होता अगर “वे 2002 की विरासत आगे ले जाते.” उसके बाद इतिहास में, उनको नेकनामी से याद किया जाता. उनके सियासी जीवन का यह वक्फा उनको जिस कदर बदनाम कर रहा है वैसा पहले कभी नहीं हुआ.”
(द कैरवैन के जनवरी 2016 अंक में प्रकाशित इस रिपोर्ट का अनुवाद राजेन्द्र सिंह नेगी ने किया है.)